Book Title: Trishashtishalakapurushcharitammahakavyam Parva 5 6 7
Author(s): Hemchandracharya, Ramnikvijay Gani
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यविरचितं त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् (पञ्चम-षष्ठ-सप्तमपर्वाणि) सम्पादक : स्व. पं. श्रीरमणीकविजयजी गणि विजयशीलचन्द्रसूरि श्री हेमचन्द्राचार्य प्रकाशक : कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति शिक्षण-संस्कारनिधि, अमदावाद. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यविरचितं त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् (पञ्चम-षष्ठ-सप्तमपर्वाणि) सम्पादकौ: स्व. पं.श्रीरमणीकविजयजी गणि विजयशीलचन्द्रसूरि MORE श्रीहेमचन्द्राचार्य प्रकाशक: कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति शिक्षण संस्कारनिधि, अमदावाद ई.२००१ वि.सं. २०५७ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् (पञ्चम-षष्ठ-सप्तमपर्वात्मकः तृतीयो विभागः) सम्पादकौ: स्व. पं.श्रीरमणीकविजयजी गणि विजयशीलचन्द्रसूरि प्रकाशक : कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति शिक्षण संस्कारनिधि, अमदावाद प्रतय: ५०० वि.सं. २०५७ ई. २००१ सर्वेऽधिकारा: प्रकाशकायत्ता: प्राप्तिस्थान : (१) आ. श्रीविजयनेमिसूरि-जैनस्वाध्यायमन्दिर १२, भगतबाग, जैननगर शेठ आणंदजी कल्याणजी पेढीनी जोडे अमदावाद - ३८०००७ (२) सरस्वती पुस्तक भण्डार ११२, हाथीखाना, रतनपोळ अमदावाद - ३८०००१ मूल्य : रू. मुद्रक : मनन टाईप सेटर्स दिलीप आई, पटेल ८७६, त्रीजो वास, नारणपुरा गाम, अमदावाद. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक संघना समर्थ सुकानी, वात्सल्य अने करुणाना महासागर, परमदयालु आचार्य भगवंत श्रीविजयनन्दनसूरीश्वरजी - महाराजनी महामंगलरूप पुण्यस्मृतिमां...... -शीलचन्द्रविजय Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकनुं निवेदन कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यनी नवमी जन्मशताब्दी ( संवत् २०४५) ना पुनित उपलक्ष्यमां, पूज्य आचार्य श्रीविजयसूर्योदयसूरीश्वरजी महाराजनी शुभ भावना तथा प्रेरणा अनुसार आवेला आ ट्रस्ट तरफथी श्रीहेमचन्द्राचार्ये रचेला त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित -महाकाव्यनो त्रीजो भाग प्रगट करतां अमो अनहद आनंद अनुभवीए छीए. अगाउ, सं.२०४६मां आ ग्रन्थना प्रथम तथा द्वितीय भागोनुं प्रकाशन आ संस्थाए कर्तुं हतुं. त्यार पछीना भागोनुं संपादन पू. आचार्य श्रीविजयशीलचन्द्रसूरिजी करी रह्या हता. ते पैकी पंचम षष्ठ अने सप्तम पर्वात्मक त्रीजा भागनुं प्रकाशन आजे थई रह्युं छे. आग्रन्थनुं संपादन करी आपवा बदल तथा तेना प्रकाशननो लाभ अमने आपवा बदल पू. आचार्यश्रीना अमो ऋणी छीए. आशा छे के बाकीना भागोनुं पण तेओश्री सत्वरे संपादन करी आपे, जेथी तेनुं पण प्रकाशन अमो करीए . आ ग्रन्थनुं सरस मुद्रण करावी आपवा बदल अमदावादना श्रीसरस्वती पुस्तक भण्डारना संचालकोना अमो खूब आभारी छीए. आ ग्रन्थना प्रकाशन माटे अमदावादनी श्रीजैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक बोर्डिंग - संस्था तरफथी घणो आर्थिक सहयोग प्राप्त थयो छे, जे माटे ते संस्थाना अमो ऋणी रहीशुं. लि. कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति शिक्षण संस्कारनिधिनो ट्रस्टीगण For Private Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादकीय 'त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित' ए श्रीहेमचन्द्राचार्य, एक उत्तम कक्षानुं महाकाव्य छे, जे लगभग छत्रीश हजार श्लोकोमा पथरायेलुंछे. आ महाकाव्य- अध्ययन सैकाओथी जैन संघमां अविरतपणे चाली रह्यं छे. आजे पण साधु-साध्वीसमुदायमां तेनुं पठन-पाठन चालु ज छे. आ महाकाव्यनी अनेक आवृत्तिओ अगाउप्रगट थई चुकी छे, एटलुंज नहि, पण तेना गुजराती, हिन्दी तेमज अंग्रेजी अनुवादो पण थया छे अने छपाया छे.. आम छतां, आ महाकाव्यनी समीक्षित अने संशोधित वाचना अद्यावधि छपाई नथी. आ दिशामां सौथी प्रथम काम स्व. मुनि श्रीचरणविजयजीए आदरेखें, अने आ महाकाव्यना प्रथम पर्वनी शुद्ध वाचना तैयार करेली. ते पछी द्वितीय-तृतीयचतर्थ एमत्रण पर्वोनी वाचना स्व. आगमप्रभाकर मुनि श्रीपुण्यविजयजीए तैयार करी हती. आ पछीनां पर्वोनी वाचना तैयार करवानुं कार्य स्व. पंन्यास श्रीरमणीकविजयजी गणिए करेलुं, जे अद्यावधि अप्रकाशित हतुं. आ अप्रकाशित फाइलो प्रत्ये मारुं ध्यान जतां मने थयु के आ कार्य करवू जोईए. तरत ज ते कार्य हाथ पर लीधुं. अवलोकन करतां लाग्युं के पं.श्रीरमणीकविजयजीए जे हस्तप्रतिओना आधारे वाचना तैयार करी छे, ते उपरांत पण केटलीक महत्त्वपूर्ण प्रतिओछे, जेनो उपयोग थाय तो वाचना वधारे समीक्षित थई शके. एटले एरीते में प्रयत्न आरंभ्यो, जेनुं परिणाम प्रस्तुत पुस्तक छे. प्रस्तुत पुस्तकमां पांचमुं, छटुं अने सातमु एम त्रण पर्वोनो समावेश थयो छे. आ पर्वोना संपादनमां पं. श्रीरमणीकविजयजीए निम्ननिर्दिष्ट संज्ञावाळी प्रतिओनो उपयोग कर्यो जणाय छे. पर्व ५, सं., छा., वा.१-२, दे., ता. पर्व ६, प्र., हे., पा. पर्व ७, कां., मो., छा., हे., ता., पा. आनी सामे मारा द्वारा उपयोगमा लेवायेली प्रतोनी संज्ञा आ प्रमाणे छे: खंता.१-२(खंभात ताडपत्र भंडार), पाता.(पाटण-हेमचन्द्राचार्य भंडारनी ताडपत्र प्रति), ला.(ला.द.विद्यामन्दिर, अमदावादनी कागळनी प्रति) उपरांत मुद्रित प्रति तो खरीज (म.संज्ञा). आमां खंता. संज्ञक प्रतिओ विशेष प्राचीन अने शुद्ध होवाथी तेमाथी घणा श्रेष्ठ तथा शुद्ध पाठ मळी शक्या छे. आम आ पुस्तक, बे हाथे रंधायेली रसोई जेवू थयुं छे. ते केटलुं उत्तम छे अथवा नथी, तेनो निर्णय तो सुज्ञजनो पर ज छोडवो हितावह गणाय. आसंपादन माटेजे-तेभण्डारोना कार्यवाहकोए पोताना त्यांनी प्रतिओ के तेनी झेरोक्स कॉपीनो उपयोग करवानी संमति आपी छे, ते बदल तेमनो आभार मानु छु. प्रस्तुत ग्रन्थना कार्यमां मुनिश्रीकल्याणकीर्तिविजयजीए खूब सहाय करी छे, जे अनुमोदनीय छे. बाकीना भागोनुं संपादन पण हाथ पर लीधेलुंज छे. श्री देव-गुरु-धर्मना पसाये ते वेलासर परिपूर्ण थाय तेवी भावना. -शीलचन्द्रविजय ज्ञानपंचमी,२०५७ भावनगर Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितस्य पञ्चम-षष्ठ-सप्तमपर्वणां विषयानुक्रमणिका॥ पञ्चमं पर्व प्रथम: सर्ग: २९ विषयः पृष्ठम् श्रीशान्तिनाथभगवंत: पूर्वभवेषु प्रथमभवे श्रीषेणराजस्य वर्णनम् १ श्रीषेणपत्न्यो: अभिनन्दिता-शिखिनन्दितयोः पुत्रयोश्च इन्दुषेणबिन्दुषेणयोर्वर्णनम् कपिल-सत्यभामावृत्तान्तः श्रीषेणपुत्रयोरिन्दुषेण-बिन्दुषेणयोर्वेश्याकृते युद्धम् पुत्रयुद्धनिवारणेऽशक्तस्य श्रीषेणराजस्य तत्पत्न्यो: सत्यभामायाश्चाऽऽत्मघात: युगलित्वेन चोत्पत्ति: मणिकुण्डलिविद्याधरेण युद्धवारणं पूर्वभवकथनं च इन्दुषेण-बिन्दुषेणयोः प्रतिबोध: दीक्षा मोक्षश्च युग्मधर्मिणां श्रीषेणादीनां देवत्वप्राप्ति: अर्ककीर्तिराजगृहे श्रीषणजीवस्य अमिततेजस्त्वेन सत्यभामाजीवस्य च सुतारात्वेनोत्पत्तिः । त्रिपृष्ठवासुदेवगृहेऽभिनन्दिताजीवस्य श्रीविजयत्वेन शिखिनन्दिताजीवस्य च ज्योतिष्प्रभात्वेनोत्पत्ति: कपिलस्य चमरचञ्चायां अशनिघोषनामविद्याधरराजत्वेनोत्पत्ति:६ अमिततेजो-ज्योतिष्प्रभयोः श्रीविजय-सुतारयोश्च विवाहः ६ देशनाश्रवणेन विरक्तस्याऽर्ककीर्तेर्दीक्षाऽमिततेजसश्च राज्याभिषेक: अमिततेजस: श्रीविजयदर्शनाय पोतनपुरे आगमनं श्रीविजयेन नैमित्तिकसंदर्शितापाय-तन्निवारणादिवृत्तान्तकथनं च अशनिघोषेण सुताराहरणम् अमिततेजस: साहाय्येन अशनिघोषपराजयः १०-१२ बलदेवमुनेरचलस्य केवलज्ञानं, देशना, पूर्वजन्मादिकथनं च १२-१४ अशनिघोषस्य दीक्षा श्रीविजयामिततेजसोर्विविधधर्मानुष्ठानानि १५-१६ नन्दनवनं गतयोः श्रीविजयामिततेजसोश्चारणमुनियुगलसकाशात् देशनाश्रवणं, दीक्षाग्रहणं, प्राणतविमाने उत्पातश्च द्वितीयः सर्गः विषयः पृष्ठम् चेट्योर्नाटकं प्रेक्षमाणाभ्यां विष्णु-बलाभ्यां नारदावज्ञा तेन च दमितारिनृपप्रेरणम् दमितारिनृपेण चेटीमार्गणं, विष्णु-बलयोश्च प्रज्ञप्त्यादिविद्या: स्वयंसिद्धा: १९-२० चेटीरूपाभ्यां विष्णु-बलाभ्यां दमितारये नाटकदर्शनं तत्कन्याया: कनकश्रियश्च हरणम् २०-२३ दमितारिणा युद्धं तद्वधश्च २३-२४ मेरुपर्वते कीर्तिधरमुनेर्देशनाश्रवणं कनकश्रीपृच्छायां च पूर्वभवकथनं च २४-२६ कनकश्रियो वैराग्यं स्वयम्प्रभजिनान्ते दीक्षा मोक्षश्च २७ बलदेवपुत्र्या: सुमतेर्वृत्तान्त: २७-२९ आयु:क्षये विष्णोः प्रथमनरके उत्पत्ति: बलदेवस्य दीक्षा अच्युतेन्द्रत्वं च नरकानिःसृतस्याऽनन्तवीर्यजीवस्य विद्याधरत्वं अच्युतेन्द्रेण प्रतिबोध: दीक्षा अच्युते उत्पातश्च २९-३० तृतीयः सर्गः रत्नसञ्चयायां क्षेमङ्करनृपगृहे बलजीवस्य वज्रायुधत्वेन जन्म विष्णुजीवस्य तत्पुत्रत्वेन जन्म सहस्रायुध इति नाम च । ईशानेन्द्रश्लाघामसहमानेन देवेन वज्रायुधस्य परीक्षा ततः प्रतिबोधश्च ३१-३२ दमितारिजीवदेवेन वज्रायुधस्योपसर्गकरणं, तदनु इन्द्रेणाऽर्चा च ३२-३३ वज्रायुधस्य राज्याभिषेकः,क्षेमङ्करस्य दीक्षा केवलज्ञानं तीर्थकृत्त्वं च वज्रायुधस्य चक्रित्वम् ३३ वज्रायुधसभायां विद्याधरत्रयवृत्तान्त: ३३-३५ सहस्रायुधपुत्रकनकशक्तिवृत्तान्त: ३५-३७ वज्रायुधस्य जिनान्तिके दीक्षा सिद्धिपर्वते वार्षिकी प्रतिमा च ३७ अश्वग्रीवसुतजीवदेवाभ्यां कृत उपसर्ग: इन्द्राणीभिश्च वारणम् सहस्रायुधदीक्षा, वज्रायुध-सहस्रायुधयोर्मेलनं च ईषत्प्राग्भारे तयोरनशनं ग्रैवेयके उत्पत्तिश्च चतुर्थः सर्गः ८ ३३ रमणीयविजये शुभानगर्यां स्तिमितसागरनृपगृहे अमिततेजस: बलदेवत्वेन श्रीविजयस्य च वासुदेवत्वेन उत्पत्तिः, अपराजित: अनन्तवीर्य इति तयो मनी स्तिमितसागरनृपदीक्षा चमरेन्द्रत्वेनोत्पातश्च विष्णु-बलयोर्विद्यासाधनम् पुण्डरीकिण्यां घनरथराजगृहे वज्रायुध-सहस्रायुधयोर्जन्म तयोर्मेघरथ-दृढरथ इति नामस्थापना Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठम् ५२ ५२-५३ ५३-५४ ५४ ५४ ५४-५५ ५५-५९ विषयः पृष्ठम् विवाहार्थं गतयो: सुरेन्द्रदत्तेन युद्धं जयश्च ३९-४० परिणयनं पुत्रादिपरिवारश्च ४०-४१ कुक्कुटयुद्धं घनरथेन तत्पूर्वजन्मकथनं च ४१-४२ मेघरथेन तयोविद्याधराधिष्ठितत्वकथनं तत्पूर्वजन्मवर्णनं च। ४२-४४ कुक्कुटयोरनशनं भूतनायकत्वेनोत्पत्तिर्मेघरथाय च पृथ्वीदर्शनम् ४४ मेघरथस्य राज्ये दृढरथस्य च यौवराज्येऽभिषेक: धनरथस्य दीक्षा कैवल्यं तीर्थकृत्त्वं च मेघरथस्य उद्यानगमनं, तत्र भूतैः सङ्गीतकरणं तत्सम्बन्धिनी कथा च ४५-४६ पौषधव्रतिन: मेघरथस्य दयापालने श्येन-पारापतवृत्तान्तः पूर्वभववर्णनं च ४६-४८ प्रतिमास्थस्य मेघरथस्य ईशानेन्द्रमहिषीकृता परीक्षा पराजयश्च ४९ मेघरथस्य दृढरथस्य च धनरथजिनान्ते दीक्षा सर्वार्थसिद्धगमनं च ४९-५० पञ्चमः सर्गः हस्तिनापुरे विश्वसेननृपगृहे अचिरादेवीकुक्षौ मेघरथजीवस्य समवतारः चतुर्दश महास्वप्नाः ५१-५२ विषयः प्रभोर्जन्म दिक्कुमारीभिः सूतिकाकर्मकरणम् इन्द्रादिभिः कृतो जन्मोत्सवः राज्ञा प्रभोः शान्तिरिति नाम स्थापनम् यौवने परिणय: राज्यप्राप्तिश्च प्रभोः पट्टमहिष्या यशोमत्याः कुक्षौ दृढरथजीवस्य अवतरणं चक्रायुध इति च तन्नामकरणम् चक्ररत्नस्योत्पत्ति: षट्खण्डसाधना च लोकान्तिकदेवकृता विज्ञप्ति: प्रभोर्वार्षिकदानं दीक्षा केवलज्ञानं च प्रथमसमवसरणे कृता देशना चक्रायुधस्य दीक्षा गणधरत्वेन च स्थापना प्रभोर्यक्ष-यक्षिण्योवर्णनं पृथ्व्यां विहरणं च हस्तिनापुरे आगमनं राजपृच्छायां च तद्वृत्तान्तकथनम् प्रभोः परिवारवर्णनम् सम्मेताद्रावनशनं निर्वाणं च चक्रायुधस्याऽपि कोटिशिलायां निर्वाणम् ६३-६८ षष्ठं पर्व प्रथमः सर्गः पृष्ठम् ७६ पृष्ठम् ७१ ७६-७७ विषयः श्रीकुन्थुनाथप्रभोः पूर्वजन्मचरितम् हास्तिनपुरे शूरनृपगृहे श्रीकुक्षौ प्रभोरवतरणम् चतुर्दशस्वप्नावलोकनम् प्रभोर्जन्म दिक्कुमारीभिः सूतिकर्मकरणं इन्द्रादिभिश्च जन्मोत्सवकरणम् प्रभोः कुन्थु इति नामस्थापनम् यौवने परिणय: राज्यप्राप्तिश्च चक्ररत्नोत्पत्ति: षट्खण्डसाधनं चक्रित्वाभिषेकश्च वार्षिकदानं दीक्षा मन:पर्ययज्ञानोत्पत्तिश्च च पारणं सहस्राम्रवणे कैवल्यप्राप्तिश्च समवसरणरचना स्तुतिः प्रथमदेशना गणधरस्थापना च यक्ष-यक्षिण्यो: परिवारस्य च वर्णनम् सम्मेताचलेऽनशनं निर्वाणं च विषय: प्रभो: अर इति नामस्थापनम् यौवने परिणय: राज्यप्राप्तिश्च चक्ररत्नोत्पत्तिः षट्खण्डसाधनं च वार्षिकदानं दीक्षा मन:पर्ययज्ञानोत्पत्तिश्च च पारणं सहस्राम्रवणे कैवल्यप्राप्तिश्च समवसरणरचना स्तुतिः प्रथमदेशना गणधरस्थापना च यक्ष-यक्षिण्योर्वर्णनम् विहारे पद्मिनीखण्डपत्तने आगमनम् प्रभुदेशना तदनु गणधरदेशना च सागरदत्तश्रेष्ठिना कुम्भगणधराय निजदुहितृकथाकथनं तत्पतिवीरभद्रविषयकपृच्छनं च गणधरभगवता कथितोऽखिलोऽपि वीरभद्रवृत्तान्त: सुव्रतागणिन्या अरजिनेश्वराय वीरभद्रस्य पूर्वभवपृच्छा भगवता तत्कथनं च वीरभद्रस्य दीक्षा देवत्वप्राप्तिश्च प्रभो: परिवारवर्णनम् सम्मेताचलेऽनशनं निर्वाणं च तृतीयः सर्गः . बल-विष्णो: आनन्द-पुरुषपुण्डरीकयोः प्रतिविष्णोश्च बले: पूर्वभववर्णनम् वैताढ्येऽरिञ्जयपुरे बलेर्जन्मादि ७२-७३ ७८-७९ ७९-८६ ७४ ८६-८७ द्वितीयः सर्गः ८७ श्रीअरनाथप्रभोः पूर्वजन्मचरितम् हास्तिनपुरे सुदर्शननृपगृहे देवीकुक्षौ प्रभोरवतरणम् चतुर्दशस्वप्नावलोकनम् प्रभोर्जन्म दिकुमारीभिः सूतिकर्मकरणं इन्द्रादिभिश्च जन्मोत्सवकरणम् ७६ ८८ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयः दक्षिणार्धभरते चक्रपुरे आनन्द- पुरुषपुण्डरीकयोर्जन्मादि पद्मावतीकन्याकृते विष्णु प्रतिविष्णोर्युद्धं बलश्च मरणम् पुण्डरीकस्य दिग्जयः मृत्वा षष्ठ नरकपृथ्वीगमनम् आनन्दस्य वैराग्येण दीक्षा मोक्षश्च सुभूमचक्रवर्तिनः पूर्वभवसम्बन्धः जमदग्निवृत्तान्त: परशुरामस्योत्पत्तिः पितृमातरेण पृथ्व्याः सकृत्वो निः त्रियायाःकरणम् तापसाश्रमे सुभूमस्य जन्मादि सुभूमकृत: परशुरामवध: वैरेण च एकविंशतिवारं पृथ्व्या निर्ब्राह्मणत्वकरणम् षट्खण्डसाधना मृत्वा सप्तमनरकगमनम् चतुर्थः सर्गः पञ्चमः सर्गः नन्दन दत्त-प्रह्लादानां बल-विष्णु प्रतिविष्णुनां पूर्वजन्मकथनम् वैताढ्ये सिंहपुरे प्रह्लादस्य जन्मादि वाराणस्यां दत्त - नन्दनयोर्जन्मादि गजहेतुकं विष्णु प्रतिविष्योर्युद्धं प्रह्लादधच दत्तस्य दिग्जयः मृत्वा पञ्चमनरकगमनम् नन्दनस्य दीक्षा मोक्षश्च षष्ठः सर्गः मल्ल्या कारिता निजसुवर्णप्रतिमा तस्यां चाहारप्रक्षेपः पभिर्निजनृपाणां वर्णनं कन्यायाचनं च कुम्भराजेन सर्वेषां सतिरस्कार निष्कासनम् क्रुद्धः पथिलारोपः हैमप्रतिमापिधानापनयनद्वारा मल्ल्या षण्णामपि प्रतिबोधकरणं पूर्वभवकथनादि च लोकान्तिकदेवप्रार्थनया वार्षिकदानं दीक्षा च मन:पर्ययोत्पत्तिस्तत्रैव च दिने कैवल्योत्पत्तिच समवसरणं] इन्द्र कुम्भकृता स्तुतिर्देशना च पृष्ठम् ८८ ८९ ८९ ८९ ८९ ९० ९०-९१ ९२ ९२ ९२ ९३ ९३ ९३ मल्लिनाथप्रभोः पूर्वजन्मसम्बन्धः मिथिलापुर्यां कुम्भनृपतिगृहे प्रभावतीकुक्षी प्रभोः स्त्रीगर्भतयाऽवतरणम् प्रभोजन्म देवकृत्यानि च नामस्थापना षण्णां पूर्वभवमित्रजीवराज्ञां पुरतः विविधप्रसङ्गेषु मलिकुमार्या वर्णनं तैश्च तस्याः वरणाय दूतप्रेषणम् ९४ ९४ ९४ ९४-९५ ९५ ९५ ९५ ९६ ៩ ៩៩ ९७-१०० १०० १०० - १०१ १०१ १०१ १०१-१०२ १०२ १०२ १०२-१०३ III विषय: षण्णां नृपाणां दीक्षा शासनदेवतयोः प्रभोः परिवारस्यवर्णनम् सम्मेताद्रावनशनं निर्वाणं च सप्तमः सर्गः मुनिसुव्रतप्रभोः पूर्वजन्मसम्बन्धः हरिवंशोत्पत्तिः राजगृहे नगरे सुमित्रनृपगृहे पद्मावतीकुक्षौ प्रभोरवतरणम् प्रधोर्जन्म देवकृत्यानि च नामस्थापना यौवने प्रभावतीप्रभृतिभिः परिणयः सुव्रतनाम्नः पुत्रस्य उत्पत्तिः प्रभो राज्याभिषेकः लोकान्तिकदेवप्रार्थनया वार्षिकदानं सुव्रताय च राज्यदानम् दीक्षा ब्रह्मदत्तनृपगेहे पारणं च नीलगुहोद्याने कैवल्यं समवसरणं च शक्र - सुव्रतकृतास्तुतिः प्रथमदेशना गणधरस्थापना च शासनदेवतयोर्वर्णनम् भृगुकच्छे गमनं अचप्रतिबोधः तत्पूर्वभवकथनं च कार्तिकश्रेष्ठिवृत्तान्तः प्रभोः परिवारस्य वर्णनम् सम्मेतशैलेऽनशनं निर्वाणं च अष्टमः सर्गः नमुचिना प्राक्निक्षिप्तवरयाचनं मुनिपराभवकरणं च विष्णुकुमाराह्वानं तेन च नमुचिबोधनम् विफले बोधने क्रुद्धेन विष्णुकुमारेण शरीरवर्धनम् देवादिभिः सचेन महापद्येन च तस्य कोपोपशमनम् त्रिपद्या त्रिविक्रमनामोत्पत्तिः विष्णुकुमारस्य मोक्षः महापद्यचक्रिणः पूर्वभवसम्बन्धः ११३ ११३ ११३-११४ ११४ ११४ हास्तिनपुरे पद्मोत्तरनृगृहे विष्णुकुमार महापद्ययोर्जन्मादि उज्जयिन्यां सुव्रताचार्यशिष्यकृतो नमुचिपराभवः नमुचेर्हस्तिनापुरगमनं महापद्येन च तस्य स्वसचिवकरणम् नमुचिपराक्रमं दृष्ट्वा महापद्मप्रदत्तो वरः मातृदुःखेन महापदस्य नगरानिष्क्रमणम् विविधकन्यकाभिः परिणयः चक्रित्वं च हस्तिनापुरे प्रतिनिवर्तनं तदा च सुव्रताचार्यस्याऽऽगमनम् देशनाश्रवणेन पद्मोत्तरनृप्रतिबोध: विष्णुकुमारेण सह दीक्षा च ११६-११७ ११४ ११४-११६ ११६ पद्मोत्तरमुनेः कैवल्योत्परियक्षच विष्णुकुमारस्य लब्धिमत्ता सुव्रताचार्यस्य हस्तिनापुरे चातुर्मासीस्थिरता महापद्मस्य दीक्षा मोक्षश्च अस्मिन् पर्वणि वर्णितानां चतुर्दशशलाकापुरुषाणां गणना पृष्ठम् १०३ १०४ १०४ १०५ १०५ - १०८ १०९ १०९ १०९ १०९ १०९ १०९ १०९ १०९ ११० ११० ११०-१११ १११ १११ ११२ ११२ ११२ ११७ ११७ ११७ ११७ ११८ ११८ ११८-११९ ११९ ११९ ११९ ११९ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IV सप्तमं पर्व १४२ १२६ प्रथमः सर्गः विषयः पृष्ठम् विषयः पृष्ठम् वालिकृतां शिक्षामनुभूय रावणेन क्षमायाचनं वालिस्तवनं च १३४-१३५ रक्ष:कुलवर्णनम् १२१ अष्टापदोपरि रावणस्य भक्तिः वानरकुलस्योत्पत्तिः १२१-१२२ तुष्टेन धरणेन्द्रेण दत्ताऽमोघविजयाशक्ती रूपविकारिणीविद्या च १३५ वानर-राक्षसानां वैरं मुनिना तत्कारणकथनं च १२२-१२३ वालिमुनेः कैवल्यं मोक्षश्च १३५ स्वयंवरे श्रीमालया किष्किन्धिवरणं ततश्च क्रुद्धेनाऽशनिवेगपुत्रेण । सुग्रीवस्य तारया विवाह: अगद-जयानन्दयोर्जन्म च १३५ विजयसिंहेन युद्धकरणं अन्धकेन तद्बधश्च १२३ ईीया साहसगते: शेमुषीविद्यासाधनम् १३५-१३६ अशनिवेग-किष्किन्ध्योर्युद्धं पराजयेन च सुकेश-किष्किन्ध्यो: रावणस्य दिग्यात्रा पाताललङ्कायां पलायनम् १२३-१२४ रेवातीरे जलक्रीडया क्रीडता सहस्रांशुना युद्धं जयश्च १३६-१३७ अशनिवेगेन लङ्काराज्ये निर्घातस्य स्थापनम् १२४ सहस्रांशोर्दीक्षा तज्ज्ञात्वा च अनरण्यनृपस्याऽपि दीक्षा १३८ सुकेशस्य माल्यादयस्त्रय: किष्किन्धेश्च आदित्यरजः नारदविज्ञप्तेन रावणेन कृतः क्रतुनिषेध: १३८ ऋक्षरज इति द्वौ पुत्रौ १२४ पशुवधात्मकयज्ञसम्भववृत्तान्तप्रसङ्गे नारदकथितं निजवृत्तं १३८-१४० किष्किन्धिना मधुपर्वते किष्किन्धपुरवासनम् १२४ महाकालासुरकथा १४१ माल्यादिभिः लङ्काराज्यस्य पुनर्ग्रहणम् १२४ शाण्डिल्यरूपधारिणा महाकालासुरेण पर्वतस्य सहायता. इन्द्रजन्म विद्याधरसाधनं दिक्पालस्थापनं च १२४ सर्वत्र हिंसामययज्ञकारिता च १४१-१४२ इन्द्र-माल्योर्युद्धं मालिवधः सुमालिनश्च पाताललङ्कायां रावणकथितो नारदपरिचयः पलायनम् १२४-१२५ रावणस्य मथुरागमनं हरिवाहन-मध्वोः परिचय: सम्बन्धश्च १४२-१४३ इन्द्रेण लङ्काराज्यस्य वैश्रवणाय दानम् १२५ नलकूबरेण युद्धं जयश्च १४३-१४४ सुमालिपुत्रस्य रत्नश्रवस: कैकस्या विवाह: १२५ इन्द्रेण युद्धं जयश्च १४४-१४६ कैकसीकुक्षे रावणजन्म हारप्रसङ्गेन च दशमुखइतिनामकरणम् १२५-१२६ निर्वाणसङ्गममुनिकथित पूर्वभववृत्तान्त: इन्द्रस्य दीक्षा च १४६ कुम्भकर्ण-चन्द्रणखा-बिभीषणानां जन्म रावणस्य अनन्तवीर्यमुनिवन्दनाय गमनं देशनाश्रवणं च । १४६ द्वितीयः सर्गः देशनान्ते परस्त्रीनिमित्तकं निजमृत्युं ज्ञात्वाऽभिग्रहग्रहणम् १४६-१४७ विमानारूढवैश्रवणदर्शनेन मात्रा ज्ञातवृत्तान्तानां तृतीयः सर्गः दशमुखादीनां विद्यासाधनम् १२७ वैताढ्ये प्रह्लाद-महेन्द्रनृपाभ्यां निजपुत्र-पुत्र्यो: अनादृतदेवकृतोपसर्गेऽपि तेषां निश्चलत्वं विद्याप्राप्तिश्च १२८-१२९ पवनञ्जयाञ्जनयोर्विवाहनिर्णयनम् अनादृतदेवेन क्षमायाचनं स्वयम्प्रभनगरनिर्माणं च १२९ रात्रौ सखीभिः सहाऽञ्जनाया वार्तालापस्य श्रवणात् क्रुद्धन स्वजनानामागमनं रावणस्य चन्द्रहासखासाधना च १२९ पवनञ्जयेनाऽञ्जनायास्तिरस्कारः १४८-१४९ रावणस्य मन्दोदर्या अन्याभिश्च कन्याभिः परिणय: १२९ वरुणेन सह युध्यमानेन रावणेन सहायार्थ प्रह्लादाय दूतप्रेषणम् १४९ कुम्भकर्ण-बिभीषणयोर्विवाहः पितरं निषिध्य पवनञ्जयस्य तत्र गमनाय पत्न्यास्तिरस्कारपूर्व इन्द्रजिन्मेघवाहनयोर्जन्म १३० प्रयाणम् १४९-१५० वैश्रवणेन सह युद्धं, तस्य पराजय: दीक्षा च १३० रात्रौ मानसतीरे वियोगिनी चक्रवाकी दृष्ट्वा प्रत्यागतस्य सम्मेताद्रावर्हत्प्रतिमावन्दनार्थं गतस्य रावणस्य पवनस्याऽञ्जनया सह समागमोऽङ्गुलीयकदानं च १५०-१५१ भुवनालङ्कारहस्तिन: प्राप्तिः १३१ श्वश्र्वा केतुमत्या गर्भवत्या अञ्जनाया निष्कासनम् १५१ यमेन आदित्यरज:-ऋक्षरजसो: कारानिक्षेपं श्रुत्वा रावणस्य पितृगृहादपि सख्यन्वितायास्तस्या निष्कासनम् १५२ तेन सह युद्धं तस्य पलायनं च १३१ अरण्ये चारणमुनिदर्शनं तस्मै च सख्या वृत्तान्तकथनं पृच्छा च १५२ यमस्य इन्द्रशरणगमनं तेन च तस्मै सुरसुन्दरपुरदानम् १३१-१३२ मुनिना गर्भस्थजीवस्याउञ्जनायाश्च पूर्वभवस्य कथनमाश्वासनं आदित्यरजस: वालि-सुग्रीवौ पुत्रौ श्रीप्रभेति पुत्री च जिनधर्मे च स्थापनम् १५२-१५३ ऋक्षरजसश्च नल-नीलौ पुत्रौ १३२ मणिचूलगन्धर्वेण सिंहात् तयोस्त्राणम् १५३ वालिने राज्यं दत्त्वा आदिरजस: दीक्षा १३२ पर्वतगुहायां सुतजन्म अञ्जनायाश्च रुदनं श्रुत्वा खरेण कृतं चन्द्रणखा हरणं पाताललकासाधनं च १३२ प्रतिसूर्यविद्याधरागमनं तेन च तेषां स्वनगरे नयनम् १५३-१५४ विराधोत्पत्तिः १३२ विमानाद् बालस्य पतनं तेन च पर्वतचूर्णनम् १५४ वालिना रावणसेवकत्वे निषिद्धे तयोर्युद्धं वालिजयो दीक्षा च १३२-१३४ ।। हनुपुरे हनुमान् इति नामस्थापनम् १५४ अष्टापदे प्रतिमास्थस्य वालिन: रावणकृतोपसर्गः १३४ पवनसाहाय्येन वरुणस्य रावणेन सह सन्धिः १४८ १५४ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६१ विषयः पृष्ठम् विषयः पृष्ठम् गृहागतस्य पवनस्याऽञ्जनावृत्तश्रवणेन लक्ष्मणेनाऽपि तयोरनुसरणम् १७१-१७२ तच्छोधनमग्निप्रवेशप्रतिज्ञा च १५४-१५५ नृप-सामन्त-नगरजनैर्बहु प्रार्थितस्याऽपि रामस्याऽनिवर्तनम् १७२ प्रह्लादेन पवनस्याऽग्निप्रवेशवारणं सेवकैश्चाऽञ्जनान्वेषणम् ___ कैकेय्या शोचनम् १७३ प्रह्लादसेवकैः पवनप्रतिज्ञा ज्ञात्वा समातुलाया अञ्जनाया सभरताया कैकेय्या रामानयने वनगमनं तत्र च रामेण तत्र गमनं पवनेन सह मेलनं च । १५५-१५६ सीतानीतजलैस्तस्य राज्याभिषेक: १७३ हनूमतो यौवनप्राप्ति: वरुणसाधने रावणसहायतया च गमनम् १५६ सत्यभूतिमुनेः पार्श्वे दशरथस्य दीक्षा १७३ युद्धे हनुमत्साहाय्येन रावणजय: विविधकन्याभिश्च परिणयः १५६ _पञ्चमः सर्गः चतुर्थः सर्गः उद्वसदेशदर्शनेन रामपृच्छायां नरकथितः वज्रबाहु-उदयसुन्दरवृत्तान्तः १५८ सिंहोदर-वज्रकर्णवृत्तान्त: १७४-१७५ सुकोशलवृत्तान्तः १५९-१६० रामादेशप्राप्तेन लक्ष्मणेन सिंहोदरसाधनम् नघुषवृत्तान्त: १६० सिंहोदरस्य वज्रकर्णेन सह सन्धिः सोदासवृत्तान्तः १६०-१६१ कूबरपुरे कल्याणमालाख्यातो वालिखिल्यवृत्तान्त: १७६ रघुपर्यन्ता सिंहरथपरम्परा १६१ स्त्रीवेषधारित्वहेतुकथनं लक्ष्मणेन सह विवाहनिर्णयनं च १७६ तदनु अनरण्यो राजा अनन्तरथ-दशरथौ पुत्रौ १६१ म्लेच्छेभ्यो वालिखिल्यमोचनं म्लेच्छराजस्य वृत्तान्तश्च १७७ सहस्रांशुदीक्षां ज्ञात्वाऽनन्तरथसहितस्याऽनरण्यस्य दीक्षा १६१ अरुणग्रामे ब्राह्मणवृत्तान्तः १७७ बालस्य दशरथस्य राज्याभिषेक: १६१ वर्षाकाले निवासार्थ यक्षेण रामपुरीनिर्माणम् १७८ यौवनेऽपराजिता-सुमित्रा-सुप्रभाभिः परिणय: १६१ ब्राह्मणाय दानं तस्य दीक्षा च १७८ जानकीनिमित्तं दशरथपुत्रेण रावणमृत्युरिति ज्ञात्वा बिभीषणस्य विजयपुरे वनमालावृत्तान्त: १७९ दशरथ-जनकमारणाय प्रस्थानम् अतिवीर्यनृपेण स्त्रीवेषधारिणां रामादीनां युद्धं तत्साधनं च १७९-१८० नारदद्वारैतज्ज्ञात्वा मन्त्रिभियुक्त्या तयोस्त्राणम् १६२ वनमालया लक्ष्मणस्य शपथग्राहणम् १८०-१८१ कैकेय्या सह विवाहप्रसङ्गे प्रवृत्ते युद्धे दशरथेन तस्यै वरदानं क्षेमाञ्जलिपुर्यां शत्रुदमनपरीक्षां पारयितुर्लक्ष्मणस्य तया च तन्न्यास: १६२-१६३ जितपद्यया विवाह: १८१ राम-लक्ष्मण-भरत-शत्रुघ्नानां जन्मादि १६३-१६४ वंशस्थले जनानां भयवारणं मुनिद्वयस्य च कैवल्योत्पत्तिः १८१ भामण्डल-सीतयो: पूर्वजन्मानि १६४-१६५ रामपृष्टे उपसर्गकारणे मुनिकथितो निजवृत्तान्तः १८१-१८३ मिथिलायां जनकगृहे विदेहाकुक्षेर्भामण्डल-सीतयोर्युगपजन्म १६५ महालोचनदेवस्य उपकारकरणेच्छा १८३ जातमात्रस्य बालस्य पूर्ववैरिदेवेनाऽपहार: नन्दनवने मोचनं च १६५ दण्डकारण्ये जटायुर्वृत्तान्तस्तत्सम्बन्धे च सुगुप्तर्षिकथितः चन्द्रगतिविद्याधरेण तस्य नयनं भामण्डल इति नामस्थापना च १६५ स्कन्दकमुनिवृत्तान्तः १८३-१८४ मिथिलायां हाहाकारो राज्ञा पुत्रशोधनं पुत्र्याश्च सीतेति नाम १६५ सूर्यहाससाधनाव्यापृते खर-चन्द्रणखापुत्रे शम्बूके सीताया यौवनप्राप्ति: राज्ञा वरान्वेषणं च १६५ लक्ष्मणेनाऽज्ञानात् तद्धः १८५ मिथिलोपरि म्लेच्छाक्रमणं दूतद्वारा दशरथसहाययाचनं च १६५-१६६ चन्द्रणखाया आगमनं राम-लक्ष्मणयोर्विवाहप्रार्थनं ताभ्यां सानुजस्य रामस्य युद्धाय गमनं जयः जनकेन सीतादानं च १६६ कृतो निषेधश्च १८५ सीतारूपं द्रष्टुमागतस्य नारदस्य भीतया सीतया निष्कासनम् १६६ रुष्टया तया खरादिभ्यः पुत्रवधकथनं तेषां च युद्धार्थमागमनम् १८५-१८६ रुष्टेन नारदेन तत्प्रतिकाराय युक्त्या भामण्डलप्रेरणम् १६६-१६७ रावणाने चन्द्रणखया कृतं सीतारूपवर्णनम् १८६ चन्द्रगतिना जनकात् सीतायाचनं धनुरारोपणपरीक्षा च १६७ रावणस्य दण्डकारण्यगमनं विद्यया सिंहनादकरणेन सीतापहरणं धनुषं सज्यं कृत्वा रामस्य परीक्षापारगमनं सीतया विवाहश्च १६८ तनिवारकजटायु:पक्षच्छेदश्च लक्ष्मण-भरतयोविविधकन्याभिः सह विवाह: १६८ सीताविलापश्रवणेन तत्त्राणायाऽऽगतस्य रत्नजटिनो वृद्धकञ्चुकिनं दृष्ट्वा दशरथस्य वैराग्यम् १६८-१६९ विद्यानाशनं तस्य कम्बुशैलेऽवस्थानं च १८७ सत्यभूतिमुनिना भामण्डल-सीतयोः सम्बन्धकथनं रावणेन सीताप्रार्थनं सीताया आक्रोशोऽनशनाभिग्रहश्च भामण्डलबोधनं च चन्द्रगतेर्दीक्षा षष्ठः सर्गः दशरथपृष्टेन मुनिना तत्पूर्वभवकथनम् १६९-१७० सहायार्थमागतस्य रामस्य लक्ष्मणेन पुन: प्रेषणम् दशरथस्य दीक्षेच्छा तच्छ्रुत्वा भरतस्या प्रविव्रजिषा १७० स्वस्थाने सीताया अदर्शनेन रामस्य मूर्छा १८८ कैकेय्या न्यासीकृतस्य वरस्य याचने भरताय राज्यस्य याचनम् १७० लब्धचेतनेन रामेण मुमूर्षुजटायुर्दर्शनं तस्मै नमस्कारदानं च १८८ भरतेन राज्यादानाय निषेधनम् १७०-१७१ मृतस्य जटायुषो देवत्वम् १८८ रामस्य वनवासार्थं निर्गमनं सीतायाश्चाऽपि पत्यनुयानम् १७१ सीताशुद्ध्यै रामस्याऽटव्यामटनम् १८६ १८७ १६९ १६९ १८८ १८८ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयः युद्धे लक्ष्मणकृतत्रिशिरसो यथः विराधस्य लक्ष्मणसहायार्थमागमनं लक्ष्मणेन च तस्य पाताललङ्काराज्ये स्थापनम् युद्धे खर-दूषणयोर्वधः विलपतो रामस्य मूर्च्छनं लक्ष्मणागमेन शुद्धिश्च विराधसेवकैः सीताशोधनं निष्फलता च पाताललङ्कायां सुन्देन सह विराधयुद्धं, रामे आगते सुन्दपलायनं, विराधस्य च राज्याभिषेकः साहसगतिना प्रतारणीविद्यासाधनं सुग्रीवरूपं धृत्वा तदन्तःपुरप्रवेशनं च १८९ सत्य-विटसुग्रीवयोर्युद्धे विटसुग्रीवेण सत्यसुग्रीवस्य कुट्टनम् १९० सुग्रीवेण रामसाहाय्ययाचनम् रामकृतधनुष्टङ्कारेण रूपान्तरकरी विद्यापलायनं, साहसगते ही केन १९०-१९१ बाणेन वधः १९१ १९१ पृष्ठम् १८८ रावणसुताऽक्षकुमारेण युद्धं तपश्च इन्द्रजिता युद्धं हनूमतो बन्धनं च रावणपार्श्वे गमनं द्वयोः संवादश्च १८८ १८९ १८९ १८९ रावणपार्श्वे चन्द्रणखाविलापः रावणदत्तमाश्वासनं च रावणप्रेतिया मन्दोदय सीतानुनयनं सीताकृतस्ततिरस्कारश्च १९१-१९२ रावणकृतेयुपसर्गेष्वपि सीताया निश्चलत्वम् विभीषणया सीतया निजपरिचयदानम् रावणप्रतिबोधने बिभीषणस्य नैष्फल्यम् मन्त्रिभिर्बिभीषणस्य मन्त्रणा युद्धार्थं प्रगुणना च सीताशुद्ध्यर्थं कम्बुद्वीपमागतस्य सुग्रीवस्य रत्नजटिद्वारा सीताशुद्धिः लां गत्वा रावणेन सह युयुत्सोर्लक्ष्मणस्य सामर्थ्यपरीक्षणं पारगमनं च साभिज्ञानदानं हनूमतो दूतत्वेन लङ्काप्रेषणम् रावणवचसा कुद्धेन हनूमता नागपाशत्रोटनं पादघातेन रावणमुकुटभञ्जनं पादप्रहारे १८९ १९४ १९४ गच्छता हनूमता महेन्द्रपुरि मातामह मातुलाभ्यां युद्धं जयश्च १९५ दधिमुखद्वीपे कन्याप्रवृतान्तः हनूमता आशालिकाविद्यापराभवनं लङ्काप्राकारभञ्जनं च वप्रारक्षवज्रमुखस्य नाशनं तत्कन्यया लङ्कासुन्दर्या च युद्धम् लसुन्दर्या कथितो निजवृतान्तस्तया च सह हनुमतो विवाह १९६ बिभीषणासदनं गत्वा हनूमता तस्मै निजागमनकथनम् सीतापाचे गत्वा रामाङ्गुलीयकपातनम् प्रसन्नां सीतां रावणेन मन्दोदरीप्रेषणं सीताकृततिरस्कार १९८ हनूमता सीतायै रामसन्देशकथनमभिज्ञानरूपेण च तच्चूडामणेरादानम् १९७ १९७ हनूमता कृतं देवरमणोद्यानभवादितुमुलम् १९२ १९२ १९२-१९३ १९३ १९३-१९४ १९५ १९५-१९६ १९६ १९८ १९८-१९९ १९९ १९९ १९९ २०० सप्तमः सर्गः रामादीनां लङ्काविजयाय प्रयाणं मार्गे विविधनृपाणां पराभवश्च २०१ लङ्कासमीपस्थे हंसद्वीपे तेषामष्टौ दिनानि वास: २०१ रामागमनं ज्ञात्वा लङ्कायां रावणादीनां युद्धाय सज्जीभवनम् २०१ VI विषयः बिभीषणेन सीतामोक्षाय रावणस्य बोधनं क्रुद्धेन च रावणेन तस्य निर्वासनम् बिभीषणस्य रामशरणगमनम् रावणसैन्यवर्णनम् द्वयोः सैन्यानां युद्धम् युद्धर्वणनम् रावणस्य रणप्रवेशः हनुमतो रणकुशलता चिन्तातुराभ्यां राम-लक्ष्मणाभ्यां महालोचनदेवस्मरणम् देवदतानि विविधायुधानि सुग्रीवताडितस्य कुम्भकर्णस्य मूर्च्छनम् २०५ इन्द्रजन्मेघवाहनाभ्यां नागपाशेन सुग्रीव भामण्डलयोर्बन्धनम् २०५ कुम्भकर्णताडितस्य हनुमतो मूच्च २०५ बिभीषणस्याऽऽगमनेन "पूज्यैः साकं न योद्धव्य” मिति विचार्य इन्द्रजिन्मेघवाहनयोः पलायनम् लक्ष्मणस्य वाहनं गरुडं प्रेक्ष्य नागपाशतः पन्नगानां पलायनम् सीतामोचनार्थं बिभीषणस्य रावणाय निवेदनं क्रुद्धेन रावणेन कुतस्ततिरस्कारश्च रामादिष्टैर्भामण्डलाद्यैर्भरतद्वारा विशल्यानयनम् विशल्यास्पर्शेन लक्ष्मणदेहतः शक्तिनिर्गमनं द्वयोर्विवाह लक्ष्मणोज्जीवनवृत्तं श्रुत्वा रावणेन बन्धुवर्गविमोचनार्थं दूतप्रेषणं रामेण कृता तदवज्ञा च रावणस्य शान्तिनाथचैत्ये बहुरूपाविद्यासाधनम् अङ्गदकृतोपसर्गेऽपि रावणस्य निश्चलत्वम् रावणेन सीतानुनयनं तया चाऽनशनाभिग्रहणं रावणस्य पश्चात्तापश्च युद्धे बहुरूपाविद्यायाः सहायेऽपि विधुरतायां रावणेन चक्रमोचनम् तेनैव चक्रेण लक्ष्मणकृतो रावणवधः रावणस्य चतुर्थनरकगमनम् पृष्ठम् द्वयोर्युद्धम् लक्ष्मणेनेन्द्रजितो रामेण च कुम्भकर्णस्य नागपाशद्वारा बन्धनं स्वशिबिरे नयनं च क्रोध-शोकाकुलेन रावणेन शक्तिप्रक्षेपणं तेन च लक्ष्मणस्य मूर्च्छनम् क्रुद्धस्य रामस्य रावणेन सह युद्धं रावणस्य च लङ्कागमनम् रामस्य विलापः सुग्रीवादिभिश्च प्रतिबोधनम् सौमित्रेः प्रतिजागरणोपायस्य चिन्तनम् लक्ष्मणव्यतिकरश्रवणेन सीताया विलापः विद्याधर्या आश्वासनं च २०८ रावणस्य हर्ष शोकसमाकुलता २०८ विद्याधरोक्को विशल्यास्नपनोदकसेचनरूपो लक्ष्मणत्राणोपायः २०८ २०९ २०९ २०९-२१० अष्टमः सर्गः राक्षसानां रामशरणगमनम् बिभीषण- मन्दोदर्यादीनां विलापो रामादिभिश्च तद्बोधनम् २०१-२०२ २०२ २०२ २०३ २०३ २०३ २०४ २०६ २०६ २०६ २०६ २०६ २०६ २०७ २०७ २०७ २०७ २०७ २१० २१०-२११ २११ २११ २११-२१२ २१२ २१२ २१३ २१३ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VII २१४ २१५ २२६ २१७ विषयः पृष्ठम् कुम्भकर्णादीनां मोचनं तैश्च रावणासंस्करणम् २१३ अप्रमेयबलमुनेरिन्द्रजिदादीनां पूर्वभवव्यतिकरश्रवणम् २१३-२१४ कुम्भकर्णादीनां दीक्षा २१४ सीतामेलनम् २१४ बिभीषणस्य राज्याभिषेक: राम-लक्ष्मणाभ्यां पूर्वप्रतिपन्नकन्यानां पाणिग्रहणम् २१४ इन्द्रजिन्मेघवाहनकुम्भकर्णानां मोक्षः २१४-२१५ दुःखार्ताभ्यां राम-लक्ष्मणमातृभ्यां नारदाय स्वदुःखनिवेदनम् २१५ लङ्कां गतेन नारदेन रामाय मातृदुःखस्य कथनम् २१५ रामस्याऽयोध्यागमनोत्साहः २१५ बिभीषणेनाऽयोध्याया नवीकरणम् नारदेन राममातृभ्यो रामागमनकथनम् २१५ रामादीनां पुष्पकद्वाराऽयोध्यागमनं मातृ-भ्रात्रादिभिश्च मेलनम् २१५-२१६ अयोध्यायां महोत्सव: २१६ भरतस्य दीक्षेच्छा भुवनालङ्कारहस्तिवृत्तान्तश्च २१६ मुनिकथितो भरतस्य हस्तिनश्च पूर्ववृत्तान्त: २१६-२१७ भरतस्य कैकेय्याश्च दीक्षा मोक्षश्च २१७ राम-लक्ष्मणयोर्बलदेवत्व-वासुदेवत्वाभिषेक: रामेण बिभीषणादिभ्यो राज्यवितरणम् २१७ शत्रुघ्नस्य मथुराराज्येच्छा युक्तिपूर्व च मथुरेशस्य मधोः पराभवो वधश्च २१७-२१८ मित्रवधं श्रुत्वा चमरेन्द्रेण शत्रुघ्नप्रजानां पीडनम् २१८ शत्रुघ्नस्य मथुराया आग्रहित्वे मुनिकथितो पूर्वभववृत्तान्त: २१८-२१९ जङ्घाचारणमहर्षीणां वृत्तं चमरेन्द्रकृतपीडाशमनोपायश्च महर्षीणां प्रभावतो देवकृतरोगादीनां शान्तिः २१९ राम-लक्ष्मणयो: पट्टमहिष्यादि: परिवार: सीतायाः स्वप्नदर्शनं गर्भधारणं च सपत्नीभिरीjया सीतावञ्चनपूर्वं सर्वत्र तद्दोषप्रकाशनम् २२० वसन्तौ सीतादोहदः पूरणं च २२० दक्षिणचक्षुःस्फुरणमशुभकल्पना च २२० प्रधाननागरिकै रामाय सीतादूषितत्वनिवेदनं रामस्य स्वीकृतिश्च २२१ रामस्य निशाभ्रमणं जनवादश्रवणं च २२१ रामेण कृतान्तवदनसेनान्यै कृता सीतात्यागस्याऽऽज्ञा २२१ कृतान्तवदनेन यात्राव्याजेन नीतायाः सीताया अरण्ये मोचनम् २२२ अरण्यमोचनकारणं श्रुत्वा सीताया मूर्छा २२२ कृतान्तवदनाय रामकृते सीताप्रदत्त: सन्देश: नवमः सर्गः २२७ विषयः पृष्ठम् यौवने लवणस्य विविधकन्याभिः परिणय: २२४ अङ्कुशविवाहनिमित्तं पृथुनृपेण युद्धं तत्पराभवस्तत्पुत्र्याऽङ्कुशस्य विवाहश्च २२४ वज्रजजेन नारदद्वारा लवणाङ्कुशयोवंशज्ञापनम् २२४ लवणाङ्कुशाभ्यां विविधदेशसाधनम् लवणाङ्कुशयोरयोध्यां प्रति प्रयाणम् २२५ सेनाभिरयोध्यापुरीरोधनम् रामलक्ष्मणयोः साश्चर्यं युद्धार्थ गमनम् २२५ ज्ञातसीतावृत्तान्तस्य भामण्डलस्य सीतापाचँ गमनम् २२५ सीतातो यामेयद्वयप्रवृत्तिं ज्ञात्वा ससीतं स्कन्धावारगमनम् २२६ भामण्डलेन सुग्रीवादिभ्य: सीतावृत्तान्तकथनं तेषां च सीतापार्थे आगमनम् २२६ लवणाङ्कुशाभ्यां रामसैन्यविद्रावणं रामलक्ष्मणयोर्युद्धायाऽऽह्वानं च २२६ युद्धे रामस्य वैधुर्यम् अङ्कुशबाणाहतस्य लक्ष्मणस्य मूर्छा २२७ लक्ष्मणेनाऽङ्कुशोपरि चक्रमोचनं चक्रस्य च सप्रदक्षिणं प्रतिनिवर्त्तनम् २२७ रामलक्ष्मणयोर्विषादो नारदेन च पुत्रद्वयवृत्तान्तकथनम् २२७ लवणाङ्कुशयो रामलक्ष्मणाभ्यां सङ्गमः प्रणतिश्च २२७ सीतायाः पुण्डरीकपुरगमनं सपुत्रस्य च रामस्याऽयोध्याप्रवेश: २२७ सुग्रीवाद्यै रामाय सीताया आनयनाथ निवेदनम् रामस्य सीताशुद्ध्यर्थं दिव्यकरणस्याऽऽग्रहः २२७ नगराद् बहिर्मण्डपरचना २२८ सुग्रीवाद्यैः सीतानयनम् २२८ सीतया दिव्यपञ्चकस्वीकरणं रामस्य चाऽग्निप्रवेशाज्ञा २२८ अयोध्याबहिर्भागे जयभूषणमुनेः कैवल्योत्पत्तिरिन्द्रादीनां चाऽऽगमनम् २२८ सीतासान्निध्यार्थं इन्द्रस्य स्वसेनापतये आज्ञा २२८ रामपश्चात्ताप: सत्यापनापूर्वं च सीताया अग्निप्रवेश: २२८-२२९ सीताशीलप्रभावादग्निविध्यापनं गर्तस्य जलापूर्णवापीत्वम् । रामेण नगणवेशाय सीतानुनयनं तस्या निषेध: दीक्षेच्छा च २२९ सीताकृतो स्वकेशलोच: रामस्य च मूर्छा केवलिहस्तेन सीताया दीक्षा २२९ दशमः सर्गः रामस्य सीतासम्बन्धिनी विह्वलता लक्ष्मणेनाऽऽश्वासनं च २३० केवलिनो देशनान्ते रामस्य निजभव्यत्वे प्रश्न: २३० केवलिना तस्य तद्भवमोक्षगामित्व कथनम् २३० बिभीषणेन स्वस्य रावणादीनां च पूर्वभववृत्तान्तपृच्छनं केवलिना कथनं च २३०-२३२ कृतान्तवदनस्य दीक्षा रामादीनां सीतायै वन्दनम् २३२ कृतान्तवदनस्य ब्रह्मलोके उत्पत्ति: सीतायाश्च अच्युतेन्द्रत्वम् २३२ वैताढ्ये विवाहप्रसने लक्ष्मणपुत्राणां लवणाङ्कुशयोरुपरि द्वेषः लवणाङ्कुशाभ्यां तद्बोधनं लज्जितानां च तेषां दीक्षा २३२-२३३ २१९ २२० २२० ० ० २२९ २२२ २२३ २२३ २२३ २३२ अरण्ये सीतया महासैन्यदर्शनम् वज्रजङ्घनृपाय निजवृत्तान्तकथनम् नृपेण तस्याः सवगृहे नयनम् कृतान्तवदनमुखात् सीतासन्देशं श्रुत्वा रामस्य विलाप: सीतागवेषणं च सीताया अप्राप्तौ तां मृतां मत्वा तत्प्रेतकार्यकरणम् सीताकुक्षेरनालवण-मदनाङ्कुशयोर्जन्म सिद्धार्थसिद्धपुत्रकद्वारा लवणाङ्कुशयो: कलाग्राहणम् २२३ २२३-२२४ २२४ २२४ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयः भामण्डलस्य मरणं युग्मित्वेन जन्म च हनूमतो दीक्षा मोक्षश्च २३३ २३३ सौधर्मेन्द्रेण रामस्याऽध्यवसितस्य भ्रातृस्नेहस्य चाऽऽलोचनम् २३३ देवद्वयेन स्नेहविषये लक्ष्मणस्य परीक्षणं लक्ष्मणमृतिश्च मृते लक्ष्मणे लवनाशयोदशा मोक्ष रामस्याऽसमञ्जसचेष्टितम् २३३-२३४ २३४ इन्द्रजित्पुत्राणामयोध्यावस्कन्दो देवानां रामगृह्यत्वं दृष्ट्वा भयं संवेगो दीक्षा च जटायुः कृतान्तवदनदेवाभ्यां रामप्रतिबोधनम् लक्ष्मणदेहस्य मृतकार्यकरणम् राम- शत्रुघ्नयोर्दीक्षा - रामस्यैकाकिविहारित्वेऽवधिज्ञानोत्पत्तिः निजस्य लक्ष्मणस्य च पूर्वभवस्य चिन्तनम् स्पन्दनस्थलपुरे भिक्षार्थं प्रविष्टेन रामेण पुरक्षोभं रा वनवासाभिग्रहग्रहणम एकादश: सर्ग: नमिनाथ भगवतः पूर्वजन्मसम्बन्धः मिथिलाया विजयनृपस्य वप्राराज्ञयाश्च वर्णनम् वप्राकुक्षी प्रभोरवतरणम् पृष्ठम् २३३ सीतेन्द्रकृत उपसर्गों रामस्य च निश्चलत्वम् रामस्य केवलज्ञानोत्पत्तिः सीतेन्द्रादिभिः कृतो महिमा च देशनान्ते सीतेन्द्रेण रावण-लक्ष्मणयोर्गतिविषयके प्रश्ने पृष्टे रामेण तयोः सीतायाश्च मोक्षपर्यन्तानां गतीनां कथनम् सीतेन्द्रेण नरकभूमिं गत्वा रावण-लक्ष्मण शम्बूकानां प्रतिबोधनं देवकुरौ च गत्वा भामण्डलजीवस्य प्रतिबोधनम् २३७ रामस्य मोक्षः २३७ २३४ २३४-२३५ २३५ २३५ २३५ २३५ २३५ २३६ २३६ VIII २३६-२३७ २३८ २३८ २३८ विषय: प्रभोर्जन्म दिक्कुमारीभिः सूतिकर्मकरणम् इन्द्रादिकृतो जन्मोत्सव: इन्दकृता स्तुतिश्च विजयनृपकृतो जन्मोत्सव: नामस्थापनम् यौवने पाणिग्रहणं राज्याभिषेकश्च लोकान्तिकदेवविज्ञप्तस्य प्रभोर्वार्षिकदानं दीक्षा च मन:पर्ययज्ञानोत्पत्तिः पारणं च नवमासानन्तरं सहस्राम्रवणे कैवल्योत्पत्तिः समवसरणरचना इन्द्रकृता स्तुतिश्च प्रभोः प्रथमदेशना गणधरस्थापना च शासनदेवतयोः प्रभोः परिवारस्य च वर्णनम् सम्मेताद्रावनशनं निर्वाणं च द्वादशः सर्गः हरिषेणचक्रिणः पूर्वभवसम्बन्धः काम्पीयनगरे महाहरिनृपगृहे मेरा हरिषेणजन्म यौवने राज्यं चक्ररत्नोत्पत्तिः षट्खण्डसाधना च वैराग्यं दीक्षा मोक्षश्च त्रयोदशः सर्गः जयचक्रिणः पूर्वभवसम्बन्धः राजगृहे विजयनृपगृहे वप्राकुक्षेर्जयस्य जन्म यौवने राज्यं चक्ररत्नोत्पत्तिः षट्खण्डसाधना च वैराग्यं दीक्षा मोक्षश्च अस्मिन् पर्वणि वर्णितानां षट्शताकापुरुषाणां गणना पृथम् २३८ २३८ २३८-२३९ २३९ २३९ २३९ २३९ २३९ २३९ २३९-२४० २४० २४१ २४२ २४२ २४२ २४२-२४३ २४४ २४४ २४४ २४४- २४५ २४५ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥अर्हम्॥ ॥ॐ भगवतेऽर्हते शान्तिजिनाय नमो नमः।। ॥नम: प्रथमानुयोगप्रणेतृभ्यः श्रीकालकार्येभ्यः।। कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविनिर्मितं त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ॥श्रीशान्तिनाथचरितप्रतिबद्धं पञ्चमं पर्व ॥ ॥प्रथम: सर्गः॥ नमः श्रीशान्तिनाथाय कृतविश्वाघशान्तये। षोडशाय जिनेन्द्राय पञ्चमाय च चक्रिणे॥१॥ मोहान्धकारसन्दोहकर्तनकविकर्तनम् । कीर्तयिष्यामि तस्याहं चरित्रमतिपावनम् ॥२॥ अस्यैव जम्बूद्वीपस्य मण्डलाकारधारिणे । इन्दोरिव सप्तमोऽश: क्षेत्रं भरतमस्त्यदः ॥३॥ अर्धे च दक्षिणे तस्य मध्यखण्डविभूषणम् । अस्ति रत्नपुरं नाम पुरं सुरपुरोपमम् ॥४॥ तत्र श्रीषेण इत्यासीद्राजा राजीवलोचनः । राजीवमिव वासाय श्रियो देव्या विकस्वरम् ॥५॥ ज्येष्ठं बन्धुमिवाऽजस्रं स धर्मं बह्वपूजयत् । अर्थ-कामौ कनीयांसाविवाबाधमपालयत् ॥६॥ प्रार्थनामर्थिलोकस्य पूरयामास सोऽनिशम् । स्मरातुरपरस्त्रीणां न पुनर्धर्मकर्मठः ॥७॥ तथा रूपमभूत् तस्य सर्वोपम्यविलक्षणम् । आलेख्यस्याऽप्यविषयो यथा ह्यालेख्यकारिणाम् ॥८॥ दण्डप्रधानं साम्राज्यमपि स प्रतिपालयन् । दयामाराधयामास देवतामिव कामदाम् ॥९॥ पविशुद्धशीला तद्भार्या नाम्नाऽभूदभिनन्दिता। हृदयानन्दिनी वाचा नेत्रकैरवचन्द्रिका ॥१०॥ मनसाऽपि न सा शीलं खण्डयामास जातुचित् । मण्डयामास तेन स्वं फल्गु बाह्यं हि मण्डनम् ॥११॥ भूषणान्यप्यऽभूष्यन्त निवेश्य स्वतनौ तया । तस्या निसर्गसुन्दर्या भारभूतानि तानि तु ॥१२॥ तरङ्गायितलावण्यपुण्यावयवशालिनः । तद्रूपस्य प्रतिच्छन्दो दर्पणेष्वेव नान्यतः॥१३॥ माता-पितृ-श्वशुराणां युगपत् सा कुलत्रयम् । एकाऽप्यनेकरूपैवाऽभूषयद् गुणभूषणा ॥१४॥ द्वितीयाऽप्यभवत् तस्य राज्ञो हँच्छिखिनन्दिका । मेघमालेव दयिता नामत: शिखिनन्दिता ॥१५॥ सुखं वैषयिकं पत्याऽनुभवन्त्या अखण्डितम् । जज्ञेऽभिनन्दितादेव्या गर्भ: कालेन गच्छता ॥१६॥ सूर्या-चन्द्रमसौ स्वप्ने स्वोत्सङ्गस्थौ ददर्श सा। पुत्रद्वयं तवोत्कृष्टं भावीत्याख्यच्च तत्पतिः॥१७॥ सम्पूर्णे समये सूनुयुग्मं देव्यभिनन्दिता। असूत तेजसाऽनूनं रवेश्चन्द्रमसोऽपि च ॥१८॥ इन्दुषेणो बिन्दुषेणश्चेत्याख्ये पुत्रयोर्द्वयोः । श्रीषेणपार्थिवोऽकार्षीदुत्सवेन महीयसा ॥१९॥ धात्रीभिर्लाल्यमानौ तावतियत्नेन पुष्पवत् । ववृधाते क्रमादन्यौ भुजाविव महीभुजः ॥२०॥ १.* वा.१-२॥२. सूर्यः ।। ३. तस्यैव खंता.॥४.०त्तमम् वा. १-२॥५. राजीवं-कमलम् ॥ ६. निरन्तरम् ।। ७. धर्मकुशलः ॥ ८.०मभूदस्य मु.प्र॥ ९. चित्रस्य ।। १०. चित्रकाराणाम् ॥ ११. प्रधानसाम्राज्य० खंता. पाता.॥ १२. कुमुद ॥ १३. शीलेन ॥ १४. तुच्छम् ।। १५. हि खंता. ॥ १६. तरजवदाचरितं लावण्यं तेन पुण्यैः पवित्रैः अवयवै: शालते इत्येवंशीलस्य ।। १७. प्रतिबिम्बम् ।। १८. हृदयरूपमयूरस्य आनन्ददायिनी॥१९. अन्यूनम् ।। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (पञ्चमं पर्व अथ व्याकरणादीनि शास्त्राणि पृथिवीपतिः । तावध्यजीगपदुपाध्यायेन निजनामवत् ॥२१॥ शास्त्रे शास्त्रे च निष्णातावपरासु कलास्वपि । व्यूहप्रवेशनिष्काशकुशलौ तौ बभूवतुः॥२२॥ मनोभवविकारांब्जविकासनदिवामुखम् । उभौ तौ प्रतिपेदाते यौवनं रूपपावनम् ॥२३॥ पाइतश्चास्तीह भरते मगधेषु महर्द्धिकः । ग्रामाणां ग्रामणीामोऽचलग्राम इतीरितः ॥२४॥ तत्र साङ्गचतुर्वेदवेदी द्विजशिरोमणिः । धरणिजट इत्यभून्नाम्ना धरणिविश्रुतः ॥२५॥ तस्य चाऽसीद् यशोभद्रा भद्राभक्तिः कुलोद्भवा । सधर्मचारिणी गेहलक्ष्मीरिव विहारिणी ॥२६॥ तस्य: क्रमेण जज्ञाते द्वौ पुत्रौ कुलदीपकौ । ज्येष्ठो नाम्ना नन्दिभूति: श्रीभूतिरिति चाऽपरः ॥२७॥ तस्य च ब्राह्मणस्याऽऽसीत् कपिला नाम दासिका । तयाऽपि स चिरं रेमे दुर्जया विषया: खलु ।।२८।। स्वच्छन्दं रममाणस्य क्रमयोगेण तस्य च। अजनिष्ट कपिलायां कपिलो नाम नन्दनः ॥२९॥ स तु द्विजो यशोभद्राकुक्षिजातावुभौ सुतौ । साङ्गान् वेदान् सरहस्यान् प्रह्वः स्वयमपाठयत् ।।३०।। कपिलोऽप्यतिमेधावी तूष्णीकोऽप्यवधारयन् । वेदाब्धे: पारगो जज्ञे प्रज्ञाया: किं न गोचर: ?॥३१॥ स प्रादुष्षद्वैदुषीको निर्गत्य पितृवेश्मतः । यज्ञोपवीतद्वितयं कण्ठदेशे निधाय च ॥३२॥ द्विजोत्तमोऽस्मीति गिरा ध्वनयन्निव डिण्डिमम् । देशान्तरेषु बभ्राम विदेशो विदुषां हि क: ? ॥३३॥युग्मम्।। भ्रमन् क्रमेण स प्राप तद्रत्नपुरपत्तनम् । पाण्डित्यं दर्शयंस्तत्र जगर्ज प्रावृडब्दवत् ॥३४॥ तत्र चाऽशेषपौराणामुपाध्याय: कलानिधिः । अवात्सीत् सत्यकिर्नाम धीपात्रच्छात्रशोभितः ॥३५॥ -कपिल: सत्यके: पाठशालां गत्वा दिने दिने । पृच्छतां खण्डिकानां च संशयानन्तराऽच्छिदत् ॥३६।। 'विस्मित: सत्यकिरपि तं पप्रच्छ कुतूहलात् । दुर्ज्ञानानि रहस्यानि शास्त्राणां मन्त्रजातवित् ।।३७॥ आचख्यौ कपिलस्तस्मै सविशेषाणि तानि तु । उपाध्यायधिया छात्रैः श्रद्दधानैर्निरीक्षितः ॥३८॥ शालायां सत्यकिश्चक्रे तं स्वकर्मधुरन्धरम् । युवराजमिव राजा क्व नाऽर्घन्त्युज्ज्वला गुणा: ?॥३९॥ व्याख्यां समस्तशिष्याणां चकार कपिलोऽन्वहम् । निश्चिन्त: सत्यकिस्तस्थौ तेन स्वेनेव सूनुना ॥४०॥ भक्तिं पितुरिवाऽत्यन्तं सत्यके: कपिलोऽकरोत् । किमेतस्मै करोमीति प्रीतो दध्यौ च सत्यकिः॥४१॥ सत्यकेर्जम्बुका नाम तदा भार्येदमब्रवीत् । यद्यप्यर्वहितोऽसि त्वं तथापि स्मार्यसे मया ॥४२॥ देवकन्येव नि:सीम-रूपलावण्यशालिनी। विनीता ह्रीमती क्षान्ति-मार्दवा-ऽऽर्जवमालिनी ॥४३॥ मत्कुक्षिसम्भवा तेऽसौ सत्यभामेति कन्यका। सम्प्राप्ता यौवनं भट्ट! वरं मृगयसे न किम् ?॥४४।। कन्यका वर्धते यस्य ऋणं वैरं रुजापि च । तस्य निद्रा कथं नामाऽचिन्त: शेते भवान् पुनः॥४५॥ ऊचे सत्यकिरप्येवं सत्यं सत्यमिदं प्रिये! । इयत्कालमहं नाऽऽपं सत्यभामोचितं वरम् ॥४६॥ अयं तु रूपसम्पन्नो गुणिनामग्रणीर्युवा। विनीत: कपिलो विप्रः सत्यभामोचितो वरः ॥४७।। आमेत्युक्ते जम्बुकया शुभे लग्नेऽथ सत्यकिः । सत्यभामा-कपिलयोर्विवाहं विधिवद् व्यधात् ॥४८॥ भोगानि मया सत्यभामया बुभुजेऽन्वहम् । पूज्यमान: सत्यकिवत् स पौरैः सकले पुरे ॥४९।। सत्यकेरपि पूज्योऽयमिति तस्मै ददौ जनः । विशिष्टं धन-धान्यादि सर्वेष्वपि हि पर्वसु ॥५०॥ एवं च वर्तमानः स वर्तमानद्विजोत्तमः । समृद्ध: कपिलो जज्ञे गुणैरिव धनैरपि ॥५१॥ १. पारङ्गतौ ॥ २. निर्गमन ।। ३. कामविकार एव कमलं तस्य विकासने प्रात:कालसमानम् ।। ४. ०राजविकाशाय दिवामुखम् ता.,राजविकासाय दिवामुखम् छा. ॥५.ग्रामणीग्रामोऽचल० सं.दे.ला., मुख्य इत्यर्थः॥ ६. इति संज्ञितः ॥७. भद्राशक्ति:ला.सं.।। ८. नम्रः ॥९. वेदान्धिपारगो दे.मु.॥ १०.गोचरे सं. ला. छा.; खंता., पाता. । गोचरम् दे. ता. मुप्र. ।। ११. प्रादुःष्यद्वै० खंता. पाता. वा.१-२ मुप्र. । प्रादुष्यती वैदुषी यस्य सः, प्रकटीभवत्पाण्डित्य इत्यर्थः ।। १२. अब्दो मेघः,वर्षमेघवत् ॥ १३.धियां पात्रैः स्थानैः धीपात्रै:-छात्रैः शोभितः ।। १४. छात्राणाम् ।। १५. मध्ये ॥ १६. सावधानः ॥ १७. लज्जावती ॥ १८. शालिनी पाता., वा.१-२ विना सर्वत्र ।। १९. 'सम्प्राप्तयौवनं तस्या' मुप्र. । सम्प्राप्तयौवन भट्ट! खंता., पाता., वा.१-२, ला, ता., सं. विना ॥२०. तथेत्युक्ते ॥ २१. क्रोधरहितया। निर्धान्त्या इति मुप्र.टिप्पण्याम् ।। २२. कुत्रचित् 'द्विजोत्तर:०' इति पाठः ।। २३. धनैरिव गुणैरपि खंता. । धरैरपि गुणैरपि मुप्र.॥ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः ) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । I ॥ अन्यदा प्रावृषि निशि 'प्रेक्षणीयेक्षणाय सः । बहिर्जगाम सदनाच्चिरं तत्र त्ववास्थित े ॥५२॥ निवृत्तस्याऽर्धमार्गेऽपि वेश्मने तस्य गच्छतः । सूचिभेद्यं तमः कुर्वन् ववर्षाऽत्यन्तमम्बुदः ॥५३॥ विजनत्वात् तदानीं स नग्नीभूय स्ववाससी । प्रक्षिप्य कक्षान्तरगाद् वेश्मद्वारे च पर्यधात् ॥५४॥ वृष्ट्या वस्त्राणि मद्भर्तुस्तीमितानीति मानिनी । सत्यभामाऽन्यवस्त्राणि गृहीत्वा समुपस्थिता ॥५५॥ मुग्धे विद्याप्रभावेण स्तीतेि मे न वाससी । कृतं तदन्यैर्वासोभिरित्यूचे कपिलः प्रियाम् ॥५६॥ तस्य वासांस्यनार्द्राणि वपुरार्द्रं च सर्वतः । सत्यभामा निर्दध्यौ च दध्यौ चेदं स्वचेतंसि ॥५७॥ विद्याशक्त्या स्ववासांसि यद्यरक्षदसौ जलात् । नाऽरक्षत् तत् कथं स्वाङ्गं? नूनं नग्नोऽयमाययौ ॥ ५८ ॥ अकुलीनस्ततो मन्ये वृत्तेनाऽनेन मत्पतिः । मेधाबलादध्यगीष्ट कर्णश्रुत्या श्रुतीरपि ॥५९॥ एवं च मन्यमाना सा तदाप्रभृति तत्र च । मन्दानुरागा समभूद् वृन्दानीतेव खेदिनी ॥ ६०॥ ||तदा च धरणिजटो दैवात् क्षीणधनोऽभवत् । आढ्यं च कपिलं श्रुत्वा स्वं समुद्धर्तुमाययौ ॥ ६१॥ पाद्यस्नानादिना तं च सच्चक्रे कपिलः स्वयम् । आराध्योऽतिथिमात्रोऽपि किं पुनः स पिताऽतिथिः ? ॥६२॥ अथ पित्रा कृते स्नाने निर्मिते नित्यकर्मणि । भोजनावसरे प्राप्ते प्रोवाच कपिलः प्रियाम् ॥६३॥ शरीरकारणं मेऽस्ति तत् प्रिये ! पितृहेतवे । विभिन्नं भोजनस्थानमुत्तमं प्रगुणीकुरु ॥ ६४॥ पितुः पुत्रस्य च तयोर्दृष्ट्वाऽऽचरणमन्यथा । आशशङ्केऽधिकं सत्या कुलीना सा यतः स्वयम् ॥ ६५ ॥ कुलीनं श्वशुरं ज्ञात्वा चरितैरतिनिर्मलैः । आराधयज्जनकवद् गुरुवद्देववच्च सा ॥ ६६ ॥ दत्वाऽन्यदा ब्रह्महत्याशपथं रहसि स्वयम् । श्वशुरं परिपप्रच्छ महता विनयेन सा ॥ ६७॥ युष्माकं किमसौ सूनुः शुद्धपक्षद्वयोद्भवः ? । अवैरुद्धोद्भवः किं वा ? सत्यं ब्रूते प्रसीदत ॥६८॥ ततश्च धरणिजट: समाचख्यौ यथातथम् । महात्मानः प्रकृत्याऽपि शपथच्छेदकातराः ॥ ६९ ॥ विसृष्टः कपिलेनाऽथ ब्राह्मणो धरणिजटः । पुनरेव निजं ग्राममचलग्राममभ्यगात् ॥७०॥ "सत्यभामाऽपि गत्वैवं श्री श्रीषेणं व्यजिज्ञपत् । अकुलीनोऽभवद् भर्ता मम दैववशादयम् ॥ ७१ ॥ शार्दूलादिव सुरभिं राहो : शशिकलामिव । चटकामिव च श्येनान्मोचयाऽस्मात् तदद्य मामम् ॥७२॥ आचरिष्यामि सुकृतं मुक्ताऽनेन सती सती। दुष्कर्मणा प्राक्तनेन वञ्चितास्मि कियच्चिरम् ॥७३॥ श्रीषेणोऽप्यभ्यधत्तैवमाहूय कपिलं स्वयम् । मुच्यतां सत्यभामेयं धर्माचरणहेतवे ॥७४॥ विरक्तायां तवैतस्यां कीदृग् वैषयिकं सुखम् । भविष्यति बलात्कारापहृतान्यस्त्रियामिव ? ॥७५॥ कपिलोऽपि जगादैवं क्षणमप्यनया विना । प्राणान् धर्तुं नालमास्मे जीवतुरियमेव मे ॥७६॥ इमां पौणिगृहीतीं स्वां न त्यजामि कथञ्चन। त्यजनं त्याजनं वापि गणिकास्वेव युज्यते ॥७७॥ उद्धामा सत्यभामोचे त्यजत्येष न मां यदि । जले वा ज्वलने वाऽपि प्रवेक्ष्यामि तदा " न्वहम् ॥७८॥ राजाऽपि व्याजहारैवं मा स्म त्याक्षीदसूनसौ । दिनानि कतिचित् तिष्ठत्वस्मद्वेश्मनि ते प्रिया ॥७९॥ एवमस्त्विति तेनोक्ते राज्ञा राज्ञ्यो: समर्पिता । समाचरन्ती विविधं तपः सा समवास्थिता ॥८०॥ " तदा च राजा कौशाम्ब्य बलो नाम महाबलः । श्रीकान्तां श्रीमतीदेवीप्रसूतां निजकन्यकाम् ॥८१॥ उद्यौवनां रूपवतीं प्रैषीदृद्ध्या प्रभूतया । श्रीषेणनृपपुत्रस्येन्दुषेणस्य स्वयंवराम् ॥८२॥ तया सहाऽऽगतां वेश्यामनन्तमतिकाभिधाम् । इन्दुषेण- बिन्दुषेणौ रूपोत्कृष्टामपश्यताम् ॥८३॥ १. नाट्यविलोकनाय ॥। २. त्ववास्थितः वा. १ - २ | तथा स्थित: मु. ॥। ३. गाढम् ॥४. मद्भर्तु स्तिमितानीति मुप्र । आर्द्राणि ॥। ५. तीमिते सं. ला. पा., स्तिमिते मु. ॥ ६. ददर्श ।। ७. वेदान् ।। ८. कपिले । ९. वन्दानीतेव० खंता. पाता ।० वन्दानन्तेव० वा. १ - २, समुदायात् पृथक्कृतेव ।। १०. समृद्धम् ॥ ११. स्नान० मुप्र ।। १२. विपरीतोद्भवः ॥ १३. ब्रूहि ॥ १४. व्याघ्रात् ॥ १५. धेनुम् ।। १६ ०तेन० पाता ।। १७. बलात्कारेणाऽपहतायामन्यस्त्रियामिव ।। १८. जीवनौषधम् ।। १९. पाणिगृहीताम् ता. ला. दे. मु. ॥ २०. अतिक्रुद्धा ॥ २१. ० तदा ह्यहम् पा. विना ॥ २२. प्राणान् ॥ २३. ० राज्यै दे. ला. मु., ० राज्योस्तेन समर्पिता पाता. ॥ २४. ० कौशाम्ब्याः ० खंता पाता. ॥ २५. समृद्धया ॥ २६. ० स्वयंवरे ता. दे. मु. ॥ For Private Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (पञ्चमं पर्व एषा मम ममैषेति प्रजल्पन्तावुभावपि । सामर्षों देवरमणाभिधानोद्यानमीयतुः ॥८४॥ तत्रोभावपि सन्नद्धावेककान्तारिरंसया । वृषभाविव दुर्दान्तौ युयुधाते महाभुजौ ॥८५।। निषेधितुं तयोर्युद्धं नाऽलमासीन्महीपतिः । प्रियसामा स हि सदा दण्डसाध्यास्तु दुर्मदाः ।।८६।। तां प्रवृत्तिं तयोर्द्रष्टुं निरोद्धं चाऽक्षमो नृपः । सहाऽभिनन्दिता-शिखिनन्दिताभ्यां विचार्य च ॥८७॥ प्राप्तकालमिदमिति ब्रुवाणः सरसीरुहम् । आंध्रात् तालपुटाविद्धं विपेदे च क्षणादपि ॥८८॥युग्मम्।। देव्यावपि तदाघ्राय तमेवाऽध्वानमीयतुः । न मनागपि जीवन्ति कुलनार्यः पतिं विना ॥८९॥ सत्यभामाऽपि कपिलादनर्थं चिन्तयन्त्यथ । तत्पद्ममाघ्राय ययौ तत्पथं शरणोज्झिता॥९॥ अत्यन्तमार्दवान्मृत्वा ते चत्वारोऽपि जज्ञिरे । जम्बूद्वीपोत्तरकुरुक्षेत्रे युगलधर्मिणः ॥९१।। अभूतां पुं-स्त्रियौ तत्र श्रीषेणोऽथाभिनन्दिता । ते शिखिनन्दिता-सत्यभामे अपि तथैव हि ॥९२।। ते च पल्यत्रयायुष्का गव्यूतत्रितयोच्छ्रिता: । अनुभूतसुखाद्वैता: सुखं कालमलङ्घयन् ।।१३।। तयोश्चेन्दुषेण-बिन्दुषेणयोर्युध्यमानयोः । आगादेको विमानस्थ: कोऽपि विद्याधराग्रणीः ॥९४।। दैवस्येवाऽनुकूलस्य प्रतीहारो निवारकः । स तयोरन्तरे स्थित्वा निजगादैवर्मुद्भुजः ॥९५॥ अज्ञात्वा भगिनीमेतां भार्गीयन्तौ कुमारकौ! किं युध्येथे? विस्तरेण श्रूयतां वचनं मम ॥१६॥ पजम्बूद्वीपस्याऽस्य महाविदेहेऽस्ति सुविस्तृतः । सीतानद्युत्तरतटे विजय: पुष्कलावती ॥९७॥ अभ्रंलिहोऽस्ति मेदिन्या: किरीट इव रोजतः । तत्र विद्याधरावासो वैताढ्यो नाम पर्वतः ॥९८।। तत्रादावुत्तरश्रेण्यामादित्याभाभिधे पुरे । राजा सुकुण्डलीत्यस्ति कुण्डलीन्द्र इव श्रिया ।।९९।। तस्याऽस्त्यजितसेनेति दयिता शीलशालिनी। अहमस्ति तयोः पुत्रो नामतो मणिकुण्डली ॥१०॥ अपरेधुस्तत: स्थानान्नभसा पंक्षिराडिव । जिनेन्द्रं वन्दितुमगां नगरी पुण्डरीकिणीम् ॥१०१॥ तत्र चाऽमितयशसं भगवन्तं जिनेश्वरम् । वन्दित्वा साञ्जलिपुटमश्रौषं धर्मदेशनाम् ॥१०२।। मया च देशनाप्रान्ते भगवन्! केन कर्मणा। विद्याधरोऽहमभव मिति पृष्टोऽब्रवीत् प्रभुः॥१०३।। पपश्चिमे पुष्करवरद्वीपस्याऽर्धे महर्द्धिके । शीतोदाया महानद्या विशाले दक्षिणे तटे॥१०४।। विजये सलिलावत्यां वीतशोकजनाकुला । वीतशोकाभिधाना पूरस्ति स्वस्तिकवद्भुवः ॥१०५||युग्मम्।। मीनध्वजो रूपधेयेनौजसा कुलिशध्वजः । तत्र रत्नध्वजो नाम चक्रवर्त्यभवत् पुरा ॥१०६।। प्रधानभार्ये तस्योभे अभूतां शीलभूषणे । एका तत्र कनकश्रीद्वितीया हेममालिनी ॥१०७।। अङ्कस्थकल्पलतिकाद्वितयस्वप्नसूचिते। कनकश्रीर्दुहितरौ सुषुवे धी-श्रियाविव ॥१०८॥ तयोश्च कनकलतेत्याख्यां पालतेति च । चक्रतुर्माता-पितरौ जन्मोत्सवसमोत्सवम् ॥१०९॥ स्वप्ने पद्मलतालोकसूचितां हेममालिनी। पद्मां नाम प्रसुषुवे नन्दनां कुलनन्दनीम् ॥११०॥ प्राप्ता: कलाकलापं ता यौवनं चाऽथ पावनम् । विधात्रा श्रिय एकत्र त्रैलोक्यस्याऽऽहृता इव ॥१११।। पद्माऽप्यजितसेनार्यासान्निध्येन विरागिणी। तत्पादान्ते परिव्रज्यामुपादत्त यथाविधि ॥११२।। एकदाऽनुज्ञयाऽऽर्यायास्तपःकर्म चतुर्थकम् । चक्रे त्रिसूत्रे द्वे षष्टिश्चतुर्थानि स्युरत्र तु ॥११३।। यथावत् पालयित्वा च दस्तपं तत्तपोऽन्यदा। बहिः शरीरचिन्तार्थं गच्छन्ती राजवर्मनि ॥११४।। कृते मदनमञ्जर्या वेश्याया: कामलम्पटौ। युध्यमानौ महाबाह राजपुत्रौ ददर्श सा ॥११५॥युग्मम्।। १. ममैवेति ता. ॥ २. एकया कान्तया रन्तुमिच्छया ॥ ३. शान्तिप्रियः ।। ४. अघ्रात् खंता ॥ ५. तालपुटविषव्याप्तम् ॥ ६. ०तत्क्षणा० खंता ।। ७. पतिवन्य: ता. ॥ ८. शरणाश्रिता दे. । शरणरहिता ।। ९. नृ-स्त्रियौ दे. पा. छा. मु.॥ १०. उद्भुज:-भुजौ ऊर्वीकृत्य स्थितः ।। ११. आत्मन: भार्यामिच्छन्तौ, भगिनीं भार्यात्वेन इच्छन्तौ ॥१२. युध्येथाम् ता. ॥१३. सुविस्तृताला. छा. पा. ॥ १४. अभ्रंलिहः - गगनचुम्बी ॥१५. रूप्यमयः ॥ १६. शेषनागः, कुण्डलेन्द्र दे. मु.॥ १७. गरुडः ॥ १८. तन्नामानम् ।। १९. वीत: शोको येभ्यस्तादृशजनैराकुला व्याप्ता, वीतशोकभयाकुला पाता. सं. ला. ।। २०. रूपेण कामदेवः ॥ २१. इन्द्रः ।। २२. नन्दिनीं० वा.१-२। नन्दनीं ० मुप्र. ।। २३. चतुर्थभक्तम् ॥ २४. त्रिरात्रे (दिनत्रयेण) एकं चतुर्थकं, एतादृशानि द्वाषष्टिश्चतुर्थानि जातानीत्येवमर्थ: सम्भाव्यते ।। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः ) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । तौ दृष्ट्वाऽचिन्तयत् पद्माऽप्यस्याः किमपि सुभ्रुवः । अहो ! सौभाग्यमेतौ यद्युध्येते हन्त तत्कृते ॥ ११६॥ तन्ममाऽप्यस्य तपसः प्रभावेण भवान्तरे । सौभाग्यमीदृशं भूयान्निदानमिति साऽकरोत् ॥११७॥ अन्ते साऽनशनं कृत्वाऽनालोचितनिदानिका । मृत्वा सौधर्म कल्पेऽभूदमरी विपुलर्द्धिका ॥११८॥ कनकश्रीर्भवं भ्रान्त्वा भवे दानाद्यनन्तरे । कृत्वा विद्याधरेन्द्र ! त्वं नाम्नाऽभूर्मणिकुण्डली ॥११९॥ भवं भ्रान्त्वा च कनकलता - पद्मलते अपि । दानादिधर्मं बहुधा विधाय प्राग्भवेषु च ॥ १२० ॥ जम्बूद्वीपस्य भरतेऽभूतां रत्नपुरे पुरे । इन्दुषेण-बिन्दुषेणौ श्रीषेणनृपतेः सुतौ ॥ १२१ ॥ युग्मम् ॥ पद्माजीवोऽपि सौधर्माच्च्युत्वा तत्रैव भारते । वेश्या बभूव कौशाम्ब्यामनन्तमतिकाभिधा ॥१२२॥ इन्दुषेण- बिन्दुषेणावनन्तमतिकाकृते । अधुना युध्यमानौ स्तस्तौ देवरमणे वने ॥ १२३॥ श्रुतपूर्वभवः सोऽहं स्नेहादिह समागमम् । विनिवारयितुं युद्धात् प्राग्जन्मज्ञापनेन वाम् ॥ १२४ ॥ अहं वां प्राग्भवे माता गणिकेयं पुनः स्वसा । बुध्येथां सर्वमप्येवं संसारे मोहजृम्भितम् ॥१२५॥ न ज्ञायते पिता माता स्वसा भ्राता पॅरोऽपि वा । हहा! जन्मान्तरतिरस्करिण्यन्तरितैर्जनैः ॥ १२६॥ यावज्जीवमसौ जीवः स्वं वेष्टयति देहजैः । राग-द्वेषादिभिर्लोलाजालकैरिव जालिकः ॥१२७॥ रागं द्वेषं च मोहं च तत्परित्यज्य दूरतः । निर्वाणनगरद्वारं प्रव्रज्यां श्रयतं द्रुतम् ॥१२८॥ अथ तावूचतुर्मोहादस्माभिः श्वापदैरिव । धिग् धिक् किमिदमारब्धं भगिनीभोगहेतवे ? ॥ १२९ ॥ त्वं नौ पूर्वभवे माता गुरुरस्मिन् भवे पुनः । आवां येनोत्पथादस्मात् प्रबोध्य विनिर्वैर्तितौ ॥१३०॥ इत्युक्त्वा मुक्तसन्नाहौ गुरोर्धर्मरुचेः पुरः । राज्ञां चतुर्भिः सहस्रैः समं जगृहतुर्व्रतम् ॥ १३१ ॥ तौ तपो-ध्यानवह्निभ्यां प्लुष्टकर्माध्वकण्टकौ । लोकाग्रं जग्मतुर्दुर्गं सरलेनैव वर्त्मना ॥१३२॥ श्रीषेणप्रमुखास्तेऽपि चत्वारो युग्मधर्मिणः । विपद्य प्रथमे कल्पे देवेंभूयं प्रपेदिरे ॥१३३॥' ||इतश्चाऽत्रैव भरते वैताढ्येऽस्ति नगोत्तमे । नगरं रथनूपुरचक्रवालमभिख्यया ॥१३४॥ तत्राऽभूज्ज्वलनजटी नाम विद्याधरेश्वरः । पुरन्दरानुज इव सनाथो विविधर्द्धिभिः ॥१३५॥ तस्याऽर्ककीर्तिस्तनयः प्रौढार्क इव तेजसा । युवराजोऽभवद् वैरिराज्यलक्ष्मीस्वयंवरः ॥ १३६ ॥ अन्वर्ककीर्ति 'समभूत् पुत्री तस्य स्वयम्प्रभा । प्रभेव शशिनो विश्वनयनानन्ददायिनी ॥१३७॥ प्रथमो वासुदेवानां प्राजापत्योऽचैलानुजः । त्रिपृष्ठ: पोतनपुरेश्वरः परिणिनाय ताम् ॥१३८ ।। तदा च वह्निजटिने स हृष्टः प्रथमो हरिः । ददौ विद्याधरश्रेणिद्वयराज्यमखण्डितम् ॥१३९॥ अर्ककीर्तेरभूत् पत्नी ज्योतिर्मालेति नामतः । दुहिता मेघवनस्य विद्याधरनरेशितुः ॥ १४० ॥ च्युत्वा श्रीषेणजीवोऽपि तदा सौधर्म कल्पतः । ज्योतिर्मालोदरे हंस इवाऽब्जे समवातरत् ॥१४९॥ ददर्श च तदा स्वप्ने प्रविशन्तं निजे मुखे । सहस्ररश्मिममिततेजसं द्योतिताम्बरम् ॥ १४२॥ समयेऽसूत सा सूनुं पुण्यलक्षणलक्षितम् । साम्राज्यभवनाधारसुदृढस्तम्भमुच्चकैः ॥१४३॥ दृष्टस्वप्नानुमानेन पितरौ तस्य चक्रतुः । नामाऽमिततेजा इति मूर्त्याऽप्यमिततेजसः ॥१४४॥ न्यस्याऽर्ककीर्तौ स्वं राज्यं प्राव्राजीद् वह्निजट्यथ । चारणर्षिजगन्नन्दना -ऽभिनन्दनयोः पुरः || १४५|| || जीवोऽपि सत्यभामायाश्च्युत्वा सौधर्म कल्पतः । ज्योतिर्माला - सूर्यकीर्त्योः पुत्रीत्वेनोदपद्यत ॥१४६॥ गर्भस्थायामिहाऽपश्यत् सुतारां जननी निशाम् । इति तस्याः सुतारेति पितरौ नाम चक्रतुः ॥ १४७॥ २१ १. अनालोचितं निदानं यया सा ॥। २. पूर्वस्मिन् भवे दानादि कृत्वा ॥ ३. विद्याधरेन्द्रस्त्वम् ता.पा.मु. ॥ ४. खंता. पाता. वा. १ - २ प्रतिषु नास्ति ।। ५. युवाम् ।। ६. मोहविलसितम् ।। ७. परेऽपि सं. ला.; ०ऽपरो० खंता.; ०ऽपरे० पाता. ॥ ८. जन्मान्तरमेव तिरस्करिणी जवनिका तया अन्तरितैः छन्नैः ॥ ९. संवेष्टयति मु. ॥ १०. ० दिभिर्ला लाजालिकैरिव पा. ॥ ११. लूता (करोळियो) ।। १२. आवयोः ॥ १३. उन्मार्गात् ॥ १४. निवारितौ ।। १५. मुक्त: सन्नाह:- कवचप्रभृति याभ्यां तौ ।। १६. प्लुष्टाः दग्धा: कर्माणि एव अध्वकण्टका मोक्षमार्गकण्टका याभ्यां तौ ॥ १७. दुर्गं दुर्गमम् ॥ १८. श्रीषेणाऽभिनन्दिता - शिखिनन्दितासत्यभामाः ॥ १९. युगलिकाः ॥ २०. देवत्वम् ॥ २१. खंता. प्रतौ अत्रैवं टिप्पणी '३ भवे' ।। २२. विविधर्द्धिभिः सहितो विष्णुरिव ।। २३. अर्ककीर्तेः पश्चात् ॥ २४. प्रजापतेः अपत्यम् ।। २५. बलानुजः छा. दे. ॥ २६. वासुदेवः त्रिपृष्ठः ॥ २७. महास्वप्ने ता. ॥ For Private Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (पञ्चमं पर्व पास चाऽभिनन्दिताजीवश्च्युत्वा सौधर्मकल्पतः । त्रिपृष्ठ-स्वयम्प्रभयोः पुत्रत्वेनोदपद्यत ॥१४८॥ यत् स्वप्ने साभिषेका श्रीर्गर्भस्थेऽत्राम्बयेक्षिता। तेन श्रीविजय इति तस्य नाम पिता व्यधात् ॥१४९॥ स्वयम्प्रभायास्तनयो द्वैतीयीकोऽप्यजायत । नामतो विजयभद्रो जयभद्रनिकेतनम् ॥१५०॥ स शिखिनन्दिताजीवश्च्युत्वा प्रथमकल्पतः । त्रिपृष्ठ-स्वयम्प्रभयोः पुत्री ज्योतिष्प्रभेत्यभूत् ।।१५१॥ सत्यभामापति: पूर्वं कपिलो नाम योऽभवत् । संसार से चिरं भ्रान्त्वा तिर्यगादिषु योनिषु ॥१५२।। पुर्यां चमरचञ्चायां विद्याधरनरेश्वरः । अजायताऽशनिघोष इति नाम्नेह विश्रुतः ॥१५३||युग्मम्।। अर्ककीर्तिर्दुहितरं सुतारां तारलोचनाम् । त्रैपृष्ठिना श्रीविजयनाम्ना स्वां पर्यणाययत् ॥१५४॥ ज्योतिष्प्रभां त्रिपृष्ठोऽपि स्वपुत्रीमतिसुन्दरीम् । व्यवाहयदर्ककीर्तिपुत्रेणाऽमिततेजसा ॥१५५॥ सुतारया श्रीविजयो भुङ्क्ते वैषयिकं सुखम् । समं च ज्योतिष्प्रभयाऽमिततेजा महाभुजः ॥१५६।। नाअन्यदा रथनूपुरचक्रवालाभिधे पुरे। विशाले बहिरुद्याने श्रिया सौमनसोपमे ॥१५७।। त्रयोऽभिनन्दन-जगन्नन्दनावग्निजट्यपि । ज्ञानादीनीव रत्नानि मूर्त्तानि समवासरत् ॥१५८॥युग्मम्।। ज्ञात्वाऽर्ककीर्तिरायातं गुरुं गुरुगुरू अपि । एत्याऽवन्दिष्ट नोत्कण्ठा विलम्बं सहते क्वचित ॥१५९।। अथाभिनन्दनमुनिर्विदधे धर्मदेशनाम् । महामोहहिमस्तोमविद्रावणरविप्रभाम् ॥१६०॥ तया देशनया चाऽर्ककीर्तिर्वैराग्यभाग्भवे। रचिताञ्जलिरित्यूचेऽभिनन्दनमहामुनिम् ॥१६१॥ तावदागमयस्वेह यावताऽमिततेजसम् । निजे राज्य निवेश्याऽहमायामि व्रतहेतवे ॥१६२॥ न प्रमादो विधातव्य इति शिष्टो महर्षिणा । अर्ककीर्तिर्ययौ धाम प्रागनुस्यूतमानसः॥१६३॥ भूयो भूयः सनिर्बन्धमभ्यर्थ्याऽमिततेजसम् । राज्यमग्राहयदयं क्रमो जनकपुत्रयोः ॥१६४॥ कृतनिष्क्रमण: सोऽथ नृपेणाऽमिततेजसा । परिव्रज्यामुपादत्ताऽभिनन्दनमुनेः पुरः ॥१६५।। समं गुरुजनेनाऽथ विजहार वसुन्धराम् । अर्ककीर्ती राजमुनि: शमराज्यं प्रपालयन् ॥१६६॥ विद्याधरेन्द्रमुकुटोद्धृष्टपादाम्बुजासनः । तेजस्वी सोऽमिततेजा: पित्र्यां राज्यधुरां दधौ ॥१६७॥ इतश्चान्ते त्रिपृष्ठस्य शुचा वैराग्यमुद्वहन् । राज्ये श्रीविजयं न्यस्य प्रव्राजाऽचलो बलः ॥१६८।। नरेश्वरैरज़मानो विजयश्रीस्वयंवरः । तत: श्रीविजयो विश्वं पित्र्यं राज्यमपालयत् ॥१६९॥ अन्यदा चाऽमिततेजास्तत्पोतनपुरं पुरम् । सुतारा-श्रीविजययोर्दर्शनोत्कण्ठितो ययौ ॥१७०।। नगरं तदपश्यच्चोत्पताका-मञ्च-तोरणम् । सञ्जातानन्दसाम्राज्यमनुत्तरविमानवत् ॥१७१॥ विशेषतो राजकुलं स हृष्टं वीक्ष्य विस्मित: । व्योमतोऽवातरत् तत्र समुद्र इव भास्करः॥१७२॥ अभ्युत्तस्थौ दूरतस्तं दृष्ट्वा श्रीविजयो नृपः। पूजाऽर्हाऽतिथिमात्रेऽपि किं पुनस्तादृशेऽतिथौ? ॥१७३।। परस्परं श्वशुर्यौ तौ मिथ: स्वसृपती च तौ। सस्वजाते मिथो गाढं प्रौप्रीतिसुधाह्रदौ ॥१७४।। महाय॑सिंहासनयोर्निषेदतुरुभावपि । पूर्वपश्चिमयोरद्रयोः सूर्या-चन्द्रमसाविव ॥१७५।। ततश्चाऽमिततेजास्तं पप्रच्छ स्वच्छमानस: । नाऽधुना कौमुदी नाऽऽग्रहायणी ग्रीष्मको न च ॥१७६।। वसन्तो नाऽपि नो पुत्रजन्माऽपि तव भूपते! । पुरं केनोत्सवेनेदमुद्यदानन्दमीक्ष्यते ? ॥१७७॥युग्मम्।। तत: श्रीविजयोऽशंसदितः प्रागष्टमे दिने । एको नैमित्तिकः कश्चिदागादीगामिवेदकः॥१७८॥ याचितुं किमिहाऽऽयासी:? समाख्यातुं किमप्यथ? । मयैवं सादरं पृष्ट इत्यभाषिष्ट स स्फुटम् ॥१७९।। जीवामो याचितेनैव वयं यद्यपि पार्थिव! । तथाऽपि याचितुं त्वत्त: साम्प्रतं न हि साम्प्रतम् ॥१८०॥ १. सिंहनन्दिताजीवश्च्युत्वा खंता. पाता. वा.१-२, सं. पा. ता. ॥२. सुचिरम् ला. ॥ ३. नाम्ना हि मु.॥ ४. श्रीविजयोऽभुक्त छा.मु. विना ।। ५. गुरुं-पितरं, गुरुगुरू-पितुर्गुरू ।। ६. महामोह एव हिमस्तोमः, तस्य विद्रावणे नाशने सूर्यप्रभासदृशीम् ।। ७. प्रतीक्षस्व ।। ८. गृहम् ।। ९. साग्रहम् ।। १०. ०मभ्यामिततेजसा पाता. वा.१-२ सं. ता. पा. छा. ॥११.मुनिजनेनाथ पा.।। १२. अर्ककीर्तिराज रसंपा.॥१३. शमराज्यमपालयत् दे. ।। १४. शोकेन ॥१५. प्रवव्राजाऽचलोऽचल: ला. पा. ॥१६. बलदेवः ।। १७. समग्रं पैतृकम् ।। १८. सामान्यातिथावपि पूजा योग्या ॥ १९. श्यालौ । २०. ०हि तौ खंता. पाता. वा.१-२॥ २१. प्रौढा प्रीति: एव सुधा तस्या हृदौ ।। २२. भविष्यवेत्ता ।। २३. योग्यम् ॥ २४. अधुना ।। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नां टन प्रथमः सर्गः) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । शक्यते न यदाख्यातुं तदाख्यातुमिहाऽऽगमम् । आख्याते हि प्रतीकारो भवेद्धर्मादिनाऽपि हि ॥१८१।। अस्मादह्नः सप्तमेऽह्नि मध्याह्नसमये ध्वनन् । अशनि: पोतनपुरेश्वरोपरि पतिष्यति ॥१८२।। तया कटुकया वाचा विषेणेवाऽतिघूर्णितः । पतिष्यति त्वयि किमित्युवाच सचिवाग्रणी: ॥१८३॥ नैमित्तिकोऽप्यभाषिष्ट मह्यं सचिव! मा कुप: । शास्त्रदृष्टं वचो वच्मि भावदोषोऽत्र मे न हि ॥१८४॥ तस्मिन् दिने मयि पुनर्वसुधारासहोदरा । वस्त्रा-भरण-माणिक्य-स्वर्णवृष्टिः पतिष्यति ॥१८५॥ मयाऽप्यभिहितो मन्त्री माऽस्मै कुप्य महामते! । उपकारी प्रणिधिवद् यथार्थकथनादयम् ॥१८६।। नैमित्तिक! परं ब्रूहि निमित्तं शिक्षितं कुत:? | निराम्नायस्य वचसि श्रद्धा न प्रत्ययं विना ॥१८७।। नैमित्तिकोऽप्यभाषिष्ट क्षमाधव! श्रूयतां तदा। बलदेवेन देवेन प्रव्रज्यां गृह्णता सह ॥१८८॥ उपादत्त परिव्रज्यां शाण्डिल्यो नाम मे पिता। तदनु प्राव्रजमहं पितृवात्सल्यमोहितः ॥१८९॥ निमित्तजातमखिलं तेदेदं शिक्षितं मया। ज्ञानमव्यभिचारि स्यान्नान्यतो जिनशासनात् ॥१९०॥ लाभा-ऽलाभौ सुखं दु:खं जीवितं मरणं जयः । पराजयश्चेति वेद्मि निमित्तमहमष्टधा॥१९१।। सम्प्राप्तयौवनश्चाऽहं विहरन्नपरेऽहनि। अगमं पद्मिनीखण्डं नाम पत्तनमुत्तमम् ॥१९२॥ हिरण्यलोमिका नाम तत्र मम पितृष्वसा। वसत्युद्यौवना चन्द्रयशास्तदुहिताऽपि च ॥१९३॥ णी सा मे बालायाऽपि हि बालिकाम् । दीक्षालक्षणविघ्नेन विवाहस्त्वभवन्न हि॥१९४॥ तां दृष्ट्वा सानुरागोऽहं हित्वा भारमिव व्रतम् । पर्यणैषं विवेको हि स्मरातनां कियच्चिरम्? ॥१९५।। ज्ञात्वा स्वार्थ निमित्तेन महानर्थमिमं च ते। अत्राऽऽगममहं राजन्! यज्जानासि कुरुष्व तत् ॥१९६।। इत्युदित्वा स्थिते तस्मिंस्तत्क्षणं राजरक्षणे । अभूवन् बुद्धिमन्तोऽपि व्याकुला: कुलमन्त्रिणः ॥१९७॥ पातत्रैक: सचिवोऽवोचद्विद्युत्पातोऽर्णवे न हि । सप्ताहं तत्र तत् स्वामी नावमारुह्य तिष्ठतु ॥१९८।। द्वितीयोऽप्यब्रवीन्मन्त्री नेदं मे प्रतिभासते। पतन्तीं विद्युतं तत्र हन्त को वारयिष्यति? ॥१९९॥ वैताढ्ये नाऽवसर्पिण्यां विद्यत्पातो यतस्ततः। तस्योपरि गुहां गत्वा सप्ताहं वसतु प्रभुः ॥२०॥ मन्त्र्यवोचत ततीयोऽपि मह्यं नाऽदोऽपि रोचते। अवश्यभावी यो ार्थो यत्र तत्र सनाऽन्यथा ॥२०१।। तथा ह्यत्रैव भरते पुरे विजयनामनि । अवात्सीद् ब्राह्मणवरो रुद्रसोमोऽभिधानतः ॥२०२॥ अनपत्यस्य तस्याथ महद्भिपयाचितैः । पत्न्यां ज्वलनशिखायां शिखी नाम सुतोऽभवत् ॥२०३॥ एकदा राक्षसस्तत्र कश्चिदप्यतिदारुणः । अधिष्ठित: क्रूरदैवेनाऽऽगान्मर्त्यपलप्रियः ॥२०४|| मानुषाण्यन्वहं तत्र बहूनि प्रणिहन्ति सः। अल्पं तु ग्रसते शेषं फेलामिव समुज्झति ॥२०५।। राजा जजल्प तं साम्ना किं मुधा हंसि नृन् बहून्? । घ्नन्ति व्याघ्रादयोऽप्यज्ञा जन्तुमेकं क्षुदौषधम् ॥२०६॥ दिने दिने त्वयाऽप्येकं ग्राह्यं ग्रासाय मानुषम् । मन्निीतेन वारेण तत्तत्र स्वयमेष्यति॥२०७।। तेनाऽभ्युपगतेऽर्थेऽस्मिन्नृपः स्वपुरवेश्मसु । मानुषाणां नामगोलांश्चक्रे वारकहेतवे ॥२०८॥ कृष्यमाण: करे गोलो यदा यस्य चटेत् तदा । प्रयाति पुररक्षायै भक्ष्यभूत: स रक्षसे ॥२०९।। तस्य ब्राह्मणपुत्रस्य निर्ययौ गोलकोऽन्यदा। तन्नाम वाचितं चान्तरन्तकेनेव पत्रकम् ॥२१०॥ तच्छ्रुत्वा तस्य माता तु रोदयन्ती पशूनपि। हा पुत्र! नाऽसि नाऽसीति रुरोद करुणस्वरम् ॥२११।। आसीच्च तद्गृहासन्नमेकं भूतगृहं महत् । तद्भूतैः क्रन्दितं तस्याः शुश्रुवे कर्णदुःश्रवम् ॥२१२॥ उत्पन्नकरुणैस्तैश्च जगदे ब्राह्मणीति सा। मा रोदीर्भव सुस्था त्वं त्वत् पुत्रो यातु रक्षसे ॥२१३।। १. विद्युत् ॥ २. विषेणेव स चूर्णित: ता.। अतिभ्रान्तः ।।३. भाव! द्वेषोऽत्र मे न हि मुप्र.॥४. चरवद् ।।५. तदिदम् खंता. पा. ला.॥६. अनन्यथा ॥७. दत्तपूर्विणीम् सं. ला., पूर्वं दत्तवती ।। ८. कामपीडितानाम् ।। ९. बभूवुर्बुद्धिमन्तोऽपि ता. ॥१०. समुद्रे ।। ११. सप्ताही खंता. ॥१२. अवसत् ।। १३. 'बाधा-मानता' इति भाषायाम् ॥ १४. क्रूरदेव० मु. पा. छा. ॥ १५. मर्त्यपलं मनुष्यमांसं प्रियं यस्य सः ॥१६. उच्छिष्टमिव ।। १७. सान्त्वनेन ।। १८. क्षुधाशमनौषधम् ॥१९. यमेन ॥ २०. नामावली॥ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (पञ्चमं पर्व राक्षसस्याऽग्रतोऽप्येनमानेष्यामो तवाऽन्तिके। लङ्घिष्यते न व्यवस्था न चाऽप्येष मरिष्यति ॥२१४॥ साधु हे देवता:! साधु यावदेवं जजल्प सा। आरक्षास्तावदेजवन्निन्युराकृष्य तत्सुतम् ॥२१५॥ तद्दत्तं यावदादत्ते राक्षसस्तं द्विजात्मजम् । अपहृत्याऽनयन् भूतास्तावत् तन्मातुरन्तिके ॥२१६।। भीता भयानि पश्यन्ती ब्राह्मण्यपि तमात्मजम् । अन्तर्गिरिगुहं रक्षाकृते चिक्षेप तत्क्षणम् ॥२१७।। तत्रस्थेन जनसे च जाग्रताऽजगरेण सः। तद्वदन्यदपि भवेन्न भावि क्वचिदन्यथा ॥२१८॥ इदमौयिकं तस्मात् सर्वैराचर्यतां तपः । निकाचितानामपि यत् कर्मणां तपसा क्षयः ॥२१९॥ पामन्त्री तुर्योऽप्यभाषिष्टोपरिष्टात् पोतनप्रभोः । ख्यातोऽनेन तडित्पातो न श्रीश्रीविजयस्य तु ॥२२०॥ तत् सप्ताहं पुरेऽमुष्मिन् कोऽप्यन्यः क्रियतां पति: । पतिष्यत्यशनिस्तत्र दुरितं तेन यातु वः ॥२२१॥ पाअथ नैमित्तिको हृष्टः प्राशंसदिति मन्त्रिणम् । मन्निमित्तज्ञानतोऽपि मतिज्ञानं तवाऽधिकम् ॥२२२॥ अनर्थपरिहाराय कुर्वर्थममुमाशु तत् । जिनपूजारतश्चैत्यस्थितो राजाऽपि तिष्ठतु ॥२२३॥ मैयाऽप्यवादि योऽप्यद्य नरो राज्येऽभिषिच्यते। चिन्तयामि कथं तस्य प्राणनाशं निरागसः? ॥२२४॥ आ शक्रादाकृमेः प्राणा: प्राणिनामतिदुस्त्यजाः । कथं वराक: घुमात्र: पश्यतो मे विनाश्यते? ॥२२५॥ परेषां प्राणिनां प्राणत्राणैकपुरुषव्रताः । वयं हि घातयामोऽन्यं स्वप्राणितकृते कथम्? ॥२२६॥ नामन्त्रिणोऽथाऽब्रुवन् देव! कार्यद्वयमिदं हि नः । यास्यति स्वामिनोऽनर्थः प्राणी च न विपत्स्यते ॥२२७॥ वैश्रवणस्य प्रतिमा देव! राज्येऽभिषिच्यताम् । तां च त्वामिव सप्ताहं सर्व: सेविष्यते जनः ।।२२८।। दिव्यशक्त्योपसर्गश्चेन्न भवेत्तदपि सुन्दरम् । स्याच्चेत् तदपि न प्राणिवधपापं भविष्यति ॥२२९।। युक्तमेतदिति प्रोच्य गतोऽस्मि जिनमन्दिरम् । दर्भसंस्तारके तस्मिन्नस्थां च कृतपौषधः ॥२३०॥ नरेन्द्रवदवर्त्तन्त मूतौ वैश्रवणस्य ते। स्वाम्युदर्काय धीमन्तो यान्ति स्वाम्यन्तरेऽपि हि ॥२३१॥ पासप्तमे च दिने प्राप्ते मध्याह्नेऽत्यूर्जिगर्जित: । दिव्युन्ननाम पर्जन्यः प्रलयाम्बुददारुणः ॥२३२।। तस्मादम्भोधराद् घोराद् ब्रह्माण्डं स्फोटयन्निव। निपपाताऽशनिस्तस्मिन् यक्षे राज्यधरीकृते ॥२३३।। यथा यक्षे तडित्पातस्तत्र नैमित्तिके तथा। रत्नादिवृष्टिरभवद्विहिताऽन्तःपुरादिभिः ॥२३४॥ पत्तनं पद्मिनीखण्डमखण्डितमहर्द्धिकम् । दत्वा नैमित्तिकवरो व्यसृज्यत मयाऽपि हि ॥२३५।। मूर्तिं वैश्रवणस्याऽपि दिव्यरत्नमयीं नवाम् । अकारयमहं सद्यो विपद्वन्धुः स मे यतः॥२३६।। मद्विघ्नशान्त्या तदमी पौराऽमात्यादयो मुदा । महोत्सवं विदधते सर्वोत्सवशिरोमणिम् ॥२३७।। इति श्रुत्वाऽमिततेजाः सुतारां भगिनी निजाम् । वस्त्रालङ्कारदानेन पूजयामास सम्मदात् ।।२३८॥ सुतारा-श्रीविजययो: पार्श्वे कालं कमप्यथ। अतिवाह्याऽमिततेजा: स्वमेव नगरं ययौ ॥२३९।। पाअथ श्रीविजयो राजा देव्या सह सुतारया । वनं ज्योतिर्वनं नाम ययौ क्रीडाकुतूहलात् ॥२४०।। तदा च कपिलजीवोऽशनिघोषो विहायसा। विप्रतारणिकां विद्या साधयित्वा समापतन् ॥२४१॥ रममाणां समं पत्या पंतिवत्नीं सुलोचनाम् । देवीं सुतारामैक्षिष्ट प्राग्जन्मगृहमेधिनीम् ।।२४२॥युग्मम्।। तत: प्राग्जन्मसंस्कारात् सम्बन्धमविदन्नपि । चक्रेऽनुरागादुत्कण्ठां तस्यां स्वस्यामिव स्त्रियाम् ।।२४३॥ विद्याबलाद्विचक्रे च प्लवमानं तयो: पुरः। दिव्यकन्दुकवद्धैम हरिणं नेत्रहारिणम् ॥२४४।। १. व्यवस्थां पाता. विना सर्वत्र ।। २. छागवत् ।। ३. गिरेः गुहा गिरिगुहा, गिरिगुहायां इति अन्तर्गिरिगुहम् ॥ ४. उपायः ॥५. अवश्यभोग्यफलानाम् ॥ ६. तेनाल्यातस्तडित्पातो ता. ॥७. विद्युत् ।। ८. यातु तेन वः मुप्र. ॥ ९. प्रशशंसेति ता. ॥ १०. यनिमित्तज्ञानतोऽपि खंता. वा.१-२ ता. पा. ॥ ११. कुरुध्वममु० मु. ।। १२. राजाऽप्युवाच ता. ॥ १३. निरपराधिनः ॥ १४. इन्द्रादारभ्य कीटपर्यन्तम् ॥ १५. क्रिमेः मु.,'क्रिमिना॑ कृमिवत् कीटे' (मेदिनीकोषे) ॥१६. कार्य द्वय० खंता. पाता. वा.१-२॥१७. कुबेरस्य ॥१८. तं च० वा.१-२॥१९. कुशासने ॥२०. कृतपोषध: खंता. पाता. ।। २१. स्वामिहिताय ॥ २२. स्फूर्जिगर्जित: दे. ॥ २३. राज्यधुरी० खंता. वा.१-२ ॥ २४. अराज्यधरो राज्यधरः कृतः राज्यधरीकृतः, तस्मिन् ।। २५. वैश्रवणस्याऽस्य ता. ॥ २६. हर्षात् , सन्मुदा ता. ॥ २७. उल्लध्य ।। २८. स्वकीयम् ।।२९. आगच्छन् ।। ३०. पतिरस्ति अस्याः सा, ताम् ।। ३१. पूर्वजन्मपत्नीम् ॥ ३२. सौवर्णम् ॥ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । खुरैरथ विषाणाभ्यामिन्द्रनीलमयैरिव । नीलोत्पलविलासिभ्यां लोचनाभ्यां विराजितम् ॥२४५॥ पीतधातुमिवोज्झन्तं देहभासाऽतिपीतया । मण्डयन्तं नभ: फालैः पादपातैश्च भूतलम् ॥२४६॥ दृष्ट्वा सुतारादेवी तमिति भर्तारमब्रवीत् । असौ क्रीडनकं मे स्यात् स्वामिन्नानीयतां मृगः ॥२४७||त्रिभिर्विशेषकम्।। इत्युक्तः कान्तया राजाऽन्वधावत तमेणकम् । विश्लिष्टं वाहनमिव वायोर्वायुसमस्यदम् ॥२४८।। क्वचिद् वक्र: क्वचिदृजुर्मंग: स सरिदोघवत् । मनागप्यस्खलन् दूरं निनाय जगतीपतिम् ।।२४९।। क्वाऽपि दृश्य: क्वाऽप्यदृश्य: कदाऽप्युल् कदाऽपि खे । स मायादैवतमिव ग्रहीतुं न ह्यशक्यत ॥२५०।। पारंगते श्रीविजयेऽशनिघोषः शनैस्ततः । अभिसृत्याऽहरद् देवीं वनदेवीमिवैकिकाम् ॥२५१।। ततः प्रतारणी विद्या तेनाऽऽयुक्ता दुरात्मना । सुतारीभूय पूच्चक्रे दष्टाऽहं कुक्कुटाहिना ॥२५२॥ तच्छ्रुत्वा हरिणं मुक्त्वा ववले स इलापतिः । अभियोगो हि योगाय क्षेमे सति विश्चिताम् ।।२५३।। भूमौ च लठितां दृष्ट्वा तां नि:सेहंशरीरिकाम् । मणि-मन्त्रौषधिवरैरुपाचारीनरेश्वरः ॥२५४।। प्राग्दृष्टप्रत्ययमपि सर्वमप्यदादिकम् । उपकार: खल इव तस्यामफलतां ययौ ॥२५५॥ निमीलनेत्रनलिना विच्छायवदनच्छवि: । कम्पमानोरुयुगला वेपैमानपयोधरा ॥२५६।। शिथिलीभतसर्वाङ्गोपाङ्गसन्ध्यस्थिबन्धना। नपते: पश्यतोऽप्याश कालधर्ममियाय सा ॥२५७॥युग्मम्।। पैरासुरिव नि:सज्ञ: पैरासुमवलोक्य ताम् । पपात मूर्च्छित: पृथ्व्यां स पृथिवीपतिपुङ्गवः ।।२५८॥ पुनावृत्तचैतन्योऽभिषिक्तश्चन्दनद्रवैः । मूर्धाभिषिक्तमूर्धन्यो विललापैवमुच्चकैः ॥२५९॥ हहा! दैवेन मुषितो नयता त्वां मनोरमे! । त्वद्रूपैरेव हि प्राणैः प्राणितव्यं ममाऽभवत् ॥२६०॥ त्वां विनैष जनः कान्ते! शोकसम्भारभारत: । जीर्णं गृहमिवाऽऽधारस्तम्भहीनं पतिष्यति ॥२६१॥ मबल्लभां लोभयता वल्लभादेशतत्परः । काञ्चनेन कुरङ्गेण वञ्चितोऽस्मि हहा! जडः ॥२६२।। प्रत्यक्षं मे प्रियां दृष्टुं तक्षकोऽपि हि न क्षमः । कुक्कुटाहिस्तु दूरेऽस्तु दैवं हि बलवत् परम् ॥२६३॥ ततोऽनुगन्तुं दयितां त्यजन् प्राणान् हुताशने । ऊनं प्रपूरयाम्यद्य दुर्दैवस्याऽभिसर्पतः ॥२६४॥ तया सह महीनाथ: सद्यो विरचितां चिताम् । अलञ्चक्रे स्वयं धीरो रतिमन्दिरतल्पवत् ॥२६५।। यावज्ज्वलितुमारेभे क्षणादप्याशुशुक्षणिः । तावदाजग्मतुस्तत्र द्वौ विद्याधरपूरुषौ ॥२६६।। अभिमन्त्र्य तयोरेकः सिषेच पयसा चिताम् । प्रतारण्यपि तत्कालं पलायिष्टाऽट्टहासकृत् ॥२६७।। क्व स ज्वलन: उज्ज्वाल:? परासुः प्रेयसी क्व मे? । कृताट्टहासा केयं च? किमिदं दैवनाटकम्? ॥२६८।। इति सञ्चिन्तयन् स्वस्थः पुरःस्थौ तौ च पूरुषो। सौम्याकृती किमिदमित्यपृच्छत् पृथिवीपतिः ॥२६९।। तौ च प्रणम्य राजानमूचतुर्विनयोचितम् । विद्याधरपतेरावां पत्ती अमिततेजसः ॥२७०।। पिता-पुत्रौ च सम्भिन्नश्रोतो-दीपशिखाभिधौ। निर्गतौ स्वेच्छया तीर्थजिनबिम्बानि वन्दितुम् ॥२७१।। अत्राऽऽप॑तद्भ्यामावाभ्यामश्रावि श्रुतिदुःश्रवा । पशूनप्युत्कंर्णयन्ती वागियं करुणाक्षरा ॥२७२॥ हा! श्रीविजय! मत्प्राणनाथ! भूनाथसेवित! । हा! बान्धवाऽमिततेजस्तेजस्तुलितभास्कर! ॥२७३।। हा! वत्स! विजयभद्र! बलभद्रसमौजसा। हा! सर्वदा सन्निहितास्त्रिपृष्ठकुलदेवता:! ॥२७४।। दष्टविद्याधरादस्माद कादिव कुरङ्गिकाम् । इमां सुतारांत्रायध्वं त्रायध्वमविलम्बितम् ॥२७५॥त्रिभिर्विशेषकम्।। १. मृगम् ॥२. वायुतुल्यवेगम् ।। ३. नृपतिम् ।। ४. आकाशे ॥५. दूरे गते मु.॥६. ०वीमिवैककाम् वा.१-२॥७. तेन युक्ता दे. ।। ८. प्रयुक्ता ॥ ९. सुतारारूपं कृत्वा ।। १०. परपराभवः ॥११. विदुषाम् ।। १२. निर्बलशरीरां निस्तेज:शरीरां वा ॥१३. उपचारमकरोत् ॥१४. औषधादिकम् ।। १५. उपचार: ता. मु.॥१६. निमीलन्ती नेत्रे नलिने इव यस्याः सा ।।१७. विगता छाया यस्या: विच्छाया, तादृशी वदनच्छविर्यस्याः सा॥१८. कम्पमानं ऊर्वोर्युगलं यस्याः सा ॥१९. वेपमानौ.पयोधरौ यस्याः सा ॥ २०. शिथिलीभूतानि सर्वाङ्गोपाङ्गसन्ध्यस्थिबन्धनानि यस्याः सा ।। २१. मृत्युमगच्छत् ।। २२. मृत इव ॥२३. गतप्राणाम् ॥२४. मूर्धाभिषिक्तानां राज्ञां मूर्धन्य: मुख्यः ॥२५. त्वमेव मम प्राणा:, तैरेव प्राणैश्च मम जीवनमभवत् ॥२६. द्रष्टुं० खंता. पाता. ॥ २७. सर्पविशेषः, 'तक्षकस्तु लोहिताङ्ग: स्वस्तिकाङ्कितमस्तक:' अभि.चिं. तिर्यक्काण्ड - श्लो.१३०९ ।। २८. वृद्धिं गच्छतः ।। २९. तल्पं शय्या ।। ३०. क्षणादेरा० खंता. ॥३१-३२. अग्निः ।। ३३. प्रज्वलित: ।। ३४. आगच्छद्भ्याम् ।।३५. कर्णदुःश्रवा ।। ३६. उत्कर्णान् कुर्वन्ती ।। ३७. भूपतिसेवितः ।। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (पञ्चमं पर्व स्वसारं स्वामिनो ज्ञात्वा ह्रियमाणां दरात्मना। तां वाचमन्वगच्छाव 'शब्दपातिशराविव ॥२७६।। अचिरादप्यपश्याव सुतारां तरलेक्षणाम् । आत्तामशनिघोषेण पद्मिनीमिव देन्तिना ॥२७७।। ह्रियमाणां स्वामिजामि तामुपेक्षितुमक्षमौ । आबद्धभ्रकुटी वाचमवोचाव च वैरिणम् ।।२७८॥ रे विद्याधरहतकाऽशनिघोष! क्व यास्यसि? । हृत्वा सुतारां चण्डालो देवताप्रतिमामिव ।।२७९॥ अरे! रे! न भवस्येष हन्वस्त्वामुद्वहायुधम् । आवां विद्याधरपतेः पत्ती ह्यमिततेजसः ॥२८०|| एवमाक्षिप्य कृष्टासी कृष्णाही इववार्तिकौ । आवां नरजघन्यं तं जिघांसन्तावुपस्थितौ ॥२८१।। तत: सुतारादेव्योक्तं युद्धेन युवयोरलम् । वनं ज्योतिर्वनं यातं तत्र श्रीविजयः प्रभुः ॥२८२।। प्रतारण्या वञ्चयित्वा त्याज्यमानमसूनपि । निषेधतं श्रीविजयं तस्मिन् जीवामि जीवति ॥२८३॥ द्रुतमावां तदादेशादिह त्वां समुपस्थितौ। विध्यापितश्चितावह्निरावाभ्यां मन्त्रितोदकैः ।।२८४।। इयं प्रतारणी विद्या सुतारारूपधारिणी। वेतालवत् समुत्ताला साट्टहासा पलायत ॥२८५।। हृतां सुतारां विज्ञाय विषसाद महीपतिः। चितानलादप्यधिकं प्रेज्वलद्विरहानलः ॥२८६॥ तं तावित्यूचतुः स्वामिन्! मा ताम्य कुशली न स: । यतो न दूरे भवत: दैवस्येव क्व यास्यति? ।।२८७।। तौ प्रणम्याऽथ राजानं जानुस्पृष्टमहीतलौ । गाढमभ्यर्थ्य वैताढ्यमात्मना सह निन्यतुः ।।२८८।। पतत: सर्वाभिसारेणाऽमिततेजा: क्षणादपि। अभ्युत्तस्थौ श्रीविजयं विजयो मूर्त्तिमानिव ॥२८९॥ महत्या प्रतिपत्त्या तमासयित्वोचितासने । ससम्भ्रमोऽमिततेजा: पप्रच्छाऽऽगमकारणम् ॥२९०।। तौ च विद्याधरवरौ तस्मै श्रीविर्जये रितौ । सुताराहरणोदन्तमाचख्यतुरशेषतः ॥२९१॥ अथाऽर्ककीर्तितनयो भृकुटीकुटिलालिकः । रुषाऽरुणकपोलाक्षो निजगादेति भूपतिम् ॥२९२॥ कण्डूयित्वा तुण्डमिव तक्षकस्य फणाभृतः। सेंटामुष्टिमिवोत्पाट्य शयानस्य मृगद्विषः ॥२९३॥ तव भार्यां स्वसारं मे सुतारामपहृत्य स: । जीविष्यति कियन्नामाऽशनिघोषो नराधमः? ॥२९४।।युग्मम्।। पाततश्च शस्त्रावरणीं बन्धनी मोचनीमपि। विद्यां श्रीविजयायाऽदादर्ककीर्तिसुतः स्वयम् ।।२९५॥ रश्मिवेगा-ऽमितवेग-रविवेगा-ऽर्ककीर्तयः । भानुवेगा-ऽऽदित्ययशो-भानु-चित्ररथा अपि ॥२९६॥ अर्कप्रभोऽथाऽर्करथो रवितेजा:प्रभाकरः । तथा किरणवेगोऽपि सहस्रकिरणोऽपि च ॥२९७।। इत्यादीनां स्वपुत्राणां से नु पञ्चशतीमथ । समं त्रैपृष्ठिना वीरप्रष्ठेन पृतनावृताम् ॥२९८॥ पुर्यां चमरचञ्चायां तस्मादशनिघोषतः । सद्य: सुतारामाहर्तुं प्राहिणोदैहितान्तकः ॥२९९।।चतुर्भि: कलापकम्।। ततो विद्याधरबलच्छन्नाशेषनभस्तलः । दिवि केतुशतानीवोद्भावयन् सुभटायुधैः ॥३००॥ प्रभूतहयहेषाभिर्हेषयन् भास्वतो हयान् । वितन्वानो गजैर्कोम्नि मेघमालामिवाऽपराम् ॥३०१।। विमानैर्दर्शयन् दीप्रैरानौत्पातिकानिव । जगाम चमरचञ्चां त्रिपृष्ठतनयः क्षणात् ॥३०२||त्रिभिर्विशेषकम्।। तं चाऽधिविद्यमशनिघोषं ज्ञात्वाऽर्ककीर्तिसूः । सहस्ररश्मिना सार्धं सुनूनाऽनूनशक्तिना ॥३०३।। परविद्याच्छेदकरी महाज्वालाभिधायिकाम् । विद्यां स्वयं साधयितुं हिमवन्तं गिरिं ययौ ॥३०४॥युग्मम्।। स तत्र च जयन्तस्य महर्षेः प्रतिमाजुषः । तथैव धरणेन्द्रस्य पादमूलेऽतिपावने ॥३०५।। स्थितो मासिकभक्तेन प्रतिमां साप्तरात्रिकीम् । समुद्वहन् प्रववृते विद्यासाधनकर्मणि ॥३०६ायुग्मम्।। १. शब्दानुसारिणौ शरौ इव ॥ २. गजेन । ३. स्वामिभगिनीम् ।। ४. आबद्धभ्रकुटीवावां तमवोचाव वैरिणम् सं. ता. दे. ला. । आबद्धभ्रकुटी वाचं तमवोचाव वैरिणम् खंता. पाता. वा.१-२॥५.हे दुष्टविद्याधर! ।। ६.चाण्डालो पा.॥७. गारुडिकौ ।। ८. नराधमम् ।। ९. हन्तुमिच्छन्तौ॥१०. उन्मत्ता। ११. पलायिता पाता. वा. १-२ सं. ला.॥१२. प्रज्वलन् विरह एव अनल: यस्य सः॥१३. जानुभ्यां स्पृष्टं महीतलं याभ्यां तौ ॥१४. सर्वसामग्र्या ॥१५. सत्कारेण ॥ १६. श्रीविजयेन प्रेरितौ ॥१७. भृकुटीवत् कुटिलं अलिकं ललाटं यस्य सः ।। १८. रुषा अरुणे कपोलो अक्षिणी च यस्य सः ।। १९. कपोलाक्षिर्निज० खंता. पाता. वा.१-२ सं. छा. ला. दे. पा. ॥ २०. मस्तकम् ।। २१. केसराणां मुष्टिम् ।। २२. सिंहस्य ।। २३. चतुपञ्चाशती० खंता., शतपञ्चशती० मु. ॥ २४. वीराग्रसरेण ।। २५. सेनान्विताम् ॥ २६. शत्रुनाशकः ॥ २७. खंता. पाता. वा.१-२ प्रतिषु नास्ति ॥२८. विद्याधराणां बलेन छन्नमशेष नभस्तलं येन सः ।। २९. उत्पातजनितान् ॥ ३०. त्रिपृष्ठितनयः दे. मु. ॥ ३१. अधिकविद्यावन्तम् ॥३२. लाभिधानिकाम् सं. मु. विना, खंता. पाता. वा.१-२॥ ३३. सप्तसु रात्रिषु भवा ताम् ।। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । सहस्ररश्मिः पितरं ररक्ष च तथास्थितम् । एवं च तिष्ठतोर्मास: किञ्चिदूनस्तयोरभूत् ॥३०७।। पाइतश्च चमरचञ्चाबहिर्देशे कृतस्थिति: । प्रेषीदशनिघोषाय दूतं श्रीविजयो नृपः ॥३०८।। दूतो गत्वाऽथ नि:शङ्कोऽशनिघोषमभाषत । धिग् हीकरमिदं कर्म काकेनेव त्वया कृतम् ॥३०९॥ धैर्य-वीर्यविहीनानां छलमेव हि पौरुषम् । तद्वतामद्य धुर्योऽसि देवीमपहरंस्तथा ॥३१०॥ प्रतारणी श्रीविजये विद्यां स्फोरयतस्तदा । प्रेक्षापूर्वककारित्वमहो ते श्मश्रुधारिणः ॥३११॥ ज्ञातस्त्वया श्रीविजय: प्रतापतपनो न किम्? । निष्प्रतापे त्वादृशानां छलानि प्रभवन्ति हि ॥३१२॥ स मोघीकृत्य तां विद्यामिहाऽऽयासीद् यथा तथा । सुतारां नेष्यति बलात् तद्धीमन्! स्वयमर्पय ॥३१३।। स्वयमर्पयतो देवीं प्रणिपातपुरःसरम् । त्वज्जीवितस्य कुशलं कीनाश: प्रगुणोऽन्यथा ॥३१४॥ बभाषेऽशनिघोषोऽपि घननिर्घोषघोरगी: । साध्वहो! दूत! धृष्टोऽसि दृष्टो नेहक् क्वचिन्मया ॥३१५॥ यद्यत्राऽगाच्छ्रीविजयस्तत् किं तेन तपस्विना? । सुमेरुमपि गच्छन्ति खगा: किं तेषु पौरुषम्? ॥३१६।। ममैकयत्नलेशेन नष्टशक्तिः स यास्यति । न वालुकादेवकुलं सहते सरितो रयम् ॥३१७।। पथा यथागतेनैव स प्रयातु निजौकसि । सुतारां याचमानस्तु प्रयास्यति यमौकसि ॥३१८॥ इति द्वयं समालोच्य यातु तिष्ठतु वाऽद्य स: । गच्छ त्वमपि मद्वाचं समाख्याहि तदग्रतः ॥३१९॥ एवमुक्तस्तेन दूतो द्रुतं निर्गत्य तत्पुरात् । आख्यत्रैपृष्ठये तस्य वाचिकं वञ्चकात्मनः ।।३२०॥ कोपानलानिलप्रायं श्रुत्वा तत् तस्य वाचिकम् । राजा श्रीविजय: सेनां सज्जितामप्यसज्जयत् ॥३२१॥ ज्ञात्वा श्रीविजयानीकान्यनीकोत्कण्ठितान्यथ। आदिदेशाऽशनिघोषो युद्धातिथ्यकृते सुतान् ॥३२२॥ अश्वघोष: शतघोष: सहस्रघोष एव च। महोघोषो भीमघोषो घनघोषस्तथाऽपरे ॥३२३।। तत्पुत्रा मेघघोषाद्याः सर्वे सर्वाभिसारतः । युद्धाय चमरचञ्चापुर्या द्वारे विनिर्ययुः ॥३२४॥युग्मम्।। रणतूर्याण्यवाद्यन्त सैन्ययोरुभयोरपि । ध्वनिना शरदम्भोदसोदराणि गरीयसा ॥३२५॥ शरच्छिन्नोच्छलच्छत्रैः शतेन्दूभवदम्बरम् । कृन्तोत्पतच्छिरोभिश्च संमूर्च्छद्रुहुराह्विव ॥३२६॥ पतद्भिस्तेजितें: शल्यैः पतदुल्कामिवोच्चकैः । आस्फलत्पर्वतमिवाऽऽस्फलद्भिर्गन्धसिन्धुरैः ॥३२७॥ भुवि विश्रान्तसन्ध्याभ्रमिव कीलालकर्दमैः । मद्यस्येवाऽसृजः पानान्माद्यद्वेतालपेटकम् ॥३२८॥ महाभटै प्यमानमन्त्रास्त्रमिव हुकृतैः । शल्याहतेभकुम्भोत्थमुक्तातारकिताम्बरम् ॥३२९॥ सैन्यरेणुभिरुद्भूतप्रदोषमिव सर्वत: । महत् प्रववृते युद्धमुभयोरपि सैन्ययोः ॥३३०॥पञ्चभि: कुलकम्।। घोरैर्गदाप्रहरणप्रहारैरतिमूर्च्छिता: । अञ्चलान् व्यजनीकृत्य केऽप्यवीज्यन्त बन्धुभिः ॥३३१।। वल्लभाभिः पयस्कुम्भहारिणीभिः पिपीसिताः। केऽप्यम्भोऽनुपदिनीभिरपाय्यन्त मुहुर्मुहुः ॥३३२॥ पश्यन्तीनां प्रेयसीनामपि केऽप्यमरीजनैः । अयं मेऽयं ममेशस्तान् सोत्कण्ठमिति वव्रिरे ॥३३३॥ आदाय कोऽप्यरेौलिं नृत्यति स्म महाभुजः। तत्स्पर्धयेव तद्वैरिकबन्धोऽपि ननर्त च ॥३३४॥ प्रथमस्यन्दनाद् भग्नात् कोऽपि च स्यन्दनान्तरम् । समुत्पत्य ययौ वृक्षादिव वृक्षान्तरं कपिः॥३३५॥ कोऽपि युद्ध्वा चिरतरं निष्ठितास्त्रो महाभटः । स्वकेनैव शिरस्त्रेण प्रहत्याऽमारयत् परम् ॥३३६॥ परिक्षीणेषु शस्त्रेषु निखिलेष्वपि केचन । दोर्दण्डाभ्यां युयुधिरे दन्ताभ्यामिव दन्तिनः ॥३३७|| अस्त्रैः शस्त्रैर्मायया च सैन्ययोर्युध्यमानयोः । किञ्चदूना व्यतीयाय मास एको द्वयोरपि ॥३३८॥ १. धिग् श्रीकर० मु. ॥ २. छलवताम् ।। ३. प्रतारिणी मु. ॥ ४. निष्फलीकृत्य ॥५. यमः॥ ६. दृष्टोऽसि पृष्टो० मु.॥ ७. वेगम् ॥ ८. सन्देशम् ॥ ९. कोपाग्निवायुसदृशम् ।। १०. युद्धोत्कण्ठितानि ।। ११. युद्धसत्काराय ।। १२. खंता. पाता. वा.१-२ न ॥१३. शतचन्द्रीभवत् अम्बरं यत्र तत्॥१४. कृन्तानि उत्पतन्ति च तानि शिरांसि च तैः ; कृतोत्पतच्छिरोभिश्च ता. दे. पा. छा., कृत्वोत्पतच्छिरोभिश्च ला. ॥१५. संमूर्च्छन्तो बहवो राहवो यत्र ॥ १६. तीक्ष्णैः ॥ १७. शोणितकर्दमैः ॥ १८. समूहः ।। १९. शस्त्रैराहता ये गजास्तेषां कुम्भेभ्य उत्थिताभिर्मुक्ताभिस्तारकितमाकाशं यत्र तत् ॥ २०. तृषिताः ॥ २१. पदानुसारं गच्छन्तीभिः ।। २२. शिरोरहितो देहः ।। २३. शस्त्रविहीनः ।। २४. शिरस्त्राणेनेत्यर्थः; शिरस्केन दे. छा. मु.॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (पञ्चमं पर्व सैन्यैः श्रीविजयस्याऽथ पवनैरिव पादपाः। अभज्यन्ताऽशनिघोषकुमारा मारपीडिता:॥३३९॥ अथाऽशनिमिवोद्यम्याऽशनिघोषो महागदाम् । कुमारांस्तर्जयन् भग्नान् भझ्यन्नपि च विद्विषः ॥३४०॥ वराहः पल्वलमिव समुद्रमिव मन्दरः। विशिष्टविद्यादोर्वीर्योऽगाहिष्ट द्विषतां बलम् ॥३४१॥ मङ्गु तेनाऽप्यभज्यन्त सूनवोऽमिततेजसः । कृते प्रतिकृतं सद्यो कुर्वन्ति हि मनस्विनः ॥३४२॥ सुताराभ्रातृजान् भग्नान् वीक्ष्य श्रीविजयो नृपः । युद्धे स्वयमढौकिष्ट तिष्ठ तिष्ठेत्यरिं ब्रुवन् ॥३४३॥ अथ द्वावपि गर्जन्तौ तर्जन्तौ च परस्परम् । शस्त्रशक्तिं दर्शयन्तौ विद्याशक्तिं च तादृशीम् ॥३४४॥ प्रहारान् वञ्चयमानावन्योन्यस्याऽतिलाघवात् । सुरा-ऽसुरैर्वीक्ष्यमाणौ युयुधाते महाभुजौ ॥३४५।।युग्मम्॥ पाअथ श्रीविजयः क्रुद्धः खड्गेनाऽऽहत्य विक्रमी। व्यधाद् द्विधाऽशनिघोष कदलीकाण्डलीलया॥३४६॥ वटपादाविव वटौ ते च खण्डे उभे अपि । अभूतामशनिघोषौ घोषभेषितसैनिकौ ॥३४७॥ तावप्यशनिघोषौ स यावच्चक्रे द्विधा द्विधा । संजज्ञिरेऽशनिघोषाश्चत्वारस्तावदुद्धताः॥३४८॥ चतुरोऽपि द्विधा चक्रे तान् यावदवनीपतिः । तावदष्टाऽशनिघोषा जज्ञिरे सेमराजिरे ॥३४९॥ खण्डितैरशनिघोषैरेवं तेन मुहुर्मुहुः । सहस्रशोऽशनिघोषा: शालिस्तम्बा इवाऽभवन् ॥३५०॥ बहुशोऽशनिघोषैस्तैर्युगपत् पोतनेश्वरः । अलक्षि वेष्ट्यमान: सन् विन्ध्याद्रिरिव वारिदैः ।।३५१॥ छेद छेदं च तान् श्रान्तो यावच्छ्रीविजयोऽभवत् । तावत् सिद्धमहाज्वालोऽमिततेजा: समाययौ ॥३५२॥ आगच्छत: प्रतापोष्णतेजसोऽमिततेजसः। प्रणेशुरशनिघोषसैन्या: सिंहान्मृगा इव ।।३५३।। न नंष्टुमपि दातव्यं द्विषामेषां दुरात्मनाम् । इति विद्यां महाज्वालां विन्ययुक्ताऽर्ककीर्तिसूः ।।३५४॥ अहिता मोहिता: सद्यस्ते महाविद्यया तया। शरण्यं शरणायेयुस्तमेवाऽमिततेजसम् ॥३५५॥ गन्धेभगन्धमाघ्राय करीवाऽमिततेजसम् । अवलोक्याऽशनिघोष: पलायिष्ट निरर्गलम् ॥३५६॥ दूरादपि दुरात्माऽयमानेतव्यस्त्वयेति सा। महाज्वाला महाविद्याऽभिदधेऽमिततेजसा ॥३५७।। ततश्चाऽशनिघोषस्य पृष्ठतो रुष्टकालवत् । पर्यधाविष्ट सा विद्या सर्वविद्यान्तकारिणी॥३५८॥ तस्या: पलायमान: सोऽनाप्नुवन् शरणं क्वचित् । अपाग्भरतवर्षार्धं प्राविशच्छरणेच्छया ॥३५९।। ततश्च तत्र सीमाद्रौ चैत्ये श्रीऋषभप्रभोः। समवसरणस्थाने स्थापितोऽस्ति गजध्वजः ॥३६०॥ बलदेवमुनिस्तत्राऽचल: पूर्वाब्धिपारगः । शुक्लध्यानी प्रत्यपादि प्रतिमामेकरात्रिकीम् ॥३६१।। कर्मणां घातिनां छेदात् तदा तस्य महामुनेः । उत्पेदे केवलज्ञानं विश्वसङ्क्रान्तिदर्पण: ।।३६२।। तस्याऽथ केवलज्ञानमहिमानं विधिसंवः । सुरा-ऽसुरा: समाजग्मुरांयुक्ता इव सत्वरम् ।।३६३॥ तौ चाऽभिनन्दन-जगनन्दनौ वहिजट्यपि। विजेटी चाऽर्ककीर्तिश्च पुष्पकेतुरथाऽपरे ॥३६४।। विमलमत्यादयोऽपि समेयुश्चारणर्षयः । बलं प्रदक्षिणीकृत्य नत्वा च समुपाविशन् ।।३६५।।युग्मम्।। महाज्वालापातभीतोऽशनिघोषोऽपि तत्क्षणम् । ययौ शरणमचलं प्रशमैकसुधाह्रदम् ।।३६६।। साऽपि मुक्त्वाऽशनिघोषं महाज्वाला न्यवर्तत । न हीन्द्रकुलिशस्याऽपि स्फूर्तिः केवलिपर्षदि ॥३६७।। अशेषं तं च वृत्तान्तमुपेत्याऽमिततेजसे । कथयामास सा विद्या निर्जमोघत्वलज्जिता ॥३६८॥ तं च वृत्तान्तमाकर्ण्य कलापीव घनध्वनिम् । अमोदताऽमिततेजा राजा श्रीविजयोऽपि च ॥३६९।। इत: पुर्या: समादाय सुतारां द्रुतमापतेः । एवं मारीचिमादिश्योत्कण्ठापूरितमानसः ॥३७०।। ससैन्योऽप्यमिततेजा: स च श्रीविजयो नृपः । वायुवद्वयोमयानेन सीमादि द्रुतमीयतुः ॥३७१।। १. प्रतीकारम् ।। २. युधि सं. ला. ।। ३. वटपादादिव दे. छा. मु. ॥ ४. घोषेण भेषिताः सैनिका: याभ्यां तौ, गर्जनाक्षोभितसैनिकौ ।। ५. रणाङ्गणे ॥६. छित्त्वा छित्त्वा ॥७. प्रतापेन सूर्यसमानस्य ।। ८. शत्रवः ॥९. अयन्त्रितम् ।। १०. दक्षिणभरतक्षेत्रार्धम् ॥११. चतुर्दश पूर्वाणि एव अब्धय: तेषां पारगः॥१२. कर्तुमिच्छुकाः ।।१३. सेवका इव ॥१४. त्रिजटी मु.॥१५. अचलमुनिम् ॥१६. इन्द्रवज्रस्य ॥१७. प्रभावः ॥१८. स्ववैफल्येन लज्जिता ।। १९. मयूरः ।। २०. आनये: मु.॥२१. राजा पा. दे. ॥ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः ) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । तत्र चर्षभनाथस्य वन्दित्वा बिम्बमादितः । बलदेवं ववन्दाते तदग्रे च निषेदतुः ॥ ३७२ ॥ ॥इतश्च चमरचञ्चां मारीचिरविशत् पुरीम् । गृहे चाऽशनिघोषस्य मातुः पार्श्वमुपाययौ ॥ ३७३॥ हिमार्त्तामिव नलिनीं पङ्कमग्नामिवाऽर्जुनीम् । दवप्राप्तामिव लतां वागुरास्थां मृगीमिव ॥ ३७४॥ इन्दुलेखामिवाšहःस्थां तटस्थां शेफरीमिव । वारीबद्धामिव वशां हंसी मरुगतामिव ॥ ३७५॥ सुतारामुपवासस्थां तत्र चाऽत्यन्तदुःखिताम् । मन्त्रवत् पतिनामैव स्मरन्तीं स उदैत || ३७६ ॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ ततः स आख्यदशनिघोषमातुरशेषतः । यत् सुताराऽऽनयनायाऽऽदिष्टोऽस्म्यमिततेजसा ||३७७|| सुतारां समुपादायाऽशनिघोषजनन्यपि । आययावचलस्वामिसभायां यत्र तत्पतिः ॥३७८॥ सा तत्कालमपि हि श्रीविजया-ऽमिततेजसोः । सुतारामर्पयामासाऽनघां न्यासीकृतामिव ॥३७९ ॥ बलदेवं भगवन्तं केवलज्ञानिनं ततः । सा वन्दित्वा यथास्थानं निषसाद प्रसादभाक् ॥ ३८० ॥ तदा चाऽशनिघोषोऽपि क्षमयामास सामवाक् । नरविद्याधरेन्द्रौ श्रीविजया - ऽमिततेजसौ ॥ ३८१ ॥ शान्तवैरास्ततः सर्वेऽप्यभवंस्तत्र पर्षदि । देशनां चाऽचलस्वामी विदधे शुद्धिदायिनीम् ॥ ३८२॥ • देशनान्तेऽशनिघोषो बलभद्रमहामुनिम् । इति विज्ञपयामास लैलाटघटिताञ्जलिः ॥ ३८३॥ स्वस्थाने तस्थुषी सेयं दन्तिनेवाऽरविन्दिनी । न हि दुष्टेन मनसा सुताराऽपहृता मया ॥ ३८४ ॥ किन्त्वहं चमरचञ्चानगर्यां गतवान् पुरा । आयतने भगवतो जयन्तस्य महामुनेः || ३८५|| तत्र च भ्रामरीं विद्यां किञ्चिद् भ्रमरवद् गृणन् । असाधयमहं स्वामिन्! सप्तरात्रमुँपोषितः ॥ ३८६ ॥ ततः प्रतिनिवृत्तः सन् वने ज्योतिर्वनाभिधे । इमां सुतारामद्राक्षं स्थितां श्रीविजयान्तिके ॥३८७॥ केनापि हेतुनाऽमुष्यां कोऽपि वाचामगोचरः । ममाऽऽलोकितमात्रायां स्नेहः समुदपद्यत ॥ ३८८।। ततश्चाऽचिन्तयमहं नाऽलं गन्तुं विनाऽनया । मनो मम प्रोत्सहते सैन्दानितमिवोच्चकैः ॥ ३८९ ॥ राज्ञः श्रीविजयस्याऽस्य दोष्मतः पार्श्ववर्तिनी । न चैषा शक्यते हर्तुं शेषस्येव शिरोमणिः ॥३९०॥ प्रतारण्या विद्यया तन्मोहयित्वा महीपतिम् । एतामहमपाहार्षं चिल्ली " हारलतामिव ।। ३९१।। स्वजनन्याः समीपे चाऽमुञ्चमेतामनिन्दिताम् । चन्द्रस्याऽपि कलङ्कोऽस्ति न त्वेतस्या मनागपि ॥३९२॥ न चोक्तं वचसाऽप्यस्यां मया किञ्चिदशोभनम् । परमाख्याहि भगवन्! किं मेऽस्यां स्नेहकारणम् ? ॥ ३९३॥ [अथाऽऽख्यद् भगवान् सत्यभामा - कपिलयोः कथाम् । श्रीषेणस्य शिखिर्नन्दिता - ऽभिनन्दितयोरपि ।। ३९४॥ स मुनिः पुनरप्याख्यच्छ्रीषेणोऽथाऽभिनन्दिता । सा शिखिनैन्दिता सत्या मृत्वा युगलिनोऽभवत् ॥३९५॥ ततोऽपि मृत्वा सौधर्मे चत्वारोऽप्यभवन् सुराः । ततोऽपि च्युत्वा श्रीषेणोऽमिततेजा अभूदयम् ॥ ३९६ ॥ शिखिनैन्दिताजीवस्तत्पत्नी ज्योतिः प्रभेत्यभूत् । तथाऽभिनन्दिताजीवः सोऽयं श्रीविजयोऽभवत् ॥ ३९७॥ जीवस्तु सत्यभामाया: सुतारेयमजायत । मृत्वाऽऽर्त्तध्यानी कपिलो बभ्रामाऽनेकयोनिषु ॥ ३९८ ॥ आर्त्तध्यानोद्भवं कर्माऽकामनिर्जरया तु सः । उत्पद्योत्पद्याऽक्षपयत् तिर्यग्-नरकवासिषु ॥ ३९९॥ भूतरत्नाभिधाटव्यामैरावत्याश्च रोधसि । तापसाग्र्यस्य जटिलकौशिकस्य तपस्विनः || ४०० || पत्न्यां पवनवेगायां धैर्मिलो नाम दारकः । उत्पेदे कपिलजीवः शैमिलायुगयोगवत् ॥४०१ ॥ लाल्यमानस्तापसीभिराश्रमाङ्गणवृक्षवत् । क्रमादासादयामास वृद्धिं धैर्मिलदारकः ।।४०२।। दीक्षां निजपितुः पार्श्वे गृहीत्वा स जटाधरः । समारेभे बालतप: प्रकर्तुं पैतृकं हि तत् ॥ ४०३|| १. मरीचिरवि० दे. ला. ॥२. धेनुम् ॥ ३. पाशबद्धाम् ॥ ४. दिवसस्थाम् ॥ ५. मीनम् ॥ ६. वारी गजबन्धनी तस्यां बद्धां वशां हस्तिनीम् ॥ ७. मरुधरदेशगतां हंसीम् ॥ ८.०मपि खंता ।। ९. निर्दोषाम् ॥ १०. प्रत्यर्पणाय स्थापितामिव ॥ ११. ललाटे घटितोऽञ्जलिः येन सः ।। १२. तत्स्थाने मु. ॥। १३. उपवासकारी ॥ १४. लोकितमात्रायाः ला. पा. छा ॥ १५. बद्धम् ॥ १६. शेषनागस्य ॥ १७. शकुनिः ॥ १८. चामुचमेता० ता. ॥। १९. सिंहनन्दिता खंता. पाता. वा. १-२, सं. ता.ला. ॥ २०. सिंहनन्दिता खंता. पाता. वा. १-२ सं. ता. ला ॥ २१. मृता० वा. १-२ ॥ २२. सिंहनन्दिता खंता. पाता. वा. १-२ सं. ता. ला. ।। २३. उत्पाद्योत्पाद्या० खंता ॥ २४. धर्मिल्लो० पाता. ॥ २५. शमिला (शमिल्ला पाता. ) भाषायां 'समोल' इत्युच्यते; युगं च भाषायां 'धूंसरी'; तयोर्योगस्तद्वत् ॥ २६. धर्मिल्ल० पाता ॥ २७. पैतृकं मातृकं खंता. पाता. वा. १-२ ला छा. विना ॥ १३ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं 1 अधिसेहे स हेमन्ते हिमभीमासु रात्रिषु । गलन्त्या वारिसम्पातं शैलाश्मा निर्झरादिव ॥४०४॥ मार्त्तण्डो मूर्ध्नि पार्श्वेषु ज्वलन्त्यश्च हंसन्तिकाः । सहते स्मेति पञ्चाग्नीन् ग्रीष्ममध्यन्दिनेषु सः ॥४०५॥ योदवृष्टिपूर्णेषु स्वयं खातसरस्सु च । अघोरमन्त्राद्यजपदाकण्ठं पयसि स्थितः ॥४०६ ॥ वापी: कूपान् सरसीश्च चखानाऽखनयच्च सः । अप्कायपृथिवीकायजीवबाधानिरर्गलः ॥४०७|৷ आदाय दात्र- परशू कृषीवल इव स्वयम् । चिच्छेद समिधो दर्भान् सोऽर्भवद् देभ्रबुद्धिकः ॥ ४०८ ॥ स चक्रे धर्मशकटीर्मार्गदीपानदत्त च । घुणदाह-पतङ्गादिपातपातकनिर्भयः ॥४०९॥ अतिथीनामिव सदा काकादीनां दुरात्मनाम् । पिण्डदानं स विदधे भोजनस्याऽऽदितोऽपि हि ॥४१०॥ आनर्च च ववन्दे च देववद् गाः स गोनिभः । न्यग्रोध-पिप्पला- 'रिष्टप्रभृतीनंह्रिपानपि ॥४११॥ संपूतरैश्च पानीयैः सिषेच स महीरुहान् । पानीयशाला बिभराञ्चकार स पदे पदे ||४१२।। इत्यादिकं धर्मबुद्ध्या विदधान स मुग्धधीः । कालं ललङ्के भूयांसमायासफलजीवितः ॥४१३॥ अपरेद्युर्विमानस्थं स गच्छन्तं विहायसा । विद्याधरं ददर्शैकं महर्द्धिकेंमिवाऽमरम् ॥४१४॥ फलेन तपसोऽमुष्येदृग् भूयासं भवान्तरे । इत्यकार्षीन्निदानं स क्रमेणाऽऽप च पञ्चताम् ।।४१५।। ततश्चमरचञ्चायां पुर्यां विद्याधरप्रभोः । इन्द्राशने: स आसुर्यां पत्न्यां त्वमुदभूः सुतः ||४१६|| ततः प्राग्जन्मसम्बन्धात् सुतारायां तवाऽभवत् । स्नेहोऽयं पूर्वसंस्कारो याति जन्मशतान्यपि ॥४१७॥ सुतारा-ऽमिततेजाश्च तथा श्रीविजयोऽशनिः । संवेगं विस्मयं चेयुः प्राग्भवाकर्णनात् ततः ।।४१८।। ||भव्यः किमस्मि यदि वा नाऽस्मीत्यमिततेजसा । पृष्टोऽभाषिष्ट भगवान् बलभद्रमहामुनिः ॥४१९॥ अतो भवात् त्वं नवमे भवे क्षेत्रेऽत्र भारते । द्वात्रिंशद्बद्धमुकुटनृपसहस्रसेवितः ॥४२०॥ चतुर्दशमहारत्ननाथो नवनिधीश्वरः । समुद्र-क्षुद्रहिमवन्मेखलायाः पतिर्भुवः ॥ ४२१॥ सेव्यमानो मागधाद्यैरपि देवकुमारकैः । पञ्चमश्चक्रवर्ती त्वं महाभुज! भविष्यसि ॥४२२॥ भवे तत्र चतुःषष्टिसुरेन्द्रप्रणतक्रमः । शान्तिनाथ इति ख्यातः षोडशोऽर्हन् भविष्यसि ॥४२३॥ राजा श्रीविजयोऽयं तु तस्मिन्नेव भवे तव । प्रथमस्तनयो भावी प्रथमो गणभृत् तथा ॥४२४।। ततो मुनिं प्रणम्य श्रीविजया - ऽमिततेजसा । नरेन्द्रौ द्वादशविधं भेजतुः श्रावकव्रतम् ॥४२५॥ || प्रणम्याऽशनिघोषस्तु बलभद्रं महामुनिम् । एवं विज्ञपयामास सुमना भक्तिवामनः ॥४२६॥ सर्वज्ञ ! त्वन्मुखाच्छ्रुत्वा स्वदुःखं प्राग्भवोद्भवम् । मनो मम तदावेशादिदानीमपि कम्पते ॥४२७॥ भगवन्! भवदाख्याते पुरा कपिलजन्मनि । आर्त्तध्यानं चकाराऽहं यत् प्रियाविप्रयोगतः ॥ ४२८ ॥ नानाविधवध-च्छेद-भेदभीमासु योनिषु । उत्पद्योत्पद्य बहुश: प्राप्तवानस्मि तत्फलम् ॥४२९॥ अकामया निर्जरया जीर्णदुष्कर्मकस्ततः । कथञ्चित् प्राप्तवानस्मि मानुष्यं पूर्वजन्मनि ॥४३०॥ तत्राऽप्यभाग्यादप्राप्तजिनधर्मस्तपस्व्यहम् । बहुकष्टं स्वल्पफलं हहा! बालतपो व्यधाम् ॥४३१॥ कृत्वा निदानं तस्याऽपि तपसोऽहमिहाऽभवम् । पुर्यां चमरचञ्चायां विद्याधरपति: प्रभो ! ॥ ४३२ ॥ निदानिनोऽपि तपसः परस्त्रीहरणस्य च । महाज्वालामहाविद्याप्रभवस्य भयस्य च ॥४३३ ॥ परिणामः शुंभोदर्को ममाऽजनि जगद्गुरो ! । शरणं यदवाप्तोऽसि सर्वदुःखविमोचैन ! ॥ ४३४ ॥ युग्मम्॥ 1 १. अङ्गारशकटिका ।। २. पयोदवृष्टिपूर्तेषु दे. छा. मु. ॥ ३. दात्रपरशून् पाता. वा. १-२ ॥ ४. शिशुवत् ॥ ५. स्वल्पबुद्धिकः ला. मु. ॥ ६. धर्मशकटीमार्गदीपा० ला. दे. छा. । मृतानां जन्मान्तरे तत्तल्लाभार्थं शकटी दीयते तथा तन्निमित्तं दीपदानं कुर्वन्ति ।। ७. काष्ठकीटः ॥ ८. धेनूः ॥ ९. वृषभसदृशः ।। १०. अरिष्टेति भाषायां ‘अरीठो’ ।। ११. पूतरा जलजन्तव: 'पोरा' इति भाषायाम् । सपूतरैः स पानीयै: मु. ॥१२. कमिवापरम् ला. छा. मु. ।। १३. मृत्युम् ।। १४. प्राग्भव० मु. ।। १५. वैराग्यम् ॥ १६. विस्मितम् दे. मु. ॥ १७. ० नृपसहस्रैश्च सेवितः मु. । द्वात्रिंशत: बद्धमुकुटानां नृपाणां सहस्रेण सेवितः ।। १८. चतुःषष्ट्या सुरेन्द्रैः प्रणतौ क्रमौ चरणौ यस्य ॥ १९. भक्त्या नम्रः ॥ २०. नानाविधैः वधच्छेदभेदैर्भीमाः तासु ॥ २१. शुभ उत्तरकालो यस्य सः ।। २२. विमोचन: मु. ॥ (पञ्चमं पर्व For Private Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । वस्त्विवान्धः पुरोवर्ति जिनधर्ममसंविदन् । इयतोऽहं भवान् भ्रान्तो रक्ष रक्षाऽधुनाऽपि माम् ॥४३५।। अत: परं क्षणोऽप्येको यतिधर्मोज्झितस्य मे। मा गादिति विभोऽद्यैव दीक्षां शैक्षाय देहि मे ॥४३६।। युक्तमेतदिति प्रोच्याऽनुगृहीतोऽचलेन सः । प्रश्रयं संश्रयन्नेवमुवाचाऽमिततेजसम् ॥४३७।। ज्वलनः कर्मकक्षाणां पूज्यो ज्वलनजट्ययम् । धर्म: साक्षादिव जयी तव यस्य पितामहः ।।४३८।। अयं च भगवान् धन्यस्तृणवत् त्यक्तवैभवः । तपस्तेजोभिरर्कोऽर्ककीर्तिर्यस्य च ते पिता ॥४३९।। भाविनश्चक्रिणस्तस्य भाविनश्चाऽर्हतस्तव। प्रणिपातं कुर्वतो मे न लज्जा मानिनोऽपि हि॥४४०॥ इदं चमरचञ्चायां मम राज्यममी सुताः । अश्वघोषादयोऽन्यच्च त्वदीयं विद्धि माऽन्यथा ॥४४१।। इत्युदित्वा सोऽश्वघोषं ज्यायांसं निजमात्मजम् । क्षीरकण्ठमिवाऽप्सीदुत्सङ्गेऽमिततेजसः ॥४४२॥ ततो नरेन्द्रैर्भूयोभिः सहेन्द्राशनिनन्दनः । उपादत्त परिव्रज्यामचलस्वामिसन्निधौ ॥४४३॥ माता श्रीविजयस्याऽपि तत्राऽऽगत्य स्वयम्प्रभा। अचलस्वामिपादान्ते परिव्रज्यामुपाददे ॥४४४॥ बलं नत्वाऽमिततेजा राजा श्रीविजयोऽपि च । अश्वघोषादयश्चेयु: स्थानं निजनिजं ततः॥४४५॥ आयतनेष्वार्हतेषु प्रकृष्टाष्टाहिकोत्सवान् । कुर्वाणावणुश्रीकौ शक्रेशानाविवाऽनिशम् ॥४४६॥ एषणीयकल्पनीयप्रासुकैर्वस्तुभिः सदा। कृतार्थयन्तौ स्वामृद्धिं साधूनामुपढौकितैः ॥४४७।। अनेकचिन्तासन्तानग्रीष्मसन्तापितात्मनाम् । अर्ति हरन्तावार्त्तानां पूर्वानिलवनाविव ॥४४८॥ श्रुतस्कन्धरहस्यानि श्रुतानि गुरुसन्निधौ । भावयन्तौ सुधीप्रष्ठावात्मगोष्ठ्या दिवानिशम् ॥४४९॥ कुतीर्थिगोष्ठीमुज्झन्तौ छायां बैभीतकीमिव। कुपथ्यवत् त्यजन्तौ च व्यसनान्यखिलान्यपि ॥४५०॥ सुखान्यनुभवन्तौ च क्षणे वैषयिकाण्यपि। राज्यचिन्तामप्यनघां विदधानौ यथाक्षणम् ॥४५१॥ स्वे स्वे पुरेऽवतिष्ठन्तावेकत्र मनसा पुनः । कालं व्यतीयतुस्तौ श्रीविजया-ऽमिततेजसौ ॥४५२॥सप्तभि: कुलकम्।। अन्येधुरमिततेजाश्चैत्यान्ते पौषधौकसि। पौषधी विद्याधराणामाचख्यौ धर्ममार्हतम् ।।४५३।। तदा च चारणमुनी धर्मस्येव भुजावुभौ । आजग्मतुस्तत्र चैत्ये जिनबिम्बं विवन्दिषू ॥४५४।। तावापतन्तावालोक्याऽमिततेजा महीपतिः। अभ्युत्थायाऽवन्दिष्ट हृष्टोऽभीष्टावलोकनात् ।।४५५। तौ त्रि:प्रदक्षिणीकृत्य जिनेन्द्रं मुनिपुङ्गवौ । ववन्दाते बभाषाते इति चाऽमिततेजसम्॥४५६॥ 'मराविवाऽम्भ: संसारे मानुष्यमतिदुर्लभम् । तत्प्राप्तं न मुधा नेयमविवेकेन जातुचित् ॥४५७|| जैने धर्मे विधातव्यो न प्रमादो मनागपि। जिनधर्म विना नाऽन्यदुत्तरोत्तरकामदम् ॥४५८॥ इत्युदित्वा जग्मतुस्तौ पुनरेव विहायसा। विश्वेष्टदर्शनौ वृष्ट्वा प्रावृषेण्याविवाऽम्बुदौ ॥४५९॥ गवर्षे वर्षे चक्रतुःश्रीविजया-ऽमिततेजसौ। श्रीमतामर्हतां चैत्येषूच्चकैर्महिमत्रयम् ॥४६०॥ तत्र चैत्रे चाऽऽश्विने चाऽष्टाहिकामहिमोत्सवौ। देवा नन्दीश्वरेऽन्ये ते स्वस्वचैत्येष कर्वते ॥४६॥ ततश्चैत्रा-ऽऽश्विनयोस्तौ त्रैपृष्ठ्यमिततेजसौ। स्वस्वचैत्येषु चक्राते परमष्टाहिकोत्सवम् ॥४६२॥ महिमानं तृतीयं तु सीमाद्रौ तावशाश्वतम् । नाभेयचैत्ये चाऽचल-ज्ञानभूमौ च चक्रतुः ॥४६३|| [अन्येधुरमिततेजाः सुमेरौ भानुमानिव। स्थित: स्वहर्म्य प्रकृतिपुरुषैः परिवारितः॥४६४॥ तपसा शोषिताशेषमांस-शोणितसञ्चयम । ग्रीष्मर्तुनेव संशुष्कपङ्कवारिसरोवरम् ॥४६५।। १. जिनधर्मो० ता. ॥२. शिष्याय ।। ३. प्रणयम् ।। ४. कर्माणि एव कक्षाणि -तृणानितेषाम् ।। ५. नाऽन्यथाखंता. वा.१-२॥ ६. क्षीरं कण्ठे यस्य क्षीरकण्ठो बाल: तमिव ॥७. अशनिघोषः॥८. श्रीविजयस्याऽस्य पा.॥९. अनल्पलक्ष्मीको॥१०. अनेकासां चिन्तानां सन्तानः एव ग्रीष्मः, तेन सन्तापित: आत्मा येषां तेषाम् ॥११. पूर्वस्या दिशाया अनिलो-वायुः, घनो-मेघः, तत्सदृशौ तौ द्वौ ॥१२. सुधीश्रेष्ठौ॥१३. बिभीतकवृक्षसम्बन्धिनीम् ॥१४. अवसरे ॥१५. चिन्तामप्यनवद्याम् पा., चिन्तामप्यनाम् छा., चिन्तामप्यनर्धाम् ला. ॥१६. पोषधौकसि खंता. पाता. ॥ १७. पोषधी खंता. पाता. । पौषधवान् ।। १८. आगच्छन्तौ ।। १९. वर्षाकालसम्बन्धिनौ ॥ २०. चाष्टाहिको महि० मु. ॥ २१. न्येाः पाता. ।। २२. श्रीविजयः ॥ २३. वैताढ्यपर्वते ।। २४. च बलज्ञानभूमौ खंता. पाता. वा.१-२, सं.ला. विना ।। २५. प्रधानपुरुषैः ।। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्यप्रणीतं दृश्यमान 'शिराजालमुद्वेलमिव सागरम् । 'जीर्णवंशकटमिव किटत्किटितसन्धिकम् ||४६६॥ व्यक्तपर्शुमपि क्षामकुक्षिमप्यबिभीषणम् । दीप्यमानं तपस्तेजः सम्पदा निरवद्यया ॥४६७॥ मासक्षपणकं कञ्चिन्मुनिं भिक्षार्थमागतम् । धर्मादर्शं ददर्शेकं प्रियैकजिनदर्शनः ॥ ४६८ ॥ पञ्चभिः कुलकम् || अभ्युत्थायाऽमिततेजाः कृत्वा च त्रिः प्रदक्षिणम् । वन्दित्वा शुद्धैरन्नाद्यैस्तं मुनिं प्रत्यलाभयत् ॥ ४६९ ।। तदा च तत्र सत्पात्रान्नादिदानप्रभावतः । वसुधाराप्रभृतीनि पञ्च दिव्यानि जज्ञिरे ||४७०॥ धर्म्यया चेष्टयैवं श्रीविजया ऽमिततेजसोः । जग्मुर्वर्षसहस्राणि भूयांसि सुखमनयोः || ४७१ || ||अन्यदा नन्दनवने वन्दितुं शाश्वतार्हतः । सम्भूयाऽमिततेजः -श्रीविजयावीयतुर्नृपौ ॥४७२॥ शाश्वतार्हद्वन्दनां तौ कृत्वा यावत् कुतूहलात् । भ्रान्त्वा निरीक्षाञ्चक्राते नन्दनोद्यानभूमिकाम् ॥ ४७३॥ तावद् ददृशतुः स्वर्णशिलास्थौ चारणोत्तमौ । महर्षी विपुलमति- महामत्यभिधानकौ ॥४७४॥ मुनी प्रदक्षिणीकृत्य वन्दित्वा च नृपोत्तमौ । श्राद्धौ शुश्रुवतुर्धर्मदेशनां पुरतस्तयोः ॥ ४७५॥ 'सदा सेविधवर्त्येव मृत्युस्तेनेह देहिनाम् । पशूनां सौनिकगृहेष्विव स्याज्जीवितं कियत् ? ॥४७६ ॥ क्षणिकं क्षणिकावत् तज्जानन्तोऽपि न कुर्वते । धर्मोद्यमं मानवा यत् तदहो! मोहजृम्भितम् ॥४७७|| मोहः खलु महाशत्रुर्जन्मतो मरणावधि । आत्मनीनं नृणां धर्मं मूलादपि निकृन्तति ॥४७८।। हित्वा मोहं सर्वथा तन्मर्त्यजन्मफलेच्छया । कार्यो धर्मः कथञ्चिद्धि भूयः स्याज्जन्म मानुषम् ' ॥४७९ ॥ इत्याकर्ण्य स्वमायुस्ताववशिष्टमपृच्छताम् । षड्विंशतिं दिनान्यायुः शेषं चाऽऽचख्यतुर्मुनी ॥४८०॥ अमोघं तद्वचो ज्ञात्वा नर- विद्याधरेश्वरौ । महानुतापनिर्वेदगर्भमेवमथोचतुः ॥ ४८१ ॥ सदा निद्रालुभिरिव सदाऽऽपीतमदैरिव । सदा बाल्यवद्भिरिव सदा मूंछ गतैरिव ॥ ४८२॥ सदाऽपस्मारिभिरिव हहाऽस्माभिः प्रमादिभिः । विफलं क्षपितं जन्माऽरण्यजातीप्रसूनवत् ॥४८३॥ युग्मम्॥ ||अथ तौ चारणमुनी प्रत्यबोधयतामिति । विषादेनाऽलमद्याऽपि प्रव्रज्या युज्यते हि वाम् ॥४८४॥ अन्तेऽप्यात्ता परिव्रज्या शुभव्रज्यानिबन्धनम् । कौमुदी हि निशान्तेऽपि कुमुदामोदकारणम् ||४८५॥ एवं ताभ्यां बोधितौ श्रीविजया ऽमिततेजसा । उपेयतुर्निर्जनिजं हर्म्यं धर्म्यक्रियोत्सुकौ ॥४८६॥ तत्र चैत्येषु चक्राते परमष्टाहिकोत्सवम् । दीना - ऽनाथादिजन्तूनां ददतुश्च यथारुचि ॥४८७|| राज्यं स्वपुत्रयोर्न्यस्योपाददाते नरेश्वरौ । ततोऽभिनन्दन- जैगन्नन्दनर्थो: पुरो व्रतम् ॥४८८॥ पादपोपगमं नामाऽनशनं तौ च चक्रतुः । तदानीं च श्रीविजयः सस्मार पितरं निजम् ॥ ४८९ ॥ तदृद्धिमधिकां स्वां तु ऋद्धिं हीनां विचिन्त्य च । भूयासं तादृगेवाऽहं निदानमिति सोऽकरोत् ॥४९०॥ कृता - Sकृतनिदानौ श्रीविजया -ऽमिततेजसा । विपद्य प्राणते कल्पे बभूवतुरथाऽमरौ ॥ ४९९ ॥ विमाने सुस्थितावर्ते नन्दितावर्तके च तौ । मणिर्चूल - दिव्यचूलनामानौ तस्थतुः सुखम् ।।४९२।। अमरौ रतिसागरावगाढावायुर्विंशतिसागरोपमीं तौ । I 1 I अतिवाहयतः स्म सौख्यमग्नौ मनसा सिद्धसमीहितार्थलाभौ ॥४९३ ॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये पञ्चमे पर्वणि श्रीशान्तिनाथदेवस्य श्रीषेणादिभैवपञ्चकवर्णनो नाम प्रथमः सर्गः ॥ 卐 १. स्नायुसमूहः ॥ २. जीर्णवंशसमूह इव ॥ ३. किटत् किटिता एवं ध्वनिं कुर्वन्तः सन्धयो यस्य तम् ॥ ४. प्रिये च निजदर्शनात् दे. ॥ ५. समीपवर्ती ।। ६. चाण्डालगृहेषु ।। ७. विद्युत् ॥ ८. आत्महितम् ॥ ९. छिनत्ति ॥ १०. मूर्च्छागमैरिव दे., मूर्च्छागतैरिव ला. विना, खंता. पाता. वा. १-२ ॥ ११. अरण्ये उद्गतजाति(जाइ)पुष्पवत् ॥ १२. शुभगतिकारणम् ॥ १३. र्निजं निजं खंता. ।। १४. ददतश्च मु. ॥ १५. जगन्नन्दनयो: दे. पा. मु. खंता. पाता. वा. १-२ ॥ १६. तस्य पितुर्ऋद्धिम् ।। १७. विचिन्तयन् दे. ॥ १८. चाऽकरोत् मु.; कारयेत् दे. ॥। १९. मणीचूल० खंता. पाता. वा. १-२ ॥ २०. सागरीधूमं तौ मुप्र ॥ २१. श्रीषेणादिकभववर्णनो नाम ता. छा. दे. मु. ॥ (पञ्चमं पर्व For Private Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय: सर्गः॥ इतश्च जम्बूद्वीपेऽस्मिन् प्राग्विदेहविभूषणे । विजये रमणीयाख्ये 'सीताया दक्षिणे तटे ॥१॥ शुभव्यूहकरी भूमेः शुभा च परमर्द्धिभिः । शुभाभिधाऽस्ति नगरी शुभलक्ष्मीनिकेतनम् ॥२॥ स्थैर्येणाऽत्यमरगिरिर्गाम्भीर्येणाऽतिसागरः । तस्यामासीन्नरपति म्ना स्तिमितसागरः ॥३॥ तस्याऽभूतामभिभूताप्सर:सौभाग्यसम्पदौ । वसुन्धराऽनुद्धरा च पत्न्यौ शीलधुरन्धरे ॥४॥ च्युत्वा च नन्दितावर्तात् स जीवोऽमिततेजसः । श्रीमद्वसुन्धरादेव्या उदरे समवातरत् ।।५।। चतुरश्च महास्वप्नान् सुखसुप्ता वसुन्धरा । स्वमुखे विशतोऽद्राक्षीद् बलजन्माभिसूचकान् ॥६॥ तदैव परमानन्दजनिताभिभवादिव । दूरं गतायां निद्रायां राज्ञी राज्ञे व्यजिज्ञपत् ।।७।। दन्तावलश्चतुर्दन्त: स्फटिकाद्रिनिभो मया । दृष्टो विशन् स्ववक्त्रान्तरभ्रान्तरिव चन्द्रमा: ॥८॥ शरदभ्रमिवावर्त्य निर्मितो निर्मलद्युतिः। ककुद्यानुच्चककुदोऽथ गर्जनृजुवालधिः ॥९॥ निशाकर: कराङ्करैर्दूरदूरं प्रसारिभिः । कर्णावतंसरचनां चिन्वन्निव दिशामथ ॥१०॥ ततश्च पद्यैरुन्निद्रैर्म गुञ्जन्मधुव्रतैः । पूर्णं सर: शतमुखीभूय गायदिवोच्चकैः ॥११॥ स्वामिन्नमीषां स्वप्नानां फलं किमिति शंस मे । प्रष्टुमर्हो न सामान्यजनो हि स्वप्नमुत्तमम् ॥१२॥ राजाऽपि व्याजहाराथ देवि! देव इव श्रिया। लोकोत्तरबलो भावी बलभद्रस्तवाऽऽत्मजः॥१३॥ निधानं रत्नगर्भेव मुक्तां वंशलतेव च । तं गर्भ धारयामास ततो देवी वसुन्धरा ॥१४॥ .. श्रीवत्साकं श्वेतवर्णं पूर्णावयवलक्षणम् । समये सुषुवे सूनुं महादेवी वसुन्धरा ॥१५॥ पुत्रस्य जन्मना तेन राजा स्तिमितसागरः । मुमुदे पार्वर्णस्येन्दोरुदयेनेव सागरः ॥१६॥ दिवसे द्वादशे प्राप्ते द्वादशादित्यतेजस: । अपराजित इत्याख्या तस्य सूनोळधात् पिता ॥१७॥ पश्यंश्चम्बन् समाश्लिष्यन्नके चाऽऽरोपयन् सुतम् । न व्यरंसीन्नृपो जातु प्राप्तं धनमिवाऽधनः॥१८॥ पाइतश्च सुस्थिताव"ज्जीव: श्रीविजयस्य तु। प्रच्युत्याऽनुद्धरादेव्या: कुक्षाववततार सः॥१९॥ शयानया निशाशेषे विशन्तो वदने निजे । देव्याऽनुद्धरया सप्त स्वप्ना ददृशिरे तदा ॥२०॥ तत्राऽऽदौ केशरियुवा कुङ्कुमारुणकेसरः । इन्दुलेखानिभनखश्चमरोपमवालधिः ॥२१॥ कुञ्जराभ्यां पूर्णकुम्भहस्ताभ्यां क्षीरवारिभिः। क्रियमाणाभिषेका च पद्मा पद्मासनस्थिता ॥२२॥ ध्वंसमानो महाध्वान्तं दोषाऽपि जनयन्नहः । उद्दण्डतेज:प्रसरस्त्विषामधिपँतिस्ततः ॥२३॥ स्वच्छस्वादुपय:पूर्णः पुण्डरीकार्चिताननः । सुवर्णघंटित: पुष्पमाली कुम्भस्ततोऽपि च ॥२४॥ नानाजलचराकीर्णो रत्नसम्भारभासुरः । गगनोदञ्चिकल्लोलस्तत: कल्लोलिनीतिः ॥२५॥ पञ्चवर्णमणिज्योति:प्रसरैर्गगनाङ्गणे । विञ्चितेन्द्रचापश्री रत्नानां सञ्चयस्तत:॥२६॥ धर्मध्वजश्च निधूमो ज्वालापल्लविताम्बरः। दृशो: सुखकरालोकः सप्तमश्चेति सप्त ते ॥२७॥ सुप्तोत्थिता च सा देवी स्वप्नान् पत्ये शशंस तान् । विष्णुस्ते तनयो भावीत्याख्यत् स्वप्नफलं च सः ॥२८॥ समये सुषुवे साऽथ तनयं नयनोत्सवम् । नीलोत्पलदलश्यामं देवी द्यौरिव वारिदम् ॥२९॥ अनन्तवीर्य इत्याख्यां महावीर्यस्य भूपति: । महोत्सवेन विदधेऽनुद्धरातनुजन्मनः ॥३०॥ १.शीताया मुप्र.॥२.अमरगिरि मेरुमतिक्रान्तः ॥ ३. सागरमतिक्रान्तः;र्येणाथ सागर: दे. मु.॥४. गजः ॥५. मेघान्तः ।। ६. वृषभः ।।७. सरलपुच्छः ।। ८. दूर दूर खंता. पाता. वा. १-२ ॥९. पूर्णसर: खंता. ॥१० दिवि पाता. वा.१-२॥११. चिह्नम् ।। १२. पूर्णिमासम्बन्धिनश्चन्द्रस्य ।। १३. द्वादशानां आदित्यानां तेजो यस्मिन् स: - तस्य ॥ १४. उत्सङ्गे ॥ १५. केसरियुवा खंता. ॥ १६. वालधिः पुच्छम् ॥ १७. रात्रिमपि ॥ १८. सूर्यः ॥ १९. सुवर्णपण्टिक: छा. दे. ॥२०. पुष्पाणां मालाः सन्ति अस्य सः ।।२१. समुद्रः ॥२२. विस्तारिता इन्द्रधनुष: शोभा येन सः ॥२३. अग्निः ।।२४. ज्वालाभिः पल्लवितमङ्कुरितमम्बरं येन सः ।। २५. भावीत्याख्यात् मु. ॥ २६. महावीर्यश्च ला. ॥ २३ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (पञ्चमं पर्व पद्मात् पद्मे हंस इव सोऽङ्कादके दिवानिशम् । धात्रीणां सञ्चरन् वृद्धिमाससाद शनैः शनैः ॥३१॥ स वर्धिष्णुः क्रमाद् भ्रात्रा ज्यायसा सवया इव । रमणीयाकृती रेमे रमणीजनवीक्षित: ॥३२॥ श्वेतश्यामशरीरौ तौ भेजाते भ्रातरावुभौ । एकत्र मिलितौ दैवात् शरत्प्रावृधनाविव ॥३३॥ लीलयैव हि शास्त्राणि तौ सर्वायधिजग्मतुः। विद्या हि प्राग्भवाभ्यस्ता स्वयमायान्ति तादृशाम् ॥३४॥ अभ्यस्यतः स्म शस्त्राणि तथा तौ गुरुसन्निधौ । यथोपजीव्यविज्ञानौ गुरोरपि बभूवतुः ॥३५॥ मन्त्र-तन्त्रादिरहितं कामिनीजनकार्मणम् । प्रपेदाते यौवनं तौ श्रियो वासगृहोपमौ ॥३६॥ अन्येद्युश्चाऽऽययौ तत्र मुनिर्नाम्ना स्वयम्प्रभः । नानातिशयसम्पन्नस्तस्थौ चोपवने क्वचित् ॥३७।। इतश्च निर्ययौ पुर्या राजा स्तिमितसागरः । वाहान् वाहयितुं वाहकेल्यां तत्केलिकोविदः ॥३८॥ अशूकलान् शूकलांश्च वाहयित्वा तुरङ्गमान् । स वाहकेलिरेवन्त: श्रान्तस्तद्वनमभ्यगात् ॥३९।। विश्रान्तजीमूतमिव बहुलैस्तरुणांहिपैः । कुल्याभिर्निर्झरोगारिगिरिप्रस्थानुहारकम् ॥४०॥ तालवृन्तधरमिवाऽध्वगानां कदलीदलैः । सर्वत्र शाद्वलोभकं बद्धं मरकतैरिव ॥४१॥ एला-लवङ्ग-कक्कोल-लवलीगन्धवाहिभिः । मरुद्भिः कृतसैरन्ध्रीकर्मकं शर्महारिभिः ॥४२॥ प्रविवेश तदुद्यानं भूमिष्ठमिव नन्दनम् । राजा प्रेमोदस्तिमितेक्षण: स्तिमितसागरः ।४३॥चतुर्भि: कलापकम्।। स व्यश्राम्यत् क्षणं यावदपश्यत् तावदग्रतः । अशोकमूले ध्यानस्थं तं मुनि प्रतिमाधरम् ॥४४॥ भक्तयोल्लसितरोमाञ्चोऽतिशैत्यादिव तत्क्षणम् । तं प्रदक्षिणयामास ववन्दे च मुनिं नृपः॥४५।। पारयित्वा मुनिर्व्यानं धर्मलाभाशिषं ददौ । स्वकार्यमारब्धमपि सन्तोऽन्यार्थे त्यजन्ति हि ॥४६॥ ततः स्वयम्प्रभमुनिर्विदधे धर्मदेशनाम् । तैस्तैर्निदर्शनैः श्रोतुः प्रत्यक्षानुभवामिव ॥४७॥ श्रुत्वा तां देशनां राजा प्रतिबुद्धः क्षणादपि । धाम्नि गत्वाऽनन्तवीर्यं निजराज्ये न्यवीविशत् ॥४८॥ कृतनिष्क्रमणोऽनन्तवीर्येण च बलेन च । उपस्वयम्प्रभं पर्यव्राजीत् स्तिमितसागरः ॥४९।। परीषहान् सहमानो महात्मा दुःसहानपि । स सम्यक् पालयामास मूलोत्तरगुणांश्चिरम् ॥५०॥ पर्यन्तकाले मनसा श्रीमण्यं स विराद्धवान् । विपद्य च समुत्पेदे चमरेन्द्रोऽसुराधिपः ॥५१॥ अनन्तवीर्योऽप्यशिषन् मेदिनीं सौपराजितः । निःसीमपौरुषधन: सुरैरप्यपराजितः ॥५२॥ अन्येद्युः केनचिद् विद्याधरेण समभूत् तयोः । मैत्री पवित्रा संसर्गः सद्भिरेव सतां यतः॥५३।। ताभ्यां सोऽथ महाविद्यां विद्याधरवरो ददौ । साधयेथामिति चोपदिश्य वैताढ्यमभ्यगात् ॥५४।। बर्बरीति किरातीति नाम्नोभे चेटिके तयोः । अभूतां गीतनाट्यादिकलाकौशलशोभिते ॥५५।। गायन्त्यावथ नृत्यन्त्यौ रम्भादिभ्योऽपि शोभनम् । रञ्जयामासतुश्चित्तं ते विष्णु-बलभद्रयोः ॥५६।। आस्थानीमन्यदाऽऽस्थाय तालाङ्क-गरुडध्वजौ । प्रावर्तेतां कारयितुं ताभ्यां नाटकमुत्तमम् ॥५७।। तदानीं च चलँच्चूलो वृषीपाणि-स्त्रिदण्डभृत् । साक्षसूत्र-ब्रह्मसूत्र: कौपीनी पीनकुक्षिकः ॥५८॥ श्वेतवर्णो राजहंस इव यायी विहायसा। सौवर्णपादुकान्यस्तपादो धृतकमण्डलुः ॥५९॥ सञ्चरन्नखिले लोके कलहालोककौतुकी। आस्थान्यामाययौ तस्यां नारदोऽस्थैर्यपारदः ॥६०॥त्रिभिर्विशेषकम्॥ १.सोऽहवादळे० खंता. वा.१-२॥२. शरद्धन-प्रावृधना० छा. दे. मु.॥३. प्रापतुः ॥ ४. शास्त्राणि पा. विना ।। ५. गुरोरपि उपजीव्यं ज्ञानं ययोस्तौ ॥ ६.मुनि म मु.॥७.ज्ञानातिशयस सं.॥८.अश्वान् ।।९.विपरीतान् ।।१०.अश्वक्रीडायां रेवन्त: सूर्यपुत्र इव ॥११. विश्रान्ता जीमूता मेघा यस्मिंस्तदिव ॥ १२.बहलैस्तरु० खंता.पाता. सं. ता. पा. ॥१३. निर्झरोद्गारवद् गिरिखस्थं गिरिशिखरमनुहरति इति ॥१४. व्यजनम् ॥१५. शाद्वला हरिततृणवती उर्वी यस्य तत् ।। १६.० लवलीक्षोदवाहिभिः सं. ता. ला. पा. ॥ १७. कृतं सैरन्ध्या: दास्या: कर्म यस्य तत् ।।१८. श्रियो वासगृहोपमम् पा. ॥१९. प्रमोदेन स्तिमिते निश्चले ईक्षणे नेत्रे यस्य सः ॥ २०. 'पञ्चभिः कुलकम् ' खंता. पाता. वा.१-२॥ २१. अपराजितेन ॥ २२. गत्वा पर्यव्राजीनरेश्वरः छा. दे. मु. ॥ २३. सहमानोऽति-महादुःस० मु.॥ २४.चारित्रम् ।। २५. अपराजितेन भ्रात्रा सहितः ॥ २६. अनन्तवीर्यापराजितयोः, बलाऽनन्तवीर्ययोः छा. दे. मु. ।। २७. अपराजिता-ऽनन्तवीर्यो ।। २८. चलच्छिखः ।। २९. ऋषीणामासनं वृषी ।। ३०. जपमालोपवीतसहितः ॥ ३१. गुह्याच्छादनवस्त्रखण्डवान् ॥ ३२. श्वेतवस्त्रो पा. ॥ ३३. सभायाम् ॥३४. तस्य खंता. ता. ला. पा. ॥ ३५. अस्थिरतायां पारद इव चञ्चल इति यावत् ।। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय: सर्ग:) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । 'राम-विष्णू बर्बरिका-किरातीनाटकेक्षणे। व्याक्षिप्तमनसौ तं च नाऽसभाजयतामृषिम् ॥६१॥ पाकुपितो नारदोऽप्येवं चिन्तयामास चेतसि । मामप्यभ्यागतं नाऽभ्युदस्थातां दुर्मदाविमौ ॥६२॥ नाटकं बह्वमंसातामाश्चेटीमात्रयोरिमे। आयातमितरजनवन् मां पुन: पश्यतोऽपि न ॥६३॥ प्रेष्ठचेटिकयोश्चेटप्रष्ठयोरिव तद् द्रुतम् । अवज्ञाया: फलमहं दर्शयिष्यामि सम्प्रति ॥६४॥ चिन्तयित्वेति सहसा नारदः पवमानवत् ।। जगाम वैताढ्यगिरौ दमितारिनृपान्तिके ॥६५॥ विद्याधरेन्द्रो दमितारिरपीन्द्र इव श्रिया। विद्याधरधराधीशैः शतश: परिवारितः ॥६६।। सिंहासनं पादुके च त्यक्त्वा सद्य: ससम्भ्रमः । अभ्युत्तस्थौ समायाते नारदे दूरतोऽपि हि ॥६७॥[युग्मम्] तत्तु सिंहासनं तस्मै दमितारिरदापयत् । प्रतिपत्तिस्तादृशानामृषीणां कियतीयती ? ॥६८॥ तत्तु सिंहासनं त्यक्त्वा स्ववृष्यां स उपाविशत्। भक्तिमेव हि काङ्क्षन्ति न हि वस्तूनि तादृशाः ॥६९॥ तं नारदो जगादेवं त्रिखण्डविजयेश्वर! । विद्याधराधिनाथाय स्वस्ति तुभ्यं महौजसे ॥७०॥ राज्ये राष्ट्रे पुरे गोत्रे सम्बन्धिषु परिग्रहे। अन्यत्रापि भवद्गृह्ये सर्वत्र कुशलं नृप! ? ॥७१॥ दमितारिरदोऽवादीत् सर्वत्र कुशलं मम। विशेषतोऽतः परं तु मुने! भवदनुग्रहात् ॥७२॥ भवन्तं किं तु पृच्छामि स्वच्छन्दं व्योमयायिना। अदृष्टपूर्वं किं दृष्टमाश्चर्यं भवता क्वचित्? ॥७३॥ सिद्धो मनोरथो मेऽसौ चिन्तयन्निति नारदः । हर्षोत्फुल्लकपोलाक्षो दमितारिमदोऽवदत् ॥७४। अद्यैव दृष्टमस्माभिः सुरलोकेऽप्यसम्भवि। आश्चर्यमेकं धरणीपरिभ्रमणजं फलम् ।।७५।। शुभाऽऽख्यायां महापुर्यां क्रीडयाऽद्य गतोऽस्म्यहम् । आस्थानस्थमपश्यं चाऽनन्तवीर्य महीपतिम् ॥७६॥ तस्याऽग्रतो बर्बरिका-किरातीभ्यां च नाटकम। तत्राऽभिनीयमानं स्म पश्याम्याश्चर्यकारणम् ॥७७॥ . उभौ लोकौ सञ्चरामि द्यां भुवं च कुतूहलात् । न च क्वचिन् मया दृष्टमीदृग्नाटकमद्भुतम् ।। ७८॥ शक्रो यथा हि सौधर्मे विजयार्धेऽत्र भूपते!। आश्चर्यभूतवस्तूनां तथा त्वमसि भाजनम्॥७९।। किं विद्याभि:? किमोजोभि:? किं तेजोभि:? किमाज्ञया? । किंराज्येन? न यद्यत्र तदानयसि नाटकम् ॥८०॥ इत्युक्त्वा नारदमुनिरुप्तबीज इवाऽवनौ । तत्र स्वार्थं सङ्क्रमय्य नभसा रभसा ययौ ॥८१॥ पत्रिखण्डविजयैश्वर्यगर्वित: प्राहिणोदथ । दमितारिनृपो दूतमपराजितबन्धवे ॥८२॥ शुभाख्यां स पुरीं गत्वाऽनन्तवीर्यं सहाग्रजम् । नमस्कृत्येत्यभाषिष्ट विशिष्टवचनक्रमः ॥८३॥ विजयार्धेऽत्र यत्किञ्चिदद्भुतं वस्तु जायते। तत्सर्वं राजराजस्य दमितारेरसंशयम् ।।८४।। उभे नाटककारिण्यौ प्रसिद्ध तव चेटिके। बर्बरी च किराती च प्रेष्येतां दमितारये ॥८५॥ स्वाधीनं तस्य चेट्यादि सर्वराज्यस्य य: पति: । दीयमाने हि सदने किं भवत्यश्वक: पृथक्? ॥८६।। जगादाऽनन्तवीर्योऽपि गच्छ त्वं दूत! सम्प्रति। आलोच्य किञ्चिदचिरात् प्रेषयिष्यामि चेटिके ॥८७।। इत्युक्तो विष्णुना दूतो मुदितोऽभ्येत्य सत्वरम् । प्रयोजनं कृतप्रायं शशंस दमितारये ॥८८|| कुण्डाविव च्छन्नवही गूढामर्षावितश्च तौ। मन्त्रयामासतुरुभावपराजित-शाङ्गिणौ ॥८९॥ अस्मानाकाशयानेन विद्यासिद्धिबलेन च । एवमाज्ञापयति स नाऽस्मत् तस्याऽधिकं परम् ॥१०॥ विद्याधरेण सुहृदा विद्या दत्ता: पुरा हि या:। साम्प्रतं साधयावस्तास्तत: को नौ तपस्व्यसौ? ॥९१॥ इत्यचिन्तयतां यावदुभौ तौ भ्रातरौ रहः । प्रज्ञप्त्याद्यास्तावदागुर्विद्या: सङ्केतिता इव ॥१२॥ १. अपराजिताऽनन्तवीर्यो ।। २. सत्कारं नाऽकुरुताम् ; नाउसम्भाषयतामृषिम् खंता. ॥ ३. नैवाभ्युदस्थातां मदादिमौ दे. छा. मु. ॥ ४. आयात हीनजनवत् ला. छा. मु.॥५. प्रेष्ठे अतिप्रिये चेट्यौ दास्यौ ययोः ॥ ६. दासाग्रेसरयोः ॥७. पवन इव ।। ८. स्वश्रिया मु.॥९. तत्र ता. विना ।। १०. तत्र ता. छा. दे. मु.॥११. भवत्पक्षे॥१२. हर्षेण उत्फुल्लो कपोलौ अक्षिणी च यस्य॥१३. भूमि सं. मु. ॥१४. इत्युदित्वा मु.॥१५. उप्तं बीजं कलिरूपं येन ।। १६. नमश्चक्रे चाभाषिष्ट ता. दे. मु. ।। १७. प्रेष्यतां खंता. पाता. वा.१-२ विना ।। १८. •तुरपराजितानन्तशक्तिको सं. ता. पा. ला. खंता. पाता. वा.१-२॥१९. रहसि-एकान्ते । २०. कृतसङ्केता इव ।। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (पञ्चमं पर्व तडित्तेज:समोद्योता नानालङ्कारभूषिताः। विचित्रदिव्यवसना जजल्पुः प्राञ्जलीति ताः॥९३।। ता एता: स्मो वयं विद्या या: सिषाधयिषू युवाम् । पूर्वजन्मनि सिद्धत्वादिदानीमप्युपस्थिताः ॥१४॥ युष्मद्वपुषि सङ्क्रान्तिं मन्त्रास्त्र इव देवताः । करिष्यामो महाभागौ! समादिशतमद्य नः ॥९५।। एवमस्त्विति तद्वाचा तदात्मत्वं तदङ्गयोः । विद्या. प्रपेदिरे पूर्वापराब्ध्योरिव निम्नगाः॥९६।। निसर्गतोऽपि बलिनौ विद्यासिद्ध्या तया पुन: । तावभूतामभ्यधिकं सिंहौ संवर्मिताविव ॥१७॥ पूजां तासां च विद्यानां गन्धैर्माल्यैर्मनोरमैः । चक्रतुस्तौ न लङ्घन्ते पूज्यपूजां विवेकिनः॥९८॥ अत्राऽन्तरे पुनर्दूतो निर्दिष्टो दमितारिणा । वेगादुपेत्य साक्षेपं पर्यभाषिष्ट ताविति ॥१९॥ भो भो! युवाभ्यां युवभ्यां खंगिभ्यामिव सम्प्रति। अज्ञानत्वात् समारब्धः कोऽयं स्वामिनि विप्लव:? ॥१०॥ चेटिके प्रेषयिष्याव इत्युक्त्वा प्रेषिते न यत् । मुमूर्षु किं युवां मूर्जी! ? ज्ञात: सोऽमर्षणो न किम्? ॥१०॥ कृत्याद्वयमिदं वां हि चेटिव्याजादुपस्थितम् । समूलौ वामनुन्मूल्य मन्ये न खलु यास्यति ॥१०२।। मा युवां बहुदौ भूतं दत्तमद्यैव चेटिके । ग्रहीष्यत्यन्यथा स्वामी ते च राज्यश्रियं च वाम् ॥१०३।। गूढकोप: प्रभविष्णुरपि विष्णुस्तत: सुधीः । स्मितज्योत्स्नास्तबकिताधर: सौम्नेत्युवाच तम् ॥१०४॥ रत्नैर्महा(विणैः प्रचुरैः कुञ्जरैर्हयैः । प्राभृतीकृत्य सन्तोष्यो दमितारिनरेश्वरः ॥१०५॥ दमितारिः स चेदाभ्यां चेटीभ्यामपि तुष्यति । ते गृहीत्वा तदद्यैव गच्छ त्वमपरेऽहनि ॥१०६।। इत्युक्तो विष्णुना दत्तावासे दूतो जगाम स: । मन्यमानो दूत्यकलां कृतकृत्यामिवाऽऽत्मनः ॥१०७।। पागृहभारमिव स्तम्भेष्वनोभारमिवोक्षसु। आरोपयामासतुस्तौ राज्यभारं स्वमन्त्रिषु ॥१०८॥ कीदृक्षो दमितारि:? स द्रष्टव्य इति कौतुकात् । तौ विद्यया बर्बरिका-किरीत्यभवतां ततः ॥१०९॥ अद्याऽपराजिता-ऽनन्तवीर्याभ्यां दमितारये। प्रहिते स्व इति गत्वा पुंश्चेट्यौ दूतमूचतुः॥११०॥ चेटिकाभ्यां समं ताभ्यां दूत: प्रमुदितो ययौ । उपेत्य वैताढ्यगिरौ दमितारिं व्यजिज्ञपत् ॥१११।। असुराश्चमरस्येव शक्रस्येव दिवौकसः । पन्नगा धरणस्येव गरुडस्येव पक्षिण: ॥११२॥ रमणीग्रस्य विजयस्याऽर्धेऽत्र वसुधाभुजः । न लश्यन्ति भवत: शासनं दुष्टशासन! ॥११३॥ग्मम्।। विशेषतोऽपराजिता-ऽनन्तवीरों नतौ त्वयि । सदा धत्तस्तवैवाज्ञां किरीटमिव मूर्धनि ॥११४॥ इमे च ते बर्बरिका-किरात्यौ नाम चेटिके। नटीरत्ने प्राभृते ते ताभ्यां सद्यो ममाऽर्पिते ॥११५॥ दमितारिश्च ते चेट्यावपश्यत् सौम्यया दृशा । गुण: श्रुतो जनश्रुत्याऽप्यनुरागाय तद्विदाम् ॥११६।। दमितारिरथाऽऽदिक्षन्नाटकाभिनयाय-ते। अपूर्वस्य दिदृक्षा हि कालक्षेपं क्षमेत न ॥११७।। पाततश्च ते नटीपात्रे रङ्गे विविशतुः क्षणात् । प्रत्याहारादिकैरङ्गैः पूर्वरङ्गं च चक्रतुः ॥११८॥ रङ्गाचार्यो रङ्गपूजां कुसुमाञ्जलिभिर्व्यधात् । यथादिशं न्यषीदच्च गोयन्यादिपरिच्छदः ॥११९॥ नान्दीपाठं नटश्चक्रे नान्दीवादनपूर्वकम् । प्रस्तावनामङ्गयुक्तां नान्द्यन्तेऽभिनिनाय च ॥१२०॥ विचित्रनेपथ्यधरो नेपथ्ये गायनीजनः । जगौ च जातिरागाढ्यां पात्रप्रावेशिकी ध्रुवाम् ॥१२१॥ प्रकृत्यवस्था-सन्ध्यङ्गसन्धिसम्बन्धबन्धुरम् । प्रचक्रमेऽथाऽभिनेतुं नाटकं रससागरम् ।।१२२॥ सम्प्रयोगैरथैकान्तसुखपीयूषसिन्धुभिः । विप्रयोगैरपि तत्तद्दुःखावस्थानिबन्धनैः॥१२३॥ तत्तत्सङ्घर्टेनोपायैरपायपरिहारत: । क्वाऽप्यभूत् स्मरसाम्राज्यसन्धिविग्रहकल्पनम् ॥१२४॥युग्मम् ॥ १. साधयितुमिच्छू ॥२. सिद्धास्तदिदानी० मु.॥३. यथा मन्त्रास्त्रे देवता: सङ्क्रमणं कुर्वन्ति तथा ॥४. नद्यः।।५. वर्मणा-कवचेन सम्बद्धौ ।। ६. सतिरस्कार यथा तथा ॥७. युवभ्यां युवाभ्यां पाता., खड्गिभ्यां खड्गिभ्यामिव दे. ।। ८. गण्डक: 'गेण्डो' इति भाषायाम् ॥ ९. अवमानः ।। १०. रुष्टः ।। ११. राक्षसी ॥१२. भूतां० खंता. पाता. वा.१-२॥१३. चेट्यौ ।। १४. समर्थोऽपि ॥१५. सामवाक्येन ॥ १६. धनैः ।। १७. दत्तावासो दे. ॥१८. दूतकलां दे. मु. ॥१९. वृषभेषु शकटभारमिव ।। २०. सुमन्त्रिषु दे. मु. ॥ २१. बर्बरिका च किराती च बर्बरिकाकिरात्यौ अबर्बरिकाकिरात्यौ बर्बरिका-किरात्यौ अभवतामिति बर्बरिकाकिरात्यभवताम् ॥ २२. स्त इति मुं. ॥२३. धरणेन्द्रस्य ।। २४. खंता. पाता. वा.१-२ प्रतिषु नास्ति ।। २५. रङ्गभूमौ ॥ २६. गायिकादिपरिवारः ॥ २७. जातिरागाद्यां पात्रप्रावेशिकां दे. ता. छा. मु.॥ २८. गीतिम् ।। २९. सबटनोपायै० खंता. पाता. वा.१-२॥ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः ). त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । 'तुन्दिलैर्दन्तुरैः खङ्गैः कुब्जैश्चिपिटनासिकैः । विकीर्णकेशैः 'खल्वाटैः काणैर्व्यङ्गैरथाऽपरैः ॥ १२५॥ अपानघण्टैर्भस्माङ्गैः कक्षा-नासिकवादकैः । कर्ण-भ्रूनर्तकैरन्यजनभाषानुवादकैः ॥ १२६ ॥ विदूषक - विटप्रायैः सद्यः कपटमुग्धकैः । ग्रामीणवदहास्यन्त छेकाः पौरा अपि क्वचित् ॥ १२७॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ आकाशभाषणैर्दैवोपालम्भैरश्रुमोक्षणैः । अस्थानयाचनैर्भूमिलुठनै रोदनैरपि ॥१२८॥ `भृगुपात-तैरूद्बन्ध-जल-वह्निप्रवेशनैः । विषादिभक्षणैः शस्त्रघातैर्हृत्ताडनैरपि॥१२९॥ ऋद्धिप्रणाशेष्टवधादिजन्मभिरनेकशः । आर्द्रीकृता नृशंसा अप्यमुञ्चन्ताऽश्रु कुत्रचित् ॥१३०॥ त्रिभिर्विशेषकम् ।। दन्तौष्ठपीडनैर्नेत्ररागैर्भृकुटिबन्धनैः । गण्डस्फुरण-हस्ताग्रनिष्पेषैर्भूमिपाटनैः ॥१३१॥ आयुधाकर्षणै रक्ताकर्षणैर्वेगधावनैः । सम्प्रहारैः प्रहारैश्च गात्रकम्पा -ऽश्रुमोक्षणैः ॥१३२॥ दारापहार-भृत्याधिक्षेपप्रभृतिजन्मभिः । क्वाऽपि कम्पमवाप्यन्त नरा धीरतरा अपि ॥१३३॥ त्रिभिर्विशेषकम्।। गाम्भीर्य धैर्य-शौण्डीर्य-वैशारद्यैस्तथाऽपरैः । अवदाततरैस्तैस्तैस्त्यागप्रभृतिभिर्गुणैः ॥१३४॥ द्विवर्तिविक्रम- नयाध्यवसायादिजन्मभिः । निसर्गभीरवोऽप्यासन् सद्यः सञ्जातपौरुषाः ॥ १३५॥ युग्मम्|| तालुकण्ठोष्ठशोषेण चलनेत्रनिरीक्षणैः । करकम्पैः स्वरभेदैर्वैर्वण्र्यैर्ऋजुलेक्षणैः॥१३६॥ प्रेतादिविकृतालोक-तत्स्वरश्रवणादिजैः । अनीयत त्रासदशां क्षणं वाऽपि सभाजनः ॥ १३७॥ युग्मम् || अङ्गसङ्कोच-हँल्लास-नासा-मुखविकूणनैः । निष्ठीवनैरोष्ठदलमोटनप्रमुखैरपि ॥१३८॥ पूँति-वान्ति-व्रण-कृमिप्रेक्षणश्रवणादिजैः । नितान्तमहृणीयन्त क्षणं सामाजिका अपि ॥१३९॥ युग्मम्॥ विस्तारणैर्लोचनानां निर्निमेषनिरीक्षणैः । स्वेदा ऽश्रु-पुलकोद्भेदैः साधुवादादिकैरपि ॥ १४०॥ दिव्यालोकेप्सितप्राप्तीन्द्रजालप्रेक्षणादिजैः । विस्माय्यन्ते स्म सहसा क्वचनाऽपि सभासदः ॥१४९॥युग्मम्॥ मूलोत्तरगुर्णैर्ध्यानैरध्यात्मग्रन्थचिन्तनैः । सद्गुरूपासनैर्देवपूजाद्यैरितरैरपि ॥१४२॥ वैराग्य-संसारभय-तत्त्वज्ञानादिजन्मभिः । शममीयुः क्वचिदपि विषैयास्वादगृध्नवः ॥१४३॥ युग्मम्।। यथा यथाऽभ्यनीयन्त रसाः सर्वे कुशीलवैः । सामाजिकजनः सर्वस्तन्मयोऽभूत् तथा तथा ॥ १४४॥ वाचिकाद्यैरभिनयैर्यथावदु॑पपादितैः । अलक्ष्यन्ताऽभिनेतारोऽप्यभिनेया इवाऽऽगताः ॥१४५॥ तं नाटकविधिं प्रेक्ष्य नृपः प्रेक्षावदग्रणीः । संसाररत्नभूतं तच्चेटीद्वयममन्यत ॥१४६॥ अथ नाटकशिक्षायै मायानट्योस्तयोर्नृपः । पुत्रीं समर्पयामास नामतः कनकश्रियम् ॥ १४७॥ राकाशशाङ्कवदनां त्रैस्यदेणीविलोचनाम् । पक्वबिम्बाधरां कम्बुकण्ठीं बिसलताभुजाम् || १४८।। स्वर्णकुम्भोपमकुचां वज्रमध्यकृशोदरीम् । वापीगम्भीरनाभीकां पुलिनाभकटीतटाम् ॥ १४९॥ करभोरूं मृगीजङ्घां पद्मोपमकरक्रमाम् । लावण्यजलमग्नाङ्गीं मधुरालापशालिनीम् ॥ १५०॥ शिरीषैसुकुमाराङ्गीं कुमारीं प्राप्तयौवनाम् । दृष्ट्वा कपटचेट्यौ ते मधुरालापपूर्वकम् ॥ १५१ ॥ भूयो भूयो दर्शयित्वा शिक्षयामासतुर्भृशम् । तन्नाटकं साभिनयं सर्वं निर्वणावधि ॥ १५२॥ पञ्चभिः कुलकम् । मध्ये मध्ये नाटकस्याऽनन्तवीर्यं महाभुजम् । ते चेट्यौ जगतुः कामं रूप-शौर्यादिभिर्गुणैः ॥ १५३ ॥ कनकश्रीरथाऽपृच्छत् क एष पुरुषोत्तम: ? । हे युवत्यौ ! युवाभ्यां यो गीयतेऽत्र क्षणे क्षणे ॥ १५४॥ ॥ अथाऽपराजितो मायाचेटी स्मित्वेदमब्रवीत् । शुभानने! शुभेत्यस्ति विजयेऽस्मिन् महापुरी ॥ १५५ ॥ २१ १. बृहत्कुक्षिभिः ॥ २. अकेशमस्तकैः ॥ ३. विकलाङ्गैः ॥ ४. चतुराः ॥ ५. गिरिशिखरात् पतनम् ॥ ६. पाशबन्धः ।। ७. दन्तोष्ठपीडनैर्नेत्र० ता. दे. छा. पा. ॥ ८. करतलपेषणैः ।। ९. शोणितकर्षणैः ॥ १०. युद्धैः ॥ ११. तिरस्कार ॥। १२. स्थैर्य० खंता. पाता. वा. १-२ ॥ १३. शौर्यम् ॥ १४. पाण्डित्यैः ।। १५. शत्रुवर्त्तिपराक्रमनयाध्यवसायादिजन्मभिः || १६. तालुकण्ठौष्ठशोषेण पा. छा. सं. दे. पाता. ॥ १७. स्वरभेदैर्वैवर्ण्योष्मजलोक्षणै: ता. छा. मु.; • वैवण्यैर्नृजुलो क्षणैः खंता.; ० वैवण्यैर्नृजलोक्षणैः पाता. वा. १-२ ॥ १८. निस्तेजोभिः || १९. हृदयस्य खेदः । २०. दुर्गन्धिः ॥ २१. नितान्तमघृणीयन्त मु.; नितान्तमगर्हणीयन्त ला; घृणामन्वभूवन् ॥ २२. गुणध्यानै० मु. ॥२३. विषयास्वादलोलुपाः ॥ २४. नटैः ।। २५. ०दुपपातितै: मु. ॥ २६. बुद्धिमत्सु अग्रणीः ।। २७. मायाचेट्योस्त० पा. दे. मु. ॥ २८. त्रस्यन्ती या मृगी तत्सदृशे लोचने यस्याः सा ।। २९. शिरीषसुकुमारां तां खंता. पाता. वा. १ - २, दे. मु. विना च ॥ ३०. निर्वहणः नाटकस्य सन्धिः स अवधिर्यस्मिन् ॥ For Private Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ कलिकालसर्वज्ञश्री हेमचन्द्राचार्यप्रणीतं तस्यां च नाम्ना स्तिमितसागरो गुणसागरः । दिवाकरः प्रतापेन बभूव वसुधाधवः ॥ १५६॥ जज्ञे महात्मनस्तस्य तनयो विनयैकभूः । ज्येष्ठोऽपराजितो नाम विपक्षैरपराजितः ॥ १५७॥ कनिष्ठोऽनन्तवीर्योऽभूदकनिष्ठोऽमलैर्गुणैः । रूपेण जितकन्दर्पो द्विड्दर्पग्रन्थिदारणः ।। १५८।। स वेदान्यः सत्यसन्धः शरणागतवत्सलः । नागराजायतभुजः शिलापृथुभुजान्तरः ॥ १५९ ॥ वासागारं श्रिय इव भुवोऽप्याधारभूरिव । आश्रिताम्भोजमार्तण्डो दाक्षिण्यक्षीरसागरः ॥१६०॥ कियद्वा वर्ण्यतेऽस्माभिः स महात्माऽल्पबुद्धिभिः । तत्तुल्यो नाऽपरः कोऽपि सुरासुरनरेष्वपि ॥ १६९ ॥ त्रिभिर्विशेषकम्।। कनकश्रीस्तमाकर्ण्य दृष्ट्वेव पुरतः स्थितम् । वाताहतेव सरसी बभूवोत्कलिकावती ॥ १६२॥ रोमाञ्च व्याजतो भिन्ना साक्षात् स्मरशरैरिव । पाञ्चालिकेव निःस्पन्दा सा दध्याविति चेतसि ॥१६३॥ धन्यः स विषयो धन्या सा पूँर्धन्या च सा प्रजा । धन्यः स स्त्रीजनोऽनन्तवीर्यो येषां स नायकः ॥ १६४॥ कुमुद्वतीर्मोदयते दूरस्थोऽपि करैः शशी । शिखण्डिनीस्ताण्डवयत्यम्बरस्थोऽपि वारिदः || १६५॥ उपपन्नमिदं तेषां 'र्हन्त दैवानुकूल्यतः । अनन्तवीर्ये मयि च कीदृग् दैवं भविष्यति? ॥१६६॥ दूरे तस्य पैंतीभावो द्रष्टव्योऽपि कथं नु सः ? । सिद्धौ मनोरथस्याऽस्य सखाऽपि खलु दुर्लभः ॥ १६७॥ चिन्ताप्रपन्नां तामेवं विलोक्य कनकश्रियम् । इङ्गिताकारविदुर एवमूचेऽपराजितः ॥ १६८ ॥ श्रुत्वाऽपराजितस्याऽनुजन्मानं मन्मुखादपि । किं ताम्यसि सशल्येव ? मुग्धे ! किं त्वं (तं) दिदृक्षसे ? ॥ १६९॥ कनकश्रीरश्रुमुखी पद्मिनीव तुषारिणी । दीनदीनैवमवदत् स्वरभेदक्षताक्षरम् ॥ १७० ॥ 'आदित्यं करेणेन्दौ पद्भ्यां जिगमिषा दिवि । दोर्भ्यां तितीर्षा जलधौ दिदृक्षा तत्र मे खलु ॥ १७१ ॥ भाधिनाथः सुभगः स मया मन्दभाग्यया । कथं दृग्गोचरीकार्य : कष्टं को मे मनोरथ: ? ॥ १७२ ॥ ज्येष्ठा पुंनैट्युवाचैवं भद्रे ! तं चेद्दिदृक्षसे । तन्मुग्धेऽलं विषादेन दर्शयाम्यद्य तं तव ॥ १७३॥ विद्याशक्त्याऽनन्तवीर्यं तं च तं चाऽपराजितम् । अत्राऽऽनये वन इव वसन्त-मलयानिलौ ॥१७४॥ कनकश्रीर्बभाषेऽथ सर्वं सम्भवति त्वयि । पारिपार्श्विक्यसि यतस्तयोर्गुणसमुद्रयोः ।।१७५।। मन्येऽनुकूलं मे दैवमेवं यदभिभाषसे । त्वन्मुखेऽवातरन्नूनं काऽपि मे कुलदेवता ॥ १७६ ॥ अतिष्ठाऽऽत्मनो वाचमधुनैव कलावति! । तादृशां परिवारोऽपि मिथ्या न खलु भाषते ॥ १७७॥ ॥अथाऽऽविश्चक्रतुः स्वं स्वं रूपं रूपमनोभवौ । सद्योऽपराजिताऽनन्तवीर्यौ तुष्टाविवाऽमरौ ॥१७८॥ ऊचेऽपराजितो भद्रे! कीर्तितो यो मयाऽद्य सः । मद्भ्राताऽनन्तवीर्योऽयं संर्वेदत्येष वा न हि ? ।।१७९ ।। स्तोकमेव मयाऽऽख्यातमस्य रूपादिवैभवम् । वाचामगोचरस्तत्तु गोचरीकुरु चक्षुषोः ॥ १८० ॥ आवेग-विस्मय-व्रीडा-प्रमोद-मद- चापलैः । तद्दर्शनाद् दमितारिकन्या युगपदानशे ॥ १८९॥ अपराजितपादानां सद्यः श्वशुरमानिनी । उत्तरीयेण नीरेंङ्गी तन्वङ्गी विदधेऽथ सा ॥ १८२॥ || आसीदनन्तवीर्योऽपि स्मरमेघमहोदयात् । रोमाञ्चदन्तुरवपुः कदम्ब इव पुष्पितः ॥१८३॥ उत्सृज्य सहजं मानं मैन्दाक्षं च मृगेक्षणा । स्वयं द्वैतित्वमालम्ब्याऽनन्तवीर्यमदोऽवदत् ॥ १८४।। वैताढ्यपर्वतः क्वऽयं? सा शुभाख्या पुरी क्व च ? । नारदाच्च क्व तातस्य तच्चेटीनाटकश्रुतिः ? ॥१८५॥ युष्मत्पार्श्वे च तातेन तच्चेटीयाचनं क्व च ? । चेटिकारूपधरयोर्युवयोः क्वेह वार्डेऽगतिः ? ॥१८६॥ क्व वा नाटकशिक्षायै युवयोरर्पिताऽस्म्यहम्? । आर्यपुत्र! तवाऽऽर्येण क्व वा त्वद्गुणैकीर्तनम् ? ॥ १८७॥ १. शत्रुभिः ॥ २. दानशीलः । ३. सत्यप्रतिज्ञः ॥ ४. उत्कण्ठिता ॥ ५. पुत्तलिका (पूतलीति भाषायाम्) ।। ६. देश: ।। ७. पुरी ।। ८. कुमुद्वतीं मोद० मु. ॥ ९. मयूरी: ताण्डववती करोति, नर्तयतीत्यर्थः ॥ १०. हितदैवा० पाता. वा. १-२ ॥ ११. पतिभावो मु. ॥। १२. चिन्तां प्रपन्नां मु. ॥ १३. आदातुमिच्छा ।। १४. करेणेन्दोः छा. ॥। १५. ज्येष्ठा तु नट्यु० पाता ।। १६. सेविका ।। १७. पालय ।। १८. रूपेण कामदेवौ ।।१९. संवदत्यथवा ता. पा. खंता., संवदत्यन्यथा छा. दे. । मिलति ।। २०. 'लाज' इति भाषायाम् ॥ २१. लज्जाम् ॥ २२. दूतीत्व० खंता. पाता. वा. १-२ ।। २३. क्वाऽऽर्य! दे. मु. ॥ २४. आगमनम् ।। २५. वर्णनम् ॥ For Private Personal Use Only (पञ्चमं पर्व Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय: सर्ग:) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । क्व वा युवाभ्यां सद्योऽपि साक्षात्करणमात्मनः? । एतत्सर्वमसम्भाव्यं मद्भाग्योपचयादभूत् ॥१८८।। नाट्याचार्यो यथा त्वं मे त्वमेव हि पतिस्तथा ! अत: परं ते मद्धत्या न चेत् पासि मनोभवात् ॥१८९॥ गृहीतं श्रुतमात्रेण त्वया मे हृदयं पुरा । गृहाण पाणिमधुना प्रसीदाऽनुगृहाण माम् ॥१९०॥ वैताढ्यपर्वतेऽमुष्मिन् दक्षिणोत्तरयोरपि । श्रेण्योर्विद्याधरेन्द्राणां कुमारेषु युवस्वपि॥१९१॥ भवादृशवराभावादभावो मे भवेद् ध्रुवम् । दिष्ट्या प्राप्तोऽसि जीवातुर्जीवलोकैकचन्द्रमाः ।।१९२॥युग्मम्।। अनन्तवीर्यो व्याहार्षीत् सुभ्र! यद्येवमिच्छसि। उत्तिष्ठ तर्हि गच्छामः सुभगे! नगरी शुभाम् ॥१९३॥ कनकश्रीरप्यवोचत् त्वं प्राणानामपीशिषे। मम किं तु पिता दुष्टो विद्यासामर्थ्यदुर्मदः ॥१९४।। करिष्यति महानर्थमनर्थनिलयो ह्ययम् । एकाकिनौ भवन्तौ तु निरस्त्रौ बलिनावपि ॥१९५||युग्मम्॥ स्मित्वोचेऽनन्तवीर्योऽपि मा भैषीरयि कातरे! । कतरस्ते पिता सर्वाभिसार्यप्याऽऽर्यसङ्गरे? ॥१९६॥ अन्यो वा पृष्ठतः कोऽपि युयुत्सुर्यः समेष्यति। तं मृत्यु प्रापयिष्याम: प्रिये! निःशङ्कमेहि तत् ।।१९७।। पाइत्युक्ताऽनन्तवीर्येण निजदोर्वीर्यशालिना । प्रतस्थे कनकश्री: श्रीरिव साक्षात् स्वयंवरा ॥१९८॥ अनन्तवीर्योऽप्युद्बाहुः प्रासाद इव सध्वजः । इत्यूचेऽत्युच्चकैर्मेघघोषगम्भीरया गिरा ॥१९९।। भो! भाः सर्वे पुराध्यक्षा:! सेनाधिपतयश्च भोः! । भो! मन्त्रिण:! कुमारा भो! भासामन्ता! भटाश्च भोः! ॥२००॥ अपरेऽपि दमितारेर्ये केचित् पक्षपातिनः । ते सर्वेऽवहितीभूय शृण्वन्तु वचनं मम ॥२०१॥[युग्मम्] असावनन्तवीर्योऽहमपराजितराजितः । दमितारेवुहितरं स्ववेश्मनि नयाम्यमूम् ॥२०२।। अपवादोन दातव्यो नीता चौरिकयेत्यहो! नोपेक्षध्वं निरीक्षध्वं स्वशक्तिं शस्त्रधारिणः ॥२०३।। एवमुद्धोषणां कृत्वा सप्रिय: सापराजितः। वैक्रियेण विमानेनाऽनन्तवीर्यश्चचाल खे॥२०४|| पादमितारिस्तु तच्छ्रुत्वा कोऽसाववनिगोचरः । मर्तुकामस्तपस्वीति वदन्नित्यादिशद्भटान् ॥२०५।। सभ्रातरममुं क्षुद्रं हत्वा धृत्वाऽथवा द्रुतम् । समानयध्वं तनयामस्मिन् फलतु दुर्नयः ॥२०६॥ तेनैवमुक्ताः सुभटा: स्फुटमुटवृत्तयः । अधावन्तोदस्तशस्त्रा उद्दन्ता इव दन्तिनः ॥२०७॥ तदाऽपराजिता-ऽनन्तवीर्ययोर्वीर्यशालिनोः । सीर-शार्ङ्गप्रभृतीनि दिव्यरत्नानि जज्ञिरे ॥२०८॥ दमितारिभटास्ते प्राग नैकशो दमितारयः । पँजहुर्युगपच्छस्त्रैर्धाराभिरिव वारिदाः ॥२०९॥ ततोऽचलितयोः क्रोधात् पुरुषव्याघ्रयोस्तयोः। अनायासरणेनापि त्रेसुस्ते हरिणा इव ॥२१०॥ श्रुत्वा पलायितांस्तांस्तु दमितारिरमर्षणः । अचालीद् गगनं कुर्वन् शस्त्रैर्वनमिवोद्रुमम् ।।२११॥ अरे! युध्यस्व युध्यस्व तिष्ठ तिष्ठाऽऽपताऽऽपत। मुञ्च मुञ्चाऽऽयुधमिदं मरिष्यसि मरिष्यसि ॥२१२॥ एष रक्षामि ते प्राणान् मुञ्चेमां स्वामिकन्यकाम् । इत्यादि सुभटालापान् विकटाटोपभीषणान् ।।२१३॥ आकर्ण्य कर्णकटुकान् कनकश्रीरजायत । आर्यपुत्राऽऽर्यपुत्रेति जल्पन्ती मोहविह्वला ॥२१४॥त्रिभिर्विशेषकम्।। स्माऽऽहेत्यनन्तवीर्यस्तामम्बरे पितॄडम्बरात् । किं मुह्यसि मुधा मुग्धे! मण्डूकरटितादिव? ॥२१५।। दमितारिं ससैन्यं त्वं मैनौकमिव वज्रिणा। त्रास्यमानं मया पश्य हन्यमानमथाऽपि वा ॥२१६।। एवमाश्वास्य कनकश्रियं शार्ङ्गधरो युधि । पञ्चास्यस्तर्जित इव ववले सापराजितः ॥२१७॥ पाकोटिशो वैरिकुट्टीका दमितारेर्महाभटा: । शार्जिणं वेष्टयामासुः प्रदीपं शलभा इव ॥२१८|| ततश्चाऽनन्तवीर्योऽपि स्थैर्यमेरुरमर्षणः । ससर्ज विद्यया सद्यस्तच्चमूद्विगुणां चमूम् ॥२१९॥ १. वृद्धः ॥ २. मम हत्यापापम् ।। ३. भवे ध्रुवम् मु.॥४.भाग्येन ।। ५. जीवनौषधम् ॥६. अयि इति कोमलामन्त्रणे ॥७. सर्वसैन्यसमेतोऽपि अपराजितयुद्धे ॥ ८.प्रापयिष्यामि पा.॥९. बाहू ऊर्वीकृत्य ।।१०.०ऽनुच्चकै० खंता. ॥११. सामन्तभटाश्च भो! मु.॥१२. सावधानीभूय ॥१३. अपराजितेन राजितः सहितः ।।१४. रङ्कः ।।१५. उद्भटा उद्धता वृत्तिर्येषां ते॥१६. शस्त्राण्युदस्यन्तः-उच्छालयन्तः ।। १७. प्रागनेकशो ता. मु. विना ।। १८. प्रहारं चक्रुः ।।१९. ततो वलितयोः सं. छा. पा. ला. ॥२०. उदधिका उच्चा वा द्रुमा यस्मिन् तत्, द्रुमविहीनमित्यर्थः ।। २१. आगच्छाऽऽगच्छ।। २२. आह स्म इत्यन्वयः ।। २३. पितुराडम्बरात् ॥ २४. भेकरुदनमिव ॥ २५. मैनाकनामानं पर्वतम् ।। २६. युधे खंता.,ला. मु. विना ॥ २७. सिंहः ।। २८. वैरिनाशकाः ।। २९. ०मासुरनन्ता शलभा इव सं. ता. पा. ला. खंता. पाता. वा.१-२॥ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (पञ्चमं पर्व प्रावर्त्तन्त तया योद्धं दमितारेस्ततो भटाः । असृक्पार्द्रवपुष: सधातव इवाऽद्रयः ॥२२०।। मम प्रेयानयं भूयात् कबन्धो यस्य ताण्डवी। कुन्तप्रोत: सरति यस्तस्मै पत्येऽहमुत्सुका ॥२२१।। योऽयं वर्णयति घ्नन्तं स कदा रंस्यते मया। मुखे विशन्तं य: कुन्तं दन्तैर्धत्ते पति: स मे ॥२२२॥ य एष करिण: स्कन्धमारोहति स मे धवः । भग्नास्त्रो य: शिरस्केन योद्धा तस्याऽस्मि किङ्करी ॥२२३॥ उत्खातदन्तिदन्तेन य: शस्त्री सोऽस्तु मे प्रियः । इत्यम्बरे सुरस्त्रीणामनुरागोक्तयोऽभवन् ॥२२४॥चतुर्भिः कलापकम्।। दमितारेरपि सैन्या विद्याशक्त्याऽतिदुर्मदा: । न मनागप्यभज्यन्त समरे भद्रदन्तिवत् ॥२२५।। पाञ्चजन्यं ततो जन्यनाटकाभिनये नटः । वादयामास नादेन रोद:कुक्षिम्भरि हरिः ।।२२६॥ तेन विष्णोर्जगज्जिष्णो: शङ्खनादेन मूर्छिता: । फेनायमाना न्यपतन सापस्मारा इव द्विषः ॥२२७|| ततश्च रथमारुह्य दमितारिनृपः स्वयम् । युयुधेऽनन्तवीर्येण शस्त्रैरस्त्रैश्च दैवतैः ॥२२८॥ शाङ्गिणं दुर्जयं ज्ञात्वा जनकः कनकश्रियः । सस्मार चक्रं विधुरे प्रियमित्रमिवोर्द्धरम् ।।२२९।। दमितारे: करे तच्च ज्वालाशतसमाकुलम् । समापपात रभसादौर्वानल इवाऽर्णवे ॥२३०॥ दमितारिरथाऽवादीदरे! तिष्ठन् मरिष्यसि । अद्यापि गच्छ मत्पुत्रीं मुक्त्वा मुक्तोऽसि दुर्मते! ॥२३१।। अनन्तवीर्योऽपीत्यूचे त्वच्चक्रं त्वदसनपि। त्वत्कन्यकामिवाऽऽदाय व्रजिष्याम्यन्यथा न तु ॥२३२।। एवमुक्तो दमितारिवलन् ज्वलेंनवद्रुषा । भ्रमयित्वाऽमुचच्चक्रमपराजितबन्धवे ॥२३३॥ चक्रतुम्बाग्रघातेन न्यपतन्मूर्च्छितो हरिः । द्राक् सुप्त इव चोत्तस्थावपराजितवीजितः ॥२३४॥ तदेव चक्रं पार्श्वस्थमाददे शाणपाणिना। शतारमपि तत्पाणौ सहस्रारमभूच्च तत् ॥२३५।। सोऽर्धचक्रधर: स्मित्वेत्यूचे प्रत्यर्धचक्रिणम् । कनकश्रीपितेति त्वं मुक्तोऽस्यद्याऽपि गच्छ भोः! ॥२३६।। अवद दमितारिस्तं मदस्त्रेण किमस्त्र्यसि? । उत्तमर्णधनेनेवाऽधमर्णो धनवानरे! ॥२३७।। चक्रं तन्मुञ्च मुञ्चेदं मुञ्च चाऽद्याऽपि पौरुषम् । अनन्तवीर्य! मद्वीर्यवाौं वा लोष्टुंतां व्रज ॥२३८॥ इत्युक्तोऽनन्तवीर्यस्तं चक्रं कुद्धान्तकोपमः । मुमोच दमितारेश्च बँकर्ताऽम्बुजवच्छिरः ।।२३९।। उपर्यनन्तवीर्यस्य तद्वीर्यमुदिताः सुराः । पञ्चवर्णानि कुसुमान्यवर्षन्निति चोचिरे ॥२४०॥ पभो भो विद्याधरनृपाः! सर्वे शृण्वन्तु तत्पराः । विष्णुरेषोऽनन्तवीर्यो बलोऽयमपराजितः ॥२४१।। एतत्पादानुपाध्वं तन्निवर्तध्वं रणाजिरात् । यस्योदय: स वन्द्यो हि यथा हीन्दुर्यथा रविः ॥२४२।। ततो विद्याधरेन्द्रास्ते सर्वे नमितमौलयः । बलदेव-वासुदेवौ शरण्यौ शरणं ययुः ॥२४३।। सह विद्याधरेन्द्रैस्तै: साग्रजः सप्रियो हरिः। प्रचचाल विमानस्थ: शुभां वरपुरीं प्रति॥२४४॥ गच्छन्नुपंकनकगियूंचे विद्याधरैर्हरिः । आशातनां मा स्म कार्षीः श्रीमतामर्हतामिह ॥२४५।। सन्त्यत्र कनकगिरौ जिनचैत्यान्यनेकशः । यथावत् तानि वन्दित्वा वन्द्यपादा व्रजन्त्वितः ।।२४६॥ विमानादवतीर्याऽथ शाङ्गभृत् सपरिच्छदः । दृशां जनितशैत्यानि तानि चैत्यान्यवन्दत ॥२४७॥ कौतुकात् सं गिरिं पश्यन् सोऽपश्यदथ चैकत: । वर्षोपवासप्रतिमास्थितं कीर्तिधरं मुनिम् ।।२४८।। कर्मणां घातिनां घातात् तदैवोत्पन्नकेवलम् । देवारब्धमहिमानं तं दृष्ट्वा मुमुदे हरिः ॥२४९॥ त्रिश्च प्रदक्षिणीकृत्य वन्दित्वाऽग्रे निषद्य च । शुश्राव देशनां तस्मात् प्राञ्जलि: सपरिच्छदः ।।२५०॥ १. नृत्यवान् ।। २. कुन्तप्रोत: 'भाला' इत्यभिधे शस्त्रे प्रोतः ॥ ३. शिरष्केण खंता. पाता. वा.१-२ ॥ ४. खंता. पाता. वा.१-२ प्रतिषु न ।। ५. विद्याशक्त्याऽपि मु.॥६. जन्यं युद्धं तदेव नाटकं तस्याभिनये ॥७. रोदसो: स्वर्ग-पृथ्व्योः कुक्षि मध्यभागं बिभर्ति तम् ।। ८. अनन्तवीर्यः ।।९. फेनं(फीण) निष्कासयन्तः ।। १०. दुःखे ॥ ११. सहायकम् ।। १२. वडवानलः ।। १३. अग्निवत् ॥१४. द्राक् च सुप्त इवोत्तस्था० खंता. पाता. वा.१-२ ॥ १५. अनन्तवीर्येण ॥१६. वासुदेवानन्तवीर्यः ॥ १७. प्रतिवासुदेवदमितारिम् ।। १८. दमितारिस्त्वम् सं. ला. पा. ॥ १९. अस्त्री-असवान् असि ॥२०. उत्तमर्ण: 'लेणदार' इति ॥ २१. अधमर्णः 'देवादार' इति ।। २२. लोष्ठताम् ला. मु. । 'ढेफु' इति भाषा॥२३. क्रुद्धयमोपमः ।। २४. चिच्छेद ।। २५. सेवध्वम् ॥ २६. रणाङ्गणात् ।। २७. शरण्यं शरणं मु. ॥२८. अनन्तवीर्यः ॥ २९. मेरुसमीपे ॥ ३०. अनन्तवीर्यः ॥ ३१. ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीय-मोहनीयान्सरायकर्मणाम्-आत्मनो ज्ञानादि-मूलगुणघातकानाम् ॥ ३२. अनन्तवीर्यः॥ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । देशनान्ते कनकश्रीनत्वा प्रपच्छ तं मुनिम् । कुतः पितृवधो बन्धुविरहश्च ममेदृश:? ॥२५१॥ आख्यन मुनिरिति द्वीपे धातकीखण्डनामनि। अस्ति प्राग्भरते शङ्खपुरग्रामो महर्द्धिकः ॥२५२॥ श्रीदत्तानाम तत्राऽऽसीन्नारी दारिद्रयविद्रुता । परौकःकर्मकरणजीविकाधृतजीविता ।।२५३।। कण्डनं पेषणं वारिवहनं गृहमार्जनम् । गृहलेपनमित्यादि सकलं दिवसं व्यधात् ॥२५४।। लचिते सकलेऽप्यहि समपद्यत भोजनम् । आलोकनमिवोलूक्यास्तस्या ही मन्दभाग्यता ।।२५५।। अपरेधुर्धमन्ती साऽऽसादयामास पर्वतम् । सुपर्वपर्वतमिव श्रिया श्रीपर्वताभिधम् ॥२५६॥ तत्राऽमलशिलासीनं गुप्तित्रयपवित्रितम् । दु:सहैरपराभूतं भूतैरिव परीषहैः ।।२५७।। अखण्डपञ्चसमितिं मितेतरतप:श्रियम् । नि:सङ्ग निर्ममं शान्तं समकाञनलेष्टुकम् ।।२५८।। शुक्लध्याने वर्तमानं शैलशृङ्गमिव स्थिरम् । नामत: सत्ययशसं सेक्षाञ्चक्रे महामुनिम् ॥२५९।।त्रिभिर्विशेषकम्।। कल्पद्रुममिव प्रेक्ष्य सा प्रीता प्रणनाम तम् । धर्मलाभं ददौ तस्यै सोऽपि श्रेयोद्रुदोहदम् ॥२६०॥ श्रीदत्ताऽप्यभ्यधत्तैवमीहग्दौःस्थ्यानुमानतः । पूर्वजन्मन्यहं धर्मं न ह्यकाष मनागपि ।।२६१।। नित्यं दुष्कर्मदग्धाया मम त्वद्धर्मलाभगी: । मेघवृष्टिरिव ग्रीष्मतप्ताया: सानुमद्भुवः ॥२६२।। यद्यप्यस्मिन्नयोग्याऽहं मन्दभाग्या तथाऽपि हि । अमोघं ते वच इति श्रेयसे किञ्चिदादिश ॥२६३॥ यथा भवान्तरे भूयो नेदृशी स्यां तथा कुरु । त्वादृशे त्रातरित्रात:! किं किं न स्यान मनीषितम्? ॥२६४॥ [इत्याकर्ण्य वचस्तस्या योग्यतां च विचार्य स: । धर्मचक्रवालं नाम तपोऽनुष्ठानमादिशत् ।।२६५।। द्वे त्रिरात्रे चतुर्थानि सप्तत्रिंशदिह त्वया। विधातव्यानि गुर्वर्हदाराधननिलीनया ॥२६६।। प्रभावात् तपसोऽमुष्य न हि भूयो भविष्यति । अपत्यमिव वायस्यास्तवेदृक्षं भवान्तरम् ॥२६७।। तदाऽऽदृत्य वचो वाचंयमाग्र्यं तं प्रणम्य च । सा जगाम निजं ग्रामं तपस्तच्चोपचक्रमे ॥२६८॥ तत्प्रभावात् पारणके स्वप्नेऽप्यप्राप्तपूर्वकम् । सा प्राप भोजनं स्वादु सुदशानाटकामुखम् ॥२६९।। तत: प्रभृति सा कर्मवेतनं चाऽढ्यवेश्मसु । द्विगुणं त्रिगुणं चाऽऽप वस्त्राणि प्रवराणि च ॥२७०।। एवं संकिञ्चना किञ्चिच्छ्रीदत्ता समजायत । पूजां देव-गुरूणां च यथाशक्ति ततोऽकृत ॥२७१॥ तत्सद्मनोऽपरेधुश्च जीर्णो वातादिताडितः । कुंड्यैकदेशो न्यपतल्लेभे स्वर्णादिकं च सा ॥२७२।। तप:समाप्तौ च तयोद्यापनं विदधे महत् । चैत्यपूजा-साधु-साध्वीप्रतिलाभादिपूर्वकम् ।।२७३।। तपोऽन्तपारणदिने यावद्दिग्वीक्षणं व्यधात् । मासक्षपणकं तावत् सुव्रतर्षि ददर्श सा ॥२७४।। धन्यंमन्या तत: सा च प्रोसुकान्नादिना स्वयम् । तं प्रत्यलाभयन्नत्वा धर्मं प्रपच्छ चाऽऽर्हतम् ॥२७५।। मुनिरप्यब्रवीदेवमेष केल्पो न न: शुभे! । यद्भिक्षार्थं गतैः क्वाऽपि क्रियते धर्मदेशना ॥२७६।। यदि ते धर्मशुश्रूषा तद्वसतौ गतस्य मे। आगच्छे: समये भद्रे! जल्पित्वेति जगाम सा ॥२७७।। कृत्वा च पारणं तस्य स्वाध्यायं कुर्वतो मुनेः । वन्दनार्थं पौरलोक: श्रीदत्ता च समाययौ ॥२७८॥ वन्दित्वा च यथास्थानमुपविष्टेषु तेषु सः । एवं प्रसन्नया वाचा विदधे धर्मदेशनाम् ॥२७९॥ 'संसारे चतुरशीतियोनिलक्षमटन् भवी। दैवादाप्नोति मानुष्यमन्ध: स्थानमिवेप्सितम् ।।२८०।। तत्राऽपि सर्वधर्मेषु ज्योतिष्केष्विव चन्द्रमा: । प्रधान: खलु सर्वज्ञोपज्ञधर्म: सुदुर्लभः ॥२८१।। तस्मात् तत्रैव कर्तव्यो यत्नः सम्यक्त्वपूर्वकम् । संसारी येन संसारवाधूि तरति लीलया' ॥२८२॥ १. पूर्वभरते ॥२. परगृहस्य कर्मकरणेन या आजीविका, तया धृतं जीवितं यया सा॥३.खण्डनम् ।। ४. देवपर्वत मेरुमिव ।।५. अमिता तप:श्रीर्यस्य तम् ॥६. समौ काञ्चनलेष्टुको यस्य तम् ।। ७. लोष्टकम् ला. दे. मु. ।। ८. वीक्षाञ्चक्रे खंता. पाता. वा.१-२ सं. ला. पा. ॥९. श्रेय एव दुर्वृक्षस्तस्य दोहदम् ।। १०. पर्वतभुवः ॥ ११. हे रक्षक! ॥ १२. इष्टम् ।। १३. तपोऽनुष्ठधातुमा० मु. ॥१४. मुनिश्रेष्ठम् ॥ १५. सुदशानाटिकामुखम् खंता.; सुदशा शोभनावस्था एव नाटकं तस्य आमुखं प्रस्तावनाम्॥१६. कर्माणि कृत्वा याऽवाप्यते वृत्तिः पगार' इति भाषायाम्॥१७. चापद् खंता. ला. पा. दे. छा., चापि पाता. ॥१८. किञ्चन-द्रव्यसहिता ।। १९. भित्तिभागः ।। २०. मासोपवासिनम् ।। २१. निर्दोषान्नादिना ।। २२. आचारः ।। २३. धर्मश्रवणेच्छा ।। २४. उपाश्रये ।। २५. लक्षामटन् मु.॥२६. संसारिजीवः; भवान् मु.॥२७. प्रधानम् ला. पा. छा. ॥२८. धर्म सुदुर्लभम् ता. ला. पा. छा. सर्वज्ञप्रवर्तितो धर्मः॥ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (पञ्चमं पर्व श्रीदत्ताऽपि नमस्कृत्य पुरः सुव्रतपादयोः । सर्वज्ञोक्तं प्रत्यपादि धर्मं सम्यक्त्वपूर्वकम् ॥२८३।। वन्दित्वा सुव्रतमुनिं पौरलोकोऽखिलोऽपि सः । श्रीदत्ता च प्रमुदिता ययौ निजनिकेतनम् ।।२८४॥ कियन्तमपि कालं सा तं धर्मं प्रत्यपालयत् । तस्याः कर्मपरीणामाद्विकल्पश्चेत्यजायत ।।२८५।। यदिदं जिनधर्मस्य परमं कीर्त्यते फलम् । तत् किं भविष्यति न वा ममेति न हि वेम्यहम् ।।२८६।। तादृग्गुरूपदेशेऽपि विचिकित्सां यदीदृशीम् । श्रीदत्ताऽकल्पयत तद् दुर्वारा भवितव्यता ॥२८७।। अन्यदा सत्ययशसं वन्दितुं प्रेस्थिताऽन्तरे । सा विद्याधरयुगलं विमानस्थितमैक्षत ॥२८८।। तद्रूपमोहिता सा तु समेत्य निजवेश्मनि । विचिकित्सामनालोच्याऽप्रतिक्रम्य व्यपद्यत ।।२८९।। "इतश्च जम्बूद्वीपेऽस्मिन् प्राग्विदेहस्य मण्डने। विजये रमणीयेऽस्ति वैताढ्यो नाम पर्वतः ॥२९०।। तत्राऽस्ति नगरं शक्रनगर्या इव सोदरम्। शिवानां मन्दिरीभूतं नामत: शिवमन्दिरम् ॥२९१।। तत्र चाऽऽसीन्महर्डीनां विद्याधरमहीभुजाम् । पूँज्यांहिः कनकपूज्य इति नाम्ना महीपतिः ॥२९२।। वायुवेगाभिधानायां तस्य पत्न्यामसावहम् । अभूवं तनय: कीर्तिधर इत्यभिधानतः ॥२९३॥ अभूदनिलवेगेति पत्नी मेऽन्तःपुराग्रणी: । तयैकदा सुप्तया तु त्रिस्वप्नी ददृशे निशि ॥२९४॥ कैलासधवलो हस्ती गर्जन् मेघ इवोक्षराट् । निधिकुम्भोपमः कुम्भः स्वप्नास्तेऽमी त्रयः क्रमात् ।।२९५।। तत्कालोत्फुल्लवदना पद्मिनीव निशात्यये। महादेवी महास्वप्नानाख्याति स्म ममाऽग्रतः॥२९६।। त्रिखण्डविजयस्वामी चक्रवर्त्यर्द्धवैभव: । भावी भवत्यास्तनय इति व्याख्यातवानहम् ।।२९७।। काले च सुषुवे सूनुं सा देवी देवसन्निभम् । सर्वलक्षणसम्पूर्ण रत्नाकरभूरिव ॥२९८॥ गर्भस्थेऽस्मिन् विशेषेण दमिता विद्विषो मया। तेन तस्य दमितारिरित्यभिख्यामहं व्यधात् ।।२९९।। क्रमेण ववृधे सोऽथ जग्राह च कला: क्रमात् । क्रमेण च प्रत्यपादि यौवनं रूपपावनम् ॥३००॥ अन्यदाऽन्यत्र विजये विजयी विहरन् विभुः। महात्मा समवासार्षीच्छान्ति: शान्तिकरो जिनः ।।३०१॥ तं वन्दित्वा निषण्णोऽहमश्रौषं धर्मदेशनाम् । सद्यो विरक्तो राज्ये च दमितारिं न्यवीविशम् ।।३०२।। श्रीशान्तिपादमूले च प्रावाजिषमहं तत: । ग्रहणाऽऽसेवनारूपे शिक्षेचाऽग्राहिषं तदा ॥३०३।। अकार्षं वार्षिकीमत्र पर्वते प्रतिमामहम। घातिकर्मक्षयादस्मि चाऽद्यैवोत्पन्नकेवलः ॥३०४॥ उत्पन्नचक्रो विजितत्रिखण्डविजय: स च । दमितारिरभूद्राजा प्रतिविष्णुर्महाबलः ॥३०५।। प्रियायां मदिरानाम्न्यां दमितारेर्महीभुजः । श्रीदत्ताजीव एंव त्वं कनकेश्री: सुताऽभवः ॥३०६॥ विचिकित्सामनालोच्या प्रतिक्रम्य च यन्मृता। तदोषाद्वन्धुविरह: ईदृक् पितृवधश्च ते॥३०७॥ कलङ्कः खलु धर्मस्य स्तोकोऽप्यत्यन्तदुःखदः। विषमल्पमपि प्सांतं प्राणनाशाय जायते ॥३०८॥ ईदृग्भूयो न तत्कार्यमीदृग्भूयो यथा भवेत् । किन्तु सम्यक्त्वमादेयं पञ्चदोषीविवर्जितम् ॥३०९॥ कनकश्रीस्तत: सद्यो वैराग्यावेगधारिणी। इत्थं विज्ञपयामास चक्र-लाङ्गलधारिणौ ॥३१०॥ दुष्कृतेनाऽल्पकेनाऽपि यद्येवं दुःखमाप्यते। तदलं कामभोगैर्मे दुष्कृतोत्पत्तिखानिभिः ॥३११।। स्तोकेनाऽपि हि रन्ध्रेण यथा मज्जति नौ ले। दुष्कर्मणाऽल्पकेनाऽपि तथा दुःखेषु ही जनः ॥३१२॥ तदा दारिद्यभीतायाः कुर्वत्यास्तादृशं तपः। विचिकित्सा कुतोऽप्यासीदहो! मे मन्दभाग्यता! ।।३१३।। सम्प्रत्यैश्वर्यमत्ताया मम भोगेजुषः खलु । कियती विचिकित्सैका यत् स्युर्दोषान्तराण्यपि ॥३१४।। १. श्रीदत्ताऽथ खंता. पाता. वा.१-२॥२. कर्मपरिणामाद् विकल्पः स्वमनस्यभूत् मु.।। ३. सन्देहम् ।। ४. श्रीदत्ताकल्पयत् तदा दुर्वारा ता. दे. मु.॥ ५. प्रस्थिताम्बरे दे. छा. मु.॥६. कल्याणानाम् ।। ७. पूज्याङ्घ्रिपद्य: कनकपूज्य इति महीपतिः पा. ॥८. वृषभः ॥९. चाऽऽख्यातवानहम् मु.॥१०. खने मिरिव । ११. महार्य: पा. ॥ १२. एष त्वं० वा.१-२॥ १३. कनकश्रीसुताऽभव: खंता. विना ॥ १४. भक्षितम् ॥ १५. कल्पते वा.१-२॥ १६. पञ्चदोषैवि० पा. वा.१-२ । शङ्का-काङ्क्षा-विचिकित्सा-कुलिङ्गप्रशंसा-मिथ्यादृष्टिसंस्तवरूपदोषपञ्चकविवर्जितम् ।। १७. अनन्तवीया-ऽपराजितौ ।। १८. सम्प्रत्यैश्वर्यमग्नाया ला. ॥१९.भोगान् सेवमानायाः ।। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम्। तत् प्रसद्याऽनुमन्येथां प्रव्रज्याग्रहणाय माम्। ईदृक्छलपरादस्माद्रीताऽस्मि भवराक्षसात् ।।३१५।। विस्मयस्मेरनयनौ ततस्तावित्यवोचताम् । भवत्विदमविघ्नं ते गुरुपादप्रसादतः ॥३१६।। किन्त्विदानीं शुभां यामो नगरी धीगरीयसि! । यथा तत्र महद्धर्चा ते कुर्मो निष्क्रमणोत्सवम् ।।३१७।। स्वयम्प्रभजिनेद्रान्ते गृह्णीयास्तत्र चाऽनघे! । संसारवारितरणे तरकाण्डोपमं व्रतम् ॥३१८।। तथेति प्रतिपेदानां तामादायाऽथ भक्तित: । तं च नत्वा महर्षि तौ जग्मतुर्नगरी शुभाम् ॥३१९॥ तत्राऽऽदौ प्रेषितैर्वीर रणाय दमितारिणा। अनन्तसेनं पुत्रं तं युध्यमानमपश्यताम् ॥३२०॥ अनन्तवीर्यपुत्रं तं क्रोडं श्वभिरिवाऽऽवृतम् । निरीक्ष्य भ्रमयन् सीरं सीरी कोपादधावत ॥३२१।। दमितारिभटास्तेऽपि बलवातासहिष्णवः । तूलपूला इव ययुः कान्दिशीका दिशोदिशम् ।।३२२॥ प्राविशत् सपरीवार: स्वपुरी तां जनार्दनः । शुभेऽहन्यर्धचक्रित्वेऽभ्यषिच्यत नरेश्वरैः ॥३२३।। इमां धरित्री विहरन् स्वामी तत्राऽपरे दिने । उपेत्य समवासार्षीत् स्वयम्प्रभजिनेश्वरः ॥३२४॥ श्रीस्वयम्प्रभनाथस्याऽऽगत्या दिष्ट्याऽद्य वर्धसे । इत्यूचिरेऽनन्तवीर्यं ततश्च द्वारपालकाः ॥३२५॥ सार्धा द्वादश रूंप्यस्य कोटीस्तेभ्य: प्रदाय सः। साग्रज: सकनकश्री: स्वामिनं वन्दितुं ययौ॥३२६।। स्वयम्प्रभोऽपि भगवान् भव्यानुग्रहकाम्यया। सर्वभाषानुगामिन्या विदधे देशनां गिरा ॥३२७|| कनकश्रीजगादैवं वेश्मन्याऽऽपृच्छय शाङ्गिणम् । आगमिष्यामि दीक्षार्थं कृपां कुरु जगद्रो! ॥३२८॥ न प्रमादो विधातव्य इति तीर्थकृतोदिता। कनकश्रीहरिः सीरी जग्मुर्निजनिकेतनम् ॥३२९।। साऽनुज्ञाप्य हरिं तेन कृतनिष्क्रमणोत्सवा। ऋद्धया महत्या तत्रैत्य प्रावाजीदन्तिके प्रभोः ॥३३०॥ तप एकावलिं मुक्तावलिं च कनकावलिम् । भद्रं च सर्वतोभद्रमित्याद्याचरति स्म सा॥३३१।। शुक्लध्यानाग्निनिर्दग्धघातिकर्मेधसोऽन्यदा। अम्लानं केवलज्ञानं तस्या: समुदपद्यत ॥३३२॥ भेवोपग्राहिकर्माणि क्षपयित्वा क्रमेण च । कनकश्रीराससाद पदं तदपुनर्भवम् ॥३३३॥ भुञ्जानौ विविधान् भोगान् शार्ङ्गसीरधरावपि । गमयामासतुः कालं सुखमग्नौ सुराविव ॥३३४।। आसीच्च बेलदेवस्य दयिता विरताऽऽह्वया। तस्याः कुक्षौ समुत्पेदे सुमति म कन्यका ॥३३५।। बाल्यतोऽपि हि सर्वज्ञोपज्ञधर्मानुरागिणी। जीवा-ऽजीवादितत्त्वज्ञा तपोनुष्ठानशालिनी ॥३३६|| अखण्डद्वादशविधश्रावकव्रतधारिणी। अर्हत्पूजा-गुरूपास्तितत्परा सा सदाऽप्यभूत ॥३३७/युग्मम। अन्यदा तूपवासान्ते पारणाय निषेदुषी। सा यावद् द्वारमैक्षिष्ट कोऽप्यषिस्तावदागमत् ॥३३८॥ त्रिगुप्तिं पञ्चसमितिं धर्मं साक्षादिवाऽऽगतम् । तं स्थालस्थापितान्नेन प्रतिलाभयति स्म सा ॥३३९।। तत्राऽभूच्च तदा दिव्यं वसुधारादिपञ्चकम् । महात्मभ्य: प्रदत्तं हि कोटिकोटिगुणं भवेत् ॥३४०॥ तत: स्थानादृषिरपि विहरन्नन्यतो ययौ। स्थानं नैकत्र साधूनां नि:सङ्गानां समीरवत् ॥३४१।। आकर्ण्य रत्नवृष्टिं तामेयतुर्बल-शाङ्गिणौ । दृष्ट्वा च विस्मयोत्कर्णौ बभूवतुरुभावपि ॥३४२।। आश्चर्यभूतमेतस्याश्चरित्रमिति वादिनौ। कोऽनुरूपो वरोऽमुष्या? इत्यचिन्तयतां च तौ ॥३४३।। ततश्च मन्त्रयित्वा तावीहानन्देन मन्त्रिणा । द्रढयामासतुस्तस्याः स्वयंवरमहोत्सवम् ॥३४४।। पावासुदेवाज्ञया विद्याधरेन्द्रा भूभुजोऽपि च । तत्र स्वयंवरायेयुर्विजयानिवासिनः ॥३४५।। १. इक्बलपराद० ला. पा. ॥ २. किन्त्वद्य सुभगाम् खंता. ता. पा. ।। ३. धिया-बुद्ध्या गरीयसि! । ०धीगरीयसीम् खंता. ॥४. नौसदृशम् ॥५. स्वीकुर्वन्तीम् ।। ६. धीर खंता. पाता. ॥७.रणादौ ता.॥८.योध्यमान० खंता. पाता. वा.१-२।। ८. शूकरम् ।। १०. अपराजितः ।। ११. बल: अपराजित एव वातः, तस्य असहिष्णवः; बलवातोऽसहिष्णव: पा. ॥ १२. तूलपुञ्जा इव ता. दे. ॥१३. अनन्तवीर्यः ॥ १४. वासुदेवत्वे ।। १५. आगत्याआगमनेन ॥ १६. भाग्येन ।। १७. सार्घद्वादश मु.॥ १८.रौप्यस्य सं. ला.॥१९. अनन्तवीर्येण ।। २०. शुक्लध्यानामिना निर्दग्धानि घातिकर्माणि - ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीय-मोहनीया-ऽन्तरायकर्माणि एव एधांसि काष्ठानि यया तस्याः ॥२१. नाम-गोत्र-वेदनीया-ऽऽयुष्यकर्माणि ।। २२. मोक्षम् ।।२३. अपराजितस्य ।। २४. अन्येारुपवासान्ते ला. ।। २५. कोऽपि ऋषिरित्यर्थः ।। २६.वायुवत् ।। २७. आजग्मतुः॥ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (पञ्चमं पर्व सभागृहमिवेन्द्रस्योपेन्द्रायुक्तास्ततो व्यधात् । रत्नस्तम्भसहस्राकं मण्डपं क्षितिमण्डनम् ॥३४६॥ फणीन्द्रफणमाणिक्यश्रेणिभ्रान्तिप्रदान्यथ । तत्र प्रकल्पयामासू रत्नसिंहासनानि ते ॥३४७।। वासुदेवाज्ञया तेषूपाविक्षन्नवनीभुजः । विद्याधरकुमाराश्च मारतुल्या वपुःश्रिया ॥३४८॥ संवीतदिव्यवसना रत्नालङ्कारधारिणी। विचित्रकल्पिताकल्पाऽनल्पामोदविलेपना ॥३४९।। मूर्ध्नि श्वेतातपत्रेण शशिबिम्बानुकारिणा। शोभमाना सवयोभि: सखीभिः परिवारिता ॥३५०॥ प्रतीहार्या दर्श्यमानपथा काञ्चनदण्डया। वरमालामुद्वहन्ती बलभद्रस्य कन्यका ॥३५१॥ सुरेष्विवोपस्थितेषु विद्याधरनृपेष्वथ । तं मण्डपमलञ्चक्रे सुमति: श्रीरिवोदधिम् ।।३५२॥ चतुर्भिः कलापकम्।। नीलोत्पलम्रजमिव सृजन्ती मुग्धया दृशा। ईक्षाञ्चक्रे कुरङ्गाक्षी सा स्वयंवरमण्डपम् ।।३५३॥ पाअत्रान्तरे रत्नमयं माणिक्यस्तम्भशोभितम् । लम्बमानं नभोमध्ये मार्तण्डस्येव मण्डलम् ।।३५४।। अधिष्ठितं देवतया रत्नसिंहासनस्थया। अकस्मादाविरभवद्विमानमधिमण्डपम् ॥३५५।।युग्मम्।। सा कन्या ते च राजानस्ते च विद्याधरेश्वराः । तदीक्षाञ्चक्रिरेऽत्यन्तविस्मयस्मेरचक्षुषः ॥३५६॥ तेषां सम्पश्यमानानां विमानादवतीर्य सा। अधिसिंहासनं देवी मण्डपान्तरुपाविशत् ।।३५७।। सोत्क्षिप्य दक्षिणं पाणिमूचे सुमतिकन्यकाम् । मुग्धे! धनश्रीर्बुध्यस्व बुध्यस्व प्राग्भवं स्मर ॥३५८।। पुष्करवरद्वीपार्धेऽस्ति पूर्वभरतस्य च । मध्यखण्डे विशालर्द्धि श्रीनन्दनपुरं पुरम् ।।३५९।। शरणार्थिजनत्राणेष्वतन्द्रालुर्दिवानिशम् । महेन्द्र इव तत्राऽऽसीन् महेन्द्र इति भूपतिः ।।३६०॥ राज्ञस्तस्य महादेवी प्राणेभ्योऽप्यतिवल्लभा । अनन्तमतिरित्यासीदनन्तगुणभाजनम् ॥३६१॥ एकदा सा निशाशेषे सुषुप्ता स्वप्नमैक्षत । निजोत्सङ्गस्थिते पुष्पमाले सुरभिनिर्मले ॥३६२।। आख्याते च तया स्वप्ने राजा व्याख्यातवानिति। भविष्यत्यनवद्यं ते निश्चितं दुहितद्वयम् ॥३६३।। जज्ञाते समये तस्या: पुत्र्यौ तत्राऽहमादिमा । कनकश्रीरिति त्वं तु धनश्रीरिति नामतः ॥३६४।। समं परस्परप्रीत्या ववृधाते उभे अपि । समं कलाकलापेन प्रापतुर्यौवनं च ते ॥३६५॥ पाइतस्ततश्च क्रीडन्त्यौ स्वेच्छयाऽन्येधुरीयतुः । सुपर्वविश्रामभुवं पर्वतं गिरिपर्वतम् ॥३६६।। फलानि तत्र स्वादूनि पुष्पाणि सुरभीणि च । विचिन्वन्त्यौ भ्रमतुस्ते वैनाद्रयोरिव देवते ॥३६७।। रह:प्रदेशे चैकस्मिन्नेकान्तशमशालिनम् । ते नन्दनगिरि नामाऽऽलोकयामासतुर्मुनिम् ॥३६८॥ विलोक्य मुदिते ते च तं मुनि त्रि: प्रदक्षिणम् । कृत्वा भक्त्या ववन्दाते अवदाते उभे अपि ॥३६९॥ धर्मलाभाशिषं दत्वा स नन्दनमहामुनिः । हृदयानन्दनीं (नां) धर्मदेशनां विदधे तयोः ॥३७०॥ तां धर्मदेशनां श्रुत्वेत्यूचतुः प्राञ्जली उभे । यदि नौ योग्यता काचिद्धर्मादेशं प्रयच्छ तत् ।।३७१।। विचार्य योग्यतां सोऽपि भगवानुभयोरपि। दिदेश द्वादशविधं धर्मं जगृहतुश्च ते ॥३७२।। तं वन्दित्वा मुनीन्द्रं ते जग्मतुर्निजवेश्मनि । सदाऽप्यवहिते धर्मं पर्यपालयतां च तम् ॥३७३॥ पक्रीडागिरि-सरिद्वापी-विविधद्रुमसङ्कुलाम् । एकदाऽशोकवनिकां जग्मतुस्ते कुतूहलात् ।।३७४।। विविधक्रीडया तत्र क्रीडन्त्यौ ते नदीतटे। अहार्षीत् खेचरयुवा वीराङ्गस्त्रिपुराधिपः ॥३७५॥ वज्रश्यामलिका नाम तस्य भार्या शुभाशया। त्याजयामास ते तस्मान्मृग्याविव मृगाधिपात् ।।३७६॥ भीमाटव्यां नदीतीरे वंशजालोपरि क्षणात् । व्योम्नस्ते पेततुर्बाले शापभ्रष्टामरीनिभे ॥३७७॥ आपदं मरणान्तां तां ज्ञात्वा ते शुभभावने। विदधाते अनशनं नमस्कारपरायणे ॥३७८॥ १. वासुदेवसेवकाः॥२. रचयामासुः ।। ३.०मास रत्न० मु. ॥ ४. कामसदृशाः ॥५. संवीतानि धृतानि दिव्यवस्त्राणि यया सा ।। ६. विचित्राणि कल्पितानि आकल्पानि भूषणानि यया सा ।। ७. खंता. पाता. न ।। ८.०रत्नमयमाणिक्य० मुप्र. ॥ ९. अकस्मादाविरभूद् खंता. पाता. वा.१-२ ॥१०. 'समो गमृच्छिप्रच्छिश्रुवित्स्वरत्यर्तिदृशः' (सि.हे. ३/३/८४) इति आत्मनेपदम् ।। ११. देवानां विश्रान्तिस्थानम् ।। १२. बनान्योरिव खंता., खंता.प्रतौ अत्र स्थाने टिप्पितमेवं तत्र वनदेवतेव'॥१३. श्वेतवर्णे ॥ १४. अशोकवाटिकाम् ॥१५. धनश्री-कनकप्रियौ ॥१६. मनोरमे ता. ॥ १७.ज्ञात्वा च मु.॥ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । कनकश्रीविपद्याऽहं 'सौधर्मस्वर्गशासितुः । अभूवमग्रमहिषी नाम्ना नवमिका स्वस:! ॥३७९।। विपद्य च धनश्रीस्त्वं धनदस्य महिष्यभूः । च्युत्वा ततोऽत्र सुमति: सीरिणस्त्वं सुताऽभवः ॥३८०॥ आसीत् तदा नौ सङ्केतश्च्यवते प्रथमं हि या। साऽर्हद्धर्मं बोधनीया समुपेत्य द्वितीयया ॥३८१॥ त्वां बोधयितुमेषाऽहमागताऽस्मि तव स्वसा। जैनं बुध्यस्व धर्मं त्वं संसारोदधितारणम् ।।३८२।। नन्दीश्वरमहाद्वीपेऽष्टाहिका: शाश्वतार्हताम् । यथास्थानं जन्म-स्नात्राद्युत्सवान् जङ्गमार्हताम् ॥३८३।। ताश्च तद्देशनावाच: स्वानुभूताः पुरा भवे । स्मराऽनया विस्मरसि किं जन्मान्तरनिद्रया? ॥३८४॥युग्मम्।। देवानामप्यसुलभां मर्त्यजन्मतरो: फलम् । तदादत्स्व परिव्रज्यां सिद्धेः प्रियसखीमिव ॥३८५।। इत्युक्त्वा शक्रमहिषी विमानमधिरुह्य सा । द्युतिभिर्योतयन्ती द्यां ययौ विद्युदिवोपरि ॥३८६।। पासञ्जातजातिस्मरणा तगिरा समतिस्ततः । पपात मूर्छिता भूमौ सद्यो भवभयादिव ॥३८७।। संसिक्ता चन्दनाम्भोभिर्वीजिता व्यजनानिलैः । लब्धसञ्ज्ञा समुत्तस्थौ निशात्यय इवाऽथ सा॥३८८।। सा कृताञ्जलिरित्यूचे भो भो: सर्वे कुलोद्भवा:! । प्रार्थये पृथिवीनाथा! जातिस्मरणवत्यहम् ॥३८९॥ मदर्थं यूयमाहूता अनुजानीत तेन माम् । उपादास्ये परिव्रज्यां भवभ्रमिरुगोषधिम् ।।३९०॥युग्मम्।। अभ्यधुर्भूभुजोऽप्येवमेवमस्तु तवाऽनघे! । अनुज्ञाता त्वमस्माभिर्निर्विघ्नं स्तात्तवेप्सितम् ।।३९१॥ सर्वोत्सवशिरोरत्नं तस्या निष्क्रमणोत्सवम् । चक्रतुः परया ऋद्धया मुदितौ सीरि-शाङ्गिणौ ॥३९२।। महिष्यो देवराजस्य यक्षराजस्य चैत्य ताम् । आनर्चुः पूजनीया हि वासवस्याऽपि तादृशः ॥३९३।। सुव्रतायाहिपद्यान्ते कन्यानां सप्तभिः शतैः । सहाऽऽददे सा प्रव्रज्यां मोक्षपादपसारणिम् ।।३९४।। साऽग्रहीद द्विविधां शिक्षा तेपे च विविधं तपः । संवेगभाविता तस्थावात्माब्जध्यानषट्पदी ॥३९५।। कालान्तरेण क्षपकश्रेणिमारूढवत्यसौ । केवलज्ञानमुत्पेदे मोक्षश्रीदूतसन्निभम् ॥३९६।। प्रबोध्य भव्यभविनो भवोपग्राहिकर्मणाम् । क्षयं कृत्वा च सुमति: प्रपेदे पदमव्ययम् ॥३९७।। पातौ चाऽपराजिता-ऽनन्तवीर्यो सम्यक्त्वशालिनौ। पर्यपालयतां राज्यं सम्पृक्तावश्विनाविव ॥३९८॥ पूर्वलक्षचतुरशीत्यायुरन्ते जनार्दनः । निकाचितैः कर्मभिस्तैर्ययौ नरकमादिमम् ।।३९९।। द्विचत्वारिंशत्सहस्रवर्षायुस्तत्र नारकः । विविधा वेदना लेभे नाशो नार्जितकर्मणाम् ॥४००॥ आगत्य चमरस्तत्र पिता प्राग्विष्णुजन्मनि । वेदनोपशमं चक्रेऽपत्यस्नेहो बली खलु ॥४०१।। अनन्तवीर्यजीवोऽपि संविग्न: सम्यगेव ताः । वेदना: समधिसेहे स्वं कर्माऽवधिना स्मरन् ॥४०२।। भ्रातृशोकाद्बलभद्रोऽप्यात्मजे न्यस्य मेदिनीम् । जयन्धरगणधरपादान्ते व्रतमाददे ॥४०३॥ तमनुप्राव्रजन् राज्ञां सहस्राणि च षोडश । महतामनुलग्नैर्हि महदासाद्यते फलम् ।।४०४।। सुचिरं स तपस्तेपे सहमानः परीषहान् । अन्ते चाऽनशनं कृत्वा विपद्येन्द्रोऽच्युतेऽभवत् ॥४०५॥ पाअनन्तवीर्यजीवोऽपि भुक्त्वा दुषकर्मणां फलम् । निर्ययौ नरकाच्छुद्धः स्वर्णधातुरिवाऽनलात्॥४०६॥ सोऽस्यैव जम्बूद्वीपस्य क्षेत्रे भरतनामनि । वैताट्यस्योत्तरश्रेण्यां पुरे गगनवल्लभे ॥४०७॥ विद्याधरपतेर्मेघवाहनस्य महात्मनः । जायायां मेघमालिन्यां मेघनादः सुतोऽभवत् ॥४०८॥युग्मम्।। क्रमेण यौवनं प्राप्तं तं राज्ये मेघवाहनः । निवेश्य परलोकाय निजकार्यमसाधयत् ॥४०९।। उभयोरपि वैतादयश्रेण्योरधिपतिः क्रमात । स बभवैकतेजस्वी द्यावाभम्योरिवाऽर्यमा॥४१०॥ १. इन्द्रस्य ॥२. जैनं बुध्यस्व बुध्यस्व धर्म संसारतारणम् ता. पा. छा. खंता. वा.१-२॥३. तांश्च तद्देशना० मु.॥४. न खंता. पाता. वा.१-२ प्रतिषु ।। ५. गृहाण ॥ ६. भवे संसारे भ्रमिः भ्रमणं तदेव रुग् रोगः, तस्यौषधम् ।। ७. इन्द्रस्य ।। ८. कुबेरस्य ।। ९.आनर्च मु. ॥ १०.०परिव्रज्याम्० पा. ॥ ११. मोक्षवृक्षस्य कुल्यातुल्याम् ॥ १२. संवेगेन वैराग्येण भाविता युक्ता ॥ १३. आत्मा एव अब्जे कमलं तस्य ध्याने षट्पदी भ्रमरी तया तुल्या; वात्माब्जाध्यान० खंता., ०वात्माब्जव्योमषट्पदी० ता. ॥१४.केवलज्ञानमापेदे दे. विना ॥१५. मिलितौ अश्विनीकुमारौ ॥१६. कर्मभिः स्वैर्ययो पा. ।। १७. स्तिमितसागरः ॥१८. जयधर० खंता. पाता. ॥१९. तदनु० खंता. ॥ २०. खंता. पाता. वा.१-२ प्रतिषु नास्ति ।। २१. यौवनप्राप्तं० खंता. पाता. ॥ २२. आकाश-पृथिव्योः सूर्य इव ॥ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (पञ्चमं पर्व कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं दशोत्तरं 'देशशतं विभज्य तनुजन्मनां । दत्त्वाऽन्येधुर्मन्दराद्रिं सोऽगात् प्रज्ञप्तिविद्यया ॥४११।। तत्राऽन्तर्नन्दनवनं सिद्धचैत्येऽर्चनं व्यधात् । तदा तत्राऽवतेरुश्च त्रिदशा: कल्पवासिनः ॥४१२।। प्राग्भवभ्रातृसौहार्दादच्युतेन्द्रो विलोक्य तम् । प्राबोधयद्गुरुरिव संसारस्त्यज्यतामिति ॥४१३।। तदाऽमरगुरुर्नाम मुनीन्द्रः समुपाययौ । विद्याधरपतेस्तस्य स्वार्थसिद्धिरिवाऽङ्गभाक् ॥४१४॥ तत्पादमूले जग्राह मेघनादस्ततो व्रतम् । अपालयच्चाऽप्रमत्तस्तपो-नियमपूर्वकम् ॥४१५॥ सोऽपरेधुरथाऽऽरुह्य गिरिं नन्दनपर्वतम् । ध्यानी तस्थौ समालम्ब्य प्रतिमामेकरात्रिकीम् ॥४१६।। तथास्थितं च प्राग्जन्मवैर्यश्वग्रीवनन्दनः । भवं भ्रान्त्वा चिरं दैत्यजन्म प्राप्तो ददर्श तम् ।।४१७॥ प्राग्वैरादुपसर्गान् स क्रुद्धस्तस्य महामुनेः । चक्रे निसर्गधीरस्य महाद्रोरिव कासरः ।।४१८॥ तं च चालयितुं ध्यानान्नाऽशकत् स मनागपि। किं कम्पते क्वचिच्छैलो दन्तघातेन दन्तिन:? ॥४१९।। वीक्षापन्नो जगामाऽथ सोऽसुरो मलिनाननः । ध्यानं च पारयामास मेघनादमहामुनिः ॥४२०।। उपसर्गपरीषहैरप्रकम्प्र: स तपस्तीव्रतरं चिरं चरित्वा। अन्तेऽनशनं विधाय मृत्वाऽच्युतसामानिकदेवभूयमाप ॥४२१।। इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये पञ्चमे पर्वणि श्रीशान्तिनाथदेवीय षष्ठसप्तमभववर्णनो नाम द्वितीय: सर्ग:॥ १.पुरशतं पा. ।। २. पुत्राणाम् ।। ३. ०रिवाङ्गवान् मु.।। ४. पूर्वजन्मशत्रुः ।। ५. महावृक्षस्येव महिषः ॥६. विलक्षः ।। ७. देवत्वम् ।। ८. पञ्चमपर्वणि खंता. पाता. वा.१-२॥ ९.०देवीयषष्ठसप्तमभव: समाप्तः इति वा.१-२॥ १०. सर्गः सम्पूर्ण: मु.॥ १परमात । पुत्राणाम्। विनाकाबाल मना । मुहावरोव तिषः ॥६. चित्तक ७ देवल्यम् ॥ ८. पक्षमपर्वनि Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥तृतीयः सर्गः॥ अस्यैवजम्बूद्वीपस्य प्राग्विदेहेषु विद्यते।सीताया दक्षिणतटे विजयो मालावती॥१॥ तत्राऽस्ति नगरी रत्नसञ्चया नाम विस्तृता। रत्नसञ्चयवत्त्वेन रत्नाकरवधूरिव॥२॥ तत्र क्षेमकरो नाम योग-क्षेमकरः श्रियः। समीरण इवौजस्वी बभूव वसुधाधवः ॥३॥ निर्मला रत्नमालेवरत्नमालेति नामतः । पुष्पमालेव मृद्वङ्गी तस्याऽभूत् सहचारिणी॥४॥ अपराजितजीव: सोऽच्युतेन्द्रः प्रच्युतोऽच्युतात्। शौक्तिकेयमिव शुक्तौ तत्कुक्षावुदपद्यत॥५॥ चतुर्दश महास्वप्नान् वज्रं पञ्चदशं तथा। सुखसुप्ता महादेवी निशाशेषे ददर्श सा॥६॥ पत्ये प्रबुद्धा साऽऽचख्यौ व्याचख्यौ सोऽपि यत् तव। वज्रीव वीरस्तनयश्चक्रवर्ती भविष्यति।।७।। काले सा सुषुवे पुत्रं पवित्रं मधुराकृतिम् । षष्ठमिव लोकपालं लोकोत्तरपराक्रमम् ॥८॥ गर्भस्थितेऽस्मिन् यं स्वप्ने देवी वजं व्यलोकयत्। तेन वज्रायुध इति तस्य नाम ददौ पिता॥९॥ लोकोत्तरवपुर्लोकचक्षुर्दोषाद् दिने दिने। स्फुटल्ललन्तिकारिष्टो व्यवर्धिष्ट क्रमेण सः॥१०॥ सुरा-ऽसुर-नरस्त्रीणामेकं हृदयमोहनम् । सप्राप यौवनं सर्वकलाजलधिपारगः॥११॥ सोऽथ लक्ष्मीवतीं नाम लक्ष्मीमिव वपुष्मतीम्। राजपुत्रीमुपायंस्त हस्तविन्यस्तकङ्कण: ॥१२॥ अनन्तवीर्यजीवोऽपिप्रच्युत्याऽच्युतकल्पतः। आगालक्ष्मीवतीकुक्षिं खादिवाऽब्दजलं महीम्॥१३॥ सुस्वप्नसूचितं सूनुमसूत समयेऽथ सा। सर्वलक्षणसम्पूर्णमादित्यमिव तेजसा॥१४॥ जन्मोत्सवादप्यधिकेनोत्सवेन शुभेऽहनि । सहस्रायुध इत्याख्यां पितरौ तस्य चक्रतुः॥१५॥ पीयूषदीधितिरिव सोऽपि चाऽवर्धत क्रमात्। कलाकलापसम्पूर्णः प्रतिपेदे च यौवनम् ॥१६॥ स राजकन्यांकनकश्रियं नाम वपु:श्रिया। अतिश्रियं पर्यणैषीद् रूपश्रीमकरध्वजः॥१७॥ तस्याऽपि तस्यां सञ्जज्ञे सम्पूर्णनरलक्षणः। सूनुः शतबलिर्नाम महाबल इवौजसा॥१८।। अथैकदा पुत्र-पौत्र-प्रपौत्रैर्मित्र-मन्त्रिभिः। सामन्तैश्च सहाऽध्यास्त राजा क्षेमङ्करः सभाम्॥१९॥ तदा चैशानकल्पेऽभूदिति चर्चा दिवौकसाम्। अनुवज्रायुधं धात्र्यां दृढसम्यक्त्वधारिणः ॥२०॥ अश्रद्दधानस्तां वाचं चित्रचूलाभिध: सुरः। विचित्ररत्नमुकुटश्चलत्कुण्डलमण्डलः॥२१॥ मिथ्यात्वमोहितमना नास्तिकीभूय दुर्मतिः। समाययौ विर्वदिषुस्तां क्षेमङ्करपर्षदम् ॥२२॥[युग्मम्] तत्राऽऽलापेषु चित्रेषु जायमानेषु सोऽमरः। आस्तिक्योद्घातमाक्षिप्य सावष्टम्भमदोऽवदत् ॥२३॥ नाऽस्ति पुण्यं न पापं न जीवो लोक: परो न च। आस्तिक्यबुद्ध्या त्वेतेषां मुधा क्लिश्यन्ति देहिनः॥२४॥ निर्व्याजसम्यक्त्वधरस्ततो वज्रायुधोऽभ्यधात्। भो:! प्रत्यक्षविरुद्धं ते वचस्विन्! किमिदं वच: ? ॥२५॥ त्वं प्रयुज्याऽवधिं तावत् सम्यक् पश्याऽऽत्मनोऽपि हि। प्राग्जन्मधर्मानुष्ठानफलमेतद्धि वैभवम् ॥२६॥ पूर्वजन्मनि मर्त्यस्त्वममर्त्यस्त्वधुनाऽभवः । न चेद्भवति जीवस्तद्ब्रूहीदं घटते कथम् ? ॥२७॥ इह मर्त्यत्वमाप्तस्य देवत्वं च परत्रते। प्रत्यक्ष: परलोकोऽपि तद्धीमन्निहलोकवत्॥२८॥ क्षेमकरकुमारेणेत्थंकार से प्रबोधितः । चित्रचूलोऽप्युवाचैवंसाधु साधु कृतं त्वया॥२९॥ १. अथ तृतीय: मु.॥२. सागरपत्नीव ।। ३. पवनः ।। ४. नृपतिः। वसुधाधर: मु.॥५. सुकोमलाङ्गी॥६. मौक्तिकम् ।।७. इन्द्र इव ।। ८. वीरतनय० मु.॥९. सामु., यत् खंता. वा.१-२, छा. ॥१०. स्फुटन्ती विकसन्ती ललन्तिका माला तयाऽरिष्टः शुभः ।। अयमर्थः श्रीरमणीकविजयैः कृतः। किन्तु , स्फुटत्- नश्यत् ललन्तिकारूपं रिष्टं यस्य सः , अथवा स्फुटन्ती-भिन्दन्ती या ललन्तिका तयाऽरिष्टं शुभं यस्य सः- इत्यर्थ: स्यात् ॥११. लक्ष्मीवतीकुक्षौ सं. ता. पा. ला. ।। १२. आकाशाद् इव मेघजलम्॥१३. चन्द्रः॥१४. कलाकलापसम्पूर्णम् ला. दे. ॥१५. लक्ष्मीमतिक्रान्ताम्।।१६. वज्रायुधाद् हीनाः॥१७. दृढसम्यक्त्वशालिन: मु. ॥ १८. विवादं कर्तुमिच्छुः ॥ १९. आस्तिक्यस्य उपरि प्रहारो यथा स्यात् तथा आक्षिप्य; आस्तिक्योद्योतमाक्षिप्य मु. दे. ता. पा. सं. छा. ॥ २०. जीवलोक: ता. पा. ।। २१. पुण्यादीनाम् ।। २२. शुद्धसम्यक्त्वधरः ॥ २३. प्रशस्तवचनवान् ।। २४. अवधिज्ञानम् ।। २५. देवः ।। २६. प्रतिबोधित: ला. मु.॥ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (पञ्चमं पर्व संसारे निपतन्नेष उद्धृतोऽस्मि कृपालुना। किमुच्यतेऽथवा यस्य साक्षात् तीर्थकर: पिता॥३०॥ चिरं मिथ्यात्ववानस्मि दृष्टो दिष्ट्येीयाऽप्यसि। सम्यक्त्वरत्नं मे देहि नवन्ध्यं दर्शनं सताम् ॥३१॥ वज्रायुधोऽपि तद्भावं ज्ञात्वा मतिमतां वरः । दिदेश तस्मै सम्यक्त्वं सवीर्यस्य सुतः स हि॥३२॥ भूयोऽप्यूचे चित्रचूल: कुमाराऽद्यप्रभृत्यहम् ।आदेशकार्यस्मि तव याचस्वाऽद्यैव किञ्चन॥३३॥ कुमारोऽपि जगादैवं त्वत्तोऽदो याचितं मया। अत: परं त्वया भाव्यं दृढसम्यक्त्वशालिना॥३४॥ देवोऽप्यवोचत् केयं ते प्रार्थना ? स्वार्थ एष मे। तद् ब्रूहि किञ्चित् कार्यं त्वं यथा स्यामनृणस्तव॥३५।। मत्कार्यमिदमेवेति वेक्त्रे वज्रायुधाय सः । देवायेव निरीहाय दिव्यालङ्करणान्यदात्॥३६।। ईशानेन्द्रसभां गत्वा चित्रचूलोऽभ्यधादिति।स्थाने वज्रायुधोऽश्लाघि दृढसम्यक्त्ववांस्त्वया॥३७॥ अयं महात्मा भगवानर्हन् भावीति संगृणन्। ईशानपतिरस्तावीद्वज्रायुधमनायुधः॥३८॥ एवं विचित्रगोष्ठीभिः क्रीडाभिरपि चारुभिः । वज्रायुधः सौख्यमग्नस्तस्थौ सुर इवर्द्धिमान् ॥३९।। गवसन्तसमयेऽन्येद्युस्तत्पुष्पपटलीधरा । वेश्या सुदर्शनावज्रायुधमेवं व्यजिज्ञपत् ॥४०॥ यूनां क्रीडासखो मीनकेतोर्जयसख: पर: । स्वामिन्नद्य वसन्तोऽयमेकच्छत्रो विजृम्भते॥४१॥ दोलान्दोलनसंसक्ता योषितोऽत्राऽर्द्धयौवना: । पतिनामानि पृच्छ्यन्ते सखीभिर्यष्टिपाणिभिः॥४२॥ स्वयं चिन्वन्ति पुष्पाणि ग्रंथ्नन्ति स्वयमेव च । स्वयमर्चन्ति पुष्पास्त्रं स्वयं मानं त्यजन्ति च॥४३॥ स्वयं दूतीभवन्तीह मनस्विन्योऽपि सम्प्रति। अनुभावो विजयते ऋतुराजस्य कोऽप्ययम्॥४४॥युग्मम्।। पिकीना कूजितैरत्र भृङ्गीणां विरुतैरपि। सुप्तस्मरनृपोद्बोधबन्दिकोलाहलायितम्॥४५॥ पुष्पोत्तंसा: पुष्पहारा: पुष्पकेयूरकङ्कणाः। पाखण्डमिव पुष्पेषोर्युवान इह बिभ्रति॥४६॥ वसन्तसखसङ्काशवसन्तेऽस्मिन्नुपस्थिते। विज्ञापयति देव! त्वां देवी लक्ष्मीवती मया॥४७॥ अद्य सूरनिपाताख्यमुद्यानं नन्दनोपमम् । गत्वा मधुश्रियं नव्यां द्रष्टुं न: कौतुकं प्रभो! ॥४८॥ अस्तुङ्कारस्तद्वचस: कुमार: सपरिच्छदः । तदैव हि तदुद्यानं जगामाऽनङ्गधाम सः॥४९॥ लक्ष्मीवतीप्रभृतीनि सप्त देवीशतानि च। कुमारमनुयान्ति स्म तारा इव निशाकरम् ॥५०॥ एकच्छत्रमिव च्छायापादपैरतिविस्तृतैः। अद्वैतामोदसाम्राज्यमिव पुष्पितशाखिभिः॥५१॥ गैलत्परागकणिकापङ्किलाबालमण्डलम्। फलभारनमच्छाखिशाखानुस्पृष्टभूतलम्॥५२॥ क्वाऽप्युन्नमन्नमन् क्वाऽपि योगीव विवरं विशन्। सान्त:पुरस्तदुद्यानं कुमारो विजहार सः॥५३||त्रिभिर्विशेषकम्।। पातेनोद्यानविहारेण श्रान्त: श्रान्तवधूजनः । जलक्रीडाकृते वापी स ययौ प्रियदर्शनाम् ॥५४॥ नन्दीश्वरद्वीपवापीमिव वापी मनोरमाम्। कुमार: श्रमनाशाय सप्रियः प्रविवेश ताम्॥५५॥ प्रेयसीभिः समं तत्र गिरिणद्यामिव द्विप: । प्रावर्तिष्ट जलक्रीडां कर्तुं वज्रायुधस्ततः॥५६॥ जलक्रीडाकराघातैरुत्क्षिप्तानामलक्ष्यत। हारमुक्ताकणानां च शीकराणां च नाऽन्तरम्॥५७॥ अन्त:पुरस्त्रीमुखानां हैमानांचाऽम्बुजन्मनाम्। वयस्यानामिव चिरादभूदन्योन्यसङ्गमः॥५८॥ अञ्जलिभिः शृङ्गिकाभिर्गण्डूषैश्च मृगीदृशाम्। वारिपहरणो जज्ञे मन्येपुष्पायुधस्तदा ॥५९॥ १. दिष्ट्येय॑यापि हि सं. ता. पा. ला.॥२. निष्फलम् ।। ३. जिनस्य ‘सवीर्य इत्यपि जिने' [हैम. शिलोञ्छ. प्र. का. श्लो. २] ॥४. आदेशवर्ती ।। ५. वदते, वक्तृशब्दस्य चतुर्येकवचनम्।। ६.स गृणन् मु., कथयन् ।। ७. वसन्तपुष्पगुच्छधरा ।। ८. नाम वज्रायुधमजिज्ञपत् दे. मु.॥९. मीनकेतो: कामस्य ।। १०. उत्राऽऽर्द्रयौवनाः इति मु. पाठः। अन्यास्वप्युपयुक्तासु प्रतिष्वयं पाठः सम्भाव्यते। तत्र आर्द्र - नवीनं यौवनं यासां ताः' इत्यर्थः ।। ११. जिघ्रन्ति ला.।। १२. कामदेवम् ।। १३. प्रभावः ।।१४. वसन्तस्य॥१५. पिकानाम् ला. पा. ॥१६. सुप्तो य: कामनृपस्तस्योद्बोधे कोलाहलमिवाऽऽचरितम् ॥१७. कामदेवस्य॥१८. कामदेवसदृशवसन्ते ॥ १९. 'अस्तु' इति कारक: - तद्वचसोऽनुमोदकः ॥ २०. आमोदाद्वैतस्य साम्राज्यमिव, आमोदः सुरभिगन्धः ॥ २१. गलन्त्यो याः परागकणिकास्ताभिः पङ्किलानि अबालानि-महान्ति मण्डलानि ॥ २२. उच्चर्नीचैर्भवन् ।। २३. खंता. पाता. वा.१-२ प्रतिषु न॥२४. प्रियदर्शन: छा. ला.॥२५. स विवेश ताम् मु.॥ २६. गिरिनद्यामिव छा. मु.॥ २७. सीकराणां मु.। जलकणानाम् ।। २८. स्त्रीमुखाणां खंता. पाता. वा.१-२॥२९. कमलानाम् ।। ३०. वारियन्त्रैः, पिचकारी' इतिभाषायाम् ।। ३१. कोगळो' इति भाषायाम् ।। ३२. वार्येव प्रहरणमायुधं यस्य सः॥३३. कामदेवः।। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३ तृतीयः सर्गः) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । लुलन्त्य: समलक्ष्यन्त कबर्यो वरयोषिताम्। मीना मीनध्वजेनेवध्वजार्थं प्रगुणीकृताः॥६०॥ जलकेलिपरिश्रान्ता विश्राम्यन्त्य: पयस्तटे। गौराङ्ग्य: समलक्ष्यन्त जलदेव्य इव स्थिताः ॥६१॥ सपत्नाम्भोजसङ्घर्षेणेव नेत्राणि सुभ्रुवाम्। वारिच्छटाच्छोटनेन ताम्रतां प्रतिपेदिरे॥६२॥ मृगीदृशामङ्गरागैर्मार्गाभैरभूत् पयः। सुगन्धिगन्धेभमदैरिव वन्यनदीजलम्॥६३॥ इत्थंच निर्भर वारिक्रीडया व्यग्रमानस:। वज्रायुधकुमारोऽस्थादस्थानमेसुहृद्रियाम्॥६४॥ पाप्राग्जन्मारेर्दमितारेर्जीवोभ्रान्त्वा भवे चिरम्। देवत्वं प्राप्तवानागा विद्युदंष्ट्राभिधस्तदा॥६५॥ दृष्ट्वा वज्रायुधं विद्युदंष्ट्रो दंष्ट्रा: कषन् मिथः। आ: क्व यास्यत्यसौ जीवनिति सञ्चिन्तयन्षा॥६६॥ कुमारं सपरिवार पेष्टुं चणकमुष्टिवत्। वाप्यास्तस्या उपरिष्टाच्चिक्षेपोत्क्षिप्य पर्वतम् ॥६७॥[युग्मम् पाशिपाशोपमैर्नागपाशै: सोऽसुरपांसनः । वज्रायुधं बबन्धाऽध: पंदोर्मेण्ठ इव द्विपम्॥६८॥ गिरिं वज्रीव वज्रेण मुष्ट्या वज्रायुधोऽपि तम्। पिपेषाऽत्रोटयच्चाऽथ तान् पाशान् बिसतन्तुवत्॥६९।। शेषाहिरिव पातालादक्षताङ्गो महाभुजः। तस्या: सान्त:पुरो वाप्या: कुमारो निर्ययौ ततः॥७०॥ तदा नन्दीश्वरे यात्रां कर्तुं शक्रो विदेहेजान् । जिनान् नत्वा व्रजन् वाप्या निर्गच्छन्तं ददर्श तम्॥७१॥ भवेऽत्रचत्र्यसौभाविन्यर्हन्निति पुरन्दरः । तमान!पचारः स्याद्भाविन्यपि हि भूतवत्॥७२॥ धन्योऽसि जम्बूद्वीपस्य क्षेत्रे भरतसञके। तीर्थकृत् षोडश: शान्तिर्भावीत्युक्त्वा ययौ हरिः॥७३॥ वज्रायुधोऽपि विविधा: क्रीडा: कृत्वा यदृच्छया। सान्त:पुरपरीवार: प्रविवेश निजंपुरम् ॥७४॥ पाअथक्षेमकरो लोकान्तिकदेवैः प्रबोधित:। विव्रजिषुरात्मीये राज्ये वज्रायुधं न्यधात्॥७५॥ प्रदाय वार्षिकं दानं प्रव्रज्यामाददे प्रभुः। विविधाभिग्रहपरस्तपस्तेपेचदुस्तपम्॥७६।। कर्मणांघातिनां घाताद्भर्तुर्जज्ञेच केवलम्। केवलज्ञानमहिमा विदधे चाऽमरेश्वरैः॥७७॥ यथास्थानं निषण्णेषु वज्रि-वज्रायुधादिषु। स्थित: समवसरणे सर्वज्ञो देशनां व्यधात्॥७८॥ श्रुत्वा तां देशनां लोका: प्राज्या: पर्यव्रजन्नथ।स्वंस्वं स्थानं ययुर्वज्रधर-वज्रायुधादयः॥७९॥ अस्त्रागारे चक्ररत्नमुत्पन्नमिति तारवाक्। तदाऽस्त्रागारिको वज्रायुधस्याऽकथयन् मुदा॥८॥ वज्रायुधस्ततश्चक्रे चक्रपूजां महीयसीम्। अन्यान्यपि महारत्नान्यस्याऽभूवंस्त्रयोदश।।८१॥ चक्ररत्नानुग: सोऽथ सवैताढ्यमहीधरम्। अपिव्यजेष्ट षट्खण्डं विजयं मङ्गलावतीम् ॥८२॥ सहस्रायुधकुमारं यौवराज्ये न्यधत्त च। धरित्रीधरणसहं मूर्त्यन्तरमिवाऽऽत्मनः ॥८३॥ पाएकदा राज-सामन्ता-ऽमात्य-सेनाधिपैर्वृतः।सामानिकैरिव हरि: सोऽध्यास्ताऽऽस्थानमण्डपम्॥८४॥ तदानींचाऽम्बरतलादापत्तन्नवनीतलम् । वेपमानाखिलवपुर्द्विपाहत इव द्रुमः॥८५॥ एको विद्याधरयुवा वज्रायुधमहीभुजम्। शरण्यं शरणायाऽऽगान् मैनीक इव सागरम्॥८६॥युग्मम्।। तत्पृष्ठे खड्ग-फलकधरा विद्याधराङ्गना। आगात्सुरेखा चार्वङ्गी विद्यादेवीव मूर्तिभाक् ॥८७।। साऽप्यूचे चक्रिणं देव! दुरात्माऽयं विसृज्यताम्। यथाऽस्य दुर्नयफलं दर्शयाम्यचिरादहम्॥८८॥ तत्पृष्ठतश्चोरुंगदापाणिभृकुटिभीषणः। यमदूत इवैक: कोऽप्यागाद् विद्याधरः क्रुधा॥८९॥ वैज्रायुधं सोऽप्यवोचत् श्रूयतामस्य दुर्नयः । येनेहेयमहं चाऽऽगामेतद्वधविधिसया॥९०॥ पाअस्त्यस्य जम्बूद्वीपस्य विदेहक्षेत्रभूषणे।सुकच्छनाम्नि विजये वैताढ्यो नाम पर्वतः ॥९१॥ तस्योपरि पुरश्रेणिशिरोमणितया स्थितम् । पुरंशुल्कपुरं नाम शुल्कं कल्पश्रिया इव ॥१२॥ १. केशपाशाः ।। २. कन्दर्पणेव।। ३. सापत्नाम्भोजसं० सं. छा. दे. मु.; सपत्न्याम्भोजसं० ला., सापल्याम्भोजसं० पा.; शत्रुभूतानां पङ्कजानां स्पर्धया ।। ४. कस्तूरीसम्बन्धिभिः॥५. शत्रुभयानामस्थानम् ॥ ६.क्रोधेन ॥७. वरुणपाशोपमैः॥८. असुराधमः ॥९. पदोर्मेण्ड इव ला. मु.॥१०. हस्तिपकः॥११. त्रोटयित्वा ला. दे. ॥१२. महाविदेहजातान् ॥१३. इन्द्रः॥१४. प्रव्रज्यामादित्सुः ॥१५.०स्थाननि० खंता. पाता. ॥१६. प्रभूताः ।। १७. इन्द्रः॥१८. उच्चैर्वाक्॥१९. इन्द्रः ॥२०. सभामण्डपम्॥२१. पर्वतः ।। २२. महती गदा पाणौ यस्य सः॥२३. विद्याधरं मु.॥२४. विधातुमिच्छया॥२५. जम्बद्रीपेऽस्य मु.॥२६. मूल्यम् ॥२७. देवलोकश्रियाः॥ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्री हेमचन्द्राचार्यप्रणीतं 1 शुक्लदन्तोऽभवत्तत्र विद्याधरनरेश्वरः । पत्नी यशोधरा 'तस्य कुलद्वययशोधरा ॥ ९३ || तयोरभूवं पवनवेगो नामाऽहमात्मजः । क्रमात् कलाकलापं च यौवनं च प्रपन्नवान् ॥९४॥ तत्रैव वैताढ्य गिरावुत्तरश्रेणिमण्डने । पुरे किन्नरपुरेऽभूद् दीप्तचूलो महीपतिः ॥९५॥ ३४ T तस्य पत्न्यां चन्द्रकीर्तौ सुकान्ता नाम पुत्र्यभूत् । सर्वलक्षणसम्पूर्णा सा मया पर्यणीयत ॥ ९६ ॥ अथाऽऽवयोः समभवद् रूपशीलविराजिनी । पुत्री शान्तिमती नाम पुरस्तादस्ति या तव ॥९७॥ इयं हि साधयन्त्यासीन्महाविद्यां यथाविधि । प्रज्ञप्तिकां भगवतीं पर्वते मणिसागरे ॥ ९८ ॥ विद्याधरेणाऽमुनेयं विद्यासाधनतत्परा । व्योमन्युच्चिक्षेपेऽथाऽस्या विद्याऽसिध्यत् तदैव च ॥९९॥ अस्याः पलायितः सद्यः शरणं क्वाऽप्यनाप्नुवन् । त्वत्पादमूलं प्राप्तोऽयं दुरात्मा खेचराधमः ॥१००॥ प्रज्ञप्तिविद्यापूजार्थं गृहीत्वा बलिमागमम्। न चाऽपश्यमहं तत्र गिरौ दुहितरं निजम् ॥ १०१ ॥ आभोगिन्या ततो ज्ञात्वा स्वामिन्नहमिहाऽऽगतः। दोषाणामाकरः सोऽयं त्यज्यतां दुष्टशासक! ॥१०२॥ नालिकेरीफलमिव यथैनं गदयाऽनया । दलयित्वा प्रापयामि प्रेतराजनिकेतनम् ॥१०३॥ अथ ज्ञात्वाऽवधिज्ञानाच्चक्री वज्रायुधोऽवदत् । भो! भोः ! प्राग्भवसम्बन्ध एतेषां श्रूयतामयम् ॥१०४॥ अस्यैव जम्बूद्वीपस्य क्षेत्र ऐरावताभिधे । पुरे विन्ध्यपुरे विन्ध्यदत्तो नामाऽभवन्नृपः ॥१०५॥ पत्न्यां सुलक्षणाख्यायां सम्पूर्णनरलक्षणः । बभूव तस्य नलिनके तु रित्याख्यया सुतः ॥ १०६ ॥ आसीत् तत्रैव नगरे सार्थवाहशिरोमणिः । मित्राब्जानां मित्र इव धर्ममित्रोऽभिधानतः ॥ १०७॥ श्रीदत्तायां तस्य पत्न्यां दत्तो नामाऽभवत् सुतः । दत्तस्याऽप्यभवत् पत्नी दिव्यरूपा प्रभङ्करा ॥ १०८ ॥ एकदा स वसन्तर्ती समं दयितया तया । जगाम रन्तुमुद्याने रत्येव मकरध्वजः ॥ १०९ ॥ राज्ञश्च सूनुर्ननिकेतुः सोऽपि तदाऽऽगतः । प्रभङ्करामपश्यत् तां जघ्ने च स्मरपत्रिभिः ॥११०॥ श्लाघ्यमस्या अहो! रूपं श्लाघ्यः सोऽपि च योऽनया । रमेतेति विचिन्त्याऽन्तस्तां सोऽहार्षीत् स्मरातुरः ॥ १११ ॥ क्रीडोद्यान-सरिद्वाप्यादिषु नित्यं तया सह । स्वच्छन्दं नलिनकेतुरक्रीडन् मीनकेतुवत्॥११२॥ ॥ उन्मत्त इव दत्तोऽपि तद्वियोगानलार्दितः । उद्याने तत्र बभ्राम ध्यायन् विष्वक् प्रभङ्कराम् ॥ ११३॥ तत्र पर्यटता तेन 'हैक्सुधाञ्जनदर्शनः । ईक्षाञ्चक्रे वरमुनिः सुमना इति नामतः ॥ ११४ ॥ मुनेः सुमनसस्तस्य घातिकर्मक्षयात्तदा । उत्पेदे केवलज्ञान मैज्ञानध्वान्तवासरः ॥११५॥ · चक्रिरे केवलज्ञानमहिमानं दिवौकसः । मुनेस्तस्य पदाम्भोजद्वन्द्वं दत्तोऽप्यवन्दत ॥ ११६॥ पीत्वा तस्मान्मुनेर्धर्मदेर्शेनारूपिणीं सुधाम् । दत्तः प्राक्तापवैधुर्यमुज्झति स्म क्षणादपि ॥११७॥ उपशान्तो दानधर्मरतोऽनारतमेव सः । अतिवाह्य शुभध्यानी प्रकृष्टं पुरुषायुषम् ॥ ११८ ॥ जम्बूद्वीपे प्राग्विदेहे सुकच्छे विजयोत्तमे । वैताढ्यपर्वते स्वर्णतिलके प्रवरे पुरे ॥ ११९॥ महेन्द्रविक्रमाख्यस्य विद्याधरमहीपतेः । पत्न्यामनिलवेगायां सुतत्वेनोदपद्यत ॥ १२० ॥ त्रिभिर्विशेषकम् || तस्याऽजितसेन इति नामधेयं पिता व्यधात् । ददौ विद्याश्च विधिवत् तेषां मूलधनं हि ताः ॥ १२१ ॥ उद्यौवन: पर्यणैषीत् स विद्याधरकन्यकाः । रेमे च ताभिर्विहरन् व्योम्ना गिरि-वनादिषु ॥ १२२ ॥ ||विन्ध्यदत्ते विपन्ने तु पुरे विन्ध्यपुरेऽभवत् । राजा नलिनकेतुः सः तार्क्ष्यकेतुरिवोद्भटः ॥ १२३॥ स प्रभक्ङ्करया सार्धं दैत्तपत्न्याऽर्पंनीतया । कान्दर्पिकः सुर इँवाऽभुङ्क्त वैषयिकं सुखम्॥१२४॥ प्रासादमन्यदाऽऽरोहत् स प्रभङ्करया समम् । वैमानिकः समं देव्या विमानमिव भासुरम् ॥ १२५ ॥ (पञ्चमं पर्व १. चाऽस्य ता. पा. ला. ॥। २. विद्या सिद्धा तदैव च सं. पा. ता. ला. छा. ॥ ३. खेचरोऽधुना पा. ॥। ४. तन्नाम्न्या विद्यया ॥ ५. ० हमिहागमः ता. ।। ६. दुष्टशासक: मु. विना । दुष्टान् शास्तीति दुष्टशासकः, तस्य सम्बोधनम् ॥ ७. यमराजगृहम् ॥ ८. ऐरवताभिधे ता. खंता ।। ९. मित्राण्येव कमलानि तेषां विकाशे मित्रः सूर्य इव ॥ १०. कामबाणैः । ११. कामदेववत् ॥ १२. दृशो : नेत्रयोः सुधाञ्जनमिव दर्शनं यस्य सः ॥ १३. अज्ञानमेव ध्वान्तं तमस्तस्य नाशने दिवसतुल्यम् ॥ १४.० देशनां रूपिणीं मु.; रूपिणीं मूर्तिमतीं सुधामित्यत्राऽर्थः ॥ १५.० विक्रमार्कस्य मु. ॥ १६. विष्णुरिव ॥ १७. दत्तपत्न्योपनीतया ता ॥ १८. अपहृतया ॥ १९. व्यन्तरनिकायिकः ।। २०. इवाऽभुक्त सं. ला. पा. खंता. पाता. वा. १-२ ।। २१. सदेवीको सं. ता. ला. पा. ॥ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । गिरीन्द्रशिखराकारानञ्जन द्युतितस्करान्। गर्जितर्जितदिक्चक्रानुभ्रान्तानिव दिग्गजान्॥१२६॥ विद्युदुद्योतितव्योम्न ऋजुरोहितधारिणः । अकस्मादुन्नतान् मेघान् ददर्श मुमुदे चसः॥१२७॥युग्मम्।। तांश्च प्रचण्डवातेन पोतानिव दिशोदिशम्। अद्राक्षीन्नीयमानांश्च कुहकोत्पादितानिव॥१२८॥ इत्युत्पत्तिं विपत्तिं चक्षणार्धेऽपि पयोमुचाम् । निरीक्ष्य नलिनकेतुर्वैराग्यादित्यचिन्तयत्॥१२९॥ यथाऽमी वारिदा व्योम्नि क्षणादुदयमासदन्।क्षणादस्तमपि तथा संसारे सर्वमीदृशम्॥१३०॥ युवा वृद्धो धनी रोरें: पति: पत्तिर्विरुक् सरुक्। एकजन्मन्यपि जनो धिक् सर्वं क्षणिकं भवे॥१३१॥ एवं विमृश्य पुत्रं स्वं राज्ये न्यस्य च तत्क्षणात्। प्रव्रज्यामाददे क्षेमकरतीर्थङ्करान्तिके॥१३२।। उग्रैस्तपोभिर्ध्यानेन घाततो घातिकर्मणाम्। केवलज्ञानमुत्पेदे तस्य कालक्रमेण तु॥१३३॥ भवोपग्राहिकर्माणि हत्वा चत्वार्यपि क्षणात्। जगाम नलिनकेतुर्महर्षिः पदमव्ययम् ॥१३४॥ ऋजु-भद्रस्वभावा चसाऽपि राज्ञी प्रभङ्करा।सुव्रतागणिनीपार्श्वेऽचरच्चान्द्रायणं तपः॥१३५।। फलेन तपसस्तस्य सम्यक्त्वादि विनाऽपि हि। विपद्य दुहिता जज्ञे सेयंशान्तिमती तव॥१३६।। दत्तजीवोऽजितसेनस्त्वेष विद्याधरोऽभवत्। पूर्वस्नेहादनेनेयमुत्क्षिप्ता तेन मा कुपः॥१३७॥ ऐनं क्षमयतं त्यक्त्वाऽर्नुबन्धं बन्धुवत् परम्। कषाया नरकायैव यतोऽनन्तानुबन्धिनः ॥१३८॥ एवं वज्रायुधगिरा मुक्तवैरास्त्रयोऽपि हि। अन्योन्यं क्षमयामासुः 'संवेगावेगभाजिनः॥१३९।। चक्रभृत् पुनराचख्यौ क्षेमकरजिनान्तिके। त्रयोऽपि यूयमचिरात् परिव्रज्यां ग्रहीष्यथ॥१४०॥ करिष्यति तपोरत्नावली शान्तिमती पुन: । मृत्वा चाऽनशनेनाऽसावीशानेन्द्रो भविष्यति॥१४१॥ तदैव केवलज्ञानं घातिकर्मपरिक्षयात्। युवयो: पवनवेगाऽजितसेनौ! भविष्यति॥१४२॥ युवयो: केवलज्ञानमहिमानं महोत्सवात्। एत्य स्वदेहपूजांच स ईशानः करिष्यति॥१४३॥ कालेन च ततश्च्युत्वेशानेन्द्रः प्राप्य मर्त्यताम् । उत्पन्नकेवलज्ञान: सिद्धिमासादयिष्यति॥१४४॥ त्रिकालज्ञानविषयं तच्छ्रुत्वा चक्रिणो वचः। व्यस्मयन्त स्मेरदृश: सर्वे तत्र सभासदः॥१४५॥ पराजा पवनवेगस्तत्सुता शान्तिमती चसा। विद्याधरोऽजितसेनस्तं प्रणम्यैवमूचिरे॥१४६॥ पिता स्वामी गुरुर्देवस्त्वमस्माकं जगत्पते! । मिथोऽपायप्रसक्तानां को नस्त्राताऽपरोभवेत्॥१४७॥ आहत्याऽन्योन्यमद्यैवाऽयास्याम नरके वयम् । अस्माकं नाऽभविष्यच्चेत्तद्द्वारे त्वद्वचोऽर्गला॥१४८॥ तत् स्वामिन्ननुमन्यस्वाऽद्यैव संसारभीरवः । शरणाय व्रजिष्याम: क्षेमकरजिनेश्वरम्॥१४९॥ इति विज्ञपयन्तस्तेऽनुज्ञाताश्चक्रवर्तिना। उपेत्य प्राव्रजन् क्षेमकरतीर्थङ्करान्तिके॥१५०॥ ते तपस्तेपिरेऽत्युग्रमनुग्रमनसश्चिरम्। कृशीभवद्भिः शरीरैः परिहारभयादिव॥१५१॥ तत्र शान्तिमती मृत्वेशानकल्पाधिपोऽभवत् । तदैव केवलज्ञानमभूददितरयो: पुनः॥१५२॥ तयोश्च केवलज्ञानमहिमानमुपेत्य सः। ईशानेन्द्रोऽकरोत् तस्य निजदेहस्य चाऽर्चनम् ॥१५३॥ ततश्च्युत्वा स ईशानो जन्मन्यन्यत्र सिद्धवान् । आयु:क्षयेऽपरौ तौ च तद्भवेऽपीयतुः शिवम्॥१५४॥ पास तु वज्रायुधश्चक्री ससहस्रायुधो भुवम्। सहस्राक्ष: सजयन्त इव द्यां पर्यपालयत्॥१५५।। सहस्रायुधपत्नी तुजयनेत्यन्यदा निशि। स्वप्ने ददर्श केनकशक्तिं किरणदन्तुराम्॥१५६॥ तया च प्रातराख्याते पतिर्व्याख्यातवानिति। तव पत्रो महाशक्तिर्ननं देवि! भविष्यति॥१५७॥ तदैव देवी सा गर्भमुदुवाह सुदुर्वहम् । कालेऽजनिष्ट तनयरत्नं सस्यमिवोर्वरा॥१५८॥ १.द्युतिभास्करान् पा. ॥२. व्योम्नि पाता. वा.१-२॥३. इन्द्रधनुः ।। ४. नाव इव ॥५. माययोत्पादितानिव ।। ६. नाशम् ।। ७. मेघानाम् ।। ८. सुखमीदृशम् दे. मु.॥९. निर्धनः ।।१०. नाशात् ।।११. क्रमात् सं. दे. ला. छा. ॥१२. एतं खंता. पाता. वा.१-२॥१३. आग्रहम् ।।१४. वैराग्यावेशवन्तः ।। १५. स्वमृतदेहसंस्कारम् ।। १६. प्रफुल्लदृष्टयः ॥ १७. धातकरणे आसक्तानाम् ॥ १८. नरकद्वारे ॥ १९. अनुग्रं कोमलं मनो येषां ते ॥ २०. नाशभयात् ॥ २१. जयन्ताभिधनिजपुत्रसहित इन्द्रः ।। २२. कनकवर्णां किरणैर्भासुरां शक्तिम् ॥ २३. पृथ्वी धान्यमिव ।। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं पिता च जयनादेवीदृष्टस्वप्नानुसारतः । तस्य बालस्य कनकशक्तिरित्यभिधां व्यधात् ॥ १५९ ॥ स क्रमात् समतिक्रान्तशैशवो नवयौवनः । सुमन्दिरपुरेशस्य तनयां मेरुमालिनः ॥ १६०॥ मल्लादेवीकुक्षिभवां रूपलावण्यशालिनीम् । नामतः कनकमालामुपयेमे यथाविधि ॥ १६१ ॥ युग्मम्॥ ||इतश्च मशक्यसारे श्रीसारे प्रवरे पुरे । समभूदजितसेन इति नाम्ना महीपतिः॥१६२॥ तस्य चाऽसीत् प्रियसेना देवीकुक्षिभवा सुता । वसन्तसेना कनकमालायाः सा सखी वरा ॥ १६३ ॥ पिता वसन्तसेनाया अपश्यन्नुचितं वरम् । प्रैषीत् स्वयंवरां तां तु पुत्रीं कनकशक्तये ।। १६४॥ ततः कनकशक्तिस्तामुपायंस्त यथाविधि । तस्याश्च पैतृष्वस्रीयो रुरोषोद्वाहतस्ततः ॥ १६५॥ उद्याने कनकशक्तिर्विहरन्नेकदैककम् । उत्पतन्तं पतन्तं चाऽपश्यत् कुर्कुटवन्नरम् ॥ १६६॥ ऊचे कनकशक्तिस्तं किं त्वमुत्पात-पातकृत् ? । पतङ्ग इव भोः! शंस रहस्यं भवतो न चेत् ।। १६७।। सोऽप्युवाच पुमानेवं त्वादृशानां महात्मनाम्। रहस्यमप्याख्यातव्यं तदाख्यातं गुणाय हि ॥ १६८ ॥ विद्याधरोऽस्मि वैताढ्यशैलादर्थेन केनचित् । अग्रतोऽगां वैलितः सन्निहोद्याने समापतम् ॥१६९ ॥ क्षणमस्थामहमिह पश्यन्नुद्यानरम्यताम् । अस्मार्षं यावदुत्पित्सुर्विद्यामाकाशगामिनीम् ॥ १७० ॥ विद्याया: पदमेकं मे विस्मृतं तावदेव मे । आबद्धपक्ष: पक्षीवोत्पतामि निपतामि च ॥ १७१ ॥ युग्मम्।। व्याजहार कुमारोऽपि पुरस्तादपरस्य चेत् । युज्यते पठितुं विद्या महापुरुष ! तत् पठ ॥ १७२॥ सोऽप्यूचे सामान्यपुंसां पुरो विद्या न पठ्यते। महात्मनां त्वादृशां सा देया पाठे तु का कथा ? ॥ १७३ ॥ सोऽथ विद्याधरो विद्यां पदहीनां पपाठ ताम् । पैदानुसारिधीराख्यत् कुमारोऽपि हि तत्पदम् ॥१७४॥ विद्याधरः पुनर्भूतविद्याशक्तिस्ततश्च सः । कुमाराय ददौ विद्याः कृतज्ञा हि विवेकिनः ॥ १७५ ॥ ययौ विद्याधरः सोऽथ कुमारोऽपि यथाविधि । विद्यास्ताः साधयित्वा च महाविद्याधरोऽभवत् ॥१७६॥ ||पैतृष्वसेयो र्वैसन्तसेनायाः स च रोषभाक् । अक्षमः कनकशक्ते रपकर्तुं मनागपि ॥१७७॥ लज्जया भक्तपानादि परिहृत्य विपद्य च। हिमचूल इति नाम्ना त्रिदशः समजायत ॥१७८॥ युग्मम्॥ वसन्तसेना - कनकमालाभ्यां सहितो महीम् । बभ्राम कनकशक्तिर्विद्याशक्त्या समीरवत् ॥ १७९ ॥ स जगामैकदा स्वैरी हिमवन्तं महागिरिम् । तत्राऽपश्यच्च विपुलमत्याख्यं चारणं मुनिम् ॥ १८० ॥ उत्तप्तस्वर्णवर्णं तं तपस्तेज इवाऽङ्गैवत् । कृशाङ्गं विजितनङ्गमवन्दिष्ट स भक्तितः ॥ १८९॥ धर्मलाभं ततः प्राप्य देवीभ्यां सममेव सः । अश्रौषीद् भवदावाग्निप्रावृषं धर्मदेशनाम् ॥ १८२॥ ततः प्रबुद्धः कनकशक्तिर्देव्यावुभे अपि । राज्यश्रीवद् गृहे मुक्त्वा प्रवव्राज महामतिः ॥१८३॥ देव्यौ ते अपि संविग्ने विवेकिन्यौ शुभाशये । आर्याया विमलमतेः पार्श्वे जगृहतुर्व्रतम् ॥ १८४ ॥ | विहरन् कनकशक्तिर्गत्वा सिद्धिपदे गिरौ । शिलायामेकरात्रिक्या तस्थौ प्रतिमया स्थिरः ॥ १८५ ॥ तथा च तं स्तम्भमिव स्थिरं दृष्ट्वा दुराशयः । हिमचूलसुरः कर्तुमुपसर्गान् प्रचक्रमे ॥ १८६॥ तस्योपसर्गान् कुर्वाणं तं च गीर्वाणपांसनम् । क्रुधा न्यत्रासयन् विद्याधराः पक्षे सतां जनः ॥ १८७॥ प्रतिमां पारयित्वा तां विहरन्नगमत् ततः । स तपः सञ्चयगिरिर्नगरीं रत्नसञ्चयाम् ॥१८८॥ अथ सूरनिपाताख्ये तत्रैवोपवने मुनिः । चक्रे गिरिरिवाऽकम्प्रः प्रतिमामेकरात्रिकीम् ॥ १८९॥ तस्य च क्षपकश्रेणिमारूढस्य क्षणादपि । घातिकर्मक्षयाज्जज्ञे केवलज्ञानमुज्ज्वलम् ॥१९०॥ १. सुमन्दिरपुरे तस्य मु. ॥ २. मशकासारे मु.; मशक्यसार इति विशेषनाम (नगरस्य ) स्यात् । यद्वा मशकिन् - उदुम्बरवृक्षः तद्वदसारे - मशक्यसारे ॥। ३. प्रौषीत् मु. ॥ ४. पितुः स्वसा ('फोई' इति भाषायाम् ) तस्या अपत्यम् ॥ ५. कुक्कुटवन्नरम् ता. दे. पा. खंता. वा. १-२ ॥ ६. पक्षी ॥ ७. अग्रतोऽगा मु. ॥ ८. चलितः ला. ।। ९. समापदम् मु. ॥ १०. उत्पतितुमिच्छुः ॥ ११. ईषद्बद्धौ पक्षौ यस्य सः ॥ १२. पदस्याऽनुसारिणी बुद्धिर्यस्य सः ॥ १३. पैतृष्वस्रेयो दे. मु. ला. छा. पा. ॥। १४. वसन्तसेनायां मु. ॥ १५. मूर्तिमत् ।। १६. विजितः अनङ्गः कामो येन ॥ १७. अधमदेवम् ॥ १८. तपसां सञ्चयस्य समूहस्य गिरिरिव गिरि: स मुनिरित्यर्थः ॥ (पञ्चमं पर्व For Private Personal Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः ) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । 1 तस्य केवलमहिमामुपेत्य विदधुः सुराः । हिमचूलस्तु तद्दृष्ट्वा भीतस्तं शरणं ययौ ॥१९१॥ वज्रायुधोऽपि तस्यर्षेर्यथावन्महिमां व्यधात्। श्रुत्वा च देशनां तस्माज्जगाम स्वपुरीं पुनः॥१९२॥ • अन्यदा समवासार्षीत् तत्र क्षेमङ्करः प्रभुः । कोटिसङ्ख्यैः सेव्यमानः सुरा - ऽसुर-नरेश्वरैः ।।१९३।। वज्रायुधाय चाऽऽचख्युरुपेत्याऽऽयुक्तपूरुषाः । स्वामिनं समवसृतं क्षेमङ्करजिनेश्वरम् ॥१९४॥ स्वर्णस्य द्वादश सार्धा: कोटीस्तेभ्यः प्रदाय सः । क्षेमङ्करं तीर्थकरं जगाम सपरिच्छदः ॥ १९५॥ तं त्रिः प्रदक्षिणीकृत्य नमस्कृत्य च भक्तितः । उपविश्याऽनुशक्रं च सोऽश्रौषीद् धर्मदेशनाम् ॥१९६॥ देशनान्ते प्रभुं नत्वा चक्री वज्रायुधोऽवदत् । स्वामिन् ! भीतोऽस्मि संसारार्णवादस्माद् दुरुत्तरात् ॥ १९७॥ स्वे सहस्रायुधं राज्ये यावन्न्यस्याऽऽपैताम्यहम् । तावदागमयस्वेह दीक्षां दातुं मम प्रभो! ॥। १९८।। न प्रमादो विधातव्य इत्युक्तः स्वामिना नृपः । गत्वा पुरीं निजे राज्ये सहस्रायुधमादधौ ॥ १९९॥ स सहस्रायुधे नाऽथ कृतनिष्क्रमणोत्सवः । आरुह्य शिबिकां गत्वा क्षेमङ्करजिनान्तिके ॥ २००॥ चतुः सहस्रया राज्ञीनां भूभुजां च किरीटिनाम्। सुतानां सप्तशत्या च सहितो व्रतमाददे ॥ २०९ ॥ युग्मम् ॥ विविधाभिग्रहपर: सहमान: परीषहान् । वज्रायुधर्षिर्विहरन्नगमत् सिद्धिपर्वतम् ॥ २०२॥ उपसर्गान् सहिष्येऽहमिति बुद्धया स शुद्धधीः । स्तम्भे वैरोचने तत्र प्रतिमां वार्षिकीं दधौ ॥ २०३ ॥ इतश्चाऽश्वग्रीवसुतौ चिरं भ्रान्त्वा भवाटवीम् । मणिकुम्भो मणिकेतुः कृत्वा बालतपोऽन्यदा ॥ २०४ ॥ उत्पन्नावसुरत्वेन प्रारब्धस्वैरचर्यया । तदा तत्र समायातौ तं महर्षिमपश्यताम् ।।२०५।। ततस्तावमिततेजोभववैरेण तं मुनिम् । प्रारेभाते उपद्रोतुं महाद्रु महिषाविव ॥ २०६॥ सिंहीभूयोभयोस्तस्य पार्श्वयोस्तावुभावपि । नखरैश्चख्नतुर्देहं खरैर्वज्राङ्कुरैरिव ॥२०७॥ अथ तं कुञ्जरीभूयाऽन्तर्वेदिमिव जघ्नतुः । करघातैर्दन्तघातैः पादघातैश्च दुःसहैः ॥२०८॥ भूयश्च भुजगीभूय तस्यर्षेः पार्श्वयोर्द्वयोः । दृढबन्धं ललम्बाते योक्त्रपाशाविवाऽनसः ॥ २०९॥ धान कर्तिका तीक्ष्णां निजदंष्ट्रासहोदराम्। उपदुद्रुवतुरथ राक्षसीभूय तं मुनिम् ॥ २१०॥ इत्थं च नाना तौ यावत् तमुपाद्रवतां मुनिम् । तावद् वन्दितुमर्हन्तं 'चेलुः पत्न्यौ बिडौजैस: ॥ २११ ॥ रम्भा-तिलोत्तमाद्यास्तास्ततस्त्रिदशयोषितः । मुनौ तत्रोपसर्गांस्तौ कुर्वाणौ ददृशुः सुरौ ॥२१२॥ आः! पापौ! किमिहाऽऽरब्धं युवाभ्यां मुनिपुङ्गवे ? । इति ब्रुवाणा वेगात् ता अवतेरुर्नभस्तलात् ॥ २१३॥ तत्र चाऽवतरन्तीस्ताः प्रेक्ष्य तौ क्षुभितौ सुरौ । त्रेसतुः सूर्यभालोके कियत् तिष्ठन्ति कौशिर्के : ? ॥ २१४ ॥ इन्द्रस्येव मुनीन्द्रस्य पुरस्तात् तस्य भक्तितः । नाट्यं प्रपञ्चयामासू रम्भाद्याः सुरयोषितः ॥ २१५ ॥ ततः पैवित्रमानिन्यस्तं वन्दित्वा महामुनिम् । देव्यस्ताः सपरीवाराः स्वं स्वं स्थानं पुनर्ययुः ॥ २१६ ॥ प्रतिमां पारयित्वा तां महर्षिः सोऽपि वार्षिकीम्। अतुल्ययम-नियमो विजहार वसुन्धराम् ॥ २१७॥ सहस्रायुधराजोऽपि राजश्रेणिविराजितः । राजपुत्रीमिवोर्दूढां राज्यश्रियमभुक्त सः ।।२१८।। एकदा समवासार्षीन्नानामुनिगणावृतः । तस्य पुर्यां गणधरो नामतः पिहितास्रवः ॥ २१९॥ तं सहस्रायुधोऽभ्येत्य ववन्दे भक्तिभावितः । अश्रौषीत् कर्णपीयूषवृष्टिं तस्य च देशनाम् ॥ २२०॥ इन्द्रजालमिवाऽसारं संसारं तत्क्षणाद्विदन् । सद्यः स राजा स्वे राज्ये पुत्रं शतबलिं न्यधात् ॥ २२९॥ पिहिताम्रवपादान्ते प्रव्रज्यां स्वयमाददे । आदाय द्विविधां शिक्षां विजहार वसुन्धराम् ॥ २२२॥ विहरन्नपरेद्युश्च स सहस्रायुधो मुनिः । वज्रायुधस्य राजर्षेः 'सोमस्येव बुधोऽमिलत्॥२२३॥ I १. ०महिम खंता. पाता. ।। २. आगच्छामि ॥ ३. प्रतीक्षस्व ॥ ४. मुकुटबद्धानाम् ॥ ५. विरोचने पा. ला. मु. । वैरोचननामके शिखरे ।। ६. प्रारब्धा या स्वैरचर्या स्वेच्छागमनं तया ।। ७. योक्त्रम् ' जोतर' इति भाषायाम् ॥ ८. शकटस्य ॥ ९. तन्वानौ ला. ॥ १०. कर्त्रिकाम् मु. ॥। ११. विविधप्रकारेण ॥ १२. चेयुः खंता. ॥ १३. इन्द्रस्य ।। १४. घूकाः ॥ १५. आत्मानं पवित्रं मन्यन्ते ताः ॥ १६. परिणीताम् ॥ १७. राजश्रियः खंता. पाता. वा. १-२ ॥ १८. व्यधात् दे. मु. विना ॥। १९. चन्द्रस्येव ॥ ३७ For Private Personal Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ (पञ्चमं पर्व कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं संयुक्तौ तौ पिता-पुत्रौ तपो-ध्यानपरौ सदा। परीषहसहौ स्वाङ्गेऽप्यनपेक्षौ क्षमाधवौ॥२२४॥ विहरन्तौ पुर-ग्रामा-ऽरण्यादिष्वनवस्थितौ। गमयामासतुः प्राज्यं कालमेकाहवत् सुखम् ।।२२५॥ तत ईषत्प्राग्भाराख्यं गिरिमारुह्य तौ मुनी। प्रपेदाते अनशनं पादपोपगमाभिधम्॥२२६।। आयु:क्षये वपुरपास्य महामुनीन्द्रौ ग्रेवेयकेऽथ परमर्द्धिपदे तृतीये। सद्योऽहमिन्द्रपदमद्भुतमाप्य पञ्चविंशत्यपांपतिमितस्थिति तस्थतुस्तौ॥२२७॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये पञ्चमे पर्वणि श्रीशान्तिनाथदेवीयाष्टम-नवमभववर्णनो नाम तृतीयः सर्गः॥ १. एकदिनवत् ।। २. २५ सागरोपममिता स्थितिस्तयोस्तोत्याशयः । पञ्चविंश्यर्णवोपममितस्थिति छा. मु., पञ्चविंशार्णवोपममितस्थिति दे. ॥ ३. जग्मतुस्तौ सं.ता. ला. पा. खंता. पाता. वा.१-२॥४. पञ्चमपर्वणि पाता. वा.१-२॥५.०सर्ग:समास: खंता. ।। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥चतुर्थः सर्गः॥ अथाऽस्य जम्बूद्वीपस्य प्राग्विदेहेषु विस्तृते। विजये पुष्कलावत्यां सीतायाः सरितोऽन्तिके ॥१॥ मध्यखण्डस्य मध्येऽस्ति नगरी पुण्डरीकिणी। श्रियो निधानमद्वैतं सरोऽन्तःपुण्डरीकवत् ॥२॥युग्मम्॥ तस्यां घनरथो राजा खण्डितारिमनोरथः । अभून महारथप्रष्ठो भूमिष्ठ इव वासवः ॥३॥ तस्याऽभूतामुभे पत्न्यौ गङ्गा-सिन्धू इवाऽम्बुधेः । एका प्रियमतिर्नाम द्वितीया तु मनोरमा ॥४॥ वज्रायुधस्य जीवोऽपि च्युत्वा ग्रैवेयकादथ । प्रियमत्या महादेव्या उदरे समवातरत् ॥५॥ तदा च रजनीशेषे स्वप्नान्तर्ददृशे तया। वर्षन् गर्जस्तडिन्माली मेघोऽन्तर्वदनं विशन् ॥६॥ तया तं प्रातराख्यातं स्वप्नं व्याख्यन् महीपतिः । पृथ्वीसन्तापहृन् मेघ इव भावी तवाऽऽत्मजः ॥७॥ सहस्रायुधजीवोऽपि च्युत्वा ग्रैवेयकात् ततः । मनोरमामहादेव्याः कुक्षौ समवतीर्णवान् ॥८॥ तयाऽपि ददृशे स्वप्ने स्वमुखान्तर्विशन् रथः। सौवर्णकिङ्किणीमाली पताकी लौहनेमिकः ।।९।। तयाऽपि स्वप्नमाख्यातं व्याचख्याविति भूपतिः । सूनुर्महारथप्रष्ठस्तव देवि! भविष्यति ॥१०॥ समये सुषुवाते ते क्रमेण तनयावुभौ । मूर्त्यन्तरमिव प्राप्तौ दिवाकर-निशाकरौ॥११॥ अथ प्रियमतिसूनो: शुभेऽहनि महीपतिः। स्वप्नानुसारतो मेघरथ इत्यभिधां व्यधात् ।।१२।। राज्ञीस्वप्नानुसारेण द्वितीयस्याऽपि भूपति: । सूनोईढरथ इति नामधेयमकल्पयत् ।।१३।। मेघरथ-दृढरथौ दृढसौभ्रात्रशालिनौ । क्रमेण ववृधाते तो सीरि-शार्ङ्गधराविव ॥१४॥ राज्यस्थानमनङ्गस्य कामिनीजनकार्मणम् । तौ रूपोत्कर्षजनकं यौवनं प्रापतुः क्षणात् ।।१५।। पराज्ञोऽथ निहतशत्रोः सुमन्दिरपुरेशितुः । एत्याऽमात्यो घनरथं प्रणम्यैवं व्यजिज्ञपत् ।।१६।। तैस्तैर्गुणैरुद्यता व: कीर्ति: कुन्दोज्ज्वला प्रभो! । प्रभेव हरिणाङ्कस्य प्रमोदयति कं नहि? ॥१७।। दूरस्थितोऽपि निहतशत्रुर्युष्मासु 'सौहृदी। सम्बन्धात् सन्निधीभूय विशेषस्नेहमिच्छति॥१८॥ तिष्ठन्ति कन्या निहतशत्रोस्तस्य महीपतेः । पृथग् जगत्त्रयस्त्रीणां स्वामितायामिव स्थिताः ॥१९॥ तत्र मेघरथस्य द्वे एका दृढरथस्य च । दित्सते निहतशत्रुर्भूयास्तं सुहृदौ युवाम् ॥२०॥ राजा घनरथोऽप्यूचे घेनध्वनितधीरवाक् । घनीभवतु नौ स्नेहः सम्बन्धेनाऽमुनाऽधुना ॥२१॥ प्रवाहैरिव सम्बन्धेराँपतद्भिः पुर: पुरः। सतां स्नेहा: प्रवर्धन्ते नद्यः सानुमतामिव ॥२२॥ सोऽप्यमात्यो जगादेवं देव! दैवज्ञपुङ्गवम् । आहूयाऽऽदिश लग्नं मे कल्यं कल्याणकर्मसु॥२३॥ प्रस्थापय कुमारौ तन्मौरतुल्यौ वपुःश्रिया । कन्योद्वाहमिषात् स्वामिन्नस्मत्स्वाम्यनुगृह्यताम् ॥२४॥ ज्ञानिना लग्नमासूत्र्याऽऽगमनं च कुमारयोः । प्रतिपद्य नरेन्द्रोऽथ सचिवं विससर्ज तम् ॥२५॥ से हृष्टः सचिव: शीघ्रं सुमन्दिरपुरं ययौ । नृपं निहतशत्रु च तदाख्यानादहर्षयत् ॥२६॥ प्रैषी घनरथो मेघरथं दृढरथान्वितम् । संवसन्तं स्मरमिव सुमन्दिरपुरं प्रति ॥२७॥ सामन्ता-ऽमात्य-सेनानी-सेनापरिवृतौ ततः । सरिदोघाविवाऽविघ्नं कुमारौ तौ प्रचेलतुः ॥२८।। गत्वा प्रयाणैरव्यग्रैर्मर्यादापालनार्णवौ। सुरेन्द्रदत्तनृपतेर्देशसीमन्यथोषतुः॥२९॥ १. श्रेयो० पाता. वा.१-२॥२. अन्त:-मध्ये पुण्डरीकाणि यस्य तत् , तस्येव ।। ३. खंता. पाता. वा.१-२ प्रतिषु न । ४. अग्रणी ।। ५. ०१शेऽनया ता. खंता. ॥६. विद्युतां माला सन्त्यस्य ॥७. ध्वजयुक्तः ।।८. लोह० मु. खंता. पाता. वा.१-२ । नेमिः-चक्रधारा ॥९. सुभ्रातुर्भाव: सौभ्रात्रम् ।। १०. बलदेववासुदेवाविव ॥११. तैस्तैर्गुणैरुच्यता व: दे.; तैस्तैर्गुणैरुपेता मु.॥ १२. कीर्तिलॊकम्पृणा सं. ता. ला. पा. खंता. पाता. वा.१-२॥१३. चन्द्रस्य ।। १४. सुहृदो भाव: सौहृदं, तदस्ति यस्य सः; सम्प्रति ता.खंता.॥१५.दातुमिच्छति ॥१६. मेघगर्जितगम्भीरवाक् ।। १७. आगच्छद्भिः ।। १८. पर्वतानाम् ।। १९. ज्यौतिषिकम् ॥ २०. शुभम् । कल्यकल्याण खंता.पाता. वा.१-२ ॥ २१. मङ्गलकार्येषु ।। २२. कामदेवसमानौ ॥ २३. सुहृष्टः दे. मु. ॥ २४. सवसन्तस्मर० खंता. वा.१ ॥ २५. रव्यग्रं० पाता. वा.१-२ ॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (पञ्चमं पर्व पाराज्ञा सुरेन्द्रदत्तेन दत्तशिक्षोऽभ्युपेत्य तम् । ऊचे मेघरथं दूत: 'सावष्टम्भमिदं वचः ॥३०॥ सुरेन्द्रदत्तो न: स्वामी सुरेन्द्र इव विक्रमी। अस्मद्देशस्य मध्येन मा गास्त्वमिति वक्ति सः॥३१॥ अस्मत्सीमानमुत्सृज्य गच्छ त्वमन्येन वर्त्मना । समृगेन्द्रे गतिर्मार्गे मृगस्य कुशलाय न ॥३२।। स्मित्वा मेघरथोऽप्येवमैवादीद् वदतां वरः। अस्माकमयमेवाऽध्वा ऋजः सत्यज्यतां कथम्? ॥३३॥ पूरयन्त्यवेटान् वृक्षानुत्खनन्ति खनन्ति च । स्थलीस्तुङ्गा न चाऽध्वानं त्यजन्ति सरितोऽपि हि॥३४॥ एते वयमनेनैव यास्यामो वर्त्मनर्जुना। अनृजुः स तु ते स्वामी स्वशक्तिं दर्शयत्वहो! ॥३५॥ इति मेघरथेनोक्तमशेषमपि तत्क्षणात् । गत्वा सुरेन्द्रदत्ताय राज्ञे दूतो न्यवेदयत् ।।३६॥ श्रुत्वा सुरेन्द्रदत्तस्तच्छूतहक्क इव द्विपः। आध्मातताम्रताम्रास्यो रणभम्भामवीवदत् ।।३७।। निष/दिनां सादिनां च पत्तीनां रथिनामपि । तस्याऽऽपेतुः सेमीका न्यथाऽनीकान्यनेकश: ॥३८॥ भटोद्भटकरास्फोटैर्धनुष्टङ्कारडम्बरैः। अश्व-स्यन्दन-मातङ्ग-हेषा-चीत्कार-बृंहितैः ॥३९॥ उष्टाङ्काररावैश्च वेसराणां खुरस्वनैः । नादैश्च रणतूर्याणां जगदधिरयन् क्षणात् ॥४०॥ सुरेन्द्रदत्तनृपतिः सद्य: सर्वाभिसारतः । उपतस्थे मेघरथं रणातिथ्यविधित्सया॥४१||त्रिभिर्विशेषकम्।। जैत्रं रथं मेघरथोऽप्यथो दृढरथश्च सः । आरुरोह युधे ध्वान्तध्वंसायेव दिवाकरः ॥४२॥ शङ्कन् शल्यानि चक्राणि प्रासान् दण्डान् गदा अपि । तीरी-तद्बल-नाराचप्रभृतीन् विशिखानपि ॥४३॥ पाषाण-लोहगोलांश्च करैर्यन्त्रैश्च सैनिकाः । अस्त्रमेघा इवोन्नम्य सैन्ययोर्ववृषुर्द्वयोः ॥४४॥ नीरन्ध्र: शस्त्रसम्पात: सैन्ययोरुभयोरपि । तदाऽभूत् खेचरस्त्रीणां युद्धदर्शनविघ्नकृत् ॥४५।। अस्त्रैरस्त्राण्यखण्ड्यन्ताऽभज्यन्त च रथै रथाः । समरे तत्र यादांसि यादोभिरिव वारिधौ ॥४६॥ अस्खल्यमानप्रेसरैः क्षणादपि 'परैरथ । प्रभञ्जनैर्वनमिवाऽभञ्जि सैन्यं कुमारयोः॥४७॥ क्रुद्धावथ कुमारौ तावद्वैतभुजविक्रमौ। परसैन्यं जगाहाते महासर इव द्विपौ॥४८॥ उद्भ्रान्तयोरिवाऽम्भोध्योस्तयोरस्त्रोर्मिमालिनो: । स्खलनाय न केऽप्यग्रे तस्थुः प्रत्यर्थिसैनिकाः ॥४९।। मथ्यमाने बले ताभ्यां किरिभ्यामिक्षुवाटवत् । सुरेन्द्रदत्तोऽधाविष्ट युवराजान्वितो युधे ॥५०॥ सुरेन्द्रदत्त: श्रीमेघरथेन युयुधे समम् । युवराजो युवा तस्य समं दृढरथेन तु ॥५१॥ अन्योऽन्यं चिच्छिदुः शस्त्राण्यस्त्राणि च बबाधिरे । रेणाजिरे रेजिरे ते चत्वारो लोकपालवत् ॥५२॥ ते कुर्वाणा: करास्फोटं तर्जयन्त: परस्परम् । दोर्युद्धेनाऽभ्ययुध्यन्त बन्धज्ञा इव पन्नगाः ॥५३।। ते चत्वारः क्षणं रेजुयुद्धे तस्मिन् महौजसः । तिर्यगुत्क्षिप्तदो:शृङ्गा गजदन्ता इवाऽद्रयः ॥५४॥ मेघरथ-दृढरथकुमाराभ्यामथ क्षणात् । खेदयित्वा बबन्धाते वन्येभाविव तावुभौ ॥५५॥ देशे तस्मिन्निजामाज्ञां भ्रमयित्वा स्वदेशवत् । कुमारावीयतुः प्रीतौ सुमन्दिरपुरं ततः॥५६॥ पाअभ्याजगाम निहतशत्रू राजकुमारयोः । अन्यत्राऽप्यतिथावभ्युत्थेयं तादृक्षुः किं पुन: ? ॥५७।। तावालिलिङ्ग नृपतिश्चचुम्ब च शिरस्तले। सुखाद्वैतमनुभवन्नहमिन्द्र इवाऽमरः ॥५८॥ सुलग्ने मेघरथेन प्रियमित्रा-मनोरमे । ज्यायस्यौ कन्यके राजा विधिना पर्यणाययत् ॥५९॥ कन्यां सुमतिनामानं तृतीयां तु कनीयसीम् । उपयेमे दृढरथो राज्ञा धौतपदाम्बुजः ॥६०॥ १. सगर्वम् ।। २. सिंहसहिते मार्गे ॥ ३. प्येवमवदद् पा. दे. छा.मु., खंता. पाता. वा.१-२॥४. संत्यज्यताम् दे. छा. ॥५. गर्तान् ।। ६. वर्त्मना ऋजुनासरलमार्गेण ।। ७. कुटिलः ॥ ८. गजाह्वानशब्दः ॥९. तप्तताम्रवद् रक्तमुखः ।। १०. हस्त्यारोहिणाम् ॥११. अश्वारोहिणाम् ॥ १२. युद्धार्थीनि ।। १३. अश्वानां हेषारवः, स्यन्दनानां(रथानां) चीत्कारः, गजानां बृंहितम् ।।१४. ग्राङ्कारः उष्ट्राणां शब्दः ।।१५. अश्वतराणां खच्चर' इति भाषायाम् ॥१६. खरस्वनैः मु.।। १७. युधि सं. छा. ला. पाता. । युद्धाय॥१८. सर्वाणि शस्त्रविशेषाणि, शङ्क:-बाणविशेषः, शल्यं-बाणप्रकारः, प्रास:-कुन्त: (भालो), तीरी-बाणप्रकार:, तलं-मूषकपुच्छाकारो बाणविशेषः, नाराच:-बाणः ॥१९. सैन्यका: दे. मु.॥२०. अवं मेघा छा. ॥२१. जलजन्तवः ।। २२. वेगैः ।। २३. शत्रुभिः॥ २४. पवनैः ॥२५. क्षुब्धयोरिव ॥२६. शत्रुसैनिकाः। ०र्थिसैन्यका: दे. मु.॥ २७. करिभ्या० मु.॥२८.० युधि पाता. वा.१-२॥२९. रणाङ्गणे ॥३०. तिर्यक् उत्क्षिप्ता दोषो-बाहव एव शृङ्गाणि यैस्तैः ॥ ३१. निहतशत्रुराज० ता. छा. ला.,निहतशत्रुराजा पा. दे. ॥ ३२. राजधौतपदाम्बुजः दे. मु.॥ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः ) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । ऋद्ध्या महत्या 'वीवाहे यथावद्विहितेऽथ तौ । विसृष्टौ गौरवाद् राज्ञा चेलतुः स्वां पुरीं प्रति ॥ ६१ ॥ "सुरेन्द्रदत्तं स्वे राज्ये युवराजसमन्वितम् । तथैव स्थापयित्वा तौ जग्मतुर्नगरीं निजाम् ॥६२॥ सह प्रियाभिस्तौ भोगान् बुभुजाते महाभुजौ । इन्द्रोपेन्द्राविवैकत्र मिलितौ प्रीतियोगतः ||६३|| प्रियमित्रा नन्दिषेणं मेघसेनं मनोरमा । सुषुवाते मेघरथपत्न्यौ पुत्रद्वयं क्रमात् ॥ ६४॥ पत्नी दृढरथस्याऽपि प्रासूत सुमतिः सुतम् । रथसेनाभिधं चारुगुणरत्नैकरोहणम् ॥ ६५ ॥ राजा घनरथोऽन्येद्युरैन्तरन्तःपुरं सुखम् । कलत्रैः पुत्र-पौत्रैश्च यूथद्विप इवाऽऽवृतः ॥६६॥ विनोदैर्विविधैरस्थाद् यावत् तावत् सुसेनया । व्यज्ञप्येवं गणिकया चरणायुधहस्तया ||६७||युग्मम्|| देवाऽयं ताम्रचूडो मे चूडारत्नं स्वजातिषु । कस्याऽपि ताम्रचूडेन जीयते जातुचिन्न हि ॥६८॥ जीयते यदि कस्याऽपि कुक्कुटेनैष कुक्कुटः । दीनाराणां तदा लक्षं पणे तस्य ददाम्यहम् ॥६९॥ अपरस्याऽपि कस्याऽपि यद्यस्ति चरणायुधः । मत्प्रतिज्ञापणममुं स उत्क्षिपतु तत् प्रभो! ॥७०॥ देवी मनोरमाऽथोचे पणितेनाऽमुनैव मे । ताम्रचूडस्ताम्रचूडेनाऽमुना युध्यतामिह ॥ ७१ ॥ एवमस्त्विति राज्ञोक्ते राज्ञी सद्यो मनोरमा । आनाययच्चेटिकया वज्रतुण्डाख्यकुक्कुटम् ॥७२॥ द्वावप्युत्तारितौ भूमावङ्केपत्ती इवाऽथ तौ । विचित्रपादगतिकौ प्रनृत्यन्तौ प्रजहतुः ॥७३॥ उत्पेततुः पेततुश्च सम्रतुश्चाऽपसम्रतुः । ददतुः प्रतीषतुश्च तौ प्रहारान् परस्परम् ॥७४॥ प्रचण्डचञ्चु-चरणप्रहारोद्भूतशोणितैः । ताम्राऽपि ताम्राऽभूच्चूडा ताम्रचूडाग्र्ययोस्तयोः ॥७५॥ पक्षिरूपाविव 'नैरौ सायुधौ चरणायुधौ । नखान् परस्परस्याऽङ्गे तीक्ष्णांश्चिक्षिपतुर्मुहुः ॥७६॥ जयत्ययं महादेव्याः सुसेनाया जयत्ययम् । इति क्षणं जयभ्रान्तिरभून्नो कस्यचिज्जयः ॥७७॥ आयुध्यमानयोरित्थं तयोर्धनरथोऽवदत् । द्वयोरप्यनयोर्मध्यान्नैकोऽप्येकेर्ने जेष्यते ॥७८॥ ऊचे मेघरथोऽप्येवमनयोर्युध्यमानयोः । किमित्येकस्य न जयो नैकस्य च पराजयः ? ॥७९॥ ततो ज्ञानत्रयधरो राजा घनरथोऽब्रवीत् । श्रूयतामनयोः पूर्वभववृत्तमशेषतः ॥८०॥ अस्मिन्नेव जम्बूद्वीपे क्षेत्रें ऐरावताभिधे । अस्ति रत्नपुरं नाम नानारत्नोत्करं पुरम् ॥ ८१ ॥ अभूतां वणिजौ तत्र द्वौ मिथो मैत्र्यशालिनौ । एको धनवसुर्नाम दत्तो नामाऽपरः पुनः ॥८२॥ अनिवृत्तधनाशौ तौ तृषितौ चातकाविव । भाण्डैर्नानाविधैर्भृत्वा शकटी शकटादिकम् ॥८३॥ ग्रामा-ऽऽकर-पुर-द्रोर्णैमुखादिषु सदा युतौ । भ्रमतुर्व्यवहाराय दारिद्यपितराविव ॥ ४॥ [ युग्मम्]॥ तृषितान् क्षुधितान् श्रान्तान् मैन्दान् व्यङ्गान् कृशानपि । शीतार्लेष्णालु-तृष्णालूनतिभाराधिरोपणैः ॥८५॥ प्रेतोदैर्यष्टिघातैश्च लाङ्गूलोन्मोटनैरपि । वाहयामासतुर्गेस्तौ परमाधार्मिकाविव ॥८६॥[युग्मम्] क्षुरैस्तैतक्षतुः पृष्ठायु॑च्छूनानि च तौ गवाम् । प्राग्वेधे त्रुटिते नासात्वचं विविधतुः पुनः || ८७|| कालेऽप्यमुञ्चतां नोक्ष्णो मैङ्क्ष्वीप्सितयियासया । बुभुजाते च गच्छन्तौ विलम्बस्याऽसहौ स्वयम् ॥८८॥ कूटतुला- कूटमान-कूटनाणककर्मभिः । कूटार्घकथनैश्चाऽपि तावमोहयतां जनम् ॥ ८९ ॥ अवञ्चयेतां तौ विश्वं गोमयू इव मायिनौ । एकद्रव्याभिलाषाच्च युध्येते स्म परस्परम् ॥९०॥ मिथ्यात्वमोहितमती निर्दयौ परुषौ सदा । लोभाघ्रातौ न धर्मस्य तौ वार्त्तामपि चक्रतुः ॥ ९१ ॥ ४१ १. ० विवाहे मु. ॥ २. इन्द्र- कृष्णाविव ॥ ३. चारुगुणा एव रत्नानि तेषामेकरोहणाचलम् ॥ ४. अन्तः पुरस्य मध्ये ॥ ५. कुक्कुटः हस्ते यस्याः सा तया ॥ ६. कुक्कुटः ॥ ७. लक्षमेकम् ता ॥ ८. कुक्कुटः ॥ ९ अङ्कश्चित्रयुद्धं तस्मिन् पत्तिसमौ ॥। १०. ०प्रभीषतु० खंता. वा. १ २, जगृहतुः ॥ ११. नाम्नाऽपि खंता. ॥ १२. श्रेष्ठकुर्कुटयोः ॥ १३. नखायुधौ तौ सं. ता. दे. पा. खंता. पाता. वा. १-२ ॥ १४. अन्येन ॥ १५. जेष्यति खंता. ।। १६. क्षेत्र ऐरवताभिधे सं. ॥। १७. धनुवसुर्नाम ला. पा. ॥ १८. अनिर्वृत्तधनाशौ ला । न निवृत्ता धनाशा ययोस्तौ ॥ १९. जल-स्थलपथौ । २०. अयं श्लोकः वा. १ - २ प्रत्योर्न विद्यते ॥२१. रोगिणः ।। २२. विकलाङ्गान् ॥ २३. शीतोष्णतृष्णार्त्तान् ॥ २४.०लूष्णालुतृप्रालूनतिभारा० सं. ता. ला. छा. खंता.; ०तृप्तालू० पाता. वा.१-२ ॥ २५. ‘चाबूक’ ॥ २६. वृषभान् ॥ २७. तनूचक्रतुः ।। २८. सशोफानि ॥ २९. पहेलांनो वींध ॥ ३०. चिच्छिदतुः ॥ ३१. वृषभान् ॥ ३२. मङ्क्षु-शीघ्रं ईप्सिते-अभीष्टे (स्थाने) यियासया - गन्तुमिच्छया ।। ३३. कूटार्थ० वा. १-२ मु. ॥ ३४. शृगाली ।। ३५. पुरुषौ दे. छा; निष्ठुरौ ॥ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (पञ्चमं पर्व इत्थं प्रपन्ना-ध्यानौ तौ गजायुर्बबन्धतुः । आर्तध्यानस्य हि फलं तिर्यग्योनिषु सम्भवः ॥९२॥ पअन्यदा श्रीनदीतीर्थे राग-द्वेषवशंवदौ । तौ मिथो जातकलहौ युद्ध्वा पञ्चत्वमापतुः ॥९३॥ तत्रैवैरवते स्वर्णकूलाकूले बभूवतुः । तौ गजौ ताम्रकलश-काञ्चनकलशाभिधौ ॥१४॥ क्रमादुद्यौवनौ तौ च सप्तधा प्रक्षरन्मदौ । तटीद्रुमांश्च निघ्नन्तौ नदीतीरे विजह्रतुः ॥९५।। एकदा पर्यटन्तौ तौ पृथग्यूथेन यूथपौ। अन्योऽन्यदर्शनं बिम्ब-प्रतिबिम्बे इवेयतुः ॥९६॥ प्राग्जन्मरोषादुद्रोषावुद्दवाग्नी इवाञ्चलौ । परस्परवधायोभौ सवेगावभ्यधावताम् ।।९७।। चिरं तौ दन्तिनौ कृत्वा दन्तादन्ति कराकरि । जन्मान्तरेऽपि युद्धार्थमिवोभौ युगपन्मृतौ ॥९८॥ पाअथाऽस्य जम्बूद्वीपस्य क्षेत्रे भरतनामनि । अयोध्यायां नन्दिमित्रोऽभूद् भूरिमहिषीधनः ॥९९।। तस्याऽतिवल्लभे यूथेऽभूतां तौ महिषौ वरौ । यौवनं च प्रपेदाते पीनाङ्गौ कलभाविव॥१००॥ देवानन्दाकुक्षिभवौ शत्रुञ्जयनृपात्मजौ । धनसेन-नन्दिषेणौ महिषौ तावपश्यताम् ॥१०१॥ अयोध्याराजपुत्राभ्यामयोध्येतां कुतूहलात् । उभौ तौ महिषौ दृप्तौ कृतान्तमहिषोपमौ ॥१०२।। चिरं युद्ध्वा विपेदाते पुर्यां तौ तत्र मेण्ढकौ । नाम्ना काल-महाकालावुत्पेदाते दृढाङ्गकौ ॥१०३।। दैवादेकत्र मिलितौ प्राग्वैरादभियुध्य तौ। विपद्य कुक्कुटावेतावुत्पन्नौ समविक्रमौ॥१०४॥ नैकोऽप्येकेन विजित: पुराऽप्येतौ समौजसौ। इदानीमपि प्राग्वदेको नैकेन जेष्यते॥१०५॥ ऊचे मेघरथः पूर्ववैराविष्टौ न केवलम् । विद्याधराधिष्ठितौ च युध्येते कुक्कुटाविमौ ॥१०६।। राज्ञा घनरथेनाऽथोन्नमितैकभुवेरितः। कृताञ्जलिर्मेघरथ: सविस्तरमदोऽवदत् ।।१०७॥ अस्यैव जम्बूद्वीपस्य क्षेत्रे भरतनामनि । वैताढ्यस्योत्तरश्रेण्यां स्वर्णनाभाभिधे पुरे ॥१०८॥ नाम्ना गरुडवेगोऽभूदु राजा गरुडविक्रमः । सधर्मचारिणी तस्य धृतिषेणेति चाऽनघा ॥१०९॥ स्वोत्सङ्गस्थितचन्द्रार्क-स्वप्नदर्शनसूचितौ । सा चन्द्रतिलक-सूर्यतिलकौ सुषुवे सुतौ ॥११०।। उद्यौवनावेकदा तौ जग्मतुर्मेरुमूर्धनि । प्रतिमाश्च ववन्दाते श्रीमतां शाश्वतार्हताम् ॥१११॥ भ्रमन्तौ कौतुकात् तौ तु तत्र स्वर्णशिलास्थितम् । नन्दने सागरचन्द्रं चारणर्षिमपश्यताम् ॥११२।। प्रदक्षिणापूर्वकं तौ तं नमश्चक्रतुर्मुनिम् । कृताञ्जली शुश्रुवतुः पुरोभूय च देशनाम् ॥११३।। देशनान्ते नमस्कृत्य मुनि तावेवमूचतुः । अज्ञानतिमिरार्ताभ्यां दिष्ट्या प्राप्तोऽसि दीपवत् ॥११४।। आवयोः प्राक्तनान् सम्यगाख्याहि भगवन्! भवान् । सूर्योदय इवाऽन्योपकृत्यै ज्ञानं भवादृशाम् ॥११५।। बाआख्यन मनिरपि द्वीपे धातकीखण्डनामनि। वर्षे पर्वैरवतेऽस्ति नाम्ना वज़परं परम ॥११६। तस्मिन्ना भयघोषोऽभयघोषोऽभवन्नपः। सवर्णतिलका नाम प्रेयसी तस्य चाऽभवत ॥११७॥ विजयो वैजयन्तश्च सञ्जज्ञाते तयोः सुतौ । क्रमात् कलाकलापं च प्रापतुर्यौवनं च तौ ॥११८॥ पाइतश्च तत्रैरवते पुरे स्वर्णद्रुमेऽभवत् । शङ्खोज्ज्वलगुणः शङ्ख इति नाम्ना महीपतिः ॥११९।। उत्सङ्गस्थितपुष्पम्रक्स्वप्नदर्शनसूचिता । पृथ्वीदेव्यां तस्य पुत्री पृथ्वीसेनेत्यजायत ॥१२०॥ रूपप्रकर्ष-वैदग्ध्यविशेषपरिपोषकौ। क्रमेण यौवन-कलाकलापावाससाद सा॥१२१॥ अनुरूपो वरोऽमुष्या अयमेवेति चिन्तयन् । कन्यामभयघोषाय शङ्खराजोऽथ तां ददौ ॥१२२॥ पृथिवीसेनया सार्धं स पृथ्वीनाथपुङ्गवः । नवोढया तया रेमे रमयेव रमापतिः॥१२३॥ १. स्वर्णकूलानदीतीरे ॥२. विश्व-प्रतिविचे पाता. वा.१-२॥ ३. अधिकक्रोधौ ॥४. उद्गतवनानी। वुद्वान्तानी० पाता., वुद्धताग्नी० वा.१-२॥ ५. पर्वतौ॥६. गजडिम्भाविव॥७. घरसेन० खंता. पाता. वा.१-२॥ ८. यममहिषोपमौ॥९. मेषौ ॥१०. तुल्यबलौ॥११. तुल्यबलौ॥१२. वक्रीकृतैकभ्रकुट्या प्रेरितः ॥ १३. धृतिसेनेति० खंता. पाता. वा.१-२॥ १४. सूर० खंता. पाता. वा.१-२॥ १५. भाग्येन ।। १६. अन्येषामुपकाराय ।। १७. क्षेत्रे ।। १८. दीनानां प्राणिनामभयं घोषयतीति तथा ॥१९. सञ्जज्ञातेऽनयोः दे. मु. ॥ २०. लक्ष्म्या ॥ २१. कृष्णः॥ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः ) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । अपरेद्युर्वसन्तर्तौ 'वसन्तसुमनोधरा । काऽप्यागाच्चेटिका राज्ञोऽभयघोषस्य सन्निधौ ॥ १२४ ॥ तां प्रेक्ष्य स्वर्णतिलका देव्येवं नृपमभ्यधात्। अमण्ड्यत वसन्तेनोद्यानं षडृतुकाभिधम् ॥१२५॥ इदानीमनुभवितुं मेधुलक्ष्मीं नवागमाम् । यथोचितपरीवारा गच्छामः प्राणवल्लभ ! ॥ १२६॥ अत्रान्तरे च पृथिवीसेना नृपमुपास्थित । दधाना कोटिमूल्यानि युक्तिपुष्पाणि पाणिना ॥१२७॥ वीक्ष्याऽऽदाय च तान्याशु स्मेराक्षः स क्षितीश्वरः । यथोचितपरीवारो ययौ चिक्रीड तत्र च ॥१२८॥ युग्मम् ।। | पृथ्वीसेना त्वनुज्ञाता भ्रमन्ती तत्र चैकतः । ददर्श दन्तमथनं विशिष्टज्ञानिनं मुनिम् ॥ १२९ ॥ ववन्दे मुदिता तं च मुनिं निर्भरभक्तिभाक् । भवनिर्वेदजननीं देशनां चाऽशृणोत् ततः ॥ १३० ॥ तत्कालमपि राजानमापृच्छ्य भवकातरा । प्रव्रज्यां साऽऽददे दन्तमथनस्य मुनेः पुरः ॥ १३१ ॥ प्रशंसन् पृथिवीसेनादेव्याश्चारित्रमद्भुतम् । स्वं धामाऽभयघोषोऽपि जगाम जगतीपतिः ॥१३२॥ ||अन्येद्युरभयघोषः स्वमन्दिरशिरोभुवि । रत्नसिंहासनासीनो विश्रान्त इव भास्करः ॥१३३॥ ददर्श तीर्थकृल्लिङ्गं छद्मस्थत्वविहारिणम् । द्वारदेशे प्रविशन्तमनन्तं जिनपुङ्गवम् ॥१३४॥ युग्मम्|| ससम्भ्रमं समुत्थाय भोज्यमादाय चोचितम् । उपतस्थे भगवन्तं स प्रणामपुर : सरम् ॥ १३५॥ पारयामास भगवानपि तद्दत्तभिक्षया । देवैश्च विदधे तत्र वसुधारादिपञ्चकम् ॥ १३६ ॥ कृतपारणकोऽन्यत्र जगाम भगवानपि । छद्मस्था हि जिना नाऽन्यमुनिवत् क्वचिदासते ॥१३७॥ विहरन्नन्यदोत्पन्नकेवलोऽनन्ततीर्थकृत् । एत्य वज्रपुरे तत्र नगरे समवासरत् ॥ १३८॥ एत्य भक्त्याऽभयघोषः कृत्वा त्रिश्च प्रदक्षिणाम् । तं ववन्देऽशृणोद् धर्मदेशनां च भवच्छिदम् ॥१३९॥ देशनान्ते भगवन्तं नत्वा राजैवमब्रवीत् । त्वमत्र भविनां पुण्यैः कल्पद्रुम इवाऽऽगमः ॥१४०॥ प्रवृत्तिस्ते परार्थैव स्वामिन्! विज्ञप्यसे ततः । प्रतीक्षस्व क्षणं विश्वप्रतीक्ष्य! करुणानिधे! ॥१४९॥ विश्व विश्वम्भराभारं निधाय तनये निजे । यावदायामि दीक्षायै त्वत्पादकमलान्तिके ॥ १४२ ॥ युग्मम् ॥ नैव प्रमादिना भाव्यमित्युक्तः स्वामिना नृपः । गत्वा सुतावेवमभाषिष्ट पृथक् पृथक् ।। १४३।। || हे वत्स! विजयाऽऽदत्स्व राज्यमेतत् क्रमागतम् || यौवराज्यं वैजयन्त! त्वमस्य परिपालय ॥१४४॥ अहं तु प्रव्रजिष्यामि व्रजिष्यामि जिनान्तिके । आव्रजेयं न हि यथा भूयोऽपि भवगह्वरे ॥१४५॥ तावपीत्यूचतुस्तात! भवभीतो यथा भवान् । भवभीतौ तथैवाऽऽवां त्वदीयौ ननु नन्दनौ ॥१४६॥ अप्यावां प्रव्रजिष्यावः प्रव्रज्याया ह्युभे फले । इह त्वत्पादशुश्रूषा मोक्षप्राप्तिः परत्र च ॥ १४७॥ साधु वत्साविति वदन् वदान्यो मेदिनीपतिः । ददौ कस्मैचिदन्यस्मै राज्यं प्राज्यमपि स्वयम् ॥१४८॥ ताभ्यां सह तनूजाभ्यां गत्वाऽनन्तजिनान्तिके । प्राव्राजीदभयघोषः श्रीमत्सङ्घस्य पश्यतः || १४९ ॥ योऽपि तेपिरेऽत्युग्रं ते तपो भूपतिस्तु सः । विंशत्या स्थानकैरर्हन्नामगोत्रमुपाजयेत् ॥ १५० ॥ त्रयोऽपि काले ते कालं कृत्वा प्रययुरच्युते । देवा बभूवुर्द्वाविंशत्यर्णवोपमजीविताः ॥ १५१ ॥ ||इतश्च जम्बूद्वीपेऽस्मिन् प्रागिविदेहविभूषणे । विजये पुष्कलावत्यामस्ति पूँ: पुण्डरीकिणी ॥१५२॥ तस्यां हेमाङ्गदो नाम बभूव वसुधाधवः । शैचीव 'वैज्रिणो वज्रमालिनी तस्य च प्रिया ॥१५३॥ च्युत्वा ततोऽभयघोषस्तस्याः कुक्षाववातरत् । चतुर्दशमहास्वप्नसूचितार्हतवैभवः ॥ १५४॥ पूर्णे च समये सूनुं सुषुवे वज्रमालिनी । 'वैज्रिप्रभृतयो जन्माभिषेकं तस्य च व्यधुः ॥ १५५॥ १.वसन्तपुष्पधरा ।। २. वसन्तलक्ष्मीम् ॥ ३. कृत्रिमपुष्पाणि, यतस्तान्येव रत्नादिघटितत्वादिकारणै: कोटिमूल्यानि स्युरिति ज्ञायते । 'यूथिपुष्पाणि' वा स्यात् ॥ ४. ससम्भ्रमः खंता. पाता. वा. १ - २, मु. विना ॥ ५. विश्वपूज्य ! ।। ६. समग्रम् ।। ७. पृथ्वीभारम् ॥ ८. आगच्छेयम् ॥ ९. प्रव्रज्यायाम् मु. विना, पाता. ।। १०. द्वाविंशतिसागरोपमायुषः ।। ११. नगरी ।। १२. इन्द्राणीव ॥ १३. इन्द्रस्य ॥ १४. इन्द्रादयः ॥ ४३ For Private Personal Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (पञ्चमं पर्व नाम्ना घनरथः सोऽद्याऽप्यवनी पाति तीर्थकृत् । विजय-वैजयन्तौ तु जातौ विद्याधरौ युवाम् ॥१५६|| इति पूर्वभवान् श्रुत्वा प्रीतौ नत्वा च तं मुनिम् । प्राग्जन्मपितरं भक्त्या त्वां द्रष्टुं ताविहाऽऽगतौ ॥१५७|| प्रचक्रतुः सङ्क्रमणमनयोस्ताम्रचूडयोः । तौ तु त्वदर्शनोपायभूतं स्वामिन्! कुतूहलात् ॥१५८॥ इतश्च गत्वैतौ भोगवर्धनस्यान्तिके गुरोः । प्रव्रज्य क्षीणकर्माणौ प्राप्स्यत: पदमव्ययम् ॥१५९॥ श्रुत्वेति प्रकटीभूय पूर्ववत् सुतमानिनौ। विद्याधरौ घनरथं तौ नत्वा जग्मतुर्गृहम् ॥१६०॥ पाएतत् तु कुक्कुटौ श्रुत्वा तावचिन्तयतामिति । अहो! ईदृगसारोऽयं संसार: क्लेशकारणम् ॥१६१।। नृजन्मनि वणिग्भ्यामप्यावाभ्यां किमुपार्जितम् ? । दूरेऽस्त्वन्यद् येन भूयो नृजन्माऽपि हि दुर्लभम् ॥१६२।। तदानीं ग्रासलुब्धाभ्यां लुब्धकाभ्यामिवाऽन्वहम् । तैस्तैरुपायैरावाभ्यां वञ्चिता: प्राणिनो हहा! ॥१६३॥ वञ्चयित्वा चिरं लोकं कूटमान-तुलादिभिः । असन्तुष्टौ मिथोऽप्यावां धिक् तदा केलहायितौ ॥१६४॥ आर्त्तध्यानं प्रपन्नौ च निहत्याऽऽवां मिथो मृतौ । प्राप्तवन्तौ तत्फलं च तिर्यग्योनिमनेकशः ॥१६५॥ विमृश्यैवं नृपं नत्वा प्रोचतुस्तौ स्वभाषया। देवाऽऽदिश किमद्याऽऽवां कुर्वहे हितमात्मन: ? ॥१६६।। विज्ञाय चाऽवधिज्ञानाद् राजा घनरथोऽवदत् । अर्हन् देवो गुरु: साधुर्धर्मो जीवदयाऽस्तु वाम् ॥१६७।। एवं धनरथेनोक्ते कुक्कुटौ तौ शुभाशयौ । प्रपेदाते अनशनं विपेदाते उभावपि ॥१६८॥ पमृत्वाऽभूतां भूतरत्नामहाटव्यां महर्द्धिकौ। ताम्रचूल-स्वर्णचूलसझौ तौ भूतनायकौ ॥१६९॥ प्राग्जन्माऽवधिना ज्ञात्वा तौ विमानं विकृत्य च। उपेयतुर्मेघरथं पूर्वजन्मोपकारिणम् ।।१७०॥ भक्तिभाजौ मेघरथं तौ प्रणम्यैवमूचतुः। अद्यैवाऽऽवां त्वत्प्रसादादभूव व्यन्तरेश्वरौ ॥१७१।। माविभौ सैरिभौ च मेषौ तदनु कुक्कुटौ । एतत्प्रकर्षजन्मानावभूवाऽऽवां स्वकर्मभिः ॥१७२।। कुक्कुटत्वे त्वहरहनि:सङ्ख्यकृमिभोजनौ । आप्स्याव: कां गतिं नाथाऽभविष्यः शरणं न चेत् ? ॥१७३॥ प्रसीदाऽनुगृहाणैतद्विमानमधिरुह्य च। विश्वां विश्वम्भरां पश्य ज्ञानेन ज्ञातपूर्व्यपि ॥१७४।। इत्थमभ्यर्थितस्ताभ्यां दाक्षिण्यक्षीरसागरः । तदाऽऽरोहन् मेघरथो विमानं सपरिच्छदः ॥१७५।। उत्पपात विमानं तच्चचाल च मनोगति । अङ्गुल्या दर्शयन्तौ तौ दृश्यान्येनमशंसताम् ।।१७६।। वैडूर्यमय्यसौ भाभिर्दूवाङ्कुरितदिङ्मुखाः । चत्वारिंशद्योजनोच्चा चूला मेरुमहागिरेः ॥१७७।। अस्या: प्रतिदिशं चाऽर्धचन्द्राकारा: शिला इमाः । अर्हजन्माभिषेकाम्भ:पुण्या: सिंहासनाङ्किताः ॥१७८॥ इमान्यायतनान्युच्चैः स्वामिनां शाश्वतार्हताम् । तदर्चाचरितार्थद्रुपुष्पमेतच्च पाण्डकम् ॥१७९॥ अमी वर्षधरा: शैला: षडेषु षडमी ह्रदाः । चतुर्दशमहासिन्धुसीमन्तितमहीतलाः ।।१८०॥ अद्रयोऽमी च वैताढ्या आढ्या विद्याधरद्धिभिः । स्वस्वक्षेत्रार्धमर्यादाशिलाभित्तिसहोदरा: ॥१८१॥ अमीषामपि कूटेषु सिद्धचैत्यान्यमूनि च। प्रतिमाभि: सनाथानि श्रीमतां शाश्वतार्हताम् ॥१८२॥ इयं च जंगती जम्बूद्वीपस्य वलयाकृतिः। उत्तुङ्गजालकटकैर्विद्याधरविलासभूः ॥१८३॥ उदधिर्लवणोदोऽयं नैक्रचक्रनिकेतनम् । अयं च धातकीखण्ड: द्वीप: कालोदवेष्टितः ॥१८४॥ क्षुद्रमेरुगिरी चैतावर्हत्स्नात्रशिलाङ्कितौ । ईष्वाकारौ गिरी चैतौ शाश्वतार्हत्पवित्रितौ ॥१८५॥ अदोऽर्धपुष्करद्वीपं धातकीखण्डसन्निभम् । मानुषोत्तरशैलोऽयं मर्त्यभून ह्यतः परम् ॥१८६॥ इत्थमाख्यानपूर्वं तौ दर्शयित्वा वसुन्धराम् । आनिन्यतुर्मेघरथं नगरी पुण्डरीकिणीम् ॥१८७।। १.तव दर्शने उपायभूतमिति सङ्क्रमणविशेषणम् ॥२.इतस्तु खंता.पाता.वा.१-२॥३. इदानीं मु.॥४. मृगवधाजीवी लुब्धकः ॥५. कलिं कृतवन्तौ ॥६. घनरथेनोक्तं मु.॥७.कुर्कुटौ प्रतिपद्य तौ मु.॥८. म्रियेते स्म ॥९. गजौ॥१०. महिषौ ॥११. एतद् व्यन्तरेश्वररूपं प्रकृष्टं जन्म ययोस्तौ ॥ १२. नौ ता. ला. छा.॥१३. समग्रम् ॥१४. पृथ्वीम् ॥१५. पूर्वं ज्ञातं येन स ज्ञातपूर्वी ॥१६. सपरिवारः॥१७. मनोवद् गमनं यस्य तत् ॥१८. दृश्यान्येवमशं० सं. ला. खंता. पाता. वा.१-२॥१९. कान्तिभिः ।। २०. सहितानि ॥ २१. दुर्गः ॥२२. उत्तुङ्गगवाक्षवलयः । परिकरितेति शेषः ।। २३. नक्राणां मकराणां चक्र समूहस्तस्य स्थानम् ।। २४. धनुर्वदाकारौ।। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । राजौकसि कमारं 'तं मक्त्वा च प्रणिपत्य च। विधाय रत्नवष्टिं च जग्मतर्निजमाश्रयम ॥१८८॥ पाअथैकदा घनरथोऽभ्येत्य लोकान्तिकामरैः। तीर्थं प्रवर्तयेत्युच्चैः स्वयंबद्धोऽप्यबोध्यत॥१८९।। राज्ये मेघरथं यौवराज्ये दृढरथं तथा। न्यस्य दत्त्वाऽऽब्दिकं दानं दीक्षां घनरथोऽग्रहीत् ॥१९०॥ उत्पन्नकेवलज्ञानो भविकान् प्रतिबोधयन् । तीर्थङ्करो घनरथो विजहार वसुन्धराम् ॥१९॥ पानरेन्द्रवृन्दमुकुटोद्धृष्टपादाम्बुजासनः । राजा मेघरथस्तूर्वीमशाद् दृढरथान्वितः ॥१९२॥ अन्यदा देवरमणनाम्न्युद्याने रिरंसया । ययौ जनोपरोधेन राजा मेघरथः स्वयम् ॥१९३॥ तत्राऽशोकतले सार्धं प्रियया प्रियमित्रया। स कारयितुमारेभे सङ्गीतमविगीतकम् ॥१९४॥ अत्रान्तरे तस्य पुरः प्रादुरासन् महीपतेः । भूता: सहस्रशोऽपूर्वसङ्गीतकचिकीर्षया ॥१९५।। विशालैरुदरैः केऽपि लम्बोदरसहोदरा: । क्षामैस्तैरेव केचिच्च पातालानीव बिभ्रतः ॥१९६।। प्रलम्बै: कर्कशैः पादैस्तौलारूढा इवाऽपरे । केचिदप्यायतैर्दोभिर्दुमा: साजगरा इव ॥१९७।। भुजङ्गभूषणा: केचित् केचिन्नकुलभूषणा: । 'द्वीपित्वग्वसना केऽपि व्याघ्रत्वग्वाससोऽपरे ॥१९८॥ भस्माङ्गरागा: केचिच्च केचिद रक्तविलेपनाः । उलूकोत्तंसिनः केचित् केचिद् गृध्रावतंसिनः ॥१९९।। आखुम्रग्मालिन: केचित् केचित् सैरटमालिनः । मुण्डमालाधरा: केऽपि केऽपि कङ्कालपाणयः ॥२००॥ कृताट्टहासा: केचिच्च केचित्तुमुलकारिणः । हेषाविधायिनः केचित् केचिद् बृंहितकारिणः ॥२०१॥ करास्फोटकरा: केऽपि केऽपि तालप्रदायिनः । मुंखातोद्यपरा: केऽपि कक्षावाद्यकृतोऽपरे ॥२०२।। दलयन्त इव क्षोणिं स्फोटयन्त इवाऽम्बरम् । चारीप्रचारैरुद्दण्डं प्रारभन्ताऽथ ताण्डवम् ॥२०३॥अष्टभिः कुलकम्॥ एवं नरेन्द्रतोषाय यावत् ते ताण्डवं व्यधुः । प्रादुरासीत् तावदेकं विमानवरमम्बरे ॥२०४।। रत्या मनोभव इव युवत्या युत एकया। अन्तस्तस्य पुमानेको ददृशे सुन्दराकृतिः ॥२०५॥ प्रियमित्रा ततो देवी जगादैवं महीपतिम् । कोऽयं ? केयं ? कुतो हेतोरिह चाऽऽपततः प्रभो! ? ॥२०६॥ पाअथ मेघरथोऽशंसज्जम्बूद्वीपेऽत्र भारते । वैताढ्यस्योत्तरश्रेण्यामलकेत्यस्ति पूर्वरा ॥२०७॥ तत्र विद्युद्रथो नाम विद्याधरनरेश्वरः । तस्य मानसवेगेति प्रिया चाऽसीत् प्रियंवदा ॥२०८॥ सिंहरथ्यरथस्वप्नात् कृतसिंहरथाभिधः । तस्यां तस्याऽभवत् सूनुर्विक्रमोत्फुल्लदोर्दुमः ॥२०९।। कन्यां वेगवतीं नाम प्रकृष्टकुलसम्भवाम् । स्वानुरूपामुपायंस्त स चन्द्र इव रोहिणीम् ॥२१०॥ यौवराज्ये निजे राजा तं च विद्युद्रथो व्यधात् । पुत्रे हि कवचहरे युक्तमेतत् महीभुजाम् ॥२११॥ लीलोपवन-वाप्यादिस्थानेषु ललनासखः । वने सिंह इव स्वैरं रेमे सिंहस्थ: सुखम् ॥२१२॥ विधुद्रथोऽपरेधुश्च विद्युल्लोलस्वभावकम् । संसारे सकलं ज्ञात्वा परं वैराग्यमासदत् ॥२१३॥ राज्ये सिंहरथं न्यस्य सद्यो विद्युद्रथो नृपः । सर्वसावद्यविरतिं गुरुपादान्तिकेऽग्रहीत् ॥२१४।। संवेगातिशयापन्न: संयमैर्नियमैरपि । ध्यानेन च विधायाऽष्टकर्मक्षयमगाच्छिवम् ॥२१५॥ पाराजा सिंहरथोऽप्युद्यत्प्रतापतपनोपमः । स विद्याधरचक्रित्वमाससाद दुरासदम् ॥२१६॥ निशायां सोऽन्यदा दध्यौ विनिद्र इव योगवित् । अरण्ये मालतीपुष्पस्येव जन्म मुधा मम॥२१७॥ अर्हतः समवसृतान केवलज्ञानिन: प्रभून् । भवाम्भोधिमहापोतानाऽपश्यं नाऽनमंच यत् ॥२१८॥ १. तौ सं. ला. ॥२. स्वयंबुद्धोऽपि बोधित: दे. छा. मु.॥३. वार्षिकं दानम् ॥ ४. स प्रबोध्य च ता., प्रतिबोध्य च सं. पा. ला., खंता. पाता. वा.१२॥५. क्षीणाष्टकर्मा कालेन मोक्षं धनरथो ययौ दे. मु. विना, खंता. पाता. वा.१-२॥६. रन्तुमिच्छया ॥७. लोकस्याऽऽग्रहेण ।। ८. सुन्दरम् ।। ९. गणपतिसदृशाः ॥ १०. कृशैः ॥११. तालवृक्षारूढाः ॥ १२. चित्रकचर्मवस्त्राः ॥१३. रुधिरविलेपनाः ॥१४. कृकलास(सरडो)मालावन्तः॥ १५. कङ्कालमस्थिपञ्जरः ।। १६. ०बृंहितमानसः (साः) खंता. वा.१-२ ॥ १७. मुखमेव वादिनं तस्य करा: ॥ १८. चारी-नृत्यप्रकार: ।। १९. सिंहा एव रथ्यास्तद्युक्तो रथस्तस्य स्वप्नात् ।। २०. ललनासहचरः ।। २१. सूर्योपमः ।। २२. तान्न चाऽर्चयम् मु., नाननर्च यत् पाता. ॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (पञ्चमं पर्व पावयामि तदात्मानं दृष्ट्वा साक्षाग्जिनेश्वरम् । तद्दर्शनं ह्येकदाऽपि सुस्वप्न इव कामधुक् ॥२१९॥ इत्थं विचिन्त्य स द्वीपे धातकीखण्डनामनि । पश्चिमेषु विदेहेषु सीतोदोत्तररोधसि ॥२२०॥ सूत्राभिधाने विजये पुरे खड्गपुराभिधे । गत्वाऽर्हन्तं समं पत्न्या ददर्शाऽमितवाहनम् ॥२२१॥युग्मम्।। प्रणम्य भगवन्तं तं सोऽश्रौषीन् मेदिनीपतिः। भवाम्भोधितरीकल्पामनल्पां धर्मदेशनाम् ॥२२२॥ आकर्ण्य देशनां तां च दु:खानलजलच्छटाम् । नत्वा चाऽर्हन्तमचलत् स निजां नगरी प्रति॥२२३।। अत्रोर्ध्वं गच्छतश्चाऽस्य बभूव स्खलनं गते: । दृढवेत्रवनाकीर्णे पोतस्येव पयोनिधौ॥२२४॥ गतिर्मे स्खलिता केनेत्यथ ज्ञातुमधो दृशम् । न्यधान यावदसौ तावदद्राक्षीन् मामिह स्थितम् ।।२२५॥ सकोपाटोपमेषोऽथ मामुत्क्षेप्तमुपासरत। आक्रम्यत मया चाऽयं वामो वामेन पाणिना ॥२२६॥ रेरास विरसं चैष सिंहाक्रान्त इव द्विपः । तद्भार्या सपरीवारा प्रपन्ना शरणं च माम् ॥२२७।। ततो मयाऽमुच्यताऽयं मुक्तश्च पुरतो मम । विकृत्य नाना रूपाणि सङ्गीतमकरोदिदम् ॥२२८॥ भूयोऽपि प्रियमित्रोचे प्रिय! पूर्वभवेऽमुना। किं कृतं कर्म येनैषा ऋद्धिरस्य महीयसी ? ॥२२९॥ आख्यन् मेघरथोऽप्येवं पुष्करार्धस्य भारते । पूर्वस्मिन् विद्यते सङ्घपुरं नाम महापुरम् ॥२३०॥ राज्यगुप्तोऽभिधानेन तत्राऽऽसीत् कुलपुत्रकः । दु:स्थ: सदा परकर्मकरणोत्पन्नभोजनः ॥२३१॥ शजिका नाम तस्याऽनुरक्ता भक्ता च पत्न्यभूत् । उभावपि हि चक्राते कर्माणि परवेश्मसु ॥२३२॥ अन्येधुश्च फलार्थं द्वावपि नानाद्रुमाकुलम् । सम्भूय जग्मतुः सवगिरि नाम महागिरिम् ॥२३३।। तस्मिन् वनफलार्थं तौ पर्यटन्तावपश्यताम् । कुर्वाणं देशनां सर्वगुप्तं नाम महामुनिम्॥२३४॥ विद्याधरसभामध्यमध्यासीनमुपेत्य तम् । तौ नमश्चक्रतुर्भक्त्या पुरतश्च निषेदतुः ॥२३५॥ तयोर्विशेषतो धर्मं दिदेश स मुनीश्वरः । दुःस्थितेषु हि महतां वात्सल्यमतिरिच्यते॥२३६।। देशनान्ते महर्षिं तं तौ प्रणम्यैवमूचतुः। पापयोरपि नौ पुण्यमेतद् दृष्टोऽसि यत्प्रभो! ॥२३७|| स्वयं विश्वजनीनोऽसि तथाऽप्योत्त॑स्त्वमर्थ्यसे। अस्मदर्थं तपः किञ्चिज्जगदह! समादिश ॥२३८॥ तद्योग्यतानुसारेण सर्वगुप्तो महामुनिः । द्वात्रिंशत्कल्याणकाख्यमादिदेश तपस्तयोः ॥२३९॥ पातथेति प्रतिपद्योभौ गत्वा स्वौकसि चक्रतुः । द्वे त्रिरात्रे चतुर्थानि द्वात्रिंशदिति तत्तपः ॥२४०॥ पारणस्य च समये द्वारे प्रक्षिप्य चक्षुषि। गवेषयामासतुस्तौ कञ्चिदप्यतिथिं मुनिम् ॥२४१।। साधुं धृतिधरं नाम प्रविशन्तमपश्यताम् । प्रत्यलाभयतां चोभौ भक्त्या भक्तोदकादिना ॥२४२।। अन्यदा विहरंस्तत्र सर्वगुप्तमुनिः पुन: । स आजगाम तत्पार्श्वे धर्मं शुश्रुवतुश्च तौ॥२४३॥ आददाते परिव्रज्यां सर्वगुप्तमुनेः पुरः। फलं मानुषजन्मद्रोस्तौ विवेकपरायणौ ॥२४४॥ ततश्च राज्यगुप्तर्षिर्विदधे गुर्वनुज्ञया। आचामाम्लवर्धमानाभिधानं दुस्तपं तपः॥२४५।। अन्ते चाऽनशनं चक्रे चतु:शरणमाश्रितः । विपद्य ब्रह्मलोकेऽभूदु देशसागरजीवितः ॥२४६।। ब्रह्मलोकात् परिच्युत्य विद्युद्रथनृपात्मजः । अयं सिंहरथो नाम जज्ञे विद्याधरेश्वरः ॥२४७।। शखिका साऽपि तद्भार्या विधाय विविधं तपः । ब्रह्मलोके सुरो जज्ञे च्युत्वाऽसावस्य पत्न्यभूत् ॥२४८॥ इत: स्वनगरं गत्वा पुत्रं राज्ये निधाय च। पादान्ते मत्पितुर्दीक्षामयमादास्यते सुधीः ॥२४९॥ तपो-ध्यानादिभिः कृत्वा कर्माष्टकपरिक्षयम् । उत्पन्नकेवलज्ञान: सिद्धिमेष व्रजिष्यति ॥२५०॥ श्रुत्वा तद्वचनं मेघरथं च नत्वा भक्तितः । गत्वा च स्वपुरे पुत्रं राज्ये सिंहरथो न्यधात् ॥२५१॥ १.खंता. पाता. वा.१-२ प्रतिषु नास्ति॥२. भवसागरे नौसदृशीम् ॥३. आचक्रमे सं. पा. ता. ला. खंता. पाता. वा.१-२॥ ४. अधमः ।। ५. अरसत् दे. छा.।। ६.प्रपेदे सं.पा. ता.ला.॥७. मयाऽयं मुमुचे सं.पा. ता.ला. ।। ८. ०तमुपचक्रमे सं. पा. ता. ला. खंता. पाता. वा.१-२॥९. दुरवस्थः ॥ १०. विश्वहितः॥११. दुःखितैः॥१२. जगत्पूज्य!॥१३. द्वे अष्टमतपसी द्वात्रिंशच्च चतुर्थभक्तानीति ज्ञायते ॥१४.अन्वेषयामासतुः सं. ता. ला. पा. खंता. पाता. वा.१-२॥१५. मानुषजन्मवृक्षस्य । ०मानुषकल्पद्रो० मु.॥१६. दशसागरोपमायुः ॥ १७. विधाय दे. मु.॥१८. व्यधात् दे. छा. ॥ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः ) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । श्रीमद्धनरथस्वामिपादान्ते 'दान्तमानसः । परिव्रज्य चरित्वा च तपः सिद्धिमियाय सः ॥ २५२ ॥ ||राजा मेघरथो देवरमणोद्यानतस्ततः । प्राविशत् सपरीवारो नगरीं पुण्डरीकिणीम् ॥ २५३ ॥ अपरेद्युर्मेघरथः पौषेधौकसि पौषधी । धर्ममाख्यातुमारेभे जिनाख्यातं विपश्चिताम् ॥२५४॥ तस्योत्सङ्गे तदानीं च सञ्जातभयवेपथुः । पारापतः पपातैको मुमूर्षुरिव दीनदृक् ॥ २५५॥ अभयं याचमानं तं खगं मानुषभाषया । मा स्म भैषीर्मा स्म भैषीरित्यभाषिष्ट भूपतिः ॥ २५६ ॥ एवमाभाषितस्तस्थौ सुस्थ: पारापतस्ततः । बालः पितुरिवोत्सङ्गे राज्ञः कारुण्यवारिधेः ॥ २५७॥ भक्ष्यं ममेदं मुञ्चाऽऽशु राजन्निति वदन्नथ । तस्याऽनुमार्गमेवाऽऽगाच्छ्येनोऽहेरिव पक्षिराट् ॥ २५८॥ श्येनमूचे नृपोऽप्येवं नाऽर्पयिष्याम्यमुं तव । क्षत्रियाणां न धर्मोऽयं शरणार्थी यदर्प्यते ॥ २५९ ॥ अपरं च तवाऽपीदं युज्यते न हि धीमतः । परप्राणापहारेण स्वप्राणपरिपोषणम् ॥ २६०॥ T उत्खन्यमाने पिच्छेऽपि यथा ते भवति व्यथा । अन्यस्याऽपि भवत्येवं मार्यमाणस्य का कथा ? ॥२६१ ॥ जग्धेनाऽप्यमुना तृप्तिर्भाविनी क्षणमेव ते । सर्वजन्मापहारस्तु पक्षिणोऽस्य भविष्यति ॥२६२॥ पञ्चेन्द्रियप्राणवधात् तन्मांसस्य च भक्षणात् । नरके जन्तवो यान्ति सहन्ते दुःसहा व्यथाः ॥२६३॥ पैंरत्राऽनन्तदुःखाय क्षणमत्र सुखाय च । विवेकवान् कथं हन्यात् प्राणिनं क्षुधितोऽपि हि ॥ २६४॥ अपरेणाऽपि भोज्येन क्षुत्पीडा हन्त शाम्यति । पित्ताग्निः शर्कराशम्यः पयसा किं न शाम्यति ? ॥२६५॥ न च प्राणिवधप्राप्तनरकप्रभवा व्यथाः । केनाऽपि हि प्रकारेण शाम्यन्ति सहनं विना ॥ २६६ ॥ ततः प्राणिवधं मुञ्च धर्ममेव समाचर । भवे भवे येन सुखं प्राप्नोषि विमृश स्वयम् ॥ २६७॥ ॥ मनुष्यभाषया श्येनोऽप्यभाषत महीपतिम् । भवन्तं मद्भयादेष कपोतः शरणं ययौ || २६८ ॥ क्षुत्पीडयाऽर्दितोऽहं तु कं यामि शरणं ? वद । सर्वेष्वप्यनुकूला हि महान्तः करुणाधनाः ॥ २६९॥ यथैनं त्रायसे राजंस्तथा त्रायस्व मामपि । इमे गच्छन्ति ही प्राणा बुभुक्षाबाधितस्य मे ॥२७०॥ धर्मार्धर्मविमर्शो हि सुस्थितानां शरीरिणाम् । धर्मप्रियोऽपि किं पापं न करोति बुभुक्षितः ? ॥२७१ ॥ तर्द्धर्मवार्तयाऽलं मे र्भैक्ष्यभूतोऽयमर्प्यताम् । क एष धर्मस्त्रातव्य एको मार्यस्तथाऽपरः ? ॥ २७२ ॥ तृप्तिर्भवेन् महीपाल! न च भोज्यान्तरैर्मम । सद्यः स्वयंहतप्राणिस्फुरन्मांसाशनो ह्यहम् ॥ २७३॥ राजाऽप्येवमवोचत् तं स्वमांसं ते ददाम्यहम् । तुलयित्वा कपोतेन सुहितीभव मा मृथाः ॥ २७४॥ आमेत्युक्तवति श्येने तुलायामेकतो नृपः । कपोतं निदधेऽन्यत्र छित्त्वा छित्त्वा स्वमामिषम् ।।२७५।। उत्कृत्त्योत्कृत्त्य मांसं स्वं राजाऽक्षैप्सीद् यथा यथा । तथा तथा कपोतः स भारेण ववृधेतराम् ॥२७६॥ भारेण वर्धमानं तं कपोतं प्रेक्ष्य भूपतिः । स्वयमेवाऽध्यारुरोह तुलामतुलसाहसः ॥ २७७॥ तुलाधिरूढं राजानं प्रेक्ष्य हाहारवाकुल: । सर्वोऽपि संशयतुलामारुरोह परिच्छदः ॥२७८॥ सामन्तामात्यमुख्याश्चाऽभ्यधुरेवं महीपतिम् । एतदस्मदभाग्येन किमारब्धं त्वया प्रभो! ? ॥ २७९॥ अनेन हि शरीरेण त्रातव्या सकला मही । एकस्य पक्षिमात्रस्य त्राणे त्यजसि तत् कथम् ? ॥ २८० ॥ किञ्च कोऽप्येष मायावी त्रिदशो दानवोऽथवा । न हीदृक् पक्षिमात्रस्य भारः सम्भवति क्वचित् ॥ २८१ ॥ जगदुर्यावदेवं ते तावदाविरभवत् पुरः । किरीटी कुण्डली म्रग्वी तेजोराशिरिवाऽमरः ॥ २८२॥ I " नृदेवं देव इत्यूचे त्वमेकः पुरुषेष्वसि । न चाल्यसे पौरुषाद्यत् स्वस्थानादिव मन्दरः ॥२८३॥ १. शुद्धमानसः ॥ २. ० पोषधौकसि पोषधी खंता. पाता. वा. १-२ ॥ ३. विदुषाम् ॥ ४. कम्पमानः ॥ ५. मर्तुमिच्छुः ॥ ६. पक्षिविशेष:, 'बाज' इति भाषायाम् ।। ७. गरुडः ।। ८. खादितेन ।। ९. मरणम् ।। १०. दुःसहां व्यथाम् मु. ॥ ११. परलोके । परत्रात्यन्त० मु. ॥। १२. शर्करया शम्यते यः पित्ताग्निः दुग्धेनाऽपि शम्यते ॥ १३. ०धर्मविचिन्ता सं. पा. ता. ला. खंता. पाता. वा. १-२ ॥ १४. भोज्यरूपः ॥ १५. तृप्तो भव ।। १६. स्वमांसम् ।। १७. नरेषु देवः, तम् ॥ ४७ For Private Personal Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ कलिकालसर्वज्ञश्री हेमचन्द्राचार्यप्रणीतं I सभायां वर्णयामास त्वामीशानदिवस्पतिः । अहं त्वसहमानस्तत् त्वत्परीक्षार्थमागमम् ॥ २८४॥ प्राग्जन्मवैराद् युद्धायोपस्थितौ पक्षिणाविमौ । अपश्यं चाऽध्यतिष्ठं चाऽकार्षं चैतत् सहस्व तत् ॥ २८५॥ इत्युदित्वा नृपं कृत्वा सज्जं देवो दिवं ययौ । सामन्ताद्याश्च राजानं पप्रच्छुरिति विस्मयात् ॥ २८६॥ श्येन-पारापतावेतौ कीदृशौ पूर्वजन्मनि ? । किंहेतु वाऽनयोर्वैरं ? देवोऽयं प्राग्भवे च कः ? ॥२८७॥ | राजाऽप्याख्यज्जम्बूद्वीपैरवत क्षेत्रमण्डनम् । पद्मिनीखण्डमित्यस्ति पुरं श्रीपद्मखण्डवत् ॥ २८८॥ तत्र सागरदत्तोऽभूत् सम्पदा सागरोपमः । भार्या विजयसेनेति तस्य चाऽसीदैनिन्दिता ॥ २८९ ॥ सञ्जज्ञाते तयोः पुत्रौ नामतो धन-नन्दनौ । यौवनं च प्रपेदाते वर्धमानौ क्रमेण तौ ॥ २९०॥ क्रीडाभिर्विविधाभिस्तौ विहरन्तावुभावपि । गमयामासतुः कालं पितृऋद्धिसमुन्नतौ ॥ २९९ ॥ ॥ अन्यदा सागरदत्तं तौ प्रणम्यैवमूचतुः । देशान्तरे वणिज्यार्थमावां तात ! समादिश ॥ २९२ ॥ पित्रा समनुजज्ञाते मुदितेन तदैव तौ । सूनोः पुरुषकारो हि हर्षाय प्रथमं पितुः ॥ २९३॥ आदाय विविधं भाण्डं तौ सार्थेन प्रचेलतुः । प्रापतुश्च क्रमान्नागपुरं नाम महापुरम् ॥२९४॥ तत्र व्यवहरन्तौ तौ श्वानौ भक्ष्यमिवैककम् । किञ्चिदेकं महामूल्यं महारत्नमवापतुः || २९५ ।। तौ च शङ्खनदीतीरे तस्य रत्नस्य हेतुना । युयुधाते मिथो क्रुद्धौ दुर्दान्तौ वृषभाविव ॥२९६॥ युध्यमानौ पेततुस्तावगाधे तन्महाहदे । विपेदाते च सद्योऽपि लोभः कस्य न मृत्यवे ? ॥ २९७ ॥ विपद्य तावुभौ बन्धू उत्पेदाते इमौ खगौ । प्राग्जन्मवैरादेवं च वैरायेते इहाऽपि हि ॥२९८॥ ॥ अन्यच्च जम्बूद्वीपेऽस्मिन् प्राग्विदेहविभूषणे। सीताया दक्षिणतटे विजये रमणीयके ॥ २९९॥ शुंभाख्यायां पुरि नृपोऽभवत् स्तिमितसागरः । तस्येतैः पञ्चमभवेऽभूवं पुत्रोऽपराजितः || ३००||[युग्मम्] तदा हि बलदेवोऽहं वासुदेवोऽपि मेऽनुजः । अनन्तवीर्य इत्यासीदयं दृढरथोऽस्ति यः ॥३०१॥ प्रतिविष्णुस्तदानीं च दमितारिर्महाभुजः । कनकश्रीकन्यकार्थेऽस्माभिर्युधि निपतितः ॥३०२|| स भ्रान्त्वा भैवकान्तारे जम्बूद्वीपस्य भारते । अष्टापदगिरेर्मूले निकृत्याः सरितस्तटे ॥३०३॥ सोमप्रभाभिधानस्य तापसस्य सुतोऽभवत् । बालं तपश्चरित्वाऽभूत् सुरूपो नामतः सुरः || ३०४|| युग्मम्|| सोऽयं सुरोऽस्मत्प्रशंसामीशानेन्द्रेण निर्मिताम् । असहिष्णुः समार्गच्छच्चक्रे चैतत् परीक्षणम् ॥३०५॥ 'तच्छ्रुत्वा वचनं राज्ञो जातजातिस्मृती उभौ । श्येन - पारापतौ सद्यो मूर्च्छया पेततुर्भुवि ॥ ३०६ ॥ राजलोककृतैस्तालवृन्तानिल- जैलोक्षणैः । भूयोऽपि सञ्ज्ञां लेभाते तौ प्रसुप्तोत्थिताविव ॥३०७॥ तौ स्ववाचोचतुर्भूपं साध्वावां ज्ञापितौ त्वया । प्राग्जन्मदुष्कृतं स्वामिन्नीदृग्योनिनिबन्धनम् ॥३०८॥ स्वामिन्! युद्ध्वा तदाऽऽवाभ्यां रत्नं नाम न केवलम् । अतिलोभाभिभूताभ्यां मर्त्यजन्माऽपि हारितम् ॥ ३०९॥ इदानीं नारकं जन्माऽभवन्निकटमावयोः । निषिद्धावन्धवत् कूपात् परमावां ततस्त्वया ॥ ३१० ॥ अतः परमपि स्वामिन्नुन्मार्गाद् रक्ष रक्ष नौ । सन्मार्गमादिश शुभं स्थानं येन लभामहे ॥३१९॥ तयोश्च योग्यतां ज्ञात्वाऽवधिज्ञानोर्मिवारिधिः । समादिदेशाऽनशनं प्राप्तकालं महीपतिः ॥ ३१२ ॥ प्रपद्य तावनशनं शुभचित्तौ विपद्य च । उत्पेदाते सुरवरौ मध्ये भैवनवासिनाम् ॥३१३॥ I १. ईशानेन्द्रः । ईशानस्य दिवस्पतिः खंता ॥ २. व्यधाम् ॥ ३. को हेतुर्यस्य तद्, वैरविशेषणम् ॥ ४. लक्ष्मीसरोवत् ॥ ५. शुद्धा ॥ ६. ० समुद्धतौ मु. ॥ ७ पित्राऽपि समनुज्ञाते मु. ॥ ८. ० महाक्रुद्धौ वा. १-२ ॥ ९. श्येन - पारापतौ ॥ १०. सुभगायाम् सं. ता. पा. खंता. पाता ॥ ११. इतोऽस्माद् भवात् पूर्वं पञ्चमे भवे ।। १२. हतः ।। १३. भवकान्तारम् दे. मु. विना । संसारारण्ये ।। १४. निकृतीनाम्नी नदी, तस्यास्तटे ।। १५. समागच्छद् व्यधाच्चैतत्० मु. ॥ १६. जलसेचनैः ॥ १७. कारणम् ।। १८. नारकात् ॥ १९. ० शुभस्थानम्० मु. ॥ २०. कालप्राप्तं खंता. पाता. वा. १-२ मु. ॥ २१. भुवन० मु. ॥ (पञ्चमं पर्व For Private Personal Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । पापौषधं पारयित्वा तं राजा मेघरथोऽपि हि। यथावत् पालयन्नुर्वी तस्थौ न्याय इवाऽङ्गवान् ॥३१४।। कपोत-श्येनवृत्तान्तमन्यदाऽनुस्मरनृपः । परं वैराग्यमापेदे बीजं प्रशमशाखिनः ॥३१५॥ कृत्वाऽष्टमतप: सोढुमपसर्ग-परीषहान् । तस्थौ प्रतिमया शैल इव सर्वाङ्गनिश्चलः ॥३१६॥ ईशानेन्द्रस्तदानीं च मध्येशुद्धान्तमासित: । 'नमो भगवते तुभ्यं' इति जल्पन्नमोऽकरोत् ॥३१७।। महिष्यस्तस्य पप्रच्छु: कस्मै स्वामिन्नमस्क्रिया। त्वया जगन्नमस्येन विदधेऽत्यन्तभक्तित: ? ॥३१८॥ ईशानेन्द्रः शशंसैवमर्हद्घनरथात्मजः । नगर्यां पुण्डरीकिण्यां सरस्यां पुण्डरीकवत् ॥३१९।। अयं मेघरथो नाम कृताष्टमतपो नृपः । विशुद्धध्यानमापन्नो महाप्रतिमया स्थितः ॥३२०॥ भावी तीर्थकरश्चैष भरतक्षेत्रमण्डनम् । दृष्ट्वा तदेनमेतस्मै नमोऽकार्षमिह स्थितः ॥३२१॥त्रिभिर्विशेषकम्।। ध्यानादस्मादमुं धीरं न हि चालयितुं क्षमाः। सुरा-ऽसुरगणा: सेन्द्रा अपि मादयस्तु के? ॥३२२।। ईशानेन्द्रमहिष्यौ च सुरूपा चाऽतिरूपिका। असहिष्णू प्रशंसां तां राज्ञः क्षोभार्थमीयतुः ॥३२३॥ पायुवतीस्ते विचक्राते लावण्याम्भस्तरङ्गिणी। दुर्गं वा जङ्गमं जैत्रमस्त्रं वा मीनलक्ष्मणः ॥३२४॥ विकारैर्विविधैस्तैस्तैः स्मरोज्जीवनभेषजैः । अनुकूलानुपसर्गानुपचक्रमिरेऽथ ताः ॥३२५॥ काऽपि मिथ्यापरिक्षिप्तधम्मिल्लोद्वन्धनच्छलात् । आविश्चक्रे भुजामूलं स्मरमूलनिकेतनम् ॥३२६।। अर्ध सितसंव्यानं जघनं काऽप्यदर्शयत् । पिधानपटनिर्यातमिव दर्पणमण्डलम् ॥३२७॥ काचिदालीजनालापव्यपदेशान् मुहुर्मुहुः । भ्रूलतोत्क्षेपमकरोत् स्मरास्त्रोत्क्षेपसन्निभम् ॥३२८॥ स्मरेतिवृत्तं सन्दृब्धं गान्धारग्रामबन्धुरम् । मुखदृष्टिविकाराढ्यं जगौ काऽप्यनुरागिणी ॥३२९॥ कामशास्त्रकथालापं काऽपि लीलावती मुहुः । स्वानुभूतरतक्रीडाप्रस्तावनपराऽकरोत् ॥३३०।। पित्तादीनां प्रकृतीनामनुरूपाणि धातुना। रेतोपज्ञानि करणान्यालिलेखाऽपरा पुन: ॥३३१।। ययाचे काचिदालापं करस्पर्शं च काचन । दृष्टिप्रसादं काचिच्च काचिदालिङ्गनं पुन: ॥३३२॥ कलाप्रकारान् विविधान् व्यधुरेवं महीपतेः। विभावर्यामाविभातं विकृत्य सुरयोषितः॥३३३॥ टङ्कप्रहारवद् वज्रे मोघीभूतानि भूभुजः । तानि वैक्रियरूपाणि देव्यौ सञ्जहतुस्ततः ।।३३४।। क्षमयित्वा मेघरथं नत्वा चाऽनुशयान्विते । ईशानेन्द्रमहिष्यौ ते निजधामनि जग्मतुः ॥३३५॥ पाराजाऽप्यपारयत् प्रीत: प्रतिमामथ पौषधम् । स्मारं स्मारं निशावृत्तं परं संवेगमासदत् ॥३३६॥ महादेवी प्रियमित्रा प्रियमालोक्य तादृशम् । साऽपि संवेगमापेदे सत्यो हि पतिवम॑गाः ॥३३७|| अथाऽपरेधुर्विहरन्नर्हन् घनरथः स्वयम् । तत्रैत्य समवासार्षीत् पूर्वोत्तरदिशि प्रभुः ॥३३८॥ स्वाम्यागमनमाचख्यू राज्ञे चाऽऽयुक्तपूरुषाः । स पारितोषिकं तेभ्यो दत्वाऽगात् सानुजः प्रभुम् ॥३३९।। आयोजनविसर्पिण्या सर्वभाषानुयातया। सग्रामरागया वाचा देशनां विदधे प्रभुः ॥३४०॥ पदेशनान्ते जिनपतिं नत्वा भपतिरब्रवीत। विश्वत्राणोद्यतोऽसि त्वं नाथ! त्रायस्व मामपि॥३४॥ सर्वं जानासि सर्वस्य हितोऽसि च जगत्पते! । तथाऽपि प्रार्थये स्वामिन्! स्वार्थे क इव नोत्सुकः ? ॥३४२।। यावत् कुमारं स्वे राज्ये निधायेहाउँपंताम्यहम् । दीक्षादानाय मे तावत् त्वया नाथ! प्रतीक्ष्यताम् ॥३४३॥ न प्रमादो विधातव्य इति शिष्टोऽर्हता स्वयम् । ययौ मेघरथो वेश्माऽवरजं चेत्यवोचत ॥३४४॥ १. पोषधं० खंता. पाता.वा.१-२॥२.०मन्यदा तु स्मरनृपः खंता. पाता. वा.१-२॥३. अन्तःपुरमध्ये ॥४.खंता. पाता. वा.१-२ मु. न ॥५. इवार्थे वा शब्दः ॥६.जयनशीलम् ।। ७. कामदेवस्य ॥८.केशपाशः॥९. वस्त्रम् ॥१०. सखीजनालाप ॥११. कामदेववृत्तान्तग्रथितम् । स्मरेतिवृत्तसन्हब्धं पा. मु.॥ १२.रतस्य कामक्रीडाया उपज्ञा प्राथम्यमीदृशानि करणानिचित्राणि॥१३. विभावरीमावि० सं. ता.पा.ला.खंता.पाता.वा.१-२॥१४. प्रात:कालपर्यन्तम् ।। १५.वैकृत्य खंता. पाता. वा.१-२॥१६. नुत्वा छा. ॥१७. पश्चात्तापान्विते॥१८.०पोषधम् खंता. पाता. वा.१-२॥१९. पतिमार्गानुसारिण्यः॥२०. ईशानकोणे ॥ २१. आगच्छामि ।। २२. महर्षिणा ता. ॥ २३. अनुजं दृढरथम् ॥ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० आदत्स्व वत्स! भूभारं यथा हि प्रव्रज्याम्यहम् । भवभ्रमणतोऽमुष्मान्निर्विण्णोऽस्म्येष पान्थवत् ॥ ३४५॥ "ततो दृढरथोऽप्येवं जगाद रचिताञ्जलिः । दुःखः खल्वेष संसारस्त्याज्य एव विवेकिभिः ॥३४६॥ अस्मिन्नेवंविधेऽपारेऽकूपार इव दुस्तरे । आरोप्य धरणीभारं कथं मुञ्चसि मां प्रभो ! ? ॥३४७॥ आत्माऽभेदेन मामद्य यावद् दृष्ट्वाऽधुना पृथक् । किं करोषि ? प्रसीदेश ! मामप्यात्मवदुद्धर ।। ३४८|| अद्यैव तातपादान्ते भवत्पादैः सहैव हि । प्रव्रजिष्याम्यहं स्वामिन्नन्यस्मै दीयतां मही ॥ ३४९ ॥ ततो मेघरथो राज्यं मेघसेने निजात्मजे । यौवराज्यं रथसेने न्यधाद् दृढरथात्मजे ॥३५०॥ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं ततश्च मेघसेनेन कृतनिष्क्रमणोत्सवः । समं दृढरथेनाऽऽत्मजन्मनां सप्तभिः शतैः ॥ ३५१ ॥ राज्ञां चतुःसहस्र्या च गत्वा भगवतोऽन्तिके । सर्वसावद्यविरतिं राजा मेघरथोऽग्रहीत् ॥ ३५२॥ युग्मम् ॥ परीषहानुपसर्गान् सहमानोऽतिदुःसहान् । त्रिगुप्तिः पञ्चसमितिर्निराकाङ्क्षो वपुष्यपि ॥ ३५३॥ विविधाभिग्रहतपः परो दृढरथान्वितः । एकादशाङ्गीधरणो धरणीं विजहार सः || ३५४ || युग्मम् ।। विंशत्या स्थानकैरर्हद्भक्तिप्रभृतिभिः शुभैः । कर्माऽर्हन्नामगोत्रं स दुरुपार्जमुपार्जयत् ॥ ३५५॥ सिंहनिष्क्रीडितं नाम स कृत्वा दुस्तपं तपः । श्रामण्यं पालयित्वा च पूर्वलक्षमखण्डितम् ॥३५६॥ आरुह्याऽम्बरतिलकं गिरिं गिरिरिव स्थिरः । भ्रात्रा सहैवाऽनशनं चक्रे मेघरथो मुनिः || ३५७|| [युग्मम्] पूर्णायुरापदथ मेघरथो विमानं सर्वार्थसिद्धमनुजेन समन्वितोऽपि । तत्राऽमितान्यनुबभूवतरां त्रयस्त्रिं"शाब्ध्यायुरव्ययपदोपपदे सुखानि ॥ ३५८।। Jain Educatio इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये पञ्चमे पर्वणि श्रीशान्तिनाथदेवीयदशमैकादशभववर्णन नाम चतुर्थः सर्गः”॥ (पञ्चमं पर्व १. दुःखरूपः ॥ २. समुद्रः ॥ ३. आत्मसदृशेन ॥ ४. पुत्राणाम् ॥ ५.० वपुष्यति पाता. वा. १-२ ॥ ६. महात्मा विधिवत् प्रायं मु. ॥ ७. खंता. पाता. वा. १२ प्रतिषु न ॥ ८. सर्वार्थसिद्धमथ तस्य सहोदरोऽपिं । काले कियत्यपि गतेऽनशनं प्रपद्य, शुद्धाशयोऽव्ययपदोपपदं तदेव ।। इति र. स्वीकृतपाठः ।। ९. तत्राऽमितामनु० ला. मु. ॥ १०. ० श्यद्यायु० ता. पा. सं., शद्यायु० ला. मु., शच्चायु० वा. १-२ ॥ ११. पञ्चमपर्वणि खंता. पाता. वा. १-२ ॥ १२. सर्गः समाप्तः मु. ॥ For Private Personal Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥पञ्चमः सर्गः॥ अथाऽस्य जम्बूद्वीपस्य वर्षे भरतनामनि। महर्द्धि कुरुदेशेऽस्ति नगरं हस्तिनापुरम् ॥१॥ शातकुम्भमया: कुम्भास्तत्र प्रासादमूर्धसु। कलयन्ति सदोद्भूतस्थलाम्भोजवनश्रियम्॥२॥ तस्मिंश्च परितो भाति दीर्घिका वलयाकृतिः। विमलस्वच्छसलिलाप्राकारस्येव दर्पण: ॥३॥ तत्रोद्यानेषु राजन्ते सारणीनां तटे तटे। स्निग्धद्रुमा जलादानावतीर्णा इव वारिदाः॥४॥ निशि तत्रौकसां रत्नवलभीषु निशाकरः। लिह्यते प्रतिबिम्बस्थो दधिपिण्डधियौतुभिः॥५॥ तच्चैत्येषु प्लुष्यमाणागरुधूमलतास्तता:। खेचरीणां प्रयच्छन्ति पटवासमयत्नजम्॥६॥ तत्राऽदृपङ्क्तौ लक्ष्यन्ते रत्नमाला: प्रलम्बिताः । रत्नसर्वस्वमानीतं सर्वं रत्नाकरादिव।।७।। तत्र चैत्येषु भूमिष्ठा ध्वजच्छायाश्चलाचला:। भान्ति धर्मनिधानस्य रक्षाविषधरा इव ॥८॥ इन्द्रनीलावनीकानि वासवेश्मानि तत्र च। दर्शयन्ति पय:पूर्णक्रीडावापीसमानताम् ॥९॥ तस्मिन्निक्ष्वाकुवंशाब्धिसुधांशुर्नयनोत्सव: । यशोज्योत्स्नाधौतविश्वो विश्वसेनोऽभवन्नृपः॥१०॥ वज्रागारं शरण्यानामर्थिनां कल्पपादपः। सख्यसङ्केतभूः श्री-वाग्देव्योरपि बभूवसः॥११॥ तस्याऽपारो यशोराशि: पयोराशिरिवाऽपरः। जग्रसे विद्विषां कीर्तीणुर्वीरपि नदीरिव॥१२॥ प्रभावसाधिताशेषद्विषस्तस्यैकभूपतेः । अस्त्राण्यव्यापृतान्यासन्निधानीकृतवित्तवत्॥१३॥ गलेषु युध्यमानानां पृष्ठेषुशरणार्थिनाम् । पाँदं पाणिं चस ददौ निर्विशेष इव द्वयोः ॥१४॥ तेन कोशादपाकृष्टस्तरवारी रणाङ्गणे। कोशीबभूव स्वयमप्यागताया जयश्रियः॥१५॥ बन्धुर्याय: प्रिया कीर्तिः सुहृदो विमला गुणाः। पत्तिः प्रताप इत्यासीत् तस्याऽङ्गोत्थः परिच्छदः॥१६॥ समुन्नतिजुषस्तस्य जगदानन्ददायिनः। जीमूतस्येवाऽचिरांशुरचिरा नाम पत्न्यभूत्॥१७॥ पायथा बभूव सा देवी स्त्रीजनेषु शिरोमणिः । तस्याः शीलमपि तथा गुणेषु विनयादिषु॥१८॥ संतीमतल्लिका साऽधाद्धृदयस्य विभूषणम्। बहिर्मुक्ताहारमिव मध्ये पतिमहर्निशम्॥१९॥ तन्निर्माणबहिर्भूतैः परमाणूत्करैरिव। सृष्टाः सुरस्त्रियोऽप्याभांस्तद्रूपालोकने सति॥२०॥ विचरन्ती जगद्वन्द्या पादचङ्क्रमणेन सा। पृथिवीं पावयामास प्रवाहेणेवजाह्नवी॥२१॥ हीनमत्कन्धरा नित्यमपश्यद्भुवमेव सा। मत्पतेरपि पाल्येयमिति प्रीतिवशादिव॥२२॥ सर्वेऽपिस्त्रीगुणास्तस्यामवंदाताश्चकाशिरे। यथा सौमनसोद्यानवीथ्यां कुसुमजातयः॥२३॥ विश्वसेना-ऽचिरादेव्यो: साम्राज्यसुखलीनयोः। काल: कियानपि ययाविन्द्रेन्द्राण्योरिवोन्मुदोः॥२४॥ पाइतश्च सर्वार्थसिद्धे विमानेऽनुत्तरोत्तमे। सुखमनो मेघरथजीव: स्वायुरपूरयत्॥२५॥ नभस्यकृष्णसप्तम्यांभरणीस्थे निशाकरे। ततश्च्युत्वाऽचिरादेव्या: स कुक्षौ समवातरत्॥२६।। सुखप्रसुप्तया देव्या निशाशेषेक्रमादमी। मुखे विशन्तोऽदृश्यन्त महास्वप्नाश्चतुर्दश॥२७|| १. सुवर्णमयाः॥२.सदा उद्भूतानि-उद्गतानि स्थलकमलानि,तेषां वनं,तस्य श्री:, ताम् ॥ ३. परिखा ॥४. नीकानाम् नीका तु सारणौ'(शेषना.श्लो.१६९)॥५. स्निग्धा गुमाःखंता. पाता. वा.१-२॥६. रत्नखचितछदिराधारेषु वलभी छदिराधारः'(अभि.चिन्ता.कां.४,श्लो.१०११) छत'इति भाषायाम्॥७. बिडालैः॥ ८. दह्यमानागरु। पुष्पमालागरुधूम० पाता.॥९. व्याप्ताः ॥१०. हट्टपङ्क्तौ ॥११. सर्वरत्नाकरादिव सं.ला. छा. मु.॥१२. रक्षाकारिण: सर्पा इव ॥१३. इन्द्रनीलखचिता अवनी-भूमिः येषु तानि॥१४. चन्द्रः॥१५. लक्ष्मी-सरस्वत्योः॥१६. शत्रूणाम् ॥१७. अप्रयुक्तानि॥१८. युध्यमानानां गलेषु पादं, शरणार्थिनां पृष्ठेषु हस्तमिति क्रमात्॥१९. समदर्शी ॥२०.असिः॥ २१. परिवारः ।। २२. मेघस्य विद्युदिव॥२३. सतीषु श्रेष्ठा ॥ २४. बहिर्मुक्ताहार इव ला. पा. छा. दे. खंता. पाता. वा.१-२ ॥२५. परमाणुकणैरिव पा. छा. दे. मु.॥२६. लज्जावनतग्रीवा ।। २७. विशदाः ।।२८. देवोद्यानमार्गे।। २९. भाद्रपदमासे ।। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (पञ्चमं पर्व 'क्षरन्मदजलामोदमाद्यन्मधुलिहां स्वनैः । 'मुखप्रवेशनानुज्ञां याचमान इव द्विपः ।।२८।। त्रसत्वमाप्त: कैलासगण्डशैल इवाऽमलः । उद्दण्डपुण्डरीकर्द्धिलुण्टाकोऽङ्गत्विषा वृषः ।।२९।। उन्नालमुकुलीभूतरक्तराजीवबन्धुना । उत्क्षिप्तवालहस्तेन शोभमानश्च केशरी ॥३०॥ क्रियमाणाभिषेका च करिभ्यां पार्श्वयोर्द्वयोः । महालक्ष्मीर्दिव्यरूपा रूपान्तरमिवाऽऽत्मनः ॥३१॥ पञ्चवर्णैर्दिव्यपुष्पैर्दामग्रंथितमायतम् । ऋजुरोहितसङ्काशमाकाशश्रीविभूषणम् ॥३२॥ अखण्डमण्डलोद्योती पार्वणो रजनीपतिः । नैर्मल्यभूमिः ककुभामादर्श इव राजतः ॥३३॥ सत्यामपि विभावर्यां दर्शयन् वासरश्रियम् । करीङ्कुरप्ररोहैकमहाकन्दो दिनेश्वरः ॥३४।। पताकाया लासिकाया इव लास्यैकमन्दिरम् । दृशां विश्रामसदनमायतश्च महाध्वजः ॥३५॥ आमोदमेदुरस्मेरसरोजपिहिताननः । विशाल: पूर्णकुम्भश्च श्रीदेव्या इव विष्टरः ॥३६।। विकस्वरैः सुरभिभिः सुन्दरं सैरसीरुहैः । सरोवरं पयःपूर्णं पद्महद इवाऽपरः ॥३७॥ समालिलिङ्गिषुरिवाऽभ्रेमालामम्बरस्थिताम् । उदञ्चयन्वीचिहस्तानपारो मकराकरः ॥३८॥ विचित्ररत्नकलशं पताकामालभारि च । विमानं चाऽप्रतिमानं व्योम्न: प्रासादसन्निभम् ॥३९॥ सूर्यादिज्योतिषां सृष्टिपुद्गलानामिवोच्चयः । रत्नपुञ्जोऽम्बरतलं लिम्पन्नूरुमरीचिभिः ॥४०॥ अभ्रंलिहाभिः कीलाभिर्जिह्वाभिरिव भूरिभिः । तम:पूरं कॅवलयन्निधूमश्च विभावसुः ॥४१।। सुप्तोत्थिता तु सा देवी विश्वसेनाय भूभुजे । तान् स्वप्नान् कथयामास व्याचख्याविति सोऽपि हि॥४२॥ 'लोकोत्तरगुणः श्रीमांस्त्रैलोक्यत्राणकर्मठः । एभिः स्वप्नैर्महादेवि! तव सूनुर्भविष्यति ॥४३॥ नैमित्तिकैरपि प्रात: पृष्टैरूचे तवाऽऽत्मजः । चक्री वा धर्मचक्री वा स्वप्नैरेभिर्भविष्यति ॥४४॥ स्वप्नार्थवेदकान् राजा सत्कृत्य विससर्ज तान् । देवी च रत्नगर्भेव गर्भरत्नं बभार सा॥४५॥ प्रागुत्पन्नान्यशिवानि तदा चाऽऽसन्ननेकशः । उद्वेग-रोग-मार्यादिकारीणि कुरुमण्डले ॥४६|| तत्प्रशान्त्यै जनश्चक्रे नानोपायानुपायवित् । तानीषदपि नाऽशाम्यन्नम्भोभिर्वाडवाग्निवत् ॥४७|| भगवत्यचिरादेव्याः प्राप्तमात्रेऽपि गर्भताम् । अशाम्यन्नशिवान्यर्हत्प्रभावस्याऽवधिर्न हि ॥४८॥ पाततो नवसु मासेषु दिनेष्वर्धाष्टमेषु च । ज्येष्ठकृष्णत्रयोदश्यां भरणीस्थे निशाकरे ॥४९॥ ग्रहेषु चोच्चसंस्थेषु मृगाङ्कमिव पूर्वदिक् । मृगात काञ्चनरुचिमचिरा सुषुवे सुतम् ॥५०॥[युग्मम्] तदा च क्षणमुद्योतस्त्रिजगत्यप्यजायत । अपि नारकजन्तूनां सुखं चाऽभूतपूर्व्यभूत् ॥५१।। पाततश्च दिक्कुमारीणामासनानि चकम्पिरे । अर्हजन्माऽवधिज्ञानादजानन् जहषुश्च ताः ॥५२॥ अधोलोकादाऽष्टैयुर्दिक्कुमार्योऽर्हदोकसि । नेमुर्जिनेन्द्रं विधिवजिनेन्द्रजननीं च ताः ॥५३॥ देव्यै स्वं ज्ञापयित्वा ता मा भैषीरित्युदीर्य च। संवर्तकानिलेनाऽपनिन्युरायोजनं रजः ॥५४॥ १.क्षरन्मदजलस्याऽऽमोदेन मत्तानां भ्रमराणाम् ॥२. मुखे प्रवेश मु.॥ ३. जङ्गमत्वं प्राप्तः॥४. उच्चदण्डवत् कमलसमृद्धिचौरः॥५. पुण्डरीकर्द्धिलुम्पाको ला.॥ ६. ऊर्ध्वनालेन मुकुलीभूतेन रक्तकमलेन सदृशेन । उत्ताल खंता. पाता. वा.१-२ ।। ७. ऊर्वीकृतपुच्छेन ॥ ८. केसरी मु. ॥ ९. अचिरादेव्याः प्रतिकृतिरिव ॥ १०. ग्रन्थित० पाता. वा.१-२॥ ११. इन्द्रधनुःसदृशम् ॥ १२. पूर्णिमायाः ॥ १३. दिशां दर्पणः ॥ १४.रूप्यमयः ॥ १५. करा: किरणा एव अङ्कुरा: तेषां प्ररोहेऽद्वितीयो महाकन्दसमानः॥१६.पताकाभिर्लासि० पा.॥१७.पताकारूपनर्तक्या नृत्यैकमन्दिरम् ।। १८.आमोदेन व्याप्तानि यानि प्रफुल्लकमलानि तैश्छन्नमुखः ।। १९. विशालपूर्ण० मु.आदिषु ।। २०.आसनम् ।। २१. कमलैः॥ २२.०रिवाऽभ्रमाला मन्दरस्थिता: पा. | मेघमालाम् ।। २३.कल्लोला एव हस्ता: तान् उदश्चयन् ऊ/कुर्वन्॥२४. पताकानां माला:-श्रेणयः, ता बिभर्तीति पताकामालभारि ॥२५.व्योम्नि दे. मु.खता.पाता. वा.१-२ विना ॥२६. विस्तीर्णकिरणैः ।। २७. ज्वालाभिः ॥२८. ग्रसन् ।। २९. अग्निः ।। ३०. कुशलः ।। ३१. वसुन्धरा ।। ३२. अशुभानि, उपद्रवाः ।। ३३. कुरुदेशे।। ३४. मर्यादा।। ३५. हरिण: चिहं यस्य सः तम् ।। ३६. सुवर्णस्य इव कान्ति: यस्य सः तम् ।। ३७. अघोलोकादयोऽष्टेयु० वा. १-२, ०दथाऽष्टे यु० मु. ।। ३८. ताम् सं. ला.छा.॥ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम: सर्ग:) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । जिनेन्द्र-जिनजनन्योरनत्यासन्नदूरतः। गायन्त्यस्तद्गुणांस्तस्थुर्गायन्य इव तास्तत:॥५५॥ अष्टोर्ध्वलोकादी(दे)युर्दिग्देव्य: प्राविधिपूर्वकम्। विकृत्याऽब्दान् सिषिचुःक्ष्मां गायन्त्योऽस्थुस्तथैव ताः॥५६॥ अष्टे(ष्टै)यु: पूर्वरुचका देव्यो दर्पणपाणयः। जिनं जिनाम्बां नत्वाऽस्थुर्गायन्त्य: पूर्वदिश्यथ॥५७।। देव्योऽपाग्रुचकादेयुरष्टौ भृङ्गारपाणयः । नत्वाऽर्हन्तं तदम्बांच गायन्त्योऽस्थुरपाग्दिशि॥५८॥ प्रत्यरुचकतोऽष्टे(ष्टै)युर्देव्यो नत्वा जिनाऽचिरे । गायन्त्यस्तद्गुणांस्तस्थुः प्रतीच्यां व्यजनाञ्चिताः॥५९॥ उदग्रुचकतोऽप्येत्य देव्योऽष्टौ तौ प्रणम्य च।उँदीच्यां चामरभृतस्तस्थुस्तद्गुणगायिकाः॥६०॥ विदिग्रुचकतोऽप्येत्य चतम्रो दिक्कुमारिकाः। प्राग्वन्नत्वा विदिक्ष्वस्थुर्गायन्त्यो दीपपाणयः ॥६॥ चतम्रो रुचकद्वीपान्त:स्था एत्य प्रणम्य तौ। नालं जिनेन्द्रस्य चतुरङ्गुलोत्कर्षमच्छिदन् ॥६२॥ खनित्वा विवरं द्रव्यनिधायं तत्र तंन्यधुः। रत्नैर्वब्रैस्तदाऽऽपूर्याऽऽबध्नन् पीठं च दूर्वया॥६३॥ सतिकावेश्मनस्तस्य पूर्वोदग्दक्षिणासु ता:। सचतुःशालानि रम्भासदनानि विचक्रिरे॥६४॥ नीत्वाऽर्हदचिरादेव्यौ दक्षिणे कदलीगृहे। रत्नसिंहासने मध्येचतुःशालं निवेश्य च॥६५॥ दिव्यैः सुरभिभिस्तैलैरभ्यानञ्जुरुभावपि। ततश्चोद्वर्तयामासुर्गन्धद्रव्यैः सुगन्धिभिः॥६६॥[युग्मम्] प्रारम्भासदने नीत्वा न्यस्य सिंहासने च तौ। ता देव्योऽस्नपयन् गन्ध-पुष्प-शुद्धोदकैस्ततः॥६७।। द्वावप्यामोच्य दिव्यानि वस्त्रालङ्करणानि ता:। उदरम्भागृहे नीत्वा रत्नसिंहासने न्यधुः॥६८॥ गोशीर्षचन्दनं क्षुद्रहिमाद्रेराभियोगिकैः। आनाय्याऽऽप्लुष्य चाऽबध्नन् रक्षाग्रन्थिं द्वयोरपि॥६९॥ पर्वतायर्भवेत्युच्चैर्वदन्त्यो जिनकर्णयोः । ता:समास्फालयामासूरत्नपाषाणगोलकौ॥७०॥ जिनेन्द्र-जिनजनन्यौ निन्युस्ता: सूतिकागृहे। पर्यङ्के न्यस्य तस्थुश्च गायन्त्योभगवद्गुणान् ॥७१।। तदा चाऽऽसनकम्पेन ज्ञात्वाऽर्हज्जन्म वज्रभृत्। पालकेन विमानेन तत्राऽऽगात् सपरिच्छदः ॥७२॥ नमस्तुभ्यं रत्नकुक्षिधारिणीति वदन्न्यधात्। शक्रोऽवस्वापनी देव्या रूपान्तरमथाऽर्हतः॥७३॥ पञ्चरूपस्ततो भूत्वा चतुर्भिरिव दर्पणैः। तत्र चैकेन रूपेण पाणिभ्यां प्रभुमुद्दधे॥७४॥ दधानश्चामरे द्वाभ्यां छत्रमेकेन चोज्ज्वलम्। एकेन च पुरो वैल्गन् वज्रमुल्लालयन् ययौ॥७५॥ क्षणाद् गत्वा मेरुशैलेऽतिपाण्डुकम्बलां शिलाम्। सिंहासने निषसादर्शक्रोऽङ्कारोपितप्रभुः॥७६॥ तदैवाऽऽसनकम्पेनाऽच्युताद्या अपि वासवा: । त्रिषष्टिरपि तत्राऽद्रौ ससङ्केता इवाऽऽययुः॥७७॥ हदिनीनाथ-हदिनी-हृदादिभ्य:समाहृतैः । पयोभिः पूरितै: कुम्भैरच्युतोऽस्नपयत् प्रभुम्॥७८॥ तं षोडशं तीर्थकर तीर्थाम्भस्कुम्भपाणयः। अन्येऽपिस्नपयामासुभषष्टिरपिवासवाः॥७९॥ पञ्चमूर्तिरथेशानो दधौ मूत्यैकया प्रभुम्। तिसृभिश्चामराद्यग्रे तस्थौ शूलभृदन्यया॥८०॥ भर्तुश्चतुर्पा पार्श्वेषु स्फाटिकांश्चतुरो वृषान् । शक्रो विचक्रे सपदि ककुब्भासानिवाऽमलान्॥८१॥ तद्विषाणाग्रनिर्यातैर्वारिभि: स्वामिनं हरिः। स्नपयामास विमलैर्धारायन्त्रोत्थितैरिव॥८२॥ ममार्ज देवदष्येणगोशीविलिलेपच। दिव्यालङ्कारमालाभिरानचंच हरिः प्रभम॥८३॥ आरात्रिकमथोत्तार्य स्वामिनो विधिपूर्वकम्। पवित्रं स्तोत्रमारेभे हर्षगद्गदया गिरा॥८४॥ “भगवन्! भवते विश्वजनीनायाऽद्भुतर्द्धये। संसारमरुमार्गकच्छायाविटपिने नमः॥८५॥ सञ्चितैनस्तमस्विन्या: प्रभातसमयो मया। त्वदीयं दर्शनं दिष्ट्याधिगतं परमेश्वर!॥८६॥ लोचनान्यपिधन्यानियैर्दृष्टोऽसि जगत्पते!। तेभ्योऽपिपाणयोधन्यास्त्वत्संस्पर्शोऽन्वभावियैः॥८७॥ १. गानकारिण्यः॥२. मेघान्।। ३. भूमिम्॥४. दक्षिणरुचकात्॥५. पश्चिमरुचकात्॥६. जिनं चअचिरांच नत्वा॥७. उत्तररुचकात्।। ८. उत्तरदिशि॥९. गर्तम् ।। १०. द्रव्य(धन)वत् निहित्वा । द्रव्यं निधाय मु.॥११. अभ्यङ्गं चक्रुः ।।१२. परिधाप्य॥१३. दग्ध्वा ॥१४. वल्गु मु.प्लवमानः॥१५. शक्राकारोपित: मु.॥१६. समुद्रः ॥ १७. नदी॥ १८. तीर्थाम्भं कुम्भपाणय: मु.॥१९. आदिशब्देन छत्रम् ।। २०. ईशानेन्द्रः ॥ २१. दिक्प्रकाशानिव ॥ २२. इन्द्रः ॥ २३. विश्वजनहिताय ।। २४.वृक्षाय ॥२५. सञ्चितपापान्येव रात्रिस्तस्याः।।२६. भाग्येन।। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (पञ्चमं पर्व विद्याधराणां महर्द्धिश्चक्र'वर्येकदाऽप्यसि। प्रकृष्टोऽस्येकदा देवो बलदेवोऽसि चैकदा॥८८॥ एकदाऽप्यच्युतेन्द्रोऽसि ज्ञानी चक्रभृदेकदा। एकदा त्वहमिन्द्रोऽसिग्रैवेयकविभूषणम् ।।८९॥ महासत्त्वोऽवधिज्ञानधरोराजाऽसि चैकदा। सर्वार्थसिद्धालङ्कारोऽहमिन्द्रः पुनरेकदा॥९०॥ क्वक्व जन्मनि नाऽभूस्त्वमुत्कृष्टः परमेश्वर!?। तीर्थकृज्जन्मना त्वद्य पर्याप्ता वर्णना गिरः॥९१॥ नेशोऽस्मि त्वद्गुणान् वक्तुं स्वमर्थं किन्तु वच्म्यहम्। भवेभवे भवतु मे भक्तिस्त्वत्पादपद्मयोः”॥९२॥ इति स्तुत्वेशमीशानात् पुनरादाय वज्रभृत्। आशु गत्वाऽचिरादेव्या: पार्श्वेऽमुञ्चद् यथास्थिति॥९३॥ स्वामिनो दृग्विनोदायोपरि श्रीदाम-गण्डकम् । देवदूष्ये कुण्डले चोच्छीर्षके तुन्यधाद्धरिः॥९४॥ अथेत्थं घोषयामासाऽमोघवाग् मघवाऽमरैः । अमरेष्वथ दैत्येषु मानवेष्वपि दुर्मतिः॥९५।। अर्हतोऽर्हज्जनन्याश्च योऽशुभं चिन्तयिष्यति। तस्याऽर्जकमञ्जरीव भेत्स्यते सप्तधा शिरः॥९६॥युग्मम्॥ रत्न-स्वर्णमहावृष्टिं नगरे हस्तिनापुरे। तत्राऽकरोद्वैश्रवण: पाकशासनशासनात्॥९७।। तांचाऽवस्वापनी देव्या: पद्मिन्या इव भास्कर: । हरिर्जहार तच्चाऽर्हत्प्रतिबिम्बं क्षणादपि।।९८॥ अथाऽर्हत: पञ्चधात्रीरादिश्याऽप्सरसो हरिः। ततो नन्दीश्वरेऽगच्छन् मेरोरन्ये तु वासवाः॥९९॥ शाश्वतार्हत्प्रतिमानां तत्र चाऽष्टाहिकोत्सवम्। विधाय विधिवत् प्रीता: सर्वे स्वं स्वं पदं ययुः॥१०॥ अंपनिद्रा ततो देवी दिव्यालङ्कार-वाससम्। दिव्याङ्गरागमुत्तेज:प्रसरं सूनुमैक्षत॥१०१।। आनन्दरभसोद्भान्तो गत्वा देव्या: परिच्छदः । राज्ञेऽशंसत्सूनुजन्म दिक्कुमार्यादिकर्मच॥१०२॥ ततश्च मुदितो राजाऽदात् तस्मै पारितोषिकम्। ऋद्ध्या चक्रे महत्या चसूनुजन्ममहोत्सवम् ॥१०३॥ अशाम्यन्नशिवान्यस्मिन् गर्भस्थ इति भूपतिः। तस्य नामाऽकरोत् प्रीत:शान्तिरित्यात्मजन्मनः॥१०४॥ शक्रसङ्क्रमितसुधं निजाङ्गुष्ठं क्षुधा पिबन्। धात्रीभिर्लाल्यमानश्च क्रमेण ववृधे प्रभुः॥१०५॥ आजन्म ज्ञानवृद्धोऽपि बाललीलायितानि सः। विविधानि व्यधात् सर्वंशोभते समयोचितम् ॥१०६।। आशातनाभीतभीता धुसदोऽरमयन् प्रभुम्। स्वामिना पांशुखेलाभि: स्वं महाघु चिकीर्षवः ॥१०७|| नि:शकं तांश्च पादादि क्रीडायां न न्यहन् प्रभुः । दयावीरा महात्मानः प्रसृतेऽन्यरसेऽपि हि॥१०८।। एवं च नानाक्रीडाभि: क्रीडन् क्रीडागृहं श्रियः । चत्वारिंशद्धनुस्तुङ्गः प्रपेदे यौवनं प्रभुः॥१०९॥ राजकन्या नरपति: शान्तिना पर्यणाययत्। पुत्रोद्वाहोत्सवानां हि न तृप्यन्ति महर्द्धयः॥११०॥ पञ्चविंशत्यब्दसहस्रान्ते शान्तिं महीपतिः । राज्ये न्यधान्निजं कार्यमन्वतिष्ठत् स्वयं पुनः॥१११॥ यथावत् पालयामास वसुधां विश्वसेनसूः। महतामवतारो हि विश्वपालनहेतवे॥११२॥ रेमे पाणिगृहीतीभिरचिरानन्दनोऽपि हि। निकाचितंभोगफलं भोग्यं कर्माऽर्हतामपि॥११३॥ पसर्वान्त:पुरमूर्धन्या तस्य पत्नी यशोमती। स्वप्नेऽपश्यन् मुखे चक्रं विशदभ्रान्तरर्कवत्॥११४।। तदा विमानात् सर्वार्थात् पूरयित्वाऽऽयुरात्मनः । जीवो दृढरथस्यर्षेस्तस्याः कुक्षाववातरत्॥११५।। तदानीमेव सा सुप्तोत्थिता देवी यशोमती। नाथाय शान्तिनाथाय तमाख्यत् स्वप्नमात्मनः॥११६|| ज्ञानत्रयधर: शान्तिस्वामी व्याख्यादिदं ततः। आसीद्दृढरथो नाम मम जन्मान्तरेऽनुजः ॥११७।। च्युत्वा विमानात् सर्वार्थात् स इदानीं तवोदरे। अवातारीत् तेनूजं तं समये प्रसविष्यसे॥११८॥ तदमोघं वच: पत्युःप्रगेऽब्दस्येव गर्जितम्। श्रुत्वा प्रमुदिता देवी सद्यो गर्भ बभार तम्॥११९॥ १.०वर्ती कदाप्यसि मु.॥२.त्वं महेन्द्रोऽसि मु.॥३. ईशानेन्द्रात्॥४.०स्थिति: मु.॥५.योषयामास मोघ० मु.॥६. इन्द्रः॥७. अर्जको वृक्षविशेषः॥ ८.धनदः ॥९. इन्द्राज्ञया॥१०.स्वस्वपदं मु.॥११. अपगता निद्रा यस्या: सा॥१२. एव मु.॥१३.०नामाऽकरोच्छान्तिनाथ इत्या० खंता. पाता. वा.१२, छा. दे. मु. विना ॥१४. धूलिक्रीडाभिः ।। १५. मूल्यवन्तम् ॥१६. व्यहन् मु.॥१७. प्रस्तुते खंता. पाता. वा.१-२ ता. मु. विना ॥१८. विश्वसेनभूः ला.॥ १९. भार्याभिः ।। २०. मेघान्त: सूर्यवत् प्रविशत् ।।२१. लघुभ्राता ।। २२. पुत्रम् ॥२३. सत्यम् ।। २४. प्रात:काले। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । काले चसुषुवे पुत्रं पवित्रं पूर्णलक्षणम् । देवा यशोमती पत्युः प्रतिबिम्बमिवाऽद्भुतम् ॥१२०॥ गर्भस्थेऽस्मिन् यशोमत्या स्वप्ने यच्चक्रमीक्षितम् । तेन चक्रायुध इति तस्य नामाऽकरोत् पिता॥१२१॥ चक्रायुधोऽपि ववृधे करिपोत इव क्रमात्। धात्रीभिाल्यमान: सन् नृलोकतिलकोपमः॥१२२॥ यौवनं युवतीवर्गविलोचनविमोहनम्। अनङ्गलीलोपवनं प्रापचक्रायुधः क्रमात्॥१२३॥ स्वयंवरा: श्रिय इव रूप-लावण्यशालिनी:। अनेकशोराजपुत्री: पिता तेनोदवाहयत्॥१२४।। बाश्रीमत: शान्तिनाथस्य राज्यं पालयत: सतः। व्यतियान्ति स्म वर्षाणांसहस्रा: पञ्चविंशतिः॥१२५।। शान्तेरथाऽस्त्रशालायां विशालज्योतिराचितम्। अभूच्चक्रमुपपादशय्यायामिव निर्जरः॥१२६॥ तस्य चाऽकारयत्स्वामी चक्रस्याऽष्टाहिकोत्सवम्। पूजामाचारपूज्यस्य पूज्या अपि हि कुर्वते॥१२७।। पतच्चक्रमस्त्रशालाया: पयोराशेरिवाऽर्यमा। चचाल पूर्वाभिमुखं मुखं दिग्विजयश्रियः॥१२८॥ अरैरिव सहस्रेण यक्षैस्तत्समधिष्ठितम्। अन्वचालीन् महीपाल: सैन्यच्छन्नमहीतलः॥१२९॥ दिने दिने योजनं तद् गत्वा चक्रमवास्थित। द्वादशयोजनायामं कृत्वा च शिबिरं प्रभुः॥१३०॥ एवं दिने दिने गच्छन्नच्छिन्नं विश्वसेनसू:। आसदन् मागधं तीर्थं पूर्वाब्धिमुखमण्डनम्॥१३१॥ स्कन्धावारं दृढस्कन्धः श्रीशान्तिस्तस्य रोधसि। अलब्धमध्यमम्भोधिमिव सद्यो न्यवीविशत्॥१३२॥ ततो मागधतीर्थाभिमुखं सिंहासनोत्तमे। जिगीषुरप्यनाबद्धविकारो न्यषदत् प्रभुः॥१३३॥ ततो द्वादशयोजन्यां तस्थुषो मागधेशितुः । सिंहासनं तदा सद्य: खञ्जपादमिवाऽचलत्॥१३४॥ अथ सञ्चिन्तयामास मनसा मागधेश्वरः। किमपूर्वमिदमहो! चलितं यन्ममाऽऽसनम् ?॥१३५।। किं नु च्यवनकालो मे सम्प्रत्ययमुपस्थित:? | ऋद्धिं ममाऽसहिष्णुः किं कोऽप्यचालयदासनम् ?॥१३६|| एवमुत्पन्नसन्देहः प्रयुक्तावधिनाऽथ सः। अज्ञासीदागतंशान्तिं चक्रिणं धर्मचक्रिणम्॥१३७।। भूयोमागधतीर्थाधिपतिरेवमचिन्तयत्। अज्ञानचिन्तितमिदं धिगहो! मे शिशोरिव॥१३८॥ अयं हि षोडशस्तीर्थकरश्चक्रीच पञ्चमः । मांप्रत्यस्त्येवमासीनोऽनुकम्पार्गलित: प्रभुः ॥१३९॥ त्रिजगत्त्राण-संहारक्षमदोष्णो जगत्पतेः। पुरस्तादस्य कोऽस्म्येष खद्योत इव भास्वत:?॥१४०॥ अच्युतेन्द्रादयो यं च पदातिवदुपासते। तस्मिन् भक्तिं करिष्यामि कीदृशीमहमीदृश: ? ॥१४१॥ तथाऽपि हि जगन्नाथममुंस्वयमिहाऽऽगतम्। वाससो देशयेवेन्दुमर्चयामि स्वसम्पदा॥१४२॥ इति निश्चित्य मनसा गृहीत्वोपायनं महत्। नाथो मागधतीर्थस्य शान्तिनाथमुपस्थितः॥१४३॥ सोऽन्तरिक्षस्थितो नाथं प्रणम्यैवमवोचत। दिष्ट्या मां त्रिजगन्नाथाऽन्वग्रही: पत्तिमात्रकम्॥१४४॥ एषोऽस्मि शासनधर: पूर्वदिक्पालकस्तव। दुर्गपाल इवाऽऽदेश्यस्त्वया स्वामिन्नहर्निशम्॥१४५।। एवमुक्त्वा नमस्कृत्य सोऽर्पयामास भक्तित:। दिव्यालङ्कार-वस्त्राणिशय्यापाल इव प्रभोः॥१४६॥ श्रीशान्तिरपि सत्कृत्य गीर्वाणं विससर्ज तम्। प्रतस्थे चक्ररत्नंच दक्षिणाभिमुखं ततः॥१४७|| पादक्षिणाम्भोनिधेरोधस्यरुद्धप्रसरः प्रभुः। चक्रमार्गानुगोऽथाऽगादगाधभुजविक्रमः॥१४८॥ उद्दिश्य वरदामानमनाक्षेपो जगत्पतिः। तीरे नीरनिधे रत्नसिंहासन उपाविशत्॥१४९॥ ज्ञात्वा चाऽवधिनाऽऽयातंवरदामपति: प्रभुम्। गृहीतोपायनोपायोऽपायरक्षार्थमाययौ॥१५०॥ सोऽपि नाथं नमस्कृत्य तस्य सेवां प्रेतीष्य च। उपायनमुपानषीद दिव्यालङ्करणादिकम्॥१५१।। १. त्रिलोकति० छा. ॥२. ज्योतिषा-तेजसा अन्वितम् । विशालज्योतिरोचितम् ला., विशालज्योतिराजितम् मु.॥३. देवः ॥४. सूर्यः ।। ५. सततप्रयाणेनेत्यर्थः ॥ ६. विश्वसेनभूः ला. दे.॥७. निर्विकारः ।। ८.०मासीनोऽनुकम्पागलित: मु.। दयारुद्ध:-अनर्गलदयावान् ।।९. त्रिजगतां रक्षणे नाशे च समर्थबाहोः ॥१०. सूर्यस्य ॥११. वस्त्रस्योभयप्रान्ततन्तुर्दशेत्युच्यते ॥१२. मुपास्थित मु.॥१३. शान्तिनाथम् ।।१४. भाग्येन ॥१५. अस्खलितगमनः ।। १६. अनाकुलः ॥१७. अपायात् नाशाद् रक्षायै स्वस्येति यावत् , गृहीतमुपायनं तद्रूप उपायो येन सः ।। १८. तस्यासेवां मु.॥१९. प्रतीक्ष्य ता. पा. विना। स्वीकृत्य ॥२०. अदात्।। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (पञ्चमं पर्व सप्रसादं तमालम्ब्य विससर्ज जगत्पतिः । चक्ररत्नमचालीच्च प्रति प्राचेतसी दिशम् ॥१५२॥ पानागवल्लीवनाबद्धपूगद्रुमसमाकुले। कूले प्रतीच्यजलधे: स्कन्धावारं न्यधाद् विभुः॥१५३॥ चलितासन: प्रभासपति: सिंहासनस्थितम् । एत्य श्रीशान्तिमानपँतीयेष चशासनम्॥१५४॥ पासिन्धुदेवीमथोद्दिश्य पश्चिमोत्तरवर्त्मना। चक्रं प्रतस्थे तन्मार्गानुग: शान्तिरपि प्रभुः॥१५५॥ निकषा सिन्धुसदनं दक्षिणे सिन्धुरोधसि। स्वामी न्यधत्त शिबिरं चलन्नगरसन्निभम् ॥१५६।। सिंहासनमथाऽध्यास्य सिन्धुं मनसिकृत्य च। तस्थौ तत्सन्मुख: स्वामी योगीवाऽऽकृष्टितत्परः ॥१५७।। आयातंस्वामिनं ज्ञात्वाऽवधिना सिन्धुदेव्यपि। उपात्तोपायना सद्यो भक्तितस्तमुपाययौ॥१५८॥ सा शान्तिस्वामिनं नत्वा जगादैवं कृताञ्जलिः। आदेशकारिणी देशेऽस्मिन्नस्मि पृतनेव ते॥१५९॥ इत्युक्त्वा साऽर्पयामास भक्तिप्रह्वा जगत्पतेः । रत्नस्वर्णस्नानपीठ-कलशान् भूषणादि च॥१६०॥ पाततश्चचाल तच्चक्रं सानीकः शान्तिचयपि। दिशोर्दक्पूर्वयाऽऽपच्च वैताढ्योपत्यकाभुवम्॥१६१॥ श्रीशान्तिस्वामिनस्तत्र वैताढ्याद्रिकुमारकः । प्राभृतान्यर्पयामास बभूव च वशंवदः॥१६२॥ चक्रमार्गानुग: स्वामी तमिस्रां निकषा गुहाम्। जगाम विदधे चाऽऽशु कृर्तमालामरं वशे॥१६३॥ पाश्रीशान्तिशासनात् सिन्धुनदीमुत्तीर्य चर्मणा। सेनानी: साधयामास सिन्धोदक्षिणनिष्कुटम् ॥१६४॥ ततश्चोद्घाटयामास तमिमां पृतनापति: । कपाटौ ताडयन् दण्डरत्नेनाऽमोघशक्तिना॥१६५।। गजरत्नं समारूढः प्ररूढप्रौढविक्रमः। तस्यां गुहायां संबल: स्वामी सिंह इवाऽविशत्॥१६६॥ दक्षिणे कुंम्भिन: कुम्भेमणिरत्नं तमश्छिदे। उदयाद्राविवाऽऽदित्यं विदधे विश्वसेनसूः॥१६७॥ काकिणीरत्नमादाय पाणिनोभयतः प्रभुः। क्रमादेकोनपञ्चाशन्मण्डलान्यालिखन् ययौ॥१६८॥ ततोवर्धकिरत्नेन गुहारथ्यान्तरस्थयोः । स्वाम्युन्मना-निमग्नाख्यनद्यो: पंद्यामबन्धयत्॥१६९।। उत्ततार तरङ्गिण्यौ दुस्तरे अपि पद्यया।शान्तिनाथ: ससैन्योऽपि सर्वमप्य॒जु दोष्मताम् ॥१७०॥ गुहाया उत्तरद्वारं स्वयमुज्जघटे क्षणात्। प्रभावात् स्वामिनः प्रात: पद्मिनीकोशवद्रवेः॥१७१।। तस्या गुहाया द्वारेण ससैन्यस्तेन निर्ययौ। सर्वत्राऽस्खलितो मार्ग: प्रभूणां स्रोतसामिव॥१७२॥ गुहाया निःसृतं तस्या: ससैन्यं प्रेक्ष्य चक्रिणम्। म्लेच्छाः सम्भूय सम्भूय सोपहासमदोऽवदन् ॥१७३।। अरेरे! कोऽयमायातोऽप्रार्थितप्रार्थकोऽधना। अस्मद्देशे सिंहयथाक्रान्तारण्य इव द्विप: ?||१७४|| यथेष्टमुट्टीकमाना भटंमन्या पदातयः। धूलीधूसरसर्वाङ्गा: के न्वमी रासभा इव ? ॥१७५।। आरूढकरिण: केऽमी वृक्षस्था: प्लवगा इव ? । केऽमी चतुरगारूढास्तरङ्गस्था इवाऽऽटय: ? ॥१७॥ अमी किं पङ्गव इवाऽधिरूढा: स्यन्दनेषु च?। अङ्गारशकटीप्रायमय:खण्डमिदं च किम् ? ॥१७७॥ अहो! एषामनालोच्यकारित्वमसुमेधसाम् । सम्भूयैभिर्यदारेभेशृगालैरिव जागरः॥१७८॥ अथवैतानुपेक्ष्याऽलं विषं वैरी ह्युपेक्षितः । वयमेतान् हनिष्याम: काकोला: शलभानिव॥१७९॥ एवमन्योन्यमुक्त्वा ते विविधायुधपाणयः। प्रावर्तन्ताऽग्रसैन्येन योद्धं श्रीशान्तिचक्रिणः॥१८०॥ १. तमालप्य० मु. खंता. इत्यादिषु ॥२. पश्चिमाम्॥३. तीरे। प्रतीच्यजलधे: स्कन्धे स्कन्धा० मु.॥४. अङ्गीचकार ॥५. वायव्यदिक्मार्गेण ॥६. समीपे ॥ ७.सिन्धु सदनं मु.॥८.आकर्षणतत्परः।। ९. सेना ॥१०. भक्तिनम्रा ॥११. रत्न-स्वर्णस्नानपीठं कलशान् ला.॥१२. ससैन्यः॥१३. ईशानदिशा ॥१४. कृतमालं वशंवदम् पा.॥१५. चर्मरत्नेन ॥१६. देशविशेषम् ।।१७. सेनापतिः ।। १८. सबलस्वामी मु.॥१९. गजस्य।।२०. तमसश्छेदार्थम् ।। २१. निदधे ता. पा.॥२२. काकणी० खंता. पाता. वा.१-२॥२३. गुहामार्गमध्यस्थितयोः ।। २४. सेतुम् ।। २५. सरलम् ॥ २६. स्वामिनो वासरमुखे दे. मु. विना,खंता. पाता.वा.१-२॥२७. अप्रार्थितस्य मृत्योः प्रार्थयिता॥२८. उत्प्लुत्यमानाः॥२९. के त्वमी मु.॥३०. वानराः ॥३१. इवातय: ता.पा.ला. खंता. वा.१-२; आटय: मत्स्याः , आतयः शरारिपक्षिविशेषाः, “आटिराति: शरारि: स्यात्" [अभि. चिं. का. ४.श्लो.१३३८] ॥३२. श्लोकोऽयं पाता. प्रतौ नास्ति ।। ३३. मणुमेधसाम् पा. । अशोभना बुद्धिर्येषां ते 'मूर्खा' इत्यर्थः ॥ ३४. वायसविशेषाः ।। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम: सर्गः) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । निजघ्नुः परिघै: केऽपि वल्मीकानिव कुञ्जरान्। गदाभि: 'स्यन्दनानेकेऽपिषन् घटकपालवत्॥१८१।। शर-शूलै: केऽपि विद्ध्वाऽश्वान् श्वाविध इव व्यधुः । शल्यैरकीलयन् पत्तीन् केऽपि मन्त्रैः परेतवत्॥१८२।। इत्थं विचित्रं निघ्नन्तस्तन्वन्तस्तुमुलं महत्। वारंवारं करास्फोटं कुर्वाणा: सिंहनादिनः॥१८३॥ उल्ललन्तो दुर्ललिता किराता: प्लवगा इव। अग्रसैन्यं वनमिवाऽभामुस्ते चक्रवर्तिनः॥१८४॥ सैन्यानां जातभङ्गेन श्रीशान्तेः पृतनापतिः। हताशन इवाऽऽहत्या दीप्यमानोऽतिभीषणः॥१८५।। कृतान्त इव सन्नद्धःखड्गरत्नं करेऽदधत्।अश्वरत्नं समारुह्य किरातान् प्रत्यधावत॥१८६||युग्मम्।। सेनानी-वाजि-निस्त्रिंशास्त्रीणि रत्नानि तानितु। संयुक्तासेमलक्ष्यन्त त्रयोऽग्नय इवैकतः॥१८७।। गरुड: पादचारीव पाटयन्निव भूतलम् । सेनान्यो मनसा तुल्यं प्रससार सवाजिराट् ॥१८८॥ सादिनः पत्तयो वाऽपि किराता: स्थातुमग्रतः। न ह्यलम्भूष्णवोऽभूवन्नद्योघस्येवशाखिनः॥१८९।। रन्ध्रेषु केऽप्यदुर्झम्पां केऽपि कुञ्जेषु लिल्यिरे। गिरिषु प्राविशन् केऽपि बुब्रुडु: केऽपिवारिषु॥१९०॥ तत्यजुः केचिदत्राणि स्ववस्त्राण्यपरे जहुः । मृतीभूयेव केऽप्यस्थुर्निश्चेष्टं लुठिता भुवि॥१९१॥ केषाञ्चिद् बाहव: पेतुः शाखा इव महीरुहाम्। शिरांसि च फलानीव दलानीव करा अपि॥१९२।। दन्ता निपेतुः केषाञ्चित् केषाञ्चिच्चरणा पुनः । केषाञ्चित् पुस्फुटुंस्तुम्बपात्रवच्च करोटयः॥१९३॥ सेनान्यामश्वरत्नेन गाहमाने रणार्णवम्। किं किं विपत्तये नाऽऽसीद् विद्विषां यादसामिव ?॥१९४।। एवमालोडितास्तेन ते किराता: क्षणादपि। जग्मुर्दिशो दिशं सर्वे पवनोद्भूततूलवत्॥१९५॥ ते योजनानि भूयांसि गत्वैकत्राऽमिलन्नथ। मन्त्रयाञ्चक्रिरे चैवममर्ष-व्रीडपीडिताः॥१९६॥ अहो! किमिदमस्माकमाकस्मिकमुपस्थितम् ?। यत् कश्चिदेष वैताढ्यं लङ्घित्वेह समाययौ॥१९७।। तत्राऽपि चाऽतिमात्रेण सैन्येनाऽनन्यसन्निभः। छादयामास न: पृथ्वीमुद्वेल इव वारिधिः ॥१९८॥ पदातिमात्रं तस्याऽपि कोऽप्येकाङ्गोऽयमुद्भटः । भटोऽस्मान् कुट्टयामास चिरं सुभटमानिनः॥१९९।। अन्योऽन्यस्याऽपि जिहीम: प्राक्शौर्योच्छूनबाहवः । अत: परं मुखमपि न स्वं दर्शयितुं क्षमाः॥२००॥ अधुना प्रविशाम: किं दीप्यमानं हुताशनम् ? । झम्पादयोऽथवा मर्तुं गिरिशृङ्गाद् गरीयसः ? ॥२०१॥ स्वयं कैवलयाम: किं कालकूटं समुत्कटम् ?। दोलावल्लम्बयाम: किं बद्ध्वा स्वंशाखिमूर्धसु?॥२०२॥ स्वोदरं दारयाम: किं शस्त्रीभिर्जीर्णचीरवत् ? । दशनैः खण्डयाम: किं जिह्वामारुखण्डवत् ? ॥२०३॥ येन तेन प्रकारेण मरणं शरणं हि नः । एवं पराभवाक्रान्त: को मानी जीवितुं क्षम: ? ॥२०४॥ यदि वैक उपायोऽस्ति परेषांसाधनाय नः आह्वयामो वयं मेघमुखान् स्वकुलदेवताः॥२०५॥ क्षीणोपायविशेषाणांक्षीणपौरुषसम्पदाम् । परैराक्रम्यमाणानांशरणं कुलदेवताः॥२०६॥ इति निश्चित्य सर्वेऽपि सिन्धो रोधसि ते ययुः । चक्रिप्रतापसन्तप्ता मिमसव इवाऽम्भसि॥२०७॥ दीना दिग्वासस: सर्वे ते तत्रोत्तानशायिनः । तस्थुरेरितसर्वस्वा द्यूतकारनरा इव॥२०८॥ एवं स्थितास्ते सम्भूय प्रसादाय पयोमुचाम्। अकार्पुरष्टमतपो भक्तिग्राह्या हि देवताः॥२०९॥ तपोऽन्तेऽब्दमुखा देवा : प्रादुर्भूता दिवि स्थिताः । ऊचुर्मा भैष्ट मा भैष्ट वत्सा:! का वोऽतिरुच्यताम्॥२१०॥ म्लेच्छा अप्यूचिरे चक्री कश्चिदेष निहन्ति नः । तद्भयादिह नष्टा: स्म: काकनाशमिमे वयम्॥२११॥ त्रायध्वं भगवन्तोऽब्दास्त्रातारो यूयमेव नः। उन्मूढे हि क्षुते प्रायेणैकः शरणमर्यमा॥२१२॥ १.स्यन्दनानेकेऽपिंषन् छा.दे. मु.,स्यन्दनान् केऽप्यपिषन् ला. ता.,स्यन्दनान् केऽप्यपिषन् पा. सं.॥२.भाषायां 'शाहुडी' इति ॥ ३. प्रेतवत् ॥ ४. बिभीषणं सं.दे.ला.॥५.०समलक्ष्यन्ते पाता. वा.१-२॥६. 'दक्षिणाग्निर्हपत्याहवनीयौ त्रयोऽग्नयः' [अमरकोश ब्रह्मवर्ग श्लो.१९] दक्षिणाग्नि: गार्हपत्याग्निः आहवनीयाग्निः एते त्रयोऽनयः स्युः ।। ७.नदीपूरस्येव ॥८. लीना बभूवुः ॥९. दुहवुः ता. पा. मु.॥१०.०टुस्तुच्छपात्र. मु. ॥११. शिरोस्थि ॥ १२. एवमालोकितास्तेन दे. मु.॥१३. क्रोध-लज्जापीडिताः ।।१४. शौर्येण ऊर्ध्वबाहवः ।।१५. अद्यः ।।१६. छुरिकाभिः ।। १७. जीर्णवस्त्रवत् ।। १८. एर्वारु: भाषायां 'काकडी' इति ख्यातः; oमैरुि० मु.॥१९. मङ्क्तुमिच्छवः, टुमस्जोत् शुद्धौ(सि.१३५२)॥२०. नग्नाः ॥ २१. क्षुतं छिक्का, क्षुते रुद्धे सूर्यः शरणम् ॥ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ कलिकालसर्वज्ञश्री हेमचन्द्राचार्यप्रणीतं म्लेच्छा' नथाऽऽदिशन् देवा 'मेघास्या अद्य वो रिपून् । आप्लाव्याऽद्भिर्हनिष्यामः शीतलेनाऽपि मृत्युना ॥ २१३॥ शान्तिसैन्येऽम्बुधाराभिरायसैर्मुसलैरिव। कर्तुमारेभिरेऽथाऽब्दा महीमेकार्णवामिव ॥ २१४॥ " आप्लाव्यमानं सलिलेनाऽऽलोक्य शिबिरं निजम् । चक्रभृत् पञ्चमश्चर्मरत्नं पस्पर्श पाणिना ॥ २१५॥ तच्चर्मरत्नं ववृधे सद्यो द्वादशयोजनीम् । सेवालजाल- डिण्डीरपिण्डवच्चाऽतरत्तराम् ॥२१६॥ श्रीशान्तिशासनात् तत्र चर्मरत्नेऽखिलं बलम् । आरुरोहोडुप इव निष्कीलित इव स्थिरे ॥ २१७॥ चर्मवत् पाणिना स्पृष्ट्वा कृत्वा द्वादशयोजनीम् । सैन्योपरि छत्ररत्नमतनोच्छान्तिचक्रभृत् ॥२१८॥ छत्रस्य दण्डमूले च गवाक्ष इव दीपकम् । मणिरत्नं न्यधाद् ध्वान्तध्वंसाय नृशिरोमणिः ॥ २१९ ॥ उप्ता: प्रभाते मध्याह्ने निष्पन्नास्तत्र शालयः । सैन्यैर्बुभुजिरे गेहिरत्नस्य महिमा ह्ययम् ॥ २२०॥ तस्थावहानि सप्तैवं ससैन्यः शान्तिचक्रभृत् । सांयात्रिक इवाऽम्भोधौ तस्मिन्नेकजलेऽपि हि ॥ २२९ ॥ तस्याऽथ किङ्करसुराः कुपिता: शँस्त्रपाणयः । इत्यूचिरे मेघमुखकुमारांस्त्रिदिवौकसः॥२२२॥ अरे! किमेतदारब्धमविमृश्यविधायिनः ! ? । स्वशक्तिं परशक्तिं च न जानीथ हताशयाः ! ? ।। २२३ ॥ अभ्रंलिहाग्रशिखरः सुवर्णशिखरी क्व च । जानुदघ्ना वामलूराः क्व च मृद्वालुकामयाः ? ॥२२४॥ जगद्द्योती क्व मार्तण्ड: ? क्व च खद्योतपोतका : ? । क्व स्थामधाम गरुडो ? निःसाराः शलभाः क्व च ? ॥ २२५॥। क्व नागराजो भूधर्ता ? वराकाः क्व च 'जिला: ? । स्वयम्भूरमणः क्वाऽब्धि: ? क्व च स्रोतांसि वेश्मनाम्? ॥२२६॥ क्वैष चक्रधरस्तीर्थकृच्च त्रैलोक्यवन्दित: ? । वराकाः क्व भवन्तश्च जय्या अस्मादृशामपि ॥ २२७॥ चतुर्भिः कलापकम्।। यात यात द्रुतं तस्मादपराधमतः परम् । न सहिष्यामहे हन्त वयं श्रीशान्तिकिङ्कराः ॥२२८॥ इति साटोपमुक्तास्तैर्ययुर्मेघमुखाः सुराः । म्लेच्छानबोधयंस्तांश्च शरणं शान्तिरेव वः ॥ २२९ ॥ शिष्टा मेघमुखैस्तेऽपि म्लेच्छा निःश्वस्य किञ्चन । पर्यशाम्यन् गतामर्षा द्विपा गतमदा इव ॥ २३० ॥ वाहनानि विचित्राणि चित्राण्याभरणानि च । वासांसि च महार्घाणि रूप्य स्वर्णोत्करानपि ॥२३१॥ प्रभोरुपायनीकृत्य किराता: शरणार्थिनः । सर्वाङ्गलुठनैर्भूमिं मृजन्तस्ते समाययुः ॥ २३२ ॥ युग्मम्|| समर्प्यपायनं शान्तेस्ते प्रणम्यैवमब्रुवन् । सदाऽप्यदन्ताः स्मः स्वामिन्नरण्यवृषभा इव ॥ २३३ ॥ ततोऽस्माभिरजानद्भिस्त्वां स्वामिनमिहाऽऽगतम् । रभसादपराद्धं यत् तत्सहस्व प्रसीद नः ॥ २३४ ॥ स्वाम्यस्यतः परं त्वं न: शाधि साधितभूतल ! । स्थास्यामस्तावकीभूय भूयः किं ब्रूमहे वयम् ? ॥२३५॥ एवमुक्त्वा स्थितान् म्लेच्छान् स्वीकृत्याऽन्वग्रहीत् प्रभुः । असाधयच्च सेनान्या सिन्धोरुत्तरनिष्कुटम् ॥२३६॥ छादयन्नन्तरं गङ्गा-सिन्ध्वोः सैन्यैर्निरैन्तरैः । सोऽक्षुद्रपृतनः क्षुद्रहिमाद्रिमगमत्ततः ॥२३७॥ गोशीर्षचन्दनैः पद्महदाम्भोभिरथाऽपरैः । रत्नैरानर्च हिमवत्कुमारः शान्तिचक्रिणम् ॥ २३८ ॥ गत्वा ऋषभकूटाद्रौ समादाय च काकिणीम् । शान्तिश्चक्रीत्यक्षराणि कॅल्प इत्यलिखत् प्रभुः ॥ २३९॥ ततो रथस्थो ववले शान्तिः शान्तारिपौरुषः । प्राप क्रमेण वैताढ्यपर्वतोपत्यकाभुवम् ॥ २४०॥ विद्याधरनृपैस्तत्र श्रेणिद्वितयवर्तिभिः । सच्चक्रे चक्रवर्ती स इहामुत्र च शर्मणे ॥ २४९ ॥ ॥अथ गङ्गातटे गत्वा गङ्गां स्वयमसाधयत् । सेनान्या साधयामास गाङ्गं चोत्तरनिष्कुटम् ॥ २४२॥ हां खण्डप्रपाताख्यामापपात ततः प्रभुः । नाट्यमालामरं तत्र चकार च वशंवदम् ॥२४३॥ सेनानीर्दण्डरत्नेनोद्घाटयामास तां गुहाम्। चक्र रत्नानुगः शान्तिचक्रभृत् प्रविवेश च ॥ २४४ ॥ १. म्लेच्छानप्या० मु.प्रभृतिषु ॥ २. मेघमुखाः ॥ ३. लोहमयैः ।। ४. समुद्रफेनवत् ॥ ५.० पिण्डवच्चान्तरम्भसाम् पा., ० पिण्डवच्चान्तरन्तरम् सं. छा.ला. ॥ ६. निष्कीलित(नांगरेली) नौकायाम् ॥७.० शस्त्रधारिणः मु.प्रभृतिषु, पाता. वा. १-२ ॥ ८. मेरुः ।। ९. वल्मीका ।। १०. निर्विषसर्पाः ॥११. श्रीशान्तिनाथकिङ्कराः खंता. ।। १२.० महार्घ्याणि खंता. पाता. वा. १-२ ।। १३. उद्धताः ॥ १४. ० साधितभूतल: मु.प्रभृतिषु, पाता. वा. १ - २ । १५. अन्तररहितैः ।। १६. बृहत्सैन्यः ॥ १७. काकणीम् खंता. पाता. वा. १-२ ।। १८. आचार: ।। (पञ्चमं पर्व For Private Personal Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम: सर्गः) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । पूर्ववन्मणिरत्नेन काकिणीमण्डलैरपि। गुहागृहे ध्वान्तशान्तिं शान्तिर्दीपैरिव व्यधात्॥२४५।। लीलयोन्मग्न-निमग्नजलेनद्यौस पद्यया। उत्ततार ससैन्योऽपि दष्करं नास्ति दोष्मताम्॥२४६।। स्वयमुद्घाटितेनाऽपारद्वारेण पृतनान्वितः । गुहाया निरगात् तस्याः पञ्चानन इव प्रभुः॥२४७|| न्यधत्त विपुले गङ्गापुलिने शिबिरं प्रभुः । गङ्गातरङ्गतरलैस्तुरङ्गैः समलङ्कृतम्॥२४८॥ नैसर्पप्रमुखास्तत्र गङ्गामुखनिवासिनः । नवाऽपि निधयः शान्तेरेत्याऽभूवन् वशंवदाः ।।२४९॥ स्वच्छन्दंम्लेच्छभूमिष्ठं गाङ्गं दक्षिणनिष्कुटम्।साधयामास सेनान्या पल्लिमात्रमिव प्रभुः॥२५०॥ इत्थंभरतषट्खण्डमरिषड्वर्गवत्प्रभुः । साधयित्वाऽष्टभिर्वर्षशतैर्निववृते ततः ॥२५१॥ प्रयाणैरनवच्छिन्नैश्छिन्दन मार्ग दिने दिने। आजगाम श्रियां धाम नहस्ती हस्तिनापुरम् ॥२५२।। पौरैयाम्यैश्च सोत्कण्ठैनिर्निमेषैः सरैरिव। वीक्ष्यमाणोशान्तिनाथो ययौ निजनिकेतनम् ॥२५३।। अमरैर्बद्धमुकुटैनरेन्द्ररपरैरपि। विदधे चक्रवर्तित्वाभिषेकः शान्तिचक्रिणः॥२५४॥ अभिषेकोत्सवश्चाऽभून्नगरे हस्तिनापुरे। अपदण्ड-शुल्क-भटप्रवेशो द्वादशाब्दिकः ॥२५५।। तत: पृथक् पृथग्यक्षसहस्राधिष्ठितात्मभिः। सचतुर्दशभी रत्नैर्निधिभिर्नवभिः श्रितः॥२५६॥ चतुःषष्ट्या सहस्रैश्चाऽऽवृतोऽन्त:पुरयोषिताम्। लक्षैश्चतुरशीत्येभे-रथाश्वस्य च भूषितः॥२५७|| ग्रामाणां पैदिकानां च कोटिषण्णवते: प्रभुः। द्वात्रिंशत: सहस्राणां भूभुजां नीवृतामिव॥२५८॥ सेवित: सूपकाराणां त्रिषष्ट्यग्रैस्त्रिभिः शतैः। श्रेणि-प्रश्रेणिभिश्चाऽष्टादशभिः शोभमानभूः।।२५९।। महापुरसहस्राणां पाता द्वासप्ततेस्तथा। एकसहस्रोनद्रोणमुखलक्षस्य शासिता॥२६०॥ पत्तनाष्टाचत्वारिंशत्सहस्राणामधीश्वरः। चतुर्विंशसहस्राणां कर्बटानां मैडम्बवत्॥२६१।। रत्नाद्याकरसहस्रविंशतेरप्यधीशिता। षोडशानां तथा खेटेसहस्राणां च शासकः॥२६२॥ चतुर्दशानां सम्बाधसहस्राणामपि प्रभुः । पञ्चाशतं डधिकांस्त्रायमाणोऽन्तरोदकान्॥२६३।। पञ्चाशत: कुंराज्यानामेकोनायाश्च नायकः। किमन्यदुपभुञ्जान: षट्खण्डमपिभारतम्॥२६४|| गीतैस्यैिस्ताण्डवैश्च नाटकाभिनयैरपि। पुष्पोच्चय-जलक्रीडादिभिश्चाऽनुभवन् सुखम्॥२६५॥ आरभ्य चक्रवर्तित्वाच्चक्रवर्ती स पञ्चमः । गमयामास वर्षाणांसहस्रान् पञ्चविंशतिम्॥२६६॥ पाब्रह्मलोके तदानींचलोकान्तिकदिवौकसाम्। आसनानिस्मकम्पन्ते दोलितानीव केनचित्॥२६७|| किमेतदिति सम्भ्रान्ता देवा:सारस्वतादयः। प्रायुञ्जताऽवधिं सम्यग्ज्ञात्वा चैवं मिथोऽवदन्॥२६८।। अयि! द्वीपे जम्बद्वीपे भरतार्धेचदक्षिणे। अर्हत:शान्तिनाथस्य दीक्षाकालोऽयमागतः॥२६९॥ १.काकणी० खंता. पाता. वा.१-२॥२. दक्षिणद्वारेण ॥ ३. विभुः सं. ता. दे. छा.॥४. 1.नैसर्पः, 2.पाण्डुकः, 3.पिङ्गलः, 4.सर्वरत्नकः, 5.महापद्य:, 6.काल:, 7.महाकाल:, 8.माणव:,9.शङ्खः ॥५. जित्वा ततो निववृते भित्त्वा मेघमिव द्विपःसं. ता. ला. पा. खंता. पाता. वा.१-२॥६. दण्डकरभटप्रवेशै रहितः ॥ ७. द्वादशवार्षिक: ।। ८. 1.चक्ररत्न, 2.दण्डरत्न, 3.वाजिरत्न, 4.सेनानीरत्न, 5.पुरोधोरत्न, 6.गृहिरत्न, 7.वर्धकिरत्न, 8.चर्मरत्न, 9.छत्ररत्न,10.मणिरत्न, 11.काकिणीरत्न, 12.खड्गरत्न, 13.गजरत्न, 14.स्त्रीरत्न एतानि चतुर्दशरत्नानि ॥९.०सहचाऽन्तःपुरीभिरावृतः सं. ता. ला. पा.खंता. पाता. वा.१-२॥१०. अन्त:पुरस्त्रीणां सङ्ख्या ६४सहस्रमिता॥११. लक्षैश्चतुरशीत्येभै रथैरश्चैश्च सं. ता. ला. पा.खंता. पाता. वा.१-२॥१२. हस्तिनां सङ्ख्या ८४लक्षमिता, रथानां सङ्ख्या ८४लक्षमिता, अश्वानां सङ्ख्या ८४लक्षमिता॥१३. ग्रामाणां सङ्ख्या ९६कोटिमिता॥१४.पदातीनां सङ्ख्या ९६कोटिमिता॥१५.नृपाणां सङ्ख्या ३२सहस्रमिता ।।१६. देशानां सङ्ख्या ३२सहस्रमिता॥१७.सूपकाराणां सङ्ख्या ३६३मिता॥१८. महानगराणां सङ्ख्या ७२सहस्रमिता॥१९.रक्षकः।।२०. द्रोणमुखानां सङ्ख्या ९९सहस्रमिता, द्रोणमुखानि यत्र जल-स्थलपथावुभावपिभवतः ॥ २१. पत्तनानां सङ्ख्या ४८सहस्रमिता, पत्तनानि जल-स्थलमार्गयोरन्यतरेण मार्गेण युक्तानि ॥ २२. चत्वारिंशत्सहस्राणां ता. ला.॥ २३. कर्बटानां सङ्ख्या २४सहस्रमिता, कर्बटानि कुनगराणि। कर्पटानां मु.॥२४. मडम्बानां सङ्ख्या २४सहस्रमिता, मडम्बानि सर्वतोऽर्धयोजनात् परतोऽवस्थितग्रामाणि ।। २५.रत्नाद्याकराणां सङ्ख्या २०सहस्रमिता॥ २६.खेटानां सङ्ख्या १६सहस्रमिता,खेटानि धूलिप्राकारोपेतानि ।। २७. सम्बाधानां सङ्ख्या १४सहस्रमिता, सम्बाधा: समभूमौ कृषि कृत्वा कृषीवला यत्र धान्यं रक्षार्थं स्थापयन्ति ॥ २८. षडधिकं त्राय० पाता. वा.१-२॥ २९. द्वीपानां सङ्ख्या ५६मिता ।। ३०. कुराज्यानां सङ्ख्या ४९मिता ।। ३१. नृत्यैः ।। ३२. त्वादष्टवर्षशतोनिताम् छा.मु.॥३३. सोऽब्दानां दे. मु.॥३४. कम्पन्तेऽन्दोलितानीव० खंता. ॥ ३५. अयि सम्बोधने । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (पञ्चमं पर्व तत्प्रभावेण सञ्जातचेतनानीव सम्प्रति। ज्ञापयन्त्यासनान्यस्मान् दीक्षाकालोचितां क्रियाम्॥२७०।। ज्ञानत्रयेण जानाति भगवान् यद्यपि स्वयम्। तथाऽपि कल्प इति तं स्मारयामो व्रतक्षणम् ॥२७१।। एवमन्योऽन्यमालप्य विमानान्यधिरुह्य च।शान्तिनाथमुपाजग्मुर्देवा:सारस्वतादयः॥२७२॥ ते त्रि: प्रदक्षिणीकृत्य शान्तिनाथं प्रणम्य च। “तीर्थं प्रवर्तय" स्वामिन्निति प्राञ्जलयोऽवदन् ।२७३।। इत्युदित्वा नमस्कृत्य ययुलॊकान्तिका दिवम् । पूर्णार्थो जृम्भिकैः स्वामी ददौ दानं च वार्षिकम् ॥२७४।। आत्मानुरूपे तनये राज्यं चक्रायुधे न्यधात्। स्वयं संयमसाम्राज्यमुपादित्सुर्जगत्पतिः ॥२७५।। अथेन्द्रप्रमुखैर्देवैर्नृपैश्चक्रायुधादिभिः । चक्रेऽभिषेको दीक्षायां चक्रितायामिव प्रभोः॥२७६।।[युग्मम्] सर्वार्थां नाम शिबिकां रत्नसिंहासनान्विताम्। आरुरोह जगन्नाथस्तामूहुः प्रथमं नराः॥२७७॥ ततोऽप्युदूहुः पूर्वत्र सुरा दक्षिणतोऽसुराः। सौपर्णेयाश्चाऽपरतो नागा उत्तरतश्च ताम्॥२७८।। सन्ध्याभ्रवत् पाटलाभि: पाटलीकृतदिङ्मुखम् । शिरीषैः शोभितं ग्रीष्मश्रीसङ्गात् पुलकैरिव ॥२७९।। धर्मोदबिन्दुभिरिव मल्लिकाभिः समाकुलम्। सुवर्णकेतकीकोशैः स्मरेष्वासैरिवाऽङ्कितम्।।२८०।। प्रत्यग्रमुकुलोद्धान्तगुञ्जन्मधुकरालिभिः। धातकीभिीष्मलक्ष्म्या गायनीभिरिवाऽऽचितम्॥२८१॥ वनश्रीस्तनसङ्काशपुष्पस्तबकसम्पदा। खजूरैर्जजरीभूतां मधोहसदिव श्रियम्॥२८२॥ पचेलिमफलोद्भान्तकीरपिच्छैर्निरन्तरैः। द्विगुणीभूतमाकन्ददलऋद्ध्याऽतिबन्धुरम्॥२८३॥ अधिवापिजलक्रीडारसव्याकुलनागरम्। ययौ सहस्राम्रवणमचिरानन्दनः प्रभुः॥२८॥षड्भि: कुलकम्।। शिबिकायास्ततस्तस्या: समुत्तीर्य जगत्पतिः। उज्झाञ्चकार रत्नालङ्कार-माल्यादिराज्यवत्॥२८५।। ज्येष्ठकृष्णचतुर्दश्यां भैरण्यां पश्चिमेऽहनि। कृतसिद्धनमस्कार: कृतष्ठतपाः प्रभुः॥२८६।। समं नृपसहस्रेण परिव्रज्यामुपाददे। तदैव चाऽऽसदज्ज्ञानं मन:पर्ययसञकम्॥२८७।। ततश्च मन्दिरपुरे सुमित्रनृपमन्दिरे। पारणं परमान्नेन द्वितीयेऽह्नि व्यधाद्विभुः॥२८८॥ विदधे विबुधैस्तत्र वसुधारादिपञ्चकम् । रत्नपीठंसुमित्रेण स्वामिपादपदे पुनः।।२८९॥ अनासीनोऽशयानश्च निःसङ्गो निर्मम: प्रभुः। मूलोत्तरगुणाधारो विजहार वसुन्धराम्॥२९०॥ पाअथ द्वादशमासान्ते विहरन् परमेश्वरः। आगात् सहस्राम्रवणं नगरे हस्तिनापुरे॥२९॥ नन्दिवृक्षतले तत्र षष्ठेन तपसा प्रभोः । शुक्लध्यानान्तरस्थस्य घातिकर्माणि तुत्रुटुः ।।२९२॥ पौषस्य शुद्धनवम्यां चन्द्रे च भरणीस्थिते। उत्पेदेशान्तिनाथस्य केवलज्ञानमुज्ज्वलम्॥२९३।। ज्ञात्वा चाऽऽसनकम्पेन केवलज्ञानमीशितुः । एयुरिन्द्रादयो देवास्तं देशंस्वामिपावितम्॥२९४॥ सम्मार्जनीभृत इव देवा:संवर्तकानिलैः । आयोजनमपानैषूरज:-काष्ठ-तृणादिकम्॥२९५।। गन्धोदकं च ववृषूरजःशमनहेतवे। पञ्चवर्णा जानुदघ्नीदिव्या: सुमनसश्च ते॥२९६।। भुवं स्वर्णशिलाभिस्तां बबन्धुः सन्धिबन्धुरम्। तोरणानि चरम्याणि चक्रुः पूर्वादिदिक्षु ते॥२९७।। मध्येकृत्वा मणीपीठं चतुर्गोपुरसुन्दरान्। प्राकारांस्त्रीन् क्रमाद्रूप्य-स्वर्ण-रत्नैर्विचक्रिरे॥२९८।। तत्रोपरितने रत्नवप्रे मध्यावनौ व्यधुः । तेऽशीत्यग्रचतुर्धन्वशतोच्वं चैत्यपादपम्॥२९९॥ तस्याऽधश्छन्दकं चक्रुरप्रतिच्छन्दकं सुराः । छन्दकान्त: पूर्वदिशि रत्नसिंहासनंचते॥३०॥ चतुस्त्रिंशदतिशयैर्धाजिष्णुर्भगवानपि। पूर्वद्वारेण समवसरणं प्रविवेश तत्॥३०१॥ तत्र प्रदक्षिणीकृत्य चैत्यवृक्षं जगद्गुरुः । “तीर्थाय नम” इत्यूचे जिनेन्द्राणां स्थिति सौ॥३०२।। १. आचारः ।। २. दीक्षावसरम् ।। ३.०मालम्ब्य० वा.१-२॥४.०लौकान्तिका० मु.॥५. दीक्षाभिषेको विदघे ला. पा. ता. छा.खंता. पाता. वा.१-२॥ ६. सुपर्णकुमारदेवाः ।।७. पश्चिमतः।। ८. नागकुमारदेवाः ।।९. कामबाणैः ॥१०. गायनीभिरिवाऽऽश्चितम् मु.प्रभृतिषु।।११. वसन्तस्य ॥१२. वाप्याम् ॥१३. नन्दनप्रभु:मु.॥१४.खंता.पाता.वा.१-२ प्रतिषु नास्ति॥१५. भरणीनक्षत्रे॥१६.मनःपर्यव० मु.॥१७. ज्ञानावरणीयकर्म, दर्शनावरणीयकर्म, मोहनीयकर्म, अन्तरायकर्म-एतानि घातिकर्माणि ॥१८. पुष्पाणि॥ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः ) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । 1 पूर्वसिंहासने तत्र प्राङ्मुखो न्यषदत् प्रभुः । दिक्ष्वन्यासु विचक्रुश्च तद्रूपत्रितयं सुराः ॥ ३०३ ॥ यथाद्वारं प्रविश्याऽथ श्रीमान् सङ्घश्चतुर्विधः । अवतस्थे यथास्थानं स्वाम्यास्यमवलोकयन् ॥ ३०४॥ विरोधिनोऽपि तिर्यञ्चो मध्यवप्रेऽवतस्थिरे । प्राकारेऽधस्तने त्वंस्थुर्वाहनान्यखिलान्यपि॥३०५॥ तदा चक्रायुधनृपं हर्षोत्फुल्लविलोचनाः । सहस्राम्रवणोद्यानपाला एत्य व्यजिज्ञपत् ॥ ३०६ ॥ दिष्ट्याऽद्य वर्धसे देव! यच्छान्तिस्वामिनोऽधुना । उत्पेदे केवलज्ञानं सहस्राम्रवणस्थितेः ॥३०७॥ इत्याकर्ण्य गिरं हृष्टः सद्यश्चक्रायुधो नृपः । पारितोषिकमेतेभ्यो दत्त्वा स्वामिनमाययौ ॥ ३०८ ॥ तत्र प्रदक्षिणीकृत्य शान्तिनाथं प्रणम्य च । विनयी निषसादाऽनुशक्रं चक्रायुधो नृपः ॥ ३०९ ॥ भूयश्च स्वामिनं नत्वा शक्रश्चक्रायुधोऽपि च । प्रचक्रमे स्तोतुमेवं हर्षगद्गदया गिरा ॥ ३१० ॥ “श्रेयोदशाप्रवेशोऽद्य जगतोऽपि जगत्पते! । ज्ञानादित्येन भवता सुदिनोत्सवकारिणा ॥ ३११॥ पुण्यैरस्मादृशामेते तव कल्याणकोत्सवाः । कल्याणचिन्तामणयः प्रभवन्ति जगद्गुरो ! ॥ ३१२ || कषायादिमलालीढं मनः सर्वशरीरिणाम् । क्षालयन्ति जगन्नाथ! त्वद्दर्शनजलोर्मयः ॥ ३१३ ॥ कर्मच्छिदे बद्धयत्नस्तीर्थकृत्कर्म यत् पुरा । आर्जयस्तत् तव स्वार्थानपेक्षान्योपकारिता ॥ ३१४ ॥ घोरसंसारभीतानां महादुर्गमिव प्रभो! । जगत्यदस्ते समवसरणं शरणं नृणाम् ।।३१५।। जानासि सर्वं सर्वेषां भावं सर्वहितोऽसि च । प्रार्थनीयं न तत् किञ्चित् तथाऽपि प्रार्थ्यसे मया ॥ ३१६ ॥ यथा हि विहरन् ग्रामाकर- पुरादिकम् । क्षणे क्षणे त्वं त्यजसि मा त्याक्षीर्मन्मनस्तथा ॥ ३१७|| त्वत्पादपङ्कजध्यानषट्पदीभूतचेतसः । व्यतिक्रामतु मे कालो भगवंस्त्वत्प्रसादतः "॥३१८॥ स्तुत्वेति सति तूष्णीके शक्रे चक्रायुधेऽपि च । श्रीशान्तिनाथो भगवानारेभे देशनामिति ॥३१९॥ "अनेकदुःखसन्ताननिदानं दववह्निवत्। अहो! खल्वेष संसारश्चतुर्गत्यात्मकः सदा ॥ ३२० ॥ क्रोध-मान-माया-लोभाः कषायास्तस्य चोच्चकैः । आधारभूताश्चत्वारः स्तम्भा इव महौकसः ॥३२१॥ तत्क्षीणेषु कषायेषु संसारः क्षीयते स्वयम् । मूलेषु हि विशुष्केषु शुष्क एव महीरुहः ॥ ३२२॥ विनेन्द्रियजयं नैव कषायान् जेतुमीश्वरः । हन्यते हैमनं जाड्यं न विना ज्वलितानलम् ॥ ३२३॥ अदान्तैरिन्द्रियहयैश्चलैरपथगामिभिः । आकृष्य नरकारण्ये जन्तुः सपदि नीयते ॥ ३२४ ॥ इन्द्रियैर्विजितो जन्तुः कषायैरभिभूयते । वीरैः कृष्टेष्टकः पूर्वं वप्रः कै: कैर्न खण्ड्यते ? ॥ ३२५ ॥ कुलघाताय पाताय बन्धाय च वधाय च । अनिर्जितानि जायन्ते करणानि शरीरिणाम् ॥ ३२६॥ इन्द्रियैः स्वार्थविवशैः कस्को नैव विडम्ब्यते ? । अपि विज्ञातशास्त्रार्थाश्चेष्टन्ते बालका इव ॥३२७॥ किमतोऽपि र्घृणास्थानमिन्द्रियाणां प्रकाश्यते ? । यद् बन्धौ बाहुबलिनि भरतोऽप्यस्त्रमक्षिपत्॥३२८॥ जयो यद्बाहुबलिनि भरते च पराजयः । जिताजितानां तत्सर्वमिन्द्रियाणां विजृम्भितम् ॥३२९॥ यच्छस्त्राशस्त्रि युध्यन्ते चरमेऽपि भवे स्थिताः । दुरन्तानामिन्द्रियाणां मैहिमाऽनेन लक्ष्यते॥३३०॥ दण्ड्यन्तां चण्डचरितैरिन्द्रियैः पशवो जनाः । शान्तमोहाः पूर्वविदो दण्ड्यन्ते यत् तदद्भुतम् ॥ ३३१ ॥ जिता हैषीकैरत्यन्तं देव-दानव-मानवाः । जुगुप्सितानि कर्माणि "ही तन्वन्ति तपस्विनः ॥३३२॥ अखाद्यमपि खादन्ति चाऽप्यपेयं पिबन्ति च । अगम्यं चाऽपि गच्छन्ति हृषीकवशगा नराः ॥३३३॥ वेश्यानां नीचकर्माणि दास्यान्यपि च कुर्वते । कुल-शीलोज्झितास्त्यक्तकरुणैः करणैर्हताः ॥ ३३४॥ परद्रव्ये परस्त्रीषु मोहान्धमनसां नृणाम् । या प्रवृत्तिः सेन्द्रियाणामर्तेन्द्राणां विजृम्भितम् ॥ ३३५॥ १. सुरासुर-नृणां गणः छा. दे. मु. ॥ २ तस्थुः ला ॥। ३. कल्याणदशायां प्रवेशः ॥ ४. जयत्यदस्ते ला. पा. ता. सं. ॥ ५. यथा क्षणे० पाता. ॥ ६. सुवर्णसम्बन्धि जाड्यं मलम् ।। ७. अदमितैः ॥ ८. धीरैः ता. ॥ ९. कृष्टा इष्टका यस्य वप्रस्य ।। १०. इन्द्रियाणि ॥ ११. लज्जास्थानम् ।। १२. विलासः ।। १३. महिमाऽनेन लभ्यते मु.; महिम्नाऽनेन लभ्यते ला. प्रभृतिषु ॥ १४. उपशान्तमोहनाम्नि गुणस्थाने वर्तमानाः । १५. इन्द्रियैः ।। १६. ही इति खेदे ॥ १७. इन्द्रियवशगाः ॥ १८. कुलाचारबाह्याः ॥ १९. जागरूकाणाम् ॥ ६१ For Private Personal Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (पञ्चमं पर्व पाणि-पादेन्द्रियच्छेद-मरणानि शरीरिभिः । प्राप्यन्ते यद्वशात् तेषां करणानां किमुच्यते? ॥३३६॥ विनयं ग्राहयन्त्यन्यैर्ये स्वयं करणैर्जिताः। पिधाय पाणिना वक्त्रंतान हसन्ति विवेकिनः॥३३७।। आ देवेन्द्रादा च कीटाद्ये केचिदिह जन्तवः। विमुच्यैकं वीतरागं ते सर्वेऽपीन्द्रियैर्जिताः ॥३३८॥ वशास्पर्शसुखास्वादप्रसारितकर: करी।आलानबन्धनक्लेशमासादयति तत्क्षणम्॥३३९॥ पयस्यगाधे विचरन गिलन गलगतामिषम। मैनिकस्य करे दीनोमीन: पतति निश्चितम॥३४०॥ निपतन्मत्तमातङ्गकपोले गन्धलोलुपः । कर्णतालतलाघातान्मृत्युमाप्नोतिषट्पदः॥३४१॥ कनकच्छेदसङ्काशशिखालोकविमोहितः। रभसेन पतन् दीपेशलभोलभते मृतिम्॥३४२॥ हरिणो हारिणीं गीतिमाकर्णयितुमुद्धरः। आकर्णाकृष्टचापस्य याति व्याधस्य वेध्यताम्॥३४३॥ एवं विषय एकैकः पञ्चत्वाय निषेवितः । कथं हि युगपत् पञ्च पञ्चत्वाय भवन्ति न ? ॥३४४॥ तदिन्द्रियजयं कुर्यान् मन:शुद्ध्या महामतिः। यां विना यम-नियमै: कायक्लेशो वृथा नृणाम् ॥३४५॥ अनिर्जितेन्द्रियग्रामो यतो दुःखैः प्रबाध्यते। तस्माज्जयेदिन्द्रियाणि सर्वदुःखविमुक्तये॥३४६।। नचेन्द्रियाणां विजय: सर्वथैवाऽप्रवर्तनम् । राग-द्वेषविमुक्तानांप्रवृत्तिरपि तज्जयः॥३४७।। अशक्यो विषयोऽस्पष्टुमिन्द्रियैः स्वसमीपगः । राग-द्वेषौ पुनस्तत्र मतिमान् परिवर्जयेत्॥३४८॥ हताहतानीन्द्रियाणि सदासंयमयोगिनाम्।अहतानि हितार्थेषु हतान्यहितवस्तुषु॥३४९॥ जितान्यक्षाणि मोक्षाय संसारायाऽजितानि तु। तदेतदन्तरं ज्ञात्वा यद्युक्तं तत् समाचरेत् ॥३५०॥ स्पर्शे मृदौ च तूंल्यादेरुपलादेश्च कर्कशे। भवेद्रत्यरती हित्वा जेता स्पर्शनमिन्द्रियम्॥३५१॥ रसे स्वादौ च भक्ष्यादेरितरस्मिन्नथाऽपि वा। प्रीत्यप्रीती विमुच्योच्चैर्जिह्वेन्द्रियजयी भवेत्॥३५२।। घ्राणदेशमनुप्राप्ते शुभे गन्धे पैरत्र वा। ज्ञात्वा वस्तुपरीणामं जेतव्यं घ्राणमिन्द्रियम्॥३५३॥ मनोज्ञं रूंपमालोक्य यदि वा तद्विलक्षणम्। त्यजन् हर्षं जुगुप्सां च निर्जयेच्चक्षुरिन्द्रियम्॥३५४।। स्वरे श्रव्ये च वीणादेः खरोष्ट्रादेश्च दुःश्रवे। रतिं जुगुप्सां च जयन् श्रोत्रेन्द्रियजयी भवेत्॥३५५॥ कोऽपि नास्तीह विषयो मनोज्ञ इतरोऽपि वा। य इन्द्रियैर्नोपभुक्तस्तत् स्वास्थ्यं किं न सेव्यते ? ॥३५६॥ शुभा अप्यशुभायन्ते शुभायन्तेऽशुभा अपि। विषयास्तत् क्व रज्येत विरज्येत क्वचेन्द्रियैः ।।३५७॥ स एव रुच्यो द्वेष्यो वा विषयो यदि हेतुतः । शुभाशुभत्वंभावानां तन्न तत्त्वेन जातुचित्॥३५८॥ जितेन्द्रियो मन:शुद्ध्या तत: क्षीणकषायकः । अचिरान्मोक्षमाप्नोति जन्तुरक्षीणशर्मकम्"||३५९|| आकर्ण्य कर्णपीयूषवृष्टिमेवं च देशनाम् । चक्रायुधः संसंवेगो भगवन्तं व्यजिज्ञपत् ॥३६०॥ पास्वामिन्! भीतोऽस्मि संसारादस्मात् क्लेशैकवेश्मनः । न पौरुषाभिमानोऽत्र दोष्मतोऽपि विवेकिनः ॥३६१।। दीप्यमाने यथा गेहे पोते स्फुटति वा यथा। तन्नेता किञ्चिदादाय सारवस्त्वन्यतो व्रजेत् ॥३६२॥ तथा भवे जन्म-जरा-मरणादिकरालिते। एकमात्मानमादाय त्वां शरण्याऽऽश्रितोऽस्म्यहम्॥३६३॥ स्वामिन्! मा मामुपेक्षस्व निपतन्तं भवार्णवे। तस्योत्तरणनावं मे दीक्षामद्यैव देहि तत्॥३६४॥ युक्तं विवेकिनस्तेऽद इत्युक्त: स्वामिना ततः। तनये कवचहरे राज्यं चक्रायुधो न्यधात्॥३६५॥ सहितोराजभिः पञ्चत्रिंशता स्वामिनोऽन्तिके।स्वामिसूनुरुपादत्त प्रव्रज्यां सङ्घसाक्षिकम्॥३६६॥ चक्रायुधादिगणभृत्षट्त्रिंशत उपादिशत्। उत्पाद-विगम-ध्रौव्यलक्षणां त्रिपदी प्रभुः॥३६७॥ १. करिणी॥२.धीवरस्य॥३. कर्णतालतलापातान् ला.॥४. मनोहराम् ॥५. मृत्यवे।।६. मनःशुद्धिम् ।। ७.०योऽस्पष्टुमि० सं. ता. ला. पा.॥८. सदा संयमधारिणां योगिनाम् ॥९.इन्द्रियाणि ॥१०. तूलादे० मु.॥११. स्वादे मु.॥१२. अशुभगन्धे॥१३. रूप-लावण्यमालोक्य पा. ॥१४. अमनोज्ञः॥१५. वैराग्यसहितः ।।१६. नावि त्रुटन्त्यां सति ॥१७. ०शरण्यं श्रितो० मु.प्रभृतिषु ।। ८ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । तत्रिपद्यनुसारात् ते द्वादशाङ्गीमसूत्रयन् । 'अनुयोग-गणानुज्ञे स्वामी तेषामदत्त च॥३६८॥ नरा नार्यश्च भूयांस: स्वाम्यन्ते प्राव्रजस्तदा। जगृहुः श्रावकत्वं च सम्यक् सम्यक्त्वपूर्वकम्॥३६९।। पूर्णायामादिपौरुष्यामुत्थाय परमेश्वरः । देवच्छन्दे विशश्राम मध्यप्राकारमण्डने॥३७०॥ स्वाम्यंहिपीठाध्यासीन: स तत्रैव तस्थुषि। विदधे देशनां चक्रायुधो गणधराग्रणीः॥३७१॥ पूर्णद्वितीयपौरुष्यां व्यसृजत् सोऽपि देशनाम्। नत्वाऽथ स्वामिनं जग्मुः स्वं स्वं स्थानं सुरादयः॥३७२।। पातत्तीर्थजन्मागरुडयक्षो गजरथोऽसित: । क्रोडास्यो बीजपूराब्जभृद्दक्षिणकरद्वयः॥३७३॥ वामौ दधानो नकुलाक्षसूत्रसहितो करौ। श्रीशान्तिस्वामिपादानां जज्ञे शासनदेवता॥३७४॥ तत्तीर्थजन्मा निर्वाणी गौरागी कमलासना। पुस्तकोत्पलसंयुक्तौ बिभ्रती दक्षिणी भुजौ॥३७५।। सकमण्डलु-कमलौ वामौ च दधती करौ। अजायत जगद्भस्तिथा शासनदेवता॥३७६॥ अमक्तसन्निधिस्ताभ्यां भगवानन्यतस्ततः। बोधाय भव्यभविनां विजहार वसुन्धराम्॥३७७॥ गाविहरन्नन्यदा तत्र नगरे हस्तिनापुरे। उपेत्य समवासार्षी भगवान् करुणानिधिः ॥३७८॥ पौरजानपदोपेत: स्वामिनं तत्पुरेश्वरः। उपतस्थे कुरुचन्द्रश्चन्द्रोऽर्कमिव पर्वणि॥३७९॥ यथास्थानमथाऽऽसीने श्रीमत्स चतुर्विधे। संसारवैराग्यकरी विदधे देशनां विभुः॥३८०॥ देशनान्ते प्रभुंनत्वा कुरुचन्द्रोऽब्रवीदिदम्। प्राग्जन्मकर्मणा केन स्वामिन्! राज्यमिहाऽऽसदम् ? ॥३८१॥ ढौकने मम ढौक(क्य?)न्तेऽद्भुतानि प्रतिवासरम्। पञ्चवस्तु-फलादीनि केन प्राग्जन्मकर्मणा?॥३८२॥ इष्टेभ्यस्तानि दास्यामीत्युपभुञ्जेन हि स्वयम्। न चाऽन्यस्मै प्रयच्छामि भगवन्! केन कर्मणा ? ॥३८३॥ पाप्रभुरप्याख्यदेतद्धि साधवेदानतस्तव। राज्यश्रीरन्वहं चेदं ढौकनं पञ्चवस्तुनः।।३८४॥ अंदानाभोग्यते चैषां पुण्यसाधारणत्वत: । वस्त्वधीनं बहूनां हि न खल्वेकेन भुज्यते॥३८५॥ अभीष्टेभ्य: प्रदास्येऽहमिति चिन्ताऽपि ते ततः। पूर्वकर्मानुसारेण जायते जन्मिनां हि धीः ॥३८६॥ अस्यैव जम्बूद्वीपस्य क्षेत्रे चाऽत्रैवभारते। कोसलाख्ये जनपदे नगरे श्रीपुरेऽभवत् ।।३८७।। सुधनो धनपतिश्च धनदश्च धनेश्वरः । वणिक्पुत्राः सवयसश्चत्वार: सोदरा इव॥३८८।। अन्यदाऽर्थोपार्जनार्थं ते चत्वारोऽपि संहिताः । रत्नद्वीपं प्रत्यचलन् द्रोणकोदूढशम्बला:॥३८९॥ महाटवीं प्राविशंस्ते तीर्णप्राया कृता च सा। क्षीणप्रायं च पाथेयं तेषामजनि बह्वपि॥३९०॥ तदा चैकं ददृशुस्ते मुनिं प्रतिमया स्थितम्। अस्मै किञ्चित् प्रयच्छाम इति चाऽचिन्तयन् क्षणम् ॥३९१।। तंच द्रोणकनामानमूचुः शम्बलवाहिनम्। भो! भद्र! किञ्चिदप्यस्मै द्रोण! देहि महर्षये॥३९२।। तेभ्योऽधिकश्रद्धया स तं मुनिं प्रत्यलाभयत्। महाभोगफलं कर्म तेन निर्वर्तितं तदा॥३९३॥ रत्नद्वीपं च तेऽपीयुर्व्यवहारं च चक्रिरे। उपाया॑ऽर्थं समाजग्मुर्भूयोऽपि नगरं निजम् ॥३९४।। तेनैव पुण्यबीजेन ननन्दुः सर्वदाऽपि ते। जीवन्त्यप्येकदाऽऽप्तेन धान्यानि स्वातिवारिणा॥३९५॥ धनेश्वर-धनपती किन्तु मायापरौ मनाक् । अधिकं शुद्धवृत्तिस्तु तेषु च द्रोणकोऽभवत्॥३९६॥ आयु:क्षये च प्रथमं विपद्य द्रोणक: सतु।दानप्रभावात् पुत्रोऽभूस्त्वं हास्तिनपुरेशितुः॥३९७।। जनन्या च मुंखविशच्चन्द्रस्वप्नावलोकनात्। पितृभ्यां नामधेयं ते कुरुचन्द्र इतीरितम्॥३९८॥ सुधनो धनदश्चोभौ मृत्वाऽभूतां वणिक्सुतौ। काम्पील्यनगरे पूर्वो द्वितीय: कृत्तिकापुरे ॥३९९॥ १. अनुयोगानुज्ञां गणानुज्ञा च ।। २. केचित् सम्यक्त्व० मु.प्रभृतिषु ।। ३. कृष्णवर्णः ।।४. वराहमुख: ।। ५. करौ दे. मु.॥ ६. ०नन्यतत्पर: दे. मु. ॥७. अमावास्यायाम् ॥८. यथास्थानं स्थिते चाऽथ मु.॥९.प्रभुः मु.॥१०. विभुम् मु.॥११. उपहारे॥१२. पञ्चवस्त्र-फलादीनि ता. ला. छा. सं. खंता. पाता. वा.१-२॥१३. अदानत्वमभोग्यतां च ॥१४. पूर्वकामानुसारेण ता. ॥१५. संहता: मु.॥१६. द्रोणकनामकेन पुरुषेण उदूढं पाथेयं येषां ते ।। १७. तीर्णप्रायीकृता सं. ता. पा. छा. ॥१८. अर्जितम् ॥ १९. हस्तिनापुरेशितुः पाता. वा.१-२॥२०. जनन्या च मुखे विश० मु.प्रभृतिषु ।। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (पञ्चमं पर्व वसन्तदेवो 'नाम्नाऽऽद्य: कामपालोऽपरः पुनः। विपेदातेधनपति: कालात् स चधनेश्वरः ॥४००॥ मदिरा-केसरानाम्न्यौ वणिक्पुत्र्यौ बभूवतुः । एका शङ्खपुरेऽन्या तुजयन्त्यां तावुभावपि॥४०१॥[त्रिभिर्विशेषकम्] क्रमेण वर्धमानास्ते समतिक्रम्य शैशवम् । नव्यमासादयामासुश्चत्वारोऽपि हि यौवनम्॥४०२।। वसन्तदेव: काम्पील्या व्यवहारेण सोऽन्यदा। जयन्त्यां प्रययौ पुर्यांमर्थं च समुपार्जयत् ।।४०३॥ अन्यदा सोऽष्टमीचन्द्रोत्सवेऽगच्छद् यदृच्छया। रतिनन्दनमुद्यानं तत्राऽद्राक्षीच्च केसराम्॥४०४।। तया वसन्तदेवोऽपि ददृशे स्निग्धया दृशा। तयोः प्राग्जन्मभू: स्नेहः प्रादुरासीत् परस्परम् ॥४०५।। जयन्तीवासिनं तत्र वणिक्पुत्रं प्रियङ्करम् । वसन्तदेव: पप्रच्छ केयं ? कस्य सुताऽपि वा ?॥४०६।। सोऽप्याख्यदेषा दहिता श्रेष्ठिन: पञ्चनन्दिनः। स्वसाजयन्तिदेवस्य केसरा नाम कन्यका॥४०७।। वसन्तदेवो जयन्तिदेवेनसह सौहृदम् । समारेभे मिथो वेश्मगतागतनिबन्धनम्॥४०८॥ वसन्तदेवो जयन्तिदेवेन स्वगृहेऽन्यदा। न्यमन्त्र्यत प्रकारो हि मैत्र्यद्रोरेष दोहदः ॥