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मरणकण्डिका - ३२
३७. ध्यान - धर्मध्यान आदि का सविस्तार वर्णन |
३८. लेश्या - लेश्या के लक्षण आदि एवं किस लेश्या में मरण होने पर आराधक किस गति में जाता है? आदि का वर्णन।
३९. फल - आराधनानुसार साध्य की सिद्धि ।
४०. आराधक के शरीर का त्याग - समाधि के बाद आराधक के शरीर का त्याग एवं संघ का कर्तव्य।
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इतने अधिकारों से भक्तप्रत्याख्यानमरण का प्रतिपादन किया जायेगा।
१. अई शिकार अर्ह अर्थात् संन्यासमरण के योग्य कीन है रोगो दुरुत्तरो यस्य, जरा श्रामण्यहारिणी।
तिर्यग्भिर्मानवैर्देवैरुपसर्गाः प्रवर्तिताः॥७३॥ अर्थ - जिसके दुस्साध्य व्याधि हो, या श्रमणता को हानि पहुँचाने वाली वृद्धावस्था आ गई हो या तिर्यचकृत, मनुष्यकृत और देवकृत उपसर्ग हो वह भक्तप्रत्याख्यान सल्लेखना करने के योग्य है ।।७३ ।।
अनुकूलैर्गृहीतो वा, वैरिभिर्वृत्त-हारिभिः ।
योऽटव्यां पतितो घोरे, दुर्भिक्षे च दुरुत्तरे ॥७४॥ अर्थ - अनुकूल अर्थात् बन्धु या मित्र हों या शत्रु हों जो चारित्र का विनाश करने वाले हों, भयंकर दुर्भिक्ष हो अथवा भयंकर जंगल में भटक गया हो तो वह भक्तप्रत्याख्यान के योग्य होता है ।।७४॥
दुर्बलौ यस्य जायते, श्रवणौ चक्षुषी तथा।
विहर्तुं न समर्थो यो, जवाबलविवर्जितः ।।७५ ॥ अर्थ - जिसके कान दुर्बल हो गये हों तथा चक्षु दुर्बल हो गये हों, या विहार करने में जो समर्थ न हो या जिसका जंघाबल हीन हो गया हो॥७५ ॥ ___ प्रश्न - यहाँ कर्ण और चक्षु की दुर्बलता का क्या अभिप्राय है?
उत्तर - अल्पशक्तिवाली और सूक्ष्मवस्तु को न देख सकने वाली चक्षु दुर्बल है तथा शब्द का ज्ञान कराने में असमर्थ कर्ण दुर्बल हैं।
दुर्वारं कारणं यस्य जायतेऽन्यदपीदृशम् ।
भक्तत्यागमृतेर्योग्यः, संयतोऽसंयतोऽपि सः ॥७६ ॥ अर्थ - उपर्युक्त कारणों के सदृश अन्य भी ऐसे दुर्निवार कारण उपस्थित हो जाने पर संयमी, (देशसंयमी) एवं असंयमी भी भक्त-प्रत्याख्यान संन्यासमरण के योग्य होता है ।।७६ ।।