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[ भगवान महावारगब्द, जो बौद्ध धर्ममें शब्दार्थमें व्यवहृत नहीं होते, मूलमें जैन धर्मके हैं।' अस्तु।
दूसरी ओर म० बुद्धके उपदेशके विपरीत भगवान महावीरका सिद्धान्त विवेचन आत्मवादपर आश्रित था। आत्मा उसमें मुख्य मानी गई थी, जैसे हम देखचुके है। भगवानने कहा था कि अनन्तकालसे आत्माका पुद्गलसे सम्बंध है। यद्यपि यह आत्मा -अपने स्वभावमें अनंतदर्शन, अनतज्ञान, अनंतवीर्य और अनंतसुख कर पूर्ण स्वाधीन है, किन्तु इसके उक्त सम्बन्धने इसके असली रूपको मलिन कर दिया है । इसी मलिनताके कारण वह ससारमें अनादिकालसे परिभ्रमण कररही है। इस तरह जो आत्मायें संसार परिभ्रमणमें फंसी हुई है, वे घोर यातनायें और पीड़ायें सहन करती है। उनका यह पौद्भलिक सम्बन्ध उनमे इन्द्रियजनित इच्छाओ
और वाञ्छाओंकी ऐसी जबरदस्त तृष्णा उत्पन्न करता है कि वह दिनरात उसीमें जला करती हैं। उनके साथ इस परिभ्रमणमे एक कार्माणशरीर लगा रहता है, जो पुण्यमई और पापमई कर्मवर्गणाओंका बना हुआ है। इस कार्माण-शरीरमें मन, वचन, कायकी प्रवृत्तिके अनुसार प्रत्येक क्षण नवीन कर्मवर्गणायें आती रहती हैं और साथ ही पुरानी झडती रहती है। ये कर्मवर्गणायें जो आत्मामें आनवित होती हैं वे किसी नियत कालके लिए ही आत्मासे सम्बन्धित होती है । ज्यों ही आत्माको वस्तुस्थितिका भान होता है और उसे भेद विज्ञानकी प्राप्ति होती है, त्यो ही वह सांसारिक कार्यों और झूठे मोहसे ममत्व त्याग देती है। इस दशामें वह आत्म-ध्यान
१. इन्साइक्लोपडिया ऑफ रिलीजन एण्ड इपिक्स भाग पृष्ठ ४.२.