४०९।। अर्चन्तीं केसरांतत्र कुसुमैः कुसुमायुधम्। वसन्तदेव: प्रैक्षिष्ट नेत्रकैरवकौमुदीम्॥४१०॥ जयन्तिदेवहस्ताब्जात् प्रतीच्छन् कुसुमस्रजम्। तया वसन्तदेवोऽपि ददृशे सानुरागया॥४११॥ अदोऽनुकूलं शकुनमिति हर्षोऽत्यभूत् तयोः । अन्योऽन्यशुभचेष्टा हि शुभोदर्का द्वयोरपि॥४१२॥ द्वयोश्चाऽलक्षयद्भावंधात्रीपुत्री प्रियङ्करा। सुलक्षं हि परस्वान्तमिङ्गिताकारवेदिभिः॥४१३॥ वसन्त इव वसन्तसखस्य सुहृदोऽकरोत् । पूजांवसन्तदेवस्य केसरासोदरोऽथ सः॥४१४॥ ऊचे प्रियङ्करा तां चकेसरे! तव सोदरः। करोत्यर्चामसावस्य त्वमप्युचितकृद्भव॥४१५॥ केसरा युगपदपि व्रीडा-भी-हर्षधारिणी। ऊचे त्वमेव जानासि कुरुष्वाऽस्य यथोचितम्॥४१६॥ प्रियङ्कराऽप्यङ्गणस्थप्रियङ्गुतरुमञ्जरीम् । कक्कोलादीनि चाऽऽदाय वसन्तमिदमब्रवीत्॥४१७।। स्वामिनी मे स्वहस्ताग्रोच्चितान्येतानि सुन्दर! । इष्टदेयानि ते दत्ते पुष्पाणि च फलानि च॥४१८॥ अभीष्टोऽस्म्यहमेतस्या इति हृष्टः स्वपाणिना। वसन्तदेवो जग्राह पुष्पाणि च फलानि च॥४१९॥ नाममुद्रांस दत्त्वोचे त्वयेदं शोभनं कृतम्। वर्तितव्यं सदाऽपीष्टानुरूपमिति तां वदेः॥४२०॥ गत्वा च तद्वचोऽशंसत् केसरायै प्रियङ्करा । दृढानुरागकन्दस्योद्भेदने वारिसेकवत्॥४२१॥ पापश्चिमे यामिनीयामे सुप्ता स्वप्नेऽथ केसरा। वसन्तदेवेनीऽऽत्मानं व्युह्यमानमुदैक्षत॥४२२॥ तदा वसन्तदेवोऽपिस्वप्ने परिणिनाय ताम्। स्वप्नदर्शनमप्यासीद् विवाहादधिकं तयोः॥४२३॥ प्रियङ्करायैतं स्वप्नं कथयामास केसरा। सद्यो रोमाञ्चितवपु: पैतीयन्ती तमेव हि॥४२४॥ भविष्यत्येवमेवेदमिति स्वार्थप्रसाधकम्। पुरोधसा निजगदे तदाऽनतिदैवीयसा॥४२५॥ वसन्तदेवस्तेभर्ता स्वप्नेन शकुनेन च। बध्यतां शकुनग्रन्थिरित्यूचे तां प्रियङ्करा ॥४२६॥ गत्वा वसन्तदेवस्याऽप्याख्यत् स्वप्नं प्रियङ्करा । सोऽपि स्वस्वप्नसंवादात् सिद्धमर्थममन्यत॥४२७।। प्रियङ्करोचेस्वामिन्या तुभ्यमात्मा प्रकल्पितः । कल्प्यतां निर्विकल्पं तत्सर्वं वैवाहिकं त्वया ॥४२८।। वसन्तदेवोऽप्यवदद् व्यधायि विधिनैव तत्। प्रायो मनुष्यघटितं कार्यं विघटते क्वचित्॥४२९॥ एवं वसन्तदेवस्तां नियंतिं रूपिणीमिव । आलप्य च सत्कृत्य चव्यसृजत् कृत्यकोविदः ॥४३०।। इत्थं प्रत्यहमन्योऽन्योदन्तपीयूषपायिनः। कियानप्यगमत कालस्तयो: वर्षशतोपमः॥४३१॥ १. नामाद्य: मु.॥२. न्यमन्त्रि तत्प्रकारो० मु.प्रभृतिषु ॥३. कामदेवम् ॥४. गृह्णन् ॥५. अहोऽनुकूलम् पा.॥६. शुभपरिणामा॥७. सुलक्ष्यम् दे. मु.; सुज्ञेयम् ।। ८. कामदेवस्य॥९.०दत्त्वोच्चस्त्वयेदं० मु. खंता. पाता. वा.१-२॥१०.०ददे मु.॥११. वारिदोदकम् छा. दे. ॥१२.०नात्मानमुह्यमानमु० दे.मु. ॥१३. प्रतीयन्ती मु.प्रभृतिषु । तं पतित्वेनेच्छन्ती ।।१४. समीपस्थेनेत्यर्थः॥१५. परं दैवघटितं कार्य कदापि न विघटत इति तात्पर्यम् ॥१६. साक्षात् भवितव्यताम्॥ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम: सर्ग:) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । वसन्तदेवेनाऽन्येद्यु: स्वगृहे तस्थुषा सता। मङ्गल्यतूर्यमश्रावि सदने पञ्चनन्दिनः ।।४३२॥ सुदत्तश्रेष्ठिपुत्राय कन्यकुब्जनिवासिने। प्रदत्ता वरदत्ताय केसरा पञ्चनन्दिना॥४३३॥ वर्धापनकृते तेन तूर्यमेतद्धि वाद्यते। इति प्रवृत्तिं सप्रापप्रेषितैः पुरुषैर्निजैः ।।४३४।।युग्मम्।। एवमाकर्ण्य सोऽमूर्च्छन् मुद्रेणेव ताडितः। एवमाश्वासयाञ्चक्रे द्राक् प्रियङ्करया ततः॥४३५।। त्वां केसरा संदिशति खेद: कार्यस्त्वया न हि। गुरूपक्रान्तमाकर्ण्य विवाहमिममप्रियम्॥४३६॥ गुरवो मदभिप्रायानभिज्ञा किञ्चिदीदृशम्। विधित्सन्ति विधित्सन्तु न विधास्याम्यहं त्विदम्॥४३७॥ त्वमेव भर्ता भावी मे भावि वा मरणं ध्रुवम्। बोद्धव्यं नाऽन्यथा नाथ! न हि मिथ्या कुलीनवाक्॥४३८॥ प्रीतो वसन्तोऽपीत्यूचे तादृशं स्वप्नदर्शनम् । प्रतिज्ञा च कुलीनानां न मुधा जातु जायते॥४३९॥ प्रतिज्ञाऽस्माकमप्येषा केसरामुद्वहामि वा। येन केनाऽप्युपायेन यामि वा यममन्दिरम् ॥४४०॥ एवमुक्त्वा विसृष्टा सा प्रययावुपकेसरम् । तदुक्तदयितोदन्तान् मुमुदे केसराऽप्यथ॥४४१।। तयोरन्योऽन्यसम्बन्धोपायचिन्ताजुषोर्ययौ । काल: कियानप्यसुखं रजनीवरथाङ्गयोः॥४४२।। अर्थे तयोरसम्पन्न एवोपायकृतोरपि। जन्ययात्राऽऽययौ प्रात: केसरोद्वाहहेतवे॥४४३॥ पावसन्तदेवस्तच्छ्रुत्वा निर्गत्य नगराबहिः । उद्यानमेकमगमत् त्वरमाण: समीरवत्॥४४४।। वसन्तदेवो दध्यौ च साऽन्योद्वाहेन निश्चितम्। अङ्गुलीदर्शनेनेव कूष्माण्डं हा विपत्स्यते॥४४५।। यथार्हयोगाविज्ञाभ्यां पितृभ्यां खेदिता चिरम्। मदुद्वाहनिराशा साऽनूढाऽपि हि मरिष्यति॥४४६॥ तस्याः पुरस्तात् तन्मृत्वा शान्तदुःखो भवाम्यहम्। कः श्रोष्यति प्रियामृत्युं दग्धे पिटकसन्निभम् ? ॥४४७।। वसन्तश्चिन्तयित्वैवमशोकतरुमूर्धनि। पाशग्रन्थिं गले दत्त्वोद्बबन्ध स्वं निषङ्गवत्॥४४८॥ ईषद्बद्धे च तत्पाशे निकुञ्जात् कोऽपि पूरुषः । मा मा भोः! साहसं कार्षीरिति जल्पन् समाययौ॥४४९।। आरुह्याऽशोकवृक्षंस तत्पाशग्रन्थिमच्छिदत्। विरुद्धमाकृतेरस्या: कृतं किमिति ? चाऽब्रवीत्॥४५०॥ वसन्तोऽपि जगादैवं दैवदग्धस्य मेऽनया। किमिन्द्रवारुणस्यैवाऽऽकृत्या भ्रान्तोऽसि सुन्दर! ॥४५१॥ प्रियाविरहदुःखान्तहेतुं मृत्यु ममेप्सतः । किं त्वया विहितो विघ्न: पाशग्रन्थिं निकृन्तता? ॥४५२॥ ततश्च दयितोदन्तं वसन्तस्तस्य पृच्छतः। शशंस शस्यमानं हि दुःखं प्राय: प्रशाम्यति॥४५३॥ इस पुमानप्युवाचैवं यद्यप्येवमुपस्थितम् । तथाऽपि युज्यते नेत्थं प्राणत्यागो विवेकिनः ॥४५४॥ उपाया एव युज्यन्तेऽभीष्टार्थप्राप्तिहेतवः। उपेये त्वत्र ते सन्ति पशुवन् मा मृथास्ततः॥४५५।। यस्मिन्नुपेये नोपीयो मर्तुं तत्राऽपि नोचितम्। मृतो न तदवाप्नोति याति कर्मोचितां गतिम्॥४५६॥ उपायाभावतोऽप्राप्येऽभीष्टे वस्तुनि पर्यटन् । एष जीवामि जीवन् हि नरोभद्राणि पश्यति॥४५७॥ कृत्तिकापुरवास्तव्य: कामपालोऽस्मि नामत:। निरगां यौवनोन्मत्तो देशान्तरदिदृक्षया॥४५८॥ पर्यटश्चाऽऽसदंशङ्खपुरं नाम महापुरम् । तत्रेक्षितुंशङ्खपालयक्षोत्सवमगामहम् ॥४५९।। तत्र चूतनिकुञ्जान्त: स्मरान्त:पुरिकोपमाम्। अपश्यं कन्यकामेकामेकान्तशुभदर्शनाम्॥४६०॥ सानुराग: सानुरागं तयाऽप्यहमुदीक्षित:। तदृक्पाशैर्बद्ध इव चिरंतत्र स्थितोऽस्मि च॥४६१॥ सखीहस्तेन मेऽदत्त सा ताम्बूलमनिन्दिता। ओष्ठरागस्येव मनोरागस्याऽपि निबन्धनम्॥४६२॥ ताम्बूलमाददानस्तद्युज्यते मम किन्त्विह। कृतप्रतिकृतिचिकीरिति यावदचिन्तयम् ॥४६३॥ १. वार्ताम् ।। २.० पूरुपैर्निजैः खंता. पाता. वा.१-२ विना ।। ३. गुरुणा पित्रादिनोपक्रान्तमारब्धम् ।।४. विवाहमेवमप्रियम् ता., विवाहामि मम प्रियम् मु.॥ ५. विधातुं-कर्तुमिच्छन्ति॥६. एवमुक्ता० मु.॥७. चक्रवाकयोः॥८. अर्थस्तयोरसम्पन्न० मु.प्रभृतिषु। अर्थ-प्रयोजने॥९. लग्नयात्रा 'जान' इति भाषायाम् ।। १०. विनक्ष्यति॥११.यथायोग्यसम्बन्धकरणेऽज्ञाभ्याम् ।।१२. गुमडुं' इति भाषायाम् ॥१३. तूणीरवत्॥१४. इन्द्रधनुष इवभारया आकृत्या-कायेन ॥१५. हेतु मृत्यु मु.॥१६. विदधे ता. पा. ला.सं. ॥१७.०र्थप्राप्तिहेतवे पा. दे. ॥१८. प्राप्ये वस्तुनि॥१९. नोपाया मर्तुम् पा.छा. ता.सं. ।। २०. ताहक्पाशै० मु.॥२१. किं न्विह खंता. ॥ २२. कृतस्य प्रत्युपकर्तुमिच्छन् ।। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (पञ्चमं पर्व तावदालानमुन्मूल्य परितस्त्रोटितान्दुकः । प्रससार महासार: कोऽप्येको 'व्यालकुञ्जरः ।।४६४॥युग्मम्।। प्रतीकारासहै`रात् प्रतिकारैः समुज्झित: अतिमात्राकुलैर्धावन् महामात्रैरुदीक्षितः॥४६५॥ आराहस्तान् हस्तिपकान् विहस्तानपहस्तयन्। हस्ती चूतनिकुञ्जतं क्षणादप्याससाद सः॥४६६॥युग्मम्।। तस्या: सर्व: पलायिष्ट कन्यकाया: परिच्छदः। आत्मैवोपरि सर्वस्य प्रायेणोपस्थितेभये॥४६७॥ आपतत्यपि तत्रेभेसा पलायितुमक्षमा। हरिणारौ हरिणीव तस्थौ तत्रैववेपिनी॥४६८॥ यावदादत्त हस्तेन तां कन्यां सामि सामजः। लकुटेन मया तावत् पेचके सन्यहन्यत॥४६९॥ कन्यां मुक्त्वा से ववले पुच्छस्पृष्ट इवोरग:। तंगजंवञ्चयित्वा च तांचाऽऽदायाऽन्यतोऽगमम् ॥४७०॥ मुमुचेसा मयैकस्मिन् प्रदेशे निरुपद्रवे। सा तु वारितवामेव हृदयान्न मुमोच माम् ॥४७१॥ तस्या: परिजनस्तत्र भूयोऽपि हि समाययौ। त्रातां च मदिरांज्ञात्वा बन्दीव प्रशशंस माम्॥४७२॥ पुनश्चूतवने तस्मिन् सा सखीभिरनीयत। दैवादापेतुरनिलाकृष्टाश्च करिशीकराः॥४७३॥ भीता दिशो दिशं जग्मुस्तत: सर्वेऽपि सा पुनः। गता क्वाऽपीत्यजानान: पर्याटं तद्दिदृक्षया॥४७४॥ तामदृष्ट्वा चिरेणाऽपि शून्यस्वान्त इहाऽऽगमम्। न म्रिये निरुपायोऽपि किन्तु जीवामि पश्य माम्॥४७५॥ केसरायास्तु सम्प्राप्तावुपाया अपि सन्त्यहो! । तत्तुल्यदु:खं मित्रं त्वां वच्म्यज्ञानेन मा मृथाः ॥४७६।। पाप्रातर्विवाह इत्यद्य स्मरं रतिसमन्वितम् । कल्पोऽयमिति सैकैव पूजयिष्यति केसरा॥४७७॥ ततोऽनागतमेवाऽऽवां स्मरदेवकुलान्तरे । सखे! प्रविश्य तिष्ठावो निभृतं साधकाविव ॥४७८।। तस्यां तत्र प्रविष्टायां तद्वेषग्रहणादहम् । सेर्वं यास्यामि तद्नेहं मोहयंस्तत्परिच्छदम्॥४७९॥ मयि दूरमपक्रान्ते तामादाय त्वमन्यतः। गच्छे: स्वच्छन्दमिच्छा ते सेत्स्यत्येवमखण्डिता॥४८०॥ वचसा मुदितस्तेन वसन्तोऽप्येवमब्रवीत् । ममाऽत्र योग: क्षेमं च पश्यामि व्यसनं तु ते॥४८१।। तदा च वृद्धब्राह्मण्येष्टदेव्येव कृतं क्षुतम् । ऊचे च कामपालेन ममेह व्यसनं न हि॥४८२।। त्वत्कार्येऽस्मिन् प्रसक्तस्य प्रत्युताऽभ्युदयो मम । प्रयाति सात्त्विकानां हि दैवमप्यनुकूलताम्॥४८३।। अत्राऽन्तरे ब्राह्मणेन वृद्धेन स्वार्थसङ्गतम् । एवमेतन्न सन्देह इत्यूचे हृष्टचेतसा॥४८४॥ निबध्य शकुनग्रन्थिं प्रतिपद्य च तद्वचः। वसन्तदेव: सुहृदा सह तेनाऽविशत् पुरीम् ॥४८५॥ तत्राऽशनादि कृत्वा तौ सायं निर्गत्य वेश्मनः । स्मरदेवकुलं गत्वा तस्थतुः स्मरपृष्ठतः ॥४८६॥ पतत्र स्थिताभ्यां ताभ्यां तु मङ्गल्यस्तूर्यनि:स्वनः। आयाति केसरा नूनमिति हर्षेण शुश्रुवे॥४८७॥ साऽपि स्मरणमात्रेण साध्यं मन्त्रं मुहुर्मुहुः । प्रेय:समागमं नाम स्मरन्ती तत्र चाऽऽययौ॥४८८॥ याप्ययानात् समुत्तीर्य विमानादिव नाकिनी। प्रियङ्कराकरात् स्वर्णमयीं पूजामुपाददे॥४८९॥ एकाकिनी प्राविशत्सा स्मरदेवकुलं ततः । आचार इत्यपिधे तद्द्वारं निजपाणिना ॥४९०॥ भूतले पुष्पपत्राघु प्रक्षिप्योद्दिश्य मन्मथम्। मन्मथाक्रान्तहृदया प्राञ्जलि: सैवमब्रवीत्॥४९१॥ चित्ते भवसि सर्वेषां सदा वससि तत्र च। तेन जानासि तद्भावं भगवन्! मकरध्वज! ॥४९२॥ सर्वभावविदस्तत्किमेतद्युक्तं तव प्रभो!। अनभीष्टेन यत्पत्या नियोजयसिमां बलात्॥४९३॥ १.अन्दुकः-पादशृङ्खला॥२.मत्तो गजः ॥३. अत्यन्ताकुलैः॥४. हस्तिपकैः ।। ५. आरा शस्त्रविशेषो करे येषां तान् ॥६. विहस्तान् व्याकुलान् हस्तिपकान् अपसारणार्थे हस्तं शुण्डादण्डं ऊ/कुर्वन् ।। ७. सर्वस्योपरि-सर्वस्मादधिक: सर्वस्याऽऽत्मैव ॥ ८. हरिणानां शत्रु सिंहस्तस्मिन् आगच्छति सतीत्यर्थः ॥९. यावज्जग्राह सं.ता.पा.ला.॥१०.अर्धाम् ॥११. गजः॥१२. पुच्छाग्रभागे॥१३. सोऽवलिष्ट मु.प्रभृतिषु॥१४.०याऽन्यतो ययौ वा.१-२॥ १५. विमुक्ता मु.प्रभृतिषु ॥१६.वारितानि वामानि दूषणानि यया सा॥१७.बन्दीवाऽवर्णयच्च सं.ता.पा. ला.; खंता. पाता. वा.१-२ विना ॥१८. दैवादापतन्ननिला० दे. मु.॥१९. करिणश्चीत्कारा: 'चिंघाड' इति ॥२०. यातास्तत:मु.प्रभृतिषु ।।२१. पर्यटं मु.॥२२. तत्तुल्यदुःखमित्रं०खंता. पाता. वा.१-२ ।। २३. गुप्तं यथा तथा ।। २४.सेवयिष्यामि खंता. पाता. वा.१-२॥२५. तव मु.प्रभृतिषु ।। २६. वेश्मत: छा. ।। २७. साध्यमन्त्रं मु.प्रभृतिषु, पाता. ॥ २८. पिनद्धवती ॥२९. पुष्पपत्रार्थ मु.प्रभृतिषु ।। ३०. तत्सर्व ता.॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम: सर्ग:) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । विना वसन्तदेवं मे नाऽन्यत्र रमते मनः । विषकन्या पत्युरिवाऽन्यः पतिर्मरणाय मे॥४९४॥ वसन्तदेवो मे भर्ता भूयाजन्मान्तरेऽपि हि। नमस्कृतोऽसि सुचिरं नमस्कारोऽयमन्तिमः॥४९५॥ इत्युक्त्वा यावदात्मानं तोरणे प्रोद्बबन्ध सा। तावद्वसन्तो धावित्वा पाशग्रन्थिं व्यसूत्रयत्॥४९६।। कुतोऽयमिति साश्चर्या सव्रीडा सभया चसा। एवं वसन्तदेवेन जगदे कुमुदेक्षणा॥४९७।। असौ वसन्तदेवोऽस्मि प्रिये! प्राणप्रियस्तव। मनोभवाद्याचसे यं परलोकेऽप्यधीश्वरम् ॥४९८॥ निष्कारणवयस्यस्याऽमुष्य बुद्ध्या महात्मनः। अनागतां प्रविष्टोऽस्मि त्वां जिहीर्षुः कृशोदरि! ॥४९९।। तदर्पयस्व नेपथ्यं येन त्वद्वेषधार्यसौ। मोहयंस्ते परिजनं त्वद्वत् त्वद्वेश्म गच्छति॥५००॥ समंत्वत्परिवारेण किञ्चिदस्मिन्नुपेयुषि। देशान्तरमभिप्रेतं यास्याम: श्यामकुन्तले! ॥५०१।। इत्युक्ता निजनेपथ्यं कामपालाय साऽपर्यत् । पृष्ठे च कामदेवस्य स वसन्तोऽप्यवास्थित ॥५०२॥ कामदेवं कामपालोऽप्यर्चित्वा कुसुमादिना। चकार केसरावेषं नीरङ्गीपिहिताननः ॥५०३।। स्वयमुद्धाट्य तद्वारमवलम्ब्य प्रियङ्कराम्।याप्ययानं समारोहद्वाहीकैस्तदौह्यत॥५०४॥ सोऽलक्षित: परिजनैः पञ्चनन्दिगृहं ययौ। सुप्रयुक्तस्य दम्भस्य ब्रह्माऽप्यन्तं न गच्छति॥५०५।। स प्रियङ्करया यानादवतार्य वधूगृहम् । अनाय्युपावेश्यत चस्वर्णवेत्रासने तया॥५०६॥ स्मरन्ती केसरे! तिष्ठ मन्त्रं प्रियसमागमम्। पुदित्वा निर्जगाम सा प्रियाकृत् प्रियङ्करा॥५०७।। सोऽथतद्वाक्यभावार्थमुपादायाऽस्मरन्मुहः। मन्त्रं काम-रतिसमागमं नाम महामतिः॥५०८॥ केसरामातुलसुता जन्ययात्रानिमन्त्रिता। साशवपुरवास्तव्या मदिरा तत्रचाऽऽययौ॥५०९।। तस्योपविश्य पुरत: किञ्चिनिःश्वस्य चाऽब्रवीत्। केसरे! किं सखेदाऽसि विध्यधीनासु सिद्धिषु? ॥५१०॥ समंवसन्तदेवेन सङ्गमं ते वराङ्गने!। अभीष्टमहमश्रौषमपिशङ्खपुरे स्थिता ॥५११॥ अहमात्मानुभूतत्वात्प्रेयोविरहवेदनाम्। जानामि तेन वच्मि त्वां समाश्वासयितुं सखि! ॥५१२॥ अनभीष्टं करोत्येष प्रतिकूलो यथा विधिः । दशावशेनाऽनुकूलोऽभीष्टं कर्ता तथैव सः॥५१३।। सखि! किञ्चाऽसि धन्या त्वं यस्यास्ते प्रेयसा समम् । अभूवन् दर्शनालापप्रभृतीनि मुहुर्मुहुः ॥५१४॥ वृत्तान्तो दारुणो मे तु दुःश्रवः श्रूयतां सखि! । शङ्खपालोत्सवेऽहं हि समं परिजनैरगाम्॥५१५।। तत्राऽशोकद्रुमस्याऽधो मन:सर्वस्वतस्करम्। युवानमेकमद्राक्षप्रत्यक्षमिव मन्मथम्॥५१६।। सखीहस्तेन ताम्बूलं तस्मैच प्रेषितं मया। रक्षिताऽस्मि च तेनाऽहं व्यालेभादन्तकादिव॥५१७।। पुनश्च हस्तिशङ्कायां त्रस्ताऽहं ससखीजना। भूयोऽपिचाऽन्वेषयन्ती नाऽपश्यं तं क्वचिद्गतम्॥५१८।। अलिदष्टा मर्कटीव सर्वत्राऽरतिभाजनम् । तदाप्रभृति जीवामि वराक्येषा कथञ्चन ॥५१९॥ अद्ययावत्तमद्राक्षं स्वप्न एव मनोरमम् । यदि दैवप्रसादेन सप्रत्यक्षो भविष्यति॥५२०॥ तव दु:खं लघूकर्तुं रहस्यं शस्यते मया।अन्यं हि दुःखितं दृष्ट्वा समाश्वसन्ति दुःखिनः ॥५२१॥ तदलं सखि! खेदेनाऽनुकूले हि विधौ स्वयम्। प्रेय:समागमो भावी कातरे! धैर्यभाग्भव॥५२२॥ अथाऽपसार्य नीरङ्गीकामपालोऽब्रवीदिदम्। त्वया यक्षोत्सवे दृष्टपूर्वोऽस्म्येष सते प्रियः॥५२३॥ दैवानुकूल्यादधुनैवाऽऽवयोरिव सङ्गमः। अभवत् कान्ते! वसन्तदेव-केसरयोरपि॥५२४॥ अलमालापविघ्नेन विमुञ्च भयनिघ्नताम्। किञ्चिन्निर्गमनद्वारं दर्शयाऽनिन्द्यदर्शने!॥५२५।। एवमुक्त्वा गृहोद्याने पश्चिमद्वारवर्त्मना। मदिरादर्शितेनाऽगात् समं मदिरयैव सः॥५२६।। पूर्वं पुरेऽस्मिन् वसन्तदेव-केसरयोस्तयोः। आयातयो: संयुयुजे कामपालोऽथ सप्रियः॥५२७।। १. वेषम् ।। २. यास्याव: छा. मु.॥३. पालखी' ॥४. वरानने पा.॥५. च विमार्गन्ती मु.प्रभृतिषु॥६. वृश्चिकदष्टा ॥७. तंच मु.॥८. समाश्वसिति दुःखितः मु.॥९. बभूव ता. पा.ला. सं.॥१०. भयाधीनत्वम्॥ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (पञ्चमं पर्व ६८ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं पूर्वस्नेहेन ते नित्यं ढौकनं पञ्चवस्तुकम् । अद्भुतं विदधाते तौ राजन्! जानीहि ते त्वमी॥५२८।। अमीभिः सह तद्भोक्तुं त्वमिष्टैरीशिषे नृप! । नेयत्कालमभुक्यास्त्वमभीष्टानविदन्नमून् ॥५२९॥ श्रुते प्रभोर्वचस्येवं राज्ञस्तेषां च तत्क्षणम्। जातिस्मरणमुत्पेदे प्राक्स्नेहोद्योतदीपकः॥५३०॥ भगवन्तं ततो नत्वा कुरुचन्द्रमहीपतिः । तान् सोदर्यानिव स्नेहादनैषीन्निजवेश्मनि ॥५३१॥ देवा अपि प्रभुं नत्वा स्थानं निजनिजं ययुः । भगवानप्यन्यतोऽगादनुगृह्णन् महीतलम् ॥५३२॥ श्रमणानां सहस्राणि द्वाषष्टिनैष्ठिकात्मनाम्। साध्वीनामेकषष्टिस्तु सहस्रा: षट् शतानि च॥५३३॥ चतुर्दशपूर्वभृतांशतान्यष्टौ महात्मनाम् । तथा सहस्रत्रितयमवधिज्ञानधारिणाम्॥५३४।। चत्वारि च सहस्राणि मन:पर्ययशालिनाम् । केवलज्ञानभाजां त्रिचत्वारिंशच्छतानि तु॥५३५।। जातवैक्रियलब्धीनां सहस्राणि षडेव हि। वादलब्धिमतां द्वे तु सहस्रे सचतुःशते॥५३६॥ श्रीवकाणामुभे लक्षेसहस्रा नवतिस्तथा। सहस्रत्रिनवत्यग्रा श्राविकाणां त्रिलक्ष्यपि॥५३७॥ आरभ्य केवलाद्वर्षसहस्रान् पञ्चविंशतिम् । एकाब्दोनां विहरत: परिवारोऽभवत् प्रभोः ॥५३८।। निर्वाणकालं ज्ञात्वाचसम्मेतादिप्रभुर्ययौ। प्रपेदेऽनशनं सार्धं मुनीनां नवभि: शतैः॥५३९।। मासान्ते च ज्येष्ठकृष्णत्रयोदश्यां निशाकरे। भरणीस्थे ययौ स्वामी मोक्षं तैर्मुनिभिः सह ॥५४०॥ कौमारे मण्डलीकत्वे चक्रभृत्त्वे व्रतेऽपि च। प्रत्येकं लक्षतुर्यांशोऽब्दलक्षायुरिति प्रभुः ॥५४१॥ श्रीधर्मनाथनिर्वाणाच्छ्रीशान्तिस्वामिनिर्वृति: । पादोनपल्यन्यूनेषु सागरेष्वभवत्रिषु।।५४२।। चक्रे शान्तिजिनस्य मोक्षमहिमा तत्रेन्द्रमुख्यैः सुरैः कालेनाऽर्जितकेवलो गणधरश्चक्रायुधः सोऽपि च। भव्योद्बोधकृते विहत्य सुचिरं संन्यस्य चाऽऽयु:क्षये तीर्थे कोटिशिलाभिधे शिवमगात् प्राज्यैः समं साधुभिः॥५४३॥ षट्खण्डोर्वीतलजयविधावप्यनायासभाजस्त्यक्त्वा लक्ष्मी तृणमिव चतामप्युपात्तव्रतस्य। चक्रित्वेन प्रथितयशसस्तीर्थकृत्वेन चोच्चै(रोदात्तं जयति चरितं धीरशान्तंचशान्तेः॥५४४।। इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये पञ्चमे पर्वणि श्रीशान्तिनाथचरम भववर्णनो नाम पञ्चम: सर्गः॥ ॥ इति श्रीशान्तिनाथचरितप्रतिबद्धं पञ्चमं पर्व समाप्तम॥ १. श्रुत्वा प्रभोर्वचांस्येवं मु. ।। २. ०नप्यतोऽथागादनु० मु. ।। ३. श्रमणानां सङ्ख्या ६२सहस्रमिता ।। ४. व्रतनिष्ठात्मनाम् ।। ५. साध्वीनां सङ्ख्या ६१६००मिता॥६. चतुर्दशपूर्विणां सङ्ख्या ८००मिता॥७. अवधिज्ञानधारिणां सङ्ख्या ३सहस्रमिता॥८. मन:पर्ययज्ञानिनां सङ्ख्या ४सहस्रमिता। मन:पर्याय वा.१-२,मनःपर्यव० मु.॥९. केवलज्ञानिनां सङ्ख्या ४३००मिता ॥१०. च मु.॥११. वैक्रियलब्धीनां सङ्ख्या ६सहस्रमिता ।। १२. वादलब्धीनां सङ्ख्या २४००मिता॥१३. श्रावकाणां सङ्ख्या २लक्ष-९०सहस्रमिता॥१४. श्राविकाणां सङ्ख्या ३लक्ष-९३सहस्रमिता॥१५. कौमारे वर्षसङ्ख्या २५सहसमिता। १६. मण्डलीकत्वे वर्षसङ्ख्या २५सहस्रमिता ॥ १७. चक्रित्वे वर्षसङ्ख्या २५सहस्रमिता ॥ १८. दीक्षायां वर्षसङ्ख्या २५ सहस्रमिता ।। १९. आयुर्वर्ष १लक्षमितमासीत् ।। २०. दीक्षां पालयित्वा ।। २१. सर्गः समाप्त: वा.१-२॥ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥अर्हम्॥ ॥श्रीकुन्थुनाथाय नमः॥ ॥कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविनिर्मितं त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ॥ ॥श्रीकुन्थुनाथ-अरनाथादिचरितप्रतिबद्धं षष्ठं पर्व ।। ॥प्रथम: सर्गः।। ॥श्रीकुन्थुनाथचरितम्॥ जयन्ति जयिनः कुन्थुस्वामिनो देशनागिरः । महामोहदृषद्भेदसरित्पूरसहोदरा: ॥१॥ त्रैलोक्यस्वामिन: कुन्थोश्चरित्रं वच्मि पावनम् । संसाराम्भोधिमथने मन्थानाचलसन्निभम् ॥२॥ अस्यैव जम्बूद्वीपस्य प्राग्विदेहेषु सुन्दरे । आवर्तनाम्नि विजये कृतस्वर्विजये श्रिया ॥३॥ महापुर्यां खड्गिनाम्न्यां नि:सीमगुणभाजनम् । सीमा धर्मधुरीणानां राजा सिंहावहोऽभवत् ।।४॥ आधार इव धर्मस्य कुठार इव पाप्मनः । न्यायस्य कुलवेश्मेव सुधियां जन्मभूरिव ॥५।। तस्य मन्त्रो मन इव दुर्लक्षो विदुषामपि। शक्रस्येव प्रभुत्वं चोत्साहश्चाऽभूद्धरेरिव॥६।। अनुल्लङ्घितमर्याद: समुद्र इव स स्वयम् । मर्यादायां जगदपि धारयामास शक्तिमान् ॥७॥ कृष्टिमन्त्र इव श्रीणां भेदमन्त्र इव द्विषाम् । रक्षामन्त्र इवाऽवन्यास्तस्य रेजे धनुर्ध्वनिः ॥८॥ धर्मायैव शशासोर्वी न पुनविणाय सः । सर्वदा धर्मनिष्ठानां फलं तद्ध्यानुषङ्गिकम् ॥९॥ अनासक्त्योपभुञ्जानो भोगान् योगीव भोजनम् । कञ्चिदप्यतिचक्राम कालं तत्त्वविदग्रणीः ॥१०॥ वेलामब्धिरिवाऽन्येधुर्वैराग्यमधिकं दधन् । संवराचार्यपादान्ते गत्वा दीक्षां स आददे ॥११।। व्रतं प्रपालयस्तीव्रमर्हदाराधनादिभिः । स्थानकैरर्जयामास तीर्थकृन्नामकर्म सः ॥१२॥ से मृत्वा कालयोगेन समदृष्टिः समाहितः। देवो विमाने सर्वार्थसिद्धनामन्यजायत॥१३॥ पाइतश्च जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्याऽत्रैव भारते । क्षेत्रेऽस्ति हास्तिनपुरमिति ख्यातं महापुरम् ॥१४॥ तत्र चैत्येषु विशेदपताकाव्यपदेशत: । नित्यं प्रमुदितो धर्म इव नृत्यति निर्भरम् ॥१५॥ तद्गृहेष्वभितो रत्नबद्धप्राङ्गणभूमिषु । नामाऽप्यभूत् कर्दमस्य केवलं येक्षकर्दमे ॥१६॥ तद्वप्रे रत्नघटिते स्वैरेव प्रतिबिम्बितैः । परे बुद्ध्या गन्धेभा दन्तघातान् वितन्वते ॥१७॥ नृपौकस्सु जनौकस्सु गोपुरेष्वपरत्र च । तत्सर्वमार्हतैर्बिम्बैर्व्याप्तं व्योम ग्रहैरिव ॥१८॥ तेजसाऽभिनव: शूरः शूरो नाम महीपतिः । बभूव तस्मिन्नलकापुर्यामिव धनेश्वरः ।।१९।। १. जयशीलस्य ॥२. महामोह एव दृषत्-पाषाणस्तस्य भेदे नदीपूरसमानाः ॥ ३. पवित्रम् ।। ४. मन्थनाचलस० मु. । मन्दराचलसदृशम् ॥५. कृत: स्वर्गस्य जयो येन तस्मिन् ॥ ६. श्रियः खंता, ।। ७. ०स धियां खंता. ॥ ८. मन्त्रशक्तिः ॥ ९. प्रभुत्वशक्तिः ॥ १०. उत्साहशक्तिः ॥ ११. कृष्णस्य इव ।। १२. अनुल्लवितमर्यादसमुद्र इव ला. पा. ॥१३. वशीकरणमन्त्रः ।। १४. द्रविणम् ।।१५.अवान्तरफलम् ।। १६. अनाशक्त्योप० ला. पा. छा. हे. ॥१७. किश्चिद० मु.प्रभृतिषु, पाता. वा.१-२॥१८. व्रतं स पालयं० हे.,व्रतं च पालयं० ला. छा. ।। १९. विपद्य हे. ॥२०. सम्यग्दृष्टि: मु. खंता. ॥ २१. उज्ज्वलपताकाव्याजात् ॥२२. “कर्पूरागरु-कक्कोल-कस्तूरी-चन्दनद्रवैः। स्याद् यक्षकर्दमों"(अभि.चिं.तृ.का.श्लो.६३८-६३९)॥२३.अन्यगजशङ्कया । २४. ०रेष्वपरेषु छा. पा. ॥ २५. सूर्यरूप इत्यर्थः ॥ २६. कुबेरः। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम: सर्ग:) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । द्वैतीयीकोऽन्तरात्मेव हृदि तस्याऽवसत् सदा । धर्म एवाऽर्थ-कामौ तु बहिःस्थौ 'बहिरात्मवत् ॥२०॥ प्रतापाक्रान्तदिक्कस्य तस्य शस्त्राणि जज्ञिरे। दोष्णोर्विभूषणायैव केयूर-कटकादिवत् ॥२१॥ न चुकोप से कस्मैचिज्जुगोप च महीमिमाम् । विनाऽपि तीव्रतां विश्वं प्रकाशयति चन्द्रमाः ॥२२॥ रूप-लावण्यपुण्याङ्गी शीलनैर्मल्यशालिनी। श्रीदेवीव हरेस्तस्य नाम्ना श्रीरिति पत्न्यभूत् ॥२३॥ किं सुधासारणि: ? किं वा सुधांशोरधिदेवता ? । सुधां क्षरन्ती वचसा शुशुभे सा शुभानना ॥२४।। मन्दमेवाऽनवद्याङ्गी जगाम च जगाद च । हंसीव राजहंसस्य तस्य सा प्राणवल्लभा ।।२५।। तया देव्या समं भोगान् बुभुजे सूरपार्थिवः । निर्विघ्नसुखनिर्मग्नो वैमानिक इवाऽमरः ॥२६॥ पाइतश्च सर्वार्थसिद्धे विमानेऽपूरयन्निजम् । जीव: सिंहावहस्याऽऽयुस्त्रयस्त्रिंशार्णवप्रमम् ॥२७।। श्रावणासितनवम्यां कृत्तिकास्थे निशाकरे । च्युत्वा ततस्तस्य जीव: श्रिय: कुक्षाववातरत् ॥२८॥[युग्मम्] चतुर्दन्तो गज: श्वेत: ककुद्यान् कुमुदद्युतिः । केसयुत्केसरो लक्ष्मीरभिषेकमनोरमा ॥२९॥ पञ्चवर्णं पुष्पदाम पार्वणो रजनीकरः । प्रद्योतन: कृतद्योत: सपताको महाध्वजः ॥३०॥ शातकौम्भ: पूर्णकुम्भ: पद्मपूर्ण सरोवरम्। सरितां पतिरुद्वीचिर्विमानं रत्ननिर्मितम् ॥३१॥ रत्नपुञ्जोऽभ्रंलिहरुग् निघूमश्च विभावसुः । एते चतुर्दश स्वप्नास्तदा ददृशिरे तया ॥३२॥ देव्या च कथितान् स्वप्नान् व्याचख्यौ नृपतिः प्रेगे। स्वप्नैरेभिः सुतो भावी चक्रभृत् तीर्थकृच्च ते ॥३३॥ ततो नवसु मासेषु दिनेष्वर्धाष्टमेषु च। राँधकृष्णचतुर्दश्यां कृत्तिकास्थे निशाकरे ॥३४॥ ग्रहेषु चोच्चसंस्थेषु छागाकं काञ्चनच्छविम्। सर्वलक्षणसम्पूर्ण श्रीदेवी सुषुवे सुतम् ।।३५।। नारकाणां क्षणं सौख्यमुद्योतश्च जगत्त्रये। अभूत्तदा चाऽऽसनानि शक्रादीनां चकम्पिरे ॥३६॥ उपेत्याऽऽसनकम्पेन कर्मकर्य इव क्षणात् । षट्पञ्चाशद्दिक्कुमार्य: सूतिकर्माणि चक्रिरे ॥३७॥ शक्रः पञ्चवपुर्भूत्वा मेरुशैलेऽनयत् प्रभुम् । इन्द्राश्च स्नपयामासुस्त्रिषष्टिस्तीर्थवारिभिः ॥३८॥ ईशानाङ्के निवेश्येशं शक्रोऽप्यस्नपयत् तत: । कृत्वा पूजादिकं चोच्चैरिति स्तोतुं प्रचक्रमे ॥३९।। “अद्य नीराणि क्षीरोदप्रभृतीनामुदन्वताम् । पद्मप्रभृतिह्रदानां पद्मानि च पयांसि च ॥४०॥ औषध्य: क्षुद्रहिमवत्प्रभृतीनां महीभृताम् । भद्रशालप्रभृतीनां वनानां कुसुमान्यपि ॥४१।। मलयाधित्यकादीनां भूमीनां चन्दनानि च । युष्मत्स्नात्रोपयोगेन कृतार्थानि जगत्पते! ॥४२॥त्रिभिर्विशेषकम्।। कृतार्थमिदमैश्वर्यमखिलानां दिवौकसाम् । देव! त्वज्जन्मकल्याणमहोत्सवविधानतः ॥४३।। उत्कृष्टो भूभृतामद्य तीर्थभूतोऽयमद्य च। प्रासाद इव बिम्बेन त्वया मेरुरलङ्कतः॥४४॥ अद्य चढूंषि चढूंषि पाणयश्चाऽद्य पाणयः । दर्शनेन स्पर्शनेन भवतो भुवनेश्वर! ॥४५॥ अद्य न: सफलं नाथाऽवधिज्ञानं निसर्गजम् । येनं ते जन्म विज्ञाय जन्मोत्सवमकृष्महि ।।४६।। यथाऽद्य हृदयद्वारे स्नात्रकाले ममाऽभवः । तथैव हृदयस्याऽन्तरपि भूयाश्चिरं प्रभो!” ||४७।। जगन्नाथमिति स्तुत्वा गृहीत्वा च पुरन्दरः । गत्वा च हास्तिनपुरं श्रीदेव्या: पार्श्वतोऽमुचत् ॥४८।। पचक्रे जन्मोत्सवः सूनो: शूरेणाऽपि महीभुजा । यद्वोत्पन्ने तीर्थनाथे सदोत्सवमयं जगत् ॥४९।। दृष्टो देव्या गर्भगेऽस्मिन् कुन्थ्वाख्यो रत्नसञ्चयः । कुन्थुरित्यभिधां तेन स्वामिनो विदधे पिता ॥५०॥ १. बहिरात्मकृत् खंता. ॥ २. सर्वशस्त्राणि छा. पा. ।। ३. च स काऽपि जु० हे. ॥ ४. त्रयस्त्रिंश्यर्णवप्रमम् खंता. । त्रयस्त्रिंशत्सागरप्रमाणम् ॥ ५. श्रावणकृष्णनवम्याम् ॥ ६. वृषभः॥७. पूर्णिमासम्बन्धी॥८. सूर्यः ।। ९. सौवर्णः॥१०. समुद्रः॥११. अग्निः॥१२. प्रात:काले।।१३. स्वप्नैरेभिर्जगद्वन्द्यो भावी ते तीर्थकृत् सुत: हे. ॥१४. वैशाखकृष्णचतुर्दश्याम् ।। १५. अज: लाञ्छनं यस्य सः, तम् ॥ १६. काञ्चनस्य सुवर्णस्य इव छवि: कान्तिर्यस्य सः, तम् ॥ १७. पञ्चत्रिंशद्धनुस्तुङ्गम् हे. ॥१८. किड्कयः;कर्मकार्य इवला.॥१९. सागराणाम् ।। २०. ओषध्य: मु.॥२१. पर्वतानाम् ॥ २२. पर्वतस्योपरितनो भूभागः ।। २३. पर्वतानाम् ।। २४. जिन! मु. ॥ २५. गृहीत्वाऽऽशु छा. पा. मु.॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (षष्ठं पर्व शक्रसङ्क्रमिताङ्गुष्ठपीयूषं भगवान् पिबन् । क्रमेण 'वर्धमानोऽभूत् पञ्चत्रिंशद्धनूनतः ॥५१॥ पित्राज्ञया पर्यणैषीत् स काले राजकन्यका: । कर्म भोगफलं छेत्तुं चाऽन्यथा शक्यते न हि॥५२॥ त्रयोविंश्यब्दसहस्रेष्वर्धाष्टमशतेषु च । गतेषु जन्मतो राज्यं प्रभुः पित्राज्ञयाऽग्रहीत् ॥५३॥ गतेष्वब्देषु तावत्सु भर्तुर्मण्डलिकस्थितौ । मध्येऽस्वसदने चक्ररत्नं समुदपद्यत॥५४।। चक्रेऽर्चा चक्ररत्नस्य जगदर्योऽपि सूरसूः । महात्मानो हि कुर्वन्ति सेवकेष्वपि सत्कृतिम् ।।५५।। मागधेशं वरदाम-प्रभासाधिपती अपि । क्रमेण साधयामास चक्ररत्नानुगः प्रभुः ॥५६।। सिन्धुदेवीं वैताढ्याद्रिकुमारं कृतमालकम् । स्वयं सोऽसाधयदथ सेनान्या सिन्धुनिष्कुटम् ।।५७/ सेनान्योद्घाटितद्वारा प्रविश्य च तमिस्रया। निर्गत्य चाऽऽपातनाम्नो म्लेच्छान् प्रभुरसाधयत् ॥५८।। सेनान्या च वशीचक्रे द्वितीयं सिन्धुनिष्कुटम् । गत्वा च क्षुद्रहिमवत्कुमारं स्वाम्यसाधयत् ॥५९।। कल्प इत्यृषभकूटे निजं नाम लिलेख च । ववले च तत: स्थानाच्चक्ररत्नानुग: प्रभुः ॥६०॥ आगतश्चोपवैताढ्यं तच्छ्रेणिद्वयवर्तिभिः । विद्याधरेन्द्ररानर्चे विविधोपायनैः प्रभुः॥६१॥ गङ्गादेवीं नाट्यमालं स्वयं प्रभुरसाधयत् । गाङ्गं तु निष्कुटं सैन्यपतिना म्लेच्छसङ्कुलम् ॥६२।। सेनान्योद्घाटितखण्डप्रपातगुहया प्रभुः । प्रविश्य वैतादयगिरेर्निर्ययौ सपरिच्छदः ॥६३॥ नैसर्पप्रमुखास्तत्र नवाऽपि निधय: प्रभोः । सिध्यन्ति स्म स्वयमपि गङ्गामुखनिवासिनः ॥६४॥ द्वितीयं निष्कुटं गाङ्गं सेनान्याऽसाधयत् प्रभुः। विजिग्ये भरतक्षेत्रं षड्भिर्वर्षर्शतैरिति ॥६५॥ सम्पूर्णचक्रभृत्सम्पन् नरामरनिषेवितः । ततो निवृत्त: श्रीकुन्थुराययौ हस्तिनापुरम् ॥६६॥ चक्रे चक्रित्वाभिषेक: प्रभोर्देवैर्नरैरपि । उत्सवश्च द्वादशाब्दी पुरे तस्मिन्नजायत ॥६७।। त्रयोविंश्यब्दसहस्रा: सार्धाष्टमशता ययुः । श्रीकुन्थुस्वामिनश्चक्रवर्तिवैभवधारिणः ॥६८॥ तीर्थं प्रवर्तय स्वामिन्निति लोकान्तिकैः प्रभुः । विज्ञप्तो वार्षिकदानं ददौ राज्यं च सूनवे ॥६९।। स्वामी नपैश्च देवैश्च कृतनिष्क्रमणोत्सवः । विजयाशिबिकारूढः सहस्राम्रवणं ययौ॥७०॥ चुम्बता चम्पकलताचूतयष्टीविधुन्वता । वासन्तिका नर्तयता निर्गुण्डीरभिमृद्नता ॥७१॥ आलिङ्गता च लवली: स्पृशता नवमालिकाः। पाटलीश्च पाटयता पद्मिनीश्चाऽभिसर्पता ॥७२॥ आक्रमताऽशोकलता: कदलीरनुगृह्णता। यूनेव पवमानेन दक्षिणेन मनोरमम् ॥७३॥ दोलान्दोलनसंसक्तललनालटभीकृतम् । कुसुमावचयक्रीडाव्यग्रपौरेभ्यदारकम् ।।७४।। उन्मत्तकोकिलालापैर्मधुरैश्चाऽलकूजितैः । विहितस्वागतमिवोद्यानं तत् प्राविशत् प्रभुः ॥७५||पञ्चभि: कुलकम्।। शिबिकाया: समुत्तीर्य त्यक्त्वाऽस्लङ्करणादिकम् । वैशाखकृष्णपञ्चम्यां कृत्तिकास्वह्नि पश्चिमे ॥७६।। समं राजसहस्रेण षष्ठेन प्राव्रजत् प्रभुः । चतुर्थं प्राप च ज्ञानं मन:पर्ययसञकम् ॥७७॥[युग्मम्] पुरे चक्रपुरे व्याघ्रसिंहपार्थिववेश्मनि । द्वितीयेऽह्नि व्यधात् स्वामी परमान्नेन पारणम् ।।७८।। विदधे वसुधारादिपञ्चकं तत्र नाकिभिः । रत्नपीठं व्याघ्रसिंहेनांऽह्रिस्थाने पुन: प्रभोः ॥७९।। नि:सङ्गोऽप्रतिबद्धश्च समीरण इव प्रभुः । छद्यस्थ: षोडशाब्दानि विजहार वसुन्धराम् ।।८०।। अन्येधुर्विहरन्नागात् सहस्राम्रवणं प्रभुः। कृतषष्ठस्तिलकद्रौ तस्थौ च प्रतिमाधरः ॥८१।। १. वृद्धिमापेदे कल्पद्रुम इवाऽवनौ हे.॥२.शस्त्रागारे ॥३. सूरस्य राज्ञः सुतः-कुन्थुरित्यर्थः ॥४. सेनान्या-सेनापतिना उद्घाटितं द्वारं यस्या: सा, तया॥५. चापातनाम्नो मु.प्रभृतिषु ॥६. आचार इति हेतोः॥७. वैताढ्यसमीपम् ॥ ८.०घरेन्द्ररानर्चि ला.॥९. असिध्यन्त हे. ॥१०. सेनान्याऽसाधयत् ततः। इत्थं भरतषट्खण्डीमखण्डाज्ञोऽजयत् प्रभुः॥हे. ॥११.०वर्षशतैरपि खंता. ॥ १२.०वर्तिवैभवशालिन: खंता. मु.॥ १३. लोकान्तिकामरैः हे. ॥ १४. ददौ दीक्षोत्सुकः प्रभुः हे.॥१५. आम्रलताः ॥ १६. सिन्दुवारान् , भाषायां 'नगोडवृक्ष' ॥ १७. वायुना ॥ १८. दोलान्दोलने संसक्ताश्च ता ललनाच, ताभि: लटभीकृतं सुन्दरीकृतम् । कुसुमावचयो वसन्तः, तस्य क्रीडायां व्यग्रा: पौरा इभ्या दारकाश्च यत्र तत् ।। १९. कृत्तिकानक्षत्रे ॥ २०. देवैः ॥ २१. तिलकवृक्षतले॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः ) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । चैत्रशुद्ध तृतीयायां कृत्तिकास्थे निशाकरे । घातिकर्मक्षयात्तत्र सञ्जज्ञे केवलं प्रभोः ॥ ८२ ॥ सेन्द्रैश्चतुर्विधैर्देवनिकायैरेत्य तत्क्षणम् । चक्रे समवसरणं प्राकारत्रयमण्डितम् ॥ ८३ ॥ सुरै: सञ्चार्यमाणेषु स्वर्णाब्जेषु ददत् क्रमौ । पूर्वद्वारेण समवसरणं प्राविशद्विभुः ॥ ८४ ॥ विंशत्यग्रचतुर्धन्वशतोच्चं चैत्यपादपम् । तत्र प्रदक्षिणीचक्रे धर्मचक्री जगद्गुरुः ॥८५॥ तस्याऽधश्छन्दके जल्पन् “तीर्थाय नम” इत्यथ । पूर्वसिंहासने पूर्वाभिमुख: स्वाम्युपाविशत् ॥८६॥ स्वामिन: प्रतिरूपाणि दिक्ष्वन्यास्वपि तत्क्षणम् । तादृशि तत्प्रभावेण विचक्रुर्व्यन्तरामराः ॥८७॥ अवतस्थे यथास्थानं श्रीमान् सङ्घश्चतुर्विधः । मध्यवप्रे तु तिर्यञ्चोऽधस्तने वाहनानि तु ॥ ८८ ॥ ज्ञात्वा च समवसृतं प्रभुमागात् कुरूद्वहः । नमस्कृत्याऽनुशक्रं च निषसाद कृताञ्जलिः ॥८९॥ भूयोऽपि स्वामिनं नत्वा सौधर्मेन्द्र - कुरूद्वहौ । उद्वहन्तौ हृदि मुदं प्रारेभाते इति स्तुतिम् ॥९०॥ “चतुर्धा धर्मदेष्टारं चतुर्गात्रं चतुर्मुखम् । चतुर्थपुरुषार्थेशं त्वां स्तुमः परमेश्वरम् ॥ ९१ ॥ चतुर्दशमहारत्नीं नि:सङ्गत्वात् त्वमत्यजः । रत्नत्रयीं त्वनवद्यां दधासि जगदीश्वर ! ॥९२॥ मनो हरसि विश्वस्य निर्मनस्कस्तथाऽप्यसि । उत्तप्तस्वर्णवर्णस्त्वं ध्यायसे चेन्दुसन्निभः ॥९३॥ निःसङ्गोऽपि महर्द्धिस्त्वं ध्येयोऽपि ध्यातृतास्पदम् । कोटिशोऽप्यावृतो देवादिभिः कैवल्यभागसि ||१४|| विश्वस्य रागं तनुषे वीतरागोऽसि च स्वयम् । अकिञ्चनोऽपि भवसि जगतः परमर्द्धये ॥९५॥ अविज्ञेयप्रभावायाऽज्ञेयरूपाय तायिने । नमो भगवते सप्तदशाय भवतेऽर्हते ॥९६॥ I प्रणामोऽपि त्वयि विभोऽचिन्त्यचिन्तामणिर्नृणाम् । किं पुनर्मनसा ध्यानं स्तवनं वचसाऽपि वा ? || ९७ ।। प्रणामे स्तवने ध्याने प्रभो! त्वद्विषये मम । प्रवृत्ति: सर्वदाऽप्यस्तु कृतमन्यैर्मनोरथैः” ॥९८॥ स्तुत्वैवं दिविषन्नाथे कुरुराजे च तस्थुषि । श्रीकुन्थुनाथो भगवान् विदधे धर्मदेशनाम् ॥९९॥ “योनिलक्षचतुरशीत्यावर्तापातभीषणः । अयं खलु भवाम्भोधिर्महादुःखनिबन्धनम् ॥१००॥ तरणे च भवाम्भोधेरलैंम्भूष्णुर्विवेकिनाम् । यानपात्रं मनः शुद्धिरिन्द्रियोर्मिर्जयोर्जिता ॥१०१॥ दीपिका खल्वैनिर्वाणा निर्वाणपथदर्शिनी । एकैव मनसः शुद्धिः समाम्नाता मनीषिभिः ॥१०२॥ सत्यां हि मनसः शुद्धौ सन्त्यसन्तोऽपि यद्गुणाः । सन्तोऽप्यसत्यां नो सन्ति, सैव कार्या बुधैस्ततः ॥ १०३ ॥ मनः शुद्धिमबिभ्राणा ये तपस्यन्ति मुक्तये । त्यक्त्वा नावं भुजाभ्यां ते तितीर्षन्ति महार्णवम् ॥ १०४॥ तपस्विनो मनःशुद्धिं विनाभूतस्य सर्वथा । ध्यानं खलु मुधा चक्षुर्विकलस्येव दर्पणः ॥ १०५ ॥ तप्यमानांस्तपो मुक्तौ गन्तुकामान् शरीरिणः । वात्येव तरलं चेतः क्षिपत्यन्यत्र कुत्रचित् ॥१०६॥ मैंन:क्षपाचरो भ्राम्यन्नपैशङ्कं निरङ्कुशः । प्रपातयन्ति संसारावर्तगर्ते जगत्त्रयीम् ॥१०७॥ अनिरुद्धमनस्कः सन् योगश्रद्धां दधाति यः । पद्भ्यां जिगमिषुर्ग्रामं स पङ्गुरिव हस्यते ॥ १०८॥ मनोरोधे निरुध्यन्ते कर्माण्यपि समन्ततः । अनिरुद्धमनस्कस्य प्रसरन्ति हि तान्यपि ॥ १०९ ॥ मनःकपिरयं विश्वपरिभ्रमणलम्पटः । नियन्त्रणीयो यत्नेन मुक्तिमिच्छुभिरात्मनः ॥ ११०॥ तदवश्यं मनः शुद्धिः कर्तव्या सिद्धिमिच्छता । तपः श्रुत-यमप्रायैः किमन्यैः कायदण्डनैः ? ॥ १११ ॥ मनः शुद्ध्यैव कर्तव्यो राग-द्वेषविनिर्जयः । कालुष्यं येन हित्वाऽऽत्मा स्वस्वरूपेऽवतिष्ठते ” ॥ ११२ ॥ श्रुत्वेति देशनां भर्तुर्बहव: प्राव्रजन् जनाः । स्वयम्भूप्रमुखाः पञ्चत्रिंशद्गणभृतोऽभवन् ॥ ११३॥ " १. कुरुदेशस्य राजा ।। २. शक्रस्य पश्चात् ॥ ३. भूयो भूयोऽपि तं हे. ॥४. मोक्षस्वामिनम् ॥५. त्वां नुमः खंता ॥। ६. चतुर्दशानां महारत्नानां समाहारः ।। ७. ज्ञानदर्शनचारित्ररूपां रत्नत्रयीम् ॥ ८. ध्याता ।। ९. कैवल्यं एकाकित्वमिति विरोध: केवलज्ञानमिति तत्परिहारः ॥ १०. विश्वानुरागम् ।। ११. रक्षित्रे ।। १२. इन्द्रे ॥ १३.समर्था॥१४.इन्द्रियोर्मिजयेन ऊर्जिता तेजस्विनी ॥ १५. अनपायिनी ॥ १६. मोक्षमार्गप्रकाशिनी ।। १७. कथिता ।। १८. यद् यस्मात् कारणात् मनसः शुद्धौ सत्यामविद्यमाना अपि गुणा भवन्ति, मनः शुद्धौ चाऽसत्यां विद्यमाना अपि गुणा न भवन्ति ॥ १९. महावायुः ॥ २०. मन एव क्षपाचरो राक्षसः ॥ २१. निःशङ्कम् ।। २२. पञ्चमहाव्रतप्रधानैः ॥ ७३ For Private Personal Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (षष्ठं पर्व कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं पूर्णायामादिपौरुष्यां देशनाविरते प्रभौ । स्वयम्भूर्देशनां स्वामिपादपीठस्थितोऽकरोत् ।।११४॥ पूर्णद्वितीयपौरुष्यां व्यस्राक्षीत् सोऽपि देशनाम् । नत्वा श्रीकुन्थुमीयुश्च स्वं स्वं स्थानं सुरादयः ॥११५॥ तत्तीर्थभूश्च गन्धर्वयक्षो हंसरथोऽसित:। दधानो दक्षिणी बाहुदण्डौ वरद-पाशिनौ ॥११६।। मातुलिङ्गाङ्कुशधरौ धारयन् दक्षिणेतरौ । श्रीमत: कुन्थुनाथस्य जज्ञे शासनदेवता ॥११७।। तत्तीर्थभूर्बलादेवी गौराङ्गी केकिवाहना। बिभ्राणा दक्षिणौ बाहू बीजपूरक-शूलिनौ ॥११८।। मुष(षु)ण्ढी-पङ्कजभृतौ बिभ्रती दक्षिणेतरौ । सदा सन्निहिता जज्ञे प्रभोः शासनदेवता ॥११९॥ ताभ्याममुक्तसान्निध्यस्तत: स्थानादथाऽन्यतः । भव्यजन्तूपकाराय विजहार जगद्गुरुः ॥१२०॥ पषष्टिसहस्री साधूनां सा साध्वीनां सषट्शता। चतुर्दशपूर्वभृतां सप्तत्यधिकषट्शती ॥१२१॥ सहस्रद्वितयं सार्धमवधिज्ञानशालिनाम् । चत्वारिंशत्त्रयस्त्रिंशच्छती चाऽपि मनोविदाम् ॥१२२॥ केवलज्ञानिनां त्रीणि सहस्राणि शतद्वयम् । शतानि चैकपञ्चाशद्वैक्रियलब्धिशालिनाम् ॥१२३।। सञ्जातवादलब्धीनां सहस्रद्वितयं पुनः । श्रीवकाणां लक्षमेकन्यूनाशीतिसहस्रयुक् ॥१२४।। श्रीविकाणां त्रीणि लक्षाण्येकाशीतिसहस्यपि । आकेवलाद्विहरत: परिवारोऽभवत् प्रभोः ॥१२५।। गतेष्वब्दसहस्रेषु त्रयोविंशेषु केवलात् । चतुस्त्रिंशत्सहितेषु शतेष्वपि च सप्तसु ॥१२६॥ निर्वाणसमयं ज्ञात्वा सम्मेताद्रिं ययौ प्रभुः । समं मुनिसहस्रेण शिश्रियेऽनशनं ततः ॥१२७॥ [युग्मम्] मासान्ते राँधकृष्णादितिथौ भे कृत्तिकासु च । समं तैर्मुनिभिः स्वामी प्रपेदे पदमव्ययम् ॥१२८॥ कौमार-राज्य-चक्रित्व-व्रतेषु समभागकम् । आयु: पञ्चनवत्यब्दसहस्रमभवत् प्रभोः ।।१२९।। श्रीशान्तिनाथनिर्वाणादर्धपल्योपमे गते । कुन्थुनाथजिनेन्द्रस्य निर्वाणं समजायत ॥१३०।। निर्वाणपर्वमहिमा विदधे सुपर्वनाथैः सुपर्वसहितै: परमेश्वरस्य। दंष्ट्रा-रदादि परिपूजयितुं यथावन् निन्ये च तैर्निजनिजेषु निकेतनेषु ॥१३१।। इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये षष्ठे पर्वणि श्रीकुन्थुनाथचरित वर्णनो नाम प्रथम: सर्गः।। १. विसर्जितवान् ।।२. कृष्णवर्णः ॥ ३. वामहस्तौ ।। ४. मुषुण्ढी स्याद् दारुमयी वृत्ताय:कीलसञ्चिता (शेषनाममाला श्लो.१५१) ।। ५. साधूनां सङ्ख्या ६० सहस्रमिता ॥६. साध्वीनां सङ्ख्या ६०६००मिता॥७. चतुर्दशपूर्विणां सङ्ख्या ६७०मिता ॥८. अवधिज्ञानिनां सङ्ख्या २५००मिता॥९. मन:पर्ययज्ञानिनां सङ्ख्या ३३४०मिता॥१०.केवलज्ञानिनां सङ्ख्या ३२००मिता॥११.वैक्रियलब्धीनां सङ्ख्या ५१००मिता ॥१२. वादलब्धीनां सङ्ख्या २सहस्रमिता ।। १३. श्रावकाणां सङ्ख्या १लक्ष-७९सहस्रमिता ॥१४. लक्षमेकंन्यूना खंता.पा.हे.छा.मु.॥१५. श्राविकाणां सङ्ख्या ३लक्ष-८१सहस्रमिता ॥१६. गतेषु २३७३४वर्षेषु ।।१७. पुन: मु. ॥ १८. वैशाखकृष्णप्रतिपदि॥१९. नक्षत्रे ॥२०. कौमारे २३७५०वर्षाणि, राज्ये २३७५०वर्षाणि, चक्रित्वे २३७५०वर्षाणि, व्रते २३७५०वर्षाणि ॥ २१. आयुर्वर्षाणि ९५सहस्रमितानि॥ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥द्वितीय: सर्गः॥ ॥श्रीअरनाथचरितम्॥ इक्ष्वाकुवंशतिलकश्चारुगोरोचनारुचि: । चतुर्थारसरोहंस: पायादरजिनेश्वरः ॥१॥ त्रिजगत्कुमुदानन्दचन्द्रस्य परमेष्ठिनः । श्रीमतोऽरजिनेन्द्रस्य वक्ष्ये चरितमुज्ज्वलम् ।।२।। अस्यैव जम्बूद्वीपस्य प्राग्विदेहेषु विस्तृते । सीतानद्युत्तरतटे विजये वत्सनामनि ॥३॥ सुसीमायां महापुर्यां नि:सीमा शौर्यसम्पदाम् । नृपो धनपति माऽभवद् धर्म-यशोधनः ॥४॥ बन्धनं ताडनं चाऽङ्गखण्डनं दण्डनादि च। नाऽभत कस्याऽपि तत्राऽऽज्ञासारे शासति मेदिनीम ॥५॥ मिथोऽसञ्जातकलहैर्वत्सलैश्च मिथो जनैः । सकलाऽपि मही तस्मिन् यत्याश्रम इवाऽभवत्॥६॥ मन:सरोवरे तस्य दयावारितरङ्गिते। चिक्रीड निर्भर हंस इव धर्मो जिनोदितः ।।७।। विरक्त: सोऽथ संसारादसाराद् विश्वसारधीः । अन्तिके संवरमुनेः प्रावाजीदाँत्तसंवरः ॥८॥ स व्रतं पालयस्तीवं तप्यमानस्तपांसि च। विजहार महीमात्तविविधाभिग्रहः सुधीः ॥९॥ चतुर्मासोपवासान्तपारणे प्रत्यलाभयत् । श्रेष्ठिपुत्रो जिनदास: श्रद्धया तं महामुनिम् ॥१०॥ अर्हदाराधनाद्यैश्च स्थानैर्धनपतिर्मुनिः । आजर्यत् तीर्थकृन्नामकर्म कर्मद्विषन्नपि ॥११॥ विपद्य कालयोगेन समाहितमना: स तु । नवमग्रैवेयकेऽभूदमर: परमर्द्धिकः ॥१२॥ [इतश्च जम्बूद्वीपस्याऽस्यैव क्षेत्रे च भारते । समस्ति हास्तिनपुरं पुरं परमऋद्धिकम् ॥१३॥ राजानोऽपि प्रजायन्ते तत्र सेवार्थमागताः । दिव्यवाहन-नेपथ्या रोजायन्ते प्रजा: पुनः ॥१४॥ विभाति तत्र परिखा परितो वलयाकृतिः । श्रियः स्थैर्यकृते दत्ता स्वाज्ञालेखेव वेधसा ॥१५॥ हैम-स्फाटिक-नैलानि तत्र चैत्यान्यनेकशः । शृङ्गाणि मेरु-कैलासाञ्जनाद्रीणामिवाऽऽबभुः ॥१६॥ सुदर्शनश्चन्द्र इव तत्र नाम्ना सुदर्शनः । अभूद्भूमिभुजां प्रेष्ठः सुराणामिव वत्रहा ॥१७॥ तस्याऽऽसने वा तल्पे वा गृहे वा बहिरेव वा। धर्मोऽनुज्झितसान्निध्य: प्रियमित्रमिवाऽभवत् ॥१८॥ सिद्धमन्त्रोपमे तस्य प्रतापे परिसर्पति। प्रक्रियामात्रमेवाऽऽसीच्चतुर्धा सैन्यसङ्ग्रहः ।।१९।। गृहाङ्गणरजस्तस्य शमयामासुरन्वहम् । घनैर्मदेजलासारैर्नृपोपायनदन्तिनः ॥२०॥ देवी नाम महादेवी काऽपि देवीव गां गता । अन्त:पुरशिरोरत्नमभवत् तस्य वल्लभा ॥२१॥ नकोपं प्रणयेनाऽपि पत्यौ जातु चकार सा। सपत्नीष्वपि मात्सर्यं प्रकृत्याऽऽर्या दधार न॥२२॥ पतिप्रसाद-सौभाग्यादीनि तस्या मदाय न । सा तथाऽपि हि सञ्जज्ञे प्रेमदासु शिरोमणिः ॥२३॥ तस्याश्च निरवद्याङ्ग्या लावण्यसरितः खलु । अदृश्यत प्रेतिच्छन्दो दर्पणेष्वेव नाऽन्यतः ॥२४॥ तया च भोगान् भुञ्जान: सुभुजो भूभुजां वरः । सुदर्शनो व्यतीयाय कालं कमपि नौकिवत् ।।२५।। [इतश्च ग्रैवेयकस्थो जीवो धनपते: स तु । एकान्तसुखनिर्मग्नो निजमायुरपूरयत् ॥२६।। १. चारु: सुन्दरा गोरोचनाया इव पीतवर्णा कान्तिर्यस्य सः॥२.०गोरोचनाद्युति: मु.॥ ३. चतुर्थार एव सरस्तस्मिन् हंससदृशः ॥४. नितरां सीमारूपः ॥५. आजैव सारो यस्य तस्मिन् तत्र राज्ञि ॥६. विश्वस्य सारभूता धीर्बुद्धिर्यस्य सः।। ७. गृहीतसंवरः ॥ ८. कर्मशत्रुरपि ॥९. नवमे ग्रैवे० हे. पा. ला. ॥१०. प्रजा इव आचरन्ति ॥११. राजान इव आचरन्ति ॥१२.०स्फाटिकनीलानि छा.पा. ला.॥१३. नीलमणिमयानि ॥१४. मेरुशृङ्गसादृश्यं हैमचैत्यानामेवमनुक्रमेण ज्ञेयम् ॥१५. शोभनं दर्शनं यस्य सः ।।१६. अग्रेसरः ।। १७. इन्द्रः ॥१८. शय्यायाम् ।। १९. आचारमात्रम् ।। २०.मदजलस्य आसारो धारावर्षणं तैः ।। २१. पृथ्वी अवतीर्णा; चागता मु.॥२२. प्रकृष्टो मदो यासां तासु शिरोमणिरिति विरोध:, युवतिष्विति तत्परिहारः ।। २३. प्रतिकृतिः॥ २४. शोभनपाणिः ।। २५. देववत् ।। स्फाटिइन्द्रः ॥ २८. शव्यायाम, युवतिष्विति तत् Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (षष्ठं पर्व स च्युत्वा फाल्गुनशुक्लद्वितीयायां निशाकरे । रेवतीस्थे महादेव्या: देव्याः कुक्षाववातरत् ।।२७।। चतुर्दश महास्वप्नांस्तीर्थकृज्जन्मसूचकान् । सुखसुप्ता निशाशेषे महादेवी ददर्श सा ॥२८॥ तस्या: पीडामतन्वानस्तन्वानश्च तेनुश्रियम् । ज्ञानत्रितयसंयुक्तो गर्भो गूढमवर्धत ॥२९॥ सा मार्गशुद्धदशम्यां रेवत्यां कनकद्युतिम् । सम्पूर्णलक्षणं नेन्द्यावर्तात सुषुवे सुतम् ।।३०।। षट्पञ्चाशद्दिक्कुमार्यः सूतिकर्माणि चक्रिरे। अभिषेकश्चतुःषष्ट्या मेरौ चक्रे च वासवैः ॥३१॥ विलिप्य पूजयित्वा च कृत्वा चाऽऽरात्रिकादिकम् । स्वामिनं तमिति स्तोतुं सौधर्मेन्द्रः प्रचक्रमे ।।३२।। “नष्टाष्टादशदोषायाऽष्टादशायाऽर्हते प्रभो! । अष्टादशविधब्रह्मभृतां ध्येयाय ते नमः॥३३।। ज्ञानत्रयं गर्भतोऽपि यथैवाऽऽयंतने तव । तथैवाऽखिलमप्येतत् तीर्थनाथ! जगत्त्रयम् ।।३४॥ मोहावस्वापिनीं दत्वा राग-द्वेषादिदस्युभिः । चिरं जगदवस्कन्नं स्वामिंस्त्रायस्व सम्प्रति ॥३५॥ पथि श्रान्तैरिव रथस्तृष्णाक्रान्तैरिवाऽऽपगा। तप्तैरिव तरुच्छाया निमज्जद्भिरिवोडुपः ॥३६।। रोगिलैरिव भैषज्यं ध्वान्तान्धैरिव दीपकः । हिमात्तैरिव मार्तण्डो मार्गमूरिवाऽग्रंगः ॥३७॥ व्याघ्रभीतैरिवाऽर्चिष्मान्नैथ्यविधुरैश्चिरात् । तीर्थनाथ! त्वमस्माभिर्नाथ! प्राप्तोऽसि सम्प्रति ॥३८॥त्रिभिर्विशेषकम्।। भवन्तं नाथमासाद्य सुरासुर-नरा अमी। स्वस्वस्थानेभ्य आगच्छन्त्यमांन्त इव हर्षतः ॥३९॥ भवतो नाथ! नाथामि न खल्वन्यत् किमप्यहम् । नाथामि किन्त्विदं में त्वं नाथो भूया भवे भवे” ॥४०॥ स्तुत्वेतीशं गृहीत्वा च गत्वा चेभपुरे पुरे । सौधर्मवासवो देवीस्वामिन्या: पार्श्वतोऽमुचत् ॥४१।। पाराजा सुदर्शनोऽकार्षीत् सूनोर्जन्ममहोत्सवम् । अर इत्यभिधानं च देव्याः स्वप्नेऽरदर्शनात् ॥४२॥ सुराङ्गनाभिर्धात्रीभि: सैवयोभूय चाऽमरैः । क्रीड्यमानः क्रीडनकैः क्रमेण ववृधे प्रभुः ॥४३।। समये राजकन्याश्च त्रिंशद्धन्वसमुन्नतः । अरनाथ उपायंस्त पितृशासनगौरवात् ॥४४॥ जन्मतोऽब्दसहस्राणां गतायामेकविंशतौ। पित्राज्ञया राज्यधुरां दधार परमेश्वरः ॥४५॥ प्रभोर्मण्डलिकत्वेऽपि काले तावत्यतीयुषि। अस्त्रागारे समुत्पेदे चक्ररत्नं नभश्चरम् ॥४६॥ त्रयोदशभिरन्यैश्च युतो रत्नैररप्रभुः । चक्रानुगश्चतुर्वर्षशत्या भरतमन्वशात् ॥४७॥ तावत्येव गते काले स्वामिनश्चक्रिण: सतः। तीर्थं प्रवर्तयेत्यूचेऽभ्येत्य लोकान्तिकामरैः ।।४८।। दानं दत्वाऽऽब्दिकं राज्यं त्वरविन्दसुताय सः । वैजयन्त्या शिबिकया सहस्राम्रवणं ययौ॥४९॥ वाचंयमैरिव पिकैस्तूष्णीकैराश्रितद्रुमम् । कृष्णेक्षुवाटगोपीनां गीतिभि: स्खलिताध्वगम् ॥५०॥ क्रीडन्नागरनारीणां केशपाशावलोकनात् । ह्रीतैरिवोन्मुक्तबहैर्बर्हिणैः शरणीकृतम् ॥५१॥ पुन्नागकुसुमामोदप्रमोदितमधुव्रतम् । कर्कन्धू-नागरङ्गीणां फलैः पिञ्जरिताम्बरम् ॥५२॥ लवली-फलिनी-कुन्द-मुचुकुन्दाग्रकुड्मलैः । समन्तत: शोभमानं हेमन्तहसितैरिव ॥५३॥ रजोभी रो पुष्पाणां निर्मलीकृतदिङ्मुखम् । प्रविवेश तदुद्यानं नन्द्यावर्तध्वजो जिनः ॥५४॥पञ्चभि: कुलकम्।। १. रेवतीनक्षत्रस्थे ॥२. शरीरशोभा विस्तारयन् ।। ३. मार्गशीर्ष ।। ४. त्रिंशद्धनून्नतं हे.॥५. नन्द्यावर्तस्य-स्वस्तिकस्य लाञ्छनं यस्य सः, तम् ।। ६. सूतिकर्मास्य हे.ला.॥७. नष्टा अष्टादश दोषा यस्य सः,तस्मै ।।८. हृदयरूपे भवने ॥९.आक्रान्तम् ॥१०.ब्रुडद्भिः समुद्रे इति शेषः॥११. तरण्ड: -'तरापो'॥१२. रोगिभिरिव मु.॥१३. ध्वान्तेन-अन्धकारेण अन्धैः॥१४. मार्गदर्शकः॥१५. अग्निं दृष्ट्वा व्याघ्र: पलायत इति प्रसिद्धिः।।१६. नाथराहित्येन विधुरैः ॥ १७. हर्षोद्रेकादित्यर्थः ।।१८. याचे ॥१९.त्वं मे खंता.।। २०. हास्तिनपुरे।। २१. अरश्चक्रधारा, तस्य दर्शनात् ।। २२. मित्रीभूय ।। २३. क्रीडासाधनैः खेलनकैः।। २४. रूपलावण्यशालिनी: हे. ॥ २५. २१०००वर्षेषु गतेषु सत्सु; तावत्यपीयुषि मु.॥२६. आयुधशालायाम् ।। २७. महारत्नैः समन्वितः । षट्खण्डं भरतं चक्रानुगोऽरस्वाम्यसाधयत् ॥हे. ।। २८. वार्षिकम् ।। २९. स्वामी सुरासुरनराढ्यया हे. ॥ ३०. मुनिभिरिव ।। ३१. कृष्णा या इक्षुवाटा: (शेरडीना काळा वाढ) तेषु या गोप्यस्तासाम् ॥३२. स्खलिता अध्वगा:-पान्था यस्मिंस्तत् ।। ३३. लज्जितैरिव ईदृशैर्मुक्तपिच्छैर्मयूरैः शरणीकृतं वनं, हेमन्तौ मयूरा: पिच्छानि त्यजन्तीति स्वभावोक्तिः ॥ ३४. मधुव्रता:-भ्रमराः ॥ ३५. बदरी ॥३६. हेमन्ततॊहस्यैिरिव ॥ ३७. लोध्र ।। ३८. ०णामधिवासितदिङ्मुखम् हे. ॥ ३९. नन्द्यावर्त: ध्वज: लाञ्छनं यस्य सः ।। ४०. अरनाथः ।। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः ) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । वैजयन्त्याः समुत्तीर्य 'मार्गस्यैकादशीदिने । शुक्ले पौष्णगते चेन्दावह्नो भागे च पश्चिमे ॥५५॥ समं राजसहस्रेण षष्ठेन प्राव्रजत् प्रभुः । मनः पर्ययसञ्ज्ञं च तैदैव ज्ञानमासदत् ॥५६॥[युग्मम् ] पुरे राजपुरे सद्मन्यपराजितभूपतेः । चक्रे स्वामी द्वितीयेऽह्नि परमान्नेन पारणम् ||५७|| अमरैर्विदधे तत्र वसुधारादिपञ्चकम् । रत्नपीठं तेन राज्ञा स्वामिपादपदे पुनः || ५८॥ अनासीनोऽशयानश्च विविधाभिग्रहः प्रभुः । छद्मस्थस्त्रीणि वर्षाणि विजहार वसुन्धराम् ॥५९॥ 1 अन्येद्युर्विहरन्नाऽऽगात् सहस्राम्रवणं पुनः । सहकारतरोर्मूले चाऽस्थात् प्रतिमया प्रभुः ||६०॥ कार्तिकशुक्लद्वादश्यां शशाङ्के रेवतीगते । उत्पेदे केवलं तत्र घातिकर्मक्षयात् प्रभोः ॥ ६१ ॥ सद्यश्च देवैः समवसरणं तत्र निर्ममे । तत्र द्वारेण पूर्वेण प्रविवेश जगद्गुरुः ॥६२॥ चैत्यद्धुं तत्र षष्ट्यग्रकार्मुकत्रिशतोन्नतम्। प्रदक्षिणीकृत्य “नमस्तीर्थाये” त्यवदद् विभुः ||६३|| पूर्वसिंहासने तत्रोपाविशत् प्राङ्मुखः प्रभुः । व्यन्तरास्तत्प्रतिच्छन्दान् दिक्ष्वन्यास्वपि चक्रिरे ॥ ६४ ॥ अवास्थित यथास्थानं सङ्घोऽपि भगवानथ । ज्ञात्वेशं समवसृतं तत्राऽऽगाच्च कुरूद्वहः ||६५|| भगवन्तं नमस्कृत्य सोऽर्नुशक्रमुपाविशत् । प्रारेभाते इति स्तोतुमथ शक्र - कुरूद्वहौ ||६६|| "जय त्रिभुवनाधीश ! जय विश्वैकवत्सल ! । जय कारुण्यजलधे! जयाऽतिशयशोभित! ||६७ || विश्वप्रकाशनं भानोरमोघैर्भानुभिः सदा । विश्वसन्तापहरणं ज्योत्स्नया च हिमद्युतेः ॥६८॥ जगज्जीवनमम्भोभिः प्रावृडम्भोधरस्य च । जगदाश्वासनं वायोर्गत्या सन्ततयाऽपि च ॥ ६९॥ यथा निष्कारणमिह तथा ते परमेश्वर ! । जगत्त्रयोपकाराय प्रवृत्तिर्जयति प्रभो! ॥७०॥ अन्धकारमयं चाऽऽसीदन्धं वा जगदप्यदः । सप्रकाशं सेक्षणं वा त्वया जज्ञेऽधुना पुन: ॥ ७१ ॥ नरकाणां खिलेः पन्था भविताऽतः परं प्रभो ! । तिर्यग्योनावपि गतिः स्तोकस्तोका भविष्यति ॥७२॥ सीमग्रामान्तराणीव स्वर्गाश्च प्राणिनाममी । प्रत्यासन्ना भविष्यन्ति मुक्तिरप्यदैवीयसी ॥७३॥ त्वयि विश्वोपकाराय विहरत्यवनीमिमाम् । भावि किं किं न कल्याणमसम्भाव्यमपि प्रभो! ?” ॥७४॥ इति स्तुत्वा सौधर्मेन्द्रे कुरुराजे च तस्थुषि । अरनाथः स भगवान् विदधे धर्मदेशनाम् ॥७५॥ "चतुर्वर्गाग्रणीर्मोक्ष एकान्तसुखसागरः । तत्साधकतमं ध्यानमधीनं मनसश्च तत् ॥७६॥ आत्मायत्तमपि स्वान्तं कुर्वतामत्र योगिनाम् । रागादिभिः समाक्रम्य परायत्तं विधीयते ॥७७॥ रक्ष्यमाणमपि स्वान्तं समादाय मनामिषम् । पिशाचा इव रागाद्याश्छलयन्ति मुहुर्मुहुः ॥७८॥ राँगादितिमिरध्वस्तज्ञानेन मनसा जन: । अन्धेनाऽन्ध इवाऽऽकृष्टः पात्यते नरकावटे ॥७९॥ द्रव्यादिषु रति-प्रीती राग इत्यभिधीयते । तेष्वेवाऽरतिमप्रीतिं चाऽऽहुद्वेषं मनीषिणः ॥ ८० ॥ उभावेतौ दृढतरौ बन्धनं सर्वजन्मिनाम् । सर्वदुःखानोर्केहानां मूल - कन्दौ प्रकीर्तितौ ॥८१॥ कः सुखे विस्मयस्मेरो ? दुःखे कः कृपणो भवेत् ? । मोक्षं को नाऽऽप्नुयाद् ? राग-द्वेषौ स्यातां न चेदिह ॥८२॥ रोगेण ह्यविनाभावी द्वेषो द्वेषेण चेतरः । तयोरेकतरत्यागे परित्यक्तावुभावपि ॥ ८३ ॥ दोषाः स्मरप्रभृतयो रागस्य पैरिचारकाः । मिथ्याभिमानप्रमुखा द्वेषस्य तु पैंरिच्छदः ॥८४॥ तयोर्मोह: पिता बीजं नायकः परमेश्वरः । ताभ्यामभिन्नस्तद्र्क्ष्य: सर्वदोषपितामहः ॥८५॥ एवमेते त्रयो दोषा नाऽतो दोषान्तरं क्वचित् । तैरमी जन्तवः सर्वे भ्राम्यन्ते भववारिधौ ॥८६॥ १. मार्गशीर्षस्य ।। २. रेवतीं गते । ३. ज्ञानं तदैवमासदत् हे ॥ ४. चन्द्रे ॥ ५. ३६०धनुरुन्नतमित्यर्थः ॥ ६. पूज्यः ॥ ७ कुरुदेशस्य राजा ॥ ८. इन्द्रस्य पश्चात् ॥ ९. किरणैः ॥ १०. चन्द्रस्य ॥ ११. नेत्रसहितम् ।। १२. शून्यः ।। १३. नातिदूरा ॥ १४. चतुर्वर्गेऽग्रणी० खंता ।। १५. मनः ।। १६. छिद्रं, 'बहानुं ' इति भाषायाम् ।। १७. रागादय एवाऽन्धकारस्तेन ध्वस्तं ज्ञानं यस्य तत्, तेन ॥ १८. यथाऽन्धेनाऽऽकृष्टोऽन्धोऽवटे कूपे पात्यते तद्वत् ॥ १९. नरककूपे ।। २०. सर्व दोषानो कहानां हे. ।। २१. वृक्षाणाम् ॥ २२. रागं विना द्वेषो न भवेत्, द्वेषं च विना रागोऽपि न भवेदित्यर्थः ॥ २३. सेवकाः; परिचारिका: ला. मु. ॥ २४. परिवारः ।। २५. राग-द्वेषाभ्याम् ॥ २६. स्तद्रक्षः खंता; ताभ्यां रक्ष्य:- रक्षणीयः ॥ २७. सर्वदोषाणां पितरौ राग-द्वेषौ तयोरपि पिता मोह इत्यर्थः ॥ २८. भ्रम्यन्ते हे. मु. ॥ ७७ For Private Personal Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (षष्ठं पर्व स्वभावेन हि जीवोऽयं स्फटिकोपलनिर्मल: । उपाधिभूतैरेतैस्तु तादात्म्येनाऽवभासते॥८७।। अराजकमहो विश्वं यदेभिः पश्यतोहरैः । हियते ज्ञानसर्वस्वं स्वरूपमपि जन्मिनामntan ये जन्तवो निगोदेष येऽपि चाऽऽसन्नमक्तयः । सर्वत्राऽस्पष्टकरुणा पतत्येषां पैताकिनी॥८॥ मुक्त्या वैरं किमेतेषां ? मुक्तिकामैः सहाऽथवा ? । येनोभयसमायोगस्तैर्भवन् प्रतिषिध्यते॥१०॥ व्याघ्र-व्याल-जलाग्निभ्यो न बिभेति तथा मुनिः । लोकद्वयापकारिभ्यो रागादिभ्यो भृशं यथा ॥९१॥ वर्माऽतिसङ्कटमहो! योगिभि: समपाश्रितम् । राग-द्वेषौ व्याघ्र-सिंहौ पार्श्वतो यस्य तिष्ठतः ॥९२॥ अस्ततन्द्रैरत: पुंभिर्निर्वाणपदकाङ्क्षिभिः । विधातव्यः समत्वेन राग-द्वेषद्विषज्जयः"।।९३।। भूयांस: प्राव्रजन् भव्या: प्रभोर्देशनयाऽनया। कुम्भादयो गणभृतस्त्रयस्त्रिंशच्च जज्ञिरे ॥९४।। पूर्णायामादिपौरुष्यां व्यसाक्षीद्देशनां प्रभुः । कुम्भस्तत्पादपीठस्थो गणभृद्देशनां व्यधात् ॥१५॥ द्वितीयस्यां तु पौरुष्यां व्यसृजत् सोऽपि देशनाम् । शक्राद्याश्च प्रभुं नत्वा जग्मुर्निजनिजं पैदम् ।।१६।। यक्षेन्द्रः षण्मुखस्त्र्यक्ष: श्यामः शङ्खरथो भुजैः । मातुलिङ्गि-बाणि-खड्गि-मुंगरि-पाश्यभीपँदैः ॥९७।। दक्षिणैः षड्भिरन्यैश्च नकुलीष्वासि-चर्मिभिः । शूलाङ्कुशाक्षसूत्रीक्षैर्युक्तस्तत्तीर्थभूस्तथा ॥९८।। देवी च धारिणी नाम नीलाङ्गी कमलासना । मातुलिङ्गोत्पलधरदक्षिणोभयबाहुका ॥९९॥ पद्माक्षसूत्रभृद् वामोभयबाहुररप्रभोः । सन्निधिस्थे सदाऽभूतामुभे शासनदेवते॥१००॥ ताभ्यामधिष्ठिताभ्यो भगवान् विहरन् महीम् । अन्येद्युः समवासार्षीत् पद्मिनीखण्डपत्तने ॥१०१॥ तत्राऽपि देशनां कृत्वा विरते सत्यरे प्रभौ । स्वामीव विदधे कुम्भो देशनां संशयच्छेिदम् ॥१०२॥ पातत्रैको वामनोऽभ्येत्य धर्मं श्रोतुमुपाविशत् । श्रेष्ठी सागरदत्तोऽथ कुम्भं नत्वैवमब्रवीत् ॥१०३।। भवप्रकृत्या भगवन्! दु:खिनो भविनोऽखिला: । विशेषदुःखितश्चाऽस्मि सुखलेशोऽपि नाऽस्ति यत् ॥१०४॥ भार्यायां जिनमत्यां मे नामत: प्रियदर्शना । उत्पन्ना दुहिता रूपाधरीकृतसुराङ्गना ॥१०५॥ प्राप चाऽनन्यसामान्यं सा कलास्वतिकौशलम् । द्वितीयं च वयो रूप-वैदग्ध्य-श्रीविशेषकम् ।।१०६।। अनुरूपं वरं तस्या अपश्यन् दुःखितोऽभवम् । उक्तोऽस्मि जिनमत्या च चिन्तामाप्तोऽसि नाथ! किम् ? ॥१०७।। अनुरूपं त्वदुहितुर्वरमन्वेषयन्नपि । न प्राप्नोमि क्वचिदपि तेन ताम्यामि सुन्दरि! ॥१०८॥ इत्युक्तं जिनमत्याऽपि श्रेष्ठिन्! श्रेष्ठस्त्वया वरः । ग्राह्यः स कोऽपि येन स्यान्नाऽनुताप: प्रियाऽऽवयोः ॥१०९।। अवोचमहमप्येवं प्रमाणं दैवमत्र हि। आत्मनीनो हि सर्वोऽपि स्तोकेच्छुः कोऽपि नात्मनः ।।११०॥ इत्युक्त्वा विपणौ गच्छंस्ताम्रलिप्त्या: समागतम् । अद्राक्षमृषभदत्तं सार्थवाहं महर्द्धिकम् ।।१११॥ साधर्मिकत्वात् सस्नेहा वाणिज्योदन्तगर्भिता: । अभूवन् पूर्वसुहृदेवाऽऽलापा: सह तेन मे ॥११२॥ अन्यदा स ममाऽगारमागात् केनाऽपि हेतुना । ईक्षते स्म च सुचिरं मत्पुत्री प्रियदर्शनाम् ।।११३।। कस्य कन्येयमिति तु तेन पृष्टोऽहमब्रुवम् । ममेयं हेतुना केन सुचिरं वीक्ष्यते त्वया ? ॥११४॥ आह स्मर्षभदत्तोऽपि वीरभद्रोऽभिधानतः। सम्प्राप्तयौवन: श्रेष्ठिन्नस्ति मे तनयो नयी ॥११५।। स रूपेणाऽतिकन्दपोऽतिकविः काव्यशक्तितः। अतिवाचस्पतिर्वाचा विज्ञानेनाऽतिवर्धकिः ।।११७|| अतिहहश्च गीतेन वीणाया चाऽतितुम्बरुः । नाट्येषु चाऽतिभरतो विनोदेष्वतिनारदः ॥११८॥ १. तद्रूपेण ।।२. चौरैः।। ३. निर्दया ।। ४. सेनाः ।। ५. मुमुक्षुभिः ।। ६. अतिसङ्कीर्णो मार्गः॥७. अप्रमादैः॥८. प्राव्रजन् जना: मु.प्रभृतिषु ।। ९. ०र्देशनया तया खंता. ॥१०. विसर्जितवान् ।। ११. द्वितीयायाम् हे. ला.॥१२. समापयत् ॥१३. स्थानम् ।। १४. त्रिनेत्रः ।। १५. शिखिरथो मु. हे. विना ।। १६. मातुलिङ्गमस्याऽस्तीत्येवं सर्वत्रास्त्यर्थे इन् ।। १७. अभयप्रदैः ।। १८. नकुलवत्-इष्वासवत्-चर्मवत् ।। १९. फलकवद्भिः ।। २०.०सूत्राहवै० खंता. पाता. ॥२१. अधिष्ठितं अभ्यर्ण-समीपं यस्य सः ।। २२.०च्छिदाम् मु.प्र.॥२३. संसारस्वभावेन ।। २४. जीवाः ।। २५. उत्पेदे हे. ॥ २६. यौवनाख्यम् ॥ २७. रूपचातुर्यशोभाविशेषकम् ॥२८. खिन्नो भवामि ।।२९. इत्यूचे हे.।। ३०. आत्मने हित आत्मनीन:, आत्महितेच्छुरित्यर्थः ।। ३१. विपणि: पण्यवीथिका 'बजार'इति ॥३२. पूर्वमित्रेण सह यथाऽऽलापा भवन्ति तथेत्यर्थः।।३३.ईक्षाञ्चक्रे हे.॥३४.कन्दपं-काममतिक्रान्तः।। ३५. कविं शुक्राचार्यमतिक्रान्तः ।। ३६. वाचस्पतिमतिक्रान्त: ।। ३७. वर्धकिरत्नमतिक्रान्तः ।। ३८. हूहू:-गन्धर्वविशेषः ।। ३९. तुम्बरु:-देवगायकः ॥ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः ) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । कामरूप: सुर इव गुटिकादिप्रयोगतः । किं चाऽन्यत् ? सा कला नाऽस्ति यां 'स्रष्टेव न वेत्ति सः ॥११८॥ कन्यां तस्याऽनुरूपां तु नाऽपश्यं क्वचिदप्यहम् । इयं तु कन्यका दृष्टा चिरात् तदुचिता मया ॥ ११९॥ मैयाऽप्युक्तं ममाऽप्येषा कलाकौशलशलिनी । अनुरूपवरार्थेऽस्याश्चिरं ग्रस्तोऽस्मि चिन्तया ॥१२०॥ दैवानुकूल्यात् तदयं सङ्गमः साधुरावयोः । चिराद् वधू-वरत्वेन घटेतां तनयौ द्वयोः ॥ १२१ ॥ अनुरूपस्नुषालाभाद् गत्वा हृष्टो निजां पुरीम् । स प्राहिणोद् वीरभद्रं महत्या जैन्ययात्रया ॥१२२॥ वीरभद्रं वरं प्रेक्ष्याऽमन्दमानन्दमासदम् । तत्पित्राख्याततद्रूप- गुणसंवाददर्शनात् ॥ १२३॥ शुभे दिने पैर्यणैषीत् कन्यां मे प्रियदर्शनाम् । वीरभद्रः कुलस्त्रैणभद्रमङ्गलपूर्वकम् ।। १२४॥ कत्यप्यहानि स स्थित्वा सदारः स्वां पुरीं ययौ । तिष्ठन्ति न चिरं जातु मानिनः श्वशुरौकसि ॥१२५॥ अश्रौषं चाऽन्यदा वीरभद्रो यामे निशान्तिमे । मुक्त्वा मे तनयां सुप्तामेकाकी क्वचिदप्यगात् ॥१२६॥ आनैषीत् तत्प्र॑वृत्तिं च वामनः कोऽपि सम्प्रति । परं न व्यक्तमाख्याति स्फुटमाख्याहि तत्प्रभो! ॥१२७॥ इति सागरदत्तेन विज्ञप्तो भगवानपि । कुम्भो गणधर श्रेष्ठो जगादैवं कृपानिधिः ॥ १२८ ॥ 1 1 "तस्यां निशायां जामाता स तंवैवमचिन्तयत् । कलानां पारदृश्वाऽस्मि मन्त्राः सिद्धाश्च भूरिशः ॥१२९॥ ज्ञाताश्च दिव्यगुटिकाप्रयोगा विस्मयास्पदम् । विज्ञानेषु च सर्वेषु भृशं प्राप्तं च पौटवम् ॥१३०॥ सर्वं निरर्थकं तच्च मनागप्यप्रकाशनात् । नियन्त्रितोऽस्मि यदिह गुरुसान्निध्यलज्जया ॥ १३१ ॥ कूपमण्डूकवत् तिष्ठन्नहो! कापुरुषोऽस्म्यहम् । प्रकाशयामि तद्गत्वाऽन्यदेशेषु निजान् गुणान् ॥१३२ || विचिन्त्येति समुत्थाय भूयोऽप्येवमचिन्तयत् । प्रिया कृतकसुप्ता चेंद्रतेर्विघ्नाय तद्भवेत् ॥ १३३॥ तत: क्रीडाकृते तां स समुदस्थापयत् प्रियाम् । साऽप्युवाच शिरोऽर्तिर्मे किं कदर्थयसि प्रिय ! ? ॥१३४॥ शिरोऽर्तिः कस्य दोषेण तवेति तेंदुदीरिता । त्वद्दोषेणेति साऽवादीत् कीदृशेनेति सोऽवदत् ॥ १३५ ।। साऽप्यूचे समयेऽत्राऽपि यत्ते वैदग्ध्यवागियम् । सोऽवोचन् मा कुपः कान्ते! करिष्ये नेदृशं पुनः ॥१३६॥ तां साभिप्रायमित्युक्त्वा रमयामास सोऽधिकम् । साऽप्यस्वाप्सीद् रतिश्रान्ता तां वक्रोक्तिमजानती ॥१३७॥ सत्यसुप्तेति तां मुक्त्वा हैंढामुक्तान्तरीयकः । वीरवद् वीरभद्रोऽथ निर्जगाम निजाद् गृहात् ॥ १३८ ॥ स्वं श्यामवर्णं गुटिकाप्रयोगेण चकार सः । याति वैंर्णपरावृत्त्या रूपं काव्यवदन्यताम् ॥१३९॥ कलाकलाप-विज्ञानातिशयं दर्शयश्च सः । विद्याधर इवाऽभ्राम्यत् स्वैरं ग्राम - पुरादिषु ॥ १४०॥ साऽऽपृच्छ्य श्वसुरौ तातगृहेऽगात् प्रियदर्शना । विना पतिं कुलस्त्रीणां वासो ह्यन्यत्र नोचितः ॥१४१॥ ||एकदा सिंहलद्वीपे रैत्नाकरनृपास्थितम् । पुरं रत्नपुरं नाम वीरभद्रो ययावटन् ॥ १४२॥ स हट्टे श्रेष्ठिशङ्खस्य शृङ्खोज्ज्वलगुणश्रियः । न्यषीदत् तेन पृष्टश्च कुतो भद्र! त्वमागमः ? ॥१४३॥ बभाषे वीरभद्रोऽपि ताम्रलिप्त्याः स्ववेश्मतः । रुषित्वा निःसृतो भ्राम्यन्निह ताताऽहमागमम् ॥ १४४॥ शङ्खश्रेष्ठ्यप्यभाषिष्ट न सुष्ठु भवता कृता । कुमार! सुकुमारेण विदेशगतिरीदृशी ।। १४५।। कर्मेदं वक्रमपि ते दैवेन सरलीकृतम् । अक्षताङ्गो यदत्राऽऽगास्त्वं वत्स! मम सन्निधौ ॥ १४६ ॥ इत्युक्त्वा तं गृहे नीत्वा शङ्खश्रेष्ठी स्वपुत्रवत् । स्नपयित्वा भोजयित्वा सस्नेहमिदमभ्यधात् ॥ १४७॥ ममाऽनुत्पन्नपुत्रस्य पुत्र! पुत्रस्त्वमेव हि । स्वामी भूत्वा मद्विभवमुपभुङ्क्ष्व च देहि च ॥१४८॥ कुरुष्व मैंदृशोः प्रीतिं विलसन्नमरैर्द्धिकः । धनं हि सुलभं वत्स! तद्भोक्ता दुर्लभः सुतः ॥ १४९॥ I १. ब्रह्मेव ॥ २. मयाऽप्यूचे हे ॥ ३. स्नुषा-पुत्रवधूः ॥४. भाषायां 'जान' ।। ५. चोपयेमे हे. ।। ६. कुलस्त्रीणां भद्रमङ्गल (गीत) पूर्वकम् ।। ७. पत्नीसहितः ।। ८. स हे. खंता.मु. ।। ९. प्रवृत्ति: - वृत्तान्तः ॥ १०. तथैवमचि० हे. ॥। ११. पारगामी ॥। १२. चातुर्यम् ॥ १३. तत्तु खंता. मु. ॥। १४. कुपुरुषः ॥ १५. समुत्थाप्य मु. ।। १६. कृत्रिमतया सुप्ता ॥ १७. चेद्गतिर्वि० ला. हे ॥ १८. उत्थापितवान् ॥ १९. तेन प्रेरिता ।। २०. दृढं आमुक्तं बद्धमान्तरीयं अधोंऽशुकं वस्त्रं येन सः ।। २१. काव्यपक्षे वर्णानामकारादीनां परावर्तनेन अन्यार्थतां प्राप्नोति ॥ २२. दर्शयन्नसौ है. ॥ २३. रत्नाकरनाम्ना नृपेणाऽऽश्रितम् ॥ २४. शङ्ख इवोज्ज्वला गुणाः श्रीश्च यस्य सः ॥ २५. दानं देहि ॥ २६. मन्नेत्रयोः ॥ २७. विलसन्नसमर्द्धिक: हे. पा. ला. ॥ २८. अमरस्येव ऋद्धिर्यस्य सः ॥ For Private Personal Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (षष्ठं पर्व आश्रयन् 'प्रश्रयं वीरभद्रोऽप्येवमवोचत । निष्क्रान्तोऽपि पितुर्गेहात् पितुर्गेहेऽहमागमम् ॥१५०॥ तवाऽऽज्ञावशवर्त्यस्मि शिष्योऽस्मि तव सर्वदा । औरसो हि पापपुत्रो धर्मपुत्रोऽस्म्यहं पुनः ॥१५१।। तत: स सुखमेवाऽस्थाच्छङ्खस्य श्रेष्ठिनो गृहे। पौरान विस्मापयन्नावि:कलाविज्ञानकौशलैः ॥१५२।। पतत्र रत्नाकरनृपस्याऽऽसीद्विश्वकसुन्दरी । अनङ्गसुन्दरी नाम पुरुषद्वेषिणी सुता ॥१५३।। तस्या: पार्श्व प्रतिदिनं श्रेष्ठिशवसुता ययौ। नामतो विनयवती विनयैकनिकेतनम् ॥१५४।। स्वस:! क्व यासीति पृष्टा वीरभद्रेण साऽन्यदा । भ्रातृस्नेहाद् विनयवत्याचचक्षे यथातथम् ॥१५५।। सा सखी ते विनोदै: कैः कालं गमयति स्वस:! ? । इत्युक्ता वीरभद्रेण वीणाद्यैरिति साऽवदत् ॥१५६॥ तायास्याम्यहमपीत्युक्ता तेन तु साऽवदत् । न पुंसो बालकस्याऽपि प्रवेशस्तत्र ते कुत: ? ॥१५७।। विधास्यामि वधरूपं सम्यगित्यभिधाय सः । तत्सम्मतो नट इव सद्य: स्त्रीवेषमोददे ॥१५८॥ सोऽगात् तया समं तत्र सखि! केयं त्वया सह ? । पृष्टेत्यनङ्गसुन्दर्या मत्स्वसेति जगाद सा॥१५९।। तदा चाऽनङ्गसुन्दर्या सुन्दरैर्वर्णकैर्नवै: । फलके लिखितुं हंसी विरहार्मोपचक्रमे ॥१६०॥ तां वीरभद्र इत्यूचे त्वया विरहपीडिता । इयं लिखितुमारेभे परं दृष्ट्यादि नेदृशम् ॥१६१॥ तर्हि त्वमालिखेत्युक्त्वा फलकं वर्णकैः सह । अनङ्गसुन्दरी वीरभद्रायाऽर्पयति स्म सा ॥१६२॥ लिखित्वा तादृशीं हंसी वीरभद्रोऽपि तत्क्षणम् । तस्यै समर्पयामास सा निरूप्यैवमब्रवीत् ॥१६३॥ अहो! आलेख्यनैपुण्यमन्तर्भावप्रकाशकम् । तथाहि दृष्टिरेतस्या बाष्पाम्बुकणवर्षिणी ॥१६४।। प्रम्लानं वदनं चञ्चूः श्लथोपात्तमृणालिका । ग्रीवा च शिथिला पक्षावुफ्तनासहाविमौ ॥१६५॥ शून्यं चेदमवस्थानभवस्थां विरहाकुलाम् । आख्याति व्यक्तमेतस्या अनाख्यातामपि स्वयम् ॥१६६।। कलाविदीदृशी कस्मादियत्कालं सखि! त्वया । नाऽऽनीतेयं गृहे क्षिप्त्वा रहस्यमिव किं धृता ? ||१६७।। वीरभद्रोऽप्युवाचैवं गुरूणामभिशङ्कया। नाऽऽनीताऽहमिह स्वम्रा नाऽन्यत् किमपि कारणम् ॥१६८।। अनङ्गसुन्दरीत्यूचेऽतः परं प्रत्यहं त्वया। आगन्तव्यं सह स्वम्रा किं चाऽस्या नाम सुन्दरि! ? ॥१६९॥ वीरभद्रो झगित्यूचे नाम वीरमतीति मे । भूयोऽप्यूचे राजपुत्र्या वेत्स्यन्या अपि किं कला: ? ॥१७०।। ऊचे विनयवत्यैवमचिराज्ज्ञास्यसि स्वयम् । न प्रत्यय: पराख्यातेष्वत्यद्भुतगुणेष्वपि ॥१७१॥ एवमस्त्वित्युदित्वाऽय मुदिताऽनङ्गसुन्दरी। सत्कृत्य विनयवतीं विससर्ज तदन्विताम् ।।१७२॥ वीरभद्रो वधूवेषं गृहे मुक्त्वा ययौ पुन: । आपणे श्रेष्ठिन: पार्श्वे पितृभक्तिनियन्त्रितः ॥१७३।। श्रेष्ठी तमूचे सस्नेहं वत्स! क्वाऽऽस्था इयच्चिरम् ? । इह त्वां पृच्छतां नृणां निर्विण्णोऽस्म्युत्तरं ददत् ।।१७४।। बभाषे वीरभद्रोऽपि तातोद्याने गतोऽस्म्यहम् । श्रेष्ठ्यप्यभाषतैवं च यद्येवं शोभनं कृतम् ॥१७५।। तथैवाऽह्रि द्वितीयेऽपि तत्र सोऽगात् कलानिधिः । अनङ्गसुन्दरी वीणां वादयन्तीं ददर्श च॥१७६।। इत्यूचे वीरभद्रस्तां तन्त्रीरेषा न सुस्वरा । मनुष्यवालोऽमुष्यां यदर्नुस्यूतोऽस्ति सुन्दरि! ॥१७७।। कथं नु ज्ञायत ? इति तयोक्तः सोऽब्रवीदिदम् । ज्ञायते त्वदुपक्रान्तरागनिर्वाहदर्शनात् ॥१७८।। ततश्च साऽर्पयामास वीरभद्रस्य वल्लकीम् । तद्विदुत्कीलयामास तत्तन्त्रीं सोऽपि तत्क्षणात् ॥१७९।। मनुष्यवालं तन्मध्यात् स शल्यं हृदयादिव। आकृष्य दर्शयामास तस्या विस्मयमादधत् ।।१८०।। तत्तन्त्री संज्जयित्वा स भूयो दण्डे निबध्य च । वादयामास तां वीणां प्रावीण्यजिततुम्बरुः ॥१८१।। स्वरानुत्पादयामास सारण्या सुस्फुटश्रुतीन् । तानांश्च कूटतानांश्च व्यक्तव्यञ्जनधातुकान्॥१८२।। १. प्रणयम् ॥२. स्वपुत्रः ।। ३. आवि: प्रकटं यथा स्यात् तथा।।४. तया सम्मतः॥५.०माददौ खंता.॥ ६. वर्णकै:वर्ण: (रंगो वडे)।।७. चित्रकौशल्यम्।। ८. र्भावप्रकाशनम् ला. ॥९. बाष्पाचकण० हे. ॥१०. मृणालिका-कमलदण्डः, शिथिलं उपात्ता-गृहीता मृणालिका यया सा ।। ११. उड्डयनेऽक्षमौ ॥ १२.श्रमितः ॥१३. तन्त्र्येषा सुस्वरा न हि हे. ॥१४. संलग्नः ॥ १५. त्वया आरब्धस्य रागस्य निर्वाहदर्शनात् ॥ १६. वीणाम् ।। १७. वोटितवान् ॥१८. विस्माययन् मन: हे. ॥१९. सज्जयित्वाऽथ मु.॥ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः ) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । वाद्यप्रकारमाश्रित्य सकलं निष्कलं च सः । रागं प्रपञ्चयामास विपञ्च्यां' श्रवणामृतम् ॥ १८३॥ साऽनङ्गसुन्दरी सा च पर्षदुत्कर्षहर्षभाक् । आलेख्यलिखितेवाऽस्थाद् गीतहार्या मृगा अपि ॥ १८४ ॥ तद्वीणागीतमाकर्ण्य दध्यौ सा राजकन्यका । ईदृशं गुणवत् पात्रं देवानामपि दुर्लभम् ॥ १८५ ॥ निरर्थकं किं च मम जन्माऽपि ह्यनया विना । शोभते पुष्पदाम्नैव प्रतिमा सकलाऽपि हि ।। १८६ | तस्या अवसरप्राप्तमन्यास्वपि कलासु सः । प्रावीण्यं दर्शयामास तन्मनोवित्ततस्करः ||१८७|| वीरभद्रः स्वानुरक्तां विज्ञायाऽनङ्गसुन्दरीम् । अन्यदा श्रेष्ठिनं शङ्खं रहस्येवमवोचत ॥१८८॥ पृष्ठतो विनयवत्यास्तात ! प्रत्यहमप्यहम् । गच्छाम्यनङ्गसुन्दर्याः पार्श्वे युवतिवेषभृत् ॥ १८९ ॥ तद्युष्माभिर्न भेतव्यं करिष्येऽहं यथा तथा । न कोऽप्यनर्थो भावी वो भावि प्रत्युत गौरवम् ॥ १९०॥ मह्यं दातुं निजां कन्यां चेद्वः प्रार्थयते नृपः । तदादौ नाऽनुमन्तव्यं मान्यमत्याग्रहे सति ॥ १९९ ॥ श्रेष्ठ्यपि व्याजहारैवं त्वं वेत्स्यभ्यधिको धिया । एकं तु ब्रूमहे वत्स! कार्यं कुशलमात्मनः ॥ १९२॥ वीरभद्रः प्रत्युवाच विमनास्तात! मा स्म भूः । पश्याऽचिराच्छुभोदकं स्वसूनोः कर्म शोभनम् ॥१९३॥ वत्स!वेत्सि त्वमित्युक्त्वा स श्रेष्ठी मौनमाश्रयत् । रत्नाकरर्नृपास्थाने वार्तेति च तदाऽभवत् ॥१९४॥ "ताम्रलिप्त्याः कश्चिदागाच्छङ्खश्रेष्ठिगृहे युवा । पुरे कलाभिश्चित्राभिरचित्रीयत सोऽन्वहम् ॥ १९५॥ तस्य वैदेशिकत्वाच्च ज्ञातिर्विज्ञायते न हि । महाकुलोत्पन्न इति व्याचष्टे तु तदाकृतिः ॥ १९६ ॥ अथेत्थं नृपतिर्दध्यौ युवाऽयं रूपमन्मथः । सदाचारः सदाकार: कलारत्नाकरः सुधीः ॥१९७॥ अनुरूपो मद्दुहित्रे यद्ययं रोचते वरः । न ह्यवद्यं तदा धातुर्युक्तसम्बन्धकारिणः ।।१९८।। 'वीरभद्रस्तदाऽवोचद् विजनेऽनङ्गसुन्दरीम् । इयत्यामपि सामग्र्यां किं भोगविमुखा सखि ! ? ॥ १९९ ॥ अनङ्गसुन्दरीत्यूचे भोगाः कस्य न वल्लभाः ? । वल्लभो दुर्लभः किन्तु स्वानुरूप: कुलोद्भवः ॥२००॥ वरं मणिः केवलैव न तु काचाङ्गुलीयगा । वरं सैरिज्जलरिक्ता न तु यादः समाकुला ॥२०१॥ शून्यैव वरं शाला न तु तस्करपूरिता । अद्रुमैव वरं वाटी विषद्रुममयी न तु ॥ २०२॥ अनुदूढा वरं नारी रूपयौवनवत्यपि । निष्केलेनाऽकुलीनेन न तु पत्या विडम्बिता ॥ २०३ ॥ त्रिभिर्विशेषकम्। न हीयत्कालमद्राक्षमनुरूपं वरं सखि ! । वरमल्पगुणं वृत्वा कथं स्यां हास्यभाजनम् ? || २०४ || वीरभद्रोऽब्रवीदेवमनुरूपो वरो वरः । मम नास्तीति मा वादी' बहुरत्ना हि भूरियम् ॥२०५॥ अनुरूपं वरं किं तेऽद्यैव सम्पादयाम्यहम् ? । अरोचकिनि ! भोगास्ते रोचिष्यन्ते परं न हि ॥ २०६ ॥ जगदेऽनङ्गसुन्दर्याऽप्येवमाशाप्रदानतः । किं कर्षयसि मे जिह्वामथ मिथ्या वदस्यदः ? ॥२०७॥ यद्यैमिथ्या दर्शय त्वमनुरूपं वरं ततः । कला -यौवन-रूपादि कृतार्थं मे यथा भवेत् ॥ २०८॥ वीरभद्रस्तयेत्युक्तो निजरूपमदीदृशत् । साऽप्यूचे त्वदधीनाऽस्मि तर्ह्यहं त्वं पतिर्मम ॥ २०९॥ अथ सोऽवोचदस्त्वेवं माऽपवादः स्म भूदिति । एष्याम्यतः परं नेह विज्ञप्यस्तत्त्वया नृपः ॥२१०॥ यथाऽयं श्रेष्ठिनं शङ्ख सोपैरोधं वदत्यदः । अनङ्गसुन्दरी वीरभद्राय प्रतिगृह्यताम् ॥२११॥ आमित्युक्ते तया वीरभद्रो निजगृहं ययौ । आहूय जननीं सद्यः साऽपि चैवमवोचत ॥ २१२॥ [अनुरूपवराभावात् पित्रोः खेदाय केवलम् । अभूवमहमम्बेयत्कालं शल्यमिवोरसि ॥२१३॥ कला-रूपादिभिः स्वस्याऽनुरूपोऽस्ति निरूपितः । वीरभद्राभिधः शङ्खश्रेष्ठिसूनुर्मया वरः ॥ २१४॥ अद्यैव देहि मां तस्मै ततो विज्ञप्यतां स्वयम् । तैंत् तातः श्रेष्ठिनं शङ्ख मदर्थेऽर्थयते यथा ।। २१५।। १. वीणायाम् ।। २. चित्रस्था इव ॥ ३. चेद्वः सुतां ला. ॥। ४. शुभपरिणामम् ॥ ५. कार्यम् ।। ६. नृपसभायाम् ॥७. आश्चर्यमकरोत् ॥ ८. दोषः ।। ९. ब्रह्मणः ॥ १०. काचस्याऽङ्गुलीये वर्तिनीति मणिविशेषणम् ॥ ११. सरित् रिक्तजला हे ॥ १२. जलजन्तुव्याप्ता ॥ १३. उपवनम् ।। १४. अपरिणीता ।। १५. कलारहितेन ॥ १६. वृत्ता ला. ॥। १७. श्रेष्ठः ॥ १८. नाडवादी हे. ला. विना सर्वत्र ॥ १९. वसुन्धरा ला ॥ २०. हे अरुचिमति! 'अरोचक' रोगग्रस्ते ! ॥ २१. सत्यम् ।। २२. नृपः ॥ २३. साग्रहम् ॥ २४. तं मु. ॥ ८१ For Private Personal Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (षष्ठं पर्व इत्युक्त्वा मुदिता राज्ञी नृपं गत्वैवमभ्यधात् । दिष्ट्याऽद्य वर्धसे वत्सानुरूपवरलाभतः ।।२१६॥ स्वयं ह्यनङ्गसुन्दर्या स्वानुरूप: परीक्षितः । शङ्खश्रेष्ठिसुतो वीरभद्रो नाम वरो युवा ॥२१७।। राजाऽप्यूचे चिन्तयतो ममेदमिति वादिनी। चिन्तामणिरिवाऽऽगास्त्वं कामधेनुरिवाऽथवा ॥२१८॥ स्थैर्य दाक्ष्यं च वत्साया अहो! वरपरीक्षणे। इयत्कालमपि स्थित्वा यद् ववे वर ईदृशः॥२१९।। सद्योऽप्याह्वायितो राज्ञा बह्वीश्वरवणिग्वृतः । शङ्खश्रेष्ठ्याययौ तत्र राजानं प्रणनाम च ॥२२०॥ ततश्च श्रेष्ठिनं शङ्खमित्यभाषिष्ट भूपति: । कोऽप्यायातस्ताम्रलिप्त्या युवाऽस्ति तव वेश्मनि ॥२२१॥ स श्रूयते च सकलकलाजलधिपारगः। अद्वैतरूपसौन्दर्यो वो गुणगणेन च ॥२२२॥ शङ्खोऽप्युवाच देवैवं गुणान् वेत्ति जन: पुन: । राजाऽपि व्याजहाराऽथ स त्वदाज्ञावशे न वा ? ॥२२३।। शङ्खश्रेष्ठ्यप्यभाषिष्ट स्वामिन्! किमिदमुच्यते ? । तस्यैव हि गुणक्रीतो वशवर्ती जनोऽखिलः ॥२२४।। अभ्यधाद् भूपतिर्भूयस्तत्कृतेऽनङ्गसुन्दरी । अद्यैव गृह्यतां श्रेष्ठिश्चिराद्योगोऽस्तु योग्ययोः ॥२२५।। श्रेष्ठ्यूचे त्वं हि न: स्वामी पाल्यास्तव वयं प्रजा: । सम्बन्धश्च सखित्वं च समयोरेव शोभते ॥२२६।। राजाऽपीत्यादिशत् किं मां प्रत्यादिशसि भङ्गित: ? । कुर्वाज्ञां मे निर्विचारं गत्वा सज्जीभव द्रुतम् ।।२२७।। आदृत्य शङ्खो राजाज्ञामुपेत्य च निजे गृहे । आचख्यौ वीरभद्राय तत्सर्वं राजशासनम् ।।२२८॥ अनङ्गसुन्दरी-वीरभद्रयोर्ववृते तत: । महाविभूत्या वीवाह: शुभे लग्ने शुभे दिने ।।२२९॥ परस्परं तयो प्रीतिरवर्धत दिने दिने । सा स्यात् स्वयंवरवधू-वरयोर्तुत्तरोत्तरा ॥२३०॥ जैनं धर्मं दिशन् वीरभद्रस्तां श्राविकां व्यधात् । आस्तामत्र सतां सङ्ग: परलोकेऽपि शर्मणे ॥२३१॥ पटेऽर्हत्प्रतिमां सङ्घ चतुर्विधमपि स्वयम् । स लिखित्वाऽऽपर्यत् तस्यै सम्यगज्ञापयच्च ताम् ॥२३२॥ वीरभद्रोऽन्यदा दध्यौ मयि स्निग्धेयमीक्ष्यते। स्त्रीणां प्रकृतिलोलानां परं स्थैर्ये न निश्चयः ॥२३३।। भवत्वाशयमेतस्या ज्ञास्यामीति विमृश्य स: । वैदग्ध्यसुन्दरोऽऽनङ्गसुन्दरीमित्यभाषत ।।२३४॥ त्वत्त: प्रियतमे! किञ्चिदन्यत् प्रियतमं न मे । स्वदेशगमनायाऽहं त्वामापृच्छे तथाऽपि हि॥२३५।। यतश्चिरं मत्पितरौ मद्वियोगकदर्थितौ । अतीव दुःखमासाते तद्गत्वाऽऽश्वासयामि तौ॥२३६।। इहैव तिष्ठेः सुभ्र! त्वं भूयोऽप्येष्याम्यहं द्रुतम् । न खलु त्वां विनाऽन्यत्राऽहमपि स्थातुमीश्वरः ॥२३७।। साऽप्युवाच म्लानमुखी त्वयेदं साधु जल्पितम् । यत्राऽऽकर्णितमात्रेऽपि यियासन्तीव मेऽसवः ॥२३८।। ज्ञातं कठिनचित्तोऽसि य एवं वक्तुमीश्वरः । त्वादृशी यद्यहमपि तदा स्यां श्रोतुमीश्वरा ॥२३९॥ वीरभद्रस्तयेत्युक्तोऽब्रवीन्मा स्म कुप: प्रिये! । सहैव नयनोपायश्चिन्तितोऽयं मया तव ॥२४०।। आपप्रच्छे सनिर्बन्धं वीरभद्रस्ततो नृपम् । सहैवाऽऽनङ्गसुन्दर्या स्वदेशगमनं प्रति ॥२४१।। कथञ्चिद् व्यसृजद् राजा वीरभद्रं प्रियान्वितम् । पुत्री-जामातृविरहः प्रायः कस्य न दुःसह: ? ॥२४२॥ पोतारूढौ ततस्तौ तु चेलतुर्जलवम॑ना । गति: साहसिकानां हि समा स्थल-जलाध्वनोः ॥२४३॥ पत्रीव कार्मुकोन्मुक्तो नीडोत्थित इवाऽण्डज: । प्रससार तत: पोतोऽर्नुकूलमरुदीरितः ॥२४४।। कियन्तमपि चाऽध्वानं स पोतो यावदभ्यगात् । तावद्ववौ महावायु: कल्पान्तानिलसन्निभः ॥२४५॥ कल्पान्त इव पाथोधिरुद्भमन्नतिभीषण: । पोतमुच्छालयामास तृणपूलमिव द्विपः ॥२४६॥ मुहुरुच्छाल्यमानः सन् भ्रामं भ्रामं त्रिवासरीम् । ग्रीवोपरि परिभ्रष्टाण्डजाण्डमिव चाऽस्फुटत् ।।२४७॥ पोते स्फटितमात्रेऽपि सम्प्रापाऽनङ्गसन्दरी। एकं तदीयफलकं मत्यर्नाऽत्रटितायुषः ॥२४८।। १.०मणिरिवासि त्वं ला. ॥२. बहुभिरीश्वरैः-समृद्धैर्वणिग्भिर्वृतः॥३. वचनरचनया॥४. अङ्गीकृत्य॥५. विवाह: मु.॥६.प्रीतिः ।। ७. बोधयामास ।। ८. वैदग्ध्यं-पाण्डित्यं तेन सुन्दरः॥९. यातुमिच्छन्ति ॥१०. प्राणाः ॥११. बाण इव ॥१२. पक्षी ।। १३. अनुकूलवायुप्रेरितः ॥१४. त्रयाणां वासराणां दिनानां समाहारस्ताम् ।। १५. दृषदुपरि ।। १६. परिभ्रष्टं यदण्डजस्य-पक्षिणोऽण्डं तदिव॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः ) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । उल्लाल्यमाना कल्लोलैर्हंसीवाऽनङ्गसुन्दरी । प्रपेदे पञ्चरात्रेण तटमेकं वनाकुलम् ॥ २४९॥ स्वबान्धववियोगेन विदेशगमनेन च । प्रियस्य विप्रयोगेण भङ्गेन वहनस्य च ॥ २५० ॥ धनक्षयेण कल्लोलास्फालनेन क्षुधाऽपि च । तृषा च विधुरा वारिमानुषीव जलाद्बहिः ।।२५१॥ अपसज्ञेव पतिता निसर्गकरुणाजुषा । सा तापसकुमारेण ददृशेऽत्यार्द्रया दृशा ॥ २५२॥ त्रिभिर्विशेषकम्।। तामुत्थाप्याऽऽश्रमपदे सोऽनैषीद्भगिनीमिव । विश्रब्धा पुत्रि ! तिष्ठेहेत्यूचे कुलपतिश्च ताम् ॥ २५३॥ पाल्यमाना तापसीभिर्दिनैः कतिपयैरपि । समजायत सा स्वस्था स्थिता पितुरिवौकसि ॥२५४॥ तस्याः कुलपती रूपातिशयादित्यचिन्तयत् । अत्रस्थेयं तापसानां स्यात् समाधिच्छिदे ध्रुवम् ॥२५५॥ ततस्तापसवृद्धस्तामित्यूचेऽनङ्गसुन्दरीम् । इतोऽस्त्यदूरतो वत्से ! पद्मिनीखण्ड पत्तनम् ॥ २५६ ॥ वसन्ति सन्तः प्रायेण जनास्तत्र महाधनाः । भवत्यास्तत्र तिष्ठन्त्याः स्वास्थ्यमुत्पत्स्यतेतमाम् ॥ २५७॥ अवश्यं तत्र भावी ते भर्त्रा च सह सङ्गमः । तत् तत्र गच्छ वत्से ! त्वं जैरद्भिस्तापसैः समम् ॥ २५८॥ इत्याज्ञया कुलपते: सा जरत्तापसैर्वृता । हंसीव पद्मिनीखण्डं पद्मिनीखण्डमभ्यगात् ॥ २५९॥ पुरे प्रवेशो नाऽस्माकमर्ह इत्यभिधाय ताम् । पुराद्बहिरपि त्यक्त्वा जग्मुर्व्यावृत्त्य तापसाः ॥ २६०॥ विदधाना दिवं दृष्टिपातैः सकुमुदामिव । वीक्षमाणा दिशो यूथपरिभ्रष्टैणिकेव सा ॥ २६१।। कायचिन्तार्थमायान्तीं व्रतिनीभिः समावृताम् । गणिनीं सुव्रतानाम्नीं ददर्शाऽम्बां निजामिव ॥ २६२ ॥ युग्मम् || सस्मार च यदेतास्ता: पत्या मे निजपाणिना । अनवद्या जगद्वन्द्या लिखित्वा दर्शिताः पटे ॥ २६३॥ इति संस्मृत्य सा पूर्वाभ्यस्तेन विधिना द्रुतम् । उपेत्य सुव्रतापादान् ववन्दे व्रतिनीश्च ताः ॥ २६४ ॥ सिंहलद्वीप चैत्यानि मातर्वन्दस्व मदिरा । रचिताञ्जलिरित्यूचे सुव्रतां तां महाव्रताम् ॥ २६५ ॥ सुव्रताऽप्यभ्यधत्तैवं सिंहलादागताऽसि किम् ? । कथमेकाकिनी ? नैषा ह्याकृतिर्निष्परिच्छदा ॥ २६६ ॥ सर्वं सुस्था कथयिष्याम्येवमुक्ता तया सह । सुव्रतागणिनी शीघ्रं जगाम स्वं प्रतिश्रयम् ॥ २६७॥ वन्दमाना साऽथ साध्वीरसाधारणभक्तितः । प्रियदर्शनया तत्र दृष्टा च सुतया तव ॥ २६८ ॥ पृष्टा च सा सुव्रतया प्रियदर्शनयाऽपि च । सुव्रतादर्शनप्रान्तमाख्यद् वृत्तान्तमात्मनः || २६९॥ प्रियदर्शनया सोचे वीरभद्रस्य सुन्दरि ! । सर्वं कलादि सैंवादि वर्णेन स तु कीदृश: ? ॥२७०॥ तया चोक्ते श्याम इति जगाद प्रियदर्शना । विसंवदति मद्भर्तुरेको वर्णस्तु 'वैर्णिनि ! ॥२७१॥ गणिन्युवाच ते धर्मस्वसेयं प्रियदर्शना । वत्से ! सहाऽनया तिष्ठ धर्मानुष्ठानतत्परा ॥ २७२॥ एवं सुव्रतया चोक्ता प्रियदर्शनयाऽपि च । दैर्शितात्यन्तवात्सल्याऽस्थात् तत्राऽनङ्गसुन्दरी ॥२७३॥ ॥ इतश्च वीरभद्रोऽपि भग्ने प्रवहणे तदा । एकस्मिन् फलके लग्नस्ताड्यमानो महोर्मिभिः ॥ २७४॥ रतिवल्लभसज्ञेन विद्याधरवरेण सः । सप्तमे दिवसेऽदर्शि निन्ये वैताढ्यमूर्ध्नि च ॥ २७५॥ स्ववल्लभाया मदनमञ्जुकायाश्च सोऽर्पितः । पुत्रत्वेन स्वयं तेनाऽपुत्रेण परया मुदा ॥ २७६॥ ताभ्यां पृष्टश्च सोऽम्भोधिपातवृत्तान्तमादितः । आत्मनः सकलत्रस्य कथयित्वैवमब्रवीत् ॥ २७७॥ अहं तात! त्वयाऽऽकृष्टो यैमास्यादिव सागरात् । कथं सा वर्ततेऽनङ्गसुन्दरीति न वेद्मि तु ।। २७८।। आभोगिन्या विद्यया च ज्ञात्वाऽऽख्यद् रतिवल्लभः । वल्लभे भवतोऽनङ्गसुन्दरी - प्रियदर्शने ॥ २७९ ॥ पत्तने पद्मिनीखण्डे सुव्रतायाः प्रतिश्रये । धर्मानुष्ठाननिरते भगिन्याविव तिष्ठतः || २८० || युग्मम् || उभयोरपि पत्न्योस्तु तया कल्याणवार्तया । सर्वाङ्गीणं सिक्त इव सुधया श्वसिति स्म सः ॥ २८९ ॥ १. यानपात्रस्य ।। २. जलसुन्दरीव ॥। ३. मूर्च्छिता ।। ४. वृद्धैः ॥ ५. मृगीव ॥ ६. स्थण्डिलार्थम् ॥ ७. सुव्रतां नाम ला. हे. ।। ८. निर्दोषा: ।। ९. एषा परिवाररहिता न स्यादित्येवं तव आकृतिः सूचयति ॥ १०. उपाश्रयम् ॥ ११. सुव्रतादर्शनपर्यन्तम् ।। १२. यथार्थम् ।। १३. हे रूपवर्ति ! ॥ १४. दर्शनात्यन्त० मु. ।। १५. यममुखात् ॥ ८३ For Private Personal Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (षष्ठं पर्व अब्धेरुत्तीर्णमात्रोऽपि गुटिकां श्यामकारिणीम् । सोऽपनीयाऽऽददे वर्णं सहजं गौरलक्षणम् ॥२८२॥ वज्रवेगवतीकुक्षिभवां दुहितरं निजाम् । रत्नप्रभाख्यां तेनोदवायद रतिवल्लभः ॥२८३।। बुद्धदास इति नामाऽऽत्मीयं तत्र शशंस सः । समं च रत्नप्रभयाऽन्वभूद्वैषयिकं सुखम् ।।२८४॥ सम्भूय गच्छतो विद्याधरान सोऽन्येधुरैक्षत । क्वैते वेगेन गच्छन्तीत्यपृच्छच्च निजां प्रियाम् ॥२८५।। आख्यद् रत्नप्रभाऽप्येवमत्राऽद्रौ शाश्वतार्हताम् । यात्रां का प्रयान्त्येते वेगाद्विद्याधरा: प्रिय! ।।२८६।। एवमाकर्ण्य स श्राद्धो बुद्धदासाभिध: सुधी: । वैताढ्यशैलशिखरमारुरोह तया सह ॥२८७।। ववन्दे तत्र चैत्यानि स भक्त्या शाश्वतार्हताम् । देवाग्रे गीत-नृत्तादि चक्रे रत्नप्रभाऽपि च ॥२८८।। सोऽथाऽब्रवीदपूर्वोऽयं देवो मम यत: प्रिये! । सिंहलद्वीपवास्यस्मि बुद्धोऽस्मत्कुलदेवता ।।२८९।। साऽप्यूचे नाथ! तेनैव हेतुना निगदस्यदः । अपूर्वो मम देवोऽयं देवदेवो ह्ययं प्रभुः ।।२९०।। सर्वज्ञो जितरागादिदोषस्त्रैलोक्यपूजितः । यथास्थितार्थवादी च देवोऽर्हन् परमेश्वरः ॥२९१॥ देवा न बुद्ध-ब्रह्माद्याः संसारावर्तपातिनः । स्वस्य मोहादिपिशुनमक्षसूत्रादि बिभ्रतः ॥२९२।। ततो विचित्रक्रीडाभि: क्रीडतोरन्वहं तयोः। कियानपि ययौ काल: रतिसागरमग्नयोः ॥२९३॥ पासोऽन्यदोचे निशाशेषे प्रिये! रत्नप्रभेऽचिरात् । दक्षिणे भरतार्धेऽद्य गच्छामः क्रीडितुं सुखम् ।।२९४॥ आमेत्युक्तवती सा च स च द्वावपि विद्यया । जग्मतुः पद्मिनीखण्डे सुव्रताया: प्रतिश्रयम् ।।२९५॥ स्थित्वा प्रतिश्रयद्वारे वीरभद्रो जगाद ताम् । आचम्य यावदायामि तिष्ठेस्तावदिहैव हि ॥२९६।। इत्युक्त्वाऽल्पां भुवं गत्वा तद्रक्षणकृते पुनः । तस्थौ निलीय तत्रैव राजकीय इव स्पशः ॥२९७।। साऽप्येकिका क्षणादूर्ध्वं चक्रवाकीव निष्प्रिया। तारं रोदितुमारेभे स्त्रीस्वभावोऽयमीदृशः ॥२९८।। श्रुत्वा च करुणं शब्दं गणिनी करुणासरित् । स्वयमुद्घाटयामास.कपाटौ तां ददर्श च ॥२९९।। इत्यभ्यधाच्च गणिनी वत्से! का त्वं ? कुतोऽभ्यगा: ? । कथमेकाकिनी चाऽसि ? कुतो हेतोश्च रोदिषि ? ॥३००॥ नत्वा सोवाच वैताढ्यात् पत्या सममिहाऽऽगमम्। आचान्त्यै सो गतोऽद्याऽपि चिरयत्येव मे पतिः॥३०१।। मुहूर्तमपि स स्थातुं सहते मां विना न हि । आशङ्के कारणं तेन सुमहन् मातरीतुरा ॥३०२॥ मन्मानसमवेतप्तेनकुलस्थितवत् तत: । अस्मि धारयितुं प्राणानपि सम्प्रत्यलं न हि ॥३०॥ सानुकम्पं सुव्रतोचे मा स्म भैषी: पतिव्रते! । स्वस्था प्रतिश्रये तिष्ठ यावदायाति ते पतिः ॥३०४॥ गणिन्या बोधिता सैवं प्रविवेश प्रतिश्रयम् । जायां स्थाने गतां दृष्ट्वा वीरभद्रोऽप्यपासरत् ॥३०५॥ स्वेच्छावामनरूप: स क्रीडया पर्यटन् पुरे । मनो जहार पौराणां विचित्रा दर्शयन् कलाः ॥३०६।। बसोऽथ राजानमीशानचन्द्रमप्यत्यरञ्जयत् । एकाऽपि हि हरेच्चित्तं किं पुन: सकला: कला: ? ||३०७।। साऽपि चाऽनङ्गसन्दर्या प्रियदर्शनयाऽपि च । रत्नप्रभैवं जगदे कीदृशः कश्च ते पति: ? ||३०८।। साऽऽख्यत् सिंहलवास्तव्यो गौरोऽखिलकलानिधिः । बुद्धदासाभिधानश्च भर्ता रूपस्मरो मम ॥३०९।। प्रियदर्शनयाऽथोचे संवदत्येव मे पतिः। न तु सिंहलवासित्वं बुद्धदासाभिधा न च ॥३१०॥ ऊचे चाऽनङ्गसुन्दर्या वर्ण: सिंहलवासिता। बुद्धदासाभिधा चेति विसंर्वदति मत्पतेः ॥३११॥ भगिन्य इव तिम्रोऽपि तप:स्वाध्यायतत्पराः । पुंवार्तामप्यकुर्वन्त्य: सन्ति तास्तत्प्रतिश्रये ॥३१२॥ तिम्रोऽपि प्रेयसीस्तत्र स मायावामनोऽन्वहम् । निरीक्षते मोदते च तासां शीलेन हॉरिणा ॥३१३॥ नाअन्यदेशानचन्द्रस्य राज्ञः पर्षद्यभूत् कथा । पुरे यदस्मिन्नार्याया: सुव्रताया: प्रतिश्रये ॥३१४॥ १. बुद्धिदास इति हे. ला. ।। २. तत्राऽऽशशंस मु.॥ ३. चैत्यान्त: मु. पा. खंता. विना ।। ४. शाश्वतार्हत: मु. खंता. विना ।। ५. मोहादिसूचकम् ।। ६. जलपानं कृत्वा प्रक्षाल्य वा॥७. गूढचरः।। ८. एकैव एकिका ॥९. क्षणानन्तरम् ।। १०. आचमनाय॥११. विलम्ब करोति ।।१२. चिन्तिता ॥१३. अवतप्ते अत्युष्णे भाजने नकुलस्य स्थितं-स्थिति: इव ।।१४. साऽऽख्यात् खंता. ।। १५. रूपेण कामदेवः॥१६. एतावद्भिन्नत्वमन्यत् सर्वं कलादिकं समानमित्यर्थः ।। १७. मायया वामनरूपधर: इत्यर्थः ।। १८. मनोहारिणा ॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । रूपवत्यो युवतयस्तिस्रः सन्ति महात्मिका: । तस्यास्त्रीणीव रत्नानि 'धात्रीपावित्र्यकारणम् ॥३१५॥ युग्मम्] संतीमतल्लिकास्ताश्च सती: पथि कुलोचिते। न हि कश्चिदलम्भूष्णुरपि भाषयितुं पुमान् ॥३१६॥ स मायावामनोऽथोचे भाषयिष्याम्यहं क्रमात् । मम पश्यत सामर्थ्य कर्मण्यत्राऽपि दुष्करे ॥३१७।। प्रधानै राजपुरुषैर्वृतः कतिपयैरपि । पौरैरन्वीयमानोऽगात् स गणिन्या: प्रतिश्रयम् ॥३१८॥ स्थित्वा प्रतिश्रयद्वारे सोऽशात् सहचरानिति । प्रष्टव्यं तत्र युष्माभिः कथां कथय कामपि ॥३१९।। स विविक्तपरीवार: प्राविशत् तं प्रतिश्रयम् । ववन्दे सुव्रतामन्या वतिनीश्चाऽमलव्रताः ॥३२०॥ निर्गत्योपाविशद् द्वारमण्डपे कूटवामनः । तिम्रोऽप्येयुः सवतिन्यस्तास्तद्दर्शनकौतुकात् ॥३२१॥ अथोचे वामनो यावद् राज्ञोऽनवसरः किल । स्थास्यामस्तावदत्रैव विनोदाक्षिप्तचेतसः ॥३२२॥ स्माऽऽह राजपुमान् काञ्चित् कथां शंस सकौतुकाम् । किं कथां वृत्तकमथ वच्मीत्यूचे च वामनः ॥३२३॥ कथा-वृत्तकभेदं तु पृष्टः प्रोवाच वामनः । वृत्तकं स्यादनुभूतं प्राक्पुंसां चरितं कथा॥३२४॥ वृत्तकं कथ्यतां तीत्युक्ते वामनकोऽवदत् । अस्तीह भरते नाम्ना ताम्रलिप्ती महापुरी ॥३२५।। तस्यामृषभदत्तोऽस्ति श्रेष्ठी श्रेष्ठतरो गुणैः । वाणिज्यया सोऽन्यदाऽगात् पद्मिनीखण्डपत्तनम् ॥३२६॥ तत्र सागरदत्तस्य कन्यका प्रियदर्शनाम् । दृष्ट्वोदवाहयत् स्वेन वीरभद्रेण सूनुना ॥३२७॥ सार्धं तया वीरभद्रोऽन्वभवैषयिकं सखम। निशीथेऽलीकसुप्तां तामदस्थापयदन्यदा॥३२८॥ मा कदर्थय मां जातशिरोऽतिमिति साऽवदत। किंदोषेणेति तेनोक्ते त्वद्दोषेणेति साऽवदत् ॥३२९॥ स्वं दोषं तेन सा पृष्टा जगाद प्रियदर्शना। किमीशेऽपि समये विदग्धोक्तिस्तव प्रिय! ? ॥३३०॥ भूयो नैव करिष्यामीत्युक्त्वा सोऽरमयच्च ताम् । सद्भावसुप्तां मुक्त्वाऽथ विदेशं तत्पतिर्ययौ ॥३३१।। आख्यायैवं वामनस्तु मम राजकुलेऽधुना । सेवाक्षणोऽतियातीति समुत्तस्थौ ससंभ्रमः ॥३३२।। प्रियदर्शनयोत्तिष्ठन् स भूयोऽभाषि सादरम् । क्व गतो वीरभद्रोऽस्ति ? ब्रूहि वेत्स्येव वामन! ॥३३३।। व्याहरद् वामनोऽप्येवं नाऽहं परमहेलया। सहाऽऽलपामि स्वकुलकलङ्कचकित: सदा ॥३३४।। साऽप्युवाच कुलाहँ हि तव शीलं किमुच्यते ? । दाक्षिण्याच्छंसतस्तद्धि कुलीनस्याऽऽदिमो गुणः ॥३३५।। तर्हि श्व: शंसिताऽस्मीति गदित्वा वामनो ययौ। स्वैराख्याते तदुदन्ते नरेन्द्रोऽपि विसिष्मिये ॥३३६॥ पाद्वितीयेऽह्नि तथैवाऽगात् स गणिन्या: प्रतिश्रयम् । अत्यादृतानां तासां च भूयोऽप्याख्यत् कथामिति ॥३३७॥ पुर्या निर्याय भूत्वा च कृष्णो गुटिकयाऽथ सः । पर्यटन विविधान् देशान् सिंहलद्वीपमासदत् ॥३३८।। तत्र रत्नपुरे श्रेष्ठिशङ्खहट्टे निषेदिवान् । श्रेष्ठिना ज्ञातवृत्तान्तो निन्ये च निजवेश्मनि ॥३३९।। पुत्रत्वेन प्रत्यपादि श्रेष्ठिश्रेष्ठेन तेन सः । सुखं चाऽस्थात् पुरे तत्र कलाभिः कृतविस्मयः॥३४०॥ समं विनयवत्या च श्रेष्ठिपुत्र्या जगाम स: । स्त्रीवेषोऽनङ्गसुन्दर्या राजपुत्र्या निकेतने ॥३४१।। कलाभिर्हतचित्तां तां ज्ञापितात्मा क्रमेण स: । पितृदत्तामुपायंस्त चिरं भोगानभुङ्क्त च ॥३४२।। तां गृहीत्वा गच्छतश्च ताम्रलिप्ती पुरीं प्रति । भग्नं प्रवहणं तस्य दैवौदाशेव वारिधौ ॥३४३॥ सम्प्रत्यहं व्रजिष्यामि राजसेवाक्षणो ह्ययम् । सेवकानां विना सेवां भज्यते खलु जीविका ।।३४४।। ततश्चाऽनङ्गसुन्दर्या सोपरोधमभाणि स: । भद्र! क्व वीरभद्रोऽस्ति सोऽधुनाऽऽख्याहि सर्वथा ॥३४५।। आख्याताऽस्मि श्व इत्युक्त्वा राजवेश्म जगाम स: । राज्ञे तमपि वृत्तान्तं शशंसू राजपूरुषाः ॥३४६।। बातृतीयेऽप्यह्नि तत्रैत्य शशंसेति स वामनः । वीरभद्रस्तत्र दैवादेकं फलकमासदत् ॥३४७॥ १. धात्री-पृथ्वी ॥२. पतिव्रतासु श्रेष्ठाः॥ ३. वर्तमानाः॥ ४. उपादिशत् ॥५. अल्पपरिवारः।। ६. ससाध्वीकास्तास्त० हे. ॥ ७. यावद्राज्ञो नावसरं मु., यावद्राज्ञोऽनवसरं पाता.ला.हे.प्रभृतिषु ।। ८. कस्य दोष: किंदोषस्तेन ॥९. परस्त्रिया; परमहिलया मु.॥१०. कथयतः॥११. आप्तपुरुषैः ॥१२. दैवादत्रैव पा. छा., दैवात्तत्रैव मु.प्रभृतिषु ॥ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (षष्ठं पर्व ततो विद्याधरश्चाऽऽगानामतो रतिवल्लभः । तं ददर्श च निन्येऽथ वैताढ्याद्रौ स्ववेश्मनि ॥३४८॥ अब्धेरुद्वृत्तमात्रोऽपि गुटिकां श्यामिकाकरीम् । अपकृष्याऽभवद् गौरस्ताम्रलिप्त्यामिव स्थितः ॥३४९।। स्वं च सिंहलवास्तव्यं बुद्धदासं च नामत: । पृष्टः शशंस स रतिवल्लभस्याऽतिवल्लभः ॥३५०॥ पुत्री रत्नप्रभाख्यां स तेनोक्त: परिणीतवान् । रमयंश्च सुखं तस्थौ विलासोपवनादिषु ॥३५१।। तया सह क्रीडितुं च सोऽन्यदाऽत्र समाययौ । मुक्त्वेह तामाचमनव्याजाच्चाऽगमदन्यतः ।।३५२।। यास्याम्यहमपीदानीमित्युक्त्वा स समुत्थितः । ऊचे च रत्नप्रभया बुद्धदास: क्व सोऽधुना ? ॥३५३।। आख्यास्याम्यपरं प्रातरित्युत्थाय जगाम सः । ताश्चैकपतिसंवादात् तिम्रोऽप्युच्चैरुदश्वसन् ।।३५४।। स एष तव जामाता वामनः श्रेष्ठिसागर! । रमणस्तिसणां तासां क्रीडया विरहं ददौ ॥३५५|| वामनोऽपि जगादैवं वन्दित्वा गणभृद्वरम् । युष्मज्ज्ञानदृशा दृष्टमेवमेतद्धि नाऽन्यथा ॥३५६॥ पूर्णद्वितीयपौरुष्यां कुम्भो गणधराग्रणी: । व्यसृजद्देशनां तेषां तावत्कालैव देशना ॥३५७।। नत्वा गणधरं कुम्भं वामनेन सहैव स: । श्रेष्ठी सागरदत्तोऽगान् मुदितस्तं प्रतिश्रयम् ॥३५८॥ पतास्तं वामनमायान्तं तिम्रोऽपि प्रेक्ष्य तत्क्षणम् । उपाजग्मुः प्रियोदन्ताहरः कस्य न वल्लभ: ? ॥३५९।। ऊचे सागरदत्तोऽपि पतिर्वस्तिसृणामसौ। ताभिश्च कथमित्युक्तस्तदाख्यदखिलं च सः॥३६०॥ तिम्रोऽपि विस्मयं प्रापुर्गणिन्या सममेव ताः । प्रविश्याऽन्तर्वामनोऽपि वामनत्वं मुमोच तत् ॥३६१।। यादृशोऽनङ्गसुन्दर्या दृष्टस्तादृगभूत् पुरः । पुन: श्यामत्वमुत्सृज्य गौरत्वं प्रत्यपद्यत ॥३६२।। सर्वाभिः प्रेत्यभिज्ञात: सोत्कण्ठाभिः समादृतः । गणिन्याऽभिदधे चैवं किमेतद्भवता कृतम् ? ॥३६३।। सोऽप्यभ्यधाद् भगवति! क्रीडया निरगां गृहात् । क्रीडयोपेक्षितस्तासामिहाऽपि विरहो मया ॥३६४॥ सुव्रतागणिनी चैवमवोचत् तात्त्विकं वचः । दूरे देशान्तरेऽरण्ये पर्वते वारिधावपि॥३६५।। अन्यत्र वा दुःखपदे यान्ति यत्राऽपि धर्मिणः । तत्राऽपि सौख्यमतुलं लभन्ते निजवेश्मवत् ॥३६६॥[युग्मम् ।। भोगा: सत्पात्रदानानुभावादित्यार्हतं वचः । कस्मै दत्तमनेनेति पृच्छामोऽरजिनेश्वरम् ॥३६७॥ गणिनी सागरदत्तो वीरभद्रः प्रियान्वित: । अरस्वामिनमभ्येयुः प्रणेमुश्च यथाविधि ॥३६८॥ कर्म भोगफलं वीरभद्रः किं प्राग्भवे व्यधात् ? । इति सुव्रतया पृष्टो जगाद परमेश्वरः ॥३६९॥ पाइतो भवे तृतीये मे प्राग्विदेहेषु पुष्कलम् । राज्यं त्यक्त्वा व्रतभृत: पृथ्व्यां विहरत: सत: ।।३७०।। चतुर्मासोपवासान्ते पुरे रत्नपुराभिधे। श्रेष्ठिसूर्जिनदासाख्यो भक्त्या भिक्षां ददावसौ ॥३७१॥[युग्मम्]। तेन पुण्येन देवोऽभूदु ब्रह्मलोके ततश्च्युतः । जम्बूद्वीपस्यैरवते काम्पील्येऽभून महेभ्यतुक् ॥३७२॥ तत्राऽपि परमर्द्धिः सन् श्रावकत्वं प्रपाल्य च। मृत्वाऽच्युतेऽभवद्देवस्ततश्च्युत्वा त्वभूदसौ ॥३७३।। पुण्यानुबन्धिना तेन पुण्येनेह भवेऽप्ययम् । भुङ्क्ते भोगान् यत्र तत्र पुण्यं ह्यनुचरं नृणाम् ।।३७४॥ भगवानेवमाख्याय प्रतिबोध्य बहून् जनान् । जगन्मोहमपहरन् विहरन्नन्यतो ययौ ॥३७५।। भुक्त्वा भोगांश्चिरं वीरभद्रः प्रव्रज्य च क्रमात् । दृढपुण्यरथारूढो देवलोकं जगाम सः ॥३७६।। पासहस्राण्यथ पञ्चाशच्छ्रमणानां महात्मनाम् । तीव्रव्रतानां साध्वीनां पुन: षष्टिसहस्यपि ॥३७७।। चतुर्दशपूर्वभृतां दशाग्राणि शतानि षट् । अवधिज्ञानभाजां तु द्वे सहस्रे सषट्शते ॥३७८।। सार्धे सहस्रे द्वे एकपञ्चाशच्च मनोविदाम् । द्वे सहस्रे साष्टशते केवलज्ञानधारिणाम् ॥३७९॥ जातवैक्रियलब्धीनां त्रिसप्ततिशती पनः । सञ्जातवादलब्धीनां सहसं षट शतानि च ॥३८०॥ १. प्रियस्य उदन्तं-वृत्तान्तं आहरति-आनयति ॥ २. अवलक्षितः, स एवाऽयमिति ज्ञातः ।। ३. व्रतं बिभर्ति, तस्य ॥४. महेभ्यभुक् मु.; महेभ्यस्य पुत्रः॥५. श्रमणानां सङ्ख्या ५०सहस्रमिता ।। ६. साध्वीनां सङ्ख्या ६०सहस्रमिता ।। ७. चतुर्दशपूर्विणां सङ्ख्या ६१०मिता ॥ ८. अवधिज्ञानिनां सङ्ख्या २६०० मिता ॥ ९. मन:पर्ययज्ञानिनां सङ्ख्या २५५१मिता ॥ १०. केवलज्ञानिनां सङ्ख्या २८००मिता ।। ११. वैक्रियलब्धीनां सङ्ख्या ७३००मिता ॥ १२. वादलब्धीनां सङ्ख्या १६००मिता।। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । 'श्रावकलक्षे षोडशसहस्रोने उभे पुनः । तिम्रो लक्षा: 'श्राविकाणां द्वासप्ततिसहस्यपि ॥३८१॥ आ केवलात्रिवर्षोनाब्दसहस्रकविंशतिम् । वसुन्धरां विहरत: परिवारोऽभवत् प्रभोः ॥३८२।। निर्वाणकालं ज्ञात्वा च स्वामी सम्मेतमभ्यगात् । समं मुनिसहस्रेणाऽनशनं प्रत्यपादि च॥३८३।। मासान्ते च मार्गशुद्धदशम्यां पौष्णगे विधौ। समं तैर्मुनिभिः स्वामी जगाम पदमव्ययम् ।।३८४॥ कौमार-राज्य-चक्रित्व-व्रतेषु समभागकम् । आयुश्चतुरशीत्यब्दसहस्राण्यभवत् प्रभोः ॥३८५।। वर्षकोटिसहस्रोने पल्यतुर्यांशके गते । श्रीकुन्थुमोक्षान् मोक्षोऽभूच्छीमतोऽरजिनेशितुः ॥३८६।। तत्राऽरनाथस्य मुनीश्वरैस्तैः शिवं सहोपयुष एत्य भक्त्या। शरीरसंस्कारपुरस्सरं ते निर्वाणकल्याणमकार्षुरिन्द्राः ॥३८७।। इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये षष्ठे पर्वणि श्रीअरनाथचरित कीर्तनो नाम द्वितीय: सर्ग:॥ १. श्रावकाणां सङ्ख्या १लक्ष८४सहस्रमिता ।। २. श्राविकाणां सङ्ख्या ३लक्ष७२सहस्रमिता ।। ३. रेवतीं गते ।। ४. कौमारे २१सहस्रमितानि वर्षाणि, राज्ये २१सहस्रमितानि वर्षाणि, चक्रित्वे २१सहस्रमितानि वर्षाणि, व्रते २१सहस्रमितानि वर्षाणि ॥ ५. आयुर्वर्षाणि ८४सहस्रमितानि ।। ६. पल्योपमचतुर्भागे वर्षकोट्यूनिते गते । हे.॥७. पल्योपमस्य चतुर्थांशे गते सति ॥ ८. प्राप्तस्य ॥९. श्रीअरनाथवर्णनो मु.प्रभृतिषु ।। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥तृतीयः सर्गः॥ ॥आनन्द-पुरुषपुण्डरीक-बलिचरित्रम्॥ अथ तीर्थेऽरनाथस्य षष्ठयोर्बल-शाह्मिणोः । प्रतिविष्णोर्बलेश्चाऽभूद्यच्चरित्रं तदुच्यते॥१॥ पुरेऽभूदु विजयपुरे नृपो नाम्ना सुदर्शनः । सुदर्शनश्चन्द्र इव जगदानन्ददायकः ॥२॥ मुनेर्दमधराज्जैनं श्रुत्वा धर्मं विरक्तधीः । स प्रव्रज्य तपस्तप्त्वा सहस्रारेऽभवत् सुरः ॥३॥ तथेह भरतक्षेत्रे पोतने नगरे नृपः । प्रियमित्रोऽभवन् मित्राब्जेषु मित्रोदयोपमः ॥४॥ सुकेतुस्तत्प्रियां जहे विरक्तस्तत्पराभवात् । वसुभूतिमुने: पार्श्वे स प्रव्रज्यामुपाददे ॥५॥ प्रियाहरणदुःखार्तः स तेपे दुस्तपं तपः। निदानं चाऽकरोत् पत्नीहारकस्य वधं प्रति ॥६।। स निदानमनालोच्य विहितानशनो मृतः । समजायत माहेन्द्रे कल्पे देवो महर्द्धिकः ॥७॥ इंतश्च वैताढ्यगिरौ पुरेऽरिञ्जयनामनि । स सुकेतुर्भवं भ्रान्त्वा प्रतिविष्णुरभूदु बलिः ॥८॥ स पञ्चाशद्वर्षसहस्रायुः श्वेतेतरद्युतिः । षड्विंशतिधनूत्तुङ्गस्त्रिखण्डक्ष्माधरोऽभवत् ॥९॥ अथाऽस्य जम्बूद्वीपस्य भरतार्धेऽत्र दक्षिणे। पुरमस्ति चक्रपुरं महीमण्डलमण्डनम् ॥१०॥ नाम्ना महाशिरा नम्रीकृतराजमहाशिराः । तत्राऽभूदवनीपालो लोकपाल इवाऽपरः ॥११।। तस्याऽद्भुतचरित्रस्य धात्रीपतिशिरोमणे: । धिषणा विक्रमेणेव श्रीविवेकेन भूषिता ॥१२॥ सा काऽपि हि कला नाऽस्ति या तस्मिन्न ह्यदृश्यत । जीवजातिरिवाऽम्भोधौ स्वयम्भूरमणाभिधे ॥१३।। नाऽभूद्वार्ताऽपि चौराणां तस्मिन् शासति मेदिनीम् । केवलं चोरयामास स स्वयं तु सतां मनः ॥१४॥ एकेषां जनयन् प्रीतिमपरेषां पुनर्भयम् । न ह्युत्ततार हृदयात् स सतामसतामपि ॥१५॥ वैजयन्तीत्यभूद् रूपाजयन्ती स्वर्वधूरपि । तस्य पत्न्यपरा लक्ष्मीरिव लक्ष्मीवतीति च ॥१६॥ सहस्रारात् परिच्युत्य सुदर्शनवर: सुरः । वैजयन्त्या महादेव्या उदरे समवातरत् ॥१७॥ महास्वप्नचतुष्केण बलजन्माभिसूचिना । हृष्टा देवी वैजयन्ती दधौ गर्भमनुत्तरम् ।।१८॥ काले च सुषुवे पूर्णे पूर्णचन्द्र इवाऽमलम्। सर्वलक्षणसम्पूर्णमानन्द इति नन्दनम् ॥१९।। जीवोऽथ प्रियमित्रस्य तुर्यकल्पात् परिच्युतः । लक्ष्मीवत्या महादेव्याः कुक्षौ समवतीर्णवान् ॥२०॥ सप्तभिश्च महास्वप्नैः सूचितोपेन्द्रजन्मभिः । हृष्टा लक्ष्मीवती गर्भ धारयामास देव्यथ ॥२१॥ कालेऽसूत सुतं सा च दैवी देवसमाकृतिम् । अभिधानेन पुरुषपुण्डरीकं शितिद्युतिम् ॥२२॥ भ्रातरौ ववृधाते तो पित्रो: सह मनोरथैः । तार्क्ष्य-तौलध्वजौ नील-पीताम्बरधरौ सदा ।।२३।। कम्पयन्ताविव महीं चेलतुर्लीलयाऽपि तौ। बालावपि न चोद्वोढुमलं तौ बॉलधारकाः ॥२४॥ १. बलदेव-वासुदेवयोः ।। २. सुष्टु दर्शनं यस्य सः ॥ ३. मित्राण्येव अब्जानि-कमलानि तेषु ।। ४. सूर्यः ।। ५. इतश्च वैतादयगिरौ पुरेऽरिञ्जयनामनि । सूभूमचक्रिणा दत्तश्रेणिद्वितयवैभवः ॥ हे. मु. ॥ तस्यैव चक्रभृत्पत्ल्या नाम्ना पद्मश्रियः पिता । मेघनाद इति ख्यातो विद्याधरनृपोऽभवत् ॥ मु., तस्यैव च चक्रभृत: पत्न्या पद्यश्रियः पिता । मेघनाद इति ख्यातो विद्याधरनृपोऽभवत् ॥ हे.॥६. पुरे विजयनामनि ला.,पुरेऽरिजयनामनि खंता.॥ ७. स सुकेतुर्भवं भ्रान्त्वा जीवस्तत्रैव पत्तने । अन्वये मेघनादस्य प्रतिविष्णुरभूद् बलिः ॥ मु., सुकेतुजीवोऽपि भवं भ्रान्त्वा तत्रैव पत्तने । अन्वये मेघनादस्य प्रतिविष्णुरभूद् बलिः ॥ हे. ॥ ८. श्यामकान्तिः ।। ९. नम्रीकृतानि नामितानि राज्ञां महान्ति शिरांसि येन सः ।। १०. बुद्धिः ।। ११. एकोनत्रिंशधन्वोच्चमानन्द इति० ला.खंता. विना ।।१२. सूचितवासुदेवजन्मभिः॥१३.०चैकोनत्रिंशद्धनूनतम् ला. खंता. विना ॥१४.०त्रिंशद्धनून्नतिम् खंता. ला. मु. विना ।। १५. श्वेतकान्तिः ॥१६. ताडध्वजौ खंता.; ता_ध्वजो वासुदेवः, तालध्वजो बलदेवः ॥ १७. बालरक्षकाः॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय: सर्गः) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम्। 'एकोनत्रिंशिधन्वोच्चौ प्रापतुर्यौवनं क्रमात् । तावशेषकलाम्भोधिपारगौ च बभूवतुः ॥२५॥ उपेन्द्रसेनो राजेन्द्रपुरेशोऽथ स्वकन्यकाम् । ददौ पद्मावतीं नाम पुण्डरीकाय विष्णवे ॥२६।। पाश्रुत्वा रूपश्रिया दासीकृतानङ्गाङ्गनां च ताम् । प्रतिविष्णुबलि म हर्तुं तत्र समाययौ ॥२७।। बलिं भुजबलाध्मातमवज्ञातजगद्बलम् । आनन्द-पुण्डरीकावप्यभ्यषेणयतां ततः॥२८॥ शा:-लाङ्गलमुख्यानि तयोः शस्त्राणि नाकिभिः । अर्पयाञ्चक्रिरे शस्त्रागारायुक्तैरिव क्षणात् ।।२९।। बलेबलैर्बलीयोभिरभज्यत तयोर्बलम् । चक्रिरे सिंहनादांश्च स्वस्वामिजयशंसिनः ॥३०॥ आनन्दः पुण्डरीकश्च रथस्थौ रणकर्मणे। डुढौकाते प्रमुदितौ वीराणां हि रणो मुदे ॥३१।। पाञ्चजन्यं पुण्डरीकस्तारमापूरयत् ततः । यादश्चक्रमिवाऽम्भोधे रणान्नष्टं द्विषद्बलम् ॥३२॥ शार्ङ्ग चाऽऽस्फालयच्छाी शङ्खस्येवाऽनुवादकम् । हतशेषद्विषोऽनश्यंस्तन्निनादेन भूयसा॥३३।। उपतस्थे बलिर्योर्द्ध स्वयमुल्बणविक्रम: । निरन्तरैः शरैर्वर्षन् धारासारमिवाऽम्बुदैः ॥३४॥ चिच्छेद तदिषून् विष्णुर्विष्णो: सोऽपि तथाऽच्छिदत् । एवं भूय: शेरच्छेदक्रुद्धश्चक्रं बलिर्दधौ ।।३५।। अरे! न हि भवस्येष इति जल्पन् बलिर्बली। भ्रमयित्वाऽमुचच्चक्रं पुण्डरीकाय विष्णवे ॥३६।। चपेटालग्नतत्तुम्बप्रहारान् मूर्च्छित: क्षणम् । लब्धसञः क्षणाद्विष्णुस्तच्चक्रं स्वयमाददे॥३७|| अरे! न हि भवस्येष इति जल्पञ्जनार्दनः । भ्रमयित्वाऽमुचच्चक्रं चिच्छेद च बले: शिरः ॥३८|| पाततश्चाऽनन्दसहितो मथ्नन्नहितभूभुजः । विष्णुश्चकार दिग्यात्रामर्धचक्री बभूव च ॥३९॥ विष्णुरुत्पाटयामास मगधान्तरवस्थिताम् । महाशिलां कोटिशिलां तां तुलाकोटिलीलया ॥४०॥ पञ्चषष्टिसहस्राणि वर्षाणामायुरात्मनः । सोऽतिवाह्य ययौ षष्ठं नरकं स्वोग्रकर्मभिः ॥४१॥ पुण्डरीकस्य कौमारे सार्धं वर्षशतद्वयम् । तदेव मण्डलित्वेऽपि दिजये षष्टिवत्सरी ॥४२॥ रोज्ये संवत्सराणां च चतुःषष्टिसहस्यगात्। शतान्यपि च चत्वारि चत्वारिंशच्च वत्सरा: ।।४३।। पञ्चाशीतिवर्षसहस्रायरेकोऽनुज विना। आनन्दोऽथ निरानन्द: कथञ्चित कालमत्यगात ॥४४॥ सोऽथ स्वस्य भ्रातुरुच्चैर्वियोगात् वैराग्येणोपात्तदीक्ष: सुमित्रात्। आत्माराम: केवलज्ञानमाप्य प्राप स्थानं शाश्वतं शर्मधाम ॥४५॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये षष्ठे पर्वणि श्रीआनन्द-पुरुषपुण्डरीक बलिचरितकीर्तनो नाम तृतीय: सर्गः।। १.क्रमेण च प्रपेदाते यौवनं नेत्रपावनम् । खंता.ला. विना ।। २.एकोनत्रिंश०ला.; 'डिन्'(सि.७/१।१४७)इति सूत्रेण सिद्धोऽयं प्रयोगः ।। ३. दासीकृतानङ्गस्य कामस्य अङ्गना रतिर्यया ताम् ॥४. भुजबलोद्धतम् ॥ ५. तिरस्कृतं जगतो बलं येन तम् ।। ६. युद्धाय अभ्यगमताम् ।। ७. शस्त्रशालाधिकारिभिः ।। ८. बलवद्भिः सैन्यैः ।। ९. युद्धम् ।। १०. जलचरसमूहः ।। ११. प्रबलपराक्रमः ॥१२. स्वशराणां छेदेन क्रुद्धः ।।१३. अरेरेन भवस्येष खंता. हे. मु. विना॥ १४. बलवान् ।।१५. पुण्डरीकः ।। १६. पुण्डरीकः ।।१७. नुपूरलीलया ।। १८. कौमारे वर्षाणि २५०मितानि॥१९. मण्डलिकत्वे वर्षाणि २५०मितानि ।। २०. दिग्विजये वर्षाणि ६०मितानि ।। २१. राज्ये वर्षाणि ६४४४०मितानि ।। २२. आयुर्वर्षाणि ८५०००मितानि ।। २३. पुण्डरीकम् ।। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥चतुर्थः सर्गः॥ ॥सुभूमचक्रवर्तिचरित्रम्॥ अरतीर्थकृतस्तीर्थे सुभूमस्याऽथ चक्रिणः । अष्टमस्य क्रमायातं चरितं कीर्तयिष्यते ॥१॥ इहैव भरतक्षेत्रे विशालनगरेऽभवत् । भूपालो नाम भूपाल: पालयन् क्षत्रियव्रतम् ।।२।। सोऽन्यदैकत्र सङ्ग्रामे बहुभिः परिपन्थिभिः । एकीभूय पराजिग्ये वृन्दं हि बलवत्तरम् ॥३॥ स वैरिभिः पराभूतोऽपमानमलिनाननः । सम्भूतमुनिपादान्ते परिव्रज्यामुपाददे ॥४॥ प्रभुत्वभोगविषयं निदानं तपसोऽथ सः । कृत्वाऽवसानं चाऽऽसाद्य महाशुक्रे सुरोऽभवत् ॥५।। पाइंतश्चर्षभनाथस्य कुरुरित्यभवत् सुतः । यस्य नाम्ना कुरुदेशो हस्ती नाम्ना च तत्सुतः ॥६॥ यन्नाम्ना हास्तिनपुरं तीर्थकृच्चक्रिजन्मभूः । तद्वंश्योऽनन्तवीर्योऽभूत् तत्र राजा महाभुजः ॥७॥ इतश्च भरतक्षेत्रे वसन्तपुरपत्तने । उच्छिन्नवंश एकोऽभूदग्निको नाम दारकः ।।८।। सोऽन्यदा चलितस्तस्मात् स्थानाद्देशान्तरं प्रति। सार्थाद्धीन: परिभ्राम्यन्नगमत् तापसाश्रमम् ॥९॥ तमग्निं तनयत्वेनाऽग्रहीत् कुलपतिर्जमः । जमदग्निरिति ख्यातिं स लोकेषु ततोऽगमत् ॥१०॥ तप्यमानस्तपस्तीव्र प्रत्यक्ष इव पावकः । तेजसा दु:सहेनाऽसौ पप्रथे पृथिवीतले॥११॥ पातदा च श्राद्ध: प्राग्जन्मनाम्ना वैश्वानरः सुरः । धन्वन्तरिश्च तापसभक्तो व्यवदतामिति ॥१२।। एक आहाऽर्हतां धर्मः प्रमाणमितर: पुन: । तापसानां; विवादेऽस्मिन् व्यधातामिति निर्णयः ॥१३॥ आर्हतेषु जघन्यो य: प्रकृष्टस्तापसेषु यः । परीक्षणीयावावाभ्यां को गुणैरैतिरिच्यते ? ॥१४॥ पतदानीं मिथिलापुर्या नवधर्मपरिष्कृतः । श्रीमान् पद्मरथो नाम प्रस्थितो पृथिवीतले ॥१५॥ दीक्षां से वासुपूज्यान्ते ग्रहीतुं भावतो यतिः । गच्छंश्चम्पापुरीं ताभ्यां देवाभ्यां ददृशे पथि ॥१६।। परीक्षाकाङ्क्षया ताभ्यां पानान्ने ढौकिते नृपः । तषितः क्षुधितोऽप्यौज्झद्वीरा: सत्त्वाच्चलन्ति न ॥१७॥ कचैरिव चक्राते क्रूरैः कर्कर-कण्टकैः । पीडां देवौ नृदेवस्य मृदुनोः पादपद्मयोः ॥१८॥ पादाभ्यां प्रक्षरद्रक्तधाराभ्यां तादृशेऽध्वनि । तूंलिकातलवच्चारु सञ्चचार तथाऽपि सः ॥१९।। निर्ममे गीत-नृत्तादि ताभ्यां क्षोभाय भूपतेः । तन्मोघमभवत् तत्र दिव्यास्त्रमिव गोत्रजे॥२०॥ तौ सिद्धपुत्ररूपेण पुरोभूयेदमूचतुः । तवाऽद्याऽपि महाभाग! महदायुयुवाऽसि च ॥२१॥ स्वच्छन्दं भुक्ष्व तद्भोगान् का धीर्यद्यौवने तप: ? । निशीथकृत्यं कः प्रात: कुर्यादुद्योगवानपि ? ॥२२॥ यौवने तदतिक्रान्ते देहदौर्बल्यकारणम् । गृह्णीयास्त्वं तपस्तात! द्वितीयमिव वार्धकम् ॥२३॥ राजोचे यदि बह्वायुर्बहु पुण्यं भविष्यति। जैलमानेन नलिनीनालं हि परिवर्धते ॥२४॥ लोलेन्द्रिये यौवने हि यत् तपस्तत् तपो ननु । दारुणास्त्रे रणे यो हि शूर: शूर: स उच्यते ॥२५।। पातस्मिन्नचलिते सत्त्वात् साधु साध्विति वादिनौ। तौ गतौ तापसोत्कृष्टं जमदग्निं परीक्षितुम् ॥२६॥ १. पृथ्वीपालः॥२. शत्रुभिः ।। ३.६-७' इमौ द्वौ श्लोकौ लासझक-हेसज्ञकप्रत्योर्न स्तः॥४. हस्तिनाम्ना मु.॥५. तु खंता. ॥ ६. उच्छन्न० खंता. ।। ७. सार्थरहित: ॥ ८. कुलपतिर्जन: खंता. हे.विना ॥ ९. ०मानस्तपस्तीक्ष्णं मु.विना, खंता. ॥ १०. अग्निः ।। ११. पूर्वजन्मनोऽभिधानेन ।। १२. विवादमकुरुताम् ।।१३. अधिको भवति॥१४. नूतनधर्मेण संस्कृत: ॥१५. पृथिवीपतिः ला. हे. ॥१६. ०श्रीवासु० खंता. ॥ १७. ०प्यौज्झद्धीरा मु.; औज्झत्-त्यक्तवान् ॥१८. करपत्रैः, करवत' ॥१९. कर्कराश्च(कांकरा) कण्टकाश्च तैः॥२०. ०तलसञ्चारं हे. । तूलिका-'तळाई' इति भाषायाम् ।। २१. क्रियाविशेषणमेतत्।।२२. समस्तृतीयया'(सि.३/३/३२) इति प्राप्तेऽप्यात्मनेपदे आत्मनेपदमनित्यम्'(न्यायसं०२/३७) इति न्यायमाहात्म्यादत्र परस्मैपदम् ।। २३. गोत्रीये जने यथा दिव्यमस्त्रं प्रयुक्तमपि न प्रभवति तद्वन्निष्फलम् ।। २४. बुद्धिः ।। २५. अर्धरात्रकृत्यम् ।। २६. वारिणः प्रमाणेन यावज्जलं तावन्नलिन्या नालं वर्धते इत्यर्थः।। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः ) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । 'न्यग्रोधमिव विस्तारिजटासंस्पृष्टभूतलम् । 'वल्मीकाकीर्णपादान्तं दान्तं तौ तमपश्यताम् ॥२७॥ तस्य श्मश्रुलताजाले नीडं निर्माय मायया । तदैव देवौ चटकमिथुनीभूय तस्थतुः ॥२८॥ चटकश्चटकामूचे यास्यामि हिमवद्गिरौ । अन्यासक्तो नैष्यसि त्वमिति तं नाऽन्वमंस्त सा ॥२९॥ गोघातपातकेनाऽहं गृह्ये नाऽऽयामि चेत् प्रिये! । इत्युक्तशपथं भूयश्चटकं चटकाऽब्रवीत् ॥३०॥ ऋषेरस्यैनँसा गृह्ये शपेथा इति चेत् प्रिय ! । विसृजामि तदैव त्वां " पन्थानः सन्तु ते शिवाः” ॥३१॥ इत्याकर्ण्य वचः क्रुद्धो जमदग्निमुनिस्ततः । उभाभ्यामपि हस्ताभ्यामुभौ जग्राह पक्षिणी ॥ ३२ ॥ आचचक्षे ततः सोऽपि कुर्वाणे दुष्करं तपः । उष्णरश्माविव ध्वान्तमाः पापं मयि कीदृशम् ? ||३३|| अथर्षि चटकोवाच मा कुपस्ते मुधा तपः । “अपुत्रस्य गतिर्नाऽस्ती” त्यश्रौषीस्त्वं न किं श्रुतिम् ? ||३४|| तथेति मन्यमानस्तु मुनिरेवमचिन्तयत् । ममाऽकलत्रपुत्रस्य प्रवाहेमूत्रितं तपः ॥ ३५॥ तं दृष्ट्वा क्षुभितं ध्यायन् “भ्रमितस्तापसै” रिति । जज्ञे धन्वन्तरिः श्राद्ध: प्रत्येति प्रत्ययान्न कः ? ॥३६॥ बभूवतुरदृश्यौ च तावपि त्रिदशौ तदा । जमदग्निश्च सम्प्राप पुरं नेमिककोष्टकम् ||३७|| जितशत्रुं महीपालं तत्र भूयिष्ठकन्यकम् । स प्रेप्सुः कन्यकामेकां 'दैक्षं हर इवाऽगमत् ॥३८॥ कृत्वाऽभ्युत्थानमुर्वीशः प्राञ्जलिस्तमभाषत । किमर्थमागता यूयं ? ब्रूत किं करवाण्यहम् ? ||३९|| कन्यार्थमागतोऽस्मीति मुनिनोक्तेऽब्रवीन्नृपः । मध्ये शतस्य कन्यानां त्वां येच्छति गृहाण ताम् ॥४०॥ स कन्यान्तःपुरे गत्वा जगाद नृपकन्यकाः । धर्मपत्नी मम काचिद्भवतीभ्यो भवत्विति ॥४१॥ जटिल : पलितः क्षामो भिक्षाजीवी वदन्निदम् । न लज्जसे त्वमिति ताः कृतथूत्कारमूचिरे ॥४२॥ समीरण इव क्रुद्धो जमदग्निर्मुनिस्ततः । अधिज्येष्वासयष्ट्याभाः कन्याः कुब्जीचकार ताः ॥४३॥ ॥अथाङ्गणे रेणुपुङ्खै रममाणां नृपात्मजाम् । एकामालोकयामास रेणुकेत्यब्रवीच्च ताम् ॥४४॥ स तस्या इच्छसीत्युक्त्वा मातुलिङ्गमदर्शयत् । तया प्रसारित: पाणि: पाणिग्रहणसूचकः ॥४५॥ तां मुनिः परिजग्राह रोरो धनमिवोरसा । सार्धं गवादिभिस्तस्य ददौ च विधिवन्नृपः ।।४६।। स श्यालीस्नेहसम्बन्धादेकोनं कन्यकाशतम् । सज्जीचक्रे तपः शक्त्या धिङ् मूढानां तपोव्ययम् ॥४७॥ [[नीत्वाऽऽश्रमपदं तां च सुमुग्धमधुराकृतिम् । हरिणीमिव लोलाक्षीं प्रेम्णा मुनिरवर्धयत् ॥४८॥ अङ्गुलीभिर्गणयतो दिनान्यस्य तपस्विनः । यौवनं चारुकन्दर्पलीलावनमवाप सा ॥४९॥ सौक्षीकृत्य ज्वलदग्निं जमदग्निमुनिस्ततः । यथावदुपयेमे तां भूतेश इव पार्वतीम् ॥५०॥ ऋतुकाले स ऊचे तां चरुं ते साधयाम्यहम् । यथा ब्राह्मणमूर्धन्य धन्य उत्पद्यते सुतः ॥५१॥ सोवाच हास्तिनपुरेऽनन्तवीर्यस्य भूपतेः । पत्न्यस्ति मत्स्वसा तस्यै चरुः क्षात्रोऽपि साध्यताम् ॥५२॥ ब्राह्मं सधर्मचारिण्यै क्षात्रं तज्जामयेऽपरम् । स चरुं साधयामास पुत्रीयमुपजीवितुम् ॥५३॥ साऽचिन्तयदहं तावदभूवमčवीमृगी । मा भून्मादृक् सुतोऽपीति क्षात्रं चरुमभक्षयत् ।।५४।। साऽदाद् ब्राह्मं चरुं स्वस्रे जातौ च तनयौ तयोः । तत्र रामो रेणुकायाः कृतवीर्यश्च तत्स्वसुः ॥ ६५ ॥ १. वटमिव ॥ २. वल्मीकेन व्याप्तं पादप्रान्तं यस्य तम् ॥ ३. चटक:-पक्षिविशेष: ( चकली) तस्य युगलं भूत्वा ॥ ४. अन्यस्त्रियामासक्तः ॥ ५. नाऽप्यमंस्त सा मु. ।। ६. उक्तः शपथो येन तम् ।। ७. पापेन ।। ८. अन्धकार: ।। ९. व्यर्थमित्यर्थः ; ० सूत्रितं मु. ॥ १०. क्षुभितस्तं परिज्ञाय धिग् भ्रान्तस्तापसैरिति । हे. ॥ ११. तापसैरहं भ्रान्त इति ध्यायन् धन्वन्तरिः श्रावको जातः इत्यन्वयः ॥ १२. प्रकर्षेणामिच्छुः ॥ १३. गौरीं छा. पा.; दक्षनृपं प्रति ॥ १४. “भवतीनां” इति पाठः स्यादत्रेति सम्भाव्यते । १५. जटाधारी ॥ १६. श्वेतवाल : - वृद्धः ।। १७. क्षीणकायः ॥ १८. भिक्षाजीवो मु. विना ॥। १९. सज्जीकृतधनुर्यष्टिसदृशीः ॥ २०. बीजपूरम् “बीजोरूं” ।। २१. निर्धनः ॥ २२. स श्याली: स्नेह० मु. प्रभृतिषु । श्याली - पत्न्याः भगिनी ॥ २३. साक्षीकृतज्वल० खंता ॥२४. ज्वलदग्निर्जमद० खंता. मु. विना ॥ २४. महादेवः ॥ २५. ब्राह्मणश्रेष्ठः ॥ २६. रेणुकाया भगिन्यै ॥ २७. पुत्रस्येदं पुत्रीयं पुत्रोत्पादकम् ॥ २८. अरण्ये हरिणी ।। २९. योगशास्त्रे द्वितीयप्रकाशे (पत्राङ्क २०३ - २११) इदमेव सूभुमचरितं प्रायो दृश्यते । तत्र ५५ तमश्लोकादनन्तरं " क्रमेण ववृधे राम ऋषित्वे पैतृकेऽपि सः । क्षात्रं प्रदर्शयंस्तेजो हुताशनमिवाऽम्भसि ॥ ” इत्ययं श्लोकोऽधिकः ॥ ९१ For Private Personal Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्री हेमचन्द्राचार्यप्रणीतं "विद्याधरोऽन्यदा तत्र कोऽप्यागादतिसारकी' । विद्या तस्याऽतिसारार्त्या विस्मृताऽऽकाशगामिनी ॥५६॥ रामेण प्रेतिचरितो भेषजाद्यैः स्वबन्धुवत् । रामाय सेवमानाय विद्यां पारशवीं ददौ ॥५७॥ मध्येशरवणं गत्वा तां च विद्यामसाधयत् । रामः परशुरामोऽभूत् ततः प्रभृति विश्रुतः ॥ ५८ ॥ अन्येद्युः पतिमापृच्छ्य रेणुकोत्कण्ठिता स्वसुः । जगाम हास्तिनपुरे प्रेम्णो दूरे न किञ्चन ॥५९॥ श्यालीति लालयन् लोललोचनां तत्र रेणुकाम् । अनन्तवीर्यो ऽरमयत् कामः कामं निरङ्कुशः ॥ ६० ॥ ऋषिपत्न्या तया राजाऽहल्ययेव पुरन्दरः । अन्वभूच्च यथाकामं सम्भोगसुखसम्पदम् ॥ ६१॥ अनन्तवीर्यात् तनयो रेणुकायामजायत । ममतायामिवोर्तथ्यसधर्मिण्यां बृहस्पतिः ||६२॥ तेनाऽपि सह पुत्रेण रेणुकामानयन् मुनिः । स्त्रीणां लुब्धो जनः प्रायो दोषं न खलु वीक्षते ॥६३॥ तां पुत्रसहितां वल्लीमकालफलितामिव । सञ्जातकोप: परशुरामः परशुनाऽच्छिदत् ॥६४॥ ||तद्भगिन्या स वृत्तान्तोऽनन्तवीर्यस्य शंसितः । कोपमुद्दीपयामास कृशानुमिव मारुतः ॥ ६५ ॥ ततश्चाऽवार्यदोर्वीर्योऽनन्तवीर्यो महीपतिः । जमदग्न्याश्रमं गत्वाऽभाङ्गीन् मत्त इव द्विपः ॥६६॥ तापसानां कृतत्रासः समादाय गवादि सः । मन्दं मन्दं परिक्रामन् केसरीव न्यवर्तत ॥ ६७॥ त्रस्यत्तपस्वितुमुलं श्रुत्वा ज्ञात्वा च तां कथाम् । क्रुद्धः परशुरामोऽथाऽधावत् साक्षादिवाऽन्तकः ॥६८॥ सुभटग्रामसङ्ग्रामकौतुकी जमदग्निजः । पर्शुना खण्डशश्चक्रे दौरुवद्दारुणेन तम् ॥ ६९॥ राज्ये निवेशयाञ्चक्रे तस्य प्रकृतिपूरुषैः । कृतवीर्यो महावीर्यः स एव तु वयोलघुः ॥७०॥ तस्याऽभवच्च महिषी तारा तारविलोचना । बुभुजाते च तौ भोगानविघ्नममराविव ॥ ७१ ॥ भूपालराजजीवोऽपि स्वमायुः परिपूर्य सः । महाशुक्रात् परिच्युत्य ताराकुक्षाववातरत् ॥७२॥ कृतवीर्योऽन्यदा मातुर्मुखाच्छ्रुत्वा पितुः कथाम् । आदिष्टाहिरिवाऽऽगत्य जमदग्निममारयत् ॥७३॥ रामः पितृवधक्रुद्धो द्राग् गत्वा हस्तिनापुरे । अमारयत् कृतवीर्यं किं यमस्य 'दैवीयसि ? ||७४ || जामदग्न्यस्ततस्तस्य राज्ये न्यविशत स्वयम् । राज्यं हि विक्रमाधीनं न प्रमाणं क्रमाक्रमौ ॥७५॥ ||रामाक्रान्तपुराद् राज्ञी कृतवीर्यस्य गुर्विणी । व्याघ्राघ्रातवनादेंणीवाऽगमत् तापसाश्रमम् ॥७६॥ कृपाधनैर्भूर्गृहान्तः सा निधाय निधानवत् । तपस्विभिर्गोप्यते स्म क्रूरात् परशुरामतः ॥७७॥ चतुर्दशमहास्वप्नसूचितोऽस्याः सुतोऽजनि । गृह्णन् भूमिं मुखेनाऽभूत् सुभूमो नामतस्ततः ॥७८॥ क्षत्रियो यत्र यत्राऽऽसीत् तत्र तत्राऽप्यदीप्यत । पर्शुः परशुरामस्य कोपाग्निरिव मूर्तिमान् ॥ ७९ ॥ रामोऽगादन्यदा तत्राऽऽश्रमे पर्शुश्च सोऽज्वलत् । क्षेत्रं चाऽसूचयद्धूम इव धूमध्वजं तदा ॥८०॥ किमत्र क्षत्रियोऽस्तीति पृष्टास्तेन तपस्विनः । इत्यूचुस्तापसीभूताः क्षत्रिया वयमास्महे ॥८१॥ रामोऽप्यमर्षान्निः क्षत्रां संप्तकृत्वो वसुन्धराम् । निर्ममे निस्तृणां शैलतटीमिव दवानलः ॥ ८२ ॥ क्षुण्णक्षत्रियदंष्ट्राभी रामः स्थालमपूरयत् । यमस्य पूर्णकामस्य पूर्णपात्रश्रियं दधत् ॥८३॥ रामः पप्रच्छ नैमित्तानन्येद्युर्मे कुतो वध: ? । सदा वैरायमाणा हि शङ्कन्ते परतो मृतिम् ॥८४॥ यो दंष्ट्राः पायसीभूताः सिंहासन इह स्थितः । भोक्ष्यतेऽमूस्ततस्त्यस्ते वधो भावीति तेऽब्रुवन् ॥८५॥ रामोऽथ कारयामास सत्रागारमवारितम् । धुरि सिंहासनं तत्राऽस्थापयत् स्थालमग्रतः ॥८६॥ ९२ (षष्ठं पर्व अथाऽऽश्रमे स्वर्णवर्णोऽष्टाविंशतिधनून्नतिः । गतोऽङ्गणद्रुम इव सुभूमो वृद्धिमद्भुताम् ॥८७॥ विद्याधरो मेघनादोऽन्येद्युर्नैमित्तिकानिति । परिपप्रच्छ पद्मश्रीः कन्या मे कस्य दीयताम् ? ॥८८॥ १. अतिसारवान् ।। २. सेवितः ॥ ३. स बन्धुवत् हे. ला. ॥ ४. परशुसम्बन्धिनीम् ॥ ५. इन्द्रः । ६. बृहस्पतिस्तस्य भ्रातुरुतथ्यस्य भार्यां ममतां भुक्तवांस्ततस्तस्याः पुत्रोऽजायतेति पुराणकथानकं श्रूयते; ०तथ्यः सधर्मिण्यां बृहस्पतेः खंता. विना ॥ ७. ०शुनाऽच्छिनत् खंता. ला. मु. विना ॥ ८. अग्निमिव ॥ ९. पवनः ।। १०. यमः ।। ११. सुभटसमूह ॥ १२. काष्ठवत् ॥ १३. प्रधानपुरुषैः ॥ १४. आदिष्टश्चाऽसौ अहिः सर्पश्च ।। १५. अतिदूरे ।। १६. गर्भिणी ।। १७. मृगीव ॥ १८. भुवि गृहं भूगृहं तस्याऽन्तः ॥ १९. भूमीमुखेन हे ॥ २०. क्षत्रियम् ॥ २१. अग्निम् ॥ २२. सप्तवारान् ।। २३. मृतानां क्षत्रियाणां दंष्ट्राभिरित्यर्थः ॥ २४. तत आगतस्ततस्त्यः ॥ For Private Personal Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । तस्या वरं वरीयांसं सुभूमं तेऽप्युपादिशन् । दत्त्वा कन्यां ततस्तस्मै तस्यैवाऽभूत् स सेवकः ।।८९।। पकृपभेक इवाऽनन्यगोऽथ पप्रच्छ मातरम् । सुभूम: किमियानेव लोकोऽयमधिकोऽपि किम् ? ||९|| माताऽप्यचीकथदथो लोकोऽनन्तो हि वत्सक! | मक्षिकापदमात्रं हि लोकमध्येऽयमाश्रमः ॥९॥ अस्मिंल्लोकेऽस्ति विख्यातं नगरं हस्तिनापुरम् । पिता ते कृतवीर्योऽभूत् तत्र राजा महाभुजः ॥१२॥ हत्वा ते पितरं रामो राज्यं स्वयमशिश्रियत् । क्षितिं नि:क्षत्रियां चक्रे तिष्ठामस्तद्भयादिह ॥१३॥ तत्कालं हास्तिनपुरे सुभूमो भौमवज्ज्वलन् । जगाम वैरिणे क्रुद्धः क्षात्रं तेजो हि दुर्धरम् ॥१४॥ तत्र सत्रे ययौ सिंह इव सिंहासनेऽविशत् । दंष्ट्रास्ता: पायसीभूता: सुभूमो बुभुजे च सः॥९५।। उत्तिष्ठमाना युद्धाय ब्राह्मणास्तत्र रक्षकाः । जघ्निरे मेघनादेन व्याघेण हरिणा इव ॥९६॥ प्रस्फुरदंष्ट्रिकाकेशो दशनैरधरं दशन् । ततो रामः क्रुधा कालपाशाकृष्ट इवाऽऽययौ ।।९७।। रामेण मुमुचे रोषात् सुभूमाय परश्वधः । विध्यातस्तत्क्षणं तस्मिन् स्फुलिङ्ग इव वारिणि ॥९८।। शस्त्राभावात् सुभूमोऽपि दंष्ट्रास्थालमुदक्षिपत् । चक्रीबभूव तत्सद्य: किं न स्यात् पुण्यसम्पदा ? ॥९९॥ चक्रवर्त्यष्टमः सोऽथ तेन चक्रेण भास्वता। शिर: परशुरामस्य पङ्कजच्छेदमच्छिदत् ॥१०॥ क्षितिं नि:क्षत्रियां रामः सप्तकृत्वो यथा व्यधात् । एकविंशतिकृत्वस्तां तथा निर्ब्राह्मणामसौ॥१०१॥ पाक्षुण्णक्षितिप-हस्त्यश्व-पदातिव्यूहलोहितैः । वाहयन् वाहिनीनव्या: स प्राक् प्राचीमसाधयत् ॥१०२।। सच्छिन्नानेकसुभटमुण्डमण्डितभूतल: । आक्रामुद्दक्षिणां दक्षिणाशापतिरिवाऽपरः ॥१०३॥ भटास्थिभिर्दन्तुरयन् शुक्ति-शखैरिवाऽभितः । रोधो नीरनिधे: सोऽथ प्रतीचीमजयद्दिशम् ॥१०४॥ हेलोद्घाटितवैताढ्यकन्दरं स्थाममन्दरः । म्लेच्छान् विजेतुं भरतोत्तरखण्डं विवेश सः॥१०५।। उच्छलच्छोणितरसच्छटाच्छुरितभूतलः । म्लेच्छांस्तत्राऽथ सोऽभाङ्क्षीदिशूनिव महाकरी ॥१०६॥ मेघनादाय वैताढ्यगिरिश्रेण्योर्द्वयोरपि। विद्याधरेन्द्रपदवीं सुभूमश्चक्रभृद्ददौ ॥१०७।। पाषष्टिवर्षसहस्रायुश्चतुर्दिशमिति भ्रमन् । निहत्य सुभटानुर्वी स षट्खण्डामसाधयत् ॥१०८॥ उज्जासयन्नसुमतामिति नित्यरौद्रध्यानानलेन सततं ज्वलदन्तरात्मा। आसाद्य कालपरिणामवशेन मृत्यु तां सप्तमी नरकभूमिमगात् सुभूमः ॥१०९।। कुमारभावेऽब्दसहस्रपञ्चकं तन्मण्डलित्वेऽथ शतानि पञ्च। येऽर्धलक्षं पुनरब्दपञ्चशत्यूनमस्याऽजनि चक्रभृत्त्वे ॥११०॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये षष्ठे पर्वणि सुभूमचरितवर्णनो नाम चतुर्थः सर्गः॥ १. अन्यत्र न गच्छति सः; इवाऽनन्यगोप: मु.प्रभृतिषु ॥२. मङ्गलवत्॥३.वैरिणो ला. मु.॥४.सुभुजो० मु.॥५. सुभौमाय० खंता. ।। ६. परशुः ।। ७. अग्निकण इव ।। ८.पुण्यसम्पदः मु.॥९. क्षुण्णा-मृता ये क्षितिपा-राजानस्तेषां हस्तिनोऽश्वा: पदातयोऽपि मृताः, तेषां सर्वेषां व्यूहः-समूहः,तस्य लोहितैःरक्तैः ।।१०. सेना: नदीश्च ।।११. यमः ।।१२. दन्तुरं-दन्तयुक्तं कुर्वन् ।।१३. तीरम् ।।१४. स्थाम-बलं, तेन मन्दरो मेरुरिव ॥१५.०रसच्छडा० खंता. ॥ १६. महाकिरिः हे. पा.छा.॥१७.आयुर्वर्षाणि ६०सहस्रमितानि ।।१८. हिंसन्॥१९. कौमारे वर्षाणि ५सहस्रमितानि॥२०.मण्डलित्वे वर्षाणि ५सहस्रमितानि ।। २१. दिग्विजये वर्षाणि ५००मितानि ।। २२. चक्रित्वे वर्षाणि ५०सहस्रमितानि पञ्चशतवर्षोनानि ।। २३. सुभूमचक्रवर्तिवर्णनो मु.॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥पञ्चम: सर्गः॥ ॥दत्त-नन्दन-प्रह्लादचरितम्।। अरतीर्थेऽथाऽऽसन् विष्णु-बल-प्रत्यर्धचक्रिणः । दत्त-नन्दन-प्रह्लादास्तेषां चरितमुच्यते॥१॥ अस्यैव जम्बूद्वीपस्य प्राग्विदेहविभूषणम् । पू: सुसीमाऽस्ति तत्राऽभूत् पृथ्वीनाथो वसुन्धरः ॥२॥ स चिरं पालयित्वा क्ष्मां सुधर्ममुनिसन्निधौ । व्रतमादाय मृत्वा च ब्रह्मलोकमुपाययौ ॥३॥ पाईतोऽस्य जम्बूद्वीपस्य भरतार्धेऽत्र दक्षिणे । नाम्ना मन्दरधीरोऽभूत् पुरे शीलपुरे नृपः॥४॥ गुणरत्नार्णवस्तस्य महावीर्यो महाभुजः । सूनुर्ललितमित्रोऽभून्मित्रो मित्राम्बुजन्मनाम् ।।५।। ज्ञापयित्वा दृप्त इति तं प्रत्याख्याय भूपते: । भ्रातरं युवराजत्वे खलो मन्त्री न्यवेशयत् ॥६॥ ततो ललितमित्रोऽपि विरक्तः सन् पराभवात् । घोषसेनमुने: पार्श्वे परिव्रज्यामुपाददौ ।।७।। तप्यमानः स विदधे निदानमिति दुर्मना: । वधाय तपसाऽनेन तस्य स्यां खलमन्त्रिणः ।।८।। स निदानमनालोच्य कालधर्ममुपागतः । सौधर्मे देवलोकेऽभूत् त्रिदश: परमर्द्धिकः ।।९।। बाखलाख्य: सचिव: सोऽपि चिरं भ्रान्त्वा भवाटवीम् । अस्यैव जम्बूद्वीपस्य गिरौ वैताढ्यनामनि ॥१०॥ उत्तरश्रेणितिलके पुरे सिंहपुराभिधे। विद्याधरेन्द्रः प्रह्लादः प्रतिविष्णुरजायत ॥११॥[युग्मम्] माइतश्च जम्बूद्वीपेऽस्मिन् भरतार्धे च दक्षिणे। पुरी वाराणसीत्यस्ति श्रिता सख्येव गङ्गया ॥१२॥ अग्निवत् तेजसा तत्र सिंहवच्च पराक्रमात् । अग्निसिंह इतीक्ष्वाकुवंशेऽभूद् वसुधाधवः ॥१३॥ तस्य स्थैर्याभियोगाभ्यां पक्षाभ्यामिव विष्टंपे। निरन्तरं यशोहंसो न व्यरंसीत् परिभ्रमन् ॥१४॥ सलीलं समरारम्भे दृष्ट्वा तेनमितं धनुः । तद्वेलामिव बिभ्राणा नेमुः प्रत्यर्थिपार्थिवाः ॥१५॥ बलिष्ठे तस्य दो:स्तम्भे दृढेरालानिता गुणैः । स्थिरतां कलयामास श्रीर्वारणवधूरिव ॥१६।। तस्याऽभूतामुभे पत्न्यौ जयन्ती शेषवत्यपि। अशेषभुवनस्त्रीणां जयन्त्यौ रूपसम्पदम् ॥१७|| वसुन्धरवरो देवश्च्युत्वा पञ्चमकल्पतः । स जयन्त्या महादेव्या उदरे सेमवातरत् ॥१८॥ चतु:स्वप्नाख्यातरॉमावतारो नन्दनाभिध: । जगदानन्दनस्तस्या: समये समभूत् सुतः ।।१९।। सौधर्माल्ललितश्च्युत्वा शेषवत्यामभूत् सुतः । सप्तस्वप्नाख्यातकृष्णावतारो दत्तसञ्जया ॥२०॥ तौ षड्विंशतिधन्वोच्चौ श्वेत-श्यामावुभावपि । अब्धी क्षीरोद-कालोदाविव पुंस्त्वमुपेयतुः ॥२१॥ नील-पीताम्बरधरौ ताल-ता_ध्वजौ च तौ। सेवयस्काविव ज्येष्ठ-कनिष्ठावपि चेरतुः ॥२२।। भरतार्धप्रभविष्णु: प्रतिविष्णुरथाऽन्यदा। श्रुत्वैरावणसंकाशं गजेन्द्रं तावयाचत ॥२३॥ तस्मिन नन्दन-दत्ताभ्यामदत्ते कुञ्जरोत्तमे । सद्यश्चकोप प्रह्लादः पञ्चास्य इव तेर्जितः ॥२४॥ सर्वाभिसारतो द्वावप्यभ्यषेणयतां मिथ: । विष्णुश्च प्रतिविष्णुश्च क्रुद्धौ वनगजाविव ॥२५॥ सैन्ये प्रह्लादसैन्येन नीते दैन्यदशां क्षणात् । युधे चेलतुरारूढस्यन्दनौ सीरि-शाङ्गिणौ ॥२६॥ दध्मौ दत्तः पाञ्चजन्यं द्विषद्बलहरस्वरम् । शार्ङ्ग चाऽऽस्फालयामास जयकुञ्जरडिण्डिमम् ॥२७।। १. पृथ्वी ॥२. इतश्च मु.॥३. सूर्यः ॥ ४. मित्राण्येव अम्बुजन्मानि कमलानि तेषाम् ।। ५. गर्विष्ठः ।। ६. निषिध्य ॥७. दुष्टं मनो यस्य सः॥ ८. इति नाम्ना बभूव वसुधा०हे. ।। ९. नृपः ।।१०. तत्स्थै र्य-व्यवसायाभ्याम् हे. ॥११. अभियोगो व्यवसाय उद्योग इति यावत् ॥१२. जगति ।। १३. तेनाऽऽकृष्टम् ।। १४. तन्मर्यादामिव ।। १५. शत्रुनृपाः ।। १६. बद्धाः ॥१७. श्रीनिर्वाणवधूरिव हे. ।। १८. हस्तिनीव ।। १९. समवासरत् छा. पा. ।। २०. बलदेवावतारः।। २१. वासुदेवावतारः ।। २२. क्षीरोदधि-कालोदधिसमुद्रौ पुंस्त्वं-मनुष्यत्वं उपेयतुः-प्रापतुरिव ।। २३. समानवयसाविव ।। २४. प्रभुः ।। २५. सिंहः ॥ २६. तिरस्कृतः ॥२७. समग्रसैन्येन ।। २८. युद्धाय अभ्यगमताम् ।। २९. युधि मु. खंता. ॥ ३०. नन्दन-दत्तौ ॥ ३१. द्विषदलहरं वरम् मु.॥ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । प्रह्लादोऽपि धनुर्हादैहर्दियन्नभितो दिशः । डुढौके दृढदोर्दण्डो दण्डपाणिरिवोत्कटः ॥२८॥ उभौ मुमुचतुर्बाणान् हरि-प्रतिहरी रुषा । मिथश्चिच्छिदतुश्चोभावन्योऽन्यजयकाङ्क्षिणौ ॥२९॥ गदा-मुद्गर-दण्डादीन्यायुधान्यपराण्यपि। परस्परं चिच्छिदतुश्छेदेच्छेकावुभावपि ॥३०॥ उल्काकुलं युगान्तार्कमिव ज्वालाशताकुलम् । प्रह्लादो भ्रमयित्वा खेऽमुचच्चक्रं हरिं प्रति ॥३१॥ मोघीभूतं समीपस्थं हरिश्चक्रं तदेव हि। उपादाय प्रह्लादाय मुक्त्वा चिच्छेद तच्छिर:॥३२॥ तथैव कृत्वा दिग्यात्रां भरतार्धमसाधयत् । अथोद्दधे कोटिशिलामर्धचक्री च सोऽभवत् ॥३३॥ कौमारे द्वे वर्षशते मण्डलित्वे दिशां जये। प्रत्येकमब्दपञ्चाशदभूदु दत्तस्य शाङ्गिणः ॥३४॥ षट्पञ्चाशतमब्दानां सहस्राण्यतिवाह्य स: । ययौ कर्मवशाद् दत्त: पञ्चमी नरकावनिम् ।।३५।। दत्तस्य शाङ्गिणो जातेऽवसाने कालमत्यगात् । कथञ्चित् पञ्चषष्ट्यब्दसहस्रायुर्हलायुधः ॥३६।। भ्रातृव्ययेन भवभावनया च भूरिवैराग्यभाग् भुवनशोभित आत्तदीक्षः । तीव्र व्रतं निरतिचारमपालयच्चाऽगान् नन्दनस्तदनु सिद्धिपदप्रतिष्ठाम् ॥३७|| इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये षष्ठे पर्वणि नन्दन-दत्त-प्रहाद चरितवर्णनो नाम पञ्चमः सर्गः॥ १.धनुःशब्दैः।।२. गर्जयन् ।। ३. यमः॥४. दत्त-प्रह्लादौ॥५. छेदे छेकौ-चतुरौ॥६.निष्फलीभूतम् ॥७.वासुदेवः।। ८. नन्दनबलदेवः ॥९. भ्रातृमरणेन॥१०. संसारभावनया॥११.भूरिवैराग्यवान् मु.॥ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥षष्ठः सर्गः॥ ॥श्रीमल्लिनाथचरित्रम्॥ जयन्ति मल्लिनाथस्य मल्लीमाल्यामला गिरः । आपीयमाना सोत्कण्ठं भव्यजन्तुमधुव्रतैः ॥१॥ श्रोतृश्रोत्रेषु पीयूषस्रोत:सन्निभमद्भुतम् । उंदीरयामश्चरितं श्रीमल्लिस्वामिनोऽधुना ॥२॥ द्वीपेऽत्रैव जम्बूद्वीपे विदेहेष्वपरेषु च। विजये सलिलावत्यां वीतशोकाभिधाऽस्ति पूः ॥३॥ बलेनोच्चैर्बल इव बलस्तत्र नृपोऽभवत् । द्विषद्बलवनोन्माथकुञ्जरो निर्जराकृतिः ।।४।। राज्ञोऽस्य र्धारिणीपत्न्यां केसरिस्वप्नसूचितः। जज्ञे महाबलो नाम सूनुरन्यूनविक्रमः ।।५।। उद्यौवन: कमलश्रीप्रभृती राजकन्यका: । शतानि पञ्चैकदिने पर्यणैषीन् महाबलः ॥६॥ तस्याऽऽसन् बालसुहृदोऽचलो धरण-पूरणौ । वसुर्वैश्रवणश्चाऽभिचन्द्र इत्यभिधानतः ।।७।। अपरेधुर्बलो राजा तस्या पुर्या बहिर्भुवि । ऐशान्यामिन्द्रकुब्जाख्य उद्याने समुपेयुषाम् ।।८।। मुनीनामन्तिके धर्मं श्रुत्वा वैराग्यवासितः । राज्ये महाबलं न्यस्य प्रव्रज्य च शिवं ययौ ॥९॥युग्मम्।। पकमलश्रीमहादेव्यां सिंहस्वप्नेन सूचितः । सूनुर्महाबलस्याऽभूदु बलभद्राभिधानतः ॥१०॥ क्रमादुद्यौवनं तं च यौवराज्ये महाबलः । निजे निवेशयामास मूर्त्यन्तरमिवाऽऽत्मनः ॥११॥ षड्भिर्बालसुहृद्भिस्तैः समं राजा महाबलः । अश्रौषीदार्हतं धर्मं सौहार्दादेकभावनः ॥१२॥ वयस्यान् सोऽन्यदेत्यूचे भो! भो! भीतोऽस्म्यहं भवात्। ततश्च प्रव्रजिष्यामि पन्थाः कोऽत: परं तु वः ? ॥१३॥ तेऽप्यूचुः सम्भूय भुक्तं यथा सांसारिकं सुखम् । भोक्ष्यामहे शिवसुखं सम्भूयाऽतः परं तथा ।।१४।। ततो न्यवेशयद् राज्ये बलभद्रं महाबलः । स्वे स्वे राज्ये सुतं स्वं स्वं ततश्च सुहृदोऽपि ते॥१५।। वरधर्ममुनीन्द्रस्य पादमूले महात्मनः । तैः सुहृद्भिः समं षड्भि: प्रवव्राज महाबलः॥१६॥ तपो यदेकः कर्ता नस्तत्कार्यमपरैरपि । सप्तानामप्यभूत् तेषां प्रतिज्ञेयं महात्मनाम् ॥१७।। एवं ते कृतसङ्केताश्चतुर्थादितप: समम् । चतुर्थपुरुषार्थाय तुल्योत्कण्ठा: प्रचक्रिरे ॥१८॥ अद्य मे दुष्यति शिरो दुष्यत्युदरमद्य च । अद्य नाऽस्ति क्षुदित्यादि व्यपदिश्य महाबलः ॥१९॥ नाऽभुङ्क्त पारणाहेऽपि स्वस्याऽधिकफलेच्छया। मायया वञ्चयित्वा तानधिकं विदधे तपः ॥२०॥युग्मम्।। मायामिश्रेण तपसाऽबध्नात् स्त्रीवेदकर्म सः। अर्हद्भक्त्यादिभिः स्थानैस्तीर्थकृन्नामकर्म च ॥२१॥ पूर्वलक्षचतुरशीत्यायुष्का: सप्त ते व्रतम् । पात्वा चतुरशीत्यब्दसहस्रीमायुषः क्षये ।।२२।। द्विधा संलेखनां कृत्वा गृहीत्वाऽनशनव्रतम् । विपद्य वैजयन्ताख्ये विमाने जज्ञिरे सुराः॥२३॥ पाइतश्च जम्बूद्वीपेऽस्मिन् भरतार्धेऽत्र दक्षिणे। नगरी मिथिलेत्यस्ति धर्माशिथिलनागरा ॥२४॥ शातकुम्भमयैः कुम्भैः प्रासादास्तत्र बिभ्रति। उपर्युदितमार्तण्डोदयपर्वतविभ्रमम् ॥२५॥ सर्वरत्नमयीं दृष्ट्वा तां पुरी"मपरा: पुरी: । अलकाद्या रत्नमयी:” कथासु श्रद्दधे जनः ॥२६॥ क्षणं दिवि क्षणं तस्यां क्षणं तस्यां क्षणं दिवि। तेंद्रामणीयकतृप्तास्तस्थुर्दिविषदोऽनिशम् ॥२७।। १. मल्लीकुसुमवनिर्मला ॥२. भव्यजीवा एव मधुकरा:, तैः ।। ३. अमृतनिर्झरसदृशम् ॥४. कथयामः ।। ५. बलदेवः ।। ६. शत्रूणां सेना एव वनं, तस्य मथने गजसदृशः।।७. देवाकृतिः।। ८. धारणी० खंता. पाता.॥९. पूर्णपराक्रमी॥१०. बालमित्राणि ॥११. ०देकभावत: मु.॥१२. संसारात् ॥१३. तदहम् हे. ॥१४. उपवासादितपः॥१५. मोक्षाय ।।१६. पीडामनुभवति ।।१७. पारणादिवसे ॥१८. वञ्चयस्येषा नाऽधिकं ला. ॥१९. वैजयन्त्याख्ये पा. छा. मु.॥ २०. धर्मेऽशिथिलास्तत्परा नागरा: पौरा यस्यां सा ॥२१. सुवर्णमयैः ॥ २२. तद्रामणीयकातृष्णा हे. ॥ २३. देवाः ।। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । इक्ष्वाकुवंशक्षीराब्धिसुधाकुम्भो भुवः पतिः । कुम्भ इत्यभवल्लक्ष्मीनिवासो निधिकुम्भवत् ।।२८।। आश्रय: स श्रियामेक: स्रवन्तीनामिवाऽर्णवः । उत्पत्तिभूमिर्नीतीनां मणि(णी)नामिव रोहण: ।।२९।। विदाञ्चकार शस्त्राणि शास्त्राणि च महामतिः । मेदिन्या: करमादत्त दुःस्थितेभ्यो ददौ च सः ॥३०॥ लोभो यशसि नो लक्ष्म्यां त्यागो द्रव्ये न सीमनि । धर्मे च व्यसनं नाऽक्षादिष्वभूत् तस्य धीमतः ॥३१।। आस्यप्रभापराभूतचन्द्रा नाम्ना प्रभावती। अभूत् तस्य महादेवी शची देवीव वज्रिणः ॥३२॥ पृथिव्या मण्डनं सैका तस्याः शीलं च मण्डनम् । प्रक्रियामात्रमभवत् केयूरकटकादि तु ॥३३।। पावयन्ती सतीत्वेनाऽमलेन सकलं जगत् । कल्याणहेतुः शुशुभे सा तीर्थमिव जङ्गमम् ॥३४॥ भोगान् सह तया देव्या बुभुजे कुम्भभूपतिः । सदा हृदयहारिण्या दाक्षायण्येव चन्द्रमाः ।।३५।। जीवो महाबलस्याऽथ पूर्णायुर्वैजयन्तत: । प्रच्युत्य फाल्गुनश्वेतचतुर्थ्यां भेऽश्वयुज्यपि ॥३६॥ चतुर्दशमहास्वप्नसूचितार्हतवैभवः । प्रभावतीमहादेव्याः कुक्षाववततार सः॥३७|| तस्मिन् गर्भस्थिते देव्यास्तृतीये मासि दोहदः । माल्येषु शयितुं जज्ञे देवताभिश्च पूरितः ॥३८।। पूर्णे काले मार्गशुक्लैकादश्यां भेऽश्वयुज्यथ । प्राग्जन्ममायाजनितस्त्रीकर्मत्वेन कन्यकाम् ॥३९॥ एकोनविंशमर्हन्तमाश्चर्यं कुम्भलाञ्छनाम् । नीलत्विषं सर्वशुभलक्षणां सुषुवे च सा ॥४०॥युग्मम्।। उपेत्य दिक्कुमार्योऽस्या: सूतिकर्माणि चक्रिरे । मेरुमूर्ध्नि च नीत्वा तामिन्द्राश्चाऽस्नपयन् क्रमात् ॥४१॥ स्नपनानन्तरं शक्रस्तां विलिप्याऽऽय॑ च स्वयम् । उत्तार्याऽऽरात्रिकं चेति भक्तिनिर्भरमस्तवीत ॥४२।। "ज्ञानत्रयनिधानाय प्रधानाय जगत्त्रये। एकोनविंशतितमायाऽर्हते ते नमो नमः ॥४३।। दिष्ट्या त्वद्दर्शनेनाऽनुगृहीतोऽस्मि चिरादहम् । सामान्यपुण्यैर्न ह्यर्हन् देव: साक्षान्निरीक्ष्यते ॥४४।। देवानामद्य देवत्वं चरितार्थं चिरादभूत् । तव देवाधिदेवस्य जन्मोत्सवनिरीक्षणात् ॥४५।। एकतोऽच्युतनाथस्य प्राणिमात्रस्य चाऽन्यत: । समानुग्रहबुद्धे! त्वं पाहि नः पततो भवे ॥४६।। अस्मिन् मेरुगिरी धात्र्यां सुवर्णमुकुटायिते । इन्द्रनील इव न्यस्ता(स्त:) त्वमतीव विराजसे ॥४७।। स्मरणेनाऽपि मोक्षायाऽनीहमानस्य जायसे । दृष्ट्वा स्तुत्वा याच्यसे किं ततोऽप्यभ्यधिकं फलम् ॥४८।। धर्माण्येकत्र सर्वाणि तव चैकत्र दर्शनम् । फलातिसाधकतमं द्वितीयमतिरिच्यते ॥४९॥ नेन्द्रत्वे नाऽहमिन्द्रत्वे मन्ये मोक्षेऽपि नो तथा । यथा सुखं स्याल्लुठतः पुरस्त्वत्पादपद्मयोः ॥५०॥ स्तुत्वैवं शक्र एकोनविंशमर्हन्तमुच्चकैः । नीत्वा च मिथिलापुर्याममुचन् मातृसन्निधौ ॥५१॥ गर्भस्थायां तत्र मातुर्यन्माल्यस्वापदोहदः । जज्ञे तदकरोत् तस्या नाम मल्लीति भूपतिः ॥५२॥ धात्रीभिरिन्द्रायुक्ताभिः पञ्चभिः प्रतिवासरम् । पुष्पमिव लाल्यमाना वृद्धिमाप क्रमेण सा ॥५३॥ इतश्चाऽचलजीवोऽपि वैजयन्तात् परिच्युतः। अभूदु भरतसाकेते प्रतिबुद्ध्यभिधो नृपः ॥५४॥ तस्य पदावती नाम साक्षात् पैं।व रूपतः । बभूव प्रेयसी सर्वान्तःपुरस्त्रीशिरोमणिः ॥५५।। इतश्च नगरे तस्मिन्नैशान्यां नागवेश्मनि । अतिष्ठनागप्रतिमा उपयाचितपूरिका: ॥५६।। देवी पद्मावती तासां यात्रायै साऽन्यदा नृपम् । आपप्रच्छे प्रतिबुद्धिं सोऽपि तामन्वमन्यत ॥५७|| तस्याः पुष्पादि सम्पाद्य प्रतिबुद्धिरपि स्वयम् । जगाम यात्रादिवसेऽधिनागप्रतिमागृहम् ।।५८॥ पुष्पमण्डपिकां पुष्पमुद्गरं स्वां प्रियामपि । प्रेक्ष्येत्यूचे प्रतिबुद्धिः सुबुद्धिं सचिवोत्तमम् ।।५९॥ १. नदीनाम् ।। २. दरिद्रेभ्यः ।। ३. दानम् ।। ४. राज्यविस्तारे।। ५. धूतपाशकादिषु ॥ ६. मुखकान्त्या पराभूतश्चन्द्रः यया सा ॥७. इन्द्राणी ॥८. इन्द्रस्य ।। ९. दक्षपुत्र्या रोहिण्या॥१०. नक्षत्रे अश्विन्या-अश्विनीनक्षत्रे ।।११. अस्मिन् मु.खंता. पाता.॥१२. कुम्भलाञ्छनम् खंता. ॥१३. पृथिव्याः सुवर्णमुकुटीभूते ।। १४. सुवर्णमुकुटायते खंता. पाता. हे. सं. विना ।।१५. अनिच्छोः॥१६. कर्माण्येकत्र पा. छा. । धर्मशब्दः पुंक्लीबलिङ्गः ॥ १७. फलातिसाधकत्वेन पाता., फलाप्तिसाधकत्वेन मु.॥१८. तव दर्शनम् ॥१९. ०र्यन्माल्यतल्पदोहदः हे. ॥२०. लक्ष्मीरिव ॥ २१. इच्छितपूरिकाः; उपयाचितपूरका: मु.॥ २२. तया मु. ॥ २३. पुष्पगुच्छकम् ।। २४. स्वबुद्धिम् मु.॥ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (षष्ठं पर्व त्वमस्मत्प्रेषणे राज्ञामगा वेश्मस्वनेकश: । स्त्रीरत्नमीदृक् कुसुममुद्रश्च किमीक्षित: ? ॥६०॥ सुबुद्धिरभ्यधादेवं त्वदादेशान् मयेयुषा । अन्तिके कुम्भभूपस्य दृष्टा मल्लीति तत्सुता ॥६॥ तस्या: स्त्रीरत्नमुख्याया आयुर्ग्रन्थौ विधीयते। स पुष्पमुद्रः कोऽपि यादृक् स्वर्गेऽप्यसम्भवी ॥६२।। स्त्रीरत्नं चक्रिणो यच्च स्मरपत्नी च या रतिः । शच्याद्या: स्व:स्त्रियो याश्च तदने तास्तृणोपमाः ॥६३॥ अप्येकवारं ददृशे येन सा कुम्भराजसूः । सुधारसास्वादमिव तद्रूपं विस्मरेन्न स: ॥६४॥ मल्लेः प्रतिकृतिारी न मर्येषु सुरेषु वा । तस्या हि रूपमद्वैतं वाचामपि न गोचरः ॥६५|| प्रतिबुद्धिरपि सद्य: पूर्वजन्मानुरागतः । दूतं प्रेषीत् तां वरीतुं कुम्भराजान्तिके निजम् ।।६६।। [इतो धरणजीवोऽपि वैजयन्तात् परिच्युतः । चम्पापुर्यामभूच्चन्द्रच्छायो नाम महीपतिः ॥६७।। तस्यां पुर्यां च वास्तव्य: श्रावकोऽर्हन्नयाभिधः। अम्भोधियात्रामकरोत् पोतारूढो वणिज्यया॥६८॥ अर्हन्नयसमो नाऽस्ति श्रावकः कश्चिदप्यहो! । इति प्रशंसां विदधे शक्रो मध्येसभं तदा ॥६९।। ततो मात्सर्यवानेको देवः कोऽप्येत्य सागरे। औत्पातिकमरुन्मेघाडम्बरं विदधे क्षणात् ॥७०|| पोतभङ्गभयात् सद्यो क्षुभ्यत्सांयात्रिका भृशम् । ऐच्छन्नभीष्टदेवेभ्य उपयाचितकानि च ॥७१।। इतो विघ्नान्मृतिश्चेन्मे तदाऽनशनमस्त्विति । प्रत्याख्याय समाधिस्थस्तस्थावर्हन्नयः पुनः॥७२।। रक्षोरूपं विकृत्योचे स देवो नभसि स्थित: । अर्हन्नयाऽऽर्हतं धर्मं जहीहि कुरु मद्वचः ॥७३॥ नो चेदमुं स्फोटयित्वा पोतं घटकपालवत् । त्वां यादसां भोजनसात् करिष्ये सपरिच्छदम् ।।७४।। तथाऽप्यचलिते धर्मात् तस्मिन् देव: स विस्मितः । चकार क्षमणां शक्रप्रशंसां तं जगाद च ॥७५।। तस्मै च कुण्डलद्वन्द्वे दिव्ये दत्त्वा मनोरमे । घोरं च मेघ-वातादि संहृत्य स तिरोदधे॥७६।। क्षेमेणाऽर्हनयोऽप्यब्धेस्तीरोया॑मुत्ततार सः। अशेष भाण्डमादाय ययौ च मिथिलापुरीम् ॥७७।। एकं च कुम्भराजस्योपीयने कुण्डलद्वयम् । अर्हन्नयो यथार्हज्ञश्चकारोदारमानसः ॥७८।। तदैव कुम्भराजोऽपि दुहित्रे मल्लये ददौ । अर्हन्नयं नयज्ञस्तं सत्कृत्य विससर्ज च ॥७९।। विक्रीत-क्रीतभाण्डोऽथ सोऽगाच्चम्पामकम्पधी: । ददौ च चन्द्रच्छायाय द्वितीयं कुण्डलद्वयम् ॥८०॥ राजा पप्रच्छ भोः श्रेष्ठिन्! कुतोऽदः कुण्डलद्वयम् । सोऽप्याख्यत् कुण्डलप्राप्तिकथामवितथां तथा ॥८१।। तादृक्षाऽपरताडङ्कद्वयदानप्रसङ्गतः । स इत्यवर्णयन् मल्ल्या रूपोत्कर्ष विशेषतः ॥८२॥ तस्याश्चेदुद्युतं वक्त्रं तदस्तं यातु चन्द्रमा: । यदि द्युतिस्तदङ्गस्य कृतं मरकतेन तत् ॥८३॥ तस्या लावण्यपूरश्चेत् तदलं जाह्नवीजलैः । तस्याश्च यदि रूपश्रीस्तद्रे सुरयोषितः ।।८४।। वृथैव नेत्राणि नृणां न यैः सा देव! दृश्यते । किं हंसै: पद्मिनी स्मेरां ये न पश्यन्ति जातुचित् ? ॥८५।। चन्द्रच्छायनरेन्द्रोऽपि प्राग्जन्मस्नेहयोगतः । मल्लिं वरीतुं कुम्भाय प्राहिणोद् दूतमुत्तमम् ॥८६॥ पाइतश्च पूरणात्माऽपि वैजयन्तात् परिच्युतः । बभूव पुर्यां श्रावस्त्यां रुक्मी नाम महीपतिः ।।८७।। तस्याऽऽसीद् धारणीपत्न्यां सुबाहु म कन्यका । रूपातिशयसम्पन्ना पन्नगेन्द्रवधूरिव ॥८८।। भूपतेः साऽतिवाल्लभ्यात् परिवारेण सादरम् । विशेषमज्जनविधिं चतुर्मास्यामकार्यत ॥८९॥ अन्त:पुरेणाऽपरेयुः स्नपिता सा विशेषतः। आमुक्तदिव्यालङ्कारा प्रणन्तुं पितरं ययौ ।।९।। तां पितोत्सङ्गमारोप्य सौविदल्लमभाषत । कन्याया मज्जनविधि: किमीहक् क्वचिदीक्षित: ?॥९१॥ १.स्वबुद्धि० मु.॥२. गतेन ॥ ३. आयु:सूचिकायां ग्रन्थिरूपरेखायां-वर्षग्रन्थौ, भाषायां वर्षगांठ' ॥४. मल्लिकुमारी ॥ ५. च मु. ।। ६. गोचरम् पाता. ॥ ७. सभायाम् ॥ ८. ईर्ष्यावान् ।।९. घटखण्डवत् ॥ १०. जलजन्तूनां भोजनम् ।। ११. तां ला.विना ।। १२. क्रमेणाहन्नयो हे. सं. मु. ॥ १३. प्राभृते । १४. यथार्ह यथायोग्यं जानातीति तथा॥१५. पूर्वं विक्रीतानि पश्चात् क्रीतानि च भाण्डानि येन सः ।। १६. सत्याम् ।। १७. द्वितीयकुण्डलद्वयदानप्रसङ्गात् ।। १८. उदितम् ।। १९. अलम् ।। २०. गङ्गाजलैः ।। २१. प्रफुल्लाम् ।। २२. नागेन्द्रवधूरिव ।। २३. अतिवल्लभत्वात् ।। २४. आमुक्ता धृता दिव्यालङ्कारा यया सा ।। २५. अन्त:पुरचरं नपुंसकपुरुषं-कञ्चुकिनम् ।। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम्। सोऽप्याख्यद् भवदादेशाद् गतेन मिथिलां मया। आयुर्ग्रन्थौ कुम्भपुत्र्या मल्लेरधिकमीक्षितः ॥९२।। अदृष्टप्रतिरूपं च तस्या रूपमपि प्रभो! । कथ्यमानमसम्भाव्यं प्रत्येतव्यं तु मद्गिरा ॥९३॥ अदृष्टपूर्वं स्त्रीरत्नं मम तद्दष्टपूर्विणः । अन्यस्त्रीवर्णने जिह्वा मौनव्रतमशिश्रियत् ॥१४॥ तस्या ह्यग्रे विभान्त्यन्यास्तन्निर्माल्योपमा: स्त्रियः । पुर: कल्पलताया हि सहकारलता: कियत् ? ॥९५।। श्रुत्वा जातानुरागेण सद्यो राज्ञाऽपि रुक्मिणा । दूत: प्रेष्यत कुम्भाय मल्लिमार्गणहेतवे ॥९६।। "इतश्च वसुजीवोऽपि वैजयन्तात् परिच्युतः । जज्ञे वाराणसीपुर्यां शङ्खो नामाऽवनीपतिः ॥९७॥ मल्लेस्तत्कुण्डलद्वन्द्वं दिव्यं विजघटेऽन्यदा। राज्ञाऽऽदिष्टा: स्वर्णकारास्तस्य सङ्घटनाय च ॥९८|| वयं दिव्यमिदं देव! न सङ्घट्टयितुं क्षमाः । इत्युक्तवन्तस्ते पुर्या राज्ञा निर्वासिता: क्रुधा ।।९९॥ ते च वाराणसीमेयुः शङ्खाय च महीभुजे । तदशेष समाचख्युरात्मनिर्वासकारणम् ॥१०॥ कुण्डलप्रक्रमायातं मल्ले रूपं तदद्भुतम् । राज्ञोऽग्रे वर्णयामासुदृष्टादूनतरं तु ते ॥१०१।। तस्या मुखस्य शशभृदोष्ठयोर्बिम्बिकाफलम् । कण्ठदेशस्य कम्बुश्च दोष्णोर्बिसलताऽपि च ॥१०२॥ मध्यस्य पविमध्यं च तथोर्वो: करिण: कर: । नाभेश्च सरितावर्तो जघनस्य च दर्पणम् ॥१०३।। जङ्घयोश्च मृगीजङ्घा पाणि-पादस्य पङ्कजम् । उपमेयतया जज्ञे यदन्यत्रोपमानभाक् ॥१०४॥त्रिभिर्विशेषकम्।। पूर्वस्नेहानुबन्धेन तद्रूपाकर्णनेन च । कुम्भादर्थयितुं मल्लीं शङ्खो दूतमथाऽऽदिशत् ॥१०५।। पाजीवो वैश्रवणस्याऽपि वैजयन्तात् परिच्युतः। अदीनशत्रुर्नाम्नाऽभूनृपतिर्हस्तिनापुरे ॥१०६|| इतश्च मल्लेरनुजो मल्लो नाम कुतूहलात् । अकारयच्चित्रकरैश्चित्रितां चित्रशालिकाम् ॥१०७।। चित्रीयमाणश्चित्रेण तत्रैकश्चित्रकृद्वरः । एकाङ्गदर्शनात् तादृक् सर्वाङ्गालेख्यलब्धिमान् ॥१०८।। अन्तर्जवनिकं मल्ले: पादाङ्गुष्ठं निरीक्ष्य सः। सर्वाङ्गोपाङ्गसहितं यथावद्रूपमालिखत् ॥१०९॥ तत्र च क्रीडितुं मल्लो गत: प्रेक्ष्य च चित्रगाम् । मल्लीं साक्षान् मन्यमानो लज्जयाऽपासरद् द्रुतम् ।।११०।। धात्र्या किमेतदित्युक्ते कुमारोऽप्यब्रवीदिति । स्वसा मल्ली पुरोऽस्त्येषा ततोऽत्र क्रीड्यते कथम् ? ॥१११।। सम्यग् निरूप्य धात्री साऽप्याचख्यौ परिभाव्यताम् । न साक्षान् मल्ल्यसौ किन्तु चित्रस्था माऽपसर्प तत् ॥११२।। क्रुद्धो मल्लकुमारोऽपि तस्य चित्रस्य लेखकम् । निकर्त्य दक्षिणकरसन्दंशं निरवासयत् ॥११३।। सोऽभ्येत्य हास्तिनपुरेऽदीनशत्रोर्महीपतेः । तं वृत्तान्तं समाचख्यौ मल्लीं चैवमवर्णयत् ॥११४॥ अशेषजगदाकाशशशिलेखा वराङ्गना। मल्लिं विना क्वचित् क्वाऽपि नाऽस्ति नाऽभून्न भाविनी ॥११५।। यस्तां कन्यां समालोक्याऽऽलोकयेदपरामपि । महानीलमणिं दृष्ट्वा काचखण्डं स पश्यति ॥११६।। रूपेण लेवणिम्ना च गत्या चाऽन्यैश्च चेष्टितैः । सैवैका योषितां धुर्या सरितामिव जाह्नवी ॥११७।। इति तद्वर्णनं कृत्वा स चित्रकरपुङ्गवः। आकृष्य चित्रफलकं चित्रस्थां तामदर्शयत् ॥११८॥ दृष्ट्वा तां विस्मित: पूर्वस्नेहादुत्कण्ठितश्च सः। प्रेषीत् तद्याचनायोपकुम्भराजं स्वपूरुषम् ॥११९॥ "इतोऽभिचन्द्रजीवोऽपि वैजयन्तात् परिच्युतः । काम्पील्यनगरे नाम्ना जितशत्रुपोऽभवत् ।।१२०।। धारिणीप्रमुखं राज्ञीसहस्रं तस्य चाऽभवत् । पुण्याकृष्टं देवलोकाद् वृन्दमप्सरसामिव ॥१२१॥ इतश्च मिथिलापुर्यां चोक्षा नाम विचक्षणा । एका परिव्राजिकाऽऽख्यद् रौजेश्वरगृहेष्विति ॥१२२॥ १. अदृष्टं प्रतिरूपं प्रतिकृति: यस्य तत् ।। २. विश्वसनीयम् ।। ३. दृष्टं पूर्वं येन सः, तस्मै ॥ ४. विसमघट्यत हे. । बभ ।। ५. राजादिष्टा: खंता. ॥ ६. सङ्घट्टनाय मु.॥ ७. समर्थाः ।। ८. निष्कासिताः ॥९. वाणारसी० पाता. ॥१०. दृष्ट्वादूनतरं मु.; यथा तैदृष्टमासीत् तथा वर्णयितुमसमर्थत्वाद् दृष्टाद् ऊनतरं-अल्पतरं वर्णयामासुरित्यर्थः ॥ ११. कण्ठभागस्य ।। १२. मध्यदेश: कटिभागः ॥ १३. पविर्वजं, वज्रमध्यम् ।। १४. अन्यस्त्रीषु पूर्वोक्ताश्चन्द्रादय उपमानतां प्राप्नुवन्ति अस्यां तु उपमेयतामित्यर्थः ॥१५. मल्लीशब्दो दीर्घान्तोऽपि प्रयुक्त: सज्ञात्वात् ॥ १६. आश्चर्यकारकः ॥ १७. तत्रैकचित्रकृद्वरः सं., तेष्वेकश्चित्रकृद्वरः मु.॥ १८. सर्वाङ्गालेख्ये० ला. छा. |१९. छित्त्वा ।। २०. दक्षिणकरं सन्दंशं ला. मु.; तर्जनी अगुष्ठं च अनयोः सम्मीलनेन सन्दंशाकृतिर्भवति, 'सन्दंश: स्यात् कङ्कमुख' (अभि.चिन्ता.) चीपियो' इति भाषायाम् ।। २१. मल्लेः प्रतिकृति: काऽपि हे. ।। २२. लावण्येन ।। २३. निष्कास्य ॥ २४. धारणी० खंता. ॥ २५. राज्ञां ईश्वराणां धनिकानां च गृहेषु ।। विसमघट्यत है. मासीत् तथा वर्णायसाधु पूर्वोक्ताभन्दा Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (षष्ठं पर्व दानमूल: सदा धर्मस्तथा तीर्थाभिषेकजः । स्वर्गापवर्गयोर्हेतुरिति नस्तत्त्वतो वचः॥१२३॥ धर्मे प्रवर्तयन्त्यस्मिन् पौरान् जानपदानपि । विहरन्त्यन्यदाऽभ्यागात् सदने मल्ल्यधिष्ठिते॥१२४॥ त्रिदण्डपाणि: काषायवसना कुण्डिकाजलैः । सदर्भ वमभ्युक्ष्य स्ववृष्यां निषसाद सा॥१२५।। मल्लेरप्यन्यजनवत् सा धर्मं तं तथा जगौ। ज्ञानत्रितयभृन्मल्लिरप्येवमवदत् ततः॥१२६॥ दानमात्रं न धर्माय तद्धि धर्माय चेद् भवेत् । तोतु-कुर्कुटादीनां पोषणान्यपि तत्कृते॥१२७॥ तीर्थाभिषेकैः प्राणातिपातमूलैः कथं शुचि: ? । असृजा क्षाल्यमानं किमसृग्दिग्धं विशुध्यति ? ॥१२८।। धर्मो विवेकमूलस्तन्निर्विवेकस्य नाऽस्ति स: । क्लेशाय केवलं तस्य तपांस्यपि न संशयः ॥१२९।। मल्ल्यैवमुक्ता सा चोक्षा विलक्षाऽभूदधोमुखी । केनेश्वरवचो युक्तियुक्तं बाधितुमीश्यते ? ॥१३०॥ कियच्चिरमिदं विश्वमा: पाखण्डिनि! वञ्चितम् । त्वया कुशासनेनेति दास्यादिभिरभर्सि सा॥१३१।। चोक्षेत्यचिन्तयद् राज्यसम्पदुन्मत्तयाऽनया । एतत्परिच्छदेनाऽपि स्वामिच्छन्दानुवर्तिना ॥१३२॥ यदस्मि तर्जिता स्वैरं तद्वैरानृण्यहेतवे। क्षेप्स्याम्येनां सपत्नीषु बह्वीषु निजबुद्धितः ॥१३३॥[युग्मम्] एवं विचिन्त्य निर्गत्य साऽमर्षाध्मातमानसा । जगाम काम्पील्यपुरे जितशत्रुनृपान्तिके ॥१३४॥ प्रतिपत्त्या महत्या सा दृष्टा तेन महीभुजा। कृताशीर्वादकल्याणा स्वस्यां वृष्यामुपाविशत् ॥१३५॥ सा राज्ञोऽन्त:पुरेणाऽपि ववन्दे भक्तिपूर्वकम् । धर्मं तत्राऽपि चाऽशंसद् दान-तीर्थाभिषेकजम् ॥१३६।। भूपतिस्तामुवाचैवं भगवत्यखिलां महीम् । एतामपरतन्त्रत्वादभ्राम्यस्तेन पृच्छ्यसे ॥१३७॥ वरमन्त:पुरस्त्रैणं चोक्षे! यादृगिदं मम । अन्यत्रोऽपि हि कुत्राऽपि किं तादृादृष्टपूर्विणी ? ॥१३८॥ चोक्षा स्मेरमुखीत्यूचे राजन्नन्तःपुरं निजम् । कूपभेक: कूपमिव किमिदं बहु मन्यसे ? ॥१३९॥ यस्ति मिथिलापुर्यां कुम्भस्य पृथिवीपतेः । मल्लीति कन्यकारत्नं चूडारत्नं मृगीदृशाम् ।।१४०।। अङ्गुष्ठमात्रकस्याऽपि श्रीस्तदीयस्य काऽपि या। न सा त्रिदशकन्यासु नागकन्यासु चेक्ष्यते ॥१४१।। संस्थानलक्ष्मीरन्यैव रूपमप्यन्यदेव हि। लावण्यसम्पदन्यैव तस्याः किं वाऽन्यदुच्यते ? ॥१४२।। जितशत्रुस्तदुक्त्यैव पूर्वस्नेहेन च क्षणात् । तत्प्रार्थनकृते प्रैषीद् दूतं कुम्भनृपान्तिके ॥१४३।। प्राग्जन्मसुहृदां तेषां षण्णां मल्लिमहीभुजाम् । पश्यन्त्यवधिना बोधमशोकवनिकान्तरे ।।१४४।। मंध्येसौधापवरकं रत्नपीठे मनोहरे । आत्मनः प्रतिमां हैमी पद्मरागकृताधराम् ॥१४५॥ नीलकेशीमिन्द्रनील-स्फटिकोपललोचनाम् । प्रवालमयहस्तांह्रिमातालुशुषिरोदराम् ॥१४६।। सच्छिद्रां तालुनि तत्र स्वर्णाम्भोजपिधानिकाम् । नितान्तरम्यावयवां कारयित्वा न्यवेशयत् ॥१४७||चतुर्भि: कलापकम्।। प्रतिमापवरकस्य पुरो भित्तावकारयत्। संजालककपाटानि षड् द्वाराणि च कुम्भसूः ॥१४८॥ द्वाराणां च पुरस्तेषां ह्रस्वापवराकांश्च षट् । प्रतिमापृष्ठभित्तौ च सैकद्वारमकारयत् ॥१४९।। तत: सर्वाहारपिण्डी प्रतिमायास्तु तालुनि । क्षिप्त्वा स्वर्णाम्बुजेनाऽथ पिधाय बुभुजेऽन्वहम् ॥१५०।। पाइतश्च तेषां युगपत् षण्णामप्यवनीभुजाम् । आययुर्दूतपुरुषा मिथिलानाथसन्निधौ ॥१५१।। ऊचे तत्राऽऽद्यदूतेन यत् साकेतपुरेश्वरः । अनेकसामन्तशिरोमार्जितांह्रिसरोरुहः॥१५२॥ महाभुजो महोत्साहो रूपेण मकरध्वजः । निशाकरः सौम्यतया प्रतापेन दिवाकरः ॥१५३॥ बृहस्पतिर्धिषणया प्रतिबुद्धिमहीपतिः । कन्यां ते याचते मल्ली परिणेतुमनिन्दिताम् ॥१५४॥[त्रिभिर्विशेषकम्] १. कमण्डलुजलैः ।। २. प्रक्षाल्य-पवित्रीकृत्य ॥ ३. स्वदर्भासने । ४. धर्मकृते ।। ५. असृजा शोणितेन दिग्धं लिप्तम् ॥ ६. विवेकमूलस्तु नि. मु. ॥ ७. समर्थीभूयते ।। ८. कुत्सितेन शासनेन-दर्शनेन ।। ९. स्वामीच्छानुवर्तिना ॥ १०. वैरशुद्धिहेतवे ।। ११. क्रोधज्वलितमानसा ॥१२. गौरवेण ॥ १३. राज्ञाऽन्तःपुरेणाऽपि छा. पा. मु.॥१४. स्त्रीणां समूहः स्त्रैणम् ॥ १५. अन्यत्राऽप्यस्ति मु.प्रभृतिषु ॥ १६. देहशोभा ॥१७. चाऽन्यदुच्यते मु.॥१८. सौधं नृपमन्दिर, तस्य अपवरकस्य गर्भगृहस्य मध्ये ॥ १९. तालुपर्यन्तं शुषिरं रन्ध्रसहितमुदरं यस्यास्ताम् ॥ २०.जालक-कपाटसहितानि ॥२१. महा उत्साहःउत्साहशक्तिः यस्य सः ।। २२. कामदेवः ।। २३. बुद्ध्या ।। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । कन्या ह्यवश्यं दातव्या पित्राऽन्यस्याऽपि कस्यचित् । तदेनं 'तत्प्रदानेन स्वजनं कर्तुमर्हसि ॥१५५॥ ऊचे द्वितीयदूतेन यच्चम्पानगरीपतिः । युवा युगायतभुज: पीनस्कन्ध: सुलोचनः ॥१५६।। कुलीनश्चतुर: सत्यसङ्गर: सङ्गरोर्जितः । अधीती सर्वशास्त्रेषु शस्त्रेषु च कृतश्रमः ॥१५७॥ चन्द्रवच्छायया चन्द्रच्छायो नाम महीपतिः । मल्ली मार्गयति त्वत्तस्तां तस्मै दातुमर्हसि ॥१५८॥[त्रिभिर्विशेषकम् पतृतीयेनाऽपि जगदे यच्छावस्तीपुरीश्वरः। चिन्तामणिः प्रणयिनां क्षत्रियाणां शिरोमणिः ॥१५९।। शरण्यः शरणेच्छूनां वरेण्यो वीर्यशालिनाम् । क्रीडागारं जयश्रीणामुद्यानं गुणशाखिनाम् ।।१६०।। रुक्मी नाम महीपालस्तव कन्यामभीप्सति । विधेाचितयोर्योगमुचितज्ञोऽसि पार्थिव! ॥१६१।।[त्रिभिर्विशेषकम्] पातुर्येणाऽप्यभ्यधाय्येवं यत् काशीनगरीश्वरः। अद्भुतेनेश्वरत्वेन जितपुण्यजनेश्वरः ॥१६२॥ वाग्मी सौन्दर्यकन्दर्पो दर्पच्छित् परिपन्थिनाम् । सदाचारपथे पान्थ: शासने पाकशासनः ।।१६३।। शङ्खच्छेदोज्ज्वलयशाः शङ्खो नाम महीपतिः । त्वत्त: प्रार्थते कन्यां प्रतिपद्यस्व तन्नृप! ॥१६४॥[त्रिभिर्विशेषकम्] इत्यूचे पञ्चमेनाऽपि यद्धास्तिनपुराधिपः । हस्तिमल्लो महास्थाम्ना लघुहस्तो महाभुजः॥१६५।। अनेकरणनियूंढो व्यूढोरस्कः सुधीर्युवा। प्ररोहण: कीर्तिवल्लेर्गुणरत्नैकरोहणः ॥१६६॥ दीनानाथसमुद्धारोऽदीनशत्रुर्महीपतिः । कन्यां मार्गति मल्ली ते विदेहाधीश! देहि ताम् ॥१६७।[त्रिभिर्विशेषकम्] अषष्ठेनाऽपीत्यभिदधे यत् काम्पील्यपुराधिपः । अकम्पनीयो रिपुभिः कुञ्जरैरिव पर्वत: ॥१६८॥ शोभितोऽनल्पसेनाभिर्नदीभिरिव सागरः । सेनानीभिः (नासीर इवाऽप्रतिघशक्तिभिः॥१६९॥ जितशत्रुर्जिताशेषशत्रुर्मद्वचसा नेप! । तव कन्यामर्थयते दीयतामविलम्बितम् ॥१७०॥[त्रिभिर्विशेषकम्] पाकुम्भराजो जगादैवं के नु ते बहुमानिनः । अप्रार्थितप्रार्थका रे मूढा: पार्थिवपांशना: ? ॥१७१॥ जगत्त्रयशिरोरत्नं कन्यारत्नमिदं हि नः । अपि शक्रादिदेवानां परिणेतुं न योग्यता॥१७२।। मनोरथो भवन्नाथैर्वृथा चक्रे दुराशयैः । दूता! वराकास्तद्यात निर्यात नगरान्मम ॥१७३।। एवं ते न्यक्कृता राज्ञा गत्वा स्वस्वामिनां द्रुतम् । तद्वाचिकमवोचन्त क्रोधानलसमीरणम् ।।१७४।। तत: षडपि राजानस्ते समानपराभवा: । दूतान् परस्परं प्रेष्य निश्चिक्युः कुम्भविग्रहम् ॥१७५॥ चेलुः षडपि ते वर्षधराद्रय इवौजसा। स्थगयन्तो महीं सैन्यैः प्रापुश्च मिथिलापुरीम् ।।१७६।। प्रवेश-निर्गमद्वारनिवारणविचक्षणाः । तेऽरुन्धन् वेष्टयित्वा तां चन्दनद्रुमिवाऽहयः ॥१७७।। पकुम्भोऽपि तेन रोधेन खिन्नो कतिपयैर्दिनैः । चिन्तापन्नो यावदस्थात् तावन्मल्लिः समाययौ ॥१७८।। उद्विग्न इव किं तात! तिष्ठसीति तयोदितः । उद्वेगकारणं सर्वमाचख्यौ कुम्भभूपतिः ॥१७९॥ मल्लिरप्यालपत् तात! प्रत्येकं गूढपूरुषैः । तुभ्यं दास्यामि मल्लीमित्युक्त्वा षडपि बोधय ॥१८०॥ तस्या मम प्रतिमाया: पुरोऽपवरकेषु ते। क्रमेण सायमानेया: प्रच्छन्ना: श्वेतवाससा ॥१८१।। तथैव विदधे राजा तेऽप्याजग्मुस्तथैव हि । कपाटजालकैर्मल्लीप्रतिमां ददृशुश्च ताम् ॥१८२।। अहो! पुण्यैरियं प्रापि सुरूपा चारुलोचना । इति मल्लीधिया दध्युस्तेऽनुरागेण पार्थिवाः ॥१८३।। प्रतिमापृष्ठद्वारेण प्राविशत् तत्र मल्ल्यपि। प्रतिमान्तरिता तालुपिधानाब्जमपानयत् ।।१८४।। प्रोक्क्षिप्तकुथिताहारगन्धः सद्यश्च निर्ययौ। शकृद्गन्ध इवाऽसह्य: प्रसह्य घ्राणबाधकः ॥१८५।। कपाटजालैस्तदपवरकेष्वपि सोऽविशत् । षण्णामपि नरेन्द्राणां दारयन्निव नासिकाः ॥१८६॥ १. कन्याप्रदानेन ॥२. युगवदायतौ भुजौ यस्य सः ॥ ३. सत्यः सङ्गरः प्रतिज्ञा यस्य सः ॥ ४. रणे बलवान् ॥५. अधीतमनेनेति।। ६. कान्त्या चन्द्रसमः ।। ७. श्रेष्ठः ।। ८. गुणा एव शाखिन: वृक्षाः, तेषाम् ।। ९. जित: पुण्यजनानां यक्षाणां ईश्वरः कुबेर: येन सः ॥ १०. शत्रूणाम् ॥ ११. इन्द्रः ।। १२. शङ्खच्छेदः शङ्खखण्डवद् उज्ज्वलं यशो यस्य सः ॥ १३. महाबलेन ॥ १४. लघुः शीघ्रकारी हस्तो यस्य सः, शीघ्रवेधी लघुहस्त:'(अभि.चिन्ता.श्लो.७७२) ॥१५. अनेकयुद्धेषु जितवान् ।। १६. उन्नतवक्षस्थलः ॥१७. अङ्कुरः ।। १८. इन्द्रः ॥१९. नृप: मु.प्रभृतिषु ॥ २०.के तु ते मु.॥२१. गर्विष्ठाः ।। २२. अप्रार्थ्यस्य प्रार्थयितारः ॥ २३. नृपाधमाः ।। २४. अस्माकम् ॥ २५. तिरस्कृताः । निकृता: मु. ॥ २६. तत्सन्देशम् ।। २७. युद्धम् ।। २८. वर्षधरपर्वताः ।। २९. आच्छादयन्तः ।। ३०. तस्या आचख्यौ मु. ।। ३१. उदघाटयत् ।। ३२. प्रक्षिप्त० मु. ।। ३३. शकृद् विष्ठा, तद्वद् गन्धो यस्य सः ।। ३४. हठात् ।। ३५. सोऽभवत् हे.॥ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (षष्ठं पर्व पिधाय नासिकां तेऽपि वाससा गन्धतस्ततः । पराङ्मुखा अजायन्त वैरिभ्य इव कातराः ॥१८७|| भोः! किं पराङ्मुखा यूयमिति मल्ल्याऽभिभाषिताः । अमुं न शक्नुम: सोढुं दुर्गन्धमिति तेऽभ्यधुः ॥१८८।। मल्लिस्तान् प्रत्युवाचैवं सौवर्णी प्रतिमा ह्यसौ। अत्राऽप्यन्वहमाहारक्षेपाद् गन्धोऽयमीदृशः ।।१८९।। किं ब्रूमस्तस्य यद्गर्भे पित्रोः शुक्रासृगुद्भवम् । पश्चाच्च कललीभूतं मांसपेशीत्वभाक् ततः ॥१९०।। ततो मातृकृताहारनिर्यासरसपोषितम् । जरायुर्नरकमग्नं वपुर्विणमूत्रवासितम् ॥१९१॥युग्मम्।। एवंविधसमुत्पत्तेर्विष्ठाकोष्ठस्य वर्मणः । रसासृग-मांस-मेदो-ऽस्थि-मज्ज-शुक्रचितात्मनः ॥१९२॥ मूत्रैकस्रोतसः श्लेष्मदृतेर्दुर्गन्धधारिणः । किं पुरस्रोतस इव सारमस्ति मनागपि ? ॥१९३।।युग्मम्।। अत्र संस्कारहेतुश्च कर्पूरादिसुगन्ध्यपि । मलसात् स्याल्लवणसात् सुधावृष्टिरिवोषरे ॥१९४।। बहिरन्तश्च बीभत्से कथङ्कारमिहाऽङ्गके । अङ्गानुरागं कुर्वन्तु मनागपि विवेकिनः ॥१९५।। इतो भवे तृतीयस्मिन् यद्भवद्भिर्मया सह । तपः प्रव्रजितैश्चक्रे मुग्धा:! स्मरत तन्न किम् ? ॥१९६।। मल्लीवचो विमृशतां तत् तेषां पृथिवीभुजाम् । जातिस्मरणमुत्पेदे किं स्यान्नाऽर्हदनुग्रहात् ? ॥१९७।। ततो जालकपाटानि श्रीमल्लिरुदघाटयत् । ते चाऽभ्युपेत्य षडपि प्रबुद्धा एवमब्रुवन् ॥१९८।। स्मरामो यद्भवे पूर्वे सप्ताऽपि सुहृदो वयम् । सम्भूय कृतसङ्केतास्तपस्तीव्रमकृष्महि ॥१९९॥ बोधिता: स्मस्त्वया साधु नरकात् साधु रक्षिताः । आदिशाऽत: परं कृत्यं गुरुस्त्वमसि नः प्रभो! ।।२००॥ प्रव्रज्या समये ग्राह्येत्युदीर्य विससर्ज तान् । षडपि क्षमापतीन् मल्लिर्जग्मुः स्वं स्वं पुरं च ते ॥२०१॥ पातीर्थं प्रवर्तयेत्युक्ते तदा लौकान्तिकैः सुरैः । मल्ल्यदाद् वार्षिकं दानं पूर्णार्थं जृम्भकामरैः ॥२०२॥ जन्मतोऽब्दशते पूर्णे पञ्चविंशधनून्नतिः । कुम्भराज-सुरेन्द्राद्यैः कृतनिष्क्रंमणोत्सवा ॥२०३।। जयन्तीनामशिबिकारत्नमारुह्य मल्ल्यथ । सहस्राम्रवणं नाम जगामोपवनोत्तमम् ॥२०४॥[युग्मम्] कृष्णेक्षुवाटैरभ्युद्यत् कृष्णपक्षमिव क्वचित् । उच्छुक्लपक्षमिव च क्वचित् पुण्ड्रेक्षवाटकैः ॥२०५।। नांगरङ्गैः पक्कफलैः शोणाश्मभिरिवाचितम् । राजमानं मेरुबकैर्नीलबद्धमिवाऽभितः ॥२०६।। नारीकुचवदुष्णत्वात् पथिकै: शीतपीडितैः । आचम्यमानकूपाम्बु सेव्यमानवद्रुमम् ॥२०७।। हेमन्तलक्ष्मीहसितैरिव कुन्दैर्विकस्वरैः । शोभमानं तदुद्यानं प्रविवेश जगद्गुरुः ॥२०८।।चतुर्भि: कलापकम्।। बहि:परिच्छदार्हाणां त्रिभिणां शतैः समम् । स्त्रीणामयान्तरपरीवारार्हाणां त्रिभिः शतैः ॥२०९॥ मार्गस्य शुक्लैकादश्यां पूर्वाह्न भेऽश्वयुज्यथ। यथाविधि प्रभुमल्लिः प्रवव्राज कृताष्टम:(मा) ॥२१०॥[युग्मम्] मन:पर्ययमुत्पेदे मल्लेर्ज्ञानं तदैव हि । तस्मिन्नेव दिनेऽशोकमूले केवलमप्यभूत् ।।२११॥ शक्रादिभिश्च समवसरणं विदधेऽमरैः । धनुःशतत्रयोत्तुङ्गचैत्यपादपशोभितम् ॥२१२॥ तत्र प्रविश्य प्रारद्वारा मल्लिस्त्रिश्चैत्यपादपम् । प्रदक्षिणीकृत्य “नमस्तीर्थाये"त्यभिधाय च ।।२१३॥ प्राक्सिंहासनमध्यास्त प्राङ्मुखाऽथाऽन्यदिक्ष्वपि । सद्यस्तत्प्रतिरूपाणि विचक्रुर्व्यन्तरामराः ।।२१४॥[युग्मम्] अवतस्थे यथास्थानं श्रीमान् सङ्घश्चतुर्विधः । कुम्भस्ते षट् च राजानोऽनुशक्रं समुपाविशन् ।।२१५।। देवराज-कुम्भराजौ नमस्कृत्य जगद्गुरुम् । श्रद्धाधौतान्तरात्मानाविति तुष्टुवतुर्मुदा ॥२१६॥ "दिष्ट्या प्रणमतां भाले त्वत्पादनखरश्मयः । भवन्ति भवभीतानां रक्षातिलकसन्निभाः ॥२१७॥ १. सुवर्णमयी॥२.मस्तद्धि है. ॥३. वपुषः॥४. वीर्य-शोणिताभ्यामुद्भूतम् ॥५. कललं गर्भवेष्टनचर्म, तद्वद्भूतम् ॥६. मांसपेशी गर्भस्थप्राण्यवयवविशेषः ।। ७. निर्यासरस:-सत्त्वरसः ।। ८. गर्भाशय: ।। ९. देहस्य ।।१०.०शुक्राञ्चितात्मन: मु.॥११. दृति:-चर्ममयी, पात्रविशेषः ।। १२. पुर:स्रोतस: छा. पा.हे. खंता, पाता.; 'खाळ-गटर' इति भाषायाम् ।। १३. तृतीयेऽस्मिन् मु.॥१४. विचारयताम् ।।१५. लौकान्तिकामरैः मु.॥१६. जुम्भकदेवैः पूर्ण: अर्थोधनं यस्मिन् तद्-दानम् ।। १७. निष्क्रमणोत्सवः पाता. ।। १८. जरतीनाम० मु.।। १९. श्वेतेञ्जवाटैः ।। २०. नागरङ्गीपक्कफलैः ला. मु.॥ २१. शोणाश्मखचितैरिव हे., शोणाश्मभिरिवाश्चितम् मु.; शोणमणिभिः ।। २२. मरुचकैर्नील० मु. ॥२३. नृणां दशशतैः समम् मु. खंता. पाता. ॥ २४. स्त्रीणामप्यन्तर० मु. ॥ २५. प्रात:काले ॥ २६. पूर्वद्वारेण ।। २७. मल्लिस्तं चैत्य० ला. मु. ॥ २८. प्राङ्मुखो० मु.॥ २९. शक्रः ॥ ३०. श्रद्धया धौत: निर्मलीकृत: अन्तरात्मा ययोः तौ। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।। १०३ आजन्मब्रह्मचारित्वाद्दीक्षा ते जन्मतोऽपि हि। 'व्रतपर्यायदेशीयं मन्ये जन्माऽपि तत् तव ॥२१८॥ किं देवसद्मना येन न यत्र तव दर्शनम् ? । इदं तु भूतलं श्रेयस्त्वदालोकपवित्रितम् ॥२१९॥ नृ-देव-तिर्यग्जन्तूनां भीतानां भववैरितः । दुर्गं त्वदीयं समवसरणं शरणं प्रभो! ॥२२०॥ ककर्माण्यन्यकर्माणि त्वत्पादप्रणतिं विना। यैः कर्माण्येव सूयन्ते संसारस्थितिकारणम् ।।२२।। दुर्ध्यानान्यन्यध्यानानि भवद्ध्यानं विना खलु । यैरात्मा बध्यते बाढं निजैतूंतेव तन्तुभिः ।।२२२॥ कथाश्च दु:कथा एव भवद्गणकथां विना । यकाभिस्तित्तिरिरिव वाग्भिर्विपदमश्नुते ॥२२३॥ त्वत्पादपद्मसेवाया: प्रभावेण जगद्गुरो! । भवच्छेदोऽस्तु मे यद्वा त्वयि भक्तिर्भवे भवे" ॥२२४॥ एवं स्तुत्वा विरतयोरमरेन्द्र-नरेन्द्रयोः । श्रोतुं चोत्कण्ठिते सङ्घ श्रीमल्लिर्देशनां व्यधत् ॥२२५।। "स्वतोऽप्यपार: संसारो वर्धते च विशेषतः। रागादिना पूर्णमासीदिनेनेव सरित्पतिः ।।२२६।। अमन्दानन्दजनने साम्यवारिणि मज्जताम् । जायते सहसा पुंसां राग-द्वेषमलक्षयः ॥२२७।। प्रणिहन्ति क्षणार्धन साम्यमालम्ब्य कर्म तत् । यन्न हन्यान्नरस्तीव्रतपसा जन्मकोटिभिः ॥२२८।। कर्म जीवश्च संश्लिष्टं परिज्ञातात्मनिश्चयः । निर्भिन्नीकुरुते साधुः सामायिकशलाकया ॥२२९।। रागादिध्वान्तविध्वंसे कृते सामायिकांशुना । स्वस्मिन् स्वरूपं पश्यन्ति योगिन: परमात्मनः ।।२३०॥ स्निह्यन्ति जन्तवो नित्यवैरिणोऽपि परस्परम् । अपि स्वार्थकृते सौम्यभाज: साधो: प्रभावत:॥२३१॥ चेतनाचेतनैर्भावरिष्टानिष्टतया स्थितैः । न मुह्यति मनो यस्य तस्य साम्यं प्रचक्ष्यते॥२३२।। गोशीर्षचन्दनालेपे वासिच्छेदे च वाहयोः। अभिन्ना चित्तवृत्तिश्चेत् तदा साम्यमनुत्तमम् ।।२३३।। अभिष्टोतरि च प्रीते रोषान्धे चाऽभिशप्तरि । यस्याऽविशेषणं चेत: स साम्यमवगाहते॥२३४॥ ह्यते न जप्यते न दीयते वा न किञ्चन । अहो! अमूल्यक्रीतीयं साम्यमात्रेण निर्वृतिः ॥२३५॥ प्रयत्नकृष्टैः क्लिष्टैश्च रागाद्यैः किमुपासितैः ? । अयत्नलभ्यं हृद्यं च धार्यं साम्यं सुखावहम् ।।२३६।। परोक्षार्थप्रतिक्षेपात् स्वर्ग-मोक्षावपद्भुताम् । साम्यशर्म स्वसंवेद्यं नास्तिकोऽपि न निद्भुते॥२३७।। कविप्रलापरूढेऽस्मिन्नमृते किं विमुह्यते ? । स्वसंवेद्यरसं हन्त पेयं साम्यरसायनम् ।।२३८॥ स्वाद्य-लेह्य-चूष्य-पेयरसेभ्यो विमुखा अपि। पिबन्ति यतयः स्वैरं साम्यामृतरसं मुहुः ॥२३९।। कण्ठपीठे लुठन् भोगिभोगो मन्दारदाम च । यस्याऽप्रीत्यै न वा नो वा प्रीत्यै स समतापतिः॥२४०॥ न गूढं किञ्चनाऽऽचार्यमुष्टिः काचिन्न वाऽपरा । बालानां सुधियां चैकं साम्यं भवरुजौषधम् ॥२४१।। अतिक्रूरतरं कर्म शान्तानामपि योगिनाम् । यद् घ्नन्ति साम्यशस्त्रेण रागादीनां कुलानि ते ॥२४२।। अयं प्रभाव: परमः समत्वस्य प्रतीयताम् । यत् पापिन: क्षणार्धन पर्देमियति शाश्वतम् ॥२४३।। यस्मिन् सति सफलतामसत्यफलतां व्रजेत् । रत्नत्रयं स्वस्ति तस्मै समत्वाय महौजसे ॥२४४।। संसर्गेऽप्युपसर्गाणामपि मृत्यावुपस्थिते । न तत्कालोचितं किञ्चित् साम्यादौयिकं वरम् ।।२४५।। एकं मोक्षतरो।जमिहाँऽप्यद्भुतशर्मदम् । तस्मात् साम्यं विधातव्यं राग-द्वेषजयैषिणा" ॥२४६।। तया देशनया भूपा: षट् तेऽन्येऽपि प्रवव्रजुः । सञ्जज्ञिरे श्रावकास्तु कुम्भप्रभृतयस्तदा ॥२४७।। १. दीक्षासदृशम् ।। २. ते तत: हे. ॥ ३. देवलोकेन ।। ४. अन्यानि कर्माणि-कृत्यानि कुकर्माणि ॥५. बाध्यते छा. पा. ला., वञ्च्यते हे. ॥६. प्रभावेन. खंता. पाता.॥७.०च्छेदोऽस्तु यद्वाऽस्तु त्वयि० मु.॥८.अमन्दानन्दजनको मु.॥९. समताजले॥१०.प्रतिहन्ति० मु.।। ११. परिज्ञात आत्मनो निश्चयो येन सः, आत्मज्ञानीत्यर्थः; परिज्ञानात्म. मु., तत्र तु परिज्ञानेन आत्मनो निश्चयो येन सः, आत्मज्ञानीत्यर्थः।। १२. सामायिकसूर्येण ।। १३. स्वाम्य० पाता. ॥ १४. प्रचक्षते० खंता. पाता. ।। १५. तक्षण्या छेदे सति ॥ १६. हस्तवाची वाहाशब्दोऽप्यस्ति ।। १७. अभिन्नचित्तवृत्तिश्चेत् ला. ॥ १८. स्तुति कुर्वति ॥१९. चातिशप्तरि मु., वाविशस्तरि हे.; निन्दां कुर्वति ।। २०. विना मूल्येन क्रीता ॥ २१. प्रत्यक्षम् ॥ २२. खाद्यलेह्यभूष्य० मु. ॥ २३. सर्पदेहः ॥ २४. कल्पवृक्षपुष्पमाला ॥ २५. आचार्यमुष्टिः-आचार्येण गोप्यं रहस्यम् ; किञ्चनावार्यमुष्टिः मु.॥ २६.०पदमिच्छति० मु. ॥ २७. वर: प्रधान: उपाय इत्यर्थः ।। २८. ०मिहात्य० खंता. मु. ॥ २९. ०जयेषिणा मु.।। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ (षष्ठं पर्व कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं भिषगाद्या गणभृतोऽष्टाविंशतिरथाऽभवन् । भगवद्देशनान्ते च गणभृद्देशनां व्यधात् ।।२४८॥ द्वितीयस्मिन् दिने मल्लिप्रभोस्तत्रैव कानने । विश्वसेननृपाज्जज्ञे परमान्नेन पारणम् ॥२४९।। मल्लिपादान्नमस्कृत्य देवराजादय: सुरा: । कुम्भराजादयो भूपाः स्थानं निजनिजं ययुः ॥२५०॥ पतत्तीर्थजन्मा कुबेरयक्ष इन्द्रायुधधुतिः । चतुर्मुखो गजरथश्चतुर्भिर्दक्षिणैर्भुजैः ॥२५१॥ वरदेन पशुशूलभृद्भ्यामभयदेन च। वामैर्बीजपूर-शक्ति-मुद्गरकाक्षसूत्रिभिः ॥२५२॥ तत्तीर्थभूश्च वैरोट्या कृष्णाङ्गी कमलासना । भान्ती दो• दक्षिणाभ्यां वरदेनाऽक्षसूत्रिणा ॥२५३।। मातुलिङ्ग-शक्तिभृद्भ्यां वामदोर्थ्यां च शोभिता । श्रीमल्लेरर्हतोऽभूतामुभे शासनदेवते ।।२५४॥ पातत: स्थानादथाऽन्यत्र ग्रामाकर-पुरादिषु । भव्यलोकावबोधाय विजहार महीं प्रभुः ॥२५५।। चत्वारिंशत्सहस्राणि श्रमणानां महात्मनाम् । सहस्रा पञ्चपञ्चाशोर्यिकाणां तपोजुषाम् ।।२५६॥ चतुर्दशपूर्वभृतां साष्टषष्टिश्च षट्शती। अवधिज्ञानयुक्तानां द्वाविंशतिशती पुनः ॥२५७।। मनोविदां सप्तदशशती पञ्चाशदन्विता। केवलज्ञानधराणां द्वाविंशतिशती पुनः ॥२५८॥ जातवैक्रियलब्धीनां त्रिसहसी शैतोनिता। उत्पन्नवादलब्धीनां चतर्दश शतानि च ॥२५॥ श्रीवकाणां लक्षमेकं सत्र्यशीतिसहस्रकम् । श्रीविकाणां त्रिलक्षी च ससप्ततिसहस्रिका ।।२६०॥ संवत्सरशतन्यूनां पञ्चपञ्चाशतं प्रभोः । समासहस्रान् विहर्तुः परिवारो ह्यसावभूत् ॥२६१।। सम्मेतादि मल्लिरगाच्चक्रे चाऽनशनं समम । साध्वीनामथ साधूनां पञ्चशत्या पृथक पृथक ॥२६२॥ मासान्ते फाल्गुनशुद्धद्वादश्यां याम्यभे विभुः । निर्वाणमासदत् सार्धं साध्वीभिः साधुभिश्च तैः ॥२६३।। कौमारे व्रतपर्याये चायुमल्लिजिनेशितुः । वर्षाणां पञ्चपञ्चाशत्सहस्राण्यभवन् विभोः ॥२६४।। अरनाथस्य निर्वाणाच्छ्रीमल्लिजिननिर्वृतिः । कोटीसहस्रे वर्षाणां समतिक्रान्तवत्यभूत् ।।२६५।। तत्कालमुपेत्य सर्वतोऽप्यमरेन्द्रैरमरैश्च कोटिशः। निर्वाणमहोत्सव: प्रभोः श्रीमल्लेर्विदधे यथाविधि ॥२६६।। इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये षष्ठे पर्वणि श्रीमल्लिनाथचरित वर्णनो नाम षष्ठः सर्गः॥ १. मल्लिपादौ नम० मु.॥ २. इन्द्रधनुरिव कान्तिर्यस्य सः ।। ३.शोभमाना ॥ ४. मातुलुङ्ग० खंता. पाता. ।। ५.श्रमणानां सङ्ख्या ४०सहस्रमिता ।। ६. साध्वीनां सङ्ख्या ५५सहस्रमिता ।। ७. चतुर्दशपूर्विणां सङ्ख्या ६६८मिता ।। ८. अवधिज्ञानिनां सङ्ख्या २२००मिता ।। ९. मन:पर्ययज्ञानिनां सङ्ख्या १७ ५०मिता ।। १०. केवलज्ञानिनां सङ्ख्या २२००मिता ॥११. वैक्रियलब्धीनां सङ्ख्या २९००मिता ।। १२. शतेन न्यूना ।।१३. वादलब्धीनां सङ्ख्या ४०० मिता ।। १४. ०शतानि तु खंता. पाता. ॥ १५. श्रावकाणां सङ्ख्या १लक्ष८३सहस्रमिता ।। १६. श्राविकाणां सङ्ख्या ३लक्ष७० सहस्रमिता ।। १७. फाल्गुनशुद्धदशम्यां मु.॥ १८. भरणीनक्षत्रे। Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ सप्तमः सर्गः ॥ ॥ श्रीमुनिसुव्रतनाथचरितम्। I मुनिसुव्रतनाथस्य देशनायां रैदत्विषः । जयन्ति ज्ञानदुग्धाब्धेर्वेलाः पावितभूतलाः॥१॥ विदुषां प्रतिभोल्लासे सारस्वतमिवाऽमलम् । मुनिसुव्रतदेवस्य चरितं कीर्तयिष्यते ॥२॥ अथाऽत्रैव जम्बूद्वीपे विदेहेष्वपरेषु तु । विजये भरताख्येऽस्ति चम्पे ति विषैला पुरी ॥३॥ तस्यामासीन्महाबाहुर्लोकोत्तरपराक्रमः । सुरश्रेष्ठ इव सुरश्रेष्ठो नाम महीपतिः ॥४॥ चतुर्धाऽप्यभूद्वीरो दीनत्राता रणोत्कटः । प्रार्थनाकल्पविटपी जिनधर्मधुरन्धरः ||५|| खुरलीसमयेष्वेव सोऽस्त्रविद्यामदर्शयत् । न पुँना रणरङ्गेषु साधयन्नाज्ञया नृपान् ॥६॥ विनयादीन् गुणांस्तस्य वर्णयन्तो दिवानिशम् । वाचंयमत्वं मुनयो जैहुर्वाचंयमा अपि ॥७॥ सोऽन्यदा नन्दनं नाम मुनिं हृदयनन्दनम्। उद्याने समवसृतं ववन्दे भक्तितः सुधीः ॥८॥ तद्देशनावचः श्रुत्वा मोहपङ्कजलप्लवम्। स समासादयामास भववैराग्यभावनाम् ॥९॥ मुनेस्तस्यैव पादान्ते प्रव्रज्यां प्रत्यपादि सः । अपालयद् यथावच्च सात्त्विकानां शिरोमणिः ॥ १० ॥ अर्हद्भक्त्यादिभिः स्थानैस्तीर्थकृन्नामकर्म सः । अर्जयित्वा विपद्याऽभूत् प्राणते त्रिदशोत्तमः ॥ ११ ॥ ॥ इतश्च्युत्वा ह्यसावर्हन् हरिवंशे ऽभवत् किल । तस्य वंशस्य तेनेयमुत्पत्तिः पूर्वमुच्यते ॥ १२ ॥ तथाहि जम्बूद्वीपस्याऽमुष्य क्षेत्रेऽत्र भारते । कौशाम्बीनाम पुर्यस्ति वैत्समण्डलमण्डनम् ॥१३॥ तस्यां यशोभिः श्रीखण्डद्रवैरिव सुगन्धिभिः । मैण्डिताशामुखो जज्ञे सुमुखो नाम भूपतिः ॥१४॥ नृपैरलङ्घ्या तस्याऽऽज्ञा जाङ्गुलीव भुजङ्गमैः । ऐश्वर्यमद्वितीयं च वज्रपाणेरिवाऽभवत् ॥ १५ ॥ सामकृत् सामयोगेषु पितेव मृदुलाशयः । दानकृद्दानसाध्येषु परेतेष्विव मान्त्रिकः ॥१६॥ अयस्कान्त इवाऽयःसु मायाविषु विभेदकृत्। स दण्डभृच्च दण्ड्येषु देण्डपाणिरिवाऽपरः ।।१७।। अपरेद्युर्वसन्तर्तौ प्राप्ते मदनबान्धवे । चचाल गन्तुमुद्याने रन्तुकामः स भूपतिः ॥ १८॥ स गच्छन् कुञ्जरारूढो वनमालामभिख्यया । भार्यां वीरकुविन्दस्याऽरविन्दाक्षीमुदैक्षत ॥ १९ ॥ पीनोन्नतकुचद्वन्द्वां मृणालमृदुदोर्लताम् । वज्राल्पमध्यां पुलिनविपुलश्रोणिमण्डलाम् ॥ २० ॥ सरिदावर्तगम्भीरनाभिं कॅरिकरोरुकाम्। नैव्यकोकनदताम्रपाणिपादां नतभ्रुवम् ॥२१॥ श्रोण्या विप्रंसि बिभ्राणां वासो वामेन पाणिना । कुचस्थलादुत्तरीयं निपतद्दक्षिणेन तु ॥ २२ ॥ तां पश्यन्नवनीभर्ता कामार्तिविधुरः क्षणात् । मन्दीकृतद्विपगतिर्मनस्येवमचिन्तयत्॥२३॥ [चतुर्भिः कलापकम् ] इयं कस्यापि शापेन दिवो भ्रष्टा किमप्सराः ? । वनलक्ष्मीः स्वयमथ वसन्तश्रीरथ स्वयम् ? || २४|| रतिः स्मरवियुक्ता वा ? नाँगी वा भुवमागता ? । स्त्रीरत्नं वा किमप्येतत् कौतुकाद् वेधसा कृतम् ? ॥२५॥ एवं विचिन्तयन् राजा तत्रैवाऽभ्रमयद् गजम्। प्रतीक्षमाणः कमपीवाऽग्रतः प्रययौ न हि ॥ २६ ॥ १. दन्तकान्तयः ।। २. ज्ञानक्षीरसमुद्रस्य ऊर्मयः । ३. पवित्रितं भूतलं याभिस्ताः ॥ ४. बुद्धेर्विकासकरणे ॥ ५. मुनिसुव्रतनाथस्य ला. ।। ६. अस्मिन्नेव ला. सं. पाता. ॥७. विशाला ॥ ८. इन्द्रः ॥ ९. चत्वारो वीरा:- त्राणवीर, रणवीरः, दानवीरः, धर्मवीरः ॥ १०. प्रार्थनासु कल्पवृक्षसदृश: ।। ११. शस्त्राभ्याससमये ॥ १२. पुनः ।। १३. मौनव्रतम् ।। १४.०जह्रु० मु. खंता ।। १५. मौनिनः ।। १६. मोहपङ्क - जलतरण्डम् ।। १७. वत्सदेशस्य भूषणम् ।। १८. चन्दनरसैः ॥ १९. भूषितं दिशां मुखं येन सः ॥ २०. इन्द्रस्य ॥ २१. प्रेतेषु ॥ २२. यमः ॥ २३. पुलिनं जलोज्झितं नदीतीरम्, तद्वद् विपुलं विस्तीर्णं श्रोणिमण्डलं कटीतटं यस्याः सा, ताम् ।। २४. करिकर: हस्तिशुण्डदण्ड इव ऊरू यस्याः सा, ताम् ॥ २५. नव्यं नूतनं कोकनदं रक्तकमलं तद्वद् आ ईषद् ताम्रं रक्तं पाणिपादं यस्याः सा, ताम् ॥ २६. कट्याः, कटीतटातू पतद् वस्त्रं वामेन हस्तेन, स्तनस्थलाच्च पतद् वस्त्रं दक्षिणेन हस्तेन धारयन्तीम् ॥ २७. नागवधूः ॥ For Private Personal Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (षष्ठं पर्व स्वामिन्! सर्वं बलं प्राप्तं किमद्याऽपि विलम्ब्यते ? । भावं जिज्ञासुरित्यूचे सचिवस्तं नरेश्वरम् ॥२७॥ अमात्यवचसा चेत: संस्थाप्य कथमप्यथ। जगाम यमुनोद्वर्तं महोद्यानं महीपतिः॥२८॥ न हि चूतवने मञ्जमञ्जरीपुञ्जमण्डले। नाऽप्यशोकवने नृत्यन्नवपल्लवशालिनि॥२९॥ नवा बकुलषण्डेऽपि मधुव्रतकुलाकुले। तालवृन्तायितदले कदलीविपिनेऽपिन॥३०॥ मधुश्रीकर्णिकाभूते कर्णिकारवने न च। नाऽन्यत्राऽपि रतिंप्राप तया हृतमना: नृपः।।३१।।[त्रिभिर्विशेषकम्] पसचिवःसुमति मतं तथोद्विग्नमानसम्। एवमज्ञ इवोवाच भावज्ञोऽपि महीपतिम्॥३२॥ विकारो मानसो वाऽथ भयं वा शत्रुसम्भवम् । मोहाय क्षितिपालानां तृतीयं सम्भवेन्न हि॥३३॥ न तावद् विक्रमाक्रान्तजगतस्ते द्विषद्भयम् । मनोविकारो यद्यस्ति यद्यगोप्यश्च तद्वद॥३४॥ राजाऽपि व्याजहारैवं त्वया निर्व्याजशक्तिना। वशीकृता विद्विषन्त:साक्षिणौ तु भुजौ मम॥३५॥ भवान् मनोविकारेऽपिप्रतीकारकर: खलु। इति मे निश्चयस्तेन कथयामि कथं न ते?॥३६।। इहाऽधुनैवाऽऽपतता मया पथि निरीक्षिता। सर्वस्वीरूपसर्वस्वलुण्टाकी काचिदङ्गना ॥३७॥ मदीयमप्यपहृतं तया चेत: स्मरातुरम् । तेन ताम्यामि सचिव! कुरूपायमिहोचितम् ।।३८।। उवाच सचिवोऽप्येवं सा हि ज्ञाता मया प्रभो! | भार्या वीरकुविन्दस्य वनमालेति नामतः॥३९।। एष सम्पादयिष्यामि शीघ्रमेव तव प्रभो!। परंसहपरीवारो यातु स्वामी स्वमालयम्॥४०॥ इत्यक्तः शिबिकारूढो विमना रोगवानिव। चिन्तयन् वनमालां तां स्वं स्थानमगमन्नपः॥४१॥ आत्रेयिकां नाम परिव्राजिकांसुमतिस्ततः। प्राहिणोद्वनमालायै विचित्रोपायपण्डिताम्॥४२॥ जगाम वनमालाया वेश्माऽऽत्रेय्यपि तत्क्षणम्। तया च वन्दिता साऽऽशी:पूर्वमेवमवोचत॥४३॥ वत्से! कुतोऽद्य विच्छाया पद्मिनीव हिमागमे? । दिवा शशिकलाकारौ कुतो गण्डौ च पाण्डुरौ ? ॥४४॥ शून्यप्रक्षिप्तदृष्टिश्चध्यायन्ती किं नु तिष्ठसि ? । आख्यातपूर्विणी सर्वं दुःखमाख्यासि किं न हि ? ॥४५।। निःश्वस्य वनमालाऽपिललापैवं कृताञ्जलिः। दुष्प्रापार्थप्रार्थकतामात्मीयां कथयामि काम् ? ॥४६॥ क्व रासभी ? वाजिराज उच्चैरुच्चैःश्रवाः क्व च ? । क्वाऽसौ शृंगालयुवति: ? क्क केशरिकिशोरकः ? ॥४७।। क्व वा वराकी चटका? पक्षिणामधिप: क्व च ? । क्वाऽहं कुविन्दी ? तादृक् क्व दुर्लभ: प्राणवल्लभ: ? ॥४८।। अप्येतेषां भवेद्योग: कथञ्चन विधेर्वशात। हीनजातेर्मम तु तत्सङ्ग: स्वप्नेऽप्यसम्भवी॥४९॥ आत्रेयिकाऽप्येवमूचेऽर्थं ते सम्पादयाम्यहम् । असाधनीयं पुण्यानां मन्त्र-तन्त्रविदां च किम् ? ॥५०॥ प्रत्यूचे वनमालैवं मयाऽद्य पथि वीक्षित: । नृपति: कुञ्जरारूढः प्रत्यक्ष इव मन्मथः॥५१॥ अपि चन्दननि:स्यन्दसोदरात् तस्य दर्शनात्। देहे मदीये प्रोद्भूतः प्रभूतो मन्मथज्वरः ॥५२॥ ज्वरहत्तक्षकचूडामणिवत् तस्य सङ्गमः । दुर्लभो हि वराक्या मे किं की भगवत्यत: ? ॥५३।। आत्रेय्यप्यभ्यधादेवं देवं दैत्यं विधुं रविम्। विद्याधरं वा कर्षामि मन्त्रैरत्र तु कथा? ॥५४|| राज्ञा सह प्रेगे योगं करिष्यामि तवाऽनघे! । ज्वलन्तं ज्वलनमथ प्रवेक्ष्याम्याश्वसिद्ययि! ॥५५॥ आश्वास्यैवं वनमालां सा परिव्राजिकाऽव्रजत्। सिद्धप्रायं नृपार्थं तं चाऽऽख्यत्सुमतिमन्त्रिणे॥५६।। सोऽप्यमात्यस्तदाख्यायाऽऽश्वासयत् पृथिवीपतिम् । प्रायेण प्रेयसीप्राप्तिप्रत्याशाऽपि हि शर्मणे॥५७।। प्रातर्गत्वाऽऽत्रेयिकाऽपि वनमालामवोचत । मया कृतोऽस्ति ते प्रेमाभिमुखःसुमुखो नृपः ।।५८|| १. भूतवने खंता. पाता. मु.विना ॥ २. मक्षु मञ्जरी० ला. मु.; मनोहरमञ्जरीणां समूहेन सुन्दरे ।। ३. तालवृन्तायतदले ला. मु.; तालवृन्तवदाचरितं दलैः पर्णैर्यत्र ।। ४. वसन्तश्रीकर्णभूषणसदृशे॥५. रिपवः ।।६. तवात्मनो० मु.॥७. आगच्छता ॥८.लुण्टतीत्येवं शीला लुण्टाकी॥९. निस्तेजाः॥१०. गण्डौकपोलौ(गाल) श्वेतौ(फिक्का) कथम्? इत्यर्थः ॥११. पूर्वमाख्यातवती ।। १२.दुष्प्रापार्थकतामात्मीयां कथां मु.,अप्रार्थितप्रार्थकतामात्मीयां सं. ॥१३. करासभी क च वाजिराज उच्चैःश्रवा क च ला.॥१४. कवा शृगालयुवति: पाता.,कच गालयुवति: मु.॥१५. गरुडः ।।१६. तन्तुवायपत्नी॥१७. मान्मथो ज्वर: मु.॥१८. तक्षक: सर्पराजस्तस्य मस्तकमणिः, स ज्वरं हरतीति श्रूयते॥१९. प्रात:काले॥२०. अग्निम् ।। २१. अयि! इति सम्बोधने; ०श्वसिह्यपि मु.॥ तवः ॥ १२.दुष्प्रापालकच भगालयुवति: मः ।।२९. अयिः इति स Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः ) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । उत्तिष्ठ वत्से! गच्छावस्तदद्य नृपसद्मनि। रमस्व राजपत्नीव राज्ञा सह यथासुखम् ॥५९॥ वनमाला तया सार्धं नृपवेश्म ययौ ततः । अवरोधे सा निदधे सानुरागेण भूभुजा ॥६०॥ क्रीडोद्यान-सरिद्-वापी-शैलादिषु तया सह । विहरन्नन्वभूद् भोगसुखं सुमुखभूपतिः ॥ ६१ ॥ इतो वीरकुविन्दोऽपि वियुक्तो वनमालया । भूताविष्ट इवोन्मत्त इव मत्त इवाऽभ्रमत् ॥ ६२ ॥ धूल धूसरसर्वाङ्गो जीर्णकर्पटखण्डभृत्। विसंस्थूलशिर: केशो दीर्घरोमनखावलिः ॥ ६३॥ उत्तालतुमुलैः पौरदारकैः परिवारितः । वनमाले ! वनमाले ! क्वाऽसि ? मे देहि दर्शनम् ॥ ६४|| निरौगसं किमत्याक्षीरेकमेकपदे हि माम्। अथवा नर्मणाऽत्याक्षी : ? सुचिरं युज्यते न तत् ॥ ६५॥ रूपलुब्धेन वा रक्षो-यक्ष-विद्याधरादिना । केनाऽप्यपहृताऽसि त्वं ? धि धिङ् मां गतभाग्यकम् ॥ ६६ ॥ इत्यादि प्रलपन् पुर्यां चत्वरेषु त्रिकेषु च । वराको रङ्कवत् कालमतिवाहयति स्म सः || ६७ || पञ्चभिः कुलकम् || तथैव प्रलपन्नुच्चैरन्येद्यू राजवेश्मनः । प्रययावङ्गणे डिम्भगणैः कपिवदावृतः ॥ ६८॥ कौतुकालोकनोत्केन राजलोकेन तत्क्षणम् । निर्माल्यमाल्यसंवीतः सोऽवेष्ट्यत पिशाचकी॥६९॥ उत्तालतालिकानादमिश्रकोलाहलध्वनिम् । तस्याऽनुगामिपौराणां शुश्राव सुमुखो नृपः ॥७०॥ किमेतदिति जिज्ञासुः सहैव वनमालया । निजवेश्माङ्गणेऽभ्यागात् सुमुखः पृथिवीपतिः॥७१॥ तं तथा विकृताकारं केश्मलं शून्यमानसम् । आक्रुश्यमानं लोकेन स्नप्यमानं च रेणुभिः ॥७२॥ वनमाले! वनमाले! क्वाऽसीत्यादि प्रलापिनम् । निरीक्ष्य वनमाला च नृपतिश्चेति दध्यतुः ॥७३॥ कर्मैतन्निर्घृणमहो! अस्माभिः सौनिकैरिव । दुःशीलैर्विदधे हन्त विश्वस्तो ह्येष वञ्चितः ॥७४॥ मन्ये नाऽतः परं पापं किञ्चिदन्यत् प्रकृष्यते । प्रकृष्टपापिनां मध्ये धौरेर्यौ वयमेव हि ॥७५।। विश्वासघातकेभ्योऽपि निर्दृष्टा वयमास्महे । इत्थं जीवन्मृतमिमं यद् वराकमकृष्महि ॥७६॥ धिग् धिग् विषयलाम्पट्यमविवेकैंपटीयसाम्। नरकेऽपि हि न स्थानं पाप्मनाऽनेन नः खलु ॥७७॥ धन्यास्ते हि महात्मानः सर्वदा ये जितेन्द्रियाः । जहुर्वैषयिकं सौख्यं विपाके दुःखकारणम् ॥७८॥ जिनधर्ममहोरात्रं ये शृण्वन्त्याचरन्ति च । वन्द्यास्ते स्वविवेकेन विश्वविश्वोपकारिणः ॥ ७९ ॥ इति स्वं निन्दतोर्धर्मप्रसक्तांश्चाऽभिनन्दतोः । तयोः पपात खाद् विद्युत् प्राणानपजहार च ॥८०॥ मिथ: स्नेहपरीणामाच्छुभध्यानाच्च तौ मृतौ । उत्पेदाते हरिवर्षे वर्षे मिथुनरूपिणौ ॥८१॥ हरिश्च हरिणी चेति पितृभ्यां कल्पिताभिधौ । प्राग्जन्मवद्दम्पती ताववियुक्तौ दिवानिशम् ॥८२॥ कल्पद्रुमैर्दशविधैः सम्पादितसमीहितौ । सुखेन तस्थतुस्तत्र विलसन्तौ सुराविव ॥ ८३ ॥ 'विद्युत्पातेन हतयोर्वनमाला-नरेन्द्रयोः । चक्रे बालतपो वीरकुविन्दोऽपि सुदुस्तपम्॥८४॥ मृत्वा च कल्पे सौधर्मे सोऽभूत् किल्बिषिकः सुरः । प्राग्जन्माऽवधिनाऽपश्यत् स्वं तथा हरिणी - हरी ॥ ८५ ॥ रोषारुणेक्षण: सद्यो भृ(भ्रु)कुटीभङ्गभीषणः । सजिहीर्षुर्यम इव हरिवर्षं जगाम सः ॥८६॥ एवं च ससुरो दध्याविहाऽवध्याविमौ खलु । मृतौ च यास्यतः स्वर्गेऽवश्यं क्षेत्रप्रभावतः ॥ ८७ ॥ निर्बंन्धने दुर्गतीनामकालेऽपि मृतिप्रदे। नयाम्यन्यत्र तैंत्स्थाने पूर्वजन्मद्विर्षैविमौ ॥८८॥ इति निश्चित्य स सुरस्तौ कल्पतरुभिः सह । आनैषीदत्र भरते चम्पापुर्यामुभावपि॥८९॥ तत्र पुर्यां तदानीं च नृप इक्ष्वाकुवंशजः । चन्द्रकीर्तिर्नामधेयेनाऽपुत्रः "पञ्चतां ययौ ॥९०॥ ततः प्रकृतयस्तस्य राज्यार्हमपरं नरम् । प्रावर्तन्ताऽभितोऽन्वेष्टुमात्मानमिव योगिनः ॥ ९१ ॥ १. अन्तःपुरमध्ये॥ २. ०टखण्डवत् खंता. पाता है. सं. विना ॥ ३. निरपराधिनम् ॥। ४. हास्येन ॥ ५. निर्भाग्यम् ।। ६. उत्केन-उत्कण्ठितेन ।। ७. निर्माल्यपुष्पमालासहितः ।। ८.पिशाचाधिष्ठितः ॥ ९. मलिनम् ॥। १०. ० तप्यमानं० मु. ॥। ११. चाण्डालैरिव ।। १२. ० लैर्विहितम् ला. सं. पाता. ॥। १३. अधिकं भवति ॥ १४. अग्रेसराः ॥ १५. अधमाः ॥ १६. अविवेकिनाम् ॥ १७. तत्यजुः ।। १८. परिणामे ।। १९. ये च विश्वोप० छा. पा. मु. ॥ २०. आकाशात् ॥ २१. क्षेत्रे युग्मधर्मौ ॥ २२. निर्बन्धेन० मु. ।। २३. तं स्थाने ला. सं. ॥ २४. शत्रू ॥ २५. अनैषीदत्र मु. ॥ २६. मृत्युम् ॥ २७. प्रधानपुरुषाः ।। १०७ For Private Personal Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (षष्ठं पर्व सोऽथ देवो देवऋद्ध्या सर्वान् विस्मापयन् जनान्। तेज:पुञ्ज इवाऽऽकाशस्थित एवमवोचत॥१२॥ भोभोः! सचिव-सामन्तप्रमुखा! राजचिन्तका:! असूनुर्वो मृतो राजा यूयं राजेच्छवस्ततः॥९३।। युष्मत्पुण्यैरिवाऽद्यैव प्रेरितोऽहमिहाऽऽनयम्। हरिवर्षाद्धरिं नाम राज्याहँ युग्मरूपिणम् ॥१४॥ अस्येयं हरिणी नाम सहजा सहचारिणी। आहारार्थमनयोश्चाऽऽनीता: कल्पद्रुमा अमी॥९५॥ श्रीवत्स-मत्स्य-कलश-कुलिशाङ्कुशलाञ्छितः । तदयं वो भवत्वद्य राजा राजीवलोचनः॥९६।। केल्पद्रुमफलाविद्धं पिशितं पशु-पक्षिणाम्। मद्यं च देय आहारोऽनयोमिथुनरूपिणोः॥९७।। एवमस्त्विति ते प्रोच्य गीर्वाणं तं प्रणम्य च। मिथुनं रथमारोप्य तं निन्यू राजवेश्मनि ।।९८॥ ब्रह्म-मागध-गन्धर्वमङ्गलोद्गीतिपूर्वकम्। हरिं राज्येऽभिषिषिचुस्ते सामन्तादयस्तदा॥१९॥ सस्वशक्त्या तयोर्देवो ह्रस्वमायुः स्थितेर्व्यधात्। धनु:शतं च तुङ्गत्वे कृतार्थोऽथ तिरोदधे॥१००॥ शीतलस्वामिनस्तीर्थे हरी राजा बभूव सः । तत: प्रभृति तन्नाम्ना हरिवंशोऽभवद्भुवि॥१०१।। असाधयद् हरी राजा वसुधामब्धिमेखलाम् । राज्ञां कन्या: श्रिय इवोपयेमेऽनेकशश्च सः॥१०२।। हरेहरिण्यामजनि गते काले कियत्यपि। पंथलोर:स्थल: पथ्वीपतिरित्याख्यया सतः ॥१०॥ हरि: समंहरिण्या च विपेदेऽर्जितपातकः । पृथ्वीपतिस्तयोऽसन: पृथ्वीपतिरथाऽभवत्॥१०४|| पालयित्वा चिरं राज्यं राज्ये सूनुं महागिरिम्। सोऽभिषिच्य तपस्तप्त्वा त्रिदिवं प्रत्यपद्यत॥१०५।। महागिरिनरेन्द्रोऽपि क्रमाद्धिमगिरि सुतम्। राज्ये न्यस्य तपस्तप्त्वा जगाम पदमव्ययम्॥१०६॥ ततो हिमगिरिज्येष्ठं सुतं वसुगिरिं निजे। राज्येऽभिषिच्य प्रावाजीदवाजीच्चाऽपुनर्भवम्॥१०७॥ सुतं गिरिं नाम वसुगिरिरप्यात्मन: पदे। निधायाऽऽत्तपरिव्रज्य: क्षीणकर्मा ययौ शिवम्॥१०८॥ सुतं मित्रगिरिराज्ये निधाय गिरिरप्यथ। परिव्रज्यामुपादत्त स्वर्गलोकं जगाम च॥१०९॥ एवं क्रमेणाऽसङ्ख्याता हरिवंशेऽभवन्नृपाः। तपसा केऽपि निर्वाणं ययुः स्वर्गं च केऽचन॥११०।। पाइतश्चाऽत्रैवभरतक्षेत्रे मगधमण्डनम्। नाम्ना पुरंराजगृहमस्ति स्वस्तिकवद्भुवः॥१११॥ तत्र यूनां रतभ्रष्टहारमुक्ताकणोत्करा: । वर्धनीभिरपोह्यन्ते प्रात: प्रतिनिकेतनम् ॥११२।। गृहे गृहे तत्र चाऽश्वा दया दानं गृहे गृहे। गृहे गृहे चित्रशाला रङ्गशाला गृहे गृहे॥११३।। मरालानामिव सर: पुष्पमाल्यमिवाऽलिनाम् । महामुनीनामपि तत्सेवनीयमभूत् तदा॥११४॥ बभूव हरिवंशस्य मुक्तामणिरिवाऽमलः । तत्रोग्रतेजसा मित्र: सुमित्रो नाम भूपतिः॥११५॥ विनेता दुर्विनीतानां परिणेता जयंश्रियाम् । उन्नेता निजवंशस्य स नेता सर्वभूभुजाम् ॥११६|| नवमो दिग्गज इव कुलाचल इवाऽष्टम: । द्वितीय इव शेषाहिर्महीभारं बभार सः॥११७॥ औदार्य-धैर्य-गाम्भीर्यादयो ये ये गुणा: किल। ते ते तस्मिन्नदृश्यन्त ज्ञेयानीव जिनागमे॥११८॥ पद्मावतीत्यभिधया पद्यादेवी हरेरिव। सधर्मचारिणी तस्याऽभवद् भूतलपावनी॥११९।। तयाऽशेषस्य जगतो नयनानन्दहेतुना। अलञ्चके नरेन्द्रश्री?रिवोडुपलेखया।।१२०।। गुणैः शीलादिभिस्तैस्तैः स्वकीयैः सा सुगन्धिभिः। राज्ञोऽध्यवासयच्चित्तं गन्धचूर्णैरिवांऽशुकम्॥१२१।। तस्या गुणगणं तारागणं दिव इवोच्चकैः। न सङ्ख्यातुमलम्भूष्णुरभूदपि पतिर्गिराम्॥१२२।। भोगांस्तया सहाऽभुङ्क्त सुमित्रः पृथिवीपतिः। पृथिव्येवाऽनुरागेण जैङ्गमीभावमाप्तया॥१२३।। पाइतश्च प्राणते कल्पे सुरश्रेष्ठसुरोऽपि सः । सुखसागरनिर्मग्नो निजमायुरपूरयत्॥१२४॥ १.०एतदवोचत पाता.॥२. सहोत्पन्ना ।। ३. पत्नी ॥ ४. कमललोचनः ।।५. कल्पद्रुमफलमिदं मांसम् ।। ६. देयमाहारे मु., देय आहारे० खंता. ॥ ७. स्वशक्त्या च मु.॥८. विशालवक्षःस्थल: ।। ९. मोक्षम् ।। १०. शिवम् ।। ११. आत्ता गृहीता परिव्रज्या येन सः ।। १२. रतेन सुरतेन भ्रष्टा: पतिता: हारस्य मुक्ताकणानां उत्करा निवहाः; रतभ्रष्टा हार० मु.॥१३. सम्मार्जनीभिः;वर्धिनी० मु.॥१४. दूरी क्रियन्ते॥१५. हंसानामिव ॥१६. भ्रमराणामिव ॥१७. सूर्यः ।। १८. दण्डकरः ॥१९. जयश्रियम् खंता. पाता. ॥ २०. ज्ञेयवस्तूनि, यथा सर्वे एव ज्ञेयभावाः जिनागमे प्रतिपादिता दृश्यन्ते तथा समग्रसद्गुणास्तस्मिन् अदृश्यन्त ।। २१. लक्ष्मीदेवी॥२२. विष्णोः ॥२३. चन्द्ररेखया॥२४. वस्त्रम् ॥ २५. बृहस्पतिः॥२६. जङ्गमत्वं प्राप्तया ॥ ॥ १०. शिवम् ॥ १.१.१४. दूरक्रियन्ते ।। १५. सानासा दृश्यन्ते तथा Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः ) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । च्युत्वा 'श्रावणराकायां श्रवणस्थे निशाकरे । 'पद्मावत्या महादेव्याः कुक्षाववततार सः ॥ १२५ ॥ चतुर्दश महास्वप्नांस्तीर्थकृज्जन्मसूचकान् । सुखसुप्ता निशाशेषे तदा देवी ददर्श सा ॥ १२६ ॥ ज्येष्ठस्य कृष्णाष्टम्यां भैश्रवणे कूर्मलाञ्छनम् । तमालश्यामलच्छायं समयेऽसूत सा सुतम् ॥१२७॥ विहिते दिक्कुमारीभिः सूतिकर्मणि भक्तितः । अर्हन् स विंशतितमो निन्ये मेरौ बिडौजसा ॥ १२८ ॥ शक्रोत्सङ्गे निषण्णस्य त्रिषष्ट्येन्द्रैर्जगद्गुरोः । जन्माभिषेको विदधे पावनैस्तीर्थवारिभिः ॥ १२९॥ ईशानाङ्कनिषण्णस्य शक्रोऽपि जगदीशितुः । स्नात्रपूजादिकं कृत्वा स्तोतुमित्युपचक्रमे ॥१३०॥ “अद्याऽवैसर्पिणीकालसरोवरसरोरुह! । दिष्ट्या प्राप्तोऽसि भगवन्नस्माभिर्भ्रमरैश्चिरात् ॥ १३१ ॥ अजायत तव स्तोत्रध्यानात् पूजादिकादपि । वाङ्-मनो-वपुषां श्रेयः फलमद्यैव देहि मे ॥ १३२ ॥ यथा यथा नाथ! भक्तिर्गुरूँभवति मे त्वयि । लघूभवन्ति कर्माणि प्राक्तनानि तथा तथा ॥१३३॥ स्वामिन्नविरतानां नः स्याज्जन्मैतन्निरर्थकम्। यदि त्वद्दर्शनं न स्यादिदं पुण्यनिबन्धनम्॥१३४॥ तवाङ्गस्पर्शन-स्तोत्र-निर्माल्याघ्राण- दर्शनैः । गुणगीताकर्णनैश्च कृतार्थानीन्द्रियाणि नः ॥ १३५ ॥ मेरुमौलिरयं भाति नीलरत्नत्विषा त्वया । प्रावृषेण्याम्बुदेनेव नयनानन्ददायिना ॥१३६॥ स्थितो भरतवर्षेऽपि सर्वगः प्रतिभासि नः । यत्र तत्र स्थितानां यद् भवस्यर्तिच्छिदे स्मृतः॥१३७॥ अस्तु च्यवनकालेऽपि त्वत्पादस्मरणं मम । यथा प्राग्जन्मसंस्कारात् तदेव स्याद् भवान्तरे” ॥१३८॥ एवं "तें विंशमर्हन्तं स्तुत्वाऽदाय च वज्रभृत् । नीत्वा पद्मावतीदेवीपार्श्वेऽमुञ्चद् यथास्थिति ॥१३९॥ " चक्रे जन्मोत्सवं सूनोः सुमित्रोऽपि नृपः प्रगे । कारामोक्षैरर्थदानाद्यैश्च लोक॑म्पृणीभवन् ॥१४०॥ अस्मिन् गर्भस्थिते माता मुनिवत् सुव्रताऽभवत्। मुनिसुव्रत इत्याख्यां तेनाऽस्य विदधे पिता ॥१४९॥ अज्ञाननाटितं बाल्ये क्रीडया नाटयन् जने । ज्ञानत्रयपवित्रात्मा क्रमेण ववृधे प्रभुः ॥ १४२ ॥ सम्प्राप्तयौवन: स्वामी विंशधन्वसमुन्नतिः । प्रभावतीप्रभृतिका राजपुत्रीरुपायत ॥१४३॥ मुनिसुव्रतनाथस्य सुव्रतो नाम नन्दनः । जज्ञे प्रभावतीदेव्यां प्राच्यामिव निशाकरः ॥ १४४॥ अर्धाष्टमेषु वर्षाणां सहस्रेषु गतेष्वथ । पित्राऽध्यारोपितं राज्यभारं प्रभुरुपाददे ।। १४५।। क्ष्मां पालयन् पञ्चदशाब्दसहस्रीमलङ्घयत् । प्रक्षीणं भोगकर्मेति प्रभुर्ज्ञानाद् विवेद च ॥१४६॥ तीर्थं प्रवतर्य स्वामिन्निति लोकान्तिकामरैः । विज्ञप्तो वार्षिकं दानं ददौ च परमेश्वरः ॥ १४७॥ क्षत्रव्रतैकद्रविणं न्यायाम्भोजमधुव्रतम् । राज्ये न्यवेशयत् पुत्रं सुव्रतं मुनिसुव्रतः ॥ १४८ ॥ कृत निष्क्रमणो देवैः सुव्रतेन च भूभुजा । सहस्रवाह्यां शिबिकां सोऽध्यष्ठादपराजिताम् ॥ १४९ ॥ मौकन्दैर्नव्यमुकुलप्रोद्भेदाद्दन्तुरैरिव । उद्गच्छत्पल्लवतया जिह्वालैरिव शोभितम्॥१५०॥ इतस्ततो मरुत्कीर्णजीर्णपर्णतया मुहुः । मँर्मरैराह्वयदिवाऽऽगामिनीं मधुसम्पदम्॥१५१॥ दुर्वारां सिर्दुवाराणामीक्षितुं कुसुमश्रियम् । असहैरिव विर्मंदीभूय कुन्दैर्निषेवितम्॥१५२॥ उद्यद्दमनकामोदप्रमोदि शिर्शिरैर्द्धिकम् । ययौ नीलगुहां नामोद्यानं त्रिजगदीश्वरः ॥१५३॥ चतुर्भिः कलापकम्।। फाल्गुनश्वेतद्वादश्यां श्रवणे पश्चिमेऽहनि । समं नृपसहस्रेण षष्ठेन प्राव्रजत् प्रभुः ॥ १५४॥ द्वितीयेऽह्नि राजगृहे ब्रह्मदत्तनृपौकसि । अपारयत् पायसेन भगवान् मुनिसुव्रतः ॥ १५५॥ अमरैर्वसुधारादिपञ्चकं तत्र निर्ममे । रत्नपीठं स्वामिपादस्थाने ब्रह्मनृपेण तु ॥ १५६॥ १. श्रावणपूर्णिमायाम् ॥ २. पद्मावतीमहा० मु. ॥ ३. नक्षत्रे ॥। ४. तमाल इव श्यामला छाया कान्तिः यस्य सः ॥ ५. इन्द्रेण ॥ ६. अवसर्पिणीकाल एव सरोवर:, तस्मिन् सरोरुहः कमलसमान: ।। ७. ०गुरुर्भवति मु. ॥ ८. अस्माकम् ॥ ९. प्रावृषि वर्षाकाले भव प्रावृषेण्यः, स चाऽसौ मेघश्च तेन ॥। १०. सर्वत्र स्थितः; सर्वतः पाता. ।। ११.एवं च विंश० खंता ॥। १२. लोकं जगत् प्रीणाति प्रीणयतीति लोकम्पृणस्ततः च्चि: ॥ १३. अज्ञाननाटकम् ।। १४. ० बाल्यक्रीडया० मु.॥ १५. नवीनमुकुलोद्गमात् सदन्तैरिव माकन्दैराम्रवृक्षैः शोभितम् ॥ १६. उद्यन्नवपल्लवतया सजिह्वैरिव आम्रैः शोभितम् ।। १७. मर्मरध्वनिभिः (पर्णानाम् ) ।। १८. सिन्दुवारो लोके नगोड इति प्रसिद्धः वृक्षविशेषः ॥ १९. मदरहितैर्भूत्वा ॥ २०. उद्यद् - विकसद् दमनकपुष्पाणां आमोदेन - गन्धेन प्रमोदि -आनन्ददायि ॥ २१. शिशिरस्य समृद्धिर्यस्मिन् तत् ॥ २२. ०लीनगुहां० पाता. ॥ For Private Personal Use Only १०९ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (षष्ठं पर्व नि:सङ्गो निर्मम: सर्वान् सहमान: परीषहान्। ततो मासानेकादश छद्मस्थो व्यहरत् प्रभुः॥१५७।। विहरन्नाययौ नीलगुहोद्यानं पुनः प्रभुः । तस्थौ चचम्पकतरोरधस्तात् प्रतिमाधरः ॥१५८॥ फाल्गुनकृष्णद्वादश्यांश्रवणस्थे निशाकरे। घातिकर्मक्षयात् तत्रोत्पेदे केवलमीशितुः॥१५९॥ शक्रादिभिश्च समवसरणं विदधेऽमरैः। चत्वारिंशेष्वासशतद्वयोच्चाशोकपादपम्॥१६०॥ तत्र प्रविश्य चैत्यद्रो: स्वामी कृत्वा प्रदक्षिणम्। “नमस्तीर्थाये"त्युक्त्वा प्राक्सिंहासन उपाविशत्॥१६१।। व्यन्तरास्तत्प्रतिच्छन्दानन्यदिक्ष्वपि चक्रिरे । तस्थिवांश्च यथास्थानं श्रीमान् सङ्घश्चतुर्विधः॥१६२।। स्वामिनं समवसतं तदा ज्ञात्वा च सव्रतः। एत्य नत्वा स्वामिपादाननुशक्रमपाविशत॥१६३॥ भूयोऽपिस्वामिनं नत्वा ललाटघटिताञ्जली। भक्तिगर्भी स्तुतिमिमां चक्राते शक्र-सुव्रतौ॥१६४॥ “त्वत्पाददर्शनस्यैव प्रभावोऽयं जगत्पते! । यत् त्वद्गुणान् वर्णयितुं मादृशोऽपि प्रगल्भते॥१६५।। देशनासमये पुण्यां तव गां परमेश्वर! । वन्दामहे श्रुतस्कन्धवत्सप्रसविनीमिह॥१६६।। त्वद्गुणग्रहणात् सद्यो भवन्ति गुणिनो जनाः। स्निग्धद्रव्यस्य योगाद्धि स्निग्धीभवति भाजनम्॥१६७॥ ये हि त्यक्तान्यकर्माण: शृण्वन्ति तव देशनाम् । त्यक्तप्राक्तनकर्माणस्ते भवन्ति क्षणादपि॥१६८॥ त्वन्नामरक्षामन्त्रेण संवर्मितमिदं जगत्। अंह:पिशाचैर्फवाऽत: परं देव! ग्रसिष्यते॥१६९॥ कस्याऽपिन भयं नाथ! त्वयि विश्वाभयप्रदे। स्वस्थानयायिनो मे तु त्वद्वियोगभवं भयम्॥१७०॥ अपिशाश्वतवैरान्धा बहिरङ्गान केवलम् । शाम्यन्ति तेऽन्तिके स्वामिन्नन्तरङ्गा अपि द्विषः॥१७१।। ऐहिकामुष्मिकाभीष्टदानकामगवी प्रभो! । त्वन्नामस्मृतिरेवाऽस्तु यत्र तत्र स्थितस्य में" ॥१७२।। शक्र-सुव्रतयोरेवं स्तुत्वा विरतयो: सतो:। स्वामी विश्वावबोधाय विदधेधर्मदेशनाम्॥१७३।। पा“क्षारोदादिव संसारादसारात् सारमुत्तमम् । उपाददीत सद्रत्नमिव धर्मं महामतिः॥१७४॥ संयमः संनतं शौचं ब्रह्माऽकिञ्चनेता तपः । क्षान्तिमर्दिवमृजुता 'मुक्तिश्च दशधा स तु॥१७५।। निरीहो निजदेहेऽपि स्वस्मिन्नपि हि निर्ममः । समाशयो नमस्कुर्वत्यपकुर्वति चाऽनिशम्॥१७६।। नितान्तमीश्वर: सोढुमुपसर्ग-परीषहान्। मैत्र्यादिभिर्भावनाभिनित्यंभावितमानसः॥१७७|| क्षमावान् विनयी दान्तः श्रद्धालुर्गुरुशासने। जात्यादिगुणसम्पन्नो यतिधर्माय कल्पते॥१७८॥[त्रिभिर्विशेषकम्] सम्यक्त्वमूलानि पञ्चाऽणुव्रतानि गुंणास्त्रयः। शिक्षापदानि चत्वारि धर्मोऽयं गृहमेधिनाम्॥१७९।। न्यायसम्पन्नविभव: शिष्टाचारप्रशंसकः । कुलशीलसमैः सार्धं कृतोद्वाहोऽन्यगोत्रजैः॥१८०।। पापभीरु: प्रसिद्धं च देशाचारं समाचरन्। अवर्णवादी न क्वाऽपि राजादिषु विशेषतः॥१८१।। अनतिव्यक्तगुप्ते चस्थाने सुप्रातिवेश्मिके। अनेकनिर्गमद्वारविवर्जितनिकेतनः॥१८२॥ कृतसङ्ग: सदाचारैर्मातापित्रोश्च पूजकः । त्यजन्नुपप्लुतं स्थानमप्रवृत्तश्च गर्हिते॥१८३।। व्ययमायोचितं कुर्वन् वेषं वित्तानुसारतः । अष्टभिर्धीगुणैर्युक्तः शृण्वानो धर्ममन्वहम्॥१८४॥ अजीर्णे भोजनत्यागी काले भोक्ता च सात्म्यतः । अन्योऽन्याप्रतिबन्धेन त्रिवर्गमपि साधयन् ॥१८५।। यथावदतिथौ साधौ दीने च प्रतिपत्तिकृत्। सदाऽनभिनिविष्टश्च पक्षपाती गुणेषु च॥१८६।। अदेश-कालयोश्चर्यां त्यजन् जानन् बलाबलम्। वृत्तस्थ-ज्ञानवृद्धानां पूँजक: पोष्यपोषकः॥१८७|| १. इष्वास:-धनुः ।। २. वाणीम् ।। ३. श्रुतस्कन्ध एव वत्सस्तज्जनयित्रीम् ॥ ४. पापान्येव पिशाचास्तैः ।। ५. क्रोधादयोऽन्तरङ्गा: शत्रवः ।। ६. इहलोकपरलोकयोरिच्छितदाने कामधेनुसमाना॥७. समुद्रात्।। ८. गृह्णीयात् ।। ९. सत्यम्॥१०. मन:शुद्धिः-पवित्रता ॥११. ब्रह्मचर्यम् ।। १२. परिग्रहराहित्यम् ।। १३. क्षमा ।।१४. निर्लोभता ।। १५. इच्छारहितः ॥ १६. नमस्कारमपकारं च कुर्वाणे समचित्तः ; समाशयो जिनाधीशं नमस्कुर्वति चानिशम् पाता. ॥ १७. स्थूलप्राणातिपातविरमणं, स्थूलमृषावादविरमणं, स्थूलअदत्तादानविरमणं, स्वदारासन्तोषः,स्थूलपरिग्रहविरमणं ॥१८. दिक्परिमाणव्रतं,भोगोपभोगव्रतं, अनर्थदण्डव्रतं; एतानि गुणव्रतानि॥१९. सामायिकव्रतं, देशवकाशिकव्रतं, पोषधव्रतं, अतिथिसंविभागवतं; एतानि शिक्षाव्रतानि ॥२०. व्रतानि मुद्रिते टि.॥ २१. गृहस्थानाम् ।। २२. प्रातिवेश्मिक:-'पडोशी' इति भाषायाम्।।२३. उपद्रुतम् ॥ २४. अनन्यचित्तो भूत्वा ।।२५. धर्म-अर्थ-कामान् ।। २६. अनाग्रही।। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः ) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । T " दीर्घदर्शी विशेषज्ञ: " " कृतज्ञो "लोकवल्लभः । " सलज्ज : "सदयः "सौम्यः " परोपकृतिकर्मठः ' ॥ १८८ ॥ अन्तरङ्गारिषड्वर्गपरिहारपरायणः । वैशीकृतेन्द्रियग्रामो गृहिधर्माय कल्पते ॥ १८९॥ संसारेऽस्मिन् मनुष्येण चैतन्यफलमिच्छुना । सेव्यः श्रावकधर्मोऽपि यतिधर्माक्षमेण तु ॥ १९० ॥ श्रुत्वाऽमुं देशनां भर्तुर्बहवः प्राव्रजन् जनाः । श्रावक्यभूवन्नेके च न मोघा देशनाऽर्हताम् ॥१९१॥ इन्द्रादयो गणधराः स्वामिनोऽष्टादशाऽभवन् । देशनाविरते नाथे चकारेन्द्रोऽपि देशनाम् ॥ १९२॥ देशनाविरते तत्राऽप्यभिवन्द्य जिनेश्वरम् । स्वं स्वं स्थानं ययुः सर्वे वज्रभृत्-सुव्रतादयः ॥१९३॥ ॥ तत्तीर्थजन्मा वरुणो यक्षस्त्र्यक्षश्चतुर्मुखः । श्वेतो जटी वृषरथश्चतुर्भिर्दक्षिणैर्भुजैः॥१९४॥ मातुलिङ्ग-गदा-बाण-शक्तिभृद्भिस्तथाऽपरैः । नकुलाक्ष-धनुः- पर्शुधारिभिः परिशोभितः॥१९५॥ तथोत्पन्ना नरदत्ता गौरी भद्रासनस्थिता । भान्ती दक्षिणबाहुभ्यां वरदेनाऽक्षसूत्रिणा ॥१९६॥ समातुलिङ्ग-शूलाभ्यां वामदोर्भ्यां च शोभिता । सुव्रतस्वामिनोऽभूतामुभे शासनदेवते॥१९७॥ ¶ताभ्यामधिष्ठिताभ्यर्णः पृथिवीं विहरन् विभुः । अन्यदा समवासार्षीद् भृगुकच्छे महापुरे ॥। १९८ ।। तत्र राजा जितशत्रुर्जात्यमारुह्य वाजिनम् । प्रभुं वन्दितुमभ्यागादथ शुश्राव देशनाम् ॥१९९॥ रोमाञ्चिताङ्गो निःस्पन्द उत्कर्ण: स्वामिदेशनाम् । अश्रौषीत् तुरगः सोऽपि जितशत्रुमहीपतेः ॥ २०० ॥ पप्रच्छ समये चैवं गणभृत् परमेश्वरम् । स्वामिन्! प्रपेदे समवसरणे धर्ममत्र कः ? ॥ २०९॥ स्वाम्यप्यूचे धर्ममत्र न कोऽपि प्रत्यपद्यत । जितशत्रुनरेन्द्रस्य विनैकं जात्यवाजिनम् ॥ २०२ ॥ सविस्मयो जितशत्रुरप्यपृच्छज्जगद्गुरुम् । कोऽयमश्वो विश्वनाथ ! यो धर्मं प्रत्यपद्यत ? ॥२०३॥ "आचख्यौ भगवानेवं पद्मिनीषण्डपत्तने । पुराऽऽसीच्छ्रावैकः श्रेष्ठी जिनधर्मोऽभिधानतः ॥ २०४॥ मित्रं सागरदत्तोऽस्य समस्तनगराग्रणीः । भद्रकत्वात् समं तेन ययौ चैत्येषु सोऽन्वहम् ॥ २०५ ॥ साधुभ्यः सोऽन्यदाऽश्रौषीद् योऽर्हद्विम्बानि कारयेत् । संसारमथनं सोऽन्यभवे धर्ममवाप्नुयात् ॥ २०६॥ श्रुत्वा सागरदत्तस्तत् सौवर्णं बिम्बमार्हतम् । कारयित्वा महाऋद्ध्या साधुभिः प्रत्यतिष्ठपत्॥२०७॥ | नगरस्य बहिस्तस्य तेनाऽऽसीत् कारितं पुरा। शिवायतनमुत्तुङ्गं सोऽगात् तत्रोत्तरायणे ॥२०८॥ तत्र प्राक्सञ्चितस्त्यानसर्पिस्कु(ष्कु)म्भा: शिवार्चकैः । क्रैष्टुमारेभिरे सर्पिः कवलाय कृतत्वरैः ॥ २०९॥ अधस्तेषां घटानां च पिण्डीभूयोपदेहिकाः । लग्ना बभूवुर्भूयस्यो निपेतुस्ताश्च वर्त्मनि ॥२१०॥ सञ्चरद्भिः पूजकैश्च चूर्यमाणाः समीक्ष्य ताः । सागरः कृपया वस्त्रेणाऽपनेतुं प्रचक्रमे ॥ २११॥ किं श्वेतं भिक्षुभिररे! शिक्षितोऽसीति जल्पता । ततस्ता: पूजकेनैकेनांऽह्रिघातेन चूर्णिताः ॥ २१२ ॥ श्रेष्ठी सागरदत्तोऽपि विलक्षीभूय तत्क्षणम् । तदा तदाचार्यमुखं तच्छिक्षार्थमुदैक्षत ॥ २१३॥ उपेक्षमाणे तत्पापं तस्मिन्नपि हि सागरः । एवं विचिन्तयामास धिगहो ! निर्घृणा अमी ॥ २९४ ॥ गुरुबुद्ध्या कथममी पूज्यन्ते दारुणाशयाः । आत्मानं यजमानं च दुर्गतौ पातयन्ति ये ? ॥ २१५ ॥ विचिन्त्येत्यर्पुरोधाच्च कृत्वा तैत्कर्म सागरः । अनासादितसम्यक्त्वो दान- शीलस्वभावतः ॥ २१६ ॥ महारम्भार्जितधनत्राणनिष्ठो विपद्य सः । जात्यस्तवाऽश्वोऽयमभूत् तद्बोधायाऽहमागमम् ॥ २१७||[युग्मम् ] प्राग्जन्मकारितजिनप्रतिमायाः प्रभावतः । धर्मोपदेशं नः श्रुत्वा सम्बुद्धोऽयं क्षणादपि ॥२१८॥ १११ एवं भगवताऽऽख्याते स्तूयमानो जनैर्मुहुः । स्वैरचारी कृतः सोऽश्वः क्षमयित्वा क्षमाभुजा ॥ २१९ ॥ ततः प्रभृति तल्लोके प्रख्यातमतिपावनम् । तीर्थमश्वावबोधाख्यं भृगुकच्छमभूत् पुरम् ॥ २२०॥ १. परोपकारे कुशलः ।। २. अन्तरङ्गारिषड्वर्ग:-काम-क्रोध-लोभ-मोह-मद-मत्सराः, तेषां परिहारे त्यागे परायणः तत्परः ।। ३. ०फलमिच्छता हे. पा.; खंता. पाता. विना ॥ ४. श्राद्धधर्मवन्तोऽभूवन् ॥ ५. निष्फला न भवति ॥ ६. ० वरुणयक्ष० मु. ॥७. त्रिनेत्रः ॥ ८. मातुलुङ्ग० खंता. पाता । ९. गौराङ्गी ॥ १०. प्रभुः मु. ॥ ११. निश्चलः ॥ १२.०च्छ्रावकश्रेष्ठी मु. ॥ १३. महऋद्ध्या ला. मु. ॥। १४. स्त्यानं शीनं घनीभूतमित्यर्थः ॥ १५. कष्टुं० खंता. पाता. ।। १६. सर्पिः कम्बलाय सर्वप्रतिषु ॥ १७. उपदेहिका 'उधई' इति लोके प्रसिद्धा ॥ १८. दूरीकर्तुम् ॥ १९. जैनसाधुभिः ॥ २०. निर्दयाः ॥ २१. आग्रहात् पूजकाचार्यस्येति शेषः ।। २२. पूजादिकं कार्यम् ॥ २३. महारम्भेण अर्जितस्य धनस्य त्राणे रक्षणे निष्ठा यस्य सः ॥ For Private Personal Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (षष्ठं पर्व ११२ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं पदेशनां पारयित्वा तु भुवनोपचिकी: प्रभुः। विहरन् समवासार्षीदन्यदा हस्तिनापुरे ॥२२१॥ तस्मिंश्च नगरे नाम्ना जितशत्रुरभून्नृपः। श्रेष्ठी वणिक्सहस्रेश: कार्तिकः श्रावकोऽपि च॥२२२॥ तस्मिन् कषायवसन: पुरे भागवतव्रतः। मासं मासं चोपवासी पोरै शमपूज्यत॥२२३।। पारणे पारणे पौरैः सोऽतिभक्त्या न्यमन्त्र्यत। न सम्यक्त्वैकवसुना श्रेष्ठिना कार्तिकेन तु॥२२४॥ भूतवच्छ्रेष्ठिनस्तस्य छिद्रान्वेषणतत्परः। सोऽन्यदा पारणे राज्ञा न्यमन्त्रि जितशत्रुणा॥२२५।। स परिव्राजकोऽप्यूचे यदि मे परिवेषणम् । करोति कार्तिको राजन्! भुञ्जे तव गृहे तदा ॥२२६।। आमेत्युक्त्वा नरेन्द्रोऽपि गत्वा तद्वेश्म कार्तिकम्। ययाचे भगवतोऽस्य परिवेष्यं त्वयाऽनघ! ॥२२७।। स्वामिन्न युज्यतेऽस्माकमिदं पाखण्डधारिषु। तवाऽऽज्ञया कार्यमेतदपीति प्रत्यपादिसः॥२२८।। पुराऽपि चेत् प्राव्रजिष्यं नाऽकरिष्यमिदं तदा। एवं विचिन्तयन् खेदाच्छ्रेष्ठी राजकुलं ययौ ॥२२९॥ परिवेषयतस्तस्य परिव्राट् कार्तिकस्य सः। निकारं दर्शयामास तर्जनीदशनैर्मुहुः॥२३०॥ परिवेष्याऽनिच्छयाऽपि श्रेष्ठी निर्वेदभावितः । समं वणिक्सहस्रेण स्वाम्यन्ते प्राव्रजत् तदा ॥२३१॥ द्वादशाङ्गधरः कृत्वा द्वादशाब्दी परं व्रतम् । मृत्वासौधर्मकल्पेन्द्रः कार्तिक: समजायत॥२३२॥ परिव्राडपि मृत्वा स आभियोग्येन कर्मणा। तस्यैव वाहनमभूदैरावण इति द्विपः।।२३३॥ तंशक्रं प्रेक्ष्य सामर्षः स प्रारेभे पलायितुम् । प्रसह्य धृत्वा शक्रस्तमारुरोह प्रभुर्हि सः॥२३४॥ द्वे शीर्षेस चकाराऽथ द्विमूर्तिर्वासवोऽप्यभूत्। एवंस यावच्छीर्षोऽभूत् तावद्वान् वासवोऽपि हि॥२३५॥ भूय: पलायमान: स वज्रेणाऽऽहत्य वज्रिणा। प्रोग्जन्ममत्सरी मङ्क्ष व्यधीयत वशंवदः॥२३६।। आकेवलाद्विहरत: सुव्रतस्वामिनोऽपि हि। एकादशमासन्यूनार्धाष्टमाब्दसहस्यगात्॥२३७।। प्रभोस्त्रिंशत्सहस्राणि श्रमणानां महात्मनाम्। सहस्राणि तु पञ्चाशदार्यिकाणां तपोजुषाम्॥२३८।। चतुर्दशपूर्वभृतां सहस्रार्धं महाधियाम्।अवधिज्ञानयुक्तानामष्टादश शतानि तु॥२३९॥ शतानि पञ्चदश तु मन:पर्ययशालिनाम्। केवलज्ञानयुक्तानामष्टादश शतानि तु॥२४०॥ जातवैक्रियलब्धीनां सहस्रद्वितयं पुनः । उत्पन्नवादलब्धीनां सहस्रं द्वेशते तथा॥२४१॥ श्रीवकाणांलक्षमेकं द्वासप्ततिसहस्यपि। श्राविकाणां त्रिलक्षी चसार्धा विहरतोऽभवत्॥२४२।। निर्वाणकाले सम्मेतं ययौ श्रीमुनिसुव्रतः। समं मुनिसहस्रेणाऽनशनं प्रत्यपादिच॥२४३।। मासस्याऽन्ते ज्येष्ठकृष्णनवम्यां श्रवणे च भे। समं तैर्मुनिभिः स्वामी ययौ पदमनश्वरम् ॥२४४॥ सार्धा: सप्ताब्दसहस्रा: कौमार-व्रतयो: पृथक् । राज्ये पञ्चदश त्रिंशदित्यायुः सुव्रतप्रभोः॥२४५।। श्रीमल्लिस्वामिनिर्वाणान्मुनिसुव्रतनिर्वृति: । चतुःपञ्चाशति समालक्षेष्वतिगतेष्वभूत्॥२४६॥ मुनिसुव्रतस्य मुनिभिः सहैव तैः पदमव्ययं गतवत: सुरेश्वराः। समुपेत्य मोक्षमहिमानमुच्चकैर्विधिवव्यधु: सविबुधा: ससंभ्रमा:॥२४७।। इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये षष्ठे पर्वणि श्रीमुनिसुव्रतस्वामि चरितवर्णनो नाम सप्तमः सर्गः।। १. जगदुपकारं कर्तुमिच्छुः ।। २. सहस्रवणिजां स्वामी ॥३. हि पाता.॥४. सम्यक्त्वमेवैकं वसु धनं यस्य स तेन ॥५. अङ्गीचकार ॥६. तिरस्कारः॥७. तर्जनीदर्शनै० मु.; तर्जन्या दन्तैश्च इत्यर्थः ।।८. परिवेष्याऽपमानेन सदा निर्वेदभावित: पाता.॥९. विहृत्य स्वामिना सार्धं पालयित्वा चिरंव्रतम् हे. || १०. तावन्ति सन्ति अस्येति तावद्वान् ॥११.प्राग्जन्मद्वेषी॥१२. साधूनां सङ्ख्या ३०सहस्रमिता ॥१३. साध्वीनां सङ्ख्या ५०सहस्रमिता॥१४. चतुर्दशपूर्विणां सङ्ख्या ५००मिता॥१५. अवधिज्ञानिनां सङ्ख्या १८००मिता॥१६. मन:पर्ययज्ञानिनां सङ्ख्या १५००मिता ।।१७. केवलज्ञानिनां सङ्ख्या १८००मिता॥१८. वैक्रियलब्धीनां सङ्ख्या २सहस्रमिता॥१९. वादलब्धीनां सङ्ख्या १२००मिता ।।२०. श्रावकाणां सङ्ख्या १लक्ष७२सहस्रमिता ।। २१. श्राविकाणां सङ्ख्या ३लक्ष५०सहस्रमिता ॥ २२. कौमारे ७५००वर्षाणि ॥२३. व्रते ७५००वर्षाणि ॥२४. राज्ये १५०००वर्षाणि,एवं ३०सह-स्राणि वर्षाणि जातानि ।। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥अष्टमः सर्गः॥ ॥श्रीमहापद्मचक्रवर्तिचरितम्।। इतश्च विहरत्येव जिनेन्द्रे मुनिसुव्रते । जज्ञे चक्री महापद्मश्चरितं तस्य कीर्त्यते ॥१॥ जम्बूद्वीपस्याऽस्य पूर्वविदेहावनिभूषणे। सुकच्छविजये ख्यातमस्ति श्रीनगरं पुरम् ॥२॥ तत्र राजा प्रजापाल: प्रजापालनतत्परः । परराजयशोहंसनाशनाम्बुधरोऽभवत् ॥३॥ सोऽन्यदाऽऽकस्मिकं विद्युत्पातं दृष्ट्वा विरक्तधी: । समाधिगुप्तस्य मुने: समीपे व्रतमाददे ॥४॥ स चिरं पालयामास खड्गधारोपमं व्रतम् । विपद्य चाऽच्युतेन्द्रोऽभूत् तपोलेशोऽपि नाऽफल: ।।५।। पाईतश्च जम्बूद्वीपस्य क्षेत्रे भरतनामनि । समस्ति हास्तिनपुरं पुरं सुरपुरोपमम् ॥६॥ इक्ष्वाकुवंश्यस्तत्राऽभून्नाम्ना पद्मोत्तरो नृपः । पद्यानिकेतनं पद्ममिव पद्ममहाहदे ॥७॥ तस्योज्ज्वलगुणा ज्वाला नामाऽन्तःपुरभूषणम् । बभूव महिषी रूपेणाऽभिभूतामराङ्गना ॥८॥ तस्यां च केसरिस्वप्नसूचित: प्रथमः सुतः । जज्ञे विष्णुकुमाराख्य: श्रिया सुरकुमारवत् ॥९॥ स प्रजापालजीवोऽपि पूरयित्वाऽऽयुरच्युतात् । च्युत्वा ज्वालामहादेव्या उदरे समवातरत् ॥१०॥ चतुर्दशमहास्वप्नसूचितोऽथ सुतोऽभवत् । ज्वालादेव्या महापद्यो नाम धामाऽखिलश्रियाम् ॥११॥ क्रमेण ववृधाते तावुभावपि सहोदरौ। निमित्तीकृत्य चाऽऽचार्यं सर्वा जगृहतु: कलाः ॥१२॥ स जिगीषुरिति ज्ञात्वा पद्मोत्तरमहीभुजा । यौवराज्ये महापद्मकुमारो निदधे सुधीः ॥१३॥ पाइतश्चोजयिनीपुर्यां श्रीवर्मा नाम भूपतिः । बभूव तदमात्यस्तु नमुचिर्नाम विश्रुतः ॥१४॥ विहरन्नन्यदा तस्यां नगर्यां समवासरत् । आचार्य: सुव्रतो नाम मुनिसुव्रतदीक्षितः ॥१५॥ तद्वन्दनाय सर्वा गच्छतो नगराज्जनान् । प्रासादशिखरारूढोऽपश्यच्छ्रीवर्मभूपतिः ॥१६॥ अमी अकालयात्रायां सर्वा कुत्र नागराः । गच्छन्तीति स पप्रच्छ स्वच्छधीनमुचिं नपः॥१७॥ सोऽप्याख्यद् बहिरुद्याने श्रमणा: केचिदागताः । तद्वन्दनाय तद्भक्त्या एते गच्छन्ति सत्वराः॥१८॥ यामो वयमपीत्युक्ते राज्ञा नमुचिरब्रवीत् । यदि वो धर्मशुश्रूषा धर्मं वक्ष्येऽहमेव तत॥१९॥ तत्राऽवश्यं गमिष्यामीत्युक्ते भूयोऽपि भूभुजा । मन्त्र्यूचे स्वामिना तर्हि स्थेयं मध्यस्थवृत्तिना॥२०॥ सर्वान्निरुत्तरीकृत्य वादे जेष्यामि तानहम् । पाखण्डिनां हि पाण्डित्यं प्राकृतेष्वेव जृम्भते ॥२१॥ इत्युक्ते नृपतिर्मन्त्री राजलोकोऽखिलोऽपि च । प्रययुः सुव्रताचार्यसन्निधौ विविधाशयाः ॥२२॥ पप्रच्छुस्तत्र ते धर्मं मुनिभ्य: स्वैरवादिनः । मौनेन मुनयोऽप्यस्थुस्तेषामुच्चावचोक्तिभिः ॥२३॥ पततश्च नमुचिः क्रुद्धो निन्दन् शासनमार्हतम् । सूरिं प्रति जगादेवं किमहो वेत्ति गौरयम् ? ॥२४॥ इत्यूचुः सुव्रताचार्या अनार्यमपि मन्त्रिणम् । जिह्वा कण्डूयते ते चेत् किमपि ब्रूमहे तदा ।।२५।। अथैकः सुव्रताचार्यपादान् क्षुल्लोऽभ्यधादिदम् । स्वयं वो युज्यते वक्तुं न विद्वेन्मानिनाऽमुना ।।२६।। अमुं वादे विजेष्येऽहं सभ्यीभूयैव पश्यथ। भेट्टो वदत्वसौ पक्षं दूषयामि यथाऽद्य तम् ॥२७॥ १. शत्रुभूतराजानां यश एव हंसस्तस्य नाशने मेघसमानः, मेघागमे हि हंसा: सरोवराणि विहाय पलायन्ते इति स्थितिः॥२. अमुष्य हे. ।। ३. जम्बूद्वीपेऽस्मिन् ला. सं. ॥ ४. पुरन्दरपुरोपमम् ला. ॥ ५. स्थानम् ॥ ६. जेतुमिच्छु: जयनशील इति यावत् ॥ ७. इतश्चोज्जयनी० खंता. पाता. ।। ८. पामरजनेषुसाधारणजनेषु ॥९.उच्चनीचवचनैः ॥१०.वेत्सि गौरवम् मु.; अयं गौः-वृषभः किं वेत्ति ? ॥११. लघुसाधुः ॥१२. आत्मानं विद्वांसं मन्यते इति विद्वन्मानी तेन ।।१३. भद्रो पाता. ॥१४. यथातथम् मु.॥ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं सद्य: ऊचे नमुचिभट्टोऽपि क्रोधकर्कशवागिति । अशौचाः पाखण्डिनश्च 'त्रयीबाह्याश्च सर्वथा ॥ २८ ॥ तत् संवासयितुं यूयं न युक्ता निजमण्डले । इत्येष खलु मे पक्षो युष्मास्वन्यत् किमुच्यते ? ॥२९॥ प्रत्यूचे क्षुल्लकोऽप्येवमशौचं सुरतं खलु । तत्सेवकश्च पाखण्डी त्रयीबाह्यः स एव हि ॥ ३० ॥ त्रय्यामर्थोऽयमप्कुम्भः कण्डनी पेषणी तथा । चुल्ली प्रमार्जनी पञ्च सूनाः पापाय गेहिनाम् ॥३१॥ सेवन्ते य इमाः सूनास्त्रयीबाह्या हि ते खलु । सूनापञ्चकहीनास्तु त्रयीबाह्याः कथं वयम् ? ||३२|| अस्माकमपदोषाणां दोषवत्सु जनेषु भोः ! । म्लेच्छेषूत्तमजातीनामिव वासश्च नोचितः ॥ ३३॥ इत्थङ्कारं क्षुल्लकेन सुयुक्तिभिरंपोदितः । स्वस्थानं सोऽगमन् मन्त्री राजा राजजनोऽपि च ॥३४॥ स मन्त्री निशि चोत्थाय निशाचर इवोत्कटः । ज्वलन्निवाऽतिक्रोधेन तद्वधाय समाययौ ॥ ३५॥ शासनदेव्या च वार्तिकेनेव पन्नगः । स स्तम्भितः प्रभाते च ददृशे विस्मितैर्जनैः ॥ ३६ ॥ आश्चर्यं प्रेक्ष्य तद् राजा लोकाश्च बहवस्तदा । श्रुत्वा धर्ममुपाशाम्यन् विमदा इव दन्तिनः ||३७|| तथाऽपमानान्नमुचिर्नगरं हस्तिनापुरम् । ययौ स्थानं विदेशो हि मानिनामपमानिनाम् ||३८|| युवराजो महापद्मः स्वसाचिव्ये चकार तम् । अभ्यागतेऽन्यनृपतिप्रधाने ह्यर्थिनो नृपाः ॥ ३९ ॥ 1 इतश्च प्रान्तवास्तव्यो नाम्ना सिंहबलो नृपः । दुर्गस्थ इत्यतिबली नभःस्थ इव राक्षसः ॥ ४० ॥ अवस्कन्दमवस्कन्दं महापद्यस्य मैण्डलम् । प्राविशत् स्वं पुनर्दुर्गं न धर्तुं कोऽपि तं क्षमः ॥४१॥ रुषितोऽथ महापद्मोऽवोचन्नमुचिमन्त्रिणम् । क्वचित् किञ्चिदिहोपायं वेत्सि सिंहबलग्रहे ? ॥४२॥ सोऽप्यूचे देव! वेद्मीति वचो वच्मि कथं ह्यहम् ? । गेहेर्नैर्दीत्यपवाद: सुलभः गर्जतां गृहे ॥४३॥ कृत्वोपायं फलेनैव स्वामिनो दर्शयाम्यहम् । उपायं वचसा वक्तुं कातरा अपि पण्डिताः ॥४४॥ इत्युक्त्वा हृष्टचित्तेन महापद्येन तत्क्षणम् । स आदिष्टो ययौ तस्य दुर्गं वायुरिवाऽस्खलन् ॥४५॥ तीक्ष्णोपायः स तद्दुर्गं भङ्क्त्वा सिंहबलं च तम् । मृगं सिंह इवाऽऽदाय महापद्ममुपाययौ ॥४६॥ वरं वृणीष्वेति महापद्येनाऽभिहितो मुदा । ऊचे नमुचिमन्त्र्येवमादास्ये समये वरम् ॥४७॥ एवं च प्रतिपन्नार्थो यौवराज्यमपालयत् । महापद्मो नमुचिना कृतसाचिव्यमुच्चकैः ॥४८॥ "ज्वालयाऽथ महापद्ममात्राऽर्हत्प्रतिमारथः । कैर्णीरथ इवाऽऽकारि भवसागरतारणे ॥४९॥ मिथ्यादृष्ट्या च सपत्नीमात्रा लक्ष्म्यभिधानया । अकार्यत ब्रह्मरथस्तर्प्रतीपविधित्सया ॥५०॥ अयं ब्रह्मरथः पूर्वं परिभ्रमतु पत्तने । पश्चादर्हद्रथ इति लक्ष्म्याऽयाच्यत भूपतिः ॥ ५१ ॥ ऊचे ज्वालाऽपि राजानं न प्राग् जैनरथो यदि । यात्रां करिष्यति पुरे तदा ह्यनशनं मम ॥ ५२ ॥ ततश्च संशथापन्नो रथयोरुभयोरपि । यात्रां राजाऽरुणत् का हि मध्यस्थस्याऽपरा गतिः ? ॥ ५३ ॥ ततश्च मातृदुःखेन महापद्मोऽतिपीडितः । निशि सुप्तेषु लोकेषु निर्ययौ हस्तिनापुरात् ॥५४॥ स गच्छन्नुन्मुखः स्वैरं प्रापदेकां महाटवीम् । तत्राऽपि पर्यटन्नेकमपश्यत् तापसाश्रमम् ॥ ५५ ॥ तापसैः कृतसत्कारः प्रियौतिथिसमागमैः । प्रावर्त्तत महापद्मस्तत्र स्थातुं स्ववेश्मवत् ॥५६॥ T इतश्च पुर्यां चम्पायां नृपतिर्जनमेजयः । रुद्धः कालनरेन्द्रेण युयुधे च ननाश च ॥५७॥ भज्यमाने पुरे तत्र नेशुरन्तःपुरस्त्रियः । कुरङ्ग्य इव दिङ्मूढा दीप्यमाने दवानले ॥ ५८।। चम्पेस्य नागवती प्रिया स्वसुतया सह । प्रणष्टा मदनावल्या तत्राऽगात् तापसाश्रमे ॥५९॥ पद्मस्य मदनावल्याश्चाऽन्योऽन्यमदनास्त्रयोः । जज्ञे दर्शनमन्योऽन्यमनुरागश्च तत्क्षणम् ॥६०॥ १. ऋग्वेदादिवेदत्रयीबाह्याः ॥ २. अस्मद्देशे निवासयितुं यूयं न युक्ताः ॥। ३. जलस्थानम् ॥ ४. जीवानां वधस्थानं सूनोच्यते, 'सूना स्थानं वधस्य यत् ' (अभि. चिन्ता श्लो. १३) ॥ ५. सयुक्ति० खंता पाता । ६. निरस्त: ।। ७. गारुडिकेन । ८. तिरस्कृतानाम् ; मानिनामपमानतः पाता. ॥ ९. उपद्रुत्योपद्रुत्य ॥ १०. देशम् ।। ११. गेहेशूरः ।। १२. वायुरिवाऽस्खलत् मु. ॥ १३. प्रवहणम् ॥ १४. प्रतीपं प्रतिकूलम् ॥ १५. प्रियोऽतिथिसमागमो येषां ते ।। १६. हरिण्यः ॥ १७. अन्योऽन्यं प्रति मदमात्रतुल्ययोः ॥ (षष्ठं पर्व For Private Personal Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । जातानुरागां तां ज्ञात्वा जनन्येवमवोचत । पुत्रि! मा चापलं कार्षी मित्तिकवच: स्मर ॥६॥ त्वं हि नैमित्तिकेनैवमाख्याताऽसि भविष्यसि । प्रधानपत्नी षट्खण्डभरतक्षेत्रशासितुः ॥६२।। पुरुषे यत्र तत्राऽपि माऽनुरागं तत: कृथाः । संयता तिष्ठ समये चक्री त्वां परिणेष्यति ॥६३॥ तद्विप्लवभयात् पद्ममूचे कुलपतिस्ततः । यत्राऽचालीस्तत्र वत्स! गच्छ स्वस्त्यस्तु तेऽनघ! ॥६४॥ श्रुत्वा दध्यौ कुमारोऽपि युगपद् द्वौ न चक्रिणौ । चक्री भाव्यहमेवेह तन्ममैव हि पत्न्यसौ ॥६५॥ निश्चित्यैवं महापद्मो निर्गतस्तापसाश्रमात् । पर्यटन्नासदत् सिन्धुसदनं नाम पत्तनम् ॥६६॥ तदा च बहिरुद्याने पौरनार्यो मधत्सवे। चिक्रीडर्विविधं तत्र स्थिता: कन्दर्पशासने ॥६७।। तत्केलितुमुलं श्रुत्वा महासेनमहीपतेः । स्तम्भमुन्मूलयामास कदलीकाण्डवत् करी॥६८॥ निपात्याऽऽरोहको सद्यः शय्यासंसक्तरेणुवत् । अङ्गे वायोरपि स्पर्शासह उत्तब्धरोमकः ॥६९।। प्रतिकारैः प्रतिकाराक्षमैर्मुक्तोऽतिदूरतः । ता: पौरनारीर्निकषा झगित्येव स आययौ ॥७०॥युग्मम्।। पलायितुं न शेकुस्तास्तस्थुस्तत्रैव साध्वसात् । नक्राक्रान्तमरालीवत् तारतारं च चुक्रुशुः ॥७१॥ क्रोशन्ती: प्रेक्ष्य ता: सानुक्रोशं पद्मोऽभिधाव्य तम् । इत्थं ततर्ज रे व्याल! पश्याऽर्वाग् मददुर्मद! ।।७२।। कुमाराभिमुखं रोषाद् ववले व्यालकुञ्जरः । कम्पयन् काश्यपी पादन्यासैः शुषिरिणीमिव ॥७३॥ अस्मद्रक्षाकृते कोऽपि महात्माऽऽत्मानमक्षिपत् । यमास्यस्येव करिण: पुर इत्यवदन् स्त्रियः ॥७४।।। क्षणेनाऽभ्येयुषोऽभ्यर्णं तस्य व्यालस्य सन्मुखम् । ऊर्ध्वं वासोऽक्षिपत् पद्मश्छद्माऽपि क्वाऽपि शोभते ॥७५॥ कुमारबुद्ध्या तद्वासो मुहुर्विव्याध सिन्धुरः। आन्ध्याय क्रोध एकोऽपि कि पुनर्मदमूर्च्छित: ? ॥७६॥ तदा च तुमुलेनोच्चैरमिलन्नागरो जनः । समं सामन्तसेनेशैर्महासेनश्च भूपतिः ॥७७।। महासेनोऽवदत् पद्मं दोष्मन्नपसर द्रुतम् । अकालमृत्युनाऽनेन करिणा रोषितेन किम् ? ॥७८।। पद्मोऽपि निजगादैवं युक्तमुक्तं त्वया नृप! । परं न मे युक्तमिदं यदारब्धस्य मोक्षणम् ।।७९।। वशीकृतमिमं व्यालमव्यालमिव जन्मतः । वाह्यमानं मया पश्य मा भूः सौजन्यकातरः ।।८०॥ एवमुक्त्वा कुमारेण मुष्टिवज्रेण ताडित: । प्रच्छादनपटीवेधन्यग्मुख: स महाकरी ॥८१॥ ग्रहणाय कुमारस्योत्तस्थौ यावदिभः स तु । स तावद् विधुदुत्क्षिप्तकरणेनाऽऽरुरोह तम् ।।८२॥ आसनैश्च नवनवैः स मण्डूकासनादिभिः । अग्रत: पार्श्वतश्चाऽपि विचरंस्तमखेदयत् ।।८३।। कुम्भदेशे चपेटाभिः कण्ठे चाऽङ्गुष्ठपीडनैः । पादन्यासेन पृष्ठे च स पञनाऽऽकुलीकृतः ॥८४॥ सविस्मयैर्वीक्ष्यमाण: पौरैः साध्वितिवादिभिः । नृपेण बन्धुबुद्ध्या च वर्ण्यमानपराक्रमः ॥८५।। भ्रमयामास तं नागमारोहकपुरन्दरः । कुमार: कारयन् क्रीडां स्वैरं कलभलीलया ॥८६॥[युग्मम्] आरोहकायाऽपरस्मै तं समर्प्य च सिन्धुरम् । कक्षां गृहीत्वाऽवारोहदंपरायां पदं ददत् ॥८७।। तं च विक्रम-रूपाभ्यां प्रधानकुलभूरिति । राजा वितर्कयामास निन्ये च निजवेश्मनि ॥८८॥ निजं कन्याशतं तेन भूपति:पर्यणाययत् । गृहागतो वरस्तादृक् पुण्यैरेव ह्यवाप्यते ॥८९।। ताभिर्भोगान् कुमारस्य भुञ्जानस्याऽप्यहर्निशम् । स्मरणं मदनावल्या नित्यशल्यमिवाऽभवत् ॥१०॥ पसोऽन्यदा निशि पर्यङ्के सुप्तो हंस इवाऽम्बुजे । विद्याधर्या वेगवत्याऽपजहे वायुवेगया ॥९१।। निद्राच्छेदे च किं क्षुद्रे! हरसे मामिति ब्रुवन् । मुष्टिमुत्पाटयामास कुमारो वज्रगोलवत् ।।१२।। साऽप्यूचे मा कुप: स्थामशालिन्नवहितः शृणु। अस्ति सूरोदयं नाम पुरं वैताढ्यपर्वते ।।९३॥ १. वसन्तोत्सवे ॥२. हस्तिपकौ ॥ ३. प्रती० मु. ॥ ४.०र्मुक्तो विदूरत: मु.॥५. भयात् ।। ६. सदयं यथा स्यात् तथा ॥ ७. हे दुष्टगज! ।। ८. पृथ्वीम् ।। ९. छिद्रसहितामिव ।। १०. यममुखस्य ॥ ११. आगच्छतः ।। १२. अन्धत्वाय; आध्याय: मु. ॥ १३. परं व्रीडाकरं तन्मे मु.॥ १४. मत्तमिमं गजं जन्मत: शान्तमिव ॥१५. बाध्यमानं मु.॥१६. सौजन्येन कातर:-'कायर' भीरुः ॥ १७. आच्छादनवस्त्रस्य वेधे अधोमुखः ॥ १८. विद्युद्वदुत्प्लुतगत्या ॥१९. आरोहकेषु हस्तिपकेषु पुरन्दर:-इन्द्रः श्रेष्ठ इति यावत् ॥ २०.कारयामास तम् ला. पा. छा. ॥ २१. हस्तिबन्धनरज्जुम् ।। २२. अवातरत् ।। २३. पृथिव्याम् ॥ २४. दधत् मु. ।। २५. स्थाम्ना तेजसा शोभमान! ।। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (षष्ठं पर्व तत्राऽस्तीन्द्रधनुर्नाम विद्याधरनरेश्वरः । श्रीकान्ता नाम तद्भार्या जयचन्द्रा तयोः सुता ।।९४॥ अनुरूपवराप्राप्त्या जयचन्द्रा च साऽभवत् । पुरुषद्वेषिणी जीवन्मृता हीनवरा: स्त्रियः ॥९५॥ पटेष्वालेख्य रूपाणि भरतक्षेत्रभूभुजाम् । दर्शितानि मया तस्यै न किञ्चिदरुचत् परम् ।।१६।। पटे त्वद्रूपमन्येधुर्लिखित्वा दर्शितं मया। द्राक् तस्या हदि कामेन कामं च निदधे पदम् ॥९७।। पुरुषद्वेषिणी सा प्राग् जीवितद्वेषिणी तंत: । बभूव मन्यमाना त्वां दुर्लभं प्राणवल्लभम् ।।९८|| पतिर्भवति वा मेऽसौ पद्म: पद्मोत्तरात्मजः । मरणं शरणं वा मे प्रतिज्ञामिति साऽकरोत् ॥९९।। तस्यास्त्वय्यनुरागं तं पित्रोरहमचीकथम् । अनुरूपवरेच्छातस्तत्क्षणान्मोदमानयोः ॥१००॥ अहं वेगवती नाम महाविद्याधरी प्रभो! । ताभ्यामस्मि समादिष्टा त्वदानयनहेतवे ॥१०१॥ तवानुरागिणीं चैतामाश्वासयितुमब्रुवम् । सुभ्रु! स्वस्था भवाऽद्यैव तत्र यास्यामि नन्वहम् ।।१०२।। आनेष्यामि महापद्मं तव हृत्पद्मभास्करम् । नो वा वह्निं प्रवेक्ष्यामि क्षामीकुरु मनोरुजम् ।।१०३।। एवं तामहमाश्वास्य तदाश्वाससुधाकरम् । इहोपेत्य नयामि त्वामुपकार्यसि मा कुपः॥१०४॥ साऽथ तं तदनुज्ञाता सूरोदयपुरेऽनयत् । आभियोग्यधुसद्यानप्रायानल्पेन रंहसा ।।१०५।। प्रभाते सूरवत् सूरोदयनाथेन पूजितः । जयचन्द्रामुपायंस्त स चन्द्र इव रोहिणीम् ॥१०६।। जयचन्द्रामातुलजौ गङ्गाधर-महीधरौ । महाविद्याधरौ विद्यामददोर्मददुर्धरौ ।।१०७।। तद्विवाहं समाकर्ण्य सद्यश्चकुपतुस्तराम् । एकद्रव्याभिलाषो हि महद्वैरस्य कारणम् ॥१०८।। तौ च सर्वाभिसारेण शूरौ सूरोदये पुरे । समयतुर्योधयितुं जयचन्द्रापतिं युतौ ॥१०९॥ विद्याधरपरीवारो दुर्वारभुजविक्रमः । नगरान्निरगात् पद्मोऽप्यच्छद्मरणकौतुकी॥११०॥ स कांश्चित्रासयन् कांश्चिन्निघ्नन् कांश्चिच्च मारयन् । लीलयाऽयोधयद् वैरिसैन्यान् हरिरिव द्विपान् ॥१११।। विद्याधरपती तौ च गङ्गाधर-महीधरौ । स्वसैन्यभङ्गमालोक्य जीवग्राहं प्रणेशतुः ॥११२।। पाततश्चोत्पन्नचक्रादिरत्न: पद्मोत्तरात्मजः । षट्खण्डभरतक्षेत्रविजयं विदधे बली ॥११३॥ स्त्रीरत्नेन विना तस्य चक्रिऋद्धिरपूर्यत । इन्दो: सितचतुर्दश्यां पूर्णतेव कलां विना ॥११४।। पूर्वदृष्टां स्मरंस्तां च स्त्रीरत्नं मदनावलीम् । तदाश्रमपदं पद्मः क्रीडयैव ययौ पुनः॥११५॥ आतिथ्यं तापसाश्चक्रुस्तस्मै तत्र भ्रमन् गतः । जनमेजयराजस्तु ददौ तां मदनावलीम् ॥११६।। पूर्णचक्रधरर्द्धि: स प्रययौ हस्तिनापुरम् । ननाम पितरौ प्राग्वन्मुदितौ मुदितोऽधिकम् ॥११७॥ स्वसूनोश्चरितं तच्चाऽऽकर्ण्य कर्णरसायनम् । सोच्छ्वासौ पितरौ तत्राऽभूतां सिक्ताविव द्रुमौ ॥११८।। पातदा च सुव्रतो नाम मुनिसुव्रतदीक्षितः । आचार्यो विहरंस्तत्र समेत्य समवासरत् ॥११९॥ तं गत्वा सपरीवारो राजा पद्मोत्तरोऽनमत् । तद्देशनां च शुश्राव भववैराग्यमातरम् ॥१२०॥ संस्थाप्य तनयं राज्ये दीक्षायै यावदेम्यहम् । स्वामिंस्तावदिह स्थेयमित्याचार्यं नृपोऽवदत् ।।१२।। न प्रमादो विधातव्य इत्युक्तः सूरिणा तु सः। तत्पादानभिवन्द्य स्वं प्राविशन्नगरं नृपः ॥१२२॥ आहूयाऽमात्य-सामन्तप्रभृती: प्रकृतीर्निजा: । सुतं विष्णुकुमारं चेत्यूचे पद्मोत्तरो नृपः ।।१२३।। दुःखाब्धिरेष संसारस्तपोषाय च देहिनः । प्रवृत्ती रोगितस्येवाऽपथ्येच्छा रोगवृद्धये ।।१२४।। भवे मे पतत: पुण्यैरिहाऽऽगात् सुव्रतः प्रभुः । उपकूपं गतस्येवाऽन्धस्य बाहुप्रदो नरः ॥१२५।। अद्य विष्णुकुमारस्तद्राज्ये संस्थाप्यतामयम् । व्रतं सुव्रतपादान्ते ग्रहीष्यामि ध्रुवं त्वहम् ।।१२६॥ १.०किञ्चिद् रुरुचे परम् खंता. ॥ २. अत्यन्तम् ।। ३. तव खंता. पाता. ॥४. तां च विश्वासयितुमब्रुवम् हे., मब्रवम् मु.॥५. सुस्था हे. पाता. ॥ ६. मन:पीडां अल्पां कुरु ॥७. आभियोगिकदेवविमानतुल्येनाऽनल्पेन वेगेन ।। ८. सूर्यवत् ।। ९. सैनिकान् ॥१०. जीवं गृहीत्वा ॥११. हृष्टः, पद्मविशेषणम् ।। १२. एमि-आगच्छामि ।। १३. दुःखपोषणाय ।। १४. कूपसमीपम् ।। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७ अष्टमः सर्गः) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । विष्णुरप्यभ्यधत्तैवं कृतं राज्येन तात! मे। त्वामनु प्रव्रजिष्यामि व्रजिष्यामि त्वदध्वना ॥१२७॥ राजाऽथ पद्ममाहूय सोपरोधमभाषत । वत्सोपादत्स्व राज्यं नः प्रव्रजामो यथा वयम् ॥१२८॥ अभ्यधात् प्राञ्जलि: पद्मस्तात! तातसमे मम। आर्ये विष्णुकुमारे सत्येतन्न खलु युज्यते ॥१२९।। राज्येऽभिषिच्यतां विष्णुरलम्भूष्णुर्जगत्यपि । भवामि युवराजोऽस्य पदातिवदहं पुनः ॥१३०॥ ऊचे राज्ञाऽभ्यर्थितोऽपि नैष राज्यं जिघृक्षति। जिघृक्षति परिव्रज्यां किन्तु सार्धं मयैव हि ॥१३१॥ आत्तमौनस्तत: पद्म: पद्मोत्तरमहीभुजा। राज्येऽभिषिच्ये चक्रित्वाभिषेकेण सहैव हि ॥१३२॥ कृतनिष्क्रमणस्तेन सुव्रतांहितले व्रतम् । पद्मोत्तरनृपो विष्णुकुमारेण सहाऽऽददे ॥१३३।। स्वपुरेऽभ्रमयत् पद्मोऽप्यार्हतं मातृकं रथम् । पूज्यमानं जनैः सर्वैः स्वशासनमिवाऽवनौ ॥१३४।। रथभ्रमणकालं तु तेऽपि सुव्रतसूरयः । तस्थुस्तत्रैव नगरे समं पद्मोत्तरादिभिः ॥१३५॥ चक्रे जिनप्रवचनस्योन्नति: पद्मचक्रिणा । स्वकीयस्येव वंशस्य चरित्राद्भुतशालिना ॥१३६।। ग्रामाकर-पुर-द्रोणमुखादिषु स उच्चकैः। कोटिशोऽकारयच्चैत्यान्यद्रीनिव नवोत्थितान् ॥१३७|| विहृत्य गुरुभिः सार्धं पालयित्वोत्तमं व्रतम् । उत्पन्नकेवल: सिद्धिं पद्योत्तरमुनिस्त्वगात् ॥१३८॥ मुनिर्विष्णुकुमारोऽपि तप्यमानोऽद्भुतं तपः । तपोमहिम्ना समभूत् सञ्जातानेकलब्धिकः ॥१३९॥ उत्तुङ्गो मेरुवद् व्योमचारी विहंगराजवत् । गीर्वाणवत् कामरूपो रूपवान् मीनकेतुवत् ॥१४०।। इत्यादि विविधावस्थो भवितुं प्रबभूव सः । बभूव न तु साधूनां लब्धिभोगोऽपदे न हि ॥१४१॥ तेऽन्यदा सुव्रताचार्याः साधुभिः परिवारिताः । प्रावृषोऽतिक्रमायैत्य न्यवसन् हस्तिनापुरे ॥१४२।। आचार्यागमनं ज्ञात्वा प्राग्वैरप्रतियातनाम् । चिकीर्षुर्नमुचिर्मन्त्री महापद्मं व्यजिज्ञपत् ।।१४३।। वर: प्राक्प्रतिपन्नो मे नरेन्द्रवर! दीयताम् । न्यासवत् प्रतिपन्नस्य नाऽस्ति नाशो महात्मसु ॥१४४॥ याचस्वेति स राज्ञोक्तेऽब्रवीद् यक्ष्याम्यहं तुम् । तदन्तावधि मे राज्यं देहि वाचं निजां स्मरन् ॥१४५॥ सत्यप्रतिज्ञो निदधे राज्ये नमुचिमन्त्रिणम् । अन्तरन्त:पुरं राजा प्रविवेश स्वयं पुनः॥१४६।। पुरान्निर्गत्य नमुचि: कपटात् क्रतुवाटके । अभवदीक्षित: पापो दुष्टध्यायी बैंकोटवत् ॥१४७।। तस्याऽभिषेककल्याणं कर्तुं प्रकृतयोऽखिला: । श्वेतभिक्षून विना सर्वे लिङ्गिनश्च समाययुः ॥१४८॥ एयुर्मी लिङ्गिन: सर्वे न त्वमी श्वेतभिक्षवः । मात्सर्यादिति तच्छिद्रमग्रे चक्रे स दुर्मतिः ॥१४९।। गत्वा च सुव्रताचार्यानिति साक्षेपमब्रवीत् । यो यदा स्यान्नपस्तं हि श्रयन्ते लिङ्गिनस्तदा ॥१५०॥ राजरक्ष्याणि हि तपोवनानीति तपोधनैः । राजाऽभिगम्यः क्रियते तपःषष्ठांशभाक् तथा॥१५१॥ मन्निन्दका: पुनर्पूयं स्तब्धा: पाखण्डिपांसना: । निर्मर्यादा विधातारो लोक-राजविरुद्धयोः ॥१५२॥ तद्यष्माभिर्न मे राज्ये स्थातव्यं गच्छताऽन्यतः । योऽत्र वः स्थास्यति स मे वध्यः खलु खलाशयः॥१५३॥ युग्मम् बभाषे सूरिरप्येवं न न: कल्प इति त्वयि । अभिषिक्ते न सम्प्राप्ता निन्दामश्च न कञ्चन ॥१५४॥ प्रत्यूचे स पुन: क्रुद्धः कृतमाचार्य! विस्तरैः । सप्ताहादिह तिष्ठन्तो निग्राह्या दस्युवन्मया ॥१५५।। पाइत्युक्त्वा स ययौ स्वौकः सूरिरप्यब्रवीन्मुनीन् । किं कर्तव्यमिह ब्रूत यथाशक्ति यथामति ॥१५६।। तत्रैक: साधुरित्यूचे षष्टिवर्षशतीं तपः । तप्तवान् विष्णुकुमारो मन्दरे सोऽस्ति सम्प्रति ॥१५७॥ सोऽग्रज: पद्मराजस्य तेन तद्वचनादसौ। शान्तिं यास्यति नमुचि: स्वामी सोऽप्यस्य पद्मवत ॥१५८॥ यो विद्यालब्धिमान् साधुस्तमानेतुं प्रयातु स: । उपयोगोऽपि लब्धीनां सङ्घकार्ये न दुष्यति ॥१५९॥ १. तव मार्गेण ॥२. आग्रहसहितम् ।। ३. पितृसदृशे॥ ४. ग्रहीतुमिच्छति ॥५. परिव्रज्यां किन्तु साधु गृ(ग्र)हीष्यति मयैव हि। हे. ॥६. गरुडवत् ॥७. कामदेववत् ।। ८. समर्थो बभूव, परं न कृतवानुपयोगमित्यर्थः ।। ९. अस्थाने ॥१०. प्रतियातना-प्रतिक्रिया ॥११. न्यास:-'थापण' ॥ १२. यज्ञम् ।। १३. यज्ञमण्डपे ॥१४. बकवत् ॥१५. अस्याभि० पाता. ॥१६. नागरिकाः ॥ १७. आचारः ॥ १८. किचन मु.॥१९. निग्रहपात्राणि ॥ २०. स्वगृहम् ।। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (षष्ठं पर्व अथैक: साधुरित्यूचे गन्तुं तत्र विहायसा । शक्नोमि न समागन्तुं ब्रूत यत्कृत्यमत्र मे ॥१६०॥ त्वां समानेष्यते विष्णुरेवेति गुरुणोदिते । उत्पत्य ता_वद् व्योम्ना क्षणात् पद्माग्रजं ययौ ॥१६१।। दृष्ट्वा विष्णुकुमारस्तं चिन्तयामासिवानिति । सङ्घकार्यं महद्वेगाद् वदत्यस्याऽऽगमो पुनः॥१६२।। प्रावृट्काले हि साधूनां विहारो नाऽन्यथा भवेत् । लब्धीनामुपयोगो हि न ते कुर्युर्यथा तथा ॥१६३।। एवं विचिन्तयन्तं तं स मुनिर्मुनिपुङ्गवम् । अभिवन्द्य समाचख्यौ तन्निजागमकारणम् ॥१६४॥ क्षणाद् विष्णुकुमारस्तं गृहीत्वर्षि विहायसा । आययौ हास्तिनपुरे ववन्दे चाऽऽत्मनो गुरून् ॥१६५॥ ततः साधुपरीवारो विष्णुर्नमुचिमभ्यगात् । सर्वैनमुचिवर्जं च ववन्दे पार्थिवादिभिः ॥१६६॥ विष्णुधर्मकथापूर्वं ससान्त्वमिदमभ्यधात् । यावत् प्रावृडिहैवाऽमी तिष्ठन्तु मुनयः पुरे ॥१६७॥ एकत्र स्वयमप्येते चिरकालं वसन्ति न । वर्षासु जन्तुबाहुल्याद् विहारस्तु न कल्पते ॥१६८।। गरीयसि पुरेऽमुष्मिन् भिक्षुभिर्भेक्षवृत्तिभिः । अस्मादृशैर्वसद्भिस्ते हानि: का नाम बुद्धिमन्! ? ॥१६९।। भरतादित्यसोमाद्यैर्वन्दिता: साधवो नृपैः । तथा न चेत् करोषि त्वं स्थातुं देहि तथाऽपि भोः! ॥१७०।। इत्युक्तो विष्णुना मन्त्री प्रत्यूचे कोपदारुणम् । अलमाचार्य! वचनैर्वस्तुं नेह ददामि वः ॥१७१॥ पुनरप्यभ्यधाद् विष्णु: प्रभविष्णुरपि क्षमी। वसन्तूद्यानमेवाऽमी नगरस्य बहि: स्थिताः ॥१७२।। जातामर्षो महर्षि तं व्यब्रवीत् सचिवब्रुवः । न सहे गन्धमपि व: संवासप्रार्थनैरलम् ॥१७३॥ पुरस्याऽन्तर्बहिर्वाऽपि निवास: श्वेतवांससाम् । दस्यूनामिव मर्यादाहीनानां न भविष्यति ॥१७४।। यदि व: प्राणितं प्रेयस्तदाऽपसरत द्रुतम् । अन्यथा वो हनिष्यामि तार्यो विषधरानिव ॥१७५।। इत्युक्त्योद्दीपितो विष्णुराहत्येव हताशनः । ऊचे तथाऽप्यहो! देहि स्थातुं नस्त्रिपदीमिह ॥१७६।। ततो नमुचिरित्यूचे दत्ता वत्रिपदी मया । यस्त्रिपद्या बहिर्व: स्यान्निहनिष्यामि तं खलु ॥१७७॥ एवमस्त्विति देहीति चोक्त्वा प्रववृधे मुनिः । किरीटी कुण्डली स्रग्वी धनु-र्वज्र-कृपाणभृत् ॥१७८॥ खेचरान् स्फारफूत्कारै शयन् जीर्णपर्णवत्। पद्मिनीपत्रवत् पाददर्दरैः कम्पयन् महीम् ॥१७९।। उल्लालयन् जलनिधीन् कल्पान्तपवमानवत् । प्रतीपगा आपगाश्च कुर्वाण: सेतुबन्धवत् ॥१८०।। ज्योतिश्चक्राणि पर्यस्यन् कर्करप्रकरानिव । दारयन् पर्वतवरानपि वल्मीकपुञ्जवत् ।।१८१॥ स महौजा महातेजा: सुरासुरभयङ्करः । वर्धमानः क्रमान्नानारूपो मेरुसमोऽभवत् ॥१८२॥चतुर्भि: कलापकम्।। त्रिजगत्क्षोभमालोक्य प्रसादनकृतेऽस्य तु। सहस्राक्ष: समादिक्षद् गायनी: सुरयोषितः ।।१८३।। कर्णमूले जगुस्तस्य गान्धारग्रामबन्धुरम् । सर्वज्ञोपज्ञशास्त्रानुरूपमेतन्निरन्तरम् ॥१८४ "कोपादिहाऽपि दह्यन्ते स्वार्थे मुह्यन्ति चाऽसकृत् । विपद्य चाऽनन्तदु:खं प्रयान्ति नरकं नरा:” ॥१८५।। इति कोपं शमयितुं किन्नरादिस्त्रियोऽपि हि । जगुश्च ननृतुश्चाऽग्रे तस्य विष्णुमहामुनेः ॥१८६॥ धरण्यां नमुचिं क्षिप्त्वा मध्येपूर्वापराम्बुधि । ददौ पादं जगद्वन्द्यपाद: पद्माग्रजो मुनिः ॥१८७॥ बापोऽपि ज्ञातवत्तान्त: समपेत्य ससंभ्रमः। चकित: स्वप्रमादेन मन्त्रिदोषेण तेन च ॥१८८॥ स्वमग्रजं महर्षिं तं नमस्कत्याऽतिभक्तितः । कताञ्जलिर्नेत्रजलक्षालितांहिरदोऽवदत ॥१८९।। तात: पद्मोत्तरोऽद्याऽपि चेतसा मम तिष्ठति । स्वामिन्! विजयिनि सति लोकोत्तरगुणे त्वयि ॥१९०॥ श्रीसङ्घाशातनां मन्त्रिपांसनेनाऽमना वहम । क्रियमाणां न जानामि ज्ञापितोऽस्मिन केनचित ॥१९॥ अपराधी तथाऽप्यस्मि भृत्य: पापो ह्यसौ मम । स्वामिनो भृत्यदोषेण गृह्यन्ते इति नीतिवाक् ॥१९२।। १. गरुडवत् ।। २. गृहीत्वार्षि मु.॥ ३. साधुकुमारोऽपि हे. ॥ ४. निवासं कर्तुम् ।। ५. आत्मानं सचिवं ब्रूते सः, दुष्टसचिवः ।। ६. जीवितं प्रियम् ।। ७. पादकुट्टनैः ।। ८. प्रतीपं-प्रतिलोमं गच्छन्ति ताः ॥९. सेतुबन्धुवत् खंता. पाता. ॥१०. इन्द्रः ।।११. पुनः पुनः ।।१२. पूर्वापरयोरम्बुध्यो:-समुद्रयोर्मध्ये ।। १३.०त्वहम् मु.॥ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम्। तथाऽहमपि ते भृत्यस्त्वं स्वामी परमो मम । गृह्यसे मम दोषेण तत् कोपमुपसंहर ।।१९३।। पापस्याऽस्याऽपराधेन त्रैलोक्यं प्राणसंशये। महात्मन्निदमारूढं त्रायस्व करुणानिधे! ॥१९४॥ एवमन्येऽपि विविधं सुरासुर-नरेश्वराः । तमृषि सान्त्वयामासुः श्रीसङ्घश्च चतुर्विधः॥१९५।। अतिशब्दपथां वृद्धि प्राप्तो यावन्न सोऽशृणोत् । पादस्पर्श व्यधुस्तस्य तावत् सर्वेऽपि भक्तित: ॥१९६।। पादस्पर्शेन सोऽधस्तादपश्यद् भ्रातरं पुरः । चतुर्विधं तथा सङ्घ सुरासुर-नृपानपि ॥१९७।। इत्थं च दध्यौ स मुनिः श्रीसङ्घोऽयं कृपापरः । अयं च दीनो मे भ्राता भीताश्चैते सुरादयः॥१९८॥ कोपोपसंहारकृते युगपत् सान्त्वयन्ति माम् । मान्य: सङ्घोऽनुकम्प्याश्च पद्मप्रभृतयो मम ॥१९९।। विमृश्यैवं वपुर्वृद्धिं संहृत्य स महामुनिः । तस्थौ प्रकृत्यवस्थायां गतवेल इवाऽर्णवः ॥२००॥ सङ्घानुरोधान्नमुचिं मुमोच स महामुनिः । तं मन्त्रिपांसनं सद्य: पद्मस्तु निर्रवासयत् ॥२०१।। तया त्रिपद्या स मुनिस्तत: प्रभृति पावनीम् । त्रिविक्रम इति ख्यातिमाससाद जगत्त्रये ॥२०२।। सङ्घकार्यं स तत्कृत्वा शान्तस्तप्त्वा तप: परम् । उत्पन्नकेवलो विष्णुकुमारः प्रययौ शिवम् ॥२०३।। पद्मोऽपि हि भवोद्विग्नस्त्यक्त्वा राज्यं पलालवत् । सद्गुरोः पादपद्मान्ते परिव्रज्यामुपाददे ॥२०४।। कौमारेऽब्दपञ्चशती मण्डलित्वेऽपि सैव हि। जये त्र्यब्दशती चक्रभृत्त्वे सप्तशतीयुता ।।२०५।। अष्टादशसहस्यब्दसहस्रास्तु व्रते दश । त्रिंशद्वर्षसहस्रायुरित्यभूत् पद्मचक्रभृत्(चक्रिण:) ॥२०६॥युग्मम्।। नानाविधाभिग्रहसुन्दराणि प्रतप्य तीव्राणि तपांसि पद्मः। घातिक्षयासादितकेवलर्द्धिः पदं ययौ शाश्वतशर्मधाम ॥२०७।। अत्र द्वौ जिन-चैक्रिणौ जिनपती चोभावुभौ चक्रिणौ रौमौ द्वौ च हैरी उभौ तिहरी चोभावमी कीर्तिताः । कीर्तिव्याप्तदिशश्चतुर्दश महात्मानः शलाकानरास्तेषां वृत्तमुदारमस्तु तदिदं लोकस्य कर्णातिथिः ॥२०८।। इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये षष्ठे पर्वणि श्रीपद्मचक्रवर्ति वर्णनो नामाऽष्टम: सर्ग:।। ॥ समाप्तं चेदं षष्ठं पर्व ॥ १. श्लोकोऽयं खंता.प्रतौ नाऽस्ति॥२. शब्दमार्गमतिक्रान्तां शब्दातीतामित्यर्थः ।। ३. देशाद् बहिष्कृतवान् ॥४. तृणवत्॥५. कौमारे वर्षाणि ५००मितानि ।। ६.मण्डलित्वे वर्षाणि ५००मितानि ॥७. दिग्विजये वर्षाणि ३००मितानि ।। ८. चक्रित्वे वर्षाणि १८सहस्र७००मितानि ।।९. व्रते वर्षाणि १०सहस्रमितानि ।। १०. आयुर्वर्षाणि ३०सहसमितानि ।। ११. कुन्थुनाथ-अरनाथौ जिनौ ॥१२. कुन्थुनाथ-अरनाथौ चक्रिणौ ॥१३. जिनपती मल्लिनाथ-मुनिसुव्रतौ ।। १४. चक्रिणौ सुभूम-महापद्यौ ॥१५. बलदेवौ आनन्द-नन्दनौ ॥१६.वासुदेवौ पुरुषपुण्डरीक-दत्तौ॥१७. प्रतिवासुदेवौ बलि-प्रह्लादौ।। एते चतुर्दशशलाकापुरुषाः ।। १८. कर्णातिथि मु.॥ १९. ० षष्ठे पर्वणि अष्टम:० खंता.॥ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥अर्हम् ।। कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविनिर्मितं त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् राम-लक्ष्मण-रावण-चरितप्रतिबद्धं सप्तमं पर्व ॥ ॥राक्षसवंश-वानरवंशोत्पत्ति-रावणजन्मवर्णन: प्रथम: सर्गः॥ अथ श्रीसुव्रतस्वामिजिनेन्द्रस्याऽञ्जनद्युतेः । हरिवंशमृगाङ्कस्य तीर्थे सञ्जातजन्मनः ॥१॥ बलदेवस्य पद्मस्य विष्णोरायणस्य च । प्रतिविष्णो रावणस्य चरितं परिकीर्त्यते॥२॥ भरतेऽत्र रक्षोद्वीपे लङ्कायां घनवाहनः । आसीद् रक्षोवंशकन्दो विहरत्यजितेऽर्हति ॥३।। स महारक्षसे राज्यं सुधीर्दत्त्वा स्वसूनवे। अजितस्वामिपादान्ते परिव्रज्य ययौ शिवम् ॥४॥ महारक्षा अपि चिरं राज्यं भुक्त्वा स्वनन्दने । देवरक्षसि संस्थाप्य प्रव्रज्य च शिवं ययौ ॥५॥ रक्षोद्वीपाधिपेष्वेवमसङ्ख्येषु गतेषु तु । श्रेयांसतीर्थेऽभूत् कीर्तिधवलो राक्षसेश्वरः ॥६॥ तदा च वैताढ्यगिरौ पुरे मेघपुराभिधे। विद्याधरनरेन्द्रोऽभूदतीन्द्रो नाम विश्रुतः ॥७॥ श्रीमत्यां तस्य कान्तायां श्रीकण्ठो नाम नन्दनः । देवीति नाम्ना दहिता चाऽभूद् देवीव रूपतः ।।८।। विद्याधरेन्द्रस्तां पुष्पोत्तरो रत्नपुरेश्वरः । सूनो: पद्मोत्तरस्याऽर्थे ययाचे चारुलोचनाम् ॥९॥ गुणिने श्रीमतेऽप्यस्मै तामतीन्द्रो ददौ न हि । ददौ कीर्तिधवलाय किन्तु दैवनियोगतः ॥१०॥ तां कीर्तिधवलोढां तु श्रुत्वा पुष्पोत्तरो नृपः । वैरायते स्माऽतीन्द्रेण श्रीकण्ठेन च मानदः ॥११॥ पाश्रीकण्ठेनैकदा मेरोर्निवृत्तेन व्युदैक्ष्यत । पुष्पोत्तरस्य दुहिता पद्मा पद्येव रूपतः ॥१२॥ मनोभवविकाराब्धिसमुल्लासनदुर्दिनम् । अन्योऽन्यमनुरागोऽभूत् सद्य: श्रीकण्ठ-पद्मयोः ॥१३।। तिष्ठते स्म कुमारी सा श्रीकण्ठायोन्मुखाम्बुजा । स्वयंवरम्रजमिव क्षिपन्ती स्निग्धया दृशा ॥१४॥ विज्ञाय तदभिप्रायं श्रीकण्ठस्तां स्मरातुरः । आदाय व्योममार्गेण गन्तुं प्रववृते द्रुतम् ॥१५॥ पद्मां हरति कोऽपीति पूत्कुर्वन्ति स्म चेटिकाः । पुष्पोत्तरोऽपि सन्नह्याऽन्वधावत् सेंबलो बली॥१६॥ श्रीकण्ठोऽपि द्रुतं कीर्तिधवलं शरणं ययौ । पद्माहरणवृत्तान्तं कथयामास चाऽखिलम् ॥१७॥ १. अह। नमः सर्वज्ञाय खंता.२; अर्ह, नमो वीतरागाय, सकलार्हत् नामाकृति० पाता./नमः श्रीसर्वज्ञाय ला. ॥२. अञ्जनस्येव द्युति: कान्तिर्यस्य तस्य ।। ३. हरिवंशे चन्द्रसमानस्य ।। ४. रामस्य ।। ५. लक्ष्मणस्य ।। ६. ला.प्रतौ तृतीयश्लोकस्थाने ७७सङ्ख्या: श्लोकाः सन्ति । तेषु च आद्यश्लोकद्वयीं अष्टात्रिंशत्तमं एकोनाशीतितमं च श्लोकं मुक्त्वा शेषा: सर्वेऽपि श्लोकाः त्रिषष्टिशलाकागतश्रीअजितस्वामिचरिते चतुर्थे पञ्चमे च सर्गे क्रमश:३०३त: ३३५, १ त: ४० श्लोकत्वेन प्राप्यन्ते ॥ तत्राऽप्राप्तश्लोकचतुष्टयी त्वेवम् - “अस्त्यस्य जम्बूद्वीपस्य, द्वीपस्य भरते पुरी। नाम्ना ख्याता विनीतेति, शिरोमणिरिवाऽवनेः ।।३।। अस्यामिक्ष्वाकुवंशस्य, विततच्छत्रसन्निभ: । विश्वसन्तापहरण-श्चक्रभृत् सगरोऽजनि ॥४॥ सङ्गीतकैर्नाटकैश्च, विनोदैरपरैरपि । ततश्चाऽरंस्त सगरः, साम्राज्यश्रीलताफलैः ॥३८॥ विसूत्रिताऽमित्रबल:, सुत्रामेवैकविक्रमः । व्यधत्त लङ्कयो राज्यं, सुचिरं धनवाहनः ॥७९॥" ७. ययौ शिवम् खंता.१-२,पाता. ला. ॥ ८. च खंता. ।। ९. किन्तु कीर्तिधवलाय, ददौ विधिनियोगत: खंता.१-२,पाता. मो. ॥१०. दैवादेशात् ।। ११. कीर्तिधवलेन ऊढां परिणीताम् । कीर्तिधवलोदूढां श्रुत्वा० मो. ॥ १२. वैरं कृतवान् ।। १३. मानं द्यति-खण्डयति मानदः ॥ १४. कामविकार एव सागरस्तस्य समुल्लासने दुर्दिनम्, अनुरागविशेषणम् ।। १५. उन्नतं मुखमेव अम्बुजं कमलं यस्याः सा ॥१६. सैन्यसहितः॥ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (सप्तमं पर्व पुष्पोत्तरोऽपि तत्राऽऽशु प्राप सैन्यैर्निरन्तरैः । आशा: प्रच्छादयन्नद्भिर्युगान्त इव सागरः ॥१८।। दूतेन कीर्तिधवल: पुष्पोत्तरमभाषत । अविमृश्य प्रयासोऽयं मुधा व: साम्परायिकः ॥१९।। कन्या ह्यवश्यं दातव्या कस्मैचन तया यदि। स्वयं वृतोऽसौ श्रीकण्ठस्तदाऽसौ नाऽपराध्यति ॥२०॥ न तद्वो युज्यते योद्धं बुद्ध्वा स्वदुहितुर्मनः । कर्तुं वधूवरोद्वाहकृत्यमेव तु साम्प्रतम् ॥२१।। दूतीमुखेन पद्माऽपि तदैवेति व्यजिज्ञपत्। वृतो मया स्वयमयं हृताऽहं नाऽमुना पुनः ॥२२॥ इति पुष्पोत्तरः श्रुत्वा शान्तकोपोऽभवत् क्षणात् । प्रायो विचारचञ्चूनां कोप: सुप्रशम: खल ॥२३॥ श्रीकण्ठ-पद्मयोस्तत्रैवोत्सवेन महीयसा । कृत्वा विवाहं प्रययौ निजं पुष्पोत्तरः पुरम् ॥२४॥ पश्रीकण्ठं कीर्तिधवलोऽब्रवीदत्रैव तिष्ठ यत् । वैताढ्यशैले युष्माकं भूयांसो विद्विषोऽधुना ॥२५॥ अस्यैव राक्षसद्वीपस्याऽदूरेण मरुद्दिशि। विद्यते वानरद्वीपो योजनत्रिशतीमितः ॥२६॥ अन्येऽपि बर्बरकुल-सिंहलप्रमुखा: सखे! । द्वीपा मदीयास्तिष्ठन्ति भ्रष्टस्व:खण्डसन्निभाः॥२७॥ तेषामेकतमे क्वाऽपि राजधानी निधाय भोः! । सुखमास्स्वाऽविदूरत्वादवियुक्तो मया समम् ॥२८॥ न यद्यपि द्विषद्भ्यस्ते भयमस्ति मनागपि । तथाऽप्यस्मद्विप्रयोगभयान्न गन्तुमर्हसि ॥२९॥ सस्नेहमिति तेनोक्तस्तद्वियोगातिकातरः । श्रीकण्ठो वानरद्वीपनिवासं प्रत्यपद्यत ॥३०॥ कृत्वाऽधिवानरद्वीपं किष्किन्धाद्रौ महापुरीम् । किष्किन्धां नाम तद्राज्ये तं कीर्तिधवलो न्यधात् ।।३१।। पअद्राक्षीद् भ्राम्यतस्तत्र महादेहान् फलाशिनः । भूयसो वानरान् रम्यान् श्रीकण्ठपृथिवीपतिः ॥३२।। तेषाममारिमाघोष्य सोऽन्नपानाद्यदापयत्। सँच्चकुस्तानथाऽन्येऽपि यथा राजा तथा प्रजाः ॥३३॥ चक्रुश्चित्रे च लेप्ये च ध्वज-छत्रादिलक्ष्मसु । विद्याधरा वानरांस्ते तदा प्रभृति कौतुकात् ॥३४॥ वानरद्वीपराज्येन वानरैर्लक्ष्मभिस्तथा । वानरा इति कीर्त्यन्ते तत्स्था विद्याधरा अपि ॥३५।। श्रीकण्ठस्य सुतो जज्ञे वज्रकण्ठोऽभिधानतः । सोत्कण्ठो रणलीलासु सर्वत्राऽकुण्ठविक्रमः ।।३६।। नन्दीश्वरेऽथ श्रीकण्ठो यात्रायै शाश्वतार्हताम् । अमरान् गच्छतोऽद्राक्षीदास्थानीमास्थितो निजाम् ॥३७॥ वाजीव ग्रामपद्रस्थो वाजिनां मार्गयायिनाम् । तेषां दिविषदां सोऽथाऽन्वचालीद् भक्तितद्धनः ॥३८॥ विमानं गच्छतस्तस्य स्खलितं मानुषोत्तरे। तरङ्गिणीवेग इव मार्गवर्तिनि पर्वते ॥३९॥ प्राग्जन्मनि मया तेपे तपोऽल्पं खलु तेन मे । नन्दीश्वरार्हद्यात्रायां नाऽपूर्यत मनोरथः ॥४०॥ इति निर्वेदमापन्नः प्राव्राजीत् सद्य एव सः । तपस्तीव्रतरं तप्त्वा सिद्धिक्षेत्रमियाय च ॥४१॥ पाश्रीकण्ठतो वज्रकण्ठादिष्वतीतेष्वनेकश: ।मुनिसुव्रततीर्थेऽभूद् घनोदधिरवो नृपः ॥४२।। लङ्कापुर्यामपि तदा समभूद् राक्षसेश्वरः । तडित्केश इति नाम्ना जज्ञे स्नेहस्तयोरपि ।।४३।। अपरेास्तडित्केश: सान्त:पुरवधूजनः । ययौ क्रीडितुमुद्याने वरे नन्दननामनि ॥४४॥ क्रीडासक्ते तडित्केशे कोऽप्युत्तीर्य कपिर्दुमात् । श्रीचन्द्रायास्तन्महिष्या विलिलेख नखैः कुचौ ।।४५|| रोषोच्छ्वसितकेशस्तं तडित्केश: प्लवङ्गमम् । जघानैकेन बाणेनाऽसह्यो हि स्त्रीपराभव: ॥४६।। बाणप्रहारविधुरः किञ्चिद् गत्वा प्लवङ्गमः । एकस्य प्रतिमास्थस्य साधोरग्रे पपात सः ॥४७॥ सोऽदात् तस्मै नमस्कारं परलोकाध्वशम्बलम् । मृत्वा च तत्प्रभावेणाऽब्धिकुमारो बभूव सः॥४८॥ प्राग्जन्म सोऽवधेत्विाऽभ्येत्याऽवन्दिष्ट तं मुनिम् । वन्दनीय: सतां साधुर्युपकारी विशेषतः ।।४९।। अन्यानपि तडित्केशभटैस्तत्र प्लवङ्गमान् । हन्यमानान् स ऐक्षिष्ट सद्य: कोपेन चाऽज्वलत् ॥५०॥ १. निरन्तरम् ला.॥२. दिश: ।। ३. आच्छादयन्नद्भिर्यु० मो. ॥४. जलैः ॥५. युद्धसम्बन्धी प्रयासो यत्नः॥६. युक्तम् ॥७. अयं स्वयं मया वव्रे खंता.१२,पाता. मो. ता. ॥ ८. विचारचतुराणाम् ।। ९. वायव्यकोणे ॥१०. पतितस्वर्गखण्डसदृशाः ॥११. तेषामेकत्र कुत्राऽपि ला. मु.॥१२. सुखमात्स्वा० खंता.१-२। सुखं तिष्ठ ।।१३. वानरद्वीपे ला. ॥१४, सच्चकुस्तांस्तथाऽन्येऽपि मो. ॥ १५.प्रजा खंता.२,ला. ॥१६. लक्ष्म-चिह्नम् ।।१७. वानरा इति कीर्तिताः । ततो वानरलक्ष्माण खंता. १-२, वानरा इति कीर्तिताः। ततो वानरलक्ष्माणस्तस्थुर्विद्या० मो. ॥ १८. सभाम् ॥ १९. यथा ग्रामस्य पद्रे(पादरमां) स्थितोऽश्व: मार्गयायिनं वाजिनं दृष्ट्वा चलति तथा ।।२०. भक्तिसंयुतःमु.॥२१. नदीवेगः ।। २२. मोक्षम् ॥ २३.०घनोदधिरथो० मु.॥ २४. Jain Education रोषेण उच्छसिता-ऊर्वीभूता: केशा यस्य सः ॥ २५. बाणप्रहारेण विह्वलः ॥ २६. पाथेयम् ।। २७. स्थित: मो. ॥ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३ प्रथमः सर्गः) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम्। महाप्लवङ्गरूपाणि विकृत्याऽनेकशश्च सः । वर्षस्तरु-'शिलाजालैरुपदुद्राव राक्षसान् ॥५१॥ ज्ञात्वा दिव्यप्रयोगं तं तडित्केशस्तमुच्चकैः । आन!वाच कोऽसीति किमुपद्रवसीति च ॥५२॥ तत: सोऽब्धिकुमारोऽपि शान्तकोपस्तदर्चया। स्ववधं च नमस्कारप्रभावं च शशंस तम् ।।५३॥ लकेशस्तेन देवेन सहैवोपेत्य तं मुनिम् । इत्यपृच्छत् प्रभो! वैरहेतुः कः कपिना मम ? ॥५४॥ 'आचख्यौ मुनिरप्येवं श्रावस्त्यां मन्त्रिनन्दनः । दत्तो नाम पुराऽभूस्त्वं काश्यामेष तु लुब्धकः ॥५५॥ त्वमुपात्तपरिव्रज्योऽन्येधुर्वाराणसीमगा: । दृष्टोऽनेनाऽपशकुनमित्याहत्य निपातितः॥५६॥ माहेन्द्रकल्पे देवोऽभूश्च्युत्वा चेदृगिहाऽभवः । भ्रान्त्वा नरकमेषोऽभूत् कपिस्तद्वैरकारणम् ॥५७।। वन्दित्वा तं महासाधुमसामान्योपकारिणम् । अनुज्ञाप्य च लङ्केशं सोऽथ देवस्तिरोदधे ।।५८॥ तदाकर्ण्य तडित्केश: सुकेशे तनये निजे। राज्यं न्यस्य प्रवव्राज वव्राज च परं पदम् ॥५९।। किष्किन्धाराज्यमाधाय पुत्रे किष्किन्धिनामनि । दीक्षां घनोदधिरवोऽप्यादायेयाय निर्वृतिम् ॥६०॥ इतश्च वैताढ्यगिरौ नगरे रथनूपुरे । अभूत् तदानीमशनिवेगो विद्याधरेश्वरः ॥६॥ तस्याऽपि सूनुर्विजयसिंह इत्यभवजयी। विद्युद्वेगो द्वितीयस्तु तद्दोर्दण्डाविवाऽपरौ॥६२॥ गिरौ तत्रैव चाऽऽदित्यपुरे मन्दरमाल्यभूत् । विद्याधरनृपस्तस्य श्रीमालेति च कन्यका ॥६३॥ तस्या: स्वयंवरे तेनाऽऽहूता विद्याधरेश्वराः । ज्योतीषीवाऽधिविमानमधिमञ्चमुपाविशन् ।।६४॥ कथ्यमानान् प्रतीहार्या तान् विद्याधरपुङ्गवान् । पस्पर्श दृष्ट्या श्रीमाला कुल्या वृक्षानिवाऽम्भसा ॥६५॥ अन्यविद्याधरान् सर्वानतिक्रम्य क्रमेण सा। गत्वाऽवतस्थे किष्किन्धौ जाह्नवीव पयोनिधौ ॥६६॥ तस्य कण्ठे निचिक्षेप श्रीमाला वरमालिकाम् । भविष्यद्दोलताश्लेषसत्यङ्कारमिवाऽनघम् ॥६७|| उच्चैर्विजयसिंहोऽथ सिंहवत् प्रियसाहसः । भृकुटीभीषणमुख: सरोषमिदमभ्यधात् ॥६८।। निर्वासिता: पुराऽप्येते सदा दुर्नयकारिणः । वैताढ्यराजधानीत: सुराज्यादिव दस्यवः ॥६९।। तत् केनाऽमी इहाऽऽनीता दुर्नीता: कुलपांशना: । तदद्याऽपुनरावृत्त्यै निहन्म्येतान् पशूनिव ॥७०॥ इत्युदीर्य महावीर्यः सं उत्थाय यमोपमः । चचाल किष्किन्धिनृपवधायाऽऽयुधमुत्क्षिपन् ।।७१।। किष्किन्धित: सुकेशाद्या अन्ये विजयसिंहतः। रणायोत्तस्थिरे विद्याधरा पौरुषदुर्धराः ॥७२॥ दन्तादन्तिप्रवृत्तेभैरुत्स्फुलिङ्गीकृताम्बरः । कुन्ताकुन्तिमिलत्सादी शराशरिमिलद्रथी ॥७३॥ खेड्गाखझ्यापतत्पत्तिरसृक्पङ्किलभूतलः । रणस्तत: प्रववृते कल्पान्त इव दारुणः ॥७४।।युग्मम्।। चिरं युद्ध्वाऽथ बाणेन किष्किन्ध्यवरजोऽन्धकः । शिरो विजयसिंहस्याऽपातयत् फलवत् तरोः ॥७५।। त्रेसुश्च विजयसिंहगृह्या विद्याधरेश्वराः । निर्माथानां कुत: शौर्यं ? हतं सैन्यं ह्यनायकम् ॥७६।। श्रीमालां समुपादाय जयश्रियमिवाऽङ्गिनीम् । ययावुत्पत्य किष्किन्धिः किष्किन्धां सपरिच्छदः ॥७७॥ श्रुत्वा पुत्रवधोदन्तमकाण्डाशनिपातवत् । वेगेनाऽशनिवेगोऽगादधिकिष्किन्धिपर्वतम् ।।७८॥ किष्किन्धां नगरी सैन्यैः सोऽववेष्टदनेकशः । महाद्वीपस्थली द्वीपवतीपूर इवाऽम्बुभिः ॥७९॥ गहाया इव पञ्चास्यौ योद्धकामौ सहाऽन्धकौ । वीरौ सकेश-किष्किन्धी किष्किन्धाया निरीयतः ॥८॥ तत: सर्वाभिसारेणाऽशनिवेगोऽत्यमर्षणः । योद्धं प्रववते वीरस्तणवद गणयन पैरान ॥८॥ ततो विजयसिंहेभसिंहस्याऽऽजिमुखेऽच्छिदत् । शिरोऽन्धकस्य रोषान्धोऽशनिवेगो महाभुजः ॥८२॥ १.०शिखाजालै० मो. ॥ २. उपद्रवं करोषि ॥३. स्वसम्बन्धं मो. ॥४. वाणारसी० खंता.२, ला.॥५. दृष्टोऽनेनाऽपशकुनमित्याहत्य निपातितः मु.॥ ६. मारित: ।। ७. किष्किन्ध० ला. ॥ ८. महोदधिरवो० खंता.१-२, घनोदधिरथो० मु.॥९. शिवम् ।। १०. मन्दिरमाल्यभूत् पाता. ला. मु. ॥११. विमानेषु ।। १२. मञ्चेषु ।। १३. 'नीक' इति भाषायाम् ।। १४. भावी यो दोलताया आश्लेषस्तस्य सत्यङ्कार-शपथम् ॥ १५. निष्कासिताः ।। १६. स्वराज्या० पाता.।। १७. चौरा: ।। १८. कुलाधमाः ।। १९. समुत्थाय कां. मो. ॥ २०. दन्तादन्तियुद्धे प्रवृत्तैर्गजैः ।। २१. सादी अश्ववारः ।। २२. खड्गाखड्गियुद्धेन आपतन्त: पत्तयो यस्मिन् सः ॥२३. असृजा शोणितेन पङ्किलं भूतलं यस्मिन् सः ।। २४. अनुजो भ्राता ।।२५. विजयसिंहस्याऽपातयन्मस्तकं फलवत् तरो: ला. ॥ २६. विजयसिंहस्य पक्षस्थाः ।। २७. किष्किन्ध० खंता.१-२, पाता. ॥ २८. सोऽवेष्टयदनेकश: ला. पा. छा. मो., स चाऽवेष्टदनेकश: मु. ॥ २९. नदीपूरः ।। ३०. सिंहौ ।।३१. किष्किन्धौ० खंता.१-२, पाता. ॥ ३२. निर्जग्मुः ॥ ३३. सर्वबलेन ।। ३४. शत्रून् ।। ३५. Jain Education Int विजयसिंह एव गजस्तस्मिन् सिंहसदृशस्याऽन्धकस्य ।। ३६. रणमुखे 11 & Personal use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं ततो वानरसैन्यानि सदैत्यानि दिशोदिशम् । पवनास्फालिताम्भोदपटलानीव 'दुद्रुवुः ॥ ८३ ॥ सान्तःपुरपरीवारौ लङ्का-किष्किन्धनायकौ । पाताललङ्कां ययतुः क्वाऽप्युपायोऽपर्सर्पणम् ॥८४॥ निहत्य सुतहन्तारमाराधरमिव द्विपः । प्रशान्तकोप: समभूद् रथनूपुरपार्थिवः ॥ ८५॥ मुदितो वैरिनिर्घातान्निर्घातं नाम खेचरम् । स राजस्थापनाचार्यो लङ्काराज्ये न्यवेशयत् ॥८६॥ ततो निवृत्य वैताढ्ये स्वपुरे रथनूपुरे । अमरेन्द्रोऽमरावत्यामिवाऽगादशनिर्नृपः ॥८७॥ अन्येद्युर्जातसंवेगोऽशनिवेगनृपः स्वयम् । सहस्रारे सुते राज्यं न्यस्य दीक्षामुपाददे ॥८८॥ पुर्यां पाताललङ्कायां सुकेशस्याऽपि सूनवः । इन्द्राण्यामभवन् माली सुमाली माल्यवानपि ॥ ८९॥ श्रीमालायां च किष्किन्धेर्दो बभूवतुरात्मजौ। नाम्नाऽऽदित्यरजा रुक्षरजाश्चेति महाभुजौ ॥ ९० ॥ अपरेद्युश्च किष्किन्धिः सुमेरौ शाश्वतार्हताम् । यात्रां कृत्वा निवृत्तः सन्नपश्यन् मधुपर्वतम् ॥ ९१ ॥ किष्किन्धेर्विष्वगुद्याने तत्र मेराविवाऽपरे । मनोरमे मनो रन्तुं विशश्रामाऽधिकाधिकम् ॥९२॥ निधाय किष्किन्धपुरं तैस्योपरि पराक्रमी । न्यवात्सीत् सपरीवारः कैलास इव यक्षराट् ॥९३॥ पुत्रास्ते तु सुकेशस्य राज्यं श्रुत्वाऽरिभिर्हतम् । क्रुधा त्र्योऽग्नय इव जज्वलुर्वीर्यशालिनः ॥९४॥ ते समागत्य लङ्कायां निर्घातं खेचरं रणे । न्यगृह्णन् मृत्यवे हि स्याद् वीरैर्वैरं चिरादपि ।।९५।। ततश्च पुर्यां लङ्कायां राजा माली तदाऽभवत् । राक्षसद्वीपमुख्यानां द्वीपानामेकशासिता ॥९६॥ 'इतश्च वैताढ्यगिरौ नगरे रथनूपुरे । सहम्रारनरेन्द्रस्याऽशनिवेगाङ्गजन्मनः ॥९७॥ भार्यायाश्चित्रसुन्दर्या गर्भे कैश्चित् सुरोत्तमः । प्रच्युत्याऽवातरत् सद्यो दृष्टे सुस्वप्नमङ्गले ॥ ९८ ॥ युग्मम् || काले च दोहदस्तस्याः शक्रसम्भोगलक्षणः । दुष्पूरो दुर्वचश्चाऽभूद् देहदौर्बल्यकारणम् ॥ ९९ ॥ निर्बन्धेन तु सा पृष्टा कथञ्चिदपि दोहदम् । कथयामास तं पत्ये लज्जावनमदानना ॥ १००॥ सहस्रारः सहस्राक्षरूपं निर्माय विद्यया । तया शक्र इति ज्ञतः पूरयामास दोहदम् ॥ १०१ ॥ असूत समये सूनुमन्नभुजविक्रमम् । इन्द्र इत्युक्तनामानमिन्द्रसम्भोगदोहदात् ॥१०२॥ सम्प्राप्तयौवनायाऽस्मै विद्यादोर्वीर्यशालिने । ददौ राज्यं सहस्रारः स्वयं धर्मरतोऽभवत् ॥ १०३॥ ||स सर्वान् साधयामास विद्याधरनरेश्वरान् । इन्द्रंमन्यश्च सैमभूदिन्द्रदोहदजैन्मतः ॥१०४॥ दिक्पालांश्चतुरश्चक्रे सँप्ताऽनीकान्यनीकपान् । तिस्रः परिषदो वज्रमस्त्रमैरावणं द्विपम् ॥ १०५ ॥ रम्भादिका वारवधूर्मन्त्रिणं च बृहस्पतिम् । नैगमेषिसमाख्यं च पत्त्यनीकस्य नायकम् ॥१०६॥युग्मम्॥ एवं विद्याधरैरिन्द्रपरिवाराभिधाधरैः । इन्द्रोऽहमेवेति धिया सोऽखण्डं राज्यमन्वशात् ॥ १०७॥ मकरध्वजिरादित्यकीर्तिकुक्षिसमुद्भवः । तत्राऽभूत् सोमदिक्पालः प्राच्यां ज्योतिष्पुरेश्वरः ॥ १०८॥ वरुणा-मेघरथयोः पुत्रः पश्चिमदिक्पतिः । बभूव वरुणो विद्याधरो मेघपुरेश्वरः ॥ १०९॥ तनयः सूर-कनकावल्योरुत्तरदिक्पतिः । कुबेर इति विख्यातोऽभूत् काञ्चनपुरेश्वरः ॥ ११०॥ कालाग्नि-श्रीप्रभासूनुः किष्किन्धनगराधिपः । अभूदपौच्यां दिक्पालो यम इत्यभिधानतः ॥ १११॥ 1 - विद्याधरेन्द्रमिन्द्रं तमिन्द्रोऽहमिति मानिनम् । गन्धेभोऽन्यमिभमिव न सेहे मालिभूपतिः ॥ ११२ ॥ भ्रातृभिश्च मन्त्रिभिश्च मित्रैश्चाऽतुलविक्रमैः । स चचालेन्द्रयुद्धाय नाऽन्यो मन्त्रो हि दोष्मताम् ॥ ११३ ॥ सिंह-द्विपाश्व-महिष-वराह-वृषभादिभिः । यानैः प्रचेलुः खेऽन्येऽपि रक्षोवीराः सवानराः ||११४ || (सप्तमं पर्व १. नेशुः ।। २. पलायनम् ॥ ३. हस्तिपकम् ॥ ४. ऋक्षरजा० खंता. १-२, पाता.; ऊक्षरजा० ता. ॥ ५. मधुपर्वतस्योपरि ॥ ६. कुबेर: ।। ७. ( 1 ) दक्षिणाग्नि:, (2) गार्हपत्य:, (3) आहवनीयः एते त्रयोऽग्नयः ।। ८. स्याद् वैरं वीरैश्चि० छा. पा. ॥ ९. किष्किन्धायां तु किष्किन्धिगिराऽऽदित्यरजा नृपः मु. ॥ १०. अशनिवेगपुत्रस्य ॥ ११. सौधर्मवासवः मो. ॥ १२. आग्रहेण ॥ १३. इन्द्ररूपम् ।। १४. ख्यातः खंता. १ ।। १५. ०स पुनः प्राग्जन्मसंस्कारतोऽभवत् खंता. १ - २, हे. मो. ता. ।। १६. ०जन्मनः ला. ।। १७. सप्त सैन्यानि सप्त सेनापतीन् च ।। १८. नैगमेषिणा तुल्या अभिधा यस्य तम् ।। १९. मकरध्वजस्य पुत्रः ॥ २०. “पूर्वदिशि ज्योतिषपुरे माकरध्वजिः सोमदिक्पालः” टि. हे प्रतौ ॥ २१. “ पश्चिमदिशि मेघपुरे वरुणविद्याधर : दिक्पाल ” टि. हे. प्रतौ ॥ २२. “उत्तरदिशि काञ्चनपुरे कुबेरविद्याधरः दिक्पाल ” टि. हे प्रतौ ॥ २३. “दक्षिणदिशि किष्किन्धानगरे यमविद्याधरः दिक्पाल ” टि. हे. प्रतौ ॥ २४. एतच्चिह्नान्तर्गतः पाठः खंता. १ प्रतौ न दृश्यते ।। २५. आकाशे ।। For Private Personal Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः ) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । I रिष्टाः खराः फेरवश्च सारसाश्च ववाशिरे । दक्षिणस्था अपि फले 'तेषां वामत्वधारिणः ॥ ११५ ॥ अन्यान्यप्यशकुनानि दुनिर्मित्तानि चाऽभवन् । माली सुमालिना वारि प्रयाणाच्च सुमेधसा ॥ ११६॥ अवज्ञाय वचस्तस्य माली दोर्बलगर्वितः । जगाम वैताढ्यगिराविन्द्रमाह्वास्त चाऽऽजये ॥११७॥ इन्द्रोऽप्यैरावणारूढो पाणिनोल्लालयन् पविम् । सेनानाथैर्नैगमेषिप्रमुखैः परिवारितः ॥११८॥ सोमाद्यैर्लोकपालैश्च विविधायुधधारिभिः । विद्याधरभटैश्चाऽन्यै रणक्षेत्रमुपाययौ ॥ ११९ ॥ युग्मम् ॥ इन्द्र-राक्षससैन्यानां सेम्फेटोऽभूत् परस्परम् । तडिन्निभास्त्रभीष्माणामम्भोदानामिवाऽम्बरे ॥१२०॥ निपेतुः स्यन्दना: क्वाऽपि शिखराणीव भूभृताम् । पलायन्त गजा: क्वाऽपि वातोद्भूता इवाम्बुदाः ॥१२१॥ पेतुर्भटानां मूर्धानो राहुशङ्काप्रदाः क्वचित् । कृंत्तैकपादाः क्वाऽप्यश्वाश्चेलुः सैन्दानिता इव ॥१२२॥ अमर्षादिन्द्रसैन्येन मालिसैन्यमभज्यत । बलवानपि किं कुर्यात् प्राप्तः कैंसैरिणा करी ? ॥ १२३॥ अथ रक्ष:पतिर्माली सुमालिप्रमुखैर्वृतः । सयूथ इव वन्येभः संसंरम्भोऽभ्यधावत ॥१२४॥ गदा-मुद्गर-नाराचैः करकैरिव वारिदः । उपदुद्रावेन्द्रचमूं स वीर्यद्रविणेश्वरः ॥ १२५॥ सलोकपालः सानीकः सानीकपतिरुच्चकैः । इन्द्रोऽप्यैरावणारूढो डुढौके रणकर्मणे ॥१२६॥ स इन्द्रो मालिना लोकपालप्रभृतयः पुनः । सुमालिप्रमुखैः सार्धं योद्धुमारेभिरे भटाः ॥१२७॥ तेषां चिरमभूद् युद्धं प्राणसंशयकृन्मिथः । जैयाभिप्रायिणां प्राय: प्राणा हि तृणसन्निभाः ॥१२८।। इन्द्रो द्रागथ निर्देम्भरणो दम्भोलिनाऽवधीत् । विद्युतेवाऽम्बुदो गोधां मालिनं वीर्यमालिनम् ॥१२९॥ हते मालिनि वित्रेसू राक्षसा वानराश्च ते । सुमाल्यधिष्ठिताश्चेयुर्लङ्कां पातालवर्तिनीम् ॥१३०॥ विश्रवःसूनवे सद्य: कौशिकाकुक्षिजन्मने । लङ्कां वैश्रमणायाऽदादिन्द्रः स्वं च पुरं ययौ ॥१३१॥ पुर्यां पाताललङ्कायां तिष्ठतश्च सुमालिनः । प्रीतिमत्यां सधर्मिण्यां जज्ञे रत्नश्रवाः सुतः ॥१३२॥ सम्प्राप्तयौवनो रत्नश्रवो रम्यमथाऽन्यदा । जगाम कुसुमोद्यानं विद्यासाधनहेतवे ॥ १३३ ॥ तत्रैकत्र रह:स्थाने सोऽक्षमालाधरो जपन् । नासाग्रन्यस्तदृक् तस्थावलेखित इव स्थिरः ॥१३४॥ इत्थं च तस्थुषे तस्मै काऽपि तस्थौ समीपतः । विद्याधर्यनवद्याङ्गी कुमारी पितृशासनात् ॥ १३५॥ तदानीं च महाविद्या नाम्ना मानवसुन्दरी । अस्मि सिद्धा तवेत्युच्चै रत्नश्रवसमभ्यधात् ॥१३६॥ रत्नश्रवाः सिद्धविद्यो जपमालां मुमोच च । ददर्श च पुरेस्तात् तां विद्याधरकुमारिकाम् ॥१३७॥ इहागा हेतुना केन ? कस्य ? वा काऽसि ? वेति च । रत्नश्रवा बभाषे तां साऽप्येवं प्रत्यभाषत ॥१३८॥ "अनेककौतुकागारे पुरे कौतुकमङ्गले । विद्याधरपतिर्व्योमबिन्दुर्नामाऽस्ति विश्रुत: ॥१३९॥ तस्याऽस्ति ज्यायसी पुत्री कौशिका नाम मे स्वसा । ऊढा यक्षपुरेशेन राज्ञा विश्रवसा तु सा ॥ १४० ॥ या वैश्रवणो नाम बभूव तनयो नयी। राज्यं करोति लङ्कायां योऽधुना शक्रशासनात् ॥ १४१ ॥ अहं तु कैसी नाम कौशिकाया: कनीयसी । नैमित्तिकगिरा पित्रा दत्ता तुभ्यमिहाऽऽगमम् ॥१४२॥ आहूतबन्धुस्तत्रैवोपयेमे तां सुँमालिसः । पुष्पान्तकं पुरं न्यस्य चाऽस्थात् क्रीडंस्तया सह ॥ १४३॥ 'अन्यदा कैकसी स्वप्ने विशन्तं स्वमुखे निशि । कुम्भिकुम्भस्थलीभेदप्रसक्तं सिंहमैक्षत ॥ १४४॥ तया तं स्वप्नमाख्यातं व्याख्याद् रत्नश्रवाः प्रेंगे। सूनुस्ते विश्वशौण्डीरो भविष्यति महाभुजः || १४५।। स्वप्नादनन्तरं तस्माच्चैत्यपूजां चकार सा । बभार च महासारं गर्भं रत्नश्रवः प्रिया ॥१४६॥ 1 १२५ १. पक्षिविशेषा: ।। २. गर्दभा: । ३. शृगालाः ॥। ४. ववासिरे मु. विना; शब्दं चक्रुः ॥ ५. वीराणाम् ॥ ६. न्यषेधि ।। ७. युद्धाय ॥ ८. सुर राक्षस० खंता. १२, ता. हे. मो. ॥ ९. युद्धम् ।। १०. छिन्न एकः पादो येषां ते ।। ११. बद्धाः ॥ १२. केशरिणा मु. ।। १३. आवेशेन सह ॥ १४. 'करा' इति भाषायाम् ।। १५. वीर्यं बलमेव द्रविणं धनं, तस्य स्वामी १६. जयेच्छूनाम् ॥ १७. निर्दम्भं रणे पाता. ।। १८. वज्रेण ॥ १९. 'घो' इति भाषायाम् ॥ २०. धनदाय ददौ लङ्कामिन्द्रः हे. मो. ॥ २१. रत्नं रत्नाकरस्येव खंता. १ - २, हे. ता. ॥ २२. रत्नश्रवोऽन्येद्युर्मनोरमम् खंता. १ - २, मो. ॥ २३. चित्रित इव ॥ २४.०रूचे रत्नश्रवं प्रति खंता. १ - २, मो. ॥ २५. पुरस्थां मु. ॥ २६. आगताऽसि ॥ २७. रत्नश्रवो खंता. १-२, हे. ॥ २८. तस्याश्च धनदो० खंता १ - २, तस्या विश्रवणो० का. ला. ता. ॥ २९. आहूता बन्धवो येन सः ॥ ३०. सुमालिभूः ला ॥ ३१. कुसुमान्तं खंता. १ -२, हे. ता. ॥ ३२. कुम्भिनो गजस्य कुम्भस्थलभेदने प्रसक्तस्तत्परस्तम् ॥ ३३. प्रात: काले ॥ ३४. तस्मादनन्तरं स्वप्ना० कां ॥ ३५. महीसारं कां. ॥ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (सप्तमं पर्व तस्य गर्भस्य सम्भूते: प्रभृत्यत्यन्तनिष्ठुरा । वाणी बभूव कैकस्या दृढं चाऽङ्गं जितश्रमम् ॥१४७।। दर्पणे विद्यमानेऽपि सा खड्गेऽपश्यदाननम् । आज्ञां दातुमभिप्रैषीत् सुरराज्येऽप्यशङ्कितम् ॥१४८।। विनाऽपि हेतुं हुङ्कारमुखरं सा दधौ मुखम् । अनामयच्च मूर्धानं कथञ्चिन्न गुरुष्वपि ॥१४९॥ विद्विषां मूर्धसु चिरं पादं दातुमियेष सा । इत्यादिदारुणान् भावान् दधे गर्भप्रभावतः ॥१५०॥ प्रतिपक्षासनोत्कम्पं कुर्वाणस्तनयस्तया। साधिकद्वादशसमा-सहस्रायुरजन्यत ।।१५१॥ उल्ललन्सूतिकातल्पेऽनल्पौजा: कम्पयन् महीम् । उत्तानशय उद्दामपादकोकनदोऽथ सः ॥१५२॥ भीमेन्द्रेण पुरा दत्तं नेवमाणिक्यनिर्मितम् । चकर्ष पाणिना हारं पार्श्वस्थितकरण्डकात् ।।१५३॥युग्मम्।। कण्ठे चिक्षेप तं हारं बाल: सहजचापलात् । जगाम विस्मयं तेन कैकसी सपरिच्छदा॥१५४॥ रत्नश्रवसे साऽऽचख्यौ राक्षसेन्द्रेण य: पुरा । मेघवाहनराजाय दत्तस्त्वत्पूर्वजन्मने ॥१५५॥ अद्य यावद् देवतावद् योऽपूजि तव पूर्वजैः । न शक्यो वोढमन्यैर्यो नवमाणिक्यनिर्मितः ॥१५६। यश्च नागसहस्रेण निधानमिव रक्ष्यते। हार आकृष्य कण्ठेऽसौ सोऽक्षेपि शिशुना तव ॥१५७||त्रिभिर्विशेषकम्।। नवमाणिक्यसङ्कान्तमुखत्वात् तस्य तत्क्षणम् । नामधेयं 'दशमुख' इति रत्नश्रवा व्यधात् ॥१५८॥ शशंस चैव यन्मेरौ चैत्यवन्दनहेतवे। सुमालिना गतवता पृष्टस्तातेन कोऽप्यषिः ।।१५९।। चतुर्ज्ञानभृदित्याख्यद्धारं त्वत्पूर्वजन्मनाम् । यो वोढा नवमाणिक्यं सोऽर्धचक्री भविष्यति ॥१६०॥ पकैकसी सुषुवे चाऽन्यं भानुस्वप्नेन सूचितम् । भानुकर्ण इति सूनुं कुम्भकर्णापराभिधम् ॥१६१॥ चन्द्रतुल्यनखत्वेन नाम्ना चन्द्रणखां पुनः । ख्यातां सूर्पणखां लोके कैकसी सुषुवे सुताम् ॥१६२॥ कियत्यपि गते काले पुनश्चाऽसूत कैकसी। पुत्रं बिभीषणं नाम्ना शशाङ्कस्वप्नसूचितम् ।।१६३।। साग्रषोडशधनु:समुन्नतास्ते त्रयोऽप्यहरहः सहोदरा:। रेमिरे गतभया यथासुखं क्रीडयाऽऽद्यवयसोऽनुरूपया ॥१६४।। इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये सप्तमे पर्वणि राक्षसवंश-वानरवंशोत्पत्ति-रावणजन्म वर्णनो नाम प्रथम: सर्ग:।। १. कुर्वाण: समये तया । सूनुश्चतुर्दशसमा-सहस्रायु० खंता.१-२, हे. ता. ॥ २. स उल्ललत् सूतितल्पेऽनल्पोजा: खंता.१-२, ला. मो. का. ता. ॥ ३. डिम्भः ॥ ४. रक्तकमलम् ॥ ५. नवभिर्माणिक्यैर्निर्मितम् ।। ६. तव पूर्वजाय ।। ७. लीलयाऽऽकृष्य कण्ठेऽसौ खंता.१-२, हे. ता. ।। ८. कुम्भकर्ण पराभिधम् शतकमलम् ॥ ५. नवनिर्माणिERIT० खंता.१-२, हे. ता. Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥द्वितीयः सर्गः॥ अथाऽन्येधुर्दशमुखः सानुजोऽपश्यदम्बरे। विमानारूढमायान्तमृद्धं वैश्रवणं नृपम्॥१॥ कोऽयमित्यनुयुक्ता तु तेन माताऽब्रवीदिति। कौशिकाया मम ज्येष्ठभगिन्या ह्येष नन्दनः ।।२।। विश्रवोनामधेयस्य विद्याधरपतेः सुतः । सर्वविद्याधरेन्द्रस्येन्द्रस्याऽग्रसुभटो ह्ययम्॥३।। भवत्पितामहज्येष्ठं हत्वेन्द्रो मालिनं रणे । लङ्का सराक्षसद्वीपां ददावस्मै च नः पुरीम् ॥४॥ ततः प्रभृति लङ्काया: प्राप्त्यै कृतमनोरथः । इहाऽस्ति ते पिता वत्स! युक्तं शक्ते द्विषि ह्यदः ॥५॥ लङ्कां सराक्षसद्वीपां सह पाताललङ्कया। विद्यां चराक्षसी नाम पूर्वजन्मात्मजन्मने॥६॥ रक्षोवंशादिकन्दाय मेघवाहनभूभुजे। राक्षसेन्द्रो ददौ भीमः प्रतीकाराय विद्विषाम् ॥७॥युग्मम्।। तस्यां हतायामाम्नायराजधान्यामरातिभिः। पितामहस्तिष्ठति ते पिताऽपि च परसुवत्।।८।। अरक्षके क्षेत्र इवोक्षार्णस्तस्यामरातयः। स्वैरं चरन्तीति सदा जीवच्छल्यं पितुस्तव॥९॥ कदा नु सानुजस्तत्र गत्वा पैतामहासने। आसीनो द्रक्ष्यसे वत्स! मयका मन्दभाग्यया? ॥१०॥ विलोक्य लङ्कालुण्टाकांस्त्वत्कारायां नियन्त्रितान्। शिरोमणिर्भविष्यामि कदा पुत्रवतीष्वहम् ? ॥११॥ एवं मनोरथैर्वत्स! खपुष्पीवचयोपमैः । क्षामीभवाम्यहरहर्मरॉलीवमरौ गता॥१२॥ पाअथैवमवदद रोषभीषणाक्षो विभीषणः। अलं मातर्विषादेननवेत्सिसुतविक्रमम्॥१३॥ आर्यस्य दशकण्ठस्य पुरस्ताद् देवि! दोष्मत:। क इन्द्रो ? वैश्रवण: कः? केऽन्ये विद्याधरा अपि?॥१४।। अज्ञातपूर्विणा लङ्काराज्यं सोढं द्विषामिदम् । दशास्येन प्रसुप्तेन सिंहेनेवेभगर्जितम्॥१५॥ आस्तामार्यो दशग्रीवः परानतिभटानपि। अप्यार्य: कुम्भकर्णोऽयं नि:शेषीकर्तुमीश्वरः॥१६॥ अस्त्वार्य: कुम्भकर्णोऽपि तदादेशात् करोम्यहम्। द्विषामकाण्डे संहारं मात:! पात: पवेरिव ॥१७॥ अथोचे रावणोऽप्येवं दशनैरधरं दशन् । त्वं वज्रकठिनाऽस्यम्ब! यद्दुःशल्यमाश्चिरम् ॥१८॥ अप्येकबाहुस्थाम्ना तान् हन्यामिन्द्रादिकान् द्विषः । शस्त्राशस्त्रिकथाऽप्यस्तु वस्तुतस्ते तृणं हि मे॥१९॥ दोर्वीर्येणाऽपि निर्जेतुं यद्यप्यलमहं परान् । तथाऽपि हि प्रयोक्तव्या विद्याशक्तिः क्रमागता॥२०॥ तद्विद्या: साधयिष्यामि निरवद्या: समन्ततः । अनुजानीहि यास्यामि तत्सिद्ध्यै सानुजोऽप्यहम्॥२१।। एवमुक्त्वा नमस्कृत्य पितरौ सानुजोऽपि सः। ताभ्यां च चुम्बितो मूर्ध्निभीमारण्यमुपाययौ।।२२।। शयानशयुनि:श्वासकम्पमानान्तिकद्रुमम् । दृप्तशार्दूललाफूलाच्छोटस्फोटितभूतलम् ॥२३॥ अस्तोकघूकघूत्कारघोरभूरुहगह्वरम्। नृत्यद्भूतपदाघातपतगिरितटोपलम्॥२४॥ भयङ्करं दिविषदामप्येकं पदमापदाम्।भ्रातृभ्यां सहितस्ताभ्यां तदरण्यं विवेश सः॥२५||त्रिभिर्विशेषकम्।। पते जटामुकुटान् मूर्ध्नि धारयन्तस्तपस्विनः । अक्षसूत्रधरा नासावंशाग्रन्यस्तदृष्टयः॥२६॥ श्वेतांशुकभृतो यामद्वितयेन त्रयोऽपि हि। सर्वकामप्रदामष्टाक्षरी विद्यामसाधयन् ॥२७|| दशकोटीसहस्राणि जपतो य: फलप्रदः। आरेभिरे ते जपितुंतं मन्त्रं षोडशाक्षरम् ॥२८॥ तदा त्वनाहतो नाम जम्बूद्वीपपति: सुरः । सान्त:पुर:क्रीडनाय तत्राऽऽयातो ददर्श तान् ॥२९।। १. ०मायान्तं धनदं प्रवरर्द्धिकम् खंता.१-२, हे. ता.; मायान्तमृद्धवैश्रवणं० मु. ॥ २. पृष्टा ॥ ३. एष० मो. ॥ ४. तव पितामहस्य ज्येष्ठभ्रातरम् ॥५. पूर्वजन्मात्मजन्मजे मु.॥ ६. राक्षसवंशस्याऽऽद्याङ्कुराय ।। ७. आम्नायेन - पारम्पर्येणाऽऽगतायां राजधान्याम् ।। ८. शत्रुभिः ।। ९. मृतवत्॥१०. वृषभाः॥ ११. दूझतो घा' इति भाषायाम् ॥१२. त्वत्कारागारे बद्धान् ।।१३. आकाशकुसुमसञ्चयोपमैः॥१४. मरुदेशेगता हंसीव ॥१५.धनदः को वा? खंता.१-२, ता. हे.॥१६. पूर्वमज्ञातेन ॥१७. वज्रस्य पात: प्रहार इव ॥१८. धृतवती॥१९. एकहस्तबलेन ।। २०. सुप्ताजगरस्य नि:श्वासेन कम्पमाना: समीपस्था द्रुमा यत्र तत्।। २१.० घूत्कारभूरुहच्छन्नगह्वरम् ता. ।। २२. जपमालाधराः ।। २३. श्वेतवस्त्रभृतः ।। २४. सर्वकामानदामष्टा० खंता.१-२, पाता.; कामप्रदा-मष्टाक्षरी मु.; ०प्रदामष्टाक्षरीविद्याम० छा. पा. ॥ २५. जपितो य: खंता.१-२, कां.ता.; जपो यस्य छा. पा. ता. मु.॥ . Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं विद्यासाधनविघ्नाय तेषां यक्षाधिपः स तु । 'अनुकूलोपसर्गार्थं 'प्रजिघाय स्वयोषितः ॥ ३०॥ तेषां क्षोभार्थमायातास्तद्रूपैरतिसुन्दरैः । ताः क्षोभं स्वयमेवेयुर्विस्मृतस्वामिशासनाः ॥३१॥ निर्विकारान् स्थिराकारांस्तूष्णीकानवलोक्य तान् । अकृत्रिमस्मरावेशविवशास्ता बभाषिरे ॥ ३२॥ भो भो ध्यानजडा! यूयं यत्नतः पैश्यताऽग्रतः । देवीरपि वशीभूताः का वः सिद्धिरतः परा ? ॥३३॥ किं विद्यासिद्धये यत्नस्तत् क्लेशेनाऽमुना कृतम् । किं करिष्यथ विद्याभिर्देव्यः सिद्धा वेयं हि वः ॥ ३४ ॥ रमध्वं स्वैरमस्माभिस्त्रयाणां जगतामपि । रम्यरम्यप्रदेशेषु सुंरदेश्या यथारुचि ॥ ३५॥ सकाममिति जल्पन्त्योऽनल्पधैर्येषु तेषु ताः । विलक्षा जज्ञिरे यक्ष्यस्तालिका नैकहस्तिकाः॥३६॥ जम्बूद्वीपपतिर्यक्षस्ततस्तानब्रवीदिति । मुग्धैः किमेतदारब्धं युष्माभिः कष्टचेष्टितम् ? ॥३७॥ मन्ये पाखण्डिना केनाऽप्यकाण्डे मृत्युहेतवे । पाखण्डं शिक्षिता यूयमनीप्तेन दुरात्मना ॥ ३८॥ यातयाताऽधुनाऽप्येतं मुक्त्वा ध्यानदुराग्रहम् । ब्रूताऽहमपि यच्छामि वाञ्छितं वः कृपापरः॥३९॥ इत्युक्तेऽपि हि तूष्णीकांस्तान् क्रुद्धः सोऽब्रवीदिति । मुक्त्वा प्रत्यक्षदेवं मां किमन्यं ध्यायथाऽररे ? ॥४०॥ इति स क्रूरवाग् यक्षस्तत्परिक्षोभहेतवे । भ्रूसञ्ज्ञया समादिशत् किङ्करान् वानमन्तरान् ॥४१॥ ततः किलकिलारावकारिणो बहुरूपिणः । उत्पाट्य गिरिशृङ्गाणि तदग्रे केsपि चिक्षिपुः ॥४२॥ चन्दनद्रुमवत् सर्पीभूय तान् केऽप्यवेष्टयन् । सिंहीभूय पुरस्तेषां बूंच्चक्रुः केऽपि दारुणम्॥४३॥ अच्छ-भल्ल-वृक-व्याघ्र- बिडालादिवपुर्भृतः । चक्रुर्बिभीषिकां केचिन्नाऽक्षुभ्यंस्ते तथाऽपि हि ॥४४॥ कैकसीं रत्नश्रवसं जौमिं चन्द्रणखां च ते। विकृत्य बद्ध्वा च पुरस्तेषां सपदि चिक्षिपुः ॥४५॥ रत्नश्रवःप्रभृतयस्ते च मौयामयास्तदा । उदश्रुनयना एवं चक्रन्दुः करुणस्वरम्॥४६॥ वयं हन्यामहे बद्ध्वा तिर्यञ्चो लुब्धकैरिव । एभिर्गर्तेघृणैः कैश्चिद् युष्माकं पश्यतामपि ॥४७॥ उत्तिष्ठोत्तिष्ठ वत्स! त्वं त्रायस्व दशकन्धर! । एकान्तभक्तस्तादृक् त्वमस्मान् कथमुपेक्षसे ? ॥४८॥ यो बालोऽपि महाहारं तं कण्ठे विन्यैधाः स्वयम् । तस्य बाहुबलं क्वाऽद्य ? क्वाऽहङ्कारश्च ते गतः ? ॥ ४९ ॥ कुम्भकर्ण! त्वमपि नो नाऽऽकर्णयसि किं वचः ? । यदेवमस्मान् दीनस्यानुदासीन इवेक्षसे ? ॥५०॥ बिभीषण! क्षणमपि न भक्तिविमुखोऽभवः । किं परावर्तित इव दुष्टदैवेन सम्प्रति ? ॥५१॥ विलपत्स्वपि तेष्वेवं न चेलुस्ते समाधितः । ततस्तदग्रे तन्मौलीश्चिच्छिदुर्यक्षकिङ्कराः ॥५२॥ अपश्यन्त इवाऽग्रस्थमपि तत्कर्म दारुणम् । न मनागप्ययुः क्षोभं ते ध्यानाधीनचेतसः ॥५३॥ रावणाग्रेऽपातयंस्ते मौली तर्दैनुजन्मनोः । दशग्रीवस्य मूर्धानं तयोरग्रे तु मायया ॥ ५४॥ किञ्चिच्चुक्षुभतुः कोपात् कुम्भकर्ण - बिभीषणौ ॥ गुरुभक्तिस्तत्र हेतुर्न पुनः स्वल्पसत्त्वता ॥५५॥ रावणः परमार्थज्ञस्तमनर्थमचिन्तयन् । विशिष्टध्याननिष्ठोऽभूद् गिरीन्द्र इव निश्चलः ॥५६॥ साधु साध्वित्यभूद् वाणी गीर्वेणानामथाऽम्बरे । ते च द्रुतमपासेंर्पंश्चकिता यक्षकिङ्कराः ॥५७॥ " तव स्मो वशवर्तिन्य इति जल्पन्त्य उच्चकैः । विद्या: सहस्रमभ्येयुर्दशास्यं द्योतिताम्बराः ॥ ५८ ॥ प्रज्ञप्ती रोहिणी गौरी गान्धारी च तथा परा । नभः सञ्चारिणी कामदायिनी कामगामिनी ॥ ५९॥ अणिमा लघिमाऽक्षोभ्या मनः स्तम्भनकारिणी । सुविधाना तपोरूपा दहनी विपुलोदरी ॥ ६०॥ शुभप्रदा रजोरूपा दिनरात्रिविधायिनी । वज्रोदरी समाकृष्टिरदर्शन्यजरामरा ॥ ६१ ॥ अनलस्तम्भनी तोयस्तम्भनी गिरिदीरणी । अवलोकनी तु वह्निर्घोरा धीरों भुजङ्गिनी ॥ ६२॥ 1 १. अनुकूलोपसर्गाय खंता. १ - २, पाता. मु. ॥। २. प्रेषितवान् । ३. पश्यथाऽग्रतः इति पाठ: श्रीरमणीकविजयैरादृतः, अस्माकं त्वयमेव पाठो योग्य: प्रतिभाति ।। ४. देव्योऽपि च मु.; देवीरपि च वशी० मु. रसं. ॥ ५. स्मो वो यतः खंता. १-२, हे. ॥। ६. देवसदृशा: ।। ७. यक्षा: मु. ॥ ८. एकहस्तेन तालिका न भवेदिति यावत् ॥ ९. अहितेन ॥ १०. ध्यायथाऽपरम् मु. ॥। ११. पूच्चक्रुः हे. कां. मु. ॥। १२. भगिनीम् ॥ १३. कपटयुक्ताः ॥ १४. निर्दयैः ।। १५. विन्यधात्० कां . ।। १६. दीनमुखान् ।। १७. आप्नुवन् ॥ १८. तस्य लघुभ्रात्रोः ।। १९. देवानाम् ॥ २०. अनश्यन् ॥ २१. ०रदर्शिन्य० ला ॥ २२. गिरिदारुणी कां. खं. २, पाता.; गिरिहारणी ला. ॥ २३. वीरा ता. हे. मो. ॥ (सप्तमं पर्व For Private Personal Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । 'वारुणी भुवनाऽवन्ध्या दारुणी 'मदनाशिनी। भास्करी रूपसम्पन्ना रोशनी विजया जया॥६३॥ वर्धनी मोचनी चैव वाराही कुटिलाकृतिः । चित्तोद्भवकरी शान्ति: कौबेरी वशकारिणी ॥६४।। योगेश्वरी बलोत्सादा चण्डो भीति: प्रधर्षिणी। दुर्निवारा जगत्कम्पकारिणी भानुमालिनी॥६५।। एवमाद्या महाविद्या: पुरा सुकृतकर्मणा। स्वल्पैरेव दिनैः सिद्धा दशास्यस्य महात्मनः ॥६६॥अष्टभि: कुलकम्।। संवृद्धिघुम्भणी सर्वाहारिणी व्योमगामिनी। इन्द्राणीति पञ्च विद्या: कुम्भकर्णस्य चाऽसिधन् ॥६७॥ सिद्धार्था शत्रुदमनी निर्व्याघाताखगामिनी। विद्याश्चतस्रः संसिद्धा: कुम्भकर्णानुजन्मनः ॥६८।। जम्बूद्वीपपति: सोऽपि क्षमयामास रावणम् । महतामपराद्धे हि प्रणिपात: प्रतिक्रिया॥६९।। स यक्षोऽकृत तत्रैवरावणस्य कृते कृती। पुरं स्वयम्प्रभं विघ्नप्रायश्चित्तचिकीरिव॥७०॥ विद्यासिद्धिं तु तां तेषां श्रुत्वा तौ पितरौ स्वसा। बन्धवश्चाऽऽययुस्तत्र प्रतिपत्तिश्च तैः कृता॥७१।। पित्रोदृशां सुधावृष्टिं बन्धूनामेकमुत्सवम् । जनयन्तः सुखं तस्थुर्धातरस्ते त्रयोऽपि हि॥७२॥ उपवासैरथो षड्भिश्चन्द्रहासमसिं वरम्। दशास्य: साधयामासौपयिकं साधने दिशाम्॥७३॥ पाइतश्च वैताढ्यगिरौ दक्षिणश्रेणिभूषणे। पुरेऽभूत् सुरसङ्गीते मयो विद्याधरेश्वरः॥७४।। तस्य हेमवती नाम गुणानां धाम गेहिनी। तत्कुक्षिजन्मा दुहिता नाम्ना मन्दोदरीत्यभूत् ।।७५।। तां प्राप्तयौवनां प्रेक्ष्य तद्वरार्थी व्यचिन्तयत्। विद्याधरकुमाराणां मयराजो गुणागुणान् ।।७६।। अनुरूपमपश्यंश्च वरं मयनरेश्वरः। यावद् विषादमग्नोऽस्थात् तावन्मन्त्र्येवमब्रवीत् ॥७७|| स्वामिन्! मा विषीदै किञ्चिदस्त्यस्या उचितो वर: । रत्नश्रवःसुतो दोष्मान् रूपवांश्च दशाननः ।।७८॥ सिद्धविद्यासहस्रस्याऽकम्पितस्य सुरैरपि। विद्याधरेषु नाऽस्याऽस्ति तुल्यो मेरोरिवाऽद्रिषु॥७९।। एवमेतदिति प्रोच्य मयो हर्षमयात्मकः । सबान्धव: ससैन्यश्च सान्त:पुरपरिच्छदः ।।८०॥ मन्दोदरीमुपादाय प्रदातुं दशमौलये । पुरुषैपियित्वा स्वंस्वयम्प्रभपुरं ययौ॥८१।।युग्मम्।। सुमालिप्रमुखास्तत्र गोत्रवृद्धा महाशया:। मन्दोदरी दशास्यस्य ग्रहीतुं प्रतिपेदिरे॥८२॥ विवाहं कारयामासुस्तयोरथ शुभे दिने। वैवाहिका: सुमाल्याद्या मयप्रभृतयश्चते।।८३॥ ययुर्मयाद्या: स्वपुरं कृतोद्वाहमहोत्सवाः। रावणोऽपि चिरं रेमे रमणीवरया तया ॥८४॥ रावण: क्रीडयाऽन्येद्यर्ययौ मेघरवं गिरिम। उत्पक्षमिव पाविलम्बिभिर्मेघमण्डलैः॥८५।। सैरस्यपश्यन मज्जन्तीस्तत्र खेचरकन्यका: । षट सहस्रान सोऽप्सरस इव क्षीरसरस्वति॥८६॥ पद्मिन्य इव मार्तण्डं स्मेरलोचनपङ्कजा: । नाँथीयन्त्यः सानुरागास्तमीक्षाञ्चक्रिरेऽर्थं ताः॥८७।। सद्योऽप्यपास्य मन्दाक्षममन्दस्मरपीडिताः। भर्ता नस्त्वं भवैवं ता: प्रार्थयाञ्चक्रिरे स्वयम्॥८८॥ तत्र पद्मावती सर्वश्री-सुरसुन्दरोद्भवा। मनोवेगा-बुधसुता चाऽन्याऽशोकलताभिधा॥८९॥ अन्या विद्युत्प्रभा नाम सुता कनक-सन्ध्ययोः । एवमन्या अपि जगत्प्रख्यातान्वयसम्भवाः॥९०।। ता: सरागा: सरागेण दशग्रीवेण कन्यका: । गान्धर्वेण विवाहेन सर्वा अप्युपयेमिरे ।।९।। तत्सौविदोस्तत्पितॄणामिदमेत्य व्यजिज्ञपन् । कोऽप्येष कन्या यौष्माकी: परिणीयाऽद्य गच्छति॥९२॥ समंतत्पितृभिर्विद्याधरैरमरसुन्दरः । क्रुद्धोऽन्वधावद् रभसा जिघांसुर्दशकन्धरम् ॥१३॥ नवोढास्ता दशग्रीवमूचुः प्रकृतिकातरा: । त्वरितं प्रेरय स्वामिन्! विमानं मा विलम्बय॥९४॥ १. वारिणी पा. मु. ॥ २. भुवनाऽवष्या खं.२, पाता.; भुवनाऽमध्या खं.१॥३. नाशनी खंता.१-२, पाता. ।। ४. रूपसम्पत्ती पाता. खं.२,पा. कां. छा.; रूपसम्पन्नी खं.१, ला.॥५. रोशानी सर्वप्रतिषु ।। ६. वराही ला.॥७. योगीश्वरी ला.॥८. बलोत्सादी खंता.२,ला. हे. कां. छा. ता.; बलोत्सहा ला. मो. ।। ९. चण्डभीति: पाता. ।। १०. प्रधर्षणी खंता.१-२, ला. ॥११.०र्जुम्भिणी खं.२, ला. ।। १२. विद्याहारिणी खंता.१॥ १३. बिभीषणस्य ।। १४. महतामपराधे पाता. ॥१५. निवारणम् ।।१६. विघ्नस्य प्रायश्चित्तं कर्तुमिच्छुरिव ॥१७. उपायभूतम् ।।१८. मन्त्रीदमब्रवीत् हे.;मन्त्र्येवमभ्यधात् मो. ॥ १९. विषादः पाता. खं.१; विषदःखं.२; विषीदः ला.॥२०. हर्षमहामनाः मु.॥२१. ससेनाक: खंता.१-२॥२२. सान्तःपुरनिवापिदः खंता.१॥२३. मेघवरं खंता.२; मेघरविं खंता.१; मेघरथं पाता. ॥ २४. ऊर्वीकृतपक्षम् ।। २५. सरोवरे ।। २६. क्षीरसमुद्रे ॥२७. नाथमिच्छन्त्यः ।। २८. ० चक्रिरे तथा ला. ॥२९. लज्जाम् ॥ ३०, नामाऽमरसुन्दरनन्दना खंता.२, हे. ता. ॥ ३१. कञ्चुकिनः ।। ३२. हन्तुमिच्छुः ।। Jain Education Internator Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (सप्तमं पर्व एकोऽप्य जय्योऽयं विद्याधरेन्द्रोऽमरसुन्दरः। किं पुन: कनक-बुधप्रमुखैः परिवारितः॥९५॥ दशास्यस्तद्गिरा स्मित्वा व्याजहारेति सुन्दरी: । पश्यताऽऽजिं ममाऽमीभिर्गरुडस्योरगैरिव॥९६॥ इति ब्रुवाणमेयुस्तं कुर्वाणा: शस्त्रदुर्दिनम् । घना इव महाशैलं विद्याधरमहाभटाः॥९७।। अस्त्राण्यस्त्रैः खण्डयित्वा रावणो वीर्यदारुणः । सद्य: प्रेस्वापनास्त्रेणाऽजिघांसुस्तानमोहयत् ।।९८|| नागपाशैरबध्नाच्च पशूनिव दशाननः । प्रेयसीभिः पितृभिक्षां याचितस्तान् मुमोच च ।।९९॥ ततस्ते स्वपुरं जग्म: समंताभिश्च रावणः । स्वयम्प्रभपुरं प्राप दत्ता? मुदितैर्जनैः ॥१००। अथ कुम्भपुरेशस्य महोदरमहीपतेः। सुरूपनयनादेवीकुक्षिजां नवयौवनाम्॥१०१।। सुतां नाम्ना तडिन्मालां तडिन्मालोपमद्युतिम्। पूर्णकुम्भस्तनाभोगांकुम्भकर्ण उपायत॥१०२॥युग्मम्।। वैताढ्यदक्षिणश्रेण्यांज्योतिष्पुरपुरेशितुः। वीरनाम्नो नन्दवतीदेवीकुक्षिसमुद्भवाम्॥१०३॥ पङ्कजश्रीदस्युदृशं नामत: पङ्कजश्रियम् । कन्यां सुरस्त्रियमिव पर्यणैषीद् बिभीषणः॥१०४॥युग्मम्।। अथमन्दोदरी देवी देवेन्द्रसमतेजसम् । पुत्रमिन्द्रजितंनाम सुषुवेऽद्भुतविक्रमम्॥१०५।। कियत्यपि गते काले द्वितीयमपि नन्दनम्। मेघवन्नयनानन्दं सुषुवे मेघवाहनम्॥१०६।। पाआकर्ण्य पितृवैरं तत् कुम्भकर्ण-बिभीषणैः । वैश्रवणाश्रितां लङ्कामुपदुद्रुवतुः सदा॥१०७।। वैश्रवणोऽथ दूतेनेत्यवोचत सुमालिनम्। निजौ शाधि शिशू हन्त रावणावरजाविमौ॥१०८।। स्वान्यशक्ती न जानीतो दुर्मदौ वीरमानिनौ। एतौ पाताललङ्कास्थौ भेकौ कूपोद्भवाविव ॥१०९॥ अस्मत्पुर्यामवस्कन्दं ददाते छलकर्मणा । जितकाशितया मत्तौ मया चिरमुपेक्षितौ॥११०॥ नचेच्छिक्षयसि क्षुद्र! तदिमौ मालिवमना। त्वया सहैव नेष्यामि त्वं वेत्स्यस्मद्बलं ने तु॥१११॥ इत्युक्त्या रावण: क्रुद्धोऽभ्यधादिति महामनाः । रे! क एष वैश्रवण:? करदो य: परस्य हि॥११२।। अन्यस्य शासनाल्लङ्कां य: शास्त्येवं वदन् स किम् । न लज्जते? स्वात्मनोऽपि तस्य धा_महो! महत् ।।११३।। दूतोऽसीति न हन्मि त्वां याहीति दशमौलिना । उक्तो वैश्रवणं गत्वा दूतोऽशंसद् यथातथम् ॥११४॥ दूतानुपदमेवाऽथ दशकण्ठ: ससोदरः। ससैन्य: प्रययौ लङ्काममर्षेण गरीयसा॥११५।। अग्रे गतेन तेन तेनाऽऽख्यातप्रवृत्तिकः। संसैन्यो निर्ययौ लङ्कापुर्या वैश्रवणो युधे॥११६।। वन्यामिव महावात: प्रसरन्ननिवारितम् । क्षणादभाशीच्च तस्याऽक्षौहिणीं दशकन्धरः॥११७॥ रावणेन बले भग्ने भग्नंमन्य: स्वयं ततः। एवं वैश्रवणो दध्यौ विध्यातक्रोधपावकः॥११८॥ सरसो लूनपद्मस्य भग्नदन्तस्य दन्तिन: । शाखिनश्छिन्नशाखस्याऽलङ्कारस्य च निर्मणेः॥११९।। नष्टज्योत्स्नस्य शशिनस्तोर्यदस्य गताम्भस: । परैश्च भग्नमानस्य मानिनो धिगवस्थितिम् ।।१२०॥युग्मम्।। तस्याऽथवाऽस्त्ववस्थानं यतमानस्य मुक्तये। स्तोकं विहाय बह्विच्छुर्न हि लज्जास्पदं पुमान् ।।१२१।। तदलं मम राज्येनाऽनेकानर्थप्रदायिना। उपादास्ये परिव्रज्यांद्वारं निर्वाणवेश्मनः ।।१२२।। अप्येतावपकर्तारौ कुम्भकर्ण-बिभीषणौ । जातौ ममोपकर्तारावीदृक्पथनिदर्शनात्॥१२३।। रावणोऽग्रेऽपि मे बन्धुर्बन्धुः सम्प्रति कर्मत:। विनाऽस्योपैक्रममिमं न हि स्यान्मम धीरियम्॥१२४।। एवंध्यात्वा वैश्रवणस्त्यक्त्वा शस्त्रादि सर्वत: । तत्त्वनिष्ठः परिव्रज्यां स्वयमेव समाददे॥१२५।। तं नत्वा रावणोऽप्येवमुवाच रचिताञ्जलिः। ज्येष्ठो भ्राता त्वमसि मे सहस्वाऽऽगोऽनुजन्मनः ॥१२६॥ राज्यं कुरुष्व नि:शङ्को लङ्कायामपि बान्धव! वयमन्यत्र यास्यामो नहीयत्येव मेदिनी॥१२७|| १. जेतुमशक्यः ।। २. शस्त्रवृष्टिम् ॥३. प्रस्वापनास्त्रेण जिघांसु० ला. मो. कां. छा. ॥४. हन्तुमनिच्छुः ।।५. कमललक्ष्म्याश्चोरयित्र्यौ दृशौ-नेत्रे यस्यास्ताम् ।। ६. धनदाधिष्ठितां खंता.१-२, ला. हे. कां. ।। ७. दूतेन धनदोऽथैवमवोचत खंता.१-२, ला. हे. कां. ॥ ८. शिक्षय ।। ९. धाटीम्(धाड) ॥ १०. जितकामितया मु.; जितेन काशते ॥११. ननु रसंपा. ॥१२. अरे क एष धनदः? खंता. १-२, ला, हे. कां. ॥१३. विसृष्टो धनदं खंता.१-२, ला. हे. का.॥१४. क्रोधेन ॥१५. यातेन हे. ॥१६.धनदो लकानगर्या निर्ययौ खंता.१-२,ला.हे. कां.॥१७. युधि खंता.१-२, पाता. मु.॥१८. वनानां समूहो वन्या, ताम् ।। १९. क्षणादभाङ्क्षीद् धनदाक्षौहिणीं ला. हे. कां. ।। २०. विध्मात० मु.॥ २१. मेघस्य ॥ २२. धिगवस्थिति: ला., मु.विना च ।। २३. आरम्भम् ॥ २४. एवं विमृश्य धनद० खंता.१-२,ला. हे. ॥२५. अपराधम् ॥२६. लघुबन्धोः ।। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय: सर्गः) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । तस्मिन्नेवं ब्रवाणेऽपि महात्मा प्रतिमास्थितः। किञ्चिन्नोचे वैश्रवणस्तद्भवेऽपि शिवङ्गमी।।१२८।। ज्ञात्वाऽनीहं वैश्रवणं क्षमयित्वा प्रणम्य च। विमानं पुष्पकं तस्य सोऽग्रहीत् सहलङ्कया॥१२९।। जयलक्ष्मीलतापुष्पं सोऽधिरुह्याऽथ पुष्पकम् । सम्मेतशैलशृङ्गेऽर्हत्प्रतिमा वन्दितुं ययौ॥१३०॥ वन्दित्वा प्रतिमा: शैलाद्रावणस्याऽवरोहत: । सेनाकलकलेनैको जगर्जवनकुञ्जरः॥१३१।। अथ प्रहस्त इत्यूचे प्रतिहारो दशाननम् । हस्तिरत्नमसौ देव! देवस्याऽर्हति यानताम् ॥१३२।। तत: पिङ्गोत्तुङ्गदन्तं मधुपिङ्गललोचनम् । उदग्रकुम्भशिकरं मदनिर्झरणीगिरिम्॥१३३॥ सप्तहस्तसमुच्छ्रायं नवहस्तायतं च तम्। क्रीडापूर्वं वशीकृत्याऽध्यारुरोह दशाननः ।।१३४।।युग्मम्।। चकार तस्याभुवनालङ्कार इति नाम सः । ऐरावणगजारूढशक्रलक्ष्मी विडम्बयन्॥१३५।। गजमालानितं कृत्वा तत्रैवोवास तां निशाम्। दशास्य: प्रातरध्यष्ठादास्थानी सपरिच्छदः।।१३६।। तत्रोपेत्य प्रतीहारविज्ञप्तो घातजर्जर: । विद्याधरस्तं पवनवेगो नत्वैवमब्रवीत्॥१३७॥ देव!पाताललङ्काया: किष्किन्धिनृपनन्दनौ। किष्किन्धायां गतौ सूर्यरजा ऋक्षरजा अपि॥१३८।। अभूदु युद्धं तयोस्तत्र यमेन सह भूभुजा। यमेनेवाऽतिघोरेण प्राणसंशयदायिना॥१३९॥ चिरं युद्ध्वा यमेनोच्चैर्बद्ध्वा कारानिकेतने। क्षिप्तौ सूर्यरजा ऋक्षरजा: सपदि दस्युवत् ॥१४०।। विधाय नरकावासांस्तेन वैतरणीयुतान् । छेदभेदादिदु:खं तौ प्राप्येते सपरिच्छदौ॥१४१।। तौ त्वदीयौ क्रमायातौ सेवकौ दशकन्धर! । मोचय त्वमलयाज्ञ! तवैवस पराभवः॥१४२।। रावणोऽपि जगादैवमेवमेतदसंशयम्। आश्रयस्य हि दौर्बल्यादाश्रित: परिभूयते॥१४३।। परोक्षत: पत्तयोऽमी यद्बद्धास्तेन दुर्धिया। कारायां यच्च निक्षिप्ता एष यच्छामि तत्फलम् ।।१४४।। पाइत्युदीर्योदग्रवीर्यः सानीकोऽनीकलालस: । पुरी जगाम किष्किन्धा यमदिक्पालपालिताम् ॥१४५।। त्रपुपान-शिलास्फाल-पशुच्छेदादिदारुणान् । ददर्श नरकांस्तत्र सप्ताऽपि दशकन्धरः ।।१४६।। क्लिश्यमानान् निजान् पत्तीन् दृष्ट्वा रुष्टो दशाननः । परमाधार्मिकांस्तत्राऽत्रासयद् गरुडोऽहिवत्॥१४७।। स्वपत्तीन् मोचयामास तत्रस्थानपरानपि! महतामागमो ह्याशु क्लेशच्छेदाय कस्य न ?॥१४८।। यमाय नरकारक्षास्तत्तु नारकमोक्षणम् । क्षणाद् गत्वा समाचख्यु: सपूत्कारोव॑बाहवः ॥१४९॥ क्रोधारुणाक्ष: सद्योऽपि यमो यम इवाऽपरः। नगर्या निर्ययौ योद्धं युद्धूनाटकसूत्रभृत्॥१५०॥ सैन्या: सैन्यैः समं सेनानीभि: सेनान्य आहवम्। चक्रुर्यम: पुन: क्रुद्धः क्रुद्धेन दशमौलिना ॥१५१।। शराशरि चिरं कृत्वा यमोऽधाविष्ट वेगत:। शुण्डादण्डमिव व्यालो दण्डमुत्पाट्य दारुणम् ॥१५२।। खण्डश: खण्डयामास नौलकाण्डमिवाऽथ तम्। (रप्रेण दशग्रीव: क्लीबवद् गणयन् परान् ॥१५३।। यम: पृषत्कैर्भूयोऽपि च्छादयामास रावणम् । अवारयद्रावणस्ताँल्लोभ: सर्वगुणानिव॥१५४॥ युगपद् भूयसो बाणान् वर्षन्नथ दशाननः । यमं जर्जरयाञ्चक्रे जरेव बलनाशकृत्॥१५५॥ अथ प्रणश्य सङ्ग्रामाद्यमस्त्वरितमभ्यगात् । रथनूपुरनेतारमिन्द्रं विद्याधरेश्वरम्॥१५६॥ यमः शक्रं नमस्कृत्य जगादेति कृताञ्जलि: । जलाञ्जलिर्मयाऽदायि यमत्वाय प्रभोऽधुना॥१५७|| रुष्य वा तुष्य वा नाथ! करिष्ये यमतां हिन। उत्थितो हि दशग्रीवो यमस्याऽपि यमोऽधुना॥१५८।। विद्राव्य नरकारक्षान्नारकास्तेन मोचिता: । क्षत्रव्रतधनेनोच्चैर्जीवन्मुक्तोऽस्मि चाऽऽहवात्॥१५९॥ जित्वा वैश्रवणं तेन लङ्काऽपि जगृहे युधि। तद्विमानं पुष्पकं च जितश्च सुरसुन्दरः ॥१६०॥ १. न किञ्चिदूचे धनद० खंता.१-२,ला. हे. कां. ता. ।। २. शिवं मोक्षं गमिष्यतीति ।। ३. निरीहं धनदं ज्ञात्वा खंता.१-२, ला. कां.; ज्ञात्वा निरीहं धनदं हे. ता. ॥४. इच्छारहितम् ॥५. जयलक्ष्मीरेव लता, तस्या: पुष्पम् ॥६. अवतरतः ।। ७. अथाग्रहस्त० खंता.१॥ ८. वाहनताम् ।।९. मदनद्या उत्पादकत्वेन गिरिसमम् ।। १०. अनुकुर्वन् ॥११. बद्धम् ।।१२. कारागृहे ।। १३. क्षिप्तावृक्षरजादित्यरजौ सपदि खंता.१-२, ला. हे. कां. ता.॥१४. रुक्षरजा: मु.॥१५. त्वमलच्याज्ञस्तवैव मु.॥१६. युद्धलालसः ।। १७.०स्तत्र ला.॥१८. युद्धनाटके सूत्रधारः ।।१९.सेनाधिपैः मु. ॥ २०. बाणयुद्धम् ।। २१. हस्ती ।। २२. नलकाण्ड० ला.छा.पा., कमलदण्डम् ॥२३. बाणविशेषेण ॥२४. पशुवद् ला.॥२५. बाणैः।।२६. जर्जरयामास ला. छा. पा. मो. ॥ २७. तिलाञ्जलिः ।। २८. निर्वास्य ॥ २९. रणसङ्ग्रामात् ।। ३०. निर्जित्य धनदम् खंता १-२, ला हे. कां. ता. ।। ३१. अमरसुन्दरः ।। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (सप्तमं पर्व क्रुद्धोऽथशक्रो युद्धेच्छुर्निषिद्धः कुलमन्त्रिभिः । तैस्तैरुपायैर्बलिना सह विग्रहभीरुभिः॥१६१।। यमाय सुरसङ्गीतं पुरमिन्द्रोऽथ दत्तवान् । स्वयं तथैव तस्थौ च विलसन् रथनूपुरे ॥१६२।। इतश्चाऽऽदित्यरजसे किष्किन्धां नगरी ददौ । दशास्य ऋक्षरजसे पुरमृक्षपुरं पुनः॥१६३।। जगाम तु स्वयं लङ्कामलङ्कर्मीणविक्रमः। स्तूयमानो देवतेव बन्धुभिर्नागरैश्च सः॥१६४॥ अमरेन्द्रोऽमरावत्यामिव तस्यामवस्थितः। दशास्य: प्रशशासाऽथ राज्यं पैतामहं महत्॥१६५|| पाइतश्चाऽऽदित्यरजस: कपिराजस्य नन्दनः । महिष्यामिन्दमालिन्यां वाली नामाऽभवद् बली॥१६६।। जम्बूद्वीपं समुद्रान्तं वाली बाहुबलोल्बणः । नित्यं प्रदक्षिणीकुर्वन् सर्वचैत्यान्यवन्दत॥१६७।। सुग्रीव इति चाऽन्योऽभूदादित्यरजसः सुतः । कन्या कनीयसी तस्य श्रीप्रभेति च नामतः१६८।। अभूतामृक्षरजसोऽप्युभौ भुवनविश्रुतौ। भार्यायां हरिकान्तायां नल-नीलाभिधौ सुतौ॥१६९।। नरेन्द्र आदित्यरजावालिने बलशालिने। दत्वा राज्यं प्रवव्राज तपस्तप्त्वा ययौ शिवम्॥१७०।। सम्यग्दृष्टिं न्यायवन्तं दयावन्तं महौजसम्। स्वानुरूपं यौवराज्ये सुग्रीवं वाल्यपि न्यधात्॥१७१।। पअन्यदा तु दशग्रीवश्चैत्यवन्दनहेतवे। सकलत्रो गजारूढः प्रययौ मेरुपर्वते॥१७२।। अत्रान्तरे चन्द्रणखामपश्यत् खरखेचरः । जातरागो जातरागां जहे मेघप्रभात्मजः ॥१७३।। ययौ पाताललकां च तत्र चन्द्रोदरं नृपम्। आदित्यरजसः सूनुं निर्वास्याऽऽदत्त तां स्वयम्॥१७४।। क्षणेनाऽप्याययौ मेरोर्लङ्कायां दशकन्धरः । आकर्ण्य तच्चन्द्रणखाहरणं प्रचुकोप च॥१७५।। खरखेचरघाताय चचालाऽथ दशाननः । पञ्चानन इव क्रुद्धो गजाखेटककर्मणे॥१७६।। अथ मन्दोदरी देवी निजगादेति रावणम् । संरम्भ: कोऽयमस्थाने मनाग विमृश मानद! ॥१७७॥ कन्या ह्यवश्यं कस्मैचिद् दातव्या यदि सा स्वयम् । वरं वृणीते रुचितमभिजातं च साधु तत्॥१७८।। अनुरूपो वरश्चन्द्रणखाया दूषणाग्रजः । अदूषणश्च ते पत्तिर्भविष्यत्येष विक्रमी॥१७९।। प्रेष्य प्रधानपुरुषांस्तदुद्वाहय तं तया। अस्मै पाताललङ्कां च देहि धेहि प्रसन्नताम्॥१८॥ एवं सोऽवरजाभ्यामप्युक्तो युक्तविचारकृत् । प्रस्थाप्य मय-मारीचौ तेन तां पर्यणाययत्॥१८१॥ तत: पाताललङ्कायां सचन्द्रणखया समम्। निर्विघ्नं बुभुजे भोगान् दधद्रावणशासनम् ॥१८२॥ निर्वासिते तदा तेन कालाच्चन्द्रोदरे मृते। अनुराधेति तत्पत्नी नंष्ट्वाऽगाद् गर्भिणी वने ॥१८३॥ साऽसूत च वने तस्मिन् सिंही सिंहमिवोल्बणम्। विराधं नाम तनयं नयादिगुणभाजनम्॥१८४।। से प्राप्तयौवनः सर्वकलाजलधिपारगः। अस्खलत्प्रसर: पृथ्वीं विजहार महाभुजः॥१८५।। पाइत: कथाप्रसङ्गेन सभायां रावणोऽशृणोत्। प्रौढप्रतापं बलिनं वालिनं वानरेश्वरम् ॥१८६॥ रावणोऽन्यप्रतापस्याऽसहनो भानुमानिव। प्रेजिघायाऽनुशिष्यैकं दूतंवालिमहीभुजे॥१८७।। स गत्वा वालिनं नत्वा व्याजहारेति धीरवाक् । दूतोऽहं दशकण्ठस्य राजंस्तद्वाचिकं शृणु ॥१८८॥ अस्माकं पूर्वजं कीर्तिधवलं पूर्वजस्तव। शरण्यं शरणायाऽगाच्छ्रीकण्ठो वैरिविद्रुतः ॥१८९।। त्रात्वाऽरिभ्य: श्वशुर्यं तं तद्वियोगैककातरः । इहैव वानरद्वीपे श्रीकीर्तिधवलो न्यधात्॥१९०॥ तदादि चाऽऽवयोर्भर्तृ-भृत्यसम्बन्धतो मिथ: । भूयांस: क्ष्माभुजो जग्मुः पक्षयोरुभयोरपि॥१९१।। अथाऽभवत् क्षितिप॑तिः किष्किन्धिस्ते पितामहः। सुकेश इत्यभिधया मम तुप्रपितामहः॥१९२।। तयोरपि हि नियूँढ: स सम्बन्धस्तथैव हि। ततो नृपः सूर्यरजास्त्वदीयस्त्वभवत् पिता।।१९३।। १. रुक्षरजसे मु.॥२. अलं- समर्थः कर्मणे-कार्याय विक्रमो यस्य सः॥३. उत्कटबाहुबलः॥४. सुप्रभेति मु.॥५. हत्वा राज्यमुपाददे खंता.१-२॥ ६. निराकृत्य।।७. गजाखेटककर्मणा मो. हे.; गजमृगयाकर्मणे॥८. क्रोधः ॥९. सा यदि ता.॥१०. कुलीनम्॥११. निर्दोषः॥१२. अनुजाभ्याम् ॥ १३. हन्यमाने तदातेन चन्द्रोदरनरेश्चरे खंता.१-२, हे.॥१४.बला० का.॥१५. नृपे का.ला.; तेन खरेण निर्वासिते चन्द्रोदरे कालान्मृते सतीत्यन्वयः॥१६. सम्प्राप्त० मु.॥ १७. अकुण्ठितगमनः॥१८. प्रेषयामास॥१९. शिक्षयित्वा ।।२०. सन्देशम्।। २१. वैरनिर्वासितः ।। २२. श्यालकम्-श्वशुरपुत्रम् ।। २३. जग्मुः षोडश भूपाला: खंता.१-२, ला. हे. कां.॥२४. सप्तदश: हे. कां. ॥२५. निर्वाहितः ।। २६. अष्टादश: सूर्य० खंता.१-२,ला. हे. कांता. ॥ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय: सर्गः) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । 'यमगुप्तेस्तमाकर्षं यथाऽहं वेत्ति तज्जनः। यथा च किष्किन्धाराज्ये न्यधां तदपि विश्रुतम्॥१९४।। नयवांस्तनयस्तस्य वालिंस्त्वमधुनाऽभव: । प्राग्वत्स्वस्वामिसम्बन्धादस्मत्सेवां कुरुष्व तत्॥१९५।। क्रुद्धोऽप्यविकृताकारोगर्ववह्निशमीतरुः । एवं गम्भीरगीली व्याजहार महामनाः॥१९६॥ अन्योऽन्यं स्नेहसम्बन्धं जानामि कुलयोर्द्वयोः। रक्षो-वानरराजानामद्य यावदखण्डितम्॥१९७॥ सम्पद्यापदि चाऽन्योऽन्यं पूर्वे साहायकं व्यधुः। स्नेहो निबन्धनं तत्र सेव्य-सेवकता तुन॥१९८।। देवं सर्वज्ञमर्हन्तं साधुं च सुगुरुं विना । सेव्यमन्यं न जानीमो मोह: क: स्वामिनस्तव ?॥१९९॥ मन्यमानेन सेव्यं स्वमस्मानपि च सेवकान् । कुलक्रमागत: स्नेहगुणस्तेनाऽद्य खण्डितः ।।२००॥ तस्य मित्रकुलोत्पत्तेर्निजांशक्तिमजानतः। न करोमिस्वयं किञ्चिदपवादैककातरः॥२०१।। विप्रियं कुर्वतस्तस्य करिष्यामि प्रतिक्रियाम्। अंग्रेगूर्न भविष्यामि पूर्वस्नेहद्रुकर्तने ।।२०२॥ यथाशक्ति तव स्वामी स करोतु जाऽररे! । वालिनैवं विसृष्टः स गत्वाऽऽख्यद् दशमौलये॥२०३।। तगिरोद्दीपितक्रोधपावकोऽथ दशाननः । ससैन्योऽप्युद्धरस्कन्धः किष्किन्धामाययौ द्रुतम् ॥२०४।। सन्नह्य वालिराजोऽपि राजमानो भुजौजसा। तमभ्यगाद् दोष्मतां हि प्रियो युद्धातिथि: खलु॥२०५।। तत: प्रववृते युद्धमुभयोरपि सैन्ययोः । गण्डशैलागण्डशैलि द्रुमाद्रुमि गदागदि॥२०६॥ तत्राऽचूर्यन्त र्शतशो भृष्टपर्पटवद्रथा: । मृत्पिण्डवदभिद्यन्त महान्तोऽपि मतङ्गजा:॥२०७|| कूष्माण्डवदखण्ड्यन्त स्थाने स्थाने तुरङ्गमा:। चंञ्चापुरुषवद् भूमावपात्यन्त च पत्तयः॥२०८।। तं प्रेक्ष्य प्राणिसंहारं सानुक्रोश: प्लवङ्गराट् । वीरः सत्वरमभ्येत्य जगादेति दशाननम्॥२०९।। युज्यते न वध: प्राणिमात्रस्याऽपि विवेकिनाम्। पञ्चेन्द्रियाणां हस्त्यादिजीवानां बत का कथा? ॥२१०।। द्विषज्जयाय यद्येष तथाऽप्यो न दोष्मताम् । दोष्मन्तो हि निजैरेव दोभिर्विजयकाङ्क्षिणः ।।२११।। त्वं दोष्मान् श्रावकश्चाऽसि सैन्ययुद्धं विमुञ्च तत्। अनेकप्राणिसंहाराच्चिराय नरकाय यत्।।२१२॥ एवं सम्बोधितस्तेन दशास्योऽपि हि धर्मवित्। अङ्गेन योद्धमारेभे सर्वयुद्धविशारदः॥२१३।। यद्यदस्त्रं दशग्रीवोऽक्षिपत् तत्तत् कपीश्वरः । स्वास्त्रैः प्रतिजघानोच्चैर्वह्नितेज इवाऽर्यमा॥२१४।। सार्प-वारुणमुख्यानि मन्त्रास्त्राण्यपिरावण: । मुमोच तानि तााद्यैरस्त्रैर्वाली जघान च॥२१५॥ शस्त्र-मन्त्रास्त्रवैफल्यक्रुद्धो दशमुखस्तत: । चकर्षचन्द्रहासासिं महाहिमिव दारुणम्॥२१६।। एकशृङ्गो गिरिरिवैकदन्त इव कुञ्जरः। उच्चन्द्रहासोऽधाविष्ट वालिने दशकन्धरः ॥२१७।। सचन्द्रहासं लङ्केशंसशाखमिव शाखिनम्। वामेन बाहुनावाली लीलयैव समाददे॥२१८॥ तं कन्दुकमिवन्यस्याऽविहस्तो हस्तकोटरे। चतु:समुद्रीं बभ्राम क्षणेनाऽपि कपीश्वरः ॥२१९॥ तदानीमेव तत्रैत्य त्रपावनतकन्धरम् । दशकन्धरमुज्झित्वावालिराजोऽब्रवीदिति॥२२०॥ वीतरागं सर्वविदमाप्तं त्रैलोक्यपूजितम्। विनाऽर्हन्तं न मे कश्चिन्नमस्योऽस्ति कदाचन ।।२२१॥ अङ्गोत्थितं द्विषन्तं तं धिङ्मानं येन मोहितः । इमामवस्थां प्राप्तोऽसि मत्प्रणामकुतूहली॥२२२॥ पूर्वोपकारान् स्मरता मया मुक्तोऽसि सम्प्रति। दत्तं च पृथिवीराज्यमखण्डाज्ञ: प्रशाधि तत् ॥२२३।। विजिगीषौ मयि सति तवेयं पृथिवी कुतः? । क्व हस्तिनामवस्थानं वने सिंहनिषेविते ? ॥२२४।। तदादास्ये परिव्रज्यां शिवसाम्राज्यकारणम्। किष्किन्धायां तु सुग्रीवो राजाऽस्त्वाज्ञाधरस्तव ॥२२५॥ १. यमस्य बन्धनात्॥२. स्थापितवान् ॥ ३. एकोनविंशतितमो० खंता.१-२, ला. ता. हे. कां. ॥४. पूर्ववत् सेव्य-सेवकसम्बन्धात् ।।५. गर्व एव वह्निः, तस्य स्वोदरे-स्वमनसि शमीवृक्ष इव रक्षक इत्यर्थः।। ६. पूर्वजाः ।।७. कारणम् ।। ८. सेव्यमानं पाता. ।। ९. प्रथमं० खंता.१-२, ता. ।। १०. करिष्येऽथ पाता. ।। ११. प्रतिकारम्॥१२. अग्रेसरः ।।१३. पूर्वस्नेह एव वृक्षस्तस्य च्छेदने ॥१४, 'अररे' इति क्षुद्रसम्बोधनेऽव्ययम् ॥१५. ससैन्य उद्धर० मु.; दृढस्कन्धः ।। १६. अथ ता.॥१७. गण्डशैलै: गण्डशैले: मिथ: प्रहृत्य कृतं युद्धम् ; गण्डशैला: पर्वतीयशिलाखण्डाः ॥१८. तिलशो० ता.॥१९. अग्निना भृष्टा ये पर्पटा:(पापड) तद्वत् :भ्रष्टपर्पट० मु.॥२०. तुणमय: पुमान ,भाषायां चाडियो' इति, तद्वत् ॥ २१.सकरुणः ।। २२. वानरराजः॥२३.धीरः खंता.१।। २४. एष प्राणिवधः ।। २५. श्रावकश्चाऽपि ला. ॥ २६. यद्यच्छत्रं पाता. ।। २७. प्रतिजिघानोग्रैर्वह्निः मो. ।। २८. गारुडारिस्पैः ।। २९. अव्याकुलः स तं रावणं हस्तकोटरे-कक्षायां निक्षिप्य ।। ३०.विजेतुमिच्छति मयि ॥ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (सप्तमं पर्व एवमुक्त्वा निजे राज्ये सुग्रीवं न्यस्य तत्क्षणात्। स्वयं गगनचन्द्रर्षिपादमूलेऽग्रही व्रतम्॥२२६।। विविधाभिग्रहतपस्तत्पर: प्रतिमाधरः । ध्यानवान् निर्ममो वाली मुनिर्व्यहरताऽवनौ॥२२७।। वालिभट्टारकस्याऽथोत्पेदिरे लब्धय: क्रमात् । सम्पद: पादपस्येव पुष्प-पत्र-फलादयः ।।२२८।। अष्टापदाद्रौ गत्वा च कायोत्सर्गमदत्त सः। लम्बमानभुजो बद्धदोलादण्ड इव द्रुमः॥२२९।। कायोत्सर्ग समुत्सृज्य मासान्ते पारणं व्यधात्। उत्सर्गपारणान्येवं भूयो भूयश्चकार सः॥२३०॥ पाइतश्च दशकण्ठाय सुग्रीव: श्रीप्रभां ददौ । संशुष्यत्प्राक्तनस्नेहतरो: सारणिसन्निभाम् ।।२३१।। यौवराज्ये तु सुग्रीवो वालिपुत्रं महौजसम् । चन्द्ररश्म्युज्ज्वलयशाश्चन्द्ररश्मिं न्यवीविशत्।।२३२॥ सुग्रीवप्रतिपन्नाज्ञ: श्रीप्रभां तत्सहोदराम्। उपयम्य गृहीत्वा च ययौ लङ्कां दशाननः ।।२३३॥ विद्याधरनरेन्द्राणामन्येषामपि कन्यका: । उपयेमे रूपवतीर्बलादपि हिरावणः ॥२३४॥ नित्यालोकपुरे नित्यालोकविद्याधरेशितुः । कन्यारत्नावली नाम्नाऽन्यदोद्वोढुं चचाल सः॥२३५।। अष्टापदातरुपरि गच्छतस्तस्य पुष्पकम् । विमानं स्खलितं सद्यो वप्रो बलमिव द्विषाम् ।।२३६।। न्यग्नागरं महापोतमिव बद्धमिव द्विपम्। विमानं रुद्धगतिकं प्रेक्ष्याऽकुप्य दशाननः॥२३७।। को मद्विमानस्खलनाद् विविक्षति यमाननम् ?। एवं वदन् समुत्तीर्य सोऽद्रिमूर्धानमैक्षत ॥२३८।। अधस्तात् स विमानस्य ददर्श प्रतिमास्थितम् । वालिनं तस्य शैलस्य नवं शृङ्गमिवोत्थितम् ।।२३९।। ऊचे चरावण: क्रुद्धो विरुद्धोऽद्याऽपि मय्यसि । व्रतं वहसि दम्भेन जगदेतद् दिदम्भिषुः ॥२४०।। कयाऽपि माययाऽग्रेऽपि मां वाहीक इवाऽवहः । प्राव्राजी: शैङ्कमानोऽस्मत्कृतप्रतिकृतं खलु ॥२४१॥ नन्वद्याऽपि स एवाऽस्मि त एव मम बाहव: । कृतप्रतिकृतं तत् ते प्राप्तकालं करोम्यहम् ।।२४२॥ सचन्द्रहासं मामूढ्वा यथाऽभ्राम्यस्त्वमब्धिषु। तथा त्वां सादिमुत्पाट्य क्षेप्स्यामि लवणार्णवे।।२४३।। एवमुक्त्वा विदार्य क्ष्मामष्टापदगिरेस्तले। प्रविवेश दशग्रीवश्च्युतो दिव इवाऽशनिः ।।२४४॥ विद्यासहस्रं स्मृत्वा च युगपद् दशकन्धरः । धेरै दुर्धरमुद्दधे तं दोर्बलमदोद्धरः ॥२४५।। तडत्तडितिनिर्घोषवित्रस्तव्यन्तरामरम् । झलज्झलितिलोलाब्धिपूर्यमाणरसातलम्॥२४६॥ खंडत्खडितिबिभ्रश्यद्ग्रावक्षुण्णवनद्विपम् । केडत्कडितिनिर्भग्ननितम्बोपवनद्रुमम् ॥२४७।। गिरिं तेनोद्धृतं ज्ञात्वाऽवधिना स महामुनिः। अनेकलब्धिनद्यब्धिरिति दध्यौ विशुद्धधीः॥२४८||त्रिभिर्विशेषकम्।। आ:! कथं मयि मात्सर्यादयमद्याऽपि दुर्मतिः । अनेकप्राणिसंहारमकाण्डे तनुतेतराम् ? ॥२४९।। भरतेश्वरचैत्यं च भ्रंशयित्वैष सम्प्रति। यतते तीर्थमुच्छेत्तुं भरतक्षेत्रभूषणम् ॥२५०॥ अहं चत्यक्तसङ्गोऽस्मि स्वशरीरेऽपि नि:स्पृहः । राग-द्वेषविनिर्मुक्तो निमग्न: साम्यवारिणि ॥२५१।। तथाऽपि चैत्यत्राणाय प्राणिनां रक्षणाय च। राग-द्वेषौ विनैवैनं शिक्षयामि मनागहम्॥२५२।। एवं विमृश्य भगवान् पादाङ्गुष्ठेन लीलया। अष्टापदाद्रेर्मूर्धानं वाली किञ्चिदपीडयत्॥२५३।। मध्याह्नदेहेच्छायावत् पयोबाह्यस्थकूर्मवत्। अभितः सङ्कुचद्गात्रो दशास्यस्तत्क्षणादभूत् ॥२५४॥ अतिभङ्गुरदोर्दण्डो मुखेन रुधिरं वमन् । अरावीद् रावयन्नुर्वी रावणस्तेन सोऽभवत्॥२५५॥ तस्य चाऽऽरटनं दीनं श्रुत्वा वाली कृपापरः। तं मुमोचाऽऽशु तत्कर्म शिक्षामात्राय न क्रुधा॥२५६।। निःसृत्य दशकण्ठोऽथ नि:प्रतापोऽनुतापवान्। उपेत्य वालिनं नत्वा व्याजहारेत्युदञ्जलिः॥२५७॥ १. ०विविधाभिग्रहस्तप० मु.॥२. वालिमुनि०० रसंपा. ।। ३. ०ाहरता० मु.।। ४. 'हींचको' ।।५. कायोत्सर्ग-पारणानि ।। ६. 'नीक' ॥७. सुग्रीवेण प्रतिपन्ना आज्ञा यस्य सः ।। ८. नाम्ना तदो० मु.।। ९. 'नांगरेल वहाण' ॥१०. प्रवेष्टुमिच्छति॥११. वञ्चयितुमिच्छुः ॥१२. भारवाहकः ।। १३. शङ्कमानोऽस्मत्कृते हे. मो.; अस्माकं कृतस्य प्रतिक्रियाम् ॥ १४. मां बद्ध्वा हे. मो. ॥१५. पर्वतम् ॥१६. तडत्तडितिनि?षं वि० मु.।।१७. झलत् झलत् इति शब्दं कुर्वाणेन लोलेन अब्धिना पूर्यमाणं रसातलं येन तम् ।। १८.खडत् खडत् इति शब्देन पतद्भिः अश्मभिः क्षुण्णा वनगजा यस्मिन् तम् ।। १९. कडत् कडत् इति शब्दं कुर्वन्तो निर्मग्ना नितम्बोपवनानां द्रुमा यस्य तम् ।। २०. भञ्जयित्वैष ता. ।। २१. समताजले ।। २२. मध्याह्नदेहच्छायेव ता. ॥२३. अनुताप: पश्चात्तापस्तद्वान् ॥ २४. २५७ तमश्लोकादनन्तरं हे.सङ्घकप्रतौ श्लोकोऽयमधिको दृश्यते "स्वशक्तिं ये न जानन्ति ये चाऽन्यायं प्रकुर्वते । जीयन्ते ये च लोभेन, तेषामस्मि धुरन्धरः ।।" Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५ द्वितीय: सर्गः ) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । भूयो भूयोऽपराधानां कर्ताऽहं त्वयि 'निस्त्रपः । उत्कृपस्त्वं च सोढाऽसि महात्मन्! शक्तिमानपि॥२५८॥ मन्ये मयि कृपां कुर्वन्नुर्वी प्रागत्यज: प्रभो! । न त्वसामर्थ्यतस्तत्तु नाऽज्ञासिषमहं पुरा ॥२५९॥ अज्ञानान्नाथ! तेनेयं स्वशक्तिस्तोलिता मया। अद्रिपर्यसने यत्नं कलभेनेव कुर्वता।।२६०॥ ज्ञातमन्तरमद्येदं भवतश्चाऽऽत्मनोऽपि च। शैल-वल्मीकयोर्यादृग् यादृग्गेरुड-भासयोः ।।२६१।। दत्ता: प्राणास्त्वया स्वामिन्! भृत्यकोटिंगतस्य मे। अपकारिणि यस्येयं मतिस्तस्मै नमोऽस्तु ते॥२६२॥ दृढभक्त्येति भाषित्वा क्षमयित्वा चवालिनम्। त्रिश्च प्रदक्षिणीकृत्य नमश्चक्रे दशाननः ।।२६३।। तादृङ्माहात्म्यमुदिता: साधु साध्विति भाषिणः । उपरिष्टाद्वालिमुनेः पुष्पवृष्टिं व्यधुः सुराः॥२६४।। प्रणम्य वालिनं भूयस्तच्छैलमुकुटोपमे। जगाम रावणश्चैत्ये भरतेश्वरनिर्मिते॥२६५।। चन्द्रहासादिशस्त्राणि मुक्त्वा सान्त:पुर: स्वयम् । अर्हतामृषभादीनां पूजां सोऽष्टविधां व्यधात्॥२६६।। समाकृष्य स्नसां तन्त्री प्रमृज्य च दशाननः । महासाहसिको भक्त्या भुजवीणमवादयत्।।२६७।। (पवीणयति ग्रामरागरम्यं दशानने । गायत्यन्त:पुरे चाऽस्य सप्तस्वरमनोरमम् ॥२६८॥ चैत्यवन्दनयात्रायै धरण: पन्नगेश्वरः । तत्राऽऽययावर्हतश्च पूजापूर्वमवन्दत॥२६९।।युग्मम्।। अर्हद्गुणमयैर्गीतै: करण-ध्रुवकादिभिः। गायन्तं वीणया प्रेक्ष्य रावणं धरणोऽब्रवीत्॥२७०।। अर्हद्गुणस्तुतिमयं साधुगीतमिदं ननु। निजभावानुरूपं ते तेन तुष्टोऽस्मिरावण! ॥२७१।। अर्हद्गुणस्तुतेर्मुख्यं फलं मोक्षस्तथाऽप्यहम् । अंजीर्णवासनस्तुभ्यं किं यच्छामि वृणीष्व भोः! ॥२७२।। रावणोऽप्यभ्यधादेवं देवदेवगुणस्तवैः। युक्तं तुष्टोऽसि नागेन्द्र! स्वामिभक्तिर्हि सा तव॥२७३॥ यथा तव ददानस्य स्वामिभक्ति: प्रकृष्यते। तथा ममाऽऽददानस्य सा काममपकृष्यते॥२७४।। भूयोऽप्युवाच नागेन्द्रः साधु मानद! रावण! । विशेषतोऽस्मि तुष्टस्ते निराकाङ्क्षतयाऽनया॥२७५।। उक्त्वेत्यमोघविजयां शक्तिं रूपविकारिणीम्। सोऽदाद् विद्यांरावणाय जैगाम च निजाश्रयम् ।।२७६।। तीर्थनाथान्नमस्कृत्य नित्यालोकपुरेऽगमत् । व्यूह्य रत्नावली लङ्कामाजगाम दशाननः ॥३७७॥ वालिनोऽपि तदोत्पेदे केवलज्ञानमुज्ज्वलम्। केवलज्ञानमहिमा विदधे च सुरासुरैः।।२७८॥ क्रमेण कर्मणां सोऽथ भवोपग्राहिणां क्षयात्। सिद्धानन्तचतुष्कोऽगात् पदं तदपुनर्भवम्॥२७९।। इतश्च वैताढ्यगिरौ पुरे ज्योति:पुराभिधे। बभूव नाम्ना ज्वलनशिखो विद्याधरेश्वरः ॥२८०।। तस्याऽभूच्छ्रीमती देवी श्रीमती रूपसम्पदा। तस्यां च दुहिता जज्ञे तारा तौरविलोचना ॥२८१।। तामेकदा तु चक्राकविद्याधरनृपात्मजः । ददर्शसाहसगति: स्मरात: सहसाऽप्यभूत् ।।२८२।। ज्वलनं याचयाञ्चक्रे तांसाहसगतिर्नरैः । वानरेन्द्रश्च सुग्रीवो रत्ने हि बहवोऽर्थिनः ॥२८३।। द्वावप्येतावभिजातौ रूपवन्तौ महौजसौ। तत् कस्मै दीयतां कन्येत्यपृच्छज्ज्ञानिनं पिता॥२८४॥ अल्पायु: साहसगतिर्दीर्घायुश्च कपीश्वरः । इति नैमित्तिकेनोक्ते सुग्रीवाय ददौ सँ ताम् ।।२८५।। अभिलाषविप्रलम्भात् साहसोऽपि दिने दिने। अङ्गारचुम्बित इवेंन प्राप क्वाऽपि निर्वृतिम् ॥२८६।। तारायां रममाणस्य सुग्रीवस्य बभूवतुः । द्वावङ्गद-जयानन्दावङ्गजौ दिग्गजोर्जितौ॥२८७।। सचाऽपिसाहसगतिस्तारायामनुरागवान। मन्मथोन्मथ्यमानात्मा चिन्तयामासिवानिदम्॥२८८|| चुम्बिष्यामि कदा तस्या मृगशावकचक्षुषः । पक्वबिम्बाधरदलच्छदनं वदनाम्बुजम् ? ॥२८९।। १. निर्लज्जः।।२. अधिकदयावान् ।। ३. पर्वतनाशने ।। ४. मद्यैवं पाता.॥५. गरुड-नागयो: ला. कां.; गरुड-काकयो: मो. ता.; भास: गृध्रपक्षी।। ६. दृढा भक्तीति खंता.१-२, पाता. हे.कां.छा. ता. पा. ला.॥७. स्नसातन्त्री खंता.१-२, पाता.ला.।। ८. वीणां वादयति सति ।। ९. करणं ध्रुवक: (ध्रुवका वा) सङ्गीतशास्त्रस्य प्रसिद्धौ क्रिया-गानप्रकारविशेषौ ॥१०. नक्षीणा वासना यस्य सः ।। ११. ग्रहीतृत्वत्रपाजुषे ता. हे. खंता.१-२॥१२. चतुर्विंशतिमप्यथ । नगरी जग्मतुः स्वां स्वां, नागराज-दशाननौ ॥खंता.१-२॥ १३. २७७तमश्लोकादनन्तरं हे.प्रतावधिकः श्लोको यथा"परिणयित्वा स कन्या-चतुर्विंशतिमप्यथ । नगरी जग्मतुः स्वां स्वां नागराज-दशाननौ ।” १४.नाम-गोत्र-वेदनीया-ऽऽयुषाम् ।। १५. दीर्घलोचना॥ १६. अभिजातौ द्वावपीमौ मु.॥ १७. दीयते कन्या पप्रच्छ मु. खंता.१-२, पाता. ला. ॥ १८. सुताम् पाता. ॥१९. अभिलाषविरहात् ।। २०. अङ्गारेण दग्धः । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (सप्तमं पर्व कदा स्प्रक्ष्याम्यहं तस्याः कुचकुम्भौ स्वपाणिना?। कदाचतौ करिष्यामि गाढालिङ्गनवामनौ? ॥२९०॥ बलेनाऽपि च्छलेनाऽपि तां हर्ताऽस्मीति चिन्तयन्। सस्मार शेमुषी विद्यां रूपस्य परिवर्तिनीम् ।।२९।। गत्वा च क्षुद्रहिमवगिरौ स्थित्वा गुहान्तरे। तां साधयितुमारेभेचक्राङ्कनृपनन्दनः ॥२९२।। पाइतश्च पुर्या लङ्काया दिग्यात्रायै दशाननः । विकर्तन: पूर्वशैलतटादिव विनिर्ययौ॥२९३॥ विद्याधरनरेन्द्रांश्च द्वीपान्तरनिवासिनः । वशीकृत्य स पाताललङ्कां नाम पुरीं ययौ॥२९४।। तत्र चन्द्रणखाभळ खरेणाऽखरभाषिणा। प्राभृतैर्भूतकेनेव निभृतं सोऽभ्यपूज्यत॥२९५।। रावणेन सहाऽचालीत्खर इन्द्रं जिगीषता। विद्याधराणां सहस्रैश्चतुर्दशभिरावृतः ।।२९६।। तत्र सुग्रीवराजोऽपि रक्षोराजस्य दोष्मतः। अन्वचालीत ससैन्योऽपिवायोरिव विभावसः॥२९७।। अनेकपृतनाच्छन्नरोदसीको दशाननः । पयोराशिरिवोद्भ्रान्त: प्रययावस्खलद्गतिः ।।२९८।। कूजन्मरालमालाभिराबद्धरसनामिव। पुलिनोळ विपुलया नितम्बेनेव शोभिताम् ॥२९९।। अलकानिव बिभ्राणां तरङ्गैरतिभङ्गुरैः । कटाक्षानिव मुञ्चन्ती शेफरोद्वर्तनैर्मुहुः ॥३००॥ कामिनीमिव चतुरां रेवां नाम तरङ्गिणीम्। विन्ध्यशैलादुत्तरन्तीं ददर्शाऽथ दशाननः ॥३०१||त्रिभिर्विशेषकम्।। रोधेस्युवासरेवाया: ससैन्यो दशकन्धरः। सिन्धुरग्रामणी!थसमावृत इवोद्धरः।।३०२।। सोऽथ तस्यां कृतस्नानो वसानो धौतवाससी। अर्हद्विम्बं रत्नमयं न्यस्य पट्टे मणीमये॥३०३।। रेवाम्भोभि: स्नपयित्वा तदम्भोजैर्विकासिभिः। समारेभे पूजयितुंसमाधिसुदृढासनः॥३०४॥युग्मम्।। ततश्च पूजाव्यग्रस्य दशग्रीवस्य तस्थुषः । अकस्मादब्धिवेलेव महापूर: समाययौ॥३०५॥ उन्मूलयन्मूलतोऽपि गुल्मानिव महीरुहान्। तटीनामुन्नतानामप्युपरि प्रासरत् पयः॥३०६।। आस्फोटयंस्तैटीघातैस्तरीस्तटनियन्त्रिता:। विष्वक्छुक्तिपुटानीवाऽभ्रंलिहा वीचिपङ्क्तयः।।३०७।। रोधोगर्तान् महतोऽपि पातालकुहरोपमान् । स पूर: पूरयामास भक्ष्यं कुक्षिम्भरीनिव॥३०८॥[त्रिभिर्विशेषकम्] समन्तादन्तरीपाणि स्थंगयामास सा नदी। ज्योतिश्चक्रविमानानि चन्द्रज्योत्स्नेव पार्वणी॥३०९।। मत्स्यानुच्छालयामास प्रोच्छलद्भिर्महोर्मिभिः । पूरो महावात इव वेगावर्त?पल्लवान् ॥३१०॥ तत्फेनिलं सार्वकरं पूरवारि रयागतम्। अर्हत्पूजामपानैषीद् दशकण्ठस्य कुर्वतः॥३११॥ तेन पूजापहारेण शिरश्छेदाधिकेन सः। जातकोपो दशग्रीव: साक्षेपमिदमभ्यधात्॥३१२॥ अरेरे! केन वारीदं दुर्वारमतिवेगतः। अर्हत्पूजान्तरायायाऽमुच्यताऽकारणारिणा॥३१३।। परस्तादस्ति किं कोऽपि मिथ्यादृष्टिर्नराधिप:?। किं वा विद्याधर:? कश्चिदसुरो वा सुरोऽथवा ? ॥३१४॥ अथ विद्याधर: कश्चिदाचख्यौ दशमौलये। इत: पुरस्तादस्त्युच्चैर्देव! माहिष्मती पुरी॥३१५।। तस्यां नाम्ना सहस्रांशुः सहस्रांशुरिवाऽपरः। सहस्रशो नृपैः सेव्य: पार्थिवोऽस्ति महाभुजः॥३१६।। सेतुबन्धेनरेवायां वारिबन्धं व्यधादसौ। जलक्रीडोत्सवकृते किमसाध्यं महौजसाम् ? ॥३१७।। समं राज्ञीसहस्रेण सहस्रांशुरसावित: । वंशाभिर्वरदन्तीव सुखं क्रीडति वारिभिः॥३१८।। आत्मरक्षा लक्षसङ्ख्या द्वयोरपि हि तीरयोः । संवर्मितो उदस्त्राश्च तिष्ठन्त्यस्य हरेरिव ।।३१९॥ अदृष्टपूर्वोऽवष्टम्भ: कोऽप्यस्याऽप्रतिमौजसः । शोभामात्रं यथा तेऽपि यदि वा कर्मसाक्षिणः ॥३२०॥ क्षुभितं जलदेवीभिर्यादोभिश्च पलायितम् । जलक्रीडाकराघातैरूर्जितैस्तस्य दोष्मत:॥३२१॥ १. निजैः करैः ता.॥२. सूर्यः ।। ३. मृदुभाषिणा ।। ४.भृत्येन ॥५. इन्द्रजिगीषया खंता.१-२, पाता. मु.॥६. तत: मु.॥७. अग्निः ।। ८. पृतना-सेना, रोदसी-आकाश-पृथिव्यौ ॥९. क्षुब्धः ।।१०. कूजन्मराली० ला.; कूजन्तो ये मराला:-हंसास्तेषां मालास्ताभिः परिहितमेखलाम् ।। ११. मत्स्यभ्रमणैः ।। १२. तीरे।। १३. गजनायकः।। १४. समुद्रोभिरिव ।। १५. तृणगुच्छान् , वृक्षान् ॥१६. ० तटाघातै० मु. कां. खंता.१-२, पाता. ला. ।। १७. नावः।। १८. शुक्तिः - 'छीप'।। १९.भक्ष्यैः खंता.१-२, ला. ता. ॥२०.द्वीपान् ।। २१. छादयामास ।।२२. मत्स्यानुच्छादया० मु.।। २३. वेगवान् द्रुमपल्लवान् मु.।। २४. वृक्षपत्राणि ।। २५. ततोऽतिफेनिलं सावकरं वारि रयागतम् ला. ।। २६. सपङ्कम् ।। २७. अकारणशत्रुणा ।। २८.पुरस्तादस्ति खंता.१, ला. मो. ता. ।। २९. नराधम: ला. रसंपा. ॥ ३०. परस्तादस्त्यु० हे. ला. ॥३१. हस्तिनीभिः ।। ३२. कवचधारिणः ऊर्ध्वशस्त्राश्च ।। ३३. शक्रस्य ॥ ३४. मानः ।। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७ द्वितीयः सर्गः) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । इदमत्यन्तरुद्धत्वात् स्त्रीसहस्रयुतेन च। तेन 'पर्यस्यमाणत्वात् काममुल्लठितं पयः॥३२२॥ रोधसी प्लावयित्वोभे वेगाद्वारीदमुद्धतम् । इह तेप्लावयामास देवपूजां दशाननः ।।३२३॥ पश्यैतानि च तत्स्त्रीणां निर्माल्यानि दशानन! । रेवातीरे तरन्त्युच्चैस्तदभिज्ञानमादिमम् ॥३२४।। तदङ्गनाजनस्याऽङ्गरागैर्मृगमदादिजैः । इदमत्याविलं वारि दुर्वारं वीरवारण! ॥३२५।। इति तद्विरमाकर्ण्य प्राप्याऽऽहतिमिवाऽनल:। उद्दिदीपेऽधिकं चैवमुवाच चदशाननः ॥३२६।। अरे मुमूर्षुणा तेन वारिभि: स्वाङ्गदूषितैः । दूषिता देवपूजेयं देवदूष्यमिवाऽञ्जनैः ॥३२७।। तद्यात राक्षसभटास्तं पापं भटमानिनम् । बद्ध्वा समानयत भो! मत्स्यमानायिका इव॥३२८॥ उच्चस्तेनैवमादिष्टा अनुरेवं दधाविरे। लक्षशो राक्षसभटा रेवोर्मय इवोद्भटाः॥३२९॥ तीरस्थितैः सहस्रांशुसैनिकै: सह ते रणम् । गजा वनान्तरगजैरिव चक्रुर्निशाचराः॥३३०।। विद्याभिर्मोहयन्तस्ते भूमिष्ठांस्तान् नभ:स्थिताः । उपदुद्रुवुरम्भोदा: शरभान् करकैरिव॥३३१।। स्वानुपद्रयमाणांस्तु प्रेक्ष्य क्रोधधुताधरः।चलत्पताकहस्तेनाऽऽश्वासयन् प्रेयसीनिजाः ॥३३२॥ ऐरावण: सुरसिन्धोरिवरेवात उच्चकैः । निर्जगाम सहस्रांशुरधिज्यं चधनुर्व्यधात्॥३३३॥(युग्मम्) बाणैर्विद्रावयामास रक्षोवीरान् नभ:स्थितान्। सहस्रांशुर्महाबाहुस्तूंलपूलानिवाऽनिलः॥३३४॥ व्यावृत्तांस्तान् रणात् प्रेक्ष्य सङ्घद्धोरावणः स्वयम् । उपतस्थेसहस्रांशुमभि वर्षञ्छिलीमुखान् ॥३३५।। द्वावप्यमर्षणौ द्वावप्यूर्जितौ द्वावपि स्थिरौ। विविधैरायुधैर्युद्धं विदधाते चिराय तौ॥३३६।। दोर्वीर्येणाऽविजय्यं तं ज्ञात्वा जग्राह रावणः । विद्यया मोहयित्वेभमिव माहिष्मतीपतिम्॥३३७।। तं प्रशंसन् महावीर्यं जित्वाऽपि जितमान्यथ। अनुत्सिक्तो दशग्रीवः स्कन्धावारेऽनयत् स्वयम्॥३३८।। पसभायां यावदासीनस्तस्थौ हृष्टो दशाननः । चारणश्रमणस्तावच्छतबाहुः समाययौ ॥३३९॥ सिंहासनात् समुत्थाय त्यक्त्वा च मणिपादुके। अभ्युत्तस्थौ दशास्यस्तं पयोदमिव बर्हिणः ॥३४०।। पपात पादयोस्तस्य पञ्चाङ्गस्पृष्टभूतलः। रावणो मन्यमानस्तमर्हद्गणधरोपमम्॥३४१।। आसने चाऽऽसँयामास तं मुनि स्वयमर्पिते। प्रणम्य च दशग्रीवः स्वयमुर्त्यामुपाविशत् ।।३४२॥ विश्वास इव मूर्तिस्थो विश्वाश्वासनबान्धवः । धर्मलाभाशिषं तस्मै सोऽदात् कल्याणमातरम् ।।३४३।। बद्ध्वाऽञ्जलिं रावणेन समागमनकारणम् । मुनिष्ठः परिपृष्टोऽभाषिष्टाऽदुष्टया गिरा॥३४४।। शतबाहुरहं नाम्ना माहिष्मत्यां नृपोऽभवम् । भववासादितो भीत: शार्दूल: पावकादिव॥३४५|| सहस्रकिरणे राज्यमारोप्य निजनन्दने । मोक्षाध्वस्यन्दनप्रायमहं व्रतमशिश्रियम्॥३४६।। इत्योक्ते दशग्रीवो नमद्ग्रीवोऽब्रवीदिति। किमसौ पूज्यपादानामङ्गजन्मा महाभुजः ? ॥३४७|| आमित्युक्ते मुनीन्द्रेण निजगाद दशाननः । दिर्जयप्रक्रमेणाऽहमिहाऽऽगच्छं नदीतटे॥३४८।। दत्तावासस्तटेऽमुष्मिञ्जिना! विकचाम्बुजैः । अर्चित्वा यावदेकाग्रमानसस्तन्मयोऽभवम्॥३४९।। अमुना तावदुन्मुक्तैर्निजस्नानमलीमसैः । वारिभि: प्लाविता पूजा तेनाऽकार्षमिदं क्रुधा॥३५०॥(युग्मम्) अज्ञानादमुनाऽप्येतत् कृतं मन्ये महात्मना। त्वत्सूनुरेष किं कुर्यादर्हदाशातनां क्वचित् ? ॥३५१॥ एवमुक्त्वा सहस्रांशुं तत्रीऽऽनैषीद् दशाननः । लज्जानम्रानन: सोऽपि ननाम पितरं मुनिम्॥३५२।। रावणस्तं बभाणैवं भ्राता मे त्वमत: परम् । तवेव यन्ममाऽप्येषशतबाहमुनिः पिता॥३५३।।। गच्छ शाधि निजं राज्यं गृहाणाऽन्यामपि क्षितिम् । अस्माकं हि त्रयाणां त्वं चतुर्थोऽस्यंशभाक् श्रियः॥३५४॥ एवमुक्तश्च मुक्तश्च सहस्रांशुरदोऽवदत् । न हि राज्येन मे कृत्यं वपुषा वाऽप्यत: परम्।।३५५।। १. परिक्षिप्यमाणत्वात्॥२. शीघ्रतयाऽवहत् ।। ३. चिह्नम् ।। ४. अतिपङ्किलम् ॥५. धीवराः॥६.अष्टापदान्॥७. ०श्वासयत् इति पाठः पाता. विना सर्वत्र मुद्रिते च ।। ८. गङ्गायाः ।। ९. न कुत्राऽपि प्रतौ मुद्रिते वा ।। १०. ०स्तृण० मु. ॥११. बाणान् ।। १२. क्रुद्धौ ।। १३. तेजस्विनी ।। १४. विजेतुमशक्यम् ॥ १५. जित्वाऽप्यजित० ता.; आत्मानं जितं मन्यते इति॥१६. गर्वरहितः।।१७. मयूरः ।।१८. चाऽऽसयाञ्चक्रे खंता.१-२, हे. मो. ता. ॥१९. विश्वमाश्वासयतीति विश्वाश्वासनः, स चाऽसौ बान्धवश्चेति विग्रहः ।। २०. मुनिषु प्रष्ठः श्रेष्ठः ।। २१. मोक्षमार्गरथप्रायम् ॥ २२. पुत्रः ।। २३. ओमि० मु. ।। २४. दिग्जयाय क्रमेणा० कां. मु.खंता.१-२, पाता. ला. ॥ २५. नत्वा० खंता.१-२, पाता. ला. मु.॥२६. तवेवाऽयं ममा० मु. ।। २७. भागी।। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (सप्तमं पर्व पित्राऽऽश्रितं श्रयिष्यामि व्रतं संसारनाशनम् । अयं हि पन्था: साधूनां निर्वाणमुपतिष्ठते॥३५६॥ इत्युदीर्य दशास्याय समर्प्य तनयं निजम्। व्रतं चरमदेहः स पितृपादान्तिकेऽग्रहीत्॥३५७।। अनरण्यनरेन्द्राय वाचिकेन तदैवस: । स्वयमात्तां परिव्रज्यां कथयामास सौहृदात्॥३५८।। सोऽप्ययोध्याधिपो दध्यौ प्रियमित्रेण तेन मे। सङ्केत एवमभवदादेयं युगपद् व्रतम् ॥३५९।। स्वप्रतिज्ञामिति स्मृत्वा राज्यं दशरथाय सः। दत्त्वा स्वसूनवे सत्यधनो व्रतमुपाददे॥३६०॥ शतबाह-सहस्रांशू वन्दित्वर्षी दशाननः । सहस्रांशोः सुतं राज्ये न्यस्य चाऽचलदम्बरे ।।३६१।। पातदा चनारदमुनिर्यष्टिघातादिजर्जरः । अन्याय इति पूत्कुर्वन्नेत्याऽऽभाषिष्ट रावणम्॥३६२॥ राजन्! राजपुरेऽमुष्मिन् मरुत्तो नाम भूपतिः। मिथ्यादृगस्ति कुर्वाणः क्रतुंदुर्द्विजवासितः॥३६३।। यज्ञे वधाय चाऽऽनीतान सौनिकैरिव तदिद्वजैः । पशूनारटतोऽपश्यं पाशबद्धाननागसः॥३६४॥ ततो व्योम्नोऽवतीयोऽहंमरुत्तं ब्राह्मणावतम्। अहो! किमिदमारब्धमित्यपृच्छं कृपापरः॥३६५।। अथोवाच मरुत्तोऽपि यज्ञोऽयं ब्राह्मणोदितः। अन्तर्वेदीह होतव्याः पशवो देवतृप्तये॥३६६॥ अयं खल महाधर्म: कीर्तित: स्वर्गहेतवे। यक्ष्यामि पशुभिर्यज्ञं तदेभिरहमद्य भोः!॥३६७|| ततस्तस्याऽहमित्याख्यं वपुर्वेदीरुदीरिता। आँत्मा येष्टा तपो वह्निर्ज्ञानं सर्पिः प्रकीर्तितम् ॥३६८।। कर्माणि समिध: क्रोधादयस्तु पशवो मता:। सत्यं यूप: सर्वप्राणिरक्षणं दक्षिणा पुनः॥३६९।। त्रिरत्नी तु त्रिवेदीयमिति वेदोदितः क्रतुः। कृतो योगविशेषेण मुक्तेर्भवति साधनम् ।।३७०॥ क्रव्यादतुल्या ये कुर्युर्यज्ञं छागवधादिना। ते मृत्वा नरके घोरे तिष्ठेयुर्दु:खिनश्चिरम् ॥३७१॥ उत्पन्नोऽस्युत्तमे वंशे बुद्धिमानृद्धिमानसि। राजन्! व्याधोचितादस्मानिवर्तस्व तदनसः॥३७२।। यदि प्राणिवधेनाऽपि स्वर्गो जायेत देहिनाम् । तच्छून्यो जीवलोकोऽयमल्पैरेव दिनैर्भवेत्॥३७३।। इदं मम वच: श्रुत्वा यज्ञाग्नय इव द्विजा: । क्रुधा ज्वलन्त: प्रोत्तस्थुर्दण्ड-पट्टकपाणयः॥३७४।। ततस्तैस्ताड्यमानेन मया प्राप्तोऽसि नश्यता। नदीपुराभिभूतेनाऽन्तरीपमिवरावण!॥३७५|| निरागसो वध्यमानांस्तत् तैर्नृपशुभिः पशून् । त्रायस्व त्रात एवाऽहं पुनस्त्वदवलोकनात्॥३७६।। ततो विमानार्दुत्तीर्णो दशास्यस्तद्दिदृक्षया। आनर्चे भूभुजा तेन पाँद्यसिंहासनादिना ॥३७७।। क्रुद्धो मरुत्तभूपालं जगादैवं दशाननः । अरे! किमेष क्रियते नरकाभिमुखैमख:? ॥३७८॥ धर्म: प्रोक्तो ह्यहिंसात: सर्व स्त्रिजगद्धितैः । पशुहिंसात्मकाद्यज्ञात् स कथं नाम जायताम् ? ॥३७९।। लोकद्वयारिं तद् यज्ञं मा कार्षीश्चेत् करिष्यसि। मगुप्ताविह ते वास: परत्र नरके पुनः॥३८०॥ विससर्ज मखं सद्यो मरुत्तनृपतिस्ततः। अलया हिरावणाज्ञा विश्वस्याऽपि भयङ्करा ॥३८१।। अमी पशुवधात्मान: कुत: सञ्जज्ञिरेऽध्वरा:? । इति पृष्टो दशास्येन निजगादेति नारदः॥३८२॥ पाअस्ति चेदिषु विख्याता नाम्ना शुक्तिमती पुरी।शुक्तिमत्याख्यया नद्या नर्मसख्येव शोभिता॥३८३।। गतेष्वनेकभूपेषु सुव्रतान्मौनिसुव्रतेः ।अभिचन्द्रोऽभवत् तस्यां राजा राज्यभृतां वरः॥३८४।। अभिचन्द्रस्य तनयो वसुरित्यभिधानतः। अजायत महाबुद्धि: प्रसिद्धः सत्यवाक्तया।।३८५॥ पार्श्वे क्षीरकदम्बकस्य गुरो: पर्वतकः सुतः। राजपुत्रो वसुश्चाऽहं चाऽपठाम त्रयोऽपि हि॥३८६।। सुप्तेष्वस्मासु सदनोपरि पाठश्रमानिशि। चारणश्रमणौ व्योम्नि योन्तावित्यूचतुर्मिथः ॥३८७।। एषामेकतम: स्वर्गं गमिष्यत्यपरौपुनः । नरकं यास्यतस्तच्चाऽश्रौषीत् क्षीरकदम्बकः॥३८८।। तच्छ्रुत्वा चिन्तयामास खिन्न: क्षीरकदम्बकः । मय्यप्यध्यापके शिष्यौ यास्यतो नरकं हहा! ॥३८९॥ १. दशरथस्य पिता ।। २. सन्देशेन ॥३. न्यस्याऽथाऽचल० ता. ॥४. पूत्कुर्वनित्यभा० मु.॥५. यज्ञम् ॥ ६. चाण्डालैः ।।७. निरपराधिनः ।। ८. तल्लीनं च मनो वह्नि-निं सर्पिःप्रदीपितम् हे. ॥९. यज्ञकर्ता ।। १०.घृतम् ।।११. क्षमा सत्यमहिंसा च दातव्या दक्षिणा पुनः हे.; यूप: सत्यमहिंसा च दातव्या० ता.॥१२. ज्ञान-दर्शन-चारित्राणि ॥१३.क्रव्यादा अपि खंता.१-२, ता. हे. मो.; राक्षसतुल्याः ।।१४. तत्पापात् ।। १५. द्वीपः ।।१६.०दुत्तीर्य मु.॥ १७. अर्घ्यम् ।। १८. यज्ञः ।। १९. मम कारागृहे ।। २०. यज्ञाः ।। २१. च दिक्षु मु.॥ २२. शक्तिमत्या मु.॥२३. मुनिसुव्रतात् मु.; मुनिसुव्रतस्य पुत्रात् ॥ २४. Jain Educatio-महाबाहुः ता. ॥ २५. सत्यवादित्वेन ॥२६. गच्छन्तौ। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । एभ्य: को यास्यति स्वर्ग ? नरकं कौ च यास्यत:? । जिज्ञासुरित्युपाध्यायोऽस्मांस्त्रीन् युगपदाह्वयत् ॥३९०॥ समर्प्य गुरुरस्माकमेकैकं पिष्टकुक्कुटम् । उवाचाऽमी तत्र वध्या यत्र कोऽपि न पश्यति॥३९१।। वसु-पर्वतको तत्र गत्वा शून्यप्रदेशयोः । आत्मनीनां गतिमिव जघ्नतु: पिष्टकुक्कुटौ॥३९२॥ दवीयसि प्रदेशे तु गत्वाऽहं नगरान बहिः। स्थित्वा च विजने देशे दिश: प्रेक्ष्येत्यतर्कयम्॥३९३॥ गुरुपादैरदस्तावदादिष्टं वत्स! यत् त्वया। वध्योऽयं कुक्कुटस्तत्र यत्र कोऽपि न पश्यति॥३९४।। असौ पश्यत्यहं पश्याम्यमी पश्यन्ति खेचरा: । लोकपालाश्च पश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानिनोऽपि हि॥३९५।। नाऽस्त्येव स्थानमपि तद् यत्र कोऽपि न पश्यति। तात्पर्यं तद् गुरुगिरांन वध्यः खलु कुक्कुटः॥३९६।। गुरुपादा: दयावन्त: सदा हिंसापराङ्मुखाः। अस्मत्प्रज्ञां परिज्ञातुमेतन्नियतमादिशन् ॥३९७।। विमृश्यैवमहत्वैव कुक्कुटं चाऽहमागमम् । कुक्कुटाहनने हेतुं गुरोर्व्यज्ञपयं च तम्।।३९८॥ स्वर्गं यास्यत्यसौ तावदिति निश्चित्य गौरवात्। आलिङ्गितोऽहं गुरुभिः साधुसाध्वितिभाषिभिः ॥३९९।। वसु-पर्वतको पश्चादागत्यैवं शशंसतुः। निहतौ कुक्कुटौ तत्र यत्र कोऽपि न पश्यति॥४००॥ अपश्यतं युवामादावपश्यन् खेचरादयः। कथं हतौ कुक्कुटौ रे! पापावित्यशपद् गुरुः॥४०१॥ तत: खेदादुपाध्यायो दध्यौ विध्यातपाठधी: । मुधा मेऽध्यापनक्लेशो वसु-पर्वतयोरभूत्॥४०२।। गुरूपदेशो हि यथापात्रं परिणमेदिह। अभ्राम्भ: स्थानभेदेन मुक्ता-लवणतां व्रजेत् ॥४०३।। प्रिय: पर्वतकः पुत्रः पुत्रादप्यधिको वसुः । नरकं यास्यतस्तस्माद् गृहवासेन किं मम? ॥४०४।। निर्वेदादित्यपाध्याय: प्रव्रज्यामग्रहीत तदा। तत्पदंपर्वतोऽध्यास्तव्याख्याक्षणविचक्षणः॥४०५॥ भूत्वा गुरोः प्रसादेन सर्वशास्त्रविशारदः। पुनरेव निजं स्थानमहं तु गतवांस्तदा ॥४०६॥ निपचन्द्रोऽभिचन्द्रोऽपिजग्राह समये व्रतम्। ततश्चाऽभूदु वसू राजा वासुदेवसम: श्रिया॥४०७। सत्यवादीति स प्राप प्रसिद्धिं पृथिवीतले। तां प्रसिद्धिमपि त्रातुंसत्यमेव जगाद सः॥४०८।। अथैकदा मृगयुणा मृगाय मृगयाजुषा। चिक्षिपे विशिखो विन्ध्यनितम्बे सोऽन्तराऽस्खलत्॥४०९॥ इषुस्खलनहेतुं स ज्ञातुं तत्र ययौ ततः। आकाशस्फटिकशिलामज्ञासीत् पाणिना स्पृशन्॥४१०॥ सदध्याविति मन्येऽस्यां सङ्क्रान्त: परतश्चरन् । भूमिच्छायेव शीतांशावदर्शि हरिणो मया॥४११।। पाणिस्पर्शं विना नेयं सर्वथाऽप्युपलक्ष्यते। अवश्यं तदसौ योग्या वसोवसंमतीपतेः॥४१२॥ रहो व्यज्ञपयद् राज्ञे गत्वा तां मृगयु: शिलाम् । हृष्टो जग्राह राजाऽपि ददौ चास्मै महद्धनम् ॥४१३॥ स तया घटयामास च्छन्नं स्वासनवेदिकाम् । तच्छिल्पिनोऽघातयच्च नाऽऽत्मीया: कस्यचिन्नृपाः॥४१४॥ तस्यां सिंहासनं वेदौ चेदीशस्य निवेशितम् । सत्यप्रभावादाकाशस्थितमित्यबुधज्जनः॥४१५।। सत्येन तुष्टा: सान्निध्यमस्य कुर्वन्ति देवता: । एवमूर्जस्विनी तस्य प्रसिद्धिानशे दिश: ॥४१६।। तया प्रसिद्ध्या राजानो भीतास्तस्य वशं ययुः । सत्या वा यदि वा मिथ्या प्रसिद्धिर्जयिनी नृणाम् ॥४१७॥ पतत्राऽन्यदाऽहमभ्यागामद्राक्षमथ पर्वतम्। व्याख्यानयन्तमृग्वेदं शिष्याणां शेमुषीजुषाम् ॥४१८॥ अजैर्यष्टव्यमित्यत्र मेषैरित्युपदेशकम्। तमवोचमहं भ्रातर्धान्त्या किमिदमुच्यते?॥४१९।। त्रिवार्षिकाणि धान्यानिन हिजायन्त इत्यजाः। व्याख्याता गुरुणाऽस्माकं व्यस्मार्षी: केन हेतुना?॥४२०॥ तत: पर्वतकोऽवादीदिदं तातेन नोदितम् । उदिता: किं त्वजा मेषास्तथैवोक्ता निर्घण्टुषु ॥