Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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प्रस्तावना
७६
प्रकटन में बाधक है इसलिए उसे पावरण कहा है और भाव-कर्म आत्मा की विभाव अवस्था है इसलिए उसे दोष कहा है। जैन दर्शन ने आवरण और दोष या द्रव्यकर्म
और भाव-कर्म के बीच कार्य-कारण-भाव माना है । भाव-कर्म के होने में द्रव्यकर्म निमित्त है और द्रव्य-कर्म में भाव-कर्म निमित्त है। दोनों का परस्पर बीजांकुर की तरह, कार्य-कारण-भाव सम्बन्ध है । जैसे बीज से वृक्ष और वृक्ष से बीज बनता है, उनमें से किसी को भी पूर्वापर नहीं कहा जा सकता, उसी प्रकार द्रव्य-कर्म और भाव-कर्म में भी पहले कौन है या बाद में कौन है, इसका निर्णय नहीं किया जा सकता । द्रव्य-कर्म की दृष्टि से भाव-कर्म पहले है और भाव-कर्म के लिए द्रव्य-कर्म पहले होगा । वस्तुतः इनमें सन्तति की अपेक्षा से अनादि कार्य-कारण-भाव है।
जैन दृष्टि से द्रव्य-कर्म पुदगल जन्य हैं, इसलिये मृत हैं। कर्म मृत हैं, तो फिर अमूर्त आत्मा पर अपना प्रभाव किस प्रकार डालते हैं ? जैसे वायु और अग्नि अमूर्त आकाश पर अपना प्रभाव नहीं डाल सकती, उसी तरह अमूर्त आत्मा पर मूर्त कर्म का प्रभाव नहीं हो सकता । इस जिज्ञासा का समाधान मूर्धन्य मनीषियों ने इस प्रकार किया है-जैसे अमूर्त ज्ञान आदि गुणों पर मूर्त्त मदिरा आदि नशीली वस्तुओं का प्रभाव पड़ता है वैसे ही अमूर्त जीव पर भी मूर्त्त कर्म का प्रभाव पड़ता है । दूसरी बात यह है कि कर्म के सम्बन्ध से संसारी आत्मा कथंचित् मूर्त भी है । कर्म-सम्बन्ध होने के कारण स्वरूपतः अमूर्त होने पर भी कथंचित् मूर्त होने से उस पर मूर्त कर्म का उपघात, अनुग्रह और प्रभाव पड़ता है। जब तक आत्मा कर्मशरीर के बन्धन से मुक्त नहीं होता तब तक वह कर्म के प्रभाव से मुक्त नहीं हो सकता । दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि मृत शरीर के माध्यम से मूर्त कर्म का प्रभाव पड़ता है। यहाँ यह भी सहज जिज्ञासा हो सकती है कि मूर्त कर्म अमूर्त आत्मा से किस प्रकार सम्बन्धित होते हैं ? इस जिज्ञासा का समाधान इस प्रकार किया गया है कि, जैसे मूर्त घट अमूर्त आकाश के साथ सम्बन्धित होता है वैसे ही मूर्त कर्म अमूर्त आत्मा के साथ सम्बन्धित होते हैं। यह आत्मा और कर्म का सम्बन्ध नीर-क्षीर-वत् होता है । यहाँ पर यह भी जिज्ञासा हो सकती है कि जड़ कर्म परमाणुओं का चेतन के साथ पारस्परिक प्रभाव को माना जाए तो सिद्धावस्था में भी जड़ कर्म शुद्ध आत्मा को प्रभावित करेंगे ? पर, यह बात नहीं है । प्राचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार में लिखा है--स्वर्ण कीचड़ में चिरकाल तक रहता है, तो भी उस पर जंग नहीं लगता, पर लोहा तालाब में भी कुछ समय तक रहे तो जंग लग जाता है, वैसे ही सिद्ध आत्मा स्वर्ण की तरह है, उस पर कर्मों का जंग नहीं लगता। जब तक प्रात्मा कार्मण शरीर से युक्त है, तभी तक उसमें कर्म-वर्गणाओं को ग्रहण करने की शक्ति रहती है । भाव-कर्म से ही द्रव्य-कर्म का प्रास्रव होता है। कर्म और आत्मा का सम्बन्ध आज का नहीं अनादि काल का है । जैन दृष्टि से शुभाशुभ
१. कर्म विपाक भूमिका, पृष्ठ २४
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