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मरणकण्डिका - ३०
उत्तर - उपयुक्त चालीस अधिकारों में से प्रत्येक के संक्षिप्त लक्षण इस प्रकार हैं
१. अर्ह - अर्ह का अर्ध (लिङ्ग, शिक्षा, विनय, समाधि आदि धारण करने) योग्य है। यह जीव सवीचार भक्तप्रत्याख्यान के योग्य है और यह जीव योग्य नहीं है। यह प्रथम अधिकार है जो कर्ता के व्यापार से सम्बद्ध है।
२. लिंग - लिंग शब्द चिह्न का वाची है। पिच्छिका ग्रहण, निर्ग्रन्थ मुद्रा एवं तैलादि के संस्कार से रहितता इत्यादि। जैसे सर्व सामग्री के एकत्र होने पर घट तैयार होता है उसी प्रकार व्यक्ति योग्य साधन-सामग्री के होने पर सल्लेखनादि करने में समर्थ होता है।
३ शिक्षा - शृत ज्ञान का आगगन । इसमें कहा जायेगा कि जिनवचन कालिमा को दूर करते हैं अतः उन्हें अहर्निश पढ़ना चाहिए।
४. विनय - दर्शन, ज्ञान, चारित्र एवं पंच परमेष्ठी की मर्यादापूर्वक व्यवस्था करमा विनय है। आगे ज्ञान आदि भावना की व्यवस्था ज्ञानादि की बिनय के रूप में करेंगे।
५. समाधि - सम का अर्थ एकीभाव है। शुभोपयोग एवं शुद्धोपयोग में मन की एकाग्रता होना समाधि
६. अनियत विहार - अनियत क्षेत्र में रहना। अथवा यत्र-तत्र विहार करना | ७. परिणाम - यहाँ साधु के द्वारा अपने कर्तव्य की आलोचना को परिणाम कहा गया है। ८. उपधि त्याग - परिग्रह का त्याग । ९. श्रिति - श्रिति का अर्थ सोपान है। अर्थात् शुभ परिणामों की उत्तरोत्तर वृद्धि ।
१०. भावना - अभ्यास या बार-बार प्रवृत्ति करना। या संक्लिष्ट भावना का त्याग और शुभ भावना का ग्रहण।
११. सल्लेखना - कषाय और काय को सम्यक्रोति से कृश करना ।
१२. दिशा - समाधि के इच्छुक आचार्य अपने स्थान पर (आचार्य पद पर) नवीन आचार्य को स्थापित कर कहते हैं कि यह आपको परलोक की दिशा दिखाते हुए मोक्षमार्ग का उपदेश देगा, यह दिशा प्रकरण का विषय है।
१३. क्षमणा - क्षमा ग्रहण करने को क्षमणा कहते हैं। १४. अनुशिष्टि - शास्त्रानुसार शिक्षा देना। १५. परगणचर्या - समाधि के लिए अपने संघ का परित्याग कर दूसरे गण में जाना।
१६. मार्गणा - अपने रत्नत्रय की विशुद्धि अथवा समाधिमरण कराने में समर्थ आचार्य की खोज करना।