४२१।। अवोचमहमप्येवं शब्दानामर्थकल्पना। मुख्या गौणी च तत्रेह गौणी गुरुरचीकथेत्॥४२२।। गुरुर्धर्मोपदेष्टैव श्रुतिधर्मात्मिकैव च। द्वयमप्यन्यथा कुर्वन् मित्र! मा पापमर्जय॥४२३॥ १. दात खंता.१, पाता. ला. ॥२. आत्मने हिताम् ।। ३. अतिदूरवर्तिनि ॥४. कुक्कुटः ।।५. यास्यत्ययं मु.॥६. विध्याता-शान्ता पाठस्य-अध्यापनस्य धीर्यस्य ।। ७. व्याख्यायां विचक्षणः ।। ८. व्याधेन ।। ९. मृगयायुजा खंता.१-२; मृगयां कुर्वता ॥१०. बाणः ॥ ११. अन्यतः ॥ १२. तस्मै मो. ॥ १३. च्छन्नस्वासन० खंता.१; प्रच्छन्नं यथा स्यात् तथा॥१४. तस्य पाता.।।१५. वसुनृपस्य ।।१६. महती॥१७. बुद्धिमताम् ।। १८. कोशेषु ।। १९. सिद्धहेममतेन 'अचकथत्' एव भवितुमर्हति, अन्यमताश्रयणेनाऽत्राऽन्यत्राऽपिच 'अचीकथत्' इति ॥२०.०धर्मात्मकैव मु.॥ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (सप्तमं पर्व साक्षेपं पर्वतोऽजल्पदजान् मेषान् गुरुर्जगौ। गुरूपदेशशब्दार्थो लङ्घनाद्धर्ममर्जसि ? ॥४२४॥ मिथ्याभिमानवाचो हि न स्युदण्डभयानृणाम् । स्वपक्षस्थापने तेन जिह्वाच्छेद: पणोऽस्तु नः॥४२५।। प्रमाणमुभयोरत्र सहाध्यायी वसुनृपः। प्रत्यश्रौषमहं तच्च न क्षोभ: सत्यभाषिणाम् ॥४२६॥ रह: पर्वतमूचेऽम्बा गृहकर्मरताऽप्यहम्। अजास्त्रिवार्षिकं धान्यमित्यश्रौषं भवत्पितुः ॥४२७॥ जिह्वाच्छेदं पणेऽकार्षीर्य दर्पात् तदसाम्प्रतम् । अविमृश्य विधातारो भवन्ति विपदां पदम् ॥४२८॥ अवदत् पर्वतोऽप्येवं कृतं तावदिदं मया। यथा तथा कृतस्याऽम्ब! करणं न हि विद्यते॥४२९।। साऽथ पर्वतकापायपीडया हृदिशल्यिता। वसुराजमुपेयाय पुत्रार्थे क्रियते न किम् ? ॥४३०॥ दृष्टः क्षीरकदम्बोऽद्य यदम्ब! त्वमसीक्षिता। किं करोमि ? प्रयच्छामि किं वेत्यभिदधेवसुः॥४३१॥ साऽवादीद्दीयतां पुत्रभिक्षां मह्यं महीपते! । धन-धान्यैः किमन्यैर्मे विना पुत्रेण पुत्रक! ॥४३२॥ वसुरूचे ततो मेऽम्ब! पाल्य: पूज्यश्च पर्वतः । गुरुवद् गुरुपुत्रेऽपि वर्तितव्यमिति श्रुतेः॥४३३।। कस्याऽद्य पत्रमुत्क्षिप्तं कालेनाऽकालरोषिणा ? । को जिघांसुर्धातरं मे ? ब्रूहि मात:! किमातुरा ? ॥४३४।। अजव्याख्यानवृत्तान्तं स्वपुत्रस्य पणं च तम् । त्वं प्रमाणं कृतश्चाऽसीत्याख्यायाऽर्थयते स्म सा॥४३५।। कुर्वाणो रक्षणं भ्रातुरजान् मेषानुदीरय। प्राणैरप्युपकुर्वन्ति महान्त: किं पुनर्गिरा ? ॥४३६।। अवोचत वेसुर्मातर्मिथ्या वच्मि वच: कथम् ? । प्राणात्ययेऽपि न शंसन्ति नाऽसत्यं सत्यभाषिणः॥४३७।। अन्यदप्यभिधातव्यं नाऽसत्यं पापभीरुणा। गुरुवागन्यथाकारे कूटसाक्ष्ये च का कथा ? ॥४३८॥ बहकुरु गुरोः सूनुं यद्वा सत्यव्रताग्रहम् । तया सरोषमित्युक्तस्तद्वचोऽमस्त पार्थिवः ।।४३९।। पाततः प्रमुदिता क्षीरकदम्बगृहिणी ययौ । अयाव पर्वतोऽहं च वसुराजस्य पर्षदि॥४४०॥ सभायाममिलन सभ्या माध्यस्थ्यगुणशालिनः । वादिनांसदर्सद्वादक्षीर-नीरसितच्छदाः ।।४४१|| आकाशस्फटिकशिलावेदिसिंहासनं वसुः । सभापतिरलञ्चक्रे नभस्तलमिवोडुपः ॥४४२।। तत: पर्वतकोऽहं च व्याख्यापक्षं निजं निजम् । अशंसाव नरेन्द्राय सत्यं ब्रूहीति भाषिणौ।।४४३॥ विप्रवृद्धैरथोचेस विवादस्त्वयि तिष्ठते। प्रमाणमनयो: साक्षी त्वं रोदस्योरिवाऽर्यमा ॥४४४।। घटप्रभृतिदिव्यानि वर्तन्ते हन्त सत्यतः । सत्याद् वर्षति पर्जन्य: सत्यात् सिध्यन्ति देवताः॥४४५।। त्वयैव सत्ये लोकोऽयं स्थाप्यते पृथिवीपते! । त्वामिहाऽर्थे ब्रूमहे किं ? ब्रूहि सत्यव्रतोचितम् ॥४४६।। वैचोऽश्रुत्वेव तत्सत्यप्रसिद्धिं स्वां निरस्य च। अजान् मेषान् गुरुर्व्याख्यदिति साक्ष्यं वसुर्व्यधात्॥४४७।। असत्यवचसा तस्य क्रुद्धास्तत्रैव देवता: । देलयामासुराकाशस्फटिकासनवेदिकाम् ॥४४८॥ वसुर्वसुमतीनाथस्ततो वसुमतीतले। पंपात सद्यो नरकपातं प्रस्तावयन्निव॥४४९।। देवताभिरसत्योक्तिकुपिताभिर्निपातितः। जगाम नरकं घोरं नरनाथो वसुस्ततः॥४५०॥ वसोः सुता: पृथुवसुश्चित्रवसुश्च वासवः । शक्रो विभावसुर्विश्वावसुः सूरश्च सप्तमः ।।४५१।। अष्टमश्च महाशूरो निषण्णा: पैतृके पदे। देवताभिरहन्यन्त तत्कालमपि कोपतः ।।४५२॥ सुवसुर्नवमः सूनुर्नंष्ट्वा नागपुरं ययौ । बृहद्ध्वजो वैसो: सूनुर्दशमो मथुरां पुनः॥४५३।। हसित्वा बहुधा पौरैस्तस्या: पुर्याश्च पर्वत:। निर्वासित: सञ्जगृहे महाकालासुरेण सः॥४५४॥ १. साक्षेप: खंता.२, रसंपा. ॥२.०लङ्घनाधर्ममर्जसि खंता.१, पाता. ला. ॥ ३. जिह्वाच्छेदपणो० खंता.१-२, पाता. ला. कां. मो. मु. ता. ॥४. अङ्गीचक्रे॥५. सदा गृहरताऽप्यहम् खंता.१ ।। ६. उपाय: ।। ७. श्रुति: हे. कां. मो.; वेदवचनात् ।। ८. प्रमाणीकृत० रसंपा. ।। ९. वसुरिति मिथ्या० पाता. ।। १०. बहुं कुरु० ला.; बह मानय ।। ११. वादिनः रसंपा. ॥१२. सन् च असन् च सदसन्तौ, तौ च तौ वादो च सदसद्वादी, तावेव क्षीर-नीरे – दुग्ध-जले, तयोः पृथक्करणे सितच्छदा-हंसाः॥१३. सिंहासने ला. छा. पा. मो. ॥१४. सभापतिरुपाविक्षन्नभस्तल इवोडुप: ला. छा. पा.; सभापतिरुपाविक्षन्नभ:स्थल. मो. ॥ १५. नभःस्थल० हे. ॥ १६. विप्रवृद्धैरथोक्त: पाता. ॥ १७. ४४४तमश्लोकादनन्तरं हे.-मो.प्रत्योरेक: श्लोकोऽधिक: प्राप्यते – “जल१मग्निरर्घट:३ कोशो४, विष५ माषाश्च तन्दुला:७। फालं८धर्म:९ सुतस्पर्शो१०, दिव्यानां दशकं जगुः ॥" १८. त्वया च खंता.१-२॥ १९. वचोऽश्रुत्वाऽथ पाता.; वचोऽश्रुत्वेति रसंपा.; वचः श्रुत्वेति मु. मो. ॥२०. असत्यवचनात् कां. ॥ २१. दलयन्ति स्म चाकाश० ला. छा. पा. मो. ।। २२. पतित: पा. छा. मो. ।। २३. वसुसूनु० रसंपा. ।। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४१ द्वितीयः सर्गः) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । पाकोऽयं महाकाल इति पृष्टो दशमुखेन तु। उवाच नारदोऽत्राऽस्ति चारणयुगलं पुरम् ॥४५५।। राजा तत्राऽयोघनोऽभूदु दितिर्नाम्नां च तत्प्रिया। तयोश्चसुलसा नाम दुहिता रूपशालिनी॥४५६।। पित्रा स्वयंवरे तस्या आहूता: समुपाययुः। सर्वेऽपि पार्थिवास्तेषु पार्थिव: सगरोऽधिकः॥४५७।। सगरस्याऽऽज्ञया द्वा:स्था मन्दोदर्यभिधानतः। अयोधननृपावासे जगाम प्रतिवासरम्॥४५८।। एकदा च गृहोद्यानकदलीसदनेऽविशत्। दितिः समंसुलसया मन्दोदर्यपि चाऽऽययौ॥४५९॥ लतान्तरंनिलीनाऽथ श्रोतुकामा तयोर्वचः। तस्थौ मन्दोदरी प्रोचे दितिश्च सुलसामिति॥४६०॥ वत्से! मम मन:शल्यमस्ति तेऽस्मिन् स्वयंवरे । त्वदधीनस्तदुद्धारस्तत् सम्यक् शृणु मूलतः॥४६१।। ऋषभस्वामिनोऽभूतामुभौ वंशधरौ सुतौ। भरतो बाहुबलिश्चसूर्य-सोमौ ययोः सुतौ॥४६२॥ सोमवंशे मम भ्राता तृणबिन्दुरजायत।सूर्यवंशे ते पिताऽसावयोघनमहीपतिः॥४६३॥ अयोधनस्वसा सत्ययशा नाम महीपतेः । तृणबिन्दोरभूद्भार्या मधुपिङ्गस्तयोः सुतः॥४६४।। तस्मै प्रदीयमानां त्वामहमिच्छामि सुन्दरि! । प्रदित्सते त्वत्पिता त्वां स्वयंवरवराय तु॥४६५।। न जाने कं वृणोषि त्वं? मन:शल्यमिदं मम। वरणीयस्त्वया राजमध्ये मद्भ्रातृजस्तत:॥४६६।। सुलसाऽपि हि तच्छिक्षां तथैव प्रत्यपद्यत। मन्दोदर्यपि तच्छ्रुत्वाऽऽचख्यौ सगरभूपतेः ।।४६७।। सगरोऽप्यादिशद् विश्वभूतिं निजपुरोधसम्। सद्य: कवि: सोऽपि चक्रे राजलक्षणसंहिताम्॥४६८।। तत्रोचे स तथा येन समस्तै राजलक्षणैः । सगरो जायते युक्तो हीनस्तु मधुपिङ्गलः॥४६९।। तत्पुस्तकं तु पेटायां स चिक्षेप पुराणवत्। राजाज्ञयाऽन्यदाऽऽकृष्टं तेन तद्राजपर्षदि॥४७०।। तत्राऽऽदौ सगरोऽवोचद् वाच्यमानेऽत्र पुस्तके। भवेल्लक्षणहीनो यो वध्यस्त्याज्यश्च सोऽखिलैः।।४७१।। यथा यथाऽवाचयत् तत्पुस्तकं स पुरोहितः। तथा तथा स जिह्राय मधुपिङ्गोऽपलक्षणः॥४७२।। निर्ययौ मधुपिङ्गोऽथसगरं सुलसाऽवृणोत् । जज्ञे विवाह: सद्योऽपि सर्वे स्वं स्थानमभ्ययुः ॥४७३।। पामधुपिङ्गोऽप्यपमानात् कृत्वा बालतपो मृत: । महाकालाभिध: षष्टिसहस्रंशोऽसुरोऽभवत् ॥४७४॥ अज्ञासीदेवधे: सोऽथ सगरस्य विजृम्भितम् । स्वयंवरे सुलसाया निजं न्यक्कारकारणम् ।।४७५॥ राजानं सगरं राज्ञोऽन्यांश्च हन्मीति सोऽसुरः। छिद्रान्वेषी शुक्तिमतीनद्यां पर्वतमैक्षत॥४७६।। विप्रवेषस्ततो भूत्वा गत्वा पर्वतमभ्यधात्। शाण्डिल्यो नाम मित्रं त्वत्पितुरस्मि महामते! ॥४७७।। धीमतो गौतमाख्यस्योपाध्यायस्य पुर: पुरा। अहं क्षीरकदम्बश्चाऽपठावसहितावुभौ॥४७८।। नारदेन जनैश्च त्वां श्रुत्वा धर्षितमागमम् । त्वत्पक्षं पूरयिष्यामि मन्त्रैर्विश्वं विमोहयन्॥४७९।। इत्युक्त्वा पर्वतयुत: कुधर्मेणाऽखिलं जनम्। असुरो मोहयामास दुर्गतौ पातनाय सः॥४८०।। व्याधि-भूतादिदोषांश्च सर्वत्राऽजनयन् जने। प्रपन्नपर्वतमतं निर्दोषंचचकार सः॥४८१॥ शाण्डिल्यस्याऽऽज्ञया सोऽपि रुक्छान्तिं पर्वतो व्यधात्। उपकृत्योपकृत्य स्वमते चाऽस्थापयज्जनम्॥४८२॥ सगरस्याऽपि नगरेऽन्त:पुरेऽथ परिच्छदे। विचक्रे सोऽसुरो रोगान् दारुणानतिभूयसः॥४८३।। लोकप्रत्ययतो भेजे पर्वतं सगरोऽपि हि। चकार शाण्डिल्ययुतो रुक्छान्तिं सोऽपि सर्वतः ॥४८४।। सौत्रीमण्यां विधानेन सुरापाणं न दुष्यति। अगम्यागमनं कार्यं यज्ञे गोसर्वनामनि ॥४८५॥ मातृमेधे वधो मातुः पितृमेधे वधः पितुः। अन्तर्वेदि विधातव्यो दोषस्तत्र न विद्यते॥४८६।। आशुशुक्षणिमाधाय पृष्ठे कूर्मस्य तर्पयेत्। हविषा जुह्वकाख्याय स्वाहेत्युक्त्वा प्रयत्नतः॥४८७।। १. मि च खंता.१-२ ॥ २. द्वारपालिका ।। ३. लतान्तरविलीना० खंता.१-२, पाता. मु. ।। ४. तयोः कां. छा. पा. ॥ ५. प्रदातुमिच्छति ।। ६. तद्गत्वाऽऽचख्यौ मो. ।। ७. भूभुजे ता. ।। ८. नृप० मु. ।। ९. तत्र पुस्तके स विश्वभूतिपुरोहित: तथा रचयामासेत्यर्थः ।। १०. ०लक्षणन्यूनो ता. ॥११. ०स्ताड्यश्च पाता. ॥१२. लज्जां प्राप।।१३. “षष्टिवर्षसहस्रायुरसुरोऽभवत्" टि.हे.प्रतौ ॥१४. अवधिज्ञानात् ।। १५. तिरस्कारकारणम् ।। १६. गोतमा० ता.।। १७. तिरस्कृतम् ।।१८. अङ्गीकृतं पर्वतस्य मतं येन तं नरम् ।। १९. रोगशान्तिम् ॥२०.पर्वत: खंता.१, पाता. ॥ २१. यज्ञस्य नाम तत्र ।। २२. सुरापानम् मु.।। २३. अगम्यायाः खिया: गमनं-सङ्गः ।। २४. गोवध० खंता.१॥२५. अग्निम्।। परुक्छान्ति समपर्वतमतंरिता पातनाय Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (सप्तमं पर्व यदा न प्राप्नुयात् कूर्मं तदा शुद्धद्विजन्मनः । 'खलते: 'पिङ्गलाभस्य 'विक्रियस्य शुचौ जले॥४८८॥ आस्यदघ्नेऽवतीर्णस्य मस्तके कूर्मसन्निभे। प्रज्वाल्य ज्वलनं दीप्तमाहुतिं निक्षिपेद् द्विजः॥४८९॥युग्मम्।। सर्वं पुरुष एवेदं यद् भूतं यद् भविष्यति । ईशानो योऽमृतत्वस्य यदन्नेनाऽतिरोहति ॥४९०।। एवमेकत्र पुरुषे किं केनाऽत्र विपाद्यते ? । कुरुताऽतो यथाभीष्टं यज्ञे प्राणनिपातनम्॥४९१।। मांसस्य भक्षणं तेषां कर्तव्यं यज्ञकर्मणि । यायजूकेन पूतं हि देवोद्देशेन तत्कृतम्॥४९२॥ इत्यादि समुपदिश्य सगरे स्वमतस्थिते। अन्तर्वेदि कुरुक्षेत्रादिषु सोऽकारयन्मखान् ।।४९३॥ सलब्धप्रसरोऽकार्षी राजसूयादिकानपि। असुरोऽप्यध्वरहतान् विमानस्थानदर्शयत्॥४९४॥ ततः सप्रत्ययो लोक: प्राणिहिंसात्मकान् मखान् । निःशङ्कमकरोत् तस्य पर्वतस्य मते स्थितः॥४९५।। तत्प्रेक्ष्याऽहं तदा विद्याधरं नाम्ना दिवाकरम्। अवोचं यत् त्वया यज्ञे हर्तव्या: पशवोऽखिलाः॥४९६।। प्रतिपद्य स मे वाचंजहे यावत् पशून मखे। परमाधार्मिकस्तावत् तदज्ञासीत् सुराधमः॥४९७।। ऋषभप्रतिमांतत्र तद्विद्याघातनाय सः। अस्थापयन्महाकाल उपारंसीच्च खेचरः॥४९८॥ ततोऽहमपि तूष्णीक: क्षीणोपायोऽन्यतोऽभ्यगात्। यज्ञेषुभावयामास सगरं सोऽथ मायया॥४९९॥ सगरं सुलसायुक्तं स जुहावाऽध्वरानले। कृतकृत्यो जगामाऽथ महाकाल: स्वमाश्रयम्॥५००|| एवं चपर्वतात् पापपर्वतादध्वरा द्विजैः । हिंसात्मका अक्रियन्त ते निषेध्यास्त्वयैव हि॥५०१|| तद्वाचमुररीकृत्य प्रणिपत्य च नारदम् । मरुत्तात् क्षमयित्वा च विससर्ज दशाननः॥५०२॥ मरुत्तो रावणं नत्वोवाच कोऽयं कृपानिधिः। पापादमुष्माद्यो ह्यस्मांस्त्वया स्वामिन्! न्यवारयत् ? ।।५०३।। आचख्यौ रावणोऽप्यासीन्नाम्ना ब्रह्मरुचिर्द्विजः । तापसस्य सतस्तस्य भार्या कूर्मीति गुळभूत् ।।५०४।। तत्रेयुः साधवोऽन्येद्युस्तेष्वेकः साधुरब्रवीत्। भवभीत्या गृहवासस्त्यक्तो यत् साधु साधु तत् ॥५०५॥ भूय: स्वदारसङ्गस्य विषयैर्लुप्तचेतसः । गृहवासाद् वनवास: कथं नाम विशिष्यते ? ॥५०६॥ श्रुत्वा ब्रह्मरुचिस्तत् तु प्रपन्नजिनशासन: । तदैव प्राव्रजत् सा चकूयंभूच्छ्राविका परा॥५०७।। मिथ्यात्ववर्जिता तत्र सा वसन्त्याश्रमे सुतम्। सुषुवे नारदं नाम रोदनादिविवर्जितम् ।।५०८॥ गतायाश्चाऽन्यतस्तस्यास्तं जहुर्जुम्भकामराः। पुत्रशोकादिन्दुमालार्यान्तिके प्राव्रजच्च सा॥५०९।। तेऽमरा: पालयामासुः शास्त्राण्यध्यापयंश्च तम्। आकाशगामिनी विद्यां ददुस्तस्मै क्रमेण च॥५१०॥ अणुव्रतधरः प्राप यौवनं च मनोहरम्। स शिखाधारणान्नित्यं न गृहस्थो न संयतः॥५११।। कलहप्रेक्षणाकाङ्क्षी गीत-नृत्यकुतूहली। सदा कन्दर्प-कौत्कुच्य-मौखर्यात्यन्तवत्सलः॥५१२॥ वीराणां कामुकानां च सन्धि-विग्रहकारकः । छत्रिका-ऽक्ष-वृषीपाणिरारूढ: पादुकासुच॥५१३॥ देवै: संवर्धित्वाच्च देवर्षिः प्रथितो भुवि। प्रायेण ब्रह्मचारी चस्वेच्छाचार्येष नारदः ॥५१४॥ इत्युक्तवन्तंलकेशमज्ञानकृतमात्मनः । मरुत्तः क्षमयामासाऽपराधं मखसम्भवम् ।।५१५।। मरुत्तराज: स्वां कन्यां नामत: कनकप्रभाम् । तदा ददौ दशास्याय दशास्योप्युदुवाह ताम्॥५१६।। पप्रेभञ्जन इवौजस्वीमरुत्तमखभञ्जनः। ततो जगाम मथुरां नगरीगुरुविक्रमः॥५१७।। उपतस्थे दशग्रीवं तन्नृपो हरिवोहणः। पुत्रेण मधुना सार्धमीशानेनेव शूलिना॥५१८।। तंभक्त्योपस्थितं प्रीतो वार्तयन् दशकन्धरः । पप्रच्छैव भवत्सूनो: कुतोऽदः शूलमायुधम् ? ॥५१९।। १. 'खल्वाटस्य,टालियुते शिरसि' टि. हे.प्रतौ ॥२. 'पिङ्गला आभा यस्य'टि. हे.प्रतौ॥३. विशिष्टा क्रिया यस्य' टि. हे.प्रतौ ॥ ४.मुखप्रमाणे॥५. प्रक्षिपेद् मु.॥६.“अमृतत्वं अजरामरपदम्" टि. हे.प्रतौ॥५.“अन्नेन-आहारेण अतिरोहति-वर्धते" टि. हे.प्रतौ ।। ८.“एकत्र सर्व-वस्तुमये पुरुषे सति किं वस्तु केन पुरुषेण अत्र विश्वे विनाश्यतेऽपि तु केनाऽपि किमपि न विनाश्यते, कस्याऽपि हिंसाजनितं पापं न लगतीत्यर्थः'' टि. हे.प्रतौ ॥९.क: केनाऽत्र ता. ॥१०. विपद्यते ला. मु.,खंता.१-२, पाता.ला.॥११. पुन: पुनर्यजतीति यायजूकस्तेन ॥ १२. समुपादिश्य मु.॥ १३. तं सत्कृत्य रसंपा. ॥१४. गर्भवती ॥१५. सदार० हे. कां.ला. मो.॥१६. पुत्रशोकादिन्दुमालासविधे मु.॥१७. ०नृत्त० रसंपा.॥१८. कामचेष्टित-वाचालत्वयोरत्यन्तवत्सलः॥१९. ०कौकुच्य० मु.॥२०. दर्भासनविशेषो वृषी।। २१. महावायुः ॥२२. हरिवाहन: मु.ला.॥२३. शङ्करेण त्रिशूलधारिणा ॥२४. प्रीतोऽवार्तयद्दश० मु. खंता.१-२ प्रभृतिषु॥ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः ) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । पित्रा सञ्ज्ञयाऽऽदिष्टो 'मधुर्मधुरमभ्यधात्। इदं मे चमरेन्द्रेण प्राग्जन्मसुहृदाऽर्पितम् ॥ ५२० ॥ ||अवोचच्चमरश्चैवं धातकीखण्ड नामनि । द्वीप ऐरावत क्षेत्रे शतद्वारे महापुरे ॥ ५२१ ॥ सुमित्रो राजपुत्रोऽभूत् प्रभवः कुलपुत्रकः । उभावभूतां ते मित्रे वसन्त- मदनाविव ॥५२२॥ युग्मम्॥ गुरोरेकस्य पार्श्वे तौ बाल्ये जगृहतुः कलाः । सह चिक्रीडतुश्चाऽविप्रयुक्तावश्विनाविव ॥५२३॥ उद्यौवनः सुमित्रोऽथ तत्राऽभून्नगरे नृपः । महर्द्धिर्विदधे तेन प्रभवोऽप्यात्मसन्निभः ॥५२४॥ राजैकदा तुरङ्गेण हतः प्राप महाटवीम् । पल्लीपतिसुतां तत्र वनमालामुपायत ॥५२५॥ तामादाय समायातः स राजा स्वपुरे पुनः । प्रभवेण च सा प्रेक्षि रूप-यौवनशालिनी ॥५२६ ॥ तद्दर्शनात् प्रभृत्येव स मैनोभवपीडितः । दिने दिने कृशो जज्ञे कृष्णपक्ष इवोडुपः ॥ ५२७॥ असाध्यं मन्त्र-तन्त्राणां तं ज्ञात्वाऽतिकृशं नृपः । इत्यूचे बाधते किं ते ? सम्यगाख्याहि बान्धव! ॥५२८॥ अभ्यधात् प्रभवोऽप्येवं वक्तुमेतन्न शक्यते । अलं कुलकलङ्काय यन्मनः स्थमपि प्रभो! ।। ५२९ ।। निर्बन्धाद् भूभुजा पृष्टः स आख्यत् कुलपुत्रकः । वनमालानुरागो मे देहदौर्बल्यकारणम् ॥५३०॥ राजाऽप्यूचे राज्यमपि त्वदर्थे सन्त्यजाम्यहम्। किं पुनर्महिलामात्रमियमद्यैव गृह्यताम् ॥५३१ ॥ इत्युक्त्वा तं विसृज्याऽथ तस्याऽनुपदमेव ताम् । स्वयं दूतीमिव प्रैषीत् तदोकसि निशामुखे ॥ ५३२॥ इत्यूचे साऽपि राज्ञाऽहं तुभ्यं दत्ताऽस्मि सीदते । जीवातुरिव तच्छाधि पत्याज्ञा मे बलीयसी ॥५३३॥ मम भर्ता त्वदर्थे हि प्राणानपि विमुञ्चति । किं पुनर्मादृशीं दासीमुदासीन: किमीक्षसे ? ॥ ५३४|| बभाषे प्रभवोऽप्येवं धिग्धिङ् मां निरपत्रपम् । अहो ! स तु महासत्त्वो यस्येदृक् सौहृदं मयि ॥ ५३५॥ प्राणा अपि हि दीयन्ते परस्मै न पुनः प्रिया । इति दुष्करमेतद्धि कृतं तेनाऽद्य मत्कृते ॥ ५३६|| पिशुनानामिवाऽवाच्यं नाऽयाच्यं बत मादृशाम् । कल्पद्रूणामिवाऽदेयं नाऽस्ति किञ्चित्तु तादृशाम् ॥५३७॥ सर्वथा गच्छ माताऽसि मांडतः परमिमं जनम् । पश्य भाषस्व वा पापराशिं पत्याज्ञयाऽपि हि ॥५३८॥ तत्र च च्छन्नमागत्य राजा शुश्राव तद्वचः । सुहृदः सत्त्वमालोक्य प्रकर्षेण जहर्ष च ॥ ५३९ ॥ वनमालां नमस्कृत्य विसृज्य प्रभवोऽपि हि । स्वशिरश्छेत्तुमारेभे खड्गमाकृष्य पाणिना । ५४० ॥ आविर्भूय सुमित्रोऽपि मित्र! मा साहसं कृथाः । इति जल्पन्नपाहार्षीत् कृपाणं तस्य पाणितः ॥५४१ ॥ विविक्षेन्निव वसुधां प्रभवोऽधोमुखो हिया । कथञ्चन सुमित्रेण स्वस्थावस्थामैनीयत ॥५४२॥ चक्रतुस्तौ चिरं राज्यं प्राग्वन्मैत्रीपरायणौ । सुमित्रस्तु परिव्रज्य मृत्वेशानसुरोऽभ ऽभवत् ॥५४३ ॥ ततश्च्युत्वा मथुरेशहरिवहणनन्दनः । त्वं सुबाहुर्मधुनीमा माधवी कुक्षिभूरभूः ॥ ५४४ ॥ प्रभवोऽपि भवं भ्रान्त्वा चिरं विश्वावसोरभूत् । ज्योतिर्मत्यां श्रीकुमार इति नाम्ना तैनूरुहः ।। ५४५ ।। सनिदानं तपः कृत्वा कालयोगाद् विपद्य च । अभवं चमरेन्द्रो ऽहं पूर्वजन्मसुहृत् तव ॥ ५४६ ॥ इत्याख्याय स मेऽदत्त शूलमेतदुपेत्य यत् । आयोजनद्विसहस्याः कृत्वा कार्यं निवर्तते ॥५४७॥ इति श्रुत्वा दशग्रीवो भक्ति-शक्तिविराजिने । ददौ मधुकुमाराय कन्यां नाम मनोरमाम् ॥ ५४८।। ॥अथ लङ्काप्रयाणाहाद् वर्षेष्वष्टादशस्वगात् । स्वर्णाद्रौ पाँण्डके चैत्यान्यर्चितुं दशकन्धरः ॥५४९।। सोत्कण्ठस्तत्र चैत्यानि दशकण्ठोऽभ्यवन्दत । ऋद्ध्या महत्या सङ्गीत-पूजोत्सवपुरःसरम् ॥५५०॥ दुर्लच्चनगरेऽथेन्द्रदिक्पालं नलकूबरम् । ग्रहीतुं कुम्भकर्णाद्या दशग्रीवाज्ञया ययुः ॥५५१॥ आशाली विद्यया वह्निमयं वप्रमथ व्यधात् । स्वपुरे योजनशतप्रमाणं नलकूबरः ।। ५५२॥ हुताशनमयान्येव चक्रे यन्त्राणि तत्र च । प्रेंदीपनमिव व्योम्नि कुर्वाणानि शिखोत्करैः ॥५५३॥ १४३ १. मधुरं मधुरमभ्यधात् मु.॥ २. दशद्वारे पाता. ॥ ३. अवियोगिनौ देववैद्याविव ॥ ४. कामपीडितः ॥ ५. चन्द्रः ॥ ६. आग्रहात् ।। ७. दुःखिने ।। ८. आदिश ।। ९. निर्लज्जम् ॥ १०. नाऽतः मु. ॥। ११. सा मु. ॥। १२. प्रवेष्टुमिच्छन् । १३. ० मनायि सः ला. कां. ता. मु. ॥ १४. ० हरिवाहन० ला. ता. ।। १५. ०र्मधुर्नाम० ला. ।। १६. पुत्रः ।। १७. ०पाण्डकचैत्या० ला ॥ १८. दुर्लङ्घपुरेऽथेन्द्रप्राग्दिक्पालं० ला. हे. कां. ला. ॥ १९. आशाला० ता. ॥ २०. 'तापणुं ' इति भाषायाम्, अग्निम् ॥ २१. शरोत्करैः खंता. १; ज्वालासमूहैः ॥ For Private Personal Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (सप्तमं पर्व तं च वप्रम'वष्टभ्याऽवतस्थे नलकूबरः । भटैः परिवृत: कोपाज्ज्वलन् वह्रिकुमारवत् ॥५५४।। तेऽप्येत्य कुम्भकर्णाद्यास्तं द्रष्टुमपि नाऽशकन् । ग्रीष्ममध्याह्नमार्तण्डमिव सुप्तोत्थिता नराः ।।५५५।। दुर्लङ्घमेतद् दुर्लङ्घपुरमित्यपसृत्य ते। भग्नोत्साहा: कथमपि दशास्याय व्यजिज्ञपन्॥५५६।। स्वयं दशास्यस्तत्राऽगात्तं वप्रं प्रेक्ष्य तादृशम्। अपश्यंस्तद्ग्रहोपायं चिरं दध्यौ सबान्धवः॥५५७।। अनुरक्ता दशास्यस्य नलकूबरपत्न्यथ। प्रैषीद् दूतीमुपरम्भा सा तमेत्यैवमब्रवीत्॥५५८॥ जयश्रीरिव मूर्तोपरम्भा त्वयि रिरंसते। सा त्वद्गुणैर्हतमनास्तत्र मूत्यैव तिष्ठति॥५५९।। इमांच विद्यामाशालीमस्य वप्रस्य रक्षिकाम्। करिष्यति तवाऽऽयत्तामात्मानमिव मानद! ॥५६०॥ ग्रहीष्यति तया चेदं पुरं सनलकूबरम् । सेत्स्यत्यत्र च ते चक्रं देव! नाम्ना सुदर्शनम्॥५६१।। सप्रहासंदशास्येन वीक्षितोऽथ बिभीषणः। एवमस्त्विति भाषित्वा दूतिकां विससर्ज ताम्॥५६२।। अथ क्रुद्धो दशग्रीव आबभाषे बिभीषणम्। अरे! कुलविरुद्धं किं प्रतिपन्नमिदं त्वया?॥५६३।। हृदयं जातुचिद् दत्तं परस्त्रीणां न कैरपि। अस्मत्कुलभवैर्मूढ! रणे पृष्ठं द्विषामिव॥५६४॥ नव: कुलकलङ्कोऽयं वचसाऽपि कृतस्त्वया । रेबिभीषण! केयं ते मतिर्येनेदमब्रवी: ? ॥५६५॥ बिभीषणोऽप्युवाचैवं प्रसीदाऽऽर्य! महाभुज! । न वाग्मात्रं कलङ्काय विशुद्धमनसां नृणाम्॥५६६।। सा समायातु विद्यां ते प्रयच्छतु स च द्विषन् । वश्योऽस्तु मा भजेथास्तां वाचोयुक्त्या परित्यजेः ।।५६७॥ यावद् बिभीषणवचोऽनुमेने तद्दशाननः । तावदागादुपरम्भा तत्परीरॅम्भलम्पटा॥५६८॥ ददौ चाऽऽशालिकां विद्यां पत्या वप्रीकृतां पुरे। मोघेतराणि शस्त्राणि व्यन्तराधिष्ठितानि च॥५६९।। दशास्य: सञ्जहाराऽग्निप्राकारं विद्यया तया। प्रविवेश च दुर्लङ्घपुरं सबलवाहन: ॥५७०॥ उत्तस्थे चाऽथ सन्ना रणाय नलकूबरः । बिभीषणेन चाऽग्राहि चर्मभस्त्रेव दन्तिना॥५७१।। देवासुरैरप्यजय्यं शक्रसम्बन्धि दुर्धरम् । चक्रंसुदर्शनं नाम तत्र प्राप चरावणः ।।५७२।। प्रणताय ततस्तस्मै दशास्यस्तत्पुरं ददौ। अर्थिनोऽर्थेषु न तथा दोष्मन्तो विजये यथा॥५७३।। उपरम्भामप्युवाच दशास्यः स्वकुलोचिताम्। भद्रे! भजाऽऽत्मभर्तारं कर्तारं विनयं मयि॥५७४।। विद्यादानाद् गुरुस्थाने मम त्वमसि सम्प्रति। स्वसृ-मातृपदे पश्याम्यन्या अपि परस्त्रियः॥५७५॥ पुत्री कामंध्वजस्याऽसि सुन्दर्युदरसम्भवा। कुलद्वयविशुद्धाया: कलङ्को मा स्म भूत् तव॥५७६।। तामित्युक्त्वाऽपर्यामासनलकबरभभुजे। अदषितां पितुर्गेहेरुषित्वेव समागताम॥५७७। नलकूबरराजेन कुम्भकर्णाग्रजोऽर्चित: । चचाल सह चाऽभिरथनूपुरपत्तनम् ॥५७८॥ आयान्तंरावणं श्रुत्वा सहस्रारो महामतिः । सुतमिन्द्रं सुतस्नेहात् स्नेहपूर्वमभाषत॥५७९|| भवता वत्स! जातेन वंशोऽस्माकं महौजसा। अन्यवंशोन्नतिं हत्वा प्रापित: प्रोन्नतिं पराम्॥५८०॥ एकेन विक्रमेणैव त्वया हीदमनुष्ठितम्। नीतीनामप्यवकाशो दातव्य: सम्प्रति त्वया॥५८१।। एकान्तविक्रम: क्वाऽपि विपदेऽपि प्रजायते। एकान्तविक्रमान्नाशं शरभाद्या: प्रयान्ति हि॥५८२॥ बलीयसो बलिभ्योऽपि प्रसूते हि वसुन्धरा। सर्वेभ्योऽप्यहमोजस्वीत्यहङ्कारं स्म मा कृथाः॥५८३॥ उत्थितोऽस्त्यधुना वीर: सर्ववीरत्वतस्करः। प्रतापेन सहस्रांशुः सहस्रांशुनियन्त्रकः॥५८४।। हेलोत्पाटितकैलासो मरुत्तमखभञ्जनः । जम्बूद्वीपेशयक्षेन्द्रेणाऽप्यक्षोभितमानसः ।।५८५॥ उपार्हन्निजदोर्वीणागीततोषितचेतसः। धरणेन्द्रादमोघाप्तशक्ति: शक्तित्रयोर्जितः ॥५८६॥ १. अवलम्ब्य ।। २. दुर्लध्य० ता. ला. मु., खंता.२ ॥ ३. दशाननः खंता.२, पाता. ता. ॥४. स्वगृहे केवलं शरीरेणैव तिष्ठति, मनस्तु तस्यास्त्वयि वर्तत इति ।।५. ०माशाला० ता. ॥ ६. दैवं मु. मो. ता.॥७. अस्मत्कुलभटै० ता.।। ८. तदालिङ्गनोत्सुका ।।९. अमोघानि ॥१०. कासध्वज० रसंपा. ॥११. ०विरुद्धाया: मु.॥१२. चमूभी० खंता.१-२, पाता. ता.; सेनाभी० मो. मु. ॥१३. हित्वा हे.; हित्वा का. ।। १४. वीर! ता. ॥१५. सर्वेषां वीरत्वं लुण्टतिनाशयतीत्येतादृशस्तस्करः ।।१६. सूर्यः ।। १७. सहस्रांशु म राजा, तन्नियन्त्रकः ।। १८. अष्टापदपर्वतः ।। १९. अर्हत्समीपे निजदोर्वीणाया गीतेन प्रसादितं चित्तं यस्य तस्मात् ।। २०.०दमोघास्त्रशक्तिः पाता. ॥ २१. प्रभाव-उत्साह-मन्त्रजास्तिस्रः शक्तय:, ताभिरूर्जितो बलवान् ।। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः ) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । १४५ T भ्रातृभ्यां स्वानुरूपाभ्यां स्वभुजाभ्यामिवोत्कटः । रावणो नाम लङ्केशः सुकेशकुलभास्करः ॥ ५८७॥ [ चतुर्भिः कलापकम् ] स यमं हेलयाऽभाङ्गीत् पंत्तिं वैश्रवणं च ते। पत्तीचक्रे वानरेन्द्रं सुग्रीवं वालिसोदरम् ॥ ५८८|| दुर्लङ्घवह्निप्राकारं दुर्लङ्घ्यपुरमस्य च। प्रविष्टस्याऽनुजो बद्ध्वा जग्राह नलकूबरम् ॥५८९|| स त्वां प्रत्यापतन्नस्ति युगान्ताग्निरिवोद्धतः । प्रणिपातसुधावृष्ट्या शमनीयोऽन्यथा न तु ॥ ५९०॥ रूपिणीं च सुतामस्मै यच्छ रूपवतीमिमाम् । एवं ह्युत्तमसन्धानं सम्बन्धात् ते भविष्यति ।।५९१।। एवं पितृवचः श्रुत्वा कुप्यन्नेवमुवाच सः । कन्यका स्वा कथङ्कारमस्मै वध्याय दीयते ? ।। ५९२ ।। किं च नाऽधुनिकं वैरममुना किं तु वंशजम् । तातं विजयसिंहं प्रागेतद्गृह्यैर्हतं स्मर ।।५९३।। एतत्पितामहस्याऽपि मालिनो यन्मया कृतम् । तदस्याऽपि करिष्यामि समायात्वेष को यम् ? ५९४ ॥ स्नेहतः कातरो मा भूः सहजं धैर्यमाश्रय । स्वसूनोः सर्वदा दृष्टं किं न वेत्सि पराक्रमम् ? ।। ५९५ ॥ " तस्यैवं वदतोऽभ्येत्य नगरं रथनूपुरम् । चमूभिर्वेष्टयामास दुर्धरो दशकन्धरः ||५९६ || पूर्वमेव दशास्येन प्रहितो महितौजसा । अथ दूतोऽभ्युपेत्येन्द्रमित्युवाच ससौष्ठवः ॥५९७|| ये केचिदिह राजानो विद्या-दोर्वीर्यदर्पिणः । तैरुपेत्योपायनाद्यैः पूजितो दशकन्धरः ।। ५९८।। दशकण्ठस्य विस्मृत्या भवतश्चाऽऽर्जवादयम् । इयान् कालो ययौ तस्मिन् भक्तिकालस्तवाऽधुना । । ५९९ ।। भक्तिं दर्शय तत् तस्मिन् शक्तिं वा दर्शयाऽधुना । भक्ति-शक्तिविहीनश्चेदेवमेव विनङ्क्ष्यसि ॥ ६०० ॥ इन्द्रोऽपि निजगादैवं वराकैः पूजितो नृपैः । रावणस्तदयं मत्तः पूजां मत्तोऽपि वाञ्छति ॥ ६०१ || यथा तथा गतः कालो रावणस्य सुखाय सः । कालरूपस्त्वयं कालस्तस्येदानीमुपस्थितः ॥ ६०२ ॥ गत्वा स्वस्वामिनो भक्तिं शक्तिं वा मयि दर्शय । स भक्ति-शक्तिहीनश्चेदेवमेव विनङ्क्ष्यति ॥ ६०३ || दूतेनाऽऽगत्य विज्ञप्तो रावणो कोपदारुणः । समनह्यन्महोत्साहः समं सकलसैनिकैः॥६०४॥ द्रुतमिन्द्रोऽपि सन्नह्य निर्ययौ रथनूपुरात् । 'वीरा हि न सहन्तेऽन्यवीराहङ्कारडम्बरम् ।।६०५।। [ सामन्ताः सह सामन्तैः सैनिका: सैनिकैः पुनः । सेनानीभिश्च सेनान्यो द्वयोर्युयुधिरे तयोः || ६०६ ॥ तयोर्बलानामन्योऽन्यं सॅम्फेटः शस्त्रवर्षिणाम् । संवर्त्त- पुष्करावर्त्तवारिदानामिवाऽभवत् ॥ ६०७॥ वराकैः सैनिकैरेभिः किं हतैर्मशकैरिव ? । इति ब्रुवाणो भुवनालङ्कारकरिपुङ्गवम् ॥६०८॥ स्वयमारुह्य युद्धायाऽधिज्यीकृतशरासनः । अढौकतैरावणस्थेनेन्द्रेण सह रावणः ॥ ६०९॥ युग्मम्॥ नागपाशमिवाऽन्योऽन्यं मुखयोः कैरवेष्टनम् । वितन्वानौ मिमिलतुः करिणौ रावणेन्द्रयोः ॥६१०॥ द्वावपीभौ महाप्राणौ दन्तैर्दन्तान् प्रजघ्नतुः । उत्थापयन्तौ स्फुलिङ्गानरण्युन्मथनादिव॥६११॥ मिथोघातैर्विषणेभ्य: सौवर्णवलयावलिः । पपातोर्व्यां विरहिणीबाहुभ्य इव तत्क्षणात् ॥ ६१२॥ तद्दन्तघातक्षुण्णेभ्यः शरीरेभ्यो निरन्तरम् । गण्डेभ्यो मदधारावद् रक्तधाराः प्रसुभ्रुवुः ॥६१३॥ क्षणाच्छल्यै: क्षणाद् बाणै: क्षणादपि च मुद्गरैः । गजाविवें द्वितीयौ तौ रावणेन्द्रौ प्रजहतुः ||६१४॥ महाबलौ पिपिषेंतुरस्त्रैरस्त्राणि तौ मिथः । नैकोऽप्यहीयतैकस्मादब्धी पूर्वापराविव ॥६१५॥ बाध्य-बाधकताभाग्भिर्द्रागुत्सर्गा-ऽपवादवत् । मन्त्रास्त्रैरप्ययुध्येतां तौ रणक्रेतुदीक्षितौ ॥६१६।। गाढं मिलितयोरेकवृन्तस्थफलयोरिव । ऐरावण भुवनालङ्कारयोः करिणोरथ ॥ ६१७|| छलज्ञो रावणः स्वेभादुत्पत्यैरावणं ययौ । हत्वा च तन्महामत्रं बबन्धेन्द्रं करीन्द्रवत् ॥ ६१८॥ युग्मम्॥ स हस्ती परितोऽधस्ताद् रक्षोवीरैरवेष्ट्यत । हर्षादुत्तालतुमुलैर्मधुमैण्ड इवाऽलिभिः ॥६१९॥ १. दिक्पालं धनदं खंता. १ - २, ला.; दिक्पालधनदं हे. कां. ला. ता. ॥। २. दुर्लङ्घ्य० खंता. १, मु. ॥ ३. अभ्यागच्छन् । ४. विविधात् ते ता. ॥ ५. कुप्यन्निदमुवाच रसंपा. ।। ६. तावद् ला ॥ ७ एतत्पक्ष्यैः ॥ ८. समायात्वेषको ह्ययम् मु. ॥ ९. वदतोऽप्येत्य ला. ॥ १०. ० दोवीर्यदर्पिता: मु.; ० दोवीर्यदर्पणा: कां. ला. ॥ ११. मत्पार्श्वात् ॥ १२. विज्ञप्ते रसंपा. ॥ १३. धीरा ला ॥ १४. युद्धम् ॥ १५. करः शुण्डा ॥ १६. प्रजहतुः ला. रसंपा. ॥। १७. दन्तेभ्यः ॥१८. विरहाकुलत्वेन कृशायाः स्त्रियो बाहुभ्यः ॥ १९. करीरीभ्यो० हे. ता.; करीरीभ्यां० ला.; करीभ्योऽपि छा. पा. ॥ २०. गजाविवाद्वि० मु., ता. पाता. प्रभृतिषु ॥ २१. प्रजघ्नतुः मु. ॥ २२. सञ्चूर्णयामासतुः ।। २३. रण एव क्रतुः यज्ञः, तत्र दीक्षितौ ॥ २४. हस्तिपकम् (महावत ) ॥ २५. 'मधपूडो' इति भाषायाम् ॥ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्यप्रणीतं रावणेन धृते शक्रे तत्सैन्यमपि सर्वतः । विदुद्राव जिते नाथे जिता एव पदातयः ॥ ६२०॥ सहैवैरावणेनेन्द्रं रावण: शिबिरे निजे । निनाय नायैक्यभवत् स्वयं श्रेणिद्वयेऽप्यथ ॥६२१॥ ततो निवृत्य लङ्कायां जगाम दशकन्धरः । कारायां चाऽक्षिपच्छक्रं कीरवत् काष्ठपञ्जरे ॥ ६२२॥ "सहस्रारः सदिक्पालो लङ्कायामेत्य रावणम् । नमस्कृत्येत्यभाषिष्ट पत्तिवद् रचिताञ्जलिः ॥६२३॥ कैलासमुदधार्षीद् यो लीलया ग्रावैखण्डवत् । दोष्मता तेन भवता विजिता न त्रपामहे ॥६२४॥ तादृशे त्वयि याच्ञाऽपि न त्रपायै मनागपि । तेद् याचेऽहं मुञ्च शक्रं पुत्रभिक्षां प्रयच्छ मे ॥ ६२५॥ उवाच रावणो ऽप्येवं शक्रं मुञ्चामि यद्यसौ । सदिक्पालपरीवारः कर्म कुर्यात् सदेदृशम् ॥ ६२६ ॥ परितोऽपि पुरीं लङ्कां करोत्वेष क्षणे क्षणे । तृणकाष्ठादिरहितां वासागारमहीमिव ॥ ६२७|| प्रात: प्रातर्दिव्यगन्धैरम्बुवाह इवाऽम्बुभिः । चेलर्वनोपं पुरीमेतामभितोऽप्यभिषिञ्चतु ॥ ६२८।। मालाकार इवोच्चित्य ग्रथित्वा च सदा स्वयम् । पुष्पाणि पूरयत्वेष देवतावसरादिषु ॥ ६२९ ॥ एवंविधानि कर्माणि कुर्वन्नेष सुतस्तव । पुनर्गृह्णातु राज्यं स्वं मत्प्रसादाच्च नन्दतु ॥६३०॥ एवं करिष्यतीत्युक्ते सहस्रारेण रावणः । मुमोच शक्रं कारायाः सत्कृत्य निजबन्धुवत्॥६३१॥ रथनूपुरमेत्येन्द्रस्तस्थावुद्विग्न उच्चकैः । तेजस्विनां हि निस्तेजो मृत्युतोऽप्यतिदुःसहम् ॥ ६३२ ॥ निर्वाणसङ्गमो नाम ज्ञानी तत्राऽन्यदा मुनिः । समवासरदिन्द्रोऽपि तं वन्दितुमुपाययौ ॥६३३॥ भगवन्! कर्मणा केन रावणादिदमासदम् । न्यक्कारमिति शक्रेण पृष्टः स मुनिरब्रवीत् ॥ ६३४॥ श्रीमत्यरिञ्जयपुरे पुरा विद्याधराग्रणीः । नाम्ना ज्वलनसिंहोऽभूद् वेगवत्यस्य तु प्रिया ॥ ६३५ ॥ . अहल्या नाम दुहिता रूपवत्यभवत् तयोः । तस्या: स्वयंवरेऽभ्येयुः सर्वे विद्याधरेश्वराः ॥ ६३६ || आनन्दमाली तत्राऽऽगाच्चन्द्रावर्तपुरेश्वरः । सूर्यावर्तपुरे शस्त्वमागान्नाम्ना तडित्प्रभः ॥ ६३७॥ सहाऽऽयातमपि त्यक्त्वा त्वामहल्या निजेच्छया । आनन्दमालिनं वव्रे तवाऽभूच्च पराभवः ॥ ६३८ ॥ आनन्दमालिनीर्ष्यालुस्त्वमभूस्तत्प्रभृत्यपि । मयि सत्यप्यसावेतामहल्यामूढवानिति ॥६३९॥ आनन्दमाली निर्वेदादन्यदा व्रतमग्रहीत्। तप्यमानस्तपस्तीव्रं व्यहार्षीच्च सहर्षिभिः ॥ ६४० ॥ विहरन् स रथावर्तं जगाम गिरिमेकदा । त्वया च ददृशेऽस्मारि चाऽहल्याया: स्वयंवरः ॥ ६४१|| ध्यानारूढस्त्वया बद्धस्ताडितोऽनेकशश्च सः । मनागपि न च ध्यानादचालीदचलाचलः ॥६४२॥ कल्याणगुणधरस्तु तेंदूभ्राता श्रमणाग्रणीः । प्रेक्ष्य त्वय्यमुचत् तेजोलेश्यां शम्पामिव द्रुमे ॥६४३॥ सत्यश्रिया च त्वत्पेत्या शमितो भक्तिजैंल्पितैः । तेजोलेश्यां स सञ्जहे न दग्धोऽस्ति तदैव तत् ॥६४४॥ मुनिर्यैत्कारजात् पापात् त्वं भ्रान्त्वा कतिचिद् भवान् । शुभं कर्म विधायेन्द्रः सहस्रारसुतोऽभवः ॥६४५॥ महामुनितिरस्कारप्रहारोद्भवकर्मणः । उपस्थितं फलमिदं रावणाद्यः पराभवः ॥ ६४६॥ कर्माण्यवश्यं सर्वस्य फलन्त्येव चिरादपि । आपुरन्दरमाकीटं संसारस्थितिरीदृशी ॥ ६४७॥ तच्छ्रुत्वा दर्त्तवीर्याय राज्यं दत्त्वाऽङ्गर्जन्मने । इन्द्रः पर्यव्रजत् तप्तोग्रतपाश्च ययौ शिवम् ॥६४८॥ रावणोऽपि ययौ स्वर्णतुङ्गशैलेऽपरेऽहनि । अनन्तवीर्यं नामर्षिं वन्दितुं जातकेवलम् ॥ ६४९॥ तं वन्दित्वा यथास्थानं निषण्णो दशकन्धरः । शुश्राव च श्रोत्रसुधासारणिं धर्मदेशनाम् ॥ ६५० ॥ देशनान्ते दशास्येन कुतः स्यान्मरणं मम ? । इति पृष्टो महर्षिः स भगवानेवमभ्यधात् ॥ ६५१ ॥ पारदारिकदोषेण वासुदेवाद् भँविष्यतः । भविष्यति विपत्तिस्ते प्रतिविष्णोर्दशानन! ॥६५२॥ (सप्तमं पर्व १. नायकोऽभवत् हे. कां. ॥। २. अष्टापदम् ॥ ३. पाषाणखण्डवत् ॥ ४. याञ्चादि ला ॥ ५. तद् याच्यसे हे. कां. पा. छा. ला. ॥ ६. चेलोत्क्षेपं मु.; 'चलत्कोपं' इति पाठान्तरे इति टि. ला. प्रतौ; यावता चेलं (वस्त्रं) क्नूयते आर्द्रीभवति तावत् (सि.हे. ५-४-५८) ।। ७. 'चूंटीने' इति भाषा ॥ ८. ग्रन्थित्वा मु. ॥ ९. अचल (पर्वत) वद् अचला (भूमि) वद् वा अचलः । १०. 'आनन्दमालिभ्राता' इतिला. टि. ।। ११. 'विद्युतमिव' इतिला. टि. ॥। १२. 'तडित्प्रभापत्न्या ' इतिला. टि. ।। १३. भक्तिवचनैः । १४. मुनिन्यक्कार० मु., मुनितिरस्कारजातात् ।। १५. दत्तवीर्यस्य पाता. विना ॥ १६. ०जन्मनः पाता. विना ।। १७. भविष्यति मु., भाविनः इत्यर्थः ॥ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः ) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । 'परस्त्रियमनिच्छन्तीं रमयिष्यामि न ह्यहम्। जग्राहाऽभिग्रहमिमं स तस्यैव मुनेः पुरः ॥ ६५३ ॥ मुनिवरमथ नत्वा ज्ञानरत्नाम्बुधिं तं, दशवदन इयाय स्वां पुरीं पुष्पकस्थः । निखिलनगरनारीनेत्रनीलोत्पलानां, प्रमदविभवदानाद् यांमिनीजानिकल्पः ॥६५४॥ इत्याचार्य श्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये सप्तमे पर्वणि रावणदिग्विजयो नाम द्वितीयः सर्गः। 发 १. ६५३तमश्लोकस्योपरि ला. सञ्ज्ञकप्रतौ टिप्पणीयम् - 'जइ वि हु सुरूववंता परमहिला तो वि हं न पत्थेमि । निया वि अप्पसन्ना विलया एवं वयं मज्झ ॥ १॥ वृद्धपद्मचरित्रे ॥ " २. यामिनीजानि: चन्द्रस्तत्तुल्य इत्यर्थः ॥ ३. सर्गः समाप्तः ला. ॥ For Private Personal Use Only १४७ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥तृतीयः सर्गः॥ अथेह वैताढ्यगिरावादित्यपुरपत्तने । प्रह्लादो नाम राजाऽभूत् केतुमत्यस्य तु प्रिया ॥१॥ तयोर्बभूव तनयो नामत: पवनञ्जयः । जयी पवनवत् स्थाम्ना गगने गमनेन च ॥२॥ पाइतश्च भरतेऽत्रैवोपार्णवं दन्तिपर्वते । विद्याधरेन्द्रो महेन्द्रो महेन्द्रनगरेऽभवत् ।।३।। पत्न्यां हृदयसुन्दयाँ तस्य चाऽञ्जनसुन्दरी । अरिन्दमादिपुत्राणां शतस्योपर्यभूत सुता ॥४॥ उद्यौवनायास्तस्याश्च वरं चिन्तयतः पितुः । शशंसुर्मन्त्रिणो विद्याधरयूनः सहस्रशः ॥५॥ महेन्द्रस्याऽऽज्ञयाऽमात्यास्तद्रूपाणि पृथक् पृथक् । यथावदालेख्यपटेष्वानाय्य समदर्शयन् ।।६।। तत्र विद्याधराधीशहिरण्याभाङ्गजन्मनः । रूपं विद्युत्प्रभाख्यस्य सुमन:कुक्षिजन्मनः ॥७।। प्रह्लादसूनो: पवनञ्जयस्य च मनोरमम् । चित्रस्थं सचिवोऽन्येधुर्महेन्द्रस्याऽभ्यढौकयत् ।।८।।युग्मम्।। रूपवन्तौ कुलीनौ च द्वावप्येतौ तदेतयोः । वत्साया: को वर ? इति राज्ञोक्तः सचिवोऽब्रवीत् ।।९।। एषोऽष्टादशवर्षायुर्मोक्षं विद्युत्प्रभो गमी। इति नैमित्तिका: स्वामिन्! व्यक्तमाख्यातपूर्विणः ॥१०॥ प्रह्लादतनयस्त्वेष चिरायु: पवनञ्जयः । योग्यो वरस्तदेतस्मै प्रयच्छाऽञ्जनसुन्दरीम् ॥११।। अत्राऽन्तरे तु यात्रायै द्वीपं नन्दीश्वरं ययुः । विद्याधरेन्द्राः सर्वेऽपि सर्वा सपरिच्छदाः॥१२॥ प्रहादस्तत्रे यान् प्रेक्ष्य महेन्द्रमिदमभ्यधात् । दीयतां मत्सुतायैषा स्वसुताऽञ्जनसुन्दरी ॥१३।। महेन्द्रः प्रतिपेदे तदग्रेऽपि हृदयस्थितम् । निमित्तमात्रमेवाऽऽसीत् प्रह्लादप्रार्थना तु सा ॥१४॥ इतस्तृतीये दिवसे मानसाख्ये सरोवरे । कार्यो विवाह इत्युक्त्वा तौ यथास्थानमीयतुः ॥१५।। ततो महेन्द्र-प्रह्लादौ साह्लादौ स्वजनैः समम् । जग्मतुर्मानससरस्यावासं चक्रतुश्च तौ ॥१६।। पमित्रं प्रहसितं नामोवाचेति पवनञ्जयः । दृष्टाऽस्ति किं त्वया ? ब्रूहि कीदृश्यञ्जनसुन्दरी ?॥१७।। हसित्वेषत् प्रहसितोऽप्येवमूचे मयेक्षिता । सा हि रम्भादिकाभ्योऽपि सुन्दर्यञ्जनसुन्दरी ॥१८॥ तस्या निरुपमं रूपं यादृशं दृश्यते दृशा। तादृशं वचसा वक्तुं वाग्मिनाऽपि न शक्यते॥१९।। पवनञ्जय इत्यूचे दूरे ह्युद्वाहवासरः । सा दृग्गोचरमद्यैव कथं नेया मया सखे! ? ॥२०॥ वल्लभोत्कण्ठितानां हि घटिकाऽपि दिनायते । मासायते दिनमपि किं पुनस्तद्दिनत्रयम् ? ॥२१॥ तत: प्रहसितोऽप्येवं व्याजहार स्थिरीभव। निशि तत्रैत्य तां कान्तां द्रक्षस्यनुपलक्षितः ॥२२॥ उत्पत्य साहसितो निश्यगात् पवनञ्जयः। आस्थितेऽञ्जनसुन्दर्या प्रासादे सप्तभूमिके ॥२३॥ रोजस्पश इव च्छन्नीभूय सोऽञ्जनसुन्दरीम् । सम्यगीक्षितुमारेभे समित्र: पवनञ्जयः ॥२४॥ धन्याऽसि या हि प्रापस्त्वं तं पतिं पवनञ्जयम् । सखी वसन्ततिलकेत्युवाचाऽञ्जनसुन्दरीम् ॥२५।। हले! मुक्त्वा वरं विद्युत्प्रभं चरमविग्रहम् । को वरः श्लाघ्यते ? इति मिश्रकेश्यवदत् सखी ॥२६।। प्रथमा प्रत्युवाचैवं मुग्धे! वेत्सि न किञ्चन। विद्युत्प्रभो हि स्वल्पायुः स्वामिन्या युज्यते कथम् ? ||२७|| द्वितीयाऽपीत्यभाषिष्ट वयस्ये! मन्दधीरसि । स्तोकमप्यमृतं श्रेयो भारोऽपि न विषस्य तु ।।२८।। इत्यालापं तयोः श्रुत्वाऽचिन्तयत् पवनञ्जयः । अस्याः प्रियमिदं नूनं तेन नैषा निषेधति ॥२९।। इति क्रुद्धोऽसिमाकृष्याऽऽविरोसीत् पवनञ्जयः । निशाचर इवाऽकस्मादन्धकारात् समुत्थितः ॥३०॥ १. तिच पाता. ।। २. बलेन ।। ३. समुद्रसमीपे ।। ४. ० पट्टे०; चित्रपटेषु ।। ५.०हरिणाभाग० खंता.१-२, ला. ॥ ६. तदेनयोः हे. मो. ॥७. कन्याया: मु.॥८. सचिवोऽभ्यधात् मु.॥९. एकोऽष्टा० पाता. ला. मो. ॥१०. गमिष्यति ।।११. पूर्वमाख्यातवन्तः ।।१२. प्रहादस्तनयां मु.॥ १३. गच्छन् ।। १४. राजानौ ता. ॥१५. प्रशस्ता वागस्येति वाग्मी॥१६. अज्ञातः ॥ १७. निरगात् मु. ॥१८. आस्थिताञ्जन० ला.; अधिष्ठिते ॥ १९. “चरः” इति ला.टि. ॥ २०. चरमशरीरिणम् ।। २१. समूहः ।। २२. क्रुद्धः समाकृष्याऽऽवि० ला. ॥ २३. प्रकटोऽभवत् ॥ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । विद्युत्प्रभो हृदि ययोर्द्वयोरपि तयोः शिरः । छिनधीति वदन् रोषाच्चचाल पवनञ्जयः ॥३१॥ बाहदण्डे धारयंस्तमिति प्रहसितोऽवदन् । सापराधाऽप्यवध्यैव स्त्री गौरिव न वेत्सि किम् ? ॥३२।। किं पुनर्निरपराधैवेयमञ्जनसुन्दरी। तथाऽपवादिनीं नैषा निषेधति पुनर्हिया ॥३३॥ इति प्रहसिते नोच्चैर्निषिद्ध: पवनञ्जयः । उत्पत्याऽऽगात् स्वमावासं जाग्रत् तस्थौ च दुःखितः ।।३४।। प्रातश्चोचे प्रहसितं सखे! किमनयोढया ? । भृत्योऽपि हि विरक्तः स्यादापदे किं पुनः प्रिया ? ॥३५।। तदेहि याम: स्वपुरीमूरीकृत्य परं रयम् । किं स्वादुनाऽपि भोज्येन रोचते न यदात्मने ? ॥३६॥ इत्युदीर्योच्चकैर्यावच्चचाल पवनञ्जयः । धृत्वा तावत् प्रहसितस्तं सोम्नैवमबोधयत् ॥३७॥ न युक्तं महतां यत् स्वप्रतिपन्नस्य लङ्घनम् । अनुल्लङ्घयैस्तु गुरुभिः प्रतिपन्नस्य तु का कथा ? ॥३८|| विक्रीणते वा मूल्येन ददते वा प्रसादतः । गुरवो हीत्यपि सतां प्रमाणं नाऽपरा गतिः ॥३९॥ किं चेहाऽञ्जनसुन्दर्यामस्ति दोषलवोऽपि न । दूष्यते दैवदोषेण सुहृदो हृदयं पुनः ॥४०॥ महात्मानौ च पितरौ स्वस्य तस्याश्च विश्रुतौ । किं न लज्जयसि भ्रातर्गच्छन् स्वच्छन्दवृत्तितः ॥४१॥ उक्त: प्रहसितेनैवं विमृश्य पवनञ्जयः। तथैव कथमप्यस्थात् सशल्य इव चेतसि ॥४२॥ पवनाञ्जनसुन्दर्योर्निर्णीते च दिनेऽभवत् । पितृनेत्रोत्पलशशी पाणिग्रहमहोत्सवः ॥४३॥ तद्वधूवरमादाय सदायाद: प्रमोदभाक् । महेन्द्रेणाऽर्चित: स्नेहात् प्रह्लादः स्वां पुरीं ययौ ॥४४॥ प्रह्लादोऽञ्जनसुन्दर्याः प्रासादं सप्तभूमिकम् । अर्पयामास वासाय विमानमिव भूस्थितम् ।।४५।। तां न सम्भावयामास वाचाऽपि पवनञ्जयः । मानिनो ह्यवलेपं न विस्मरन्ति यतस्ततः॥४६॥ विना शशाङ्क श्यामेव सा विना पवनञ्जयम्। बाष्पान्धकारवदना तस्थावस्वास्थ्यभाजनम् ॥४७ पार्श्वद्वितयमानत्या पर्यङ्कस्य मुहुर्मुहुः । तस्याश्च संवत्सरवद् द्राधीयस्योऽभवन् निशा: ॥४८॥ अनन्यमानसा जानुमध्यन्यस्तमुखाम्बुजा। भर्तुरीलेखनैरेव व्यतीयाय दिनानि सा॥४९॥ मुहुरालाप्यमानाऽपि सखीभिश्चाटुपूर्वकम् । परपुष्टेव हेमन्ते न सा तूष्णीकतां जहौ॥५०॥ एवं च काले व्रजति प्रह्लादनृपमन्यदा। दूतो राक्षसराजस्य समुपेत्यैवमब्रवीत् ॥५१॥ समं राक्षसनाथेन यादोनाथ: स दुर्मतिः। वैरायतेऽद्य नितरां प्रणिपातममानयन् ॥५२॥ याचित: स नमस्कारमहङ्कारमहागिरिः । दोर्दण्डो चक्षुषा पश्यन्निदं वदति कद्वदः ॥५३।। अरे! को रावणो नाम ? तेन किं नन सिध्यति ? | नाऽहमिन्द्रः कुबेरो वा न चाऽस्मि नलकूबरः ॥५४॥ सहस्ररश्मिर्नाऽप्यस्मि न मरुत्तो न वा यमः । न च कैलासशैलोऽस्मि किं त्वस्मि वरुणो ननु ॥५५।। देवताधिष्ठितैरस्थैर्यदि दर्पोऽस्य दुर्मते: । तदायातु हरिष्यामि तद्दएँ चिरसञ्चितम् ॥५६।। इत्युक्त्या रावणः क्रुद्धः समरायाऽभ्यषेणयत् । अरौत्सीत् तत्पुरं चाऽब्धिवेलेव तटपर्वतम् ॥५७।। पुरान्निःसृत्य वरुणो रणायाऽरुणलोचनः । राजीव-पुण्डरीकाद्यैर्वृत: पुत्रैरयुध्यत ॥५८॥ तस्मिन् महति सङ्ग्रामे वीरैर्वरुणसूनुभिः । योधयित्वा च बद्ध्वा च निन्याते खर-दूषणौ ॥५९॥ अभज्यत तत: सैन्यं राक्षसानामशेषतः। कृतार्थमानी वरुणोऽप्यविशन्नगरी निजाम्॥६०॥ विद्याधरेन्द्रानाह्वातुं प्राहिणोद्रावणोऽपि हि। दूतान् प्रत्येकमप्यद्य भवते प्रेषितस्त्वहम् ॥६१।। पप्रह्लादोऽथ दशास्याय साहायककृते स्वयम् । यावच्चचाल तावत् तमुवाच पवनञ्जयः ॥६२॥ इहैव तिष्ठ तात! त्वं दशग्रीवमनोरथम् । पूरयिष्याम्यहमपि तवाऽस्मि तनयो ननु ॥६३|| इत्युदीर्य सनिर्बन्धं पितरं चाऽनुमान्य सः । लोकं चाऽशेषमाभाष्य चचाल पवनञ्जयः॥६४॥ १. कुत्सितवादिनीम् ।। २.दुःस्थित: खंता.१ ॥३. याव: ला. मु.प्रभृतिकागदप्रतिषु ।। ४. वेगम् ।। ५. शान्त्या॥६. सकुटुम्बः॥७. सम्भाषयामास ला.॥ ८. गर्वम् ।। ९. रात्रिरिव ।। १०. विना सा ता.॥११. पुष्टान्धकार० हे. ॥१२. पार्श्वयोः परावर्तनं कुर्वत्याः॥१३. दीर्घाः ॥ १४. भर्तुरालेखनैरेव कागदप्रतिषु मु. च ।। १५. कोकिला ॥ १६. मौनम् ॥ १७. राक्षसराजेन खं.१ ॥ १८. “वरुणः” इति ला. टि. ॥१९. कुत्सितवादी ॥२०. देवताधिष्ठितै रत्ने० पाता. ला. विना॥ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सप्तमं पर्व १५० कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं श्रुत्वाऽञ्जना जनमुखात् पत्युर्यात्रामथोत्सुका । देवीव व्योमशिखरात् प्रासादादवरुह्य' च ॥६५॥ तमीक्षितुमवष्टभ्य स्तम्भं पाञ्चालिकेव सा । निर्निमेषेक्षणा तस्थावस्वास्थ्यमथिताशया ॥६६॥ युग्मम्।। द्वारस्तम्भनिषण्णाङ्गीं प्रतिपच्चन्द्रवत् कृशाम् । लुलितालकसञ्छन्नललाटां निर्विलेपनाम् ॥६७॥ नितम्बन्यस्तविम्रस्तश्लथलम्बिभुजालताम् । ताम्बूलरागरहितधूसराधरपल्लवाम् ||६८।। बाष्पाम्बुक्षालितमुखामुन्मुखां पुरतः स्थिताम् । अञ्जनां व्यञ्जनदृशं ददर्श पवनो व्रजन् ।।६९।।त्रिभिर्विशेषकम्।। तां निध्यायन्निदं दध्यौ सद्यः प्रह्लादनन्दनः । अहो निर्हीत्वमेतस्या निर्भीत्वमपि दुर्धियः ॥ ७० ॥ अथवा ज्ञातमेतस्या दौर्मनस्यं पुराऽपि हि । उदूढा तु मया पित्रोराज्ञालङ्घनभीरुणा ॥ ७१ ॥ पतित्वा पादयोस्तस्य साऽप्यूचे रचिताञ्जलिः । त्वया सम्भाषितः सर्वोऽप्यहं तु न मनागपि ॥ ७२ ॥ विज्ञप्यसे तथाऽपि त्वं विस्मार्या न ह्यहं त्वया । पुनरागमनेनाऽऽशु पन्थानः सन्तु ते शिवाः ॥७३॥ इति ब्रुवाणां तां दीनामहीनचरितामपि । ययाववगणय्यैव जयाय पवनञ्जयः ॥ ७४ ॥ पत्यवज्ञावियोगार्ता गत्वाऽन्तर्वेश्म भूतले । वारिभिन्नतला सिन्धुतटीव निपपात सा ॥ ७५ ॥ पवमानवदुत्पत्य तदा प्रह्लादनन्दनः । जगाम मानससरस्युवास च निशामुखे ॥७६॥ विकृत्य तत्र प्रासादमध्यास्त पवनञ्जयः । विद्याधराणां विद्यैव सर्वसिद्धिषु कामधुक् ॥७७॥ तत्र पर्यङ्कमारूढः सरः परिसरावनौ । आर्तां प्रियवियोगेन चक्रवाकीं ददर्श सः ॥७८॥ पूर्वोपात्तामभुञ्जानां मृणाललतिकामपि । तप्यमानां हिमेनाऽपि कथितेनेव वारिणा ॥७९॥ दूयमानां ज्योत्स्नयाऽपि वह्न्यर्चिश्छटयेव ताम् । क्रन्दन्तीं करुणं प्रेक्ष्य स एवं पर्यचिन्तयत् ॥८०॥ सकलं वासरं पत्या रमन्ते चक्रवाकिकाः । न सोढुमीशते नक्तमपि तद्विरहं पुनः ॥ ८१ ॥ उद्वातोऽपि या त्यक्ता भाषिता या न जातुचित् । आगच्छताऽप्यवज्ञाता परनारीव या मया ॥८२॥ आक्रान्ता दु:खभारेण पर्वतेनेव मूलतः । अदृष्टमत्सङ्गसुखा सा कथं हो ! भविष्यति ? ॥ ८३ ॥ युग्मम्।। धिग्धिङ् ममाऽविवेकेन म्रियते सा तपस्विनी । तद्धत्यापातकेनाऽहं क्व गमिष्यामि दुर्मुखः ? ॥ ८४ ॥ इति चिन्तितमात्मीयमाख्यत् प्रहसिताय सः । स्वदुः खाख्यानपात्रं हि नाऽपरः सुहृदं विना ॥ ८५ ॥ प्रोचे प्रहसितोऽप्येवं साध्वज्ञासीश्चिरादपि । नूनं विपद्यते साऽद्य सारसीव वियोगतः ॥८६॥ आश्वासयितुमद्याऽपि सखे! सा तव युज्यते । प्रियोक्त्या तामनुज्ञाप्य स्वार्थाय पुनरीपतेः ॥८७॥ हृदेव सुहृदा तेन भावसंवादिनेरितः । ययावञ्जनसुन्दर्या वेश्मन्युत्पत्य मार्रुतः ॥ ८८॥ किञ्चित्तिरोहितस्तस्थौ द्वार्येव पवनञ्जयः । अग्रे भूत्वा प्रहसितः प्राविशच्च तदोकसि ॥८९॥ वेन्तीमधिपर्यङ्कं तोयेऽल्पे शफरीमिव । पीड्यमानां ज्योत्स्नयाऽपि हिमेनेव सरोजिनीम् ॥९०॥ अन्तर्हृर्देयसन्तापप्रस्फुटद्धारमौक्तिकाम्। उन्मुक्तदीर्घनिःश्वासतैरलालकमालिकाम् ॥९१॥ अधीषं निःसहस्रैस्तदोर्भग्नमणिकङ्कणाम् । वसन्ततिलकासख्याऽऽश्वास्यमाना मुहुर्मुहुः ॥९२॥ शून्यदत्तदृशं शून्यचित्तां काष्ठमयीमिव । ईक्षाञ्चक्रे प्रहसितस्तत्र चाऽञ्जनसुन्दरीम् ॥९३।।चतुर्भिः कलापकम्।। अकस्माद् व्यन्तर इव को नामेह समाययौ ? । इति भीताऽपि सा धैर्यमवलम्ब्येदमब्रवीत् ॥९४॥ अहो! कस्त्वमिहाऽऽयासीः ? परपुंसाऽथवा त्वया । अलं ज्ञातेन मेहैं स्था: परनारीनिकेतने ॥९५॥ १. अवतीर्य ॥ २. अस्वास्थ्येन मथितः आशयः (चित्तवृत्तिः ) यस्याः सा ॥। ३. ० निषण्णां तां ता. ला. ॥। ४. नितम्बे न्यस्ता-धारिता विम्रस्ता-श्लथा लम्बिनी भुजलता यया सा ।। ५. अञ्जनरहितनेत्राम् ।। ६. पश्यन् ।। ७. ७२तमश्लोकस्योपरि टिप्पितं गाथाद्वयं ला. प्रतावेवम् “जीवं मरणंमि तुमे आयण्णं नत्थि एत्थ संदेहो । जइ वि हु जासि पवासं तह वि न अम्हं सरिजासु ॥ १ ॥ एवं पलवंतीए पवणगई मत्तकरिवरारूढो । निग्गंतूण पुराओ अवडिओ माणससरम्मि ||२|| इति वृद्धपद्मचरित्रे || " ८. पत्युरवज्ञया वियोगेन च पीडिता ।। ९. पवनवत् ॥ १०. निष्पक्केन ॥ ११. अमिशिखातेजसा ।। १२. नु पाता ।। १३. ८६तमश्लोकस्योपरि टिप्पितेयं गाथा ला. प्रतौ- “पवणंजएण भणिओ सद्दावेऊण मोग्गरामच्चो । ठविऊण सेणरक्खो भणिओ मेरुम्मि वच्चामो ॥१॥ इति वृद्धपद्मचरिते ॥ " १४. “आगच्छेः” ला.टि. ।। १५. भावो मनोगताभिप्रायस्तेन प्रेरितः ।। १६. पवनञ्जयः ॥ १७. प्रविशतु ता. ला. ॥ १८. तस्मिन् गृहे इत्यर्थः ॥ १९. लुठन्तीम् ॥ २०. हृदयसन्तापेन प्रस्फुटन्ति हारस्य मौक्तिकानि यस्यास्ताम् ॥ २१. तरलकेशपङ्क्तिम् ॥ २२. असह्यतया बाह्वोः खट्वाङ्गे आस्फालनातू Jain Education | भग्नमणिकङ्कणाम् ॥ २३. शून्ये- आकाशे दत्ता दृग् यया सा, ताम् ॥ २४ मा इह || Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम्। वसन्ततिलके! दोष्णा विधृत्यैनं बहिः क्षिप । क्षपाकरविशुद्धाऽस्मि नैनं द्रष्टुमपि क्षमा॥९६।। पवनञ्जयमुज्झित्वाऽमुष्मिन् मम निकेतने। न प्रवेशाधिकारोऽस्ति कस्याऽपि किमुदीक्षसे ? ॥९७।। नत्वा प्रहसितोऽवादीद् दिष्ट्या स्वामिनि! वर्धसे। चिरादायातसोत्कण्ठपवनञ्जयसङ्गमात् ॥९८॥ तस्य मित्रं प्रहसितो मन्मथस्येव माधवः । अग्रेसरोऽहमायातोऽन्वायातं विद्धि च प्रियम ॥१९॥ अञ्जनाऽपि जगादैवं हसितां विधिनैव माम। मा हसीस्त्वं प्रहसित! क्षणोऽयं न हि नर्मणः ॥१००।। अथवा नैष दोषस्ते दोषो मत्पूर्वकर्मणाम् । कुलीनस्तादृशो भर्ता त्यजेन्मां कथमन्यथा ? ||१०१।। पाणिग्रहात् प्रभूत्येव मुक्ताया: स्वामिना मम । द्वाविंशति: समा जग्मर्जीवाम्यद्याऽपि पापिनी॥१०२।। अथ सङ्क्रान्ततद्दुःखप्राग्भार: पवनञ्जयः। अन्तः प्रविश्य व्याहार्षीद् बाष्पगद्गदवागिदम् ॥१०३।। निर्दोषा दोषमारोप्य त्वमुद्वाहात् प्रभृत्यपि। अवज्ञाताऽस्यविज्ञेन मयका विज्ञमानिना ॥१०४।। मद्दोषादीदृशीमागा दुःसहां दुर्दशां प्रिये! । मृत्युं प्राप्ताऽपि मद्भाग्यैः स्तोकान्मुक्ताऽसि मृत्युना ॥१०५।। इत्युक्तवन्तं सा नाथमुपलक्ष्य त्रपावती। पर्यङ्केषामवष्टभ्याऽभ्युत्तस्थौ विनमन्मुखी ॥१०६॥ लतां हस्तीव हस्तेन दोष्णा वलयितेन ताम् । आददानोऽधिपर्यत न्यषदत् पवनञ्जयः ॥१०७॥ भूयस्तां पवनोऽवोचन्मयाऽतिक्षुद्रबुद्धिना । निरोगा: खेदिताऽसि त्वं तत् सहस्व प्रिये! मम ॥१०८।। अवोचदञ्जनाऽप्येवं नाथ! मा स्म ब्रवीरिदम् । सदैव तव दास्यस्मि क्षार्मणाऽनुचिता मयि ॥१०९।। निर्जगाम प्रहसितो वसन्ततिलकाऽप्यथ । रहःस्थयोर्हि दम्पत्योर्न च्छेका: पार्श्ववर्तिनः ॥११०।। रेमाते तत्र च स्वैरमञ्जना-पवनञ्जयौ। विरराम रसावेशाच्चैकयामेव यामिनी ॥१११॥ प्रभातप्रायमालोक्य तामूचे पवनञ्जयः । जयाय कान्ते! यास्यामि ज्ञास्यन्ति गुरवोऽन्यथा ॥११२॥ खेदं माऽतः परं कार्षीः सुखं तिष्ठ सखीवृता । दशास्यकृत्यं सम्पाद्य यावदायामि सुन्दरि! ।।११३।। साऽप्युवाचेति तत्कृत्यं दोष्मत: सिद्धमेव ते । कृतार्थः शीघ्रमागच्छेर्जीवन्तीं मां यदीच्छसि ॥११४।। अपरं च ऋतुस्नाताऽस्म्यद्यैव यदि मे भवेत् । गर्भस्तत् त्वत्परोक्षेऽवदेयुः पिशुना मयि ॥११५।। पवनोऽप्याललापैवं शीघ्रमेष्यामि मानिनि! । मय्यायाते कथं क्षुद्रावकाशो भविता त्वयि ? ॥११६॥ अथवा गृह्यतामेतन्मदागमनसूचकम् । मन्नामाङ्कमङ्गुलीयं समये तत् प्रकाशयेः॥११७॥ अर्पयित्वाऽङ्गुलीयं स्वमुत्पत्य पवनञ्जयः । जगाम मानससरस्तीरस्थे शिबिरे निजे॥११८॥ ततोऽपि सह सैन्येन नाकीव व्योमवर्त्मना। जगाम लेकां नगरी रावणं प्रणनाम च ॥११९॥ रावणोऽपि प्रविश्याऽथ पातालं पृतनान्वितः। प्रययौ प्रति वरुणं तरुणार्क इव त्विषा ॥१२०॥ पाइतश्च तद्दिने गर्भ बभाराऽञ्जनसुन्दरी। विशेषसुन्दरीभूतसर्वावयवशालिनी ॥१२१।। मुखमापाण्डुगण्डश्रि श्यामवक्त्रौ पयोधरौ । गतिं नितान्तमलसां नेत्रे च प्रेसृतोज्ज्वले ॥१२२।। गर्भलक्ष्माणि चाऽन्यानि तस्या व्यक्तानि वर्मणि । दृष्ट्वा केतुमती श्वश्रूः साधिक्षेपमदोऽवदत् ।।१२३॥युग्मम्।। हले! किमिदमाचारी: कुलद्वयकलङ्ककृत् । देशान्तरगते पत्यौ पापे यदुंदरिण्यभूः॥१२४॥ स्वपुत्रे त्वदवज्ञायामज्ञाय्यज्ञानदोषिता। इयच्चिरं त्वमस्माभिर्न हि ज्ञाताऽसि पांसुला ॥१२५।। एवं निर्भर्त्सता श्वश्र्वा साश्रुरञ्जनसुन्दरी। पत्युरागमनचिह्न तदङ्गुलीयमदर्शयत् ॥१२६।। सा लज्जानम्रमुख्येवं श्वश्वा भूयोऽप्यभयंत । यस्तेऽग्रहीन्न नामाऽपि कथं ते तेन सङ्गम: ? ॥१२७।। अङ्गुलीयकमात्रेण प्रतारयसि नः कथम् ? | प्रतारणाप्रकारान् हि बहून् जानन्ति पांसुला: ॥१२८।। मद्गृहादद्य निर्गच्छ गच्छ स्वच्छन्दचारिणि! । पितृवेश्मनि माऽत्र स्था: स्थानमेतत् न हीदृशाम् ॥१२९।। १. वसन्तः ।। २. त्वं मया विज्ञ० खंता.१-२, ला.; हे. कां. ला. ॥ ३. पर्यङ्कस्याऽवयवविशेष ईषा ॥ ४. वलयमिवाऽऽचरितेन ॥ ५. निरपराधा ।। ६. क्षमणा० खंता.१-२, पाता. ॥ ७. “निपुणा:" इति ला.टि. ॥८. प्रभातां रात्रिमालोक्य पाता. मु.॥९. सिद्धार्थः ता. ॥१०. अपवादं दधुः ।। ११. लङ्कानगरी मु.॥१२. “चमूः" इति ला.टि.; सेना ।। १३. दीप्त्या ।।१४. गल्लत्रि मो. ॥१५. प्रसृते च ते उज्ज्व ले च॥१६. शरीरे॥१७. किमिदमारब्धं खंता.१॥ १८. गर्भिणी॥१९. स्वपुत्रे-पवनञ्जये त्वदवज्ञायां-तव विषये तिरस्कारे तस्यैव अज्ञानदोषोऽद्यपर्यन्तं अज्ञायि-ज्ञातोऽस्माभिः । मत्पुत्रस्याऽज्ञानमेव तव तिरस्कारकरणे कारणमिति मम मान्यताऽऽसीदित्यर्थः ॥ २०. इयच्चिरं न त्वस्माभिर्ननु ज्ञाताऽसि पांसुला ता. ॥ २१. पितुर्वेश्मनि मु.॥२२. हीदृशम् ला.मु.॥ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं तर्जयित्वाऽञ्जनामेवं नेतुं पितृनिकेतने । आदिक्षदारक्षनरान् निष्कृपा राक्षसीव सा ॥१३०॥ तां च ते यानमारोप्य वसन्ततिलकान्विताम् । महेन्द्रनगरोपान्ते नीत्वाऽमुञ्चन्नुदश्रवः ॥१३१॥ तां मातृवन्नमस्कृत्य क्षमयित्वा च ते ययुः । स्वामिवत् स्वाम्यपत्येऽपि सेवकाः समवृत्तयः ॥ १३२॥ तद्दुःखदुःखित इव तदा चाऽस्तमगाद् रविः । सन्तः सतां न विपदं विलोकयितुमीश्वराः || १३३ || घूकानां घोरघूत्कारैः फेत्कारैः फेर्रुयोषिताम् । क्रन्दितैर्वृकवृन्दानां श्वाविधां विविधैः स्वनैः ॥ १३४ ॥ तुमुलैः पिङ्गलानां च सङ्गीतैरिव रक्षसाम् । स्फुटत्कर्णेव सा कष्टं तां जाग्रत्यनयन्निशाम् ॥ १३५॥युग्मम्॥ प्रातरुत्थाय सा दीना शालीनेव हिया शनैः । ययौ पितृगृहद्वारे भिक्षुकीवाऽपरिच्छदा ॥१३६॥ दृष्ट्वा ससम्भ्रमस्तां च प्रतीहारोऽनुयुज्य च । अवस्थां तादृशीं सख्याख्यातां राज्ञे व्यजिज्ञपत् ॥१३७॥ लज्जातश्याममुखो राजाऽप्येवमचिन्तयत् । अचिन्त्यं चरितं स्त्रीणां हि ( ही ) विपाको विधेरिव ॥१३८॥ इयं कुलकलङ्काय कुलटा गृहमागता । अञ्जनाऽञ्जनलेशोऽपि दूषयत्यंशुकं शुचि ॥ १३९ ॥ इति चिन्ताप्रपन्नं तमप्रसन्नीभवन्मुखः । प्रसन्नकीर्ति स्तनयो नयनिष्ठोऽब्रवीदिति ॥१४०॥ द्रुतं निर्वास्यतामेषा दूषितं ह्यनया कुलम् । अहिदष्टाङ्गुलिः किं न छिद्यते धीर्मता नृणा ? ॥ १४१ ॥ अथाऽवोचन्महोत्साहो नाम मन्त्रीति भूपतिम् । श्वश्रूदुःखे दुहितृणां शरणं शरणं पितुः ॥ १४२॥ किं च केतुमती श्वश्रूर्निर्दोषामप्यमूं प्रभो ! । निर्वासयेदपि क्रूरा दोषमुत्पाद्य कञ्चन ॥१४३॥ व्यक्तिर्यावद् भवेद् दोषाऽदोषयोस्तावदत्र हि । प्रच्छन्नं पाल्यतामेषा स्वपुत्रीति कृपां कुरु ॥१४४॥ राजाऽपीत्यवदच्छ्वश्रूः सर्वत्र भवतीदृशी । ईदृशं चरितं तु स्याद् वधूनां न हि कुत्रचित् ॥ १४५ ॥ किं च संशृण्महेऽग्रेऽपि द्वेष्येयं पवनस्य यत् । गर्भः सम्भाव्यतेऽमुष्याः पवनादेव तत् कथम् ? ॥१४६॥ सर्वथा दोषवत्येषा साधु निर्वासिता तया । निर्वास्यतामितोऽपि द्राक् पश्यामस्तन्मुखं न हि ॥ १४७ ॥ इत्थं राजाज्ञया द्वाःस्थो निरवासयदञ्जनाम् । जनैरपि कृताक्रन्दैर्दीनास्यैः कष्टमीक्षिताम् ॥१४८॥ तानिःश्वसन्त्यश्रुवर्षिणी । दर्भविद्धेपदासृग्भी रञ्जयन्ती महीतलम् ॥१४९॥ 1 १५२ पदे पदे प्रस्खलन्ती विश्राम्यन्ती तरौ तरौ । सह सख्याऽञ्जनाऽचालीद् रोदयन्ती दिशोऽपि हि ॥ १५०॥ यत्र यत्र पुरे ग्रामे साऽगच्छत् तत्र तत्र च । पूर्वायातनृपपुम्भिर्निषेधान्नाऽऽसदत् स्थितिम् ॥ १५१ ॥ पर्यन्ती तु साप्राप कामप्येकां महाटवीम् । गिरिकुञ्जे तरोर्मूले निषद्य विललाप च ॥ १५२ ॥ || अहो ! मे मन्दभाग्याया गुरूणामविचारतः । अग्रे दण्डोऽभवत् पश्चादपराधविवेचनम् ॥१५३॥ साधु केतुमति! कुलकलङ्को रक्षितस्त्वया । त्वयाऽपि सम्बन्धिभयात् तात ! साधु विचारितम् ॥१५४॥ दुःखितानां हि नारीणां माताऽऽश्वासनकारणम् । पतिच्छन्दजुषा मातस्त्वयाऽप्यहमुपेक्षिता ।। १५५।। भ्रातर्दोषोऽपि नाऽस्त्येव ताते जीवति ते ननु । नाथ! त्वयि च दूरस्थे जैज्ञे सर्वोऽप्यरिर्मम ॥१५६॥ सर्वथा स्त्री विना नाथं मैकार्हमपि जीवतु । यथाऽहमेषा जीवामि मन्दभाग्यशिरोमणिः ॥१५७॥ विलपन्त्यञ्जना सख्या निन्ये सम्बोध्य चाऽग्रतः । ददर्शाऽन्तर्गुहं ध्यानस्थं चाऽमितगतिं मुनिम् ॥ १५८ ॥ चारणश्रमणं तं च प्रणम्य विनयेन ते । निषेदतुः पुरो भूमौ सोऽपि ध्यानमपारयत् ॥ १५९ ॥ मनश्चिन्तितकल्याणमहारामैकसारणिम् । धर्मलाभाशिषं सोऽदात् करमुन्नम्य दक्षिणम् ॥१६०॥ नमस्कृत्य पुनर्भक्त्या वसन्ततिलका तु सा । सर्वमप्यञ्जनादुःखमाचख्यौ मूलतोऽपि हि ॥ १६९॥ कोsस्या गर्भेऽभवत् ? केन कर्मणा चेदृशीं दशाम् । सम्प्राप्तैषेति ? तत्सख्या पृष्टः स मुनिरब्रवीत् ॥ १६२॥ "अस्यैव जम्बूद्वीपस्य क्षेत्रे भरतनामनि । मन्दरे नगरे नाम्ना प्रियनन्दीत्यभूद् वणिक् ।।१६३।। जयानाम्न्यां च जायायां तस्याऽजायत नन्दनः । दमयन्तः प्रियदमः कलानां निधिरिन्दुवत् ॥१६४॥ (सप्तमं पर्व १. शृगालीनाम् ॥ २. शाहुडी' इति भाषायाम् ; श्वापदां ला. कां. ॥ ३. नकुलानाम् ॥ ४. संलीनेव भिया ला.; “अधृष्टेव” ला. टि. ॥ ५. पितुर्गृह० ता. ॥ ६. “ पृष्ट्वा ” इति ला. टि. ॥ ७. लज्जानतः पाता. ला ॥। ८. वस्त्रम् ॥ ९. बुद्धिशालिना मु. ॥ १०. गृहम् ॥ ११. च भोः ! ला. ॥। १२. दर्भैर्विद्धयोः पादयोः शोणितैः ।। १३. पतीच्छानुवर्तिनी । १४. विदूरस्थे कां ।। १५. जातः पाता. छा. पा. ।। १६. नैकाहमपि पाता.; एकदिनमपि न । १७. यथाहमेका मु. Jain Educatioखतापाता सर्वत्र ॥ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५३ तृतीय: सर्ग:) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । क्रीडन् सोऽन्येधुरुद्याने स्वाध्याय-ध्यानतत्परान् । ददर्श साधूंस्तेभ्यश्च धर्मं शुश्राव शुद्धधी: ॥१६५॥ सम्यक्त्वं नियमांश्चाऽथ जग्राह विविधानसौ। यथोचितं च साधुभ्यो ददौ दानमनिन्दितम् ॥१६६॥ तपःसंयमनिष्ठोऽसौ विपद्य क्रमयोगतः । अभूत् कल्पे द्वितीयस्मिन्नमरः परमर्द्धिकः ॥१६७॥ च्युत्वा ततो जम्बूद्वीपे मृगाङ्कनगरेशितुः । प्रियङ्गुलक्षम्यां पुत्रोऽभूद्धरिचन्द्रमहीपतेः ॥१६८॥ सिंहचन्द्र इति ख्यातो जैन धर्मं प्रपद्य स: । विपद्य क्रमयोगाच्च देवभूयमुपेयिवान् ॥१६९॥ च्युत्वा चाऽत्रैव वैताढ्ये नगरे वारुणेऽभवत् । सुकण्ठराज-कनकोदर्योस्तुक् सिंहवाहनः ॥१७०।। भुक्त्वा स सुचिरं राज्यं तीर्थे श्रीविमलप्रभोः । लक्ष्मीधरमुनेः पादमूले व्रतमुपाददे ॥१७१।। दुस्तपं स तपस्तप्त्वा मृत्वाऽभूल्लान्तके सुरः । च्युत्वा ततोऽस्यास्त्वत्सख्या उदरे समवातरत् ॥१७२।। गुणानामालयश्चाऽयं दोष्मान् विद्याधरेश्वरः । पुत्रश्चरमदेहोऽस्या अनवद्यो भविष्यति ॥१७३॥ पअन्यच्च कनकपुरे नगरेऽभून्नरेश्वरः । नामत: कनकरथो महारथशिरोमणिः ॥१७४।। पत्न्यौ तस्य च कनकोदरी लक्ष्मीवतीति च । अत्यन्तश्राविका तत्र लक्ष्मीवत्यभवत् सदा ॥१७५॥ गृहचैत्ये रत्नमयं जिनबिम्बं विधाय सा। अपूजयदवन्दिष्ट प्रत्यहं कालयोर्द्वयोः ॥१७६॥ मात्सर्यात कनकोदर्या हृत्वाऽर्हत्प्रतिमा तु सा। चिक्षिपेऽवकरस्याऽन्तरपवित्रे हताशया॥१७७|| जयश्री म गणिनी विहरन्त्यागता तदा। तद् दृष्ट्वा तामुवाचैवमकार्षीः किमिदं शुभे! ?॥१७८॥ भगवत्प्रतिमामत्र प्रक्षिपन्त्या त्वया कृतः । अनेकभवदुःखानामात्माऽयं हन्त भाजनम् ॥१७९॥ इत्युक्ता सानुतापा सा गृहीत्वा प्रतिमां ततः। प्रमृज्य क्षमयित्वा च यथास्थानं न्यवेशयत्॥१८०॥ तदादि सम्यक्त्वधरा जैनं धर्मं प्रपाल्य च। काले विपद्य सौधर्मे कल्पे सा देव्यजायत ॥१८१।। च्युत्वा ततो महेन्द्रस्याऽभूत् सुतेयं सखी तव । अस्यास्तदर्हदैर्चाया दुःस्थानक्षेपजं फलम् ॥१८२॥ अस्यास्तस्मिन् भवे जामिस्त्वमभूस्तस्य कर्मणः । अनुमन्त्री च तत्पाकमनुभुझे सहाऽनया ॥१८३।। भुक्तप्रायमिदं चाऽस्यास्तस्य दुष्कर्मणः फलम् । गृह्यतां जिनधर्मस्तच्छुभोदर्को भवे भवे ॥१८४।। आयातो मातुलोऽकस्मादेतां नेता स्ववेश्मनि । मेलकश्चाऽचिरात् पत्या सहैतस्या भविष्यति ॥ १८५।। एवमुक्त्वाऽऽर्हते धर्मे स्थापयित्वा च ते उभे। समुत्पपात नभसा स मुनीन्द्रः खेंगेन्द्रवत् ॥१८६॥ पाअथ पुच्छच्छटाच्छोटैः स्फोटयन्तमिवाऽवनिम् । बूत्कारपूर्णदिक्कुञ्ज कुञ्जरासृक्करालितम् ॥१८७।। दीपायमाननयनं वज्रकन्दाभदंष्ट्रिकम् । क्रकचक्रूरदशनं ज्वालासोदरकेसरम् ॥१८८॥ लोहाङ्कुशोपमनखं शिलासगुरःस्थलम् । पञ्चाननयुवानं ते समायान्तमपश्यताम् ॥१८९॥त्रिभिर्विशेषकम्।। ततो वेपथुमत्यौ तौ विविझू इव भूतलम् । कान्दिशीके हरिणिके इव यावदतिष्ठताम् ॥१९०॥ मणिचूलाभिधस्तावद् गन्धर्वस्तद्गुहाधिपः । विकृत्य शारभं रूपं तं पञ्चास्यमनाशयत् ॥१९१॥ संहृत्य शारभं रूपं स्वं रूपं प्रतिपद्य च । तयोः प्रमोदाय जगौ सप्रियोऽर्हद्गुणस्तुतिम् ॥१९२।। तेन चाऽमुक्तसान्निध्ये गुहायां तत्र सुस्थिते । मुनिसुव्रतदेवार्ची स्थापयित्वाऽर्चत: स्म ते ॥१९३॥ पअन्येद्यु: सुषुवे तत्र सिंही सिंहमिवोत्कटम् । कुलिशा-ऽङ्कुश-चक्राङ्कपादं तनयमञ्जना ॥१९४॥ तस्याश्च सूतिकर्माणि वसन्ततिलकाऽकरोत् । स्वयं समाहृतैर्हर्षवशादेधोजलादिभिः ॥१९५॥ आरोप्य सुतमुत्सङ्गे दुःखिताऽञ्जनसुन्दरी । उदश्रुवदनाउरोदीद् रोदयन्तीव तां गुहाम् ॥१९६॥ महात्मन्नत्र विपिने तव जातस्य कीदृशम् । जन्मोत्सवं करोम्येषा वराकी पुण्यवर्जिता ? ॥१९७।। एवं तां रुदतीं प्रेक्ष्य समुपेत्य च खेचरः । प्रतिसूर्यो मधुरगीरपृच्छद् दुःखकारणम् ।।१९८॥ १. स मृगापुरेशितुः छा. पा.॥२.०द्धरिश्चन्द्र० खंता.१, पाता. ॥३. देवत्वम् ।। ४. पुत्रः॥५.तु चिरं ता.॥६."धनुर्वेदस्य तत्त्वज्ञः, सर्वयोधगुणान्वितः। . सहस्रं योधयत्येकः,स महारथ उच्यते ॥” इति ला.टि.॥७.अत्यन्तं पाता.॥८.'उकरडो' इति भाषा ॥९. हतचित्ता ॥१०.अर्हत्प्रतिमायाः ॥११. भगिनी॥ १२.“अनुमोदयित्री” इति ला.टि. ॥१३. तद्विपाकम् ॥१४. शुभपरिणामः ॥१५. गरुडवत् ॥१६. छूत्कार० पाता. ॥१७. गजशोणितेन भयङ्करम् ।। १८. शिलासद्ध्यपुरःस्थलं रसंपा. ॥१९.तं ता.॥२०. कम्पमाने॥२१. प्रवेष्टुमिच्छुके ।।२२. भयत्रस्ते॥२३. अष्टापदरूपम् ॥ २४. ०मपानयत् मो. ॥ २५ स्वरूपं ता. ।। २६. एवं रुदतीमश्रान्तमुदQ प्रेक्ष्य खेचरः खंता.१-२, ला. मो. ॥ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्री हेमचन्द्राचार्यप्रणीतं अथाऽऽविवाहादापुत्रजन्माऽऽचख्यावशेषतः । अञ्जनाया दु:खहेतुं बाष्पायितमुखी सखी ॥१९९॥ सद्यो रुदन् सोऽप्यवादीदहं हनुपुरेश्वरः । एषोऽस्मि सुन्दरीमालाकुक्षिभूश्चित्रभानुजः ॥ २००॥ भ्राता मानसवेगाख्यस्त्वज्जनन्याश्च बालिके ! । दिष्ट्या त्वां दृष्टवानस्मि जीवन्तीमाश्वसिह्यतः ॥ २०९ ॥ युग्मम् ॥ तं मातुलं विदित्वा साऽप्यरोदीदधिकाधिकम् । पुनर्नवीभवेत् प्रायो दुःखमिष्टावलोकनात् ॥ २०२॥ रुदन्तीं वारयित्वा तां प्रतिसूर्य: सहागतम् । सूनोर्जन्मादि पप्रच्छ दैवज्ञमथ सोऽवदत् ॥ २०३॥ भाव्यवश्यं महाराजो भवे चाऽत्रैव सेत्स्यति । शुभग्रहबले लग्ने जातोऽयं पुण्यभाक् शिशुः ॥ २०४॥ तथाहि तिथिर्रद्येयं चैत्रस्य बहुलाष्टमी । नक्षत्रं श्रवणं स्वामी वासरस्य विभावसुः॥२०५॥ आदित्यो वर्तते मेषे भुवनं तुङ्गमाश्रितः । चन्द्रमा मकरे मध्ये भवने समवस्थितः ॥ २०६॥ लोहिताङ्गो वृषे'मध्ये मध्ये मीने विधोः सुतः । कुलीरे धिषेणोऽत्युच्चैरध्यास्य भवनं स्थितः ॥२०७॥ मीने दैत्यैगुरुस्तुङ्गस्तस्मिन्नेव शनैश्चरः । मीनलग्नोदये ब्रह्मयोगे सर्वमिदं शुभम् ॥ २०८॥ चतुर्भिः कलापकम्॥ || प्रतिसूर्योऽथ जौमेयीं ससखीं सात्मजां च ताम् । विमानवरमारोप्य प्रतस्थे स्वपुरं प्रति ॥ २०९॥ विमाने लम्बमानोच्चरत्नप्रालम्बकिङ्किणीः । जिघृक्षुर्मातुरुत्सङ्गादुत्पपाताऽथ बालकः ॥२१०॥ पपात च गिरेर्मूर्ध्नि व्योम्नः पविरिव च्युतः । तत्पातनिर्घातवशात् स गिरिः कणशोऽभवत् ॥२११॥ आजघ्ने हृदयं सद्यः पाणिनाऽञ्जनसुन्दरी । दैरीरपि प्रतिरवै रोदयन्ती रुरोद च ॥२१२॥ प्रतिसूर्योऽनुपत्याऽऽशु भागिनेय्यास्तमर्भकम् । अक्षताङ्गमुपादायाऽर्पयन्नष्टनिधानवत् ॥ २१३॥ प्रतिसूर्यो विमानेन मनोवेगेन तद्युतः । ययौ पुरे हनुरुहे सद्यः कृतमहोत्सवे ॥ २१४॥ नीत्वा चोत्तारयामास स्ववेश्मन्यञ्जनां मुदा । कुलदेवीमिवाऽऽयातां तच्छुद्धान्तोऽप्यपूजयत् ॥ २१५॥ पुरे हनुरुहे यस्माज्जातमात्रोऽयमाययौ । तत् सूनोर्मातुलश्चक्रेऽभिधानं हनुमानिति ॥ २१६ ॥ यच्छैलश्चूर्णितोऽनेन पतितेन विमानतः । ततः श्रीशैल इत्याख्यां तस्याऽन्यामपि सोऽकरोत् ॥ २१७॥ हनुमानप्यवर्धिष्ट तत्र क्रीडन् यथासुखम् । राजहंसार्भक इव मानसाम्भोजिनीवने ॥ २९८ ॥ दोषोऽध्यारोपितः श्वश्र्वा कथं नामोत्तरिष्यति ? । सदैवं चिन्तयाऽताम्यदन्त: शल्येव चाऽञ्जना ॥ २१९ ॥ इतश्च पवनः सन्धिं विधाय खर-दूषणौ । वरुणान्मोचयामास तोषयामास रावणम् ॥ २२०॥ ततश्च रावणो लङ्कां जगाम सपरिच्छदः । पवनोऽपि तमापृच्छ्य स्वमेव पुरमाययौ ॥ २२१ ॥ प्रणम्य पितरौ तत्राऽञ्जनावासगृहं ययौ । तच्चाऽनैञ्जनमद्राक्षीद् गतज्योत्स्नमिवोडुपम् ॥२२२॥ क्वाऽञ्जना सा नयनयोरमृताञ्जनदर्शना । मत्प्रेयसीति तत्रस्थामेकां पप्रच्छ चै स्त्रियम् ॥ २२३॥ साऽप्याख्यत् त्वयि यात्रायां गतेऽहस्सु कियत्स्वपि । निर्वासिता केतुमत्या गर्भसम्भवदोषतः ॥ २२४ ॥ महेन्द्रनगरासन्ने सा नीत्वाऽऽरक्षपूरुषैः । अरण्ये मुमुचे पापैर्हरिणीव भयाकुला ॥ २२५॥ इति श्रुत्वा च पवनो ययौ पवनरंहसा । पारापत इव प्रेर्यैस्युत्कः श्वशुरपत्तनम् ॥२२६॥ १५४ प्रियामपश्यंस्तत्राऽपि पप्रच्छैकां स योषितम् । इहाऽञ्जना प्रेयसी मे किमायाताऽथवा न हि ? ॥ २२७॥ साऽऽचख्याविह साऽऽयासीद् वसन्ततिलकान्विता । परं निर्वासिता पित्रोत्पन्नदौःशील्यदोषतः ॥२२८॥ पविनेवाऽऽहतस्तेन वचसा पवनञ्जयः । प्रियामन्वेष्टुमभ्राम्यद् भृशं शैल-वनादिषु ॥ २२९ ॥ तत्प्रवृत्तिं च न प्राप शापभ्रष्ट इवाऽमरः । विषण्णः स जगादैवं मित्रं प्रहसितं निजम् ॥ २३० ॥ (सप्तमं पर्व सखे! गत्वा शंस पित्रोर्भ्राम्यताऽपि महीमिमाम् । मयाऽद्य यावदालोकि न क्वाऽप्यञ्जनसुन्दरी ॥२३१॥ पुनर्गवेषयिष्यामि तामरण्ये तपस्विनीम् । द्रक्ष्यामि चेत् साधु तर्हि नो चेद् वेक्ष्यामि पावकम् ॥२३२॥ १. सुतिथिरयं ला.; सुतिथिरियं मु. ॥ २. सूर्यः ॥ ३. “सर्वेऽपि ग्रहा अर्ध-भुक्ता वर्तन्ते ” ला. टि. ॥ ४. मङ्गलः ॥ ५. ० वृषे कन्यामध्यासीनो विधो० ता. ॥ ६. मध्यो मध्य इति रसंपा. ॥ ७. बुधः ॥ ८. कर्कराशौ । ९. गुरुः । १०. ०ऽभ्युच्चै० ता. ॥ ११. मीने स्थितो दैत्य० ला ॥। १२. शुक्रः ॥ १३. भगिनीपुत्रीम् ॥ १४. ग्रहीतुमिच्छुः ॥ १५. गुहाः ॥ १६. प्रतिघोषैः ॥ १७. धावित्वा ॥ १८. ०न्निष्ट० मो. ॥। १९. “अन्तःपुरं" ला. टि. ॥ २०. सदैवं ता. ॥ २१. अञ्जनारहितम् ।। २२. वेत्रिणीम् मो. ॥ २३. श्रुत्वाऽथ मु. खंता. पाता. प्रभृतिषु ॥ २४. प्रियायामुत्सुकः ।। २५. प्रवेशं करिष्यामि ॥ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय: सर्गः) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । एवमुक्त: प्रहसितो गत्वाऽऽदित्यपुरे द्रुतम् । प्रह्लाद-केतुमत्योस्तत् कथयामास 'वाचिकम् ॥२३३।। श्रुत्वा केतुमती तच्च ग्राव्णेव हृदये हता। मूर्छिता न्यपतद् भूमौ सञ्ज्ञां लब्ध्वेत्युवाच च ।।२३४॥ स किं त्वया प्रहसित! व्यापत्तौ कृतनिश्चयः । प्रियमित्रं वने मुक्त एकाकी कठिनाशय! ॥२३५।। अथवा किं मया साऽपि निर्दोषा परमार्थतः । अविमृश्य विधायिन्या पापिन्या निरवास्यत॥२३६|| लब्धं मयाऽत्रैव साध्व्या दोषारोपणजं फलम् । अत्युग्रपुण्य-पापानामिहैव ह्याप्यते फलम् ॥२३७।। एवं रुदन्तीं प्रह्लादस्तां निवार्य कथञ्चन । चचाल सबल: सूनुमन्वेष्टुं स इवाऽञ्जनाम् ॥२३८॥ सर्वविद्याधरेन्द्राणामाप्तानां चाऽन्तिके नरान् । अञ्जना-पवनान्वेषहेतवे प्रजिघाय सः ॥२३९॥ सह विद्याधरैः सूनुं स्नुषां चाऽऽलोकयन् स्वयम् । प्रादुर्भूतत्वरो भ्राम्यन् सोऽगाद् भूतवनं वनम् ॥२४०।। पवनोऽत्राऽन्तरे तत्र विरचय्य चितां वने । ज्वलनं ज्वालयामास प्रहादस्तं ददर्श च॥२४॥ स्थित्वोपचितं पवन: प्रोचे हे वनदेवता:! । विद्याधरेन्द्रप्रह्लाद-केतुमत्योः सुतोऽस्म्यहम् ।।२४२।। महासत्यञ्जना नाम पत्नी मे सा च दुर्धिया। निर्दोषाऽपि मयोद्वाहात् प्रभृत्यपि हि खेदिता ॥२४३।। तां परित्यज्य यात्रायां चलित: स्वामिकार्यतः । दैवाज्ज्ञात्वा तामदोषामुत्पत्य पुनरागमम् ॥२४४|| रमयित्वा च तां स्वैरमभिज्ञानं समर्प्य च। पितृभ्यामपरिज्ञात: पुन: कटकमापतम् ॥२४५॥ जातगर्भा च सा कान्ता मद्दोषाद् दोषशङ्किभिः । निर्वासिता मे गुरुभि: क्वाऽप्यस्तीति न बुध्यते ॥२४६।। साऽग्रेऽधुना च निर्दोषा सम्प्राप्ता दारुणां दशाम् । ममैवाऽज्ञानदोषेण धिग्धिक् पतिमपण्डितम् ॥२४७।। मया भ्रान्त्वाऽखिलां पृथ्वी सम्यङ् मार्गयताऽपि हि । ने साऽऽप्ता मन्दभाग्येन रत्नं रत्नाकरे यथा ॥२४८॥ तदद्य स्वां तनुमिमां जुहोम्यत्र हुताशने । जीवतो मे यावज्जीवं दु:सहो विरहानलः ॥२४९॥ यदि पश्यथ मे कान्तां ज्ञापयध्वं तदा ह्यदः । त्वद्वियोगात् तव पति: प्रविवेश हुताशने ॥२५०॥ इत्युक्त्वा तत्र चित्यायां दीप्यमाने हविर्भुजि। झम्पां प्रदातुं पवन: प्रोत्पपात नभस्तले ।।२५१|| श्रुततद्वचनो वेगात् प्रह्लादोऽप्यतिसम्भ्रमी। वक्षःस्थलोपपीडं तं स्वबाहुभ्यामधारयत् ।।२५२।। मृत्योः प्रियवियोगार्तिप्रतिकारस्य सम्प्रति । को विघ्नोऽयं ममेत्युच्चैरुवाच पवनञ्जयः ॥२५३|| प्रह्लादोऽप्यब्रवीत् साश्रुरेष पापोऽस्मि ते पिता। निर्दोष या य: स्नुषाया निर्वासनमुपैक्षत ।।२५४॥ अविमृश्य कृतं तावत् त्वन्मात्रैवैकमादित: । द्वितीयं मा कृथास्त्वं तु स्थिरीभव सुधीरसि ॥२५५॥ स्नुषान्वेषणहेतोश्चाऽऽदिष्टाः सन्ति सहस्रशः । विद्याधरा मया वत्साऽऽगेमयस्व तदागमम् ।।२५६।। अत्राऽन्तरे तत्प्रहिता: केऽपि विद्याधरोत्तमाः । गवेषयन्त: पवनाञ्जने हनुपुरं ययुः ॥२५७।। प्रतिसूर्याञ्जनयोस्तेऽञ्जनाविरहदुःखतः । पवनस्याऽग्निप्रवेशप्रतिज्ञामाचचक्षिरे ॥२५८॥ दुःश्रवं तद्वचः श्रुत्वा पीत्वा विषमिवाऽञ्जना । हा हताऽस्मीति जल्पन्ती पपात भुवि मूर्च्छिता ॥२५९।। आसिक्ता चन्दनाम्भोभिस्तालवृन्तैश्च वीजिता । लब्धसञ्ज्ञा समुत्थाय सा रुरोदेति दीनगीः ॥२६०।। पतिव्रता: पतिशोकात् प्रविशन्ति हुताशने। तासां विना हि भर्तारं दु:खाय खलु जीवितम् ॥२६॥ नारीसहस्रभोक्तृणां भर्तृणां श्रीमतां पुनः । क्षणिक: प्रेयसीशोकस्तत्कुतोऽग्निप्रवेशनम्॥२६२॥ विपरीतमिदं जज्ञे त्वयि वह्निप्रवेशिनि । विरहेऽपि मयि पुनरे जीवन्त्यामियच्चिरम् ॥२६३॥ महासत्त्वस्य तस्याऽल्पसत्त्वायाश्च ममाऽन्तरम्। उपलब्धमिदं नील-काचयोरिव सम्प्रति ॥२६४॥ न मे श्वशुरयोर्दोषो दोष: पित्रोर्न चाऽप्ययम् । ममैव मन्दभाग्याया: कर्मदोषोऽयमीदृशः॥२६५॥ रुदन्ती बोधयित्वा तां प्रतिसूर्यः सनन्दनाम् । विमानवरमारोप्य पवनान्वेषणे ययौ ॥२६६॥ स भ्राम्यन् प्राप तत्रैव वने भूतवनाभिधे। दूरादपि प्रहसितेनेक्षाञ्चक्रे च साश्रुणा॥२६७।। १. सन्देशवाचम् ।। २. पाषाणखण्डेन ।। ३. मरणाय ।। ४. पवनञ्जय इव ॥ ५. चितासमीपम् ; स्थित्वोपचित्यं रसंपा. ॥ ६. चिह्नम् ।। ७. सम्यम् मार्गयिताऽपि हे.ला.मो.॥८.न पाता.॥९. साप्रामा पाता.न प्राप्ता मो.॥१०. चितायाम् ॥११. श्रुत्वा तद्वचनो मो. ॥१२. वक्षःस्थले उपपीड्य ।। १३. प्रतीकारस्य मु. ।।१४. विघ्नो ह्ययं ला. ॥ १५. निर्दोषायां य: स्नुषायां ला. ॥१६. "प्रतीक्षस्व तदागमनं" ला.टि. ॥१७. नीलमणे: काचस्य Jain Education in Iktional Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (सप्तमं पर्व साञ्जनं तं समायान्तमारात् प्रहसित: स तु । आख्यत् प्रह्लाद-पवनञ्जययोर्जयपूर्वकम् ॥२६८।। ततो विमानादुत्तीर्य प्रतिसूर्योऽञ्जनाऽपि च । प्रह्लादं नेमतुर्दूराद् भक्त्या भून्यस्तमस्तकौ ॥२६९।। प्रतिसूर्यं परिष्वज्य पौत्रमङ्के निवेश्य च । प्रह्लादो जातसंह्लादो जगादैवं ससम्भ्रमः ॥२७०॥ मज्जन्तं व्यसनाम्भोधौ मामद्य सकुटुम्बकम् । समुद्धरंस्त्वमेवाऽसि बन्धुः सम्बन्धिनां धुरि ॥२७१।। मद्वंशपर्वभूतेयं शाखासन्तानकारणम् । स्नुषा त्यक्ता विना दोषं साध्वियं रक्षिता त्वया ॥२७२॥ सद्यो व्यसनवेलाया न्यवर्तत पयोधिवत् । प्रशान्तशोकज्वलनो मुदित: पवनोऽपि हि॥२७३।। विद्यासामर्थ्यतस्तत्र सर्वे विद्याधरेश्वराः। महान्तमुत्सवं चक्रुरानन्दाब्धिनिशाकरम् ।।२७४।। पुरं हेनुरुहं जग्मुस्तत: सर्वेऽपि ते मुदा। विमानैर्विदधाना: स्वैर्दिवं ज्योतिष्मतीमिव ॥२७५।। महेन्द्रोऽप्याययौ तत्र समं मानसवेगया। सा च केतुमती देवी सर्वेऽप्यन्ये च बान्धवाः॥२७६।। विद्याधरेन्द्रैर्विदधे मिथ: सम्बन्धिबन्धुभिः । पूर्वोत्सवादप्यधिकस्तत्राऽपि हि महोत्सवः ॥२७७।। ततश्चाऽन्योऽन्यमापृच्छ्य सर्वे स्वं स्वं पुरं ययुः । तत्रैव पवनस्तस्थावञ्जना-हनुमद्युतः ॥२७८।। हनुमान् ववृधे तत्र पितुः सह मनोरथैः । कलाश्च जगृहे सर्वा विद्याश्च समसाधयत् ॥२७९।। नागराजायतभुजः शस्त्र-शास्त्रविचक्षणः । क्रमाच्च यौवनं प्रापहनुमान् भानुमांस्त्विषा॥२८०॥ पाइतश्चाऽमर्षणप्रष्ठो रावण: सन्धिदूषणम् । उत्पाद्य वरुणं जेतुं प्रतस्थे स्थेमपर्वतः ॥२८१।। दूताहुतास्ततश्चेयु: सर्वे विद्याधरेश्वराः। कटकं तस्य कुर्वन्तो वैताढ्यकटकोपमम् ॥२८२॥ पवन-प्रतिसूर्यौ तौ तत्र यावत् प्रचेलतुः । इत्यूचे हनुमांस्तावदवष्टम्भैकसानुमान् ।।२८३॥ इहैव तिष्ठतं तातौ जेष्याम्यहमपि द्विषः । प्रहरेद् बाहुना को हि तीक्ष्णे प्रहरणे सति ? ॥२८४।। बालत्वान्नाऽनुकम्प्योऽस्मि यद्युष्मत्कुलजन्मनाम् । पौरुषावसरे प्राप्ते न प्रमाणं वय: खलु ॥२८५।। एवं तावतिनिर्बन्धात् प्रतीक्ष्याऽऽपृच्छ्य चोच्चकैः । ताभ्यां च चुम्बितो मूर्ध्नि कृतप्रस्थानमङ्गलः ।।२८६।। महासामन्तसेनानीसेनाशतसमावृतः । प्रययौ रावणस्कन्धावारे दुर्वारविक्रमः ।।२८७॥युग्मम्।। हनूमन्तं समायातं दृष्ट्वा जयमिव स्वयम् । प्रणमन्तं मुदा स्वाङ्के निदधे दशकन्धरः ॥२८८।। अभ्यर्णे वरुणपुर्यास्तस्थौ युद्धाय रावणः । वरुणो वारुणयश्च दोष्मन्तो निर्ययु: शतम् ।।२८९।। अभ्येत्य योधयामासू रावणं वरुणात्मजा: । सुग्रीवाद्यैः समं वीरैर्युयुधे वरुणोऽपि हि॥२९०॥ महौजसो वारुणयोऽरुणाक्षा दशकन्धरम् । जात्यश्वान इव क्रोडं खेदयामासुराहवे ॥२९१॥ अत्राऽन्तरे च हनुमान् दारुणो वरुणात्मजान् । कुञ्जरान् केशरीवैत्याऽयोधयत् क्रोधदुर्धरः ॥२९२।। विद्यासामर्थ्यतोऽस्तभ्नाद्वारुणींस्तान् बबन्ध च। पशूनिव क्रुधा रक्तहनुको हनुमानथ ॥२९३।। तान् दृष्ट्वा वरुणः क्रुद्धोऽभ्यधाविष्ट हनूमते । सुग्रीवप्रभृतीन् धुन्वन् दन्ती मार्गतरूनिव॥२९४॥ रावणोऽप्यापतन्तं तं नदीरयमिवाऽचल: । अन्तरा स्खलयामास वर्षन् विशिखधोरणीम् ॥२९५।। वृषभो वृषभेणेव कुञ्जरेणेव कुञ्जरः । वरुणो रावणेनोच्चैः क्रोधान्धो युयुधे चिरम् ॥२९६।। सर्वौजसाऽऽकुलीकृत्य वरुणं रावणश्छली। उत्पत्येन्द्रमिवाऽबध्नात् सर्वत्र बलवच्छलम् ॥२९७।। ततो जयजयारावैर्मुखरीकृतदिङ्मुखः । स्कन्धावारं पृथुस्कन्धो जगाम दशकन्धरः ॥२९८।। रावणो वरुणं तत्र सह मोच प्रणिपातान्त: प्रकोपो हि महात्मनाम् ॥२९९।। पुत्री सत्यवतीं नाम वरुणोऽदाद्धनूमते । दृष्टसार: स्वयं हीदृग् जामाता खलु: दुर्लभः ॥३००।। लङ्कायां रावणोऽथागादादत्त च हनूमते । हृष्टश्चन्द्रणखापुत्रीमनङ्गकुसुमाभिधाम् ॥३०१॥ सग्रीवेण पद्मरागा नलेन हरिमालिनी। अन्यैः सहस्रसङ्ख्याश्च तस्मै दत्ता: स्वका: सुताः ॥३०२॥ १. मदंशपूर्व० ता. ॥२. सर्वविद्या० मु., खंता.१प्रभृतिषु ॥३. हनुपुरं पाता. ॥ ४. क्रोधकारिषु धुर्यः ।। ५. स्थैर्यपर्वतः ॥ ६. गिरिमध्यभागः ।।७. मानपर्वतः ।। ८. तिष्ठतां तातो हे. कां. मो. ॥ ९. पूजयित्वा ॥१०. समायान्तं ता. ॥११. वरुणपुत्राः; वारुणेयाश्च मु.॥१२. जात्या: श्वान:-सारमेयाः इव शूकरम् ।।१३. सामर्थ्यतो यत्नाद् कां. मो. ॥१४. नदीपूरमिवा. कां. ॥१५. विशिखघोरणी: छा. मो. पा. ता.; बाणश्रेणिम् ।। १६. वशीभूतम् ।। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः ) १. मुखं खंता. १ । २. सप्तमपर्वणि खंता. १ ॥ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । श्लिष्ट्वा दृढं दशमुखेन मुदा विसृष्टो दोष्मानथो हनुपुरे हनुमान् जगाम । अन्येऽपि वानरपतिप्रमुखाः प्रजग्मुविद्याधरा निजनिजं नगरं प्रहृष्टाः ॥ ३०३ ॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये सप्तमे पर्वणि हनुमदुत्पत्ति-वरुणसाधनो नाम तृतीयः सर्गः ॥ ॐ For Private Personal Use Only १५७ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥चतुर्थः सर्गः॥ इतश्च मिथिलापुर्यां हरिवंशे महीपतिः । आसीद् वासवकेत्वाख्यो विपुला तस्य च प्रिया ॥१॥ तयोः सूनुरनूनश्रीर्बभूव भुवि विश्रुतः । प्रजानां जनक इव जनको नाम पार्थिवः ॥२॥ इतश्च पुर्ययोध्यायामृषभस्वामिराज्यत: । इक्ष्वाकुवंशान्तर्भूताऽऽदित्यवंशेषु राजसु॥३॥ यातेषु केषुचिन्मोक्षं स्वर्ग यातेषु केषुचित् । सङ्ख्यातीतेषु विंशस्याऽर्हतस्तीर्थे प्रसर्पति ॥४॥ बभूव विजयो राजा हिमचूला च तत्प्रिया। तयोरभूतां द्वौ पुत्रौ वज्रबाहु-पुरन्दरौ॥५॥त्रिभिर्विशेषकम्।। पाइतश्चाऽभूनागपुरे पुरे राजेभवाहन: । चूडामणिश्च तत्पत्नी तत्पुत्री च मनोरमा ॥६॥ गत्वोद्यद्यौवनां वज्रबाहुः परिणिनाय ताम् । महेन महता श्वेतमरीचिरिव रोहिणीम् ॥७॥ भक्त्या च श्यालेनोदयसुन्दरेणाऽनुगामिना । मनोरमामथाऽऽदाय प्रतस्थे स्वपुराय सः॥८॥ स गच्छन्नन्तराऽपश्यत् तपस्तेजोभिरीश्वरम् । वसन्ताद्रिस्थमुदयाचलस्थमिव भास्करम् ।।९।। मोक्षाध्ववीक्षकमिवोत्पश्यमातापनापरम् । गुणसागरनामानं तपस्यन्तं महामुनिम् ॥१०॥युग्मम्।। मयूर इव जीमूतं तं दृष्ट्वा जातसम्मदः । कुमार इदमाह स्म धृत्वा सपदि वाहनम् ॥११॥ अहो! महात्मा कोऽप्येष वन्द्य एव महामुनिः । चिन्तामणिरिव मया दृष्टः पुण्येन भूयसा ॥१२॥ उवाच चैवमुदयसुन्दरोऽथ कुमार! किम् । आदित्ससे परिव्रज्यां? सोऽवदच्चित्तमस्ति मे ॥१३॥ उदयो नर्मणा भूय: प्रोचे यद्यस्ति ते मनः । तदद्य मा विलम्बस्व सहायोऽहमपीह ते॥१४॥ कुमारो व्याजहारैवं मर्यादामिव वारिभिः । मा त्याक्षी: स्वामिमां सन्धां सोऽप्यामेत्यभ्यभाषत ॥१५॥ कुमारो वाहनान्मोहादिवोत्तीर्याऽऽरुरोह तम् । वसन्तशैलमुदयसुन्दरादिभिरावृतः ॥१६॥ वज्रबाहुमथाऽवादीदिभवाहननन्दनः । स्वामिन्! मा प्रव्राजीरद्य धिर्ग मां नर्माभिभाषिणम् ॥१७॥ नर्मोक्तिरावयोरासीत् को दोषस्तव्यतिक्रमे। नर्मोक्तिर्न हि सत्यैव प्रायो धवलगीतवत् ॥१८॥ भविष्यसि सहायस्त्वं व्यसनेष्वखिलेष्वपि । इत्यकाण्डेऽपि मा भाङ्क्षीरस्मत्कुलमनोरथान् ॥१९।। इदमद्याऽपि मङ्गल्यं तव हस्तेऽस्ति कङ्कणम् । तद् विवाहफलं भोगान् सहसा कथमुज्झसि ? ॥२०॥ सांसारिकसुखास्वादेवञ्चितेयं मनोरमा । जीविष्यति कथं नाथ! त्वया तृणवदुज्झिता ? ॥२१॥ वज्रबाहुकुमारोऽथ जगादोदयसुन्दरम् । सुन्दरं मर्त्यजन्मद्रो: फलं चारित्रलक्षणम् ॥२२॥ नर्मोक्तिरपि तेऽस्मासु बभूव परमार्थसात् । शुक्तिषु स्वातिजीमूतवारि मौक्तिकसादिव ॥२३॥ त्वत्स्वसा च कुलीना चेत् तत् प्रव्रज्यां ग्रहीष्यति । नो चेदस्या: शिव: पन्था भोगैः पुनरलं मम ।।२४।। तद् व्रतायाऽनुमन्यस्व मां त्वमप्यनुयाहि च । कुलधर्म: क्षत्रियाणां स्वसन्धापालनं खलु ॥२५।। उदयं प्रतिबोध्यैवं वज्रबाहुरुपाययौ । सागरं गुणरत्नानां महर्षि गुणसागरम् ।।२६।। तत्पादान्ते वज्रबाहुः परिव्रज्यामुपाददे । उदयो मनोरमाऽथ कुमारा: पञ्चविंशतिः ॥२७॥ वज्रबाहुं प्रव्रजितं श्रुत्वा विजयभूपतिः । वरं बालोऽप्यसौ नाऽहमिति वैराग्यमासदत् ॥२८॥ ततश्च विजय: पुत्र राज्ये न्यस्य पुरन्दरम् । निर्वाणमोहस्य मुने: पार्श्वे व्रतमुपाददे ॥२९॥ पुरन्दरोऽपि स्वे राज्ये पृथिवीकुक्षिजं सुतम् । न्यस्य कीर्तिधरं क्षेमकरर्ण्यन्तेऽभवद् यतिः ॥३०॥ १.महोत्सवेन ।।२. चन्द्रः ।। ३. मोक्षाध्वमीक्षक० मु.॥४. ऊर्ध्वं द्रष्टारम् ।। ५. जातहर्षः ॥ ६. ह्येष खंता. ला.॥७. आदातुमिच्छसि ।। ८. प्रतिज्ञाम् ।। ९. सोऽप्यामेत्यन्वभाषत ता.;सोऽप्यामेवेत्यभाषत ला. हे. कां. मो.प्रभृतिषु, मु.॥१०.धिग् मे नातिभाषणं ला.; धिग् मे नर्माभिकारणं खंता.१; धिग् मे नर्माभिभाषणं मु. ॥११. मागल्यं मु.॥१२. वन्धितेयं खंता.१॥१३. परमार्थरूपा ॥१४. न: मु.॥ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः ) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । अथ कीर्तिधरो 'राजाऽभुक्त वैषयिकं सुखम् । सहदेव्या समं पत्न्या पौलोम्येव पुरन्दरः ॥ ३१ ॥ प्रविव्रजिषुरन्येद्युः स मन्त्रिभिरभण्यत । तवाऽनुत्पन्नपुत्रस्य न व्रतादानंमर्हति ॥ ३२॥ त्वय्यपुत्रे व्रतभाजि निर्नैथेयं वसुन्धरा । तत् प्रतीक्षस्व यावत् ते स्वामिन्नुत्पद्यते सुतः ||३३|| तत: कीर्तिधरस्याऽपि तथैव गृहवासिनः । काले गच्छत्यभूत् पुत्रः सहदेव्यां सुकोशलः ॥ ३४ ॥ ज्ञात्वा जातमिमं बालं पतिर्मे प्रव्रजिष्यति । सहदेवीति बुद्ध्या तं जातमात्रमगोपयत् ॥ ३५॥ विवेद मेदिनीनाथस्तं गुप्तमपि बालकम् । प्राप्तोदयं हि तरणिं तिरोधातुं क ईश्वरः ? ||३६|| राजाऽथ स्वार्थकुशलो राज्ये न्यस्य सुकोशलम् । सूरेर्विजयसेनस्य पादान्ते व्रतमाददे ||३७|| तप्यमानस्तपस्तीव्रं सहमान: परीषहान् । स गुर्वनुज्ञयैकाकिविहारेणाऽन्यतो ययौ ॥ ३८॥ साकेतमन्यदा मासोपवासी पारणेच्छया । स आजगाम भिक्षार्थं मध्याह्ने तत्र चाऽभ्रमत् ॥ ३९ ॥ सौधाग्रस्थ सहदेवी तं च दृष्ट्वेत्यचिन्तयत् । पत्यौ प्रव्रजितेऽमुष्मिन् पतिहीना पुराऽभवम् ॥४०॥ वत्सः सुकोशलोऽ ऽप्यद्य दृष्ट्वैनं प्रव्रजेद्यदि । तदा पुत्रोऽपि मे न स्यान्निर्वीरौ स्यां ततः परम् ॥ ४१ ॥ तस्मान्निरपराधोऽपि भर्ताऽपि व्रतधार्यपि । निर्वास्यो नगरात् सूनो राज्यस्थेमचिकीर्षया ॥४२॥ इत्यन्यलिङ्गिभिः सार्धं तं राज्ञी निरवासयत् । लोभाभिभूतमनसां विवेकः स्यात् कियच्चिरम् ॥४३॥ 1 धात्री सुकोशलस्याऽथ स्वामिनं व्रतधारिणम् । पुरान्निर्वासितं ज्ञात्वा रोदिति स्म निरर्गलम् ॥४४॥ किं रोदिषीति पप्रच्छ सुकोशैलनृपोऽपि ताम् । कथयामास साऽप्येवमक्षरैः शोकगद्गदैः ॥४५॥ राज्ये त्वां बालकं न्यस्य तव कीर्तिधरः पिता । प्राव्राजीत् सोऽद्य भिक्षार्थं प्राविक्षदिह पत्तने ॥४६॥ तद्दर्शनात् तवाऽप्यद्य व्रतग्रहणशङ्कया । निर्वासितः स ते मात्रा दुःखेनाऽनेन रोदिमि ॥४७॥ सुकोर्शेलोऽपि तच्छ्रुत्वा गत्वा च पितुरन्तिके । बद्धाञ्जलिर्विरक्तात्मा तस्माद् व्रतमयाचत ॥४८॥ चित्राल' च तत्पत्नी गुर्व्येत्य सह मन्त्रिभिः । उवाचाऽस्वामिकं स्वामिन्! न राज्यं त्यक्तुमर्हसि ॥४९॥ राजाऽप्यवोचद् गर्भस्थोऽपि हि सूनुर्मया तव । राज्येऽभिषिक्तो भाविन्यप्युपचारो हि भूतवत् ॥५०॥ इत्युक्त्वा सकलं लोकं सम्भाष्य पितुरन्तिके । सुकोशल: प्रवव्राज तपस्तेपे च दुस्तपम् ॥५१॥ निर्ममौ निः कषायौ तौ पिता-पुत्रौ महामुनी । विजहतुर्युतावेव पावयन्तौ महीतलम् ॥५२॥ तनयस्य वियोगेन खेदभाक् सहदेव्यपि । आर्तध्यानपरा मृत्वा व्याघ्यभूद् गिरिगह्वरे ॥ ५३|| इतश्च तौ कीर्तिधर-सुकोशैलमहामुनी । प्रावृट्कालचतुर्मासीमत्येतुं दान्तमानसौ ॥ ५४ ॥ निःस्पृहौ स्वशरीरेऽपि स्वाध्याय- ध्यानतत्परौ । गिरेर्गुहायामेकस्य तस्थतुः सुस्थिताकृती ॥५५॥ युग्मम्॥ प्राप्ते च कार्तिके मौसि प्रयान्तौ पारणाय तौ । दृष्टौ मार्गे तया व्याघ्या यमदूत्येव दुष्टया ॥५६॥ सा व्याघ्री शीघ्रर्मेंभि तौ दधावे स्फारितानना । दूरादभ्यागमस्तुल्यो दुर्हृदां सुहृदामपि ।।५७॥ आपतन्त्यामपि व्याघ्यां तौ क्षमाश्रमणोत्तमौ । धर्मध्यानं प्रपेदानौ कायोत्सर्गेण तस्थतुः ॥५८॥ सा तु व्याघ्री विद्युदिव पपाताऽऽदौ सुकोशले । दूरापातप्रहारेण पृथ्व्यां च तमपातयत् ॥५९॥ चटच्चटिति तच्चर्म दौरं दारं नखाङ्कुशैः । पापा साऽपौदतृप्ताऽश्रं वारीव मरुपान्थिका ॥६०॥ त्रोटयित्वा त्रोटयित्वा त्रटत्त्रटिति सारदैः । जग्रसे मांसमपि हि वालुङ्कमिव रङ्किका ॥६९॥ दन्तयन्त्रातिथीचक्रे ककर्शा कीकसान्यपि । कटत्कटिति कुर्वन्ती सेक्षूनिव मैंतजी ॥६२॥ कर्मक्षयसहायेयमिति मम्लौ मुनिर्न सः । विशेषतस्त्वभूदुच्चावचरोमाञ्चकञ्चुकः ॥ ६३॥ 1 1 १. राजाऽभुङ्क्त मु. ॥ २. ० मर्हसि ला ॥ ३. अप्यपुत्रे ला. ॥ ४. निर्नाथा ते मो. ॥ ५. सुकोसलः खंता. २, पाता. ॥ ६. ० नाथः सुगुप्तमपि मो. ॥ ७. सुकोसलं खंता. २, पाता. ॥ ८. स्वगुर्व० मु. ॥ ९. सुकोसलो खंता. २, पाता. ॥ १०. ततः पाता. ॥। ११. अपुत्रा ।। १२-१३-१४. सुकोसल० खंता. २, पाता. ॥। १५. चित्रमालाऽपि ता ॥ १६-१७. सुकोसल० खंता. २, पाता. ॥ १८. सम्प्राप्ते मु. ॥। १९. मासे ता. ॥ २०. शीघ्रमभितो मु.; “तौ अभि तयोः सम्मुखं" इति ला. टि ॥ २१. आगमनम् ॥ २२. धर्म्यं ध्यानं ता ॥ २३. सुकोसले खंता. २, पाता ।। २४. दारयित्वा दारयित्वा ।। २५. अतृप्ता सा अर्थरुधिरं अपाद्-अपिबदित्यन्वयः ; ० दतृप्ताऽसृक् पाता ॥ २६. दन्तैः ॥ २७. कर्कटीम् ॥ २८. अस्थीनि ॥ २९. कुर्वाणा खंता. २, पाता. ता. छा. पा. ला. मो. ॥। ३०. हस्तिनी ॥ ३१. ० दुच्चैर्वर० ला ; बहुविध ॥ १५९ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (सप्तमं पर्व व्याघ्यैवं खाद्यमानोऽपि शुक्लध्यानमुपेयिवान् । तत्कालोत्केवलो मोक्षं सुकोशलमुनिर्ययौ ॥६४॥ मुनिः कीर्तिधरः सोऽपि समुत्पादितकेवलः । क्रमादासादयामास सुखाद्वैतास्पदं पदम् ॥६५॥ इतश्च चित्रमालाऽपि सुकोशलनृपप्रिया। हिरण्यगर्भ सुषुवे नन्दनं कुलनन्दनम् ॥६६।। आगर्भवासनृपतेस्तस्य प्राप्तस्य यौवनम्। सधर्मचारिण्यभवन्मृगनेत्रा मृगावती ॥६७।। राज्ञो हिरण्यगर्भस्य मृगावत्यामजायत । तनयो नघुषो नाम वपुषा स इवाऽपरः ॥६८॥ हिरण्यगर्भः स्वेऽपश्यन्मौलौ पलितमन्यदा। तृतीयवयसः सत्यङ्काराभमुपसर्पतः ॥६९।। तदैव जातवैराग्य: स राजा नघुषं सुतम् । स्वे राज्ये न्यस्य विमलमुन्यन्ते व्रतमग्रहीत् ॥७०।। पानघुषस्य नृसिंहस्य सिंहिका नाम पत्न्यभूत् । तया च रममाण: स पैतृकं राज्यमन्वशात् ।।७१।। उत्तरापथभूपालान् नघुषो जेतुमन्यदा। जगाम सिंहिकादेवीं निजे राज्ये मुमोच च ॥७२॥ नाऽस्तीह नघुष इति दक्षिणापथभूभुजः । तदैत्याऽयोध्यां रुरुधुः छलनिष्ठा हि वैरिणः ॥७३।। तदा च सिंहिका देवी पुंवत् तानभ्यषेणयत् । जिगायाऽनाशयच्चाऽऽशु किं सिंही हन्ति न द्विपान् ? ॥७४।। जित्वोत्तरापथं राजा नघुषश्चाऽऽगतोऽन्यदा । शुश्राव च जयोदन्तं पत्न्या दध्याविदं च सः ॥७५।। स्पष्टधार्थ्यमिदं कर्म दुष्करं मादृशामपि। महाकुलप्रसूतानां महिलानां न युज्यते ॥७६॥ तन्नमसती सेयं सत्यो हि पतिदेवताः। पतिसेवां विना नाऽन्यजानते क्वेशं पुनः ॥७७॥ इति चेतसि निश्चित्य सिंहिकां प्रेयसीमपि । राजा परिजहाराऽऽशु न्यजितप्रतिमामिव ॥७८।। पानघुषस्याऽन्यदा दाहज्वरः समुदपद्यत । दुष्टारिवन्न चाऽशाम्यदुपचारशतैरपि ॥७९॥ स्वसतीत्वज्ञापनाय भर्तुरर्त्तिच्छिदेऽपि हि। तत्समीपं तदेयाय तोयमादाय सिंहिका ॥८॥ सा सत्यश्रावणां चक्रे त्वां विना नाथ! चेन्मया। पुमान्नैषि कदाऽप्यन्यो ज्वरस्तदपयातु ते॥८१।। ततश्च साऽम्भसा तेनाऽभिषिषेच निजं पतिम् । तदैव च ज्वरोन्मुक्त: सुधाधौत इवाऽभवत् ।।८२।। सिंहिकाया उपरिष्टात् पुष्पवृष्टिं सुरा व्यधुः । राजाऽपि बहु मेने तां ततः प्रभृति पूर्ववत् ॥८३॥ काले गच्छति जज्ञे च नघुषस्य महीपतेः । सिंहिकायां महादेव्यां सोदासो नाम नन्दनः ॥८४।। सोदासे राज्यमारोप्याऽपरेधुनघुषो नृपः । एकमौपयिकं सिद्धेः परिव्रज्यामुपाददे ॥८५।। पसोदासनृपते राज्येऽर्हतामष्टाह्निकोत्सवे । मन्त्रिणो घोषयामासुरमारिं पूर्वराज्यवत् ।।८६।। सोदासमपि ते प्रोचुरहदष्टाह्निकोत्सवे। नाऽखादि मांसं त्वत्पूर्वैः खादीस्त्वमपि मा स्म तत् ॥८७।। सोदासोऽप्यवदत् सूदं सदा मांसादनप्रियः । प्रच्छन्नं मांसमानेयं त्वयाऽवश्यमत: परम् ।।८८|| सूदोऽप्यमार्यां घुष्टायां मांसं प्रापन कुत्रचित् । न ह्यसत् प्राप्यते क्वाऽपि केनाऽप्याकाशपुष्पवत् ।।८९।। मांसाप्राप्तिरित इतो राजाज्ञा बाधते च माम् । किं करोमीति विमृशन् सूदोऽपश्यन्मृतार्भकम् ।।९०॥ मृतार्भकस्य तस्यैवाऽऽदाय मांसं स वल्लव: । संस्कृत्य तैस्तैर्विज्ञानैः सोदासाय ददौ तदा ॥११॥ सोदासोऽपि हि तन्मांसमश्नन्नेवमवर्णयत् । अहो! अमुष्य मांसस्य कोऽप्यतिप्रीणको रसः ॥१२॥ सूपकारं च पप्रच्छ जन्मापूर्वमिदं मम । कस्य जीवविशेषस्य मांसमाख्याहि सर्वथा ॥१३॥ नृमांसमिति सोऽप्याख्यद् राजाऽवोचदतः परम् । अद्येव दद्या: संस्कृत्य प्रत्यहं नृपेलं मम ॥१४॥ डिम्भान् सूदोऽप्यथाऽहार्षीत् तदर्थं प्रत्यहं पुरे । न हि भीराज्ञया राज्ञामन्यायकरणेऽपि हि ॥९५।। इति दारुणकर्माणं नृपं विज्ञाय मन्त्रिणः । धृत्वाऽत्यजन्नरण्यान्तर्गृहोत्पन्नमिवोरगम् ॥९६।। पतैश्च सोदाससू: सिंहरथो राज्येऽभिषिच्यत । सोदासोऽप्याट वसुधां मांसं खादन् निरर्गलम् ॥९७।। सोदासेनाऽपि चाऽन्येधुर्धमता दक्षिणापथे। महर्षिः कोऽपि ददृशे सोऽथ धर्ममपृच्छ्यत ॥९८।। १. तत्कालमुत्पन्नं केवलं यस्य सः ॥२-३. सुकोसल० खंता.२, पाता. ॥ ४. “आगच्छतः" इति ला.टि ।। ५. सिंहिकां देवीं निजराज्ये मु.॥ ६. तदाऽयोध्यां रुरुधिरे मु. ॥७. व पुनरीदृशम् रसंपा. ॥ ८. न्यङ्गितां० ला.; न्यगित० मु.; खण्डितप्रतिमामिव ।।९. पुमान्नैक्षि मु.॥१०. सूदः ।। ११. संस्कृतस्तैरविज्ञातैः ला. ॥१२. नरमांसम् ।। १३. महर्षिरेको ता.॥ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६१ चतुर्थः सर्गः) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । बोधार्ह इति तं ज्ञात्वा जगौ तस्मै महामुनिः । मद्य-मांसपरीहारप्रधानं धर्ममार्हतम् ॥९९।। सोदासोऽपि हि तं धर्ममाकर्ण्य चकितोऽभवत् । प्रसन्नहृदयो भूत्वा श्रावकः परमोऽभवत् ॥१००॥ पाइतो महापुरपुरे कोऽप्यपुत्रो नृपोऽमृत । पञ्चदिव्याभिषिक्तोऽथ सोदासस्तत्र राडभूत् ॥१०१।। सोदास: प्राहिणोद् दूतमथ सिंहरथं प्रति । सोदासस्य कुरुष्वाऽऽज्ञामिति दूतोऽप्युवाच तम् ॥१०२॥ दूत: सिंहरथेनोच्चैस्तिरस्कृत्य व्यसृज्यत । आगत्याऽऽख्यच्च सोदासभूभुजे स यथातथम् ॥१०३।। सोदासोऽथ सिंहरथं सोऽपि सोदासपार्थिवम् । अभ्यषेणयतां योद्धं युयुधाते च तौ पथि ॥१०४।। सोदासोऽपि सिंहरथं जित्वा जग्राह पाणिना। तस्मै राज्यद्वयं चाऽदात् प्रवव्राज स्वयं पुनः ॥१०५।। पसूनुः सिंहरथस्याऽभूदु राजा ब्रह्मरथस्ततः । चतुर्मुखस्ततो हेमरथः शतरथस्ततः॥१०६॥ अथोदयपृथु-र्वारिरथ इन्दुरथस्ततः । आदित्यरथ-मान्धातृ-वीरसेनास्तत: क्रमात् ॥१०७।। प्रतिमन्युनृपस्तस्मात् पद्मबन्धुनृपस्ततः । रविमन्युनृपस्तस्माद् वसन्ततिलकस्ततः ॥१०८।। कुबेरदत्तोऽथ कुन्थु-शरभ-द्विरदा: क्रमात् । ततश्च सिंहदशनो हिरण्यकशिपुस्ततः ॥१०९।। पुञ्जस्थलः ककुत्स्थोऽथ रघुरेवं नृपेषु तु । केषुचिन्मोक्षमाप्तेषु स्वर्गमाप्तेषु केषुचित् ।।११०॥ अनरण्यो नाम राजा शरण्य: शरणार्थिनाम् । आनृण्यकृत् प्रणयिनामभूत् साकेतपत्तने ॥१११॥ तस्याऽभूतामुभौ पुत्रौ पृथ्वीदेव्याश्च कुक्षिजौ। एकोऽनन्तरथो नाम्ना तथा दशरथोऽपरः ॥११२॥ इतोऽनरण्यस्य सुहृत् सहस्रकिरणो नृपः । रावणेन जितो युद्धे वैराग्याद् व्रतमाददे ॥११३॥ तत्सख्यादनरण्योऽपि श्रियं न्यस्य लघौ सुते । मासजातेऽनन्तरथसहितो व्रतमाददे ॥११४॥ अनरण्योऽगमन्मोक्षमथाऽनन्तरथो मुनिः । तप्यमानस्तपस्तीव्र विजहार वसुन्धराम् ॥११५।। राज्यभृत् क्षीरंकण्ठोऽपि राजा दशरथः पुनः । वयसा विक्रमेणेव वृद्धिमासादयत् क्रमात् ॥११६।। राजा राजसु सोऽराजद् द्विजराज इवोडुषु । ग्रहेष्विव ग्रहराज: सुमेरु: पर्वतेष्विव ॥११७॥ तत्र स्वामिनि लोकस्य परचक्रादिसम्भवः । अदृष्टपूर्व एवाऽऽसीत् खपुष्पवदुपद्रवः ॥११८।। स वित्ताभरणादीनि यथेच्छं दददर्थिनाम् । कल्पद्रुमाणां मद्याङ्गादीनामेकादशोऽभवत् ।।११९।। निजं वंशक्रमायातं तत्साम्राज्यमिवाऽनघम् । स दधावार्हतं धर्मं सर्वदाऽप्यप्रमद्वरः ॥१२०॥ दभ्रस्थलपुरेशस्य सुकोशलमहीपतेः । कन्यां पवित्राममृतप्रभाकुक्षिसमुद्भवाम् ॥१२१।। नाम्नाऽपराजितां चारुरूप-लावण्यशालिनीम् । उदुवाह स भूपालो जयश्रियमिवाऽऽहवे ।।१२२॥युग्मम्।। सुबन्धुतिलकस्याऽथ पुरे कमलसङ्कुले। मित्रादेवीकुक्षिजातां केकयीमादिनामतः॥१२३॥ सुमित्रामन्यनाम्ना च स्वकीर्तिमिव निर्मलाम् । पर्यणैषीद् दशरथ: शशाङ्क इव रोहिणीम् ।।१२४||युग्मम्॥ पुण्यलावण्य-सौन्दर्यवर्याङ्गी सुप्रभाभिधाम् । अन्यामप्युपयेमे स राजपुत्रीमनिन्दिताम् ।।१२५॥ सुखं वैषयिकं ताभिर्बुभुजे भूभुजां वरः । अबाधमानो धर्मार्थौ स विवेकिशिरोमणिः ॥१२६।। पाइतश्च भरतस्याऽर्धं भुञ्जानो दशकन्धरः । सभायामास्थितोऽपृच्छदिति नैमित्तिकोत्तमम् ॥१२७।। अमरा अपि नाम्नैवाऽमरान परमार्थतः । भाव्यवश्यं तु सर्वस्य मृत्युः संसारवर्तिनः ॥१२८|| तत्किं मे स्वपरीणामाद् विपत्ति: परतोऽथवा ? । तन्ममाऽऽचक्ष्व नि:शङ्कमाप्ता हि स्फुटभाषिणः ।।१२९।। सोऽप्याचख्यौ भविष्यन्त्या जानक्या: कारणेन ते । भविष्यतो दशरथपुत्रान्मृत्युभविष्यति ॥१३०॥ बिभीषणो बभाषेऽथ यद्यप्यस्य सदा ऋतम् । वचस्तथाऽपि ह्यनृतीकरिष्याम्येतदाश्वहम् ।।१३१।। जनकं दशरथं च कन्या-तनययोस्तयोः। अनर्थयोर्बीजभूतं हनिष्याम्यस्तु नः शिवम् ।।१३२।। १. चकितोऽभवत् मु.॥२. नृपो मृत: मु. ॥३. विसृज्य च खंता.१।४. तद् खंता.१, पाता. ला.॥५. मिथ: खंता.२, मु. ।। ६. सिंहरथस्याऽथ राजा ब्रह्मरथोऽभवत् खंता.१, ला. ।। ७. प्रतिबन्धुनृप० मु.॥ ८. स्तन्यप: ।। ९. चन्द्रः ।। १०. सूर्यः ।। ११. कल्पद्रुमेभ्यो मद्याङ्गादिभ्य एका० खंता.१, पाता. ला. ॥ १२. निजवंश. खंता.१-२, पाता. मु.प्रभृतिषु ।। १३. कैकेयी० मु.; सुमित्राया नामाऽपि केकयी', इति तु महदाश्चर्यकारकम् ।। १४. मित्राभूः सुशीला चेति सुमित्रेत्यपराभिधाम् खंता.२, पाता. मु. ॥१५. ०वर्याङ्गीसुप्रभा० मु.॥१६. विवेकशिरोमणि: मु.॥ १७. सत्यम् ।। १८. करिष्यामि तदाश्वहम् मु.॥ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (सप्तमं पर्व उत्पत्तिरेव हि तयोनिषिद्धा बीजनाशतः । वचो नैमित्तिकस्याऽतो मिथ्यैव हि भविष्यति ॥१३३॥ पआमेत्युक्तो रावणेन स्ववेश्माऽगाद् बिभीषणः । तत्रस्थो नारदस्तच्च श्रुत्वा दशरथं ययौ ।।१३४।। तं देवर्षि दशरथोऽभ्युत्तस्थौ दूरतोऽपि हि । नमस्कृत्याऽऽसयामास गुरुवद् गौरवेण च ॥१३५।। त्वमायासी: कुत: स्थानात् पृष्टस्तेनेति नारदः । आख्यत् पूर्वविदेहेषु गतोऽहं पुण्डरीकिणीम् ॥१३६।। श्रीसीमन्धरनाथस्य द्रष्टुं निष्क्रमणोत्सवम् । सुरासुरकृतं तं च दृष्ट्वा मेरुमगामहम् ॥१३७।। तत्राऽभिवन्द्य तीर्थेशान लङ्कायां गतवानहम । तस्यां शान्तिगहे शान्तिं नत्वाऽगां रावणालयम॥१३. रावणस्य वधस्तत्र जानक्यर्थे त्वदात्मजात् । नैमित्तिकेन केनाऽपि कथ्यमानः श्रुतो मया ॥१३९।। श्रुत्वा बिभीषणस्तत्तु हन्तुं त्वां जनकं तथा । कृतप्रतिज्ञो नचिरादिहैष्यति महाभुजः ॥१४०॥ एतत् सर्वं परिज्ञाय लङ्कापुर्या: ससम्भ्रमः । साधर्मिक इति प्रीत्या तव शंसितुमागमम् ॥१४१।। तच्छुत्वा भूभुजाऽभ्यर्च्य विसृष्टो नारदो द्रुतम् । तथैव कथयामास जनकायाऽपि भूभुजे॥१४२॥ मन्त्रिणां तत् समाख्याय राजा राज्यं समर्प्य च। निर्ययौ योगविदिव चिकीर्षुः कालवञ्चनाम् ॥१४३।। मूर्ति दाशरथीं लेप्यमयीमन्तपालयम् । न्यधुश्च मन्त्रिणो ध्वान्ते विद्विषन्मोहहेतवे ॥१४४।। जनकोऽपि तथा चक्रे तथा तन्मन्त्रिणोऽपि हि। तौ त्वलक्षौ दशरथ-जनको भ्रमतुर्महीम् ॥१४५|| बिभीषणश्च संरम्भादेत्य सैन्तमसेऽसिना । लेप्यमय्या दशरथमूर्तेश्चिच्छेद मस्तकम् ।।१४६।। जज्ञे कलकलस्तत्र नगरे सकलेऽपि हि। आक्रन्दध्वनिरुत्तस्थावन्तरन्त:पुरं महान् ॥१४७।। सन्नह्य समधावन्त सामन्ता: साङ्गरक्षकाः। विदधुर्मतकार्याणि गूढमन्त्राश्च मन्त्रिणः ॥१४८॥ मृतं दशरथं ज्ञात्वा ययौ लङ्कां बिभीषणः । अकिञ्चित्करमेकं तु नाऽवधीन्मिथिलेश्वरम् ॥१४९।। मिथश्च मैथिलैक्ष्वाको भ्राम्यन्तौ मिलितावुभौ । एकावस्थासुहृदौ तावुत्तरापथमीयतुः ॥१५०।। पाराज्ञः शुभमतेस्तत्र पुरे कौतुकमजले । दुहितु: कैकेयीनाम्न्याः पृथ्वीश्रीकुक्षिजन्मनः ॥१५१।। द्रोणमेघसहोर्या द्वासप्ततिकलानिधेः । तौ स्वयंवरमाकर्ण्य तन्मण्डपमुपेयतुः ॥१५२॥युग्मम्।। हरिवाहणमुख्यानां तौ मध्ये पृथिवीभुजाम् । हंसाविवाऽधिपाथोजमधिमञ्चमुपेयतुः ॥१५३॥ कैकेयी कन्यकारत्नं रत्नालङ्कारभूषिता। साक्षाल्लक्ष्मीरिवाऽभ्यागात् तं स्वयंवरमण्डपम् ॥१५४|| दत्तहस्ता प्रतीहार्या पश्यन्ती सा नृपान् क्रमात् । नक्षत्राणीन्दुलेखेव व्यतिचक्राम भूयसः ॥१५५।। क्रमेण सा दशरथं प्राप गङ्गेव सागरम् । तस्थौ तत्रैव निर्मुक्तनाङ्गरा नौरिवाऽम्भसि ॥१५६॥ सद्यो रोमाञ्चिततनु: कैकेय्यतेनुसम्मदा। तत्राऽक्षिपद् वरमालां निजां भुजलतामिव ॥१५७।। हरिवाहणमुख्याश्च नृपा न्यकृतमानिन: । मानिनो जज्वलुः क्रोधाज्ज्वलज्ज्वलनसन्निभाः॥१५८।। अयं वराक एकाकी वृत: कार्पटिकोऽनया। आच्छिद्यमानामस्माभिरिमिकों त्रास्यते कथम् ? ॥१५९।। साटोपमिति जल्पन्तोऽनल्पं स्वशिबिरेषु ते । गत्वा संवर्मयामासुः सर्वे सर्वात्मनाऽपि हि॥१६०॥ महीपति: शुभमति: पक्षे दशरथस्य स: । सन्ननाह महोत्साहः सेनया चतुरङ्गया ।।१६१॥ कुरु प्रिये! सारथित्वं यथा मथ्नाम्यमून् द्विषः । इत्यवोचत कैकेयीं तदैकाकी हि राघवः ॥१६२।। कैकेयी रश्मिमादायाऽध्यारुरोह महारथम् । द्वासप्ततावपि कलास्वभिज्ञा सा हि धीमती॥१६३।। धन्वी निषङ्गी सन्नाही राजा दशरथोऽपि तम् । अध्यास्त रथमेकोऽपि तृणवद् गणयन् परान् ।।१६४।। १. जीवनाशत: पाता. ॥ २. स्तच्च खंता.१, ला. मु.॥३. गाढतमसि ।। ४. जनक-दशरथौ ॥५. एकावस्थौ सुहृदौ मु.॥६. कैकयी० ता. ।। ७. द्रोणमेघसोदराया मु. ।। ८. पङ्कजे ॥ ९. निर्मुक्तनागराः खंता.१-२, पाता. ।। १०. अतनुहर्षा ।। ११. न्यकृतिमानिन: ला.; तिरस्कृतं आत्मानं मन्यमानाः॥१२. वने मु.॥१३. इमां कैकेयीम् ।। १४. सज्जीबभूवुः ॥१५. बध्नाम्यमन् कां.॥१६. दशरथः॥१७. निषङ्गी-असिधरः,सन्नाही-कवचधरः ।। * खंता.१-प्रतौ १३६त: १३९ श्लोकाः १४१तमश्लोकश्च न दृश्यन्ते । ला. प्रतौ १३६त: १३९ श्लोका: पार्श्वभागे लिखिताः, तदन्ते च 'पाठान्तरं' इति टिप्पितं वर्तते । एतच्छलोकचतुष्कस्थाने च ला.सज्ञकप्रताविमे श्लोका: सन्ति - "दत्त्वाऽऽशीर्णा( )रदोऽवादीद् ऋषभस्वामिनः प्रभोः । इक्ष्वाकुसज्ञे वंशे त्वं महात्मन्! यदजायथाः ॥१३६।। परमः श्रावकश्चाऽसि तेन शंसामि ते हितम् । सन्त: सतामुपेक्षन्ते न जातु विपदागमम् ॥१३७।। जानक्यर्थे भवत्पुत्राद् रावणस्य वधोऽधुना। नैमित्तिकेन केनाऽपि कथितस्तथ्यभाषिणा ॥१३८॥" Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्ग:) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । हरिवाहणमुख्यानां रथैर्निजरथं रयात् । प्रत्येकं युगपदिव 'छेका कैकेय्ययोजयत् ॥१६५॥ शीघ्रवेधी दशरथोऽप्येकैकमपि तान् रथान् । अखण्डयदखण्डौजा आखण्डल इवाऽपरः ॥१६६।। इत्थं विद्रावयामास सर्वानपि स भूपतीन् । उपयेमे च कैकेयीं जगतीमिव जङ्गमाम् ॥१६७।। उवाच च नवोढां तां राजा दशरथो रथी। वरं याचस्व देवि! त्वत्सारथ्येनाऽस्मि रञ्जितः ॥१६८।। याचिष्ये समये स्वामिन्! न्यासीभूतोऽस्तु मे वरः । इत्यभाषत कैकेयी राजाऽपि प्रत्यपादि तत् ॥१६९।। समं श्रियेव कैकेय्या परसैन्यैर्हठाहृत । असङ्ख्यातपरीवारो राजा राजगृहं ययौ ॥१७०।। जगाम राजा जनकोऽप्यात्मीयां नगरीमथ । समयज्ञा हि धीमन्तो न तिष्ठन्ति यथा तथा॥१७१।। पराजा दशरथस्तत्र विजित्य मगधेश्वरम् । तत्रैवाऽस्थान्न तु ययावयोध्यां शङ्कया तया ॥१७२।। तत्राऽपराजितामुख्यमन्त:पुरमिलापतिः । निजमानाययामास राज्यं सर्वत्र दोष्मताम् ॥१७३।। राज्ञीभी रममाणोऽस्थात् पुरे तत्र चिरं नृपः । विशेषत: प्रीतये हि राज्ञां भूः स्वयमर्जिता ।।१७४॥ SEAपराजिताऽन्येधुर्गज-सिंहेन्दु-भास्करान् । स्वप्नेऽपश्यन्निशाशेषे बलजन्माभिसूचकान् ।।१७५।। ब्रह्मलोकात् परिच्युत्य तदा देवो महर्द्धिकः । कुक्षाववातरत् तस्या: पुष्करिण्यां मरालवत् ॥१७६।। नृपुण्डरीकं वर्णेन पुण्डरीकविडम्बनम् । सम्पूर्णलक्षणं सूनुं सुषुवेऽथाऽपराजिता ॥१७७।। प्रथमापत्यरत्नस्य तस्याऽऽस्यकमलेक्षणात्। राकेन्ददर्शनादब्धिरिवाऽतिमुमुदे नृपः॥१७८।। नृपश्चिन्तामणिरिव ददौ दानं तदाऽर्थिनाम् । लोकस्थितिरियं जाते नन्दने दानमक्षयम् ॥१७९।। महान्तमुत्सवं चक्रुस्तदा लोकास्तथा स्वयम् । यथाऽभूवन्नतिमुदो राज्ञो दशरथादपि ॥१८०॥ नृपौकसि सेनाथानि दूर्वा-पुष्प-फलादिभिः । निन्युः कल्याणपात्राणि पूर्णपात्राणि नागराः ॥१८१।। सर्वत्र कलगीतानि सर्वत्र घुसृणच्छटाः । सर्वत्र तोरणश्रेण्यो व्यधीयन्ते तदा पुरि ॥१८२।। अचिन्तितोपनीतानि प्राभृतानि महीभृताम् । तदा राज्ञे समाजग्मुस्तस्य सूनो: प्रभावतः ॥१८३॥ पद्यानिवासपद्मस्य पद्म इत्यभिधां नपः । सनोस्तस्याऽकरोत सोऽभत प्रथितो राम इत्यपि ॥१८४॥ गज-सिंहॉर्क-चन्द्राग्नि -श्री-समुद्रान् निशात्यये। स्वप्नेऽपश्यत् सुमित्राऽपि विष्णुजन्माभिसूचकान् ॥१८५।। देवलोकात् परिच्युत्य त्रिदशः परमर्द्धिकः । तदा देव्या: सुमित्राया उदरे समवातरत् ॥१८६।। समये प्रावूडम्भोदवर्णं सम्पूर्णलक्षणम् । सुमित्राऽपि जगन्मित्रं पुत्ररत्नमजीजनत् ॥१८७।। पुरचैत्येषु सर्वेषु श्रीमतामर्हतां तदा। विशेषेणाऽष्टधा पूजां स्नात्रपूर्वं व्यधान्नृपः॥१८८॥ नृपतिर्मोचयामास धृतान् बन्दिरिपूनपि। को वा न जीवति सुखं पुरुषोत्तमजन्मनि ॥१८९।। सोच्छ्वास: सप्रजो राजा न केवलमभूत् तदा । वसुमत्यपि देवी द्रागुच्छ्वासं प्रत्यपद्यत ॥१९०॥ रामजन्मनि भूपालो यथाऽकृत महोत्सवम् । तथा तमधिकं चक्रे हर्षे को नाम तृप्यति ? ॥१९१।। नाम नारायण इति विदधे तस्य पार्थिवः । स लक्ष्मण इति ख्यातापरनामा च भुव्यभूत् ॥१९२॥ पतौ द्वावपि पितुः कूर्च-कचाकर्षणशिक्षकम् । विशिष्टं प्रापतुर्बाल्यं क्रमेण क्षीरपायिणौ ॥१९३॥ धात्रीभिर्लाल्यमानौ तावपश्यत् परया मुदा । मुहुर्मुहुर्महीपाल: स्वदोर्दण्डाविवाऽपरौ ॥१९४।। संञ्चेरतुः सदस्यानामङ्कादकं महीभुजाम् । ते मङ्गेषु वर्षन्तौ तौ स्पर्शेन सुधामिव ॥१९५।। क्रमेण तौ वर्धमानौ नील-पीताम्बरौ सदा। विजह्रतुः पादपातै: कम्पयन्तौ महीतलम् ॥१९६।। कलयामासतुस्तौ तु क्रमेण सकला: कलाः । साक्षीकृतकलाचार्यो पुण्यराशी इवाऽङ्गिनौ ॥१९७।। लीलामुष्टिप्रहारेण हिमकर्परलीलया। दलयामासतुस्तौ च गिरीनपि महौजसौ ॥१९८|| १. एककालमिवैकैकं ला. खंता.१ ॥ २. त्वेका मु. ॥ ३. इन्द्रः ॥ ४. पृथ्वीम् ।। ५. बलादानीतैः ।। ६. बलदेवजन्मसूचकान् ।। ७. पूर्णिमाचन्द्रदर्शनात् ।। ८. लोके स्थिति ता. हे.; लोकमर्यादा ॥ ९. सहितानि ॥१०. सुवर्णपात्राणि ।।११. कुङ्कुमच्छटाः ।। १२. न्यधीयन्त हे. ॥१३. महीभृतां मु.॥ १४. लक्ष्म्या निवासे कमलसमस्य ।।१५. वासुदेवजन्मसूचकान्॥१६. वर्षामेघसम(श्याम)वर्णम्॥१७. भक्त्या विशेषेण मो. ॥१८. मही॥१९. ख्यातोऽपरनाम च भुव्यधात् ता.; ख्यातोऽपरनाम्ना च भुव्यभूत् मु.॥२०. श्मश्रु-केशाकर्षणे शिक्षकम् ।। २१. सञ्चेरतुरनेकेषा० खंता.१, ला. ।। २२. मुहुरङ्गेषु रसंपा. ।। २३. चरणघातैः ।। २४. हिमपात्रस्य लीलया। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ कलिकालसर्वज्ञश्री हेमचन्द्राचार्यप्रणीतं श्रमस्थानेऽपि हि तयोरधिज्यकृतचापयोः । चकम्पे 'तपनोऽप्युच्चैः स्वस्य वेधाभिशङ्कया ॥ १९९॥ तृणाय मन्यमानौ तौ दो: स्थाम्नाऽपि द्विषां बलम् । कौतुकायैव मेनाते शस्त्रकौशलमात्मनः ॥ २००॥ शस्त्रास्त्रकौशलेनोच्चैर्दो: स्थाम्ना च तयोर्नृपः । अपि देवासुरादीनां स्वमजय्यममन्यत ॥ २०९॥ 1 अन्यदा धैर्यमालम्ब्य विक्रमेण कुमारयोः । इक्ष्वाकूणां राजधानीमयोध्यां नृपतिर्ययौ ॥२०२।। अभ्रात्य इवाऽऽदित्यो दुर्दशातिक्रमे भृशम् । द्योतमानः प्रतापेन महीं दशरथोऽन्वशात् ॥ २०३॥ तत्राऽपरेद्युः कैकेयी शुभस्वप्नाभिसूचितम् । असूत भरतं नाम सुतं भरतभूषणम् ॥२०४॥ शत्रुघ्नमभिधानेन शत्रुघ्नभुजविक्रमम् । अजीजनत् सुप्रभाऽपि नन्दनं कुलनन्दनम् ॥२०५॥ स्नेहाद् भरत शत्रुघ्नाववियुक्तौ दिवानिशम् । बलदेव-वासुदेवावभातामपराविव ॥ २०६ ॥ रेजे राजा दशरथश्चतुर्भिरपि तैः सुतैः । गजदन्ताकृतिनगैरिवँ मेरुमहीधरः ॥२०७॥ • इतश्च जम्बूद्वीपेऽस्मिन् क्षेत्रे चाऽत्रैव भारते । दारुग्रामे वसुभूतिरिति नाम्नाऽभवद् द्विजः ॥ २०८॥ पत्न्यां तस्याऽनुकोशायामतिभूतिरभूत् सुत: । अतिभूते रपि पत्नी बभूव सरसाभिधा ॥ २०९ काननाम्ना विप्रेण जातरागेण सैकदा । अपजहे च्छलेनाऽऽशु किं न कुर्यात् स्मरातुरः ? || २१०॥ तामन्वेष्टुं महीमाटाऽतिभूतिर्भूतवद् भृशम्। सुत- स्नुषार्थेऽनुकोशा-वसुभूती च चेरतुः ॥ २११|| सुत - स्नुषे अपश्यन्तौ पर्यटन्तावथाऽन्यदा । एकं ददृशतुः साधु ववन्दाते च भक्तितः ॥ २१२ ॥ श्रुतधर्मौ च तत्पार्श्वेतौ द्वौ जगृहतुर्व्रतम् । गुर्वादिष्टाऽनुकोशाऽगादायिकां कमलश्रियम् ॥ २१३॥ तौ विपद्य च सौधर्मे कल्पे देवौ बभूवतुः । व्रते ह्येकाहमात्रेऽपि न स्वर्गादन्यतो गतिः ॥ २१४ ॥ ॥ वसुभूतिस्ततश्च्युत्वाऽत्रैव वैताढ्यपर्वते । रथनूपुरनाथोऽभून्नाम्ना चन्द्रगतिर्नृपः ।। २१५ ।। ततश्च्युत्वाऽर्नुकोशाऽपि तस्य विद्याधरप्रभोः । अभूत् पुष्पवती नाम भार्याऽऽर्यचरिता सती ॥२१६॥ तदा च साऽपि सरसा कामपि प्रेक्ष्य संयताम् । प्रव्रज्य मृत्वा चेशाने देवी समुदपद्यत ॥ २१७|| सरसाविरहादार्तोऽतिभूतिश्च विपद्य सः । चिरं भ्रान्त्वा च संसारं हंसपोतः कदाऽप्यभूत् ॥२१८॥ भक्ष्यमाणोऽन्यदा श्येनेनोपसाधु पपात सः । कैण्ठस्थासोर्नमस्कारं तस्य साधुर्ददौ च सः ॥ २१९॥ विपन्नः स नमस्कारप्रभावेणाऽतिभूयसा । दशवर्षसहस्रायुः किन्नरेषु सुरोऽभवत् ॥ २२०॥ च्युत्वा पुरे विदग्धे च प्रकाशसिंहभूपतेः । सुतोऽभूत् प्रवरावल्यां पत्न्यां कुण्डलमण्डितः ॥२२९॥ भोगासक्त: कयानोऽपि चिरं भ्रान्त्वा भवाटवीम् । पुरे चक्रपुरे चक्रध्वजराजपुरोधसः ॥ २२२ ॥ धूमकेशाभिधानस्य स्वाहानाम्न्यामजायत । सूनुः सधर्मचारिण्यां नामधेयेन पिङ्गलः || २२३ ॥ युग्मम् || || राज्ञश्चक्रध्वजस्याऽतिसुन्दरीनामया सह । पुत्र्या पपाठैकगुरोरन्तिके स तु पिङ्गलः ॥२२४॥ कालेन गच्छता जाते त्वनुरागे परस्परम् । तां छलात् पिङ्गलो हत्वा विदग्धनगरे ययौ ॥ २२५॥ विज्ञानरहितस्तत्र तृण-काष्ठादिविक्रयात्। आत्मानमर्जिजीवत् स निर्गुणस्योचितं ह्यदः ॥२२६॥ तां चाऽतिसुन्दरीं तत्राऽद्राक्षीत् कुण्डलमण्डितः । अन्योऽन्यमनुरागश्च तत्कालमभवत् तयोः ॥ २२७॥ अपजह्रे च तां राजपुत्रः कुण्डलमण्डितः । पितुर्भिया दुर्गदेशे पल्लीं कृत्वा च 'संस्थितः ॥२२८॥ विरहाच्चाऽतिसुन्दर्या उन्मत्त इव पिङ्गलः । क्ष्मां भ्रमन्नेकदाऽऽचार्यमार्यगुप्ताख्यमैक्षत ॥ २२९ ॥ श्रुत्वा धर्मं च तत्पार्श्वे व्रतं जग्राह पिङ्गलः । परं प्रेमाऽतिसुन्दर्यां न मुमोच कदाचन ॥ २३०॥ पल्लीस्थितो दशरथभुवं कुण्डलमण्डितः । सर्वदा लुण्टयामास सारमेय इव च्छलात् ॥२३१॥ सामन्तो बालचन्द्राख्यस्ततो दशरथाज्ञया । प्रदाय सौप्तिकं बद्ध्वा तमानैषीत् तदन्तिके ॥ २३२ ॥ कालेन तं दशरथोऽमुचत् कुण्डलमण्डितम् । कोप: शाम्यति महतां दीने क्षीणे ह्यरावपि ॥२३३॥ (सप्तमं पर्व १. तपनोऽप्युच्चैस्तस्थौ मु. ॥ २. मेघात्यये ॥ ३. गजदन्ताकारपर्वतैः ॥ ४. ० रिवामरमहीधरः ता. ।। ५.६.७.८. अनुकेशा पाता ।। ९. संगतीं ला. छा. पा.; साध्वीम् ॥ १०. कण्ठगतप्राणस्य ॥ ११. आजीविकामकरोत् ॥ १२. पितुर्भयाद् हे ।। १३. स स्थितः खंता. २, पाता ।। १४. रात्रियुद्धम् ।। १५. दशरथोऽमुञ्चत्० खंता. १ ॥ For Private Personal Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम्। १६५ पितृराज्याय स भ्राम्यन् महीं कुण्डलमण्डितः । मुनिचन्द्रान्मुनेधर्ममाकर्ण्य श्रावकोऽभवत् ।।२३४।। च्छुरेव मृत्वा स मिथिलायां महापुरि । गर्भे जनकभार्याया विदेहाया: सुतोऽभवत् ॥२३५॥ सरसाऽपि भवं भ्रान्त्वा पुरोहितसुताऽभवत् । नाम्ना वेगवती तत्र प्रव्रज्य च विपद्य च ॥२३६।। ब्रह्मलोकेऽगमच्च्युत्वा विदेहायास्तदोदरे। कुण्डलमण्डितजीवयुग्मत्वेन सुताऽभवत् ।।२३७।। विदेहा समयेऽसूत युगपत् पुत्र-कन्यके । मृत्वा तदा पिङ्गलर्षि: सौधर्मे त्रिदशोऽभवत् ॥२३८।। प्राग्जन्माऽवधिनाऽपश्यद् द्विषं कुण्डलमण्डितम् । तदा जनकपुत्रत्वेनोत्पन्नं स उदैक्षत ॥२३९॥ स प्राग्वैराज्जातरोषो जातमात्रं जहार तम् । दध्यौ च किं निहन्म्येनमास्फाल्याऽऽशु शिलातले ? ॥२४०॥ अथवा यद् भवे पूर्वे दुष्कर्माऽऽचरितं मया । फलं तस्याऽपि भूयस्सु भवेष्वन्वभवं चिरम् ।।२४१॥ दैवाच्छामण्यमासाद्य प्राप्तोऽहमियती भुवम् । हत्वा भ्रूणममुं भूय: स्यामनन्तभव: कथम् ? ॥२४२।। इत्थं विमृश्य स सुरो भूषणैः कुण्डलादिभिः । भूषयित्वा च तं बालं पतज्ज्योतिभ्रंमप्रदम् ।।२४३।। वैताढ्यदक्षिणश्रेणौ रथनूपुरपत्तने । शनकैनन्दनोद्याने तूलिकायामिवाऽमुचत् ॥२४४॥युग्मम्।। किमेतदिति सम्भ्रान्तो दृष्ट्वा चन्द्रगतिश्च तम् । तन्निपातानुसारेण नन्दनोपवनं ययौ ॥२४५।। ददर्श तत्र तं बालं दिव्यालङ्कारभूषितम् । विद्याधरेन्द्र: सोऽपुत्रः पुत्रीयन्नाददे स्वयम् ॥२४६।। प्रेयस्या: पुष्पवत्याश्चाऽर्पयामास तमर्भकम् । देव्यद्य सुषुवे पुत्रमिति चाऽघोषयत् पुरि ।।२४७।। उच्चैर्जन्मोत्सवं तस्य राजा पौराश्च चक्रिरे । प्रभामण्डलसम्बन्धान्नाम्ना भामण्डलोऽभवत् ॥२४८॥ पुष्पवती-चन्द्रगत्योर्नेत्रकैरवचन्द्रमाः । स वर्धितं प्रववते खेचरीकरलालितः॥२४९। पाइतश्चाऽपहते पुत्रे विदेहा करुणस्वरा । रुदती पातयामास बन्धून शोकमहार्णवे ॥२५०॥ जनकोऽन्वेषयामास प्रेष्य प्रतिदिशं नरान् । तत्प्रवृत्तिं पुन: क्वाऽपि न प्राप सुचिरादपि ॥२५१॥ अनेकगुणसस्यानां प्ररोहोऽत्रेति मैथिलः । दुहितुर्युग्मजाताया: सीतेति विदधेऽभिधाम् ॥२५२।। कालेन गच्छता शोकस्तयोर्मन्दीबभूव च । शोको हर्षश्च संसारे नरमायाति याति च ॥२५३।। सीता च ववृधे सार्धं रूप-लावण्यसम्पदा । इन्दुलेखेव शनकैः कलापूर्णा बभूव च ॥२५४॥ क्रमादुद्यौवना पुण्यलावण्यलहरी सरित् । सरित्पतितनूजेव साऽलक्षि कमलेक्षणा ॥२५५॥ अनुरूपो वर: कोऽस्या भवितेति दिवानिशम् । अचिन्तयत् तज्जनको जनकः पृथिवीपतिः ॥२५६।। राज्ञां कुमारान् प्रत्येकं स वीक्ष्य चरचक्षुषा । व्यचारयन् महामात्यैर्न कोऽपि रुरुचे पुन: ।।२५७।। पतदाऽर्धबर्बरैरातरङ्गतमादिपार्थिवैः। दैत्यकल्पैरनल्पैर्भूर्जनकस्योपदुद्रुवे ।।२५८॥ तेषां रोधाय कल्पान्तवार्धिारामिवाऽक्षमः । दूतं दशरथाहूत्यै प्राहिणोन्मिथिलेश्वरः ।।२५९।। ऐक्ष्वाको दूतमायातं तमाहूय ससम्भ्रम: । सप्रसादं निषाद्याऽग्रे जगादैवं महामनाः ॥२६०॥ तस्याऽस्मत्सुहृदो दूरस्थितस्याऽपि त्वदागमात् । मन्ये सौहार्दमद्वैतं मयीन्दाविव वारिधेः ॥२६१।। कच्चिद् राष्ट्रे पुरे गोत्रे सैन्ये स्वाङ्गेऽन्यतोऽपि च। कुशलं मिथिलाभर्तुर्ब्रह्यागमनकारणम् ।।२६२।। दूतोऽप्यवादीन्मद्भर्तुः सत्स्वप्याप्तेष्वनेकशः। सुहृद्धृदयमात्मा वा त्वमेवाऽसि महाभुज! ॥२६३॥ जनकस्य सुखैर्दु:खैर्यत् सदा गृह्यसे यतः । विधुरेऽद्य स्मृतस्तेन त्वं यथा कुलदेवता॥२६४॥ वैताढ्याद्रेर्दक्षिणत: कैलासस्योत्तरेण च । सन्त्यनार्या जनपदा भूयांसो भीषणप्रजाः ॥२६५।। तेष्वर्धबर्बरो नाम देशो बर्बरकूलवत् । विद्यते दारुणाचारैर्नरैरत्यन्तदारुणः ॥२६६॥ मयूरमालनगरे तस्य देशस्य भूषणे। आतरगतमो नाम म्लेच्छराजोऽस्ति दारुणः ।।२६७।। शुक-मङ्कन-काम्बोजप्रभतीन विषयानपि । भञ्जते तनयास्तस्य नपीभय सहस्रशः ॥२६८।। १. राज्येप्सुरेव ला.॥२. महापुरे खंता.१-२, पाता. ॥ ३. बालम् ।। ४. शनैः॥५. शय्यायाम् ।। ६. पुत्रमिच्छन् ॥७. स भामण्डल० खंता.१-२, ला. मु.प्रभृतिषु ।। ८. अङ्कुरः ।। ९. समुद्रपुत्री-लक्ष्मीरिव ॥१०.विचारयन् ता. ॥ ११. आगत्य दैत्यकल्पैर्भूर्जनक० ला. ॥१२. प्रलयकालसमुद्रजलानाम् ।। १३. सुखे दुःखे यत् खंता.१ ।। १४. देशान् ।। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (सप्तमं पर्व 'इदानीमातरङ्गस्तैः परितः परिवारितः। अक्षय्याक्षौहिणीनाथैरभाश्रीजनकक्षितिम् ॥२६९॥ प्रतिस्थानं च चैत्यानि बभञ्जुस्ते दुराशयाः । तेषां ह्याजन्म सम्पद्भ्योऽप्यभीष्टो धर्मविप्लवः ॥२७०।। अनारतमभीष्टस्य धर्मस्य जनकस्य च। तत् कुरुष्व परित्राणं प्राणभूतस्तयोरसि ॥२७१।। आकर्यैवं दशरथो यात्राभेरीमवादयत्। सन्तः सतां परित्राणे विलम्बन्ते न जातुचित् ॥२७२।। रामोऽथोचे दशरथं म्लेच्छोच्छेदाय चेत् स्वयम् । तातो यास्यति तदु राम: सानुजः किं करिष्यति ? ॥२७३।। पत्रस्नेहाच्च तातेनाऽक्षमो वा तर्कितोऽस्म्यहम् । आ भरताज्जन्मसिद्धं नन्विक्ष्वाकुषु पौरुषम् ।।२७४॥ प्रसीद विरम म्लेच्छानुच्छेत्तुं मां समादिश। अचिराच्छ्रोष्यसि स्वामिन्! जयवार्ता स्वजन्मनः ॥२७५।। पाइत्थं कथञ्चिद् राजानमनुज्ञाप्य सहानुजः । सेनापरिवृतो रामो जगाम मिथिलां पुरीम् ।।२७६॥ चमूरु-द्वीपि-शार्दूल-सिंहानिव महावने । पुरीपरिसरेऽद्राक्षीद् रामो म्लेच्छमहाभटान् ।।२७७।। रणकण्डूलदोर्दण्डा म्लेच्छास्ते जितकाशिनः । रामं द्रुतमुपद्रोतुं प्रावर्तन्त महौजसः ।।२७८॥ युगपद् रामसैन्यं तैरस्त्रैरन्धीकृतं क्षणात्। महावातैरिवोद्भ्रान्तैर्जगदुत्क्षिप्तरेणुभिः ॥२७९।। जितमानिषु सैन्येषु परेषु जयमानिषु । मृतमानिनि जनके लोके संहृतमानिनि ॥२८०॥ रामो हसितमानी स्वमधिज्यं विदधे धनुः । अवादयच्च तन्मौर्वी रणनाटकडिण्डिमम् ॥२८१।।युग्मम्।। भ्रूभङ्गमप्यकुर्वाणो गीर्वाण इव भूगत: । रामस्तान् कोटिशोऽप्यस्वैर्विव्याध व्याधवन्मृगान् ।।२८२।। अयं वराको जनकस्तत्सैन्यं मशकोपमम् । तत्साहाय्यागतं सैन्यं दैन्यमागादितोऽप्यभूत् ॥२८३॥ अरे! कुत इमे बाणाश्छादयन्तो नभस्तलम् । पक्षिराजा इवाऽऽयान्तीत्यन्योऽन्यमभिभाषिणः ।।२८४।। आतरङ्गादयो म्लेच्छाधिपा: कुपितविस्मिताः । वर्षन्तोऽस्त्राणि युगपत् प्रतिरामं डुढौकिरे ॥२८५|युग्मम्।। दूरापाती दृढाघाती शीघ्रवेधी च राघवः । तान् म्लेच्छान् हेलयाऽभाकीच्छरभ: कुञ्जरानिव ॥२८६।। म्लेच्छा: प्रणश्य ते जग्मुः काका इव दिशोदिशम् । बभूव स्वस्थो जनको जनैर्जानपदैः समम् ।।२८७।। हृष्टोऽथ स्वसुतां सीतां रामाय जनको ददौ । द्वयं रामागमात् तस्य वरप्राप्तिर्जयोऽप्यभूत् ॥२८८।। तदा च जानकीरूपं जनादाकर्ण्य नारदः । तत्राऽगात् कौतुकाद् द्रष्टुं कन्यावेश्म विवेश च ।।२८९।। पिङ्गकेशं पिङ्गनेत्रं तुन्दिलं छत्रिकाधरम् । दण्डपाणिं सकौपीनमपीनाङ्गं स्फुरच्छिखम् ॥२९०।। भीषणं नारदं प्रेक्ष्य भीता सीता सेवेपथुः । हा मातरित्यारटन्ती गर्भागारान्तरेऽविशत् ।।२९१॥युग्मम्।। कण्ठे शिखायां बाह्वोश्च धुत्वा तुमुलकारिभिः । दासिका-द्वारपालाद्यै रुरुधे नारदस्ततः ॥२९२।। तेषां कलकलादेयुः शस्त्रिणो राजपूरुषाः । यमदूता इव क्रुद्धा हतैनमिति भाषिणः ॥२९३॥ क्षभितो नारदस्तेभ्य: स्वं विमोच्य कथञ्चन । ययावुत्पत्य वैताढ्यं तत्र चैवमचिन्तयत् ॥२९४॥ व्याघ्रीभ्य इव गौर्जीवन् दासीभ्यो निरगामहम् । दिष्ट्या प्राप्तोऽस्मि वैताढ्यं बहुविद्याधरेश्वरम् ॥२९५।। अस्तीह दक्षिणश्रेणौ चन्द्रगत्यात्मजो युवा । भामण्डलो नाम दोष्मानाखण्डलपराक्रमः ॥२९६।। पटे लिखित्वा तत् सीतां दर्शयाम्यस्य येन ताम् । हठादपहरत्येष कृते प्रतिकरोम्यदः ।।२९७।। तथैव नारदः कृत्वा सीतारूपमदर्शयत् । भामण्डलकुमारस्याऽदृष्टपूर्वं जगत्त्रये ॥२९८॥ सद्यो भामण्डलो भूतेनेवाऽऽक्रामि मनोभुवा । लेभे न जातुचिन्निद्रां विन्ध्याकृष्ट इव द्विपः ॥२९९॥ बुभुजे न हि भोज्यानि पेयान्यपि पपौ न स: । अवतस्थे च मौनेन योगीव ध्यानतत्परः ॥३००।। तं तथा विधुरं प्रेक्ष्याऽवोचच्चन्द्रगतिपः । किमाधिर्बाधते कोऽपि त्वामथ व्याधिरुद्धत: ॥३०॥ किमाज्ञाखण्डनं केनाऽप्यकारि भवतोऽथवा ? । अन्यद्वा ब्रूहि हे वत्स! यत् ते दुःखस्य कारणम् ॥३०२।। भामण्डलकुमारोऽभूद्भिया द्वेधाऽप्यवाङ्मुखः । गुरूणां तादृगाख्यातुं कुलीना: कथमीशते ? ॥३०३।। १. इदानीमातरजाद्यो खंता.१॥२. "मृगभेदः" ला.टि. ।। ३. “जितसङ्ग्रामाः" ला.टि. ॥४. आत्मानं जितं मन्यन्ते तेषु ।। ५. शत्रुषु ।। ६. आत्मानं मृतं मन्यमाने ।। ७. आत्मानं संहृतं(हतं) मन्यमाने ।। ८. आत्मानं हसितं (जयाशया) मन्यमानः ।। ९. दूरादापततीति ॥ १०. दृढापाती खंता.२, पाता. ।। ११. सुस्थो रसंपा. ।। १२. बृहदुदरम् ।। १३. सकम्पा ।। १४. अपवरकान्तरे ।। Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ: सर्गः) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । ऊचर्वयस्या अथ भामण्डलस्याऽर्तिकारणम् । कामनां नारदानीतपटालिखितयोषिति ।।३०४।। वेश्मन्यानीय भक्त्याऽऽशु नारदं राजपुङ्गवः । का सा कस्यात्मजेत्यादि पप्रच्छ पैटयोषितः॥३०५।। आचख्यौ नारदोऽप्येवं विदेहा-जनकात्मजा। नामधेयेन सीता सा या मया दर्शिता पटे ॥३०६।। यादृशी साऽस्ति रूपेण लिखितुं तादृशीं पुन: । नाऽभिज्ञोऽहं न चाऽन्यो वा मूर्त्या लोकोत्तरैव सा॥३०७।। नाऽमरीषु न नागीषु न गन्धर्वीषु तादृशम् । सीताया यादृशं रूपं का कथा मानुषीषु तु ? ॥३०८॥ तादृग् रूपं यथावस्थं विकर्तुं नेश्वराः सुराः । नाऽनुकर्तुं सुरनटा न च कर्तुं प्रजापतिः ॥३०९।। तस्या मधुरता काचिदाकृतौ वचनेऽपि च । कण्ठे च पाणिपादे च रक्तता काचिदुच्चकैः ॥३१०॥ अथवा तां यथावस्थां यथा नाऽऽलेखितुं क्षमः । नाऽलं तथा वक्तुमपि वच्म्यत: परमार्थतः ॥३११॥ योग्या भामण्डलस्येति विचार्य मनसा मया। यथाप्रज्ञं समालिख्य दर्शितेयं पटे नृप! ॥३१२।। भविष्यति तवैवैषा पत्नी खिद्यस्व मा ततः । इत्याश्वास्य सुतं राजा व्यसृजन्नारद मुनिम् ॥३१३।। पाततश्च चपलगतिं नाम विद्याधरं नृपः । इत्यादिदेश जनकमपहत्याऽऽनय द्रुतम् ॥३१४॥ रजन्यां जनकं हृत्वाऽनुपलक्षित एव सः । समानीयाऽर्पयामास राज्ञश्चन्द्रगतेरथ ॥३१५।। जनकं बन्धुवत् स्नेहाद् रथनूपुरपार्थिवः । समाश्लिष्याऽऽसयित्वा स ससौहार्दमदोऽवदत् ॥३१६।। लोकोत्तरगुणा पुत्री तव सीतेति विद्यते । भामण्डलश्च मे सूनुरनूनो रूपसम्पदा ॥३१७।। द्वयोर्वधू-वरत्वेन संयोगोऽस्तूचितोऽधुना। सम्बन्धादावयोश्चाऽपि मिथो भवतु सौहृदम् ॥३१८॥ इत्यूचे जनको दत्ता रामाय स्वसुता मया । कथमन्यस्य यच्छामि दीयन्ते कन्यका: सकृत् ॥३१९।। अथ चन्द्रगतिः प्रोचे स्नेहवृद्धिकृते मया। आनीय याचितोऽसि त्वं तां क्षमो हर्तुमप्यहम् ।।३२०॥ यद्यपि स्वसुता सीता त्वया रामाय कल्पिता । तथाऽपि न: पराजित्य रामस्तां परिणेष्यति ॥३२१॥ वज्रावर्ता-ऽर्णवावर्ते धनुषी देवताज्ञया। सदा यक्षसहस्राधिष्ठिते दु:सहतेजसी ॥३२२॥ पूज्ये ते न: सदा गोत्रदेवतावनिकेतने। कृते भविष्यतो राम-शाह्मिणोस्तद् गृहाण ते ॥३२३॥ आभ्यामारोपयत्येकमपि दाशरथिः सचेत । वयं जितास्तदा तेन से उद्वहतु ते सुताम् ॥३२४।। प्रतिज्ञामित्यनुग्राह्य बलादपि हि मैथिलम् । मिथिलायामनैषीच्च चापे ते च सनन्दनः ॥३२५।। मुमोच जनकं राजौकसि चन्द्रगतिर्नृपः । स्वयं तु सपरीवारोऽवात्सीत् पुर्या बहिर्भुवि ।।३२६।। पआचख्यौ जनकस्तच्च वृत्तं निशि तदैव हि । महादेव्या विदेहाया: सद्यो हृदयशल्यदम् ॥३२७।। विदेहाऽपि रुरोदैवं रे दैवाऽत्यन्तनिघृण! । पुत्रं हृत्वा न मे तृप्त: पुत्रीमपि हरिष्यसि ? ॥३२८॥ स्वेच्छयैव वरादानं लोके न हि परेच्छया। परेच्छया वरादानं दैवादापतितं मम ॥३२९|| परेच्छया प्रतिज्ञातं कोदण्डारोपणं यदि । कुर्यान्न रामोऽन्यः कुर्यात् तदाऽनिष्टो वरो भवेत् ॥३३०।। अथेत्थं जनकोऽवोचमा भैषीरेष राघवः । दृष्टसारो मया देवि! लतावत् तस्य तद् धनुः ॥३३१।। विदेहामिति सम्बोध्य प्रभाते जनकोऽमुचत । अर्चित्वा चापरत्ने ते मण्डपे मञ्चमण्डिते ॥३३२॥ सीतास्वयंवरायाऽथ विद्याधर-नरेश्वराः । तत्रैत्य जनकाहूता अधिमञ्चमुपाविशन् ॥३३३।। तत: सखीपरिवृता दिव्यालङ्कारधारिणी। भूचारिणीव त्रिदेशी तत्रोपेयाय जानकी॥३३४।। तत्र कृत्वा धनु:पूजां रामं मनसिकृत्य च । अतिष्ठज्जानकी तत्र जननेत्रसुधासरित् ।।३३५॥ नारदोदितसंवादिसीतारूपेक्षणात् तदा। भामण्डलकुमारस्य मारोऽभून्मारणात्मकः ॥३३६।। अथोचे जनकद्वा:स्थो भो भो: सर्वेऽपि खेचरा:! । महीचराश्च राजानो! जनकोऽयं वदत्यदः ॥३३७।। १. पटयोषिति ला. मो. ॥ २. सर्वप्रतिषु मानवीषु इति पाठः समस्ति ।। ३. नाऽऽलिखितुं खंता.१, ला. ।। ४. सीताम् ।। ५. समुद्बहतु हे. ला. ।। ६. प्रतिज्ञामिति सङ्ग्राह्य पाता. हे. मो.; प्रतिज्ञामित्यनुज्ञाप्य खंता.१-२, रसंपा. ॥ ७. ससूनुक: खंता.१, ला.; सपुत्रः ।। ८. तत्रैयुः पाता. ॥ ९. देवाङ्गना ॥१०. मारकात्मकः मु.प्रभृतिषु ।। ११. जनको वो० खंता.१-२, ला.; जनकोऽवोचदित्यदः ला. पा. छा. ।। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (सप्तमं पर्व आरोपयति यः कश्चिदनयोश्चापदण्डयोः । अप्येकतरमद्यैव स उद्वहतु नः सुताम् ।।३३८॥ एकैकशोऽथ दोष्मन्त: खेचरा भूभुजोऽपि च । उपधन्वं समाजग्मुस्तदारोपणकाम्यया ॥३३९।। वेष्टिते पन्नगै रौद्रैश्चापे ते तीव्रतेजसी। नाऽलं बभूवुस्ते स्प्रष्टुमप्यादातुं तु का कथा ? ॥३४०॥ धनु:स्फुलिङ्गज्वालाभिर्निर्यान्तीभिरनेकशः । प्लुष्यमाणा निवृत्त्येयुस्तेऽन्यतोऽधोमुखा ह्रिया ॥३४१।। अथ दाशरथी रामश्चलत्काञ्चनकुण्डलः । गजेन्द्रलीलागमनश्चापोपान्तमुपासरत् ॥३४२॥ वीक्ष्यमाणः सोपहासं चन्द्रगत्यादिभिर्नृपः । जनकेन च साशत निःशङ्को लक्ष्मणाग्रजः ॥३४३।। वज्रमिव वज्रपाणिर्वज्रावर्तं महाधनः । शान्तोरगानलं सद्यः परिपस्पर्श पाणिना ॥३४४॥युग्मम्।। स्थापयित्वाऽध्यय:पीठं नामयित्वा च वेत्रवत् । अधिज्यं विदधे धन्व तद् रामो धन्विनां वरः ।।३४५।। आकर्णान्तं तदाकृष्य रोद:कुक्षिम्भरिध्वनि। धनुरास्फालयामास स्वयश:पटहोपमम् ॥३४६।। स्वयंवरमजं रामे स्वयं चिक्षेप मैथिली। चापाच्चोत्तारयामास रामभद्रोऽपि शिञ्जिनीम् ॥३४७।। लक्ष्मणोऽप्यर्णवावर्त कार्मुकं रामशासनात्। अधिज्यं विदधे सद्य: प्रेक्षितो विस्मितैर्जनैः ॥३४८।। आस्फालयच्च तन्नादबधिरीकृतदिङ्मुखम् । उत्तार्य मौर्वी सौमित्रिः पुन: स्थाने मुमोच च ॥३४९।। ददुः सौमित्रये विद्याधराश्चकितविस्मिता: । अष्टादश निजा: कन्या: सुरकन्या इवाऽद्भुताः ।।३५०।। विलक्षाश्चन्द्रगत्याद्यास्ताम्यद्भामण्डलान्विताः । विद्याधरेन्द्राः प्रययुः पुरं निजनिजं ततः ॥३५१।। अथ मैथिलसन्देशादागाद् दशरथो द्रुतम् । महोत्सवेन जज्ञे च विवाहो राम-सीतयोः ॥३५२॥ तदा च जनकभ्राता कनकोऽपि निजां सुताम् । भरताय ददौ भद्रां सुप्रभाकुक्षिसम्भवाम् ॥३५३।। समं सुतैः स्नुषाभिश्च राजा दशरथोऽपि हि। ययावयोध्यां नगरी नागरैः प्रकृतोत्सवाम् ॥३५४।। पाअपरेधुर्दशरथो राजा चैत्यमहोत्सवम् । ऋद्ध्या महत्या विदधे शान्तिस्नात्रं चकार च ।।३५५।। स्नात्राम्भ: सौविदल्लेन महिष्यै प्रथमं तदा। पश्चात् त्वपरपत्नीभ्यो दासीभिः प्राहिणोन्नृपः॥३५६।। यौवनाच्छीघ्रगामिन्यो दास्यः प्रथममेव ता: । राजीनामार्पयन् स्नात्रपयस्ताश्च ववन्दिरे ॥३५७।। वृद्धत्वात् सौविदले तु शनिवन्मन्दगामिनि। असम्प्राप्तस्नात्रजला महादेवीत्यचिन्तयत॥३५८॥ सर्वासामेव राज्ञीनां जिनेन्द्रस्नात्रवारिणा । प्रसादो विदधे राज्ञा महिष्या अपि मे न हि॥३५९।। तत् कृतं मन्दभाग्याया जीवितेनाऽप्यतो मम । ध्वस्ते माने हि दु:खाय जीवितं मरणादपि ॥३६०।। विमृश्येति प्रविश्याऽन्तर्मरणे कृतनिश्चया। वस्त्रेणोद्वन्द्धमात्मानमारेभे सा मनस्विनी ॥३६१।। तदैवाऽऽगान्नरेन्द्रस्तां तदवस्थां ददर्श च । तन्मृत्युभीत: स्वोत्सङ्गे निवेश्यैवमुवाच च ॥३६२।। कुतोऽपमानादारब्धं दुःसाहसमिदं त्वया ? । किं नाम दैवाद् विदधे मया काऽप्यवमानना ? ॥३६३।। साऽपि गद्गदवागूचे जिनस्नात्रपय: पृथक् । सर्वासां प्रैषि राजीनां भवता न पुनर्मम ॥३६४।। इत्यवोचत सा यावत् तावदागाच्च कञ्चुकी। राज्ञाऽर्हत्स्नात्रवारीदं प्रस्थापितमिति ब्रुवन् ॥३६५। सोऽभ्यषिञ्चच्च तां मूर्ध्नि तेन पुण्येन वारिणा। विलम्बेन किमागास्त्वं ? राज्ञा चैवमपृच्छ्यत ॥३६६।। कञ्चुक्यपि जगादैव वार्द्धकं मेऽपराध्यति। सर्वकार्याक्षमं स्वामिन्! मां पश्य स्वयमप्यमुम् ॥३६७।। ततो मुमूर्षुमिव तं प्रस्खलन्तं पदे पदे । घण्टान्तालिकालोलदशनं वैलिभाजनम्॥३६८।। श्वेतसर्वाङ्गरोमाणं धूलोमच्छन्नलोचनम् । शुष्कमांसासृजं प्रोदुःस्नसं सर्वाङ्गवेपथुम् ॥३६९।। विलोक्याऽचिन्तय राजा स्मो यावन्नेदृशा वयम् । चतुर्थपुरुषार्थाय तावद्धि प्रयतामहे ॥३७०॥त्रिभिर्विशेषकम्।। १. उपधन्व खंता.१-२, पाता. ता.; “नपुंसकाद् वा"(सि.७/३/८९) इति सूत्रेण सिध्यति द्वयमपि ॥ २.०स्पष्टुं मप्यादातुं रसंपा.; "स्पृशादिसृपो वा" (सि.४/४/११२) इति द्वितयमपि साध्यम् ।। ३. “दह्यमानाः" ला.टि. ॥४.०श्चलकाश्चन० खंता.१॥५. स्थापयित्वाऽध्यपीठं च खंता.१; लोहपीठोपरि ।। ६. “धन्वन्" ला.टि. ॥७. भूम्यन्तरीक्षयो: मध्यभागपूरको ध्वनिर्यस्य तत् ।। ८. धनुरास्फालयद् राम: ला. पा. छा. हे. मो. ।। ९. प्रत्यञ्चाम् (दोरी)॥१०. पुत्री: हे. ॥११. ०द्या भ्राम्यद्भामण्डला ला. छा. पा. ॥ १२. पुत्रवधूभिः ।।१३. स्नात्राम्बु पाता. ॥ १४. कञ्चुकिना॥१५. पत्नीनामपरासांतु ला, ला. ॥१६. विहितो खंता.१, पाता. हे. मो. ता. ।। १७. वस्त्रेण बन्धु० ता.; वस्त्रेणोद्बद्धु० कां. ला. मु.; वस्त्रेण बद्ध० मो. ।। १८. पवित्रेण ॥१९. वृद्धावस्था ।। २०. घण्टाया अन्तर्या लालिका-लोलकं तद्वत् लोलाश्चपला दशना-दन्ता यस्य सः, तम् ॥ २१. वलि:-'करचली' इति भाषा ।। २२. प्रादुर्भूतसर्वा० मु. ॥ २३. खंता. पाता. ला. प्रतिषु न ।। Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । एवंमनोरथो राजा विषयेभ्य: पराङ्मुखः । कमप्यनैषीत् समयं भववैराग्यतन्मयः ॥३७१।। पातस्यां नगर्यामन्येाश्चतुर्ज्ञानी महामुनिः । सत्यभूतिरिति सङ्घप्रावृत: समवासरत् ॥३७२।। सपुत्रादिपरीवारो राजा दशरथोऽपि तम् । गत्वा ववन्दे शुश्रूषुर्देशनां निषसाद च ॥३७३।। तदानीमेव वैताढ्यगिरेश्चन्द्रगतिर्नुप: । सीताभिलाषसन्तप्तभामण्डलसमन्वितः ॥३७४॥ विद्याधरेन्द्रैरन्वीतो रथावर्ताचलेऽर्हतः । वन्दित्वा विनिवृत्त: संस्तत्राऽऽयातो नभ:स्थितः ॥३७५॥युग्मम्।। तं मुनिं समवसृतं वीक्षाञ्चक्रेऽवतीर्य च । ववन्देऽथाग्रतो धर्मं शुश्रूषुर्निषसाद च ॥३७६।। सीताभिलाषजं तापं ज्ञात्वा भामण्डलस्य तु । सत्यभूति: सत्यवादी सूरिः प्रस्तुत्य देशनाम् ॥३७७।। चन्द्रगति-पुष्पवत्यो: सभामण्डल-सीतयोः । समाचख्यौ पूर्वभवांस्तेषां पापानिवृत्तये ॥३७८॥युग्मम्।। सीता-भामण्डलयोश्च भवेऽस्मिन् युग्मजातताम् । भामण्डलापहारं च यथावदवदन्मुनिः ।।३७९।। भामण्डलकुमारोऽपि तदाकर्ण्य मुनेर्वच: । सञ्जातजातिस्मरणो मूर्च्छितो न्यपतद् भुवि॥३८०॥ भामण्डलो लब्धसञ: कथितं सत्यभूतिना । स्वपूर्वभववृत्तान्तं शशंस स्वयमप्यथ ॥३८१॥ ययुः परमसंवेगं चन्द्रगत्यादयोऽप्यथ । स्वसेति सीतां च नमश्चक्रे भामण्डल: सुधीः ॥३८२।। जातमात्रो योऽपजहे सोऽयं मम सहोदरः । इति हृष्टाऽऽशिषं तस्मै ददौ सीता महासती ॥३८३।। नमश्चकार रामं च ललाटस्पृष्टभूतल: । भामण्डलो विनयवान् सद्यः सञ्जातसौहृदः ।। ३८४।। समं विदेहया देव्या जनकं भूपतिं ततः। तत्राऽऽनैषीच्चन्द्रगतिः प्रेष्य विद्याधरोत्तमान् ।।३८५।। जातमात्रापहारादिवृत्तान्ताख्यानपूर्वकम् । भामण्डल: सुतस्तेऽसाविति तस्मै शशंस च ॥३८६॥ जहर्ष वचसा तेन स्तनितेनेव बर्हिणः । जनको जननी सा च विदेहा स्तन्यमक्षरत् ॥३८७।। भामण्डलो नमश्चक्रे पितरावुपलक्ष्य तौ। चुम्ब्यमानो मूर्ध्नि ताभ्यां स्नप्यमानोऽश्रुवारिभिः ॥३८८॥ अथ चन्द्रगती राज्यं न्यस्य भामण्डले सुते । भवोद्विग्नः प्रवव्राज सत्यभूतिमुनेः पुरः॥३८९॥ सत्यभूतिं चन्द्रगतिं पितरावर्नरण्यजम् । सीता-रामौ च नत्वाऽगानिजं भामण्डल: पुरम् ।।३९०॥ सत्यभूतिं महर्षिं तं नत्वा दशरथो नृपः । अपृच्छदात्मन: पूर्वभवानाख्यन् मुनिश्च सः॥३९१॥ सेनापुरे त्वं वणिजो भावनस्य महात्मनः । पत्न्यामभूद्दीपिकायामुपास्तिर्नाम कन्यका ॥३९२॥ साधूनां प्रत्यनीका सा भूत्वा तत्र भवे चिरम् । परिबभ्राम कष्टासु तिर्यगादिषु योनिषु ॥३९३॥ तज्जीवस्त्वं भवं भ्रान्त्वा पुरे चन्द्रपुरे तत: । धनस्याऽभूत् सुत: पत्न्यां सुन्दयाँ वरुणाभिधः ॥३९४।। तदोदार: प्रकृत्या त्वं साधुभ्य: श्रद्धयाऽधिकम् । निरन्तरमदा दानं कालधर्ममथाऽऽसदः ॥३९५।। द्वीपेऽथ धातकीखण्डे युग्म्युत्तरकुरुष्वभूः। मृत्वा चाऽगा देवभूयं परिच्युत्य ततोऽपि हि ॥३९६।। विजये पुष्कलावत्यां पुष्कलायां च पुर्यभूः । नन्दिघोषनृप-पृथ्वीदेव्योस्तुङ्नन्दिवर्धनः ॥३९७॥युग्मम्।। नन्दिघोषः सुतं राज्ये न्यस्य त्वां नन्दिवर्धनम् । यशोधरान्मुनेरात्तदीक्षो ग्रैवेयके ययौ ॥३९८॥ श्रावकत्वं पालयित्वा त्वं मृत्वा नन्दिवर्धनः । त्रिदशो ब्रह्मलोकेऽभूः परिच्युत्य ततोऽपि हि ॥३९९॥ प्रत्यग्विदेहे वैताढ्ये चोत्तरश्रेणिभूषणे । पुरे शशिपुरे रत्नमालिन: खेचरेशितुः ।।४००। विद्युल्लताभिधानायां सधर्मिण्यां महाभुजः । सूनुः सूर्यञ्जय इति नाम्ना त्वं तनयोऽभवः ॥४०१॥त्रिभिर्विशेषकम्।। पाअन्यदा रत्नमाली स दृप्तं विद्याधरेश्वरम् । विजेतुं वज्रनयनं पुरं सिंहपुरं ययौ॥४०२॥ स ज्वालयितुमारेभे पुरं सिंहपुरं ततः। सबालवृद्धं सस्त्रैणं सपशूपवनं हठात् ।।४०३॥ अभिधानेनोपमन्योः पूर्वजन्मपुरोधसः। जीवो देवः सहस्रारात् तं तदैत्यैवमब्रवीत् ॥४०४।। भो भो! महानुभावैवं मा कृथा: पापमुत्कटम् । त्वं भूरिनन्दनो नाम राजाऽभूः पूर्वजन्मनि ॥४०५।। १. भवे वै० मु. छा. पा. मो. कां.प्रभृतिषु ॥ २. खंता. ला. पाता. प्रतिषु न ।। ३. ३७६समनन्तरं “ त्रिभिर्विशेषकम्” इति खंता. पाता. ला. प्रतिषु ॥ ४. कथित: पाता.॥५.०मप्यदः खं.२।। ६. जीमूतेनेव खं.२; मेघगर्जितेनेव मयूराः ॥७. स्तनमण्डलाद् दुग्धम् ।। ८. लक्षितौ छा. पा. मो. ॥९. स्नाप्य० मु.॥ १०.०भूतेमुने: ता. ॥ ११. पितरौ-जनक-विदेहे ।। १२. दशरथम् ॥१३. आपृच्छतात्मन: ता. ।।१४. पूर्व भवमा० ता. ॥१५. द्वेषिणी ॥१६. कष्टात्तु मु.॥१७. द्रङ्गपुरे ला. छा. पा. ।। १८. देवत्वम् ।। १९. पुत्रः ।। २०. यशोधरमुने० मु. ।। २१. पश्चिमविदेहे ।। २२. खंता. ला. पाता.प्रतिषु न ।। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० कलिकालसर्वज्ञश्री हेमचन्द्राचार्यप्रणीतं तदा मांसनिवृत्तिं त्वं प्रत्यज्ञासीर्विवेकतः । पुरोहितेन तेनोपमन्युनोक्तश्च भग्नवान् ||४०६|| पुरोधाः सोऽन्यदा पुंसा स्कन्दनाम्ना निपातितः । गजश्चाऽभूद् गृहीतश्च भूरिनन्दनभूभुजा ॥४०७॥ तश्चेभरणे सोऽथ भूरिनन्दनभूपतेः । गन्धारायामभूत् पत्न्यां सूनुर्नाम्नाऽरिसूदनः ॥ ४०८ ॥ सञ्जातजातिस्मरणः प्रव्रज्य च विपद्य च । सोऽहं देवः सहस्रारे कल्पे जातोऽस्मि विद्धि माम् ॥४०९॥ भूरिनन्दनराजोऽभूद् विपद्याऽजगरो वने । दग्धो दावेन सोऽयासीद् द्वितीयं नरकावनिम् ||४१०।। नरकेऽपि मया गत्वा स प्राक्स्नेहात् प्रबोधितः । तस्मादुद्धृत्य सोऽभूस्त्वं रत्नमालीह पार्थिवः ॥ ४११ ॥ मांसप्रत्याख्यानभङ्गं तदानीमिव सम्प्रति । अनन्तदुःखोदर्कं तत् पुरदाहं स्म मा कृथाः ॥ ४१२॥ तेदाकर्ण्य वचो युद्धाद् रत्नमाली न्यवर्तत । राज्ये न्यधत्त च कुलनन्दनं सूर्य नन्दनम् ॥४१३॥ सूर्यञ्जयेन पुत्रेण सहैव व्रतमाददे । तत्कालमेव तिलकसुन्दराचार्य सन्निधौ ॥ ४१४ ॥ द्वावप्यभूतां तौ मृत्वा महाशुक्रेऽमरोत्तमौ । सूर्यञ्जयस्ततश्च्युत्वा भोस्त्वं दशरथोऽभवः ॥४१५॥ प्रच्युत्य रत्नमाली तु जनकोऽयमजायत । अभूच्च्युत्वोपमन्युस्तु कनको जनकानुजः ॥४१६ ॥ नन्दिघोषः पिता यस्ते नन्दिवर्धनजन्मनि । सोऽहं ग्रैवेयकाच्च्युत्वा सत्यभूतिरिहाऽभवम् ॥४१७॥ तच्छ्रुत्वा जातसंवेगस्तं वन्दित्वाऽनरण्यजः । प्रविव्रजिषुराधातुं रामे राज्यं गृहं ययौ ॥ ४१८॥ ॥अथ राज्ञीः सुतान् मन्त्रिमुख्यानाहूय पार्थिवः । आपप्रच्छे यथौचित्यं दैत्तालापसुधारसः ॥४१९॥ नत्वा बभाषे भरतोऽहं सर्वविरतिं प्रभो! । त्वया सममुपादास्येऽवस्थास्ये त्वां विना न हि ॥ ४२० ॥ ममाऽन्यथा हि द्वे कष्टे स्वामिन्नत्यन्तर्दुः सहे । एकं त्वत्पादविरहोऽपरं संसौरतर्पणम् ॥४२१ ॥ 'तच्छ्रुत्वा चाऽथ कैकेयी निश्चितं भाव्यतः परम् । न पतिर्न च मे सूनुरिति भीर्तीऽब्रवीदिदम् ॥४२२।। स्वामिन्! स्मरसि यो दत्तस्त्वया मह्यं स्वयं वरः । स्वयंवरोत्सवे तत्र तेन सौरथ्यकर्मणा ? ॥४२३॥ तं प्रयच्छाऽर्धुना मह्यं नाथ! सत्यप्रतिश्रव! । प्रस्तरोत्कीर्णरेखेव प्रतिज्ञा हि महात्मनाम् ॥४२४॥ अथाऽवदद् दशरथः प्रतिपन्नं स्मराम्यहम् । याचस्व यन्ममाऽधीनं विना व्रतनिषेधनम् ॥४२५॥ ततो ययाचे कैकेयी त्वं चेत् प्रव्रजसि स्वयम् । स्वामिन्! विश्वम्भरामेतां भरताय प्रयच्छ तत् ॥४२६॥ अद्यैव गृह्यतामेषा मद्भूरित्यभिधाय ताम् । सलक्ष्मणं समायातं रामं दशरथोऽवदत् ॥४२७॥ अस्याः सारथ्यतुष्टेन दत्तः पूर्वं मया वरः । सोऽयं भरतराज्येन कैकेय्या याचितोऽधुना ॥ ४२८ ॥ रामोऽपि हृष्टोऽभाषिष्ट मात्रेदं साधु याचितम् । यन्मद्भ्रात्रे भरताय राज्यदानं महौजसे ||४२९ ॥ आपप्रच्छे प्रसादान्मामिदं तातस्तथाऽप्यदः । दुनोति मामविनयसूचनाकारणं जने ॥४३०॥ अप्येकबन्दिने राज्यं तुष्टस्तातो ददात्वदः । निषेधेऽनुमतौ वा मे न स्वाम्यं पत्तिमानिनः || ४३१|| भरतोऽप्यहमेवाऽस्मि निर्विशेषावुभौ तव । अतोऽभिषिच्यतां राज्ये भरतः परया मुदा ॥ ४३२ ॥ (सप्तमं पर्व इति रामवचः श्रुत्वा भूपतिः प्रीतिविस्मितः । आदिक्षन् मन्त्रिणो यावद् भरतस्तावदब्रवीत् ॥४३३॥ स्वामिन्! सह व्रतादानमादावप्यर्थितं मया । तात! तन्नाऽन्यथा कर्तुं कस्याऽपि वचसाऽर्हसि ॥ ४३४ ॥ राजाऽप्युवाच मा वत्स! मत्प्रतिज्ञां मुधा कुरु । वरो मया हि त्वन्मातुर्दत्तो न्यासीकृतश्चिरम् ॥४३५॥ सोऽद्य ते राज्यदानेन कैकेय्या याचितोऽनघ ! । आज्ञां मम च मातुश्च नाऽन्यथा कर्तुमर्हसि ॥४३६|| रामो भरतमित्यूचे न ते गैर्द्धाऽस्ति यद्यपि । तथाऽपि सत्यापयितुं तातं त्वं राज्यमुद्वह ॥४३७॥ १. ० राजाऽभू० ता. ॥ २. ० स्नेहावबो० ता. ॥ ३.० दुद्धृत्य ला. विना ॥। ४. अनन्तदुःखानि एव उदर्कः परिणामः यस्य तम् ॥ ५. इत्याकर्ण्य खं. १ ।। ६. कुलनन्दनं कुलनन्दनं ता.; सूर्यञ्जयस्य पुत्रं कुलनन्दननामानम् ।। ७. दशरथः ॥ ८. प्रविव्रजिषुरुत्थाय जगाम निजमालयम् हे. छा. पा. मो. ता. खं. २, पाता. ॥ ९. गृहे खं. १ ।। १०. राजा राज्ञी - सुता ऽमात्यानथ दीक्षोत्सुकः स्वयम् खं. १, ला. कां. ला ॥ ११. दत्त आलाप एव सुधारसो येन सः ।। १२. ०दुःखदे कां. ला. खं. १, ला. ॥। १३. संसारवृद्धिः ॥ १४. ध्यात्वाऽब्रवी० मु. खं. २, पाता. हे मो. प्रभृतिषु ॥ १५. सारथित्वस्य कर्मणा - कार्येण ।। १६. ० च्छानुना नित्यं खं. १ ।। १७. सत्यप्रतिज्ञ ! ॥ १८. प्रस्तर: - पाषाण: ।। १९. पृथ्वीं राज्यमित्यर्थः ॥ २०. समाहूय मु. खं. १, ला.प्रभृतिषु ॥ २१. तातो मां प्रसादात् पृच्छति, किन्तु लोके इयं तातकृता पृच्छा ममाऽविनयस्य सूचनां करिष्यति, यद् रामो न विनयी, अतस्तातस्तं पृष्ट्वा भरताय ददाति, एतच्च न युक्तमतो मां दुनोति इत्यर्थः ॥ २२. अप्येकनन्दने पाता. ॥ २३. स्वाम्यं स्वामित्वं, आत्मानं पत्तिं सामान्यसेवकं मन्यते यः सोऽहं तस्य (मम) ॥ २४. गर्द्ध: - आसक्ति:; गर्वोऽस्ति मु. प्रभृतिषु ॥ For Private Personal Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । १७१ अथाऽश्रुभरितदृष्टिर्भरतो गद्गदाक्षरम् । पतित्वा पादयो राममित्युवाच कृताञ्जलिः ॥४३८॥ तातपादार्यपादानां महेच्छानामद: खलु । उचितं ददतां राज्यमाददानस्य मे न तु ॥४३९।। तातस्य सूनुः किं नाऽहं ? किं वा नाऽऽर्यस्य चाऽनुज: ? । सत्यं मातृमुखोऽस्म्येष गर्द्धमेव करोमि चेत् ॥४४०। रामो राजानमित्यूचे भरतो मयि सत्यसौ। राज्यं नाऽऽदास्यते तस्माद् वनवासाय याम्यहम् ॥४४॥ इत्यनुज्ञाप्य राजानं रामो नत्वा च भक्तितः। भरते च रुदत्युच्चैर्निर्ययौ चाप-तूणभृत् ।।४४२॥ वनवासाय गच्छन्तं दृष्ट्वा दशरथः सुतम् । भूयो भूयो ययौ मूर्छामतुच्छां स्नेहकातरः ॥४४३।। अथाऽपराजितां देवीं नत्वा रामोऽभ्यधादिति । मातर्यथाऽहं तनयो भरतोऽपि तथैव ते॥४४४।। स्वां सत्यापयितुं सन्धां तस्मै राज्यमदात् पिता। मयि सत्येष नाऽऽदत्ते तद् गन्तव्यं मया वने ॥४४५।। तद् दृशा भरतं पश्ये: सविशेषप्रसादया। कदाचिदपि मा भूस्त्वं मद्वियोगेन कातरा ॥४४६।। तामाकर्ण्य गिरं देवी पपात भुवि मूर्च्छिता। चेटीभिश्चन्दनाम्भोभिः सिक्तोत्तस्थावुवाच च ॥४४७॥ आ:! केन जीविताऽस्म्येषा ? मूर्छा हि सुखमृत्यवे। सहिष्ये रामविरहदुःखं जीवन्त्यहं कथम् ? ॥४४८॥ वनं व्रजिष्यति सुत: पतिश्च प्रव्रजिष्यति । श्रुत्वाऽप्येतन्न यद्दीर्णा कौशल्ये! वज्रमय्यसि ॥४४९।। रामो जगाद भूयोऽपि मात:! पत्न्यसि मत्पितुः । तत: किमिदमारब्धं कातरस्त्रीजनोचितम् ? ॥४५०॥ वनान्यटितुमेकाकी याति केसरिणीसुतः । स्वस्था तु केसरिण्यस्ति न ताम्यति मनागपि ॥४५१॥ तातस्य ऋणमस्त्युच्चैः प्रतिपन्नवरो ह्ययम् । अत्र स्थिते च मय्यम्ब! तस्याऽऽनृण्यं भवेत् कथम् ? ॥४५२॥ इत्यादियुक्तिवचनैर्बोधयित्वाऽपराजिताम् । तां नत्वाऽन्याश्च जननीर्निर्ययौ लक्ष्मणाग्रजः ॥४५३॥ पादूराद् दशरथं नत्वा सीतोपेत्याऽपराजिताम् । नत्वा चाऽयाचताऽऽदेशं रामानुगमन प्रति ॥४५४।। ऊचेऽपराजिता देवी क्रोडमारोप्य जानकीम् । बालामिव स्नपयन्ती केवोष्णैर्नयनोदकैः ।।४५५।। वत्से! वत्सो रामभद्रो विनयी पित्रनुज्ञया। वनं प्रयाति तस्यैतन्नृसिंहस्य न दुष्करम् ॥४५६।। देवीव लालिताऽसि त्वमाजन्मोत्तमवाहनैः । सहिष्यसे कथं वत्से! पादचङ्कमणव्यथाम् ? ॥४५७।। तवाऽङ्गं सौकुमार्येण कमलोदरसोदरम्। क्लिष्टं तापादिना कुर्यात् क्लेशं दाशरथेरपि॥४५८॥ स्वभर्तुरनुयानेनाऽनिष्टकष्टागमनेन च । न निषेधं न चाऽनुज्ञां यान्त्यास्ते कर्तुमुत्सहे॥४५९।। सीताऽप्युवाच नि:शोका नमस्कृत्याऽपराजिताम् । दधती प्रोतरुत्फुल्लसरोरुहमिवाऽऽननम् ॥४६०॥ अँधित्वदस्तु मे भक्तिर्नित्यं क्षेमङ्करा पथि । एषाऽहमनुयास्यामि रामं विद्युदिवाऽम्बुदम् ॥४६१॥ इत्युक्त्वा तां पुनर्नत्वा निर्ययौ जनकात्मजा । आत्मानमात्मरामेव ध्यायन्ती लक्ष्मणाग्रजम् ॥४६२।। अहो! अत्यन्तमनया पतिभक्त्याऽद्य जानकी । आद्योदाहरणं जज्ञे पतिदैवतयोषिताम् ॥४६३॥ कष्टादभीता सीतेयं सतीजनमतल्लिका। अहो शीलेन महता पनाति स्वं कुलद्वयम ॥४६४॥ इति व्यावर्णयन्तीभि: शोकगद्गदया गिरा। पौरीभिः कथमप्यैक्षि सीता यान्ती वनं प्रति ॥४६५||त्रिभिर्विशेषकम्।। परामं वनाय निर्यान्तं दृष्ट्वा सपदि लक्ष्मण: । सद्य: सेन्धुक्षितक्रोधवह्निर्दध्याविदं हृदि ॥४६६॥ ऋजुस्तात: प्रकृत्याऽपि प्रकृत्याऽनृजव: स्त्रियः । इयच्चिरं वरं धृत्वा योचते साऽन्यथा कथम् ? ॥४६७|| दत्तमेतावता राज्यं भरताय महीभुजा। अपनीतमृणं स्वस्य गता नश्च पितॄणभीः ।।४६८।। निर्भय: साम्प्रतं हृत्वा भरतात् कुलपांसनात् । न्यस्यामि राज्यं किं रामे विराँमाय निजक्रुधः ? ॥४६९॥ अथवाऽसौ महासत्त्वस्तृणवद् राज्यमुज्झितम् । रामो नाऽऽदास्यते दु:खं तातस्य तु भविष्यति ॥४७०|| १.महाशयानाम् ।। २. 'मावडियो' इति भाषायां, य: सर्वकार्येषु मातरमेव प्रेक्षतेऽनुसरति च ।। ३. गर्वमेवं मु.प्रभृतिषु ।। ४. चापतूणवान् मु.॥५. प्रतिज्ञाम् ।। ६. राज्यं ददौ पिता खं.१, ला. ॥७. वने मया खं.१-२॥ ८. भूश्च ता. ॥ ९. जीवाम्यहं खं.१ ॥१०. सिंहीपुत्रः ।। ११. केसरिण्यास्ते मु.॥ १२. ऋणमत्युच्चैः ता.॥१३. अवस्थिते मो. ॥१४. अङ्कम् ।। १५. ईषदुष्णैः ।।१६. प्रात:काले विकस्वरं कमलमिव ।। १७. त्वयि अधि इति अधित्वत्, तव उपरीत्यर्थः ।। १८. आत्मस्वरूपे एव आरामो यस्याः सा आत्मारामा-आत्मध्यानं कुर्वन्ती योगिनी तद्वत् ।। १९. जाता हे. मो. ता. ॥२०. पतिरेव दैवतं-देवः यासां, तासां नारीणाम् ।। २१. सतीसमूहे प्रशस्या।। २२. श्रुत्वा मुद्रिते; छा. पा. मो. विना सर्वप्रतिष्वपि ।। २३.सन्धुक्षित:-दीप्त: क्रोधवहिर्यस्य सः ॥२४. कुटिलाः ।।२५. ययाचे खंता.१-२, ला. ॥ २६. पित्वृण० पाता.; पितुः ऋणं, तस्य भी:-भयम् ("ऋतो वा तौ च"सि.१/२/४) ॥ २७. कुलाङ्गारात् ।। Jain EducationR.M. शमनाय” इति ला.टि.॥ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं नमस्कृत्य तातस्य मा स्म भूद् दुःखं राजाऽस्तु भरतोऽपि हि । अहं त्वनुगमिष्यामि रामपादान् पदातिवत् ॥४७१॥ एवं विचिन्त्य सौमित्रिर्नत्वाऽऽपृच्छ्य च भूपतिम् । ययौ सुमित्रामाप्रष्टुं नत्वा चैवमवोचत ||४७२॥ गमिष्यति वनं रामोऽनुगमिष्यामि तं त्वहम्। मर्यादाब्धिं विना ह्यार्यं न स्थातुं लक्ष्मणः क्षमः ॥४७३ || कथञ्चिद् धैर्यमालम्ब्य सुमित्राऽप्यब्रवीदिदम् । साधु वत्साऽसि मे वत्सो ज्येष्ठं यदनुगच्छसि ॥४७४॥ मां वत्सोऽद्य रामभद्रश्चिरं गतः । अतिदूरे भवति ते मा विलम्बस्व वत्स! तत् ॥ ४७५॥ इदं साध्वम्ब! साध्वम्ब! मदम्बाऽसीत्युदीर्य ताम् । नत्वा च लक्ष्मणोऽगच्छत् प्रणन्तुमपराजिताम् ॥४७६ ॥ तां नत्वोवाच सौमित्रिरार्य एकाक्यगाच्चिरम्। त्वामाप्रष्टुमहं त्वागामार्यानुगमनोत्सुकः ॥ ४७७ ॥ उदश्रुरूचे कौशल्या मन्दभाग्याऽस्मि हा ! हता । वत्स! त्वमपि मां मुक्त्वा प्रस्थितोऽसि वनाय यत् ॥ ४७८ ॥ त्वमेकोऽत्राऽवतिष्ठस्व मा प्रतिष्ठस्व लक्ष्मण ! । ममाऽऽश्वासकृते रामविरहार्दितचेतसः ||४७९|| प्रत्यूचे लक्ष्मणोऽप्येवं माता रामस्य नन्वसि । मातः! कृतमधैर्येणाऽर्हेण सामान्ययोषिताम् ॥४८०॥ दूरे गच्छति मे बन्धुरनुयास्यामि तं द्रुतम् । तद् विघ्नं मा कृथा देवि! रांमनिघ्नः सदाऽप्यहम् ॥४८१ ॥ तामित्युक्त्वा च नत्वा च सौमित्रिरथ सत्वरम् । अनुधाव्याऽगमत् सीता-रामौ कार्मुक-तूणभृत् ॥४८२॥ योsपि निर्ययुः पुर्या विकस्वरमुखाम्बुजाः । विलासोपवनायेव वनवासाय सोद्यमाः ॥ ४८३ ॥ प्राणैरिव विनिर्यद्भिर्मैथिली- राम-लक्ष्मणैः । कष्टां नराश्च नार्यश्च नगर्यां लेभिरे दशाम् ॥ ४८४॥ वेगात् तान्वधावन्ताऽनुरागेण गरीयसा । नागराः क्रूरकैकेयीविध्योराक्रोशदायिनः ॥४८५|| बाष्पायमाणो राजाऽपि सान्तःपुरपरिच्छदः । द्रुतमन्वसरद् राममाकृष्टः स्नेहरज्जुभिः ॥४८६|| द्रुतं राज्ञि जने चाऽपि रामभद्रानुगामिनि । नगर्ययोध्या समभूद्वसेव समन्ततः ॥४८७॥ अथाऽवस्थाय काकुत्स्थः पितरं जननीरपि । न्यवर्तयत् कथमपि गिरा विनयसारया ॥४८८।। तथा यथोचितालापै: पौरानपि विसृज्य सः । सीता - सौमित्रिसहितस्त्वरितत्वरितं ययौ ॥४८९ ॥ ग्रामे ग्रामे ग्रामवृद्धैर्महेभ्यैश्च पुरे पुरे । प्रार्थ्यमानोऽप्यवस्थातुं काकुत्स्थो न ह्यवास्थित ॥४९०॥ इतश्च भरतो राज्ये नाऽऽददे किं तु प्रत्युत । कैकेयीं स्वं च चुक्रोश स्वभ्रातृविरहासहः ॥ ४९१ ॥ परिव्रज्योत्सुको राजा सामन्तान् सचिवानपि । प्राहिणोद् राममानेतुं राज्याय संहलक्ष्मणम् ।।४९२॥ पंश्चिमायायिनं रामं प्रापुत्वरितंमेव ते । निर्वृत्त्यै चाऽभ्यधुर्भक्त्या राजाज्ञाख्यानपूर्वकम् ॥४९३ ।। तैर्दानैः प्रार्थ्यमानोऽपि न न्यवर्तत राघवः । महतां हि प्रतिज्ञातं न चलत्यद्रिपादवत् ॥४९४॥ विसृज्यमाना अपि ते राघवेण मुहुर्मुहुः । सहैव चेलुः सर्वेऽपि कृताशास्तन्निवर्तने ॥४९५।। अथोग्रश्वापदपदं निर्मानुष्यां घनद्रुमाम् । परियात्राटवीं प्रापुर्जानकी - राम-लक्ष्मणाः ||४९६ ॥ अभिधानेन गम्भीरां गम्भीरावर्तभीषणाम् । पृथुप्रवाहां पथि ते समीक्षाञ्चक्रिरे नदीम् ||४९७|| तत्र स्थित्वाऽवदद् रामः सामन्तादीनिदं वचः । इतः स्थानान्निवर्तध्वमध्वा कष्टो ह्यतः परम् ॥ ४९८ ॥ अस्माकं कुशलोदन्तं गत्वा तातस्य शंसत । उपाध्वं भरतं द्वैत् तातवद् वाऽप्यतः परम् ॥४९९ ।। धिगस्मान् रामपादानामयोग्यानिति भूरिशः । ते रुदन्तो न्यवर्तन्त बौष्पाम्भः स्तिमितांशुकाः ॥ ५०० ॥ उत्ततार ततो रामो दुस्तरां तां तरङ्गिणीम् । ससीता-लक्ष्मणः साग्रैः प्रेक्षितस्तैस्तटस्थितैः ॥५०१॥ रामेऽथ दृक्पथातीते सामन्ताद्याः कथञ्चन । अयोध्यानगरीमीयुस्तद् राज्ञे चाऽऽचचक्षिरे ॥५०२॥ राजाऽप्युवाच भरतं नाऽऽयातौ राम-लक्ष्मणौ । राज्यं गृहाण मम तद् दीक्षाविघ्नाय मा स्म भूः ||५०३ || भरतो ऽप्यवदद् राज्यं नाऽऽदास्येऽहं कथञ्चन । आनेष्ये तु स्वयं गत्वा प्रसाद्य निजमग्रजम् ||५०४ || (सप्तमं पर्व १. नन्वहम् ॥ २. “रामवश: " इति ला. टि. ॥। ३. अनुधाव्याऽभ्यगात् खं. १, ला. का. ॥। ४. क्रूराया: कैकेय्याः विधेः - विधातुश्च ॥ ५. उद्वसा निर्जना 'उज्जड' इति भाषायाम् ॥ ६. रामः ॥ ७. ० तस्त्वरितं० ता. ॥ ८. समलक्ष्मणम् खं. १ ।। ९. पश्चिमदिशागामिनम् ॥। १०. ० मेत्य ते ता. ॥। ११. निवर्तनाय ।। १२. प्रतिज्ञा तु मु. ॥ १३. पारियात्रो नाम कुलाचलस्तस्याऽटवीम् । केचित् सौराष्ट्रदेशे प्रसिद्धं 'बरडा' इत्याख्यं गिरिं पारियात्रं वदन्ति (मुद्रिते टि.) ।। १४. सेवध्वम् ।। १५. मद्वत्तातवच्चाप्यतः पाता. ॥। १६. बाष्पाम्भसा - अश्रुजलेन स्तिमितानि - आर्द्राणि अंशुकानि - वस्त्राणि येषां ते ।। १७. साश्रुभिः ।। १८. व्याच० मु. ॥ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७३ चतुर्थः सर्गः) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । आगात् तदा च कैकेयी राजानमिति चाऽब्रवीत्।भरताय त्वया राज्यं दत्तं सत्यप्रतिश्रव! ॥५०५॥ परमेष न गृह्णाति राज्यं ते विनयी सुतः । अन्यासां चाऽस्य मातॄणां महद् दुःखं ममाऽपि च ॥५०६।। अविमृश्यविधायिन्या पापीयस्या मया कृतम् । सति त्वयि सपुत्रेऽपि हहा! राज्यमराजकम् ॥५०७॥ कौशल्याया: सुमित्राया: सुप्रभायाश्च दुःश्रवम् । रुदितं मम शृण्वन्त्या हृदयं भवति द्विधा ॥५०८॥ भरतेन समं गत्वा तौ वत्सौ राम-लक्ष्मणौ । अनुनीय समानेष्याम्यनुजानीहि नाथ! माम् ॥५०९|| अथाऽऽदिष्टा प्रहृष्टेन राज्ञा दशरथेन सा। ययौ सभरतामात्या प्रति रामं कृतत्वरा ॥५१०॥ कैकेयी-भरतौ षड्भिः प्रापतुस्तद् वनं दिनैः । अपश्यतां द्रुमूले च जानकी-राम-लक्ष्मणान् ॥५११।। रथादुत्तीर्य कैकेयी वत्स! वत्सेति भाषिणी। प्रणमन्तं रामभद्रं चुचुम्बोपरि मूर्धनि ।।५१२॥ पादाब्जयोः प्रणमन्तौ वैदेही-लक्ष्मणावपि । आक्रम्योपरि बाहुभ्यां तारतारं रुरोद सा॥५१३|| भरतोऽपि नमश्चक्रे रामपादावुदश्रुदृक् । प्रत्यपद्यत मूर्छा च मूर्च्छत्खेदमहाविषः ॥५१४॥ बोधितो रामभद्रेण विनयी भरतोऽवदत् । अभक्तमिव मां त्यक्त्वा कथमत्र त्वमागम: ? ॥५१५।। राज्यार्थी भरत इति मातृदोषेण योऽभवत् । ममाऽपवादो हर तमात्मना सह मां नयन् ॥५१६।। निवृत्य यद् वाऽयोध्यायां गत्वा राज्यश्रियं श्रय । कौलीनशल्यं मे भ्रातरेवमप्यपयास्यति ॥५१७|| जगन्मित्रं हि सौमित्रिस्तवाऽमात्यो भविष्यति । अयं जनः प्रतीहार: शत्रुघ्नस्त्वातपत्रभृत् ।।५१८॥ एवं ब्रुवाणे भरते कैकेय्यप्यब्रवीदिदम् । कुरु भ्रातृवचो वत्स! सदाऽसि भ्रातृवत्सलः ॥५१९।। अत्र न त्वत्पितुर्दोषो न दोषो भरतस्य च। कैकेय्या एव दोषोऽयं सुलभ: स्त्रीस्वभावतः॥५२०|| कौलट्यवर्जा ये केऽपि दोषा: स्त्रीणां पृथक् पृथक् । ते सर्वे कृतसंस्थाना मयि दोषखनाविव ॥५२१।। पत्युः सुतानां तन्मातृजनस्य च मया कृतम् । इदं दु:खाकरं कर्म तत् सहस्व सुतोऽसि यत् ॥५२२।। इत्यादि साश्रु जल्पन्तीं तामूचे लक्ष्मणाग्रजः । तातस्य सूनुर्भूत्वाऽहं प्रतिज्ञातं त्यजामि किम् ? ॥५२३।। तातेन दत्तमेतस्मै राज्यं ह्यनुमतं मया। अस्त्वन्यथा कथङ्कारं वाग् द्वयोर्जीवतोरपि ? ॥५२४।। तदस्तु भरतो राजा द्वयोरपि निदेशत: । अस्याऽस्म्यहमनुल्लङ्घयो मम तात इवाऽम्बिके! ॥५२५॥ इत्युक्त्वोत्थाय काकुत्स्थ: सीतानीतजलैः स्वयम् । राज्येऽभिषिञ्च भरतं सर्वसामन्तसाक्षिकम् ॥५२६।। राम: प्रणम्य कैकेयी सम्भाष्य भरतं तथा। विससर्ज प्रतस्थे च केकुभं दक्षिणां प्रति ।।५२७|| ययावयोध्यां भरतस्तत्र चाऽखण्डशासनः । ऊरीचक्रे राज्यभारं पितुर्धातुश्च शासनात् ॥५२८॥ "महामुनेः सत्यभूते: पार्श्वे दशरथोऽप्यथ। भूयसा परिवारेण समं दीक्षामुपाददे ॥५२९|| स्वभ्रातृवनवासेन भरत: शल्यितो हृदि । अर्हत्पूजोद्यतोऽरक्षद् राज्यं यामिकवत् सुधीः ।।५३०॥ सौमित्रि-मैथिलसुतासहितोऽथ रामो गच्छन्नतीत्य गिरिमध्वनि चित्रकूटम् । आसादयत् कतिपयैर्दिवसैरवन्तिदेशैकदेशमर्वनिस्थितदेवदेश्यः ॥५३१।। इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये सप्तमे पर्वणि राम-लक्ष्मणोत्पत्ति-परिणयन-वनवासगमनो नाम चतुर्थः सर्गः।। १. चाऽपि ता. ।। २. मूर्च्छत् व्याप्तीभवत् खेद एव महाविषं यस्य सः; "प्रसरत्" इति ला.टि. ॥३. त्वमागतः खं.१, ता. ।। ४. ममाऽपवादं पाता.॥५. कौलीनं-लोकापवादः, तदेव शल्यम् ।। ६. भरतः ॥७. मातृवत्सलः मु.॥ ८. "असतीत्व" इति ला.टि.; असतीत्वं मुक्त्वाऽन्ये सर्वेऽपि स्त्रीसुलभा दोषा: मयि सन्तीत्याशयः ।। ९. दोषाणां खनि:-आकरस्तत्रेव ॥१०. अन्यथा स्यात् हे. ॥११. दिशाम् ॥१२. सुभ्रातृ० हे. मो. पा. छा. ला.प्रभृतिषु ।। १३. अवन्यां स्थितो देव इव ॥१४. सप्तमपर्वणि खं.१-२॥१५. वनगमनो ता. ॥१६. चतुर्थसर्गः पाता. ॥ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥पञ्चमः सर्गः॥ रामोऽथ विश्रमयितुं श्रान्तामध्वनि जानकीम्। वटस्य मूले न्यषदद्गुह्यकानामिवेश्वरः॥१॥ तं देशं सर्वतो वीक्ष्य रामः सौमित्रिमभ्यधात् । देश: कस्याऽपि भीत्याऽयमधुनैवोद्वेसोऽभवत् ।।२।। अशुष्ककुल्यान्युद्यानानीक्षुवाटाश्च सेक्षवः । सान्नानि च खलान्याहुनूतनोद्वसतामिह ।।३।। तदा च राम: पप्रच्छ गच्छन्तं जनमेककम् । किमुच्चचाल देशोऽयं ? क्व चाऽसि चलितोऽनघ! । ॥४॥ सोऽप्यूचेऽवन्तिदेशेऽस्मिन् पुर्यवन्त्यां नरेश्वरः । अस्ति सिंहोदरो नाम सिंहवद् दुःसहो द्विषाम् ॥५॥ तस्य च प्रतिबद्धोऽस्ति विषयेऽस्मिन् महामतिः। सामन्तो वज्रकर्णाख्यो दशाङ्गपुरनायकः॥६॥ स पापर्धां गतोऽन्येधुर्वनमध्ये महामुनिम् । कायोत्सर्गस्थमैक्षिष्ट नामत: प्रीतिवर्धनम् ॥७।। किं तिष्ठसि द्रुम इवाऽरण्येऽमुत्रेति तेन तु । अनुयुक्तो मुनिरात्महितार्थमिति सोऽवदत् ।।८॥ भूयोऽप्यूचे वज्रकर्ण: खाद्य-पेयादिवर्जिते । अत्र सम्पद्यतेऽरण्ये किं नामाऽऽत्महितं तव ? ॥९॥ तं च योग्यं मुनिख़त्वा धर्ममात्महितं जगौ। श्रावकत्वं सोऽपि सद्य: प्रपेदे तत्पुर: सुधीः ॥१०॥ विना च देवमर्हन्तं विना साधूंश्च नाऽपरम् । नस्यामीति तदग्रे स जग्राहाऽभिग्रहं दृढम् ॥११।। ततश्च तं स वन्दित्वाऽगाद् दशाङ्गपुरं पुरम् । पालयन् श्रावकत्वं च चिन्तयामासिवानिदम् ॥१२॥ नमस्कार्यो मया नाऽन्य इति तावदभिग्रहः । सिंहोदरश्च मे वैरी भविष्यत्यनमस्कृतः॥१३॥ एवं विमुश्योत्प्रतिभः स्वाङ्गलीये मणीमयीम् । मुनिसुव्रतनाथस्य प्रतिमा सन्यवीविशत् ॥१४॥ तद् बिम्बं स्वाङ्गुलीयस्थं नमन् वञ्चयते स्म स: । सिंहोदरं नरपतिं मायोपायो बलीयसि ॥१५॥ तं वज्रकर्णवृत्तान्तं सिंहोदरमहीपतेः । आचचक्षे खलः कोऽपि खला: सर्वकषा: खलु ॥१६।। सद्य: सिंहोदरोऽकुप्यन्महाहिरिव निःश्वसन् । वज्रकर्णाय तत्कोपं कोऽप्यागत्य शशंस च ॥१७।। तस्य कोपो मयि कथं त्वया ज्ञात ? इति स्फुटम् । वज्रकर्णेन पृष्टः सन्नाचख्यौ स पुमानिति ॥१८॥ [पुरे कुन्दपुरे श्राद्धः समुद्रसङ्गमो वणिक् । यमुना नाम तत्पत्नी विद्युदङ्गोऽस्मि तत्सुतः ॥१९॥ क्रमाच्च यौवनं प्राप्तो भाण्डमादाय चाऽगमम् । उज्जयिन्यामहं पुर्यां क्रय-विक्रयहेतवे ॥२०॥ तत्र कामलतां नामोऽपश्यं वेश्यां मृगीदृशम् । सद्यश्च कामबाणानामभूवमहमास्पदम् ॥२१॥ निशामेकां वसामीति तया कृतसमागमः । दृढं रागेण बद्धोऽहं मृगो वागुरया यथा ॥२२॥ आजन्म कष्टेन धनं यन्मत्पित्राऽर्जितं बहु । तद्वशेन मया तत् तु षड्भिर्मासैर्विनाशितम् ॥२३॥ सिंहोदरमहिष्याः श्रीधराया ये हि कुण्डले। तादृशे देहि मह्यं त्वमित्यूचे साऽन्यदा तु माम् ॥२४॥ न मेऽर्थः कश्चिदप्यस्ति ते एवाऽपहराम्यहम् । इति रात्रौ साहसिकः खात्रेणाऽगां नृपौकसि ॥२५॥ सिंहोदरं श्रीधरेति पृच्छन्ती शुश्रुवे मया। नाथोद्विग्न इवेदानीं निद्रां न लभसे कथम् ? ॥२६॥ सिंहोदरोऽवदद् देवि! तावन्निद्रा कुतो मम । प्रणामविमुखो यावद् वज्रकर्णो न मार्यते ? ॥२७॥ अमुं प्रातर्हनिष्यामि ससुहृत्पुत्रबान्धवम् । यात्वियं रजनी तावद् विनिद्रस्याऽपि मे प्रिये! ।।२८।। तदाकर्ण्य तवाऽऽख्यातुं त्यक्तकुण्डलचौरिकः । त्वां साधर्मिकवात्सल्यादिह त्वरितमागमम् ॥२९।। पावज्रकर्णस्तदाकर्ण्य पुरीं तृण-कणाधिकाम्। सद्यो व्यधत्ताऽपश्यच्च परचक्ररजोऽम्बरे॥३०॥ १. यक्षाणामीश्वर: कुबेर इव ॥२. निर्जनः ।। ३. अशुष्का:-आर्द्राः कुल्या: ('नीक' इति भाषायाम् ) - कृत्रिमनद्यः येषु तानि॥४. अधीनः॥५. ०बद्धोऽस्मिन् विषयेऽस्ति महा० रसंपा. ॥ ६. मृगयायाम् ॥७. संजग्राहा० ला. ॥ ८. उत्पन्ना प्रतिभा-बुद्धिर्यस्य सः॥९. संन्यवी० मु.॥१०. माया एवोपायः ॥११. सर्वं कषन्ति-नाशयन्तीति सर्वकषाः ।। १२. नाम्नाऽ० खं.१-२, पाता.; नाम पश्यन् ला. ॥१३. मृगीदृशीम् ता. ।। १४. पाशेन ।। १५. च ला. ॥१६. 'खातर पाडीने' इति भाषा ॥१७. ० चोरिक: ता. ॥१८. कण-तृणा० ता. ॥१९. सद्यश्चकाराऽप० खं.१-२,ला. ता. कां. मो. ला. ।। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः) ___ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम्। क्षणाच्चाऽवेष्ट्यत सिंहोदरेण प्रबलैर्बलैः। तद्दशाङ्गपुरं विष्वक् चन्दनदुरिवाऽहिभिः ॥३१॥ सिंहोदरोऽथ दूतेन वज्रकर्णमदोऽवदत् । प्रणाममायया मायिन्! वञ्चितोऽस्मि त्वया चिरम्॥३२॥ विना तेनाऽङ्गुलीयेन मामागत्य नमस्कुरु। अन्यथा सकुटुम्बस्त्वं यमवेश्माऽद्य यास्यसि ॥३३॥ प्रत्यूचे वज्रकर्णोऽपि मम ह्ययमभिग्रहः । विनाऽर्हन्तं विना साधुं प्रणमाम्यपरं न हि ॥३४॥ न पौरुषाभिमानोऽत्र किं तु धर्माभिमानिता । नमस्कारं विना सर्वं ममाऽऽदत्स्व यथारुचि ॥३५।। धर्मद्वारं देहि मह्यं यथा धर्माय कुत्रचित् । अहमन्यत्र गच्छामि धर्म एवाऽस्तु मे धनम् ॥३६॥ इत्युक्ते वज्रकर्णेन न हि तत् प्रेत्यपादि स: । जातु धर्ममधर्म वा न गणयन्ति मानिनः ॥३७॥ पुरं सवज्रकर्णं तद् रुद्ध्वा सिंहोदरो बहिः । स्थितोऽस्ति मुष्णन् देशं च तद्भयादयमुद्वसः ॥३८॥ अहं च सकुटुम्बोऽपि नष्टोऽस्मि राजविड्वरे । दग्धान्यत्राऽद्य सौधानि जीर्णा सा च कुटी मम ॥३९।। शून्येभ्य इभ्यवेश्मभ्यो वेश्मोपकरणान्यहम् ।आनेतुं क्रूरगेहिन्या प्रेषितो यामि तन्मुखः ॥४०॥ तस्या दुर्वचसोऽप्येतत् फलं शुभमभून्मम । यन्मया देवकल्पस्त्वं दृष्टो दैववादसि ॥४१॥ एवमुक्तवतस्तस्य दरिद्रस्य रघूद्वहः । रत्नस्वर्णमयं सूत्रमदत्त करुणानिधिः ॥४२॥ पतं विसृज्य ततो रामो दशाङ्गपुरमीयिवान् । चन्द्रप्रभं बहिश्चैत्ये नत्वा तत्राऽप्यवास्थित ॥४३॥ रामादेशेन सौमित्रिस्तत् प्रविश्य क्षणात् पुरम्। वज्रकर्णान्तिकेऽगच्छदलक्ष्याणां ह्यसौ स्थितिः॥४४॥ वज्रकर्ण: सदाकारं ज्ञात्वा तं नरमुत्तमम् । ऊचे महाभाग! भव भोजनातिथ्यभाग मम ॥४५॥ रामानुजोऽप्यभिदधे सकलत्रो मम प्रभुः । स्थितोऽस्ति बहिरुद्याने तमादौ भोजयाम्यहम् ॥४६॥ तत: सौमित्रिणा सार्धं वज्रकर्णो महीपतिः। भूयिष्ठव्यञ्जनं भोज्यमुपराममनाययत् ॥४७॥ भुक्तोत्तरे चाऽनुशिष्य रामेण प्रेषितो ययौ।लक्ष्मणोऽवन्तिनृपतिं जगादेति च सौष्ठवी॥४८॥ राजा दाशरथिर्दासीकृताशेषमहीपतिः। विरोधं वज्रकर्णेन भरतस्ते निषेधति॥४९॥ सिंहोदरोऽपि प्रत्यूचे भृत्यानां भरतोऽपि हि। भक्तानामेव कुरुते प्रसादं नाऽन्यथा पुनः॥५०॥ अयं पुनर्वज्रकर्णो मत्सामन्तो दुराशयः। न मां नमति तेनाऽस्य प्रसीदामि कथं ? वद ॥५१॥ भूयोऽपि लक्ष्मणोऽवोचन्नाऽसावविनयी त्वयि । अस्याऽप्रणामसन्धा हि जज्ञे धर्मानुपरोधतः ॥५२।। मा कुपो वज्रकर्णाय मान्यं भरतशासनम् । आसमुद्रान्तमेदिन्या भरतः शासिता यतः ॥५३।। क्रुद्धः सिंहोदरो स्माऽऽह को नाम भरतो नृपः । यो वज्रकर्णगृह्यः सन् वातूलो मां वदत्यदः ॥५४॥ कोपारुणाक्ष: सौमित्रि: स्फुरदोष्ठदलोऽवदत् । रे न जानासि भरतं ? ज्ञापयाम्येष मङ्गु तम् ॥५५।। उत्तिष्ठस्व युधे सर्वात्मना संवर्मितो भव। न भवस्येष गोधेव मैद्भुजाशनिताडितः ॥५६॥ सिंहोदर: ससैन्योऽथ सौमित्रिं हन्तुमुद्यतः । बाल: परिस्प्रेष्टुमिव भस्मच्छन्नं हुताशनम् ॥५७।। लक्ष्मणोऽपि गजालानं भुजेनोन्मूल्य नालवत् । विद्विषस्ताडयामासोदेस्तदण्ड इवाऽन्तकः ॥५८।। अथ सौमित्रिरुत्पत्य सिंहोदरमभि स्थितम् । तद्वाससा पशुमिवाऽबध्नात् कण्ठे महाभुजः ।।५९|| साँश्चर्यं पश्यतां तत्र दशाङ्गपुरवासिनाम् । तं निन्ये गामिवाऽऽकृष्य लक्ष्मणो रामसन्निधौ ॥६०।। दृष्ट्वा सिंहोदरो रामं नत्वा चेदमभाषत । न ज्ञातस्त्वमिहाऽऽयातो मया रघुकुलोद्वह! ॥६१॥ अथवा किमिदं देव! मत्परीक्षाकृते कृतम् ? । कृतं न: प्राणितेनाऽपि यूयं छलपरा यदि ॥६२॥ क्षमस्वाऽज्ञानदोषं मे यत् कर्तव्यं तदादिश । भृत्ये कोप: शिक्षामात्रकृते शिष्ये गरोरिव ॥६३॥ १. क्षणाच्च रुरुधे खं.१-२, ला., कां. ला. ।। २. चुम्बितोऽस्मि खं.१॥३. मया खं.१॥ ४. गृहाण ॥५. स्वीकृतवान् ॥६. देशश्च मु. खं.१-२, पाता. ला.प्रभृतिषु ।। ७. नष्टोऽस्मिन् राजविग्रहे मु.॥८. विड्वर:-विप्लवः ॥ ९. देवतुल्यः ॥१०. दैववशादपि पाता. ।। ११. रामः ।। १३. हारम् ।। १४. स्थित: रसंपा. ॥ १४. स्वैरविहारिणामियं स्थिति:-मर्यादा प्रकृ तिर्वा ॥ १५. भूयिष्ठानि-बहुतराणि व्यञ्जनानि शाकादीनि यस्मिंस्तत् ।। १६. सौष्ठवंभद्रत्वमस्याऽस्ति ॥१७. निषेधते ला.॥१८. भक्तानामेवभृत्यानां उपरि भरतः प्रसादं कुरुते इत्यर्थः॥१९. प्रणामाकरणप्रतिज्ञा ॥२०. मा कुप्यो वज्रकोऽयं कां.ला. मु.॥२१. यत: ता. ॥२२. वज्रकर्णस्य पक्षपाती; वज्रकर्णहृद्यः खं.१-२॥२३. मम भुजा एव अशनिवजं, तेन ताडितः ।। २४. ०स्पष्टुं रसंपा, ॥ २५. गजबन्धनस्तम्भम् ।। २६. ऊ/कृतदण्डः ।। २७. आश्चर्य मु.॥ २८. जीवितेनाऽपि॥ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (सप्तमं पर्व सन्धेहि वज्रकर्णेनेत्यादिशत् तं रघूद्वहः । सिंहोदरोऽपि तां वाचं तथेति प्रत्यपद्यत ॥६४॥ पातत्राऽऽगाद् वज्रकर्णोऽपि रामभद्रस्य शासनात् । विनयेन पुरोभूय कृताञ्जलिरुवाच च ॥६५॥ स्वामिनौ वृषभस्वामिवंशजौ राम-लक्ष्मणौ । युवां दृष्टौ मया दिष्ट्या किन्तु ज्ञातौ चिरादिह ॥६६।। भरतार्धस्य सर्वस्य युवां नाथौ महाभुजौ। अहमन्ये च राजानो युवयोरेव किङ्कराः ॥६७।। मञ्चैनं मत्प्रभं नाथ! शाधि चैनमत: परम । यथाऽसौ सहते मेऽन्याऽप्रणामाभिग्रहं सदा॥१८॥ विनाऽर्हन्तं विना साधुं नमस्यो नाऽपरो मया। इति ह्यभिग्रहोऽग्राहि महर्षेः प्रीतिवर्धनात् ।।६९।। रामभ्रसञ्जया सिंहोदरस्तत् प्रत्यपद्यत । सौमित्रिणा विमुक्तः सन् वज्रकर्णं च सस्वजे॥७०।। सिंहोदरोऽपि परया प्रीत्या राघवसाक्षिकम् । राज्यार्धं वज्रकर्णाय सोदरायेव दत्तवान् ॥७१|| श्रीधराकुण्डले ते च याचित्वाऽवन्तिपार्थिवात् । अदत्त विद्युदङ्गाय दशाङ्गपुरपार्थिवः ॥७२।। सौमित्रये वज्रकों ददावष्टौ स्वकन्यका: । सिंहोदर: ससामन्तः पुन: कन्याशतत्रयम् ॥७३॥ अथोचे लक्ष्मण: कन्या: पार्श्वे वः सन्तु सम्प्रति। भ्राता नो भरतो राज्ये यत: पित्रा निवेशितः ।।७४।। समयेऽङ्गीकृतराज्य: परिणेष्यामि वः सुताः । इदानीं तु वयं गत्वा स्थास्यामो मलयाचले ॥७५॥ ओमित्युक्त्वा स्थितौ वज्रकर्ण-सिंहोदरौ नृपौ। विसृष्टौ रामभद्रेणेयतुर्निजनिजं पुरम् ।।७६।। परामस्तत्र निशां नीत्वा ससीता-लक्ष्मण: प्रगे। गच्छन् क्रमेण सम्प्राप देशं कमपि निर्जलम् ॥७७।। पिपासितायां सीतायां विश्रान्तायां तरोस्तले । रामाज्ञयाऽथ सौमित्रिर्जलमानेतुमभ्यगात् ॥७८।। गच्छन् सरो ददर्शकमनेकाम्भोजमण्डितम् । दूरादानन्दजननं वयस्यमिव वल्लभम् ।।७९।। तदा च क्रीडितुं तत्राऽऽगात् कूबरपुराधिभूः । नृप: कल्याणमालाख्यः प्रेक्षाञ्चक्रे च लक्ष्मणम् ।।८०॥ स कामबाणैः सद्योऽपि बिभिदे भिदुरात्मकैः । नत्वा लक्ष्मणमूचे च भव मे भोजनातिथिः ॥८१॥ विकारं मान्मथं देहलक्षणानि च लक्ष्मणः । निरीक्ष्य दध्यौ नार्येषा पुंवेषा कारणेन तु ॥८२॥ ध्यात्वेत्युवाच सौमित्रि: सभार्योऽस्ति मम प्रभुः । इतश्चाऽदूरदेशेऽस्मिन् भुले तेन विना न हि॥८३॥ तेन प्रधानपुरुषैर्भद्राकारैः प्रियंवदैः । तत्राऽऽनिन्ये समभ्यर्थ्य ससीतोऽपि रघूद्वहः ॥८४॥ सोऽनमस्यद् रामभद्रं भद्रधीमैथिलीमपि। तयोः कृते पटकुटी तत्कालं च न्यवेशयत् ॥८५।। तत्र रामं कृतस्नानभोजनं स उपाययौ। सहैकमन्त्रिणा व्यक्तस्त्रीवेषो निष्परिच्छदः ॥८६॥ लज्जानतमुखीं तां च निजगादेति राघवः । भद्रे! पुरुषवेषेण स्त्रीभावं निहुँषे कुत: ? ॥८७॥ पऊचेऽथ कूबरपति: कूबरेऽस्मिन् महापुरे । वालिखिल्यो नाम राजा पृथ्वीनामाऽस्य तु प्रिया॥८८॥ आपन्नसत्त्वा सा जज्ञेऽन्येद्युम्र्लेच्छैर्महाभटैः । अवस्कन्दागतैर्निन्ये वालिखिल्यो नियम्य सः ॥८९।। पश्चाच्च पृथिवी देवी तनयां मामसूत सा। पुत्रोऽजनीति चाऽघोषि सचिवेन सुबुद्धिना ॥१०॥ तज्ज्ञापित: पुत्रजन्म प्रभुः सिंहोदरोऽवदत् । तत्र राजाऽस्तु बालोऽयं वालिखिल्यागमावधि ॥९१॥ क्रमेण वर्धमानाऽहं मूलात् पुंवेषधारिणी। मातृ-मन्त्रिजनं मुक्त्वाऽपरैरनुपलक्षिता ॥१२॥ राज्यं करोमि कल्याणमालाख्या प्रथिता सती । मन्त्रिणां मन्त्रसामर्थ्यात् स्यादलीकेऽपि सत्यता ।।९३।। म्लेच्छानां भूरि यच्छामि द्रविणं पितृमुक्तये। द्रव्यमेते तु गृह्णन्ति मुञ्चन्ति पितरं न तु ॥९४॥ तत् प्रसीदत मे तोतं तेभ्यो मोचयताऽधुना। सिंहोदरान्मोचितः प्राग् वज्रकर्णनृपो यथा ॥१५॥ रामोऽप्युवाच पुंवेषैवाऽस्था राज्यं प्रशासती । यावद् गत्वा मोचयामो म्लेच्छेभ्यः पितरं तव ॥९६।। महाप्रसाद इत्यूचे सा स्त्री पुंवेषधारिणी। ऊचे सुबुद्धिमन्त्री तु लक्ष्मणोऽस्या वरोऽस्त्विति ।।९७/ राघवोऽप्यब्रवीत् तातादेशाद् देशान्तरं वयम् । यास्यामोऽथ निवृत्तेषु लक्ष्मण: परिणेष्यति ॥९८॥ १. शामिणौ खं.२, पाता. मु.प्रभृतिषु ॥ २. शासनं कुरु ।। ३. मेऽन्यप्र० खं.१ विना सर्वत्र ।। ४. स्थित्वा रसंपा. ।। ५. पुराधिपः पाता.; अधिभूर्नायकः ।। ६. भेदिभिः ।। ७. वस्त्रगृहम् ।। ८. युक्तः स्त्रीवेशो नि:परि० मु.,खं. पा.प्रभृतिप्रतिषु च ॥९. भद्र! मु.॥१०. गोपायसि ॥ ११. गर्भवती॥ १२. आक्रमणं कुर्वद्भिः ।। १३. बद्ध्वा ।। १४. निश्यसूत मो. ॥१५. तज्ज्ञापितपुत्रजन्मा पाता., रसंपा. ॥ १६. मत्तातं पाता. ॥१७. ०कर्णो नृपो० मु.॥१८. पुंवेषैव स्वराज्यं ता. विना सर्वत्र ।। १९. निवृत्तानां खं.१-२, ला.......... Jain Education Mternational Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम्। प्रतिपद्येति काकुत्स्थस्तस्थौ तत्र दिनत्रयम् । निशाशेषे सुप्तजने ससीता-लक्ष्मण: ययौ ॥९९।। साऽपि प्रातरपश्यन्ता जानकी-राम-लक्ष्मणान् । विमनाः स्वं पुरमगाच्चक्रे राज्यं तथैव तु ॥१००। पाप्राप क्रमेण रामोऽपि नर्मदामुत्ततार च। पथिकैर्वार्यमाणोऽपि विन्ध्याटव्यां विवेश च ॥१०१।। तत्राऽऽदौ दक्षिणदिशि कण्टकिट्ठस्थितो द्विकः । ररास विरसं क्षीरंद्रुस्थोऽन्यो मधुरं पुनः॥१०२॥ न विषादो न वा हर्षोऽभूद् रामस्य तथाऽपि हि। शकुनं चाऽशकुनं च गणयन्ति हि दुर्बला: ॥१०३॥ गच्छन् ददर्श चाऽगच्छन्म्लेच्छसैन्यमुदायुधम् । असङ्ख्येभरथाश्वीयं देशघाताय निर्गतम् ॥१०४॥ युवा सेनापतिस्तत्र दृष्ट्वा सीतां स्मरातुरः । स्वच्छन्दवृत्ति: स्वान् म्लेच्छानुच्चकैरेवमादिशत् ॥१०५।। अरे रे! पथिकावेतौ नाशयित्वा विनाश्य वा । एतां वरस्त्रियं हृत्वा समानयत मत्कुते॥१०६।। इत्युक्ता: सह तेनैवाऽधावन्त प्रति राघवम् । प्रहरन्त: शर-प्रासप्रायैः प्रहरणैः शितैः ॥१०७॥ उवाच लक्ष्मणो रामं तिष्ठाऽऽर्येह सहाऽऽर्यया । अमूम् शुन इव म्लेच्छान् यावद् विद्रावयाम्यहम् ॥१०८॥ इत्युक्त्वा लक्ष्मणोऽधिज्यं कृत्वा धनुरनादयत् । तन्नादाच्चाऽत्रसन् म्लेच्छा: सिंहनादादिव द्विपाः ॥१०९॥ असह्यश्चापनादोऽपि शरमोक्षोऽस्तु दूरतः । इत्थं विमृश्य सम्लेच्छराजो राममुपाययौ ॥११०॥ विमुक्तशस्त्रो दीनास्य: स्यन्दनादवतीर्य स: । रामभद्रं नमश्चक्रे क्रुधा सौमित्रिणेक्षितः ॥१११॥ पासोऽवोचद् देव! कौशाम्ब्यां पुर्यां वैश्वानरो द्विजः । सावित्री नाम तत्पत्नी रुद्रदेवोऽस्मि तत्सुतः ॥११२॥ आजन्म क्रूरकर्माऽहं तस्कर: पारदारिकः । न तत् किमपि कर्माऽस्ति यत् पापो नाऽऽचराम्यहम् ॥११३।। अथैकदा खात्रमुख प्राप्तोऽहं राजपूरुषैः। शूलां समारोपयितुं नीतश्च राजशासनात् ॥११४॥ उपशूलं च दीनोऽहमुपशूनमिव च्छग: । दृष्टः श्रावकवणिजा दत्त्वा दण्डं च मोचितः ॥११५॥ मा कार्षीचौरिकां भूय इत्युदीर्य महात्मना। विसृष्टो वणिजा तेन तं देशं त्यक्तवानहम् ॥११६॥ भ्रमन्नागामिमां पल्लीं काक इत्याख्ययाऽन्यया। इह ख्यात: क्रमात् पल्लीपतित्वमिदमासदम् ॥११७।। इह स्थितश्च लुण्टाकैर्खण्टयामि पुरादिकम् । आनयामि स्वयं गत्वा बन्दे धृत्वा नृपानपि ॥११८॥ वश्योऽस्मि व्यन्तर इव तव स्वामिन्! समादिश। किङ्कर: किं करोम्येष सहस्वाऽविनयं मम ॥११९॥ वालिखिल्यं विमुञ्चेति रामेणोक्त: किरातराट् । तं मुमोच नमश्चक्रे वालिखिल्योऽपि राघवम् ॥१२०॥ रामाज्ञया च काकेन स निन्ये कूबरं पुनः । कल्याणमालां पुंवेषामपश्यच्च सुतां निजाम् ॥१२१॥ राम-लक्ष्मणवृत्तान्तं मिथोऽकथयतां च तौ। कल्याणमालिका-वालिखिल्यावखिलमप्यथ ॥१२२॥ बाकाकोऽपि स्वां ययौ पल्ली ततो रामोऽपि निर्गतः। विन्ध्याटवीमतिक्रम्य प्राप तापी महानदीम् ॥१२३॥ तापीमुत्तीर्य चक्रामस्तद्देशप्रान्तवर्तिनम् । अरुणग्रामनामानं रामो ग्राममथाऽऽसदत् ॥१२४॥ पिपासितायां सीतायां तत्र राम: सलक्ष्मण: । गृहे ययौ कोपनस्य कपिलस्याऽग्निहोत्रिणः ॥१२५।। ब्राह्मणी च सुशर्माख्या तेभ्योऽदात् पृथगासनम् । स्वयं च पाययामास सलिलं स्वादु शीतलम् ॥१२६।। आगात् तदा च कपिल: पिशाच इव दारुणः । निरीक्ष्य चोपविष्टांस्तान् रुष्टोऽभाषिष्ट गहिनीम् ॥१२७॥ मलिनानां किमेतेषां प्रवेशो मम वेश्मनि। पापीयसि! त्वया दत्तोऽग्निहोत्रमशुचीकृतम् ? ॥१२८॥ एवमाक्रोशिनं विप्र क्रूरंरामानुज: क्रुधा। करीवाऽऽभतोद्धृत्य परिभ्रमयितुं दिवि॥१२९॥ रामोऽप्युवाच को नाम कोपोऽस्मिन् कीटमात्रके ? । द्विजेब्रुवं विब्रुवन्तमप्यमुं मुञ्च मानद!॥१३०॥ रामाज्ञया च सौमित्रिस्तं मुमोच शनैर्द्विजम् । ससीता-लक्ष्मणो रामो निर्जगाम च तद्गृहात्॥१३१।। पाते गच्छन्त: क्रमात् प्रापुररण्यमपरं महत्। कज्जलश्यामजैलदकालश्च समुपाययौ॥१३२॥ १.च ता.॥२.स: पाता.॥३. बब्बूल(बावळ)वृक्ष ।।४. काकः।।५.कठोरशब्दं कृतवान् ॥ ६. पिप्पलवृक्ष ॥७. असङ्ख्य-इभ-रथ-अश्व-समूहयुक्तम् ।। ८. पलायनं कारयित्वा हत्वा वा ॥९. इत्युक्त्वा खं.१-२, पाता. ला. ता.॥१०.प्रास:-भल्लः ॥११. तीक्ष्णैः ।।१२. ०ऽस्ति दूरत: मु.॥१३. विधानरो० पाता. ॥१४. क्रूरकर्मत्वात् त० मु.,खं.२, पाता. ला.प्रभृतिषु ॥१५. शूलं ला. मो. कां.हे. ता. ॥१६.प्राणिवधस्थानसमीपं अज इव ॥१७. ०ख्ययाऽनया ला. ॥ १८. इहाख्यात: ता. ॥१९. कूबरे ला., ता.प्रभृतिषु च ॥ २०. क्रोधशीलस्य ।। २१. करीवारमतो. मु. ॥ २२. आत्मानं द्विजं ब्रूते-मन्यते स द्विजब्रुवस्तम् ।। २३. वर्षाकालः; जलदः काल पाता. विना सर्वत्र॥ ... Jain Education Interfona Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (सप्तमं पर्व वर्षत्यब्दे च काकुत्स्थस्तस्थौ वटतरोरध: । वर्षाकालं वटेऽत्रैव नयाम इति चाऽवदत् ॥१३३॥ आकर्ण्य तद्वचो भीतस्तन्न्यग्रोधाधिदैवतम् । इभकर्णाभिधो यक्षो गोकर्णं स्वप्रभुं ययौ ॥१३४।। तं प्रणम्येत्यभाषिष्ट स्वामिन्नुद्वासितस्ततः । कैश्चिद् दु:सहतेजोभिर्निजावासाद् वटादहम् ।।१३५।। तत् कुरुष्व परित्राणमत्राणस्य मम प्रभो! ते हि स्थास्यन्ति सकलां प्रावृषं मद्वटद्रमे ॥१३६।। गोकर्णोऽप्यवधेत्विाऽचख्याविति विचक्षणः । अर्ध्यावेतौ गृहायातावष्टमौराम-शाङ्गिणौ ॥१३७।। इत्युक्त्वा निशि तत्रैत्य नवयोजनविस्तृताम् । द्वादशयोजनायामां धन-धान्यादिपूरिताम् ॥१३८।। उत्तुङ्गवप्र-प्रासादां भाण्डपूर्णापणावलिम् । पुरी रामपुरीं नामाऽकृत रामाय सोऽमरः ॥१३९।।युग्मम्।। प्रातर्मङ्गलशब्देन प्रबुद्धो राम ऐक्षत। तं वीणाधारिणं यक्षं महर्द्धि नगरी च ताम् ॥१४०॥ सोऽवोचद् विस्मितं रामं स्वामी त्वमतिथिश्च मे । गोकर्णो नाम यक्षोऽहमकार्षं त्वत्कृते पुरीम् ॥१४१।। मया सपरिवारेण सेव्यमानो दिवानिशम् । इह तिष्ठ सुखं स्वामिन! यथाकालं यथारुचि॥१४२।। इति तेनाऽर्थितो रामो यक्षपुम्भिर्निषेवित: । अवतस्थे सुखं तत्र सीता-सौमित्रिसंयुतः ॥१४३।। इतश्च विप्रः कपिल: समिदादिकृतेऽन्यदा। भ्रमंस्तस्मिन् महारण्ये पशुपाणि: समाययौ ॥१४४॥ स ददर्श पुरी तां च दध्यौ चेति सविस्मयः । मायेयमिन्द्रजालं वा गान्धर्वमथवा पुरम् ? ॥१४५।। तत्रैकां मानुषीरूपां चारुनेपथ्यवाससम् । सोऽपृच्छद् यक्षिणीं दृष्ट्वा कस्येयं नूतना पुरी ? ॥१४६।। सोचे गोकर्णयक्षेण कृतेयं नूतना पुरी । नाम्ना रामपुरी राम-सीता-सौमित्रिहेतवे॥१४७।। दीनादिभ्यो ददात्यर्थमत्र रामो दयानिधिः । सर्वः कृतार्थीभूतोऽत्र यो यो दुःस्थ: समाययौ॥१४८॥ त्यक्त्वा सोऽपि समिद्भारं पतित्वा तत्पदाब्जयोः। ऊचे मया कथं रामो द्रष्टव्य: ? शंस मेऽनघे! ॥१४९।। साऽप्याचख्यावत्र पुर्यामस्ति द्वारचतुष्टयम् । नित्यं च रक्ष्यते यक्षैः प्रवेशोऽमुत्र दुर्लभः ॥१५०॥ पर्वद्वारेऽत्र यच्चैत्यं तद वन्दित्वा यथाविधि। श्रावकीभूय चेद यासि प्रवेशं लभसे तदा ॥१५॥ तद्राि कपिलोऽर्थार्थी साधूनामन्तिके ययौ। अभ्यर्वन्दत तान् साधून धर्मं तेभ्योऽशृणोच्च सः ॥१५२॥ तत: स लघुकर्मत्वाद् विशुद्धः श्रावकोऽभवत् । गत्वौको धर्ममाख्याय भार्यां च श्राविकां व्यधात् ।।१५३।। आजन्म दौस्थ्यदग्धौ तौ रामादर्थयितुं धनम् । उपेयतू रामपुरीं तच्च चैत्यं प्रणेमतुः ॥१५४॥ रोजवेश्म प्रविश्याऽथ मैथिली-राम-लक्ष्मणान् । उपलक्ष्य बिभायोच्चैर्दत्ताक्रोशान् द्विजः स्मरन् ।।१५५।। तं नष्टमनसं सानुक्रोश: सौमित्रिरब्रवीत् । मा भैषीर्भो द्विजाऽर्थी चेदेह्यार्यं प्रार्थयस्व तत् ॥१५६।। ततोऽप॑शङ्क: कपिलो गत्वा रामाय चाऽऽशिषम् । दत्त्वोपाविशदग्रे च गुह्यकैरर्पितासने ॥१५७॥ कुतस्त्वमागतोऽसीति पृष्टो रामेण सोऽवदत् । किं मां न वेत्सि तं विप्रमरुणग्रामवासिनम् ? ॥१५८।। यूयं येनाऽतिथीभूता अपि दुर्वचसा मया। आक्रुष्टा मोचितोऽस्म्यस्माद् युष्माभिश्च कृपापरैः ॥१५९।। सुशर्मा ब्राह्मणी साऽपि प्राग्वृत्ताख्यानपूर्वकम् । गत्वोपसीतं दीनास्या प्रदत्ताशीरुपाविशत् ॥१६०॥ ततः स विप्रो द्रविणैः कृतार्थीकृत्य भूरिभिः । राघवेण विसृष्टः सन् स्वग्राममगमत् पुनः ॥१६१|| प्रबुद्धो ब्राह्मण: सोऽपि दत्त्वा दानं यथारुचि । नन्दावतंससूरीणामन्तिके व्रतमग्रहीत् ॥१६२॥ पाअथ प्रावृष्यतीतायां यियासुं प्रेक्ष्य राघवम् । गोकर्णयक्षो विनयादेवमूचे कृताञ्जलिः ॥१६३॥ यद्यतो यास्यसि स्वामिंस्तत् प्रसीद क्षमस्व मे। यद् भक्तिस्खलितं किञ्चिन्मनागप्यभवत् त्वयि ॥१६४॥ तवाऽनुरूपांक: पूजां कर्तुमीशो महाभुज! । इत्युक्त्वाऽदत्त रामाय हारं नाम्ना स्वयम्प्रभम् ॥१६५॥ सौमित्रये च ताडके दिव्यरत्नविनिर्मिते । चूडामणिं च सीतायै वीणां चेप्सितनादिनीम् ॥१६६।। रामोऽनुमान्य तं यक्षं प्रतस्थे स्वेच्छया ततः । तां पुरीमुपैसञ्जहे सोऽपि यक्ष: स्वयंकृताम् ॥१६७॥ १. तद्वटाधिष्ठातृदेवः॥२. स्वपुरु खं.१; "स्वस्वामिनं” इति टि. च ॥३. निष्कासितः ॥ ४.०प्यवधिं ज्ञा० मु.॥५. महर्द्धिन० खं.२, ला. विना ।। ६. पशु:(फरसी)पाणौ यस्य सः ।।७. चेतसि विस्मयात् मु.।। ८. दु:खी ।। ९. काष्ठभारम् ॥ १०. साऽप्यवादीदत्र मु.॥११. ०रे च ता. ।। १२. धनार्थी ।। १३. अभ्यधावत खं.१॥१४. ओक:-गृहम् ।। १५. रामवेश्म छा. पा. ॥१६. सानुकम्पः ।। १७. ० ह्यर्थं ता.विना ।। १८. निःशङ्कः ।। १९. यक्षैः ।। २०. Jain Educatio सीतासमीपम् ॥ २१. यातुमिच्छुकम् ।। २२. कुण्डले ॥ २३. विसर्जनं कृतवान् (पुर्या:)se Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिया पञ्चमः सर्गः) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम्। 'ते क्रामन्तः प्रतिदिनं जानकी-राम-लक्ष्मणाः । त्यक्त्वाऽरण्यानि विजयपुरं सन्ध्याक्षणे ययुः ॥१६८॥ तस्मिंश्च बहिरुद्याने मरुद्दिशि महीयसः । तले न्यग्रोधवृक्षस्य तेऽवात्सुर्वेश्मसन्निभे ॥१६९।। पुरे च तस्मिन्नभवद् राजा नाम्ना महीधरः । इन्द्राणी नाम तत्पत्नी वनमालेति तत्सुता ॥१७०।। वनमाला च बाल्येऽपि सौमित्रेर्गुणसम्पदम् । रूपं चाऽऽकर्ण्य तं मुक्त्वा नाऽन्यं वरमियेष सा ॥१७१।। तदा प्रव्रजितं श्रुत्वा नृपं दशरथं तथा। निर्गतौ राम-सौमित्री विषण्णोऽभून्महीधरः ॥१७२।। अदत्त चन्द्रनगरे वृषभक्ष्मापजन्मने । नाम्ना सुरेन्द्ररूपाय वनमालां महीधरः ॥१७३।। वनमालाऽपि तच्छ्रुत्वा मरणे कृतनिश्चया। तस्यां निश्येकिका दैवात् तदुद्यानमुपाययौ ॥१७४।। प्रविश्य तत्राऽऽयतनेऽपूजयद् वनदेवताम् । जन्मान्तरेऽपि सौमित्रिः पतिर्मेऽस्त्वित्युवाच च ॥१७५|| ययौ च सा तं न्यग्रोधं ददृशे लक्ष्मणेन च। प्रसुप्तजानकी-रामयामिकेन प्रजाग्रता ॥१७६।। इदं च दध्यौ सौमित्रि: किमियं वनदेवता ? । अधिष्ठात्री वटतरोरस्य वा? काऽपि यक्षिणी ? ||१७७।। एवं चिन्तयतस्तस्य साऽध्यारोहद् वटद्रुमम् । करिष्यति किमेषेति लक्ष्मणोऽप्यारुरोह तम् ॥१७८।। सा प्रोये प्राञ्जलिर्भूत्वा मातरो वनदेवता:! । दिग्देव्यो! व्योमदेव्यश्च सर्वाः शृणुत मद्वचः ॥१७९।। नाऽभूदिह भवे तावन्मम भर्ता स लक्ष्मणः । भूयाद् भवान्तरे तर्हि भक्तिस्तत्र ममाऽस्ति चेत् ॥१८०|| इत्युदित्वा कण्ठपाशं विधायोत्तरवाससा । बद्ध्वा च वटशाखायां द्राक् साऽऽत्मानमलम्बयत् ॥१८१|| भद्रे! मा साहसं कार्षीर्लक्ष्मणोऽहमिति ब्रुवन् । लक्ष्मणोऽपास्य तत्पाशं तामादायोत्ततार च॥१८२॥ प्रबुद्धयोर्निशाशेषे लक्ष्मणो राम-सीतयोः । शशंस वनमालाया वृत्तान्तं तमशेषतः॥१८३॥ गुण्ठितमुखी वनमालाऽपि तत्क्षणम् । जानकी-रामचरणारविन्देभ्यो नमोऽकरोत् ॥१८४॥ इतोऽपि च तदेन्द्राणी महीधरनृपप्रिया। वनमालामपश्यन्ती पूच्चक्रे करुणस्वरम् ॥१८५।। वनमालान्वेषणाय निर्ययौ च महीधरः । इतस्तत: परिभ्राम्यंस्तत्रस्थांच ददर्श ताम् ॥१८६।। हत हतैतान् कुमारीतस्करानितिभाषिषु । उदस्त्रेषु च सैन्येषूत्तस्थौ रामानुजः क्रुधा॥१८७।। धनुष्यारोपयामास स ज्यां भाल इव ध्रुवम् । अकारयच्च टङ्कारं वैर्यहङ्कारहारकम् ॥१८८॥ चुक्षुभुस्तत्रसुः पेतुस्तद्धनुर्ध्वनिना परे । महीधरः पुरःस्थाय सौमित्रिं स्वयमैक्षत ॥१८९।। उपलक्ष्य ततोऽवादीज्ज्यामुत्तारय धन्वन: । सौमित्रे! मत्सुतापुण्यैरिष्यमाणस्त्वमागमः ॥१९०॥ उत्तारितज्ये सौमित्रौ सुस्थित: सन् महीधरः । प्रेक्ष्य रामं नमश्चक्रेऽवतीर्य स्यन्दनोत्तमात् ॥१९१॥ उवाच च तव भ्रात्रेऽमुष्मै सौमित्रये मया। स्वयं जातानुरागेति कल्पितेयं पुराऽप्यभूत् ॥१९२॥ इदानीमनयोर्जज्ञे मद्भाग्येन समागमः । जामाता लक्ष्मणस्त्वं च सम्बन्धी दुर्लभः खलु ॥१९३।। इत्युदित्वा महत्या च प्रतिपत्त्या महीधरः । निनाय जानकी-राम-लक्ष्मणान् निजसद्मनि ॥१९४|| पतेषु च तत्र तिष्ठत्सु कदाचन सभास्थितम् । एत्याऽतिवीर्यराड्दूतो नृपमूचे महीधरम् ॥१९५॥ नन्द्यावर्तपुराधीशोऽतिवीर्यो वीर्यसागरः । साहाय्यायाऽऽह्वयति त्वां जाते भरतविग्रहे ॥१९६।। भूयांसो भूभुजोऽभ्येयुस्तस्य दाशरथेर्बले । तत् त्वमप्यतिवीर्येणाऽऽहूयसे सुमहाबलः ॥१९७|| अथैवं लक्ष्मणोऽपृच्छन्नन्द्यावर्तमहीभुजः । भरतक्ष्माभुजा सार्धं किं विरोधनिबन्धनम् ? ॥१९८॥ दूतोऽप्युवाच न: स्वामी भरता भक्तिमिच्छति। स तु प्रतीच्छति न तामिदं विग्रहकारणम्॥१९९।। राम: पप्रच्छ तं दुतमतिवीर्यस्य सङ्गरे। समर्थो भरत: किं भोस्तत्सेवां यन्न मन्यते ॥२०॥ दूतोऽप्यूचे महावीर्योऽतिवीर्यस्तावदेष नः । भरतोऽपि न सामान्यस्तद् द्वयोः संशयो जये॥२०१।। इत्युक्तवन्तं तं दूतमागच्छाम्येष सत्वरम् । इत्युक्त्वा व्यसृजद् राजा रामं चैवमभाषत ॥२०२।। अहो! अज्ञत्वमेतस्याऽतिवीर्यस्याऽल्पमेधसः । यदस्मानयमाहूय भरतं योधयिष्यति ॥२०३।। १. वायव्यदिशि ॥ २.०मालाऽपि ता. ।। ३. चेन्द्र० ला. ॥४. वृषभनृपस्य पुत्राय ॥५. यामिकः-प्रहरी ॥६. शृण्वन्तु ला. ॥७. लज्जयाऽवनतमुखी॥ ८. हत तान् मु.॥९.पुरः स्थित्वा मु.; पुरःस्थायं हे.; पुरःस्थायेत्यत्र “पुरोऽस्तमव्ययम्” (सि.३/१/७), ततो गतिसमासः॥१०. सौमित्रिं मु.॥११. मागत: मु.॥१२. उत्तारिता ज्या येन सः, तस्मिन् ॥१३. सद्भाग्येन कां.॥१४. भरतेन सह विग्रहे-युद्धे जाते॥१५.स्वीकरोति ॥१६. अन्यत्व. ता.॥ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (सप्तमं पर्व तत् सर्वसेनया गत्वाऽनुपलक्षित दौर्हदाः । अमुमेव हनिष्यामो भारतादिव शासनात्॥२०४॥ ऊचे रामोऽत्र तिष्ठ त्वं त्वत्सुतैः सबलैः सह। तत्राऽहमेव यास्यामि करिष्यामि यथोचितम् ॥२०५।। एवमस्त्विति तेनोक्तस्तत्पुत्रबलसंयुतः । नन्द्यावर्तपुरं रामः ससीता-लक्ष्मणो ययौ ।।२०६।। उषितं बहिरुद्याने रामं तत्क्षेत्रदेवता । अभाषत महाभाग! किमभीष्टं करोमि ते ? ॥२०७।। न न: किमपि कर्तव्यमित्युक्ते राघवेण तु । साऽभ्यधादेवमेतद्धि तथाऽप्युपकरोम्यदः॥२०८॥ अतिवीर्यो जित: स्त्रीभिरिति तस्याऽयशस्कृते। ससैन्यस्य करिष्यामि स्त्रीरूपं कोमिकं तव ॥२०९।। स्त्रीराज्यमिव तत्सैन्यं स्त्रीरूपमभवत् क्षणात् । स्त्रीरूपौराम-सौमित्री चाऽभूतां सुन्दराकृती ॥२१०॥ महीधरेण स्वं सैन्यं तव साहाय्यहेतवे। प्रैषीदमिति रामस्तं द्वा:स्थेनाऽज्ञापयन्नृपम् ॥२१॥ अतिवीर्योऽप्युवाचैवं स्वयं नाऽऽगान्महीधरः । कृतं तदस्य सैन्येन मुमूर्षोर्बहुमानिनः ॥२१२।। जेष्याम्येकोऽपि भरतं सहाया: किं ममाऽपि हि ? । निर्वास्यतां द्रुतमिदं तत्सैन्यमयशस्करम् ॥२१३।। अथाऽन्यः कश्चिदप्यूचे स्वयमागान्न केवलम् । स प्रत्युतोपहासाय स्त्रीसैन्यं प्राहिणोदिह ॥२१४॥ तच्छुत्वाऽतितरां क्रोधं नन्द्यावर्तेश्वरोऽकरोत् । स्त्रीरूपधारिणस्ते च रामाद्या द्वारमाययुः ॥२१५॥ आदिक्षदतिवीर्योऽपि दासीवदिमिका: स्त्रियः । गाढं गृहीत्वा ग्रीवासु निर्वास्यन्तां पुराद् बहिः ॥२१६।। समन्तात् तस्य सामन्ता उत्थाय सपदातयः । स्त्रीसैन्यं तदुपद्रोतुं प्रावर्तन्त महाभुजाः ॥२१७।। रामभद्रो भुजस्तम्भेनेभस्तम्भमथोच्चकैः । समुत्पाट्याऽऽयुधीकृत्य तान् समन्तादपातयत् ॥२१८॥ तेन सामन्तभङ्गेनाऽतिवीर्यः कुपितो भृशम् । रणाय स्वयमुत्तस्थे खामाकृष्य भीषणम् ॥२१९।। अथ तत्खड्गमाच्छिद्य लक्ष्मणस्तत्क्षणादपि । तमाचकर्ष केशेषु तद्वस्त्रेण बबन्ध च ।।२२०।। मृगं व्याघ्र इवाऽऽदाय तं नृव्याघ्रश्चचाल स: । दृश्यमानो जनैः पौरैरुत्त्रासतरलेक्षणैः ।।२२१।। अथ तं मोचयामास मैथिली करुणापरा। सद्यो भरतसेवां च सौमित्रिः प्रत्यपादयत् ॥२२२॥ स्त्रीवेषमथ सञ्जहे सर्वेषां क्षेत्रदेवता । अज्ञासीदतिवीर्योऽपि तौ तदा राम-लक्ष्मणौ ॥२२३॥ अतिवीर्यस्तयो: पूजां महतीं विदधे तत: । दधौ च मानध्वंसेन मानी वैराग्यमुच्चकैः ॥२२४।। किं सेविष्येऽहमप्यन्यमित्यहङ्कारभाग हदि। दीक्षार्थी विजयरथे पुत्रे राज्यं न्यधत्त च ॥२२५॥ द्वितीयो भरतो मेऽसि शाधि क्ष्मां प्रव्रज स्म मा। रामेणेत्थं निषिद्धोऽपि स प्रावाजीन्महामनाः ॥२२६॥ तत्सूनुर्विजयरथो रतिमालाभिधां निजाम् । लक्ष्मणाय ददौ जामिं तां प्रतीयेष लक्ष्मणः ॥२२७॥ ययौ ससैन्यो विजयपुरं रामोऽपि पत्तनम् । अयोध्यां विजयरथो भरतं सेवितुं पुनः ॥२२८।। विज्ञाततदुदन्तोऽपि भरतो गरिमाचल: । सच्चकार तमायान्तं सन्तो हि नतवत्सला: ॥२२९॥ कनिष्ठां रतिमालाया नाम्ना विजयसुन्दरीम् । ददौ स्वसारं स्त्रीसारं भरताय स भभजे ॥२३०॥ तदा च विहरंस्तत्राऽतिवीर्यो मुनिराययौ। वन्दित्वा क्षमयाञ्चक्रे भरतेन स भूभुजा ॥२३१।। विसृष्टः सप्रसादेन भरतेन महीभुजा । सानन्दो विजयरथो नन्द्यावर्तपुरं ययौ ॥२३२।। महीधरमनुज्ञाप्य रामे गन्तुं समुद्यते । वनमालामापप्रच्छे यियासुरथ लक्ष्मणः ॥२३३॥ जगाद वनमालाऽपि बाष्पपूर्णविलोचना। प्राणत्राणं तदाऽकार्षीः प्राणेश! मम किं मुधा ? ॥२३४॥ वरं भवेत् सुखमृत्युस्तदैव मम वल्लभ! । न त्वर्धवैशसमिदं दुःखं त्वद्विरहोत्थितम् ॥२३५।। अद्यैव परिणीय त्वं सहैव नय मां प्रभो! । त्वद्वियोगाच्छलं प्राप्य नेष्यत्यपरथाऽन्तकः ।।२३६।। अन्वनैषील्लक्ष्मणोऽथ भ्रातुः शुश्रूषको ह्यहम् । शुश्रूषाविघ्नकृन्मा भूः सहाऽऽयान्ती मनस्विनि! ॥२३७।। प्रापय्याऽभीप्सितं स्थानं ज्यायांसं वरवर्णिनि! । त्वां समेष्यामि भूयोऽपि वास्तव्या हृदये ह्यसि ॥२३८॥ १. ०सौहृदा: ला. ता. हे. का.; दौहृदाः ला. मु.; अनुपलक्षित-अज्ञातं दौर्हद-दुर्भाव: येषां ते॥२. कामेन निर्वृत्तम् ; कामितं पाता.॥ ३. मरणेच्छोः ।। ४. तच्छ्रुत्वा नितरां क्रोधं ला.; तच्छुत्वा सुमहाक्रोधं मु.॥५. अधिकत्रासाच्चञ्चलनेत्रैः ।। ६. दध्यौ खं.१-२,पाता. ता. विना ।। ७.दीक्षार्थ ला.॥ ८. सुते पाता. ।। ९. भगिनीम् ।। १०. जग्राह ।। ११. गरिम्णा अचलः ॥ १२. सुभगां ला.; स्त्रीषु सारम्-श्रेष्ठाम् ।।१३. ०मालां च पप्रच्छ ला. ॥ १४. "अर्धमरणम्" इति ला.टि. ॥१५. अन्यथा यमो मां नेष्यति, त्वद्वियोगात्-त्वदभावे छलं लब्ध्वेत्यर्थः ।।१६. ज्यायांसं -रामं इष्टे स्थाने नीत्वा ततो भूयोऽपि त्वदन्तिके आगमिष्यामि ॥ १७. हे गुणोत्कृष्टे! इत्यर्थः ।। १८. त्वं मम हृदये वास्तव्या-वसन्ती असि॥ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम्। घोरेभ्य: शपथेभ्यो यं त्वं कारयसि मानिनि!। तं करोमि 'पुनरिहाऽऽगमप्रत्ययहेतवे॥२३९।। न चेदायामि भूयोऽपि तदहं रात्रिभोजिनाम् । गृोऽहंसेति शपथं सौमित्रि: कारितस्तया ॥२४०॥ रात्रिशेषे ततो रामः ससीता-लक्ष्मणोऽचलत् । क्रमाद् वनानि लछित्वा प्राप क्षेमाञ्जलिं पुरीम् ॥२४१।। रामस्तदहिरुद्याने वैन्याहारैः फलादिभिः । बुभुजे लक्ष्मणानीतैर्जानकीकरसंस्कृतैः॥२४२।। तत्र राममनुज्ञाप्य कौतुकात् प्राविशत् पुरीम् । सौमित्रिस्तत्र चाऽश्रौषीदुच्चैराघोषणामिति ॥२४३।। शक्तिप्रहारं सहते योऽमुष्य पृथिवीपतेः । तस्मै परिणयनाय ददात्येष स्वकन्यकाम् ।।२४४॥ तेन चाऽऽघोषणाहेतुं पृष्ट एकोऽवदत् पुमान् । अत्राऽस्ति शत्रुदमनो नाम राजा महाभुजः ॥२४५।। तस्याऽस्ति कनकादेवीकुक्षिजा वरकन्यका। जितपद्येति पद्माया: सबैकं पद्मलोचना ॥२४६॥ वरस्यौज:परीक्षार्थमिदमारभ्यते ततः। प्रत्यहं क्ष्माभुजाऽनेन तादृक्षो नैति कोऽपि ना ॥२४७॥ श्रुत्वेत्थं लक्ष्मणोऽगच्छत् तं राजानं सभास्थितम् । कुतो हेतोः ? कुतस्त्यस्त्वं? तत्पृष्टश्चैवमब्रवीत् ।।२४८|| अहं भरतदूतोऽस्मि गच्छन्नर्थेन केनचित् । तव कन्यामिमां श्रुत्वा परिणेतुमिहाऽऽगमम् ॥२४९॥ सहिष्यसे शक्तिघातं ममेत्युक्तो महीभुजा। किमेकेन ? सहिष्येऽहं पञ्चेत्यूचे चे लक्ष्मणः ॥२५०॥ जितपद्मा तदानीं च तत्राऽऽगाद् राजकन्यका । बभूव लक्ष्मणं प्रेक्ष्य क्षणाच्च मदनातुरा ॥२५१॥ तया सद्योऽनुरागिण्या वार्यमाणोऽपि भूपतिः । चिक्षेप लक्ष्मणायाऽऽशु दुःसहं शक्तिपञ्चकम् ॥२५२।। द्वे कराभ्यां द्वे कक्षाभ्यां दन्तैरेकां च लक्ष्मणः । अग्रहीज्जितपद्याया: कन्याया मनसा सह ॥२५३॥ जितपद्माऽक्षिपत् तत्र स्वयं वरणमालिकाम् । उदह्यतामियं कन्येत्यब्रवीत् पार्थिवोऽपि तम्॥२५४॥ लक्ष्मणोऽप्यवदद् बाह्योपवनेऽस्ति ममाऽग्रजः । रामो दाशरथिस्तेन परतन्त्रोऽस्मि सर्वदा ॥२५५॥ तौ राम-लक्ष्मणौ ज्ञात्वा तत्क्षणं स क्षमापतिः । गत्वा रामं नमश्चक्रे स्ववेश्मन्यानिनाय च ॥२५६।। महत्या प्रतिपत्त्या स राजा राममपूजयत् । सामान्योऽप्यतिथि: पूज्य: किं पुन: पुरुषोत्तम: ? ॥२५७।। पततोऽपि चलिते रामे सौमित्रिस्तं महीपतिम् । उवाच परिणेष्यामि व्यावृत्तस्त्वत्सुतामिति ॥२५८॥ निशायां निर्ययौ राम: प्राप सायं च पत्तनम् । वंशस्थलं नाम वंशशैलाख्याद्रितटस्थितम् ॥२५९॥ तस्मिन् सभूपतिं लोकमालुलोके भयाकुलम् । पप्रच्छ च नरं कञ्चिद् रामस्तद्भयकारणम॥२६०॥ आचख्यौ पुरुष: सोऽपि तार्तीयीकोऽद्य वासरः । अमुष्मिन् पर्वते रात्रौ रौद्रस्योच्छलतो ध्वनेः ॥२६॥ तद्भयाद् रात्रिमन्यत्र गमयत्यखिलो जनः । प्रातश्च पुनरायाति कष्टा नित्यमियं स्थितिः ॥२६२।। ततश्च कौतुकाद् रामः प्रेरितो लक्ष्मणेन च । तत्राऽऽरुरोहाऽपश्यच्च कायोत्सर्गस्थितौ मुनी ।।२६३॥ भक्त्या ववन्दिरे तौ तु जानकी-राम-लक्ष्मणाः । तदग्रेऽवादयद्रामो गोकर्णार्पितवल्लकीम् ॥२६४॥ हृद्यं जगौ च सौमित्रिामरागमनोहरम् । चित्राङ्गहारकरणं सीता देवी ननर्त च ॥२६५॥ तदा चाऽस्तं ययावर्को जजृम्भे च विभावरी । विकृतानेकवेतालश्चाऽऽगाद् देवोऽनलप्रभः ॥२६६॥ स्वयं वेतालरूप: सोऽट्टहासैः स्फोटयन्नभः । महर्षी तावुपद्रोतुं प्रावर्तत दुराशयः॥२६७॥ मुक्त्वोपसाधु वैदेही सन्नद्धौ राम-लक्ष्मणौ । उत्तस्थाते तं निहन्तुमकाले कालतां गतौ ॥२६८॥ सोऽपि देवस्तयोस्तेज:प्रसरं सोढुमक्षमः । निजं स्थानं ययौ साध्वोस्तयोश्चाऽजनि केवलम् ॥२६९॥ देवैश्च केवलज्ञानमहिमा विदधे तयोः । नत्वा रामश्च पप्रच्छोपसर्गविधिकारणम् ।।२७०॥ पतत्राऽऽख्यदेको महर्षिराख्यया कुलभूषणः। आसीनगर्यां पद्मिन्यां राजा विजयपर्वतः ॥२७१॥ तस्याऽमृतस्वराख्योऽभूदु दूतो दूतस्य तस्य च। भार्योपयोगा तत्पुत्रावुदितो मुदितोऽपि च ॥२७२।। १. पुनः इह-त्वत्समीपे आगमनस्य प्रतीत्यर्थम् ।। २. “पापेन" इति ला.टि. ॥ ३. वने भवा वन्याः, तेषामाहारैः-आहारभूतैः ।। ४. संस्तुतैः खं.१-२, पाता.; परिचितैरित्यर्थः ॥५. लक्ष्मणेन ।। ६. चायोषणे हेतुं खं.१ ।। ७. लक्ष्म्या गृहम् ॥८. बलपरीक्षार्थम् ॥ ९. नरः ॥ १०.०णोऽवोचत् तं० खं.१ ।। ११. सहिष्यते पाता. ॥१२. स ता. ॥१३. तृतीयः ॥ १४. गोकर्णयक्षेण अर्पितां वीणाम् ।।१५. मधुरं गानं कृतवान् ॥१६. ०मनोरमम् ता. हे. ला. छा. पा. ॥ १७. चित्रा:-विविधा: अङ्गहारा-भङ्गविक्षेपा:(हावभावाः) करणानि-तालताडनादीनि च यत्र यथा स्यात् तथेति-क्रियाविशेषणम् ।। १८. रात्रिः ।। Jain Education १९. उपसाधु-साधुसमीपे ॥२०. तमकाले निहन्तुं कालतां-यमत्वं गतौ, यमीभूतावित्यर्थः ||nly Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीत (सप्तमं पर्व वयस्यस्तस्य दूतस्य वसुभूतिरिति द्विजः। उपयोगा तदासक्ताऽजिघांसदमृतस्वरम् ॥२७३।। नृपादेशाद् विदेशायाऽन्यदाऽगादमृतस्वरः । सह गच्छन् वसुभूतिर्मार्गे तं चाऽवधीच्छलात् ।।२७४।। वसुभूति: पुरीमेत्य जनायैवमवोचत । कुतोऽपि कार्यादमृतस्वरेणाऽहं निवर्तितः ॥२७५॥ शशंस चोपयोगाया: स नौ सम्भोगविघ्नकृत् । मया व्यापादितो मार्गे च्छलं लब्ध्वाऽमृतस्वरः ॥२७६।। साऽप्यूचे साध्वकार्षीस्त्वं जहि पुत्राविमावपि । अस्तु निर्मक्षिकमिति सोऽपि तत् प्रत्यपद्यत ॥२७७।। दैवाच्छुश्राव तं मन्त्रं वसुभूतिसधर्मिणी। ईर्ण्ययाऽऽख्यच्च तत्सून्वोर्मुदितस्योदितस्य च ॥२७८।। उदितेन रुषा सद्यो वसुभूतिनिपातितः। मृत्वैष नलपल्ल्यां स म्लेच्छ: समुदपद्यत ॥२७९।। इधर्मं श्रुत्वाऽन्यदा राजा महर्षेर्मतिवर्धनात् । प्रव्रज्यामाददे तावप्युदितो मुदितोऽपि च ॥२८०५ सम्मेते वन्दितुं चैत्यान्युदितो मुदितोऽपि च । प्रचेलतुः पथि भ्रान्तौ पल्ली तां च संमेयतुः ।।२८१।। पूर्ववैराद् वसुभूतिजीवो म्लेच्छो निरीक्ष्य तौ । हन्तुं दधावे म्लेच्छाधिपतिना च न्यषिध्यत॥२८२।। म्लेच्छेश: प्राग्भवे सोऽभून्मृगो व्याधाच्च मोचितः । मुदितोदितजीवाभ्यां कैर्षकाभ्यां च तद्भवे ।।२८३।। तेन म्लेच्छाधिपेनाऽतस्त्रातौ सम्मेतमेत्य च। तौ चैत्यानि ववन्दाते विजह्राते चिराय च ॥२८४।। विधायाऽनशनं मृत्वा महाशुक्रे सुरोत्तमौ । तौ सुन्दर-सुकेशाख्यावजायेतां महर्द्धिकौ ।।२८५।। पभ्रान्त्वा भवं वसुभूतिजीवो म्लेच्छ: कथञ्चन । अवाप मानुषं जन्म तत्र सोऽभूच्च तापसः ।।२८६।। स विपद्य समुत्पेदे ज्योतिष्केषु सुरेषु तु । धूमकेतुर्नाम देवो मिथ्यादृष्टिर्दुराशयः ॥२८७।। उदित-मुदितजीवौ शुक्राच्च्युत्वाऽत्र भारते। महापुरेऽरिष्टपुरे प्रियंवदमहीपतेः ॥२८८।। पद्मावत्यां सधर्मिण्यामजायेतामुभौ सुतौ । विख्यातौ नौमतो रत्नरथ-चित्ररथाविति ।।२८९।। धूमकेतुरपि च्युत्वा पत्न्यां तस्यैव भूपतेः । बभूव कनकाभायां नाम्ना सूनुरनुद्वरः ॥२९०।। अभूत् समत्सरो रत्नरथे चित्ररथे च सः । तस्योपरि न मात्सर्यं बिभराञ्चक्रतुस्तु तौ ।।२९१।। न्यस्य रत्नरथे राज्यं यौवराज्यं द्वयो: पुन: । प्रियंवदः षड् दिनौनि प्रीयं कृत्वा सुरोऽभवत् ।।२९२।। राज्यं पालयतो रत्नरथस्यैको नृपो ददौ । श्रीप्रभां नाम कन्यां स्वां याचमानेऽप्यनुद्वरे ॥२९३॥ क्रुद्धोऽथाऽनुद्वरो रत्नरथस्योर्वीमलुण्टयत् । पातयित्वा रणे रत्नरथेन जगृहे च सः ॥२९४॥ विडम्ब्य बहुधा रत्नरथेन मुमुचेऽथ सः । तापसोऽभूच्च स्त्रीसङ्गान्मोघीचक्रे निजं तपः ॥२९५।। ततो मृत्वा भवं भ्रान्त्वा चिरान्मयो बभूव स: । तापसीभूय भूयोऽपि चकाराऽज्ञानकं तपः ॥२९६।। मृत्वाऽनलप्रभः सोऽयं ज्योतिष्कस्त्रिदशोऽभवत् । दीक्षां रत्नरथ-चित्ररथौ जगृहतुश्च तौ ।।२९७|| विपद्य चाऽच्युते कल्पेऽतिबलोऽथ महाबलः । नामधेयेन जज्ञाते त्रिदशौ प्रवरद्धिकौ ॥२९८॥ च्युत्वा च सिद्धार्थपुरे क्षेमकरमहीपतेः । महिष्या विमलदेव्यास्तौ कुक्षाववतेरतुः ॥२९९।। क्रमादजनिषातां च विमलायामुभौ सुतौ । कुलभूषण एषोऽहं तथाऽयं देशभूषणः ॥३००॥ उपाध्यायस्य घोषस्याऽर्पितौ पाठाय भूभुजा। अपठाव कला: सर्वा द्वादशाब्दीमवस्थितौ ॥३०१॥ त्रयोदशेऽब्दे घोषेण सहाऽऽयान्तौ नृपान्तिके। राजवेश्मन्यपश्याव कन्यां वातायनस्थिताम् ॥३०२॥ जातानुरागौ तस्यां च सद्योऽपि विमनायितौ। अगमावाऽन्तिकं राज्ञोऽदर्शयावाऽखिला: कला:॥३०३।। उपाध्यायोऽर्चितो राज्ञा जगाम निजमन्दिरम् । आवां च मातरं नन्तुं गतौ राजाज्ञया ततः॥३०४॥ तत्र चाऽऽवामपश्याव तां कन्यां मातुरन्तिके। अशंसच्चाऽम्बा युवयोः स्वसेयं कनकप्रभा॥३०५॥ घोषोपाध्यायसदने युवयोस्तस्थुषोः सतोः । जातेयं वत्सौ! तेनेमां नोपलक्षयथो युवाम् ॥३०६।। तच्छ्रुत्वा लज्जितावावमज्ञानात् स्वसृकाङ्क्षिणौ । क्षणाद वैराग्यमापन्नौ प्राव्रजावाऽन्तिके गरोः ॥३०७।। १.०क्ता जिघांसुरमृत० ता.; हन्तुमैच्छत् ॥२. वधं कुरु ॥ ३. मक्षिकाणामभावो निर्मक्षिकम्, मक्षिकारहितं-निर्विघ्नमित्यर्थः ।।४. देवाच्छुत्वा च मु.॥५. तत्सूनो० पाता. ।। ६.०र्मुदितोदितयोस्तयोः ता. ॥७. मारितः ॥ ८. म्लेच्छपल्ल्यां ला.॥९. सम्मेतशिखरे ।। १०. समीयतु: हे. ॥११. सोऽभूत् खगो० रसंपा. ।। १२. कृषीवलाभ्याम् ।। १३. विश्रुतौ मु.॥१४. नामतो विश्रुतौ ला.॥१५.०दिनाशनं कृत्वा० ता.॥१६.अनशनम्॥१७. मुमुचे च पाता.॥ Jain Education in८. विफलीचक्रे॥१९. सहायातौ ला.विना ।। २०. विमनस्कौ जातौ ||te & Personal use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम्। १८३ तप्यमानौ तपस्तीव्रमिहाऽऽयातौ महागिरौ । कायोत्सर्गेण चाऽस्थाव निरपेक्षौ वपुष्यपि॥३०८॥ पिताऽऽवयोर्वियोगेन गृहीत्वाऽनशनं मृतः । गरुडेशोऽभवद् देवो महालोचननामकः ॥३०९॥ विज्ञायाऽऽसनकम्पेन चोपसर्ग स आवयोः । सम्प्रत्ययमिहाऽऽयात: प्राग्जन्मस्नेहपीडितः ॥३१०॥ अनलप्रभदेव: सोऽनन्तवीर्यमहामुनेः । पार्श्वे केवलिनोऽगच्छत् सह देवैः कुतूहलात् ॥३११॥ देशनान्तेऽनन्तवीर्यः पृष्टः शिष्येण केनचित् । मुनिसुव्रततीर्थेऽस्मिन् कः पश्चात् तव केवली ? ॥३१२॥ सोऽप्याख्यन्मम निर्वाणे केवली कुलभूषणः । देशभूषण इति च भ्रातरौ द्वौ भविष्यतः ॥३१३।। तेच्चाऽनलप्रभः श्रुत्वा निजं स्थानमुपेत्य च । विभङ्गेनाऽन्यदा ज्ञात्वा कायोत्सर्गस्थिताविह ॥३१४।। मिथ्यात्वेनाऽनन्तवीर्यवचनं कर्तुमन्यथा। प्राग्जन्मवैराच्च स नावुपदुद्राव दारुणम् ।।३१५॥युग्मम्।। दिनान्यतीयश्चत्वारि तस्योपद्रवतो दृढम् । अद्याऽऽयातौ युवामत्र युष्मद्भीत्याउँनशच्च सः॥३१६।। कर्मक्षयादावयोश्च केवलं समजायत । कर्मक्षये सहायोऽयमुपसर्गपरोऽप्यभूत् ।।३१७।। महालोचनदेवोऽपि तदोचे गरुडाधिपः । काकुत्स्थ! साध्वकार्षीस्त्वं किं प्रत्युपकरोमि ते ? ॥३१८॥ नाऽर्थो न: कश्चिदप्यस्तीत्युक्ते रामेण सोऽमरः । तथाऽप्युपकरिष्यामि क्वाऽपीत्युक्त्वा तिरोदधे ॥३१९॥ अथ वंशस्थलाधीशो राजा नाम्ना सुरप्रभः । तत्राऽऽगत्य नमश्चक्रे राममानर्च चोच्चकैः ।।३२०॥ रामाज्ञया तत्र शैले सोऽर्हच्चैत्यान्यकारयत् । रामनाम्ना रामगिरिगिरिः सोऽभूत् तदादि च ॥३२१।। सुरप्रभमथाऽऽपृच्छ्य प्रतस्थे रघुपुङ्गवः । उद्दण्डं दण्डकारण्यं प्रविवेशच निर्भयः॥३२२॥ विधाय तत्र चाऽऽवासं महागिरिगुहागृहे। काकुत्स्थ: सुस्थितस्तस्थौ स्वकीय इव वेश्मनि ॥३२३॥ तत्र भोजनवेलायामन्येद्युश्चारणौ मुनी। नाम्ना त्रिगुप्त-सुगुप्तौ नभसा समुपेयतुः ॥३२४॥ द्विमासोपोषितौ तौ तु पारणार्थमपस्थितौ । भक्त्या ववन्दिरे राम-सीता-सौमित्रयस्त्रयः ॥३२५।। यथोचितैरन्न-पानैः सीता तो प्रत्यलाभयत् । तदा देवैर्विदधिरे रत्न-गन्धाम्बुवृष्टयः ॥३२६।। तदा रत्नजटी कम्बुद्वीपविद्याधरेश्वरः । द्वौ सुरौ चैत्य रामाय प्रीता: साश्वं रथं ददुः ॥३२७।। गन्धाम्बुवृष्टिगन्धेन तत्र गन्धाभिध: खगः । उत्तीर्य पादपाद् रोगी तद्वास्तव्यः समाययौ ॥३२८।। सञ्जातजातिस्मरणो मुनेर्दर्शनमात्रतः । पपात मूर्च्छया भूमौ सीताऽम्भोभिः सिषेच तम् ॥३२९।। लब्धसज्ञ: समुत्थाय साधुपादेषु सोऽपतत् । साधोः स्पशौर्षधीलब्ध्या नीरोगश्चाऽभवत् क्षणात् ॥३३०।। पक्षौ हैमावजायेतां चञ्चुर्विद्रुमविभ्रमा । पद्मरागप्रभौ पादौ नानारत्नप्रभं वपुः ॥३३१॥ रत्नाङ्कुरश्रेणिनिभा जटा: शिरसि चाऽभवन् । जटायु म तस्याऽभूत् तत: प्रभृति पक्षिणः ॥३३२॥युग्मम्।। रामोऽपृच्छन्महर्षी तौ गृध्रः क्रव्यादयं कुधीः। स्थित्वा वः पादयो: पार्श्वे शान्त: कस्मादजायत? ॥३३३।। भदन्तावयमत्यन्तविरूपावयवः पुरा । कथमद्य क्षणाज्जातो हेमरत्नोत्करद्युति: ? ॥३३४॥ सुगुप्तर्षिरथाऽऽचख्यावासीदिह पुरा पुरम् । कुम्भकारकटं नाम राजा तत्रैष दण्डकः ॥३३५।। श्रावस्त्यां च तदा राजा जितशत्रुरजायत । धारिणी नाम तत्पत्नी स्कन्दको नाम तत्सुतः ॥३३६।। पुरन्दरयशी नामाऽभवच्च दुहिता तयोः । कुम्भकारकटेशस्तां पर्यणैषीच्च दण्डकः ॥३३७।। अन्यदाऽर्थेन केनाऽपि जितशत्रुनृपान्तिके । प्राहिणोद् दण्डको दूतं पालकं नामतो द्विजम् ॥३३८॥ जितशत्रुस्तदा चाऽर्हद्धर्मगोष्ठीपरोऽभवत् । आरेभे पालकस्तं तु धर्मं दूषयितुं कुधीः ॥३३९॥ स स्कन्दककुमारेण मिथ्यादृष्टिर्दुराशयः । युक्त्या निरुत्तरीचक्रे सत्यसंवादपूर्वकम् ॥३४०॥ तदा स हसित: सभ्यैरमर्ष स्कन्दकेऽदधत् । विसृष्टश्चाऽन्यदा राज्ञा कुम्भकारकटं ययौ ॥३४१॥ विरक्तश्चाऽन्यदा पञ्चराजपुत्रशतान्वितः । मुनिसुव्रतपादान्ते स्कन्दको व्रतमोददे ।।३४२।। १. पार्थ खं.१-२, ला. कां. छा. पा. ॥ २. तथाऽनल० ता. ॥ ३. विभङ्गतोऽन्यदा पाता. ॥ ४. अतिक्रान्तानि ।। ५. ०भीत्या ननाश स: ता. ।। ६. प्रभाते पाता. ॥७. मासक्षपणद्वयकारकौ ॥ ८. च आगत्य ॥९. प्रवालसदृशी रक्तेत्यर्थः ॥ १०. "मांसादः" इति ला.टि., मांसभक्षीत्यर्थः ।। ११. धारिणी मु.॥१२. ० यशोनामा० मो. ॥१३. ०शत्रुः सदा ला. ॥१४. सभ्य० रसंपा. ॥१५. व्रतमग्रहीत् मो. ॥ Jain Education international Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं पुरन्दरयशो मुख्यलोकं बोधयितुं पुरे । कुम्भकारकटे यामीत्यापप्रच्छे स च प्रभुम् ॥३४३|| उवाच प्रभुरप्येवं तत्र ते मारणान्तिक: । गतस्य सपरीवारस्योपसर्गो भविष्यति ॥ ३४४॥ वयमाराधकास्तत्र भाविनो वा न वेत्यथ । भूयोऽपि स्कन्दकोऽपृच्छत् स्वामिनं मुनिसुव्रतम् ॥ ३४५॥ त्वां विनाऽऽराधकाः सर्वेऽपीत्याख्यद् भगवानपि । सर्वमेतर्हि सम्पूर्णमित्युक्त्वा स्कन्दकोऽचलत् ॥३४६॥ क्रमेण स्कन्दकाचार्यो मुनिपञ्चशतीयुतः । गच्छन्नासादयामास कुम्भकारकटं पुरम् ॥३४७॥ तं दृष्ट्वा पालकः क्रूरः संस्मरंस्तं पराभवम् । साधूपयोग्युद्यानेषु शस्त्राण्युर्व्यां न्यखानयत् ।। ३४८।। उद्याने स्कन्दकाचार्य एकस्मिन् समवासरत् । आययौ वन्दितुं तं च दण्डकः सपरिच्छदः ॥ ३४९॥ स्कन्दको देशनां चक्रे जहृषुर्बहवो जनाः । प्रहृष्टो देशनान्ते च वेश्माऽगाद् दण्डको नृपः ॥३५०॥ गत्वा रहसि राजानमित्यूचे पालकः कुधीः । स्वामिन्नेष बकाचार: पाखण्डी स्कन्दकः खलु ॥३५१॥ सहस्रयोधिभिः पुम्भिर्मुनिवेषधरैरसौ । त्वां हत्वा राज्यमादातुमागादिह महाशठः || ३५२॥ अत्रोद्याने स्वस्थाने च मुनिवेषैर्महाभटैः । छन्नं क्षिप्तानि शस्त्राणि दृष्ट्वा प्रत्येतु भूपतिः ॥३५३॥ ततश्चाऽखानयद् राजा मुनिस्थानानि सर्वतः । चित्राण्यस्त्राण्यपश्यच्च विषादं च परं ययौ ॥ ३५४ ॥ अविचार्य ततो राजाऽप्यादिदेशेति पालकम् । साधु मन्त्रिंस्त्वया ज्ञातं चक्षुष्मान् भवता ह्यहम् ॥ ३५५॥ कर्तुं त्वमेव जानासि दुर्मतेरस्य चोचितम् । तत्कुरुष्व न भूयोऽपि प्रष्टव्योऽहं महामते! ॥३५६॥ इत्युक्तः पालकः शीघ्रं गत्वा यन्त्रमकारयत् । स्कन्दकस्याऽग्रतः साधूनेकैकं च न्यपीलयत् ॥ ३५७|| निष्पील्यमानानेतांस्तु देशनापूर्वकं स्वयम् । अकारयत् स्कन्दकोऽपि सम्यगाराधनाविधिम् ॥ ३५८ ॥ उपयन्त्रं शिशौ नीते परिवारान्तिमे मुनौ । कारुण्यात् स्कन्दकाचार्य इत्यभाषत पालकम् ॥ ३५९ ॥ आदौ पीलय मामेव कुरुष्वैतद् वचो मम । बालं मुनिं न पश्यामि पील्यमानं यथा ह्यमुम् ॥ ३६० ॥ तत्पीडापीडितं ज्ञात्वा स्कन्दकं पालकोऽपि हि । तमेव बालकमुनिं तत्पीडार्थमपीलयत् ॥ ३६१ ॥ उत्पन्नकेवलाः सर्वेऽप्यवापुः पदमव्ययम् । प्रत्याख्याय स्कन्दकस्तु निदानमिति निर्ममे ॥३६२॥ दण्डकस्य पालकस्य तथा तत्कुल- राष्ट्रयोः । व्यापादनाय भूयासं तपसोऽस्य फलं यदि ।।३६३।। एवं कृतनिदानः सन् पीलित: पालकेन सः । देवो वह्निकुमारोऽभूत् कालाग्निरिव तत्क्षये ॥ ३६४॥ पुरन्दरयशोदत्तरत्नकम्बलतन्तुजम् । तद्रजोहरणं रक्तेनाऽक्तं शर्कुनिकाऽहरत् ॥३६५॥ दोर्दण्डबुद्ध्या यत्नेन गृहीतमपि तत् ततः । पुरः पुरन्दरयशोदेव्या दैवात् पपात च ॥३६६॥ विदाञ्चकार सा भ्रातुर्महर्षेर्विपदं ततः । किमकार्षीः पाप! पापमित्याक्रोशच्च दण्डकम् ॥ ३६७॥ तां शोकमग्नामुद्धृत्याऽनैषीच्छासनदेवता । मुनिसुव्रतपादान्ते प्रव्रज्यामाददे च सा ।। ३६८।। स्कन्दकाग्निकुमारोऽपि प्राग्जन्माऽवधिना विदन् । सपालकं सपूर्लोकमदहद् दण्डकं नृपम् ।।३६९।। तैदादि दण्डकारण्यमिदं दारुणमुद्वसम् । दण्डकस्याऽभिधानेन बभूव भुवि विश्रुतम् ॥ ३७० ॥ दण्डकोऽपि भवे भ्रान्त्वा दुःखैयोनिषु योनिषु । गन्धाख्योऽयमभूत् पक्षी महारोगी स्वकर्मभिः ॥ ३७१॥ अस्याऽस्मद्दर्शनाज्जातिस्मरणं समजायत । अस्मत्स्पर्शोषधीलब्ध्या रोगाश्च क्षयमासदन् ।। ३७२ ॥ तच्छ्रुत्वा मुदितः पक्षी भूयोऽपि मुनिपादयोः । पपात धर्मं चाऽश्रौषीच्छ्रावकत्वं च शिश्रिये ॥ ३७३ ॥ जीवघात - पैलाहार - रात्रिभोजनकर्मणाम् । प्रत्याख्यानं ददौ तस्येप्सितं ज्ञात्वा महामुनिः ॥ ३७४॥ इत्यूचे च मुनी रामं साधर्मिक इहैष वः । साधर्मिके च वात्सल्यमुक्तं श्रेयस्करं जिनैः ॥ ३७५॥ बन्धुर्न एष परम इत्युक्त्वा राघवेण 'तौ । वन्दितौ नभसोत्पत्य मुनी जग्मतुरन्यतः ||३७६।। तं दिव्यं रथमारुह्य जानकी - राम-लक्ष्मणाः । विजहुः क्रीडयाऽन्यत्र सहचारिजटायवः ॥ ३७७|| (सप्तमं पर्व १. ० र्व्यामखानयत् मु., पाता. ला. ॥ २. स्वस्वस्थाने रसंपा. ॥ ३. “सनेत्रः” इति ला. टि. ॥ ४. यन्त्रसमीपम् ॥ ५. परिवारेऽन्तिमो मुनिः शिशुः, तत्र ॥ ६. भक्तप्रत्याख्यानं कृत्वा ।। ७. तथाऽत्र कुल० मु. खं. १ २, पाता. ला.; “तथा तत्कुल० " इति तु रसंपा. ॥ ८. रक्तेन व्याप्तम् ॥ ९. चिल्ली (समडी) ।। १०. Jain Educatio ततः प्रभृति ॥ ११. दुःखखानिषु मु. ॥। १२. मांसाहार ।। १३. न: - अस्माकम् ॥ १४. तु रसंपा. ॥। १५. सहचारी जटायुर्येषाम् ॥ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम्। पाइत: पाताललङ्कायां खर-चन्द्रणखात्मजौ । शम्बूक-सुन्दनामानावभूतां नवयौवनौ ॥३७८।। पितृभ्यां वार्यमाणोऽपि दण्डकारण्यमन्यदा। शम्बूक: सूर्यहासासिसाधनार्थमुपेयिवान् ॥३७९॥ सोऽथ क्रौञ्चरवातीरे स्थित्वाऽन्तर्वंशगह्वरम् । वारयिष्यति मां यस्तं हनिष्यामीत्यवोचत ।।३८०॥ एकान्नभुग विशुद्धात्मा ब्रह्मचारी जितेन्द्रियः । अधोमुखो वटशाखानिबद्धचरणद्वयः ॥३८१।। विद्यां जपितुमारेभे सूर्यहासासिसाधिनीम् । सप्ताहाग्रद्वादशाब्द्या या सिद्धिमुपगच्छति ॥३८२।। एवं च तस्थुषस्तस्य वल्गुलीस्थानकस्पृशः । वर्षाणि द्वादशाऽतीयुश्चत्वारि दिवसानि च ॥३८३॥ सेडुकाम: सूर्यहास: प्रत्याकारतिरोहितः । स्फूर्जत्परिमलो व्योम्ना तत्राऽऽगाद् वंशगह्वरे ॥३८४।। क्रीडयेतस्ततो भ्राम्यंस्तत्र सौमित्रिराययौ। ददर्श सूर्यहासं च सूर्यस्येव करोत्करम् ॥३८५॥ तं खड्गमाददे सोऽथ प्रत्याकाराच्चकर्ष च । अपूर्वशस्त्रालोके हि क्षत्रियाणां कुतूहलम् ॥३८६।। तत्तीक्ष्णत्वपरीक्षार्थं तत्क्षणं तेन लक्ष्मणः। अभ्यर्णस्थां वंशजाली नललावं लुलाव च ॥३८७|| वंशजालान्तरस्थस्य शम्बूकस्याऽथ कर्तितम् । भूतले मौलिकमलं सोऽपश्यत् पतितं पुरः॥३८८।। प्रविवेशाऽग्रतो यावत् सौमित्रिर्वंशगह्वरम् । तावत् केबन्धमैक्षिष्ट वटशाखावलम्बिनम् ।।३८९।। अयुध्यमानोऽशस्त्रश्च पुमान् कोऽपि हतो मया। अमुना कर्मणा धिशामित्यात्मानं निनिन्द सः ॥३९०।। गत्वा च रामभद्राय तदशेषं शशंस स: । असिं च दर्शयामास रामोऽप्येवमभाषत ॥३९१॥ असावसि: सूर्यहास: साधकोऽस्य त्वया हतः । अस्य सम्भाव्यते नूनं कश्चिदुत्तरसाधकः ॥३९२॥ पाअत्राऽन्तरे दशग्रीवस्वसा चन्द्रणखाभिधा। मत्सूनो: सूर्यहासोऽद्य सेत्स्यतीति कृतत्वरा ॥३९३।। पूजापानान्नसहिता तत्र प्रमुदिता ययौ । ददर्श च शिर: सूनोश्छिन्नं लुलितकुण्डलम् ॥३९४॥युग्मम्।। क्वाऽसि हा वत्स! शम्बूक! शम्बूकेति रुदत्यथ। अपश्यल्लक्ष्मणस्यांऽह्रिन्यासपङ्क्तिं मनोहराम् ॥३९५।। मम सूनुर्हतो येन तस्येयं पदपद्धति: । इति तत्पदपद्धत्या द्रुतं चन्द्रणखा ययौ ॥३९६।। यावत् किञ्चिदगात् तावत् ससीता-लक्ष्मणं पुरः । नेत्राभिरामं रामं साऽपश्यत् तरुतले स्थितम् ॥३९७।। निरीक्ष्य रामं सा सद्यो रिरंसाविवशाऽभवत्। कामावेश: कामिनीनां शोकोद्रेकेऽपि कोऽप्यहो! ॥३९८।। कन्यारूपं विकृत्याऽथ नागकन्यासहोदरम् । सा मन्मथार्ता काकुत्स्थमुपतस्थे सेवेपथुः ।।३९९।। बभाषे रामभद्रस्तां भद्रे! कुत इहाऽऽगमः । दारुणे दण्डकारण्ये कृतान्तैकनिकेतने? ॥४००॥ साऽप्यूचेऽवन्तिराजस्य कन्याऽहं भवनोपरि । सुप्ता हृताऽस्मि केनाऽपि खेचरेण क्षेपान्तरे ॥४०१॥ इहाऽरण्ये समायातो दृष्टः सोऽन्येन केनचित् । विद्याधरकुमारेण जगदे चेति सासिना ॥४०२।। स्त्रीरत्नमपहृत्येदं चिल्लो हारलतामिव । क्व गमिष्यसि रे पाप! मत्युस्तेऽहमपस्थितः ॥४०३।। इत्युक्तः सोऽत्र मां मुक्त्वा तेनाऽस्यसि चिरं व्यधात् । उभावपि विपेदाते मत्तौ वनगजाविव ॥४०४॥ एकाकिनी कौन्दिशीका भ्राम्यन्त्यहमितस्ततः । प्राप्ता त्वां पुण्ययोगेन च्छायाद्रुमिव जङ्गले ॥४०५।। तन्मां परिणय स्वामिन्! कुमारी कुलसम्भवाम् । महत्सु जायते जातु न वृथा प्रार्थनाऽर्थिनाम् ।।४०६।। ध्रुवं मायाविनी काचिन्नटवद् वेषधारिणी। कूटनाटकमुत्पाद्याऽऽगाद् वञ्चयितुमत्र नः ॥४०७॥ चिन्तयन्ताविति चिरं बुद्धिसंवादिनौ मुखम्। अन्योऽन्यमीक्षाञ्चक्राते स्मेरीक्षौराम-लक्ष्मणौ ॥४०८॥युग्मम्।। अथ राम: स्मितज्योत्स्नापूरस्तबकिताधरः। तामित्यूचे सभार्योऽहमभार्यं भज लक्ष्मणम्॥४०९।। तयाऽर्थितस्तथैवैत्य लक्ष्मणोऽप्येवमब्रवीत्। आर्यं गता त्वमार्येव तदलं वार्तयाऽनया॥४१०॥ पसा याच्चाखण्डनात् पुत्रवधाच्च रुषिताऽधिकम् । आख्यद् गत्वा खरादीनां तत्कृतं तनयक्षयम् ॥४११॥ १. वंशजालमध्ये स्थित्वा ।। २.१२वर्ष-७दिन-पर्यन्ते॥३. वल्गुली-'वागोळ'-निशाचरपक्षिप्रकारः, तत्स्थानकं स्पृशति-तस्य॥४.प्रत्याकारं कोश:, 'म्यान' इति भाषायाम् ॥५. सूर्यहासासिं मु. ॥ ६. किरणसमूहम् ।। ७. नल:-धासविशेषः, तं यथा लुनाति तथा; नाललावं मु.॥ ८. शीर्षम् ।। ९. मस्तकरहितं देहम् ।।१०. रिंसा-रतिक्रीडेच्छा, तया परवशा॥११. “शोकस्याऽऽधिक्येऽपि" इति ला.टि. ॥१२. कामार्ता॥१३. सकम्पा॥१४. सदनोपरि रसंपा. ॥१५. रात्रौ ।।१६. सखड्गेन ।। १७. “पक्षी" इति ला.टि.; समळी इति भाषा॥१८. मुक्त्वा खड्गाखगि चिरं हे., तेनाऽऽजिं सुचिरं मु.; "खड्गाखड्गि" Jain Educat इति ला.टि.।।१९. भयगता।।२०.विस्फारितनेत्रौ।।२१. गत्वा पाता. rivate & Personal use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (सप्तमं पर्व विद्याधरसहस्रेस्ते चतुर्दशभिरावृताः। ततोऽभ्येयुरुपद्रोतुं रामं शैलमिव द्विपा: ॥४१२॥ किमार्य: सत्यपि मयि योत्स्यते स्वयमीदृशैः ? । इति राममयाचिष्ट तेषां युद्धाय लक्ष्मणः ।।४१३।। गच्छ वत्स! जयाय त्वं यदि ते सङ्कटं भवेत् । सिंहनादं ममाऽऽहूत्यै कुर्या इत्यन्वशात् स तम् ।।४१४॥ रामाज्ञां प्रतिपद्योच्चैर्लक्ष्मणोऽथ धनु:सखा । गत्वा प्रववृते हन्तुं स तांस्तार्क्ष्य इवोरगान् ॥४१५॥ प्रवर्धमाने तद्युद्धे स्वभर्तुः पाणिवृद्धये । गत्वा त्वरितमित्यूचे रावणं रावणस्वसा ।।४१६॥ आयातौ दण्डकारण्ये मनुष्यौ राम-लक्ष्मणौ । अनात्मज्ञौ निन्यतुस्ते जामेयं यमगोचरम् ।।४१७॥ श्रुत्वा स्वसृपतिस्ते तु सानुजः सबलो ययौ। तत्र सौमित्रिणा सार्धं युध्यमानोऽस्ति सम्प्रति ॥४१८॥ कनिष्ठभ्रातृवीर्येण स्ववीर्येण च गर्वितः । परतोऽस्ति स्थितो रामो विलसन् सीतया सह ॥४१९॥ सीता च रूपलावण्यश्रिया सीमेव योषिताम् । न देवी नोरगी नाऽपि मानुष्यन्यैव काऽपि सा ॥४२०।। तस्या दासीकृताशेषसुरासुरवधूजनम् । त्रैलोक्येऽप्यप्रतिच्छन्दं रूपं वाचामगोचरम् ॥४२१।। आसमुद्रममुद्राज्ञ! यानि कान्यपि भूतले। तवैवाऽर्हन्ति रत्नानि तानि सर्वाणि बान्धव! ॥४२२।। दृशामनिमिषीकारकारणं रूपसम्पदा । स्त्रीरत्नमेतद् गृह्णीया न चेत् तन्नाऽसि रावणः ॥४२३॥ आरुह्य पुष्पकमथाऽऽदिदेश दशकन्धरः । विमानराज! त्वरितं याहि यत्राऽस्ति जानकी ॥४२४।। ययौ चाऽत्यन्तवेगेन विमानमनुजानकि । स्पर्धयेव दशग्रीवमनसस्तत्र गच्छतः॥४२५।। दृष्ट्वाऽपि रामादत्युग्रतेजसो दशकन्धरः । बिभाय दूरे तस्थौ च व्याघ्रो हुतवहादिव॥४२६।। इति चाऽचिन्तयदित: कष्टं रामो दुरासदः । इतश्च सीताहरणं इतो व्याघ्र इतस्तटी ॥४२७॥ विमृश्य च ततो विद्यामस्मार्षीदवलोकनीम् । उपतस्थे च सा मङ्गु किङ्करीव कृताञ्जलिः ॥४२८।। ततश्चाऽऽज्ञापयामास तत्कालं तां दशाननः । कुरु साहाय्यमह्नाय मम सीतां हरिष्यतः॥४२९।। साऽवोचद् वासुकेौलिरत्नमादीयते सुखम् । न तु रामसमीपस्था सीता देवासुरैरपि ॥४३०।। उपाय: किन्त्वसावस्ति यायाद्येनैष लक्ष्मणम् । तस्यैव सिंहनादेन सङ्केतो ह्यनयोरयम्॥४३१॥ एवं कुर्विति तेनोक्ता वजित्वा परतस्ततः ।सा साक्षादिव सौमित्रि: सिंहनादं विनिर्ममे ॥४३२॥ सिंहनादं च तं श्रुत्वा रामो दध्यौ ससम्भ्रमः । जगत्यप्रतिमल्लो मे हस्तिमल्ल इवाऽनुजः ॥४३३।। तं न पश्यामि सौमित्रिर्येन प्राप्नोति सङ्कटम् । तस्य सङ्कटसङ्केतक्ष्वेडा त्वत्र निशम्यते ॥४३४॥ एवं वितर्कव्यग्रोऽभूदु यावद् रामो महामनाः । सीता लक्ष्मणवात्सल्यात् तावदेवमवोचत ॥४३५॥ आर्यपुत्र! किमद्याऽपि वत्से सङ्कटमागते। विलम्बसे ? द्रुतं गत्वा त्रायस्व ननु लक्ष्मणम् ॥४३६।। इत्यादि सीतावचनैः सिंहनादेन चेरित: । जगाम त्वरितं रामोऽशकुनान्यपमानयन् ॥४३७।। [अथोत्तीर्य दशग्रीवो विमाने पुष्पकाभिधे। आरोपयितुमारेभे रुदन्ती जनकात्मजाम् ॥४३८।। स्वामिन्येषोऽस्मि मा भैषीस्तिष्ठ तिष्ठ निशाचर! । रोषादिति वदन् दूराजटायुस्तमधावत ॥४३९॥ सत्रोटिनखकोटीभिर्निशाताभिर्महाखगः । चकर्ष रावणस्योर: सीरैः कृषिमहीमिव ॥४४०॥ तत: क्रुद्धो दशग्रीव: खड्गमाकृष्य दारुणम्। पक्षौ छित्त्वाऽपातयत् तं पतङ्गं पृथिवीतले ॥४४१।। निःशङ्कोऽथ दशग्रीव: सीतामारोप्य पुष्पके । चचाल नभसा तूर्णं पूर्णप्रायमनोरथः ॥४४२।। हा नाथ! विद्विषन्माथ! राम! हा वत्स! लक्ष्मण! । हा तातपादा! हा भ्रातर्भामण्डल! महाभुज! ॥४४३॥ सीता वो ह्रियतेऽनेन काकेनेव बलिश्छलात् । एवं सीता रुरोदोच्चै रोदयन्तीव रोद॑सीम् ॥४४४।। १.धनुःसख: मु.,खं.१-ला.,हे. कां.प्रभृतिषु च; धनुःसहायः॥२. गरुडः ॥३. “चमूपुष्टिपुष्टये" इति ला.टि.; पाणि: सेनापृष्ठभाग इत्यर्थः ॥४. अबुधौ॥५. भगिनीपुत्रम् ।। ६. युद्धभूमे(रम्॥७. मनुष्य० पात., मानुषी नैव ला. रसंपा. ।। ८. अनुपमम् ।। ९. आसमुद्रसमु० मु.; "अस्खलिताज्ञ" इति ला. टि. ॥१०. अमेरिव ।।११. दुष्प्रापः, तत्समीपं गन्तुंदुष्करमित्याशयः ॥१२. झटिति ॥ १३. देवी सुरै० पाता. ॥१४. येन-उपायेन एष राम: लक्ष्मणं-लक्ष्मणसमीपं गच्छेत् ॥१५. लक्ष्मणस्यैव ।। १६.प्राप्येत रसंपा. ॥ १७. "सिंहनादः"ला.टि. ॥१८.प्रेरित: खं.१।। १९. "चञ्चुः"ला.टि. ॥ २०.०निशिता० मु. खं.२, हे. का.प्रभृतिषु ।। २१. हलैः ।। २२.०मारोप्य मु.।। २३. पक्षिणम् ।। २४. त्वरितम् ।। २५. विद्विषत:-शत्रूनु मनाति ॥२६. रोदसी ता. स्वर्ग-पृथिव्यौ।। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८७ पञ्चमः सर्गः) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम्। श्रुत्वा तद् रुदितं रत्नजट्यर्कजटिनन्दनः । खेचरो विममर्शवं नूनं रामस्य पत्न्यसौ॥४४५॥ समुद्रोपरि शब्दोऽयं श्रूयते येन तेन तु । ह्रियते रावणेनेयं छलितौ राम-लक्ष्मणौ ॥४४६।। प्रभोर्भामण्डलस्याऽद्योपकरोमीति जातधी: । दधावे खड्गमाकृष्य दशकन्धरमाक्षिपन् ॥४४७।। युद्धायाऽऽह्वयमानं तं हसित्वेषद् दशाननः । सद्यो जहार तद्विद्यां विद्यासामर्थ्यतोऽखिलाम् ।।४४८।। निकृत्तपक्ष: पक्षीव हृतविद्य: पपात सः । कम्बुद्वीपे कम्बुशैलमारुह्य समवास्थितः ॥४४९।। रावणोऽपि विमानस्थो गच्छन् व्योम्नाऽर्णवोपरि। इति सानुनयं प्रोचे मैथिली मन्मथातुरः ॥४५०॥ नभश्चर-क्ष्माचराणां भर्तुर्मे महिषीपदम् । प्राप्ताऽसि रोदिषि कथं ? हर्षस्थाने कृतं शुचा ।।४५१॥ मन्दभाग्येन रामेण सह त्वां योजयन् विधि: । नाऽनुरूपं पुरा चक्रे मयाऽकार्यधुनोचितम् ॥४५२।। मां पतिं देवि! मन्यस्व सेवया दाससन्निभम् । मयि दासे तव दासा: खेचर्य: खेचरा अपि ॥४५३।। ब्रुवाणे रावणे त्वेवं सीता तस्थावधोमुखी। स्मरन्ती मन्त्रवद् भक्त्या राम इत्यक्षरद्वयम् ॥४५४॥ जानकीपादयोर्मू| स पपात स्मरातुरः । साऽप्यपासारयत् पादौ परपुंस्पर्शकातरा ॥४५५।। आचुक्रोश च सीतैवं निरनुक्रोश! निस्त्रप! । अचिराल्लप्स्यसे मृत्यु परस्त्रीकामनाफलम् ।।४५६।। तदानीं सम्मुखा एयुर्मन्त्रिण: सारणादयः । अन्ये च रक्ष:सामन्ता: समन्ताद् राक्षसप्रभोः ।।४५७।। महोत्सवां महोत्साहो महासाहसकृत् पुरीम् । आगमद्रावणो लङ्कामलङ्कर्मीणविक्रमः ॥४५८।। न यावद् राम-सौमित्रिक्षेमोदन्तसमागमः । भोक्ष्ये न तावदित्युच्चैः सीताऽभिग्रहमाददे ॥४५९।। लङ्कापूर्वदिशि स्थिते सुरवरोद्यानोपमे खेचरस्त्रीणां विभ्रमधाम्नि देवरमणोद्याने स्वयं जानकीम् । रक्ताशोकतरोस्तले त्रिजटया चाऽऽरक्षकैरावृतां मुक्त्वाऽगाद् दशकन्धरः प्रमुदितः स्वं धाम धाम्नां निधिः ॥४६०॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये सप्तमपर्वणि सीताहरणो नाम पञ्चम:सर्ग:।। कि १.हसित्वैष मु.॥२. निकृत्तौ-छिन्नौ पक्षौ यस्य सः ।। ३. शोकेन ।। ४. परपुरुषस्पर्शभीता ॥५. "निःशूक! निलज!" इति ला.टि. ।। ६. कर्मक्षमपराक्रमः।।७. Jain Education Inte"विलास” इति ला.टि.॥८.श्चाऽऽवृतां ता. ।। ९. "तेजसां" इति ला.टि.॥१०. सप्तमे पाता. ला. रसंपा. ।। Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥षष्ठः सर्गः॥ इतश्च रामः सम्प्राप्तस्त्वरितं तत्र चापभृत् । अमित्रैः सह सौमित्रिर्यत्राऽभूदु रणकेलिकृत् ॥१॥ आयान्तं राममालोक्य सौमित्रिरिदमब्रवीत् । आर्यामेकाकिनी मुक्त्वा किमार्येह त्वमागम: ? ॥२॥ आहूत: सिंहनादेन तव वैधुर्यलक्ष्मणा । लक्ष्मणाऽहमिहाऽऽयातो व्याजहारेति राघवः ॥३॥ लक्ष्मणोऽप्यवदत् सिंहनादोऽकारि मया न हि । श्रुतश्चाऽऽर्येण तन्नूनं वयं केनाऽपि वञ्चिताः ॥४॥ अपनेतुं सत्यमार्यामपनीतोऽस्युपायत: । सिंहनादस्य करणे शङ्के स्तोकं न कारणम् ॥५॥ तद् गच्छ शीघ्रमेवाऽऽय! त्रातुमायाँ महाभुज! । हत्वाऽरीनहमप्येष यावदायामि पृष्ठतः॥६॥ इत्युक्तो रामभद्रोऽगात् स्वस्थानं तत्र जानकीम् । नाऽपश्यच्च महीपृष्ठे मूर्च्छितो निपपात च ॥७॥ लब्धसञः समुत्थाय तं मूमुएं जटायुषम् । ईक्षाञ्चक्रे रामभद्रो दध्याविति च तीक्ष्णधीः ॥८॥ केनाऽपि दयिता नूनं जहे च्छलपरेण मे। तेनाऽपहारक्रद्धोऽयं महात्मा निहतः खगः ॥९॥ तत: प्रत्युपकाराय श्रावकस्य जटायुषः । ददौ रामो नमस्कारं परलो काध्वशम्बलम् ॥१०॥ स विपद्याऽभवत् कल्पे माहेन्द्रे प्रवर: सुरः । रामोऽपि सीतामन्वेष्टमाटाऽटव्यामितस्ततः ॥११॥ पाइतश्च लक्ष्मणो वीर: खरेण प्राज्यपत्तिना । योद्धं प्रावर्ततैकोऽपि न सिंहस्य सखा युधि ॥१२॥ अत्राऽन्तरे च त्रिशिरा: खरस्याऽवरजो भट: । को नामाऽस्मिंस्तवाऽऽक्षेप इति ज्येष्ठं न्यवारयत् ॥१३।। अथो रथस्थं त्रिशिरोराक्षसं समरोद्यतम् । जघान रामावरजो गणयंस्तं पतङ्गवत्॥१४॥ पातदा पाताललकेशचन्द्रोदरनृपात्मजः। विराध: सर्वसन्नाहिसैन्यस्तत्र समाययौ॥१५।। आरिराधयिषुर्नत्वा विराधो रामसोदरम्। इत्यूचे तव भृत्योऽहमेतेषां त्वद्विषां द्विषन् ।१६।। चन्द्रोदराख्यं निर्वास्य पितरं मे महाभुज!। पाताललकां जगृहुरमी रावणपत्तयः॥१७॥ कः सखांऽशोस्तमोध्वंसे? द्विषद्विदलने च ते? । तथाऽपि भृत्यलेशत्वाद् रणायाऽऽदिश मां प्रभो! ।।१८॥ स्मित्वा च लक्ष्मणोऽवोचद्धन्यमानान्मया द्विषः। पश्याऽमून विजयो ह्यन्यसाहाय्याद् दोष्मतां ह्रिये॥१९॥ अद्यप्रभृति ते स्वामी ज्येष्ठो ममरघूद्वहः । पाताललकाराज्ये च स्थापितोऽसि मयाऽद्य भोः! ।।२०।। विरोधिनं विराधं स्वं तं दृष्ट्वा लक्ष्मणान्तिके। क्रुद्धोऽधिकं खरोऽभ्येत्याऽधिज्यधन्वैवमब्रवीत्॥२१॥ तनयो मम शम्बूकः क्वाऽस्ते विश्वस्तघातक! ? । विराधेन वराकेण संख्या किं रक्ष्यसेऽधुना ? ॥२२॥ स्मित्वा चोवाचसौमित्रिस्त्रिशिरा अपि तेऽनुजः । भ्रातुः पुत्रस्य सोत्कण्ठस्तमनु प्रेषितो मया॥२३॥ पुत्रे भ्रातरि चोत्कण्ठा चेत् तवाऽपि बलीयसी। नेतुं त्वामपि तत्राऽस्मि सेज: सज्यधनुर्ननु ॥२४।। मया प्रमादघातेन पादन्यासेन कुन्थुवत्। तव सूनुर्हतो मूढ! तत्र मे पौरुषं न हि॥२५॥ अधुना त्वं भटम्मन्यश्चेत् पूरयसि कौतुकम् । त्वया प्रीणामि कोशं वनवासेऽपिसत्र्यहम् ॥२६।। इत्युक्तवति सौमित्रावमित्रो राक्षस: खरः।खरं प्रहर्तुमारेभे दन्तीव गिरिसानुनि ॥२७।। लक्ष्मणोऽपि क्षणेनाऽपि कङ्कपत्रैः सहस्रशः । अम्बरं तिरयामास भर्नुभिर्भानुमानिव॥२८॥ भयङ्कर: खेचराणां गरीयान् सङ्गरस्तयोः। अजायत श्राद्धदेवबैतैकमहोत्सवः॥२९।। १. शत्रुभिः ॥ २. वैकल्यचिढेन ।। ३. अपहर्तुं मु. पाता. ॥ ४. दूरं नीतः ।।५. मुमूर्षुजटा० हे. ।। ६. महात्मनः खं.२ ॥७. परलोकमार्गपाथेयम् ।। ८. प्राज्या:-बहवः पत्तयः-सैनिका: यस्य सः, तेन ।। ९. लघुभ्राता ॥१०. आक्षेप:-आक्रमणं युद्धोत्साहो वा ।। ११. पक्षीव ।। १२. सुसज्जसर्वसैन्यवान् ॥ १३. आराधयितुमिच्छुः ।। १४. हत्वा चन्द्रोदरं नाम खं.२, पाता. ॥१५. "सूर्यस्य" इति ला.टि. ॥ १६. शत्रुक्षयकरणे ॥ १७. ० लेश्यत्वा० ता. ॥ १८. रघुवंशजः ॥१९. ०राज्येऽपि ला.॥२०. मित्रेण ॥ २१. सद्य: मु. कां.; रक्षः! खं.२॥ २२. ज्यया-प्रत्यञ्चया सहितं सज्यं धनुर्यस्य सः ॥ २३. यमम् ।। २४. सत्यहम् खं.२, पाता.; "सत्रागारी" इति ला.टि., गृहपतिरित्यर्थः ॥२५. तीक्ष्णम् ॥२६. बाणैः ।। २७. छादयामास ।। २८. किरणैः ।। २९. श्राद्धदेवो यमः, स एव दैवतं, तस्य महोत्सवः ॥ ३०. ०देवतैक० खं.१, पाता. ।। Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम्। 'विष्णुनाऽपि रणे यस्य शक्तिरीहक्खर: स हि। प्रतिविष्णोरप्यधिको व्योमन्येवं गिरोऽभवन् ॥३०॥ कालक्षेपो वधेऽस्याऽपीत्यमर्षाल्लज्जित: स्वयम्। सौमित्रि: खरमूर्धानं क्षुरप्रेणाऽच्छिदत् क्षणात् ॥३१॥ दूषणो लक्ष्मणेनाऽपि ससैन्यो यो मुद्यत: । सञ्जहे कुञ्जर इव सयूथो दववह्निना ॥३२॥ पाततः सार्धं विराधेन ववले रामसोदरः। स्फुरद्वामेक्षण: काममाशंसन्नार्ययो: शुभम् ॥३३॥ गत्वा दूरमपश्यच्च रामभद्रं द्रुमान्तरे । सीताविरहितं दृष्ट्वा विषादं परमं ययौ ॥३४॥ पुर:स्थमपि सौमित्रिमपश्यन् रघुपुङ्गवः । सीताविरहशल्येन पीडित: खेऽब्रवीदिति ।।३५।। वनं भ्रान्तमिदं तावन्मया दृष्टा न जानकी। युष्माभिः किं न सा दृष्टा ? ब्रूत हे वनदेवता:! ॥३६॥ अमुष्मिन् भीषणेऽरण्ये भूत-श्वापदसङ्कुले। विमुच्यैकाकिनी सीतां लक्ष्मणाय गतोऽस्म्यहम् ।।३७|| रक्षोभटसहस्राग्रे संयत्येकं च लक्ष्मणम् । मुक्त्वा भूयोऽहमत्राऽऽगामहो! धीर्मम दुर्धियः ॥३८॥ हा सीते! निर्जनेऽरण्ये कथं मुक्ता मया प्रिये! ? | हा वत्स! लक्ष्मण! कथं मुक्तोऽसि रणसङ्कटे ? ॥३९।। एवं ब्रुवन् रामभद्रो मूर्च्छया न्यपतत् क्षितौ । क्रन्दद्भिः पक्षिभिरपि वीक्ष्यमाणो महाभुजः ॥४०॥ लक्ष्मणोऽप्यब्रवीदेवार्याऽऽर्य! किमिदं ननु ? । तवाऽयं लक्ष्मणो भ्राता जित्वाऽरीन् समुपस्थितः ॥४१॥ पीयूषेणेव संसिक्तो रामभद्रस्तया गिरा । लब्धसञो ददर्शाऽग्रे संस्वजे च निजानुजम् ॥४२॥ उदश्रुरूचे सौमित्रिः सिंहनादस्य कारणम् । जानकीहरणमिदं ध्रुवं कस्याऽपि मायिनः ॥४३।। तस्य प्राणैः सहैवाऽहमाहरिष्यामि जानकीम् । तत्प्रवृत्त्युपलम्भाय सम्प्रति प्रयतामहे ॥४४॥ पाताललकाराज्ये च स्थाप्यतामेष पैतृके। विराधः प्रतिपन्नं हि मयाऽमुष्मै खराहवे ॥४५।। सीताप्रवृत्तिमानेतुं विद्याधरभटानथ । प्रजिघाय विराधस्तावारिराधयिषुः प्रभू ॥४६॥ काकुत्स्थौ तस्थतस्तत्र शोकानलकैरालितौ । मुहुर्मुहुनि:श्वसन्तौ निर्दशन्तौ क्रुधाऽधरम् ॥४७॥ दूरं विद्याधरा: भ्रान्त्वा विराधप्रहिताश्च ते। सीताप्रवृत्तिं न प्रापुस्त!त्याऽस्थुरधोमुखाः ॥४८॥ तेषामधोमुखत्वेन ज्ञात्वा रामोऽब्रवीदिति । स्वामिकार्ये यथाशक्ति साधु युष्माभिरुद्यतम् ॥४९॥ सीताप्रवृत्तिर्न प्राप्ता को दोषस्तत्र वो भटा:! ? । दैवस्य विपरीतस्य के यूयं कोऽपरोऽथवा ? ॥५०।। नत्वा विराधोऽप्यवदन्मा निर्वेदं कृथा: प्रभो! । अनिर्वेदः श्रियो मूलं तव भृत्योऽस्मि नन्वहम् ॥५१॥ एहि पाताललङ्कायां निवेशयितुमद्य माम् । सीताप्रवृत्ति: सुलभा तत्र भर्तुर्भविष्यति ॥५२।। विराधेन ससैन्येन ततो रामः सलक्ष्मणः । ययौ पाताललङ्काया: पुर्याः परिसरावनौ ॥५३॥ पतत्राऽरिसूदन: सुन्दो नाम रक्षः खरात्मजः । सम्मुखीनो रणायाऽऽगान्महासैन्यसमावृतः ॥५४॥ पुरोगेण विराधेन समं पूर्वविरोधिना। सुन्दश्चक्रे रणं घोरं सद्यः पितृवधक्रुधा॥५५॥ अथो रणस्थे काकुत्स्थे सुन्दश्चन्द्रणखागिरा। सद्यः प्रणश्य लङ्कायां रावणं शरणं ययौ ॥५६॥ तत: पाताललङ्कायां प्रविश्य रघुपुङ्गवौ । निवेशयामासतुस्तं विराधं पैतृके पदे॥५७॥ प्रासादे खरराजस्य तस्थतू राम-लक्ष्मणौ । युवराज इव पुनर्विराध: सुन्दवेश्मनि ॥५८॥ पाइतश्च साहसगतेश्चिरं ताराभिलाषिणः । सिद्धा प्रतारणी विद्या हिमवगिरिकन्दरे ॥५९॥ तया सुग्रीवरूपः स कामरूप इवाऽमरः। जगाम किष्किन्धपुरे द्वितीयोऽर्क इवाऽम्बरे॥६०॥ क्रीडा) बहिरुद्याने सुग्रीवे च गते तदा । स तदन्तःपुरमगात् तारादेवीविभूषितम् ॥६१।। आगाच्च सत्यसुग्रीवो द्वारि च द्वारपालकैः । स्खलितोऽग्रे गतो राजा सुग्रीव इति वादिभिः ॥६२॥ सुग्रीवद्वितयं दृष्ट्वा सन्देहाद्वालिनन्दनः । शुद्धान्तविप्लवं त्रातुं तवारं त्वरितं ययौ ॥६३॥ शुद्धान्ते विटसुग्रीवः प्रविशन् वालिसूनुना। मार्गाद्रिणा सरित्पूर इव प्रस्खलितस्ततः॥६४॥ १. लक्ष्मणेन ॥२. रावणात् ॥ ३. पशुना॥४. स्फुरद् वामं ईक्षणं-नेत्रं यस्य सः ।। ५. राम-सीतयोः॥६.दुमान्तरे ता.॥७. च परं ता.॥८. रघुनन्दनः छा. पा. ॥ ९. आकाशे-आकाशाभिमुखं दृष्ट्वा ।। १०. गतोऽस्मि हा! मु., खं.१-२॥११. “सङ्ग्रामे" इति ला.टि.॥१२. मुक्तधी(धै)र्योऽह० ला. ॥ १३. ०मार्याय मु.॥१४. समुपा. मु.॥ १५. आलिलिङ्ग ।। १६. मया दातुं प्रतिज्ञातम् ॥ १७. खरसङ्ग्रामे ॥१८. प्रेषितवान् ॥१९. ०परिप्लुतौ ता. ॥ २०. Jain Education समन्वितम् मो. ।। २१. अन्त:पुरोपद्रवम् ॥ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं 'अथाऽमिलन् सैनिकानामक्षौहिण्य'श्चतुर्दश । आहूतानि जगत्सारसर्वस्वानीव सर्वतः ॥ ६५ ॥ द्वयोरपि तयोर्भेदमजानन्तोऽथ सैनिकाः । सत्यसुग्रीवतोऽर्थेऽर्धे विटसुग्रीवतोऽभवन् ॥ ६६॥ ततः प्रववृते युद्धं सैन्ययोरुभयोरपि । कुन्तपातैर्दिवं कुर्वदुल्कापातमयीमिव ॥६७॥ युयुधे सादिना सादी निर्षांदी च निषादिना । पदातिना पदातिश्च रथिको रथिकेन च ॥ ६८ ॥ चतुरङ्गचमूचक्रविमर्दादथ मेदिनी । अवाप कम्पं मुग्धेव प्रौढप्रियसमागमात् ॥ ६९ ॥ एह्येहि रे परगृहप्रवेशश्वन्निति ब्रुवन् । विटसुग्रीवमुद्ग्रीवः सुग्रीवो योद्धुमाह्वत ॥७०॥ ततश्च विटसुग्रीवो मत्तेभ इव तर्जितः । ऊर्जितं गर्जितं कुर्वन् सम्मुखीनो युधेऽभवत् ॥ ७१ ॥ युयुधाते महायोधौ तौ क्रोधारुणलोचनौ । विदधानौ जगत्त्रासं कीनाशस्येव सोदरौ ॥७२॥ तौ निशातैर्निर्शातानि शस्त्रैः शस्त्राण्यथो मिथः । चिच्छिदाते तृणच्छेदं रँणच्छेकावुभावपि ॥७३॥ शस्त्रखण्डैरुच्छलद्भिर्दुद्रुवे खेचरीगणः । महायुद्धे तयोर्वृक्षखण्डो महिषयोरिव ॥७४॥ १९० तौ छिन्नास्त्रावथाऽन्योऽन्यममर्षणशिरोमणी । मल्लयुद्धेनाऽऽस्फलतां पर्वताविव जङ्गमौ ॥७५॥ उत्पतन्तौ क्षणाद् व्योम्नि निपतन्तौ क्षणाद् भुवि । ताम्रचूडाविवाऽभातां वीरचूडामणी उभौ ॥७६॥ तौ द्वावपि महाप्राणौ मिथो जेतुमनीश्वरौ । अपसृत्य च दूरेण वृषभाविव तस्थतुः ॥७७॥ [साहाय्यकार्थं सुग्रीवः समाहूयाऽञ्जनासुतम् । भूयोऽपि युयुधे मायासुग्रीवेणोग्रकर्मणा ॥७८॥ हनूमतः पश्यतोऽपि द्वयोर्भेदमजानतः । कुट्टयामास सुग्रीवं विटसुग्रीव उत्कटः ॥७९॥ पुनर्युद्धेन सुग्रीवः खिन्नः खिन्नैतनुस्ततः । बहिर्निर्गत्य किष्किन्धपुरादावासमग्रहीत् ॥८०॥ तत्रैव विटसुग्रीवस्तस्थावस्वस्थमानसः । अन्तःपुरप्रवेशं च न लेभे वालिनन्दनात् ॥ ८१ ॥ सुग्रीवो न्यञ्चितग्रीवमथैवं पर्यचिन्तयत् । अहो ! स्त्रीलम्पट : कूटपटुः कोऽप्येष नो द्विषन् ॥८२॥ आत्मीया अप्यनात्मीया द्विषन्मायावशीकृताः । अहो बभूवुस्तदसाववस्कन्दो निजैर्हयैः ॥ ८३॥ मायापराक्रमोत्कृष्टः कथं वध्यो द्विषन्मया ? । धिग् मां पराक्रमभ्रष्टं वालिनौम्नस्त्रपाकरम् ॥८४॥ धो महाबलो वाली योऽखण्डपुरुषव्रतः । राज्यं तृणमिव त्यक्त्वा जगाम परमं पदम् ॥८५॥ चन्द्ररश्मिः कुमारो मे बलीयान् जगतोऽप्यसौ । किं तु द्वयोरभेदज्ञः कं रक्षतु निहन्तु कम् ? ॥८६॥ इदं तु विदधे साधु साध्वहो चन्द्ररश्मिना । तस्य पापीयसो रुद्धं शुद्धान्ते यत् प्रवेशनम् ॥८७॥ वधाय बलिनोऽमुष्य बलीयांसं श्रयामि कम् ? । यद् घात्या एव रिपवः स्वतोऽपि परतोऽपि वा ॥ ८८ ॥ भूर्भुवःस्वस्त्रयीवीरं मरुत्तमखभञ्जनम् । भजामि विद्विषद्धातहेतवे किं दशाननम् ? ॥८९॥ असौ किं तु प्रकृत्या 'स्त्रीलोलस्त्रैलोक्यकण्टकः । तं च मां च निहत्याऽऽशु तारामादास्यते स्वयम् ॥९०॥ ईदृशे व्यसने प्राप्ते साहाय्यं कर्तुमीश्वरः । आसीत् खरः खरतरो राघवेण हतः स तु ॥ ९१ ॥ तावेव राम - सौमित्री गत्वा मित्रीकरोमि तत् । तत्कालोपनतस्याऽपि 'यौ विराधस्य राज्यदौ ॥९२॥ तौ तु पाताललङ्कायामलङ्कर्मीणदोर्बलौ । विराधस्योपरोधेन तथैवाऽद्याऽपि तिष्ठतः ॥ ९३|| एवं विमृश्य सुग्रीवोऽनुशिष्य रहसि स्वयम् । विराधपुर्यां विश्वासास्पदं दूतं न्योयजयत् ॥९४॥ गत्वा पाताललङ्कायां विराधाय प्रणम्य सः । स्वामिव्यसनवृत्तान्तं कथयित्वाऽब्रवीदिदम् ॥ ९५ ॥ महति व्यसने स्वामी पतितो नस्तदीदृशे । राघवौ शरणीकर्तुं तव द्वारेण वाञ्छति ॥९६॥ द्रुतमायातु सुग्रीवः सतां सङ्गो हि पुण्यतः । तेनेत्युक्तो दूत एत्य सुग्रीवाय शशंस तत् ॥ ९७॥ १. अथाऽऽगच्छन् मो. ॥ २. हे. प्रतौ टिप्पण्यत्रैवं “पत्ती सेणा सेणामुहं च गुम्मं च वाहिणी चेव । पियणा चमू अणीगिणी दसगुणिआ अक्खोहिणी होई ॥” "नवसहस्स गयवरेहिं नवहिं लक्खेहिं रहवराणं च । नवकोडीहिं हयाणं नराण नवकोडिकोडीहिं ॥” (सप्तमं पर्व ३. अश्वारोही ।। ४. गजारोही ।। ५. प्रवेशिन्निति तं ब्रु० मु.; " श्वानः" इति ला. टि.; हे परगृहप्रवेशे श्वन्-श्वान! इत्यर्थः ॥ ६. तीक्ष्णानि ।। ७. रणदक्षौ ॥ ८. महायुधि ता ॥ ९. वृक्षसमूहः ॥ १०. हनूमन्तम् ॥ ११. युयुधे च तदा सार्धं सुग्री० पाता ।। १२. “प्रस्वेदितः" इति ला. टि. ।। १३. “नम्रीकृतः” इति ला. टि. ।। १४. निजैरेवाऽश्वैर्निजस्यैव पीडनम् ॥ १५. वालिराजस्य नाम्नि लाञ्छनकरम् ॥ १६. च ता ॥ १७. वा द्वि० पाता. ।। १८. स्त्रीलम्पटः ॥ १९. तौ ला. विना ॥ २०. ०सभूतं ला. विना ॥ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः ) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । प्रचचालाऽथ सुग्रीवोऽश्वानां 'ग्रैवेयकस्वनैः । दिशो मुखरयन् सर्वा वेगाद् 'दूरमदूरयन् ।। ९८ । पाताललङ्कां स प्राप क्षणेनाऽप्युपवेश्मवत् । विराधमुपतस्थे चाऽभ्युत्तस्थौ सोऽपि तं मुदा ॥९९॥ विराधोऽपि पुरोभूय रामभद्राय तायिने । तं नमस्कारयामास तद्दुःखं च व्यजिज्ञपत् ॥१००॥ सुग्रीवोऽप्येवमूचेऽस्मिन् दुःखे त्वमसि मे गतिः । क्षुते हि सर्वथा मूँढे शरणं तरणिः खलु ॥ १०१ ॥ स्वयं दुःख्यपि तद्दुःखच्छेदं रामोऽभ्युपागमत् । स्वकार्यादधिको यत्नः परकार्ये महीयसाम् ॥१०२॥ सीताहरणवृत्तान्तं विराधेनाऽवबोधितः । रामं विज्ञापयामास सुग्रीवोऽथ कृताञ्जलिः ॥१०३॥ त्रायमाणस्य ते विश्वं तथा द्योतयतो रवेः । न काऽपि कारणापेक्षा देव! वच्मि तथाऽप्यदः ॥ १०४॥ त्वत्प्रसादात् क्षतारिः सन् ससैन्योऽस्मि तवाऽनुगः । आनेष्यामि प्रवृत्तिं च सीताया नचिरादहम् ॥१०५॥ ससुग्रीवः प्रतस्थे च किष्किन्धां प्रति राघवः । विराधमनुगच्छन्तं सम्बोध्य विससर्ज च ॥ १०६ ॥ रामभद्रेऽथ किष्किन्धापुरद्वारमधिष्ठिते । सुग्रीवो विटसुग्रीवमाह्वास्त रणकर्मणे ॥१०७॥ निनदन् विटसुग्रीवोऽप्यागादाह्वानमात्रतः । रणाय नाऽलसाः शूरा भोजनाय द्विजा इव ॥१०८॥ दुर्धरैश्चरणन्यासैः कम्पयन्तौ वसुन्धराम् । तावुभावप्ययुध्येतां मत्ताविव वनद्विपौ ॥१०९॥। राम: सरूपौ तौ दृष्ट्वा कोऽस्मदीयः ? परश्च क: ? । इति संशयतस्तस्थावुदासीन इव क्षणम् ॥ ११० ॥ भवत्वेवं तावदिति विमृशन् रघुपुङ्गवः । वज्रावर्त्ताभिधधनुष्टङ्कारमकरोत् ततः ॥ १११ ॥ धनुष्टङ्कारतस्तस्मात् सा साहसगतेः क्षणात् । रूपान्तरकरी विद्या हरिणीव पलायत ॥ ११२ ॥ विमोह्य मायया सर्वं परदारै रिरंसेंसे ? । पापाऽरोपय रे ! चापमिति रामस्ततर्ज तम् ॥ ११३ ॥ एकेनाऽपीषुणा प्राणांस्तस्याऽहार्षीद् रघूद्वहः । न द्वितीया चपेटा हि 'हरेर्हरिणमारणे ॥११४॥ विराधमिव सुग्रीवं रामो राज्ये न्यवेशयत् । सुग्रीवोऽपि स्वलोकेन प्राग्वदेवाऽनमस्यत ॥११५॥ त्रयोदश निजाः कन्या दातुमत्यन्तसुन्दरीः । रामभद्रमयाचिष्ट प्राञ्जलिर्वानरेश्वरः ॥ ११६ ॥ रामोऽप्युवाच सुग्रीवें ! सीतान्वेषणकर्मणे । प्रयतस्व किमेताभिरपरेणाऽपि वस्तुना ॥११७॥ इत्युक्त्वा बहिरुद्याने गत्वा तस्थौ रघूद्वहः । सुग्रीवोऽपि तदादेशात् प्रविवेश निजां पुरीम् ॥ ११८ ॥ "इतश्च पुर्यां लङ्कायां रावणान्तःपुरस्त्रियः । खरादिहननोदन्तान्मन्दोदर्यादयोऽरुदन् ॥ ११९॥ ती सह सुन्देन स्वसा चन्द्रणखाऽपि च । प्राविशद् रावणगृहं पाणिभ्यां कुट्टयन्त्युरः ॥ १२० ॥ दृष्ट्वा च रावणं कण्ठे लगित्वोच्चतरस्वरम् । रुदती निजगादैवं दैवेन निहताऽस्मि हा! ॥१२१॥ हतः पुत्रो हतो भर्ता हतौ च मम देवरौ । चतुर्दश सहस्राणि हताश्च कुलपत्तयः ॥ १२२ ॥ पाताललङ्का चाऽऽच्छिन्ना राजधानी त्वदर्पिता । दर्पवद्भिर्विद्विषद्भिर्बन्धो! जीवत्यपि त्वयि ॥ १२३॥ ། ग्राहं प्रणश्याऽहं सुन्देन सह सूनुना । त्वां शरण्यमिहाऽऽयाता कुत्र तिष्ठामि शाधि ? माम् ॥ १२४॥ अबोधयद् दशास्योऽपि रुदतीं तां ससौष्ठवः । त्वद्भर्तृ-पुत्रहन्तारं हनिष्याम्यचिरादपि ॥ १२५॥ शोकेन तेन वैदेही विप्रलम्भरुजाऽपि च । फालच्युत इव द्वीपी तल्पे तस्थौ निपत्य सः ॥ १२६ ॥ ||अथ मन्दोदरी देवी तमुपेत्याऽभ्यधादिति । कथं प्राकृतवत् स्वामी निश्चेष्ट इव तिष्ठसि ? ॥१२७॥ रावणोऽप्यब्रवीदेवं वैदेहीविरहज्वरात् । न चेष्टितुं न वक्तुं च न चाऽऽलोकयितुं क्षमः ॥१२८॥ मया चेज्जीवता तेऽर्थस्तन्मानं प्रोज्झ्य मानिनि ! । गत्वाऽनुनय वैदेहीं यथा मयि रिरंसते ॥ १२९ ॥ नाऽन्यनारीमनिच्छन्तीं भुञ्जे जातुचिदप्यहम् । अर्गला नियमो ह्यत्र ममाsस्ति गुरुसाक्षिकः ॥ १३० ॥ पीडिता पीडया पत्युः कुलीना साऽपि तत्क्षणम् । जगाम देवरमणोद्याने सीतामुवाच च ॥१३१॥ एषा मन्दोदरी नाम दशाननमहिष्यहम् । प्रत्स्ये त्वयि दासीत्वं भजस्व दशकन्धरम् ॥१३२॥ १९१ १. कण्ठाभरणशब्दैः ॥ २. दूरमपि समीपीकुर्वन् । ३. उपवेश्म अङ्गणम् ॥ ४. मतिः ता. ॥ ५. छिक्कायाम् ॥ ६. नष्टे ।। ७. सूर्यः ।। ८. तं दुःखछेदं हे. कां., तद्दुःखं छेत्तुं मु. ॥ ९. विज्ञपया० ला. ॥ १०. ससैन्योऽपि छा. पा. मु., पाता. ॥। ११. दुर्धरैश्च रणन्यासै: मु. १ ॥ १२. पलायिता कां. ॥ १३. रन्तुमिच्छसि ? ।। १४. सिंहस्य ।। १५. सुग्रीवं सीतान्वेषणहेतवे मु. प्रभृतिषु ।। १६. रुदन्ती खं. १ - २, पाता. ला. ॥ १७. जीवं गृहीत्वा ।। १८. सीताविरहपीडयाऽपि ॥ १९. व्याघ्रः ॥ २०. पामरजनवत् ।। २१. त्यक्त्वा ।। २२. स्वीकरिष्यामि ॥ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (सप्तमं पर्व सीते! त्वमेव धन्याऽसि यां'सिसेविषतेऽनिशम्। विश्वसेव्यांहिकमल: पतिर्मम महाबलः॥१३३॥ अद्याऽपि तव रामेण भूचरेण तपस्विना । पत्तिमात्रेण किं पत्या ? प्राप्यते चेद् दशाननः ॥१३४॥ रुषा बभाषेसीतैवं क्व सिंह:? क्व च जम्बुक:? । क्व सुपर्ण:? क्वाऽपि काकः? व राम:? क्व च ते पति:? ॥१३५॥ दम्पतित्वमहो युक्तं तव तस्य च पाप्मनः । रिरंसुरेकोऽन्यस्त्रीषु दूती भवति चाऽपरा ॥१३६।। द्रष्टुमप्युचिता नाऽसि किमु सम्भाषितुं हले! ? । स्थानादितो गच्छ गच्छ त्यज दृष्टिपथं मम ॥१३७॥ रावणोऽपि तदा तत्राऽऽजगाम निजगाद च । कुपिताऽसि कुत: सीते! दासी मन्दोदरी तव ॥१३८॥ दासस्ते स्वयमप्यस्मि प्रसादं कुरु देवि! मे । जानकि!त्वं जनममुं प्रीणासि न दृशाऽपि किम् ? ॥१३९॥ सीता पराङ्मुखीभूयेत्यभाषत महासती । कृतान्तदृष्ट्या दृष्टोऽसि हरन्मां रामगेहिनीम् ॥१४०॥ धिगाशां ते हताशस्याऽप्रार्थितप्रार्थकस्य रे! । जीविष्यसि कियद् रामे सानुजे द्विषदन्तके ॥१४१।। तयेत्याक्रुश्यमानोऽपि भूयो भूयो दशाननः । तथैवोवाच धिगहो! कामावस्था बलीयसी॥१४२॥ अत्राऽन्तरे विपन्मनां सीतां द्रष्टमिवाऽक्षमः । निममज्ज निधिर्धाम्नां पश्चिमे लवणाम्बुधौ ॥१४३|| प्रावर्तत निशा घोरा घोरबुद्धिश्च रावणः । सीतायै क्रोध-कामान्ध उपसर्गान् प्रचक्रमे ॥१४४॥ घूत्कारिणो महाघूका: फेत्कुर्वाणाश्च फेरवः । वृका विचित्रं क्रन्दन्त: ओतवोऽन्योऽन्ययोधिनः ॥१४५।। पुच्छाच्छोटकृतो व्याघ्रा: फूत्कुर्वाणा: फणाभृतः । पिशाच-प्रेत-वेताल-भूताश्चाऽऽकृष्ट कत्रिकाः ॥१४६।। उल्ललन्तो दुर्ललिता: यमस्येव सभासदः । विकृता रावणेनेयुरूंपसीतं भयङ्कराः ॥१४७॥त्रिभिर्विशेषकम्।। ध्यायन्ती मनसा पञ्चपरमेष्ठिनमस्क्रियाम् । सीता तस्थावभीतैव न तु भेजे दशाननम् ॥१४८।। बिभीषण: प्रभाते तु निशावृत्तं निशम्य तत् । आगादुपदशग्रीवं सीतां चैवमवोचत ।।१४९।। भद्रे! का त्वं ? कुत: स्थानात् ? कस्य चाऽसि ? किमत्र च? | मा भैषीः सर्वमाख्याहि परस्त्रीसोदरस्य मे ॥१५०॥ तं मध्यस्थं परिज्ञाय सीताऽप्याख्यदधोमुखी । अहं जनकपुत्र्यस्मि सीता भामण्डलस्वसा ॥१५१॥ गृहिणी रामभद्रस्य स्नुषा दशरथस्य च । समं पत्या सानुजेन दण्डकारयेमागमम् ।।१५२।। तत्रैकदा देवरो मे क्रीडयेतस्ततो भ्रमन् । खे महासिं ददर्शकं जग्राह च कुतूहलात् ॥१५३।। अभ्यर्णस्थां वंशजालीं तेन चिच्छेद सोऽसिना। अज्ञानाच्च तदन्त:स्थतत्साधकशिरोऽच्छिदत् ॥१५४॥ अयुध्यमानोऽनोगस्कः कोऽप्ययं हा! हतो मया । सानुताप इव भ्रातुः समीपं स उपागमत् ॥१५५।। तस्याऽसिसाधकस्यैव काचिदुत्तरसाधिका । मद्देवरस्याऽनुपदं तत्र कोपादुपागमत् ॥१५६॥ भर्तारं मम दृष्ट्वा चाऽद्भुतरूपपुरन्दरम् । रेन्तुं ययाचे कामार्ताऽवाज्ञासीत् तां च मत्पतिः ॥१५७॥ साऽगच्छदार्गमदथ रक्षसां बलमुल्बणम् । क्ष्वेडां वैधुर्यसङ्केतीकृत्याऽगाल्लक्ष्मणो युधि ॥१५८॥ मायाक्ष्वेडामथो कृत्वा दूरं नीत्वा च मत्पतिम् । दुराशोऽहत मामेष स्ववधायैव राक्षसः ॥१५९।। तच्छ्रुत्वा रावणं नत्वा बभाषे च बिभीषणः । कुलस्य दूषणमिदं स्वामिन्! कर्म त्वया कृतम् ॥१६०॥ न यावदिह हन्तुं न: काकुत्स्थोऽभ्येति सानुजः । मुच्यतां तावदाश्वेव नीत्वा सीता तदन्तिके ॥१६१।। इत्युक्ते रावण: क्रोधारुणाक्षोऽप्यब्रवीदिति । किमिदं भाषसे भीरो! व्यस्मार्षीर्मम पौरुषम् ? ॥१६२॥ सीताऽनुनीताऽवश्यं हि मम भार्या भविष्यति । तौ चाऽऽयातौ हनिष्यामि वराकौ राम-लक्ष्मणौ ॥१६३।। ऊचे बिभीषणो भ्रात:! सत्यं तज्ज्ञानिनो वचः । यद् रामपत्न्या: सीतायाः कृते न: कुलसङ्क्षयः ।।१६४॥ भक्तस्य बन्धोर्मे वाचं मन्यसे नाऽन्यथा कथम् ? । मया हतो दशरथ: स तावज्जीवित: कथम् ? ||१६५॥ न यद्यप्यन्यथाभावि भावि वस्तु महाभुज! तथाऽपिप्रार्थ्यसे मुञ्चसीतां नः कुलघातिनीम्॥१६६।। १. सेवितुमिच्छति ॥२.शृगालः॥३. गरुडः॥४. कुपिताऽपि ता.॥५. यमदृष्ट्या॥६. शत्रुषु यमोपमे॥७. सूर्यः।। ८.शृगालाः॥९. कर्चिका-छुरिका ।।१०. उच्छलन्तः ॥ ११. दुर्विनीताः ॥ १२. सीतासमीपम् ॥ १३. माश्रिता खं.२ ॥ १४. समीपस्थानम् ॥ १५. निरपराधी ॥ १६. उपाविशत् ता. ॥ १७. उपेयुषी खं.१, ला.; दुपेयिवान् खं.२, ला. हे. ॥ १८. अयाचीत्तं च कामात० ला.; अयाचीद्रन्तुकामार्ता० मु. खं.१, हे.प्रभृतिषु ।। १९. दागमच्चाऽथ ता. ॥ २०."उत्कटं" इति ला.टि. ॥ २१. वैधुर्ये-सङ्कटसमये क्ष्वेडा(सिंहनाद) सङ्केतीकृत्य ॥ २२. दुराशो मां जहारैष खं.२, ता.॥ २३. सीता नीता मयाऽवश्यं पाता. ॥ Jain Education Interational Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम्। 'अनाकर्णितकेनेव बिभीषणगिरामथ'। आरोप्य पुष्पके सीतां भ्रमन्नेवमदर्शयत्॥१६७॥ अमी क्रीडाद्रयो रत्नसानव: स्वादुनिर्झरा: । नन्दनोद्यानसोदर्याण्यमून्युपवनानि च ॥१६८॥ यथाकामीनवृष्टीनि धारावेश्मान्यमूनि च । अमूश्च केलिकूलिन्य: सहंसा हंसगामिनि! ॥१६९।। एतानि रतिवेश्मानि स्वर्गखण्डोपमानि च । मया स । मया सह रमस्वैषु सुभ्र! यत्र रतिस्तव ॥१७०॥ ध्यायन्ती रामपादाब्जे हंसीव जनकात्मजा। वसुन्धरेव धैर्येण चुक्षोभ न हि तद्गिरा ॥१७१॥ सर्वेषु रम्यस्थानेषु भ्रान्त्वा भ्रान्त्वा दशाननः । मुमोचाऽशोकवनिकामध्ये भूयोऽपि जानकीम् ।।१७२।। प्रेक्ष्योन्मत्तमिव ज्येष्ठं वाचोयुक्तेरगोचरम् । बिभीषणो मन्त्रयितुं कुलामात्यानथाऽऽह्वयत् ।।१७३।। ऊचे च भो: कुलामात्या:! कामाद्या ह्यान्तरद्विषः । भूता इवैते तेष्वेकोऽप्युन्मथ्नाति प्रमादिनम् ।।१७४।। कामं कामातुर: स्वामी कामस्त्वेकोऽपि दुर्जयः । किं पुन: कृतसाहाय्य: परनारीरिरंसया ? ॥१७५।। तदत: परमत्यन्तं महति व्यसनार्णवे। पतिष्यति पतिर्लङ्कापुर्या दोष्मानपि द्रुतम् ।।१७६॥ अथ ते मन्त्रिण: प्रोचुर्वयं नाम्नैव मन्त्रिण: । त्वमेव मन्त्री मन्त्रात् तु यस्येदृग्दूरदर्शिता ॥१७७॥ किं करोति परं मन्त्रः प्रभौ कामवशंवदे ? । मिथ्यादृष्टौ जने जैनधर्मस्येवोपदेशनम् ॥१७८॥ सुग्रीव-हनुमन्मुख्या मिलिता राघवस्य ते। महात्मनां न्यायभाजां कः पक्षं नाऽवलम्बते ? ॥१७९।। सीतानिमित्तो क्ष्विाकाज्ज्ञान्युक्तो न: कुलक्षयः । तथाऽपि पुरुषाधीनं कर्तव्यं समयोचितम् ॥१८०।। ततो बिभीषणश्चक्रे वगै यन्त्रादिरोपणम् । अनागतं हि पश्यन्ति मन्त्रिणो मन्त्रचक्षुषा ॥१८१।। पाइतश्च कालं कमपि कथमप्यत्यवाहयत् । सौमित्रिणाऽश्वास्यमानो रामो विरहपीडितः ॥१८२॥ अनुशिष्याऽथ रामेण प्रेषितो लक्ष्मण: स्वयम् । प्रतस्थे प्रति सुग्रीवं तूण-चाप-कृपाणभृत् ॥१८३।। दलयन मां पदन्यासै: कम्पयंस्तं च पर्वतम् । वेगान्दोलितदो:स्पर्शान्मार्गवृक्षांश्च पातयन् ॥१८४॥ उत्कटभृकुटीभीमललाटोऽरुणलोचनः । भीतैःस्थैर्मुक्तमार्ग: प्राप सुग्रीववेश्म सः॥१८५।युग्मम्।। आयातं लक्ष्मणं श्रुत्वा निर्गत्याऽन्तःपुराद् द्रुतम् । उपतस्थे कपिराज: कम्पमानवपुर्भयात् ॥१८६।। ऊचे च लक्ष्मण: क्रुद्धः कृतकृत्योऽसि वानर! | सुखं तिष्ठसि निःशङ्क: स्वान्तःपुरसमावृतः ? ||१८७। स्वामी तरुतलासीनो दिवसानब्दसन्निभान् । यथाऽत्येति न तद् वेत्सि प्रतिपन्नं च विस्मृतम् ? ॥१८८॥ सीताप्रवृत्तिमानेतुमुत्तिष्ठस्वाऽधुनाऽपि हि। मा साहसगतेर्मार्गं गम: सङ्कुचितो न सः॥१८९॥ पतित्वा पादयोस्तस्य सुग्रीवोऽथाऽब्रवीदिति । प्रसीदैकं प्रमादं मे सहस्वाऽसि प्रभुर्यतः ॥१९०॥ एवमाराध्य सौमित्रिमग्रे कृत्वा कपीश्वरः । द्रुतं ययौ रामभद्रं नमश्चक्रे च भक्तितः ॥१९१।। इत्यादिशच्च स्वान् सैन्यान् भो भोः! सर्वेऽपि दोर्भूतः! । सर्वत्राऽस्खलिता यूयं गवेषयत मैथिलीम् ॥१९२।। इत्युक्तास्तेन ते सैन्या द्वीपेष्वद्रिषु सिन्धुषु । भूमिरन्ध्रेष्वथाऽन्यत्र त्वरितत्वरितं ययुः ।।१९३।। सीताहरणमाकर्ण्य तदा भामण्डलोऽपि हि। आगमद् राममस्थाच्च से इवाऽत्यन्तदःखितः ॥१९४॥ विराधोऽपि समं सैन्यैः स्वामिव्यसनपीडितः । एत्य शुश्रूषमाणोऽस्थात् तत्रैव चिरपत्तिवत् ॥१९५।। सुग्रीवोऽपि स्वयं गच्छन् कम्बुद्वीपमुपाययौ । तं च रत्नजटी दृष्ट्वा दूरादेवमचिन्तयत् ॥१९६।। संस्मृत्य किं ममाऽऽगस्तत् प्रेष्ययं दशमौलिना । मद्वधाय महाबाहुः सुग्रीवो वानरेश्वर: ? ॥१९७।। हृता विद्या दशास्येन पुरा तावन्महौजसा । इदानीमेष मे प्राणान् हरिष्यति हरीश्वरः ॥१९८।। इति चिन्तापरं तं द्राक् सुग्रीवोऽगादुवाच च । नाऽभ्युदस्था: कथं मां त्वं ? व्योमयानेऽलसोऽसि किम् ? ॥१९९।। सोऽप्यभ्यधाद् दशास्येन विद्या मे सर्वतो हृता । जानकी हरतस्तस्य युद्धे ह्यहमुपस्थितः ॥२००।। ततश्च रामपादान्ते स नीतः कपिकेतुना। तेन विज्ञापित: सीतोदन्तमेवं व्यजिज्ञपत् ॥२०१।। १. अश्रुत्वा इव ।।२.०कथामथ पाता. ॥३. रत्नशिखरा: स्वादुजला निर्झरा येषु ते॥४. नन्दनवनसदृशानि॥ ५. यथेच्छवृष्टीनि॥६. क्रीडानद्यः ।।७. रमैतेषु पाता. ।। ८. ०मात्यानजूहवत् ता. ।। ९. ०स्त्वेको हि ता.विना ।। १०. परनारीरिरंसया साहाय्यं प्राप्त: काम: सुतरां दुर्जय इत्यर्थः ।। ११. प्रेरितो० हे. ॥ १२. वेश्मनि खं.२॥१३. सुग्रीवः ।। १४. तोऽथ स: ला.; स: - मृत्योर्मार्ग: न सङ्कुचितोऽपि तु विशाल एव, अत: साहसगतिरिव त्वमपि तन्मार्ग एव गमिष्यसि ।।१५. सह स्वामि प्र० खं.१-२, पाता.; सह स्वामिन्! प्र० ला.॥१६. राम इव ।। १७. कपीश्वर: खं.१, पाता.॥१८. नाऽभ्युत्थितवान् ।। १९. सुग्रीवेण|| Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (सप्तमं पर्व देव! देवी नृशंसेन सती सीता दुरात्मना। हृतालकापुरीशेन विद्या च मम'कुप्यतः॥२०२।। हा राम! वत्स सौमित्रे! भ्रातर्भामण्डलेति च। देव्यां रुदत्यां सीतायामकुप्यं दशमौलये ॥२०३॥ सीतोदन्तेन तेनाऽथ मुदितो रघुपुङ्गवः । सुरसङ्गीतपुरेशं रत्नजटिनमाश्लिषत् ॥२०४।। भूयो भूयोऽपि पप्रच्छ सीतोदन्तं रघूद्वहः । भूयो भूयोऽपि सोऽप्याख्यत् तन्मन:प्रीतिहेतवे ।।२०५।। अपृच्छद् रामभद्रस्तान् सुग्रीवादिमहाभटान् । इत: कियति दूरे सा लङ्कापूस्तस्य रक्षसः ॥२०६।। तेऽप्यूचुः किं तया पुर्याऽऽसन्नयाऽथ दविष्ठया । रावणस्य जगज्जिष्णोर्यत् सर्वे तृणवद् वयम् ॥२०७॥ रामोऽप्यूचे कृतं तस्य जय्याजय्यविचिन्तया। दर्शनप्रतिभूवन्नस्तं दर्शयत केवलम् ॥२०८॥ तस्य दर्शितमात्रस्य सामर्थ्य ज्ञास्यथाऽचिरात् । सौमित्रिमुक्तनाराचपीयमानगलासृजः ।।२०९।। बभाषे लक्ष्मणोऽप्येवं क एष ननु रावण: ? । सारमेय इवाऽसारच्छलेनैव चकार यः ॥२१०॥ क्षत्राचारेण तस्याऽहं छेत्स्यामि च्छलिन: शिरः। सङ्ग्रामनाटकं यूयं सभ्यीभूयैव पश्यत॥२११॥ जाम्बवान् व्याजहाराऽथ सर्वं वो युज्यते परम् । यो हि कोटिशिलोत्पाटी स हनिष्यति रावणम् ।।२१२।। साधुनाऽनन्तवीर्येणाऽऽख्यातं ज्ञानवता ह्यदः । अस्मत्प्रत्ययहेतोस्तत् समुत्पाटय तां शिलाम् ॥२१३।। एवमस्त्वित्युक्तवन्तं ते नयन्ति स्म लक्ष्मणम् । सपदि व्योमयानेन यत्र कोटिशिलाऽस्ति सा ॥२१४।। उच्चिक्षेप शिलां दोष्णा लक्ष्मणस्तां लतामिव । साधु साध्वित्युच्यमानस्त्रिदशैः पुष्पवर्षिभिः ॥२१५॥ सञ्जातप्रत्ययास्तेऽपि व्योमयानेन पूर्ववत्। किष्किन्धायां समानिन्युर्लक्ष्मणं रामसन्निधौ॥२१६॥ कपिवृद्धास्तत: प्रोचुर्युष्मत्तोरावणक्षयः । आदौ प्रेष्यो द्विषां दूत इति नीतिमतां स्थितिः॥२१७॥ सन्देशहारकेणाऽपि यदि सिध्येत् प्रयोजनम् । पर्याप्तं स्वयमुद्योगकर्मणा भूभुजां तदा ॥२१८।। समर्थः प्रेष्यतां तत्र कोऽपि दूतो महाभुजः । सा दुष्प्रवेशनिष्काशा लङ्का हि श्रयते क्षितौ ॥२१९।। गत्वा दूत: स लङ्कायां भणिष्यति बिभीषणम् । सीतार्पणकृते रक्ष:कुले स खलु नीतिवा(मा)न् ।।२२०॥ सीतां मोचयितुं सोऽपि रावणं बोधयिष्यति । रावणेन त्ववज्ञातस्त्वामेष्यति तदैव हि ॥२२१।। एवं वचसि तेषां तु रामेणाऽनुमते सति । श्रीभूतिं प्रेष्य सुग्रीवो हनूमन्तमथाऽऽह्वत ॥२२२॥ अथ रामं सभासीनं सुग्रीवादिसमावृतम् । नमश्चकार हनुमान् भानुमानिव तेजसा ॥२२३।। ततो रामाय सुग्रीवः शशंसैवमयं हि नः । विधुरे परमो बन्धुर्विनयी पोवनञ्जयिः ॥२२४॥ नाऽस्य तुल्यो द्वितीयोऽस्ति सर्वविद्याधरेष्वपि । सीताप्रवृत्तिलाभार्थं स्वामिन्नेनं तदादिश ॥२२५।। हनुमानप्युवाचैवं कपय: सन्त्यनेकश: । मत्प्राया: स्नेहतस्त्वेतद् वक्ति सुग्रीवभूपतिः ॥२२६॥ गवो गवाक्षो गवयः शरभ: गन्धमादनः । नीलो द्विविद-मैन्दौ च जाम्बवानङ्गदो नलः ॥२२७।। अन्येऽपि बहवः स्वामिन्! सन्तीह कपिपुङ्गवाः । तेषां सङ्ख्यापूरणोऽहमपि त्वत्कार्यसिद्धये ॥२२८।। लङ्कां सराक्षसद्वीपामुत्पाट्येह किमानये ? । बद्ध्वा सबान्धवमथाऽऽनयामि दशकन्धरम् ? ॥२२९।। सकुटुम्बं दशग्रीवं हत्वा तत्रैव वा द्रुतम् । देवीं जनकजामेवाऽऽनयामि निरुपद्रवाम् ? ॥२३०॥ रामोऽपि निजगादैवं सर्वं सम्भवति त्वयि । तद् गच्छ पुर्यां लङ्कायां सीतां तत्र गवेषयेः ।।२३।। मदुर्मिकामिमां देव्या मदभिज्ञानमर्पयेः । तस्याश्चूडामणिं चाऽभिज्ञानमत्र समानयेः ॥२३२॥ इदं मद्वाचिकं शंसेर्देवि! यल्लक्ष्मणाग्रजः । त्वद्वियोगातुरोऽत्यन्तं ध्यायंस्त्वामेव तिष्ठति ॥२३३।। मा त्याक्षीमद्वियोगेन जीवितं जीवितेश्वरि! । लक्ष्मणेन हतं द्रक्ष्यस्यचिरादेव रावणम् ।।२३४।। पहनुमानप्युवाचैवं यावदाज्ञां विधाय ते । लङ्काया: पुनरायामि तिष्ठेस्तावदिह प्रभो! ॥२३५।। १. कुप्यता ला. ॥ २. "तं बान्धवमिवाऽऽश्लिष्यत् , कम्बुद्वीपनरेश्वरम्” पाठां० इति ला.प्रतौ टि.; ता.प्रतावयं पाठश्च ।। ३. सोऽप्यूचे ला. ॥ ४. समीपस्थया दूरस्थया वा॥५. मार्गदर्शक('भोमिया' इति भाषा)वत् ।। ६. सौमित्रिणा मुक्तेन नाराचेन पीयमानं कण्ठशोणितं यस्य, तस्य ।। ७. तुच्छछलेन । ८. केऽपि वृ० ला.।। ९. कष्टेन प्रवेशो निष्काश:-निर्गमनं च यस्यां सा ॥१०. कृता ला., रसंपा. ॥ ११. त्वविज्ञात० ला.॥१२. पवनञ्जयस्याऽपत्यम् ।। १३. समादिश ता. ॥ १४. मत्तुल्याः ।। १५. द्विविदमेन्दौ ला. ॥१६. च जगादैवं ला.॥ १७. मम अङ्गुलीयकम् ।। १८. मम स्मृतिचिह्नम् ।। १९. मम JainEducation सन्देशम् ।। Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम्। इत्युक्त्वा राघवं नत्वा मारुति: सपरिच्छदः । लङ्कापुरीं प्रत्यचालीद् विमानेनाऽतिरंहसा॥२३६।। स गच्छन् नभसाऽपश्यन्महेन्द्रगिरिसानुनि । मातामहमहेन्द्रस्य महेन्द्रपुरपत्तनम् ।।२३७॥ एवं च दध्यौ हनुमान् महेन्द्रस्य पुरं ह्यदः । येन मेऽनपराधाऽपि माता निर्वासिता तदा ॥२३८॥ इति संस्मृत्य स क्रुद्धो रणतूर्यमवादयत् । ब्रह्माण्डं स्फोटयदिव दिमुखप्रतिशब्दितैः ।।२३९।। दृष्ट्वा परबलं राजा महेन्द्रोऽपीन्द्रविक्रमः । समं सैन्यैर्निरगमत् सपुत्रो रणकर्मणे ।।२४०।। महेन्द्र-हनुमच्चम्वोरजायत महारण: । व्योमन्युत्पातजीमूत इवाऽसृग्वृष्टिभीषणः ॥२४१।। प्राभञ्जनिर्बभञ्जाऽथ प्रभञ्जन इव द्रुमान् । परसैन्यान् क्षणेनाऽपि भ्रमन् वेगेन सङ्गरे ॥२४२।। प्रसन्नकीर्ति हेन्द्रिरयुध्यत हनूमता । निघ्नन्नशकं जामेयसम्बन्धमविदन्नथ ॥२४३॥ उभावपि महाबाहू उभावप्यत्यमर्षणौ । अन्योऽन्यं दृढयुद्धेन जनयामासतुः श्रमम् ॥२४४।। अथैव चिन्तयामास युध्यमानोऽपि पावनिः । आरम्भि धिग् मया युद्धं स्वामिकार्यविलम्बकृत् ॥२४५।। ये जीयन्ते क्षणात् तेऽन्ये मम मातृकुलं ह्यदः । तथाऽप्यारब्धनिर्वाहकृते जेतव्यमेव हि ॥२४६।। ध्यात्वेति हनुमान् क्रुद्धः प्रहारैर्मोहयन् क्षणात् । प्रसन्नकीर्ति जग्राह भग्नास्त्र-रथ-सारथिम् ॥२४७।। अग्रहीद् भृशमायोध्य महेन्द्रमपि मारुतिः । नत्वा चैवं समाचख्यौ नप्ता तेऽस्म्यञ्जनासुतः ।।२४८॥ रामाज्ञया च वैदेहीशुद्ध्यै लङ्कां व्रजन्नहम् । अत्राऽऽयात: समस्मार्षं मातृनिर्वासनं चिरात् ॥२४९।। जातामर्षेण तत् तात! योधितोऽसि सहस्व मे । स्वामिकार्याय यास्यामि याहि मत्स्वामिसन्निधौ ।।२५०।। महेन्द्रोऽपि समालिङग्य तमित्यचे महाभजम । प्राकच्छतोऽसि जनश्रुत्या दिष्ट्या दृष्टोऽद्य विक्रमी ॥२५।। गच्छ स्वस्वामिकार्याय पन्थान: सन्तु ते शिवाः । इत्युदित्वा महेन्द्रोऽगातु ससैन्यो राघवान्तिके ॥२५२।। पाव्योम्नाऽथ हनुमान् गच्छन् द्वीपे दधिमुखाभिधे । कायोत्सर्गे तस्थिवांसौ प्रेक्षाञ्चक्रे महामुनी ।।२५३।। तयोरनतिदरे चाऽपश्यत् तिम्र: कुमारिकाः। ध्यानस्था निरवद्याङ्गीविद्यासाधनतत्पराः ।।२५४।। दवानलस्तदा द्वीपे प्रजज्वालाऽखिलेऽपि हि । तौ साधू ता: कुमार्यश्च निपेतुर्दवसङ्कटे ॥२५५।। तद्वात्सल्येन हनुमान् विद्ययाऽऽदाय सागरात् । तं दवाग्निं मेघ इव शमयामास वारिभिः ॥२५६।। तदैव सिद्धविद्यास्ता: कन्या ध्यानस्थितौ तु तौ। मुनी प्रदक्षिणीकृत्य हनूमन्तं बभाषिरे ॥२५७|| साधूपसर्ग साधूनामरक्ष: परमार्हत! । त्वत्साहाय्येन विद्या न: सिद्धा: कालं विनाऽपि हि ॥२५८।। का यूयमिति तेनोक्ता: कन्यास्ता एवमब्रुवन् । अस्मिन् गन्धर्वराजोऽस्ति राजा दधिमुखे पुरे ॥२५९।। स्मस्तस्य कन्या: कुसुममालाकुक्षिभवा वयम् । तातं ययाचिरेऽस्मांस्तु बहवः खेचरेश्वराः ॥२६०॥ खेचरोऽङ्गारको नामोन्मत्तश्चाऽस्मत्कृतेऽभवत् । ननस्तस्मै न चाऽन्यस्मै ददौ तातस्त्वंरोचकी॥२६१।। मत्पुत्रीणां पतिः कः स्यादित्यपृच्छत् पिता मुनिम् । य: साहसगतेर्हन्ता स स्यादिति च सोऽवदत् ।।२६२।। तगिराऽन्वेषयंस्तातो नोपलेभे तु तं क्वचित् । विद्यासाधनमस्माभिस्तं ज्ञातुं च प्रचक्रमे ।।२६३।। विद्याभ्रंशनिमित्तं चाऽङ्गारकेण कृतो दवः । त्वया च शमित: साधु भो! निष्कारणबन्धुना ॥२६४॥ मासैः सिध्यति या षड्भिस्त्वत्साहाय्यात् क्षणादपि । सा मनोगामिनी नाम विद्या न: सिद्धिमाययौ ॥२६५।। आमूलात् साहसगतेर्वधं रामेण निर्मितम् । शशंस हनुमांस्तासां लङ्कायां चाऽऽत्मनो गतिम् ॥२६६॥ मुदितास्ता: पितुर्गत्वा शशंसुस्तदशेषत: । सोऽपि ताभि: समं सद्य: ससैन्योऽगाद् रघूद्वहम् ॥२६७।। उत्पपाताऽथ हनुमानुपलक्षं गतश्च सन् । ददर्शाऽऽशालिकां विद्यां घोरां कालनिशामिव ।।२६८॥ अरे कपे! क्व याताऽसि ? यातोऽसि मम भोज्यताम् । इति ब्रुवाणा साक्षेपं व्याददाति स्म सा मुखम् ।।२६९।। हनूमांश्च गदापाणि: प्रविवेश तदाननम् । अभ्रमध्यमिवाऽऽदित्यस्तां विदार्य च निर्ययौ ॥२७॥ १. सकृद्धो ला.विना ।। २. दिइखानां प्रतिध्वानैः।। ३. महेन्द्रराट्-हनुमतोरजायत का.ला.॥४. उत्पातमेघ इव रुधिरवृष्टिभीषणः॥५. महेन्द्रस्याऽपत्यम् ।। ५. निघ्ननिःशङ्क कां.॥७. अयं मे भगिनीसुत इतिरूपं सम्बन्धम् ।। ८. पवनपुत्रः ॥ ९. आरेभे हे. मो. ता.,ला.॥१०. दौहित्रः ॥११. न: स्वामि० मु.॥ ___Jain Educa/१२. ततस्तस्मै मु.॥१३. अरुचिमान् ।। १४. सिद्धिमागमत् पाता.॥१५. गमनम् ॥ १६. मुखमुद्घाटयति-प्रसारयति ।। Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (सप्तमं पर्व तया कृतं च प्राकारं लकापुर्यामरुत्सुतः । विद्यासामर्थ्यतोऽभाकीन्मङ्घ कर्परलीलया॥२७१।। तद्वप्रारक्षमप्युच्चैः क्रुद्धं वज्रमुखाभिधम् । सोऽवधीत् सहयुध्वानं युद्धाध्वन्यधुरन्धरः ॥२७२॥ हते वज्रमुखे लङ्कासुन्दरी तस्य कन्यका। विद्याबलवती कोपाद् युद्धायाऽऽह्वास्त मारुतिम् ॥२७३।। व्योमनीव तडिल्लेखा साऽचारीच्चतुरं रणे । प्रहरन्ती मुहुः सानुमतीव सा हनूमति ।।२७४।। तदस्त्राणि निजैरस्वैश्छिन्दान: पावनञ्जयिः । तां निरस्त्रीचकाराऽऽशु निष्पत्रामिव वीरुधम् ॥२७५॥ क एष इति साऽऽश्चर्यादाञ्जनेयमुदीक्षितुम् । सम्प्रवृत्ता च कामेन ताडिता च शिलीमुखैः ॥२७६|| सा हनूमन्तमित्यूचे मया पितृवधोत्थया। अविचार्य क्रधा वीर! योधितोऽसि मधैव हि ॥२७७।। आख्यातं साधुना पूर्वं यस्ते जनकघातकः । भावी भर्तेति तन्नाथ! मामुद्वह वशंवदाम् ॥२७८॥ सकलेऽपि जगत्यस्मिन् कोऽन्यस्तव समो भटः । तत: स्थास्यामि नारीषु त्वया पत्याऽतिगर्विता ॥२७९॥ एवं विनीतां तां कन्यां मुदितो हनुमानपि । गान्धर्वेण विवाहेन सानुरागमुपायत ॥२८०॥ स्नातुकाम इव व्योमाटवीपर्यटनश्रमात् । तदा विर्षांमधिपतिर्ममज्जाऽपरवारिधौ ॥२८॥ प्रतीचीमुपभुज्याऽऽशां गच्छता भानुमालिना । सन्ध्याभ्रच्छद्मना तस्या वासांसीवोपनिन्यिरे ॥२८२।। चकाशे दिशि वारुण्यामरुणाभ्रपरम्परा । अस्तकाले रविं त्यक्त्वा तेज: पृथगिव स्थितम् ।।२८३।। नवरागो नवरागां सिषेवे वारुणीमसौ। मां हित्वेत्यपमानेन म्लानास्या प्राच्यभूदु ध्रुवम् ।।२८४।। क्रीडास्थानभुवां तासां परित्यागभुवा रुजा। खगै: कोलाहलमिषादाक्रन्दस्तत्र निर्ममे ॥२८५।। म्लानिमासादयामास चक्रवाकी वराकिका । दुरीभूतप्रियतमा ललनेव रजस्वला ।।२८६।। पद्मिनी कलयामास मुखसङ्कोचमुच्चकैः । पतिव्रताव्रतेवाऽस्तङ्गते पत्यावहर्पतौ॥२८७॥ तर्णकोत्कण्ठितास्तूर्णं गावो व्याजुघुटुर्वनात् । वायव्यस्नानसम्प्राप्तिमुदितैर्वन्दिता द्विजैः ॥२८८।। अस्तकाले त्विामीशो निजं तेजो हविर्भुजे । राजेव युवराजाय राज्यसम्पदमार्पयत् ।।२८९।। नागरीभिः प्रतिपदमदीप्यन्त प्रदीपंकाः। दिवोऽवतीर्णनक्षत्रश्रेणिश्रीपरिमोषिणः ॥२९०॥ अस्तमीयुषि चण्डांशौ शशिन्यनुदिते सति । तमो जृम्भितुमारेभे छलँच्छेका: खला: खलु ॥२९१।। किमञ्जनाद्रेश्चूर्णेन पूर्णमेतदथाऽञ्जनैः । रोदसीभाण्डमभितस्तम:पूर्णमलक्ष्यत ॥२९२॥ न हि स्थलं न हि जलं न दिशो न नभो न भूः। तदानीं किं बहूक्तेन ? न स्वहस्तोऽप्यलक्ष्यत ॥२९३।। तारा व्योमन्यसिश्यामे तमोलिप्ते विशेषत: । चिरं व्यडम्बयन् द्यूतकटित्रस्थवराटिकाः ॥२९४।। व्यक्तोडु कलयामास कज्जलश्यामलं नभः । उत्पुण्डरीककालिन्दीह्रदसब्रह्मचारिताम् ।।२९५।। एकाकारकरे विष्वक् तम:पूरे प्रसर्पति । विश्वं विश्वमनालोकमभूत् पातालसन्निभम् ॥२९६।। स्फीतेऽन्धकारे नि:शङ्का: कौमिसङ्घट्टनोत्सुकाः । स्वैरं जजृम्भिरे दूत्यो ह्रदे शंफरिका इव ।।२९७।। आजानूत्क्षिप्तमञ्जीरास्तमालश्यामलांशुकाः । मुंगनाभिविलिप्ताङ्ग्योऽभिससुरभिसारिकाः ॥२९८।। अथोदयाद्रिप्रासादे सुवर्णकलशोपमः । कराङ्कुरमहाकन्द उदियाय निशाकरः ।।२९९॥ नैसर्गिकेण वैरेण लक्ष्मव्याजात् सहेन्दुना। नियुद्धमिव तन्वानमन्धकारमलक्ष्यत ॥३००।। विपुले गोकुल इव क्रीडन्ति स्म नभस्तले। स्वैरं गोष्विव तारासु गवेन्द्र इव चन्द्रमा: ॥३०१।। व्यक्तमन्तःस्फुरल्लक्ष्मा मृगलक्ष्मा व्यराजत । मुंगनाभिद्रवाधाररौप्यभाजनसन्निभः ॥३०२।। १. मृत्पात्रवत् ।। २. पत्रविहीनां लतामिव ।। ३. बाणैः ।। ४. परिणिनाय ॥५. व्योम एव अटवी, तत्र पर्यटनस्य श्रमात् ।। ६. सूर्यः ।।७.वासांसीवाप० खं.१२, पाता. मु.॥८. “पश्चिमायां" इति ला.टि. ॥९. पीडया॥१०. पतिव्रता व्रतं यस्याः सा इव ॥११. वत्सोत्कण्ठिता: त्वरितम् ।।१२. प्रतिनिवृत्ताः॥ १३. सूर्यः ।। १४. अग्नये ।। १५. प्रदीपिका: पाता. ॥ १६. परिमोषिणः-चौराः ॥१७. छलचतुराः ।। १८. स्वहस्तोऽपि न लक्ष्यते खं.१-२, पाता. ता. विना ।। १९. खड्गवत् श्यामे॥२०. द्यूतपट्टस्थितवराटिका: (तारा: वराटिकासमा: इत्याशयः)।। २१.व्यक्तनक्षत्रम् ।। २२. उद्गतानि पुण्डरीकाणि-कमलानि यस्मिंस्तस्य कालिन्दीनामकहदस्य समानताम् ।। २३. सकलम् ।। २४. व्याप्ते ॥ २५. कामिजनानां संयोजने उत्सुकाः ।। २६. लघुमत्स्या: ।। २७. जानुपर्यन्तमुत्क्षिप्तानि उच्छलन्ति मञ्जीराणि-नूपुराणियासांताः ॥ २८. मुगनाभि:-कस्तुरी।।२९. "चेलः" इति ला.टि.॥३०."या: प्रियं प्रति यान्ति" इति ला.टि.||३१.करा:किरणा:, त एव महाकन्दा यस्य सः ।। ३२. कलङ्कमिषात् ॥ ३३. बाहुयुद्धम् ।। ३४. “स्वैरं तारागवां मध्ये"पाठां० इति ला.प्रतौ टि., खंता.२-ता.प्रत्यो: पाठश्चायमेव ।।३५.वृषभः ॥३६. मृगनाभिद्रवः-कस्तूरीलेपः, तदाधारभूतरजतमयपात्रतुल्य: कलङ्कसहितश्चन्द्रमा व्यराजतेत्याशयः ॥ ३७.०रूप्य० खं.१-२, Jain Education का हे. ला. मो.॥ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम्। स्खल्यमाना विरहिभिरन्तरा दत्तपाणिभिः। प्रसनुः 'शीतगुकरा: शरा इव मनोभुवः॥३०३।। चिरभुक्तामपि प्रोज्झ्य पद्मिनीं प्राप्तदुर्दशाम् । भृङ्गा: कुमुद्वतीं भेजुर्धिगहो! नीचसौहृदम् ॥३०४॥ शेफाल्या: कुसुमानीन्दुः करपातैरपातयत् । प्रियमित्रस्य पुष्पेषोः सज्जीकर्तुमिषूनिव ॥३०५।। प्रवर्षयन्निन्दुकान्तान् कुर्वाण: सरसीनवाः । स्वानि शीतरुचि: पूर्तकीर्तनानीव निर्ममे ॥३०६।। कुलटानामटन्तीनां पद्मिनीनामिवोच्चकैः । विततान मुखम्लानिं सं ज्योत्स्नाधौतदिङ्मुखः ॥३०७।। समं च लङ्कासुन्दर्या पवनञ्जयनन्दनः । रममाणो निराशङ्कस्तामतीयाय यामिनीम् ॥३०८।। अथोदियाय किरणैः स्वर्णसूत्रसहोदरैः । मार्तण्डो मण्डयन्नाशां प्रियां प्राचीनबर्हिषः ॥३०९।। अव्याहतं निष्पतन्त्यो रुचयश्चण्डरोचिष: । कुमुद्वतीषु स्मेरासु ययुः प्रस्वापनास्त्रताम् ।।३१०।। त्यक्तानि मौलिमाल्यानि प्रबुद्धाभिः पुरन्ध्रिभिः । केशपाशवियोगेनाऽलिनादैररुदन्निव ॥३११।। रात्रिजागरणायासकषायितविलोचना: । निवर्तन्ते स्म गणिका: कामुकानां निकेतनात् ॥३१२॥ स्मेरपङ्कजकोशेभ्यो निर्ययुभृङ्गराजयः । खण्डितामुखपद्मभ्य इव नि:श्वासवल्लयः ॥३१३॥ उदितादित्यतेजोभिर्युण्टितद्युतिवैभवः । अभवद् रजनीजानितातन्तुपुटोपमः ॥३१४।। यद् ब्रह्माण्डेऽपि मातं न तत् तमश्चण्डरोचिषा । मेघश्चण्डानिलेनेव निधूय क्वाऽप्यनीयत ॥३१५।। रात्रेरिवाऽनुबद्धाया निद्राया अपसर्पणात् । स्वस्वकर्माणि निर्मातुं प्रावर्तत पुरीजनः ॥३१६।। तदा च हनुमाल्लँङ्कासुन्दरी सुन्दरोक्तिभिः । आपृच्छ्य प्राविशल्लकानगरी गुरुविक्रमः ॥३१७।। बिभीषणस्य सदनं द्विषद्भटबिभीषण: । जगाम स्थामधामाऽथ पवनञ्जयनन्दनः ॥३१८॥ बिभीषणेन सत्कृत्य पृष्टश्चाऽऽगमकारणम् । अवोचदञ्जनासूः सारगम्भीरगीरिदम् ।।३१९॥ यद् भ्राता रावणस्याऽसि शुभोदकं विचिन्त्य तत् । रामपत्नी हृतां सीतां सती मोचय रावणात् ॥३२०।। दु:खाकृदिहलोकेऽपि परलोके न केवलम् । काकुत्स्थपत्नीहरणं त्वद्भातुर्बलिनोऽपि हि ।।३२१।। बिभीषणोऽप्यभाषिष्ट साधूक्तं हनुमंस्त्वया । सीतां मोचयितुं पूर्वमप्युक्तः स्वाग्रजो मया ॥३२२।। भूयोऽपि हि संनिर्बन्धं प्रार्थयिष्ये स्वबान्धवम् । सीतां यदि पुनर्मुञ्चत्येष सम्प्रति मद्गिरा ॥३२३।। पाएवं बिभीषणेनोक्ते समुत्पत्याऽञ्जनासुतः । जगाम देवरमणोद्याने वैदेह्यधिष्ठिते ॥३२४॥ तत्राऽशोकतरोर्मूले केपोललुलितालकाम् । सन्तताश्रुपयोधारापैल्वलीकृतभूतलाम् ।।३२५।। प्रम्लानवदनाम्भोजां हिमा" पद्मिनीमिव । अत्यन्तक्षामवपुषं प्रथमेन्दुकलामिव ॥३२६।। उष्णनिःश्वाससन्तापविधुराधरपल्लवाम्। ध्यायन्ती राम रामेति नि:स्पन्दां योगिनीमिव॥३२७।। मलिनीभूतवसनां निरपेक्षां वपुष्यपि । ददर्श देवीं वैदेहीं पवनञ्जयनन्दनः ॥३२८॥चतुर्भिः कलापकम्॥ एवं च दध्यौ हनुमानहो! सीता महासती । अस्या दर्शनमात्रेण पवित्रीभूयते जनैः ।।३२९।। अस्याश्च विरहे राम: स्थाने स खलु खिद्यते । रूपवच्छीलवच्चेदृक् कलत्रं यस्य पावनम् ॥३३०॥ द्विधाऽपि हि वराकोऽयं पतिष्यत्येव रावणः । रघूद्वहप्रतापेन स्वपापेन च भूयसा ॥३३१।। ततो विद्यौतिरोभूतः सीतोत्सङ्गेऽङ्गुलीयकम् । हनुमान् पातयामास तद् दृष्ट्वा मुमुदे च सा ॥३३२।। मतदैव गत्वा त्रिजटा दशकण्ठं व्यजिज्ञपत् । इयत्कालं विषण्णाऽऽसीत् सानन्दा त्वद्य जानकी ॥३३३॥ १. चन्द्रकिरणाः ।। २. नलिनीम् ॥ ३. 'नगोड'इति भाषायाम् ॥ ४. किरणवर्षणैः ।। ५. कामदेवस्य ॥६. “चन्द्रकान्तान्” इति ला.टि. ।। ७. चन्द्रः ।। ८. "तटाकादीनि” इति ला.टि.; वापीकूपतडागानि,देवतायतनानि च । अन्नप्रदानमेतत्तु , पूर्तं तत्त्वविदो विदुः।" (योगदृष्टिसमुच्चये) ॥ ९. “सूर्यविकासिनी" इति ला.टि. ॥१०. सा ज्योत्स्नी धौतदिङ्मुखा खं.१-२; सा ज्योत्स्ना धौतदिङ्मुखा पाता. मु. रस्वीपा.; स-चन्द्रः, ज्योत्स्नया निर्मलीकृतदिङ्मुख इत्यर्थः ।। ११. रात्रिम् ।। १२. सुवर्णरज्जुसदृशैः ॥ १३. इन्द्रस्य; प्राचीनबर्हिण: खं.१ ॥१४. निद्रास्त्रताम् ॥ १५. कुटुम्बिनीभिः स्त्रीभिः ।। १६. भ्रमरनादैः ।। १७. ०राशय: कां. ला.॥१८. "रात्रौ पतिरहिता" इति ला.टि. ॥ १९. "चन्द्रः" इति ला.टि. ॥२०. लूता-ऊर्णनाभ: (करोळियो) तन्मुखनिर्गतानां तन्तूनां पुटः-जालं तत्सदृशः ।। २१. “सम्बद्धायाः" इति ला.टि.॥ २२. अपसर्पणे रसंपा. ॥ २३. शत्रुभटभयङ्करः ।। २४.०गीरदः कां. मु. ॥ २५. रावणस्याऽऽशु ता. ॥ २६. "शुभागामिकालफलं" इति ला.टि. ।। २७. दुःखकृ० हे. मो.; दु:खकरम् ।। २८. साग्रहम् ।। २९. कपोलयोर्खलिता:-सस्ता अलका:-केशा यस्याः सा, ताम् ।। ३०. पल्वलं-लघुसरः 'खाबोचियु' इति भाषायाम् ।।३१. युक्तम् ।।३२. खिद्यति ला.॥ ३३. कस्य खं.१-२, ता.ला.; तस्य पाता. ॥ ३४. पतिष्यति च ता. ॥ ३५. विद्याबलेन तिरोभूत:-अदृश्यः॥ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (सप्तमं पर्व मन्ये विस्मृतरामेयं रिरंसुर्मयि सम्प्रति। तद् गत्वा बोध्यतामेवमूचे मन्दोदरी सतु॥३३४।। ततश्च नर्मन्दोदरी ययौ । प्रलोभनकृते सीतां विनीता सेत्यवोचत ॥३३५।। अद्वैतैश्वर्यसौन्दर्यवर्यस्तावद् दशाननः । त्वमप्यप्रतिरूपैव रूपलावण्यसम्पदा ॥३३६।। यद्यप्यज्ञेन दैवेन युवयोरुभयोरपि । न व्यधाय्युचितो योगस्तथाऽपि ह्यस्तु सम्प्रति ॥३३७।। उपेत्य भजनीयं तं भजन्तं भज जानकि! । अहमन्याश्च तत्पत्न्यस्त्वदाज्ञां सुभ्र! बिभ्रतु ॥३३८।। सीताऽप्यवोचदा: पापे! पतिदूत्यविधायिनि! । त्वद्भर्तुरिव वीक्षेत मुखं दुर्मुखि! कस्तव ? ॥३३९॥ रामस्य पार्श्वे मां विद्धि सौमित्रिमिह चाऽऽगतम् । खरादीनिव हन्तुं द्राग् धवं तव सबान्धवम् ।।३४०।। उत्तिष्ठोत्तिष्ठ पापिष्ठे! वच्मि नाऽतः परं त्वया। सीतया तर्जितैवं सा सकोपा प्रययौ ततः ॥३४१।। पअथाऽऽविर्भूय हनुमान् सीतां नत्वा कृताञ्जलिः । इत्यूचे देवि! जयति दिष्ट्या राम: सलक्ष्मणः ॥३४२।। त्वत्प्रवृत्तिकृते रामेणाऽऽदिष्टोऽहमिहाऽऽगमम् । मयि तत्र गते राम इहैष्यति रिपुच्छिदे ।।३४३।। बाष्पायितेक्षणा सीताऽपृच्छत् त्वमसि को ननु ? । दुर्लकमर्णवं चैतं कथं लकितवानसि ? ॥३४४।। कच्चित् प्राणिति मे प्राणनाथ: सौमित्रिणा सह ? । क्व वा स्थाने त्वया दृष्टः ? कालं नयति वा कथम् ? ॥३४५।। आख्यच्च हनुमानस्मि पवना-ऽञ्जनयोः सुतः । विद्यया व्योमयानेन लङ्घितो जलधिर्मया ॥३४६।। समस्तवानराधीशं सुग्रीवं विद्विषद्वधात् ।पत्तीकृत्याऽधिकिष्किन्धमस्तिराम: सलक्ष्मणः ॥३४७।। रामोऽस्ति त्वद्वियोगेन तप्यमानो दिवानिशम् । गिरिर्दवानलेनेव तापयन्नपरानपि ॥३४८॥ गवेव वत्सो रहितस्त्वया स्वामिनि! लक्ष्मणः । न जातु लभते सौख्यं शून्याः पश्यन् दिशोऽखिलाः ।।३४९।। क्षणं सशोको सक्रोधौ क्षणं ते पति-देवरौ । सग्रीवेणाऽऽश्वास्यमानावपि न प्राप्नुत: सुखम् ।।३५०।। भामण्डलो विराधश्च महेन्द्राद्याश्च खेचरा: । पत्तीभूयोपासते तौ शक्रेशानाविवाऽमरा: ।।३५१।। तव प्रवृत्तिमानेतुमहं सुग्रीवदर्शित: । रामेण प्रेषितो देवि! समर्प्य स्वाङ्गुलीयकम् ।।३५२।। चूडामणिरभिज्ञानं त्वत्त आनायितो मया। तद्दर्शनेन मामत्राऽऽयातं प्रत्येष्यति प्रभुः ॥३५३।। हनूमदुपरोधेन रामोदन्तमुदा च सा। एकविंशत्यहोरात्रप्रान्ते व्यधित भोजनम् ॥३५४।। प्रोवाचैवमभिज्ञानं चुडामणिमिमं मम । गहीत्वा वत्स! गच्छाऽऽश तिष्ठत: स्यादपद्रवः ॥३५५।। अत्र त्वामागतं ज्ञात्वा क्रूरकर्मेष राक्षस: । हन्तुमन्तकवन्नूनं समुपस्थास्यते बली ॥३५६॥ स्मित्वा संप्रश्रयं सोऽपि जगादेति कृताञ्जलिः । त्वं मातर्मयि वात्सल्यादेवं वदसि कातरा ॥३५७।। राम-लक्ष्मणयोः पत्तिस्त्रिजगज्जैत्रयोरहम् । तपस्वी रावण: कोऽयं ससैन्योऽपि ममाऽग्रतः ॥३५८।। त्वामपि स्कन्धमारोप्य स्वामिनि! स्वामिनोऽन्तिके । नयामि परिभूयैनं ससैन्यमपि रावणम् ॥३५९॥ स्मित्वा सीताऽप्युवाचैवं न हि हेर्पयसि स्वकम् । रामभद्रं प्रभुं भद्र! वदन्नेवं ससौष्ठवम् ? ॥३६०।। त्वयि सम्भाव्यते सर्वं पदातौ राम-शाङ्गिणोः । परन्तु परपुंस्पर्शो न मेऽर्हति मनागपि ॥३६१॥ तद् गच्छ शीघ्रमेवैवं सति सर्वं कृतं त्वया। गते त्वयि यदद्योगमार्यपुत्र: करिष्यति ॥३६२।। अथेत्थं स्माऽऽह हनुमानेष गच्छाम्यहं परम् । रक्षसां दर्शयिष्यामि किञ्चिद् विक्रमचापलम् ॥३६३।। जितकाशी देशास्योऽयं परवीर्यं न मन्यते । जानातु रामभद्रीयपत्तेरपि पराक्रमम् ।।३६४॥ पआमेत्युक्त्वाऽऽर्पयत् तस्य सीता चूडामणिं निजम् । नत्वा सोऽपि चचालोच्चैः पादन्यासै(वन् धराम् ॥३६५॥ तदेवं देवरमणोद्यानं भतुं प्रचक्रमे । स वनं वनद्विपवत् प्रसरत्करविक्रमः ॥३६६॥ रक्ताशोकेषु निःशूको बकुलद्रुष्वनाकुलः । सहकारेष्वकारुण्यो निष्कम्पश्चम्पकेष्वपि ।।३६७।। अमन्दरोषो मन्दारेष्वदयः कदलीष्वपि । अन्यद्रष्वपि रम्येषु भङ्गलीलां चकार सः ॥३६८/युग्मम्।। १.०दौत्येन मु.॥२. दौत्य० मु.॥३. वरं ता. ॥ ४. अश्रुपूर्णनयना ।।५. दुर्लध्य० खं.१-२, पाता. कां. मु. ।। ६. “इष्टपरिप्रश्ने” इति ला.टि. ॥७. "जीवति" इति ला.टि.॥८. सेवकं कृत्वा॥९.०तोऽस्मि च खं.२,ता.॥१०. विंशतेरुपवासानामन्ते व्य० खं.१, ला. हे. कां.॥११. प्रोवा० खं.१-२, पाता. मु.॥ १२. सविनयम् ।। १३. परिभूयैव ता. ॥१४. लज्जयसे निजम् ।।१५. जितेन-जयेन काशते-शोभते इति जितकाशी ॥ १६. चिरं ह्येष खं.२ ।। १७. तदैव हे. मो, पा, छा. कां. ॥ १८. वनद्विप इव प्रसर्पत्कर० ला.॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम्। तदुद्याने चतुर्कीरि द्वारपाला: 'क्षपाचरा:। अधावन्त निहन्तुं तं तदा मुद्गरपाणयः॥३६९॥ हनूमति स्खलन्ति स्म तेषां प्रहरणानि तु । महाम्भोनिधिकल्लोला इव तीरंमहीधरे ॥३७०॥ पावनि: कुपितस्तेभ्यस्तैरेवोद्यानपादपैः । प्रजहार निरायास: सर्वमस्त्रं बलीयसाम् ।।३७१।। मङ्गु वृक्षानिवाऽभावीत् तानारक्षक्षपाचरान् । क्षुद्रानैक्ष्वाकुपत्तिः स समीरण इवाऽस्खलन् ॥३७२।। हनूमता क्रियमाणमुद्यानरक्षसङ्क्षयम् । गत्वाऽऽचचक्षिरे केचित् क्षेपाचरपतेस्तदा ॥३७३।। तत: सह बलैरेक्षकुमारं राक्षसेश्वरः । समादिक्षद्धनुमतो घातनायाऽरिघातनम् ॥३७४।। आक्षिपन्तं रणायाऽक्षं बभाषे पावनञ्जयिः । भोजनादौ फलमिव रणादौ मे त्वमापतः ॥३७५।। मुधा कपे! गर्जसीति तर्जयन् रावणात्मजः । ववर्ष विशिखैस्तीक्ष्णैरक्ष्णोः प्रसररोधिभिः ॥३७६।। श्रीशैलोऽपीषुवर्षेण सप्रकर्षेण रोवणिम् । पिदधे वारिभिर्दीपमुद्वेल इव वारिधिः ।।३७७।। शस्त्राशस्त्रि चिरं कृत्वा कौतुकादञ्जनासुतः । रणपारं परिप्रेप्सुरक्षं पशुमिवाऽवधीत् ।।३७८॥ ततो भ्रातृवधामर्षादाययौ द्रुतमिन्द्रजित् । मारुते! तिष्ठ तिष्ठेति ससौष्ठवमुदीरयन् ।।३७९।। द्वयोरपि महाबाह्वो: कल्पान्त इव दारुणः। विश्वविक्षोभकरणश्चिरं प्रववृते रण: ॥३८०॥ वर्षन्तौ वारिधारावन्नीरन्ध्राः शस्त्रधोरणी: । व्योमस्थौ तावलक्ष्येतां पुष्करावर्तकाविव ॥३८१।। अन्तरीक्षं तयोरस्त्रैरास्फलद्भिर्निरन्तरैः । क्षणादजनि दुष्प्रेक्षं यादोभिरिव वारिधिः ॥३८२॥ मुमोच यावन्त्यत्राणि दुर्वारो रावणात्मजः । तदनेकगुणैरस्त्रैस्तानि चिच्छेद मारुतिः ॥३८३।। हनुमदस्त्रक्षुण्णाङ्गा: सर्वेऽपीन्द्रजितो भटाः । अनश्यन रक्तह्रदिनीपर्वता इव जङ्गमाः ॥३८४॥ दृष्ट्वा नष्टं निजं सैन्यं स्वं च मोघीकृतायुधम् । अमुञ्चन्नागपाशास्त्रं श्रीशैलाय दशास्यसूः ॥३८५।। नागपाशैर्द्रढीयोभिस्तदैवाऽऽपादमस्तकम् । अबन्धि चन्दन इवाऽभित: पवननन्दनः ॥३८६।। स नागपाशबन्धोऽपि समसाहि हनूमता । कौतुकाद्धि क्षणं दत्ते शक्तो जयमपि द्विषाम् ॥३८७।। हृष्टेनेन्द्रजिता निन्ये हनुमानपरावणम। निरीक्ष्यमाण: फला: राक्षसैर्जयसाक्षिभिः ॥३८॥ मारुतिं रावण: स्माऽऽह दुर तं त्वया ? । आजन्म मामकीनेनाऽऽश्रितौ यत् तौ तपस्विनौ ॥३८९।। वनेवासौ फलाहारौ मलिनौ मलिनांशुकौ। किराताविव तौ तुष्टौ तुभ्यं कां दास्यत: श्रियम् ? ॥३९०॥ तत्राऽपि मन्दबुद्धे! त्वं तद्वाचा किमिहाऽऽगम: ? । येनेहाऽऽयातमात्रोऽपि प्राप्तोऽसि प्राणसंशयम् ॥३९१।। दक्षौ भूचारिणौ तौ तु येत् ताभ्यां कारितोऽस्यदः । अङ्गारान् परहस्तेन कर्षयन्ति हि धूर्तकाः ।।३९२।। यत् सेवकवरो मे त्वमद्य दूत: परस्य च । तदवध्योऽसि रे! शिक्षामात्राय तु विडम्ब्यसे ॥३९३।। हनुमानप्युवाचैवं कदाऽहं तव सेवकः ? । कदा ममाऽभूस्त्वं स्वामी ? वदन्नेवं न लज्जसे? ॥३९४।। एकदा युधि सामन्तो बहुम्मन्य: खर: स ते । त्वन्मैत्र्या वरुणबन्धान्मत्पित्रा मोचित: पुरा ॥३९५।। साहाय्यार्थं त्वयाऽऽहूतोऽहमप्यभ्यागमं पुरा । रणे वरुणपुत्रेभ्यस्त्वामरक्षं च सङ्कटे ॥३९६॥ साहाय्यस्य न योग्योऽसि साम्प्रतं पापतत्परः । सम्भाषोऽपि हि पापाय परस्त्रीहारिणस्तव ॥३९७।। त्वदीये तं न पश्यामि यो हि त्वां त्राँस्यतेऽधुना । एकस्मादपि सौमित्रेर्दूरे रामस्तदग्रजः ॥३९८।। तद्गिरा कुपितो भालाहित कुटिभीषणः । दशाननो दशन्नोष्ठं दशनैरिदमभ्यधात् ॥३९९।। मैदरी यच्छ्रितोऽसि त्वं मां चाऽरीकृतवानसि । तन्नूनं मर्तुकामोऽसि वैराग्यं तत्र किं तव ? ॥४००॥ यथा कुष्ठविशीर्णाङ्गं मुमूर्षुमपि कोऽपि न । हत्याभयान्निहन्त्येवं हन्यात् को दूतमप्यरे! ॥४०१।। आरोप्य रासभे पैञ्चशिखीकृत्य च सम्प्रति । अन्तर्लङ्क प्रतिपथं भ्राम्यसे लोकवेष्टितः ॥४०२।। १. निशाचराः॥२. तीरस्थितपर्वते ॥३. क्षणेनैश्वाकु० ता.; रामसैनिको हनुमान् ॥४. पवनः॥५. रावणस्य॥६. रक्ष:कुमारं ला.; तत्र "रक्षःकुमारनाम" इति ला.टि. च ।। ७. शत्रुनाशकम् ।। ८. रणायोक्षं ला.; रणायोत्कं हे. कां.; अक्षनामक राक्षसकुमारं हनुमान् बभाषे इत्यर्थः ।। ९. बाणैः ।। १०. नेत्रयोः॥ ११. हनुमान् ।। १२. रावणस्याऽपत्यम् ।। १३. अमर्यादः ।। १४. परिप्रेप्सू रक्ष: ला.; युद्धस्य पारं प्राप्नुमिच्छुः ।। १५. निरन्तरा: शस्त्रपरम्पराः ।। १६. तौहनुमदिन्द्रजितौ पुष्करावत्तर्काविवाऽलक्ष्येताम् ।। १७. दुष्प्रेक्ष्यं खं.१, मु. रस्वीपा. ॥१८. यादांसि जलजन्तवस्तैः ।। १९. रुधिरनदीनां पर्वताः ॥ २०. विफलीकृतानि आयुधानि यस्य तम् ॥२१. असह्यत ॥ २२. जयकाक्षिभि: ला. छा. ।। २३. त्वया कृतं ता. ॥ २४. वनवासौ ला.; वनेचरौ ॥ २५. यकाभ्यां रसंपा. ॥ २६. संलापोऽपि ।। २७. तव परिजने ॥ २८. रक्षिष्यति ।। २९. प्रकुटि० ला. ॥ ३०. मम अरी-शत्रू ।। ३१. मां शत्रु कृतवान् ।। ३२. Jain Education मुण्डीकृत्य।। ३३. भ्रम्यसे हे. मो. ला. ता. छा. ।। Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सप्तमं पर्व २०० कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं इत्युक्तो मारुति: क्रुद्धोऽत्रोटयत् पाशपन्नगान् । बद्धो हि नलिनीनालैः कियत् तिष्ठति कुञ्जर: ? ॥४०३॥ तडिद्दण्ड इवोत्पत्य किरीटं राक्षसप्रभोः । कणशश्चूर्णयामास पादघातेन मारुतिः ॥४०४॥ हन्यतां गृह्यतां चैष इति जल्पति रावणे । अनाथामिव सोऽभाङ्क्षीत् तत्पुरी पाददर्दरैः ॥४०५।। क्रीडां कृत्वैवमुत्पत्य सुपर्ण इव पावनिः । राममेत्याऽनमत् सीताचूडारत्नं समर्पयन् ।।४०६॥ सीताचूडामणिं तं तु साक्षात् सीतामिवाऽऽगताम् । आरोपयामास हृदि स्पृशन् रामो मुहुर्मुहुः ॥४०७।। आलिङ्ग्य दाशरथिनासुतवत् प्रसादात् पृष्टः शशंसदशवक्त्रविमाननां ताम्। सीताप्रवृत्तिमखिला हनुमान् यथावदार्यमानभुजविक्रमसम्पदन्यैः ।।४०८।। इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये सप्तमपर्वणि सीताप्रवृत्त्यानयनो नाम षष्ठः सर्गः।। AAAAM AUBAR १. पादप्रहारैः।। २. गरुडः ।। ३. सम(मा)र्पयत् ला.॥४. "०दावर्ण्यमान० इति पाठान्तरे" इति ला. प्रतौ टि. ॥५. सप्तमे मु.।। ६. सर्गः समाप्त: पाता. ।। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥सप्तमः सर्गः॥ अथ राम: ससौमित्रिः सुग्रीवाद्यैर्वृतो भटैः। लङ्काविजयायात्रायै प्रतस्थे गगनाध्वना॥१॥ भामण्डलो नलो नीलो महेन्द्रः पावनञ्जयिः । विराधश्च सुषेणश्च जाम्बवानङ्गदोऽपि च ॥२॥ महाविद्याधराधीशा: कोटिशोऽन्येऽपि तत्क्षणम् । चेलूराम समावृत्य स्वसैन्यैछन्नदिङ्मुखाः॥३॥युग्मम्।। विद्याधरैराहतानि यात्रातूर्याण्यनेकशः । नादैरत्यन्तगम्भीरैर्बिभराञ्चकुम्बरम्॥४॥ विमानैः स्यन्दनैरश्वैर्गजैरन्यैश्च वाहनैः।खे जग्मुः खेचरा: स्वामिकार्यसिद्धार्कयवः ।।५।। उपर्युदन्वतो गच्छन् ससैन्यो राघवः क्षणात्। वेलन्धरपुरं प्राप वेलन्धरमहीधरे ।।६।। समुद्र-सेतू राजानौ समुद्राविव दुर्धरौ । तत्र रामाग्रसैन्येनाऽऽरेभाते योद्धमुद्धतौ॥७॥ नल: समुद्र सेतुं च नीलोऽबध्नान्महाभुजः। उपराममनैषीच्च मनीषी स्वामिकर्मणि ॥८॥ काकुत्स्थ: स्थापयामास तथैव पुनरेव तौ। रिपावपि पराभूते महान्तो हि कृपालवः ॥९॥ समुद्रोऽपि हि रूपाभिरामारामानुजन्मने। रामार्मतल्लिकास्तिस्र: प्रददौ निजकन्यका:॥१०॥ उषित्वा तां निशांसेतु-समुद्रानुगत: प्रगे।क्षणादासादयामाससुवेलाद्रिं रघूद्वहः॥११॥ सुवेलं नाम राजानं जित्वा तत्राऽपि दुर्जयम् । उवासैकां निशांराम: प्रातर्भूयश्चचाल च॥१२।। उपलङ्कमथो हंसद्वीपे हंसरथं नृपम् । जित्वा तस्थौ कृतावासस्तत्रैवरघुपुङ्गवः ॥१३॥ [आसन्नस्थेऽथ काकुत्स्थे मी स्थित इवाऽर्कजे। लङ्का क्षोभमुपेयाय विष्वक् प्रलयशङ्किनी॥१४॥ पन्नह्यन्ति स्म युद्धाय सामन्ता रावणस्य ते। हस्त-प्रहस्त-मारीच-सारणाद्याः सहस्रशः॥१५॥ रावणो रणतूर्याणि दारुणान्यथ कोटिशः । किङ्करैस्ताडयामास द्विषत्ताडनपण्डितः॥१६।। तदा दशास्यमभ्येत्य नत्वा चोचे बिभीषणः । क्षणं प्रसीद विमृशशुभोदकं वचो मम॥१७।। अविमृश्य पुरा चक्रे लोकद्वितयघातकम् । परदारापहरणं लज्जितं तेन ते कुलम्॥१८॥ निजभार्यां समानेतुं काकुत्स्थोऽयमुपस्थितः । आतिथ्यमिदमेवाऽस्मै तत्कलत्रार्पणं कुरु॥१९॥ सीतां त्वत्तोऽन्योंकारमपि रामो ग्रहीष्यति। निग्रहीष्यति चाऽशेषं त्वया सह कुलं तव॥२०॥ दूरे स्तां राम-सौमित्री तौ साहस-खरान्तकौ। तत्पत्तिरेको हनुमान् दृष्टो देवेन किं न हि ? ॥२१॥ इन्द्रश्रियोऽधिका श्रीस्ते तां सीताकारणेन मा। परिहार्षी वेदेवमुभयभ्रष्टता तव॥२२॥ अथेन्द्रजिदुवाचैवं त्वया ह्याजन्मभीरुणा। दूषितं न: कुलं सर्वं नाऽसि तातस्य सोदरः।।२३।। इन्द्रस्याऽपि विजेतारं नेतारं सर्वसम्पदाम् । तातं सम्भावयन्नेवं नूनं मूर्ख! मुमूर्षसि ॥२४॥ पुराऽपि च्छलितस्तातस्त्वया ह्यनृतभाषिणा। प्रतिज्ञाय दशरथवधं यदकृथा न हि॥२५।। इहाऽऽयातं दाशरथिं ताताद् रक्षितुमिच्छसि। दर्शयन् भयमुत्पाद्य भूचरेभ्योऽपि निस्त्रप! ॥२६।। तन्मन्येरामगृह्योऽसिमन्त्रेऽप्यधिकरोषि न। आप्तेन मन्त्रिणा मन्त्र: शुभोदर्को हि भूभुजाम् ॥२७।। बिभीषणोऽप्युवाचैवंशत्रुगृह्यो न खल्वहम् । पुत्ररूपस्तु शत्रुस्त्वमुत्पन्नः कुलनाशकृत् ॥२८॥ अयमैश्वर्य-कामाभ्यामन्धस्तावत् पिता तव। जन्मान्ध इवरे मुग्ध! दुर्धास्य! त्वं तु वेत्सि किम् ? ॥२९।। राजन्ननेन पुत्रेण चरित्रेण निजेन च। पतिष्यस्यचिरादेव तम्यामि त्वत्कृते मुधा॥३०॥ १. पवन० ला. ॥२. स्वसैन्यच्छन्न० ता. ॥३. “अहङ्कारिणः” इति ला.टि. ॥ ४. समुद्रस्य॥५. बुद्धिमान् ॥ ६. रामासु-स्त्रीषु मतल्लिका:-श्रेष्ठाः ।।७. स्तथैव पाता. ॥ ८. मीनराशिगते । ९. "शनौ" इति ला.टि. ॥१०. सज्जीभवन्ति ॥११. नत्वाऽवोचद् बि० मु.॥१२. अन्यप्रकारेण ॥१३. मरणमिच्छसि ॥१४. ०भाषया मो. ॥१५. रामपक्षपाती ॥१६. मन्त्राणामप्यनधिकारी॥१७. शत्रुपक्षीयः॥१८. बाल! ॥१९. खिन्नो भवामि ॥ Jain Education Interational Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (सप्तमं पर्व रावणोऽप्यधिकं क्रुद्धः खङ्गमाकृष्य भीषणम्। बिभीषणवधायोच्चैरुदस्थाद् दैवदूषितः॥३१॥ बिभीषणोऽपि भ्रकुटीभीषण: स्तम्भमायतम्। उत्पाट्य गजवद्योद्धमुत्तस्थावभिरावणम्॥३२॥ कुम्भकर्णेन्द्रजियां तौ पतित्वा द्रुतमन्तरा । युद्धान्निषिध्य नीतौ स्वं स्थानं शालामिव द्विपौ ॥३३॥ अरे! निर्याहि मत्पुर्या आश्रयाशोऽसि वह्निवत् । इत्युक्तो रावणेनाऽगाद् रामाभ्यणे बिभीषणः ॥३४।। परक्षो-विद्याधराणां चाऽक्षौहिण्यस्त्रिंशदुत्कटा: । हित्वा लङ्काधिपं सद्योऽप्यनुजग्मुर्बिभीषणम् ।।३५।। आपतन्तं च तं प्रेक्ष्य सुग्रीवाद्या: प्रचुक्षुभुः । यथा तथा हि विश्वास: शाकिन्यामिव न द्विषि॥३६।। आदौ स पुरुषं प्रेष्य रामाय स्वमजिज्ञपत् । विश्वासपात्रसुग्रीवमुखं रामोऽप्युदैवत ॥३७।। सुग्रीवोऽप्यब्रवीदेते यद्यप्याजन्ममायिनः । प्रकृत्या राक्षसा: क्षुद्रास्तथाऽप्यायात्वसाविह ॥३८।। ज्ञास्याम: प्रेषणैरेव भावमस्य शुभाशुभम् । दृष्टभावानुरूपं च करिष्याम इह प्रभो! ॥३९॥ तदभिज्ञोऽभ्यधादेवं विशालो नाम खेचरः। महात्मा धार्मिकश्चैष रक्षःस्वेको बिभीषणः ॥४०॥ सीतामोक्षाय जल्पंश्चाऽनल्परोषेण बन्धुना । निर्वासित: शरण्यं त्वामागान्नैवैतदन्यथा ।।४।। श्रुत्वेति रामो द्वा:स्थेन बिभीषणमवीविशत् । पादयोः क्षिप्तमूर्धानं परिरेभे च सम्भ्रमात् ॥४२॥ बिभीषणोऽप्युवाचैवं हित्वा दुर्नयमग्रजम् । त्वामागतोऽस्मि भक्तं मां तत् सुग्रीववदादिश ॥४३॥ लङ्काराज्यं तदा तस्मै प्रत्यपद्यत राघवः । न मुधा भवति क्वाऽपि प्रणिपातो महात्मसु ॥४४|| पाहंसद्वीपे दिनान्यष्टावतिवाह्य रघूद्वहः । कल्पान्तवातवल्लङ्कां प्रत्यचालीच्चमूवृतः ॥४५।। चम्वा रुद्ध्वा पृथुत्वेन पृथ्व्या विंशतियोजनीम् । रणाय सज्ज: काकुत्स्थोऽवतस्थे स्थेमपर्वतः ॥४६॥ रामसेनाकलकलो वेलाध्वनिरिवोदधेः । लङ्कां बधिरयामास स्फुटद्ब्रह्माण्डभूरिव ॥४७।। दशकन्धरसेनान्योऽनन्यसाधारणौजसः । सद्य: संवर्मयामासुः प्रहस्ताद्या: उदायुधाः ॥४८॥ केचिन्मतङ्गजोद्वारिपरे वाहवाहनैः । शार्दूलवारिन्ये तु खरवादै रथैः परैः ॥४९॥ कुबेरवन्नरैः केचिन्मेषैः केचित्तु वह्निवत् । यमवन्महिषैः केचित् केचिद् रेवन्तवद्धयैः ॥५०॥ विमानैर्देववत् केचित् प्रहा: समरकर्मणे । उत्पत्य युगपद् वीरा: परिवत्रुर्दशाननम् ॥५१॥त्रिभिर्विशेषकम्।। रोषारुणाक्ष: सन्ना विविधायुधपूरितम् । अध्यास्त स्यन्दनं रत्नश्रव:प्रथमनन्दनः ।।५२।। भानुकर्णः शूलपाणिर्दण्डपाणिरिवाऽपरः। उपेत्य दशकण्ठस्य समभूत् पारिपार्श्विकः ।।५३।। कुमाराविन्द्रजिन्मेघवाहनावपराविव । दोर्दण्डौ दशकण्ठस्य पार्श्वयोरेत्य तस्थतुः ॥५४॥ सूनवोऽन्येऽपि दोष्मन्त: सामन्ता: कोटिशोऽपि च।शुक-सारण-मारीच-मय-सुन्दादयोऽभ्ययुः॥५५॥ अक्षौहिणीनां सहस्रैरसङ्ख्यैःसङ्ख्यकर्मठैः । दिश: प्रच्छादयन् पुर्या: प्रचचाल दशाननः ।।५६।। शार्दूलकेतवः केचित् केचिच्छरभकेतवः । चमूरुकेतवः केचित् केचित् करटिकेतवः ।।५७।। मयूरकेतवः केचित् केचित् पन्नगकेतवः । मार्जारकेतवः केचित् केचित् कुक्कुटकेतवः ॥५८॥ कोदण्डपाणय: केचित् केचिन्निस्त्रिंशपाणयः । मुंषण्ढीपाणयः केचित् केचिद् मुद्रपाणयः ॥५९।। त्रिशूलपाणय: केचित् केचित् परिघपाणय: । कुठारपाणय: केचित् केचिच्च प्रासपाणयः ॥६०॥ विपक्षवीरान् वृण्वन्तो नामग्राहं मुहुर्मुहुः । दशास्यवीराश्चतुरं विचेरू रणकर्मणे ॥६१॥पञ्चभि: कुलकम्।। वैताव्यस्येव सैन्यस्य प्रेथिम्नाऽऽच्छाद्य मेदिनीम । पञ्चाशद योजनान्यस्थाद रावणो रणकर्मणे॥६२।। स्वनायकान् प्रशंसन्तो निन्दन्त: परनायकान् । परस्परं चाऽऽक्षिपन्तः कथयन्तो मिथोऽभिधाः ॥६३॥ १. हस्तिशालाम् ॥ २. आश्रयासो० ला.; आश्रयमेवाऽश्नाति-भक्षयति यः सः ॥३. इत्युक्ते ता. ॥४. प्रेक्ष्य ला. ॥५. गूढपुरुषैः ।। ६.योजनविंशतिम् खं.१।।७. बलेन पर्वत इव ॥ ८. पूरध्वनिः ॥ ९. कवचान् परिधापयामासुः॥१०. उष्ट्रवाहनैः॥११. सूर्यपुत्रवदश्वैः ॥१२. “तत्पराः" इति ला.टि. ॥१३. खं.१२, पाता. ला.प्रतिषु न ।। १४. रथम् ।। १५. रावणः ।।१६. “यमः" इति ला.टि. ॥ १७. ०पार्श्वक: मु.॥१८. “अक्षौहिणीसङ्ख्या - गज २१७८०, रथ २१७८०, अश्व६५६१०,पदाति१०९३५०"इति पाता.प्रतौ टि.॥१९. सङ्ग्रामनिपुणैः ।। २०. शरभोऽष्टापदः, सकेतौ येषां ते॥२१. चमूरुमंगविशेषः ।। २२, करटी गजः ।। २३. "खड्ग'' इति ला.टि. ॥ २४. मुशुण्डी० मु.; मुषुण्ढी रसंपा., "मुषुण्ढी स्याद् दारुमयी, वृत्ताय:कीलसञ्चिता(अ.चिं.शेष०)" ॥ २५. पाश. खं.२-पाता.विना ।। २६. पृच्छन्तो मु.॥२७. ०कर्मणि मु.॥२८. पृथुत्वेन ।। २९. नामानि ।। Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम्। २०३ अस्त्राण्यस्त्रैर्वादयन्त: करास्फोटपुर:सरम्। राम-रावणयो: 'सैन्या: मिमिलु: कांस्यतालवत्॥६४॥युग्मम्।। गच्छ गच्छ तिष्ठ तिष्ठ मा भैषीरुत्सृजाऽऽयुधम् । कुरुष्वाऽऽयुधमित्याजौ भटानां तत्र वागभूत् ॥६५।। शल्यानि शङ्कवो बाणाश्चक्राणि परिघा गदाः । समुत्पेतुर्द्वयोश्चम्वोर्वनान्तर्विहगा इव ॥६६॥ खड्गैर्मिथो घातभग्नैर्वेगात् कृत्तैश्च मौलिभिः । उच्छलद्भिरभून्नानाकेतु-राह्विव खं तदा ॥६७।। सुभटा मुद्गराघातैर्लोठयन्तो द्विपान् मुहुः । दण्ड-कन्दुकिनी क्रीडां तन्वाना इव रेजिरे ॥६८॥ कुठारघातैराच्छिन्ना भटानामपरैर्भटैः । पञ्चशाखा: पतन्ति स्म शाखा: शाखावतामिव ॥६९॥ वीरा: शिरांसि वीराणां छित्त्वा भूमौ प्रचिक्षिपः । बुभुक्षिताय कीनाशायोचितान कवलानिव ॥७०॥ रक्षसां वानराणां च युद्धे तस्मिन् महौजसाम् । दायादानां धनमिव जय: साध्योऽभवच्चिरम् ॥७१।। चिरं प्रवर्तमाने च समरे तत्र वानरैः । अभञ्जि राक्षसबलं काननवन्महाबलैः ॥७२।। भग्ने रक्षोबले हस्त-प्रहस्तौ योद्धमुद्यतौ । वानरैः सह लकेशजयप्रतिभुवौ तदा ॥७३॥ द्वयोरपि तयोर्युद्धावरदीक्षितयोरथ। सम्मुखीनावुदस्थातां नल-नीलौ महाकपी॥७४।। हस्तो नलश्चाऽऽदितोऽपि सम्मुखीनौ महाभुजौ । रथारूढावमिलतां व॑क्रावक्रग्रहाविव ॥७५।। आस्फालयामासतुस्तावधिज्यीकृत्य धन्वनी । ज्यानादेन मिथो युद्धनिमन्त्रणपराविव ॥७६।। तथा ववृषतुर्बाणांस्तौ द्वावपि परस्परम् । शरशूलैर्यथाऽभूतां रथौ श्वाविन्निभौ तयोः ॥७७|| क्षणं नले क्षणं हस्तेऽभूतां जयपराजयौ । तद्बलान्तरमज्ञायि न तत्र निपुणैरपि ॥७८।। सभ्यीभूतस्ववीराणामग्रे ह्रीणी नलो बली। अविहस्तो हस्तशिर: क्षुरप्रेणाऽच्छिदत् क्रुधा ॥७९॥ सद्य: प्रहस्तं नीलोऽपि हस्तं नल इवाऽवधीत् । दिवोऽभूत् पुष्पवृष्टिश्चोपरिष्टान्नल-नीलयोः ॥८॥ हस्त-प्रहस्तनिधनाद् दशाननबले क्रुधा। मारीच: सिंहजघन: स्वयम्भूः सारण: शुकः ॥८१।। चन्द्राऽर्कोद्दाम-बीभत्सा: कामाक्षो मकरो ज्वरः । गम्भीर: सिंहरथाश्वरथा अन्येऽप्युपासरन् ।।८२।।युग्मम्।। मदनाङ्कुर-सन्ताप-प्रेथिताक्रोश-नन्दनाः । दुरितानघ-पुष्पास्त्र-विघ्न-प्रीतिकरादयः ।।८३॥ कपयो राक्षसैः सार्धमयुध्यन्त पृथक् पृथक् । उत्पतन्त: पतन्तश्च कुक्कुटैरिव कुक्कुटाः ॥८४॥युग्मम्।। मारीचरक्ष: सन्तापं नन्दनो ज्वरराक्षसम् । उद्दामराक्षसो विघ्नं शुकं दुरितवानरः ॥८५।। राक्षस: सिंहजघन: प्रथितं नाम वानरम् । योधयित्वा दृढं जघ्नुर्ययावस्तं च भास्करः ॥८६॥युग्मम्।। द्वयोरपि हि सैन्यानि राम-रावणयोस्ततः । निवृत्त्याऽस्थुः शोधयन्त: स्वान् हतानहतानपि ॥८७|| विभातायां विभावर्यां प्रत्यर्कं दानवा इव। प्रतिरामबलं रक्षोयोधा योद्धं डुढौकिरे ॥८८|| मध्येसैन्यं दशास्यो भूमध्ये मेरुरिवाऽचल: । गजरथ्यरथारूढश्चचाल रणकर्मणे ॥८९।। बिभ्राणो विविधान्यस्त्राण्यन्तकादपि भीषण: । तत्कालारुणया शत्रून् दृशाऽपि हि दहन्निव ॥९०॥ पश्यन् प्रत्येकमप्यात्मसेनान्यं शैतमन्युवत् । मन्यमानस्तृणायाऽरीन् रावणोऽगाद् रणावनिम् ॥९१॥युग्मम्।। तेऽपि राघवसेनान्यः सैन्यैः सह महौजसः । वीक्ष्यमाणा दिव्यमरैः समरायोपतस्थिरे ॥१२॥ सनदीकमिव क्वाऽपि रक्तवारिभिरुद्धतैः। उत्पर्वतमिव क्वाऽपि पतितैर्गुरुकुञ्जरैः ।।९३॥ क्वचिच्चोन्मकरमिव मकैरास्यै रथच्युतैः । उद्दन्तमिव च क्वाऽपि सॉमिभग्नैर्महारथैः॥१४॥ उत्ताण्डवैः कर्बन्धैश्च नृत्तस्थानमिव क्वचित् । अजायत क्षणेनाऽपि सैमराजिरभूतलम् ।।९५||त्रिभिर्विशेषकम्।। १. सैनिकाः ।। २. त्यज ।। ३. युद्धभूमौ ।। ४. तोमराणि,कीलकाः ।। ५.०वनयो० रसंपा. ॥ ६. छिन्नमस्तकैः ।। ७. अनेके केतवो राहवश्च यस्मिन् तद्आकाशम् ।। ८. "गेडीदडानी" इति ला.टि.॥९. "हस्ताः " इति ला.टि.; “पञ्चशाख: शयः पाणि: (अमर:)" ॥१०. वृक्षाणाम् ॥११. यमाय ।।१२. भागग्राहकाणाम् ।। १३. “वायुभिः" इति ला.टि.; "मातरिश्वा जगत्प्राणः, पृषदश्वो महाबल:(अ.चिं.)" || १४. लकेशजये छा. पा. ॥१५. "पटू" इति ला.टि. ॥१६. सदा ता. विना ।। १७. युद्धयज्ञे दीक्षितयोः ॥१८. वक्रोऽवक्रश्च द्वौ ग्रहौ, तयोमिलनवत् ॥१९. श्वावित्-"शाहुडी" ||२०. सभ्यीभूय० पाता.॥२१. लज्जितः।।२२. “अनाकुल:" इति ला.टि.॥२३. सिंहरथ्याश्वरथ्या० खं.१-२, पाता.॥२४. "ढौकिताः" इति ला.टि. ॥२५. रामपक्षीयसुभटनामानि ।। २६.०प्रतापा० ला. ।। २७. उत्पतन्तो निपतन्त: कुर्कुटै० ता. ॥२८. "दिन: प्रथमः" इति ला.टि. ॥२९. प्रभातसमये जाते ।।३०. सूर्य प्रति दानवा योद्धमायान्तीति लौकिकशास्त्रप्रसिद्धिः ॥ ३१. गजा रथ्या-रथवोढारो यस्यैतादृशं रथमारूढः ।। ३२. ०कर्मणि पाता. ।। ३३. इन्द्रवत् ।। ३४. दिवि अमरैः ।। ३५. पतितैः कपि० खं.१-२, पाता. मु.; पतितैः करि० ला. पा. छा. ता. ॥ ३६. मकरमुखैः, काष्ठमयमकराकृतयो रथे निक्षिप्यन्ते स्म ॥ ३७. Jain Education | अर्धभौः ॥ ३८. छिन्नमस्तकै: कलेवरैः ॥३९. “सङ्ग्रामाङ्गणभूमितलं" इति ला.टि. only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (सप्तमं पर्व अथरावणहुङ्कारप्रेरितै रजनीचरैः । सर्वैः 'सर्वाभिसारेण कपिसैन्या बभञ्जिरे॥९६॥ क्रद्ध: स्वसैन्यभङ्गेन सग्रीवोऽधिज्यकार्मकः । स्वयं चचाल चलयनचलां प्रबलैर्बलैः ॥१७॥ राजनिहैव तिष्ठ त्वं ममैवेक्षस्व विक्रमम् । एवं निषिध्य सुग्रीवं हनुमानचलद् युधि ।।९८॥ हनुमान् राक्षसानीकमनेकानीकदुर्मदम् । दुर्गाहमप्यगाहिष्ट महाब्धिमिव मन्दरः ॥९९॥ अथ पर्जन्यवद् गर्जनूर्जितं युधि दुर्जयः । अढौकत धनुस्तूणमाली माली हनूमते ॥१०॥ हनुमन्मालिनौ वीरौ धनुष्टङ्कारकारिणौ । पुच्छास्फोटकरौ सिंहाविवोद्दामौ विरेजतुः ।।१०१।। अस्त्रैर्मालि-हनूमन्तौ प्रजह्राते परस्परम् । चिच्छेदाते मिथोऽस्त्राणि मिथोऽतर्जयतां च तौ ।।१०२॥ चिरं च युद्ध्वा हनुमान् मालिनं वीर्यशालिनम् । चक्रे निरस्त्रं निस्तोयं ग्रीष्मार्क इव पल्वलम् ॥१०३।। गच्छ गच्छ जरद्रक्ष:! किं हतेन त्वया ननु ? । इति ब्रुवाणं श्रीशैलमेत्य वज्रोदरोऽवदत् ॥१०४।। अरे रे! म्रियसे पाप! वदन्नेवं हि कद्वद! । एह्येहि युध्यस्व मया न भवस्येष मा स्म गाः ॥१०५।। मारुतिस्तद्वचः श्रुत्वा हक्कामिव मृगाधिप: । बूत्कुर्वन्नुर्वहङ्कारश्छादयामास तं शरैः ॥१०६।। तद्बाणवृष्टिं निधूय शरैर्वज्रोदरोऽपि तम् । तिरयामास मार्तण्डं प्रावृट्काल इवाऽम्बुदैः ॥१०७।। अहो! वज्रोदरो वीरो योऽलमस्मै हनूमते । अहो! वीर: पावनिर्योऽलं वज्रोदररक्षसे ॥१०८॥ एवं गिरो रणक्रीडासदस्यानां दिवौकसाम् । असहिष्णुर्द्विषज्जिष्णुर्हनुमान् मानपर्वतः ।।१०९।। वर्षन् युगपदस्त्राणि चित्राण्युत्पातमेघवत् । वज्रोदरं तमवधीत् पश्यतामपि रक्षसाम् ।।११०||त्रिभिर्विशेषकम्।। पावज्रोदरवधक्रुद्धो रावणिर्जम्बुमाल्यथ । तर्जन् मारुतिमाह्वास्त प्रतिकार इव द्विपम् ।।१११॥ उभावपि महामल्लावन्योऽन्यवधकाङ्क्षिणौ । युयुधाते चिरं बाणैः पन्नगैर्वार्ति काविव ॥११२॥ इषुभ्यः प्रतियच्छन्तौ द्विगुणद्विगुणानिषून् । परस्परं प्रापतुस्तावेधमर्णोत्तमर्णताम् ॥११३॥ क्रुद्धोऽथ कृत्वा हनुमानरथ्यरथसारथिम् । तं द्विषं ताडयामास मुद्गरेण गरीयसा ॥११४॥ मूर्च्छितो जम्बुमाल्युफैं निपपाताऽऽपपात च । रुषा महोदरो रक्षोवीरो वर्षन्छिलीमुखान् ॥११५।। अन्येऽपि राक्षसभटा हनूमन्तं जिघांसवः । जात्यश्वान इव क्रोडं वेष्टयामासुरुच्चकैः ॥११६।। दोष्णो: केऽपि मुखे केऽपि केऽप्यंयोर्हदि केऽपि च। कुक्षौ केऽपि शरैस्तीक्ष्णैर्जनिरे ते हनूमता ॥११७।। अन्तर्वणं दव इव मध्येऽम्भोधीव वाडव: । मध्येरक्षोबलं वीरश्चकासामास मारुतिः॥११८।। क्षणादभासीद् रक्षांसि तमांसीव दिवाकरः । महौजसां शिरोरत्नं पवनञ्जयनन्दनः ॥११९।। पारक्षोभङ्गेन संक्रुद्धः कुम्भकर्णोऽथ शूलभृत् । ईशान इव भूमिष्ठः स्वयं योद्धुमधावत ॥१२०॥ कानप्यंह्रिप्रहारेण मुष्टिघातेन कानपि । कांश्चित् कूर्परघातेन तेलघातेन कांश्चन ॥१२१।। कांश्चिन्मुद्रघातेन शूलघातेन कांचन । कानप्यन्योऽन्यघातेन कुम्भकर्णोऽवधीत् कपीन् ।।१२२।।युग्मम्।। कल्पान्तार्णवकल्पं तमापतन्तं तरस्विनम् । रावणानुजमालोक्य सुग्रीव: समधावत ॥१२३।। भामण्डलो दधिमुखो महेन्द्रः कुमुदोऽङ्गदः । अपरेऽप्यन्वधावन्त प्रदीपर्ने इवोद्यते ॥१२४।। दशाननानुजं पञ्चाननं व्याधा इवाऽरुधन् । वर्षन्तोऽस्त्राणि चित्राणि युगपद् वानरोत्तमाः ॥१२५।। प्रस्वापनास्त्रं तेषूच्चैः कालरात्रिमिवाऽपराम् । रात्रिञ्चरवरोऽमुञ्चदमोघं मुनिवाक्यवत् ॥१२६।। निद्रायमाणं स्वं सैन्यं दिवा कुमुदखण्डवत् । दृष्ट्वा सस्मार सुग्रीवो महाविद्यां प्रबोधिनीम् ।।१२७।। अरे! क्व कुम्भकर्णोऽस्तीत्युच्चैस्तुमुलकारिणः । उत्तस्थुर्वानरभटा: खगा इव निशात्यये ।।१२८।। उपाद्रवन् कुम्भकर्णमाकर्णाकृष्टकार्मुका: । सुग्रीवाधिष्ठिता: सुष्ठयोधिन: कपिकुञ्जरा: ॥१२९।। १. सर्वबलेन ॥ २. “चापभस्त्रधारी" इति ला.टि.;(बाणनां भाथांवाळो) ॥३. पुच्छाच्छोट० ता.॥४. कुत्सितं वदति ॥५. हक्कारमिव केसरी खं.२, ता. ।। ६. महागर्विष्ठः।। ७. छादयामास ।। ८. "सभ्यानां" इति ला.टि.॥९. हस्तिपकः; “कुन्तारः" इति ला.टि. ॥१०. गारुडिकौ।।११. “यतः प्रतिनिधिप्रतिदाने प्रतिना(सि.२-२-७२)" इति पञ्चम्यत्र ॥१२. अधमर्ण:-ऋणदाता, उत्तमर्ण:-ऋणग्रहीता ॥ १३. निपपातोत्प० ता. मु. ।। १४. “आगात्" इति ला.टि.।। १५. बाणान् ।।१६. सूकरम् ।। १७. महौजसां पुरुषाणां मूर्धन्य:-हनुमान् ।।१८. ईशानेन्द्रः शङ्करो वा ।।१९. कूर्पर: कोणिः ।। २०. चपेटाघातेन ।। २१. कानपि ता. ॥ २२. "वेगवन्तं" इति ला.टि. ॥ २३. अग्नौ ।। २४. “निद्रास्त्रं" इति ला.टि. ॥ २५. रात्रिञ्चरेषु-निशाचरेषु वर:-कुम्भकर्णः॥२६. प्रबोधनीम् ता.।। २७. अरेरे! ता.॥ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम्। सुग्रीवो दलयामास कुम्भकर्णस्य सारथिम् । रथं रथ्यांश्च गदयाऽगदङ्कारो गदानिव॥१३०॥ भूमिष्ठः कुम्भकर्णोऽथ हस्तेनोदस्तमुद्गरः । एकशृङ्गो गिरिरिव सुग्रीवायाऽभ्यधावत ॥१३१।। युद्धार्थं धावतस्तस्याऽङ्गवातेन गरीयसा। भूयांस: कपय: पेतुः करिस्पर्शन वृक्षवत् ।।१३२॥ प्लवङ्गमैरस्खलित: स्थलैरिव नेदीरयः । सग्रीवरथमाहत्याऽचूर्णयन्मुद्रेण सः ॥१३३।। खे समुत्पत्य सुग्रीव: शिलामेकां महीयसीम् । मुमोच कुम्भकर्णाय वज्री वज्रमिवाऽद्रये ॥१३४॥ कुम्भकर्णो मुद्गरेण तां शिलां कणशोऽकरोत् । औत्पातिकी रजोवृष्टिं कपीनां दर्शयन्निव ।।१३५।। तडत्तडिति कुर्वाण तडिद्दण्डास्त्रमुत्कटम् । रावणावरजायाऽथ वालिनोऽवरजोऽमुचत् ॥१३६।। तडिद्दण्डाय चण्डाय तस्मै शस्त्राण्यनेकश: । कुम्भकर्णः प्रचिक्षेप मोघीभूतानि तानि तु ॥१३७॥ कुम्भकर्ण: पपातोल् तडिद्दण्डेन ताडितः । जगद्भयङ्कराकार: कल्पान्त इव पर्वतः ॥१३८।। मूर्च्छिते भ्रातरि क्रुद्धः स्वयमेव दशाननः । साक्षादिवाऽन्तकोऽचालीद् भ्रुकुटीभीषणाननः ॥१३९।। नत्वेन्द्रजित तमित्यूचे स्वामिंस्तव पुरो रणे । न यमो वरुणो नाऽपिन कुबेरोन वा हरिः ॥१४०॥ तिष्ठन्ति किं तु प्लवगा एवैते देव! तिष्ठ तत् । गत्वैष तान् हनिष्यामि रुष्टो मशकमुष्टिवत् ॥१४१॥ निषिध्यैवं दशग्रीवं मानोद्ग्रीवः स शक्रजित् । आघ्नानः प्रविवेशाऽन्त:कपिसैन्यं महाभुजः ॥१४२।। कासार: कासरस्येव भेकैरापतत: सत: । कपिभिर्मुमुचे तस्य समरोर्वी महौजसः ॥१४३।। स त्रस्यत: कपीनूचे रे रे! तिष्ठत वानरा:! । अयुध्यमानान्नो हन्मि रावणस्याऽस्मि नन्दनः ॥१४४।। क्व मारुति:? क्व सुग्रीवस्ताभ्यामप्यथवा कृतम् । क्व नु तौ राम-सौमित्री अभ्यमित्रीयमानिनौ ॥१४५।। इति ब्रुवाणं दोर्दादमर्षारुणितेक्षण: । रणायाऽऽह्वत सुग्रीवस्तं दशग्रीवनन्दनम् ॥१४६॥ भामण्डलोऽपीन्द्रजितोऽवरजं मेघवाहनम् । आयोधयितुमारेभे शरभं शरभो यथा ॥१४७।। दिग्गजा इव चत्वारश्चत्वार सागरा इव । आस्फालन्त: शुशुभिरे ते त्रिलोकीभयङ्कराः ॥१४८।। गतागतैस्तद्रथानामकम्पत वसुन्धरा । चकम्पिरे सानुमन्तश्चक्षोभ च महोदधिः ॥१४९।। बुबुधे नाऽन्तरं तेषां बाणाकर्षण-मोक्षयोः । अत्यन्तलघुहस्तानामविहस्तत्वशालिनाम्॥१५०॥ आयसैर्दैवतैरेस्त्रैरयुध्यन्त चिरायते । परं न कोऽपि केनाऽपि तेषां मध्यादजीयत॥१५१॥ अथो मुमुचतुः क्रुद्धाविन्द्रजिन्मेघवाहनौ । सुग्रीव-भामण्डलयो गपाशास्त्रमुद्धतम् ॥१५२।। नागपाशैस्तथा बद्धौ भामण्डल-कपीश्वरौ । अनीश्वरौ नि:श्वसितुमप्यभूतां यथा हि तौ ॥१५३।। पाइतश्च लब्धसज्ञेन कुम्भकर्णेन रोषतः । गदया ताडित: पृथ्व्यां मारुतिर्मुर्छितोऽपतत् ॥१५४॥ दोष्णा तक्षककल्पेन तं करीव करेण सः । सर्मुद्दधे वलयितेनाऽन्तःकक्षं न्यधत्त च ॥१५५॥ ऊचे बिभीषणो रामं स्वामिन्नेतौ हि ते बले । बलीयसौ सारभूतावानने नयने इव ॥१५६।। बद्धौ वैदेहि-सुग्रीवौ राँवणिभ्यां महोरगैः । यावल्लकां न नीयेते तावत् तौ मोचयाम्यहम् ॥१५७।। हनुमान् कुम्भकर्णेन बद्धो दोष्णा महौजसा । लङ्कामप्राप्त एवाऽयं मोचनीयो रघूद्वह! ॥१५८।। स्वामिन्! विना हि सुग्रीव-भामण्डल-हनूमत: । अवीरमिव न: सैन्यमनुजानीहि यामि तत् ॥१५९।। एवं तत्र ब्रुवत्येव वेगाद् गत्वाऽङ्गदो भटः । आक्षिप्य कुम्भकर्णेन युयुधे युद्धकोविदः ॥१६०॥ क्रोधान्ध्यात् कुम्भकर्णेन प्रोत्क्षिप्तभुजपाशत: । ययौ मारुतिरुत्पत्य विहङ्ग इव पञ्जरात् ॥१६१।। बिभीषणो मोचयितुं भामण्डल-कपीश्वरौ । रावणिभ्यां समं योद्धुमधावत रथस्थितः ॥१६२।। दध्यतुश्चेन्द्रजिन्मेघवाहनावेष न: पितुः । अनुजः स्वयमभ्येति कर्तुमस्माभिराहवम्॥१६३॥ १. अश्वान् ॥ २. वैद्यो रोगानिव ॥३. उदस्त:-ऊ/कृतः मुद्गरो येन सः ।। ४. वानरैः ।। ५. नदीवेगः।। ६. उत्पातिकी मु.।। ७. कुम्भकर्णाय ॥ ८. सुग्रीवः ।। ९. विफलीभूतानि ।।१०. भानुकर्णः खं.१-२, ला. हे. का. पा. छा. ॥११. भ्रकुटी० ला. ॥१२. किं नु मु.॥१३. 'मच्छर' इति भाषा ।। १४. मानेनोलग्रीवः ।। १५. घ्नन् ।।१६. तडागो महिषस्य इव ।। १७. आभिमुख्येन अमित्रान् शत्रून् अलङ्गामी अभ्यमित्रीयः, आत्मानं अभ्यमित्रीयं मन्यमानौ, वीरमानिनौ इत्यर्थः; "वैरिभूतौ" इति टि.ला. ॥ १८. लघुभ्रातरम् ।। १९. “अव्याकुलितत्व" इति टि. ला. ॥ २०. लोहमयैः ।। २१. श्वास्त्रै० ता. ॥ २२. असमर्थौ ।। २३. तक्षको नागः ।। २४. समुद्दधे ला. ॥२५. कक्षायाम् ॥२६. बद्ध्वा का. ला. पा. छा. ।। २७. भामण्डल: ।। २८. रावणपुत्राभ्याम् ।। २९. युद्धम् ॥ Jain Education Mernational Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं अनेन तातकल्पेन योद्धव्यं कथमद्य हा! । इतोऽपसरणं युक्तं न 'हीः पूज्याद्धि बिभ्यताम् ॥१६४॥ पाशबद्धाविमौ चाsरी निश्चितं हि मरिष्यतः । इहैव हि तदासातां तातो नाऽन्वेति नौ यथा ॥ १६५॥ विचिन्त्यैवं नेशतुस्तौ धीमन्तौ रावणी रणात् । पश्यन् बिभीषणश्चाऽस्थाद् भामण्डल - कपीश्वरौ ॥ १६६ ॥ चिन्ताम्लानाननौ तत्र तस्थतू राम-लक्ष्मणौ । हिमानीच्छन्नवपुषौ सूर्याचन्द्रमसाविव ॥१६७॥ रामभद्रस्ततः पूर्वप्रतिपन्नवरं सुरम् । महालोचनमस्मार्षीत् सुपर्णामरपुङ्गवम् ॥ १६८ ॥ ज्ञात्वा चाऽवधिनाऽभ्येत्य ददौ पैद्याय सोऽमरः । विद्यां सिंहनिनादाख्यां मुशलं स्यन्दनं हलम् ॥१६९॥ लक्ष्मणाय ददौ विद्यां गारुडीं स्यन्दनं तथा । गदां च विद्युद्वर्देनां समरे रिपुंनाशिनीम् ॥ १७० ॥ वरुणा-ऽऽग्नेय-वायव्यप्रमुखाण्यपराण्यपि । दिव्यान्यस्त्राणि छत्रे च स ददावुभयोरपि || १७१ || सौमित्रेर्वाहनीभूतं गरुडं प्रेक्ष्य तत्क्षणम् । सुग्रीव - भामण्डलयोः प्रणेशुः पाशपन्नगाः ॥ १७२ ॥ जज्ञे जयजयाराव रामसैन्ये समन्ततः । रक्षोबलमिवाऽस्तं च ययौ देवोऽब्जिनीपतिः || १७३ || प्रातर्भूयोऽपि सैन्यानि रघूद्वह - दशास्ययोः । सर्वाभिसारसाराणि रणाङ्गणमुपासरन् ॥१७४॥ तेषां कृतान्तदन्ताभस्फुरदस्त्रभयङ्करः । अकाण्डारब्धसंवर्तः प्रावर्तत महारणः ॥ १७५ ॥ क्रुद्धैरक्षोभि रक्षोभिर्वानराणां वरूथिनी । मध्याह्रतापसन्तप्तैः सरसी सूकरैरिव ॥ १७६॥ भग्नप्रायां चमूं प्रेक्ष्य सुग्रीवाद्या महौजसः । रक्षोऽनीकेषु विविशुर्योगिनोऽन्यवपुः ष्विव ॥ १७७॥ विदुद्रुवू राक्षसास्तेऽप्याक्रान्तास्तैः कपीश्वरैः । नागा इव गरुत्मद्भिरद्भिरामघटा इव ॥ १७८॥ रक्षोभङ्गेन संक्रुद्धो दधावे रावणः स्वयम् । महारथप्रचारेण दारयन्निव मेदिनीम् ॥ १७९ ॥ तस्य प्रसरतो दाववह्नेरिव तैरस्विनः । मुहूर्तमपि नाऽग्रेऽस्थात् कपिवीरेषु कश्चन ॥१८०॥ तद्युद्धे चलितं रामं निषिध्य प्रश्रयादथ । बिभीषणः क्षणादेत्य रुरोध दशकन्धरम् ॥ १८९॥ तं रावणवद् रे! कंश्रितोऽसि बिभीषण! । क्रुद्धस्य मम येनाऽऽजौ क्षिप्त: कवलवन्मुखे ॥१८२॥ व्याधेनेव किरौ श्वानं मयि त्वां रे! प्रतिर्वैता । रामेण मन्त्रितं साधु साध्विदं ह्यात्मरक्षिणा ॥ १८३।। अद्याऽपि मम वात्सल्यं त्वयि वत्साऽस्ति गच्छ तत् । एतौ ह्यद्य हनिष्यामि ससैन्यौ राम-लक्ष्मणौ ॥ १८४ ॥ अमीषां वध्यमानानां मा सङ्ख्यापूरणः स्म भूः । एहि स्वस्थानमेव त्वं पृष्ठे हस्तोऽयमद्य ते ॥ १८५ ॥ बिभीषणोऽप्युवाचैवं रामोऽन्तक इव स्वयम् । अचालीत् त्वां प्रति क्रुद्धो निषिद्धश्च मया च्छ्लात् ॥ १८६॥ त्वां बोधयितुकामोऽहं युद्धव्याजादिहाऽऽगतः । अद्याऽपि मुच्यतां सीतां प्रसीद कुरु मद्वचः ॥ १८७॥ हन्त! मृत्युभयान्नाऽहं राज्यलोभेन नाऽपि वा । गतोऽस्मि रामं निर्वेदभयात् किं तु दशानन ! ॥१८८॥ सीतार्पणेन निर्वादं प्रणाशय यथा ह्यहम्। पुनरेव श्रयामि त्वां विहाय रघुपुङ्गवम् ॥ १८९ ॥ क्रुद्धोऽथ रावणः प्रोचे किमद्याऽपि बिभीषिकाम् । रे बिभीषण! दुर्बुद्धे! प्रदर्शयसि कातर! ? ॥१९०॥ भ्रातृहत्याभयादुक्तोऽस्येवं नाऽन्येन हेतुना । इत्युक्त्वाऽस्फालयामास कौर्मुकं दशकन्धरः ॥१९१॥ भ्रातृहत्याभयादुक्तोऽस्येवं नाऽन्येन हेतुना । इत्युक्त्वाऽस्फालयामास धनुः सोऽपि बिभीषणः ॥ १९२॥ ततः प्रववृताते तौ भ्रातरौ योद्धुमुद्यतौ । चित्राण्यस्त्राणि कर्षन्तौ वर्षन्तौ च निरन्तरम् ॥१९३॥ ॥ अथेन्द्रजित्कुम्भकर्णौ राक्षसा अपरेऽपि च । स्वामिभक्त्याऽभ्यधावन्त कृतान्तस्येव किङ्कराः ॥ १९४॥ रामोऽरौत्सीत् कुम्भकर्णं लक्ष्मणो रावणिं पुनः । नीलस्तु सिंहजघनं दुर्मर्षश्च घटोदरम् ॥ १९५॥ स्वयम्भूर्दुर्मतिं शम्भुं नलवीरोऽङ्गदो मयम् । स्कन्दः पुनश्चन्द्रणखं विघ्नं चन्द्रोदरात्मजः ॥ १९६॥ केतुं भामण्डलनृपः श्रीदत्तो जम्बुमालिनम् । कुम्भकर्ण सुतं कुम्भं पवनञ्जयनन्दनः ॥१९७॥ किष्किन्धेशः सुमालाख्यं कुन्दो धूम्राक्षराक्षसम् । वालिसूश्चन्द्ररश्मिश्च भटं सारणराक्षसम् ॥ १९८॥ १. लज्जा ।। २. महद् हिमं हिमानी, तया छन्नं वपुर्ययोस्तौ ॥। ३. रामाय ॥ ४. विद्युद्गमनां ता ॥ ५. ० नाशनीम् ता ।। ६. “दिन २" इति टि.ला. ।। ७. सर्वौघसाराणि ॥ ८. अकाण्डे आरब्धः संवर्तः क्षयः यत्र ॥ ९. अक्षोभि क्षुब्धा ।। १०. सेना ॥। ११. गरुडैः ।। १२. जलैरपक्वघटा इव ।। १३. वेगवतः ।। १४. प्रणयात् ।। १५. "शूकरे" इति टि.ला. ।। १६. प्रेषयता ।। १७. ह्यात्मरक्षणम् मु.; ह्यात्मरक्षणात् मो. ॥। १८. पृष्ठौ ला. ।। १९. बलात् मु. ॥। २०. सीतां खं.१-२, पाता. ॥ २१. अपवादभयात् ॥ २२. भीतिम् ॥ २३. धनुः ।। २४. ०ऽप्येवं ला. ।। २५. दुर्मुखस्तु पाता. ला ॥ २६. ०स्तु खं. १-२ ॥ २७. Jain Education धूमाक्ष० खं. १ २, पाता.; धूमाख्य० ला. ॥ (सप्तमं पर्व Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७ सप्तमः सर्गः) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम्। राक्षसानेव'मन्यानप्यरौत्सुः कपयोऽपरे। अयुध्यन्त चतैः सार्धं नक़र्नका इवाऽर्णवे॥१९९॥ एवं युद्धे वर्तमाने भीषणेभ्योऽपि भीषणे। लक्ष्मणायाऽमुचत् क्रोधादत्रं तामसमिन्द्रजित् ॥२००॥ तदस्त्रं तपनास्त्रेण सौमित्रिः शत्रुतापनः । सद्यो विद्रावयामासाऽनिना मेदनपिण्डवत् ॥२०१॥ सौमित्रिर्नागपाशास्त्रं ममोचेन्द्रजिते क्रधा। तन्तुनाऽम्भसि हस्तीव स तेन द्रागबध्यत ।।२०२।। आक्रम्यमाणसर्वाङ्गो नागास्त्रेण दशास्यसू: । निपपाताऽशनिरिव दारयन् सागराम्बराम् ॥२०३।। चिक्षेप स्वरथाङ्के तं विराधो लक्ष्मणाज्ञया। कारापाल इवाऽनैषीनिजे च शिबिरे द्रुतम् ॥२०४॥ नागपाशैः कुम्भकर्णं त्वबध्नाल्लक्ष्मणाग्रजः । भामण्डलस्तं शिबिरेऽनैषीद् रामाज्ञया ततः ॥२०५।। अन्येऽपि प्रतियोद्धारो बद्धा रामस्य सैनिकैः । मेघवाहनमुख्यास्ते निन्यिरे शिबिरे निजे ॥२०६।। पादृष्ट्वा दशमुखस्तत् तु क्रोधशोकसमाकुल: । बिभीषणाय चिक्षेप शूलं मूलं जयश्रियः ॥२०७।। तच्छूलमन्तरालेऽपि कदलीकाण्डलीलया। चकार कणशो रामावरज: पत्रिभिः शितैः ॥२०८।। धरणेन्द्रप्रदत्तां ताममोघविजयाह्वयाम् । विजयार्थी दशग्रीवो महाशक्तिं समुद्दधे ॥२०९॥ धगद्धगिति ज्वलन्तीं तडत्तडिति नादिनीम् । संहाराब्दतडिल्लेखामिव खेऽभ्रमयत् स ताम् ॥२१०॥ अपसमुर्दिवि सुरा दृशं सैन्या न्यमीलयन् । तां विलोक्य न केऽप्यस्थुः सुस्थितं सुस्थिता अपि ॥२११॥ राम: सौमित्रिमित्यूचेऽस्माकमेष बिभीषणः । आगन्तुर्हन्यते हन्त धिग् न आश्रितघातिनः ॥२१२।। इति रामवचः श्रुत्वा सौमित्रिर्मित्रवत्सलः । बिभीषणाग्रे गत्वाऽस्थादाक्षिपन् दशकन्धरम् ॥२१३।। पुरःस्थं गरुडस्थं तं प्रेक्ष्योवाच दशाननः । न तुभ्यं शक्तिरुत्क्षिप्ता मा मृथा: परमृत्युना ॥२१४।। म्रियस्व यदि वा मार्यस्त्वमेवाऽसि यतो मम । वराकस्त्वत्पदे ह्येष ममाऽग्रेऽस्थाद् बिभीषणः ॥२१५॥ इत्युक्त्वा भ्रमयित्वा तां शक्तिं रामानुजन्मने । मुमोच पैतदुत्पाताशनिकल्पां दशाननः ॥२१६।। तामापतन्तीं सौमित्रिः सुग्रीवो हनुमान् नल: । भामण्डलो विराधोऽन्येऽप्यस्त्रैः स्वैः स्वैरताडयन् ।।२१७।। साऽवज्ञाय तदस्त्रौघं व्यालद्विप इवाऽङ्कुशम् । और्वोनल इवाऽम्भोधौ लक्ष्मणोर:स्थलेऽपतत् ॥२१८॥ तया भिन्नो महीपृष्ठे निपपात च लक्ष्मणः । उत्पपात च तत्सैन्ये विष्वग् हाहारवो महान् ।।२१९॥ क्रुद्धोऽथ ज्येष्ठकाकुत्स्थो जिघुत्सुरिव रावणम् । आयोधयितुमारेभे पञ्चाननरथस्थितः ॥२२०॥ क्षणाच्चकार विरथं पञ्चाननरथो द्विषम् । दशाननोऽपि वेगेनाऽध्यारुरोह रथान्तरम् ॥२२१॥ भक्त्वा भङ्क्त्वा रथानेवं पञ्च वारान् दशाननम् । काकुत्स्थो विरथीचक्रे जंगदद्वैतपौरुषः ॥२२२।। दशास्योऽचिन्तयच्चैवं भ्रातृस्नेहादयं स्वयम् । मरिष्यत्येव तत् किं मे योधितेनाऽमुनाऽधुना ? ॥२२३।। दशग्रीवो विमृश्यैवं ययौ लङ्कापुरीं द्रुतम् । अस्तं जगाम च रवि: रामशोकादिवाऽऽतुरः ॥२२४।। पभग्नेऽथ रावणे रामो निवृत्त्येयाय लक्ष्मणम् । तं च दृष्ट्वा निपतितं पपात भुवि मूर्च्छितः ॥२२५।। सुग्रीवादिभिरासिक्तो रामश्चन्दनवारिणा । लब्धसज्ञो निषद्योपसौमित्रीत्यगदद् रुदन् ॥२२६॥ तव किं बाधते वत्स! ? ब्रूहि तूष्णीं स्थितोऽसि किम् ? । सञ्ज्ञयाऽपि समाख्याहि प्रीणयाऽग्रजमात्मनः ।।२२७।। एते त्वन्मुखमीक्षन्ते सुग्रीवाद्यास्तवाऽनुगाः। नाऽनुगृह्णासि किं वाचा दृशा वा प्रियदर्शन! ? ॥२२८॥ जीवन् रणाद् रावणोऽगादिति लज्जावशाद् ध्रुवम् । न भाषसे तद् भाषस्व पूरयिष्ये तवेप्सितम् ।।२२९॥ रे रे रावण! दुष्टात्मंस्तिष्ठ तिष्ठ क्व यास्यसि ? । एष प्रस्थापयामि त्वां नैचिराय महापथे ॥२३०॥ इत्युक्त्वा धनुरास्फाल्योदस्थाद् यावद् रघूद्वहः । तावत् कपीश्वेरेणैवमूचे विनयपूर्वकम् ॥२३१॥ स्वामिन्! निशेयमगमल्लङ्कां च स निशाचरः । शक्तिप्रहारविधुर: स्वामी नश्चैष वर्तते ॥२३२।। धैर्यमाधेहि जानीहि हतमेव दशाननम्। प्रतिजागरणोपायंसौमित्रेरेव चिन्तय ।।२३३॥ १. ०मन्योऽन्यमरौत्सुः पाता.प्रभृतिषु, मु. ॥२. मदनः 'मीण' ।। ३. दशास्यभूः ता. ।। ४. वज्रमिव ।। ५. पृथ्वीम् ॥ ६. स्वरथोत्सङ्गे ।। ७. तं ला. ॥ ८. तीक्ष्णैर्बाणैः ।।९. प्रलयकालीनमेघस्य विद्युल्लेखामिव ॥१०. सैनिकाः ॥११. सुस्थिता अपि दुःस्थिता खं.२॥१२. अतिथिः ॥१३. ममाऽग्रत: मो.॥ १४. रामानुजाय ताम् खं.२ ॥ १५. पतद् यदुत्पातोल्का-तत्तुल्याम् ॥ १६. उनिल: मु.वडवानलः ॥ १७. रामः ॥१८. भक्षणेच्छुः ।। १९. जगति Jain Education अद्वितीयपराक्रमः ।। २०. योधितेनाऽधुनाऽमुना मु. ॥ २१. सौमित्रिसमीपम् ॥ २२. शीघ्रम् ॥ २३. मृत्युपथे॥ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (सप्तमं पर्व भूयो रामो जगादैवं हता भार्या हतोऽनुजः । तिष्ठत्यद्याऽपिरामोऽयं शतधा न विदीर्यते॥२३४॥ सखे सुग्रीव! हनुमन्! भामण्डल! नलाऽङ्गद! । विराधाद्याश्च सर्वेऽपि यात स्वौकसि सम्प्रति ॥२३५।। सीतापहारात् सौमित्रिवधादप्यधिकं शुचे। सखे! बिभीषणाऽभूस्त्वं यत् कृतार्थीकृतोऽसि न ॥२३६॥ प्रात: पश्य परं बन्धो! निजबान्धववर्त्मना । नीयमानं स्वबन्धुं तं बन्धुरूपेण वैरिणम् ।।२३७।। प्रात: कृतार्थीकृत्य त्वामनुयास्यामि लक्ष्मणम् । लक्ष्मणं हि विना किं मे सीतया जीवितेन वा ? ||२३८।। बिभीषणो बभाषेऽथ किमधैर्यमिदं प्रभो! ? । शक्त्या हतोऽपि ह्यनया पुमान् जीवति यामिनीम् ॥२३९।। मन्त्र-तन्त्रादिना घातप्रतीकाराय सर्वथा । प्रयत्यतां प्रभो! यावन्न विभाति विभावरी ॥२४०।। आमेति राघवेणोक्ते सुग्रीवाद्यास्तु विद्यया । सप्त वप्रांश्चतुरान् राघवौ परितो व्यधुः ।।२४१॥ प्राच्या द्वारेषु तत्राऽस्थुः सुग्रीव: पावनञ्जयिः । तार: कुन्दो दधिमुखो गवाक्षो गवय: क्रमात् ॥२४२।। उदीच्यामङ्गदः कूर्मोऽङ्गो महेन्द्रो विहङ्गमः । सुषेणश्चन्द्ररश्मिश्च द्वारेष्वस्थुः क्रमादमी ।।२४३॥ प्रतीच्यां नील-समरशील-दुर्धर-मन्मथा: । जयश्च विजयश्चैव सम्भवश्चाऽवतस्थिरे ।।२४४।। भामण्डलो विराधश्च गजो भुवनजिन्नल: । मैन्दो बिभीषणश्चाऽस्थुर्दक्षिणस्यां क्रमादमी ॥२४५।। मध्ये कृत्वेति काकुत्स्थौ सुग्रीवाद्या महाभुजाः । प्रजागरपरास्तस्थुरात्मारामा इवोद्यता ॥२४६।। सीतायाः कश्चिदाचख्यौ यच्छक्त्या लक्ष्मणो हतः । प्रातर्विपत्स्यते रामभद्रोऽपि भ्रातृसौहृदात् ॥२४७|| वज्रनिर्घोषवद् घोरं तच्छ्रुत्वा जनकात्मजा । पपात मूर्च्छया पृथ्व्यां लतेव पवनाहता ॥२४८।। विद्याधरीभिरम्भोभिः संसिक्ता लब्धचेतना । उत्थाय विललापैवं जानकी करुणस्वरम् ॥२४९।। हा वत्स! लक्ष्मण! क्वाऽगास्त्यक्त्वैकाकिनमग्रजम् । मुहूर्तमपि हि स्थातुं विना त्वामेष न क्षमः ॥२५०॥ धिगहं मन्दभाग्याऽस्मि यतो मम कृतेऽधुना । स्वामि-देवरयोर्देवतुल्ययोरीगागतम् ॥२५१।। प्रसीद मत्प्रवेशाय द्विधा भव वसुन्धरे! । प्रार्णनिर्याणहेतोस्त्वं भव वा हृदय! द्विधा ॥२५२।। एवं रुदन्ती करुणं सीतां काऽपि कृपावती। अवलोक्याऽवलोकिन्या विद्याधर्यब्रवीदिति ।।२५३।। भविष्यत्यक्षताङ्गस्ते प्रभाते देवि! देवरः । समं च रामभद्रेण त्वामेत्याऽऽनन्दयिष्यति ॥२५४॥ स्वस्थावस्था तद्गिराऽस्थात् काकुत्स्र्थगृहिणी तदा । सूर्योदयं चिन्तयन्ती चक्रवाकीव जाग्रती ॥२५५।। पासौमित्रिर्मारितोऽद्येति क्षणं जहर्ष रावणः । क्षणं स्मृत्वा भ्रातृ-पुत्र-मित्रबन्धं रुरोद च ॥२५६।। हा वत्स! कुम्भकर्ण! त्वं ममाऽऽत्मैवाऽपरः परः । द्वितीयाविव मे बाहू हेन्द्रजिन्मेघवाहनौ! ॥२५७|| हा वत्सा! जम्बुमाल्याद्या! मम रूपान्तरोपमा:! । अप्राप्तपूर्वं प्राप्ता: स्थ कथं बन्धं गजा इव ? ॥२५८।। स्मारं स्मारं स्वबन्धूनामित्थं बन्धादि नूतनम् । भूयो भूयो दशग्रीवो मुमूर्च्छ च रुरोद च ॥२५९।। पाइतश्च पद्मसैन्येऽवाक्प्राकारद्वाररक्षकम् । भामण्डलमुपेत्यैवं कोऽपि विद्याधरोऽवदत् ॥२६०।। पद्मपादान् दर्शय मे तदाप्तो ननु यद्यसि । अहं लक्ष्मणजीवातुमाख्यास्यामि हितोऽस्मि वः ॥२६१॥ विधृत्य पाणिना दोष्णि नीतो भामण्डलेन स: । पद्यस्य पादपद्मान्ते प्रणम्यैवं व्यजिज्ञपत् ॥२६२।। सङ्गीतपुरनाथस्य शशिमण्डलभूपतेः । तनयः प्रतिचन्द्रोऽहं सुप्रभाकुक्षिसम्भवः ॥२६३॥ क्रीडार्थं सकलत्रोऽहं चलितोऽन्येधुरम्बरे । दृष्टः सहस्रविजयनाम्ना विद्याधरेण च ॥२६४॥ तेन मैथुनिका वैरादु योधितोऽहं चिरं तदा। पातितश्चण्डरवया शक्त्या चाऽऽहत्य भतले ॥२६५॥ साकेतपुर्यां माहेन्द्रोदयोद्याने लुठन् भुवि । दृष्टश्च भरतेनाऽहं त्वद्भात्राऽतिकृपालुना ।।२६६।। सद्यो गन्धाम्बुभिस्तेन सिक्तोऽहं पृथिवीभुजा । मत्तश्च निरगाच्छक्तिर्दस्युः परगृहादिव ॥२६७।। सद्यो रूढप्रहारेण मया विस्मितचेतसा । पृष्टो गन्धाम्बुमाहात्म्यमित्यशंसत् तवाऽनुजः ॥२६८।। १. शोकाय ॥२. 'त्वं अस्माभिः कृतार्थो न कृतः' इति विचारोऽस्माकं महते शोकाय भवति ।। ३. लक्ष्मणवर्त्मना मृत्युरूपेणेत्यर्थः ।। ४. स्वस्य-तव बन्धुंरावणम् ।। ५. रात्रिम् ।। ६. प्रतिकाराय ता. ॥७. रात्रिः।। ८. मन्दो पाता. ला.; मेन्दो खं.१-२॥ ९. जागरूकाः ।।१०. योगिनः ॥११. प्राणनिर्वाण मु., रस्वीपा.; प्राणनिर्गमनहेतुना ॥१२. भविष्यति शुभाङ्गस्ते ला. ॥१३. सीता ।। १४. बन्धनम् ॥१५. हा! इन्द्र० इति पदच्छेदः ।। १६. ०सैन्ये प्राक्० मु., रस्वीपा.; "दक्षिणोत्पन्न” इति टि.ला. ॥ १७. अलं मु., रस्वीपा. ।। १८. जीवनौषधम् ।। १९. मैथुननिमित्तकात् ।। २०. चौरः ।। २१. गन्धाम्बुमाहात्म्य शशंसैवं तवा० ला.॥ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०९ सप्तम: सर्गः) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । सार्थवाहो विन्ध्यनामाऽभ्यगाद् गजपुरादिह। एकस्तन्महिषो मार्गेऽतिभारत्रुटितोऽपतत्॥२६९॥ तन्मूर्ध्नि पादं विन्यस्य सञ्चचार पुरीजनः । उपद्रवेण महता विपन्न: सोऽथ सैरिभः ॥२७०॥ सोऽकामनिर्जरायोगाच्छेतकरपुरेश्वरः । सुरो वायुकुमारोऽभून्नाम्ना पवनपुत्रकः ॥२७१॥ ज्ञात्वा चाऽवधिना पूर्वं मृत्यु प्रकुपितोऽथ सः । पुरे जनपदे चाऽस्मिन् व्याधीन् नानाविधान् व्यधात् ॥२७२।। देशे गृहे च न व्याधिरभून्मन्मातुलस्य तु । द्रोणमेघनरेन्द्रस्य मन्महीवर्तिनोऽपि हि ॥२७३॥ अव्याधिकारणं पृष्टो मया द्रोणघनोऽवदत्। भार्या प्रियङ्करा मेऽभूत् पुराऽतिव्याधिबाधिता॥२७४।। जाते गर्भे तत्प्रभावाद् व्याधिनाऽमुच्यताऽथ सा । सुषुवे च क्रमात् पुत्रीं विशल्यामभिधानतः ॥२७५।। त्वद्देश इव मद्देशेऽप्युद्भूते व्याध्युपद्रवे । विशल्यास्नानतोयेन सिक्तो लोकोऽभवद् विरुक् ॥२७६।। पृष्टो मया सत्यभूतशरणो मुनिरन्यदा। वदति स्म विशल्याया: प्राग्जन्मतपसः फलम् ॥२७७।। व्रणरोहणं शल्यापहारो व्याधिसङ्ग्यः। नृणां स्नानाम्भसाऽप्यस्या भावी भर्ता च लक्ष्मणः ॥२७८।। तया मुनिगिरा सम्यग् जातादनुभवादपि । विशल्यास्नानपयस: प्रभावो निश्चितो मया ॥२७९।। इत्यदित्वा द्रोणमेघो विशल्यास्नपनोदकम। ममाऽपि ह्यार्पयत तेनाऽभवद भमिर्ममाऽप्यरुक॥२८०॥ तस्याः स्नानाम्भसाऽनेन मया सिक्तस्त्वमप्यहो! । निःशक्तिशल्य: संरूढव्रणश्च समभूः क्षणात् ॥२८१।। भरतस्य ममाऽप्येवमुत्पन्न: प्रत्यय: प्रभो! । आ प्रत्यूषादानयत विशल्यास्नानवारि तत् ॥२८२॥ त्वर्यतां त्वर्यतां तस्मात् प्रत्यूषे किं करिष्यथ ? । पर्यस्ते शकटे हन्त किं कुर्वीत गणाधिप: ? ॥२८३।। भामण्डलं हनूमन्तमङ्गदं च रघूद्वहः । आदिशत् प्रतिभरतं विशल्यास्नानवारिणे ॥२८४।। प्रययुस्ते विमानेनाऽयोध्यां पवनरंहसा । प्रासादाङ्के च ददृशुः शयानं भरतं नृपम् ।।२८५॥ भरतस्य प्रबोधाय ते गीतं चक्रुरम्बरे । राजकार्येऽपि राजान उत्थाप्यन्ते ह्युपायत: ॥२८६।। विबुध्य भरतेनाऽपि दृष्टः पृष्टः पुरो नमन् । ऊचे भामण्डल: कार्यं नाऽऽप्तस्याऽऽप्ते प्ररोचना ।।२८७।। सेत्स्यत्येतन्मया तत्रेयुषेति भरतस्ततः । तद्विमानाधिरूढोऽगात् पुरं कौतुकमङ्गलम् ॥२८८॥ भरतेन द्रोणघनो विशल्यामथ याचितः । सहोद्वाह्य स्त्रीसहस्रसहितां तामदत्त च ॥२८९।। भामण्डलोऽप्ययोध्यायां मुक्त्वा भरतमुत्सुकः । आययौ सपरीवारो विशल्यासंयुतस्ततः ॥२९०॥ ज्वलद्दीपविमानस्थो भीतैः सूर्योदयभ्रमात् । क्षणं दृष्टो निजैः सोऽधाद् विशल्यामुपलक्ष्मणम् ॥२९१॥ तया च पाणिना स्पृष्टाल्लक्ष्मणात् तत्क्षणादपि । निर्जगाम महाशक्तिर्यष्टिनेव महोरगी ॥२९२॥ समुत्पतन्ती सा शक्तिः समुत्पत्य हनूमता। प्रसभं जगृहे श्येनविहगेनेव वर्तिका ॥२९३।। साऽप्यूचे देवतारूपा न मे दोषोऽस्ति कश्चन । प्रदत्ता धरणेनाऽस्मै प्रज्ञप्तिभगिनी ह्यहम् ।।२९४।। विशल्याप्राग्भवतपस्तेजः सोढुमनीश्वरी । एषा यास्यामि मां मुञ्च प्रेष्यभावादनीगसम् ॥२९५।। इत्युक्तो मुक्तवान् शक्तिंमारुतिस्तां महाभुजः । मुक्तमात्रा च सा शक्तिलज्जितेव तिरोदधे॥२९६।। विशल्याऽपि हि सौमित्रिं भूय: पस्पर्श पाणिना। विलिलेप च गोशीर्षचन्दनेन शनैः शनैः ।।२९७।। रूढव्रणोऽथ सौमित्रिर्द्राक् प्रसुप्त इवोत्थितः। सस्वजे रामभद्रेण वर्षताऽश्रुजलं मुदा ॥२९८॥ सर्वं विशल्यावृत्तान्तं रामस्तस्मै शशंस च। तत्स्नानपयसा चाऽऽशु स्वान् पैरांश्चाऽभ्यषेचयत् ॥२९९॥ १. महिषः ।। २. रभून्मे मातुल० खं.२ ।। ३. च खं.१-२॥४. व्याधिना मुमुचेऽथ० ला. ॥५. रोगरहितः॥६. सत्यभूति: पाता.; सत्यभूतचारणो हे. मो. ॥ ७. निजगाद मो.।। ८. अत्र स्थाने ला.सञकप्रतौ टिप्पितं गाथात्रिकमेवं"एवं साऽणंगसरा, वाससहस्साणि तिण्णि तवचरणं । काऊण य संविग्गा, ववसइ संलेहणं तत्तो ॥१॥ पच्चक्खिअ आहारं, चउव्विहं देहमाइअंसव्वं । भणइ अ हत्थसयाओ, एओ पुरओ ण गंतव्वं ।।२।। निअमस्स छट्ठदिवसे, वोलीणे नवरि खेअरो एक्को । नामेण लद्धिआसो, पणमिअमेरुं पडिनिअत्तो॥३॥इति वृद्धपद्मचरिते ॥" मुद्रिते पउमचरिए(पद्मचरिते) तु उ.६३, गाथा : ४९-५०-५१(पृ.३८८)। ९.सम्यग् ज्ञाना० ता.विना सर्वप्रतिषु, मु.॥१०. भूमिर्देशः ।।११. त्वमभूः मु.॥१२.०मुत्पन्नप्रत्ययं खं.१, पाता.॥१३. प्रात:कालात् पूर्वम् ।। १४. भग्ने 'उल्ललिते' इति टि. ला.॥१५. 'गणेशः' इति टि. ला.॥१६. पवनवेगेन ।। १७. प्रस्तावना-प्रीतिवाक्यं(खुशामत)॥१८. सह लक्ष्मणेन' इत्यध्याहारः; अथवा 'स:'-द्रोणघन:,'ह' इति स्फुटार्थे ऽव्ययम् ॥१९. सर्पिणी।।२०. 'चटिका' इति टि. ला.;'चकली' ।। २१.प्रैष्य० मु.॥२२. 'अपराधरहितां' इति टि. ला. ।। २३. वर्षताऽमू० खं.१-२, पाता. ॥ २४. रावणभटान् ॥ Jain Education intémonar Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (सप्तमं पर्व कन्यासहस्रसहितां विशल्यां रामशासनात् । तदानीमेव सौमित्रिरुपयेमे यथाविधि ॥३०॥ सौमित्रे वनोद्वाहोत्साहजन्मा महोत्सवः । विद्याधरनपैश्चक्रे जगदाश्चर्यकारणम ॥३०॥ सौमित्रिर्जीवित इति चरैर्नक्तञ्चराधिपः । विज्ञाय मन्त्रयाञ्चक्रे समं मन्त्रिवरैरिति ॥३०२।। अभवन्मम भावोऽयं सौमित्रि: शक्तिताडित: । प्रातर्मरिष्यति ततो रामोऽपि स्नेहपीडित: ॥३०३।। यास्यन्ति कपयो नंष्ट्वा ते च मद्बन्धु-सूनवः । कुम्भकर्णेन्द्रजिन्मुख्या: स्वयमेष्यन्ति मामिह ॥३०४॥ अधुना दैववैगुण्याल्लक्ष्मण: सोऽपि जीवित: । मया मोचयितव्यास्ते कुम्भकर्णादयः कथम् ? ॥३०५।। मन्त्रिणोऽप्येवमूचुस्तं जानकीमोक्षणं विना। न मोक्ष: कुम्भकर्णादिवीराणां प्रत्युताऽशिवम् ।।३०६॥ इयत्यपि गते स्वामिन्! रक्ष रक्ष निजं कुलम् । उपायश्चाऽत्र नाऽन्योऽस्ति रामानुनयनं विना ।।३०७|| रावणस्तानवज्ञाय दूतं सामन्तमादिशत् । साम-दान-दण्डपूर्वमनुशिष्योपराघवम् ।।३०८।। स गत्वा द्वा:स्थविज्ञप्त: सुग्रीवादिसमावृतम् । पद्मनाभं नमस्कृत्य व्याजहारेति धीरगी: ॥३०९।। दशास्यस्त्वां वदत्येवं बन्धुवर्ग विमुञ्च मे । जानकीमनुमन्यस्व राज्यार्धं च गृहाण मे ॥३१०॥ त्रीणि कन्यासहस्राणि तुभ्यं दास्यामि, तेन च। सन्तुष्य, नो चेत् ते सर्वं न ह्येतन्न च जीवितम् ॥३११।। बभाषे पद्मनाभोऽथ नाऽर्थो मे राज्यसम्पदा। न चाऽन्यप्रमदावर्गभोगेन महताऽपि हि ॥३१२॥ प्रेषयिष्यत्यर्चयित्वा जानकीं रावणो यदि । तदा मोक्ष्यामि तद्वन्धु-तनयानन्यथा न हि ॥३१३॥ सामन्तः पुनरप्यूचे राम! नैतत् तवोचितम् । स्त्रीमात्रकस्याऽस्य कृते स्वं क्षेप्तुं प्राणसंशये ॥