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________________ -और म० बुद्ध] [२५५ जो उपरोक्तसे बहुत मिलती-जुलती है । 'सुमागधा-अवदान' में कहा गया है कि "अनार्थापण्डककी पुत्रीके गृहमें बहुतसे नग्नसाधु एकत्रित हुये । इसपर उसने अपनी बहू सुमागधाको उनके दर्शन करनेके लिये बुलाया और कहा, 'ना और उन परमपूज्य मुनियोंके दर्शन कर ।' सुमागधा सारीपुत्त, मौग्गलान सदृश साधुओंको देखनेकी संभावनासे एकदम भगी आई किन्तु जब उसने इन साधुओंको देखा जिनके बाल कबूतरोंके पंख जेसे मिट्टीसे सने हुये थे, और जो देखनेमें राक्षस जैसे थे, वह म्लानमुख हो गई । इसपर उसकी सासने पूछा कि तू उदास क्यों होगई ?' सुमागधाने कहा कि "यदि यही साधु हैं तो फिर पापी कैसे होंगे ?" इसमें जैन साधु ओंका उल्लेख है वे जैनसाधु नहीं हैं, प्रत्युत आजीवक प्रतीत होते हैं किन्तु इससे यह स्पष्ट है कि उस समय नग्नता साधुपनेका एक चिद्र मानी जाती थी । 'धम्मपद' के संपादक महोदयने इस पर एक नोट दिया है और उसमें कहा है कि 'वॉरनफ साहवके मतानुसार जैन साधु ही नग्न होने थे और वुद्ध नग्नताको आवश्यक नहीं समझते थे' यह ठीक है। अन्यत्र गरुढ़ गोस्वामिन्की 'अमावटूर में भी एक जैन उल्लेख मिलता है। वहां कहा गया है कि लिच्छविराजपुत्र सुणक्खत्तने अन्ततः बौद्धसंघसे संबन्ध त्यागकर कोरखत्तियकी शरण ली। उपरान्त उनके निकटसे भी रुष्ट होकर वह जैनमुनि कलारमत्युकके शिष्य हो गये । जैनमुनिके निकट कुछ दिन रहकर वह फिर म० .. बुद्धके पास पहुंच गये । फिर भी म० बुद्धसे असंतुष्ट होकर वह पाटिकपत्र नामक जैनमुनिके निकट आगये। आखिर वह आजी
SR No.010165
Book TitleBhagavana Mahavira aur Mahatma Buddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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