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[ भगवान महावीर
आप साधारण वस्त्रोंको धारण करके एकाकी वनकी एक ओरको चल दिये । इस फिकरमें घरसे निकल पडे कि कोई सच्चे सुखके मार्गका जानकार कामिल पुरुष मिले तो मैं उसके चरणोंकी सेवा करके आर्योंके उत्तम ज्ञानका अधिकारी बनूं । इसही विचारमें निमग्न म० बुद्ध जारहे थे कि पीछेसे इनके पिताके भेजे हुये मनुप्य मिले । उन्होंने म० बुद्धको घर लौट चलनेके लिये बहुत समझाया । परन्तु पिताके अनुरोध और पत्नीकी करुण कातर प्रार्थनायें निरर्थक गई । म० वुद्ध अपने निश्चयमें दृढ़ रहे । वे लोग हताश होकर कपिलवस्तुको लौट गये । '
अगाडी चलकर म० बुद्ध परिव्राजक ब्रह्मचारियोंके आश्रम में पहुचे और वहां साधु आरादकालमकी प्रशंसा सुनकर वह उनके पास चले गए। इन साधुका मत साख्यदर्शन से बहुत कुछ मिलता जुलता था । म० बुद्ध इस मतका अध्ययन कुछ दिवस करते रहे । किंतु अन्तमें उन्हें विश्वास होगया कि "जो कुछ आरादने बतलाया है उससे मेरे हृदयकी संतुष्टि नहीं हो सक्ती है ।"" इसलिये वे वहासे भी प्रस्थान कर गये और ऋषि उद्ररामके पास पहुचे । वहां भी कुछ दिन रहे । उपरात वहांसे भी निराश होकर किसी उत्तम मार्गको पानेकी खोजमे अगाडी चल दिये । आखिरकार वे पवर्त 'क्या -ची' (गया- वापसवन) ने पहुंचे। यहां एक परीपह-जय-वन ( run-Suffering forest ) नामक ग्राम था। यहां पहलेसे पांच भिक्षु मौजूद थे । म० वुद्धने देखा कि ये पांचों भिक्षु अपनी इंद्रियों को पूर्णत वश किये हुये है और उत्तम चारित्रके नियमोंका
१ बुद्ध जीवन (S.BE. XIX.) पृष्ठ १३०... २ पूर्व पृष्ठ १३१