३१४।। सौमित्रिरेकवारं चेज्जीवितो रावणाहत: । जीविष्यति कथं सोऽद्य त्वं चाऽमी च प्लवङ्गमा: ? ॥३१५।। एकोऽपि रावणो हन्तुमिदं विश्वमपीश्वरः । सर्वथा तद्वचो मान्यमुदर्कं विमृश स्वयम् ॥३१६।। लक्ष्मणस्तद्राि क्रुद्धोऽभ्यधारे दूतपांशन! । स्वशक्तिं परशक्तिं वा वेत्त्यद्याऽपि न रावणः ॥३१७।। हत-बद्धपरीवारो भार्याशेषीकृतोऽपि सन् । पौरुषं नाटयत्येष एषा का तस्य धृष्टता ? ॥३१८॥ शलश्छिन्नाशेषजटस्तरुः । यथा सोऽपि तथैकाङ्ग: कियत् स्थास्यति रावणः ॥३१९।। तद् गच्छ संवाहय तं युद्धाय दशकन्धरम् । कृतान्त इव सज्जो मे तं व्यापादयितुं भुजः ॥३२०।। लक्ष्मणेनैवमाक्षिप्तो विभाषितुमना: स तु । उत्थाय धृत्वा ग्रीवायां वानरैर्निरवास्यत ॥३२१॥ रावणाय स गत्वाऽऽख्यत् सर्वं राघववाचिकम् । सचिवान् रावणोऽप्यूचे किं कार्यं ? ब्रूत सम्प्रति ॥३२२॥ अब्रुवन् मन्त्रिणोऽप्येवं सीतार्पणमिहोचितम् । व्यतिरेकफलं दृष्टं पश्याऽन्वयफलं प्रभो! ॥३२३॥ अन्वय-व्यतिरेकाभ्यां सर्वं कार्यं परीक्ष्यते । एकेन व्यतिरेकेण किं स्थितोऽसि दशानन! ? ॥३२४।। अक्षता बहवोऽद्याऽपि बन्धवः सूनवश्च ते । सीतार्पणाद् विमुक्तैस्तै: सममेधस्व सम्पदा ।।३२५।। तेषां सीतार्पणगिरा मर्मणीव हतोऽधिकम् । अन्तर्दूनो दशमुखश्चिरं स्वयमचिन्तयत् ।।३२६।। पाविद्याया बहुरूपाया हृदि निर्णीय सोधनम् । शान्तिचैत्यं ययौ शान्तकषायीभूय रावणः ॥३२७॥ स्नात्रं श्रीशान्तिनाथस्य पयस्कुम्भैर्दशाननः । स्वयमिन्द्र इवाऽकार्षीद् भक्त्या विकसिताननः ॥३२८॥ गोशीर्षचन्दनेनाऽङ्गरागं पुष्पैश्च दैवतैः । पूजां विधाय श्रीशान्ते: स्तुतिमेवं विनिर्ममे ॥३२९॥ देवाधिदेवाय जगत्तायिने परमात्मने । श्रीमते शान्तिनाथाय षोडशायाऽर्हते नमः ॥३३०॥ श्रीशान्तिनाथ! भगवन्! भवाम्भोनिधिारण! । सर्वार्थसिद्धिमन्त्राय त्वन्नाम्नेऽपि नमो नमः ॥३३१।। ये तवाऽष्टविधां पूजां कुर्वन्ति परमेश्वर! । अष्टाऽपि सिद्धयस्तेषां करस्था अणिमादयः॥३३२॥ धन्यान्यक्षीणि यानि त्वां पश्यन्ति प्रतिवासरम् । तेभ्योऽपि धन्यं हृदयं तदृष्टो येन धार्यसे ॥३३३॥ देव! त्वत्पादसंस्पर्शादपि स्यान्निर्मलो जनः । अयोऽपि हेमीभवति स्पर्शवेधिरसान्न किम् ? ॥३३४॥ १. रावणः ।। २. सामदाम० मु.॥ ३. सीतां मम समर्पयेत्यर्थः ।। ४. वा ता. ॥ ५. सन्तुष्टो भव ॥ ६. उदर्कः फलमुत्तरम् ।। ७. हतबन्धु० मु. खं.१-२, पाता. ।। ८. यस्य वृक्षस्य मूले मुशलमात्रमेव अवशिष्टं, शेषा जटा: छिन्नाः, तादृशमूलयुक्ततरुरिव ।। ९. लक्ष्मणसन्देशम् ।। १०. सीतार्पणाभावेऽनर्थरूपं फलं दृष्टं इति व्यतिरेकः, अधुना सीतार्पणरूपस्याऽन्वयस्य फलं पश्य ।।११. बाहवो० पाता. ॥१२. साधनाम् ता.॥१३.०भूतरावण: पाता. ता.; शान्तकषायो भूत्वा ।। १४. ०तारणे पाता. ।। १५. सर्वार्थसिद्ध० ला.विना ॥१६. तैरक्षिभिदृष्टः ।। पलाए Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः ) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । त्वत्पादाब्जप्रणामेन नित्यं 'भूलुठनैः प्रभो! । शृङ्गारतिलकीभूयान्मम भाले 'किणावलिः ॥ ३३५॥ पदार्थै: पुष्प-गन्धाद्यैरुपैहारीकृतैस्तव । प्रभो ! भवतु मद्राज्यसम्पद्वल्लेः सदा फलम् ||३३६॥ भूयो भूयः प्रार्थये त्वामिदमेव जगद्विभो ! । भगवन्! भूयसी भूयात् त्वयि भक्तिर्भवे भवे ॥ ३३७ ॥ स्तुत्वेति शान्तिं लङ्केशः पुरो रत्नशिलास्थितः । तां साधयितुमारेभे विद्यामक्षम्रजं दधत् ॥ ३३८ ॥ अथ मन्दोदरी द्वाःस्थं यमदण्डमदोऽवदत् । जिनधर्मरतोऽष्टाहान्यस्तु सर्वोऽपि पूर्जनः ॥ ३३९॥ न करिष्यति यस्त्वेवं तस्य दण्डो वधात्मकः । भविष्यतीति लङ्कायामाघोषय हैतानकः ॥ ३४० ॥ तदादेशेन स द्वाःस्थः पुर्यामाघोषयत् तथा । तच्च चारनरैरेत्य सुग्रीवाय न्यवेद्यत ॥ ३४९ ॥ "सुग्रीवोऽप्यब्रवीदेवं न यावद् बहुरूपिणीम् । विद्यां साधयति स्वामिंस्तावत् साध्यो दशाननः || ३४२॥ स्मित्वा पद्मोऽप्युवाचैवं शान्तं ध्यानपरायणम् । कथं दशास्यं गृह्णामि ? न ह्यहं स इव च्छली ॥३४३॥ इति रामवचः श्रुत्वा छन्नमेवाऽङ्गदादयः । विद्याभ्रंशाय लङ्केशं शान्तिचैत्यस्थितं ययुः || ३४४|| विदधुर्विविधांस्तत्रोपसर्गांस्ते निरर्गलाः । मनागपि न तु ध्यानादचालीद् दशकन्धरः ||३४५|| अथाऽङ्गदो जगादैवं रामाद् भीतेन किं त्वया । इदं पाखण्डमारब्धमप्राप्तशरणेन भोः ! ? || ३४६|| त्वया परोक्षे मद्भर्तुर्हृता भार्या महासती । मन्दोदरीं तु ते पत्नीं पश्यतोऽपि हराम्यहम् ||३४७|| इत्युदीर्याऽमन्दरोषोऽकर्षन्मन्दोदरीं कचैः । सोऽनाथामिव रुदतीं कुररीकरुणस्वराम् ||३४८|| रावणो ध्यानसंलीनः प्रेक्षाञ्चक्रेऽपि तां न हि । प्रादुरासीच्च सा विद्या द्योतयन्ती नभस्तलम् ||३४९|| सेत्यूंचे तव सिद्धाऽस्मि ब्रूहि किं करवाणि भोः ! ? । करोमि ते वशे विश्व कियन्मात्रौ हि राघवौ ? ॥ ३५० ॥ रावणः प्रत्युवाचैवं सर्वं निष्पद्यते त्वया । स्मृता समापतेः काले स्वस्थानं गच्छ सम्प्रति ॥३५१॥ तद्विसृष्टा तिरोधत्त सा विद्या तेऽपि वानराः । स्कन्धावारं निजं जग्मुरुत्प्लुत्य पवमानवत् ॥३५२॥ मन्दोदर्यङ्गदो दन्तं शुश्राव च दशाननः । चक्रे च सद्योऽहङ्कारगर्भं हुङ्कारमुच्चकैः ॥ ३५३॥ 1 स्नात्वा भुक्त्वा च लङ्केशोऽगाद् देवरमणे वने । ऊचे सीतां च सुचिरं मया तेऽनुनयः कृतः ॥३५४॥ उज्झित्वा नियमभङ्गभीरुत्वमधुना पुन: । सेविंष्येऽहं प्रसह्य त्वां हत्वा त्वत्पति - देवरौ ॥ ३५५॥ तद्वाचा विषसध्रीच्या मूर्च्छिता जनकात्मजा । निपपात दशास्यस्य तस्यामाशेव तत्क्षणम् ॥३५६॥ कथञ्चिल्लब्धसञ्ज्ञा सा जग्राहैवमभिग्रहम् । मृत्युश्चेद् राम- सौमित्र्योस्तदाऽस्त्वनशनं मम || ३५७ || तच्छ्रुत्वा रावणो दध्यौ रामे स्नेहो निसर्गजः । अस्यास्तदस्यां मे रागः स्थले कमलरोपणम् ॥ ३५८।। कृतं युक्तं मया तन्नाऽवज्ञातो यद् बिभीषणः । नाऽमात्याः मानिताः स्वं च कुलमेतत् कलङ्कितम् ॥३५९॥ मुञ्चाम्येतामद्य चेत् तन्न विवेकपदे पते । रामाक्रान्तेन मुक्तेयमिति स्यात् प्रत्युताऽयशः ॥ ३६० ॥ वेह राम - सौमित्री समानेष्ये ततस्तयोः । अर्पयिष्याम्यमूं धर्म्यं यशस्यं च हि तद् भवेत् ॥ ३६१|| ॥इति निश्चित्य लङ्केशस्तामतीत्य विभावरीम् । युद्धे चचालाऽशकुनैर्वार्यमाणोऽपि दुर्मदः || ३६२ || भूयः प्रववृते युद्धं राम-रावणसैन्ययोः । अत्युद्भटभटभुजास्फोटत्रासितदिग्गजम् ॥ ३६३॥ विधूयाऽशेषरक्षांसि तूलानीव महाबलः । लक्ष्मणस्ताडयामास विशिखैर्दशकन्धरम् || ३६४|| सौमित्रेर्विक्रमं दृष्ट्वा साशङ्को दशकन्धरः । सस्मार बहुरूपां तां विद्यां विश्वभयङ्कराम् ॥३६५॥ स्मृतिमात्रोपस्थितायां विद्यायां तत्र रावणः । विचक्रे भैरवाण्याशु स्वानि रूपाण्यनेकशः ॥ ३६६॥ भूमौ नभसि पृष्ठेऽग्रे पार्श्वयोरपि लक्ष्मणः । अपश्यद् रावणानेव विविधायुधवर्षिणः || ३६७॥ तवद्रूप इवैकोऽपि तार्क्ष्यस्थो लक्ष्मणोऽपि तान् । जघान रावणान् बाणैश्चिन्तितोपैनतैः शैतैः ॥ ३६८।। T २११ १. भूलुण्ठनैः मु. रस्वीपा ॥। २. व्रणावलिः ॥ ३. ०रुपहारैः ता. ॥ ४. अक्षमालाम्- जपमालाम् ॥ ५. 'आनकः पटह:' इति टि. ला. ॥ ६. चरनरै० ला ॥ ७. अहं रावण इव कपटी न ॥ ८. करैः ता.; केशैः ॥ ९. टिट्टिभी ॥ १०. ० स्वरम् ता ॥ ११. साऽप्यूचे पाता. ॥। १२. आगच्छेः ॥ १३. जग्मुरुत्पत्य मु. रस्वीपा. ।। १४. पवनवत् ॥ १५. रमयिष्ये मु. ला ॥ १६. विषतुल्यया ।। १७. सीतायां विषये रावणस्याऽऽशेव ।। १८. रामस्नेहो ता . ॥। १९. मया न युक्तं तच्चक्रेऽवज्ञातो ० ला ॥ २०. भवेत् ॥ २१. युधे ता. ॥ २२. वायुः कार्पासपुंभिका इव ।। २३. विशेषै० ला ॥ २४. तावन्ति रावणतुल्यानि एव रूपाणि Jain Educatयस्य स तावद्रूपः ॥ २५. चिन्तिता एव उपनता: हस्तमागताः ।। २६. शरै: मु; शतैः रसंपा, dbnly Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सप्तमं पर्व २१२ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं नारायणस्य तैर्बाणैर्विधरोदशकन्धरः। सस्मार जाज्वलच्चक्रमर्धचक्रित्वलाञ्छनम॥३६९।। रोषारुणाक्षस्तच्चक्रं भ्रमयित्वा नभस्तले । मुमोच रावण: शस्त्रमन्त्यं रामानुजन्मने ॥३७०।। कृत्वा प्रदक्षिणां तत् तु सौमित्रेर्दक्षिणे करे। अवतस्थे रविरिवोदयपर्वतमूर्धनि ॥३७१।। विषण्णो रावणो दध्यौ सत्यं जातं मुनेर्वचः । तेषां बिभीषणादीनां सत्यश्चालोचनिर्णयः ॥३७२॥ विषण्णं भ्रातरं प्रेक्ष्य भूयोऽप्यूचे बिभीषणः । भ्रातरद्याऽपि वैदेहीं मुञ्च त्वं चेज्जिजीविषुः ॥३७३॥ कुद्धस्तं रावणोऽवोचत् किं मेऽस्त्रं चक्रमेव रे! ? । द्विषं सचक्रमप्येनं द्राग्घनिष्यामि मुष्टिना ॥३७४॥ इति दर्पाद् विब्रुवतो रक्षोनाथस्य लक्ष्मणः । वक्षस्तेनैव चक्रेण कूष्माण्डवदपाटयत् ॥३७५।। तदा च ज्येष्ठकृष्णैकादश्यामश्च पश्चिमे । यामे मृतो दशग्रीवश्चतुर्थं नरकं ययौ ॥३७६।। सपदि जय जयेति व्याहरद्भिर्युसद्भिय॑रचि कुसुमवृष्टिलक्ष्मणस्योपरिष्टात् । समजनिच कपीनां ताण्डवं चण्डहर्षोत्थितक्लिकिलनादापूर्णरद्रोनिकुञ्जम् ॥३७७।। इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये सप्तमे पर्वणि रावणवधो नाम सप्तमः सर्ग: समाप्तः ।। १. माणिः ॥ २ पञ्चेत सा. शिरः सः ॥ ४. हि च ॥५. लिकिलित . स. ला १. मन्त्रनिर्णयः ।। २.०मप्येतं ता. ।। ३. शिर० ला. ।। ४.०महि च ता. ।। ५. ०किलिकिलि० खं.२, ता. ला.॥६. रोद:-आकाश-पृथिव्यौ ।। ७. सप्तमपर्वणि खं.१-२॥ ८. 'समाप्तः' इति खं.१-२, ता. ला.प्रतिषु न ।। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥अष्टम: सर्ग:॥ अथो बिभीषणस्तत्रकान्दिशीकान् निशाचरान्। एवमाश्वासयामास ज्ञातिस्नेहवशीकृतः॥१॥ पद्म-नारायणावेतावष्टमौ बल-शाङ्गिणौ। शरण्यौ शरणायाऽऽशुश्रयध्वमविशङ्किता:॥२॥ ते सर्वे शिश्रियुः पद्म-सौमित्री तौ च चक्रतुः । तेषां प्रसादं वीरा हि प्रजासु समदृष्टयः ।।३।। हतंचभ्रातरं दृष्ट्वा शोकावेशाद् बिभीषण: । मर्तुकाम: स्वयमपि चकर्षक्षुरिकां निजाम्॥४॥ तया स्वकुक्षिाघ्नानं दधेरामो बिभीषणम्। हा! भ्रातर्धातरित्युच्चैः क्रन्दन्तं करुणाक्षरम् ॥५।। मन्दोदर्यादिभिः सार्धं रुदन्तमपरावणम। इति तंबोधयामासपद्मनाभः सलक्ष्मणः॥६॥ ईदृक्पराक्रम: सोऽयं न हि शोच्यो दशाननः । यस्याऽऽशशङ्किरे दूरं समरेष्वमरा अपि॥७॥ वीरवृत्त्याऽनया मृत्युंगतोऽसौ कीर्तिभाजनम् । तदस्योत्तरकार्याणि कुरुध्वं रुदितैरलम् ।।८।। इत्युदित्वा पद्मनाभो महात्मा प्राप्तबन्धनान् । कुम्भकर्णेन्द्रजिन्मेघवाहनादीनमोचयत् ॥९॥ बिभीषण: कुम्भकर्णः शक्रजिन्मेघवाहनः । मन्दोदर्यपि सम्भूयाऽपरेऽपि पतदश्रवः ॥१०॥ दशग्रीवाङ्गसंस्कारं सद्यो गोशीर्षचन्दनैः । कर्पूरागुंरुसम्मिश्रैर्विदधुङलितानलैः॥११युग्मम्।। पद्म: पद्मसरस्येत्य ते च स्नात्वा जलाञ्जलिम् । समर्मश्रुजलै: कोष्णैः प्रददुर्दशमौलये॥१२॥ गिराऽभिरामया राम: किन्निव सुधारसम्। सलक्ष्मण: कुम्भकर्णप्रभृतीनित्यभाषत॥१३॥ पूर्ववत् स्वस्वराज्यानि कुरुध्वमधुनाऽपि हि। युष्मल्लक्ष्म्या न न: कृत्यं हे वीरा:! क्षेममस्तु वः॥१४॥ इत्युक्ता: पद्मनाभेन युगपच्छोक-विस्मयौ । बिभ्राणा: कुम्भकर्णाद्या जगदुर्गद्गदाक्षरम्॥१५॥ नाऽर्थो राज्येन न: कश्चित्प्राज्येनाऽपि महाभुज! । ग्रहीष्याम: परिव्रज्यां मोक्षसाम्राज्यसाधनीम्॥१६।। अत्राऽन्तरे च कुसुमायुधोद्याने महामुनिः। अप्रमेयबलो नाम चतुर्ज्ञानी समाययौ॥१७ तत्रैव निशि तस्याऽभूत् केवलज्ञानमुज्ज्वलम्। चक्रुश्च केवलज्ञानमहिमानं दिवौकसः॥१८॥ प्रातश्च राम-सौमित्री कुम्भकर्णादयश्च ते। उपेत्य तमवन्दन्त ततो धर्मं च शुश्रुवुः ॥१९॥ पप्रच्छतुर्देशनान्ते शक्रजिन्मेघवाहनौ । परं वैराग्यमापन्नौ पुरातनभवान्निजान्॥२०॥ मुनिः सोऽथाऽब्रवीत् पुर्यों कौशाम्ब्यामिह भारते। निस्वौ बन्धूयुवां जातौ नाम्ना प्रथम-पश्चिमौ॥२१॥ तावन्यदाभवदत्ताधर्मं श्रुत्वा महामुनेः। व्रतं जगृहतुःशान्तकषायौ च विजह्रतुः ॥२२॥ अन्येद्युस्तौ तु कौशाम्ब्यां गतौ ददृशतुर्नुपम् । पत्न्येन्दुमुख्या क्रीडन्तं नन्दिघोष मधूत्सवे ॥२३॥ तं दृष्ट्वा पश्चिमोऽकार्षीनिदानं तपसाऽमुना। ईदृक्क्रीडापरः पुत्रः भूयासमनयोरहम् ।।२४।। साधुभिर्वार्यमाणोऽपि निदानान्न न्यवर्तत । मृत्वा च पश्चिमो जज्ञे तयोस्तुग्रतिवर्धनः ॥२५।। क्रमेणोद्यौवन: प्राप्तराज्य: सरतिवर्धनः । पितेव रेमे विविधं रमणीभिः समावृतः ॥२६॥ मृत्वा प्रथमसाधुस्तु निर्निदानतपोवशात्। बभूव पञ्चमे कल्पे त्रिदश: परमर्द्धिकः॥२७॥ सोऽवधेतिरं ज्ञात्वा तत्रोत्पन्नं महीपतिम्।तंबोधयितुमभ्यागात् मुनिरूपधर: सुरः॥२८|| १. भयत्रस्तान् राक्षसान् ।। २. च्छु रिकां मु. ।। ३. ०क्षिं निघ्नानं खं.१॥४. दूरे मु.; अत्यर्थम् ।। ५. ०दीनबोधयत् हे. मो. ।। ६. मन्दोदरी च ता. ।। ७. सम्भूय परे० खं.१-२, पाता. ला. ॥ ८. कर्पूरागरु० ता. विना ।। ९. खं.१-२, पाता. ला.प्रतिषु न।।१०. बिभीषणादयः ।। ११. सममम्रजलैः खं.१-२, पाता. ला. ॥१२. ईषदुष्णैः ।।१३. वर्षन्निव ।। १४. अत्र ला.प्रतौ टिप्पितं गाथाद्विकमिदं"अह तस्स दिणस्संते, साहू नामेण अप्पमेयबलो। छप्पण्णसहसजुत्तो, मुणीण लंकापुरी पत्तो ॥१॥ जइसो मुणी महप्पा, पत्तो लंकाहिवंमि जीवंते। तो लक्खणस्स पीती, होति(ती) सह रक्खसिंदेण॥२॥इति वृद्धपद्मचरिते॥" (मुद्रिते पउमचरिए उ.७५, गा.२३-२३; पृ.४२८)॥ १५. निर्धनौ ।। १६. भवद्दत्ता० ता. ॥१७. वसन्तोत्सवे ॥१८. तुक्-पुत्रः । Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (सप्तमं पर्व रतिवर्धनराजेनाऽर्पिते पट्टे निषद्य सः। शशंस प्राग्भवं तस्य स्वस्य च भ्रातृसौहृदात् ।।२९।। सञ्जातजातिस्मरणाद् विरक्तो रतिवर्धनः । प्रावाजीदथ मृत्वा च ब्रह्मलोके सुरोऽभवत् ।।३०।। च्युत्वा ततो विदेहेषु विबुद्धनगरे युवाम् । अभूतं भ्रातरौ भूपौ प्रव्रज्याऽच्युतमीयथुः ॥३१॥ च्युत्वाऽच्युताद् दशास्यस्य प्रतिविष्णोस्तु सम्प्रति । पुत्रौ युवामजायेथामिन्द्रजिन्मेघवाहनौ ॥३२॥ रतिवर्धनमाता तु भवं भ्रान्त्वेन्दुमुख्यपि । मन्दोदरी समभवज्जननी युवयोरियम् ॥३३॥ कुम्भकर्णेन्द्रजिन्मेघवाहनाद्या निशम्य तत् । मन्दोदर्यादयश्चाऽपि तदैवाऽऽददिरे व्रतम् ॥३४।। मुनिं नत्वा तु तं रामः ससौमित्रि-कपीश्वरः । बिभीषणेन प्रहेण वेत्रिणेवाऽग्रगामिना ॥३५।। दर्श्यमानपथो विद्याधरीभिः कृतमङ्गलः । ऋद्ध्या महत्येन्द्र इव लङ्कायां प्राविशत् पुरीम् ॥३६॥युग्मम्।। गिरेः पुष्पगिरेर्मूर्धन्युद्याने तत्र मैथिलीम् । गत्वा ददर्श काकुत्स्थो यथाख्यातां हनूमता ॥३७|| तामत्क्षिप्य निजोत्सङ्गे द्वितीयमिव जीवितम् । तदैव जीवितम्मन्यो धारयामास राघवः ॥३८॥ इयं महासती सीता जयत्विति मरुत्पथे। तदानीं जुघुषुः सिद्ध-गन्धर्वाद्याः प्रमोदिनः ॥३९।। सीतादेव्या नमश्चक्रे पादौ प्रक्षालयन्निव । सुमित्रानन्दनो मुदा ॥४०॥ चिरं जीव चिरं नन्द चिरं जीव मदाशिषा । इति ब्रुवाणा वैदेही जघ्रौ शिरसि लक्ष्मणम् ॥४१।। भामण्डलो नमश्चक्रे सीतां सीताऽपि तं मुदा । आशिषाऽऽनन्दयामास मुनिवाक्यसमानया ॥४२॥ स्वनामाख्यानपूर्वं चकपिराजो बिभीषण:। हनुमानङ्गदोऽन्येऽपि प्रणेमुर्जनकात्मजाम्॥४३॥ पार्वणेन शशाङ्केन चिरात् कुमुदिनीव सा । रामेण शुशुभे सीता विकाशं समुपेयुषी ॥४४।। ससीतोऽध्यास्य भुवनालङ्कारं राघवो गजम् । जगाम धाम दाशास्यं सुग्रीवाद्यैः समावृतः॥४५।। तदन्तश्च मणिस्तम्भसहस्राकं जिनेशितुः । चैत्यं श्रीशान्तिनाथस्य प्रविवेश विवन्दिषुः ॥४६।। बिभीषणार्पितैस्तत्र कुसुमाद्यैरुपस्करैः । शान्तिमानर्च काकुत्स्थ: सीता-सौमित्रिसंयुतः ॥४७।। बिभीषणाभ्यर्थितोऽथ बिभीषणगृहं ययौ । राम: ससीता-सौमित्रि: सुग्रीवादिभिरन्वित: ॥४८।। तत्र देवार्चनं स्नान-भोजनादि च राघवः । चक्रे सपरिवारोऽपि मानयन् रावणानुजम् ॥४९।। रामं सिंहासनासीनमग्रासीनो बिभीषणः । वाससी परिधायोभे बभाषेऽथ कृताञ्जलिः ॥५०॥ रत्न-स्वर्णादिकोशोऽयमिदं हस्ति-हयादि च । अयं च राक्षसद्वीपो गृह्यतां पत्तिरस्मि ते ॥५१॥ राज्याभिषेकमधुना कुर्महे ते त्वदाज्ञया । पवित्रय पुरीं लङ्कां प्रसीदानुगृहाण माम् ॥५२॥ रामोऽप्युवाच दत्तं ते लङ्काराज्यं मया पुरा। व्यस्मार्षीस्तदिदानी किं महात्मन! भक्तिमोहित: ? ॥५ एवं निषिध्य तं पद्मो लङ्काराज्ये तदैव हि । अभ्यषिञ्चत् स्वयं प्रीत: प्रतिज्ञातार्थपालकः ॥५४॥ सीता-सौमित्रि-सुग्रीवप्रमुखैरावृतो ययौ । रामोऽथ रावणगृहे सुधर्मायामिवाऽद्रिभित् ।।५५।। पातत्र सिंहोदरादीनामुद्वोढुं प्राक् प्रतिश्रुताः। कन्या रामाज्ञयाऽऽनैषुस्तत्र विद्याधरोत्तमाः॥५६।। अथ स्वस्वप्रतिपन्नास्ता: कुमारीर्यथाविधि । राघवावुपयेमाते खेचरीगीतमङ्गलौ ॥५७॥ भोगांस्तत्रोपभुञ्जानौ निर्विघ्नं राम-लक्ष्मणौ । सुग्रीवाद्यैः सेव्यमानौ षडब्दीमतिनिन्यतुः ॥५८।। अत्राऽन्तरे विन्ध्यस्थल्यामिन्द्रजिन्मेघवाहनौ । तौ सिद्धिमीयतुर्जज्ञे तीर्थं मेघरथं च तत् ॥५९।। १. नम्रेण ।। २. वेत्रिणा चाग्र० खं.१ ।। ३. अत्र ला.प्रतौ टिप्पितं गाथाचतुष्कमेवं - "तिसमुद्दमेइणिवई, मह दइओ विणिहओ रणमुहम्मि । पुत्तेहिं विमुक्काऽहं, के सरणं भो पवजामि ? ॥१॥ एवं सा विलवंती, अजाए तत्थ संजमसिरीए । पडिबोहिआ य गिण्हइ, पव्वजं सा महादेवी ॥२॥ चंदणहा वि अणिच्चं, जीअंनाऊण तिव्वदुक्खत्ता । पव्वइआ दढभावा, जिणवरधम्मुजया जाया ॥३॥ अट्ठावण्णसहस्सा, तत्थ य जुवईण लद्धबोहीणं । पव्वइआणि तवगुणं कुणंति दुक्खक्खयट्ठाए ॥४॥ इति वृद्धपद्मचरिते ।।" (मुद्रिते पउमचरिए उ.७५, गा. ८१-८२-८३-८४)। ४. खं.१-२, पाता. ला.प्रतिषु न ।। ५. महापथे खं.२; आकाशे ।। ६. ०रम्रजलैः खं.१-२, पाता. ला.।। ७. सुग्रीवः ।। ८. पूर्णिमासम्बन्धिना चन्द्रेण ॥९. रावणावासं कां. मु.।। १०.सामग्रीभिः ।।११. स्नानं पाता.।।१२. इन्द्रः ।।१३. अङ्गीकृताः॥१४. राम-लक्ष्मणौ परिणिन्यतुः ।।१५. ०मङ्गलैः पाता. ।। ___Jain Education १६ षड वर्षाणि ।। १७. मेघरवं खं.१-२, पाता. ला.॥ For Private & Personal use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम: सर्ग:) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम्। नर्मदायां कुम्भकर्णो नद्यां सिद्धिमियाय च । पृष्टरक्षितमित्यासीत् तत् तीर्थं चाऽभिधानतः ॥६०।। इतश्च साकेतपुरे राम-लक्ष्मणमातरौ । तद्वार्तामप्यजानन्त्यौ तस्थतुर्भृशदुःखिते ॥६१।। तदा च धातकीखण्डादागतस्तत्र नारदः। पप्रच्छ भक्तिनने ते विमनस्के कुतो युवाम् ? ॥६२।। अथाऽपराजितोवाच पुत्रौ मे राम-लक्ष्मणौ । पित्राज्ञयो वनं यातौ स्नुषया सीतया सह ॥६३।। सीतापहाराल्लङ्कायां जग्मतुस्तौ महाभुजौ । रावणेन रणे शक्त्या लक्ष्मणस्ताडितः किल ॥६४।। शक्तिशल्योद्धरणाय विशल्याऽऽनायि तत्र च । न विद्यो यदभूत् किञ्चिद् वत्सो जीवति वा न वा ? ॥६५।। अभिधायेति हा वत्स! वत्सेति करुणस्वरम् । रुरोद सा रोदयन्ती सुमित्रामपि निर्भरम् ॥६६।। ततस्ते नारदोऽवोचद् भवतं सुस्थिते युवाम् । युष्मत्पुत्रावुपेष्यामि तथाऽऽनेष्यामि ताविह ॥६७।। तयोरेवं प्रतिश्रुत्य नारदो गगनाध्वना । जनश्रुत्या ज्ञातवृत्तो लङ्कायां राममभ्यगात् ।।६८।। सत्कृत्य पृष्टो रामेण किमत्राऽऽगा ? इति स्वयम् । तन्मातृदु:खवृत्तान्तमाचख्यौ नारदोऽखिलम् ॥६९।। सद्य: सरणरणक: पद्मोऽवादीद् बिभीषणम् । विस्मृत्य दु:खं मातॄणां त्वद्भक्त्याऽस्थामिहाऽधिकम् ।।७०।। अस्मद्दुःखाद् विपद्यन्ते न यावन्मातरो हि नः । तावत् तत्राऽद्य यास्यामोऽनुमन्यस्व महाशय! ॥७१॥ नत्वा बिभीषणोऽप्यूचे तिष्ठाऽत्राऽहानि षोडश । यावत् स्वैः शिल्पिभी रम्यां तामयोध्यां करोम्यहम् ।।७२।। एवमस्त्विति रामोक्तः स विद्याधरशिल्पिभिः । दिनैः षोडशभिश्चक्रेऽयोध्यां स्वर्नगरीनिभाम् ॥७३।। तदा रामेण सत्कृत्य विसृष्टो नारदो ययौ । आख्यच्च राममातॄणां पुत्रागममहोत्सवम् ॥७४।। पाअथाऽह्नि षोडशे सान्त:पुरावारुह्य पुष्पकम् । शक्रेशानाविवैकस्थो प्रतस्थाते रघूद्वहौ ॥७५।। रावणानुज-सुग्रीव-भामण्डलनृपादिभिः । अन्वीयमानौ नगरीमयोध्यां चेयतु: क्षणात् ॥७६।। आयान्तौ पुष्पकारूढौ दूरादपि निरीक्ष्य तौ। अभ्यागात् कुञ्जरारूढो भरत: सानुजोऽपि हि ॥७७।। आयाति भरते रामाज्ञयोपक्षिति पुष्पकम् । जगाम पालकमिव पाकशासनशासनात् ॥७८।। आदावप्युत्ततारेभाद् भरतो भ्रातृसंयुतः । उत्तेरतुः पुष्पकाच्च सोत्कण्ठौ राम-लक्ष्मणौ ॥७९।। पादयोः पतितं रामो भरतं साश्रुलोचनम् । परिरेभे समुत्थाप्य मूर्ध्नि चुम्बन् मुहुर्मुहुः ॥८॥ शत्रुघ्नमपि पादान्ते लुठन्तं रघुपुङ्गवः । उत्थाप्य परिमृज्य स्वांशुकेन परिषस्वजे ॥८१॥ ततो भरत-शत्रुघ्नौ नमन्तौ लक्ष्मणोऽपि हि । प्रसारितभुजो बाढमालिलिङ्ग ससम्भ्रमः ।।८२।। आरोहदनुजैः सार्धं त्रिभी रामोऽथ पुष्पकम् । समादिदेश चाऽयोध्याप्रवेशाय कृतत्वरः ॥८३।। तूर्येषु व्योम्नि भूमौ च वाद्यमानेष्वथोन्मुदौ । अयोध्यां राम-सौमित्री निजां प्राविशतां पुरीम् ।।८४॥ सोत्कण्ठैरुन्मुखैः पौरैर्मयूरैरिव वारिदौ । निर्निमेषैः प्रेक्ष्यमाणौ स्तूयमानौ च निर्भरम् ।।८५।। अर्कवद् दीयमानार्थी स्थाने स्थाने पुरीजनैः । स्वं प्रासादं प्रसन्नास्यौ जग्मतू राम-लक्ष्मणौ ॥८६॥ पाउत्तीर्य पुष्पकात् तत्र रामः सौमित्रिणा संह । जगाम मातृसदनं सुहृद्हृदयनन्दनः ॥८७।। रामोऽपराजितां देवीं मातृवर्गमथाऽपरम् । नमश्चक्रे ससौमित्रिस्ताभिश्चाऽऽशीर्भिरैज्यत ॥८८।। अथ सीता-विशल्याद्या: प्रणेमुरपराजिताम् । श्वश्रूरन्याश्च तत्पादपद्येषु निहितोलकाः ॥८९॥ अस्मद्वद् वीरप्रकाण्डप्रसविन्योऽस्मदाशिषा। भूयास्त यूयमिति ता: श्वश्र्वोऽप्याशासतोच्चकैः॥९०॥ अथाऽपराजिता देवी भूयो भूयोऽपि लक्ष्मणम् । स्पृशन्ती पाणिना मूर्ध्नि चुम्बन्ती चैवमब्रवीत् ।।९१।। दिष्ट्या दृष्टोऽसि हे वत्स! पुनर्जातोऽसि चाऽधुना । कृत्वा विदेशगमनं विजयीह यदागमः ॥९२॥ तानि तानि च कष्टानि वनवासभवान्यसौ । रामः सीता चाऽतिनिन्ये तवैव परिचर्यया ॥१३॥ लक्ष्मणोऽप्यवदत् तातेनेवाऽऽर्येणाऽतिलालितः। त्वयेवसीतादेव्या च वनेऽप्यस्थामहं सुखम् ॥९४।। १. दुःस्थिते पाता. ।। २. वनं पित्राज्ञया यातौ रस्वीपा. ॥ ३. प्रतिज्ञापूर्वकं कथयित्वा ।। ४. सोत्कण्ठः ।। ५. तां ता. ॥ ६. स्वर्णगरी. ता.; स्वर्गपुरी० मु.॥७.अभ्यगात् मु. रस्वीपा.॥८. आयाते छा. पा.आगच्छति सति ॥९. क्षितिसमीपे॥१०. इन्द्रशासनात्॥११.स्ववस्त्रेण ॥१२.सूर्यवद् दीयमानो ऽर्घ:-पूजोपचारविशेषो याभ्यां तौ ।।१३. समम् रसंपा. ॥१४. ध्यत ला.विना; अपूज्यत ।। १५. स्थापितकेशाः ।। १६. प्रचण्डवीर(पुत्र)प्रसविन्यः ।। Jain Educatio१७. चेद० पाता. ॥ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्री हेमचन्द्राचार्यप्रणीतं 'स्वेच्छादुर्ललितैर्मे चाऽऽर्यस्य वैराणि जज्ञिरे। सीतापहारो यन्मूलः किमन्यद् देवि! गद्यते ? ॥९५॥ परन्तु युष्मदाशीभिर्लङ्घित्वा वैरसागरम्। मातः! सपरिवारोऽपि क्षेमेणाऽऽर्य इहाऽऽययौ ॥९६॥ अथोत्सवमयोध्यायां भरतोऽकारयन्मुदा । पुरतो रामपादानां पत्तिमात्रत्वमाचरन् ॥९७॥ " अन्यदा रामभद्रं तु प्रणम्य भरतोऽभ्यधात् । आर्य! त्वदाज्ञया राज्यमियत्कालं मया धृतम् ॥९८॥ प्रावजिष्यं तदैवाऽहं तातपादैः सह प्रभो! । अर्गला नाऽभविष्यच्चेदार्याज्ञा राज्यपालने || ९९|| मां व्रतायाऽनुमन्यस्व स्वयं राज्यं प्रतीच्छ च । भवोद्विग्नस्त्वयि प्राप्ते न ह्यतः स्थातुमुत्सहे ॥१००॥ रामोऽप्युदश्रुस्तं स्माऽऽह किमेवं वत्स ! भाषसे ? । कुरु राज्यं त्वमेवेह त्वय्युत्का वयमागताः ॥ १०१ ॥ त्यजन्नः सह राज्येन भूयस्त्वद्विरहव्यथाम् । किं दत्से ? वत्स! तत् तिष्ठ कुर्वाज्ञां मम पूर्ववत् ॥ १०२ ॥ इत्याग्रहपरं रामं ज्ञात्वा नत्वा च सोऽचलत् । यावत् सौमित्रिणा तावदुत्थायाऽधारि पाणिना ।। १०३॥ भरतं च तथा यान्तं व्रताय कृतनिश्चयम् । ज्ञात्वा सीता - विशल्याद्यास्तत्राऽऽजग्मुः ससम्भ्रमाः ॥ १०४ ॥ विस्मारयितुकामास्ता भरतस्य व्रताग्रहम् । जलक्रीडाविनोदार्थमर्थनां चक्रिरेतराम् ॥ १०५ ॥ उपरोधेन तासां च ययौ सान्तः पुरोऽपि सः । क्रीडासरसि चिक्रीड विरक्तोऽपि मुहूर्तकम् ॥ १०६ ॥ " जलान्निर्गत्य भरतस्तीरेऽस्थाद् राजहंसवत् । स्तम्भमुन्मूल्य भुवनालङ्कारस्तत्र चाऽऽययौ ॥ १०७|| मदान्धोऽप्यमदः सोऽभूत् सद्यो भरतदर्शनात् । तद्दर्शनेन भरतोऽप्यवाप परमां मुदम् ||१०८|| सम्भ्रमाद् राम- सौमित्री तस्योपद्रवकारिणः । करिणो बन्धनायाऽऽशु ससामन्तावुपेयतुः ॥१०९॥ रामाज्ञया हस्तिपैकैः स स्तम्भे हस्त्यनीयत । आगतौ च मुनी देशभूषणः कुलभूषणः ॥ ११० ॥ उद्याने समवसृतौ वन्दितुं तौ महामुनी । प्रययुः राम - सौमित्रि - भरताः सपरिच्छदाः ॥ १११ ॥ वन्दित्वा तौ च पप्रच्छ राम्रो मत्तकरी कथम् । अमदोऽजनि भुवनालङ्कारो भरतेक्षणात् ? ॥ ११२ ॥ ||अथाऽऽख्यत् केवली देशभूषणो नाभिसूनुना । समं सहस्राश्चत्वारो राजानः प्राव्रजन् पुरा ।। ११३ || ते तु स्वामिन्यनाहारे कृतमौने विहारिणि । निर्विण्णा जज्ञिरे सर्वे तापसा वनवासिनः ॥११४॥ प्रह्लादन-सुप्रभराट्तनयौ तेषु तापसौ । चिरं चन्द्रोदय - सूरोदयाख्यौ भ्रमतुर्भवम् ॥ ११५ ॥ चन्द्रोदयो गजपुरे राज्ञो हरिमतेरभूत् । भार्यायां चन्द्रलेखायां सूनुर्नाम्ना कुलङ्करः ॥ ११६ ॥ सूरोदयोऽपि तत्रैव विश्वभूतेर्द्विजन्मनः । भार्यायामग्निकुण्डायां नाम्ना श्रुतिरतिः सुतः ||११७|| अभूत् कुलङ्करो राजा स गच्छंस्तापसाश्रमम् । अवधिज्ञानिनेत्यूचे चाऽभिनन्दनसाधुना ॥ ११८ ॥ तप्यमानेन पञ्चाग्नितपस्तत्र तपस्विना । दग्धुमानीतकाष्ठस्य मध्ये तिष्ठति पन्नगः ॥ ११९ ॥ सोऽहिः पुरा भवे क्षेमङ्कराख्यस्ते पितामहः । तद्दारु दारयित्वा तं यत्नादाकृष्य रक्ष भोः ! ॥ १२० ॥ आकुलस्तद्वचः श्रुत्वा गत्वा तद्दार्वदारयत् । ददर्शाऽन्तः स्थितं चाहिं राजा विस्मयते स्म च ॥१२१॥ आदित्सते स्म प्रव्रज्यां यावद् राजा कुलङ्करः । द्विजः श्रुतिरतिः सोऽथ तावदेवमवोचत ||१२२|| धर्मो नाऽऽम्नायिको वोऽयं निर्बन्धश्चेत् तवान्तिमे । दीक्षा वयस्युपादेया किं सम्प्रत्यपि खिसे ? || १२३ ॥ राजाऽपि तद्विरा भग्ग्रदीक्षोत्साहो मनागपि । मया किमत्र कर्तव्यमिति ध्यायन्नवीस्थित ॥ १२४॥ श्रीदामाख्याऽथ तद्राज्ञी सदा सक्ता पुरोधसा । नूनं मां ज्ञातवानेष इत्याशङ्कत दुर्मतिः ॥ १२५ ॥ आवां यावन्न हन्त्येष तावद्धन्मीति सा विषम् । पुरोधोऽनुमता दत्त्वा कुलङ्करममारयत् ॥ १२६॥ क्रमाच्छ्रुतिरतिः सोऽपि मृतो भूयोऽप्युभावपि । चिरं भवं भ्रमतुस्तौ नानायोनिनिपीतिनौ ॥१२७॥ पुरेऽन्यदा राजगृहे कपिलब्रह्मणः सुतौ । सावित्र्यां युग्मतोऽभूतां विनोद - रमणाभिधौ ॥ १२८ ॥ रमणो वेदमध्येतुं ययौ देशान्तरं ततः । कालेनाऽधीतवेदः सन्नागाद् राजगृहं निशि ॥ १२९ ॥ अकालोऽसाविति धिया तदाऽस्थाद् बहिरेव सः । सर्वसाधारणेऽस्वाप्सीदेकस्मिन् यक्षमन्दिरे ||१३०|| २१६ (सप्तमं पर्व १. आसीद् दुर्ललितैर्मे तु वैरमार्यस्य केवलम् रस्वीपा.; आसीद्० पाता.; मम स्वच्छन्दचेष्टितैः ॥ २. वैरि० मु. ॥ ३ त्वयि तव विषये उत्का:उत्कण्ठिताः । ४. प्रार्थनाम् ॥ ५. महावत ॥ ६. मम करी ला. विना ॥ ७ ० देवमबोधयत् पाता. ॥ ८. कुलपरम्परागतः । ९. खिद्यते मु. ॥। १०. Jain Education Inoन्नवास्थितः ला. विना ॥ ११. ० निपातितौ खं. १, पाता. ।। १२, जन्मतो ० . lUse Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___२१७ अष्टमः सर्गः) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम्। विनोदभार्या शाखाख्या दत्तेन ब्रह्मणा समम् । तत्राऽऽगात् कृतसङ्केता विनोदोऽपि हि तामनु ॥१३१।। सा दत्तबुद्ध्या रमणमुत्थाप्याऽरमत् तदा । विनोदोऽप्यसिमाकृष्य तं जघानाऽविशङ्कितः ॥१३२॥ शाखया रमणच्छुर्या विनोदोऽपि हतस्तदा । चिरं भ्रान्त्वा भवं चाऽभूदिभ्यपुत्रो धनाभिधः ।।१३३॥ रमणोऽपि भवं भ्रान्त्वा धनस्यैवाऽभवत् सुतः । लक्ष्मीकुक्षिसमुद्भूतो भूषणो नामधेयत: ॥१३४।। द्वात्रिंशदिभ्यकन्या: स धनोक्तः परिणीतवान् । ताभि: क्रीडेन् सोऽन्यदाऽस्थान्निशि स्वगृहमूर्धनि ॥१३५।। तत्र यामे निशस्तुर्ये श्रीधरस्य महामुनेः । उत्पन्ने केवलेऽद्राक्षीद् देवैरारब्धमुत्सवम् ॥१३६॥ जातधर्मपरीणाम: सद्योऽप्युत्तीर्य वेश्मत: । तं वन्दितुमचालीच्च मार्गे दष्टश्च सोऽहिना ॥१३७।। पशुभेन परिणामेन भ्रान्त्वा शुभगतीश्चिरम् । जम्बूद्वीपेऽत्र विदेहेऽपरे रत्नपुरे पुरे ॥१३८।। महिष्यां हरिणीनाम्न्यामचलाख्यस्य चक्रिण: । प्रियदर्शननामाऽभूत् स सूनुर्धर्मतत्परः ॥१३९।। स प्रविजिषुः पित्रनुरोधात् परिणीतवान् । त्रीणि कन्यासहस्राणि संविग्नोऽस्थात् तथाऽपि हि ॥१४०॥ चतःषष्टिसहस्राणि वर्षाणां स तपः परम् । चरित्वा गृहवासेऽपि ब्रह्मलोके सुरोऽभवत् ॥१४१॥ पभ्रान्त्वा धनोऽपि संसारं स पोतनपुरेऽभवत् । शकुना-ऽग्निमुखब्रह्मपत्न्यां मृदुमतिः सुतः ।।१४२।। स पित्रा दुर्विनीतत्वाद् गृहानिर्वासितो भ्रमन् । धूर्तः सर्वकलाकल्पो भूत्वा भूयोऽप्यगाद् गृहम् ॥१४३।। सदा दिदेवं द्यूतेन न त्वजीयत केनचित् । दिने दिने देवकेभ्यो भूयिष्ठमजयद् धनम् ॥१४४॥ वसन्तसेनया सार्धं भुङ्क्त्वा भोगान् स वेश्यया। अन्ते गृहीतश्रामण्यो ब्रह्मलोके सुरोऽभवत् ॥१४५।। च्युत्वा पूर्वभवमायादोषाद् वैताढ्यपर्वते । अयं बभूव भुवनालङ्कारो नाम कुञ्जरः ॥१४६।। प्रियदर्शनजीवोऽपि ब्रह्मलोकात् परिच्युतः । बभूव भवतो भ्राता भरतोऽयं महाभुजः ॥१४७।। भरतालोकनाजातजातिस्मृतिरसौ गजः । सद्यो गतमदो जज्ञे विवेके न हि रौद्रता ॥१४८।। पाइति पूर्वभवान् श्रुत्वा विरक्तो भरतोऽधिकम् । व्रतं राजसहस्रेणाऽग्रहीन्मोक्षमियाय च ॥१४९॥ सहस्रं तेऽपि राजानः पालयित्वा चिरं व्रतम् । नानालब्धिजुषो भूत्वाऽनुरूपं पदमासदन् ॥१५०॥ कुञ्जर: सोऽपि वैराग्याद् विधाय विविधं तपः । प्रपन्नानशनो मृत्वा ब्रह्मलोके सुरोऽभवत् ॥१५१।। व्रतं भरतमाताऽपि कैकेयी समुपाददे । पालयित्वा निष्कलङ्क प्रपेदे पदमव्ययम् ॥१५२॥ भरते च प्रव्रजिते भूपा भूचर-खेचरा: । अर्थयाञ्चक्रिरे राममभिषेकाय भक्तित: ॥१५३॥ लक्ष्मणो वासुदेवोऽयं भवद्भिरभिषिच्यताम् । तानेवमादिशद् रामस्ते तथैवाऽऽशु चक्रिरे ॥१५४॥ बलदेवत्वाऽभिषेकं रामभद्रस्य च व्यधुः । राज्यं द्वावप्यपातां चाऽष्टमौ तौ बल-शाङ्गिणौ ॥१५५।। पद्मो बिभीषणायाऽदाद् रक्षोद्वीपं क्रमागतम् । सुग्रीवाय कपिद्वीपं श्रीपुरं तु हनूमते॥१५६॥ विराधाय तु पाताललङ्कामृक्षपुरं पुन: । नीलाय प्रतिसूर्याय पुरं हनुपुरं पुनः ॥१५७॥ देवोपगीतनगरं तद् रत्नजटिने पुन: । भामण्डलाय वैताढ्ये नगरं रथनूपुरम् ॥१५८।। अन्येभ्योऽपि प्रदायैवं रामः शत्रुघ्नमभ्यधात् । यस्तुभ्यं रोचते वत्स! तं देशीररीकुरु ॥१५९।। मथुरां मे प्रयच्छेति शत्रुघ्नेनाऽर्थित: पुन: । रामो जगाद दुःसाधा सा वत्स! मथुरा पुरी ॥१६०॥ तत्र राज्ञो मधो: शूलं चमरेण पुराऽर्पितम् । दूरात् परबलं सर्वं निहत्याऽभ्येति तत्करे ॥१६१॥ शत्रुघ्नोऽप्येवमवदद् देव! रक्ष:कुलान्तक! । तवाऽस्मि नन्वहं भ्राता त्राता कस्तस्य मधुधि ? ॥१६२॥ प्रयच्छ मथुरां मह्यं स्वयमेव मधोरहम् । प्रतीकारं करिष्यामि व्याधेरिव भिषग्वरः ॥१६३॥ शत्रुघ्नमत्याग्रहिणं ज्ञात्वा रामोऽन्वंशादिति । अपशूल: प्रमत्तश्च योधनीयो मधुस्त्वया ॥१६४॥ अनुशिष्येत्यदाद् रामस्तूणावक्षय्यसायकौ । कृतान्तवदनं नाम सेनान्यं च सहाऽदिशत् ।।१६५।। शिलीमखानग्निमखानर्णवावर्तधन्व च। लक्ष्मणोऽपि ददौ तस्मायाशंसन् विजयं परम्॥१६६॥ १. लक्ष्मणो खं.१।। २. क्रीडन्नन्यदा० ता.विना ॥ ३. सद्योऽत्यु० मु. रस्वीपा. ॥४. विदेहे पुरे मु. रस्वीपा. ॥५. शकुना चाऽसौ अग्निमुखब्रह्मण: पत्नी चेति समासः, तस्याम् ।। ६. ०ऽभ्रमत् ला.विना ।।७. सर्वकलाविद् ।। ८. चिक्रीड ।। ९. द्यूतकारेभ्यः ।।१०. भरतो भ्राता भवतो. मु.॥११. च मु.।। १२. स्वीकुरु ।। १३. दुःसाध्या मु. ।। १४. ०ऽब्रवीदिति पाता. ॥ १५. शूलरहितः ।। १६. अक्षय्या: सायका-इषवो यत्र तौ ॥ १७. बाणान् ॥ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (सप्तमं पर्व तत: प्रतस्थे शत्रुघ्न: प्रयाणैश्च निरन्तरैः । ययावुप मधूपघ्नम'वात्सीच्च नदीतटे॥१६७॥ तत्राऽऽदौ प्रेषिताश्चारास्तस्याऽऽख्यन्नेत्य यन्मधु: । गत: कुबेरोद्यानेऽस्ति मथुरापूर्वदिकस्थिते ॥१६८।। पत्न्या जयन्त्या सार्धं स तत्र क्रीडापरोऽधुना । अस्त्रागारे च तच्छूलं कालोऽयं तस्य योधने ॥१६९।। ततश्छलज्ञ: शत्रुघ्नः प्राविशन्मथुरा निशि। प्रविशन्तं मधु तत्र रुरोध च बलैः स्वयम् ॥१७०॥ जघान समरे चाऽऽदौ लवणं मधुनन्दनम्। रामायणरणारम्भे खरं नारायणो यथा ॥१७१।। मधुः सुतवधऋद्धो धावित्वा स्फालयन् धनुः । युयुधे दाशरथिना रथिना रथिनां वरः ॥१७२।। अन्योऽन्यमस्त्रैरस्त्राणि च्छिन्दानौ तावुभावपि । शस्त्राशस्त्रि प्रचक्राते चिरं देवासुराविव ॥१७३।। धनुः समुद्रावर्तं चाऽग्निमुखांश्च शिलीमुखान् । सौमित्रिदत्तानस्मार्षीत् तुर्यो दशरथात्मजः ॥१७४।। तत्स्मृतोपनतं धन्वाऽधिज्यीकृत्याऽग्निपत्रिभिः । तैर्जघान मधुं वीर: शार्दूलमिव लुब्धकः ॥१७५।। तद्वाणघातविधुरो मधुरेवमचिन्तयत् । शूलं पाणौ न मेऽभ्यागान्न हतो लक्ष्मणानुजः ॥१७६।। गतं मम मुधा जन्म जिनेन्द्रो न यदर्चितः । कारितानि न चैत्यानि दत्तं पात्रेषु नो मया॥१७७॥ इति ध्यायन्नात्तदीक्षो नमस्कारपरायणः । मृत्वा सनत्कुमारेऽभून्मधुर्देवो महर्द्धिकः ॥१७८।। मधुदेहस्योपरिष्टात् तद्विमानसुरा व्यधुः । पुष्पवृष्टिं जुघुषुश्च मधुर्देवो जयत्विति ॥१७९।। तच्छूलं देवतारूपमुपेत्य चमरान्तिके । शत्रुघ्नान्मधुनिधनं छलोत्पन्नं शशंस च ॥१८०॥ ततो मित्रवधामर्षाच्चमर: प्राचलत् स्वयम् । पृष्टः क्व यासीति तार्क्ष्यस्वामिना वेणुदारिणा ॥१८१॥ हन्तुं स्वमित्रहन्तारं शत्रुघ्नं मथुरास्थितम् । यास्यामीति तदाख्याते वेणुदार्यवदत् पुनः ॥१८२।। धरणेन्द्राद् रावणेन या लब्धा साऽपि निर्जिता। शक्तिः सौमित्रिणा पुण्यप्रकृष्टेनाऽर्धचक्रिणा ॥१८३।। रावणोऽपि हतस्तेन तत्पत्तिस्तु कियान् मधुः ? । शत्रुघ्नो लक्ष्मणादेशादवधीत् प्रधने मधुम् ॥१८४।। उवाच चमरेन्द्रो यच्छक्तिः सौमित्रिणा जिता । कन्यकाया विशल्याया: प्रभावेण तदा खलु ॥१८५।। तस्याश्चाऽब्रह्मचारिण्या: स प्रभावो गतोऽधुना। किं वा तेऽनेन ? यास्यामि तं हन्तुं मित्रघातकम् ।।१८६॥ इत्युक्त्वा चमरो रोषाच्छत्रुघ्नविषयं ययौ । सौराज्यसुस्थितं तत्र सर्वं लोकं ददर्श च ॥१८७॥ प्राक् प्रजोपद्रवेणोपद्रवाम्येतं मधुद्विषम् । इति बुद्ध्या व्यधाद् व्याधीन् विविधांस्तत्प्रजासु सः ॥१८८।। कुलदेवतया तच्च ज्ञापितो व्याधिकारणम् । शत्रुघ्नोऽगादयोध्यायां राम-लक्ष्मणसन्निधौ ॥१८९।। तौ देशभूषण-कुलभूषणावागतौ तदा । राम-लक्ष्मण-शत्रुघ्ना उपेत्य च ववन्दिरे ॥१९०॥ आग्रही हेतुना केन शत्रुघ्नो मथुरां प्रति ? । इति रामेण पृष्टः सन् बभाषे देशभूषणः ॥१९१।। शत्रुघ्नजीव उत्पद्य मथुरायामनेकशः । विप्रोऽभूच्छीधरो नाम रूपवान् साधुसेवकः ।।१९२।। सोऽन्यदाऽध्वनि यान् राजमहिष्या ललिताख्यया । दृष्टो रागादथाऽऽनायि स्वान्तिके रेन्तुकामया ॥१९३॥ आगाच्चाऽतर्कितो राजा क्षुभिता ललिताऽपि च । चौरोऽसाविति पूच्चक्रे राज्ञाऽधारि स तु द्विजः ॥१९४॥ राजादेशाद् वधार्थं स वधस्थानमनीयत । प्रतिज्ञातव्रतोऽमोचि कल्याणमुनिना ततः ॥१९५।। विमुक्तः प्राव्रजत् सोऽपि तपस्तप्त्वा दिवं ययौ । च्युत्वाऽभून्मथुरापुर्यां चन्द्रभद्रनृपात्मजः ॥१९६।। स काञ्चनप्रभाराज्ञीकुक्षिभूरचलाभिधः । अत्यन्तवल्लभश्चाऽऽसीच्चन्द्रभद्रस्य भूपते: ॥१९७।।। भानुप्रभाद्यैः सापत्नैः सोऽचलोऽष्टभिरग्रजैः । व्यापादयितुमारेभे राजाऽयं मा स्म भूदिति ॥१९८।। तन्मन्त्रे मन्त्रिणाऽऽख्याते नंष्ट्वाऽगादचलोऽन्यत: । भ्रमंश्चाऽविध्यत वने कण्टकेन गरीयसा ॥१९९।। स क्रन्दन् पथि दृष्टश्च पुंसा श्रावस्तिवासिना । पितृनिर्वासितेनाऽङ्कनाम्नधो भारधारिणा ॥२०॥ काष्ठभारं विमुच्याऽकोऽपनिन्ये तस्य कण्टकम् । हृष्टः स कण्टकं दत्त्वोवाचाऽङ्क साधु भोः! कृतम् ।।२०१॥ अचलं मथुरापुर्यां त्वं शृणोषि यदा नृपम् । तदा तत्र समागच्छेः परमो ह्युपकार्यसि ॥२०२॥ १. मधोरुपघ्न:-आश्रयः(मथुरा), तत्समीपम् ।। २. ०मावात्सीच्च रसंपा. ॥३. दिक्पति: ता. ।। ४. ऽस्फालयद् खं.१॥ ५. अग्निशरैः ।। ६. व्याधः ।। ७. गृहीतदीक्षो भावचारित्रवानित्यर्थः ।। ८. वेणुदारीत्यभिधेन सुपर्णकुमारनिकायेन्द्रेण ॥९. युद्धे ।। १०. गच्छन् ; यन् राज. मु.॥११.०काम्यया का. मो. _Jain Education मु. खं.२ ॥ १२. सपत्नीपुत्रैः ॥ १३. काष्ठभारवाहकेन ।। For Private & Personal use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम: सर्गः) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम्। कौशाम्ब्यामचलोऽथाऽऽगात् तत्र सिंहगुरोः पुरः । इन्द्रदत्तनृपं धन्वाऽभ्यस्यन्तं स उदेक्षत॥२०३॥ सिंहेन्द्रदत्तयो: सोऽपि धानष्कत्वमदर्शयत । तस्मै दत्तामिन्द्रदत्तोऽदत्त पत्री भवा सह ॥२०४॥ सोऽसाधयज्जातबलो देशाननादिकांस्ततः । मथुरां चाऽन्यदाऽगच्छद् युयुधे चाऽग्रजैः सह ॥२०५।। भानुप्रभादीन् स भ्रातॄन् बद्ध्वाऽष्टावपि चाऽग्रहीत् । तन्मुक्त्यै मन्त्रिण: प्रैषीच्चन्द्रभद्रोऽचलान्तिके ॥२०६॥ आख्यत् तेषां स्ववृत्तान्तमचलस्तेऽपि मन्त्रिण: । विज्ञाय गत्वा चाऽऽचख्युश्चन्द्रभद्राय सत्वरम्॥२०७॥ अचलं चन्द्रभद्रोऽपि हृष्टः पुर्यामवीविशत् । क्रमेण निजराज्ये तं लघीयांसमपि न्यधात् ॥२०८।। पित्रा निर्वास्यमानांस्तान् भ्रातॄन् भानुप्रभादिकान् । कथञ्चिदचलोऽरक्षच्चक्रे चाऽदृष्टसेवकान् ॥२०९॥ अन्यदा नटरङ्गस्थेनाऽङ्को दृष्टोऽचलेन सः । हन्यमान: प्रतीहारैरानायि च निजान्तिके ॥२१०॥ तस्मै तज्जन्मभूमिं तां श्रावस्तिमचलो ददौ । तौ द्वौ सम्भूय चक्राते राज्यमद्वैतसौहृदौ ॥२११।। तावन्यदा प्राव्रजतां समुद्राचार्यसन्निधौ । मृत्वा कालेन चाऽभूतां ब्रह्मलोके सुरोत्तमौ ॥२१२।। च्युत्वा ततोऽचलजीव: शत्रुघ्नोऽभूत् तवाऽनुजः । प्राग्जन्ममोहनीयेन ततोऽसौ मथुराग्रही ॥२१३।। च्युत्वा ततोऽङ्कजीवोऽपि सेनापतिरयं तव । कृतान्तवदनो नाम समजायत राघव! ॥२१४॥ गइतश्च श्रीनन्दनस्य प्रभापुरपुरेशितुः । भार्यायां धारणीनाम्न्यां सप्ताऽभूवन् क्रमात् सुताः ॥२१५।। सुरनन्दः श्रीनन्दः श्रीतिलकः सर्वसुन्दरः । जयन्तश्चामरश्चाऽपि जयमित्रश्च सप्तमः ॥२१६।। मासजातं सुतं राज्ये न्यस्य श्रीनन्दनोऽन्यदा। गुरोः प्रीतिकरस्याऽन्ते प्रावाजीत तैः सुतै: सह ॥२१७॥ श्रीनन्दनो ययौ मोक्षं सुरनन्दादयस्तु ते । सप्ताऽप्यासंस्तप:शक्त्या जङ्घाचारणलब्धयः ॥२१८॥ विहरन्तः पुरी जग्मुर्मथुरां ते महर्षयः । प्रावृट् चाऽभूत् तदा तस्थुरधिशैलगुहागृहम् ।।२१९॥ चक्रुः षष्ठाष्टमादीनि ते तपांसि सदाऽपि हि । उत्पत्य दूरदेशेषु पारणं चक्रिरे पुनः ॥२२०॥ भूयोऽपि मथुराशैलगुहायां तस्थुरेत्य च । तत्प्रभावार्चमरभूर्व्याधिस्तत्र क्षयं ययौ ।।२२१॥ पारणायाऽन्यदोपेत्याऽयोध्यायां ते ययुः पुरि । अर्हद्दत्तश्रेष्ठिनश्च भिक्षार्थं प्राविशन् गृहे ॥२२२।। सावज्ञं तान् स वन्दित्वा दध्यौ श्रेष्ठीति के द्यमी ? । नेहत्या: साधुवेषास्तद् वर्षास्वपि विहारिणः ॥२२३॥ पृच्छामि किममून् ? यद् वा पाखण्डैर्भाषितैरलम् । तस्यैवं ध्यायतस्ते तु तद्वध्वा प्रतिलम्भिताः ॥२२४॥ आचार्यस्य धुतेर्जग्मुर्वसतौ ते महर्षयः । अभ्युत्थाय द्युतिनाऽपि वन्दितास्ते सगौरवम् ॥२२५।। अकालचारिण इति तत्साधुभिरवन्दिताः । दत्तासनास्ते द्युतिना तत्र पारणकं व्यधुः ॥२२६॥ आयाता मथुरापुर्या यास्यामस्तत्र सम्प्रति । इत्याख्याय समुत्पत्य स्वं स्थानं ते पुनर्ययुः ॥२२७॥ तेषां जवाचारणानां गुणस्तोत्रं द्युतिय॑धात् । तत्साधवः कृतावज्ञा: पश्चात्तापं प्रचक्रिरे ॥२२८॥ तच्छ्रुत्वा श्रावकः सोऽर्हद्दत्तोऽप्यनुशयं व्यधात् । कार्तिकश्वेतसप्तम्यां ययौ च मथुरापुरीम् ।।२२९॥ अर्चित्वा तत्र चैत्यानि सप्तर्षीस्तानवन्दत । क्षमयामास चाऽवज्ञादोष शंसन् स्वयं कृतम् ॥२३०॥ सप्तर्षीणां प्रभावेण शान्तरोगं स्वमण्डलम् । विज्ञायेयाय कार्तिक्यां शत्रुघ्नोऽपि हि तां पुरीम् ॥२३१।। तान्नत्वोवाच शत्रुघ्नो भिक्षा मे गृह्यतां गृहे । प्रत्यूचुस्तेऽपि साधूनां राजपिण्डं न कल्पते ॥२३२।। भूयोऽप्युवाच शत्रुघ्नो यूयं मय्युपकारिणः । मद्देशे दैविको रोग: शान्तो युष्मत्प्रभावतः ॥२३३।। तल्लोकानुग्रहायेह किञ्चिदद्याऽपि तिष्ठत । सर्वा प्रवृत्तिर्भवतां ह्यन्योपकृतिहेतवे ॥२३४॥ तेऽप्यूचिरे गत: प्रावृट्कालोऽयं तीर्थयात्रया । अधुना विहरिष्यामो नैकत्र मुनयः स्थिराः ॥२३५।। गृहे गृहे त्वं गहिणां कारयेर्बिम्बमार्हतम् । पुर्यामस्यां ततो जातु व्याधिर्भावी न कस्यचित् ॥२३६।। १.०म्यसन्तं ता. ॥ २. समुदैवत खं.१विना ॥ ३. दत्तानाम्नीम् ॥ ४. राज्येन ॥५. मन्त्रिणो खं.१-२, पाता.; मन्त्रिणोऽप्रै० रसंपा.; मन्त्रिणां प्रै० मु.॥ ६.०च्चन्द्रप्रभो० ता. ॥७. ०श्चन्द्रप्रभाय ता. ॥ ८. सेवकविहीनान् गुप्तचरकलितान् वा ॥९. २१४श्लोकानन्तरं "इत्युक्त्वा मुनिवौं तौ, ततोऽन्यत्र विजहतुः। रामचन्द्रादय: सर्वे, स्वं स्वं स्थानं मुदा ययुः॥” इतिभावार्थकः श्लोकोऽपेक्षित: इति प्रतिभाति । (इति टिप्पणी पूर्वमुद्रितप्रतौ)॥ १०. ०श्चमर० ता. रसंपा. ॥ ११. अष्टमं सुतमित्यर्थः ॥१२. चमरेन्द्रकृतः ॥ १३. त्वमी ता. ॥ १४. इह-भरतभूमौ भवाः ॥ १५. .....द्युतिनामकजैनाचार्यस्य ।। १६. धुते: साधुभिः ।। १७. पश्चात्तापम् ।।१८. मथुरां मु.॥१९.०पिण्डो ला.विना ॥ २०.युष्मत्प्रसादतः ता.॥ "इत्युक्त्वा मुनियो त र ता. संपा. ॥ ११. अष्टमं सुतमित्यर्थः ॥ १.१२. पिण्डो ला.विना ।। २०. युष्मत्प्रस Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (सप्तमं पर्व इत्युक्त्वा ते समुत्पत्य ययुः सप्तर्षयोऽन्यत: । शत्रुघ्नोऽपि तथा चक्रे लोकश्चाऽभून्निरामयः ॥२३७।। तेषां सप्तऋषीणां च प्रतिमा रत्ननिर्मिताः । स चक्रे मथुरापुर्यां कंकुप्सु चतसृष्वपि ॥२३८।। पाइतश्च वैताढ्यगिरौ दक्षिणश्रेणिभूषणे। पुरे रत्नपुरे रत्नरथो राजा तदाऽभवत् ॥२३९।। तस्य चन्द्रमुखीकुक्षिजन्मा नाम्ना मनोरमा। उद्यौवना कन्यकाऽभूदु रूपेणाऽपि मनोरमा ॥२४०।। दातव्या कस्य कन्येयमिति मन्त्रपरे नृपे । उपेत्य नारदोऽवोचल्लक्ष्मणस्येयमर्हति ।।२४१।। पुत्रा रत्नरथस्याऽथ कुपिता गोत्रवैरत: । भृत्यान् भ्रूसञ्ज्ञयाऽऽदिक्षन् विटोऽयं कुट्यतामिति ।।२४२।। उत्तिष्ठतो जिघांसूंस्तान् धीमान् विज्ञाय नारदः। समुत्पत्यपंतत्रीव प्रययावुपलक्ष्मणम् ॥२४३॥ लिखित्वा तां पटे कन्यां दर्शयामास नारदः । लक्ष्मणाय स्ववृत्तान्तं तं चाऽऽचख्यावशेषतः ॥२४४॥ तद्रूपदर्शनाज्जातानुरागो लक्ष्मण: क्षणात् । समं रामेण तत्राऽऽगाद् रक्षो-विद्याधरैर्वृतः ।।२४५।। जित: सौमित्रिणा चाऽऽशु तत्र रत्नरथो ददौ । रामाय कन्यां श्रीदामां लक्ष्मणाय मनोरमाम् ॥२४६।। वैताढ्यदक्षिणश्रेणिं जित्वा सर्वां च राघवौ । भूयोऽयोध्यामीयतुः क्ष्मां पालयन्तौ च तस्थतुः ॥२४७।। षोडशान्त:पुरवधूसहस्रं लक्ष्मणस्य तु । महिष्योऽष्टाऽभवंस्तत्र विशल्या रूपवत्यपि ॥२४८।। वनमाला चकल्याणमालिका रत्नमालिका। जितपद्माऽभयवती चाऽष्टमा त मनोरमा॥२४९||यग्मम। सूनवो द्वे शते सार्धे तेष्वष्ट महिषीभवाः । श्रीधरोऽभूदु विशल्याभूः पृथिवीतिलकः पुनः ॥२५०।। रूपवत्यङ्गजो वनमालाजोऽर्जुनसञ्जकः । श्रीकेशी जितपद्याया: कल्याणायास्तु मङ्गलः ॥२५॥ सुपार्श्वकीर्तिस्तु मनोरमाया विमल: पुनः । रतिमालाभूरभयवतीभूः सत्यकीर्तिकः ॥२५२।। रामस्याऽऽसन् महादेव्यश्चतम्रस्तत्र मैथिली । प्रभावती रतिनिभा श्रीदामा तु चतुर्थिका ॥२५३॥ सीतैकदा ऋतुस्नाता निशान्ते स्वप्नमैक्षत । च्युतौ विमानाच्छरभौ प्रविशन्तौ निजानने ॥२५४।। व्याख्याद् रामस्तयाऽऽख्याते वीरौ ते भाविनौ सुतौ । च्युतौ विमानाच्छरभौ यत् तु तन्न मुदे मम ॥२५५।। धर्मस्य ते च माहात्म्यात् सर्वं भावि शुभं प्रभो! । इत्यूचे जानकी देवी तदा गर्भ बभार च ॥२५६।। पासीता प्राणप्रियाऽग्रेऽपि प्राप्तगर्भा विशेषतः । बभूव रामचन्द्रस्य लोचनानन्दचन्द्रिका ॥२५७।। ईर्ष्यालव: सपत्न्यस्तां मायाविन्योऽब्रुवन्नदः । कीदृग्रूपो रावणोऽभूत् ? तं लिखित्वा प्रदर्शय ॥२५८।। सीताऽप्यूचे मया दृष्टः सर्वाङ्गं न हि रावण: । दृष्टौ तच्चरणावेव कथं नाम लिखामि तम् ? ॥२५९।। तत्पादावप्यालिख त्वं कौतुकं नस्तदीक्षणे । इत्युक्ता प्रकृतिऋजुर्दशास्यांही लिलेख सा ।।२६०।। स्थाने तत्राऽऽगमद् रामो बभाषे ताभिरप्यदः । रावणस्य स्मरत्यद्याऽप्यसौ सीता तव प्रिया ॥२६१|| सीतास्वहस्तलिखितं रावणस्य क्रमद्वयम् । पश्यैतन्नाथ! जानीहि सीता तस्यैव नाथते ॥२६२॥ दृष्ट्वाऽपि तत् तथा रामो गम्भीरत्वान्महामनाः। तथैव ववते सीतादेव्यामनुपलक्षितः ॥२६३।। सीतादोषपदं तच्च देव्यो दासीजनैर्निजैः । जने प्राकाशयन् प्राय: प्रवादा लोकनिर्मिताः ॥२६४॥ वसन्तेऽथाऽब्रवीद् रामः सीते! त्वां गर्भखेदिताम् । विनोदयितुकामेव मधुलक्ष्मीरिहाऽऽययौ ॥२६५।। पुष्पन्ति बकुलप्राया वृक्षाः स्त्रीदत्तदोहदैः । रन्तुं व्रजामो महेन्द्रोदयोद्यानं ततोऽधुना ॥२६६॥ सीताऽप्यूचे दोहदो मे देवतार्चनलक्षण: । तं पूरयोद्यानभवैर्नानापुष्पैः सुगन्धिभिः ।।२६७।। रामः सद्योऽपि देवानां पूजां वर्यामकारयत् । ययौ महेन्द्रोदये च ससीत: सपरिच्छदः ॥२६८।। विचित्रनांगरक्रीडं तत्राऽपश्यन्मधूत्सवम् । अर्हत्पूजोत्सवमयं सुखासीनो रघूद्वहः ॥२६९।। पाअत्राऽन्तरे च सीताया दक्षिणं चक्षुरस्फुरत् । आचचक्षे च सद्योऽपि साशङ्का राघवाय सा ॥२७०।। नेदंसाध्वितिरामेणाऽऽख्यातेसीताऽब्रवीदिति। किंरक्षोद्वीपवासान्मे सन्तुष्टोऽद्याऽपिनो विधि: ? ||२७१।। १. दिशासु ॥२. मन्त्रपरो नृपः पाता. ॥ ३. पुत्री खं.२, रस्वीपा. मु.॥४.०दिक्षद् विटो० खं.१-२, मु. रस्वीपा. ॥५. हन्तुमिच्छून् ॥ ६. पक्षीव ।। ७. लक्ष्मणस्तदा ता. ।। ८. रतिमालिका ता. ।। ९. ०ऽभयावती पाता. ॥१०. वनमाला० ता. ॥११. अष्टापदमृगौ॥१२. प्रकृतित्रज्वी दशा० मु.; सरलस्वभावा॥१३. रावणमेव वाञ्छतीत्यर्थः ।। १४. पूर्ववत् ॥१५. प्रायेणाऽपवादा लोकैरेव निर्मिता भवन्ति, न तु वास्तविकाः ।। १६. वसन्तर्तुः ।। १७. Jain Educatio पुष्प्यन्ति पाता. ।। १८. माहेन्द्रो० पाता. ॥१९. पूजाचर्या० मु. २० नगर मु. नागरी० पाता. ॥ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः ) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । *त्वद्वियोगभवाद् दुःखाद् दुःखमद्याऽपि मेऽधिकम् । किमसौ दास्यति विधिर्निमित्तं नैतदन्यथा ॥ २७२॥ रामोऽपि तामुवाचैवं देवि ! मा खेदमुद्वह । अवश्यमेव भोक्तव्ये कर्माधीने सुखासुखे ॥ २७३॥ तद् गच्छ मन्दिरे स्वस्मिन् देवानामर्चनं कुरु । प्रयच्छ दानं पात्रेभ्यो धर्मः शरणमापदि ॥ २७४ ॥ सीताऽपि सदनं गत्वा संयमेन महीयसा । अर्हतोऽपूँजयद् दानं प्रददे चाऽर्वेदानवत् ॥ २७५॥ रघुनाथमथाऽऽजग्मू "राजधानीमहत्तराः । यथाभूतपुरीवृत्तकीर्तनैकाधिकारिणः ॥ २७६॥ विजय: सूरदेवश्च मधुमानथ पिङ्गलः । शूलधरः काश्यपश्च कालः क्षेमश्च नामतः ॥ २७७॥ नत्वा रामाग्रतस्तस्थुः कम्पमाना द्रुपत्रवत् । न तु विज्ञपयामासू राजतेजो हि दुस्सहम् ॥ २७८ ॥ तनूचे रामभद्रोऽपि भो भोः ! पुरमहत्तराः ! । अभयं वो ब्रुवाणानामेकान्तहितवादिनाम् ॥ २७९॥ तेष्वाद्यः सर्वसंवित्त्या विजयाख्यो महत्तरः । इति विज्ञपयामास सावष्टम्भः प्रभोगिरा ॥ २८० ॥ स्वामिन्नवश्यविज्ञप्यं यदि विज्ञप्यते न हि । वञ्चितः स्यात् तदा स्वामी, विज्ञप्तं चाऽतिदुःश्रवम् ॥ २८१ ॥ देव! देव्यां प्रवादोऽस्ति घटते दुर्घटोऽपि हि । युक्त्या हि येद् घटामेति श्रद्धेयं तन्मनीषिणा ॥ २८२॥ तथाहि जानकी हृत्वा रावणेन रिरंसुना । एकैव निन्ये तद्वेश्मन्यवात्सीच्च चिरं प्रभो ! ||२८३ || सीता रक्ता विरक्ता वा संवित्या वा प्रसह्य वा । स्त्रीलोलेन दशास्येन नूनं स्याद् भोगदूषिता ॥ २८४ ॥ लोकों हि प्रवदत्येवं प्रवदामो वयं तथा। युक्तियुक्तं प्रवादं तन्मा सहस्व रघूद्वह! ॥ २८५ ॥ 1 आजन्मोपार्जितां कीर्तिं निजं कुलमिवाऽमलाम् । प्रवादसहनेन त्वं मा देव! मलिनीकृथाः ||२८६॥ कलङ्कस्याऽतिथीभूतां सीतां निश्चित्य राघवः । सद्योऽभूद् दुःखतूष्णीकः प्रायः प्रेमाऽतिदुस्त्यजम् ॥२८७॥ धैर्यमालम्ब्य काकुत्स्थस्तानुवाच महत्तरान् । साधु व्यज्ञपि युष्माभिर्न भक्ताः क्वाऽप्युपेक्षकाः ॥ २८८॥ न स्त्रीमात्रकृते जातु सहिष्येऽहमिहाऽयशः । इति पद्मः प्रतिज्ञाय विससर्ज महत्तरान् ॥ २८९ ॥ निशायामथ काकुत्स्थः प्रच्छन्नः सदनाद् बहिः । निरगादिति चाऽश्रौषीज्जनवचं पदे पदे ॥ २९०॥ रावणेनाऽपनीतेयं तद्गृहे च चिरं स्थिता । सीताऽऽनीता च रामेण सतीति च स मन्यते ॥ २९९ ॥ नीत रक्तेन तेनेयं नोपभुक्ता कथं भवेत् ? । नाऽदोऽपि व्यमृशद् रामो न रक्तो दोषमीक्षते ॥ २९२॥ इत्यादिसीतानिर्वादं शृण्वन् रामो गृहं ययौ । भूयोऽपि तच्छ्रवणार्थमादिदेश चरान् वरान् ॥२९३॥ एवं च दध्यौ काकुत्स्थो मया यस्याः कृते कृतः । रक्षः कुलक्षयो रौद्रस्तस्याः किमिदमागतम् ? || २९४ ॥ महासती सीता स्त्रीलोलः स च रावणः । कुलं च मे निष्कलङ्क हा रामः किं करोत्वसौ ? ॥ २९५ ॥ द्राक् चरास्ते बहिः श्रुत्वा सीतानिर्वादमब्रुवन् । रामस्य सानुज- कपि- रक्षोराजस्य सुस्फुटम् ॥ २९६ ॥ क्रुद्धोऽथ लक्ष्मणोऽवोचद् दोषान् सङ्कल्प्य हेतुभिः । ये निन्दन्ति सतीं सीतां तेषामेषोऽन्तकोऽस्म्यहम् ॥ २९७॥ रामोऽप्यूचे मम पुरा व्यज्ञपीदं महत्तरैः । स्वयं च शुश्रुवे तस्य संवादोऽयं चरैः कृतः ॥ २९८ ॥ श्रुत्वा चाऽमी समायाताः प्रत्यक्षं वोऽपि भाषिताः । सीतात्यागे माऽपवादीत् सीतास्वीकारवज्जनः ॥ २९९॥ ऊचे च लक्ष्मणो लोकगिरा सीतां स्म मा त्यज । यथा तथाऽपवदिता यदबद्धमुखो जनः || ३००|| लोकः सौराज्यसुस्थोऽपि राजदोषपरो भवेत् । शिक्षणीयो न चेत् तत्रोपेक्षणीयः स भूभुजाम् ||३०१ || रामोऽप्यूचे सत्यमेतदीदृग् लोकः सदाऽपि हि । सर्वलोकविरुद्धं तु त्याज्यमेव यशस्विनीं ॥ ३०२ ॥ इत्युक्त्वोवाच सेनान्यं कृतान्तवदनं बैलः । अरण्ये त्यज्यतां क्वाऽपि सीतेयं गर्भवत्यपि ॥३०३॥ २२१ १. त्वद्वियोगभवाद्दुःखमद्याऽपि मेऽधिकं पुनः पाता. ॥। २. सीता गत्वा च सदनं खं. १ ; सीताऽपि गत्वा सदनं खं. २, ता. ला.; सीता गत्वाऽपि सदनं पाता । ३. ०ऽपूपुजद्० ला ॥ ४. अवदानं शुद्धं कर्म ॥ ५. राजधानी अयोध्या, तस्य महत्तराः -महाजनः । ६. नगर्या यथार्थवृत्तान्तकथनेऽधिकृता: ।। ७. वृक्षपर्णवत् ॥ ८. सर्वव्यतिकरज्ञातृत्वेन आद्यः ।। ९. यद् घटते ॥ १०. सीतायाः अनुमत्यात्मकबुद्ध्या ॥ ११. बलात् ।। १२. लोकोऽपि पाता. विना ।। १३. दुःखेन मौनावलम्बी ॥ १४. ०ज्जनवादं मु. रस्वीपा ॥। १५. रावणेनोप० खं. २ ।। १६. सीतारक्तेन मु. ॥। १७. न एतदपीत्यर्थः ॥ १८. गृहे पाता. विना ।। १९. गृहे खं. २ ॥ २०. अनुज (लक्ष्मण) - कपि (सुग्रीव) - रक्षो (बिभीषण) युक्तस्य ।। २१. सङ्कल्प० खं. १, पाता. ॥ २२. चाऽपि भाषिताः खं. १, मु. रस्वीपा.; च स्वभाषिताः ला ॥ २३. यथा सीतायाः स्वीकारे कृते जनोऽपवदितुं निन्दितुं लग्नः, तथा लोकापवादं श्रुत्वैव सीतायास्त्यागे कृतेऽपि लोकोऽपवदिष्यतीत्याशङ्का सम्भवति, तन्निरासाय इमे चराः सीतापवादं श्रुत्वाऽऽगताः - वः - युष्माकं च प्रत्यक्षं ते भाषिताः यथाश्रुतं निवेदिता मया, अतः सीतात्यागेऽपि लोकापवादो भविष्यतीत्याशङ्का न स्थाने इत्याशयोऽत्र सम्भाव्यते ॥ २४. यशस्विनः मु. ॥ २५. रामः ॥ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (सप्तमं पर्व पतित्वा रामपादेषु बभाषे लक्ष्मणो रुदन् । सीतादेव्या महासत्यास्त्यागोऽयमुचितो न हि॥३०४॥ नाऽतः परं त्वया वाच्यमिति रामेण भाषिते। नीरङ्गीच्छन्नवक्त्रोऽगात सौमित्रि: स्वगृहं रुदन ॥३०५।। कतान्तवदनं रामोऽन्वशात् सीतां वने नय । सम्मेतयात्राव्याजेन तस्याः खल्वेष दोहदः ॥३०६।। सेनानीरपि सम्मेतयात्रायै रामशासनम् । आख्याय सीतामारोप्य स्यन्दने प्राचलद् द्रतम् ।।३०७।। दुर्निमित्तेष्वशकुनेष्वपि सीता रथस्थिता । जगाम दूरमध्वानमार्जवादविशङ्किता ॥३०८॥ गङ्गासागरमुत्तीर्याऽरण्ये सिंहनिनादके । गत्वा कृतान्तवदनस्तस्थौ किञ्चिद् विचिन्तयन् ॥३०९।। साथ म्लानमखं तं च प्रेक्ष्य सीताऽब्रवीदिति । कथमित्थं स्थितोऽसि त्वं सशोक इव दर्मना: ? ||३१०॥ कतान्त: कथमप्यचे दर्वचं वच्म्यहं कथम ? । दुष्करं कृतवांश्चैतत् प्रेष्यभावेन दषितः ।।३११।। राक्षसावाससंवासापवादाल्लोकजन्मनः । भीतेन देवि! रामेण त्याजिताऽसि वनेऽनघे! ॥३१२॥ अपवादे चराख्याते रामं त्वत्त्यजनोद्यतम् । न्यषेधीलक्ष्मणो लोकं प्रति क्रोधारुणेक्षणः ॥३१३।। सिद्धाज्ञया निषिद्धश्च रामेण स रुदन् ययौ । अहं च प्रेषितोऽमुष्मिन् कार्ये पापोऽस्मि देवि! हा! ॥३१४।। अमुष्मिन् श्वापदाकीर्णे मृत्योरेकनिकेतने । जीविष्यसि मया त्यक्ता स्वप्रभावेण केवलम् ॥३१५।। तच्छ्रुत्वा स्यन्दनात् सीता मूर्च्छिता न्यपतद् भुवि । मृतेति बुद्ध्या सेनानी: पापम्मन्यो रुरोद सः ॥३१६।। सीताऽपि वनवातेन कथञ्चित् प्राप चेतनाम् । भूयो भूयोऽप्यमूर्च्छच्च चेतनामाससाद च ॥३१७।। महत्यामथ वेलायां सुस्थीभूयेत्युवाच सा। इतोऽयोध्या कियद्दूरे ? रामस्तिष्ठति कुत्र वा ? ॥३१८॥ सेनानीरभ्यधाद दरेऽयोध्या किं पुच्छयाऽनया? | उग्राज्ञस्य च रामस्य पर्याप्तं देवि! वार्तया ॥३१९।। इति श्रुत्वाऽपि सा रामभक्ता भूयोऽप्यभाषत। भद्र! मद्वाचिकमिदं शंसे रामस्य सर्वथा ।।३२०॥ यदि निर्वादभीतस्त्वं परीक्षां नाऽकृथाः कथम् ? | शङ्कास्थाने हि सर्वोऽपि दिव्यादि लभते जनः ॥३२१।। अनुभोक्ष्ये स्वकर्माणि मन्दभाग्या वनेऽप्यहम् । नाऽनुरूपं त्वकार्षीस्त्वं विवेकस्य कुलस्य च ॥३२२।। यथा खलगिराऽत्याक्षी: स्वामिन्नेकपदेऽपि माम् । तथा मिथ्यादृशां वाचा मा धर्मं जिनभाषितम् ॥३२३।। इत्युक्त्वा मूर्च्छिता भूमौ पतितोत्थाय चाऽभ्यधात् । मया विना कथं रामो जीविष्यति ? हताऽस्मि हा! ॥३२४॥ रामाय स्वस्त्यथाऽऽशंसेराशिषं लक्ष्मणस्य च । शिवास्ते सन्तु पन्थानो वत्स! गच्छोपराघवम् ॥३२५।। एवंविधेऽपि दयिते विपरीतवृत्तौ यैवंविधा तदियमेव सतीषु धुर्या । सञ्चिन्तयन्निति भृशं प्रणिपत्य मुक्त्वा सीतां कृतान्तवदनो ववले कथञ्चित् ॥३२६।। इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये सप्तमपर्वणि सीतापरित्यागो नामाऽष्टमः सर्गः।। १. मुखं वस्त्रेण आवृत्य('धुंघट काढीने') इति भाषायाम् ।। २. सम्मेतशिखरयात्रामिषेण ॥ ३. किङ्करभावेन ।। ४. अनुल्लङ्घनीयनिजाज्ञादानेन ॥ ५. हेमचन्द्राचार्य० ला.विना ।। ६. सप्तमे० पाता. ला.॥७. सर्गः समाप्त: पाता. मु. ।। Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥नवम: सर्गः॥ अथसीता भयोद्धान्ता बभ्रामेतस्ततो वने। आत्मानमेव निन्दन्ती पूर्वदुष्कर्मदूषितम् ॥१॥ भूयो भूयश्च रुदती स्खलन्ती च पदे पदे। गच्छन्ती पुरतोऽपश्यन्महत् सैन्यं समापतत्॥२॥ मृत्यु-जीवितयोस्तुल्याशया प्रेक्ष्याऽपि तद् बलम् । सीता तस्थावभीतैव नमस्कारपरायणा ॥३॥ तां दृष्ट्वा बिभयाञ्चक्रुः सैनिका: प्रत्युताऽपिते। का नाम दिव्यरूपेयं भूस्थितेत्यभिभाषिणः॥४॥ सीताया रुदितं श्रुत्वास्वरवित तच्चमूनपः । इयं महासती काऽपि गुर्विणीचेत्यवोचत ।।५।। कृपालुः स महीपाल उपसीतं जगाम च।सीताऽप्याशङ्किता तस्य स्वं नेपँथ्यमढौकयत्॥६॥ राजाऽप्येवमभाषिष्ट मा भैषीस्त्वं मनागपि। तवैव भूषणान्येतान्यङ्गे तिष्ठन्तु हे स्वस:!||७|| का त्वं? कस्त्वामिहाऽत्याक्षीनिघृणेभ्योऽपि निघृण: ? । आख्याहि मा स्म शङ्किष्ठास्त्वत्कष्टेनाऽस्मि कष्टितः॥८॥ तन्मन्त्री सुमतिर्नाम सीतामेत्याऽब्रवीदिति। गजवाहनराजस्य बन्धुदेव्याश्च नन्दनः।।९।। नृपतिर्वज्रजकोऽयं पुण्डरीकपुरेश्वरः। महार्हतो महासत्त्व: परनारीसहोदरः॥१०॥ गजान् ग्रहीतुमत्रैत्य कृतार्थीभूय चव्रजन् । त्वदुःखदुःखितोऽत्राऽऽगाद् दुःखमाख्याहि तन्निजम्॥११॥ विश्वस्य सीताऽप्याचख्यौ स्ववृत्तान्तमशेषतः । रुदती रोदयन्ती तौ कृपालू राज-मन्त्रिणौ॥१२॥ निर्व्याजो व्याजहारैवं राजा धर्मेस्वसाऽसि मे। एकंधर्मं प्रपन्ना हि सर्वेस्युर्बन्धवो मिथः॥१३॥ ममभामण्डलस्येवांतुरेहि तदोकसि। स्त्रीणां पतिगृहादन्यत् स्थानं भ्रातृनिकेतनम् ॥१४॥ रामोऽपि लोकवादेन त्वामत्याक्षीन तु स्वयम्। पश्चात्तापेन सोऽप्यद्य मन्ये त्वमिव कष्टभाक्॥१५।। गवेषयिष्यत्यचिरात् त्वां सोऽपि विरहातुरः । चक्रवाक इवैकाकी ताम्यन् दशरथात्मजः॥१६॥ इत्युक्ता निर्विकारेण तनोमित्यभिधायिनी।सीता रुरोह शिबिकां सद्यस्तदुायिताम्॥१७।। पुण्डरीकपुरं चाऽऽगान्मिथिलामपरामिव। अहर्निशं धर्मशीला चाऽस्थात् तद्दर्शिते गृहे॥१८॥ पाइतश्च रामसेनानीर्गत्वारामाय सोऽवदत् । वने सिंहनिनादाख्ये त्यक्तवानस्मिजानकीम्॥१९॥ मुहुर्मुहुः सा मूर्च्छित्वा चेत्विा च मुहुर्मुहुः । कथञ्चि धैर्यमालम्ब्य वाचिकं चैवमादिशत्॥२०॥ नीतिशास्त्रे स्मृतौ देशे कस्मिन्नाचार ईदृश: । एकपक्षोक्तदोषेण पक्षस्याऽन्यस्य शिक्षणम् ?॥२१॥ सदा विमृश्य कर्तुस्तेऽप्यविमृश्यविधायिता । मन्ये मद्भाग्यदोषेण निर्दोषस्त्वं सदाऽप्यसि॥२२॥ खलोक्त्याऽहं यथा त्यक्ता निर्दोषाऽपि त्वया प्रभो! । तथा मिथ्यादृशां वाचा मा त्याक्षीधर्ममार्हतम्॥२३॥ इत्युक्त्वा मूर्च्छितासीता पतित्वोत्थाय चाऽब्रवीत्। मया विना कथं रामो जीविष्यति? हताऽस्मि हा! ॥२४॥ इत्याकर्ण्य वचोराम: पपात भुवि मूर्छया। सम्भ्रमाल्लक्ष्मणेनैत्य सिषिचे चन्दनाम्भसा॥२५॥ उत्थाय विललापैवं क्वसासीता महासती?। सदा खलानां लोकानां वचसा ही मयोज्झिता॥२६।। अथोचे लक्ष्मण: स्वामिंस्तस्मिन्नद्याऽपिसा वने। महासतीस्वप्रभावत्राता नूनं भविष्यति॥२७॥ गत्वा गवेषयित्वा चस्वयमानीयतां प्रभो! सीता देवी त्वद्विरहान्न हि यावद् विपद्यते॥२८॥ श्रुत्वैवं सह तेनैव सेनान्या खेचरैश्च तैः । रामोऽगाव्योमयानेन तत्राऽरण्येऽतिदारुणे॥२९॥ प्रतिस्थलं प्रतिजलं प्रतिशैलं प्रतिद्रुमम् । रामो गवेषयामास ददर्श न तु जानकीम् ॥३०॥ मन्ये व्याघ्रण सिंहेन श्वापदेनाऽपरेण वा। सीतार्जग्धेति सुचिरं दध्यौ रामोऽतिदुःखितः ॥३१॥ १. आगच्छत् ।। २. स्वरज्ञानवान् ।। ३. स्वनेपथ्य० खं.२, पाता.॥४.आभूषणादि समर्पितवती॥५. विश्वासं कृत्वा॥६. निष्कपटः॥७. धर्मभगिनी।। ८. भ्रातुरेव तवौकसि पाता. ता. ॥ ९. तेनौमि० पाता.; तेनामि० खं.१-२; तेनामे० मु.॥ १०.०स्तदुपयायिताम् पाता. ॥११. सज्ञां प्राप्य ॥१२. शिक्षा ।। १३. मूर्छित: ता. ॥१४. भक्षिता॥ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (सप्तमं पर्व सीताप्राप्तौ विमुक्ताशो निवृत्य स्वपुरीं ययौ। पौरैः 'सीतागुणग्राहं निन्द्यमानो मुहुर्मुहुः ।।३२।। प्रेतकार्यं चसीतायाः पद्योऽकार्षीदुदश्रुदृक् । पश्यन् सीतामयमिव सर्वं शून्यमिवाऽथ वा॥३३॥ सैका हृदि दृशोरग्रे तस्थौरामस्य वाचिच। क्वाऽपि तिष्ठतिसीतेति तथाऽपिन विवेदसः॥३४॥ इतश्च तत्र वैदेही सुषुवे युग्मिनौ सुतौ । नामतोऽनङ्गलवणं मदनाङ्कुशमप्यथ ॥३५॥ वब्रजचस्तयोश्चक्रे जन्म-नाममहोत्सवौ । स्वपुत्रलाभादधिकं मोदमानो महामनाः ॥३६।। धात्रीजनै ल्यमानौ लीलादुर्ललितावुभौ । क्रमेण ववृधाते तावश्विनाविव भूचरौ ॥३७।। कलाग्रहणयोग्यौ तावजायतां महाभुजौ । कलभाविव शिक्षार्हो नरेन्द्रनयनोत्सवौ ॥३८॥ तदा च नाम्ना सिद्धार्थोऽणुव्रती सिद्धपुत्रकः । विद्या-बलर्द्धिसम्पन्न: कलागमविचक्षणः ।।३९।। त्रिसन्ध्यमपि मेर्वद्रौ चैत्ययात्रासु चङ्क्रमैः । आकाशगामी भिक्षार्थं वैदेहीगृहमाययौ ॥४०॥युग्मम्।। वैदेह्या भक्तपानाद्यैः श्रद्धया स तु भोजितः । तथा सुखविहारं च तया पृष्टस्तदाऽवदत् ।।४१।। तेनाऽपि पृष्टा वैदेही सुतजन्मावधि स्वकम् । मूला वृत्तान्तमाचख्यौ तस्य भ्रातुरिवाऽग्रतः ॥४२।। ऊचेऽष्टाङ्गनिमित्तज्ञ: सिद्धार्थ: करुणानिधिः । किं ताम्यसि मुधा ? यस्यास्तनयौ लवणाङ्कुशौ ॥४३।। प्रशस्तलक्षणौ साक्षादिव तौ राम-लक्ष्मणौ । मनोरथं तव सुतौ नचिरात् पूरयिष्यतः॥४४॥ तेनेत्याश्वासिता सीता तमभ्यर्थ्य कृताग्रहा । स्वगृहे धारयामास पुत्राध्ययनहेतवे ॥४५॥ स भव्याविति तत्पुत्रौ सर्वा अग्राहयत् कलाः। तथा यथा तावभूतां दुर्जयौ घुसदामपि ॥४६।। तावधीताखिलकलौ प्रपेदाते च यौवनम् । नूतनाविव कन्दर्प-वसन्तौ सहचारिणौ ॥४७॥ वज्रजकः शशिचलां पत्री लक्ष्मीवतीभवाम। कन्या द्वात्रिंशतं चाऽन्या लवणेनोदवायत् ॥४८॥ सोऽङ्कुशाय ययाचे तु पृथ्वीपुरपते: पृथो: । कन्यकाममृतवतीजातां कनकमालिकाम् ॥४९॥ वंशो न ज्ञायते यस्य तस्मै स्वदुहिता कथम् । दीयतामित्यभाषिष्ट पृथुः पृथुपराक्रमः ॥५०॥ वज्रजङ्घस्तदाकर्ण्य तं क्रोधादभ्यषेणयत् । पृथुगृह्यं व्याघ्ररथं युद्धे बद्ध्वाऽग्रहीन्नृपम् ॥५१॥ स्वमित्रं पोतनपतिं साहाय्यायाऽह्वयत् पृथुः । विधुरेषु हि मित्राणि स्मरणीयानि मन्त्रवत् ॥५२।। वज्रजयोऽपि पुत्रान् स्वान् नरैरानाययद् युधि । तैर्वार्यमाणावपि तौ चेयतुर्लवणाङ्कुशौ ।।५३।। अन्येधुर्ववृते युद्धं चम्वोर्मिलितयोर्द्वयोः । परैरतिबलैर्वज्रजङ्घसैन्यं त्वभज्यत ॥५४॥ संक्रुद्धौ मातुलचमूभङ्गेन लवणाङ्कुशौ । निरङ्कुशाविव गजौ प्रणिघ्नन्तावधावताम् ॥५५॥ तयोरोजस्विनो रंहो मनागपि न सेहिरे। द्विषन्त: प्रोवृडुत्पूरश्रोतसोरंहिपा इव ॥५६॥ अभज्यत ससैन्योऽपि पृथुर्यावन्नरेश्वरः । ऊचतुस्तावदेवं तौ स्मेरास्यौ रामनन्दनौ ॥५७॥ अपरिज्ञातवंशाभ्यामप्यावाभ्यामिहाऽऽहवे । विज्ञातवंशजा यूयं पलायध्वे कथं त्वहो ? ॥५८॥ इति तद्वचनं श्रुत्वा वलित्वा पृथुरब्रवीत् । व्यज्ञायि वंशो युष्माकं विक्रमेणाऽमुना मया ।।५९।। अङ्कुशायाऽर्थिता कन्या वज्रजचेन भूभुजा। नूनं मम हितेनैव वरो हीदृक् क्व लभ्यते ? ॥६०॥ इति सानुनयं प्रोच्य सोऽङ्कशाय तदैव हि । कन्यां कनकमालाख्यां प्रददौ पूर्वयाचिताम् ॥६१॥ सन्धानं वज्रजचेन समक्षं सर्वभूभुजाम् । चक्रे पृथुनृपः पुत्र्या: स्पृहयन्त्रङ्कुशं वरम् ।।६२।। तत्राऽस्थाच्छिबिरं न्यस्य वज्रजचनरेश्वरः । आगाच्च नारदमुनिः सच्चक्रे तेन चोच्चकैः ॥६३॥ वज्रजको निषण्णेषु राजसूवाच नारदम् । अङ्कुशाय पृथुर्दास्यत्यसौ कन्यां निजां मुने! ॥६४॥ लवणाङ्कुशयोर्वंशमस्मत्सम्बन्धिनोऽस्य तत् । आख्याहि ज्ञातजामातृवंशो येनैष तुष्यति ॥६५।। अथोचे नारदः स्मित्वा वंशं को वेत्ति नाऽनयो: ? । यस्योत्पत्त्यादिकन्दः स भगवानृषभध्वजः ॥६६।। चक्रिणो ह्यनयोर्वंशे भरताद्या: कथाश्रुताः । को न वेत्त्यनयोस्तातौ प्रत्यक्षौ राम-लक्ष्मणौ ॥६७|| १. सीताया गुणान् गृहीत्वा ।। २. मरणोत्तरक्रिया ।। ३.०महोत्सवैः ला.॥४. तावश्विना० मु.; देववैद्यौ ।। ५. च क्रमात् खं.१-२, पाता. ला. ।। ६. च ला. ॥७. कृताग्रही ला.॥८.अज्ञापयत् छा. पा.॥९. कन्दौ पाता. ॥१०. कामदेवो वसन्तर्तुश्च ।।११. पृथुराजस्य पक्षपातिनम् ।। १२. प्रहारं कुर्वन्तौ ।। प्रावृष:-वर्षायाः उत्पूराया:(नद्याः) च स्रोत:-प्रवाहं यथा वृक्षा न सेहिरे तथा॥१४. सन्धिम् ।। १५. भगवान् वृषभ० रसंपा. ।। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । गर्भस्थयोरप्यनयोरयोध्यालोकजन्मनः । अपवादाच्चकितेन त्यक्ता रामेण जानकी ॥६८॥ अथाऽकशो हसित्वोचे ब्रह्मन्! न खलु साधु तत् । चक्रे रामेण वैदेहीं त्यजता दारुणे वने ॥६९।। भूयांसि ह्यपवादस्य कारणानि निराकृतौ । भवन्ति तत्र किं न्वेवं विद्वानपि चकार स: ?॥७०॥ पप्रच्छ लवणोऽथैवं दूरे कियति सा पुरी। यस्यां वसति मे तात: सानुजः सपरिच्छदः ? ॥७१।। मुनिश्चोचे तव पिता यस्यां विश्वैकनिर्मल: । साऽयोध्या पूरित: षष्टियुग्योजनशतं खलु ॥७२॥ वज्रजङ्घमथोवाच लवण: प्रश्रयं श्रयन् । इच्छावस्तत्र गत्वाऽऽवां प्रेक्षितुं राम-लक्ष्मणौ ॥७३|| प्रतिपद्य स तद्बाचमङ्कुशं पर्यणाययत् । महोत्सवेन पृथुराट्पुत्र्या कनकमालया ॥४॥ वज्रजच-पृथुभ्यां तावन्वितौ लवणाङ्कुशौ । साधयन्तौ बहून् देशान् लोकाख्यपुरमीयतुः ॥७५॥ युद्धभूमौ च तद्रूपं धैर्य-शौण्डीर्यशालिनम् । कुबेरकान्तनामानं मानिनं तत्र जिग्यतुः ॥७६।। लम्पाकेष्वेककर्णाख्यं विजिग्याते नृपं च तौ । ततश्च विजयस्थल्यां भूपं भ्रातृशताभिधम् ।।७७॥ गङ्गामुत्तीर्य कैलासस्योत्तरां दिशमीयतुः । तत्र नन्दनचारूणां देशानां चक्रतुर्जयम् ॥७८।। ऋष-कुन्तल-कालाम्बु-नन्दिनन्दन-सिंहलान् । शलभाननलान् शूलान् भीमान् भूतरवादिकान् ॥७९।। जयन्तौ नृपान् सिन्धोः परकूलमुपेयतुः । तत्र चाऽऽर्याननार्यांश्च साधयामासतुपान् ।।८०॥युग्मम्।। बहदेशेश्वरानेवं साधयित्वा सहैव तैः । निवत्योपेयतुस्तौ तत पुण्डरीकपुरं पुरम् ॥८१॥ अहो! धन्यो वज्रजको यदीयौ यामिनन्दनौ । ईदृशाविति जल्पद्भिर्वीक्ष्यमाणौ पुरीजनैः ।।८२॥ जग्मतुः स्वगृहं वीरौ भूपवीरैः समावृतौ । प्रणेमतुश्च जानक्याश्चरणौ विश्वपावनौ ।।८३।।युग्मम्।। चुचुम्ब मूर्ध्नि तौ सीता स्नपयन्ती मुंदश्रुभिः । राम-लक्ष्मणयोस्तुल्यौ भूयास्तमिति चाऽवदत् ।।८४।। [ऊचतुर्वज्रजई तौ मातुल! प्राक् त्वयाऽऽवयोः । मेने यानमयोध्यायामिदानीमनुतिष्ठ तत् ।।८५।। आज्ञाप्यन्तां च लम्पाक-ऋष-कालाम्बु-कुन्तला: । शलभानल-शूलाद्याश्चाऽपरेऽपि महीभुजः ॥८६॥ प्रयाणभम्भा वाद्यन्तां छाद्यन्तां च दिशो बलैः । त्यक्ता येनाऽऽवयोर्माता वीक्ष्यस्तस्याऽद्य विक्रमः ।।८७|| सीताऽपि सद्यो रुदती जगादैवं सगद्गदम् । वत्सौ! केयमनर्थेच्छा युवयोः कर्मणाऽमुना ? ॥८८॥ वीरौ पितृ-पितृव्यौ वां दुर्जयौ धुसदामपि । यकाभ्यां निहतो रक्ष:पतिस्त्रैलोक्यकण्टकः ॥८९।। उत्कण्ठा पितरं द्रष्टुं युवयोर्यदि बालकौ! । विनीतीभूय तद् यातं पूज्ये हि विनयोऽर्हति ॥९०॥ ततस्तावेवमूचाते विनयः क्रियते कथम् । तस्मिन् द्विषत्पदप्राप्ते त्वत्त्याजिनि पितर्यपि ? ॥९१।। पुत्रौ तवाऽऽवामायाताविति तस्य पुरः कथम् । गत्वा स्वयं वदिष्यावस्तस्याऽपि ह्रीकर वच: ? ||९२।। आनन्दजनकं तस्य जनकस्याऽपि दोष्मतः । युद्धाह्वानं युज्यते तु कुलद्वययशस्करम् ॥१३॥ अभिधायेति सीतायां रुदत्यामपि चेलतुः । महोत्साहौ महासैन्यौ तौ रामनगरी प्रति ॥९४॥ कुठार-कुद्दालभृतां सहस्राणि नृणां दश। तयोः पच्छिदन वृक्षादिकं मां च समा व्यधुः ।।१५।। क्रमेण गत्वा सेनाभी रुन्धानौ सर्वतो दिश: । तावूषतुरुपायोध्यं योद्धुकामौ महाभुजौ ॥९६॥ विरुद्धं तद्बलं भूरि श्रुत्वाऽऽयातं पुरो बहिः । उभौ विसिष्मियाते च सिष्मियाते च राघवौ ॥९७।। अथेत्थमूचे सौमित्रि परे केऽमी पतङ्गवत् । मर्तुकामा: समापेतुरार्यविक्रमपावकम् ? ॥९८॥ इत्युक्त्वा सह रामेण सुग्रीवादिभिरावृतः । युद्धे चचाल सौमित्रिरमित्रध्वान्तभास्करः ॥९९॥ पाइतश्च नारदाच्छ्रुत्वा तद् भामण्डलभूपतिः । पुण्डरीकपुरे सीतामुपेयाय ससम्भ्रमः ॥१००॥ तस्याऽऽख्यद् रुदती सीता रामो मां भ्रातरत्यजत् । मत्त्यागमसहिष्णू च त्वद्यामेयौ युधे गतौ ॥१०१॥ भामण्डलोऽप्युवाचैवं त्वत्त्यागं रभसावशात् । चक्रे रामो द्वितीयं तु मा कार्षीत् पुत्रयोर्वधम् ॥१०२॥ १. निराकरणे॥२.त्वेवं ला.॥३. १६०योजनानि ॥४. लम्पाकदेशेषु॥५. देशनामान्येतानि ॥६. ननलांझूलान् ला.॥७. जामि० पाता.; भगिनीसुतौ ॥ ८. आनन्दाश्रुभिः ।। ९. अमानि कोशलायानमिदानी० हे. छा. पा. ॥१०. जगादेदं ला.॥११. शत्रुत्वं प्राप्ते ।। १२. लजाकरम् ।। १३. रुदन्त्या० मु.॥ १४. 'विस्मितौ' इति टि.ला. ।। १५. 'हसितौ' इति टि.ला, ।। १६. त्रि-रमित्रध्वान्तभास्कर: खं.१ ॥ १७. आर्यस्य-रामस्य विक्रम एव पावक:Jain Education अग्निस्तम् ।।१८. त्वज्जामेयौ पाता.; त्वद्भगिनीपुत्रौ।। Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (सप्तमं पर्व आत्मजौ तावजानानौ न यावद्धन्ति राघवः । उत्तिष्ठ तावद् गच्छावस्तत्राऽऽवामविलम्बितम् ।।१०३॥ इत्युक्त्वा जानकीमात्मविमानमधिरोप्य च । लवणाङ्कुशयो: स्कन्धावारे भामण्डलो ययौ ॥१०४॥ तौ नमश्चक्रतः सीतां कमारौ लवणाङ्कशौ । मातुलोऽयमिति सीताख्यातं भामण्डलं तथा ॥१०५।। स तौ शिरसि चुम्बित्वा स्वोत्सङ्गमधिरोप्य च । हर्षरोमाञ्चितवपुरित्यूचे गद्गदाक्षरम् ॥१०६॥ वीरपत्नी पुराऽप्यासीद् दिष्ट्या सम्प्रति वीरसूः । अभूदु युवाभ्यां मे यामिर्यामिनीजामिनिर्मला ॥१०७।। वीरपुत्रौ च वीरौ च युवां यद्यपि मानदौ । रणं पितृ-पितृव्याभ्यां मा कृषाथां तथाऽपि हि ॥१०८।। न रणे रावणोऽप्यासीद् ययोर्मल्लस्तयोः कथम् । युद्धं युवाभ्यामारेभे दोष्कण्डूरभसावशात् ? ॥१०९॥ तावूचतुर्मातुलाऽलं स्नेहभीरुतयाऽनया । त्वत्स्वसाऽप्यस्मदम्बेयमूचेऽद: कातरं वचः ॥११०।। आवामपि हि विद्वो यन्न मल्लः कोऽपि तातयोः । युद्धं त्यक्त्वा तयोरेवोत्पादयाव: कथं ह्रियम् ? ॥१११।। तयोर्बुवाणयोरेव सैन्यानां रामसैनिकैः । समं प्रववृते युद्धं संवर्तावर्तदर्शकम् ।।११२।। सुग्रीवाद्यैः खेचरैर्माऽनयो: सैन्यं महीचरम् । हन्यतामिति साशङ्को ययौ भामण्डलो युधि ॥११३।। उत्तस्थाते कुमारावप्याहवाय महाबलौ । उच्छ्वास्यमानवर्माणौ रोमाञ्चेनाऽतिशायिना ॥११४|| नि:शकं युध्यमानास्ते सुग्रीवाद्या नभश्चराः । युधि भामण्डलं दृष्ट्वा पप्रच्छु: काविमाविति ॥११५।। भामण्डलाच्च ते ज्ञात्वा रामपुत्राविमाविति । गत्वा सीतां नमश्चक्रुर्त्यषदंश्च पुरो भुवि ॥११६।। पाईतश्च तौ क्षणेनाऽपि दोष्मन्तौ लवणाङ्कुशौ । रामसैन्यं दुधुवतुः क्षयोद्धान्ताब्धिदुर्धरौ ॥११७|| यत्र यत्र भ्रमतुस्तौ वने सिंहाविवोद्धतौ । रथी सादी निषादी वा न तत्राऽस्थाद् धृतायुधः ॥११८॥ हत-विद्रुतमेवं च रामसैन्यं विधाय तौ । केनाऽप्यस्खलितौ रामं सौमित्रिं चेयतुर्युधि ।।११९।। तौ प्रेक्ष्य राम-सौमित्री एवमन्योऽन्यमूचतुः । कावप्येतावभिरामौ कुमारौ विद्विषौ च न: ? ॥१२०।। निसर्गात् स्निह्यति मनो बलाद् द्रुह्यति किं त्विदम् । उद्यच्छाव: किमाश्लेष्टमेतौ योधयितुं नु वा ? ॥१२१।। इति व्याहारिणं रामं रथस्थं लवणो रथी। लक्ष्मणं चाऽङ्कुशोऽवोचत् सौष्ठव-प्रश्रयान्वितम् ॥१२२।। जैत्रं जगदजय्यस्य रावणस्याऽपि दोष्मतः । दिष्ट्याऽद्राक्षं वीरयुद्धश्रद्धालुस्त्वामहं चिरात् ।।१२३।। नाऽपूर्यत रणश्रद्धा रावणेनाऽपि ते ध्रुवम् । एष तां पूरयिष्यामि त्वं च मे पूरयिष्यसि ॥१२४॥ इत्युक्ते राम-सौमित्री द्वौ तौ च लवणाङ्कुशौ । आस्फालयामासतु: स्वं स्वं धनुर्वानभीषणम् ॥१२५।। कृतान्तसारथी रामस्यन्दनं वज्रजवराट् । अनङ्गलवणरथमभ्यढौकयतां मिथ: ॥१२६।। रथं विराधः सौमित्रेरङ्कुशस्य पुन: पृथुः । अन्योऽन्यमभ्यमित्रीणं चक्राते वरसारथी॥१२७।। चतुरं भ्रमयामासुस्तेऽग्रसारथयो रथान् । प्रजहुर्विविधं ते च चत्वारो द्वन्द्वयोधिनः ॥१२८।। विज्ञातज्ञातिसम्बन्धौ सापेक्षौ लवणाङ्कुशौ । युयुधाते निरपेक्षौ त्वज्ञानाद् राम-लक्ष्मणौ ॥१२९।। विविधैरायुधैर्युद्ध्वा युद्धान्तेच्छू रघूद्वहः । ऊचे कृतान्तवदनं रथं प्रत्यरि वाहय ।।१३०॥ कृतान्तोऽपि बभाषेऽदः खेदं प्राप्ता ह्यमी हयाः। सर्वाङ्गं विशिखैर्विद्धा: प्रतियोधेन तेऽमुना ॥१३१॥ तुरङ्गा न त्वरन्तेऽमी कशाभिस्ताडिता अपि । रथश्च जर्जरस्तेऽभूदसौ वैर्यस्त्रताडितः ॥१३२॥ एतौ च मम दोर्दण्डौ द्विट्काण्डाघातजर्जरौ। न हि रश्मि प्रतोदं वा क्षमौ चालयितुं प्रभो! ||१३३।। पद्मनाभोऽप्यभाषिष्ट ममाऽपि शिथिलायते । धनुश्चित्रस्थितमिव वज्रावर्तं न कार्यकृत् ॥१३४।। अभून्मुशलरत्नं च वैरिनिर्दलनाक्षमम् । कणकण्डनमात्राहमेवैतदपि सम्प्रति ।।१३५।। अनेकशोऽङ्कुशीभूतं यद् दुष्टनृपदन्तिनाम् । हलरत्नं तदप्येतदभूदु भूपाटनोचितम् ।।१३६।। सदा यक्षै रक्षितानां विपक्षक्षयकारिणाम । तेषामेव ममाऽस्त्राणामवस्था केयमागता? ||१३७॥ यथाऽपराजितासूनोरभून्मोघास्त्रता तदा। तथैव लक्ष्मणस्याऽपि मदनाङ्कशयोधिनः ॥१३८॥ १. वीरं सूते इति वीरसूर्वीरमातेत्यर्थः ॥२. यामिनी रात्रिर्जाया यस्य स चन्द्रस्तद्वन्निर्मला ॥३. प्रलयमेघावर्त्तदर्शनम् ।। ४. ततश्च पाता. ॥५. क्षये-प्रलयकाले उद्भ्रान्तसमुद्रवद् दुर्धरौ।। ६.०युधे खं.१-२, पाता. ॥ ७. तु खं.१-२, पाता. ॥ ८. वदन्तम् ।। ९. ०ष्यति खं.१ ॥१०. शत्रून्मुखम् ।। ११. अरिं प्रति ।। १२. बन्धनीं (लगाम) कशां (चाबुक) वा ।। १३. धान्यकणानां कण्डनयोग्यं मुशलमभूत् ।। १४. क्षेत्रकर्षणयोग्यम् ॥ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२७ नवमः सर्गः) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । अत्राऽन्तरे चसौमित्रिरङ्कुशेनोरसीषुणा। ताडित: 'कुलिशेनेव मूर्च्छितो न्यपतद् रथे॥१३९।। सौमित्रिमूर्छाविधुरो विराध: स्यन्दनं रणात् । अचालयत् प्रत्ययोध्यं सज्ञां लेभेऽथ लक्ष्मणः ॥१४०।। साक्षेपं लक्ष्मणश्चोचे किं विराधाऽकृथा नवम् । रामभ्रातुर्दशरथसूनोरनुचितं ह्यदः ? ॥१४१।। तच्छीघ्रं नय तत्रैव रथं यत्र स मे द्विषन् । एष छिनधि तच्छीर्षं चक्रेणाऽमोघरंहसा ॥१४२॥ एवमक्तो विराधोऽथाऽनैषीत प्रत्यङ्कशं रथम । तिष्ठ तिष्ठेति जल्पंश्च चक्रं जग्राह लक्ष्मणः ॥१४३॥ भ्राम्यदर्कभ्रमकरं भ्रमयित्वा च तद् दिवि । क्रुद्धो मुमोच सौमित्रिरङ्कुशायाऽस्खलद्रयम् ॥१४४।। आपतत् ताडयामासाऽनेकशोऽस्त्रैस्तदङ्कुश: । सर्वात्मना लवणोऽपि न तु तत्प्रत्यहन्यत ।।१४५।। वेगेनाऽऽपत्य तच्चक्रमङ्कुशस्य प्रदक्षिणाम् । कृत्वा लक्ष्मणहस्तेऽगात् पुनर्नीड इवाऽण्डजः ॥१४६।। तद् भूयो लक्ष्मणोऽमुञ्चत् कृत्वा तद्वत् प्रदक्षिणाम् । पुनस्तत्पाणिमेवाऽऽगाच्छालां भग्न इव द्विपः ॥१४७।। चिन्तयामासतश्चैवं विषण्णौ राम-लक्ष्मणौ। किं सीरि-शाङ्गिणावेतौ न त्वावामिह भारते ? ॥१४८॥ अत्राऽन्तरे नारदर्षिः सिद्धार्थेन सहैव हि । तत्रोपेत्याऽवोचदेवं खिन्नं रामं सलक्ष्मणम् ।।१४९|| हर्षस्थाने विषादोऽयं युवयोः किं रघूद्वहौ ? । पुत्रात् पराजयो वंशोद्योतनाय न कस्य हि ? ॥१५०॥ सीताकुक्षिभवौ पुत्रौ ताविमौ लवणाङ्कुशौ । त्वां द्रष्टुमागतावत्र युद्धव्याजेन न त्वरी ॥१५१॥ अभिज्ञानमिदं तेऽत्र यच्चक्रं प्रबभूव न । मुधाऽभूद् भारतं चक्रं पुरा बाहुबलावपि ॥१५२॥ त्यागात् प्रभृति सीताया वृत्तान्तं नारदोऽखिलम् । पुत्रयुद्धान्तमाचख्यौ विश्वविस्मयदायकम् ॥१५३।। रामोऽपि विस्मय-व्रीडा-खेद-हर्षसमाकुलः । मुमूर्च्छ सञ्ज्ञां लेभे च संसिक्तश्चन्दनाम्भसा ।।१५४।। लक्ष्मणेन सहोदश्रुः पुत्रवात्सल्यपूरित: । जगाम रामो लवणाङ्कुशयोर्दुतर्मन्तिके ॥१५५।। अवतीर्य रथात् सद्यो विनीतौ लवणाङ्कुशौ । पादेषु पद्य-सौमित्र्योस्त्यक्तास्त्रौ पेततुः क्रमात् ॥१५६।। तावालिङ्ग्य निजोत्सङ्गमारोप्य च रघूद्वहः । मूर्ध्नि चुम्बन् रुरोदोच्चैः शोक-स्नेहसमाकुलः ॥१५७।। रामोत्सङ्गान्निजोत्सङ्गं तावारोप्याऽथ लक्ष्मणः । चुम्बन शिरसि बाहुभ्यां परिरेभेऽश्रुपूर्णदृक् ॥१५८॥ विलुठन्तौ पितुरिव विनीतौ पादपद्मयोः । दूरात् प्रसारितभुज: शत्रुघ्नोऽप्यालिलिङ्ग तौ ॥१५९।। अपरेऽपि हि भूपाला: सेनयोरुभयोरपि । प्रमोदन्ते स्म सम्भूय विवाहमिलिता इव ॥१६०॥ पुत्रयोर्विक्रमं दृष्ट्वा पित्रा च सह सङ्गमम् । हृष्टा सीता विमानेन पुण्डरीकपुरं ययौ ॥१६१।। सदृक्षपुत्रलाभेन मुदितौ राम-लक्ष्मणौ । हृषुः स्वामिहर्षेण भूचरा: खेचराश्च ते ॥१६२।। भामण्डलनृपाख्यातो वज्रजचनृपोऽपि हि । ननाम राम-सौमित्री विनीतश्चिरपत्तिवत् ॥१६३॥ रामस्तमाललापैवं भामण्डलसमोऽसि मे । पुत्रौ योऽवर्धयस्त्वं मेऽनैषी: काष्ठामिमां च यः ॥१६४|| इत्युक्त्वा पुष्पकारूढ: पद्मनाभः सलक्ष्मणः । अर्धासनोपविष्टाभ्यां पुत्राभ्यां प्राविशत् पुरीम् ॥१६५।। उद्ग्रीवपाणिभिः पौरै राजमार्गे च विस्मितैः । प्रेक्ष्यमाण-स्तूयमानसुतो रामोऽगमद् गृहम् ॥१६६॥ र पुत्राभ्यां सह राम: सलक्ष्मणः । महान्तमत्यन्तमुदा कारयामास चोत्सवम् ॥१६७।। अथ रामं सुमित्राभूः कपीश्वर-बिभीषणौ । हनूमानङ्गदाद्याश्च सम्भूयैवं व्यजिज्ञपन् ॥१६८॥ परदेशे स्थिता देवी त्वया विरहिताऽधुना। विनाऽमूभ्यां कुमाराभ्यामतिकष्टेन तिष्ठति॥१६९॥ यद्यादिशसि तत् स्वामिन्नानयामोऽद्य तामिह । विपत्स्यतेऽन्यथा सा तु पति-पुत्रोज्झिता सती ॥१७०।। किञ्चिद रामो विचिन्त्योचे जानक्यानीयते कथम् ? | लोकापवादोऽलीकोऽपि बलवानन्तरायकृत् ।।१७१|| जानेऽहं यत् सती सीता साऽपि स्वं वेत्ति निर्मलम् । दिव्यं दातुमथाऽदातुं तद् द्वयोरपि नाऽस्ति भी: ॥१७२॥ प्रत्यक्षं सर्वलोकानां दिव्यं देवी करोतु सा । शुद्धया च तया सार्धं गृहवासोऽस्तु मे पुनः ॥१७३।। १. वज्रेणेव ॥२. द्विष: खं.१ ॥३. भ्रमदर्क० कां. छा. मु.॥ ४.०मासाउनेकशौ० पाता. ॥५. इवाऽण्डजम् ता.; अण्डज:-पक्षी नीडे-गृहे इव ॥६. पलायितो गजो यथा पुनर्हस्तिशालायामागच्छति तथा ॥७. बलदेव-वासुदेवौ ।। ८. न तु शत्रू ।। ९. चिह्नम् ।। १०. भरतचक्रवर्तिन: चक्रं बाहुबलिविषये निष्फलं पुराऽभूत् ॥ ११. बाहुबलादपि खं.१-२, पाता. ॥ १२. ०मन्तिकम् पाता. ॥१३. जहएः खं.१ ॥ १४. स्थितिम् ॥ १५. मार्गे मार्गे च ता. ॥ १६. प्रेक्ष्यमाण: खं.१ विना ॥ १७. स्तूयमानस्ततो पाता. ॥ १८. सुमित्रासूः खं.१॥.. Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ माहेन्टो मन्दिर कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (सप्तमं पर्व एवमस्त्वित्युदित्वा ते पुर्या बहिरकारयन्। विशालान् मण्डपानुच्चैस्तदन्तमञ्चधोरणी: ॥१७४।। तेषु चोपाविशन् भूपा: पौरामात्यादयोऽपि च । ते बिभीषण-सुग्रीवप्रमुखा: खेचरा अपि ॥१७५।। ततो रामाज्ञयोत्थाय पुण्डरीकपुरे स्वयम् । गत्वा नत्वा च वैदेहीमित्युवाच कपीश्वरः ॥१७६।। त्वत्कृते प्रैषि रामेण विमानं देवि! पुष्पकम् । इदानीमिदमध्यास्स्व रामोपान्तमुपेहि च ॥१७७|| साऽप्यूचेऽद्याऽपि मेऽरण्यत्यागदुःखं न शाम्यति । ततः कथं यामि रामं भूयो दुःखान्तरप्रदम् ? ॥१७८।। नत्वा भूयोऽपि सोऽवोचमा कुपस्तव शुद्धये । समं पौरैर्नुपैः सर्वैर्मञ्चारूढोऽस्ति राघवः ॥१७९॥ तेनेत्युक्ते पूर्वमपि जानकी शुद्धिकाङ्क्षिणी । आरुरोह विमानं तदयोध्यायां जगाम च ॥१८०॥ द्यानं समुपेत्योत्ततार सा। दत्तार्घा लक्ष्मणेनैत्य नमश्चक्रे नपैरपि ॥१८१।। अग्रे निषद्य सौमित्रिनॅपैः सममदोऽवदत् । निजां पुरीं निजं वेश्म प्रवेशाद् देवि! पावय ॥१८२॥ सीताऽप्यूचे प्राप्तशुद्धिः प्रवेक्ष्यामि पुरीमिमाम् । गृहं च नाऽन्यथा वत्साऽपवादो जातु शाम्यति ॥१८३॥ इति सीताप्रतिज्ञां तेऽशंसन् रामाय भूभुजः । रामोऽप्युपेत्य वैदेहीमित्यूचे न्यायनिष्ठुरम् ।।१८४॥ भोगा न चेद् दशास्येन तस्थुष्या अपि तद्गृहे । समक्षं सर्वलोकानां तद् दिव्यं कुरु शुद्धये ॥१८५।। स्मित्वा सीताऽप्युवाचैवं विज्ञस्त्वत्तोऽपरो न हि । अज्ञात्वा यो हि मे दोषं त्यागं कुर्यान्महावने ॥१८६।। दण्डमादौ विधायाऽद्य कुरुषे मत्परीक्षणम् । विचक्षणोऽसि काकुत्स्थ! सज्जा तत्राऽपि नन्वहम् ॥१८७।। ऊचे विलक्षो रामोऽपि जाने दोषस्तवाऽस्ति न । जनोत्पादितदोषस्योत्तारणायेदमुच्यते ॥१८८।। जगाद जानकी दिव्यपञ्चकं स्वीकृतं मया। विशामि वह्नौ ज्वलिते भक्षयाम्यथ तण्डुलान् ॥१८९॥ तुलां समधिरोहामि तप्तं कोशं पिबाम्यहम् । गृह्णामि जिह्वया फालं किं तुभ्यं रोचते ? वद ॥१९०॥युग्मम्।। पाअत्राऽन्तरेऽन्तरीक्षस्थ: सिद्धार्थो नारदोऽप्यथ । लोक: सर्वश्च तुमुलं निषिध्येदमभाषत ॥१९१।। भो भो राघव! सीतेयं निश्चयेन सती सती । महासतीति मा कार्षीर्विकल्पमिह जातुचित् ।।१९२॥ रामोऽप्युवाच हे लोका! मर्यादा काऽपि नाऽस्ति वः । सङ्कल्प्य दोषं युष्माभिरेवेयं दूषिता पुरा ॥१९३॥ ब्रूाऽस्मत्पुरतो यूयमन्यद् दूरे स्थिता: पुन: । तदा कथं सदोषाऽऽसीच्छीलवत्यधुना कथम् ? ॥१९४॥ भूयोऽपि गृह्णतां दोषैमर्गला नाऽस्ति काऽपि वः । प्रत्ययाय तत: सीता विशतु ज्वलितेऽनले ॥१९५।। इत्युक्त्वाऽखानयद् रामो गर्तं हस्तशतत्रयम् । पुरुषद्वयदघ्नं चाऽपूरयच्चन्दनेन्धनैः ॥१९६॥ अत्राऽन्तरे च वैताढ्यस्योत्तरश्रेणिवर्तिनः । हरिविक्रमराजस्य कुमारो जयभूषणः ॥१९७|| ऊढाष्टशतनारीक: पत्नी किरणमण्डलाम् । सुप्तां हेमशिखाख्येन समं मातुलसूनुना ॥१९८।। दृष्ट्वा निर्वासयामास तदैव प्राव्रजत् स्वयम् । साऽपि मृत्वा समजनि विद्युदंष्ट्रेति राक्षसी ॥१९९।। अयोध्याबहिरभ्येत्य स तदा जयभूषणः । तस्थौ प्रतिमया विद्युदंष्ट्रा च तमुपाद्रवत् ॥२००।। केवलं तस्य चोत्पेदे तदुत्सवविधित्सया । तदानीं च समाजग्मुः सुनासीरादय: सुरा ॥२०१॥ सीताया: प्रेक्ष्य तद् देवाः शक्रमेवं व्यजिज्ञपन् । लोकालीकापवादेन सीता वह्नौ प्रवेक्ष्यति ॥२०२॥ पत्त्यनीकपतिं सीतासान्निध्यायाऽऽदिशद्धरिः । तस्यर्षे: केवलज्ञानोत्सवं तु विदधे स्वयम् ॥२०३।। रोमाज्ञया च भृतकास्तं गतं चन्दनाञ्चितम्। परितो ज्वालयामासुर्दु:प्रेक्षं चक्षुषामपि ॥२०४॥ ज्वालाकरालं तं प्रेक्ष्य रामो दध्याविदं हृदि। अहो! अत्यन्तविषमं किं ममेदमुपस्थितम् ? ॥२०५।। इयं महासती नूनं नि:शङ्काऽग्नौ प्रवेक्ष्यति। दैवस्येव हि दिव्यस्य प्रायेण विषमा गतिः।।२०६।। मया सहाऽस्या निर्वासो हरणं रावणेन च । वने त्यागो मया भूयो भूयोऽप्येतच्च मत्कृतम् ।।२०७।। एवं सोऽचिन्तयद् यावत् तावत् सीतोपपावकम् । स्थित्वा स्मृत्वा च सर्वज्ञं चक्रे सत्यापनामिति ॥२०८॥ १. मञ्चश्रेणीः ।। २. भूपपौरा० ला. ॥३. बिभीषणश्च सुग्रीव० ला. ॥ ४. महेन्द्रो० ला. ॥५. न हि ता. ॥६. कुर्या महा० पाता.विना ।। ७. तन्दुलान् ला.; 'लोहमयानग्निवर्णाश्च' इति टि.ला. ।। ८. '५२ पलगोलरूपां' इति टि.ला. ॥ ९. सीसकम् ।। १०. शस्त्रस्य धाराम् ।। ११. महासती च ता. ॥१२. ब्रूथाऽन्यत् पुरतो० ला.विना ।। १३. दोषानर्गला ला. ।। १४. काऽपि नाऽस्ति ता. ।। १५. पुरुषत्रय० मो.; पुरुषद्वय(बे माथोडां)प्रमाणम् ॥१६. इन्द्रादयः ।। १७. लोकस्य असत्यकलङ्केन ।। १८. हरिणैगमेषिदेवम् ।। १९. रामाज्ञयाऽथ मु. ॥ २०. सुर्दुःप्रेक्ष्य मु. ॥२१. ममेदं किमु० ला. ।। २२. Jain Educatio सीता नि:शहा० पाता. ।। २३. शपथम् ।। Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२९ नवमः सर्गः) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । हे लोकपाला! लोकाश्च सर्वे शृणुत यद्यहम्। अन्यमभ्यलषरामात् तदाऽग्निर्मां दहत्वयम् ॥२०९।। अन्यथा तु सुखस्पर्शो वारीवाऽस्त्वित्युदीर्य सा । झम्पां स्मृतनमस्कारा ददौ तस्मिन् हुताशने ॥२१०।। यावत् सा प्राविशत् तावद् विध्यातो वह्निराश्वपि । गर्त: स्वच्छोदकापूर्णः स तु वापीत्वमाययौ ॥२११।। सीता त्वधिजलं पद्मोपरि सिंहासनस्थिता । पञवाऽस्थात् सतीभावतुष्टदेवप्रभावतः ।।२१२॥ पाकुर्वाणं क्वाऽपि हुङ्कारं क्वचिद् गुलुगुलारवम् । क्वाऽपि भम्भायितध्वानं क्वचित् पटपटाध्वनिम् ॥२१३।। क्वचिद् दिलदिलस्वानं क्वचित् खलखलास्वनम् । समुद्राम्भ इवाऽम्भस्तत् तत्र सावर्त्तमैक्ष्यत ॥२१४॥युग्मम्।। तदुच्छलज्जलं वाप्या उद्वेलस्येव वारिधेः । आप्लावयितुमारेभे मञ्चानपि गरीयसः ॥२१५॥ विद्याधरा भयोद्धान्ता: समुत्पत्येयुरम्बरे । भूचराश्चक्रुशुश्चैवं पाहि सीते! महासति! ॥२१६।। सीताऽप्युल्लोलमम्भस्तत् स्वपाणिभ्यामवालयत् । पुनर्वापीप्रमाणं तदभूत् तस्याः प्रभावतः ॥२१७।। उत्पलैः कुमुदै: पद्मः पुण्डरीकैर्निरन्तरा । सौरभोद्भ्रान्तभृङ्गालीसङ्गीता हंसशालिनी ॥२१८॥ आस्फलद्वीचिनिचयमणिसोपानबन्धुरा । बद्धोभयतटा रत्नोपलैर्वापी बभूव सा ॥२१९।।युग्मम्।। पाननृतुर्नारदाद्याः खे सीताशीलप्रशंसिनः । सीतोपरिष्टात् तुष्टाश्च पुष्पवृष्टिं व्यधुः सुराः ॥२२०॥ अहो शीलमहो शीलं रामपत्न्या यशस्करम्! । इति लोकप्रघोषोऽभूद् रोद:कुक्षिम्भरि: क्षणात् ॥२२१॥ मातुः प्रभावं तं दृष्ट्वा मुदितौ लवणाङ्कुशौ । हंसाविव तरन्तौ तौ तत्समीपमुपेयतुः ।।२२२।। तौ मूर्ध्याघ्राय वैदेह्या पाश्वोरुपवेशितौ । कलभाविव रेजाते नदीतीरद्वयस्थितौ ॥२२३।। गत्वा सौमित्रि-शत्रुघ्न-भामण्डल-बिभीषणाः । सुग्रीवाद्याश्च वैदेहीं नमश्चक्रुः सभक्तित: ॥२२४।। सीतामुपाययौ रामोऽप्यभिरामतरद्युतिम् । पश्चात्तापत्रपापूर्ण इत्यूचे रचिताञ्जलिः ॥२२५।। स्वभावादप्यसद्दोषग्राहिणां पुरवासिनाम् । छन्दानुवृत्त्या त्यक्ताऽसि मया देवि! सहस्व तत् ।।२२६।। त्यक्तोग्रश्वापदेऽरण्येऽजीवस्त्वं स्वप्रभावतः । एकं दिव्यं तदप्यासीन्नाऽज्ञासिषमहं पुनः ॥२२७।। क्षान्त्वा सर्वं ममेदानीमिदमध्यास्स्व पुष्पकम् । चले स्ववेश्मने प्राग्वद् रमस्व सहिता मया ॥२२८।। सीताऽप्यूचे न ते दोषो न च लोकस्य कश्चन । न चौऽन्यस्याऽपि कस्याऽपि किं तु मत्पूर्वकर्मणाम् ।।२२९।। निर्विण्णा कर्मणामीदृग्द:खावर्तप्रदायिनाम् । ग्रहीष्यामि परिव्रज्यां तेषामुच्छेदकारिणीम् ॥२३०॥ इत्युक्त्वा मैथिली केशानुच्चखान स्वमुष्टिना । रामस्य चाऽर्पयामास शक्रस्येव जिनेश्वरः ॥२३१।। सद्यो मुमूर्च्छ काकुत्स्थो नोत्तस्थौ यावदेष च । तावत् सीता ययौ साधुजयभूषणसन्निधौ ॥२३२।। केवली सजयभूषणो मुनिमैथिली विधिवदप्यदीक्षयत्। सुप्रभाख्यगणिनीपरिच्छदे तां चकार च तप:परायणाम्॥२३३।। इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्रे महाकाव्ये सप्तमे पर्वणि सीताशुद्धि-व्रतग्रहणो नाम नवमः सर्गः।। १. लक्ष्मीरिव ।। २.हंभाषिताध्वानं पाता.; संभाषिताध्वानं खं.२।। ३. ० ध्वनि पाता. मु. रस्वीपा. ॥ ४. अमर्यादस्य॥५. सीताऽप्युत्तीर्ण० ला.विना।। ६. सौरभेण उद्भ्रान्ता या भृङ्गाली-भ्रमरसमूह: तत्सङ्गीतं यस्यां सा ।। ७. लोकप्रवादो० खं.१॥ ८. आकाश-पृथ्व्योर्व्यापी ।। ९. हस्तिबालौ ।। १०. ०द्युति: मु. रस्वीपा., मनोहरतरदीप्तिम् ॥११. अभिप्रायानुसरणेन ॥१२. चल स्ववेश्मनि मु. रस्वीपा. ॥१३. न चाऽन्यस्य च कस्याऽपि खं.१।। १४. चरिते ता. ॥ १५. सप्तम० खं.१-२॥ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥दशम: सर्गः॥ अथ सिक्तश्चन्दनेन लब्धसञो रघूद्वहः । व्याजहार क्व ननु सा सीतादेवी मनस्विनी? ॥१॥ भो भूचरा:! खेचराश्च नचेद् नचेद् यूयं मुमूर्षवः । तन्मे लुञ्चितकेशामप्याशु दर्शयत प्रियाम्॥२॥ वत्स! वत्सैहि सौमित्रे! तूणौ तूणौ धनुर्धनु:! । यदमी सन्त्युदासीना: सुस्थितार्दु:स्थिते मयि ।।३।। इत्युक्त्वा धन्व गृह्णन्तं तं नत्वा लक्ष्मणोऽब्रवीत्। आर्याऽऽर्य! किमिदं ? लोक: खल्वेष तव किङ्करः॥४॥ सीतां यथा दोषभीतोऽत्याक्षीस्त्वं न्यायनैष्ठिकः । भवभीता स्वार्थनिष्ठा तथा सा सर्वमत्यजत्॥५॥ प्रत्यक्षमिह व:सीता स्वयमुत्पाट्य कुन्तलान् । आददे विधिवदीक्षांजयभूषणसन्निधौ॥६।। इदानीमेव तस्यर्षेरुदपद्यत केवलम् । तज्ज्ञानमहिमाऽवश्यकृत्यमस्ति तवाऽपि हि ॥७॥ तत्राऽऽस्ते स्वामिनी सीता स्वामिन्नात्तमहाव्रता। दर्शयन्ती मुक्तिमार्गं सतीमार्गमिवाऽनघा॥८॥ राम: प्रकृतिमालम्ब्योवाच साधु मम प्रिया। उपाददे परिव्रज्यां तस्य केवलिनोऽन्तिके॥९॥ इत्युक्त्वा सपरीवारो जगाम जयभूषणम्। नत्वा च देशनां तस्माच्छुश्रावरघुपुङ्गवः ॥१०॥ देशनान्ते च पप्रच्छ नाऽऽत्मानं वेदम्यहं प्रभो! | भव्योऽहं किमुताऽभव्यस्तदाचक्ष्व प्रसीद मे॥११॥ अथाऽऽख्यत् केवली सोऽपि भव्योऽसि त्वं न केवलम्। सिद्धिं यास्यस्यनेनैव जन्मनोत्पन्नकेवलः॥१२॥ राम: पप्रच्छ भूयोऽपि मोक्षः प्रव्रज्यया भवेत्। सर्वत्यागेन सा किं तुलक्ष्मणो दुस्त्यजो मम॥१३।। मुनिराख्यदवश्यं ते भोक्तव्या बलसम्पदः । तदन्ते त्यक्तसङ्ग: सन् प्रव्रज्य शिवमाप्स्यसि॥१४॥ नत्वा बिभीषणोऽपृच्छत् केन प्राग्जन्मकर्मणा। जहार रावण: सीतां लक्ष्मणस्तंन्यहन् युधि ?॥१५।। सुग्रीवो भामण्डलश्च तथेमौ लवणाङ्कुशौ । अहं च कर्मणा केनाऽत्यन्तभेक्ता रघूद्वहे ?॥१६।। पभगवानाचचक्षेऽथ भरतार्धेऽत्र दक्षिणे। पुरे क्षेमपुरे नाम्ना नयदत्तोऽभवद् वणिक् ॥१७॥ धनदत्त-वसुदत्तौ सुनन्दाकुक्षिजौ सुतौ। तस्याऽभूतां तयोर्मित्रं याज्ञवल्क्योऽभवद् द्विजः॥१८॥ नाम्ना सागरदत्तश्च पुरे तस्मिन्नभूदु वणिक् । तस्य सूनुर्गुणधर: कन्या गुणवती पुनः।।१९।। दत्ता सागरदत्तेन नयदत्तात्मजन्मने। धनदत्ताय गुणवत्यनुरूपगुणाय सा॥२०॥ श्रीकान्तनाम्ने चाऽऽढ्याय तत्रत्यायाऽर्थलोभतः । ददौ गुणवती छन्नं माता रत्नप्रभा पुनः॥२१।। याज्ञवल्क्यस्तु तज्ज्ञात्वा नयदत्तात्मजन्मनो:। स्वमित्रयो: समाचख्यावसहो मित्रवञ्चने ॥२२॥ वसुदत्तस्ततो गत्वा श्रीकान्तमवधीनिशि। श्रीकान्तेनाऽपि खड्गेन वसुदत्तो निपातितः॥२३॥ विन्ध्याटव्यामभूतां तावुभावपि कुरङ्गको। गुणवत्ययनूदैव मृत्वा तत्राऽभवन्मृगी।॥२४॥ तस्याः कृते च तत्राऽपि युद्ध्वा पञ्चत्वमीयतुः। मिथो वैरेण तावेवं भूयांसंभ्रेमतुर्भवम्॥२५।। पातदानीं धनदत्तोऽपिस्वभ्रातृवधपीडित:। निर्धर्मोऽटन् निशिसाधून ददर्श क्षुधितोऽन्यदा॥२६।। ययाचे भोजनं तेभ्यस्तेष्वेको मुनिरब्रवीत्। दिवाऽपि हिं न साधूनां भक्त-पानादिसङ्ग्रहः॥२७॥ तवाऽपि नोचितं रात्रौ भोक्तुं पातुं च भद्रक! । को वेत्ति जीवसंसक्तिमन्नादौ तमसीदृशे? ॥२८॥ इत्यादिबोधितस्तेन सुधयोक्षितो हृदि । श्रावकीभूय मृत्वा च सौधर्मे त्रिदशोऽभवत्।।२९।। पच्युत्वा महापुरपुरे धारणी-मेरुनन्दनः । नाम्ना पद्मरुचिः श्रेष्ठी परमश्रावकोऽभवत्।३०॥ सोऽन्यदा गोकुलंगच्छन्नश्वारूढोर्यदृच्छया । जरद्वृषभमद्राक्षीन्मुमूर्षु पतितं पैथि॥३१।। १. धनुर्धर! कां, मो. ॥ २. दुस्थिते खं.१, मु. रस्वीपा. ॥ ३. ०वश्यकृत्य० ला. मु.॥४. लक्ष्मणस्तं जघान च खं.२; लक्ष्मणस्तमहन् युधि ला. ।। ५. ०ऽत्यन्तरक्ता मु. रस्वीपा. ।। ६. असहिष्णुः ।। ७. हरिणौ ॥ ८. अपरिणीतैव ॥९. नहि ला. मु. रस्वीपा. ॥१०. सिक्तः ।। ११. यथेच्छम् ।। १२. गलितवृषभम् ।। १३. भुवि पाता.॥ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः सर्गः ) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । कृपालुः : सोऽवरुह्याऽश्वान्निकटीभूय तस्य तु । कर्णमूले ददौ पञ्चपरमेष्ठि' नमस्कृतीः ॥ ३२॥ मृत्वा च तत्प्रभावेण तत्रैव स सुतोऽभवत् । छत्रच्छायनरेन्द्र-श्रीदत्तयोर्वृषभध्वजः ॥३३॥ स्वैरं भ्रमन् सोऽन्यदा तां जरद्वृषभुवं ययौ । लेभे च जातिस्मरणं प्राग्जन्मस्थानदर्शनात् ॥३४॥ तत्र चाऽकारयच्चैत्यं तस्य चैत्यस्य चैकतः । भित्तावालेखयामास मुमूर्षं तं जरद्गवम् ||३५|| तत्कर्णान्ते नमस्कारदायिनं पुरुषं च तम् । तदभ्यर्णे तदीयं च सपर्याणं तुरङ्गमम् ॥ ३६ ॥ युग्मम्।। आरक्षांस्तत्र चाऽऽदिक्षद् यश्चित्रं परमार्थतः । इदं विदन्नुदीक्षेत स ज्ञाप्यस्त्वरितं मम ॥३७॥ "इत्युक्त्वा स ययौ वेश्म चैत्ये तत्राऽन्यदा पुनः । वेन्दनायाऽऽययौ पद्मरुचिः स श्रेष्ठपुङ्गवः ॥३८॥ वन्दित्वा तत्र सोऽर्हन्तं भित्तिचित्रमुदैक्षत । सर्वं मे संवदत्येतदित्यूचे च सविस्मयः ॥ ३९ ॥ विज्ञप्तोऽथ तदारक्षैस्तत्राऽऽगाद् वृषभध्वजः । किं वेत्सि चित्रवृत्तान्तमित्यपृच्छच्च तं नरम् ॥४०॥ गवेऽस्मै म्रियमाणाय नमस्कारानदां पुरा । इहाऽभिज्ञेन केनाऽपि लिखितोऽस्मीत्युवाच सः ॥४१॥ तं नत्वोवाच वृषभध्वजो योऽयं जरद्गवः । राजपुत्रोऽभवं सोऽहं नमस्कारप्रभावतः ॥ ४२ ॥ कामयास्यमहं योनिं ? तिर्यग्योनिस्तदाऽप्यहम् । कृपालुस्त्वं न चेन्मह्यं नमस्कारानदास्यथाः ॥४३॥ सर्वथा त्वं गुरुः स्वामी दैवतं चाऽसि मे खलु । भुङ्क्ष्व राज्यमिदं प्राज्यं त्वया दत्तं ममाऽपि यत् ॥४४॥ इत्युक्त्वा पद्मरुचिना सहैव वृषभध्वजः । विजहाराऽकृतद्वैधः पालयञ्छ्रावकव्रतम् ॥४५॥ श्रावकत्वं चिरं सम्यक् पालयित्वा विपद्य च । ईशानकल्पे जज्ञाते तौ देवौ परमर्द्धिकौ ॥४६॥ च्युत्वा ततः पद्मरुचिर्मेरो रपरतो गिरौ । वैताढ्ये नगरे नन्दावर्ते नन्दीश्वरात्मजः ||४७|| केनकाभाकुक्षिजन्मा नयनानन्द इत्यभूत् । राज्यं भुक्त्वा परिव्रज्य महेन्द्रे त्रिदशोऽभवत् ॥४८॥ युग्मम् || च्युत्वा च प्राग्विदेहेषु क्षेमायां पुरि भूपतेः । विपुलवाहनस्याऽभूत् पद्मावत्यां स नन्दनः ॥४९॥ श्रीचन्द्रो नाम भुक्त्वा च राज्यं प्रव्रज्य चाऽन्तिके । समाधिगुप्तस्य मुनेर्ब्रह्मलोकेन्द्रतां ययौ ॥ ५० ॥ युग्मम् || च्युत्वा ततोऽयं पद्मोऽभूद् बलभद्रो महाबलः । सुग्रीव एष वृषभध्वजजीवस्त्वभूत् क्रमात् ॥५१॥ भ्रान्त्वा श्रीकान्तजीवोऽभून्मृणालकन्दपत्तने । राजसूनुर्वज्रकण्ठः शम्भु-हेमवतीभवः ॥५२॥ भ्रान्त्वा च वसुदत्तोऽभूच्छम्भुराजपुरोधसः । विजयस्य रत्नचूडाभवः श्रीभूतिरात्मजः || ५३ || गुणवत्यपि सा भ्रान्त्वा श्रीभूतेस्तस्य नन्दना । सरस्वतीकुक्षिभवा नाम्ना वेगवतीत्यभूत् ॥५४॥ सोद्यौवनाऽन्यदा साधुं प्रतिमास्थं सुदर्शनम् । वन्द्यमानं जनैर्दृष्ट्वा सोपहासमदोऽवदत् ॥५५॥ अहो साधुरयं दृष्टः पुरा क्रीडमैंहेलया । साऽनेन प्रेषिताऽन्यत्र तं वन्दध्वं कथं जनाः ? ॥५६॥ श्रुत्वा विपरिणम्याऽऽशु लोकः सर्वोऽपि तं मुनिम् । विप्लावयितुमारेभे कलङ्कोद्घोषपूर्वकम् ||५७|| न मे यावत् कलङ्कोऽयमुत्तरिष्यति सर्वथा । न तावत् पारयिष्यामीत्यभिजग्राह सोऽप्यृषिः || ५८ || ततश्च देवतारोषाच्छूनं वेगवतीमुखम् । साधुव्यतिकरं ज्ञात्वा सा पित्रा भर्त्सिता भृशम् ॥५९॥ रोगात् पितुश्च सा भीता सुदर्शनमुनेः पुरः । प्रत्यक्षं सर्वलोकानामित्युच्चैः स्वरमब्रवीत् ॥६०॥ निर्दोष: सर्वथाऽसि त्वं दोषोऽलीकोऽयमेव ते । मयैवाऽऽरोपितः स्वामिंस्तितिक्षस्व क्षमानिधे ! ||६१ || श्रुत्वेति तद्वचो लोको भूयोऽप्यानर्च तं मुनिम् । उल्लाघाऽभूद् वेगवती तदादि श्राविका च सा ॥६२॥ तां च रूपवतीं दृष्ट्वा ययाचे शम्भुभूपतिः । दास्ये मिथ्यादृशे नेति श्रीभूति: प्रत्युवाच तम् ||६३ || शम्भुर्निहत्य श्रीभूतं बुभुजे तां बलादपि । भवान्तरे ते वधाय भूयासमिति साऽशपत् ॥६४॥ शम्भुनाऽपि विमुक्ता सा हरिकान्तार्यिकान्तिके । प्रवव्राजाऽथ पूर्णायुर्ब्रह्मलोकमुपाययौ ॥६५॥ ततश्च्युत्वा शम्भुजीवरक्षोनाथस्य मृत्यवे । निदानवशतो जज्ञे सीतेयं जनकात्मजा ॥ ६६ ॥ २३१ १. ० नमस्क्रियाम् कां. ला ॥ २. जरद्वृषम् ला. रसंपा. ॥ ३. सज्जमश्वम् ॥ ४. ०त्रुदीक्ष्येत मु. ॥ ५. वन्दनाय ययौ पाता ।। ६. अहं कां योनिं अयास्यम् ? इति अन्वयः ॥ ७. न कृतं द्वैधं भेदो येन सोऽभिन्नीभूत इत्यर्थः ॥ ८. नन्देश्वरा० ला ॥ ९. कनकाम्भो० ता. ॥ १०. महेन्द्रे ता. ।। ११. राज्ञः सूनु० हे. कां. मो.ला. ॥। १२. ०र्व्वज्रकन्दः पाता. ।। १३. शम्भुर्हेम० ता. ला ॥ १४. स्त्रिया सह । १५. विद्रावयितु० कां .; उपद्रवं कर्तुम् ।। १६. स्तब्धं शोधयुतम् । Jain Education In१७. ज्ञात्वा पित्रा निर्भर्त्सिता पाता ॥ १८. स्वस्था ।। १९. शम्भोजव एव रक्षोनाथ:-रावणस्तस्य ॥ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्यप्रणीतं सुदर्शनमुनेस्तस्याऽलीकदोषाधिरोपणात् । अस्याः कलङ्कोऽलीकोऽयं लोकेनेहाऽधिरोपितः ॥६७॥ भवं भ्रान्त्वा शम्भुजीवोऽप्युदपादि द्विजन्मनः । कुशध्वजस्य सावित्र्यां प्रभासो नाम नन्दनः ॥ ६८ ॥ स प्रवव्राज विजयसेनर्षेरन्तिकेऽन्यदा । परमं च तपस्तेपे सहमान: परीषहान् ॥ ६९ ॥ सम्मेतयात्राचलितं विद्याधरनरेश्वरम् । कनकप्रभमद्राक्षीदिन्द्रवत् परमर्द्धिकम् ॥७०॥ तपसाऽनेन भूयासमिदृगृद्धिरिति व्यधात् । स निदानं विपद्याऽथोत्पेदे कल्पे तृतीयके ॥७१॥ ततश्च्युत्वा रावणोऽभूत् खेचरेन्द्रस्तवाऽग्रजः । कनकप्रभऋद्धेर्यो निदानमकरोत् तदा ॥७२॥ धनदत्त - वसुदत्तमित्रं यस्तु द्विजोऽभवत् । याज्ञवल्क्यो भवं भ्रान्त्वा त्वमभूः स बिभीषणः ॥ ७३ ॥ राज्ञा हतस्तु श्रीभूति जगाम ततश्च्युतः । सुप्रतिष्ठपुरे विद्याधरोऽजनि पुनर्वसुः ||७४ || स पुण्डरीकविजयेऽपजहार स्मरातुरः । कन्यां त्रिभुवनानन्दचक्रिणोऽनङ्गसुन्दरीम् ॥७५॥ चक्रिणा प्रेषितैर्विद्याधरैर्युद्धाकुलस्य तु । विमानात् तस्य चाऽपप्तन् निकुञ्जेऽनङ्गसुन्दरी ||७६|| कृत्वा निदानं तत्प्राप्त्यै प्रव्रज्य च पुनर्वसुः । स्वर्गं ययौ ततश्च्युत्वा लक्ष्मणोऽयमजायत ॥७७॥ वनस्थिता साऽप्यनङ्गसुन्दर्युग्रं तपोऽकरोत् । विहितानशना चाऽन्ते जग्रसेऽजगरेण सा || ७८|| मृत्वा समाधिना साऽभूद् देवी कल्पे द्वितीयके । ततश्च्युत्वा विशल्याऽभूल्लक्ष्मणस्य महिष्यसौ ॥ ७९ ॥ योऽभूद् गुणवतीभ्राता नाम्ना गुणधरः स तु । भवं भ्रान्त्वाऽभवद् राजपुत्रः कुण्डलमण्डितः ||८०|| श्रावकत्वं पालयित्वा चिराय च विपद्य सः । सीतासोदर एषोऽभूद् भामण्डलनरेश्वरः ॥ ८१ ॥ ¶इतोऽभूतां च काकन्द्यां वामदेवद्विजन्मनः । श्यामलाकुक्षिजौ पुत्रौ वसुनन्द-सुनन्दनौ ॥८२॥ एकदा च तयोर्गेहे तिष्ठतोराययौ मुनिः । मासोपवासी ताभ्यां च भक्तितः प्रतिलम्भितः ॥८३॥ मृत्वा तद्दानधर्मेणोत्तरेषु तु कुरुष्वथ । अभूतां युग्मिनौ मृत्वा सौधर्मे तौ सुरौ ततः ॥ ८४ ॥ च्युत्वाऽभूतां च काकन्द्यां रतिवर्धनभूपतेः । सुदर्शनाभवौ पुत्रौ प्रियङ्कर - शुभङ्करौ ॥८५॥ राज्यं चिरं पालयित्वा प्रव्रज्य च विपद्य च । सुरौ ग्रैवेयकेऽभूतां च्युत्वा च लवणाङ्कुशौ ||८६|| सुदर्शना तयोः पूर्वभवमाता भवं चिरम् । भ्रान्त्वाऽभूदेष सिद्धार्थोऽध्यापको रामपुत्रयोः ||८७ || एवं मुनिवचः श्रुत्वा संवेगं बहवो ययुः । तदैव रामसेनानीः कृतान्त: प्राव्रजत् पुनः ॥८८॥ 'अथोत्थाय नमश्चक्रे काकुत्स्थो जयभूषणम् । उपसीतं च गत्वैवं चिन्तयामास चेतसि ॥८९॥ असौ शिरीषमृद्वङ्गी राजपुत्री मम प्रिया । सीता शीतातपक्लेशं कथं नाम सहिष्यते ? ॥ ९० ॥ इमं संयमभारं च सर्वभारातिशायिनम् । उद्वक्ष्यति कथं नाम हृदयेनाऽपि दुर्वहम् ? || ११ || यद् वा सतीव्रतं यस्या न भङ्क्तुं रावणोऽप्यलम् । सा निर्व्यूढप्रतिज्ञैव भाविनी संयमेऽपि हि ॥९२॥ एवं विमृश्य वैदेहीं ववन्दे लक्ष्मणाग्रजः । लक्ष्मणोऽन्ये च राजानः श्रद्धानिर्धोतचेतसः ||१३|| ॥ तैतश्च सपरीवारो रामोऽयोध्यां ययौ पुनः । सीता - कृतान्तवदनौ तेपाते च परं तपः ॥९४॥ तपस्तप्त्वा ब्रह्मलोके कृतान्तवदनो ययौ । सीताऽपि षष्टिं वर्षाणि विदधे विविधं तपः ॥९५॥ त्रयस्त्रिंशदहोरात्रीं कृत्वाऽन्तेऽनशनं मृता । द्वाविंशत्यर्णवायुः सोऽच्युतेन्द्रः समजायत ॥९६॥ "इतश्च शैले वैताढ्ये ऽभूत् काञ्चनपुरे पुरे । नामतः कनकरथो विद्याधरपतिस्तदा ||१७|| मन्दाकिनी-चन्द्रमुख्योः कन्ययोः स स्वयंवरे । सपुत्रान् भूपतीन् राम-लक्ष्मणादीनथाऽऽह्वयत् ।।९८।। तत्राऽऽसीनेषु भूपेषु मन्दाकिन्या निजेच्छया । अनङ्गलवणो वव्रे चन्द्रमुख्याऽङ्कुशः पुनः || ९९|| लक्ष्मणस्य सुतास्तत्र क्रोधादुत्तस्थिरे युधि । सार्धे शते द्वे अपि ते युगपच्छ्रीधरादयः ॥१००॥ श्रुत्वा सन्नह्यतस्तांश्च प्रोचाते लवणाङ्कुशौ । को नाम योत्स्यतेऽमीभिरवध्या भ्रातरः खलु ॥१०१॥ यथा न तातयोर्भेदः कोऽपि ज्येष्ठ-कनिष्ठयोः । तत्पुत्राणां तथाऽस्माक ममीषामपि माऽस्तु सः ॥ १०२ ॥ 1 २३२ (सप्तमं पर्व १. च खं.१-२ ॥। २. चाऽपतन् निकुञ्जे० हे. कां. ला. खं.१-२, पाता. ॥ ३. वने स्थिता पाता. ॥ ४. ० प्रतिज्ञैवं मु. ॥ ५. श्रद्धया निर्मलचित्ता: ।। ६. इतश्च Jain Education || ७. २२सागरोपमायुष्कः ।। ८. ० मूभि० ला ॥। ९. भेदः II Private Personal Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः सर्गः ) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । एवं तयोर्वचो ज्ञात्वा चरेभ्यो लक्ष्मणात्मजाः । 'वीक्षापन्ना निनिन्दुः स्वं 'दुष्कर्मारम्भसम्मुखम्॥१०३॥ सद्य: संवेगमापन्नाः पितरावनुमन्य ते । महाबलमुनेः पादपद्मान्ते जगृहुर्व्रतम् ॥ १०४॥ जातोद्वाहौ तदानीं तावनङ्गलवणाङ्कुशौ । सहैव सीरि-शार्ङ्गिभ्यामयोध्यामीयतुः पुरीम् ॥ १०५ ॥ ॥ इतश्च स्वपुरे हर्म्यमूर्ध्नि भामण्डलः स्थितः । कदाचिदेवं मनसा चिन्तयामास शुद्धधीः ॥ १०६ ॥ श्रेणिद्वयं वशीकृत्याऽस्खलन् सर्वत्र लीलया । विहृत्याऽन्ते चाऽऽत्तदीक्षो भवेयं पूर्णवाञ्छितः ॥ १०७॥৷ एवं चिन्तयतस्तस्य मूर्ध्नि विद्युत् पपात खात् । स मृत्वा देवकुरुषु जज्ञे युगलधर्मिषु ॥ १०८॥ इतश्च हनुमांश्चैत्रे चैत्यवन्दनहेतवे । मेरुं गतो निवृत्तोऽस्तमैयन्तं सूर्यमैक्षत ॥१०९॥ एवं च दध्यावुदयो यथा ह्यस्तं तथा खलु । निदर्शनमयं सूर्यो धिग्धिक् सर्वमशाश्वतम् ॥११०॥ एवं विचिन्त्य स्वपुरे गत्वा राज्ये सुतं न्यधात् । धर्मरत्नाचार्यपार्श्वे प्रव्रज्या स्वयमाददे ॥ १११ ॥ तमनुप्राव्रजन् राज्ञां सार्धसप्तशतानि च । आर्यालक्ष्मीवतीपार्श्वेऽस्थुस्तत्पत्न्यश्च दीक्षिताः ॥११२॥ ध्यानानलेन निर्दह्य क्रमात् कर्माणि मूलतः । श्रीशैलः प्राप्य शैलेशीं जगाम पदमव्ययम् ॥११३॥ | हनूमन्तं प्रव्रजितं ज्ञात्वा दध्यौ रघूद्वहः । हित्वा भोगसुखं कष्टां दीक्षां किमयमाददे ? ॥११४॥ तां रामचिन्तामवधेर्ज्ञात्वा सौधर्मवासवः । ऊचे मध्येसभमहो ! कर्मणां विषमा गतिः ॥११५॥ रामश्चरमदेहोऽपि यद् धर्मं हसति स्वयम् । सौख्यं विषयसम्भूतं प्रत्युतैर्षं प्रशंसति ॥ ११६॥ अथवा ज्ञातमनयो राम-लक्ष्मणयोर्मिथः । स्नेहो गाढतरः कोऽपि भवानिर्वेदकारणम् ॥११७॥ द्वौ देवौ कौतुकात् तत्र तयोः स्नेहं परीक्षितुम् । उपेयतुरयोध्यायां लक्ष्मणस्य निकेतने ।।११८।। दर्शयामासतुः सद्यो मायया लक्ष्मणस्य तौ । सर्वमन्तः पुरस्त्रैणमाक्रन्दत् करुणस्वरम् ॥ ११९॥ हा पद्म! पद्मनयन! बन्धुपद्मदिवाकर! । अकाण्डमृत्युः कोऽयं ते विश्वस्याऽपि भयङ्करः ? || १२०|| एवं च रुदतीर्वक्षांस्याघ्नाना मुक्तकुन्तलाः । अन्तःपुरवधूः प्रेक्ष्य विषण्णो लक्ष्मणोऽवदत् ॥१२१॥ मास किं मृतो भ्राता जीवितस्याऽपि जीवितम् ? । पिशुनेन कृतान्तेन किं कृतं छलघातिना ? ॥१२२॥ एवं च भाषमाणस्य वचसा सह जीवितम् । सौमित्रे र्निर्ययौ कर्मविपाको दुरतिक्रमः || १२३|| स्वर्णस्तम्भमवष्टभ्य स्थितः सिंहासनेऽपि हि । सोऽथ प्रसारिताक्षोऽस्थाल्लेप्यमूर्तिरिवाऽक्रियः ॥ १२४॥ पैंरासुं लक्ष्मणं दृष्ट्वा विषण्णौ तौ सुरावपि । मिथो जजल्पतुरहो! किमावाभ्यामिदं कृतम् ? ॥१२५॥ विश्वाधारः पुमानेष किमावाभ्यां हहा! हत: ? । इति स्वं बहु निन्दन्तौ स्वकल्पं जग्मतुः पुनः ॥ १२६ ॥ परासुं लक्ष्मणं प्रेक्ष्य तत्र चाऽन्तः पुरस्त्रियः । चक्रन्दुः सपरीवारा विलुलत्कुन्तलालिकाः ॥ १२७॥ तच्चाऽऽक्रन्दितमाकर्ण्य तत्र रामः समाययौ । उवाच च किमारब्धमविज्ञायाऽप्यमङ्गलम् ? || १२८|| जीवन्नेवैष तिष्ठामि जीवत्येष च मेऽनुजः । कोऽप्यमुं बाधते व्याधिर्भेषजं तत्प्रतिक्रिया ॥ १२९॥ इत्युक्त्वाऽऽजूहवद् रामो वैद्याञ्ज्योतिषिकानपि । प्रयोगं मन्त्र-तन्त्राणां कारयामास चाऽसकृत् ॥ १३०॥ वैफल्ये मन्त्र-तन्त्राणां मूर्च्छा प्राप रघूद्वहः । कथञ्चिल्लब्धसञ्ज्ञः सन् विललापोच्चकैःस्वरम् ॥१३१॥ ते बिभीषण-सुग्रीव-शत्रुघ्नाद्या उदश्रवः । विमुक्तकण्ठं रुरुदुर्हताः स्म इति भाषिणः ॥ १३२॥ कौशल्याद्या मातरश्च स्नुषाभिः सह साश्रवः । भूयो भूयोऽपि मूर्च्छन्त्यश्चक्रन्दुः करुणस्वरम् ॥१३३॥ प्रतिमार्गं प्रतिगृहं प्रत्यट्टं क्रन्दनात् तदा । शोकाद्वैतमभूत् सर्वं रसान्तरमलिम्लुचम् ॥१३४॥ नत्वाऽथ राममूचाते कुमारौ लवणाङ्कुशौ । भवादद्याऽतिभीतौ स्वः कैनीयस्तातमृत्युना ॥ १३५ ॥ अकस्मादापतत्येष मृत्युः सर्वस्य तन्नरैः । तत्परैः परलोकाय स्थातव्यं मूलतोऽपि हि ॥१३६॥ अनुमन्यस्व दीक्षायै न नो युक्तमतः परम् । कनीयस्तातमुक्तानां गृहे स्थातुं मनागपि ॥ १३७॥ २३३ १. विस्मयं प्राप्ताः ।। २. दुष्कर्मण आरम्भस्य सम्मुखं मुखं विचारं इति यावत् ॥ ३. गगनात् ॥ ४. चैत्रमासाष्टाह्निकायाम् ॥ ५. 'अयि गतौ' इत्यात्मनेपदी धातुरपि परस्मैपदित्वेनाऽत्राऽऽचार्येण निवेदितः, “आत्मनेपदमनित्यं" इति न्यायोऽपि द्रष्टव्यः ॥ ६. तु खं.१ ॥ ७. प्रत्युतैवं ला. ॥। ८. अन्तःपुरसत्कं स्त्रीवृन्दम् ।। ९. प्रसारिते- विस्फारिते अक्षिणी यस्य सः । १०. गतप्राणम् ॥ ११. स्वं कल्पं रसंपा. ॥। १२. ०कुन्तलालकाः ता.; विलुलन्-मुक्तः कुन्तलालि:- केशपाशी यासां ताः ॥ १३. उदस्रवः खं. १ २, पाता. ।। १४. अन्यरसनाशकम् ॥ १५. 'अस्' धातो: प्रथमपुरुषद्विचनरूपम् ।। १६. लघुपितुः Jain Education Inteलक्ष्मणस्य मृत्युना ॥ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (सप्तमं पर्व इत्युक्त्वा राममानम्याऽमृतघोषमुनेः पुरः। उभौ जगृहतुर्दीक्षांक्रमाच्च शिवमीयतुः॥१३८॥ बारामो भ्रातृविपत्त्या च वियोगेन च पुत्रयोः । मुमूर्छ भूयो भूयोऽपि मोहादेवं जगाद च ॥१३९।। मयाऽपमानना काचित् क्वचिच्चक्रेऽद्य बान्धव! ? । कस्मादकस्मादालम्बि भवता मौनमीदृशम् ? ॥१४॥ त्वयि ह्येवं स्थिते भ्रात:! पुत्राभ्यामपि चोज्झितः । प्रविशन्ति च्छिद्रशते नृणां भूतशतानि हि ॥१४१।। उन्मत्तभाषिणं चैवं राममेत्य कथञ्चन । बिभीषणाद्या: सम्भूय जगदुर्गद्गदस्वरम् ।।१४२॥ धीरेष्वपि हि धीरस्त्वं वीरो वीरेष्विव प्रभो! । लज्जाकरमिदं तस्मादधैर्यं मुञ्च सम्प्रति ॥१४३।। लोकप्रसिद्धमधुना सौमित्रेरौदैहिकम् । अङ्गसंस्कारपूर्वं हि कर्तव्यं समयोचितम् ॥१४४॥ इत्युक्त्या कुपितो रामस्तानूचे विधुताधरः । जीवत्येष हि मे भ्राता किमिदं वो वच: खला:! ? ॥१४५।। सर्वेषां व: सबन्धूनां ज्वलने दाहपूर्वकम् । मृतकार्यं विधातव्यं दीर्घायु: स्तान्ममाऽनुजः ॥१४६।। भ्रातर्धातब्रूहि शीघ्रं वत्स! लक्ष्मण! नन्वयम् । दुर्जनानां प्रवेशोऽस्ति किं खेदयसि मां चिरम् ? ॥१४७।। यद् वा खलसमक्षं न वत्स! कोपस्तवोचितः । इत्युक्त्वांऽसे तमारोप्य ययावन्यत्र राघवः ॥१४८।। नीत्वा स्नानगहे रामः कदाऽप्यस्नपयत स्वयम् । ततश्च तं स्वहस्तेन विलिलेप विलेपनैः ॥१४९॥ आनाय्य दिव्यभोज्यानि पूरयित्वा च भाजनम् । कदाचित् तस्य पुरतो मुमोच स्वयमेव च ॥१५०॥ कदाऽप्यारोपयदङ्के निजेऽचुम्बच्छिरो मुहुः । कदाऽप्यस्वापयत् तल्पे वाससाऽऽच्छादिते स्वयम् ॥१५१॥ कदाऽपि स्वयमाभाष्य स्वयं स्म प्रतिभाषते। स्वयं संवाहकीभूय ममर्द च कदाचन ॥१५२।। इत्यादि चेष्टा विकला: स्नेहोन्मत्तस्य कुर्वत: । ययू रामस्य षण्मासा विस्मृताशेषकर्मणः ॥१५३॥ पाश्रुत्वा च तं तथोन्मत्तमिन्द्रजित्सुन्दसूनवः । खेचरा विद्विषोऽन्येऽपि राममेयुर्जिघांसवः ॥१५४॥ अयोध्यां रुरुधुः सैन्यैरुन्मत्तरघुपुङ्गवाम् । सुप्तसिंहां गिरिगुहामिव व्याधाश्छलौजसः ॥१५५।। रामोऽपि लक्ष्मणं स्वाङ्के निधायाऽऽस्फालयद् धनुः । वज्रावर्तमकालेऽपि संवर्तस्य प्रवर्तकम् ।।१५६।। तदा चाऽऽसनकम्पेन माहेन्द्रान्नाकिभिः समम् । जटायुराययौ रामं दृढात् प्राग्जन्मसौहृदात् ॥१५७।। अद्याऽपि नाकिनो रामगृह्या इति विभाषिणः । इन्द्रजित्पुत्रमुख्यास्ते दुद्रुवुः खेचरा द्रुतम् ॥१५८।। अत्र देवसखोरामो हन्ता नोऽग्रे बिभीषणः। ईति भीता लज्जिताश्च ते संवेगं परमं दधुः ॥१५९।। ते मुनेरतिवेगस्य पार्श्वे संवेगधारिणः । उपेत्य दीक्षां जगृहुर्गृहवासपराङ्मुखाः ॥१६०॥ पाततो जटायुरमरो बोधार्थं राघवस्य सः । पुरःस्थाय तरुं शुष्कं सिषेच मुहुरम्भसा ॥१६१॥ क्षिप्त्वा कीषं दृषदि रोपयामास पद्मिनीम् । बीजान्युवापाऽकालेऽपि मृतोक्ष्णा लाङ्गलेन चे॥१६२।। यन्त्रे च वालुका: क्षिप्त्वा तैलार्थं पर्यपीलयत् । इत्याद्यसाधकं रामस्याऽन्यदप्युदभावयत् ॥१६३॥ रामस्तमूचे किं शुष्कं तरुं सिञ्चसि भो! मुधा ? । फलं दूरेऽस्तु किं नाम मुसलं क्वाऽपि पुष्पति ? ॥१६४॥ शिलायां पद्मिनीखण्डमारोपयसि मुग्ध! किम् ? । किं वा वपसि बीजानि निर्जलेऽपि मृतैर्वृषैः ? ॥१६५।। न वालुकाभ्यस्तैलं स्यात् किं पीलयसि मूर्ख! ता: ? । अनुपायविदस्तेऽसौ प्रयास: सर्वथा वृथा ॥१६६।। स्मित्वा जटायुरप्यूचे यदीयदपि वेत्सि भो:! । अज्ञानचिह्न मृतकं स्कन्धे वहसि तर्हि किम् ? ॥१६७।। सौमित्रिवपुरालिङ्ग्य रामस्तं प्रत्यभाषत । अमङ्गलं भाषसे किं ? त्यज दृष्टिपथं मम ॥१६८॥ एवं जटायुषं रामे भाषमाणेऽवधेर्विदन् । कृतान्तवदनो देवस्तद्बोधार्थं समाययौ ॥१६९।। स्कन्धे स्त्रीमृतकं न्यस्योपरामं विचचार स: । रामोऽप्यूचे किमुन्मत्तोऽस्येवं स्त्रीमृतकं वहन् ? ॥१७०॥ प्रत्युवाच कृतान्तोऽपि भाषसे किममङ्गलम् ? । ममैषा प्रेयसी त्वं तु किं शवं वहसि स्वयम् ? ॥१७१।। १. मयाऽपमानता मु. रस्वीपा. ।। २. ० रूर्ध्व० खं.१॥ ३. ०देहिकम् खं.१-२, ला. ॥ ४. कम्पितौष्ठः ।। ५. भ्रातस्त्वं तद् ब्रूहि ला. ।। ६. स्कन्धे ।। ७. शय्यायाम् ।। ८. तैलमर्दको भूत्वा ।। ९. ययौ रामस्य षण्मासी मु.॥१०. विद्विषो (प) एते राम० ला. ॥११. रामस्येयु० कां. मो. मु. ॥१२. छलमेव ओजो येषां ते॥१३. देवा रामस्य पक्षपातिनः ।।१४. देवसखा ला.विना ॥१५. नाऽने ला. ॥१६. इति ते लज्जिताश्चित्ते संवेगं परमं दधुः ला. ।। १७. पुर: स्थित्वा ।।१८. गोमयम् ।।१९. पधिनी: खं.२, पाता. ता. ।। २०. मृतौ वृषभौ योजितौ यस्मिन् लागले-हले-तेन ।। २१. वा ता. ॥ २२. वालुकां ला.।। Jain EducaR३.पुष्यति ता.; पुष्यति मु.॥२४. निर्जले मृतकैर्वृषः ता. ।। २५. मुग्ध पाता ॥ २६.भोः कां. मु. ॥ २७. जटायुषा पाता. ।। २८. रामसमीपम् ।ww.jainelibrary.org Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः सर्गः ) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । मृतां जानासि मे भार्यामुह्यमानां मया यदि । निजस्कन्धस्थितं किं न मृतकं वेत्सि 'बुद्धिमन्! ? ।।१७२॥ तेनैवं दर्शितैस्तैस्तैर्हेतुभिर्जातचेतनः । रामो दध्यौ किं नु सत्यं न जीवति ममाऽनुजः ? ॥१७३॥ ततस्तौ लब्धबोधाय रामाय स्वमशंसताम् । देवौ जटायुः कृतान्तौ निजस्थानं च जग्मतुः ॥१७४॥ " मृतकार्यं ततो रामश्चकार स्वानुजन्मनः । दीक्षां प्रपित्सुः शत्रुघ्नं राज्यदानाय चाऽऽदिशत् ।। १७५ ।। अहमप्यनुयास्यामि भवत्पादानिति ब्रुवन् । प्रत्यादिदेश शत्रुघ्नो राज्यं भवपराङ्मुखः ॥१७६।। ततो लवणपुत्रायाऽनङ्गदेवाय राघवः । ददौ राज्यं स्वयं तुर्यपुरुषार्थाय सत्वरः ॥१७७॥ मुनिसुव्रतवंशस्य सुव्रतस्य महामुनेः । अर्हद्दासश्रावकेणोपदिष्टस्याऽन्तिकं ययौ ॥ १७८ ॥ तत्र शत्रुघ्न-सुग्रीव-बिभीषण-विराधितैः । अन्यैश्च राजभिः सार्धं रामो व्रतमुपाददे || १७९|| रामभद्रे तु निष्क्रान्ते निष्क्रान्तान्यथ षोडश । महीभुजां सहस्राणि भववैराग्ययोगतः ॥ १८० ॥ सप्तत्रिंशत् सहस्राणि प्राव्रजन् वरयोषितः । श्रीमत्याः श्रमणायाश्च ता बभूवुः परिच्छदे ॥ १८९ ॥ षष्ठ्यब्दीं गुरुपादान्ते विविधाभिग्रहोद्यतः । तेपे तपांसि रामर्षि: पूर्वाङ्गश्रुतभावितः ॥१८२॥ ॥ अथ रामः प्रेपन्नैकविहारो गुर्वनुज्ञया । एकाकी प्रययौ निर्भीरटव्यां गिरिकन्दरे ॥ १८३॥ तस्यामेव विभावर्यां तत्र ध्यानजुषः सतः । उदभूदवधिज्ञानं रामभद्रमहामुनेः ॥ १८४ ॥ पश्यंश्चतुर्दशरज्जुंप्रमं विश्वं करस्थवत् । देवाभ्यां हतमज्ञासीद् गतं च नरकेऽनुजम् ॥१८५॥ इदं च चिन्तयामास रामभट्टारकस्तदा । धनदत्ताभिधोऽभूवमहं पूर्वत्र जन्मनि ॥ १८६ || वसुदत्तोऽभिधानेन लक्ष्मणोऽभून्ममाऽनुजः । तत्राऽप्यकृतकृत्योऽसावेवमेव व्यपद्यत ॥ १८७॥ भवेऽस्मिन् मे वसुदत्तजीवोऽभूल्लक्ष्मणोऽनुजः । तत्राऽप्यमुष्य कौमारे मुधाऽगाच्छरदां शतम् ॥ १८८॥ शतत्रयं मण्डलित्वे चत्वारिंशत् तु दिग्जये । वर्षैकादशसहस्राः सार्धा राज्येऽब्दषष्टि च ॥ १८९॥ द्वादशाब्दसहस्राणि सर्वमायुरिति क्रमात् । ययावविरतस्यैव केवलं नरकावहम् ॥ १९०॥ न दोषो देवयोः कोऽपि मायावधकयोस्तयोः । विपाकः कर्मणामीदृग् भवत्येव शरीरिणः ॥१९१॥ एवं विचिन्तयन् रामः कर्मच्छेदेऽधिकोद्यतः । तपः समाधिनिष्ठोऽभून्निर्ममः सन् विशेषतः ॥ १९२॥ ||अथ षष्ठोपवासान्ते प्राविशत् पारणाय सः । युगमात्रदत्तदृष्टिर्नगरे स्यन्दनस्थले ॥१९३॥ निशाकरमिवाऽवन्यामायान्तं नयनोत्सवम् । सम्मुखीनाः समापेतुः पौराः प्रचुरसम्मदाः || १९४ || पौर्यः स्वस्वगृहद्वारि भिक्षादानाय तस्य च । विचित्रभोज्यपूर्णानि भाजनानि पुरो दधुः ॥ १९५ ॥ पौराणां हर्षतस्तत्र तुमुलोऽभूत् तथा यथा । स्तम्भान् बभञ्जुः करिणो ययुश्चोत्कर्णतां हयाः ॥ १९६॥ रामोऽप्युज्झितधर्माभिरतत्वात् पौरढौकितम् । आहारं नाऽग्रहीत् तेभ्योऽभ्यागात् तु नृपवेश्मनि ॥१९७॥ तत्र चोज्झितधर्मेणाऽऽहारेण प्रत्यलम्भयत् । प्रतिनन्दिनृपो रामं विधिवद् बुभुजे च सः ॥ १९८ ॥ अमरैर्विदधे तत्र वसुधारादिपञ्चकम् । भगवान् रामभद्रोऽपि तदरण्यं ययौ पुनः ॥ १९९॥ [मा भूद् भूयः पुरक्षोभः सङ्घट्टो मे च मा स्म भूत् । इति बुद्ध्या शुद्धबुद्धिः सोऽभिग्रहमिमं व्यधात् ॥२००॥ अरण्येऽत्रैव चेद् भिक्षाकाले भिक्षोपलप्स्यते । तदानीं पारणं कार्यमस्माभिर्नाऽन्यथा पुनः || २०१ || इत्यभिग्रहभृद् रामो निरपेक्षो वपुष्यपि । परं समाधिमापन्नोऽवतस्थे प्रतिमाधरः || २०२ || तत्राऽन्येद्युर्विपर्यस्त शिक्षेणाऽश्वेन वेगिना । आकृष्यमाण आयासीत् प्रतिनन्दिनरेश्वरः || २०३ || पङ्के नन्दनपुण्याख्यसरसोऽश्वो ममज्ज सः । समापपाताऽनुपदं सैन्यं च प्रतिनन्दिनः ||२०४|| पङ्कात् तमश्वमुत्तार्य शिबिरं न्यस्य तत्र च । स्नात्वा च स नृपश्चक्रे भोजनं सपरिच्छदः ॥ २०५ ॥ तदा च पारितध्यानो रामर्षिः पारणेच्छया । तत्राऽऽजगाम भगवानभ्युत्तस्थौ च तं नृपः ॥ २०६ ॥ अवशिष्टैर्भक्त-पानैः स रामं प्रत्यलम्भयत् । कृतपारणके तस्मिन् रत्नवृष्टिरभूद् दिवः ||२०७|| १. बुद्धिमान् पाता. ।। २. निषिषेध ॥ ३. ०न्तिके खं. १ । ४. साध्व्यः ॥ ५. प्रच्छन्नैक० मु. ॥ ६. ०रज्जुमानं पाता. ।। ७. विपद्य सः मो. ॥ ८. वर्षाणाम् ।। ९. ११५६० वर्षाणि ॥ १०. मायया वधकर्त्री ।। ११. ततः समाधि० पाता ।। १२. अश्वैः कर्णा ऊर्ध्वकृताः ॥ १३. अन्त- प्रान्तभिक्षाऽऽदानरूपधर्मेJain Educatios भिरतत्वात् ॥ For Private Personal Use Only २३५ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (सप्तमं पर्व रामर्षिर्देशनां चक्रे प्रतिनन्द्यादयोऽथ ते। बभूवुः श्रावका: सम्यग्द्वादशव्रतधारिणः॥२०८॥ तत: प्रभृति तत्रैव रामस्तस्थौ चिरं वने। देवीभिर्वनवासाभि: पूज्यमानो महातपाः॥२०९॥ मासेनैकेन मासाभ्यां मासैस्त्रिचतुरैरपि । रामर्षिः पारयामास भवपारयियासया ।।२१०॥ पर्यङ्कस्थ: कदाऽप्यस्थात् प्रलम्बितभुजोऽन्यदा । कदाऽप्युत्कटिकासीन ऊर्ध्वबाहुः कदाचन ॥२११।। अङ्गुष्ठस्थोऽन्यदा तस्थौ पाणिस्थश्च कदाऽपि हि । इति नानासनो ध्यानी स तेपे दुस्तपं तपः ॥२१२॥ पाविहरन्नन्यदा रामो ययौ कोटिशिलां शिलाम् । विद्याधरसमक्षं या लक्ष्मणेन पुरोद्दधे ॥२१३।। तामध्यास्य शिलां रामः क्षपकश्रेणिमास्थितः । शुक्लध्यानान्तरं भेजे निशायां प्रतिमाधरः ॥२१४॥ तदा चाऽवधिना ज्ञात्वा सीतेन्द्र पर्यचिन्तयत् । अयं भवी भवति चेद् रामो युज्येऽमुना पुन: ॥२१५।। अनुकूलैरुपसर्गः क्षपकश्रेणिवर्तिनः । उपद्रवं करोम्यस्य यथा स्यान्मत्सुहृत् सुरः ॥२१६॥ इति सञ्चिन्त्य सीतेन्द्र उपरामं समाययौ । विचक्रे च महोद्यानं वसन्तर्तुविभूषितम् ॥२१७।। चुकूज कोकिलाकुलं ववौ च मलयानिलः । रणन्तो भ्रमरा भ्रमुः कुसुमामोदमोदिनः ॥२१८॥ चूत-चम्पक-कङ्केल्लि-पाटला-बकुलादयः । दधुः सद्योऽपि पुष्पाणि नव्यास्त्राणि मनोभुवः ॥२१९।। सीतारूपं च सीतेन्द्रो विकृत्य स्त्रीजनानपि । ऊचे प्रिय! प्रिया तेऽस्मि सीतेह समुपस्थिता ॥२२०।। रक्तं त्यक्त्वा तदानीं त्वामहं पण्डितमानिनी। प्राव्र नाथ! पश्चाच्च पश्चात्तापो ममाऽत्यभूत् ।।२२।। विद्याधरकुमारीभिराभिरद्याऽहमर्थिता । प्रसीद नाथ! स्वं नाथं रामं नाथीकुरुष्व नः ॥२२२॥ त्वं च मुञ्च परिव्रज्यां रामस्य महिषी भव। त्वदादेशात् तस्य पत्न्यो भविष्यामोऽधुना वयम् ॥२२३।। अमूर्विद्याधरवधूस्तदुद्वह रघूद्वह! । प्राग्वत् सह त्वया रंस्ये तां सहस्वाऽवमाननाम् ।।२२४।। इति ब्रुवाणे सीतेन्द्रे वैक्रिय्य: खेचरस्त्रियः । सङ्गीतं विविधं चक्रुः स्मरोज्जीवनभेषजम् ।।२२५॥ सीतेन्द्रवचनैस्तैश्च तेन सङ्गीतकेन च । वसन्तेन च नाऽक्षुभ्यद् रामभद्रमहामुनिः ॥२२६।। माघस्य शुक्लद्वादश्यां तदा यामेऽन्तिमे निशि । उदपद्यत रामर्षे: केवलज्ञानमुज्ज्वलम् ॥२२७।। रामस्य केवलज्ञानमहिमानं सभक्तिकः । सीतेन्द्रो नाकिनोऽन्ये च विदधुर्विधिपूर्वकम् ॥२२८॥ दिव्यस्वर्णाम्बुजासीनो दिव्यचामरराजित: । दिव्यातपत्रवान् रामो विदधे धर्मदेशनाम् ।।२२९।। देशनान्ते क्षमयित्वा सीतेन्द्रेण प्रणम्य च । सौमित्रि-रावणगतिं पृष्टो रामर्षिरभ्यधात् ॥२३०।। पाअधुना नरके तुर्ये सशम्बूको दशाननः । लक्ष्मणश्चाऽस्ति गतय: कर्माधीना हि देहिनाम् ॥२३१॥ नरकायुश्चाऽनुभूय तौ दशानन-लक्ष्मणौ । नगर्यां विजयावत्यां प्राग्विदेहविभूषणे ॥२३२।। सुनन्द-रोहिणीपुत्रौ जिनदास-सुदर्शनौ । भविष्यतोऽर्हद्धर्मं च सततं पालयिष्यतः ॥२३३॥युग्मम्।। ततो विपद्य सौधर्मे त्रिदशौ तौ भविष्यतः । च्युत्वा च विजयापुर्यां श्रावको भाविनौ पुनः ॥२३४।। ततोऽपि मत्वा परुषौ हरिवर्षे भविष्यतः। तौ चाऽवसानमासाद्य देवलोकंगमिष्यतः ॥२३५।। च्युत्वा च विजयापुर्यां जयकान्त-जयप्रभौ । कुमारवार्तराड्-लक्ष्म्योस्तौ कुमारौ भविष्यतः ॥२३६।। जिनोक्तं संयमं तत्र पालयित्वा विपद्य च । गीर्वाणौ लान्तके कल्पे भविष्यत उभावपि ॥२३७।। तदा त्वमच्युताच्च्युत्वा क्षेत्रे चाऽत्रैव भारते। सर्वरत्नमति म चक्रवर्ती भविष्यसि ॥२३८।। च्युत्वा तौ भाविनाविन्द्रायुध-मेघरथाभिधौ । सुतौ ते त्वं परिव्रज्य वैजयन्ते व्रजिष्यसि ॥२३९।। इन्द्रायुधः स तु जीवो रावणस्य भवत्रयम् । शुभं भ्रान्त्वा तीर्थकरगोत्रकर्माऽर्जयिष्यति ॥२४०॥ ततो रावणजीव: स तीर्थनाथो भविष्यति।वैजयन्ताच्च्युतस्तस्य भावी गणधरो भवान् ॥२४१।। ततस्तौ यास्यतो मोक्षं स जीवो लक्ष्मणस्य तु । भवत्सूनुर्मेघरथो व्रजिष्यति गती: शुभाः ॥२४२।। ततश्च पुष्करद्वीपे प्राग्विदेहविभूषणे । नगर्यां रत्नचित्रायां चक्रवर्ती भविष्यति ॥२४३।। १. भवपारं यातुमिच्छया॥२. नानासनी पाता.; नानासने खं.१॥ ३. तामध्यासीच्छिलां मु.॥४.०माश्रित: पाता.विना ॥५. संसारी॥६. अहं रामेण पुनर्योगं प्राप्नुयामिति तच्चिन्ता ।।७. ककिल्लि० पाता.; कढील्लि० मु.॥८. कामदेवस्य ॥९. तत् ता.॥१०. वैक्रियशक्त्या प्रादुर्भूताः ॥११. निश: रसंपा. ।। Jain Education १२सभक्तिकम् ता. ॥ १३. परित्यज्य पाता. ॥१४. व्रजिष्यति खं.१ | Personal use Only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३१ दशम: सर्ग:) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम्। चक्रवर्तिश्रियं भुक्त्वा परिव्रज्य क्रमेण च । स तीर्थनाथो भविता निर्वाणं च प्रपत्स्यते ॥२४४॥ गएवमाकर्ण्य सीतेन्द्रो रामभद्रं प्रणम्य च । ययौ प्राक्स्नेहवशतो दु:खभाग् यत्र लक्ष्मणः ॥२४५।। सिंहादिरूपैर्विकृतैस्तत्र शम्बूक-रावणौ । लक्ष्मणेन समं क्रुद्धौ युध्यमानौ ददर्श सः ॥२४६॥ नैवं वो युध्यमानानां दु:खं भावीति वादिनः । परमाधार्मिका: क्रुद्धा अग्निकुण्डेषु तान् न्यधुः ॥२४७॥ दह्यमानास्त्रयोऽप्युच्चै रटन्तो गलिताङ्गकाः । तत: कृष्ट्वा तप्ततैलकुम्भ्यां निदधिरे बलात् ॥२४८॥ विलीनदेहास्तत्राऽपि भ्राष्ट्रे चिक्षिपिरे पुन: । तडत्तडिति शब्देन स्फुटन्तो दुद्रुवुः पुन: ॥२४९॥ इत्यादि दुःखं तेषां स प्रेक्ष्योवाचाऽसुरानिति । किं रे न वित्थ यदमी आसन् पुरुषपुङ्गवा: ? ॥२५०।। अपयाताऽसुरा! दूरं मुञ्चतैतान् महात्मनः । निषिध्येत्यसुरानूचे सोऽथ शम्बूक-रावणौ ॥२५१।। यवाभ्यां तत कतं पर्वं येनेमं नरकं गतौ । पूर्ववैरं किमद्याऽपि दृष्टोदकं न मञ्चितम ? ॥२५॥ तावप्येवं निषिध्येन्द्र: सौमित्रे रावणस्य च । रामकेवलिनाख्यातमाचख्यौ बोधहेतवे ॥२५३।। तावप्यथ बभाषाते साध्वकार्षीः कृपानिधे! । भवच्छुभोपदेशेन जाता नो दुःखविस्मृतिः ॥२५४।। प्राग्जन्मोपार्जितैस्तै: क्रूरैः कर्मभिरर्पितः । दीर्घो नो नरकावासस्तद् द:खं कोऽपनेष्यति ? ||२५५|| इत्युक्त्या करुणापूर्ण: सीतेन्द्रः प्रत्यवोचत । नेष्यामि सुरलोके त्रीनपि वो नरकादितः ॥२५६।। इत्युक्त्वा पाणिनोद्दधे स तांस्त्रीनपि ते पुनः । विशीर्य कणश: पेतुः पाणे: पारदवत् क्षणात् ॥२५७|| भूयोऽपि मिलिताङ्गांस्तानुद्दधे स यथा यथा । पुनरेव पतन्ति स्म पूर्ववत् ते तथा तथा ॥२५८॥ तत: सीतेन्द्रमूचुस्ते भवत्यधिकमेव नः । दुःखमुद्धियमाणानां तन्मुञ्चाऽस्मान् दिवं व्रज ॥२५९| तान् मुक्त्वेयाय सीतेन्द्रो रामं नत्वा ततोऽगमत् । शाश्वतार्हत्तीर्थयात्राकृते नन्दीश्वरादिषु ॥२६०॥ गच्छन्नथो देवकुरुप्रदेशे निरीक्ष्य भामण्डलराजजीवम्। प्राक्स्नेहयोगात् प्रतिबोध्य सम्यग् निजं ससीतेन्द्र इयाय कल्पम् ॥२६१॥ उत्पन्ने सति केवलेस शरदां पञ्चाधिकां विंशतिं मेदिन्यांभविकानप्रबोध्य भगवाञ्च्छीरामभट्टारकः। आयुश्च व्यतिलय पञ्चदश चाऽब्दानांसहस्रान् कृती शैलेशींप्रतिपद्य शाश्वतसुखानन्दं प्रपेदे पदम्॥२६२॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये सप्तमे पर्वणि सीताशुद्धि-व्रतग्रहणो नाम दशम: सर्ग:समाप्तः।। १. वेत्थ पाता. ।। २. दृष्टदृक्षं ला.; दृष्ट उदर्क:-परिणामो यस्य तत् ॥ ३. नौ रसंपा. ॥४. इत्युक्त्वा खं.१, पाता. ॥५.०लोकेऽमूनपि० पाता.॥६. दुःखं विलीयमानानां कां.॥७. सप्तम० खं.१-२, ता. ॥ ८. 'समाप्त:' इति नाऽस्ति ता.खं.१-२ प्रतिषु; 'दशम: सर्ग:' इत्यतः परं समाप्तं चेदंरामायणम् इति खं.१-२, पाता. प्रतिषु ॥ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥एकादशः सर्गः॥ ॥श्रीनमिनाथचरित्रम्॥ नमो नमिजिनेन्द्राय सुरेन्द्रमहितांहये । कर्मद्रुमगजेन्द्राय धरित्रीकल्पशाखिने ॥१॥ तस्यैव कीर्तयिष्यामश्चरित्रमतिपावनम् । विश्वस्याऽप्युपकाराय परलोकेहलोकयोः ॥२॥ जम्बूद्वीपेऽत्रैव प्रत्यग्विदेहे भरताभिधे। विजये सम्पदा कोश: कौशाम्बी नामतोऽस्ति पू: ॥३॥ आखण्डल इवाऽखण्डशासनस्तत्र चाऽभवत् । सिद्धार्थीकृतसर्वार्थी सिद्धार्थो नाम पार्थिवः ।।४।। गाम्भीर्यं धैर्यमौदार्यं वीर्यं बुद्धिरथाऽपरे । अन्योऽन्यस्पर्द्धयेवाऽऽसन् सर्वे तस्याऽद्भुता गुणाः ॥५॥ सम्पद् विस्तारमापन्ना तस्याऽत्युन्नतिशालिनः । अभूदु विश्वोपकाराय छाया मार्गतरोरिव ॥६।। धर्मो मनसि तस्यैको नित्यमत्यन्तनिर्मले। निवासं कारयामास राजहंस इवाऽम्बुजे ॥७॥ भवाद् विरक्त: सोऽन्येधुरुत्सृज्य तृणवच्छ्रियम् । सुदर्शनमुने: पादमूले दीक्षामुपाददे ॥८॥ आर्जयत् स्थानकै: कैश्चित् तीर्थकृन्नामकर्म स: । सम्यग् व्रतं पालयित्वा मृत्वाऽगादपराजिते ॥९॥ पाइतश्च जम्बूद्वीपेऽस्मिन् क्षेत्रे चाऽत्रैव भारते । नगरी मिथिलेत्यस्ति धर्माशिथिलनागरा ॥१०॥ प्राकारवलयो रत्न-स्वर्णहाट्टगर्भितः । तस्यामाभाति सर्वस्वसमुद्क इवाऽवनेः ॥११॥ परितो रत्नखचितास्तस्यामुद्यानदीर्घिका: । तटद्रुमपरागेण यान्ति पङ्किलतां यदि ॥१२॥ तस्यां सर्वारिविजयी विजयो नाम पार्थिवः । बभूव भूवासवतां दधान: परया श्रिया ॥१३॥ भ्रूभङ्गमप्यकृत्वैवाऽसन्नाह्याऽपि वरूथिनीम् । स लीलया पराजिग्ये परान् यून इव स्मरः ॥१४।। स सागर इवाऽगाधोऽभिरामश्चन्द्रमा इव । समीरण इवौजस्वी तेजस्वी भानुमानिव ॥१५॥ वप्रेति नामतस्तस्य सर्वान्त:पुरमण्डनम् । मण्डनीभूतशीलाऽभूद् भूरिवाऽङ्गवती प्रिया ॥१६॥ गङ्गेव स्वच्छगम्भीरा जगतोऽपि हि पावनी । ज्योत्स्नेव नयनानन्ददायिनी सा व्यराजत ॥१७॥ ये ये सूनृत-शीलाद्या निरीक्ष्यन्ते गुणा: किल । अवदातैरभूत् तैस्तै: स्त्रीणां सैका निदर्शनम् ॥१८॥ पाइतश्च सिद्धार्थजीवो विमाने सोऽपराजिते । स्वमायुः पूरयामास त्रयस्त्रिंश्यर्णवोपमम् ॥१९।। च्युत्वाऽश्वयुक्पूर्णिमायामश्वकिन्यामवातरत् । वप्रादेव्याः स उदरे कृतोद्योतो जगत्त्रये ॥२०॥ तदा च यामिनीशेषे वप्रादेवी चतुर्दश । उदैक्षत महास्वप्नांस्तीर्थकृज्जन्मसूचकान् ॥२१॥ पितुर्मनोरथ इव गर्भ: प्रववृधे क्रमात् । अतिलावण्यजननो जनन्या: सुखकृच्च सः ॥२२॥ पूर्णे काले नभ:कृष्णाष्टम्यां भे चाऽश्वेदेवते। नीलोत्पलाझं स्वर्णाभं देवी सूतमसूत सा ।।२३।। पाअथैत्याऽऽसनकम्पेन चक्रुर्देवी-कुमारयोः । तदैव सूतिकर्माणि विधिवद् दिक्कुमारिकाः ॥२४॥ शक्रो निन्ये मेरुमूर्धन्यच्युताद्याश्च वासवाः । चतुःषष्टिरपि तीर्थाम्भोभिरस्नपयन् प्रभुम् ।।२५।। स्नपनान्ते जगन्नाथमभ्यर्च्य कुसुमादिभिः । रचितारात्रिकः शक्रः इति स्तोतुं प्रचक्रमे ॥२६॥ “व्याहर्ता मोक्षमार्गस्य संहर्ता सर्वकर्मणाम् । प्रहर्ता च कषायाणां जय त्वं परमेश्वर! ॥२७॥ कुमतस्याऽपनेतारं नेतारं जगतामपि। सद्बोधस्य प्रणेतारं त्वां नमामि जगद्गुरो! ॥२८॥ १. अहं। खं.१-२, पाता. ।। २. सिद्धार्थीकृतसिद्धार्थी खं.१-२; सिद्धार्थीकृतसर्वार्थ ता.; असिद्धार्थाः सिद्धार्थाः कृताः सर्वेऽर्थिनो येन सः ॥ ३. स्वार्थे णिच्-प्रत्यय: सम्भाव्यतेऽत्र ॥ ४. इवाऽम्भसि खं.२॥५. धर्मेऽशिथिला:-उद्यता नागरा-नगरजना यस्यां सा ॥ ६. सर्वं स्वं-धनं तस्य समुद्क:मञ्जूषा ॥७. उद्यानवाप्य: ।। ८. परागो मकरन्दः ।।९. कर्दममयताम् ॥१०.भुवि-पृथ्व्यां वासवतां-इन्द्रत्वम् ।।११. सेनाम्॥१२. शत्रून् । १३.शीलं मण्डनी भूतं यस्याः सा ॥१४. मूर्तिमती पृथ्वीव ।। १५. सूनृतं-सत्यम् ।। १६. त्रयस्त्रिंशा० मु. रस्वीपा. ॥ १७. अश्विनीनक्षत्रे ॥१८. श्रावणकृष्णाष्टम्याम् ।। १९. Jain Education in अश्विनीनक्षत्रे ।। २०. कथयिता-वक्ता। Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३९ एकादशः सर्गः) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । विश्वैश्वर्यस्याऽधिका न्यक्का विश्वपाप्मनाम्। 'अविकोपका च सनाथं भवता जगत् ॥२९॥ धर्मबीजसमुद्धā धāऽतिशयसम्पदाम् । श्रुतस्कन्धविधात्रे च भगवन्! भवते नमः ॥३०॥ प्रत्यादेष्टुः कुमार्गाणामादेष्टुर्मुक्तिवर्त्मनः । धर्मः प्रभविता त्वत्त उपदेष्टुरतः परम् ॥३१॥ नव्यतीर्थप्रतिष्ठातुरनुष्ठातुस्तपःश्रियाम् । प्रभो! जगदधिष्ठातुर्भवत: किङ्करा वयम् ॥३२॥ आदातर्यपवर्गस्य विश्वस्याऽभयदातरि । त्वयि त्रैलोक्येशरण! प्रपन्नशरणोऽस्म्यहम् ॥३३॥ अस्मिन् भवे यथाऽभूस्त्वं प्रभुर्मम जगत्पते! । भवान्तरेष्वपि तथा भूया नाऽन्यो मनोरथः" ॥३४॥ इति स्तुत्वा जगन्नाथं पुनरादाय वासवः । मुमोच वप्रास्वामिन्या: पार्श्वे नीत्वा यथास्थिति ॥३५।। पाराजाऽपि विजय: प्रात: सूनोर्जन्ममहोत्सवम् । चकार कारामोक्षादिपूर्वकं परया मुदा ॥३६॥ प्रभौ गर्भस्थिते रुद्धा पुर्यासीन्मिथिलाऽरिभिः । अधिप्रासादमारोहद् वप्रादेवी च तत्क्षणम् ॥३७॥ वप्रां प्रेक्ष्य च तद्गर्भानुभावाद् विजयं नृपम् । यनेमुर्द्विष इत्यस्य नमिरित्यभिधा ददे ॥३८॥ पाल्यमानोऽथ धात्रीभिः शक्रादिष्टाभिरन्वहम् । नमिनाथ: प्रववृधे निशानाथ इवाऽपरः ।।३९।। विमुक्तशैशव: स्वामी धनूंषि दश पञ्च च । उच्छ्रिताङ्ग: पर्यणैषीत् कन्यां पितृनिदेशतः ॥४०।। सार्धे वर्षसहस्रे द्वे व्यतिक्रम्य स जन्मत: । दत्तं पित्राऽऽददे राज्यं कर्म भोगफलं विदन ॥४१॥ पञ्चस्वब्दसहस्रेषु राज्याद् यातेष्वथ प्रभुम् । तीर्थं प्रवर्तयेत्यूचुरेत्य लोकान्तिकामराः ॥४२॥ निवेश्य सुप्रभं नाम पुत्र राज्ये नमिप्रभुः । प्रददौ वार्षिकं दानं द्रविणैर्जुम्भकाहृतैः ॥४३॥ सुप्रभाद्यैर्नृपैः शक्रादिभिर्देवैर्वृत: प्रभुः । देवकुर्वा शिबिकया सहस्राम्रवणं ययौ ॥४४|| कदम्बचुम्बनासक्तमधुव्रतकदम्बकम् । मल्लिकाकुसुमोच्चायव्याकुलोद्यानपालकम् ॥४५।। विगलत्पाटलापुष्पपाटलीभूतभूतलम् । कामुकम्रस्तरीभूतशिरीषकुसुमोत्करम् ॥४६॥ वहमानारघट्टोत्थैः प्रोच्छलच्छीकरोत्करैः । ग्रीष्मेऽपि दर्शिताब्दतु तद् वनं प्राविशत् प्रभुः ॥४७॥त्रिभिर्विशेषकम्।। आषाढकृष्णनवम्यामश्विन्यां चरमेऽहनि । समं राज्ञां सहस्रेण षष्ठेन प्राव्रजत प्रभः ॥४८॥ तदोत्पन्नमनोज्ञानो द्वितीयेऽहनि पारणम् । स क्षैरेय्या वीरपुरे चक्रे दत्तनृपौकसि ॥४९॥ चक्रे च विबुधैस्तत्र वसुधारादि दत्तराट् । पीठं च व्यहताऽन्यत्र नवमासांस्तत: प्रभुः ॥५०॥ ततः सहस्राम्रवणं दीक्षास्थानं तदा ययौ । षष्ठेन बकुलस्याऽधस्तस्थौ च प्रतिमाधरः ॥५१॥ मार्गस्य शुक्लैकादश्यामश्विन्यां भेनमिप्रभोः। घातिकर्मक्षयादाविरभूत् केवलमुज्ज्वलम् ॥५२॥ सद्योऽपि देवा: समवसरणं विदधुस्ततः । अशीत्यग्रशतधनुस्तुङ्गाशोकद्रुभूषितम् ॥५३॥ तत्र प्रदक्षिणीकृत्याऽशोकं तीर्थाय चाऽनमत् । न्यषदत् प्रामुख: पूर्वरत्नसिंहासने प्रभुः ॥५४।। रत्नसिंहासनस्थानि प्रतिबिम्बानि च प्रभोः । विचक्रुर्व्यन्तरसुरा दिक्ष्वन्यास्वपि तत्क्षणम् ॥५५॥ अवतस्थे यथास्थानं श्रीमान् सङ्घश्चतुर्विधः । भगवन्तं नमस्कृत्य सौधर्मेन्द्रोऽस्तवीदिति ॥५६॥ "केवलज्ञानसज्ञेन चक्षुषा वीक्षसेऽखिलम् । जगदेतत् तदेवं ते त्रिनेत्राय नम: प्रभो! ॥५७|| पञ्चत्रिंशदतिशयवचसे परमेष्ठिने । चतस्त्रिंशदतिशयान्विताय भवते नमः ॥५८॥ मालवकैशिकीमुख्यग्रामरागमनोरमाम् । सर्वभाषानुगां नाथ! तव वाचमुपास्महे ॥५९॥ त्वदर्शनात् प्रणश्यन्ति कर्मपाशा: शरीरिणाम् । ताावलोकनान्नागपाशा इव दृढा अपि ॥६०॥ त्वदर्शनाद् देहभाजोऽधिरोहन्ति शनैः शनैः । निःश्रेणिमिव मोक्षस्य गुणस्थानकमालिकाम् ।।६।। १. अधिकारिणा ॥ २. तिरस्कळ सर्वपापानाम् ।। ३. अविकारिणा ।। ४. निरसनं कर्तुः ।। ५. आ-समन्ताद् दातरि ।। ६. त्रैलोक्यशरणे मु. रस्वीपा. ।। ७. कन्या: रसंपा.॥८.सार्धवर्ष मु.रस्वीपा.॥९.लौकान्तिका० रसंपा. ।। १०. कदम्बानां चुम्बने आसक्तो मधुव्रतानां-भ्रमराणां कदम्बः-समूहो यत्र तत्॥ ११. मल्लिकापुष्पाणामवचये व्याकुला उद्यानपाला यत्र तत् ।। १२. ०द्यानपालिकाम् खं.१, पाता.; ०द्यानपूर्वकम् खं.२ ।। १३. विगलद्धिः-पतद्भिः पाटलापुष्पैः पाटलीभूतं-रक्तवर्णं भूतलं यत्र तत् ।। १४. कामुकानां स्रस्तरीभूत:-आसनीभूत: शय्याभूतो वा शिरीषकुसुमानामुत्करो यत्र तत् ॥१५. दर्शितोऽब्दानां मेघानां ऋतुर्येन तत् ॥ १६. परमानेन । १७. वसुधारादिपञ्चकम् खं.२ ॥ १८. “भाविनि भूतवदुपचारः" इति रूढिमाश्रित्य वचनमिदं स्यात् ।। १९. Jain Education o5वीदिति खं.२॥ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं (सप्तमं पर्व स्मृत: श्रुतः स्तुतो ध्यातो दृष्टः स्पृष्टो नमस्कृतः । येन तेन प्रकारेण स्वामिन्! भवसि शर्मणे॥६२॥ स्वामिन्! पुण्यानुबन्धीनि पूर्वपुण्यानि न: खलु । यैस्त्वं दृग्गोचरं नीतोऽसाधारणगतिप्रदः ॥६३।। यथा तथा ममाऽस्त्वन्यत् स्वर्गराज्यादि सर्वतः । मा जातु हृदयाद् यान्तु नाथ! त्वद्देशनागिरः” ।।६४॥ इति स्वामिगुणस्तोत्रं विर्धाय विरते हरौ । जगत्त्रयगुरुर्धर्मदेशनामकरोदिमाम् ॥६५॥ पा“असार: खलु संसार: सरिदूर्मिचलं धनम् । विद्युद्विलाससदृशं शरीरमपि नश्वरम् ॥६६॥ अनास्थां सर्वथा तेषु तद् विधाय विचक्षणः । यतेत यतिधर्माय मुमुक्षुर्मोक्षवमने ॥६७॥ अशक्तस्तद्विधाने चेत् तदाकाङ्क्षी तथाऽपि हि । सम्यक्छावकधर्मायोत्तिष्ठेत द्वादशात्मने ॥६८॥ नयेन्नित्यमहोरात्रं श्रावकस्त्वप्रमद्वरः । धाभिरिति चेष्टाभिर्मनोवाक्कायजन्मभिः ॥६९।। ब्राह्मे मूहुर्त उत्तिष्ठेत् परमेष्ठिस्तुतिं पठन् । किंधर्मा ? किंकुलश्चाऽस्मि ? किंव्रतोऽस्मीति च स्मरन् ।।७०॥ शुचिः पुष्पामिषस्तोत्रैर्देवमभ्यर्च्य वेश्मनि । प्रत्याख्यानं यथाशक्ति कृत्वा देवगृहं व्रजेत् ॥७१।। प्रविश्य विधिना तत्र त्रि: प्रदक्षिणयेजिनम् । पुष्पादिभिस्तमभ्यर्च्य स्तवनैरुत्तमैः स्तुयात् ॥७२॥ ततो गुरूणामभ्यर्णे प्रतिपत्तिपुरःसरम् । विदधीत विशुद्धात्मा प्रत्याख्यानप्रकाशनम् ॥७३॥ अभ्युत्थानं तदालोकेऽभियानं च तदागमे । शिरस्यञ्जलिसंश्लेष: स्वयमासनढौकनम् ।।७४।। आसनाभिग्रहो भक्त्या वन्दना पर्युपासनम् । तद्यानेऽनुगमश्चेति प्रतिपत्तिरियं गुरोः ॥७५।। तत: प्रतिनिवृत्त: सन् स्थानं गत्वा यथोचितम् । सुधीधर्माविरोधेन विदधीताऽर्थचिन्तनम् ॥७६॥ ततो माध्याह्निकी पूजां कुर्यात् कृत्वाऽथ भोजनम् । तद्विद्भिः सह शास्त्रार्थरहस्यानि विचारयेत् ॥७७|| ततश्च सन्ध्यासमये कृत्वा देवार्चनं पुनः । कृतावश्यककर्मा च कुर्यात् स्वाध्यायमुत्तमम् ।।७८।। न्याय्ये काले ततो देव-गुरुस्मृतिपवित्रितः । निद्रामल्पामुपासीत प्रायेणाऽब्रह्मवर्जकः ॥७९॥ निद्राच्छेदे योषिदङ्गसत्तत्त्वं परिचिन्तयेत् । महात्मनां मुनीनां हि तन्निवृत्तिं परामृशन् ॥८०॥ यकृ-च्छकृन्-मल-श्लेष्म-मज्जा-ऽस्थिपरिपूरिता । स्नायुस्यूता बही रम्या: स्त्रियश्चर्मप्रसेविका:॥८१|| बहिरन्तर्विपर्यास: स्त्रीशरीरस्य चेद् भवेत् । तस्यैव कामुकः कुर्याद् गृध्र-गोमायुगोपनम् ॥८२॥ स्त्रीशस्त्रेणाऽपि चेत् कामो जगदेतज्जिगीषति । तुच्छपिच्छमयं शस्त्रं किं नाऽऽदत्ते स मूढधी: ? ॥८३।। सङ्कल्पयोनिनाऽनेन हहा! विश्वं विडम्बितम् । तद् दुःखनामि सङ्कल्पं मूलमस्येति चिन्तयेत् ॥८४॥चतुर्भि: कलापकम्।। यो य: स्याद् बाधको दोषस्तस्य तस्य प्रतिक्रियाम् । चिन्तयेद् दोषमुक्तेषु प्रमोदं यतिषु व्रजन् ।।८५।। दुःस्थां भवस्थितिं स्थेम्ना सर्वजीवेषु चिन्तयन् । निसर्गसुखसर्गं तेष्वपवर्ग विमार्गयेत् ।।८६।। जिनो देव: कृपा धर्मो गुरवो यत्र साधवः । श्रावकत्वाय कस्तस्मै न श्लाघेताऽविमूढधी: ? ॥८७|| जिनधर्मविनिर्मुक्तो मा भूवं चक्रवर्त्यपि । स्यां चेटोऽपि दरिद्रोऽपि जिनधर्माधिवासितः ॥८८॥ त्यक्तसङ्गो जीर्णवासा मलक्लिन्नकलेवरः । भजन् माधुकरी वृत्तिं मुनिचर्यां कदाऽऽश्रये? |८९॥ त्यजन् दुःशीलसंसर्ग गुरुपादरजः स्पृशन् । कदाऽहं योगमभ्यस्यन् प्रभवेयं भवच्छिदे ? ॥९०॥ महानिशायां प्रकृते कायोत्सर्गे पुराद् बहिः । स्तम्भवत् स्कन्धकषणं वृषाः कुर्युः कदा मयि ? ॥९१|| वने पद्मासनासीनं क्रोडस्थितमृगार्भकम् । कदा घ्रास्यन्ति वक्त्रे मां जरन्तो मृगयूथपा: ? ॥९२|| शत्रौ मित्रे तणे स्त्रैणे स्वर्णेऽश्मनि मणौ मदि। मोक्षे भवे भविष्यामि निर्विशेषमतिः कदा ? ॥१३॥ अधिरोढुं गुणश्रेणी नि:श्रेणी मुक्तिवेश्मनः। परानन्दलताकन्दान् कुर्यादिति मनोरथान् ॥९४||सप्तभिः कुलकम्।। इत्यहोरात्रिकी चर्यामप्रमत्त: समाचरन् । यथावदुक्तवृत्तस्थो गृहस्थोऽपि विशुध्यति” ॥९५॥ श्रुत्वेमा देशनां भर्तुर्बहवः प्राव्रजज्जना: । कुम्भादयो गणधरास्तत्र सप्तदशाऽभवन् ॥९६।। १. यस्त्वं मु. ॥२. विधीय मु.॥३. चलर्मिचलं मु.॥४. अप्रमादी॥५. पुष्प-नैवेद्य-स्तवनैः ॥६. भक्तिः ।। ७. मध्या० खं.१-२, पाता. मु.॥८. योषित्-नारी तदङ्गस्य सत्तत्त्वं-याथार्थ्यम् ॥ ९. स्नायुः स्यूता खं.१, पाता. ॥१०. चर्मभस्त्राः ॥११. गृध्र-शृगालेभ्यो रक्षा ॥१२. सङ्कल्प एव योनि: उत्पत्तिस्थानं यस्य कामस्य तेन ॥१३. दुर् उपसर्ग: खन् धातुः; कष्टेन-कष्टं वा खनामि-खननं करोमि ।।१४. स्थैर्येण ।।१५. निसर्गत: सुखं-तस्य सर्गो(सर्जन) Jain Education "यस्मिन तम ॥ १६. प्रकृतकायो० मु. रस्वीपा. ॥१७. ०श्रेणिं निःश्रेणिं खं.१, पाता. 11ly Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४१ एकादशः सर्गः) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । देशनान्ते जगद्भर्तः कुम्भो व्यधित देशनाम् । तद्देशनान्ते नत्वेशं शक्राद्याः स्वं पदं ययुः ॥९७॥ पातत्तीर्थजन्मा भकटिर्यक्षस्त्र्यक्षश्चतर्मखः । स्वर्णवर्णो वषरथश्चतर्भिर्दक्षिणैः भुजैः ॥९८॥ धृतमातुलिङ्ग-शक्ति-मुद्रा-ऽभयदैर्युतः । वामैः पुनर्नकुलक-पशु-वज्रा-ऽक्षसूत्रिभिः ॥९९।।युग्मम्॥ तथैव देवी गान्धारी श्वेताङ्गी हंसवाहना । दोर्थ्यां वरद-खड्गिभ्यां दक्षिणाभ्यां विराजिता ॥१०॥ वामाभ्यां बीजपूरिभ्यां बाहुभ्यामुपशोभिता । अभूतामित्युभे भर्तुर्नमे: शासनदेवते ॥१०१॥ पाताभ्याममुक्तसान्निध्यो विजहार वसुन्धराम् । सार्धे वर्षसहस्रे द्वे नवमासोनिते विभुः ॥१०२॥ प्रभोरभूवन् साधूनां सहस्राण्यथ विंशतिः । व्रतिनीनां पुनरेकचत्वारिंशत्सहस्यपि ॥१०३॥ चतुर्दशपूर्वभृतां सार्धं शतचतुष्टयम् । अवधिज्ञानभाजां तु सहस्रं षेट् शताधिकम् ॥१०४॥ षष्ट्यग्रा द्वादशशती मन:पर्ययशालिनाम् । शतानि षोडश पुन: केवलज्ञानधारिणाम् ॥१०५॥ जातवैक्रियलब्धीनां सहस्रा: पञ्च सङ्ख्यया । तथा सहस्रमेकं तु वादलब्ध्युपशोभिनाम् ॥१०६॥ श्रावकाणां लक्षमेकं सहस्राणि च सप्ततिः । श्राविकाणां त्रिलक्ष्यष्टचत्वारिंशत्सहस्रयुक् ॥१०७॥ मोक्षकालमथ ज्ञात्वा सम्मेताद्रिमगात् प्रभुः। समं मुनिसहस्रेणाऽनशनं प्रत्यपादि च ॥१०८।। मासान्ते वैशाखकृष्णदशम्यामश्विनीयुजि । समं तैर्मुनिभिः स्वामी प्रपेदे पदमव्ययम् ॥१०९॥ कौमारेऽब्दानां सहस्रौ सार्थी राज्ये तु पैञ्च ते। व्रते सौं/ सहस्रौ चेत्ययुतायुर्नमिप्रभुः ॥११०॥ मुनिसुव्रतनिर्वाणानिर्वाणं श्रीनमिप्रभोः । वर्षाणां षट्सु लक्षेषु व्यतिक्रान्तेष्वजायत ॥१११॥ निर्वाणकल्याणमुपेत्य तत्र गीर्वाणनाथास्त्रिदशैः समेताः । शरीरसंस्कारपुर:सरं श्रीनमेरकार्षुः सपरिच्छदस्य ॥११२॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये सप्तमे पर्वणि नमिनाथचरितवर्णनो नामैकादशः सर्गः॥ १. बीजपूरधारिभ्याम् ॥२.२०००० साधवः ।।३.४१००० साध्व्यः ।।४.४५० चतुर्दशपूर्विणः ।।५.१६०० अवधिज्ञानिनः ।। ६.१२६० मन:पर्यवज्ञानिनः॥ ७. १६०० केवलज्ञानिनः ॥ ८.५००० वैक्रियलब्धिधराः ।। ९. १००० वादिमुनयः ॥१०.१,७०,००० श्रावकाः ।। ११. ३,४८,००० श्राविकाः ॥१२. विभुः ता. ॥१३. अश्विनीनक्षत्रे ।। १४. २५०० वर्षाणि ।।१५.५००० वर्षाणि ॥१६. २५०० वर्षाणि ।। १७. १०,००० वर्षाणि ॥१८. सप्तम० खं.१-२, Jain Educaता. ॥१९.नामैकादशमः पाता. ॥ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ द्वादशः सर्गः ॥ ॥ श्रीहरिषेणचक्रिचरितम् ॥ T इतश्च विहरत्येव नमिनाम्नि जिनेश्वरे । हरिषेणोऽभवच्चक्री चरितं तस्य कीर्त्यते ॥ १ ॥ इहैव भरतेऽनन्ततीर्थे नरपुरे पुरे । नराभिरामो नृपतिरभिरामो नरेष्वभूत् ॥२॥ क्रमेण च भवोद्विग्नः परिव्रज्यां प्रपद्य सः । सनत्कुमारकल्पेऽभूदमरः परमर्द्धिकः || ३ || |इतश्च पञ्चालदेशाकैल्पः स्वः कल्पमृद्धिभिः । परैरकम्प्यं काम्पील्यमित्यस्ति प्रवरं पुरम् ॥४॥ तस्मिन् महाहरिर्नाम राजा हरिरिवौजसा । इक्ष्वाकुवंशतिलको बभूव भुवि विश्रुत: ॥५॥ तस्याऽभून्महिषी नाम्ना मेरा स्मेराम्बुजानना । शीलालङ्करणा रूपेणाऽलङ्कृतमहीतला ॥६॥ नराभिरामजीवोऽपि तस्याः कुक्षाववातरत् । चतुर्दशमहास्वप्नाख्यातश्चक्रधरर्द्धिकः ॥७॥ सा कालेsसूत हेमाभं हरिषेणाभिधं सुतम्। पञ्चदशधनूच्छ्रायो युवराज्येऽभ्यषेचि सः ॥ ८ ॥ पैतृकं शासतस्तस्य राज्यं प्राज्यभुजौजसः । अन्येद्युरस्त्रशालायां चक्ररत्नमजायत ॥९॥ पुरोधो-वर्धकि- गृहि-सेनानीप्रभृतीन्यपि । तस्य त्रयोदशाऽन्यानि क्रमाद् रत्नानि जज्ञिरे ||१०|| " चक्रमार्गानुगः प्राच्यां गत्वा तीर्थे स मागधे । मागधतीर्थकुमारं दिग्जयादावसाधयत् ॥११॥ दक्षिणस्यामथोपेत्य दक्षिणाम्भोधिवर्तिनम् । वरदामपतिं देवं वशीचक्रे महाभुजः ||१२|| उपेत्य दिशि वारुण्यां प्रभासाधिपतिं सुरम् । सोऽसाधयदखण्डौजा बिडौजा इव भूस्थितः ॥१३॥ महानदीमेत्य सिन्धुं दिकूँसिन्धुरपराक्रमः । क्रमाद् वशंवदीचक्रे चक्रभृद् दशमोऽथ सः ॥ १४ ॥ ततोऽभिसृत्य वैताढ्यं वैताढ्याद्रिकुमारकम् । विधिना साधयामास स दिक्साधनपण्डितः ॥१५॥ कृतमालामरं चाऽथ कृती स्वयमसाधयत्। पश्चाच्च सेनापतिना पश्चिमं सिन्धुनिष्कुटम् ॥ १६॥ वामान्यकुम्भविन्यस्तमणिरत्नेन कुम्भिना । सेनान्युद्धाटितद्वारां तमिस्रां प्रविवेश सः ||१७|| काकिणीरत्नलिखितमण्डलोद्योतितान्तराम् । पद्ययोत्तीर्य चोन्मग्ना - निमग्ने तामलङ्घयत् ॥ १८ ॥ स्वयमुद्घाटितोदीच्यद्वारा तस्य विनिर्ययौ । आपातसञ्ज्ञान् म्लेच्छांस्तान् स्वच्छन्दानजयच्च सः ॥ १९॥ अजापयच्च सेनान्या सिन्धोः पश्चिमनिष्कुटम् । गत्वा च क्षुद्रहिमवत्कुमारमजयत् स्वयम् ||२०| काकिण्या ऋषभकूटे स्वनामाऽऽलिख्य सञ्चलन् । गर्ऋमसाधयद् गात्रं सेनान्या पूर्वनिष्कुटम् ॥२१॥ विद्याधरैर्दत्तदण्ड उभयश्रेणिवर्तिभिः । स्वयं च 'साधयामास नाट्यमालमथैौऽमरम् ॥२२॥ सेनान्योद्घाटितां खण्डप्रपातां चाऽऽविशद् गुहाम् । चक्रानुगश्चक्रवर्ती निर्जगाम च पूर्ववत् ॥ २३ ॥ सेनान्या साधयामास गाजं प्राचीननिष्कुटम् । स्वयमावासयामास गङ्गायां वसुधाधिपः ||२४|| नवाऽपि निधयो गङ्गामुखमागधवासिनः । सिध्यन्ति स्म स्वयं तस्योत्कृष्टपुण्यानुभावतः ||२५|| || सम्पूर्णचक्रवर्तिश्रीर्जितषट्खण्डभारतः । अथाऽऽजगाम काम्पील्यपुरं स श्रीपुरन्दरः ||२६|| तस्य चक्रित्वाभिषेकश्चक्रे देवैर्नरैरपि । महोत्सवः पुरे चाऽऽसीद् यावद् द्वादश वत्सरान् ||२७|| भूपालैः पाल्यमानाज्ञो भरते सकलेऽपि है । धर्माविबाधया भोगान् बुभुजे स महाभुजः ॥२८॥ भवाद् विरक्तः सोऽन्येद्यू राज्यमुत्सृज्य लीलया । उपादत्त परिव्रज्यां शिर्वैव्रज्योत्सवोत्सुकः ॥२९॥ १. नरेष्वपि पाता. ॥ २. परिव्रज्य विपद्य सः ता. ॥। ३. पञ्चालदेशभूषणम् ॥। ४. स्वर्गतुल्यम् ॥ ५. वशीचक्रे स चक्रभृत् रसंपा. ।। ६. पश्चिमायाम् ।। ७. दिग्गजसमविक्रमः ।। ८. वामान्यः - दक्षिणः ॥ ९. अज्ञापयच्च मु. ॥ १०. काकण्या खं.१-२, पाता. ॥ ११. जगाम साधय० मु. ॥। १२. चासाधयामास खं.१-२, पाता. मु. ॥ १३. ० मथापरम् मु.; ० मथावरम् पाता. ॥। १४. प्राविशद् मु . ।। १५. हि ता. मु. ।। १६. मोक्षगमनोत्सुकः ॥ For Private Personal Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४३ द्वादशः सर्गः) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । हरिषेणस्य कौमारे 'सपादाब्दशतत्रयी। मण्डलित्वेऽपि सैवाऽथ सार्धमब्दशतं जये॥३०॥ चक्रभृत्त्वे पुनरष्टौ सहस्राणि शताष्टकम् । पञ्चाशच्च व्रतकाले पुनः सार्धं शतत्रयम् ॥३१॥ वर्षायुतायु: परिपाल्य सम्यक् तीव्र व्रतं घातितघातिकर्मा । उत्केवलज्ञान इयाय नित्यसुखं पदं तद्धरिषेणचक्री ॥३२॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये सप्तमे पर्वणि हरिषेणचक्रवर्तिचरितवर्णनो नाम द्वादशः सर्गः समाप्त:॥ १. ३२५ वर्षाणि ।। २. ३२५ ।। ३.१५० वर्षाणि ।। ४.८८५० वर्षाणि ।। ५. ३५० वर्षाणि ॥ ६.१०,००० वर्षाणि ।। ७. सप्तम० खं.१-२॥ ८. द्वादशम: पाता.॥९. ता.प्रतौन।। Jain Education international Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥त्रयोदशः सर्गः॥ ॥जयचक्रिचरितम्॥ नमेर्भगवतस्तीर्थे समुत्पन्नस्य चक्रिण: । जयस्य जयिन: पुण्यं चरित्रमिदमुच्यते ॥१॥ अस्यैव जम्बूद्वीपस्यैरवते श्रीपुरे पुरे । वसुन्धरापतिरभूत् ख्यातो नाम्ना वसुन्धरः ॥२॥ स प्रेयस्या: पद्मवत्या मृत्युनोद्विनमानसः । राज्ये निवेशयामास तनयं विनयन्धरम् ॥३॥ मनोहरवने पार्श्वे वरधर्ममहामुनेः । तत्त्वं श्रुत्वा प्रतिबुद्ध: परिव्रज्यामुपाददे ॥४॥ चिरकालं परिव्रज्यां स यथावदपालयत् । विपद्य सप्तमे कल्पे देवभूयमियाय च ॥५॥ पाइतश्चाऽस्ति राजगृहं पुरं मगधमण्डनम् । श्रियामेकं कुलगृहं स्व:पुर्या इव सोदरम् ॥६॥ इक्ष्वाकुवंशप्रभवः प्रभवो न्यायवर्त्मनः । विजयी विजयो नाम तत्राऽभूत् पृथिवीपतिः ।।७।। वप्राभिधाना तस्याऽभून्महिषी शीलशालिनी । भूगता काऽपि देवीव रूप-लावण्यसम्पदा ॥८॥ काले गच्छति तस्याश्च कुक्षाववततार स: । वसुन्धरमहीपालजीव: शुक्रात् परिच्युतः ।।९।। जज्ञे तस्यां जयो नाम धनुर्द्वादशकोन्नतिः । सूनुश्चतुर्दशस्वप्नसूचितः काञ्चनच्छवि: ॥१०॥ पित्रा राज्येऽभिषिक्तश्च तस्याऽऽयुधगृहेऽन्यदा । चक्ररत्नं समुत्पेदे प्रथमं चक्रिलक्षणम् ॥११॥ तथा च्छत्रं मणिर्दण्डो निस्त्रिंशश्चर्म काकिणी। जज्ञिरे तस्य सप्तैवं रत्नान्येकेन्द्रियाणि तु ॥१२॥ पुरोधो-गृहि-हस्त्य-श्व-सेनानी-वर्धकि-स्त्रियः । पञ्चेन्द्रियाणि सप्तैवं तस्य रत्नानि जज्ञिरे ॥१३।। दिग्यात्रार्थं सोऽनुचक्रं पूर्वं पूर्वाब्धिमभ्यगात् । मागधतीर्थकुमारं तत्र चक्रे वशंवदम् ।।१४।। ततो निवृत्य याम्याब्धौ वरदामपतिं सुरम् । सोऽसाधयन्न देवोऽपि भुव्यलं चक्रवर्तिनः ॥१५।। गत्वा च पश्चिमाम्भोधौ प्रभासाधीश्वरं सुरम् । क्षिप्तेनैकेन बाणेन वशीचक्रे स लीलया ॥१६।। ततश्चाऽसाधयत् सिन्धुं सिन्धुराज इवाऽपरः । वैताढ्याद्रिकुमारं च सुरं सुरवरोपमः ॥१७॥ सोऽथ स्वयं वशीचक्रे कृतमालाभिधं सुरम् । सेनान्या तु महानद्या: सिन्धोः पश्चिमनिष्कुटम् ॥१८॥ यथाविधि तमिमां स प्रविश्य च निरीय च । आपातनाम्न: किरातान् निर्जिगाय महाभुजः ।।१९।। पश्चिमं निष्कुटं सिन्धोः सेनान्या स विजित्य च । वशीचकार हिमवत्कुमारं देवविक्रमः ॥२०॥ काकिण्या ऋषभकूटे स लिखित्वाऽऽत्मनोऽभिधाम् । सेनान्या निष्कुटं गाङ्गं प्राचीनं चलितोऽजयत् ॥२१॥ साधयित्वा स्वयं गङ्गां जित्वा विद्याधरेश्वरान । खण्डप्रपाताद्वारस्थं नाट्यमालमसाधयत् ॥२२॥ खण्डप्रपातागुहया वैताढ्यान्निर्जगाम सः । सेनान्या साधयित्वा च गाणं प्राचीननिष्कुटम् ॥२३॥ आवासितस्य गङ्गायां तेऽथ गङ्गामुखस्थिता: । नवाऽपि निधयस्तस्य नैसर्पाद्या: वशेऽभवन् ॥२४॥ पसोऽथ सम्पूर्णचक्रिश्रीराजगाम निजं पुरम् । चक्रे चक्रित्वाभिषेकश्चाऽस्य देवैर्नृपैरपि ॥२५।। षट्खण्डां बुभुजे पृथ्वीमखण्डितपराक्रम: । क्रमेण च परिव्रज्यां भवोद्विग्न: स आददे ॥२६॥ एवं जयस्य कौमारे वत्सराणां शतत्रयम् । तदेव मण्डलित्वेऽब्दशतं तु ककुभां जये ॥२७॥ एकोनविंशतिशती वर्षाणां चक्रिसम्पदि । व्रतकाले तु चत्वारि संवत्सरशतान्यगुः ॥२८।। १. पद्यावत्या: खं.२, पाता. ॥ २. देवत्वम् ।। ३. च ता. ।। ४. सेनान्याऽसाधयच्चाऽऽशु ता. विना ।। ५.३०० वर्षाणि ॥ ६. ३०० ।। ७. १०० वर्षाणि दिविजये ।। ८.१९०० वर्षाणि ॥ ९.४०० वर्षाणि ॥ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदश: सर्गः) २४५ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । 'समासहस्रत्रयमायुरात्मनः स पूरयित्वा परिपाल्य च व्रतम् । घातिक्षयाविष्कृतकेवलो ययौ कैवल्यमक्षीणसुखास्पदं जयः ॥२९॥ इत्याचार्यश्रीहमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये सप्तमे पर्वणि जयचक्रवर्तिचरितवर्णनो नाम त्रयोदशः सर्गः ॥ ॥समाप्तं चेदं सप्तमं पर्व ।। राम-लक्ष्मण-दशानना नमिस्तीर्थकृच्च हरिषेणचक्रभृत् । चक्रभृच्च जय इत्यमुत्र षड् वर्णिताः श्रुतिसुखाय सन्तु वः ॥१॥ १. आयुः ३००० वर्षाणि ।। २. सप्तम० खं.१-२॥ ३.ग्रन्थाग्रं ३८८८ खं.२ ग्रन्थाग्रं ३८८० पाता. ।। Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२३ १६० २९२ २५८ ३२० ३४० २७७ WWM8M ramas د د د १८९ ४२० ५२ ९१ د د د प्रथमं परिशिष्टम्।। ॥श्लोकानामकारादिक्रमेणाऽनुक्रमः।। ॥पञ्चमं पर्व॥ श्लोकः सर्गः क्रमाकः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः अ अकामया निर्जरया १ ४३० अथाऽपराजितो माया० २ अनिवृत्तधनाशौ तौ ४ अकार्षं वार्षिकीमत्र ३०४ अथाऽपरेधुर्विहरन् ४ ३३८ अनुतिष्ठाऽऽत्मनो वाच० २ १७७ अकुलीनस्ततो मन्ये अथाऽपसार्य नीरङ्गी ५ अनुरूपो वरोऽमुष्या० ४ १२२ अखण्डद्वादशविध० ३३७ अथाऽभिनन्दनमुनि० १ अनेकचिन्तासन्तान० १ अखण्डपञ्चसमितिं २ अथाऽर्ककीर्तितनयो १ अनेकदुःखसन्तान० ५ अखण्डमण्डलोद्योती० ५ अथाऽर्हत: पञ्चधात्री० ५ अनेन हि शरीरेण अखाद्यमपि खादन्ति ५ ३३३ अथाऽऽवयोऽ समभव० ३ अन्तःपुरस्त्रीमुखानां ३ अङ्कस्थकल्पलतिका० १ अथाविश्चक्रतुः स्वं स्वं २ १७८ अन्ते चाऽनशनं चक्रे २४६ अगसङ्कोचहल्लास १३८ अथाऽशनिमिवोद्यम्या० १ अन्तेऽप्यात्ता परिव्रज्या १ ४८५ अचिरादप्यपश्याव अथाऽस्य जम्बूद्वीपस्य ४ अन्ते साऽनशनं कृत्वा १ ११८ अच्युतेन्द्रादयो यं च ५ अथाऽस्य जम्बूद्वीपस्य ४ अन्यच्च जम्बूद्वीपेऽस्मिन् ४ २९९ अज्ञात्वा भगिनीमेतां १ अथाऽस्य जम्बूद्वीपस्य ५ अन्यदा चाऽमिततेजा० १ अञ्जलिभिः शृङ्गिकाभि०३ अथेत्थं घोषयामास अन्यदा तूपवासान्ते २ अतः परं क्षणोऽप्येको १ ४३६ अथेन्द्रप्रमुखैर्देवैः ५ २७६ अन्यदा देवरमण अत: परमपि स्वामिन्! ४ अथैकदा घनरथो ४ अन्यदा नन्दनवने १ अतिथीनामिव सदा १ ४१० अथैकदा पुत्र-पौत्र० ३ १९ अन्यदाऽन्यत्र विजये ३०१ अतो भवात् त्वं नवमे १ अदानाभोग्यते चैषां ३८५ अन्यदा प्रावृषि निशि १ अत्यन्तमार्दवान्मृत्वा १ अदान्तैरिन्द्रियहयैः ३२४ अन्यदा रथनूपुर० १५७ अत्राऽन्तरे च पृथिवी० ४ १२७ अदोऽनुकूलं शकुन ४१२ अन्यदाऽर्थोपार्जनार्थं ५ ३८९ अत्राऽन्तरे तस्य पुरः ४ अदोऽर्धपुष्करद्वीपं १८६ अन्यदा विहरंस्तत्र २४३ अत्राऽन्तरे पुन तो ९९ अद्य यावत् तमद्राक्षं ५२० अन्यदा श्रीनदीतीर्थे ४ अत्राऽन्तरे ब्राह्मणेन अद्य सूरनिपाताख्य० ३ अन्यदा सत्ययशसं २८८ अत्राऽन्तरे रत्नमयं ३५४ अद्याऽपराजिताऽनन्त० २ ११० अन्यदा समवासार्षीत् ३ १९३ अत्रापतद्भयामावाभ्या० १ अद्यैव तातपादान्ते ३४९ अन्यदा सागरदत्तं २९२ अत्रोचं गच्छतश्चाऽस्य ४ २२४ अद्यैव दृष्टमस्माभिः २ ७५ अन्यदा सोऽष्टमीचन्द्रो० ५ अथ क्षेमङ्करो लोका० ३ अद्रयोऽमी च वैताढ्या ४ १८१ अन्येधुरभयघोषः ४ अथ गङ्गातटे गत्वा ५ अधिवापि जलक्रीडा २८४ अन्येधुरमिततेजा. १ ४५३ अथ ज्ञात्वाऽवधिज्ञाना० ३ १०४ अधिष्ठितं देवतया २ ३५५ अन्येधुरमिततेजाः १ ४६४ अथ तं कुञ्जरीभूया० २०८ अधिसेहे स हेमन्ते अन्येधुश्च फलार्थं द्वा० ४ अथ तावूचतुर्मोहा० १२९ अधुना प्रविशाम: किं ५ २०१ अन्येधुश्चाऽऽययौ तत्र २ अथ तौ चारणमुनी अधोलोकादथाऽष्टेयु० ५ अन्येद्यु: केनचिद् विद्या०२ अथ द्वादशमासान्ते २९१ अनन्तवीर्य इत्याख्यां २ अन्योन्यं चिच्छिदुः शस्त्रा०४ ५२ अथ द्वावपि गर्जन्तौ अनन्तवीर्यजीवोऽपि ४०२ अन्योन्यस्याऽपि जिहीमः ५ अथ नाटकशिक्षायै अनन्तवीर्यजीवोऽपि ४०६ अन्यो वा पृष्ठतः कोऽपि २ १९७ अथ नैमित्तिको हृष्टः २२२ अनन्तवीर्यजीवोऽपि अन्वर्ककीर्ति समभूत् १ १३७ अथ पित्रा कृते स्नाने अनन्तवीर्यपुत्रं तं अपनिद्रा ततो देवी ५ १०१ अथ प्रियमतिसूनोः १२ अनन्तवीर्योऽपीत्यूचे २ २३२ अपरस्याऽपि कस्याऽपि ४ अथ मेघरथोऽशंस० अनन्तवीर्योऽप्यशिषन् २ ५२ अपरं च तवाऽपीदं अथवैतानुपेक्ष्याऽलं १७९ अनन्तवीर्योऽप्युदाहुः २ अपराजितजीवः सो० ३ अथ व्याकरणादीनि अनन्तवीर्यो व्याहार्षीत् २ अपराजितपादानां अथ श्रीविजय: क्रुद्धः १ ३४६ अनपत्यस्य तस्याऽथ अपरेणाऽपि भोज्येन २६५ अथ श्रीविजयो राजा १ २४० अनभीष्टं करोत्येष अपरेधुर्धमन्ती सा २५६ अथ सञ्चिन्तयामास ५ १३५ अनर्थपरिहाराय १ २२३ अपरेधुर्मेघरथः २५४ अथ सूरनिपाताख्ये ३ १८९ अनासीनोऽशयानश्च ५ २९० अपरेधुर्वसन्तौं १२४ अथाख्यद् भगवान् सत्य०१ ३९४ अनिजितेन्द्रियग्रामो ३४६ अपरेधुर्विमानस्थं ४१४ ४८४ ४८ २७२ ४०४ १३३ २४२ ४०४ ४८४ ma . ३४४ १४७ ६३ ३२१ ७० २०७ ४ १८२ . mmMM Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकः अपरेद्युस्ततः स्थाना० अपरेऽपि दमितारे० अपवादो न दातव्यो अपानघण्टैस्मात्रै सर्ग: क्रमाङः १ २ २ २ १४७ अप्यावां प्रव्रजिष्यावः अभयं याचमानं तं ૪ २५६ १ २६७ अभिमन्त्र्य तयोरेकः अभिषेकोत्सवञ्चाऽभू० ५ २५५ ३८६ ४१९ अभीष्टेभ्यः प्रदास्येऽह० ५ अभीष्टोऽस्म्यहमेतस्या० ५ अभूतां पुंखियौ तत्र अभूतां वणिजी तत्र १ ९२ ४ ९२ २ २ अभूदनिल वेगेति अभ्यधुर्भूभुजोऽप्येव अभ्यस्यतः स्म शस्त्राणि २ अभ्याजगाम निहत० ४ १ अभ्युत्तस्थौ दूरतस्तं अभ्युत्थायाऽमिततेजाः १ अभ्रंलिहाग्रशिखरः ५ अभ्रंलिहाभिः कीलाभि० ५ अभ्रंलिहोऽस्ति मेदिन्याः १ अमरैर्बद्धमुकुटै ० अमरौ रतिसागरावगाहा १ अमी किं पङ्गव इवा० ५ ४ १ अमीभिः सह तद् भोक्तुं ५ अमी वर्षधरा शैलाः अमीषामपि कूटेषु अमुक्तसन्निधिस्ताभ्यां ५ अमोघं तद्वचो ज्ञात्वा अयं च भगवान् धन्य० अयं तु रूपसम्पत्रो० अयं महात्मा भगवा० अयं मेघरथो नाम अयं हि षोडशस्तीर्थ० ५ १ १ ३ ४ ५ अयि द्वीपे जम्बूद्वीपे अयोध्याराजपुत्राभ्या० ४ अरे! किमेतदारब्ध अरे! युध्यस्व युध्यस्व अरे! रे! कोऽयमायातो ५ ५ अरे! रे! न भवस्येष १ अरिव सहस्रेण अर्क कीर्तिर्दुहितरं अर्ककीर्तेरभूत् पत्नी अर्कप्रभोऽथाऽकरथो अर्चन्ती केसरां तत्र अर्थसंम्रितसंव्यानं अर्थे तयोरसम्पन्न ० अर्धे च दक्षिणे तस्य अर्हतः समवसृतान् अर्हतोऽर्हजनन्याच ५ १ १ ५ १ १०१ २०१ २०३ १२६ ४ ५ २९४ ३९१ ३५ ५७ १७३ ४६९ २२४ ४१ ९८ २५४ ४९३ १७७ ५२९ १८० १८२ ३७७ ४८१ ४३९ ४७ ३८ ३२० १३९ २६९ १०२ २२३ २१२ १७४ २८० १२९ १५४ १४० २९७ ४१० ३२७ ४४३ ४ २१८ ९६ श्लोकः अलमालापविघ्नेन अलिदष्श मर्कटीव २ सर्गः क्रमाङ्कः ५ अनन्यास अवश्येतां तो वि अवदद दमितारिस्तं अशक्यो विषयोऽस्प्रष्टु० ५ अशाम्यन्नशिवान्यस्मिन् ५ १ अशूकलान् शूकलांश्च २ अशेषं तं च वृत्तान्त० अश्रद्दधानस्तां वाचं अश्वघोषः शतघोषः ३ अयुः पूर्वरुचकाद् अष्टोर्ध्वलोकादेयुर्दि० असावनन्तवीर्योऽह० असुराचमरस्येव ५२५ ५१९ ९६ ९० २३७ ३४८ १०४ ३९ ३६८ २१ ३२३ ५७ ५६ २०२ ११२ ४९८ ५ २ २ ४ ३ ८० ३३८ असी वसन्तदेवोऽस्मि ५ अस्खल्यमानप्रसरे: अस्तुङ्कारस्तद्वचसः ३ अस्त्यस्य जम्बूद्वीपस्य ३ अस्त्रागारे चक्ररत्न० अस्त्रैरस्त्राण्यखण्ड्यन्ता० ४ ४६ अस्त्रैः शस्त्रैर्मायया च अस्मत्सीमानमुत्सृज्य अस्मादह्नः सप्तमेऽह्नि अस्मानाकाशयानेन अस्मिन्नेव जम्बूद्वीपे अस्मिन्नेवंविधेऽपारे अस्याः पलायितः सद्य: ३ अस्याः प्रतिदिशं चाऽर्ध० ४ १ ४ ३२ १ १८२ २ ९० ४ ८१ ४ ३४७ १०० १७८ अस्यैव जम्बूद्वीपस्य १ ३ अस्यैव जम्बूद्दीपस्य ३ १ ३ अस्यैव जम्बूद्वीपस्य अस्यैव जम्बूद्वीपस्य अस्यैव जम्बूद्वीपस्य अहं तु प्रव्रजिष्यामि अहं वां प्राग्भवे माता अहमात्मानुभूतत्वात् अहिता मोहिताः सद्य ० अहो! एषामनालोच्य० अहो! किमिदमस्माक० ५ आ आकर्ण्य कर्णकटुकान् २ आकर्ण्य कर्णपीयूष आकर्ण्य देशनां तां च ५ ४ आकर्ण्य रत्नवृष्टिं ता० २ आकाशभाषणैर्देवो० २ आखुम्रग्मालिनः केचित् ४ आख्यन् मुनिरपि द्वीपे ४ आख्यन् मुनिरिति द्वीपे आख्यन् मेघरथोऽप्येवं ४ २ ४७ ४९ ९१ १०५ १०८ ५ ३८७ ४ १४५ १ १२५ ५ ५१२ १ ३५५ १७८ १७९ २१४ ३६० २२३ ३४२ १२८ २०० ११६ २५२ २३० लोकः आख्याते च तया स्वप्ने आगच्छतः प्रतापोष्ण० आगत्य चमरस्तत्र आमरिष्यामि सुकृतं आचख्यौ कपिलस्तस्मै आजन्मज्ञानवृद्धोऽपि आत्मानुरूपे तनये आत्माभेदेन मामद्य आदत्स्व वत्स! भूभारं आददाते परिव्रज्यां आदाय कोऽप्यरेमलिं सर्गः क्रमाङ्कः २ १ आयुधाकर्षणे रक्ता आयुध्यमानयोरित्थं आयुः क्षये च प्रथमं आयुः क्षये वपुरपास्य आयोजनविसर्पिण्या २ १ १ ५ आदाय दात्र- परशू २ आदाय विविधं भाण्डं आदित्सेयं करेणेन्दौ आ देवेन्द्रादा च कीटाद् ५ आनन्दरभसोद्भ्रान्तो ५ आनर्च च ववन्दे च १ आपतत्यपि तत्रेभे आसीत् तत्रैव नगरे आसीत् तदा नौ सङ्केत० आसीदनन्तवीर्योऽपि ४ १ १ ४ आपदं मरणान्तां तां २ आप्लाव्यमानं सलिले० ५ आभोगिन्या ततो ज्ञात्वा ३ आमेत्युक्तवति श्येने ४ आमेत्युक्ते जम्बुकाया० १ आमोदमेदुरस्मेर० आयतनेष्वार्हतेषु ५ १ आयातं स्वामिनं ज्ञात्वा० ५ २ ૪ ३ ४ ५ ५ आरभ्य केवलाद् वर्ष ० ५ आरभ्य चक्रवर्तित्वा० आरात्रिकमथोत्तार्य आराहस्तान् हस्तिपकान् ५ आरुह्याऽम्बरतिलकं ४ आरुह्याऽशोकवृक्षं स ५ आरूढकरिण: केडमी आर्त्तध्यानं प्रपन्नौ च आर्त्तध्यानोद्भवं कर्मा० १ आवयोः प्राक्तनान् सम्यग् ४ आवेग विस्मय ब्रीडा० २ ५ ४ १ ५ आ शक्रादाकृमेः प्राणा: आशातनाभीतभीता आर्यभूतमेतस्या आसीच्च तद्गृहासन्न० २ १ आसीच्च बलदेवस्य २ ३ २ २ ३६३ ३५३ ४०१ ७३ ३८ १०६ २७५ ३४८ ३४५ २४४ ३३४ ४०८ २९४ १७१ ३३८ १०२ ४११ ४६८ ३७८ २१५ १०२ २७५ ४८ ३६ ४४६ १५८ १३२ ७८ ३९७ २२७ ३४० ५३८ २६६ ८४ ४६६ ३५७ ४५० १७६ १६५ ३९९ ११५ १८१ २२५ १०७ ३४३ २१२ ३३५ १०७ ३८१ १८३ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः २१३ आस्थानीमन्यदाऽऽस्थाय २ आहत्याऽन्योऽन्यमद्यैवा०३ आ: पापौ किमिहारब्धं ३ १९१ १४८ ३१३ २३९ १०७ ८८ २४८ wor.. ३०५ २०५ १५९ ८१ १७६ ३०८ ३७३ १३१ ४९६ ३८६ for १६० ७४ १२० १८४ ६० १८४ १४९ स्मन् २ २९० १५२ ११९ १२९ ३८ ४५९ २७४ swap ७८ २८६ ४४२ ४९ १६६ १९७ ४४१ १३४ १६८ २०४ १२६ उत्पन्नकरुणैस्तैश्च उत्पन्नकेवलज्ञानो उत्पन्नचक्रो विजित० उत्पन्नावसुरत्वेन ३ उत्पपात विमानं त० उत्पेततु: पेततुश्च उत्सङ्गस्थितपुष्पम्र० उत्सृज्य सहजं मानं उदारुचकतोऽप्येत्य उदधिलवणोदोऽयं उद्दिश्य वरदामान० उद्भामा सत्यभामोचे उद्भ्रान्तयोरिवाम्भोध्यो० ४ उद्याने कनकशक्ति० उद्यौवन: पर्यणैषीत् उद्यौवनावेकदा तौ उद्यौवनां रूपवती उन्नालमुकुलीभूत उन्मत्त इव दत्तोऽपि उपपन्नमिदं तेषां उपर्यनन्तवीर्यस्य उपशान्तो दानधर्म० उपसर्गपरीषहै० २ उपसर्गान् सहिष्येऽह० ३ उपादत्त परिव्रज्यां उपाया एव युज्यन्ते० उपायाभावतोऽप्राप्ये उप्ता: प्रभाते मध्याह्ने उभयोरपि वैताढ्य उभे नाटककारिण्यौ उभौ लोकौ सञ्चरामि २ उल्ललन्तो दुर्ललिता: ५ उष्ट्रग्राङ्काररावैश्च २४ इत्युक्तोऽनन्तवीर्यस्त० २ इत्युक्तो विष्णुना दत्ता० २ इत्युक्तो विष्णुना दूतो २ इत्युक्त: कान्तया राजा १ इत्युक्त्वा नारदमुनि० २ इत्युक्त्वा मुक्तसन्नाहौ १ इत्युक्त्वा यावदात्मानं ५ इत्युक्त्वा शक्रमहिषी २ इत्युक्त्वा साऽर्पयामास ५ इत्युत्पत्तिं विपत्तिं च ३ इत्युदित्वा जग्मतुस्तौ १ इत्युदित्वा नमस्कृत्य ५ इत्युदित्वा नृपं कृत्वा ४ इत्युदित्वा सोऽश्वघोषं १ इत्युदित्वा स्थिते तस्मिं० १ इदं चमरचञ्चायां इदमौपयिकं तस्मात् १ इदानीमनुभवितुं इदानीं नारकं जन्मा० ४ इन्दुलेखामिवाऽहःस्थां इन्दुषेण-बिन्दुषेणा० १ इन्दुषेणो बिन्दुषेण० इन्द्रजालमिवाऽसारं इन्द्रनीलावनीकानि इन्द्रस्येव मुनीन्द्रस्य इन्द्रियैर्विजितो जन्तुः इन्द्रियैः स्वार्थविवशैः इमान्यायतनान्युच्चैः इमां धरित्री विहरन् २ इमां पाणिगृहीती स्वां इमे च ते बर्बरिका २ इयं च जगती जम्बू० ४ इयं प्रतारणी विद्या १ इयं हि साधयन्त्यासी० ३ इष्टेभ्यस्तानि दास्यामी० ५ इह मर्त्यत्वमाप्तस्य ३ ३० ११३ ३१० ३७५ १२३ १९ ३६६ ३७० २४९ ३१९ १६६ २४० ११८ ४२१ १४३ २०३ AWA0000 १८९ इतश्च गत्वैतौ भोग० ४ इतश्च चमरचञ्चा० इतश्च चमरचञ्चां इतश्च जम्बूद्वीपेऽस्मिन् २ इतश्च जम्बूद्वीपेऽस्मिन् इतश्च जम्बूद्वीपेऽस्मिन् ४ इतश्च तत्रैरवते इतश्च निर्ययौ पुर्या इतश्च मशकासारे इतश्च सर्वार्थसिद्धे इतश्चसुस्थितावर्ता० इतश्चऽत्रैव भरते १ इतश्चऽन्ते त्रिपृष्ठस्य १ इतश्चऽश्वग्रीवसुतौ इतश्चऽस्तीह भरते इतस्त्तश्च क्रीडन्त्यौ २ इतः पर्या: समादाय इत: वनगरं गत्वा इति यं समालोच्य इति श्चित्य मनसा इति श्चित्य सर्वेऽपि ५ इति र्वभवान् श्रुत्वा ४ इति घरथेनोक्त० ४ इति त्रज्ञपयन्तस्ते इतित्वाऽमिततेजाः १ इतिाञ्चिन्तयन् स्वस्थ: १ इतिगाटोपमुक्तास्तै० ५ इति तुत्वेशमीशानात् ५ इतोश्वात् त्वं नवमे इत्थभ्यर्थितस्ताभ्यां ४ इत्थाख्यानपूर्वं तौ ४ इत्थंच नाना तौ यावत् ३ इत्थंच निर्भरं वारि ३ इत्यत्यहमन्योऽन्यो० ५ इत्पन्नातध्यानौ ४ इत्भरतपट्खण्ड० ५ इत विचित्रं निघ्नन्त० ५ इत विचिन्त्य स द्वीपे इचिन्तयतां याव० २ इतकर्ण्य गिरं हृष्टः ५ झाकर्ण्य वचस्तस्या २ झाकर्ण्य स्वमायुस्ता० १ झादिकं धर्मबुद्धया १ यादीनां स्वपुत्राणां १ युक्ताऽनन्तवीर्येण युक्ता निजनेपथ्यं ४५५ २०७ १५७ ३६ १५० २३८ २६९ ४५७ २२० १७९ ० ३२४ ० ११५ ७८ ९३ ४२० १७५ १८३ २८५ १८४ ३ १८७ २११ ६४ ऊचे कनकशक्तिस्तं ऊचेऽपराजितो भद्रे! ऊचे प्रियङ्करा तां च ऊचे मेघरथोऽप्येव० ऊचे मेघरथ: पूर्व० ऊचे सत्यकिरप्येवं १६७ १७९ ४१५ ३ ४ ४ ९२ ३२३ १०६ ईदृग् भूयो न तत्कार्य० २ ईशानेन्द्रमहिष्यौ च ४ । ईशानेन्द्रसभां गत्वा ईशानेन्द्रस्तदानीं च ईशानेन्द्रः शशंसैव० ईषद्बद्धे च तत्पाशे १८३ २२० ३१७ ३१९ ४४९ १३५ ___ wr wa ऋजुर्भद्रस्वभावा च ३ ऋद्धिप्रणाशेष्टवधा० २ ऋद्धया महत्या विवाहे ४ १३० ९२ ३०८ २६५ ४८० ४१३ २९८ १९८ ११३ उग्रैस्तपोभिर्ध्यानेन ३ १३३ उत्कृत्योत्कृत्त्य मांसं स्वं ४ २७६ उत्खन्यमाने पिच्छेऽपि ४ २६१ उत्खातदन्तिदन्तेन उत्ततार तरङ्गिण्यौ उत्तप्तस्वर्णवर्णं तं ३ १८१ ।। २२४ एकच्छत्रमिवच्छाया ३ एकदाऽनुज्ञयाऽऽर्याया० १ एकदा पर्यटन्तौ तौ ४ एकदाऽप्यच्युतेन्द्रोऽसि ५ एकदा राक्षसस्तत्र १ ८९ २०४ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक: सर्गः क्रमाङ्क: श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्ग: क्रमाङ्क: ८४ २१९ २९३ ३४२ २८५ १५४ १९४ २२ ८९ ३६२ ४९० ८६ १६१ २४२ ३५ १७० ३२८ ४५० १७५ ४९७ ६२ २ ३७९ ३१० १६२ १५८ ३४ १६५ १३८ ४२ । २७२ १८० wwwwww ४७० २१० orum १६८ ४३५ २८१ २५७ १९५ ३१५ १५० २०२ २१७ ३२० १४१ . एकदा राजसामन्ता० ३ एकदा समवासार्षी० ३ एकदा स वसन्तौ एकदा सा निशाशेषे २ एकाकिनी प्राविशत् सा ५ एको विद्याधरयुवा ३ एतत् तु कुक्कुटौ श्रुत्वा ४ एतत्पादानुपाध्वं त० २ एते वयमनेनैव ४ एत्य भक्त्याऽभयघोषः ४ एनं क्षमयतं त्यक्त्वा० ३ एला-लवङ्ग-कक्कोल० २ एवमन्योऽन्यमालप्य ५ एवमन्योऽन्यमुक्त्वा ते ५ एवमस्त्विति तद्वाचा २ एवमस्त्विति तेनोक्ते १ एवमस्त्विति राज्ञोक्ते ४ एवमाकर्ण्य सोऽमूर्च्छ० ५ एवमाक्षिप्य कृष्टासी एवमाभाषितस्तस्थौ एवमालोडितास्तेन एवमाश्वास्य कनक० २ एवमुक्तस्तेन दूतो १ एवमुक्तो दमितारि० एवमुक्त्वा गृहोद्याने . ५ एवमुक्त्वा नमस्कृत्य ५ एवमुक्त्वा विसृष्टा सा ५ एवमुक्त्वा स्थितान्म्लेच्छान् ५ एवमुत्पन्नसन्देहः एवमुद्धोषणां कृत्वा २ एवं घनरथेनोक्तं एवं च नानाक्रीडाभिः एवं च मन्यमाना सा एवं च वर्तमान: स १ एवं ताभ्यां बोधितौ श्री० १ एवं दिने दिने गच्छ० ५ एवं नरेन्द्रतोषाय ४ एवं वसन्तदेवस्तां एवं वज्रायुधगिरा एवं विचित्रगोष्ठीभिः एवं विमृश्य पुत्रं स्वं एवं विषय एकैक: ५ एवं सकिञ्चना किञ्चित् २ एवं स्थितास्ते सम्भूय ५ एषणीय-कल्पनीय० एष रक्षामि ते प्राणान् २ एषा मम ममैषेति एषोऽस्मि शासनधरः ५ ५२६ कण्डूयित्वा तुण्डमिव १ कनकच्छेदसङ्काश० ५ कनकश्रीरथाऽऽपृच्छत् २ कनकश्रीरप्यवोचत् कनकश्रीरश्रुमुखी कनकश्रीर्जगादैवं कनकश्रीभाषेऽथ कनकश्रीर्भवं भ्रान्त्वा कनकश्रीविपद्याऽहं कनकश्रीस्तत: सद्यो कनकश्रीस्तमाकर्ण्य कनिष्ठोऽनन्तवीर्योऽभूद् २ कन्यका वर्धते यस्य कन्यां मुक्त्वा स ववले ५ कन्यां वेगवतीं नाम ४ कन्यां सुमतिनामानं ४ कपिल: सत्यके: पाठ कपिलोऽपि जगादैवं कपिलोऽप्यतिमेधावी १ कपोत-श्येनवृत्तान्त० ४ करभोळं मृगीजवां २ करास्फोटकरा: केऽपि करिष्यति तपो रत्ना० ३ करिष्यति महानर्थ० २ कर्मच्छिदे बद्धयत्न. कर्मणां घातिनां घातात् २ कर्मणां घातिनां घाताद् ३ कर्मणां घातिनां छेदात् १ कलङ्कः खलु धर्मस्य २ कलाप्रकारान् विविधान् ४ कल्पद्रुममिव प्रेक्ष्य कषायादिमलालीढं काकिणीरत्नमादाय ५ काचिदालीजनालाप० ४ काऽपि मिथ्यापरिक्षिप्त० ४ कामदेवं कामपालो कामशास्त्रकथालापं ४ कालान्तरेण क्षपक० २ काले च सुषुवे पुत्रं ५ काले च सुषुवे सूनुं २ कालेन च ततश्च्युत्वे० ३ कालेऽप्यमुञ्चतां नोक्ष्णो ४ काले सा सुषुवे पुत्रं ३ किञ्च कोऽप्येष मायावी ४ किन्त्वहं चमरचञ्चा० किन्त्विदानीं शुभां यामो २ किमतोऽपि घृणास्थान० ५ किमेतदिति सम्भ्रान्ता ५ कियद् वा वर्ण्यतेऽस्माभि:२ किं नु च्यवनकालो मे ? ५ १४६ १९५ ३१४ २४९ ७७ किं विद्याभि: किमोजोभि:२ कियन्तमपि कालं सा २ कीदृक्षो दमितारि: स २ कुञ्जराभ्यां पूर्णकुम्भ० २ कुण्डाविव च्छन्नवही २ कुतीर्थिगोष्ठीमुज्झन्तौ १ कुतोऽयमिति साश्चर्या कुपितो नारदोऽप्येवं कुमारं सपरीवारं कुमारोऽपि जगादेवं कुमुद्वतीर्मोदयते कुक्कुटत्वे त्वहरह० कुलघाताय पाताय कुलीनं श्वशुरं ज्ञात्वा कूटतुला-कूटमान० कृतनिष्क्रमणोऽनन्त० कृतनिष्क्रमण: सोऽथ कृतपारणकोऽन्यत्र ४ कृतान्त इव सन्नद्धः कृताकृतनिदानौ श्री० कृताट्टहासा: केचिच्च ४ कृत्तिकापुरवास्तव्यः कृते मदनमञ्जर्या० १ कृत्याद्वयमिदं वां हि कृत्वा च पारणं तस्य २ कृत्वा निदानं तस्याऽपि १ कृत्वाऽष्टमतप: सोढु० ४ कृष्यमाण: करे गोलो १ केनाऽपि हेतुनाऽमुष्यां केषाञ्चिद् बाहव: पेतुः ५ केसरामातुलसुता केसरायास्तु सम्प्राप्ता० केसरा युगपदपि ५ कैलासधवलो हस्ती कोटिशो वैरिकुट्टाका कोपानलानिलप्रायं १ कोऽपि नाऽस्तीह विषयो ५ कोऽपि युद्ध्वा चिरतरं १ कौतुकात् तं गिरिं पश्यन् २ कौमारे मण्डलीकत्वे क्रमादुद्यौवनौ तौ च ४ क्रमेण यौवनं प्राप्तं क्रमेण वर्धमानास्ते क्रमेण ववृधे सोऽथ २ क्रियमाणाभिषेका च ५ क्रीडागिरि-सरिद्-वापी०२ क्रीडाभिर्विविधाभिस्तौ ४ क्रीडोद्यान-सरिद्वाप्या० ३ क्रुद्धावथ कुमारौ ता० ४ क्रोध-मान-माया-लोभा:५ MMMMomrm3 २३६ ३६२ ३०८ २६० ४७६ ४१६ १६८ m mr mor mmmma wwmov० ४८६ १३१ २०४ ४३० WW००४ ३५६ wwse १३९ ३३६ २४८ २९८ ५४१ १४४ ९५ १३२ ३४४ ८८ २७१ ४०९ ४०२ ३०० २०९ ४४७ ३१ ३७४ २८१ ३८५ ३१७ ३२८ २६८ १६१ १३६ २९१ ११२ ४८ ३२१ कण्डनं पेषणं वारि०२ २५४ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाक्षः १०८ छेदं छेदं च तान् श्रान्तो १ ३५२ २४९ २२६ १८७ १८८ गृहभारमिव स्तम्भेष्व० २ गृहीतं श्रुतमात्रेण गोशीर्षचन्दनं क्षुद्र० ५ गोशीर्षचन्दनैः पद्य० ५ ग्रहेषु चोच्चसंस्थेषु ग्रामाकर-पुर-द्रोण० ४ ग्रामाणां पदिकानां च ५ २८२ २२५ २८३ ८७ २६८ २६२ ३६४ २५० १५७ २८० क्व क्व जन्मनि नाऽभूस्त्वं ५ क्वचिद् वक्र: क्वचिद् ऋजु १ क नागराजो भूधर्ता ५ क्व वा नाटकशिक्षायै २ क्व वा युवाभ्यां सद्योऽपि २ क्व स ज्वलन उज्ज्वाल:?