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स्या
[ पाप-पुण्यकी व्याख्या सत्वात्संजायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च ।
प्रमादमोहौ तमसो भवतोऽज्ञानमेव च ॥ इस नियमके अनुसार द्भिनवर्गम तमोगुणके साथ-साथ नीनों अवस्थाओं तथा पॉचों कोशाके रहते हुए भी विकास केवल क्षीण-सुपुप्ति-अवस्था तथा अन्नमयकोशका ही देखा जाता है। अन्नमयकोशके विकामके कारणही उनके अन्दर हर समय सीधी रेखामे गति बनी हुई है। ध्यान रहे कि गुण, अवस्था कोश कहीं बाहर से इन योनियोंमे प्रवेश नहीं करते, किन्तु प्राकृतिक नियमानुसार अपने अन्दरसे ही इसी प्रकार विकमिन होते जाते हैं, जिस प्रकार चीजमे से कपल, टहनी, फूल व फलादि अपनेअपने समय पर विकसित होते रहते हैं। ___ उद्भिजवर्गसे आगे चलकर जीवभावका विकास स्वेदजयोनि मे होता है । यहाँ उनके अन्दर रजोगुण, स्वप्न-अवस्था और प्राणमयकोशका विकास होने लगता है। उनके भीतर श्वासोच्छ्वासकी क्रिया भी देखनेमे आती है तथा एक स्थानसे दूमरे स्थानमे गति भी पाई जाती है, जोकि उद्लियोनिमें मौजूद न थी। यही प्राणमयकोश, रजोगुण और स्वप्नअवस्थाके विकासका लक्षण है । क्रियाके सिवाय उनमे मनकी अथवा वुद्धिकी कोई चेष्टा नहीं पायी जाती । न वे अपने बच्चों को प्यार करना जानते हैं और न किसी प्रकारको बौद्धिक चेष्टा ही पाई जाती है, केवल जड़ावस्थामे गति तथा प्राणसंचार ही उनके अन्दर मिलता है। स्वेदज-योनिमें अनेक जातिके ऐसे कृमि है जोकि शरीरके अन्दर रक्तशोधन तथा शरीरके अनेक दोष दूर करनेमे सहायक हैं, इस लिये साधारणतया स्वेदजयोनिमे रजोगुणका किंचित् विकाम होते हुएभी उनको सत्वगुणप्रधान कहा जा सकता है ।
स्वेट जयोनि से आगे जीवभावका त्रिकाम अएडजयोनिमै