Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
अध्यात्मरसिक कवि द्यानतराय ने जीव के भवभ्रमण की पीड़ा को व्यक्त करते हुए लिखा है
हम तो कबहु न निज घर आये ।
पर घर फिरत बहुत दिन बीते, नाम अनेक धराये ।। निज घर हमारा आत्मस्वरूप है और पर घर यह संसार है। अनन्त काल से यह जीवात्मा कर्म के अनुसार विविध योनियों में भटक रहा है । इस भटकन और भ्रमण का कारण कर्म है, जो आत्मा के साथ बंधे हुए हैं, चिपके हुए हैं । यहाँ यह सहज जिज्ञासा हो सकती है कि आत्मा सुख के सर-सब्ज बाग को भी स्वयं ही लगाता है और दुःख के नुकीले कांटे भी वही बोता है, तो फिर इतना दुःख और वैषम्य किस कारण से है ? मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी यदि हम चिन्तन करें कि जब आत्मा सर्वतन्त्र स्वतन्त्र है, तो उसने स्वयं के सुख के लिए अनाचार/भ्रष्टाचार का सेवन कर दुःख के कांटे क्यों बोए ? इस जिज्ञासा का समाधान जैन मनीषियों ने कर्म-सिद्धान्त के द्वारा दिया है । उनका मन्तव्य है कि जीव अपने भाग्य का विधाता स्वयं है, पर वह अनादि काल से कर्म के बन्धनों से आबद्ध है, जिससे वह पूर्ण रूप से स्वतन्त्र और आनन्दमय होने पर भी व्यावहारिक दृष्टि से स्वतन्त्र और प्रानन्दमय नहीं है। जीव जो भी क्रिया करता है, उसका नाम कर्म है । कर्म शब्द विभिन्न अर्थों में व्यवहृत हुआ है। किन्तु, जैन दर्शन में कर्म शब्द का प्रयोग विशेष अर्थ में हुआ है। प्राचार्य देवेन्द्र ने लिखा है कि 'जीव की क्रिया का जो हेतु है, वह कर्म है।' पंडित सुखलाल जी का मन्तव्य है कि 'मिथ्यात्व, कषाय आदि कारणों से जीव के द्वारा जो किया जाता है, वह कर्म है।' इस प्रकार कर्महेतु और क्रिया, दोनों ही कर्म के अन्तर्गत हैं । जैन परम्परा में कर्म के दो पक्ष हैं--राग, द्वेष, कषाय प्रभृति मनोभाव और दूसरा है-कर्म पुद्गल । कर्म पुद्गल क्रिया का साधन निमित्त है और राग-द्वेष आदि क्रिया है। कर्म पुद्गल जो प्रारिण की शारीरिक, मानसिक और वाचिक क्रिया के कारण आत्मा की ओर आकर्षित होकर, उससे अपना सम्बन्ध स्थापित कर कर्म शरीर की रचना करते हैं और समय विशेष के पकने पर अपने फल के रूप में विशेष प्रकार की अनुभूतियां देकर पृथक् हो जाते हैं, उन्हें जैन दर्शन की भाषा में द्रव्य-कर्म कहा गया है । गोम्मटसार में आचार्य नेमीचन्द्र ने लिखा है--पुद्गल पिण्ड 'द्रव्य-कर्म' है और चेतना को प्रभावित करने वाली शक्ति 'भाव-कर्म' है। द्रव्य-कर्म सूक्ष्म कार्माण जाति के परमाणुओं का विकार है और आत्मा उसका निमित्त कारण है। आचार्य विद्यानन्दि ने द्रव्य-कर्म को आवरण और भाव-कर्म को दोष कहा है । क्योंकि, द्रव्य-कर्म प्रात्म-शक्तियों के
१. कर्मविपाक (कर्म ग्रन्थ १) २. दर्शन और चिन्तन, हिन्दी, पृष्ठ २२५
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