Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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प्रस्तावना
इस प्रकार अभिव्यक्त किया है-'शान्ति से क्रोध पर, मृदुता से मान पर, सरलता से माया पर और सन्तोष से लोभ पर विजय-पताका फहराई जा सकती है। इसी सत्य पर तथागत बुद्ध ने और महर्षि व्यास ने भी स्वीकार किया है।
कषायों का नष्ट हो जाना ही भव-भ्रमण का अन्त है, इसीलिये एक जैनाचार्य ने तो स्पष्ट शब्दों में कहा है-'कषायमुक्तिः किल मुक्तिरेब'-कषायों से मुक्त होना ही वास्तविक मुक्ति है। सूत्रकृताङ्ग में स्पष्ट शब्दों में कहा गया है-क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार महादोषों को छोड़ने वाला ही महर्षि, न तो पाप करता है और न करवाता है । तथागत बुद्ध ने कहा कि जो व्यक्ति राग, द्वेष आदि कषायों को बिना छोड़े काषाय वस्त्रों को अर्थात् सन्यास धारण करता है तो वह संयम का अधिकारी नहीं है। संयम का अधिकारी वही होता है, जो कषाय से मुक्त है। जिसके अन्तर्मानस में क्रोध की आँधी पा रही हो, मान के सर्प फूत्कारें मार रहे हों, माया और लोभ के बवण्डर उठ रहे हों, राग और द्वेष का दावानल धू-धू कर सुलग रहा हो, वह साधना का अधिकारी नहीं है; साधना का वही अधिकारी है, जो इन आवेगों से मुक्त है । इसीलिए प्रस्तुत कथानक में यह बताया गया है कि आत्मा, कभी क्रोध के वशीभूत होकर, कभी मान के कारण और कभी माया से प्रभावित होकर, अपने गन्तव्य मार्ग से विस्मृत होती रही है । प्रबल पुरुषार्थ से उसने कषायों पर विजय प्राप्त की, पर उसके बाद भी कभी वेदनीय कर्म ने उसके मार्ग में बाधा उपस्थित की, तो कभी ज्ञानावरणीय कर्म ने उसकी प्रगति में प्रश्नचिह्न उपस्थित किया। उसकी गति में यति होती रही। एक-एक कर्म-शत्रुओं को परास्त कर वह आगे बढ़ा, यहाँ तक कि उसने मोहनीय कर्म की प्रकृतियों का उपशमन कर वीतरागता ही प्राप्त कर ली। किन्तु, पुन: उसका ऐसा पतन हुआ कि ग्याहरवें गुरणस्थान से प्रथम गुणस्थान में पहुंच गया । जहाँ से उसने विकास यात्रा प्रारम्भ की थी, पुनः उसी स्थिति को प्राप्त हो गया। पर, उस आत्मा ने पुरुषार्थ न छोड़ा, 'पुनरपि दधिदधिनी' की उक्ति को चरितार्थ करता रहा।
___ आचार्य सिद्धर्षि गणी ने इन तथ्यों को कथा के माध्यम से प्रस्तुत कर साधकों के लिए पथ प्रदर्शन का कार्य किया है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से प्रत्येक वृत्तियों का सजीव चित्रण हुआ है । प्राचार्य ने विकास में जो भी बाधक तत्त्व हैं, उन सभी को एक-एक कर प्रस्तुत किया है। इस प्रकार यह कथा अपने प्रात्म-विकास की कथा है, जो बहुत ही प्रेरक है और साधक को अन्तनिरीक्षण के लिये उत्प्रेरित करती है।
१. दशवकालिक ८/३६ २. धम्मपद २२३ ३. महाभारत, उद्योग पर्व, ४. सूत्रकृताङ्ग, १/६/२६
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