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आत्मविलास]
[२० होते हुए भी जातिभेढसे वट, पीपल आदिमें सत्वगुणकी अधिकता होती है।
'अश्वत्यः सर्ववृक्षाणाम्' गी० अ० १०, २६ । अर्थात् 'सर्च वृत्तोंमें पीपल मेरी ही विभूति है। सत्वगुणके विकसके कारण ही ऐमा भगवान्ने कहा है । गुणोंके विकासके साथ साथ ही पचकोश तथा तीन अवस्थावोंका भी विकास होता जाता है। जिस प्रकार तीनो गुण प्रत्येक पदार्थमे विद्यमान हैं, उसी प्रकार पंचकोश तथा तीनों अवस्थाओका सम्बन्ध भी प्रत्येक पदार्थ तथा प्रत्येक योनिसे बना रहता है. केवल क्रम-क्रम से उनका विकास गुणाके साथ-साथ होता रहता है। तीन
वस्थाओंमें सुपुप्ति-श्रवस्या तमोगुणी, स्वप्न-अवस्था रजोगुणी और जाग्रत् अवस्था सत्त्वगुणी होती है। तमोगुणके लक्षण जड़ता. बालस्य. प्रमाद और अज्ञान हैं जोकि सुपुनि अन्यामे मिलते हैं। रजोगुणके लक्षण चंचलता. इच्छा एव तृप्णा आदि हैं, जारि स्वप्न अवस्थामे मिलते है । सत्त्वगुणके लक्षण दिकाव, प्रकाश, शाति और ज्ञान है, जोकि जाग्रत-अवस्थामे पाये जाते है। जैसा चीता अ०१४ लोक १७ मे कहा गया है.
१.पंचकोश नाम- असमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय । स्थूल शरीर जो मनले सन्बन्धसे घटता-ठता है मन्त्रमयकोश' कहा जाता है । प्राग व पर्नेन्द्रियों को प्राणमयकोश' कहते है। पंचज्ञाने. न्द्रियों व मन 'मनोमयकोश' है। पंचज्ञानेन्द्रियाँ व बुदि विज्ञानमयकोश' है। जहाँ इदि का पूर्ण विशस होकर सुख को इच्छा प्रज्वलित हो पाती है यह 'भानन्दमयकोश है। कोशनाम खा के नाना है। जिस प्रकार सन्यान से ढकी रहती है इसी प्रकार सारमा इन कोशों मेरका हुआ है।