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________________ - -और म० बुद्ध [२६९ रीतिसे सताते थे परंतु वह सब यातनायें चुपचाप सह लेता। इसलिये वह अन्तमें 'अहिसक' नामसे प्रख्यात हुआ। इस दशामे उसने बहुतसी गाथायें कही थी। उनमेंसे एकका अनुवाद इसप्रकार है:“For such a foc pould verily not work me harm, Nor any other creature wheresoever found He would himself attain the peace in ffable, And thus attaning chensh all both bad and good" भावार्थ-'ऐसे शत्रु मुझे कुछ भी हानि नहीं पहुचाते हैं। और न कोई अन्य जीवित प्राणी ऐसा दिखता है जो मुझे हानि पहुंचा सके । वह अपने आप अपूर्व शांतिको प्राप्त करेगा और उसको पाकर वह सबको-दोनो त्रस और स्थावरको अपना लेगा।' इस गाथामे जो भाव और 'तस-थावरे' शब्द व्यवहृत किये गये हैं, वह हमारे उक्त अनुमानको और भी प्रबल कर देते है। त्रस-स्थावर (तस-थावरे) जैन सिद्धान्तके खास शब्द हैं और वे वहां त्रस-चलने फिरनेवाले और स्थावर-एक स्थानपर स्थिर रहनेवाले प्राणियोके लिये व्यवहारमें लाये जाते है । उक्त अनुवादमें जो उनका भाव बुरे-भले प्राणियोसे लिया गया है, वह ठीक नहीं है किन्तु अनुवादक श्रीमती हिसडेविड्स महाशया करतीं भी क्या ? क्योंकि वह फुटनोट द्वारा यथास्थान प्रगट करती है कि बौद्धधर्ममें इस शब्दका यथार्थ भाव नहीं मिलता है । इसका अर्थ अस्पष्ट है। Admittedly a term of doubtful meaning ). इस परिस्थितिमें इस कथाका सम्बन्ध मूलमें जैनधर्मसे होना बहुत कुछ स्पष्ट है। 'अङ्गुलिमाल' जिन शब्दोका प्रयोग करता है वह अपने यथार्थ भावमें
SR No.010165
Book TitleBhagavana Mahavira aur Mahatma Buddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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