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:-और म० बुद्ध ..
[२४१ होकर अपने धर्मका पाठ करते हैं जिसको सुनकर साधारण जनता उनकी उपासक बनती है । यह नियम भी जैनमुनियोंसे लागू है क्योंकि जब पर्व दिनोंमें श्रावकोके लिये ही यह उपदेश है कि वे मुमुक्षुजनोंको धर्मामृतका पान करावें तो मुनियोके लिए तो इसका अभ्यास करना परमावश्यक होनाता है। तथापि यह उद्धरण भी म० बुद्धके प्रारंभिक जीवनका है जब कि भगवान महावीरका उप-- देश प्रारंभ नहीं हुआ था इसलिए यह नियम भगवान पार्श्वनाथकी शिष्यपरपरामें भी मान्य था यह स्पष्ट है, जैसी कि जैनियोंकी मान्यता है । उपरोक्त उद्धरणोमें अवशेषका भी यही हाल है। दूसरेमें शाक्यपुत्तीय (बौद्ध) समणोके बारेमें कहा गया है कि वे किस तरह वर्षाऋतुमें भी यत्रतत्र विचरण करते है और हरित किलों, वनस्पतिकाय और बहुतसे सुक्ष्मजीवोकी हिसा करते हैं; परंतु तित्थियसपके साधुलोग वर्षाऋतु एक स्थानपर रहकर मनाते है।
इस नियमके बारेमें कुछ कहना ही फिजूल है । चाहे कोई जैनसाधुओको इसका 'अभ्याप्त करते आज देख सक्ता है । अथच इसमें जो हरित, वनस्पतिकाय और सूक्ष्मजीवोंकी हिसाका कारण दिया है वह जैन वर्णनसे विल्कुल ठीक बैठ जाता है। जैनशास्त्र भी वर्षाऋतुमें इन्हीकी हिंसासे बचनेके लिए चतुर्मास एक नियत स्थान पर करनेका उपदेश करते है । अतएव यह स्पष्ट है कि यहां जिन तित्थिय साधुओंका उल्लेख है वह प्राचीन जैनसाधु ही थे । समण संप्रदायमें वे ही इस नियमका पालन पहिलेसे कर
१. रलकरण्ड ( मा० चं० प्र० ) पृष्ठ ७७. २. मूलाचार पृ० ९३-९" और २९०-२९३०