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मरणकण्डिका - ३१
१७. सुस्थित - पर के उपकार और अपने प्रयोजन में भली प्रकार स्थित-आचार्य को सुस्थित कहते
१८. उपसर्पण - आचार्य के पास जाना । अर्थात् समाधिमरण कराने में समर्थ आचार्य के चरणों में समर्पण कर देना।
१९. निरूपण या परीक्षा - गण, परिचारक, आराधक, उत्साह शक्ति तथा यह आराधक आहार की अभिलाषा छोड़ने में समर्थ है या नहीं, इन सबकी परीक्षा करना निरूपण या परीक्षा है।
२०. प्रतिलेख - आराधना की सिद्धि बिना बाधा होगी या नहीं ? तथा देश, राज्य, ग्राम, नगर आदि और वहाँ का प्रधान ये सब आराधना के योग्य हैं या नहीं ?
२१. पृच्छा - जब कोई आराधक समाधिमरण के लिए आवे तब आचार्य का अपने संघ से पूछना कि हम इसे स्वीकार करें या नहीं?
२२. एकसंग्रह - परिचारक मुनियों की स्वीकृति मिल जाने पर एक आचार्य एक ही क्षपक को समाधि के लिए संस्तरारूढ़ कराते हैं।
२३. आलोचना - दीक्षाकाल से अद्यावधि लगे हुए दोषों को गुरु के समक्ष कहना। २४. गुणदोष - आलोचना के गुण-दोषों का कथन । २५. शय्या - आराधक के रहने का स्थान अर्थात् वसतिका कैसी हो। २६. संस्तर - तृण, काष्ठ आदि का संस्तर, जिस पर क्षपक लेटता है वह कैसा हो। २७. निर्यापक - आराधक की समाधि में सहायक आचार्य एवं मुनिजन कैसे हों। २८. प्रकाशन - आराधक के सामने अन्तिम आहार का प्रकाशन। २९. हानि - आराधक से क्रमशः आहार-जल का त्याग कराना। ३०. प्रत्याख्यान - तीनों प्रकार के आहार का त्याग करना । ३१. क्षामण - आराधक का आचार्य एवं संघ से क्षमा मांगना । ३२. क्षपणा - क्षपक द्वारा कर्मों की निर्जरा होने का कथन । ३३. अनुशिष्टि - निर्यापकाचार्य का क्षपक को उपदेश देना। ३४. सारणा - दुख से पीड़ित होकर बेहोश हुए आराधक को सचेत करना।
३५. कवच - जैसे कवच में सैकड़ों बाणों से होने वाले प्रहार को रोकने का सामर्थ्य है, वैसे ही निर्यापकाचार्य जो धर्मोपदेश देते हैं वह आराधक को दुखों से बचाता है अत: उसे कवच कहते हैं।
३६. समता - जीवन-मरण, लाभ-हानि, संयोग-वियोग, सुख एवं दुख आदि में राग-द्वेष नहीं करना, समभाव रखना, उपेक्षा बुद्धि रखना।