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-और म० बुद्ध ]
[१३५ और तप-उपवासका आश्रय लेती है, जिसके सहारे क्रमश आत्मोन्नति करते हुये वह एक रोज कर्मबन्धनोसे पूर्णतः मुक्त हो जाती है । भगवद कुन्दकुन्दाचार्य यही बतलाते हैं."जीवा पुग्गलकाया अण्णोण्णागाढगहणपडिबद्धा। काले विजुज्जमाणा मुहदुक्खं दिन्ति भुञ्जन्ति ॥६७॥"
भावार्थ-आत्मा और कर्मपुद्गल दोनो एक दूसरेसे बारबार सम्बन्धित होते है, किन्तु उचितकालमें वे अलग २ होजाते हैं। वही दुख और सुखको उत्पन्न करते हैं जिनका अनुभव आत्माको करना पडता है।
इस प्रकार मुख्यतः कर्म ही सर्व सांसारिक कार्योका मूल कारण है । जो कुछ एक संसारी आत्मा बोता है, वही वह भोगता है।
और जब कि यह कर्मवद्ध आत्मा ही शेष पाच द्रव्योंके साथ कार्य कर रहा है, तब संसारकी सब क्रियायें इसी कर्मपर अवलम्बित हैं। इस कर्मका प्रभाव सारे लोकमें व्याप्त है और संसारप्रवाह भी इस हीके बलपर चालू है। इसका फल भी अटल है । कभी जाहिराहमें भले ही उसका फल कार्य करता नजर न आता हो, परन्तु तो भी सामान्यतया कर्म निष्फल नहीं जा सकता । संसारमें हम एक पापीको फूलता फलता अवश्य देखते है और एक पुण्यात्माको दुःख उठाते, किन्तु इससे भी यह स्वीकार नहीं किया जा सका कि पापकर्मीका फल पापीको और पुण्यकर्मीका फल पुण्यात्माको नही मिलेगा। जैनाचार्य कहते हैं:
"याहिंसावतोऽपि समृद्धिः अर्हत पूजावतोऽपि दारिद्याप्तिः साऽक्रमेण मागुपात्तस्य पापानुबन्धिनः पुण्यस्य पुण्वानुवन्धिनः