१ क्वाऽपि दृश्य: क्वाऽप्यदृश्य:१ क्वाऽप्युन्नमन् नमन् क्वाऽपि३ कैष चक्रधरस्तीर्थ० ५ क्षणमस्थामहमिह क्षणाद गत्वा मेरुशैले ५ क्षणिक क्षणिकावत् त० १ क्षमयित्वा मेघरथं क्षरन्मदजलामोद० ५ क्षीणोपायविशेषाणां क्षुत्पीड्याऽदितोऽहं तु क्षुद्रमेरी चैता० क्षुरैस्तत्क्षतुः पृष्ठा० क्षेमङ्करकुमारेणे० २२७ १७० ७६ ४७७ धर्मोदबिन्दुभिरिव घोरसंसारभीतानां घोरैर्गदाप्रहरण घ्राणदेशमनुप्राप्ते ३१५ ३३१ ३९८ १५ ११९ १२१ ३५३ च ३३५ २८ २०६ २६९ २३४ १४० १६३ ४११ ४०६ ८२ ३२९ ६१ २३८ ३६७ १२२ ११६ खण्डिरेशनिघोषै० १ खनित्व विवरं द्रव्य० ५ खुरैरथ वेषाणाभ्या० १ ५४३ ५३६ ३१६ ३५० ३३२ ३५९ ५५ ६२ २४५ ३४९ ५३४ २२५ जगदुर्यावदेवं ते ४ ४ जगद्द्योती क्व मार्तण्डः ५ जगादाऽनन्तवीर्योऽपि २ जग्धेनाऽप्यमुना तृप्ति० ४ जज्ञाते समये तस्याः २ जज्ञे महात्मनस्तस्य २ जनन्या च मुखविश० ५ जन्मोत्सवादप्यधिके० ३ जम्बूद्वीपे प्राग्विदेहे जम्बूद्वीपस्य भरते जम्बूद्वीपस्याऽस्य महा० १ जयत्ययं महादेव्याः ४ जयन्तिदेवहस्ताब्जात् ५ जयन्तीवासिनं तत्र ५ जयो यद् बाहुबलिनि ५ जलकेलिपरिश्रान्ता ३ जलक्रीडाकराघातै० ३ जातवैक्रियलब्धीनां ५ जानासि सर्वं सर्वेषां जितान्यक्षाणि मोक्षाय ५ जिता हृषीकैरत्यन्तं जितेन्द्रियो मन:शुद्धया जिनेन्द्र-जिनजनन्यो० ५ जिनेन्द्र-जिनजनन्यौ० ५ जीयते यदि कस्याऽपि ४ जीवस्तु सत्यभामाया १ जीवामो याचितेनैव १ जीवोऽपि सत्यभामाया १ जैत्रं रथं मेघरथं जैने धर्मे विधातव्यो १ ज्ञातस्त्वया श्रीविजयः १ ज्ञात्वा चाऽवधिनाऽऽयातं ५ ज्ञात्वा चाऽऽसनकम्पेन ५ ज्ञात्वाऽर्ककीर्तिरायातं १ ज्ञात्वा श्रीविजयानीका० १ ज्ञात्वा स्वार्थनिमित्तेन १ ज्ञानत्रयधर: शान्ति० ५ ज्ञानत्रयेण जानाति ज्ञानिना लग्नमासूत्र्या० ४ ज्येष्ठकृष्णचतुर्दश्यां ज्येष्ठा पुंनट्युवाचैवं २ ज्येष्ठं बन्धुमिवाऽजनं १ ज्योतिष्प्रभां त्रिपृष्ठोऽपि ज्वलन: कर्मकक्षाणां १ ट टकप्रहारवद् वजे ४२१ २६३ रव्यग्र० ४ चक्रतुम्बाग्रघातेन चक्रभृत् पुनराचख्यौ ३ चक्रमार्गानुग: स्वामी चक्ररत्नानुगः सोऽथ चक्रं तन्मुञ्च मुञ्चेदं चक्रायुधादिगणभृत् चक्रायुधोऽपि ववृधे ५ चक्रिरे केवलज्ञान० ३ चक्रे शान्तिजिनस्य मोक्ष० ५ चतम्रो रुचकद्वीपा० ५ चतुरश्च महास्वप्नान् चतुरोऽपि द्विधा चक्रे १ चतुर्दशपूर्वभृतां चतुर्दशमहारत्न चतुर्दश महास्वप्नान् चतुर्दशानां सम्बाध० ५ चतुस्त्रिंशदतिशयै० ५ चतुःषष्ट्या सहस्रैश्चा० ५ चतु:सहघ्या राजीनां ३ चत्वारि च सहस्राणि ५ चर्मवत् पाणिना स्पृष्ट्वा ५ चलितासन: प्रभास० ५ चित्ते भवसि सर्वेषां चिन्तयित्वेति सहसा चिन्ताप्रपन्नां तामेवं चिरं तौ दन्तिनौ कृत्वा ४ चिरं मिथ्यात्ववानस्मि ३ चिरं युद्ध्वा विपेदाते ४ चेटिकाभ्यां समंताभ्यां २ चेटिके प्रेषयिष्याव २ च्युत्वा च नन्दितावर्तात् २ च्युत्वा ततोऽभयघोष० ४ च्युत्वा विमानात् सर्वार्थात् ५ च्युत्वा श्रीषणजीवोऽपि १ ४२७ ३५६ २९६ ३०१ २५७ २०१ ५३५ ३९८ १८० १४६ ४२ ४५८ ३१२ १५० २९४ १५९ ३२२ १८८ २१८ १४७ २१ गच्छन्नाकनकगि० २ गजरत्नसमारूढः ५ गतिर्मे खलिता केने० ४ गत्वा ऋषभकूटाद्रौ ५ गत्वा तद्वचोऽशसंत् ५ गत्वा याणैरव्यग्रै० गत्वा सन्तदेवस्या० ५ गन्धेभान्धमाघ्राय गन्धोकं च ववृषू गरुडादचारीव गर्भस्पयामिहाऽपश्यत् १ गर्भस्ऽस्मिन् यशोमत्या ५ गर्भस्ऽस्मिन् विशेषेण २ गर्भसितेऽस्मिन् यं स्वप्ने ३ गलत्रागकणिका० ३ गले युध्यमानानां ५ गामोर्य-धैर्य-शौण्डीर्य०२ गायत्यावथ नृत्यन्त्यौ २ गिरंद्रशिखराकारा० ३ गिरवज्रीव वज्रेण ३ गीत्स्यैस्ताण्डवैश्च ५ गुगे मदभिप्राया० गुा खण्डप्रपाताख्या० ५ गाया उत्तरद्वारं गाया निःसृतं तस्याः ५ एकोपः प्रभविष्णु० १५४ ४९२ ६५ २९९ १९६ ११७ २७१ २५ १३४ १०३ १११ २८६ १७३ १२६ ६९ २६५ १५४ १५५ ४३८ ४३७ २४३ १४१ ३३४ १७३ १०४ छत्रस्य दण्डमूले च ५ २१९ छादयन्नन्तरं गङ्गा० ५ २३७ ढौकने मम ढौकन्ते ३८२ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्क: २०८ १२८ २९५ १५२ २११ ३०६ २५ ३९६ ४८७ २१८ २२६ १६१ ३६० ११८ ४५३ १२ १९८ २८१ Mm3r333 3r»or or mrror ९. ०० १३५ २५७ ३५१ २२८ २४५ ४८६ १९४ ६८ २९५ ३८९ तच्चक्रमस्त्रशालायाः ५ तच्चर्मरत्नं ववृधे तच्चैत्येषु प्लुष्यमाण० ५ तच्छ्रुत्वा तस्य माता तु १ तच्छ्रुत्वा वचनं राज्ञो ४ तच्छुत्वा हरिणं मुक्त्वा १ तडित्तेज:समोद्योता तत ईषत्प्राग्भाराख्यं ततश्चचाल तच्चक्रं ततश्च तत्र सीमाद्रौ ततश्च ते नटीपात्रे ततश्च दयितोदन्तं ततश्च दिक्कुमारीणा० ततश्च धरणिजट: ततश्च पौरुन्निद्रै० ततश्च मन्त्रयित्वा ता० २ ततश्च मन्दिरपुरे ततश्चमरचञ्चायां ततश्च मुदितो राजा ततश्च मेघसेनेन ततश्च रथमारुह्य ततश्च राज्यगुप्तर्षि० ततश्च शस्त्रावरणी ततश्चाऽचिन्तयमहं ततश्चाऽनन्तवीर्योऽपि २ ततश्चाऽमिततेजास्तं ततश्चाऽशनिघोषस्य ततश्चैत्राश्विनयोस्तौ १ ततश्चोद्धाटयामास ततश्च्युत्वा स ईशानो ३ ततस्तावमिततेजो० ३ तत: कनकशक्तिस्ता० ३ तत: पवित्रमानिन्य० ३ ततः पृथक् पृथग् यक्ष० ५ ततः प्रतारणी विद्या तत: प्रतिनिवृत्तः सन् १ ततः प्रबुद्ध: कनक० ३ तत: प्रभृति सा कर्म० २ ततः प्राग्जन्मसम्बन्धात् १ तत: प्राग्जन्मसंस्कारात् १ तत: प्राणिवधं मुञ्च ४ तत: श्रीविजयोऽशंस० १ ततः स आख्यदशनि० तत: सर्वाभिसारेणा० १ ततः सुतारादेव्योक्तं १ तत: स्थानादृषिरपि २ ततः स्वयम्प्रभमुनि० २ ततोऽचलितयोः क्रोधात् २ ततो ज्ञानत्रयधरो २१९ १७६ ततो दृढरथोऽप्येवं ४ ३४६ ततो द्वादशयोजन्यां १३४ ततो नरेन्द्रैर्भूयोभिः ४४३ ततो नवसु मासेषु ततोऽनागतमेवावां ४७८ ततोऽनुगन्तुं दयितां २६४ ततोऽपि मृत्वा सौधर्मे १ ततोऽप्युदूहुः पूर्वत्र २७८ ततो मयाऽमुच्यताऽयं ४ २२८ ततो मागधतीर्थाभि० ५ १३३ ततो मुनिं प्रणम्य श्री० १ ४२५ ततो मेघरथो राज्यं ३५० ततो रथस्थो ववले २४० ततो वर्धकिरत्नेन ५ १६९ ततो विद्याधरबल ३०० ततो विद्याधरेन्द्रास्ते २ २४३ ततोऽस्माभिरजानद्भिः ५ २३४ तत्कालमपि राजान० ४ १३१ तत्कालोत्फुल्लवदना २९६ तत्क्षीणेषु कषायेषु ५ ३२२ तत्तत्सट्टनोपायैः १२४ तत्तीर्थजन्मा गरुड ३७३ तत्तीर्थजन्मा निर्वाणी ३७५ तत्तु सिंहासनं तस्मै तत्तु सिंहासनं त्यक्त्वा २ ६९ तत्रिपद्यनुसारात् ते ५ ३६८ तत्पादमूले जग्राह ४१५ तत्पुत्रा मेघघोषाद्याः १ ३२४ तत्पृष्ठतश्चोरुगदा० ३ तत्पृष्ठे खड्गफलक० ३ तत्प्रभावात् पारणके २२६९ तत्प्रभावेण सञ्जात० तत्प्रशान्त्यै जनश्चक्रे ४७ तत् प्रसद्याऽनुमन्येथां २ ३१५ तत्यजुः केचिदस्त्राणि १९१ तत्र क्षेमङ्करो नाम ३ ३ तत्र च भ्रामरी विद्यां तत्र चर्षभनाथस्य ३७२ तत्र चाऽमितयशसं . १०२ तत्र चाऽवतरन्तीस्ता: ३ २१४ तत्र चाऽशेषपौराणा० १ तत्र चाऽऽसीन्महर्डीनां २ २९२ तत्र चूतनिकुञ्जान्तः ५ ४६० तत्र चैत्येषु चक्राते ४८७ तत्र चैत्येषु भूमिष्ठा तत्र चैत्रे चाऽश्विने चा० १ ४६१ तत्र पर्यटता तेन ३ ११४ तत्र प्रदक्षिणीकृत्य ५ ३०२ तत्र प्रदक्षिणीकृत्य ५ ३०९। तत्र मेघरथस्य द्वे ४ ३० तत्र विद्यद्रथो नाम ४ तत्र व्यवहरन्तौ तौ तत्र शान्तिमती मृत्वे० ३ तत्र श्रीषेण इत्यासी० १ तत्र सागरदत्तोऽभूत् ४ तत्र साङ्गचतुर्वेद० १ तत्र स्थिताभ्यां ताभ्यां तु ५ तत्रस्थेन जग्रसे च १ तत्राऽट्टपङ्क्तौ लक्ष्यन्ते ५ तत्राऽऽदौ केशरियुवा २ तत्राऽऽदौ प्रेषितैर्वीर० २ तत्राऽद्रावुत्तरश्रेण्या तत्राऽन्तर्नन्दनवनं २ तत्राऽपि चाऽतिमात्रेण ५ तत्राऽपि सर्वधर्मेषु २ २ तत्राऽप्यभाग्यादप्राप्त० १ तत्राभूच्च तदा दिव्यं २ तत्राऽभूज्ज्वलनजटी १ तत्राऽमलशिलासीनं २ तत्राऽऽलापेषु चित्रेषु ३ तत्राऽशनादि कृत्वा तौ ५ तत्राऽशोकतले सार्धं ४ तत्राऽशोकद्रुमस्याऽधो ५ तत्राऽस्ति नगरं शक्र० २ तत्राऽस्ति नगरी रत्न० ३ तत्रैक: सचिवोऽवोचद् १ तत्रैव वैताढ्यगिरा० ३ तत्रैवैरवते स्वर्ण तत्रोद्यानेषु राजन्ते तत्रोपरितने रत्न तत्रोभावपि सन्नद्धा० १ तत्सद्मनोऽपरेधुश्च तत् सप्ताहं पुरेऽमुष्मिन् १ तत् स्वामिन्ननुमन्यस्वा० ३ तथा च तं स्तम्भमिव ३ तथाऽपि हि जगन्नाथ! ५ तथा भवे जन्मजरा० ५ तथाऽमलशिलासीनं २ तथा रूपमभूत् तस्य १ तथास्थितं च प्राग्जन्म० २ तथा ह्यत्रैव भरते तथेति प्रतिपद्योभौ तथेति प्रतिपेदानां २ तदमोघं वच: पत्यु: तदर्पयस्व नेपथ्यं तदलं सखि! खेदेन तदा च कपिलजीवो तदा चक्रायुधं नृपं तदा च क्षणमुद्योत. तदा च चारणमुनी० ३५८ ४६२ my33 ८७ ८५ २७० ३३ १६५ १५४ २०६ १६५ २१६ २५६ २५२ ३८७ १८३ २७० ४१७ २४३ २६७ १७८ ३७७ २८९ २८२ ८ ११९ ५०० ५२२ ३४१ २४१ ४७ ३०६ ४५४ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्क: ४७० प्राणिजटो १ ४४७ ४६७ ९२ ५५ ५१० १३९ ४८२ ३८१ १८७ ४१९ ३९२ ७२ ३०३ ३९१ २० ३१३ २६८ २८७ १९६ ७१ २२१ ७० ३०२ ३७३ ३ २०८ २२० ९४ २८७ १४९ ५४ ४७५ ४६३ २३४ १३६ तदा च तत्र सत्पात्रा० १ तदा च धरणिजटो तदा च रजनीशेषे तदा च राजा कौशाम्ब्यां १ तदा च वह्निजटिने १ तदा च वृद्धब्राह्मण्ये० ५ तदा चाऽशनिघोषोऽपि १ तदा चाऽऽसनकम्पेन ५ तदा चैकं ददृशुस्ते ५ तदा चैशानकल्पेऽभू० ३ तदा दारिद्यभीतायाः २ तदाऽऽदृत्य वचो वाचं० २ तदा नन्दीश्वरे यात्रां ३ तदानीं ग्रासलुब्धाभ्यां ४ तदानीं च चलचूलो २ तदानीं चाऽम्बरतला० ३ तदानीमेव सा सुप्तो० तदाऽपराजितानन्त० २ तदाऽमरगुरुर्नाम तदा वसन्तदेवोऽपि ५ तदा विमानात् सर्वार्थात् ५ तदा हि बलदेवोऽहं ४ तदिन्द्रियजयं कुर्यात् ५ तदृद्धिमधिकां स्वां तु १ तदेव चक्रं पार्श्वस्थ० २ तदैव केवलज्ञानं तदैव देवी सा गर्भ० तदैव परमानन्द० तदैवाऽऽसनकम्पेना० तद्दत्तं यावदादत्ते १ तद्धर्मवार्तयाऽलं मे तद्योग्यतानुसारेण तद्रूपमोहिता सा तु २ तद्विषाणाग्रनिर्यातै० तन्निर्माणबहिर्भूतैः तन्ममाऽप्यस्य तपसः १ तप एकावलिं मुक्ता० २ तपसा शोषिताशेष० १ तप:समाप्तौ च तयो० तपोध्यानादिभिः कृत्वा ४ तपोऽन्तपारणदिने २ तपोऽन्तेऽब्दमुखा देवाः ५ तमनुप्राव्रजन् राज्ञा तया कटुकया वाचा १ तया च प्रातराख्याते तया तं प्रातराख्यातं ४ तया देशनया चाऽर्क० १ तयाऽपि ददृशे स्वप्ने ४ तयाऽपि स्वप्नमाख्यातं ४ तया वसन्तदेवोऽपि ४९० २३५ १४२ १५८ तया सह महीनाथ: १ तया सहाऽऽगतां वेश्या० १ तयोत्सङ्गे तदानीं च ४ तयोरन्योऽन्यसम्बन्धो० ५ ४४२ तयोरभूवं पवन० तयोर्विशेषतो धर्म २३६ तयोश्च कनकलते० १०९ तयोश्च केवलज्ञान० ३ १५३ तयोश्च योग्यतां ज्ञात्वा ४ ३१२ तयोश्चेन्दुषेण-बिन्दु० १ ९४ तरङ्गायितलावण्य० १ १३ तव दुःखं लघूकर्तुं ५२१ तव भार्यां स्वसारं मे १ २९४ तस्थावहानि सप्तैवं ५ तस्मात् तत्रैव कर्तव्यो २ २८२ तस्मादम्भोधराद् घोराद् १ २३३ तस्मिंश्च परितो भाति ५ तस्मिन् दिने मयि पुन० १ १८५ तस्मिन्ना भयघोषो ४ तस्मिन्निक्ष्वाकुवंशाब्धि० ५ १० तस्मिन् वनफलार्थं तौ ४ तस्य केवलमहिमा ३ १९१ तस्य च क्षपकश्रेणि० ३ १९० तस्य च ब्राह्मणस्यासीत् १ २८ तस्य चाऽकारयत् स्वामी ५ १२७ तस्य चाऽऽसीत् प्रियसेना०३ तस्य चाऽऽसीद् यशोभद्रा १ तस्य पल्ल्यां चन्द्रकीर्ती ३ तस्य ब्राह्मणपुत्रस्य १ तस्य वासांस्यनार्द्राणि १ ५७ तस्या गुहाया द्वारेण ५ तस्याऽग्रतो बर्बरिका० २ ७७। तस्याऽजितसेन इति ३ १२१ तस्याऽतिवल्लभे यूथे . ४ तस्याऽथ किङ्करसुराः ५ तस्याऽथ केवलज्ञान० १ तस्याऽधश्छन्दकं चक्रु० ५ तस्याऽपारो यशोराशिः ५ तस्याऽपि तस्यां सञ्जज्ञे ३ तस्याऽभूतामभिभूता० २ तस्याऽभूतामुभे पत्न्यौ . ४ तस्याऽर्ककीर्तिस्तनयः १ १२६ तस्यास्त्यजितसेनेति १ १०० तस्यां घनरथो राजा ४ ३ तस्यां च नाम्ना स्तिमित०२ १५६ तस्यां तत्र प्रविष्टायां ५ ४७९ तस्यां हेमाङ्गदो नाम तस्याः क्रमेण जज्ञाते १ २७ तस्याः परिजनस्तत्र ५ ४७२ तस्याः पलायमान:सो १ ३५९ तस्याः पुरस्तात् तन्मृत्वा ५ तस्या: सर्व: पलायिष्टः ५ तस्योपरि पुरश्रेणि० ।। ३ तस्योपविश्य पुरतः ५ तस्योपसर्गान् कुर्वाणं ३ तं च चालयितुं ध्याना० २ तंच द्रोणकनामान० ५ तं च वृत्तान्तमाकर्ण्य १ तं चाऽधिविद्यमशनि० १ तं तावित्यूचतुः स्वामिन्! १ तं त्रि: प्रदक्षिणीकृत्य ३ तं नाटकविधिं प्रेक्ष्य २ तं नारदो जगादैवं २ तं वन्दित्वा निषण्णोऽह० २ तं वन्दित्वा मुनीन्द्रं ते २ तं षोडशं तीर्थकरं ५ तं सहस्रायुधोऽभ्येत्य ३ ता एता: स्मो वयं विद्या २ ताहग्गुरूपदेशेऽपि २ ताभ्यां सह तनूजाभ्यां ४ ताभ्यां सोऽथ महाविद्यां २ तामदृष्ट्वा चिरेणाऽपि ताम्बूलमाददानस्त० ५ तालवृन्तधरमिवा० तालुकण्ठोष्ठशोषण तावदागमयस्वेह तावदालानमुन्मूल्य ५ तावद् ददृशतु:स्वर्ण० १ तावपीत्यूचतुस्तात! ४ तावप्यशनिघोषौ स १ तावापतन्तावालोक्या० १ तावालिलिङ्ग नृपति० ४ ताश्च तद्देशनावाचः २ तां चाऽवस्वापनी देव्या: ५ तां दत्तपूर्विणी सा मे तां दृष्ट्वा सानुरागोऽहं १ तां धर्मदेशनां श्रुत्वे० २ तां प्रवृत्तिं तयोर्द्रष्टुं तांप्रेक्ष्य स्वर्णतिलका ४ तांश्च प्रचण्डवातेन तिष्ठन्ति कन्या निहत० ४ तुन्दिलैर्दन्तुरैः खः तुलाधिरूढं राजानं तृप्तिर्भवेन्महीपाल! ४ तृषितान् क्षुधितान् श्रान्तान् ४ ते कुर्वाणा: करास्फोटं ४ ते चत्वारः क्षणं रेजु० ४ ते च पल्यत्रयायुष्का १ ते तपस्तेपिरेऽत्युग्र० ३ ते त्रि: प्रदक्षिणीकृत्य ५ १६२ २६ ७७ ४६४ ४७४ १४६ ३४८ ४५५ १७२ २१६ २७२ २३९ २८९ ५८ »r33M २० ११७ Mmmm or or ०४५ ३३१ ३८४ ९८ १९४ १९५ ३७१ ८७ १२५ १२८ ४६५ २७३ २५० २७४ " २१० ४०४ १२५ २७८ २७३ १८३ १५७ ८५ १६१ १५३ ५४ ४०५ १५१ २७३ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः ३४१ ११४ २०८ १९७ ३८१ १४० २३७ २३१ my oorsa o m ३८३ ५६ ना२ २०५ ९५ १०४ ५२४ २१६ देशनान्ते जिनपतिं देशनान्ते नमस्कृत्य देशनान्ते प्रभुं नत्वा देशनान्ते प्रभुं नत्वा देशनान्ते भगवन्तं देशनान्ते महर्षिं तं देशनान्तेऽशनिघोषो देशे तस्मिन्निजामाज्ञा दैवस्येवाऽनुकूलस्य १ दैवादेकत्र मिलितौ दैवानुकूल्यादधुनै० दोलान्दोलनसंसक्ता ३ द्रुतमावां तदादेशा० १ द्वयोश्चाऽलक्षयद् भावं ५ द्वावप्यामोच्य दिव्यानि ५ द्वावप्युत्तारितौ भूमा० ४ द्विचत्वारिंशत्सहस्र० द्विजोत्तमोऽस्मीति गिरा १ द्विड्वर्तिविक्रमनया० २ द्वितीयाऽप्यभवत् तस्य १ द्वितीयोऽप्यब्रवीन्मन्त्री १ द्वे त्रिरात्रे चतुर्थानि ४२ २८४ ४१३ २०३ १३२ ४०० तेन कोशादपाकृष्ट० ५ तेन विष्णोर्जगजिष्णोः २ २२७ तेनाऽभ्युपगतेऽर्थेऽस्मिन् १ तेनैव पुण्यबीजेन ३९५ तेनैवमुक्ता: सुभटा: २०७ तेनोद्यानविहारेण ५४ तेभ्योऽधिकश्रद्धया स ३९३ ते योजनानि भूयांसि तेषां संपश्यमानानां ३५७ तैस्तैर्गुणैरुद्यता व: तौ च प्रणम्य राजान० २७० तौ च विद्याधरवरौ २९१ तौ च शङ्खनदीतीरे २९६ तौ चाऽपराजितानन्त० २ ३९८ तौ चाऽभिनन्दनजग० १ ३६४ तौ तपो-ध्यानवह्निभ्यां १ तौ त्रि: प्रदक्षिणीकृत्य १ ४५६ तौ दृष्ट्वाऽचिन्तयत् पद्मा १ ११६ तौ प्रणम्याऽथ राजानं १ २८८ तौ स्ववाचोचतुर्भूपं ४ ३०८ त्रयोऽपि काले ते कालं ४ १५१ त्रयोऽपि तेपिरेऽत्युग्रं १५० त्रयोऽभिनन्दन-जग० १ १५८ त्रसत्वमाप्त: कैलास० ५ त्रायध्वं भगवन्तोऽब्दा० ५ २१२ त्रिकालज्ञानविषयं ३ त्रिखण्डविजयस्वामी २९७ त्रिखण्डविजयैश्वर्य ८२ त्रिगुप्तिं पञ्चसमिति ३३९ त्रिजगत्त्राणसंहार त्रिश्च प्रदक्षिणीकृत्य २ त्वत्कार्येऽस्मिन् प्रसक्तस्य ५ त्वत्पादपङ्कजध्यान०५ ३१८ त्वमेव भर्ता भावी मे ४३८ त्वं नौ पूर्वभवे माता १ त्वं प्रयुज्याऽवधिं तावत् ३ त्वां केसरा सन्दिशति ५ त्वां बोधयितुमेषाऽह० २ त्वां विनैष जनः कान्ते! १ १३५ १७ १९९ २६६ दन्ता निपेतुः केषाञ्चित् ५ १९३ ।। दन्तावलश्चतुर्दन्तः २८ दन्तौष्ठपीडनैर्नेत्र० २ १३१ दमितारिभटास्तेऽपि ३२२ दमितारिभटास्ते प्राग् २०९ दमितारिरथाऽऽदिक्ष० २ ११७ दमितारिरथाऽवादी० दमितारिरदोऽवादीत् ७२ दमितारिश्च ते चेट्या० २ ११६ दमितारिस्तु तच्छ्रुत्वा दमितारिं ससैन्यं त्वं दमितारि: स चेदाभ्यां २ दमितारेरपि सैन्या २२५ दमितारे: करे तच्च २३० दलयन्त इव क्षोणिं दशोत्तरं देशशतं दारापहारभृत्याधि० २ दिने दिने त्वयाऽप्येक दिने दिने योजनं तद् ५ दिवसे द्वादशे प्राप्ते २ दिव्यशक्त्योपसर्गश्चे० १ २२९ दिव्यालोकेप्सितप्राप्ती० २ १४१ दिव्यैः सुरभिभिस्तैलै० ५ दिष्ट्याऽद्य वर्धसे देव! ५ ३०७ दीक्षां निजपितुः पार्थे ४०३ दीना दिग्वासस: सर्वे दीप्यमाने यथा गेहे ५ दुष्कृतेनाऽल्पकेनाऽपि २ ३११ दुष्टविद्याधरादस्माद् दूतो गत्वाऽथ नि:शङ्को १ ३०९ दूरस्थितोऽपि निहत० ४ १८ दूरं गते श्रीविजये २५१ दूरादपि दुरात्माऽय० १ दूरे तस्य पतीभावो १६७ दृश्यमानशिराजाल० ४६६ दृष्टस्वप्नानुमानेन दृष्ट्वा वज्रायुधं विद्युद्० ३ दृष्ट्वा सुतारादेवी त०. १ २४७ देवकन्येव नि:सीम० १ ४३ देवा अपि प्रभुं नत्वा ५३२ देवानन्दाकुक्षिभवौ १०१ देवानामप्यसुलभां ३८५ देवाऽयं ताम्रचूडो मे ४ देवी मनोरमाऽथोचे देवोऽप्यवोचत् केयं ते ३ देव्याविपि तदाघ्राय १ ८९ देव्यै स्वं ज्ञापयित्वा ता ५ देव्योऽपारुचकादेयु० ५ ५८ देव्यौ ते अपि संविग्ने ३ १८४ देशनान्ते कनकश्री० २ २५१ ३९६ २७५ १६४ १४५ २०८ ३६२ २७५ धनेश्वर-धनपती ५ धन्यंमन्या ततः सा च २ धन्य: स विषयो धन्या २ धन्योऽसि जम्बूद्वीपस्य ३ धर्मलाभं ततः प्राप्य ३ धर्मलाभाशिषं दत्त्वा २ धर्माधर्मविमर्शो हि ४ धर्म्यया चेष्टयैवं श्री० धात्रीभिर्लाल्यमानौ ता० १ धूमध्वजश्च निधूमो धैर्य-वीर्यविहीनानां ध्यानादस्मादमुं धीरं ४ ।। ध्वंसमानो महाध्वान्तं २ १८२ ३७० २७१ ४७१ १४० २५० २० ३५७ ३१० ३२२ १४४ २३ ३८२ २६१ १७१ २६६ ३४७ ३९३ १२६ । ३५४ १४८ नगरं तदपश्यच्चो० १ न च प्राणिवधप्राप्त० ४ । न चेन्द्रियाणां विजयः ५ न चोक्तं वचसाऽप्यस्यां १ न ज्ञायते पिता माता न नंष्टुमपि दातव्यं नन्दिवृक्षतले तत्र नन्दीश्वरद्वीपवापी० नन्दीश्वरमहाद्वीपे० २ न प्रमादो विधातव्य न प्रमादो विधातव्य न प्रमादो विधातव्य न प्रमादो विधातव्य दक्षिणाम्भोनिधे रोध० ५ दक्षिणे कुम्भिन: कुम्भे ५ दण्डप्रधानं साम्राज्य० १ दण्ड्यन्तां चण्डचरितै० ५ दत्तजीवोऽजितसेन०- ३ दत्त्वाऽन्यदा ब्रह्महत्या० १ ददर्श च तदा स्वप्ने ददर्श तीर्थकृल्लिङ्गं दधानश्चामरे द्वाभ्यां ५ दधानौ कर्तिकां तीक्ष्णां ३ २९२ १३७ ६७ १४२ १३४ Wwwwws ३८३ १६३ ३२९ ७५ १९९ २१० ३४४ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः २६ २४१ नैव प्रमादिना भाव्य० ४ । नैसर्पप्रमुखास्तत्र न्यधत्त विपुले गङ्गा० ५ न्यस्याऽर्ककीर्ती स्वं राज्यं१ १४३ २४९ २४८ २१९ ६८ ४४ २३१ १९२ १६९ १५३ ६३ ک ک १८९ १५९ २७१ १६४ १४७ ६५ ३३१ २५ २६४ मुद्रासदत्वाच ५ २९३ २२२ २४६ ११७ लिमिव ४२९ १२० ४२० १०९ १५६ १०३ २४ १५६ १८१ २६२ ४३३ ३ १६ ६५ کی ३१२ * १६ ه २५९ د ३४१ नभस्यकृष्णसप्तम्यां नमस्तुभ्यं रत्नकुक्षि० नमः श्रीशान्तिनाथाय १ नरा नार्यश्च भूयांस: नरेन्द्रवदवर्तन्त १ नरेन्द्रवृन्दमुकुटो नरैश्वरैरज़मानो नागवल्लीवनाबद्ध नाटकं बह्वमसाता० २ नाट्याचार्यो यथा त्वं मे २ नानाजलचराकीर्णो २ नानाविधवधच्छेद नान्दीपाठं नटश्चक्रे २ नाममुद्रां स दत्त्वोचे नाम्ना गरुडवेगोऽभूद् ४ नाम्ना घनरथः सोऽद्या० ४ नालिकेरीफलमिव नाऽस्ति पुण्यं न पापं न ३ निकषा सिन्धुसदनं ५ निजघ्नुः परिषैः केऽपि ५ नित्यं दुष्कर्मदग्धाया निदानिनोऽपि तपसः निधानं रत्नगर्भव निपतन्मत्तमातङ्ग० निबध्य शकुनग्रन्थिं निमित्तजातमखिलं निमीलन्नेत्रनलिना १ निवृत्तस्याऽर्धमार्गेऽपि १ निर्मला रत्नमालेव ३ निर्वाणकालं ज्ञात्वा च ५ निर्व्याजसम्यक्त्वधर० ३ निशाकर: कराङ्करै० ३ निशायां सोऽन्यदा दध्यौ ४ निशि तत्रौकसां रत्न० ५ निषादिनां सादिनां च ४ निषेधितुं तयोर्युद्धं निष्कारणवयस्यस्या० ५ निसर्गतोऽपि बलिनौ नि:शङ्क तांश्च पादादि ५ नीत्वार्हदचिरादेव्यो० ५ नीरन्ध्र: शस्त्रसम्पात: नीलोत्पलम्रजमिव २ नृजन्मनि वणिग्भ्याम० ४ नृदेवं देव इत्यूचे नेशोऽस्मि त्वगुणान् वक्तुं ५ नैकोऽप्येकेन विजित: ४ नैमित्तिक! परं ब्रूहि नैमित्तिकैरपि प्रातः नैमित्तिकोऽप्यभाषिष्ट १ नैमित्तिकोऽप्यभाषिष्ट १ ४८५ و مه مه کد पारणस्य च समये ४ पारयामास भगवा० पारयित्वा मुनिर्व्यानं पावयामि तदात्मानं पाशिपाशोपमै ग० पाषाणलोहगोलांश्च पिकीनां कूजितैरत्र पिता च जयनादेवी० ३ पितापुत्रौ च सम्भिन्न० १ पिता वसन्तसेनाया पिता स्वामी गुरुर्देव० ३ पितुः पुत्रस्य च तयो० पित्तादीनां प्रकृतीना० ४ पित्रा समनुजज्ञाते ४ पिहितास्रवपादान्ते पीतधातुमिवोज्झन्तं १ पीत्वा तस्मान्मुनेर्धर्म० ३ पीयूषदीधितिरिव पुण्यैरस्मादृशामेते पुत्रस्य जन्मना तेन पुनावृत्त चैतन्यो पुनश्च हस्तिशङ्कायां पुनश्चूतवने तस्मिन् पुर्यां चमरचञ्चायां पुर्यां चमरचञ्चायां पुष्करवरद्वीपार्धे २ पुष्पोत्तंसा: पुष्पहारा: ३ पूजां तासां च विद्यानां २ पूतिवान्तिव्रणकृमि० २ पूरयन्त्यवटान् वृक्षा० ४ पूर्णद्वितीयपौरुष्यां पूर्णायामादिपौरुष्यां पूर्णायुरापदथ मेघ० पूर्णेच समये सूनुं पूर्वजन्मनि मर्त्यस्त्व० ३ पूर्वलक्षचतुरशीत्या पूर्ववन्मणिरत्नेन पूर्वसिंहासने तत्र पूर्वस्नेहेन ते नित्यं पूर्वं पुरेऽस्मिन् वसन्त० ५ पृथिवीसेनया साधु पृथिवीसेना त्वनुज्ञाता ४ पैतृष्वसेयो वसन्त० ३ पौरजानपदोपेतः ५ पौरैयाम्यैश्च सोत्कण्ठै० ५ पौषधं पारयित्वा तं ४ पौषस्य शुद्धनवम्यां प्रकृत्यवस्था-सन्ध्यङ्ग० २ प्रचक्रतुः सङ्क्रमण० ४ प्रचण्डचञ्चुचरण ५१८ ४७३ १५३ २९९ ३५९ ४६ AM पक्षिरूपाविव नरौ ४ पचेलिमफलोद्भ्रान्त० ५ पञ्चमूर्तिरथेशानो पञ्चरूपस्ततो भूत्वा ५ ७४। पञ्चवर्णमणिज्योति: पञ्चवर्णैर्दिव्यपुष्पै० पञ्चविंशत्यब्दसह० १११ पञ्चाशत: कुराज्याना० ५ पञ्चेन्द्रियप्राणिवध० ४ २६३ पतद्भिस्तेजितैः शल्यैः १ ३२७ पताकाया लासिकाया ५ ३५ पत्तनं पद्मिनीखण्ड० १ २३५ पत्तनाष्टाचत्वारिंश० ५ २६१ पत्नी दृढरथस्याऽपि पत्न्यां पवनवेगायां १ पत्न्यां सुलक्षणाख्यायां ३ पत्ये प्रबुद्धा साऽऽचख्यौ ३ पथा यथागतेनैव १ पदातिमात्रं तस्याऽपि ५ १९९ पद्माजीवोऽपि सौधर्मा० १ पद्मात् पद्मे हंस इव २ पद्माऽप्यजितसेनाया पयस्यगाधे विहरन् ३४० पयोदवृष्टिपूर्णेषु ४०६ परत्राऽत्यन्तदु:खाय परद्रव्ये परस्त्रीषु ३३५ परविद्याछेदकरी ३०४ परस्परं श्वशुर्यो तौ १७४ परासुरिव निःसञः २५८ परिक्षीणेषु शस्त्रेषु ३३७ परिणाम: शुभोदर्को ४३४ परीषहानुपसर्गान् ३५३ परीषहान् सहमानो ५० परेषां प्राणिनां प्राण पर्यटश्चाऽसदं शङ्ख पर्यन्तकाले मनसा पर्वतायुर्भवेत्युच्चै० पश्चिमे पुष्करवर० १ १०४ पश्चिमे यामिनीयामे ५ ४२२ पश्यन्तीनां प्रेयसीना० १ ३३३ पश्यंश्चुम्बन् समाश्लिष्य० २ पाञ्चजन्यं ततोऽजन्य० २ २२६ पाणिपादेन्द्रियच्छेद० ५। पादपोपगमं नामा० १ ४८९ पाद्यस्नानादिना तं च १ ६२ ९८ ३४ orsrx3arrorr २१७ ३७२ ३७० ३५८ १५५ ३९९ २ २४५ ३०३ ५२८ ५२७ ०८ १२३ १२९ ३५३ १६२ २८३ १०५ १८ १८७ १७७ ३७९ २५३ ३१४ २९३ १२२ १५८ ७५ ३३६ १८८ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः १३४ ३२३ ४१७ २८३ ३२१ m ३०२ م م ک لا अपष्ट د مه २८१ २७ श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः प्रावर्त्तन्त तया योद्धं २ २२० भवोपग्राहिकर्माणि ३ प्राविशत् सपरीवारः २ भव्य: किमस्मि यदि वा १ प्रासादमन्यदाऽऽरोहत् ३ १२५ भस्माङ्गरागा: केचिच्च ४ प्रियङ्कराऽप्यङ्गणस्थ० ५ भारेण वर्धमानं तं प्रियङ्करायै तं स्वप्न ४२४ भाविनश्चक्रिणस्तस्य १ प्रियङ्करोचे स्वामिन्या ५ ४२८ भावी तीर्थकरश्चैष ४ प्रियमित्रा ततो देवी ४ २०६ भीता दिशोदिशं जग्मु० ५ ४७४ प्रियमित्रा नन्दिषेणं ४ ६४ भीता भयानि पश्यन्ति १ प्रियायां मदिरानाम्न्यां ३०६ भीमाटव्यां नदीतीरे २ प्रियाविरहदुःखान्त० ५ ४५२ भुजङ्गभूषणा; केचित् ४ प्रीतो वसन्तोऽपीत्यूचे ५ ४३९ भुञ्जानौ विविधान् भोगान् २ प्रेतादिविकृतालोक० २ १३७ भुवं स्वर्णशिलाभिस्तां ५ प्रेयसीभिः समं तत्र ५६ भुवि विश्रान्तसन्ध्याभ्र० १ प्रेष्ठचेटिकयोश्चेट० भूतरत्नाभिधाटव्या० १ प्रेषीद् घनरथो मेघ० भूतले पुष्पपत्रार्घ ५ ४९१ भूमौ च लुठितां दृष्ट्वा फणीन्द्रफणमाणिक्य० २ ३४७ भूयश्च भुजगीभूय फलानि तत्र स्वादूनि २ ३६७ भूयश्च स्वामिनं नत्वा ५ फलेन तपसस्तस्य ३ भूयोऽपि प्रियमित्रोचे ४ फलेन तपसोऽमुष्ये० १ ४१५ भूयोऽप्यूचे चित्रचूल: ३ ३३ भूयो भूयः सनिर्बन्ध० १ बन्धुाय: प्रिया कीर्तिः ५ भूयो भूयो दर्शयित्वा २ १५२ बभाषेऽशनिघोषोऽपि ३१५ भूयो मागधतीर्थाधि० ५ १३८ बर्बरीति किरातीति भूषणान्यप्यभूष्यन्त १ बलदेवं भगवन्तं ३८० भृगुपात-तरूद्वन्ध० २ १२९ बलदेवमुनिस्तत्र ३६१ भोगान् निर्भामया सत्य० १ ४९ बलं नत्वाऽमिततेजा १ ४४५ भो! भो! युवाभ्यां युवभ्यां २ बहुशोऽशनिघोषस्तै० १ भो! भो! विद्याधरनृपा:! २ बाल्यतोऽपि हि सर्वज्ञो० २। भो! भो:! सर्वे पुराध्यक्षा: २ ब्रह्मलोकात् परिच्युत्य ४ । भ्रमन् क्रमेण स प्राप १ ब्रह्मलोके तदानीं च ५ २६७ भ्रमन्तौ कौतुकात् तौ तु ४ भ्रातृशोकाद् बलभद्रो २ د 1०111 ००० १६४ प्रज्ञप्तिविद्यापूजार्थं १०१ प्रणम्य भगवन्तं तं २२२ प्रणम्याऽशनिघोषस्तु ४२६ प्रतारणी श्रीविजये ३११ प्रतारण्या वञ्चयित्वा १ प्रतारण्या विद्यया तत् प्रतिज्ञाऽस्माकमप्येषा ४४० प्रतिमां पारयित्वा तां १८८ प्रतिमां पारयित्वा तां ३ २१७ प्रतिविष्णुस्तदानीं च प्रतीकारासहै रात् ४६५ प्रतीहार्या दर्श्यमान ३५१ प्रतोदैर्यष्टिघातैश्च प्रत्यक्षं मे प्रियां द्रष्टुं प्रत्यग्रमुकुलोद्धान्त० ५ प्रत्यरुचकतोऽष्टैयु० ५ ५९ प्रथमस्यन्दनाद् भग्नात् प्रथमो वासुदेवानां १३८ प्रदक्षिणापूर्वकं तौ ११३ प्रदाय वार्षिकं दानं प्रधानभार्ये तस्योभे १०७ प्रपद्य तावनशनं ३१३ प्रबोध्य भव्यभविनो ३९७ प्रभावसाधिताशेष० प्रभावात् तपसोऽमुष्य २ २६७ प्रभुरप्याख्यदेतद्धि ३८४ प्रभूतहयहेषाभि० ३०१ प्रभोरुपायनीकृत्य ५२३२ प्रयाणैरनवच्छिन्नै० प्रलम्बैः कर्कशैः पादै प्रवाहैरिव सम्बन्धै० ४ प्रविवेश तदुद्यानं प्रवृत्तिस्ते परार्थव प्रशंसन् पृथिवीसेना० १३२ प्रसीदाऽनुगृहाणैत० १७४ प्रस्थापय कुमारौ त० २४ प्रहारान् वञ्चयमाना० प्रागुत्पन्नान्यशिवानि प्राग्जन्मरोषादुद्रोषा० ४ प्राग्जन्मवैराद् युद्धायो० ४ ४८५ प्राग्जन्मारेर्दमितारे० ३ ६५ प्राग्जन्माऽवधिना ज्ञात्वा ४ प्राग् दृष्टप्रत्ययमपि १ प्राग्भवभ्रातृसौहार्दा ४१३ प्रारम्भासदने नीत्वा ५ प्राग्वैरादुपसर्गान् स ४१८ प्रातर्विवाह इत्यद्य ५ ४७७ प्राप्तकालमिदमिति प्राप्ता: कलाकलापं ता १ १११ प्रार्थनामर्थिलोकस्य १ १६ ३५१ O a O २५२ १९७ २४७ . 2100 rmy १४१ भ ३४२ ३६ ४५ ४४ ९७ ४०१ २६२ २३७ भक्तिं पितुरिवाऽत्यन्तं १ भक्तिभाजौ मेघरथं भक्त्योल्लसितरोमाञ्चो २ भक्ष्यं ममेदं मुञ्चाऽऽशु ४ २५८ भगवत्यचिरादेव्याः ५ भगवन्तं ततो नत्वा ५ ५३१ भगवन्! भवते विश्व० ५ भगवन्! भवदाख्याते भटोद्भटकरास्फोटै० ४ भर्तुश्चतुर्यु पार्श्वेषु भवं भ्रान्त्वा च कनक० १ भवन्तं किन्तु पृच्छामि भवादृशवराभावा० २ १९२ भविष्यत्येवेमेवेद० ५ भवे तत्र चतुःषष्टिः १ ४२३ भवेऽत्र चक्र्यसौ भावि ३ भवोपग्राहिकर्माणि २ मङ्गु तेनाऽप्यभज्यन्त १ मत्कार्यमिदमेवेति ३ मत्कुक्षिसम्भवा तेऽसौ १ मथ्यमाने बले ताभ्यां ४ मदर्थं यूयमाहूता मदिरा-केसरानाम्न्यौ ५ मद्वल्लभां लोभयता १ मद्विघ्नशान्त्या तदमी १ मध्यखण्डस्य मध्येऽस्ति ४ मध्येकृत्वा मणीपीठं ५ मध्ये मध्ये नाटकस्या० २ मनसाऽपि न सा शीलं १ मनुष्यभाषया श्येनो० मनोज्ञ रूपमालोक्य ५ मनोभवविकाराब्ज० १ मन्त्रतन्त्रादिरहितम् २ मन्त्रिणोऽथाऽब्रुवन् देव! १ ३ २५५ १५३ ६७ २६८ ३५४ ४२५ २३ ७२ ३६ २२७ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्क: २१३ २२० २०१ १७६ २२३ ३३० ११९ ३२५ ३९४ २२१ ८३ १४९ ३१८ Ma...3523 २६२ १०३ ३०४ १८ १८६ २०५ २२४ ४८० १९० २६४ १३० २३४ १४४ ४४६ २४२ २१२ २ So aan my my my र:00 ११२ ३६६ or 3 - Jaroo २९६ ३५२ ३६८ ११४ ३८० ७८ ३३७ १४८ ३१७ २१४ २६० ३२९ १७५ १७५ २७० २७७ ११० ९० २८६ मन्त्री तुर्योऽप्यभाषिष्टो० १ मन्त्र्यवोचत् तृतीयोऽपि १ मन्येऽनुकूलं मे दैव० २ मम प्रेयानयं भूयात् ममार्ज देवदृष्येण ५ ममैकयत्नलेशेन मया च देशनाप्रान्ते १ मयाऽप्यभिहितो मन्त्री १ मयाऽप्यवादि योऽप्यद्य १ मयि दरमपक्रान्ते ५ मराविवाऽम्भ: संसारे माविभौ सैरिभौ च मल्लादेवीकुक्षिभवां महत्या प्रतिपत्त्या त० १ महाज्वालापातभीतो महाटवीं प्राविशंस्ते महादेवी प्रियमित्रा महापुरसहस्राणां ५ महाभटै प्यमान० महाय॑सिंहासनयो० १ महासत्त्वोऽवधिज्ञान० ५ महिमानं तृतीयंतु महिष्यस्तस्य पप्रच्छुः ४ महिष्यो देवराजस्य महेन्द्रविक्रमाख्यस्य ३ माता-पितृश्वशुराणां १ माता श्रीविजयस्याऽपि १ मानुष्याण्यन्वहं तत्र १ मा युवां बहुदौ भूतं २ मार्तण्डो मूर्ध्नि पार्थेषु १ मासक्षपणकं कञ्चि० १ मासान्ते च ज्येष्ठकृष्ण० ५ मिथ्यात्वमोहितमती ४ मिथ्यात्वमोहितमना ३ मीनध्वजो रूपधेये मुग्धे! विद्याप्रभावेण मुनिरप्यब्रवीदेव० मुनी प्रदक्षिणीकृत्य मुने: सुमनसस्तस्य मुमुचे सा मयैकस्मिन् ५ मूर्तिं वैश्रवणस्याऽपि मूर्ध्नि श्वेतातपत्रेण मूलोत्तरगुणैर्ध्यानै० मृगीदृशामङ्गरागै० मृत्वाऽभूतां भूतरत्ना० मेघरथ-दृढरथ० मेघरथ-दृढरथ० मोहः खलु महाशत्रु० १ मोहान्धकारसन्दोह० १ म्लेच्छा अप्यूचिरे चक्री ५ ४६३ ३१८ ३९३ १२० १४ ४४४ २०५ म्लेच्छानप्यादिशन् देवा ५ य य एष करिण: स्कन्ध० २ यच्छस्त्राशस्त्रि युध्यन्ते ५ यत् स्वप्ने साभिषेका श्री०१ यथा तथा गतेनैव १ यथा द्वारं प्रविश्याऽथ ५ यथा बभूव सा देवी ५ यथा भवान्तरे भूयो २ यथाऽमी वारिदा व्योम्नि ३ यथा यक्षे तडित्पात० १ यथा यथाऽभ्यनीयन्त २ यथार्हयोगाविज्ञाभ्यां यथावत् पालयामास ५ यथावत् पालयित्वा च १ यथास्थानमथासीने यथास्थानं निषण्णेषु यथा हि विहरन्नुहँ यथेष्टमुट्टीकमाना यथैनं त्रायसे राजं० यदि ते धर्मशुश्रूषा यदिदं जिनधर्मस्य यदि वैक उपायोऽस्ति ५ यद्यत्राऽऽगाच्छ्रीविजय० १ यद्यप्यस्मिन्नयोग्याऽहं २ ययाचे काचिदालापं ४ ययौ विद्याधर: सोऽथ ३ यस्मिन्नुपेये नोपायो ५ याचितुं किमिहाऽऽयासी: १ यात यात द्रुतं तस्मा० ५ याप्ययानात् समुत्तीर्य ५ यावज्जीवमसौ जीव: १ यावज्ज्वलितुमारेभे १ यावत् कुमारं स्वे राज्ये ४ यावदादत्त हस्तेन युक्तं विवेकिनस्तेऽद० ५ युक्तमेतदिति प्रोच्य १ युक्तमेतदिति प्रोच्या० १ युध्यमानौ पेततुस्ता० युवतीस्ते विचक्राते युवयो: केवलज्ञान० युवा वृद्धो धनी रोर: युष्मत्पार्श्वे च तातेन युष्मद्वपुषि सङ्क्रान्तिं २ युष्माकं किमसौ सूनुः १ यूनां क्रीडासखो मीन० ३ येन तेन प्रकारेण योऽयं वर्णयति घ्नन्तं २ यौवनं युवतीवर्ग० ५ यौवराज्ये निजे राजा ४ २०५ ३१६ २६३ ३३२ २०६ १४६ रङ्गाचार्यो रङ्गपूजां रणतूर्याण्यवाद्यन्त रत्नद्वीपं च तेऽपीयु० रत्नस्वर्णमहावृष्टिं रत्नाधाकरसहस्र० रत्नैर्महा(विणै० रत्या मनोभव इव रन्ध्रेषु केऽप्यदुर्झम्पां रमणीयस्य विजय रममाणां समं पत्या रम्भा-तिलोत्तमाद्यास्ता ३ ररास विरसं चैष रश्मिवेगामितवेग० १ रसे स्वादौ च भक्ष्यादे० रह:प्रदेशे चैकस्मि० २ राकाशशाङ्कवदनां २ राक्षसस्याऽग्रतोऽप्येन० १ राग द्वेषं च मोहं च राजकन्या नरपतिः राजलोककृतैस्ताल० ४ राजा घनरथोऽन्येधु० ४ राजा घनरथोऽप्यूचे ४ राजा जजल्प तं साम्ना १ राजा पवनवेगस्त० ३ राजाऽपि व्याजहाराऽथ २ राजाऽपि व्याजहारैवं १ राजाऽप्यपारयत् प्रीतः ४ राजाऽप्याख्यजम्बूद्वीपै० ४ राजाऽप्येवमवोचत् तं ४ राजा मेघरथो देव० ४ राजा श्रीविजयोऽयं तु १ राजा सिंहस्थोऽप्युद्य० ४ राजौकसि कुमारं तं ४ राज्ञश्चसूनुर्नलिन० राज्ञस्तस्य महादेवी राज्ञा धनरथेनाऽथो० राज्ञा सुरेन्द्रदत्तेन ४ राज्ञां चतु:सहस्रया च ४ राज्ञीस्वप्नानुसारेण ४ राज्ञोऽथ निहतशत्रोः ४ राज्ञः श्रीविजयस्याऽस्य १ राज्यगुप्तोऽभिधानेन राज्यस्थानमनङ्गस्य ४ राज्यं स्वपुत्रयोय॑स्यो० १ राज्ये मेघरथं यौव० ४ राज्ये राष्ट्रे पुरे गोत्रे २ राज्ये सिंहरथं न्यस्य ४ राम-विष्णू बर्बरिका० २ रूपप्रकर्षवैदग्ध्य० १७६ १०३ ४०५ ४६८ ४५६ १७९ २२८ २८८ २७४ २५३ ४२४ ९१ & MMmmM wowow २१६ १८८ १०६ ५६ ११० २७६ २३० ४३७ १०७ ३० ४७५ ११५ २९७ ३५२ ३२४ १३ ४७१ २३६ ३५० १४२ wwx a १८६ ३९० २३१ ४८८ १९० २२२ २१४ १२३ । २११ २११ १२१ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्ग: क्रमाङ्कः श्लोकः सर्ग: क्रमाङ्क: रेमे पाणिगृहीतीभिः ५ रे विद्याधरहतका० १ रोमाञ्चव्याजतो भिन्ना २ ११३ २७९ १६३ ४७ ४० १७९ १७७ ४५१ ४३५ २५५ H १७८ १४५ १९१ ४०२ लक्ष्मीवतीप्रभृतीनि ३ लकिते सकलेऽप्यह्नि २ लज्जया भक्तपानादि ३ लाभालाभौ सुखं दुःखं १ लाल्यमानस्तापसीभि० १ लीलयैव हि शास्त्राणि २ लीलयोन्मग्ननिमग्न ५ लीलोपवनवाप्यादि० ४ लुलन्त्य: समलक्ष्यन्त ३ लोकोत्तरगुण: श्रीमां० ५ लोकोत्तरवपुर्लोक० ३ लोचनान्यपि धन्यानि ५ ४०७ ३७४ २९३ १६० x nor 8 min in nor २४६ ३७५ २१२ ६० Mmm Mm om many sora non-Karwad ४८१ ३७६ ११ । MIm 19 do १९४ ३२ विपद्य च धनश्रीस्त्वं ३८० विपद्य तावुभौ बन्धू २९८ विमलमत्यादयोऽपि ३६५ विमानादवतीर्याऽथ २४७ विमाने सुस्थितावर्ते ४९२ विमानैर्दर्शयन् दीप्रै० विमृश्यैवं नृपं नत्वा विरक्तायां तवैतस्यां विरोधिनोऽपि तिर्यञ्चो विलोक्य मुदिते ते च २ विविधक्रीडया तत्र विविधाभिग्रहतप: ३५४ विविधाभिग्रहपर: २०२ विशालैरुदरैः केऽपि १९६ विशुद्धशीला तद्भार्या विशेषतोऽपराजिता ११४ विशेषतो राजकुलं १७२ विश्रान्तजीमूतमिव विश्वं विश्वम्भराभारं विश्वसेनाचिरादेव्योः ५२४ विसृष्टः कपिलेनाऽथ विस्तारणैर्लोचनानां २ १४० विस्मयस्मेरनयनौ विस्मित: सत्यकिरपि विहरन कनकशक्ति० ३ १८५ विहरन्तौ पुरग्रामा० २२५ विहरन्नन्यदा तत्र ३७८ विहरनन्यदोत्पन्न १३८ विहरन्नपरेधुश्च विंशत्या स्थानकैरर्हत् ४ ३५५ वीक्षापन्नो जगामाऽथ २ ४२० वीक्ष्यादाय च तान्याशु ४ १२८ वृत्तान्तो दारुणो मे तु ५ ५१५ वृष्ट्या वस्त्राणि मद्भर्तु० १ वेश्यानां नीचकर्माणि ५ ३३४ वैडूर्यमप्यसौ भाभि० ४ १७७ वैताढ्यपर्वतेऽमुष्मिन् २ वैताढ्यपर्वत: क्वाऽयं? २ १८५ वैताढ्ये नाऽवसर्पिण्यां १ २०० वैराग्यसंसारभय० २ १४३ वैश्रवणस्य प्रतिमा १ २२८ व्यक्तपशुमपि क्षाम० १ ४६७ व्याख्यां समस्तशिष्याणां १ व्याजहार कुमारोऽपि ३ १७२ वसन्तसखसङ्काश० ३ वसन्तसमयेऽन्येधु० ३ वसन्तसेना कनक० ३ वसन्तो नाऽपि नो पुत्र० १ वसन्तोऽपि जगादेवं ५ वस्त्विवाऽन्ध: पुरोवर्ति० १ वाचिकाद्यैरभिनयै० २ वापी: कूपान् सरसीश्च १ वामौ दधानो नकुला० ५ वायुवेगाभिधानायां वासागारं श्रिय इव २ वासुदेवाज्ञया तेषू० २ वासुदेवाज्ञया विद्या० २ वाहनानि विचित्राणि विकस्वरैः सुरभिभिः ५ विकारैर्विविधैस्तैस्तैः ४ विचरन्ती जगद्वन्द्या ५ विचार्य योग्यतां सोऽपि २ विचिकित्सामनालोच्य २ विचित्रनेपथ्यधरो विचित्ररत्नकलशं ५ विजनत्वात् तदानीं स १ विजयार्धेऽत्र यत्किञ्चि० २ विजये सलिलावत्यां १ विजयो वैजयन्तश्च ४ विज्ञाय चाऽवधिज्ञाना० ४ विदधे विबुधैस्तत्र ५ विदिग्रुचकतोऽप्येत्य विदूषकविटप्रायः विद्याधरनृपैस्तत्र विद्याधरपतेर्मेघ० विद्याधरसभामध्य० विद्याधर: पुनर्भूत विद्याधराणां महर्द्धि विद्याधरेण सुहृदा विद्याधरेणाऽमुनेयं ३ विद्याधरेन्द्रमुकुटो विद्याधरेन्द्रो दमिता० २ विद्याधरोऽस्मि वैताढ्य० ३ विद्याबलाद् विचक्रे च १ विद्याया: पदमेकं मे ३ विद्याशक्त्याऽनन्तवीर्यं २ विद्याशक्त्या स्ववासांसि १ विधुदुद्योतितव्योम्न० ३ विद्युद्रथोऽपरेधुश्च ४ विनयं ग्राहयन्त्यन्यै० विना वसन्तदेवं मे विनेन्द्रियजयं नैव विनोदैर्विविधैरस्था० ४ विन्ध्यदत्ते विपन्ने तु १९२ ७४ १६७ २८९ १६४ ३४७ २८२ २७९ १२७ २२३ २४१ वचसा मुदितस्तेन वज्रश्यामलिका नाम वज्रागारं शरण्याना ५ वज्रायुधस्ततश्चक्रे वज्रायुधस्य जीवोऽपि ४ वज्रायुधं सोऽप्यवोच० ३ वज्रायुधाय चाऽऽचख्यु०३ वज्रायुधोऽपि तद्भावं ३ वज्रायुधोऽपि तस्यर्षे० ३ वज्रायुधोऽपि विविधाः ३ वञ्चयित्वा चिरं लोकं ४ वटपादाविव वटौ वनश्रीस्तनसङ्काश० वन्दित्वा च यथास्थान० २ वन्दित्वा सुव्रतमुनि वराह: पल्वलमिव वर्धापनकृते तेन वर्षे वर्षे चक्रतुः श्री० १ वल्लभाभिः पयस्कुम्भ० १ ववन्दे मुदिता तं च वशास्पर्शसुखास्वाद० ५ वसन्त इव वसन्त वसन्तदेवस्तच्छ्रुत्वा ५ वसन्तदेवस्ते भर्ता ५ वसन्तदेव: काम्पील्याद् वसन्तदेवेनाऽन्येयुः वसन्तदेवो जयन्ति वसन्तदेवो जयन्ति वसन्तदेवो दध्यौ च वसन्तदेवो नाम्नाऽऽद्यः ५ वसन्तदेवोऽप्यवद वसन्तदेवो मे भर्ता वसन्तश्चिन्तयित्वैव० ५ ४०८ w.swx sog २३५ १७५ ८८ So my w MY MY MY ००० १६७ ur १६९ २४४ ४४४ १७१ rom ०००० wmro १७४ ५८ १२७ २१३ ३३७ १८१ ४९४ १. ४२९ ४९५ ४४८ ३२३ ६७ १२३ शक्यते न यदाख्यातुं १ शक्रसङ्क्रमितसुधं ५ शक्रो यथा हि सौधर्मे २ शङ्कन् शल्यानि चक्राणि ४ शकिका नाम तस्यानु० ४ २३२ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२५ A mm 0 ४४९ ww ४८ rrorm 3 mr marrorms or mro Vo ormwo wor mmu १२६ Mmm orror २२९ त्या २२ २५७ ३८ २८५ १५१ २२६ १६० ५१४ श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः शलिका साऽपि तद्भार्या ४ २४८ श्रीषेणोऽप्यभ्यधत्तै० १ ७४ सपूतरैश्च पानीयैः शयानया निशाशेषे २ श्रीस्वयम्प्रभनाथस्या० २ सप्तमे च दिने प्राप्ते शरच्छिन्नोच्छलच्छत्रैः १ श्रुतपूर्वभव: सोऽहं १२४ स प्रभङ्करया सार्धं शरणार्थिजनत्राणे श्रुतस्कन्धरहस्यानि सप्रसादं तमालम्ब्य १५२ शरदभ्रमिवाऽवर्त्य श्रुते प्रभोर्वचांस्येव० ५ ५३० स प्रादुष्षद्वैदुषीको शरशूलै: केऽपि विद्ध्वा ५ श्रुत्वा तद्वचनं मेघ० ४ २५१ स प्रियङ्करया याना० शरीरकारणं मेऽस्ति १ श्रुत्वा तां देशनां राजा २ सभागृहमिवेन्द्रस्यो० शातकुम्भमया: कुम्भा ५ श्रुत्वा तां देशनां लोका: ३ सभायां वर्णयामास ४ शान्तवैरास्तत: सर्वे० १ श्रुत्वाऽपराजितस्याऽनु० २ १६९ सभ्रातरममुं क्षुद्रं २ २०६ शान्तिसैन्येऽम्बुधाराभि० ५ २१४ श्रुत्वा पलायितांस्तांस्तु २ स भ्रान्त्वा भवकान्तारे ४ शान्तेरथाऽस्त्रशालायां ५ श्रुत्वा सुरेन्द्रदत्तस्त० समये सुषुवाते ते शाङ्गिणं दुर्जयं ज्ञात्वा २ श्रुत्वेति प्रकटीभूय १६० समये सुषुवे साऽथ शार्दूलादिव सुरभिं श्रेयोदशाप्रवेशोऽद्य समयेऽसूत सा सूनुं शालायां सत्यकिश्चक्रे १ श्लाघ्यमस्या अहो रूपं ३ समोपायनं शान्ते० ५ शाश्वतार्हत्प्रतिमानां ५ १०० श्वेतवर्णो राजहंस २ समं गुरुजनेनाऽथ शाश्वतार्हद्वन्दनां तौ १ ४७३ श्वेतश्यामशरीरौ तौ २ समं त्वत्परिवारेण शाखे शास्त्रे च निष्णाता०१ समं नृपसहस्रेण ५ २८७ शिखिनन्दिताजीवस्त० १ ३९७ षट्खण्डोर्वीतलजय० ५ ५४४ समं परस्परप्रीत्या शिथिलीभूतसर्वाङ्गो १ समं वसन्तदेवेन शिबिकायास्ततस्तस्याः ५ स एव रुच्यो द्वेष्यो वा ५ ३५८ समालिलिङ्गिषुरिवा० ५ शिरीषसुकुमाराङ्गी सकमण्डलुकमलौ ५ ३७६ स मुनिः पुनरप्याख्य० १ ३९५ शिष्टा मेघमुखैस्तेऽपि ५ २३० सकोपाटोपमेषोऽथ ४ समुन्नतिजुषस्तस्य५ शुक्लदन्तोऽभवत् तत्र स क्रमात् समतिक्रान्त० ३ स मोघीकृत्य तां विद्या० १ ३१३ शुक्लध्यानाग्निनिर्दग्ध० २ सखि! किञ्चाऽसि धन्या त्वं ५ सम्पूर्णे समये सूनु० १८ शुक्लध्याने वर्तमानं २ २५९ सखीहस्तेन ताम्बूलं ५ सम्प्रत्यैश्वर्यमत्ताया ३१४ शुभव्यूहकरी भूमेः २ सखीहस्तेन मेऽदत्त सम्प्रयोगैरथैकान्त० शुभा अप्यशुभायन्ते ५ ३५७ स चक्रे धर्मशकटी० १ सम्प्राप्तयौवनश्चाऽहं १९२ शुभाख्यायां पुरि नृपो० ४ ३०० स चाऽभिनन्दिताजीव० १ १४८ सम्मार्जनीभूत इव २९५ शुभाख्यायां महापुर्यां २ स जगामैकदा स्वैरी स राजकन्यां कनक० ३ शुभाख्यां स पुरीं गत्वा० २ सञ्चरन्नखिले लोके २ सर्वं जानासि सर्वस्य ४ ३४२ शुभाधिनाथ: सुभगः २ सञ्चितैनस्तमस्विन्या: ५ सर्वज्ञ! त्वन्मुखाच्छ्रुत्वा १ ४२७ शेषाहिरिव पाताला० ३ ७० सञ्जज्ञाते तयोः पुत्रौ २९० सर्वभावविदस्तत् किम् ५ ४९३ श्येनपारापतावेतौ ४ २८७ सञ्जातजातिस्मरणा २ ३८७ सर्वान्तःपुरमूर्धन्या ५ ११४ श्येनमूचे नृपोऽप्येवं २५९ स तत्र च जयन्तस्य ३०५ सर्वार्थां नाम शिबिकां ५ २७७ श्रमणानां सहस्राणि ५ ५३३ सतीमतल्लिका साऽधा० ५ सर्वेऽपि स्त्रीगुणास्तस्या ५ श्रावकाणामुभे लक्षे ५ स तु द्विजो यशोभद्रा १ ३० सर्वोत्सवशिरोरत्नं २ ३९२ श्रीदत्ता नाम तत्राऽऽसीत् २ स तु वज्रायुधश्चक्री स वदान्य: सत्यसन्धः २ १५९ श्रीदत्ताऽपि नमस्कृत्य २ सत्यकेरपि पूज्योऽय० १ स वर्धिष्णुः क्रमाद् भ्रात्रा २ ३२ श्रीदत्ताऽप्यभ्यधत्तैव० २ सत्यकर्जम्बुका नाम १ स व्यश्राम्यत् क्षणं यावद् २ श्रीदत्तायां तस्य पत्न्यां ३ सत्यभामापतिः पूर्वं १ स शिखिनन्दिताजीव० १ श्रीधर्मनाथनिर्वाणा० ५ ५४२ सत्यभामाऽपि कपिला० १ ९० ससम्भ्रमं समुत्थाय १३५ श्रीमत: शान्तिनाथस्य ५ सत्यभामाऽपि गत्वैवं स सहस्रायुधेनाऽथ० ३ श्रीमद्घनरथस्वामि० ४ २५२ सत्यामपि विभावाँ ससैन्योऽप्यमिततेजाः १ ३७१ श्रीवत्साङ्क श्वेतवर्णं २ सदा निद्रालुभिरिव ४८२ सह प्रियाभिस्तौ भोगान् ४ श्रीशान्तिपादमूले च २ ३०३ सदाऽपस्मारिभिरिव सह विद्याधरेन्द्रैस्तै० २ २४४ श्रीशान्तिरपि सत्कृत्य ५ सदा सविधवयव ४७६ सहस्ररश्मि: पितरं ३०७ श्रीशान्तिशासनात् तत्र ५ सन्त्यत्र कनकगिरौ २ २४६ सहस्रायुधकुमारं ३८३ श्रीशान्तिशासनात् सिन्धु०५ १६४ सन्धाभ्रवत् पाटलाभिः ५ २७९ सहस्रायुधजीवोऽपि श्रीशान्तिस्वामिनस्तत्र ५ सपत्नाम्भोजसङ्घर्षे० ३ सहस्रायुधपत्नी तु श्रीषेणप्रमुखास्तेऽपि १ स पुमानप्युवाचैवं ५ ४५४ सहस्रायुधराजोऽपि ३ २१८ २ 300aw Vrm १७२ २३ WWW २६१ ५० ४२ १०८ १५० १२५ २०० ३४ १५ १४७ २१७ Wwwww १६२ ६२ १५६ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्क: २६ ३१ ३५२ ३१४ २२४ ३४९ २१५ ५९ wwwww २४७ ५०४ २८० ३९४ १४ ६४ २२१ ३१८ ३० ३८८ ३२७ ३५६ २०२ ४३ २४४ ३८९ ३९५ ३७९ १८९ २४२ १४८ २१५ १९४ १२४ २३८ २५९ ३५५ ४२२ ३३० ३३० १८५ स्वप्नार्थवेदकान् राजा ५ स्वप्ने पद्यलतालोक० १ स्वयमर्पयतो देवी स्वयमुद्घाटितेनाऽपाग्० ५ स्वयमुद्धाट्य तद् द्वार० ५ स्वयम्प्रभजिनेन्द्रान्ते २ स्वयम्प्रभायास्तनयो १ स्वयम्प्रभोऽपि भगवान् २ स्वयं कवलयाम: किं ५ स्वयं चिन्वन्ति पुष्पाणि ३ स्वयं दूतीभवन्तीह स्वयंवरा: श्रिय इव ५ स्वयं विश्वजनीनोऽसि स्वरे श्रव्ये च वीणादेः ५ स्वर्णकुम्भोपमकुचां २ स्वर्णस्य द्वादश सार्धाः ३ स्वसारं स्वामिनो ज्ञात्वा १ स्वस्थाने तस्थुषी सेयं १ स्वाधीनं तस्य चेट्यादि २ स्वामिनी मे स्वहस्ताग्रो०५ स्वामिनो दृग्विनोदायो० ५ । स्वामिन्नमीषां स्वप्नानां २ स्वामिन् भीतोस्मि संसारा०५ स्वामिन्! मामुपेक्षस्व ४ स्वामिन् युद्ध्वा तदावाभ्यां ४ स्वाम्यंहिपीठाध्यासीन: ५ स्वाम्यस्यतः परं त्वं नः ५ स्वाम्यागमनमाचख्यू ४ स्वे सहस्रायुधं राज्ये ३ स्वे स्वे पुरेऽवतिष्ठन्ता० १ स्वोत्सङ्गस्थितचन्द्रार्क० ४ स्वोदरं दारयाम: किं ? ५ १४९ १९५ २७६ ३८४ ८६ ४१८ ४६१ ३६७ ४८८ ३५८ ५०८ १२ २७९ १७४ १४४ सहितो राजभिः पञ्च० स हृष्टः सचिव: शीघ्रं संयुक्तौ तौ पितापुत्रौ ३ संवीतदिव्यवसना २ संवेगातिशयापन्नः ४ संसारे चतुरशीति० संसारे निपतन्नेष संसिक्ता चन्दनाम्भोभि० २ सा कन्या ते च राजान० २ सा कृताञ्जलिरित्यूचे २ साऽग्रहीद द्विविधां शिक्षा २ सा तत्कालमपि हि श्री० १ सादिनः पत्तयो वाऽपि ५ साधुं धृतिधरं नाम ४ साधु वत्साविति वदन् ४ साधु हे देवता:! साधु १ साऽनुज्ञाप्य हरिं तेन २ सानुरागः सानुरागं ५ साऽपि मुक्त्वाऽशनिघोषं १ साऽपि स्मरणमात्रेण ५ साऽप्यूचे चक्रिणं देव! ३ सामन्तामात्यमुख्याश्चा० ४ सामन्तामात्यसेनानी० ४ सार्धा द्वादश रूप्यस्य २ सा शान्तिस्वामिनं नत्वा ५ सिद्धो मनोरथो मेऽसौ २ सिन्धुदेवीमथोद्दिश्य सिंहनिष्क्रीडितं नाम सिंहरथ्यरथस्वप्नात् सिंहासनं पादुके च २ सिंहासनमथाऽध्यास्य ५ सिंहीभूयोभयोस्तस्य ३ सुखप्रसुप्तया देव्या ५ सुखं वैषयिकं पत्या सुखान्यनुभवन्तौ च सुचिरं स तपस्तेपे सुतारया श्रीविजयो सुताराभ्रातृजान् भग्नान् १ सुताराऽमिततेजाश्च सुतारामुपवासस्थां सुतारा-श्रीविजययोः १ सुतारां समुपादाया० १ सुदत्तश्रेष्ठिपुत्राय सुधनो धनदश्चोभौ सुधनो धनपतिश्च ५ सुप्तोत्थिता च सा देवी २ सुप्तोत्थिता तु सा देवी सुरासुरनरस्त्रीणां सुरेन्द्रदत्तं स्वे राज्ये सुरेन्द्रदत्तनृपतिः ३२६ सुरेन्द्रदत्त: श्रीमेघ० सुरेन्द्रदत्तो न: स्वामी सुरेष्विवोपस्थितेषु २ सुलग्ने मेघरथेन सुव्रतार्यांहिपद्मान्ते सुस्वप्नसूचितं सूनु० सूतिकावेश्मनस्तस्य सूत्राभिधाने विजये सूर्याचन्द्रमसौ स्वप्ने १ सूर्यादिज्योतिषां सृष्टि० ५ सेनानीर्दण्डरत्नेनो० ५ सेनानी-वाजि-निस्त्रिंशा०५ सेनान्यामश्वरत्नेन सेवित: सूपकाराणां सेव्यमानो मागधाद्यै० १ सैन्यरेणुभिरुद्भूत० १ सैन्यानां जातभङ्गेन ५ सैन्यैः श्रीविजयस्याऽथ १ सोत्क्षिप्य दक्षिणं पाणि० २ सोऽथ तद्वाक्यभावार्थ० ५ सोऽथ लक्ष्मीवती नाम ३ सोऽथ विद्याधरो विद्यां ३ सोऽन्तरिक्षस्थितो नाथं ५ सोऽपरेधुरथाऽऽरुह्य २ सोऽपि नाथं नमस्कृत्य ५ सोऽप्यमात्यो जगादैवं ४ सोऽप्याख्यदेषा दुहिता ५ सोऽप्युवाच पुमानेवं ३ सोऽप्यूचे सामान्यपुंसां ३ सोमप्रभाभिधानस्य ४ सोऽयं सुरोऽस्मत्प्रशंसा० ४ सोऽर्धचक्रधर: स्मित्वे० २ सोऽलक्षित: परिजनैः ५ सोऽस्यैव जम्बूद्वीपस्य २ स्कन्धावारं दृढस्कन्धः ५ स्तुत्वेति सति तूष्णीके ५ स्तोकमेव मयाख्यात० २ स्तोकेनाऽपि हि रन्ध्रेण २ स्थितो मासिकभक्तेन १ स्थैर्येणाऽत्यमरगिरि २ स्पर्शे मृदौ च तूल्यादे० ५ स्मरन्ती केसरे! तिष्ठ ५ स्मरेतिवृत्तं सन्दृब्धं ४ स्माऽऽहेत्यनन्तवीर्यस्ता०२ स्मित्वा मेघरथोऽप्येव० ४ स्मित्वोचेऽनन्तवीर्योऽपि २ स्वच्छन्दं म्लेच्छभूमिष्ठं ५ स्वच्छन्दं रममाणस्य १ स्वच्छ-स्वादुपयःपूर्णः २ स्वजनन्या: समीपे चा० १ ३६१ ३६४ ३०९ ३७१ २३५ ३३९ ७४ १५५ ३५६ २०९ ६७ १५७ २०७ १९८ JM oroorrorammrormmm ४५२ ११० २७ ४०७ ३४९ ४०५ १५६ १८० ३४३ ४१८ ३७६ २३९ ३७८ ४३३ ३०९ हताहतानीन्द्रियाणि ५ हरिणो हारिणीं गीति० ५ - हा वत्स! विजयभद्र! १ हा! श्रीविजय! मत्प्राण! १ ह हा! दैवेन मुषितो हित्वा मोहं सर्वथा त० १ हिमाामिव नलिनी हिरण्यलोमिका नाम १ हतां सुतारां विज्ञाय १ हे वत्स! विजयाऽऽदत्स्व ४ ह्रदिनीनाथ-हदिनी० ५ ह्रियमाणां स्वामिजामिं १ ह्रीनमत्कन्धरा नित्य० ५ ३४३ २७४ २७३ २६० ४७९ ३७४ १९३ ३५१ ५०७ २८६ २१५ १४४ ७८ २७८ ३८८ rnsssrimmy १९६ २५० २९ २४ ३९२ ६२ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकः अग्निवत् तेजसा तत्र अङ्गुलीभिर्गणयतो अङ्गुष्ठमात्रकस्याऽपि अजायत तव स्तोत्र ० अजीर्णे भोजनत्यागी अज्ञाननाटितं बाल्ये अतिक्रूरतरं कर्म अतिशब्दपयां वृद्धिं अतिहूहूश्च गीतेन अत्र द्वौ जिनचक्रिणौ अत्र संस्कारहेतु अथ तीर्थेऽस्नावस्य अ अनासक्त्योपभुञ्जानो अनासीनोऽशयानक्ष अनिरुद्धमनस्कः सन् अनुदूढा वरं नारी सर्गः क्रमाङ्कः ४ २ अथर्षि चटकोवाच अथ सोऽवोचदस्त्वेवं अथाऽङ्गणे रेणुपुङ्खै० अभाव जम्बूद्वीपे अचाश्रमे स्वर्णवर्गों अथाऽस्य जम्बूद्वीपस्य ३ अत्यं नृपतिर्दध्य अथैकः साधुरित्यूचे अथैकः सुव्रताचार्य० अथोचे वामनो यावद् अदृष्टपूर्व वीरलं अदृशप्रतिरूपं व अदेश-कालयोश्चर्यां चक्षूंषि चक्षूं अद्य नः सफलं नाथा० अद्य नीराणि क्षीरोद० अद्य मे दुष्यति शिरो अद्य विष्णुकुमारस्तत् अद्याऽवसर्पिणीकाल० अद्यैव देहि मां तस्मै अधस्तेषां घटानां च अननसुन्दरीत्यूचे अनङ्गसुन्दरीत्यूचे अननसुन्दरी वीर अनतिव्यक्तगुप्ते च अनन्तवीर्यात् तनयो ६ १४१ ७ १३२ ७ १८५ ७ १४२ ६ २४२ ८ १९६ २ ११७ ८ ६ ३ २ ८ ८ २ ६ ६ १ १ १ ६ ८ ७ २ ७ २ १ २ अनुरूपवराप्राप्त्या अनुरूपवराभावात् २ अनुरूपस्तुपालाभा० २ १३ ४९ २०८ १९४ १ ३४ २१० ४४ ३. ८७ १० १९७ १६० २६ ३२२ ९४ ९३ १८७ ४५ ४६ ४० १९ १२६ १३१ २१५ २१० १६९ २०० २२९ १८२ ६२ १० ५९ १०८ २०३ ९५ २१३ १२२ ॥ षष्ठं पर्व ॥ श्लोकः अनुरूपं तदुहिदु० अनुरूपं वरं किं ते अनुरूपं वरं तस्या अनुरूपो महित्रे अनुल्लङ्घितमर्यादः अनेकरणनिर्व्यूढो अन्तरजारिषड्वर्ग० अन्तर्जयनिक मल्लेः सर्गः क्रमाङ्क: २ २ २ २ १ ६ ७ ६ ६ अन्तः पुरेणाऽपरेद्युः अन्धकारमयं चाssसी० २ अन्यत्र वा दुःखपदे २ अन्यदा स ममाऽगार० २ २ १ २ अन्यदेशानचन्द्रस्य अन्येद्युर्विहरन्नागात् अन्येद्युर्विहरन्नागात् अन्येद्युः पतिमापृच्छ ४ अपराधी तथाऽप्यस्मि ८ अपरेद्युर्बलो राजा अपरेद्युर्वसन्तर्तौ अपसज्ञेव पतिता अपि चन्दननिः स्यन्द० अपि शाश्रवैरान्धा ६ ७ अमी अकालयात्रायां अमुं वादे विजेष्येऽहं अयं प्रभावः परमः अयं ब्रह्मरथः पूर्वं अप्येकवारं ददृशे अप्येतेषां भवेद् योगः अब्धेरुत्तीर्णमात्रोऽपि अब्धेरुद्घृतमात्रोऽपि अभिष्टोतरी ६ २ २ अभ्यधात् प्राञ्जलिः पद्म० ८ २ अभ्यधाद् भूपतिर्भूय० अमन्दानन्दजनके ६ अमरैर्वसुधारादि अमरैर्विदधे तत्र अमात्यवचसा चेतः २ ७ ८ ८ ६ ८ अयस्कान्त इवाऽयः सु ७ अरतीर्थकृतस्तीर्थे अरतीर्थेऽथाऽऽसन् विष्णु०५ अरनाथस्य निर्वाणात् ६ अराजकमहो विश्व अरे न हि भवस्येव ७ अरे न हि भवस्येष अर्थाष्टमेषु वर्षाणां अर्हदाराधनाद्यैश्च अर्हद्भक्त्यादिभिः स्थानै० ७ २ ३ ३ १०८ २०६ १०७ १९८ ७ १६६ १८९ १०९ ९० ७१ ३६६ ११३ ३१४ ८१ ६० ५९ १९२ ८ १८ २५२ ५२ १७१ ६४ ४९ २८२ ३४९ २३४ १२९ २२५ २२७ १५६ ५८ २८ १७ २७ २४३ ५१ १७ १ २६५ ८८ ३६ ३८ १४५ ११ ११ श्लोकः अर्हत्रयसमो नास्ति अवतस्थे यथास्थानं अवतस्थे यथास्थानं अवश्यं तत्र भावी ते अवस्कन्दमवस्कन्दं अवास्थित यथास्थानं अविज्ञेयप्रभावाया० अवोचमहमप्येवं अशेषजगदाकाश० सर्गः क्रमाङ्कः ६ १ ६ ८ १ २ अश्रौषं चाऽन्यदा वीर० २ ११० ११५ १२६ ८ २०६ अष्टादशसहस्र्यब्द० असाधयद् हरी राजा अस्ततन्द्रैरतः पुम्भि १०२ २ ९३ ७ १३८ ८ ८ अस्तु च्यवनकालेऽपि अस्मद्रक्षाकृते कोऽपि अस्माकमपदोषाणां अस्मिन् गर्भस्थिते माता ७ अस्मिन् मेरुगिरौ धात्र्यां ६ अस्मिँल्लोकेऽस्ति विख्यातं ४ अस्येयं हरिणी नाम ७ अस्यैव जम्बूद्वीपस्य १ अस्यैव जम्बूद्वीपस्य २ अस्यैव जम्बूद्वीपस्य अहं तात! त्वयाऽऽकृ २ अहं वेगवती नाम अहो आलेख्यनैपुण्य० २ पुण्यं प्राप ६ आ 67 आ केवलात्रिवर्षोना० १ आ केवलाद् विहरतः आक्रमताऽशोकलता: आख्यत सिंहलवास्तव्यो २ आख्यद् रत्नप्रभाऽप्येव २ आख्यातास्मि श्व इत्युक्त्वा २ आख्यायैवं वामनस्तु १ २ आख्यास्याम्यपरं प्रात० २ आगत थोपवेताळां आय भगवानेवं आचचक्षे ततः सोऽपि आचार्यागमनं ज्ञात्वा आजन्म ब्रह्मचारित्वाद् आतिथ्यं तापसाइकु० आत्तमौनस्ततः पद्म० आत्मायत्तमपि स्वान्तं आत्रेयिकां नाम परि० आत्रेयिकाप्येवमूचे आत्रेय्यप्यभ्यधादेवं 6) ४ ८ ६ ८ ८ २ ६९ ८८ २१५ २५८ 999 ४१ ६५ ९६ ७४ ३३ १४१ ४७ ९२ ९५ २ २७८ १०१ १६४ १८३ ३८२ २३७ ७३ ३०९ २८६ ३४६ ३३२ ३५४ ६१ २०४ ३३ १४३ २१८ ११६ १३२ ७७ ४२ ५० ५४ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः २२८ ६४ ५ १८६ Wor ३१ ११८ ८९ GAG SEV १५३ २७९ २१२ आदृत्य शो राजाज्ञा० २ आधार इव धर्मस्य १ आनन्द: पुण्डरीकश्च ३ आनेष्यामि महापा ८ आनैषीत् तत्प्रवृत्तिं च २ आपप्रच्छे सनिर्बन्धं २ आभोगिन्या विद्यया च २ आमित्युक्ते तया वीर० २ आमेत्युक्तवती सा च २ आमेत्युक्त्वा नरेन्द्रोऽपि ७ आरोहकायाऽपरस्मै ८ आर्हतेषु जघन्यो य: ४ आलिङ्गता च लवली: १ आश्चर्य प्रेक्ष्य तद् राजा ८ आश्रयन् प्रश्रयं वीर० २ आश्रय: स श्रियामेक: ६ आश्वास्यैवं वनमाला आसनैश्च नवनवैः ८ आस्यप्रभापराभूत०६ आह स्मर्षभदत्तोऽपि २ आहयाऽमात्य-सामन्त०८ २९५ २२७ ८७ 95 wam oo w Domy a my M . उत्तालतुमुलैः पौर० ७ उत्तिष्ठमाना युद्धाय उत्तिष्ठ वत्से! गच्छाव उत्तुङ्गो मेरुवद् व्योम० उद्यद्दमनकामोद० उद्यौवन: कमलश्री ६ उद्विग्न इव किं तात! ६ उन्मत्तकोकिलालापै० उपतस्थे बलिर्योद्धं ३ उपेक्षमाणे तत्पापं उपेत्य दिक्कुमार्योऽस्या: ६ उपेत्याऽऽसनकम्पेन उपेन्द्रसेनो राजेन्द्र० उभयोरपि पत्न्योस्तु २ उभावेतौ दृढतरौ २ उभौ मुमुचतुर्बाणान् उल्काकुलं युगान्तार्क० ५ उल्लालयन जलनिधीन् ८ उल्लाल्यमाना कल्लोलै० २ उवाच सचिवोऽप्येवं ७ ३७ ८१ ३४ १९८ ३०० २५९ ११५ १२३ इतस्ततो मरुत्कीर्ण० ७ इति कोपं शमयितुं इति तद्वर्णनं कृत्वा ६ इति निश्चित्य स सुर० ७ इति संस्मृत्य सा पूर्वा० २ इति सागरदत्तेन २ इति स्तुत्वा सौधर्मेन्द्रे २ इति स्वं निन्दतोर्धर्म० ७ इतो धरणजीवोऽपि इतो भवे तृतीयस्मिन् ६ इतो भवे तृतीये मे २ इतोऽभिचन्द्रजीवोऽपि ६ इतो विघ्नान्मृतिश्चेन्मे इतो वीरकुविन्दोऽपि इतोऽस्य जम्बूद्वीपस्य ५ इत्थकारं क्षुल्लकेन ८ इत्थं च दध्यौ स मुनिः ८ इत्यभ्यधाच्च गणिनी २ इत्याकर्ण्य वच: क्रुद्धो ४ इत्याज्ञया कुलपते: २ इत्यादि प्रलपन् पुर्यां ७ इत्यादि विविधावस्थो ८ इत्युक्तं जिनमत्याऽपि २ इत्युक्त: शिबिकारूढो ७ इत्युक्ते नृपतिर्मन्त्री० ८ इत्युक्तो विष्णुना मन्त्री ८ इत्युक्त्योद्दीपितो विष्णु० ८ इत्युक्त्वा तं गृहे नीत्वा २ इत्युक्त्वा मुदिता राज्ञी २ इत्युक्त्वाऽल्पां भुवं गत्वा २ इत्युक्त्वा विपणौ गच्छं० २ इत्युक्त्वा स ययौ स्वौक: ८ इत्युक्त्वा हष्टचित्तेन ८ इत्यूचुः सुव्रताचार्या इत्यूचे पञ्चमेनाऽपि ६ इत्यूचे वीरभद्रस्तां इन्द्रादयो गणधरा: इयं कस्याऽपि शापेन इहाऽधुनैवाऽऽपतता ७ इहैव भरतक्षेत्रे इहैव तिष्ठे: सुभ्रु! त्वं G wova yo ३११ २८ oor vr 5 w MrrorWooMMS १७१ १७६ १४७ ऊचे चाऽनङ्गसुन्दर्या २ ऊचे ज्वालाऽपि राजानं ८ ऊचे तत्राऽऽद्यदूतेन ६ ऊचे द्वितीयदूतेन ६ ऊचे नमुचिभट्टोऽपि ८ ऊचे राज्ञाऽभ्यर्थितोऽपि ८ ऊचे विनयवत्येव० २ ऊचे सागरदत्तोऽपि २ ऋ ऋतुकाले स ऊचे तां ४ ऋषिपत्न्या तया राजा ४ ऋषेरस्यैनसा गृह्ये ४ १३१ १७१ २१६ १२ २९७ ४५ ८ १६५ १३ १२४ wr ७७ इक्ष्वाकुवंशक्षीराब्धि० ६ इक्ष्वाकुवंशतिलक० २ इक्ष्वाकुवंश्यस्तत्राऽभू० ८ इतश्च ग्रैवेयकस्थो इतश्च जम्बूद्वीपस्य १ इतश्च जम्बूद्वीपस्य इतश्च जम्बूद्वीपस्या० २ इतश्च जम्बूद्वीपेऽस्मिन् ५ इतश्च जम्बूद्वीपेऽस्मिन् ६ इतश्च तेषां युगपत् इतश्च नगरे तस्मिन् इतश्च पुर्यां चम्पायां इतश्च पूरणात्माऽपि इतश्च प्राणते कल्पे इतश्च प्रान्तवास्तव्यो इतश्च भरतक्षेत्रे इतश्च मल्लेरनुजो ६ इतश्च मिथिलापुर्यां इतश्चर्षभनाथस्य इतश्च वसुजीवोऽपि इतश्च विहरत्येव इतश्च वीरभद्रोऽपि इतश्च वैतादयगिरौ इतश्च सर्वार्थसिद्धे इतश्चाऽचलजीवोऽपि इतश्चाऽत्रैव भरत० इतश्चोज्जयिनीपुर्यां ८ इतश्च्युत्वा ह्यसावर्हन् ७ १९२ GMAmroGamm १६८ १४२ ७८ २४६ १०७ १२२ or ormer ६ एक आहाऽर्हतां धर्मः ४ एकतोऽच्युतनाथस्य ६ एकत्र स्वयमप्येते ८ एकदा सिंहलद्वीपे २ एकं च कुम्भराजस्यो० ६ एकं मोक्षतरोर्बीजं ६ एकेषां जनयन् प्रीति० ३ एकोनत्रिंशि धन्वोच्चौ एकोनविंशमर्हन्त०६ एयुर्मी लिङ्गिन: सर्वे० ८ एवमन्येऽपि विविधं एवमस्त्विति ते प्रोच्य ७ एवमस्त्विति देहीति ८ एवमस्त्वित्युदित्वाऽथ २ एवमाकर्ण्य स श्राद्धो २ एवमुक्त्वा कुमारेण चन्वाच्ची ३ ईशानाङ्कनिषण्णस्य ईशानाङ्के निवेश्येशं २७४ १४९ १९५ १०६ ९८ Morror उच्छलच्छोणितरस० ४ उज्जासयन्नसुमता० १०९ उत्कृष्टो भूभृतामद्य १ ४४ उत्तरश्रेणितिलके उत्तालतालिकानाद० ७ ७० १७८ १७२ २८७ ८१ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ ७२ ४८ १६५ ७५ ww १३१ १३४ १०१ ११० ८४ १७१ Wrum my १२५ श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः एवमेते त्रयो दोषा क: सुखे विस्मयस्मेरो २ ८२ क्रुद्धो मल्लकुमारोऽपि ६ ११३ एवं क्रमेणाऽसङ्ख्याता ७ कामरूपः सुर इव २ ११८ क्रोशन्ती: प्रेक्ष्य ता: सानु०८ एवं च प्रतिपन्नार्थो ८ कायचिन्तार्थमायान्ती २ क्व रासभी? वाजिराज ७ ४७ एवं च स सुरो दध्या० ७ कार्तिकशुक्लद्वादश्यां २ क्व वा वराकी चटका? ७ एवं तं विंशमर्हन्तं १३९ काले च सुषुवे पूर्णे ३ क्षणं दिवि क्षणं तस्यां ६ एवं तामहमाश्वास्य ८ कालेऽसूत सुतं सा च ३ क्षणाद् विष्णुकुमारस्तं एवं ते कृतसङ्केता १८ किमत्र क्षत्रियोऽस्तीति ४ क्षणेनाऽभ्येयुषोऽभ्यर्णं ८ एवं तेन्यक्कृता राज्ञा ६ १७४ किमेतदिति जिज्ञासुः ७ क्षत्रव्रतैकद्रविणं ७ १४८ एवं भगवताऽऽख्याते ७ २१९ कियच्चिरमिदं विश्व० ६ क्षत्रियो यत्र यत्राऽऽसीत् ४ एवं विचिन्तयन्तं तं ८ १६४ कियन्तमपि चाऽध्वानं २ क्षमावान् विनयी दान्तः ७ १७८ एवं विचिन्तयन् राजा ७ २६ किं देवसद्मना तेन ६ क्षारोदादिव संसारा० ७ १७४ एवं विचिन्त्य निर्गत्य ६ किं ब्रमस्तस्य यद्गर्भे ६ १९० क्षितिं निःक्षत्रियां रामः ४ १०१ एवंविधसमुत्पत्ते० ६ १९२ किं श्वेतभिक्षुभिररे! ७ २१२ क्षुण्णक्षत्रियदंष्ट्राभी ८३ एवं सुव्रतया चोक्ता २ किं सुधासारणि: किं वा १ २४ क्षुण्णक्षितिपहस्त्यश्व० ४ १०२ एवं स्तुत्वा विरतयो० ६ कुकर्माण्यन्यकर्माणि ६ २२१ क्षेमेणाऽर्हन्नयोऽप्यब्धे० ६ ७७ एष सम्पादयिष्यामि ७ कुण्डलप्रक्रमायातं ६ क्ष्मां पालयन् पञ्चदशा० ७ १४६ कुमारबुद्ध्या तद्बासो ८ ७६ ख ऐहिकामुष्मिकाभीष्ट० ७ कुमारभावेऽब्दसह० खलाख्य: सचिवः सोऽपि ५ औ कुमाराभिमुखं रोषा० खुरलीसमयेष्वेव ७ औदार्य-धैर्य-गाम्भीर्या०७ कुम्भदेशे चपेटाभिः खेचरान् स्फारफूत्कारैः ८ औषध्यः क्षुद्रहिमव० १ कुम्भराजो जगादैवं क कुम्भोऽपि तेन रोधेन १७८ गङ्गादेवीं नाट्यमालं १ कण्ठपीठे लुठन् भोगि० ६ कुरुष्व मद्देशो: प्रीति २१४९ गणिनी सागरदत्तो कत्यप्यहानि स स्थित्वा २ कुलीनश्चतुरः सत्य० ६ १५७ गणिन्या बोधिता सैवं २ ३०५ कथञ्चिद् व्यसृजद् राजा २ कूपभेक इवाऽनन्य० ४ गणिन्युवाच ते धर्म २७२ कथं न ज्ञायत इति २ १७८ कूपमण्डूकवत् तिष्ठन् २ गतेष्वब्दसहस्रेषु कथावृत्तकभेदं तु ३२४ कृतनिष्क्रमणस्तेन ८ १३३ गतेष्वब्देषु तावत्सु १ कथाश्च दु:कथा एव ६ २२३ कृतनिष्क्रमणो देवैः गत्वा च सुव्रताचार्या० ८ कन्यार्थमागतोऽस्मीति ४ ४० कृतवीर्योऽन्यदा मातु० ४ गदा-मुद्गर-दण्डादीन् ५ कन्या ह्यवश्यं दातव्या ६ कृतसङ्गः सदाचारैः ७ गरीयसि पुरेऽमुष्मिन् ८ कन्यां तस्यानुरूपां तु २ ११९ कृतार्थमिदमैश्वर्य० १ गर्भस्थायां तत्र मातु० ६ ५२ कपाटजालैस्तदप० कृत्वाऽभ्युत्थानमुर्वीश: ४ गुणरत्नार्णवस्तस्य ५ कमलश्रीमहादेव्यां कृत्वोपायं फलेनैव ८ गुणैः शीलादिभिस्तैस्तैः ७ १२१ कम्पयन्ताविव महीं २४ कृपाधनैर्भूगृहान्त: सा गुरुबुद्ध्या कथममी कर्णमूले जगुस्तस्य ८ १८४ कृष्टिमन्त्र इव श्रीणां गृहाजणरजस्तस्य २ २० कर्म जीवश्च संश्लिष्टं २२९ कृष्णेक्षुवाटैरभ्युद्यत् ६ गृहे गृहे तत्र चाऽश्वा ११३ कर्म भोगफलं वीर० ३६९ केवलज्ञानिनां त्रीणि गोघातपातकेनाऽहं कर्मेदं वक्रमपि ते १४६ कोपादिहाऽपि दह्यन्ते ८ १८५ गोशीर्षचन्दनालेपे कमैतनिघृणमहो! ७ ७४ कोपोपसंहारकृते ग्रहणाय कुमारस्यो० ८ ८२ कलाकलापविज्ञाना० २ १४० कौतुकालोकनोत्केन ७ ग्रहेषु चोच्चससंस्थेषु १ कलाभिर्हतचित्तां तां ३४२ कौमार-राज्य-चक्रित्व० १ ग्रामाकर-पुर-द्रोण० ८ १३७ कलारूपादिभि: स्वस्या २ २१४ कौमार-राज्य-चक्रित्व० २ कलाविदीदृशी कस्मा० २ कौमारे द्वे वर्षशते चक्रवर्त्यष्टम: सोऽथ ४ १०० कल्प इत्यृषभकूटे कौमारेऽब्दपञ्चशती २०५ चक्रे चक्रित्वाभिषेकः १ कल्पद्रुमकलाविद्धं कौमारे व्रतपर्याये चक्रे जन्मोत्सवं सूनोः ७ कल्पद्रुमैर्दशविधैः क्रकचैरिव चक्राते चक्रे जन्मोत्सवः सूनोः १ कल्पान्त इव पाथोधि० २ २४६ क्रमादुद्यौवनं तं च ६ ११ चक्रे जिनप्रवचन कविप्रलापरूढेऽस्मिन् ६ क्रमेण ववृधाते ता० ८ १२ चक्रेर्चा चक्ररत्नस्य कस्य कन्येयमिति तु २ ११४ क्रीडन्नागरनारीणां चटकश्चटकामूचे कस्याऽपि न भयं नाथ! ७ १७० । क्रीडोद्यान-सरिद्-वापी०७ ६१ चतुर्दन्तो गजः श्वेत: २४२ १२६ m ramv १५० ३० १५५ ६२ ३८५ १६७ Juwy w v २३८ २९ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्क: ३७८ ३८ ६८ १८१ २३९ २५१ 4000 १९४ १४३ ७९ ११८ ३७ २० . www vor 9rM3 rarww, १२६ जामदग्न्यस्ततस्तस्य ४ जितशत्रु महीपालं जितशत्रुर्जिताशेष० जितशत्रस्तदक्त्यैवं ६ जिनधर्ममहोरात्रं ७ जीवोऽथ प्रियमित्रस्य ३ जीवो महाबलस्याऽथ ६ जीवो वैश्रवणस्याऽपि ६ जैन धर्म दिशन् वीर० २ ज्ञातं कठिनचित्तोऽसि ज्ञाताश्च दिव्यगुटिका ज्ञात्वा च समवसृतं ज्ञानत्रयनिधानाय ज्ञानत्रयं गर्भतोऽपि ज्ञापयित्वा दृप्त इति ज्येष्ठस्य कृष्णाष्टम्यां ७ ज्योतिश्चक्राणि पर्यस्यन् ८ ज्वरहत्तक्षकचूडा० ७ ज्वालयाऽथ महापद्य० ८ २३१ २३९ २१३ १९ ११२ चतुर्दशपूर्वभृतां चतुर्दशपूर्वभृतां चतुर्दशपूर्वभृतां ७ चतुर्दशमहारत्नी चतुर्दशमहास्वप्न चतुर्दशमहास्वप्न ६ चतुर्दशमहास्वप्न चतुर्दशमहास्वप्नां० चतुर्दशमहास्वप्नां० चतुर्धा धर्मदेष्टारं चतुर्मासोपवासान्त० २ चतुर्मासोपवासान्ते २ चतुर्वर्गाग्रणीर्मोक्ष० २ चतुःस्वप्नाख्यातरामा० ५ चत्वारिंशत्सहस्राणि चन्द्रच्छायनरेन्द्रोऽपि ६ चन्द्रवच्छायया चन्द्र० ६ चपेटालग्नतत्तुम्ब० ३ चम्पेशस्य नागवती चिच्छेद तदिषून विष्णु० ३ चित्रीयमाणश्चित्रेण ६ चुम्बता चम्पकलता १ चेतनाचेतनैर्भावै०६ चेलुः षडपि ते वर्ष० ६ चैत्यद्वं तत्र षष्ट्यग्र० २ चैत्रशुद्धतृतीयायां १ चोक्षा स्मेरमुखीत्यूचे ६ चोक्षेत्यचिन्तयद् राज्य०६ च्युत्वा श्रावणराकायां ७ 10 १५३ १५८ १०२ ३७३ ७१ २३२ १७६ २२१ ३८७ २० ५3 ३ तत्केलितुमुलं श्रुत्वा ८ तत्तन्त्री सज्जयित्वाऽथ २ तत्तीर्थजन्मा कुबेर० तत्तीर्थजन्मा वरुणो तत्तीर्थभूर्बलादेवी तत्तीर्थभूश्च गन्धर्व तत्तीर्थभूश्च वैरोट्या तत्र च क्रीडितुं मल्लो तत्र चैत्येषु विशद तत्र पुर्यां तदानीं च ७ तत्र प्रविश्य चैत्यद्रोः तत्र प्रविश्य प्राग्द्वारा० ६ तत्र प्राक्सञ्चितस्त्यान० ७ तत्र यूनां रतभ्रष्ट० तत्र रत्नपुरे श्रेष्ठि तत्र रत्नाकरनृप० तत्र राजा जितशत्रु तत्र राजा प्रजापाल: तत्र सत्रे ययौ सिंह तत्र सागरदत्तस्य २ तत्राऽपि देशनां कृत्वा २ तत्राऽपि परमर्द्धिः सन् २ तत्राऽरनाथस्य मुनीश्वरैस्तैः २ तत्राऽवश्यं गमिष्यामी० ८ तत्राऽस्तीन्द्रधनुर्नाम ८ तत्रैक: साधुरित्यूचे ८ तत्रैको वामनोऽभ्येत्य २ तत्संवासयितुं यूयं ८ तथाऽपमानान्नमुचि० ८ तथाऽप्यचलिते धर्मात् ६ तथाऽहमपि ते भृत्य० ८ तथा हि जम्बूद्वीपस्या० ७ तथेति मन्यमानस्तु तथेह भरतक्षेत्रे तथैव कृत्वा दिग्यात्रां तथैव प्रलपन्नच्चै०७ तथैव विदधे राजा ६ तथैवाऽह्रि द्वितीयेऽपि २ तथोत्पन्ना नरदत्ता तदवश्यं मनःशुद्धिः १ तदा च तुमुलेनोच्चै० ८ तदा च बहिरुद्याने ८ तदा च श्राद्ध: प्राग्जन्म ४ तदा च सुव्रतो नाम तदा चाऽनङ्गसुन्दर्या तदानीं मिथिलापुर्यां तदैव कुम्भराजोऽपि तगृहेष्वभितो रत्न० तद्देशनावचः श्रुत्वा ७ तद्भगिन्या स वृत्तान्तो ४ १५७ १३९ २९ १२५ २५६ ७५ God १७२ २०७ ४८ १५० १०४ ततश्च नमुचि: क्रुद्धो ८ ततश्च मातृदुःखेन ततश्च श्रेष्ठिनं शख० २ ततश्च संशयापन्नो ८ ततश्च साऽर्पयामास २ ततश्चाऽनङ्गसुन्दर्या ततश्चाऽऽनन्दसहितो ३ ३९ ततश्चाऽवार्यदोर्वीर्यो ततश्चोत्पन्नचक्रादि० ८ ११३ ततस्तापसवृद्धस्ता० तत: क्रीडाकृते तां स १३४ तत: प्रकृतयस्तस्य तत: प्रभृति तल्लोके ७ २२० तत: षडपि राजान० १७५ ततः सर्वाहारपिण्डी ततः स सुखमेवाऽस्था० २ १५२ तत: साधुपरीवारो १६६ तत: स्थानादथाऽन्यत्र ६ २५५ ततो जालकपाटानि १९८ ततो नमुचिरित्यूचे १७७ ततो नवसु मासेषु ततो न्यवेशयद् राज्ये ६ १५ ततो मातकृताहार० ६ १९१ ततो मात्सर्यवानेको ६ ततो ललितमित्रोऽपि ५ ततो विचित्रक्रीडाभिः २ २९३ ततो विद्याधरश्चाऽऽगा० २ ततो हिमगिरिज्येष्ठं ७ १०७।। तत्कालं हास्तिनपुरे ४ तत्कालमुपेत्य सर्वतोऽप्य ६ २६६ ८ १८२ १७६ २ जगज्जीवनमम्भोभिः २ जगत्त्रयशिरोरत्नं जगदेऽनङ्गसुन्दर्या जगन्नाथमिति स्तुत्वा जगाम वनमालाया ७ जङ्घयोश्च मृगीजङ्घा ६ जटिल: पलित: क्षामो ४ जन्मतोऽब्दशते पूर्णे ६ जन्मतोऽब्दसहस्राणां २ जम्बूद्वीपस्याऽस्य पूर्व० ८ जयचन्द्रामातुलजौ ८ जय त्रिभुवनाधीश! २ जयन्ति जयिन: कुन्थु० १ जयन्ति मल्लिनाथस्य ६ जयन्तीनामशिबिका० ६ जातवैक्रियलब्धीनां जातवैक्रियलब्धीनां ६ जातवैक्रियलब्धीनां ७ जातानुरागां तां ज्ञात्वा ८ जाताम! महर्षिं तं १११ १०७ ३४ ७७ १६० २०४ ३८० २५९ २४१ ६१ ३४८ १७३ ६५ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९ श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः .१९० १५३ १६ १२८ १६२ १५९ ३४७ w or warr १०० ८ १८५ ३७२ १ ६३ १४२ १७ १४ १०९ N २०२ २६ २४७ १२० ३५२ १०१ १६२ २३५ १६५ १५७ २२४ तद्युष्माभिर्न भेतव्यं ताष्माभिर्न मे राज्ये ८ तद्वन्दनाय सर्वा ८ तद्वप्रे रत्नघटिते तद्विप्लवभयात् पद्म० तद्विवाह समाकर्ण्य तद्वीणागीतमाकर्ण्य तपस्विनो मनःशुद्धिं तपो यदेकः कर्ता न० ६ तप्यमानस्तपस्तीव्र ४ तप्यमानः स विदधे तप्यमानांस्तपो मुक्तौ १ तमग्निं तनयत्वेना० ४ तया च भोगान् भुञ्जानः २ तया चोक्ते श्याम इति २ तया त्रिपद्या स मुनि० ८ तया देव्या समं भोगान् १ तया देशनया भूपाः ६ तयाऽशेषस्य जगतो तया सह क्रीडितुं च २ तयोर्मोहः पिता बीजं २ तरणे च भवाम्भोधे: १ तर्हि त्वमालिखेत्युक्त्वा २ तर्हि श्व: शंसिताऽस्मीति २ तायास्याम्यहमपी० २ तवाऽङ्गस्पर्शन-स्तोत्र० ७ तवाऽऽज्ञावशवर्त्यस्मि २ तवाऽनुरागिणीं चैता० ८ तस्मिन् काषायवसनः ७ तस्मिन् गर्भस्थिते देव्या०६ तस्मिन्नचलिते सत्त्वात् ४ तस्मिन्नन्दन-दत्ताभ्या० ५ तस्मिंश्च नगरे नाम्ना तस्मै च कुण्डलद्वन्द्वे तस्य पद्मावती नाम ६ तस्य मन्त्रो मन इव तस्य वैदेशिकत्वाच्च तस्य श्मश्रुलताजाले तस्य स्थैर्याभियोगाभ्यां ५ तस्या अवसरप्राप्त तस्या गुणगणं तारा० ७ तस्याऽद्भुतचरित्रस्य ३ तस्याऽधश्छन्दके जल्पन् १ तस्याऽभवच्च महिषी ४ तस्याऽभिषेककल्याणं ८ तस्याऽभूतामुभे पत्न्यौ ५ तस्या मम प्रतिमाया: ६ तस्यामासीन्महाबाहु० ७ तस्या मुखस्य शशभृ० ६ तस्यामृषभदत्तोऽस्ति २ तस्या लावण्यपूरश्चेत् ६ तीर्थाभिषेकैः प्राणाति० ६ तस्याऽवरं वरीयांसं तुर्येणाऽप्यधाय्येवं तस्याश्च निरवद्याङ्ग्या २ तृतीयेनाऽपि जगदे ६ तस्याश्चेदुद्यतं वक्त्रं ६ तृतीयेऽप्यहि तत्रैत्य तस्याऽऽसने वा तल्पे वा २ ते च वाराणसीमेयु: तस्याऽऽसन् बालसुहृदो ६ तेजसाऽभिनवः शूरः तस्याऽऽसीद् धारणीपत्ल्यां ६ तेन पुण्येन देवोऽभूद् तस्यास्त्वय्यनुरागं तं ८ तेनाऽपि सह पुत्रेण ४ तस्या ह्यग्रे विभान्त्यन्या ६ तेऽन्यदा सुव्रताचार्याः तस्यां च केसरिस्वप्न० ८ तेऽप्यूचुः सम्भूय भुक्तं ६ तस्यां निशायां जामाता २ १२९ तौ च सर्वाभिसारेण ८ तस्यां पुर्यां च वास्तव्य: ६ तौ षड्विंशतिधन्वोच्चौ ५ तस्यां यशोभि: श्रीखण्ड०७ तौ सिद्धपुत्ररूपेण तस्याः कुलपती रूपा० २ त्रयोदशभिरन्यैश्च तस्याः पार्श्वे प्रतिदिनं २ त्रयोविंश्यब्दसहस्रा: तस्या: पीडामतन्वान० २ त्रयोविंश्यब्दसहस्रे तस्याः पुष्पादि सम्पाद्य ६ ५८ त्रय्यामर्थोऽयमप्कुम्भः ८ तस्याः स्त्रीरत्नमुख्याया ६ त्रस्यत्तपस्वितुमुलं तस्योज्ज्वलगुणज्वाला ८ त्रिजगत्कुमुदानन्द० २ तं गत्वा सपरीवारो ८ त्रिजगत्क्षोभमालोक्य ८ तं च विक्रमरूपाभ्यां ८ त्रिदण्डपाणि: काषाय० ६ तं तथा विकृताकारं ७ त्रैलोक्यस्वामिनः कुन्थो०१ तं दृष्ट्वा क्षुभितं ध्यायन् ४ त्वत्त: प्रियतमे किञ्चित् २ तं शक्रं प्रेक्ष्य सामर्षः ७ २३४ त्वत्पाददर्शनस्यैव ७ तात: पद्मोत्तरोऽद्याऽपि ८ १९० त्वत्पादपद्मसेवाया: तादृक्षा परताडङ्क० त्वगुणग्रहणात् सद्यो ७ तापसानां कृतत्रास: ४ त्वन्नामरक्षामन्त्रेण तापसैः कृतसत्कार: त्वमस्मत्प्रेषणे राज्ञा ताभिर्भोगान् कुमारस्य ८ त्वयि विश्वोपकाराय २ ताभ्यामधिष्ठिताभ्यर्ण: ७ त्वं हि नैमित्तिकेनैव ८ ताभ्यामधिष्ठिताभ्यो २ १०१ त्वां समानेष्यते विष्णु० ८ ताभ्याममुक्तसान्निध्य० १ १२० ताभ्यां पृष्टश्च सोऽम्भोधि०२ दक्षिणैः षड्भिरन्यैश्च तामुत्थाप्याऽऽश्रमपदे २ २५३ दत्तस्य शाङ्गिणो जाते ताम्रलिप्त्याः कश्चिदागा०२ १९५ दध्मौ दत्त: पाञ्चजन्य तावत्येव गते काले २ ४८ दानमात्रं न धर्माय ६ तास्तं वामनमायान्तं २ ३५९ दानमूल: सदा धर्म० ६ तां गृहीत्वा गच्छतश्च २ ३४३ दानं दत्त्वाऽऽब्दिकं राज्यं २ तां पश्यन्नवनीभर्ता ७ दिष्ट्या त्वद्दर्शनेनाऽनु० ६ तां पितोत्सङ्गमारोप्य ६ दिष्ट्या प्रणमतां भाले ६ तां पुत्रसहितां वल्ली० दीक्षांस वासुपूज्यान्ते ४ तां मुनिः परिजग्राह ४ दीनानाथसमुद्धारो तां वीरभद्र इत्यूचे २ १६१ दीपिका खल्वनिर्वाणा तां साभिप्रायमित्युक्त्वा २ १३७ दीर्घदर्शी विशेषज्ञः ७ तिम्रोऽपि प्रेयसीस्तत्र २ दु:खाब्धिरेष संसार० ८ तिम्रोऽपि विस्मयं प्रापु० २ ३६१ दुर्ध्यानान्यन्यध्यानानि ६ तीक्ष्णोपाय: स तद्दुर्ग ८ दुर्वारा सिन्दुवाराणा० ७ तीर्थं प्रवर्तय स्वामिन् १ ६९ दृष्टो देव्या गर्भगेऽस्मिन् १ तीर्थं प्रवर्तय स्वामिन् ७ १४७ ।। दृष्ट्वा तां विस्मित: पूर्व० ६ तीर्थं प्रवर्तयेत्युक्ते ६ २०२।। दृष्ट्वा विष्णुकुमारस्तं ८ १६७ १५१ १०२ wygwovu २२२ ३८ १६ २४ २७७ ति५ ५५ १२७ १२३ २३ २१७ १६७ १०२ १८८ १२४ २२२ १८१ १५२ ५० ११९ १०२ ३२६ १६२ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० २४४ २९ ३६ ८ ६० २०४ २०६ १०० २०७ २२१ १९३ २०७ ८९ ० ० mm mmm ० ७१ १७६ १५५ १८१ १९४ १३१ २२४ श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः देवराज-कुम्भराजौ ६ २१६ नष्टाष्टादशदोषाया० पत्रीव कार्मुकोन्मुक्तो देवा न बुद्ध-ब्रह्माद्याः २ न हि चूतवने मञ्जु० ७ पथि श्रान्तैरिव रथ० २ देवानामद्य देवत्वं ६ ४५ न हीयत्कालमद्राक्ष० २ पद्मस्य मदनावल्या० देवी च धारिणी नाम २ ९९ नागरफ़ै:पक्कफलैः ६ पद्माक्षसूत्रभृद्वामो देवी नाम महादेवी २ २१ नानाविधाभिग्रहसुन्दराणि ८ पद्मावतीत्यभिधया ७ देवी पद्मावती तासां नाऽभुङ्क्त पारणाहेऽपि ६ पद्योऽपि ज्ञातवृत्तान्तः ८ १८८ देव्या च कथितान् स्वप्नान् १ ३३ नाऽभूदु वार्ताऽपि चौराणां ३ पद्मोऽपि निजगादैवं देशनां पारयित्वा तु नाम्ना महाशिरा नम्री० ३ पद्मोऽपि हि भवोद्विन० ८ २०४ देशनाविरते तत्रा०७ नारकाणां क्षणं सौख्यं १ पप्रच्छ समये चैवं देशनासमये पुण्यां० १६६ नारीकुचवदुष्णत्वात् ६ पप्रच्छुस्तत्र ते धर्म ८ दैवानुकूल्यात् तदयं १२१ निजं कन्याशतं तेन ८ परस्परं तयोः प्रीति० २ दोलान्दोलनसंसक्त० नितान्तमीश्वर: सोढु० ७ परिवेषयतस्तस्य ७ २३० दोषा: स्मरप्रभृतयो निद्राच्छेदे च किं क्षुद्रे! ८ परिवेष्याऽनिच्छयाऽपि ७ द्रव्यादिषु रति-प्रीती निपात्याऽऽरोहको सद्य ८ परिव्राडपि मृत्वा स ७ द्वादशाङ्गधर: कृत्वा निबन्धने दुर्गतीना० ७ परीक्षाकाङ्क्षया ताभ्यां ४ द्वाराणां च पुरस्तेषां ६ निरर्थकं किं च मम २ १८६ परोक्षार्थप्रतिक्षेपात् ६ द्वितीयं निष्कुटं गाऊं १ ६५ निरागसं किमत्याक्षी० ७ ६५ पलायितुं न शेकुस्ता० ८ द्वितीयस्मिन् दिने मल्लि० ६ निरीहो निजदेहेऽपि ७ पाञ्चजन्यं पुण्डरीक० ३ द्वितीयस्यां तु पौरुष्यां २ निर्गत्योपाविशद् द्वार० २ ३२१ पादस्पर्शेन सोऽधस्ता० ८ द्वितीयेऽह्नि तथैवाऽगात् २ निर्ममे गीत-नृत्तादि० ४ पादाभ्यां प्रक्षरद्रक्त० ४ द्वितीयेऽह्नि राजगृहे ७ निर्वाणकालं ज्ञात्वा च २ ३८३ पापभीरुः प्रसिद्धं च ७ द्विधा संलेखनां कृत्वा ६ निर्वाणकाले सम्मेतं २४३ पापस्याऽस्याऽपराधेन ८ द्वीपेऽत्रैव जम्बूद्वीपे ६ निर्वाणपर्वमहिमा १ पारणे पारणे पौरैः ७ द्वे शीर्षे स चकाराऽथ ७ निर्वाणसमयं ज्ञात्वा १२७ पालयित्वा चिरं राज्यं ७ १०५ द्वैतीयिकोऽन्तरात्मेव १ २० निश्चित्यैवं महापद्मो ८ पाल्यमाना तापसीभि० २ २५४ निःश्वस्य वनमालाऽपि ७ पावयन्ती सतित्वेना० ६ धनक्षयेण कल्लोला० २ निःसङ्गो निर्मम: सर्वान् ७ पित्राज्ञया पर्यणैषीत् १ धन्यास्ते हि महात्मानः ७ निःसङ्गोऽपि महर्द्धिस्त्वं १ पिधाय नासिकां तेऽपि ६ धरण्यां नमुचिं क्षिप्त्वा ८ निःसङ्गोऽप्रतिबद्धश्च १ ८० पीनोन्नतकुचद्वन्द्वां धर्माण्येकत्र सर्वाणि ६ नीत्वाऽऽश्रमपदं तां च ४ पुण्डरीकस्य कौमारे ४२ धर्मायैव शशासोर्वी नीलकेशीमिन्द्रनील० ६ पुण्यानुबन्धिना तेन धर्मे प्रवर्तयन्त्यस्मिन् नीलपीताम्बरधरौ पुत्रत्वेन प्रत्यपादि धर्मो विवेकमूलस्त० नृदेवतिर्यग्जन्तूनां ६ पुत्री रत्नप्रभाख्यां स ३५१ धात्रीभिरिन्द्रायुक्ताभिः नृपैरलच्या तस्याऽऽज्ञा ७ पुनरप्यभ्यधाद् विष्णुः ८ १७२ धात्र्या किमेतदित्युक्ते ६ नृपौकस्सु जनौकस्सु १ पुन्नागकुसुमामोद० २ धारिणीप्रमुखं राज्ञी० ६ नेन्द्रत्वे नाऽहमिन्द्रत्वे ६ ५० पुरस्याऽन्तर्बहिर्वाऽपि ८ १७४ धिधिविषयलाम्पट्य० नैसर्पप्रमुखास्तत्र १ पुरानिर्गत्य नमुचिः ८ १४७ धूलीधूसरसर्वाङ्गो ७ ६३ नो चेदमुं स्फोटयित्वा ६ पुराऽपि चेत् प्राव्रजिष्यं ७ २२९ न्यग्रोधमिव विस्तारि ४ पुरुषद्वेषिणी सा प्राग् ८ न कोपं प्रणयेनाऽपि २ न्यायसम्पन्नविभव: पुरुषे यत्र तत्राऽपि नगरस्य बहिस्तस्य ७ पुरे चक्रपुरे व्याघ्र० ७८ न गूढं किञ्चनाऽऽचार्य० ६ पञ्चवर्णपुष्पदाम पुरे प्रवेशो नाऽस्माक० न चुकोप स कस्मैचित् १ पञ्चषष्टिसहस्राणि पुरेऽभूदु विजयपुरे न तावद्विक्रमाक्रान्त० ७ पञ्चाशीतिवर्षसह० पुरे राजपुरे सद्य० २५७ नत्वा गणधरं कुम्भं २ पटे त्वद्रूपमन्येधु० पुर्या निर्याय भूत्वा च ३३८ नत्वा सोवाच वैताढ्यात् २ पटेऽर्हत्प्रतिमां सङ्घ पुष्पमण्डपिकां पुष्प न प्रमादो विधातव्य० १२२ पटेष्वालेख्य रूपाणि ८ ९६ । पूर्णचक्रधरद्धिः स नरकाणां खिल: पन्था २ पतिप्रसादसौभाग्या० २ पूर्णद्वितीयपौरुष्यां ११५ नवमो दिग्गज इव ७ ११७ पतिर्भवति वा मेऽसौ ८ पूर्णद्वितीयपौरुष्यां ३५७ न वा बकुलषण्डेऽपि ७ पत्तने पद्मिनीखण्डे २ २८० पूर्णायामादिपौरुष्यां ११४ ४६ ५२ १ / ७ २० ३७४ ३४० Mondaw G ५२ ७४ ९८ २६० rm mmm or9 ११७ २३ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकः पूर्णायामादिपौरुष्यां २ ८ पूर्णे काले मार्गशुक्लै० ६ पूर्वदृष्ट स्मरस्तांच पूर्वलक्षचतुरशी० पूर्वसिंहासने तत्रो० पूर्व स्नेहानुबन्धेन पृथिव्या मण्डनं सैका सर्गः क्रमाङ्कः फाल्गुनकृष्णद्वादश्यां फाल्गुनश्वेतद्वादश्यां २ पृष्टा च सा सुव्रतया पृष्ठतो विनयवत्या पोतभभवात् सद्यो २ ६ २ २ १ ६ १ पोतारूढौ ततस्तौ तु पोते स्फुटितमात्रेऽपि प्रणामे स्तवने ध्याने प्रणामोऽपि त्वयि विभो० १ प्रणिहन्ति क्षणार्धेन प्रतापाक्रान्तदिक्कस्य प्रतिकारै: प्रतीकारा० प्रतिपत्त्या महत्या सा प्रतिप्रसादसौभाग्या० प्रतिबुद्धिरपि सद्यः प्रतिमापवरकस्य प्रतिमापृष्ठद्वारेण प्रत्यूचे क्षुल्लकोऽप्येव प्रत्यूचे वनमालैव प्रत्यूचे स पुनः क्रुद्धः प्रधाने राजपुरु प्रभाते सूरवत् सूरो प्रभुत्वभोगविषयं प्रभोमण्डलिकत्वेऽपि प्रभोस्त्रिंशत्सहस्राणि प्रम्लानं वदनं चञ्चः प्रयत्नकृष्टैः क्लि प्रवेशनिर्गमद्वार प्रव्रज्या समये ग्राह्ये० प्रस्फुटदंष्ट्रिका शो प्रहादोऽपि धनुदैि० प्राक्क्षिप्तकुथिताहार० प्राकृसिंहासनमध्यास्त प्राग्जन्मकारितजिन० प्राग्जन्ममुहृदां तेषां ६ प्रातर्गत्वाऽऽत्रेयिकाऽपि ७ प्राप चाऽनन्यसामान्यं २ प्रावृट्काले हि साधूनां ८ प्रियदर्शनयाऽथोचे २ २ प्रियदर्शनया सोचे प्रियदर्शनयोत्तिष्ठन् प्रिदाहरणदुःखार्त्तः ६ २ ६ 6 ८ ६ २ ६ ६ ६ ८ ७ ८ २ ८ ४ २ ७ २. ६ ६ ६ ५ ६ ६ 67 ७ ९५ ३९ ११५ २२ ६४ १०५ ३३ २६९ १८९ ७१ २४३ २४८ ९८ ९७ २२८ २१ ७० १३५ २३ ६६ १४८ १८४ ३० ५१ १५५ ३१८ १०६ ५. ४६ २३८ १६५ २३६ १७७ २०१ ९७ २८ १८५ २१४ २१८ १४४ ५८ १०६ १६३ ३१० २७० ३३३ ६ १५९ १५४ श्लोकः २१ ब बन्धनं ताडनं चाऽङ्ग बभाषे वीरभद्रोऽपि बभाषे वीरभद्रोऽपि बभाषे सूररप्येवं बभूवतुरहश्यी च बभूव हरिवंशस्य ७ बलिष्ठे तस्य दो: स्तम्भे ५ ३ ६ बलिं भुजबलाध्मात० बलेनोचैर्बल इव बलेबलबलीयोभि० बहिरन्तश्च बीभत्से ३ ६ बहि: परिच्छदार्हाणां ६ २ ६ बुद्धदास इति नामा बृहस्पतिर्धिषणया बोधिताः स्मस्त्वया साधु ६ ब्रह्ममागधगन्धर्व० ब्राह्मं सधर्मचारिण्यै भ सर्गः क्रमाङ्कः भगवन्तं नमस्कृत्य भगवानेवमाख्याय भगिन्य इव तिस्रोऽपि भज्यमाने पुरे तत्र भटास्थिभिर्दन्तुरयन् भरतादित्यसोमाद्यै० २ २ २ ८ २ २ २ ८ भरतार्धप्रभविष्णुः भवतो नाथ! नाथामि भवत्वाशयमेतस्या भवन्तं नाथमासाद्य भवप्रकृत्या भगवन्! भवान् मनो विकारेऽपि भवे मे पततः पुण्यै० भार्यायां जिनमत्यां मे भिषगाद्या गणभृत भुक्त्वा भोगांश्चिरं वीर० भूतवच्च्छ्रेष्ठिनस्तस्य भूपतिस्तामुवाचैवं भूपतेः साऽतिवालभ्यात् ६ भूपालराजजीवोऽपि ४ ७ ६ ७ ५ २ ८ २ ६ २ ५ १४४ १७५ १५४ ३७ ११५ १६ २८ ४ ३० १९५ २०९ २८४ १५४ २०० ९९ ५३ ६६ ३७५ ३१२ ५८ १०४ १७० २३ ४० २३४ ३९ १०४ ३६ १२५ १०५ २४८ ३७६ २२५ १३७ ८९ ७२ २३६ ९४ ३३१ ९० १६४ १२३ ३५ २ १ भूयः पलायमानः स भूयांसः प्राव्रजन् भव्याः २. भूयो नैव करिष्यामी ० भूयोऽपि स्वामिनं नत्वा भूयोऽपि स्वामिनं नत्वा ७ भोगांस्तया सहाऽभुङ्क्त ७ भोगान् सह तया देव्या भोगाः सत्पात्रदानानु० २ भो! भोः! सचिवसामन्त ०७ भो! किं पराङ्मुखा यूयं ६ ६ ३६७ ९३ १८८ ८६ भ्रमयामास तन्नाग० ८ श्लोकः भ्रातरौ ववृधाते तौ ३ भ्रातृव्ययेन भवभावनया ५ म मदीयमप्यपहृतं मधुश्रीकर्णिकाभूते सर्गः क्रमाङ्कः ૪ मध्यस्य पविमध्यं च ६ मध्येरवणं गत्वा मध्येसौधापवरकं मनः कपिरयं विश्व० ६ मनः क्षपाचरो भ्राम्यन् मन:पर्ययमुत्पेदे मनः शुद्धिमविभ्राणा मनः शुद्ध्यैव कर्तव्यो मनः सरोवरे तस्य मनुष्यवालं तन्मध्यात् मनोरथोऽभवन्नाथै० मनोरोधे निरुध्यन्ते मनोविदां सप्तदश मनो हरसि विश्वस्य मन्दमेवाऽनवद्याङ्गी मन्निन्दकाः पुनर्यू मन्मानसमवतप्ते मन्ये नातः परं पापं ६ १ १ ६ १ ८ २ ७ २ ममाऽनुत्पन्नपुत्रस्य मयाऽप्युक्तं ममाप्येषा २ मरालानामिव सरः मलयाधित्यकादीनां मल्लिपादान्नमस्कृत्य मरियालपत्तात! मलिस्तान् प्रत्युवाचैवं मल्लीवचो विमृशतां मल्लेरप्यन्यजनवत् मल्लेस्तत् कुण्डलद्वन्द्वं मल्लेः प्रतिकृतिनांरी० मल्ल्यैवमुक्ता सा चोक्षा ६ महागिरिनरेन्द्रोऽपि महापुर्वी खड्गिनाम्यां १ महाभुजो महोत्साहो महारम्भार्जितधन० महासेनोऽवदत् पद्मं महास्वप्नचतुष्केण मह्यं दातुं निजां कन्यां ६ ६ ७ ६ ७ मा कदर्थय मां जात० माकन्दैर्नव्यमुकुल० मागधेशं वरदाम० माताऽप्यचीकथदथो मातुलिङ्गगदाबाण० मातुलिङ्गशक्तिभृद्भ्यां ६ मातुलिङ्गाङ्कुशधरी मायामिश्रेण तपसा १ ६ ७ १ ६ ६ ६ ६ ६ ३ २ १ २३ ३७ ३८ ३१ १०३ ५८ १४५ ११० १०७ २११ १०४ ११२ ७ १८० १७३ १०९ २५८ ९३ २५ १५२ ३०३ ७५ १४८ १२० ११४ ४२ २५० १८० १८९ १९७ १२६ ९८ ६५ १३० १०६ ४ १५३ २१७ ७८ १८ १९१ ३२९ १५० ५६ ९१ १९५ २५४ ११७ २१ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकः २ मार्गस्य शुक्लैकादश्यां ६ मासस्यान्ते ज्येष्ठकृष्ण०७ मासान्ते च मार्गशुद्ध० मासान्ते फाल्गुनशुद्ध ० ६ मासान्ते राधकृष्णादि० मित्र सागरदत्तोऽस्य मिथ: स्नेहपरीणामात् ७ मिथोऽसञ्जातकलहै० २ १ २ मिथ्यादृष्ट्या च सपत्नी० ८ मुक्त्या वैरं किमेतेषां मुनिर्विष्णुकुमारोऽपि मुनिसुव्रतनाथ मुनिसुव्रतनाथस्य ८ ७ मुनिसुव्रतस्य मुनिभिः मुनीनामन्तिके धर्म मुनेर्दमधराज्जैनं मुनेस्तस्यैव पादान्ते मुयुण्ढीपङ्कजभृती सर्गः क्रमाङ्कः ५ २ यक्षेन्दः षण्मुखस्त्र्यक्षः यतश्चिरं मत्पितरौ यथाऽद्य हृदयद्वारे यथा निष्कारणमिह यथाऽयं श्रेष्ठिनं शङ्खं यथा यथा नाथ! भक्ति० यथावदतिथौ साधौ यदस्ति मिथिलापुर्यां यदस्मि वर्जिता स्वैरं यदि वः प्राणितं प्रेय० यद्यमिथ्या दर्शय त्व० यन्नाम्ना हास्तिनपुरं यस्तां कन्यां समालोक्या० ६ यस्मिन् सति सफलता ६ याचस्वेति स राज्ञोक्ते यादृशोऽनङ्गसुन्दर्या ० २ यामो वयमपीत्युक्ते यास्याम्यहमपीदानी ० युवराजो महापद्मः युष्मत्पुण्यैरिवाऽचैव ये जन्तवो निगोदेषु ये हि त्यक्तान्यकर्माणः यो दंष्ट्राः पावसीभूताः ८ ८ २ ८ ७ २ ७ ४ १ २ ३०२ ६ १९३ ७ ८५ मुहुरुच्छात्यमानः सन् २ मुहूर्तमपि स स्थातुं मूत्रैकप्रोतस लेष्म० मृत्वा च कल्पे सोधमें मेघनादाय वैताढ्य ० मेस्मीलिएवं भाति मोघीभूतं समीपस्थं मोहावस्वापिनी दत्त्वा ४ १०७ ७ १३६ य २ १ २ २ २१० २४४ ३८४ २६३ १२८ ६ ६ ८ २ २०५ ८१ ६ ५० ९० १३९ १ १४४ २४७ ३ १० ११९ २४७ ३२ ३५ ९७ २३६ ४७ ७० २११ १३३ १८६ १४० १३३ १७५ २०८ ७ ११६ २४४ १४५ ३६२ १९ ३५३ ३९ ९४ ८९ १६८ ८५ २२ श्लोकः योनिलक्षचतुरशी० १ यो विद्या लब्धिमान् साधु० ८ यौवने तदतिक्रान्ते र रक्षोरूपं विकृत्योचे रक्ष्यमाणमपि स्वान्तं रजोभी रोध्रपुष्पाणां रतिवल्लभसज्ञेन रतिः स्मरवियुक्ता वा रत्नपुञ्जोऽभ्रंलिहरु रथभ्रमणकालं तु रागादितिमिरध्वस्त● रागादिध्वान्तविष्यसे रागेण विनाभावी राजरक्ष्याणि हि तपो० रामः पप्रच्छ नैमित्ता० रामः पितृवधक्रुद्धो सर्गः ६ २ २ २ ७ १ २ ६ २ ८ ८ २ राजाऽथ पद्ममाहूय राजानोऽपि प्रजायन्ते राजा पप्रच्छ भोः श्रेष्ठिन् ! ६ राजाऽपि व्याजहारैवं ७ राजाऽपीत्यादिशत् किं मां २ राजाऽप्यूचे चिन्तयतो २ 'राजा सुदर्शनोऽकार्षीत् २ राजोचे यदि ब्रह्वायु० राज्ञा सह प्रगे योगं राजोऽस्य धारिणीपत्त्यां६ राज्ये निवेशयाञ्चक्रे राज्येऽभिषिच्यतां विष्णु०८ राज्ये संवत्सराणां च ३ ४ ४ 6) रामाक्रान्तपुरा राजी रामेण प्रतिचरितो रामेण मुमुचे रोषात् रामोऽगादन्यदा तत्रा० रामोऽथ कारयामास रामोऽप्यमर्षान्निः क्षत्रां ८ रुक्मी नाम महीपाल ० रुषितोऽथ महापद्मो रूपलावण्यपुण्याङ्गी रूपलुब्धेन वा रक्षो० रूपवत्यो युवतय० १ ७ २ ६ २ रूपेण लवणिम्ना च रोगिलैरिव भैषज्यं रोमानि निःस्पन्द० ७ रोषारुणेक्षणः सद्यो ल ४ ६ २ लवलीफलिनीकुन्द० लिखित्वा तादृशीं हंसीं २ लोभो यशसि नो लक्ष्म्यां ६ लोलेन्द्रिये यौवने हि ४ क्रमाह: १०० १५९ २३ ७३ ७८ ५४ २७५ २५ ३२ १३५ ७९. २३० ८३ १५१ १२८ १४ ८१ ३५ २२७ २१८ ४२ २४ ५५ ५ ७० १३० ४३ ८४ ७४ ७६ ५७ ९८ ८० ८६ ८२ १६१ ४२ २३ ६६ ३१५ ११७ ३७ २०० ८६ ५३ १६३ ३१ २५ श्लोकः सर्गः क्रमाः व वज्रवेगवतीकुक्षि० २ वत्स! वेत्सि त्वमित्युक्त्वा २ वत्से! कुतोऽथ विच्छाया ७ वनमाला तया सार्धं वनमाले वनमाले! ७ वन्दमाना साऽथ साध्वी २ वयं दिव्यमिदं देव ६ ६ वयस्यान् सोऽन्यदेत्यूचे ६ वरदेन पशूल ● वरधर्ममुनीन्द्रस्य वरमन्त: पुरखेणं ६ ६ वरं मणिः केवलैव २ वरं वृणीष्वेति महा० ८ वरः प्राक्प्रतिपन्नो मे वर्मातिसङ्कटमहो वर्षकोटिसहस्राने० वन्दे तत्र चैत्यानि वशीकृतमिमं व्याल० वसन्ति सन्तः प्रायेण वसुन्धरवरो देव० वाग्मी सौन्दर्यकन्दर्पो वाचंयमैरिव पिके० वाद्यप्रकारमाश्रित्य वामनोऽपि जगादेवं विकारो मानसो वाऽथ विक्रीतक्रीतभाण्डोऽच विचिन्त्येति समुत्थाय विचिन्त्येत्युपरोधाच्च विदधाना दिवं रशि० विदधे वसुधारादि० विदाञ्चकार शस्त्राणि विदुषां प्रतिभल्ला विद्याधरपती तौ च विद्याधरपरीवारो विद्याधरोऽन्यदा तत्र २ २ २ ८ २ ५ ६ २ २ २ 6) ६ २ ७ २ १ ६ ७ ८ ८ ४ ४ ७ विद्याधरो मेघनादो विद्युत्पातेन हतयो० विधास्यामि वधूरूपं विनयादीन् गुणांस्तस्य ७ विनेता दुर्विनीतानां विपद्य कालयोगेन ७ or voor or gu २ विभाति तत्र परिखा विमृश्यैवं पुर्वृद्धिं विरक्तः सोऽथ संसारा० २ विलिप्य पूजयित्वा च विश्वप्रकाशनं भानो० विश्वस्य रागं तनु विश्वासपातकेभ्योऽपि विष्णुरप्यभ्यधत्तैवं २ 67 ८ २ १ ७ ८ २८३ १९४ ४४ ६० ७३ २६८ ९९ १३ २५२ १६ १३८ २०१ ४७ १४४ ९२ ३८६ २८८ ८० २५७ १८ १६३ ८ ३२ २ ६८ ९५ ७६ ५० १८३ ३५६ ३३ ८० १३३ २१६ २६१ ७९ ३० २ ११२ ११० ५६ ८८ ८४ १५८ ७ ११६ १२ १५ २०० १२७ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्ग: क्रमाङ्क: १२४ ४५ १६६ ३१६ १३८ ३८१ १९९ २ २०९ २४० २८ १२३ २४६ १८८ विष्णुरुत्पाटयामास विष्णुर्धर्मकथापूर्व विहरन्नन्यदा तस्यां विहरन्नाययौ नील विहिते दिक्कुमारीभिः विहृत्य गुरुभिः सार्धं विंशत्यग्रचतुर्धन्व वीरभद्रस्तदाऽवोचद् वीरभद्रस्तयेत्युक्तो वीरभद्रस्तयेत्युक्तो वीरभद्रं वरं प्रेक्ष्या० वीरभद्रः प्रत्युवाच वीरभद्र: स्वानुरक्तां वीरभद्रो झगित्यूचे वीरभद्रोऽन्यदा दध्यौ वीरभद्रोऽप्युवाचैवं वीरभद्रोऽब्रवीदेव० वीरभद्रो वधूवेषं वत्तकं कथ्यतां तर्हि २ वृथैव नेत्राणि नृणां ६ वेलामधिरिवाऽन्येधु० १ वैजयन्तीत्यभूद् रूपा० ३ वैजयन्त्याः समुत्तीर्य २ व्यन्तरास्तत्प्रतिच्छन्दा० ७ व्ययमायोचितं कुर्वन् ७ व्याघ्रभीतैरिवाऽर्चिष्मा० २ व्याघ्रव्यालजलाग्निभ्यो २ व्याहर वामनोऽप्येवं २ व्रतं प्रपालयंस्तीव्र १ शुभे दिने पर्यणैषीत् २ शून्यप्रक्षिप्तदृष्टिश्च ७ शून्यं चेदमवस्थान० २ शून्यैव हि वरं शाला २ शोभितोऽनल्पसेनाभि० ६ श्यालीति लालयन् लोल०४ श्रावकलक्षे षोडश० २ श्रावकाणां लक्षमेकं श्रावकाणां लक्षमेकं श्रावणासितनवम्यां १ श्राविकाणां त्रीणि लक्षा० १ श्रीमल्लिस्वामिनिर्वाणा० ७ श्रीवत्समत्स्यकलश० ७ श्रीशान्तिनाथनिर्वाणा० १ श्रीसङ्घाशातनां मन्त्रि० ८ श्रुत्वा च करुणं शब्दं २ श्रुत्वा जातानुरागेण ६ श्रुत्वा दध्यौ कुमारोऽपि ८ श्रुत्वाऽमुं देशनां भर्तु० ७ श्रुत्वा रूपश्रिया दासी ३ श्रुत्वा सागरदत्तस्तत् श्रुत्वेति देशनां भर्तु श्रेष्ठी तमूचे सस्नेहं २ श्रेष्ठी सागरदत्तोऽपि श्रेष्ठ्यपि व्याजहारैवं २ श्रेष्ठ्यूचे त्वं हि नः स्वामी २ श्रोण्या विसंसि बिभ्राणां ७ श्रोतृश्रोत्रेषु पीयूष० ६ mroor १३० १९१ २३३ २२६ १६८ ३२५ ८५ २७ ३४१ २०७ ११३ १७४ २१३ १९२ २२६ स जीगिषुरिति ज्ञात्वा ८ सञ्चरद्भिः पूजकैश्च ७ २११ सञ्जातवादलब्धीनां १ १२४ स तस्या इच्छसीत्युक्त्वा ४ ४५ सतीमतल्लिकास्ताश्च सत्यप्रतिज्ञो निदधे ८ १४६ सत्यसुप्तेति तां मुक्त्वा २ १३८ सत्यां हि मनस: शुद्धौ १ १०३ सद्यश्च देवैः समव० २ ६२ सद्यः शासनदेव्या च ८ सद्योऽप्यावायितो राज्ञा २ स निदानमनालोच्य स निदानमनालोच्य स पञ्चाशद्वर्षसह०३ ९ स परिव्राजकोऽप्यूचे ७ सप्तभिश्च महास्वप्नैः ३ स प्रजापालजीवोऽपि ८ स मन्त्री निशि चोत्थाय ८ समये राजकन्याश्च २४४ स महौजा महातेजा: ८ समं राजसहस्रेण ७७ समं राजसहस्रेण २ समं विनयवत्या च २ समातुलिङ्गशूलाभ्यां ७ १९७ स माया वामनोऽथोचे २ समीरण इव क्रुद्धो स मृत्वा कालयोगेन सम्पूर्णचक्रभृत्सम्प० सम्प्रत्यहं व्रजिष्यामि २ सम्प्राप्तयौवन: स्वामी ७ सम्भूय गच्छतो विद्या० २ २८५ सम्मेतादि मल्लिरगा० ६ २६२ सम्यक्त्वमूलानि पञ्चा० ७ सम्यग् निरूप्य धात्री सा ६ सरिदावर्तगम्भीर०७ स रूपेणाऽतिकन्दर्पो २ सर्वज्ञो जितरागादि० २ सर्वरत्नमयीं दृष्ट्वा ६ सर्वं निरर्थकं तच्च २ १३१ सर्वं सुस्था कथयिष्या० २ २६७ सर्वान् निरुत्तरीकृत्य सर्वाभिसारतो द्वाव० ५ २५ सर्वाभि: प्रत्यभिज्ञात: ३६३ सलीलं समरारम्भे १५ स विविक्तपरीवारः ३२० सविस्मयैर्वीक्ष्यमाणः सविस्मयो जितशत्रु० ७ स वैरिभिः पराभूतो स व्रतं पालयस्तीव्र स श्यालीस्नेहसम्बन्धा० ४ morwmor ३५ षट्पञ्चाशतमब्दानां ५ षट्पञ्चाशद्दिक्कुमार्य: षड्भिर्बालसुहृद्भिस्तैः ६ षष्टिवर्षसहस्रायु० षष्टिसहस्री साधूनां षष्ठेनाऽपीत्यभिदधे १७९ शक्रसङ्क्रमिताङ्गुष्ठ० १ शक्रसुव्रतयोरेवं ७ शक्रः पञ्चवपुर्भूत्वा शक्रादिभिश्च समव० ६ शक्रादिभिश्च समव० ७ शक्रोत्सङ्गे निषण्णस्य ७ शङ्खच्छेदोज्ज्वलयशा: ६ शङ्खश्रेष्ठ्यप्यभाषिष्ट शङ्खश्रेष्ठ्यप्यभाषिष्ट शङ्खोऽप्युवाच देवैवं २ शतानि पञ्चदश तु ७ शरण्य: शरणेच्छूनां ६ शस्त्राभावात् सुभूमोऽपि ४ शातकुम्भमयैः कुम्भैः ६ शातकौम्भः पूर्णकुम्भः १ शाएं चास्फालयच्छार्की ३ शाहलाङ्गलमुख्यानि शिबिकायाः समुत्तीर्य शिरोतिः कस्य दोषेण २ शीतलस्वामिनस्तीर्थे ७ १७३ ३८ २१२ १६० १२९ १६४ १४५ २२४ २२३ २४० १६० २९१ स एष तव जामाता २ ३५५ स कन्याऽन्त:पुरे गत्वा ४ स कांश्चित्रासयन् कांश्चित् ८ स गच्छन् कुञ्जरारूढो ७ स गच्छन्नुन्मुखः स्वैरं ८ सङ्घकार्यं स तत् कृत्वा ८ सङ्घानुरोधान्नमुचिं ८ २०१ स चतुर्धाऽप्यभूद् वीरो ७ स चिरं पालयामास स चिरं पालयित्वा मां ५ सचिव: सुमति म ७ ३२ सच्छिद्रां तालुनि तत्र ६ स च्छिन्नानेकसुभट० ४ स च्युत्वा फाल्गुनशुक्ल०२ २७ ।। १० Mm १३५ १०१ ४७ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः २२२ ३६५ ८७ १० १८९ ४ २६३ १०० १४३ १२२ ३७७ २१७ १८२ २७६ १५५ ५८ २६ १५९ स्वभावेन हि जीवोऽयं २ स्वमग्रजं महर्षि तं स्वयं ह्यनजसुन्दर्या० २ स्वरानुत्पादयामास स्ववल्लभाया मदन० स्वस: क्व यासीति पृष्टा २ स्वसूनोश्चरितं तच्चा० ८ स्वं च सिंहलवास्तव्यं २ स्वं दोषं तेन सा पृष्टा २ स्वं श्यामवर्णं गुटिका० २ स्वाद्य-लेह्य-चूष्य-पेय०६ स्वामिनं समवसतं ७ स्वामिनः प्रतिरूपाणि १ स्वामिन्न युज्यतेऽस्माक०७ स्वामिन्नविरतानां नः ७ स्वामिन्! सर्वं बलं प्राप्तं ७ स्वामी नृपैश्च देवैश्च १ स्वाम्यप्यूचे धर्ममत्र ७ स्वेच्छा वामनरूप: स २ arorm mrarh 3mmmwar ४०००/orm. २४५ १५८ १९० ९२ ३०७ १२१ १३४ २७ ५० ३०९ ५४ १०५ ३०६ १४२ ११२ ३ २०६ १८४ ३०४ २९४ ३६४ ५७ स श्रूयते च सकल० २ स सुकेतोर्भवं भ्रान्त्वा ३ सस्मार च यदेतास्ता: २ स स्वशक्त्या तयोर्देवो ७ स हट्टे श्रेष्ठिशङ्कस्य सहस्रद्वितयं सार्ध १ सहस्राण्यथ पञ्चाश० सहस्रारात् परिच्युत्य संयम: सूनृतं शौचं संवत्सरशतन्यूनां संसर्गेऽप्युपसर्गाणा०६ संसारेऽस्मिन् मनुष्येण ७ संस्थानलक्ष्मीरन्यैव ६ संस्थाप्य तनयं राज्ये ८ सा काऽपि हि कला नास्ति ३ साक्षीकृत्य ज्वलदग्निं ४ साख्यत् सिंहलवास्तव्यो २ साऽचिन्तयदहं ताव० ४ साऽथ तं तद्नुज्ञाता ८ साऽदाद् ब्राह्यं चरुं स्वस्रे ४ साधर्मिकत्वात् सस्नेहा २ साधुभ्य: सोऽन्यदा श्रौषी०७ साऽनङ्गसुन्दरी सा च २ सानुकम्पं सुव्रतोचे २ साऽपि चाऽनङ्गसुन्दर्या २ साऽऽपृच्छ्य श्वशुरौ तात०२ साऽप्युवाच कुलाहँ हि २ साऽप्युवाच म्लानमुखी २ साऽप्यूचे मा कुप: स्थाम०८ साऽप्यूचे समयेऽत्राऽपि २ साऽप्येकिका क्षणादूर्ध्वं २ सामकृत् सामयोगेषु ७ सा मार्गशुद्धदशम्यां २ सा राज्ञोऽन्तःपुरेणाऽपि ६ सार्धं तया वीरभद्रो २ सार्धा: सप्ताब्दसहस्रा: ७ सार्धे सहस्रे द्वे एक० २ सा सखी ते विनोदै: कैः २ सिद्धमन्त्रोपमे तस्य २ सिन्धुदेवी वैताढ्याद्रि० १ सिंहलद्वीपचैत्यानि सीमग्रामान्तराणीव सुकेतुस्तत्प्रियां जहे सुतं गिरिं नाम वसु० सुतं मित्रगिरि राज्ये सुदर्शनश्चन्द्र इव सुबुद्धिरभ्यधादेवं सुभटग्रामसङ्ग्राम सुराङ्गनाभिर्धात्रीभिः सुरैः सञ्चार्यमाणेषु सुव्रतागणिनी चैव सुव्रताऽप्यभ्यधत्तैवं सुसीमायां महापुर्यां २ सेनान्या च वशीचक्रे सेनान्योद्घाटितखण्ड० सेनान्योद्घाटितद्वारा० १ सेन्ट्रैश्चतुर्विधैर्देव० सेवन्ते य इमा: सूना० ८ सैन्ये प्रह्लादसैन्येन ५ सोऽगात् तया समं तत्र २ सोऽग्रज: पद्मराजस्य ८ सोऽथ देवो देवऋद्ध्या ७ सोऽथ राजानमीशान० २ सोऽथ स्वस्य भ्रातुरुच्चै० ३ सोऽथाऽब्रवीदपूर्वोऽयं २ सोऽन्यदाकस्मिकं विद्युत् ८ सोऽन्यदा चलितस्तस्मात् ४ सोऽन्यदा नन्दनं नाम ७ सोऽन्यदा निशि पर्यङ्क ८ सोऽन्यदा सुव्रताचार्याः ८ सोऽन्यदैकत्र सङ्ग्रामे ४ सोऽन्यदोचे निशाशेषे २ सोऽप्यभ्यधाद् भगवति २ सोऽप्यमात्यस्तदाख्याया ७ सोऽप्याख्यद् बहिरुद्याने ८ सोऽप्याख्यद् भवदादेशा०६ सोऽप्यूचे देव! वेग्रीति ८ सोऽप्यूचे नाथ! तेनैव २ सोऽभ्येत्य हास्तिनपुरे ६ सोवाच हास्तिनपुरे ४ सौधर्माल्ललितश्च्युत्वा ५ स्तुत्वेतीशं गृहीत्वा च २ स्तुत्वैवं दिविषन्नाथे १ स्तुत्वैवं शक्र एकोन० ६ स्त्रीरत्नं चक्रिणो यच्च ६ स्त्रीरत्नेन विना तस्य ८ स्थितो भरतवर्षेऽपि स्थित्वा प्रतिश्रयद्वारे स्थित्वा प्रतिश्रयद्वारे स्थैर्य दाक्ष्यं च वत्साया २ स्नपनानन्तरं शक्र०६ स्निह्यन्ति जन्तवो नित्य०६ स्मरणेनाऽपि मोक्षाया० ६ स्मरामो यद् भवे पूर्वे ६ स्माऽऽह यद्भवे पूर्वे ६ स्माह राजपुमान् काञ्चित् २ स्वच्छन्दं भुक्ष्व तद्भोगान् ४ स्वतोऽप्यपार: संसारो ६ स्वपुरेऽभ्रमयत् पद्यो० ८ स्वबान्धववियोगेन २ हत्त्वा ते पितरं रामो ४ हरिश्च हरिणी चेति . ७ हरि: समं हरिण्या च हरेहरिण्यामजनि हूयते न जप्यते न हेमन्तलक्ष्मीहसितै. हेलोद्घाटितवैताढ्य० ४ हैमस्फाटिकनैलानि २ -999 our W0 WK १०५ २९८ १६ १३६ ३२८ २४५ ११४ ३७९ २९६ १९ ३१४ २१९ ४२ २३१ ४८ om oor w १९९ १९९ ३२३ २२ २२६ orar १३४ २५० Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। सप्तमं पर्व। श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः अ १३६ ९४ २२६ ७ १४३ ३५३ ३१ । १०१ १२ ६९ ३२५ ५६३ m २४८ ३२० ३८९ २२० ५१० १८२ २२२ १७७ ४४४ १२८ २१२ २२२ ३४२ १०० १८७ ११५५ २०८ १५६ १९२ १३२ २०२ १८३ ६५ ४२५ १६३ १७७ १२७ १९९ अकस्मादापतत्येष १० अकस्माद् व्यन्तर इव ३ अकालचारिण इति ८ अकालोऽसाविति धिया ८ अक्षता बहवोऽद्याऽपि ७ अक्षौहिणीनां सहस्रे अग्रहीद् भृशमायोध्य ६ अग्रे गतेन दूतेन २ अग्रे निषद्य सौमित्रि० ९ अङ्कशायाऽर्थिता कन्या ९ अङ्गुलीयकमात्रेण ३ अङ्गुष्ठस्थोऽन्यदा तस्थौ १० अङ्गोत्थितं द्विषन्तं तं २ अचलं चन्द्रभद्रोऽपि अचलं मथुरापुर्या ८ अचिन्तितोपनीतानि अच्छभल्लवृकव्याघ्र० २ अजव्याख्यानवृत्तान्तं अजापयच्च सेनान्या १२ अजैर्यष्टव्यमित्यत्र २ अज्ञातपूर्विणा लङ्का० अज्ञानादमुनाऽप्येतत् अज्ञानान्नाथ! तेनेयं २ अज्ञासीदवधे: सोऽथ अञ्जनाऽपि जगादेवं ३ अणिमा लघिमाऽक्षोभ्या २ अणुव्रतधरः प्राप अतिभङ्गुरदोर्दण्डो अतिवीर्यस्तयो: पूजां ५ अतिवीर्यो जित: स्त्रीभिः ५ अतिवीर्योऽप्युवाचैवं ५ अत्र त्वामागतं ज्ञात्वा ६ अत्र देवसखोरामो १० अत्र न त्वत्पितुर्दोषो ४ अत्राऽन्तरे च कुसुमा० ८ अत्राऽन्तरे च त्रिशिरा: ६ अत्राऽन्तरे चन्द्रणखा० २ अत्राऽन्तरे च वैताढ्य० ९ अत्राऽन्तरे च सीताया ८ अत्राऽन्तरे च सौमित्रि० ९ अत्राऽन्तरे च हनुमान् ३ अत्राऽन्तरे तत्प्रहिता: ३ अत्राऽन्तरे तु यात्रायै ३ अत्राऽन्तरे दशग्रीव० ५ अत्राऽन्तरे नारदर्षिः ९ अत्राऽन्तरेऽन्तरीक्षस्थ: ९ २६० ४७५ अत्राऽन्तरे विन्ध्यस्थल्या ८ अत्राऽन्तरे विपन्मनां ६ अत्रोद्याने स्वस्थाने च ५ अथ कीर्तिधरो राजा ४ अथ कुम्भपुरेशस्य २ अथ क्रुद्धो दशग्रीव० २ अथ चन्द्रगतिः प्रोचे ४ अथ चन्द्रगती राज्यं ४ अथ तत् खड्गमाच्छिद्य ५ अथ तं मोचयामास ५ अथ ते मन्त्रिण: प्रोचु० ६ अथ दाशरथी राम० ४ अथ पर्जन्यवद् गर्जन् ७ अथ पुच्छच्छटाच्छोटैः ३ अथ प्रणश्य सङ्ग्रामा० २ अथ प्रहस्त इत्यूचे अथ प्रावृष्यतीतायां अथ मन्दोदरी देवी अथ मन्दोदरी देवी अथ मन्दोदरीदेवी अथ मन्दोदरी द्वा:स्थं ७ अथ मैथिलसन्देशा० ४ अथ रक्ष:पतिर्माली १ अथ राज्ञी: सुतान्मन्त्री० ४ अथ राम सभासीनं ६ अथ रामं सुमित्राभू: ९ अथ रामः प्रपन्नैक० १० अथ राम: ससौमित्रिः ७ अथ राम: स्मितज्योत्स्ना०५ अथ रावणहुङ्कार० ७ अथ लङ्काप्रयाणाहान २ अथ वंशस्थलाधीशो ५ अथवा किमिदं देव! ५ अथवा किं मया साऽपि ३ अथवा गृह्यतामेत० अथवा ज्ञातमनयो० १० अथवा ज्ञातमेतस्या ३ अथवा तां यथावस्थां ४ अथवा नैष दोषस्ते अथवा यद्भवे पूर्वे ४ अथवाऽसौ महासत्त्व० ४ अथ विद्याधरः कश्चि० २ अथ श्रीसुव्रतस्वामि० १ अथ षष्ठोपवासान्ते १० अथ सङ्क्रान्ततद्दुःख० ३ अथ सिक्तश्चन्दनेन १० अथ सीता भयोद्धान्ता ९ ३५२ १२४ ४१९ २२३ १६८ १८३ अथ सीताविशल्याद्या: ८ अथ सौमित्रिरुत्पत्य ५ अथ स्वस्वप्रतिपन्ना० ८ अथाऽऽख्यत् केवली देश०८ अथाख्यत केवली सोऽपि १० अथाऽङ्कुशो हसित्वोचे ९ अथाऽहुदो जगादेवं ७ अथाऽऽदिष्टा प्रहृष्टेन ४ अथाऽन्यः कश्चिदप्यूचे ५ अथाऽन्येधुर्दशमुखः २ अथाऽपराजिता देवी ४ अथाऽपराजिता देवी ८ अथाऽपराजिताऽन्येधु० ४ अथाऽपराजितोवाच ८ अथाऽभवत् क्षितिपति: २ अथाऽमिलन सैनिकाना०६ अथाऽवदद् दशरथः ४ अथाऽवस्थाय काकुत्स्थ: ४ अथाऽऽविर्भूय हनुमान् ६ अथाऽऽविवाहादापुत्र० ३ अथाऽवोचन्महोत्साहो ३ अथाऽश्रुभरितदृष्टि० ४ अथाऽह्नि षोडशे सान्त:०८ अथेत्थमूचे सौमित्रिः ९ अथेत्थं जनकोऽवोच० ४ अथेत्थं स्माऽऽह हनुमा० ६ अथेन्द्रजित्कुम्भकर्णी ७ अथेन्द्रजिवाचैवं ७ अथेह वैतादयगिरा० ३ अथैकदा खात्रमुखे अथैकदा मृगयुणा अथैत्याऽऽसनकम्पेन ११ अथैव चिन्तयामास ६ अथैवमवद रोष० २ अथैवं लक्ष्मणोऽपृच्छ० ५ अथोग्रश्वापदपदं ४ अथोचे जनकद्वा:स्थो ४ अथोचे नारद: स्मित्वा ९ अथोचे रावणोऽप्येवं २ अथोचे लक्ष्मण: कन्या: ५ अथोचे लक्ष्मण: स्वामि०९ अथोत्तीर्य दशग्रीवो ५ अथोत्थाय नमश्चक्रे १० अथोत्सवमयोध्यायां ८ अथोदयपृथु-र्वारि० अथोदयाद्रिप्रासादे अथोदियाय किरणैः ३६३ १९४ ४०९ ५ ११४ ५४९ २०९ २१२ ३५६ १५९ ५२० १७ ६२ २३६ ११७ ११७ ७१ २४ २४५ १३ १९८ ४९६ ३३७ ६६ १८ ७४ १३ २ १०१ १७३ १९७ २७० १३९ २४१ २९२ ४७० ३१५ ४३८ १९३ ९७ २५७ १२ ३९३ १४९ १०७ २९९ १९१ ३०९ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८५ ४९७ १४ WW. ar १७३ २८६ ०४ ११८ २९१ २३६ २८९ mma 4.४ms ww m1 ur. ૨૨૮ २६ श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः अथो बिभीषणस्तत्र ८ १ अन्यच्च कनकपुरे ३ १७४ अभिचन्द्रस्य तनयो अथो मुमुचतुः क्रुद्धा० ७ १५२ अन्यथा तु सुखस्पर्शो ९ २१० अभिज्ञानमिदं तेऽत्र १५२ अथो रणस्थे काकुत्स्थे ६ ५६ अन्यदप्यभिधातव्यं २ अभिधानेन गम्भीरां अथो रथस्थं त्रिशिरो० ६ अन्यदा कैकसी स्वप्ने १ अभिधानेनोपमन्योः ४ ४०४ अथोवाच मरुत्तोऽपि ३६६ अन्यदा तु दशग्रीव० अभिधायेति सीतायां अदत्त चन्द्रनगरे अन्यदा धैर्यमालम्ब्य ४ अभिधायेति हा वत्स! ८ ६६ अदृष्टपूर्वोऽवष्टम्भ: २ ३२० अन्यदा नटरङ्गस्थे अभिलाषविप्रलम्भात् २ अद्यप्रभृति ते स्वामी ६ २० अन्यदा रत्नमाली स ४ अभूतामृक्षरजसो अद्य यावद् देवताव० १ १५६ अन्यदा रामभद्रं तु ८ ९८ अभूत् कुलङ्करो राजा ८ अद्याऽपि तव रामेण ६ १३४ अन्यदाऽर्थेन केनाऽपि ५ ३३८ अभूत् समत्सरो रत्न० ५ अद्याऽपि नाकिनो राम० १० १५८ अन्यविद्याधरान् सर्वा० १ अभूदु युद्धं तयोस्तत्र २ अद्याऽपि मम वात्सल्यं ७ अन्यस्य शासनाल्लङ्कां २ अभून्मुशलरत्नं च अद्यैव गृह्यतामेषा ४२७ अन्यानपि तडित्केश० १ ५० अभ्यधात् प्रभवोऽप्येवं २ अद्यैव परिणीय त्वं ५ अन्यान्यप्यशकुनानि १ अभ्यर्णस्थां वंशजालीं ६ १५४ अद्राक्षीद् भ्राम्यतस्तत्र १ अन्या विद्युत्प्रभा नाम २ अभ्यर्णे वरुणपुर्या० ३ अद्वैतैश्वर्यसौन्दर्य अन्येधुर्जातसंवेगो अभ्युत्थानं तदालोके० ११ अधस्तात् स विमानस्य २ अन्येधुर्ववृते युद्धं ९ अभ्येत्य योधयामासू ३ २९० अधित्वदस्तु मे भक्ति० ४ अन्येद्युस्तौ तु कौशाम्ब्यां ८ अभ्रात्यय इवाऽऽदित्यो ४ अधिनिषण्णनि:सस्त० ३ अन्येषुः सुषुवे तत्र ३ अमन्दरोषो मन्दारे ६ अधिरोढुं गुणश्रेणी ११ ९४ अन्येऽपि प्रतियोद्धारो ७ २०६ अमरा अपि नाम्नवा ४ अधीषं नि:सहस्रस्त० ३ ९२ अन्येऽपि बर्बरकूल० १ अमरेन्द्रोऽमरावत्या अधुना त्वं भटम्मन्य० ६ अन्येऽपि बहवः स्वामिन्!६ अमरैर्विदधे तत्र १९९ अधुना दैववैगुण्या० ७ ३०५ अन्येऽपि राक्षसभटा ७ ११६ अमर्षादिन्द्रसैन्येन अधुना नरके तुर्ये १० २३१ अन्येभ्योऽपि प्रदायैवं ८ अमी क्रीडाद्रयो रत्न० ६ १६८ अनन्यमानसा जानु० अन्योऽन्यमौरस्त्राणि ८ १७३ अमी पशुवधात्मानः २ ३८२ अनरण्यनरेन्द्राय ३५८ अन्योऽन्यं स्नेहसम्बन्धं २ १९७ अमीषां वध्यमानानां ७ १८५ अनरण्योगमन्मोक्ष० अन्वनैषील्लक्ष्मणोऽथ ५ अमुना तावदुन्मुक्तै० २ ३५० अनरण्यो नाम राजा ४ अन्वयव्यतिरेकाभ्यां ७ ३२४ अमुष्मिञ्झ्वापदाकीर्णे ८ ३१५ अनलप्रभदेव: सो०५ ३११ अपजहे च तां राज. २२८ अमुष्मिन् भीषणेऽरण्ये ६ ३७ अनलस्तम्भनी तोय० २ ६२ अपनेतुं सत्यमार्या० अमुं प्रातर्हनिष्यामि ५ २८ अनाकर्णितकेनेव १६७ अपयाताऽसुरा! दूरं १० २५१ अमूर्विद्याधरवधू० १० २२४ अनारतमभीष्टस्य ४ २७१ अपरं च ऋतुस्नाता ११५ अयमैश्वर्यकामाभ्या० अनास्थां सर्वथा तेषु ११ ६७ अपरिज्ञातवंशाभ्या० ९ अयं खलु महाधर्मः अनुकूलैरुपसर्गः १० २१६ अपरेधुर्दशरथो अयं पुनर्बज्रको अनुभोक्ष्ये स्वकर्माणि ८ ३२२ अपरेधुश्च किष्किन्धिः १ अयं वराक एकाकी १५९ अनुमन्यस्व दीक्षायै १० १३७ अपरेधुस्तडित्केश: ४४ अयं वराको जनक० ४ अनुरक्ता दशास्यस्य २ ५५८ अपरेऽपि हि भूपाला: ९ १६० अयुध्यमानोऽनागस्क: ६ १५५ अनुरूपमपश्यंश्च ७७ अपवादे चराख्याते अयुध्यमानोऽशस्त्रश्च अनुरूपो वरश्चन्द्र० २ १७९ अपश्यतं युवामादा० २ अयोधनस्वसा सत्य० २ अनुरूपो वर: कोऽस्या ४ २५६ अपश्यन्त इवाऽग्रस्थ० २ अयोध्याबहिरभ्येत्य ९ अनुशिष्याऽथ रामेण ६ १८३ अपसस्नुर्दिवि सुरा ७ २११ अयोध्यां रुरुधुः सैन्यै० १० अनुशिष्येत्यदाद् राम० ८ अपृच्छद् रामभद्रस्तान् ६ २०६ अरक्षके क्षेत्र इवो० २ । अनेककौतुकागारे अप्येकबन्दिने राज्यं ४ अरण्येऽत्रैव चेद् भिक्षा० १० २०१ अनेकगुणसस्यानां ४ २५२ अप्येकबाहस्थाम्ना तान् २ १९ अरे! कपे! क्व याताऽसि ६ २६९ अनेकपृतनाच्छन्न २ २९८ अप्येतावपकर्तारौ २ १२३ अरे! कुत इमे बाणा ४ २८४ अनेकशोङ्कुशीभूतं अबोधयद् दशास्योऽपि ६ १२५ अरे! को रावणो नाम ३ अनेन तातकल्पेन अब्रुवन् मन्त्रिणोऽप्येवं ७ अरे! क्व कुम्भकर्णोऽस्ती०७ १२८ अन्तरीक्षं तयोरस्त्रै० अभज्यत तत: सैन्यं ३ अरे! निर्याहि मत्पुर्या ७ अन्तर्वणं दव इव अभज्यत ससैन्योऽपि ९ अरे! मुमूर्षुणा तेन ३२७ अन्तर्हृदयसन्ताप० अभवन्मम भावोऽयं ७ .. ३०३ अरे! रे! केन वारीदं १५९ ४९ २३७ mor93rw २९ ३६७ ३५५ ९१ Mor . Nov 010 Mm3०० र m ur ४३१ GMG.K0A MMMMMor mor ३२३ ६० Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकः सर्ग: क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्क: श्लोकः सर्गः क्रमाङ्क: १०६ ९० ४९९ १८९ २३० ३३० १८३ ३७२ ४२८ १६३ २७२ ३०० २ ८६ ११७ २६ १७६ ६३६ w vow my n ६ ४२९ २५१ २०७ ३५५ अस्मद्वद्वीप्रकाण्ड० ८ अस्माकं कुशलोदन्तं ४ अस्माकं पूर्व कीर्ति० २ अस्मिन् भवे यथाऽभूस्त्वं ११ अस्याश्च विरहे रामः ६ अस्यास्तस्मिन् भवे जामि०३ अस्याऽस्मदर्शनाजाति० ५ अस्याः सारथ्यतुष्टेन ४ अस्यैव जम्बूद्वीपस्य ३ अस्यैव जम्बूद्वीपस्यै० १३ अस्यैव राक्षसद्वीपस्या० १ अहमप्यनुयास्यामि १० अहल्या नाम दुहिता २ अहं च त्यक्तसङ्गोऽस्मि २ । अहं च सकुटुम्बोऽपि ५ अहं तु कैकसी नाम १ अहं भरतदूतोऽस्मि ५ अहो! अज्ञत्वमेतस्या० ५ अहो! अत्यन्तमनया ४ अहो! कस्त्वमिहायासी: ३ अहो! धन्यो वज्रजको अहो! महात्मा कोऽप्येष ४ अहो! मे मन्दभाग्याया ३ अहो! वज्रोदरो वीरो ७ अहो! शीलमहो! शीलं ९ अहो! साधुरयं दृष्टः १० आ आकर्णान्तं तदाकृष्य ४ आकर्ण्य तद्वचो भीत० ५ आकर्ण्य पितृवैरं तत् २ १४२ २४९ २०३ ००० ५०७ ५२१ ४३७ १०९ ४२२ २७४ अरे! रे! पथिकावेतौ ५ अरे! रे! म्रियसे पाप! अर्कवद्दीयमानार्षी ८ अर्चित्वा तत्र चैत्यानि ८ अर्पयित्वाऽङ्गुलीयं स्व० ३ अर्हद्गुणमयैर्गीतैः अर्हद्गुणस्तुतिमयं २ अर्हद्गुणस्तुतेर्मुख्यं २ अलकानिव बिभ्राणां २ अल्पायुः साहसगतिः २ अवज्ञाय वचस्तस्य १ अवतस्थे यथास्थानं अवतीर्य रथात् सद्यो अवदत् पर्वतोऽप्येवं अवशिष्टैर्भक्तपानैः १० अविचार्य ततो राजा ५ अविमृश्य कृतं तावत् ३ . अविमृश्य पुरा चक्रे ७ अविमृश्यविधायिन्या ४ अवोचच्चमरश्चैवं अवोचत वसुर्मात. अवोचदञ्जनाऽप्येवं अवोचमहमप्येवं २ अव्याधिकारणं पृष्टो अव्याहतं निष्पतन्त्यो ६ अशक्तस्तद्विधाने चेत् ११ अशुष्ककुल्यान्युद्याना० ५ अष्टमश्च महाशूरो अष्टापदानेरुपरि २ अष्टापदाद्रौ गत्वा असत्यवचसा तस्य असह्यश्चापनादोऽपि ५ असाध्यं मन्त्रतन्त्राणां २ असार: खलु संसार: ११ असावसि: सूर्यहास: ५ असूत समये सूनु० १ असौ किं तु प्रकृत्या स्त्री ६ असौ पश्यत्यहं पश्या० २ असौ शिरीषमृद्वङ्गी १० अस्तकाले त्विषामीशो ६ अस्तमीयुषि चण्डांशौ ६ अस्ति चेदिषु विख्याता २ अस्तीह दक्षिणश्रेणौ ४ अस्तोकघूकघूत्कार० २ अस्त्राण्यस्वैर्वादयन्तः ७ अस्त्राण्यस्वैः खण्डयित्वा २ अस्त्रैर्मालि-हनूमन्तौ ७ अस्त्वार्य: कुम्भकर्णोऽपि २ अस्मत्पुर्यामवस्कन्दं २ अस्मद्दुःखाद् विपद्यन्ते ८ 9rMarm m or uruwww ow My my my 2 . आचख्यौ रावणोप्यासी०२ ५०४ आचार्यस्य धुतेर्जग्मु० ८ २२५ आचुक्रोश च सीतैवं ५ ४५६ आजघ्ने हृदयं सद्यः ३ २१२ आजन्म कष्टेन धनं आजन्म क्रूरकर्माऽहं ५ ११३ आजन्म दौस्थ्यदग्धौ तौ ५ १५४ आजन्मोपार्जितां कीर्ति ८ २८६ आजानूत्क्षिप्तमञ्जीरा० ६ २९८ आज्ञाप्यन्तां च लम्पाक०९ आतरङ्गादयो म्लेच्छा० ४ २८५ आत्मजौ तावजानानौ ९ आत्मरक्षा लक्षसङ्ख्या २ आत्मीया अप्यनात्मीया ६ आदातर्यपवर्गस्य ११ आदावप्युत्ततारेभा० ८ ७९ आदिक्षदतिवीर्योऽपि ५ २१६ आदित्यो वर्तते मेषे ३ आदित्सते स्म प्रव्रज्यां ८ आदौ पीलय मामेव आदौ स पुरुष प्रेष्य ७ ३७ आनन्दजनकं तस्य ९ आनन्दमालिनीालु० २ आनन्दमाली तत्रागा० २ आनन्दमाली निर्वेदा० २ आनाय्य दिव्यभोज्यानि १० । १५० आपतत् ताडयामासा० ९ आपतन्तं च तं प्रेक्ष्य ७ ३६ आपतन्त्यामपि व्याघ्या ४ आपन्नसत्त्वा सा जज्ञे ५ आपप्रच्छे प्रसादान्मा० ४ आभ्यामारोपयत्येक० ४ ३२४ आमित्युक्ते मुनीन्द्रेण २ ३४८ आमूलात् साहसगते० ६ २६६ आमेति राघवेणोक्ते ७ २४१ आमेत्युक्तो रावणेन ४ १३४ आमेत्युक्त्वाऽऽर्पयत् तस्य ६ ३६५ आयसैवतैरौ०७ आयातं लक्ष्मणं श्रुत्वा ६ आयाता मथुरापुर्या ८ २२७ आयाति भरते रामा०८ आयातो मातुलोऽकस्मा०३ १८५ आयातौ दण्डकारण्ये ५ ४१७ आयान्तं राममालोक्य ६ आयान्तं रावणं श्रुत्वा २ ५७९ आयान्तौ पुष्पकारूढौ ८ ७७ आरक्षास्तत्र चाऽऽदिक्ष० १० ३७ आरिराधयिषुर्नत्वा ६ आरुह्य पुष्पकमथा० ५ ४२४ आरोपयति यः कश्चि० ४ । ३३८ ६८ ५६ १४५ ४५२ २३६ १३४ २२९ १०७ पाकण्वं दशरथो ४ ४४८ ११० ५२८ ६६ । ३९२ १०२ २०३ ३४६ १५१ १८६ २०७ २७८ २८९ २९१ आकाशस्फटिकशिला० २ आकुलस्तद्वचः श्रुत्वा ८ आक्रम्यमाणसर्वाङ्गो ७ आक्रान्ता दु:खभारेण ३ आक्षिपन्तं रणायाऽक्षं ६ आखण्डल इवाऽखण्ड० ११ आख्यच्च हनुमानस्मि ६ आख्यत् तेषां स्ववृत्तान्त०८ आख्यातं साधुना पूर्वं ६ आगर्भवासनृपते० ४ आगाच्च सत्यसुग्रीवो ६ आगाच्चाऽतर्कितो राजा ८ । आगात् तदा च कपिलः ५ आगात् तदा च कैकेयी ४ आग्रही हेतुना केन ८ आचख्यौ जनकस्तच्च ४ आचख्यौ नारदोऽप्येवं ४ आचख्यौ पुरुष: सोऽपि ५ आचख्यौ मुनिरप्येवं १ ७८ ३८३ २९६ १९४ २४ १२७ ५०५ १९१ ३२७ ३०६ २६१ ५५ ७१ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GG २१३ ३४४ १२२ १५४ २२६ १४४ ११ १२६ or or nova १८५ 9mar Tr uw ar or or oror x २७६ २८ श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः आरोप्य रासभे पञ्च० ६ ४०२ इतश्च भरतो राज्यं ४९१ इति रामवचः श्रुत्वा ४३३ आरोप्य सुतमुत्सङ्गे इतश्च मिथिलापुर्या इति रामवचः श्रुत्वा आरोहदनुजैः सार्धं ८ ८३ । इतश्च राम: सम्प्राप्तः इति रामवचः श्रुत्वा आर्जयत् स्थानकै: कैश्चित् ११ इतश्च रामसेनानी० इति व्यावर्णयन्तीभिः ४६५ आर्यपुत्र! किमद्याऽपि ५ इतश्च लक्ष्मणो वीर:६ १२ इति व्याहारिणं राम आर्यस्य दशकण्ठस्य २ । इतश्च लब्धसज्ञेन इति श्रुत्वा च पवनो आलिङ्ग्य दाशरथिना ६ । ४०८ इतश्च विप्रः कपिल: इति श्रुत्वा दशग्रीवो ५४८ आवामपि हि विद्वो य० ९ इतश्च विहरत्येव १२ १ इति श्रुत्वाऽपि सा राम० ८ आवासितस्य गङ्गायां १३ २४ इतश्च वैताढ्यगिरौ ६१ इति स क्रूरवाग् यक्ष० २ आवां यावन्न हन्त्येष ८ इतश्च वैतादयगिरौ ९७ इति सञ्चिन्त्य सीतेन्द्र० १० २१७ आविर्भूय सुमित्रोऽपि २ ५४१ इतश्च वैताढ्यगिरौ इति संस्मृत्य स क्रुद्धो ६ आशालीविद्यया वह्निः २ ५५२ इतश्च वैताढ्यगिरौ २ २८० इति सानुनयं प्रोच्य ९ ६१ आशुशुक्षणिमाधाय २ ४८७ इतश्च वैतादयगिरौ ८ २३९ इति सीताप्रतिज्ञा ते ९ १८४ आश्वासयितुमद्याऽपि ३ ८७ इतश्च शैले वैताढ्ये इति स्तुत्वा जगन्नाथं आषाढकृष्णनवम्यां ११ ४८ इतश्च श्रीनन्दनस्य ८ २१५ इति स्वामिगणस्तोत्रं ११ ६५ आसनाभिग्रहो भक्त्या ११ इतश्च साकेतपुरे ८६१ इतोऽनरण्यस्य सुहृत् ४ ११३ आसने चाऽऽसयामास २ इतश्च साहसगते० इतोऽपि च तदेन्द्राणी ५ आसन्नस्थेऽथ काकुत्स्थे ७ इतश्च सिद्धार्थजीवो इतोऽभूतां च काकन्द्यां आसमुद्रममुद्राज्ञ०५ इतश्च स्वपुरे हर्म्य. १० १०६ इतो महापुरपुरे ४ १०१ आसिक्ता चन्दनाम्भोभि०३ इतश्च हनुमांश्चैत्रे इत्थं कथञ्चिद्राजान० ४ आस्तामार्यो दशग्रीवः २ इतश्चाऽऽदित्यरजस: १६६ इत्थं च तस्थुषे तस्मै १ १३५ आस्फलद्वीचिनिचय० ९ इतश्चाऽऽदित्यरजसे १६३ इत्थं राजाज्ञया द्वा:स्थो ३ १४८ आस्फालयच्च तन्नाद० ४ ३४९ इतश्चाऽपहृते पुत्रे २५० इत्थं विद्रावयामास ४ १६७ आस्फालयामासतुस्ता० ७ ७६ इतश्चाऽभूनागपुरे इत्थं विमृश्य स सुरो ४ आस्फोटयंस्तटीघातै० २ इतश्चाऽमर्षणप्रष्ठो २८१ इत्यनुज्ञाप्य राजानं ४ ४४२ आस्यदघ्नेऽवतीर्णस्य २ इतश्चाऽस्ति राजगृहं इत्यन्यलिङ्गिभिः सार्धं ४ आहूतबन्धुस्तत्रैवौ० १ इतस्तृतीये दिवसे इत्यभिग्रहभृद् रामो १० २०२ आहूतः सिंहनादेन ६ इत: कथाप्रसङ्गेन इत्योक्ते दशग्रीवो २ ३४७ आ: कथं मयि मात्सर्या०२ इत: पाताललङ्कायां ५ ३७८ इत्यवोचत सा यावत् ४ ३६५ आ: केन जीविताऽस्म्येषा४ इति क्रुद्धोऽसिमाकृष्य ३ ३० । इत्याकर्ण्य वचो रामः ९ २५ इति चाऽचिन्तयदितः ४२७ इत्याख्याय स मेऽदत्त इक्ष्वाकुवंशप्रभव: १३ इति चिन्तापरं तं द्राक् ६ इत्याग्रहपरं रामं ८ १०३ इतश्च कालं कमपि ६ इति चिन्ताप्रपन्नं तं इत्यादि चेष्टा विकला: इतश्च चित्रमालाऽपि ४ ६६ इति चिन्तितमात्मीय० ३ इत्यादिदुःखं तेषां स १० इतश्च जम्बूद्वीपेऽस्मिन् ४ २०८ इति चेतसि निश्चित्य ४ इत्यादि बोधितस्तेन १० इतश्च जम्बूद्वीपेऽस्मिन् ११ इति तद्रिमाकर्ण्य इत्यादियुक्तिवचनै० ४ ४५३ इतश्च तत्र वैदेही ९ ३५ इति तद्वचनं श्रुत्वा ९ इत्यादिशच्च स्वान् सैन्यान् ६ इतश्च तद्दिने गर्भ इति तेनाऽर्थितो रामो इत्यादि समुपादिश्य २ इतश्च तौ कीर्तिधर० इति दर्पाद् विब्रुवतो ७ ३७५ इत्यादि साश्रु जल्पन्तीं ४ इतश्च तौ क्षणेनाऽपि इति दारुणकर्माणं ४ इत्यादि सीतानिर्वाद २९३ इतश्च दशकण्ठाय इति ध्यायन्नात्तदीक्षो ८ १७८ इत्यादि सीतावचनैः ५ इतश्च नारदाच्छ्रुत्वा इति निर्वेदमापन्न: १ इत्यालापं तयोः श्रुत्वा ३ इतश्च पञ्चालदेशा० १२ इति निश्चित्य लकेश. ७ ३६२ इत्याहोरात्रिकी चर्या० ११ इतश्च पद्मसैन्येऽवाक्० १ इति पुष्पोत्तरः श्रुत्वा इत्युक्तवति सौमित्रा० ६ इतश्च पवन: सन्धिं इति पूर्वभवाच्छुत्वा इत्युक्तवन्तं तं दूत० इतश्च पुर्ययोध्याया० ४ इति प्रहसितेनोच्चै० ३ ३४ इत्युक्तवन्तं लकेश०२ ५१५ इतश्च पुर्या लङ्काया २९३ इति ब्रुवाणमेयुस्तं २ ९७ इत्युक्तवन्तं सा नाथ० ३ १०६ इतश्च पुर्यां लङ्कायां इति ब्रुवाणं दोर्दा० ७ १४६ इत्युक्त: पालक: शीघ्रं ५ ३५७ इतश्च भरतस्याऽ) इति ब्रुवाणां तां दीना० ३ ७४ इत्युक्तः सोऽत्र मां मुक्त्वा ५ ४०४ इतश्च भरतेऽत्रैवो० इति ब्रुवाणे सीतेन्द्रे १० २२५ इत्युक्ता निर्विकारेण ९ १७ x in my 9m Xamy ६ or mor १/६ 5 १४० 3 orarror 3r 0333 ५९ १४३ wwww M ४३७ १०० २३ ९५ २७ २०२ ० ०० mor १४९ worm oru GANGm ३ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्ग: क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः S १८० EX ३२९ ३५५ १८५ me mms ५०१ १२५ १६२ ११४ ४०३ २९६ १० २४३ ५६ ३४१ ८७ १३९ २५६ १४५ ५७ ११२ १९६ १८७ १०४ १३० २५१ ५३२ ४६२ तस्यर्षे० १० ५८४ इत्युक्ता सानुतापा सा ३ इत्युक्तास्तेन ते सैन्या इत्युक्ता: पद्मनाभेन इत्युक्ता: सह तेनैव ५ इत्युक्तेऽपि हि तूष्णी० २ इत्युक्ते रामसौमित्री इत्युक्ते रावण: क्रोधा० ६ इत्युक्ते वज्रकर्णेन ५ इत्युक्तो मारुतिः क्रुद्धो ६ इत्युक्तो मुक्तवान् शक्तिं ७ इत्युक्तो रामभद्रोऽगात् ६ इत्युक्त्या करुणापूर्णः १० इत्युक्त्या कुपितो राम० १० इत्युक्त्या रावण: क्रुद्धः ३ इत्युक्त्या रावण: क्रूद्धो २ इत्युक्त्वाऽखानयद् रामो ९ इत्युक्त्वा चमरो रोषात् ८ इत्युक्त्वा जानकीमात्म० ९ इत्युक्त्वाऽजूहवद् रामो १० इत्युक्त्वा तत्र चित्यायां ३ इत्युक्त्वा तं विसृज्याऽथ २ इत्युक्त्वा तां पुनर्नत्वा ४ इत्युक्त्वा ते समुत्पत्य ८ इत्युक्त्वा धनुरास्फाल्यो०७ इत्युक्त्वा धन्व गृहन्तं १० इत्युक्त्वा निशि तत्रैत्य ५ इत्युक्त्वा पद्यरुचिना १० इत्युक्त्वा पर्वतयुतः २ इत्युक्त्वा पाणिनोद्दधे १० इत्युक्त्वा पुष्पकारूढः ९ इत्युक्त्वा बहिरुद्याने ६ इत्युक्त्वा भ्रमयित्वा तां ७ इत्युक्त्वा मूर्च्छिता भूमौ ८ इत्युक्त्वा मूर्छिता सीता ९ इत्युक्त्वा मैथिली केशा०९ इत्युक्त्वा राघवं नत्वा ६ इत्युक्त्वा राममानम्या० १० । इत्युक्त्वा लक्ष्मणोऽधिज्यं ५। इत्युक्त्वा सकलं लोकं ४ इत्युक्त्वा सपरीवारो १० इत्युक्त्वा स ययौ वेश्म १० इत्युक्त्वा सह रामेण ९ इत्युक्त्वोत्थाय काकुत्स्थ: ४ इत्युक्त्वोवाच सेनान्यं ८ इत्युदित्वा कण्ठपाशं ५ इत्युदित्वा द्रोणमेघो ७ इत्युदित्वा पद्मनाभो इत्युदित्वा महत्या च ५ इत्युदीर्य दशास्याय इत्युदीर्य महावीर्यः इत्युदीर्य सनिर्बन्धं ३ इत्युदीर्याऽमन्दरोषोऽक०७ इत्युदीर्योच्चकैर्याव० ३ इत्युदीर्योदग्रदोवीर्यः इत्यूचे च मुनी रामं ५ इत्यूचे जनको दत्ता ४ इत्यूचे साऽपि राज्ञाऽहं इदमत्यन्तरुद्धत्वात् इदमद्याऽपि मगल्यं ४ २० इदं च चिन्तयामास इदं च दध्यौ सौमित्रिः इदं तु विदधे साधु इदं मद्वाचिकं शंसे०६ २३३ इदं मम वचः श्रुत्वा ३७४ इदं साध्वम्ब! साध्वम्ब! ४ ४७६ इदानीमनयोर्जज्ञे १९३ इदानीमातरङ्गस्तैः ४ . २६९ इदानीमेव तस्यर्षे इन्द्रराक्षससैन्यानां १ इन्द्रश्रियोऽधिका श्रीस्ते ७ । इन्द्रस्याऽपि विजेतारं ७ इन्द्रायुधः स तु जीवो १० इन्द्रो द्रागथ निर्दम्भ० १ १२९ इन्द्रोऽपि निजगादैवं २ ६०१ इन्द्रोऽप्यैरावणारूढः १ इमं संयमभारं च १० इमां च विद्यामाशाली० २ इयत्यपि गते स्वामिन्! ७ इयं कुलकलङ्काय इयं महासती नूनं इयं महासती सीता इषुभ्यः प्रतियच्छन्तौ ७ ११३ इषुस्खलनहेतुं स २ ४१० इह स्थितश्च लुण्टाकै० ५ इहाऽऽगा हेतुना केन १३८ इहाऽऽयातं दाशरथिं इहाऽरण्ये समायातो इहैव तिष्ठतं तातो! इहैव तिष्ठ तात! त्वं ३ इहैव भरतेऽनन्त० १२ । उच्चस्तेनैवमादिष्टा २ उज्झित्वा नियमभङ्ग० ७ उत्कटभृकुटीभीम०६ उत्कण्ठा पितरं द्रष्टुं उत्ततार ततो रामो ४ उत्तरापथभूपालान् उत्तस्थाते कुमाराव० उत्तस्थे चाऽथ सन्नह्य उत्ताण्डवैः कबन्धैश्च उत्तारितज्ये सौमित्रौ ५ उत्तिष्ठतो जिघांसूस्तान् ८ उत्तिष्ठस्व युधे सर्वा० ५ उत्तिष्ठोत्तिष्ठ पापिष्ठे! उत्तिष्ठोत्तिष्ठ वत्स! त्वं २ उत्तीर्य पुष्पकात् तत्र ८ उत्तुङ्गवप्रप्रासादां ५ उत्थाय विललापैवं ९ उत्थितोऽस्त्यधुना वीरः २ उत्पतन्तौ क्षणाद् व्योम्नि ६ उत्पत्तिरेव हि तयो० ४ उत्पत्य सप्रहसितो उत्पन्नकेवला: सर्वे० ५ उत्पन्ने सति केवले स १० उत्पन्नोऽस्युत्तमे वंशे २ उत्पपाताऽथ हनुमानु० ६ उत्पलैः कुमुदैः पद्यैः ९ उदयं प्रतिबोध्यैवं ४ उदयो नर्मणा भूयः उदश्ररूचे कौशल्या ४ उदश्रुरूचे सौमित्रिः उदितमुदितजीवौ उदितादित्यतेजोभि० ६ उदितेन रुषा सद्यो उदीच्यामङ्गदः कूर्मो उद्ग्रीवपाणिभि: पौरै० ९ उद्याने समवसृतौ ८ उद्याने स्कन्दकाचार्य उद्यौवन: सुमित्रोऽथ २ उद्यौवनायास्तस्याश्च उद्वाहतोऽपि या त्यक्ता ३ उन्मत्तभाषिणं चैवं १० उन्मूलयन् मूलतोऽपि उपतस्थे दशग्रीवं उपयन्त्रं शिशौ नीते ५ उपरम्भामप्युवाच २ उपरोधेन तासां च ८ उपर्युदन्वतो गच्छन् उपलक्ष्य ततोऽवादी० ५ उपलङ्कमथो हंस०७ उपवासैरथो षड्भि० २ ३६२ २६२ ३७२ २६८ २१८ २६ ६० २३१ ४ १३८ ४५ ४८० २५७ १६५ ११८ २१६ ३२४ १४ ४७८ ४३ २०६ ३९ »»»w sur २८८ ३१४ २४ २३१ १६६ १११ २३६ १३८ १०९ ५१ १० १४२ ९९ । ५२६ m3m 3 ३०३ १८१ २८० ३५९ ५७४ १०६ ईदृक् पराक्रमः सोऽयं ८ ईदृशे व्यसने प्राप्ते ईर्ष्यालव: सपत्न्यस्ता ८ उ उक्तः प्रहसितेनैवं ३ उक्त्वेत्यमोघविजयां उच्चिक्षेप शिलां दोष्णा ६ २१५ उच्चैर्जन्मोत्सवं तस्य ४ २४८ उच्चैर्विजयसिंहोऽथ १ ६८ ८ or Woror, ३५७ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः १६० ११५ ૨૮૬ १९८ ३३९ १२५ १२६ ५८६ ५९२ ३२४ श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः उपवीणयति ग्राम० २ २६८ उपशूलं च दीनोऽहं ५ उपाद्रवन कुम्भकर्ण० ७ १२९ उपाध्यायस्य घोषस्या० ५ उपाध्यायोऽर्चितो राज्ञो० ५ ३०४ उपाय: किन्त्वसावस्ति ५ ४३१ उपार्हन्निजदोर्वीणा०२ उपेत्य दिशि वारुण्यां १२ १३ उपेत्य भजनीयं तं ३३८ उभावपि महाबाह ६ २४४ उभावपि महामल्ला० उल्ललत्सूतिकातल्पे उल्ललन्तो दुर्ललिताः उवाच च तव भ्रात्रे १९२ उवाच च नवोढां तां १६८ उवाच चमरेन्द्रो यत् १८५ उवाच चैवमुदय० उवाच प्रभुरप्येवं ३४४ उवाच रावणोऽप्येवं ६२६ उवाच लक्ष्मणो राम १०८ उषितं बहिरुद्याने २०७ उषित्वा तां निशां सेतु० ७ उष्णनि:श्वाससन्ताप० ६ ३२७ ११२ १५२ १२ ३७१ १४७ rw3» 033 १३ २१४ १७४ एवं तत्र ब्रुवत्येव ७ एवं तयोर्वचो ज्ञात्वा १० एवं तावतिनिर्बन्धात् ३ एवं तां रुदतीं प्रेक्ष्य एवं ध्यात्वा वैश्रवण २ एवं निर्भर्सिता श्वश्वा० ३ एवं निषिध्य तं पद्मो एवं पितृवचः श्रुत्वा २ एवं बिभीषणेनोक्ते एवं ब्रुवन् रामभद्रो एवं ब्रुवाणे भरते एवं मनोरथैर्वत्स! एवंमनोरथो राजा ४ एवं मुनिवचः श्रुत्वा एवं युद्धे वर्तमाने एवं रुदन्तीं करुणं एवं रुदन्ती प्रह्लाद० ३ एवं वचसि तेषां तु ६ एवं विचिन्तयन् रामः १० एवं विचिन्त्य सौमित्रि० ४ एवं विचिन्त्य स्वपुरे एवं वितर्कव्यग्रोऽभूदु ५ एवं विद्याधरैरिन्द्र० एवंविधानि कर्माणि २ एवंविधेऽपि दयिते ८ एवं विनीतां तां कन्यां ६ एवं विमृश्य भगवान् एवं विमृश्य वैदेही एवं विमृश्य सुग्रीवो ६ एवं विमृश्योत्प्रतिभः ५ एवं सम्बोधितस्तेन एवं सोऽचिन्तयद् यावत् ९ एवं सोऽवरजाभ्याम० २ एषा मन्दोदरी नाम० एषामेकतम: स्वर्ग एषोऽष्टादशवर्षायु० ३ एहि पाताललङ्कायां एोहिरे! परगृह० om NMMMS १२९ १११ १०७ ६३० एकान्तविक्रम: क्वाऽपि २ ५८२ एकान्नभुग विशुद्धात्मा ५ ३८१ एकेन विक्रमेणेव २ ५८१ एकेनाऽपीषुणा प्राणां० ६ ११४ । एकैकशोऽथ दोष्मन्त: ४ एकोनविंशतिशती १३ एकोऽपि रावणो हन्तु० ७ एकोऽप्यजय्योऽयं विद्या०२ एतत्पितामहस्याऽपि एतत् सर्वं परिज्ञाय ४ १४१ एतानि रतिवेश्मानि १७० एते त्वन्मुखमीक्षन्ते २२८ एतौ च मम दोर्दण्डौ ९ १३३ एभ्यः को यास्यति स्वर्ग २ ३९० एवमस्त्विति तेनोक्त० ५ २०६ एवमस्त्विति रामोक्तः ८ ७३ एवमस्त्वित्युक्तवन्तं ६ एवमस्त्वित्युदित्वा ते ९ एवमाकर्ण्य सीतेन्द्रो १० एवमाक्रोशिनं विप्रं एवमाद्या महाविद्या: २ एवमाराध्य सौमित्रि० ६ एवमुक्तवतस्तस्य ५ ४२ एवमुक्तश्च मुक्तश्च २ ३५५ एवमुक्तः प्रहसितो २३३ एवमुक्तो विराधोऽथ एवमुक्त्वा नमस्कृत्य २ २२ एवमुक्त्वा निजे राज्ये २ एवमुक्त्वाऽऽर्हते धर्मे ३ १८६ एवमुक्त्वा विदार्य क्षमा० २ २४४ एवमुक्त्वा सहस्रांशु ३५२ एवमेकत्र पुरुषे २ ४९१ एवमेतदिति प्रोच्य एवं करिष्यतीत्युक्ते एवं कुर्विति तेनोक्ता ४३२ एवं कृतनिदान: सन् एवं गिरो रणक्रीडा १०९ एवं च काले व्रजति ३ एवं च तस्थुषस्तस्य ५ ३८३ एवं च दध्यावुदयो १० ११० एवं च दध्यौ काकुत्स्थो ८ २९४ एवं च दध्यौ हनुमा० ६ । एवं च दध्यौ हनुमान् ६ २३८ एवं च पर्वतात् पाप० २ एवं च भाषमाणस्य १० १२३ एवं च रुदतीर्वक्षां० १० एवं चिन्तयतस्तस्य ५ १७८ एवं चिन्तयतस्तस्य एवं जटायुषं रामे १० १६९ एवं जयस्य कौमारे १३ २७। ३२६ २८० १४३ ८५ ३०४ १७४ २४० १८७ ३०० २५३ २२६ orm ४५५ २०८ ऊचतुर्वज्रजई तौ ९ ऊचुर्वयस्या अथ भा० ४ ऊचे च भो: कुलामात्या: ६ ऊचे च रावण: क्रुद्धो २ ऊचे च लक्ष्मण: क्रुद्धः ६ ऊचे च लक्ष्मणो लोक० ८ ऊचेऽथ कूबरपतिः ५ ऊचेऽपराजिता देवी ४ ऊचे बिभीषणो भ्रात:! ६ ऊचे बिभीषणो रामं ७ ऊचे रामोऽत्र तिष्ठ त्वं ऊचे विलक्षो रामोऽपि ९ ऊचेऽष्टाङ्गनिमित्तज्ञः ऊढाष्टशतनारीक: ९ ऋ ऋजुस्तातः प्रकृत्याऽपि ४ ऋषकुन्तलकालाम्बु० ९ ऋषभप्रतिमां तत्र ऋषभस्वामिनोऽभूता० २ १८१ १६४ १५६ کد م م م ६३१ २०५ १३२ ३८८ ३६४ Vmor rm our ४६७ ३२९ ४९८ ४६२ ५०१ ऐक्ष्वाको दूतमायातं ४ ऐरावण: सुरसिन्धो० २ ओ ओमित्युक्त्वा स्थितौ वज्र०५ क क एष इति साश्चर्या ६ कच्चित् प्राणिति मे प्राण०६ कच्चिद् राष्ट्रे पुरे गोत्रे कञ्चुक्यपि जगादैवं ४ कण्ठे चिक्षेप तं हारं १ कण्ठे शिखायां बाह्वोश्च ४ २७६ १२१ एकदा च गृहोद्यान० २ एकदा च तयोर्गेहे एकदा युधि सामन्तो ६ एकशृङ्गो गिरिरिवै० २ एकाकारकरे विष्वक् ६ एकाकिनी कान्दिशीका ५ ३४५ २६२ ३६७ १० १०८ ३९५ २१७ २९६ ४०५ १५४ २९२ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकः ४ कथञ्चिद् धैर्यमालम्ब्य कथञ्चिल्लब्धसञ्ज्ञासा ७ कथ्यमानान् प्रतीहार्या १ कदम्बचुम्बनासक्त o ११ कदा नु सानुजस्तत्र कदाऽपि स्वयमाभाष्य कदाऽप्यारोपयद सर्गः क्रमाङ्कः १० १० कदा स्प्रक्ष्याम्यहं तस्याः २ कनकाभाकुक्षिजन्मा कनिष्ठभ्रातृवीर्येण १० ५ कनिष्ठां रतिमालायां ५ कन्यारूपं विकृत्याऽथ ५ कन्यासहस्रसहितां ७ कन्या ह्यवश्यं कस्मै ० २ १ कन्या ह्यवश्यं दातव्या कपयो राक्षसैः सार्धं कपिवृद्धास्ततः प्रोचु० ६ कयाननाम्ना विप्रेण ४ ५ कयाsपि माययाऽग्रेऽपि २ कर्तुं त्वमेव जानासि कर्मक्षयसहायेव० कर्मक्षयादावयोश्च ૪ कर्माणि समिधः क्रोधा० २ कर्माण्यवश्यं सर्वस्य कलङ्कस्याऽतिथीभूतां २ ८ ४ कलयामासतुस्तौ कलहप्रेक्षणाकाङ्क्षी कलाग्रहणयोग्य ता० कल्पान्तार्णवकल्पं त० ७ कल्याणगुणधरस्तु कश्चिद् राष्ट्रे पुरे गोत्रे कष्टादभीता सीतेयं ४ १२ कस्याऽद्य पत्रमुत्क्षिप्तं २ कः सखाऽंशोस्तमो ध्वंसे ६ काकिणीरत्नलिखित काकिण्या भकूटे १२ काकिण्या ऋषभकूटे १३ काकुत्स्थः स्थापयामास ७ काकुत्स्थी तस्थतुस्तत्र ६ काकोऽपि स्वां ययौ पट्टी ५ कांश्चिन्मुद्गरघातेन का त्वं कस्त्वामिहात्याक्षी० ९ कानप्यदिप्रहारेण कामयास्यमहं योनिं कामं कामातुरः स्वामी ६ कामिनीमिव चतु का यूयमिति तेनोक्ता: ७ १० २ ६ २ कायोत्सर्गं समुत्सृज्य कालक्षेपो बधेऽस्याऽपी० ६ कालाप्रिश्रीप्रभासूनुः १ ४७१ ३५७ ६५ ४५ १० १५२ १५१ २९० ४८ ४१९ २३० ३९९ ३०० १७८ २० ८४ २१७ २१० २४१ ३५६ ६३ ३१७ ३६९ ६४७ २८७ १९७ ५१२ ३८ १२३ ६४३ २६२ ४६४ ४३४ १८ १८ २१ २१ ९ ४७ १२३ १२२ ८ १२१ ४३ १७५ ३०१ २५९ २३० ३१ १११ ३१ श्लोकः काले गच्छति जज्ञे च काले गच्छति तस्याश्च १३ १ काले च दोहदस्तस्याः कालेन गच्छता जाते ४ कालेन गच्छता शोक० ४ कालेन तं दशरथो ४ ८ काष्ठभारं विमुच्याको ० कासार : कासरस्येव किञ्चिच्क्षुभतुः कोपात् २ किञ्चित् तिरोहितस्तस्थौ ३ किञ्चिद् रामो विचिन्त्योचे ९ किमञ्जनाद्रेर्णेन ६ किमाज्ञाखण्डनं केना० ४ किमार्यः सत्यपि मयि किमेतदिति सम्भ्रान्तो कियत्यपि गते काले ५ ४ १ २ कियत्यपि गते काले किष्किन्धाराज्यमाधाय १ किष्किन्धा नगरी सैन्यैः १ किष्किन्धितः सुकेशाद्या: १ किष्किन्धेर्विष्वगुद्याने किष्किन्धेशः सुमालाख्यं ७ किं करोति परं मन्त्रः १ ६ किं च केतुमतीश्वश्रू० ३ किं च नाधुनिकं वैर० २ किं च संशृण्महेऽग्रेऽपि ३ ३ किं चेहाऽञ्जनसुन्दर्या० किं तिष्ठसि द्रुम इव किं पुनर्निररामैवे० किं रोदिषीति पप्रच्छ ५. ३ २ ८ ९ किं विद्यासिद्धये यत्न० कि सेविष्येऽहमप्यन्य० ५. कुञ्जरः सोऽपि वैराग्या० कुठारकुद्दालभृतां कुठारपातैराच्छित्रा ७ कुतस्त्वमागतोऽसीति कुतोऽपमानादारब्धं कुबेरदत्तोऽथ कुन्थु कुबेरवारैः केचिन् कुमतस्याऽपनेतारं कुमाराविन्द्रजिन्मेघ० कुमारो वाहनान्मोहा० कुमारो व्याजहारैवं कुम्भकर्ण त्वमपि नो कुम्भकर्णः पपातोयाँ कुम्भकर्णेन्द्रजिद्भ्यां कुम्भकर्णेन्द्रजिन्मेघ० कुम्भकर्णो मुद्ररेण कुरु प्रिये! सारथित्वं कुर्वाणं कापि हुकार सर्गः क्रमाङ्कः ४ 67 ४ ४० ८ ३३ ४५ ३४ २२५ १५१ ९५ ६९ १५८ ३६३ १०९ ५० २८ ५४ १६ १५ ५० १३८ ३३ ३४ १३५ १६२ २१३ ७ ११ ७ ४ ४ २ ८४ ९ ९९ २२५ २५३ २३३ २०१ १४३ ८ ७ ४ ९ ५५ ८९ १७१ २९२ ३०२ ४१३ २४५ १६३ १०६ ६० ७९ ७२ ९२ १९८ १७८ १४३ ५९३ १४६ श्लोकः कुर्वाणो रक्षणं भ्रातु कुलटानामन्तीनां कुलदेवतया तच्च सर्गः क्रमाङ: २ ६ ८ २ २ १२ ७ ८ कूजन्मरालमाला० कूष्माण्डवदखण्ड्यन्त कृतमालामरं चाऽथ कृतं युक्तं मया तन्ना० कृतान्तवदनं राम्रो कृतान्तसारथी राम० ९ कृतान्तः कथमप्यू कृतान्तोऽपि बभाषेऽदः ९ कृत्वाऽधिवानरद्वीपं कृत्वा निदानं तत्प्राप्त्यै १० ८ १ कृत्वा प्रदक्षिणां तत्तु 67 कृपालुः स महीपालः ९ ७ कृपालुः सोऽवरुह्याश्वा० १० केचिन्मतजोदाडी० केतुं भामण्डलनृपः केनाऽपि दयिता नूनं केवलज्ञानसङ्गेन केवलं तस्य चोपेदे केवली स जयभूषणो क्रमेण गत्वा सेनाभी क्रमेण च भवोद्रिमः क्रमेण तौ वर्धमानौ क्रमेण वर्धमानाऽहं क्रमेण सा दशरथं क्रमेण स्कन्दकाचार्यो ७ ६ ११ ९ ९ कैकसी सुषुवे चाऽन्यं कैकसी रत्नश्वसं २ ५ २ कैकेयी कन्यकारलं कैकेयीभरती षड्भिः कैकेयी रश्मिमादाया० कैलासमुदधार्षीद्यो कोदण्डपाणयः केचित् ७ कोपारुणाक्षः सौमित्रिः को महिमानस्खलना कोऽयमित्यनुयुक्ता तु कोऽयं महाकाल इति २ कोऽस्या गर्भेऽभवत्? केन ३ कौमारेऽब्दानां सहस्रौ ११ कौलट्यवर्जा ये केऽपि ४ कौशल्याद्या मातरश्च १० कौशल्याया: सुमित्रायाः ४ कौशाम्ब्यामबलोऽधागात् ८ २ २ ५ क्रमाच्च यौवनं प्राप्तो क्रमाच्छुतिरतिः सोऽपि ८ क्रमादजनिषातां च क्रमादुद्यौवना पुण्य० क्रमेण कर्मणां सोऽथ ५ ४ २ ९ १२ 5 x 5 ४३६ ३०७ १८९ २९९ २०८ १६ ३५९ ३०६ १२६ ३११ १३१ ३१ ७७ ३७१ ६ ३२ ४९ १९७ ९ ५७ २०१ २३३ १६१ ४५ १५४ ५११ १६३ ६२४ ५९ ५५ २३८ २ ४५५ १६२ ११० ५२१ १३३ ५०८ २०३ २० १२७ ३०० २५५ २७९ ९६ ३ १९६ ९२ १५६ ३४७ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्क: २६ २३ १७३ ३७१ खलोक्त्याऽहं यथा त्यक्ता९ खेचरोऽङ्गारको नामो० ६ खेदं माऽत: परं कार्षीः ३ । खे समुत्पत्य सुग्रीवः ७ २६१ ११३ २ ३८५ orm md ३९७ ३९४ ४२३ २६४ ०००.० २ 3 १७६ १५२ २३६ १३७ १०४ गुणानामालयश्चाऽयं ३ गुणिने श्रीमतेऽप्यस्मै गुरुपादा दयावन्तः गुरुपादैरदस्तावत् गुरुर्धर्मोपदेष्दैव गुरूपदेशो हि यथा० गुरोरेकस्य पार्श्वे तौ गुहाया इव पञ्चास्यौ गृहचैत्ये रत्नमयं गृहिणी रामभद्रस्य ६ गृहे गृहे त्वं गृहिणां गोकर्णोऽप्यवधेर्ज्ञात्वा ५ गोशीर्षचन्दनेनाङ्ग० ७ ग्रहीष्यति तया चेदं ग्रामे ग्रामे ग्रामवृद्धैः घ घटप्रभृतिदिव्यानि २ घूकानां घोरघूत्कारैः ३ घूत्कारिणो महाघूका: ६ घोरेभ्यः शपथेभ्यो यं ५ घोषोपाध्यायसदने २८५ ४०६ ३७४ ५४ ९७ १७६ ११४ २२० १९० २९७ १६१ २९४ ५६१ ४९० ४४५ १३४ १८५ १९६ ३७८ Mk क्रमेणोद्यौवन: प्राप्त० ८ क्रव्यादतुल्या ये कुर्यु० २ क्रीडन् सोऽन्येधुरुधाने ३ क्रीडयेतस्ततो भ्राम्यं० ५ क्रीडा) बहिरुद्याने ६ क्रीडार्थं सकलत्रोऽहं क्रीडासक्ते तडित्केशे १ क्रीडास्थानभुवा तासां ६ क्रीडां कृत्वैवमुत्पत्य ६ क्रुद्धस्तं रावणोऽवोचत् ७ क्रुद्धः सिंहोदर: स्माऽऽह ५ क्रुद्धः स्वसैन्यभङ्गेन ७ क्रुद्धैरक्षोभि रक्षोभि० ७ क्रुद्धोऽथ कृत्वा हनुमा० ७ क्रुद्धोऽथ ज्येष्ठकाकुत्स्थो ७ क्रुद्धोऽथ रावण: प्रोचे ७ क्रुद्धोऽथ लक्ष्मणोऽवोचद् ८ क्रुद्धोऽथ शक्रो युद्धेच्छु० २ क्रुद्धोऽथाऽनुद्वरो रत्न० ५ क्रुद्धोऽप्यविकृताकारो २ क्रुद्धो मरुत्तभूपालं क्रोधान्ध्यात् कुम्भकर्णेन ७ क्रोधारुणाक्ष: सद्योऽपि २ क्लिश्यमानान्निजान् पत्तीन् २ क्वचिच्चोन्मकरमिव ७ क्वचिद् दिलदिलस्वानं ९ क्क मारुति: क्व सुग्रीव० ७ क्वाऽञ्जना सा नयनयो० ३ क्वाऽसि हा वत्स! शम्बूक!५ क्षणं नले क्षणं हस्ते ७ क्षणं सशोको सक्रोधौ ६ क्षणाच्चकार विरथं ७ क्षणाच्चाऽवेष्ट्यत सिंहो०५ क्षणाच्छल्यैः क्षणाद्वाणैः २ क्षणादभाङ्क्षीद् रक्षांसि ७ क्षणेनाऽप्याययौ मेरो० २ क्षत्राचारेण तस्याऽहं ६ क्षमस्वाऽज्ञानदोष मे ५ क्षान्त्वा सर्वं ममेदानी० ९ क्षिप्त्वा करीषं दृषदि १० क्षुधिता तृषिता श्रान्ता ३ । क्षुभितं जलदेवीभि० २ क्षुभितो नारदस्तेभ्यः ४ च १६१ १५० १४७ ९४ २१४ १४५ २२३ ३९५ ७८ ३५० गङ्गामुत्तीर्य कैलास० ९ ७८ गङ्गासागरमुत्तीर्य ८ ३०९ गङ्गेव स्वच्छगम्भीरा गच्छ गच्छ जरद्रक्षः! ७ १०४ गच्छ गच्छ तिष्ठ तिष्ठ ७ गच्छन् ददर्श चाऽऽगच्छ०५ गच्छन्नथो देवकुरुप्रदेशे १० २६१ गच्छन् सरो ददर्शक० ५ ७९ गच्छ वत्स! जयाय त्वं ५ ४१४ गच्छ शाधि निजं राज्यं २ ३५४ गच्छ स्वस्वामिकार्याय ६ २५२ गजमालानितं कृत्वा २ १३६ गजसिंहार्कचन्द्राग्नि० ४ गजान् ग्रहीतुमत्रैत्य गतं मम मुधा जन्म ८ १७७ गतागतैस्तद्रथाना० ७ १४९ गतायाश्चान्यतस्तस्या० २ ५०९ गतेष्वनेकभपेष २ ३८४ गत्वा गवेषयित्वा च ९ गत्वा च क्षुद्रहिमवत् २ २९२ गत्वा च पश्चिमाम्भोधौ १३ १६ गत्वा च रामभद्राय ५ ३९१ गत्वा दूतः स लङ्कायां ६ २२० गत्वा दूरमपश्यच्च ६ ३४ गत्वा पाताललङ्कायां ६ गत्वा रहसि राजान० ५ ३५१ गत्वा सौमित्रिशत्रुघ्न० ९ २२४ गत्वा स्वस्वामिनो भक्तिं २ गत्वोद्यद्यौवनां वज्र० ४ गदामुद्गरनाराचैः गन्धाम्बुवृष्टिगन्धेन ५ गमिष्यति वनं रामो ४ ४७३ गर्भलक्ष्माणि चाऽन्यानि ३ गर्भस्थयोरप्यनयो० ९ ६८ गवेव वत्सो रहित० ६ ३४९ गवेषयिष्यत्यचिरात् त्वां ९ गवेऽस्मै म्रियमाणाय १० गवो गवाक्षो गवय: ६ गाढं मिलितयोरेक० गाम्भीर्यं धैर्यमौदार्य० ११ ५ गिराऽभिरामया रामः गिरिं तेनोद्धतं ज्ञात्वा २ २४८ गिरेः पुष्पगिरेद्र्ध०८ गिरौ तत्रैव चाऽऽदित्य० १ ६३ गुणवत्यपि सा भ्रान्त्वा १० ५४ ।। २२१ ६१४ ११९ १७५ २११ ma चकार तस्य भुवना० २ १३५ चकाशे दिशि वारुण्या० ६ २८३ चक्रतुस्तौ चिरं राज्यं २ ५४३ चक्रभृत्त्वे पुनरष्टौ १२ । ३१ चक्रमार्गानुग: प्राच्यां १२ चक्रवर्तिश्रियं भुक्त्वा १० २४४ चक्रिणा प्रेषितैर्विद्या० १० चक्रिणो ह्यनयोर्वंशे ६७ चक्रश्चित्रे च लेप्ये च १ ३४ चक्रुः षष्ठाष्टमादीनि ८ २२० चक्रे च विबुधैस्तत्र ११ ५० चटच्चटिति तच्चर्म ४६० चतुरङ्गचमूचक्र० चतुरं भ्रमयामासु १२८ चतुर्ज्ञानभृदित्याख्य० १६० चतुर्दशपूर्वभृतां ११ १०४ चतुःषष्टिसहस्राणि चन्दनद्रुमवत् सी० चन्द्रगतिपुष्पवत्योः चन्द्रतुल्यनखत्वेन चन्द्ररश्मि: कुमारो मे ६ चन्द्रहासादिशस्त्राणि २ २६६ चन्द्रार्कोद्दामबीभत्सा: ७ चन्द्रोदयो गजपुरे चन्द्रोदराख्यं निर्वास्य ६ चमूरुद्वीपिशार्दूल० ४ २७७ चम्वा रुद्ध्वा पृथुत्वेन ७ चारणश्रमणं तं च १५९ १२३ २२८ २ १४९ ३२१ २९४ ४१ १६२ २४७ ८२ ७४ ११६ खडत्खडितिबिभ्रश्यद् २ खड्गाखड्यापतत्पत्ति० १ खङ्गैर्मिथोघातभग्नै० ७ खण्डप्रपातागुहया खण्डशः खण्डयामास २ खरखेचरघाताय २ १५३ १७६ । Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्क: २०४ १२९ २६४ १३२ ३१६ २५१ ज्ञात्वा दिव्यप्रयोगं तं १ ज्ञात्वाऽनीहं वैश्रवणं २ ज्ञास्याम: प्रेषणैरेव ७ ज्वलद्दीपविमानस्थो ७ ज्वलनं याचयाञ्चक्रे २ ज्वालाकरालं तं प्रेक्ष्य ९ ४०८ १४८ १६७ ५ ३०४ arm १४५ २८३ २०५ ३७ ६९ 2 E19 ९५ ३ ७२ १२८ ७५ ५५९ १४० १७८ १६४ ८४ १०७ ३८७ K0K००० 10 MOK 2060 २८९ २४६ १३७ ३८६ चिक्षेप स्वरथाङ्के तं ७ चित्रमाला च तत्पत्नी चिन्तयन्ताविति चिरं चिन्तयामासतुश्चैवं ९ चिन्ताम्लानाननौ तत्र ७ चिरकालं परिव्रज्यां १३ चिरभुक्तामपि प्रोज्झ्य ६ चिरं च युद्ध्वा हनुमान् ७ चिरं जीव चिरं नन्द ८ चिरं प्रवर्तमाने च चिरं युद्ध्वाऽथ बाणेन १ चिरं युद्ध्वा यमेनोच्चै० २ चुकूज कोकिलाकुलं १० चुक्षुभुस्तत्रसुः पेतु० ५ चुचुम्ब मूर्ध्नि तौ सीता० ९ चुम्बिष्यामि कदा तस्या २ चूडामणिरभिज्ञानं चूतचम्पककङ्केल्लि० १० चैत्यवन्दनयात्रायै २ च्युत्वा च प्राग्विदेहेषु १० च्युत्वा च विजयापुर्या १० च्यत्वा च सिद्धार्थपरे ५ च्युत्वा चाऽत्रैव वैताढ्ये ३ च्युत्वाऽच्युताद् दशास्यस्य ८ च्युत्वा तत: पद्मरुचि० १० च्युत्वा ततोऽङ्कजीवोऽपि ८ च्युत्वा ततोऽचलजीवः ८ च्युत्वा ततो जम्बूद्वीपे ३ ।। च्युत्वा ततो महेन्द्रस्या० ३ च्युत्वा ततोऽयं पद्मोऽभूद् १० च्युत्वा ततो विदेहेषु ८ च्युत्वा तौ भाविनाविन्द्रा०१० । च्युत्वा पुरे विदग्धे च ४ च्युत्वा पूर्वभवमाया० ८ च्युत्वाऽभूतां च काकन्द्यां१० च्युत्वा महापुरपुरे च्युत्वाश्वयुपूर्णिमा० ११ २१५ ६४८ ३८३ १०६ ३५३ २१९ २६९ ४९ २३६ २९९ १७० ३२ १४२ ३७३ २५० २७५ १६० १०५ जनकस्य सुखैर्दु:खै० ४ जनकं दशरथं च ४ जनकं बन्धुवत् स्नेहा० ४ जनकोऽन्वेषयामास ४ जनकोऽपि तथा चक्रे ४ जम्बूद्वीपपतिर्यक्ष०२ जम्बूद्वीपपति: सोऽपि २ जम्बूद्वीपं समुद्रान्तं जम्बूद्वीपेऽत्रैव प्रत्य० ११ जयलक्ष्मीलतापुष्पं जयश्रीरिव मूर्तोप० २ जयश्री म गणिनी जयानाम्न्यां च जायायां ३ जलानिर्गत्य भरत०८ जहर्ष वचसा तेन जातगर्भा च सा कान्ता जातधर्मपरीणाम: जातमात्रापहारादि० ४ जातमात्रो योऽपजहे जातवैक्रियलब्धीनां ११ जातानुरागौ तस्यां च जातामर्षेण तत् तात! ६ जाते गर्भे तत्प्रभावात् ७ जातोद्वाहौ तदानीं ता० १० जानकीपादयोर्मूर्ना ५ जाने महासती सीता ८ जानेऽहं यत् सती सीता ९ जाम्बवान् व्याजहाराऽथ ६ जितकाशी दशास्योऽयं ६ जितपद्याऽक्षिपत् तत्र ५ जितपद्या तदानीं च ५ जितमानिषु सैन्येषु ४ जितशत्रुस्तदा चाऽर्ह ५ जित: सौमित्रिणा चाऽऽशु८ जित्वा वैश्रवणं तेन जित्वोत्तरापथं राजा ४ जिनधर्मविनिर्मुक्तो ११ जिनोक्तं संयम तत्र १० जिनो देव: कृपा धर्मो ११ जिह्वाच्छेदं पणेऽकार्षी० २ जीवग्राहं प्रणश्याऽहं ६ जीवघातपलाहार०५ जीवन्नेवैष तिष्ठामि १० जीवन् रणाद् रावणोऽगा०७ जेष्याम्येकोऽपि भरतं ५ जैत्रं जगदजय्यस्य ज्ञातमन्तरमद्येदं ज्ञात्वा चाऽवधिना पूर्वं ७ ज्ञात्वा चाऽवधिनाऽभ्येत्य ७ ज्ञात्वा जातमिमं बालं ४ ३५८ ३०७ २२९ ३१६ ३९४ २९५ २१४ २१३ १६८ १८२ ५१ १७२ २१२ ३६४ डिम्भान् सूदोप्यथाऽहार्षीत् ४ त तच्चाऽऽक्रन्दितमाकर्ण्य १० तच्चाऽनलप्रभः श्रुत्वा ५ तच्छीघ्रं नय तत्रैव तच्छूलं देवतारूप०८ तच्छूलमन्तरालेऽपि ७ तच्छुत्वा चाऽथ कैकेयी ४ तच्छुत्वा चिन्तयामास २ तच्छ्रुत्वा जातसंवेग० ४ तच्छ्रुत्वाऽतितरां क्रोधं ५ तच्छुत्वा दत्तवीर्याय २ तच्छुत्वा भूभुजाऽभ्यर्च्य ४ तच्छ्रुत्वा मुदित: पक्षी ५ तच्छ्रुत्वा रावणं नत्वा ६ तच्छुत्वा रावणो दध्यौ ७ तच्छ्रुत्वा लज्जितावावा०५ तच्छुत्वा श्रावक: सोऽर्ह०८ तच्छ्रुत्वा स्यन्दनात् सीता ८ तज्जीवस्त्वं भवं भ्रान्त्वा ४ तज्ज्ञापित: पुत्रजन्म तडत्तडिति कुर्वाणं तडत्तडिति निर्घोष० तडिद्दण्ड इवोत्पत्य तडिद्दण्डाय चण्डाय ततश्च कौतुकारामः ५ ततश्च चपलगतिं ततश्च तं स वन्दित्वा ततश्च देवतारोषा० ततश्च पत्युर्दूत्येन ततश्च पुर्यां लङ्कायां ततश्च पुष्करद्वीपे १० ततश्च पूजाव्यग्रस्य ततश्च रामपादान्ते ६ ततश्च रावणो लङ्का ततश्च विजय: पुत्रं ततश्च विटसुग्रीवो ततश्च सन्ध्यासमये ततश्च सपरीवारो ततश्च साऽम्भसा तेना० ४ ततश्चाऽखानयद राजा ५ ततश्चाऽऽज्ञापयामास ५ ततश्चाऽन्योन्यमाच्छ्य ३ १३६ २४६ ४०४ ६ २५४ २५१ २८० ३३९ १३७ २२१ २४६ २६३ ३१४ १२ १६० ५९ ३३५ ९६ छलज्ञो रावण: स्वेभा० २। ज २४३ ३०५ २०१ १८९ २२१ ८७ ४२८ १२४ ३७४ १२९ २२९ २१३ १२३ २६१ २९ or w mx war arx १६४ जगन्मित्रं हि सौमित्रि० ४ जगाद जानकी दिव्य० ९ जगाद वनमालाऽपि जगाम तु स्वयं लङ्का० २ जगाम राजा जनको ४ जग्मतुः स्वगृहं वीरौ ९ जघान समरे चाऽऽदौ ८ जज्ञे कलकलस्तत्र ४ जज्ञे जयजयारावो जज्ञे तस्यां जयो नाम १७१ ७८ ८३ १७१ १४७ ८२ २७२ ३५४ ४२९ १६९ ३५ २७८ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः ७८ १० ११९ ३२४ WOM ३७९ ७७ १६ १८१ ५६ २९७ २९६ ४९८ ११८ o २७१ ४२ ३४ w or ६५ २०७ १०२ १६८ or 0000 or ४७१ or w ४१८ or or १७३ २६९ २०४ ३९१ १३८ ततश्चाऽसाधयत् सिन्धुं १३ १७ ततश्च्युत्वाऽनुकोशाऽपि ४ ततश्च्युत्वा मथुरेश० २ ५४४ ।। ततश्च्युत्वा रावणोऽभूत् १०७२ ततश्च्युत्वा शम्भुजीव० १० ततश्छलज्ञः शत्रुघ्नः ८ १७० ततस्तस्याऽहमित्याख्यं २ ३६८ ततस्तावेवमचाते ९ ९१ ततस्ते नारदोऽवोचद् ८ ततस्ते स्वपुरं जग्मुः २ १०० ततस्तैस्ताड्यमानेन २ ३७५ ततस्तौ यास्यतो मोक्षं १० २४२ ततस्तौ लब्धबोधाय १० १७४ तत: किलकिलाराव० २ तत: कीर्तिधरस्याऽपि ४ ततः क्रुद्धो दशग्रीवः तत: खेदादुपाध्यायो २ ततः पर्वतकोऽवादी० २ तत: पर्वतकोऽहं च २ तत: पाताललङ्कायां २ १८२ तत: पाताललङ्कायां ६ ५७ तत: पिङ्गोत्तुङ्गदन्तं २ तत: प्रतस्थे शत्रुघ्नः ८ ततः प्रतिनिवृत्तः सन् ११ ७६ ततः प्रत्युपकाराय ततः प्रभृति तत्रैव १० तत: प्रभृति लङ्कायाः तत: प्रमुदिता क्षीर० ४४० तत: प्रववृताते तौ १९३ तत: प्रववृते युद्ध २०६ तत: प्रववृते युद्धं ततः प्रहसितोऽप्येवं ३ २२ तत: सखीपरिवृता ४ ३३४ तत: सप्रत्ययो लोक: ४९५ तत: सर्वाभिसारेणा० १ ततः स लघुकर्मत्वाद् ५ १५३ तत: स विप्रो द्रविणै० ५ १६१ ततः सह बलैरक्ष०६ ३७४ ततः सहस्राम्रवणं ११ ५१ ततः सार्धं विराधेन तत: सीतेन्द्रमूचुस्ते तत: सोऽब्धिकुमारोऽपि १ ५३ तत: सौमित्रिणा सार्धं ५ ततो गुरूणामभ्यर्णे ११ ७३ ततो जटायुरमरो १० १६१ ततो जयजयारावै० ३ २९८ ततो निवृत्य याम्याब्धौ ततो निवृत्य लङ्कायां २ ततो निवृत्य वैताढ्ये १ ततोऽपशङ्क: कपिलो ५ ततोऽपि चलिते रामे ५ २५८ ततोऽपि मृत्वा पुरुषौ ततोऽपि सह सैन्येन ३ ततो बिभीषणश्चक्रे ततो भरतशत्रुघ्नौ ८ ततोऽभिसृत्य वैताढ्यं १२ १५ । ततो भ्रातृवधामर्षा०६ ततो माध्याह्निकी पूजा ततो महेन्द्रप्रह्लादौ ३ ततो मित्रवधामर्षा० ततो मुमूर्षुमिव तं ४ ३६८ ततो मृत्वा भवं भ्रान्त्वा ५ ततो ययाचे कैकेयी ४२६ ततो रामाज्ञयोत्थाय १७६ ततो रामाय सुग्रीवः २२४ ततो रावणजीव: स २४१ ततो लवणपुत्राया० १७७ ततो वानरसैन्यानि १ ८३ ततो विजयसिंहेभ० ८२ ततो विद्यातिरोभूत: ३३२ ततो विपद्य सौधर्मे २३४ ततो विमानादुत्तीर्णो ३७७ ततो विमानादुत्तीर्य ततो वेपथुमत्यौ तौ ३ १९० ततो व्योम्नोऽवतीर्याऽहं २ ३६५ ततोऽहमपि तूष्णीकः २ ४९९ तत्कर्णान्ते नमस्कार० १० तत् किं मे स्वपरीणामा० ४ १२९ तत् कुरुष्व परित्राण० ५ १३६ तत् कृतं मन्दभाग्याया ४ तत् केनाऽमी इहाऽऽनीता १ तत्तीक्ष्णत्वपरीक्षार्थं तत्तीर्थजन्मा भृकुटि० ११ तत्पादान्ते वज्रबाहः ४ २७ । तत्पादावप्यालिख त्वं ८ २६० तत्पीडापीडितं ज्ञात्वा ५ ३६१ तत् पुस्तकं तु पेटायां २ तत्प्रवृत्तिं च न प्राप ३ २३० तत् प्रसीदत मे तातं ५ ९५ तत् प्रेक्ष्याऽहं तदा विद्या०२ तत् फेनिलं सावकरं तत्र कामलतां नाम्ना० ५ तत्र कृत्वा धनुःपूजां ४ ३३५ तत्र च च्छन्नमागत्य २ ५३९ तत्र चन्द्रणखाभा २ २९५ तत्र चाऽकारयच्चैत्यं तत्र चाऽऽवामपश्याव ५ ३०५ तत्र चोज्झितधर्मेणा० १० तत्र देवार्चनं स्नान ८ तत्र पद्मावती सर्व तत्र पर्यङ्कमारूढः तत्र प्रदक्षिणीकृत्या० तत्र भोजनवेलाया० तत्र यामे निशस्तुर्ये तत्र राज्ञो मधोः शूलं तत्र राममनुज्ञाप्य ५ तत्र रामं कृतस्नान तत्र विद्याधराधीश० तत्र शत्रुघ्नसुग्रीव० तत्र सिंहोदरादीना० ८ तत्र सुग्रीवराजोऽपि तत्र स्थित्वाऽवदद् रामः ४ तत्र स्वामिनि लोकस्य ४ तत्राऽऽख्यदेको महर्षि० ५ तत्राऽऽगाद् वज्रकर्णोऽपि ५ तत्राऽचर्यन्त शतशो २ तत्राऽऽदौ दक्षिणदिशि ५ तत्राऽऽदौ प्रेषताश्चारा० ८। तत्राऽऽदौ सगरोऽवोच० २ तत्राऽन्यदाऽहमभ्यागा० २ तत्राऽन्येधुर्विपर्यस्त० १० तत्राऽपराजितामुख्य० ४ तत्राऽपरेधुः कैकेयी ४ तत्राऽपि मन्दबुद्धे! त्वं ६ तत्राऽभिवन्द्य तीर्थेशान् ४ तत्राऽरिसूदनः सुन्दो तत्राऽशोकतरोर्मूले ६ तत्राऽऽसीनेषु भूपेषु १० तत्राऽऽस्ते स्वामिनी सीता १० तत्राऽस्थाच्छिबिरंन्यस्य ९ तत्रेयः साधवोऽन्येद्य० २ तत्रैकत्र रह:स्थाने तत्रैकदा देवरो में तत्रैकां मानुषीरूपां ५ तत्रैव निशि तस्याऽभूत् ८ तत्रैव विटसुग्रीव० तत्रोचेस तथा येन तत्रोत्ततार पुत्राभ्यां तत्रोपेत्य प्रतीहार० तत्सख्यादनरण्योऽपि तत् सर्वसेनया गत्वा तत्सूनुर्विजयरथो ५ तत्सौविदास्तत्पितॄणा० २ तत्स्मृतोपनतं धन्वा० ८ तथा च्छत्रं मणिर्दण्डो १३ तथाऽपि चैत्यत्राणाय २ तथा यथोचितालापैः ४ तथा ववृषतुर्बाणां० ७ तथा हि जानकी हत्वा ८ तथा हि सुतिथिरद्येयं ३ | सूचन: सुन्दा ६ ३२५ ३६० ६३ ५०५ १३४ १४६ ८१ ४६९ १६७ २१ २२७ १७५ १२ ३५ २५२ ४८९ ९८ ४९ २०५ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ ७१ ३२५ ३४१ १७६ २४९ ३८ जना wmvongwa १२२ २९२ १३ ३५३ १५२ १९३ ६८ श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः तथैव देवा गान्धारी ११ १०० तथैव नारदः कृत्वा तदाऽर्धबबरैरात० २९८ ४ तपसाऽनेन भूयास० २५८ तदानाजनस्याऽङ्ग० तदा स हसितः सभ्यै० ५ तपस्तप्त्वा ब्रह्मलोके तदुच्छलजलं वाप्या तदत: परमत्यन्तं ९ २१५ तप:संयमनिष्ठोऽसौ १६७ तदुद्याने चतुरि तदद्य स्वां तनुमिमां ३६९ तप्यमानस्तपस्तीनं ४ तदन्तश्च मणिस्तम्भ तदेव देवरमणो० ३६६ तप्यमानेन पञ्चाग्नि ११९ तदेहि यामः स्वपुरी० तप्यमानौ तपस्तीव्र० तदभिज्ञोऽभ्यधादेवं ३०८ तदैव गत्वा त्रिजटा ६ तदलं मम राज्येना० तमनुप्राव्रजन राज्ञा ३३३ ११२ तदैव जातवैराग्यः तदस्तु भरतो राजा ४ तमीक्षितुमवष्टभ्य ७० ३६६ ५२५ तदत्रं तपनास्त्रेण तया कृतं च प्राकारं ७ तदैव सिद्धविद्यास्ता: ६ २०१ २७१ २५७ तदखाणि निजैरवै०६ तदैवाऽगानरेन्द्रस्तां तया च पाणिना स्पृष्टा ७ २७५ ३६२ तदाकर्ण्य तडित्केश० १ तदोत्पन्नमनोज्ञानो तया तं स्वप्नमाख्यात० १ ५९ ११ १४५ तदाकर्ण्य तवाऽऽख्यातुं तदोदार: प्रकृत्या त्वं ४ तया प्रसिद्ध्या राजानो २ ४१७ तदाकर्ण्य वचो युद्धाद् ४ तदच्छ मन्दिरे स्वस्मिन् ८ तयाऽभिन्नो महीपृष्ठे २७४ २१९ तया मुनिगिरा सम्यग् तदा च क्रीडितुं तत्रा० तद्गच्छ शीघ्रमेवाऽऽय! ६ ७ ५ २७९ तद्रच्छ शीग्रमेवैवं तदा च जनकभ्राता ६ तयाऽर्थितस्तथैवैत्य ४ ३६२ ५ ४१० तदा च जानकीरूपं तद्गच्छ संवाहय तं ३२० तया सद्योऽनुरागिण्या ५ २५२ २८९ तदा च ज्येष्ठकृष्णैका० तद्विरा कपिलोऽर्थार्थी ५ तया सुग्रीवरूप:स ३७६ तदा च धातकीखण्डा० ८ तद्विरा कुपितो भाला० ६ तया स्वकुक्षिमाघ्नानं ६२ ३९९ तद्गिराऽन्वेषयस्तातो तदा च नाम्ना सिद्धार्थो ९ २६३ तयेत्याक्रुश्यमानोऽपि ६ तदा च नारदमुनि तद्रोिद्दीपितक्रोध० २०४ तयोरनतिदूरे चा० २५४ तदा च पारितध्यानो तयोरपि हि नियूंढः १० तहन्तघातक्षुण्णेभ्यः २०६ तदा च यामिनीशेषे तद्दर्शनात् तवाऽप्यद्य तयोरेवं प्रतिश्रुत्य ११ २१ तद्दर्शनात् प्रभृत्येव तयोरोजस्विनो रहो० तदा च राम: पप्रच्छ ९ तदा च विहरंस्तत्रा० तहःखदुःखित इव तयोर्बभूव तनयो २३१ तदा च वैताढ्यगिरौ तद दृशा भरतं पश्यः तयोर्बलानामन्योऽन्यं तदा च साऽपि सरसा तद्वाणघातविधुरो तयोर्बुवाणयोरेव ४ ११२ २१७ तदा च सिंहिका देवी ४ तद्वाणवृष्टिं निधूय तयोः सूनुरनूनश्री० ७ ७४ तद् बिम्बं स्वाङ्गलीयस्थं ५ तर्जयित्वाऽञ्जनामेवं तदा च हनुमाँल्लङ्का०६ ३ १३० ३१७ तदा चाऽवधिना ज्ञात्वा १० तद्धयाद रात्रिमन्यत्र ५ २६२ तर्णकोत्कण्ठितास्तूर्णं २८८ २१५ तल्लोकानुग्रहायेह तद् भूयो लक्ष्मणोऽमुञ्चत् ९ ८ तदा चाऽऽसनकम्पेन २३४ १० १५७ तदा चाऽस्तं ययावर्को ५ तद् यात राक्षसभटा० २ ३२८ तव किं बाधते वत्स! तदा त्वनाहतो नाम तव प्रवृत्तिमानेतु०६ तयुद्धे चलितं गम २ ३५२ तद्रूपदर्शनाजाना तव स्मो वशवर्तिन्य० तदा त्वमच्युताच्च्युत्वा १० २ ५८ २३८ तदा दशास्यमभ्येत्य तवाऽ सौकुमार्येण तद् वधूवरमादाय ४ ७ ४५८ तदाऽऽदास्ये परिव्रज्यां २ तद्वप्रारक्षमप्युच्चैः तवाऽनुरूपां क; पूजां ५ १६५ २२५ तदाऽऽदि चाऽऽवयोर्भर्तृ०२ तद्वाचमुररीकृत्य ५०२ तवाऽपि नोचितं रात्रौ १० १९१ तद्वाचा विषसघ्रीच्या तदादि दण्डकारण्य० ७ ३५६ तस्मान्निरपराधोऽपि ४ । ४२ ५ ३७० तदाऽऽदि सम्यक्त्वधरा ३ तद्वात्सल्येन हनुमान् ६ २५६ तस्मिन्नेवं बुवाणेऽपि २ १२८ १८१ तदाऽऽदेशेन स द्वा:स्थः ७ तद्विद्याः साधयिष्यामि २ २१ तस्मिन् महति सङ्ग्रामे ३ तदानीमेव तत्रैत्य तद्विसृष्टा तिरोधत्त तस्मिन् महाहरि म १२ २२० तदानीमेव वैताठ्य० तद् व्रतायाऽनुमन्यस्व ४ तस्मिन् स भूपति लोक० ५ ३७४ तदानीं च महाविद्या तनयस्य वियोगेन तस्मिंश्च बहिरुद्याने तनयः सूरकनका० तस्मै तज्जन्मभूमिं तां तदानीं धनदत्तोऽपि ८ २११ तदानीं सम्मुखा एयु० तनयो मम शम्बूकः तस्मै प्रदीयमानां त्वा० २ ४६५ तन्नूनमसती सेयं ४ तदा पाताललङ्केश तस्य कण्ठे निचिक्षेप ६७ तन्मन्त्री सुमति म ९ तस्य कोपो मयि कथं ५ तदा प्रव्रजितं श्रुत्वा १७२ तन्मन्ने मन्त्रिणाऽऽख्याते ८ तस्य गर्भस्य सम्भूते: तदा मांसनिवृत्तिं त्वं १ १४७ ४०६ तदा रत्नजटी कम्बु० तन्मन्ये रामगृह्योऽसि ७ तस्य चक्रित्वाभिषेक० १२ ३२७ तन्मां परिणय स्वामिन्! ५ तदा रामेण सत्कृत्य ४०६ तस्य चन्द्रमुखीकुक्षि० ८ तन्मूनि पादं विन्यस्य ७ २७० तस्य च प्रतिबद्धोऽस्ति ५ ain Education International - 24- 0Kा० KM.GXWVG. m9mE 4. 1 २६६ २२७ २८ ३४१ ર૬ ४५७ کا د کد و کر لا Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० २०९ २२७ ४६ १०१ २०२ १२१ ४ १ ९१ ४ ११२ ४५२ ३३० ६ ४७१ ४४० १३२ १८४ ३०९ २६४ १९५ २७९ श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः तस्य चाऽऽरटनं दीनं २ २५६ तं निध्यायन्निदं दध्यौ ३ तां च रूपवतीं दृष्ट्वा १० ६३ तस्य दर्शितमात्रस्य तं प्रणम्येत्यभाषिष्ट तां चाऽतिसुन्दरी तत्रा० ४ तस्य प्रसरतो दाव० १८० तं प्रयच्छाऽधुना मह्यं ४ ४२४ तां दृष्ट्वा बिभयाञ्चक्रुः ९ तस्य प्राणैः सहैवाऽह० ६ तं प्रशंसन्महावीर्यं २ ३३८ तां नत्वोवाच सौमित्रि० ४ ४७७ तस्य मित्रकलोत्पत्ते० २ २०१ तं प्रेक्ष्यप्राणिसंहारं २ २०९ तां न सम्भावयामास ३ तस्य मित्रं प्रहसितो ३ तं भक्त्योपस्थितं प्रीतो ५१९ तां निध्याययन्निदं दध्यौ ३ ६८ तस्य हेमवती नाम २ तं मध्यस्थं परिज्ञाय तां परित्यज्य यात्रायां ३ २४४ तस्याऽऽख्यद् रुदती सीता ९ तं मातुलं विदित्वा सा ३ तां प्राप्तयौवनांप्रेक्ष्य २ तस्याऽथवाऽस्त्ववस्थानं २ तं मुनिं समवसृतं ३७६ तां मातुवन्नमस्कृत्य ३ १३२ तस्या दासीकृताशेष० ५ तं रावणोऽवदरे रे! ७ १८२ तां रामचिन्तामवधे० १० तस्या दुर्वचसोऽप्येत० ५ तं वज्रकर्णवृत्तान्तं तां शोकमग्नामुद्धृत्या० ५ ३६८ तस्या निरुपमं रूपं ३ तं वन्दित्वा यथास्थानं २ ६५० ता: सरागा: सरागेण तस्याऽपि सूनुर्विजय० १ ६२ तं विसृज्य ततो रामो ५ ४३ तिष्ठते स्म कुमारी सा १ तस्याऽभूच्छ्रीमती देवी २ २८१ तातपादार्यपादानां ४ ४३९ तिष्ठन्ति किन्तु प्लवगा ७ १४१ तस्याऽभूतामुभौ पुत्रौ ४ । तातस्य ऋणमस्त्युच्चैः ४ तीरस्थितैः सहस्रांशु० २ तस्याऽभून्महिषी नाम्ना १२ तातस्य मा स्म भूद् दुःखं ४ तीर्थनाथान् नमस्कृत्य २ २७७ तस्या मधुरता काचि० ४ ३१० तातस्य सूनुः किं नाऽहं ४ तुमुलैः पिङ्गलानां च ३ १३५ तस्याऽमृतस्वराख्योऽभूद् ५ २७२ तातेन दत्तमेतस्मै ४ ५२४ तुरङ्गा न त्वरन्तेऽमी ९ तस्यामेव विभावाँ १० तादृग् रूपं यथावस्थं ४ तुलां समधिरोहामि ९ १९० तस्या वैश्रवणो नाम १ १४१ तादृङ्माहात्म्यमुदिताः २ तूर्येषु व्योम्नि भूमौ च ८ तस्याश्च सूतिकर्माणि ३ तादृशे त्वयि याच्चाऽपि २ ६२५ तृणाय मन्यमानौ तौ ४ २०० तस्याश्चाऽब्रह्मचारिण्याः ८ तानि तानि च कष्टानि ८ ते क्रामन्त: प्रतिदिनं ५ १६८ तस्याऽसिसाधकस्यैव ६ तानूचे रामभद्रोऽपि ८ ते गच्छन्त: क्रमात् प्रापु०५ १३२ तस्याऽस्ति कनका देवी ५ तान् दृष्ट्वा वरुण: क्रुद्धो ३ २९४ ते जटामुकुटान्मूर्ध्नि २६ तस्याऽस्ति ज्यायसी पुत्री १ १४० तान् नत्वोवाच शत्रुघ्नो ८ २३२ ते तु स्वामिन्यनाहारे ११४ तस्याऽस्मत्सुहृदो दूर० ४ तान् मुक्त्वेयाय सीतेन्द्रो १० २६० तेन चाऽऽघोषणाहेतुं २४५ तस्यां नगर्यामन्येधु० ४ ३७२ तापीमुत्तीर्य च क्राम० ५ १२४ तेन चाऽमुक्तसान्निध्ये ३ तस्यां नाम्ना सहस्रांशुः २ ३१६ ताभ्याममुक्तसान्निध्यो १०२ तेन पूजापहारेण ३१२ तस्यां सर्वारिविजयी ११ तामध्यास्य शिलां रामः १० तेन प्रधानपुरुषै० तस्यां सिहासनं वेदौ २ ४१५ तामन्वेष्टुं महीमाटा० ४ २११ तेन मैथुनिका वैरा० ७ तस्यां हृतायामाम्ना० २ तामाकर्ण्य गिरं देवी ४ तेन म्लेच्छाधिपेनाऽत० ५ २८४ तस्याः कृते च तत्रापि १० तामादाय समायात: २ तेन सामन्तभङ्गेना० ५ तस्याः स्नानाम्भसाऽनेन ७ २८१ तामपतन्तीं सौमित्रिः ७ २१७ तेनाऽपि पृष्टा वैदेही ९ तस्याः स्वयंवरे तेना० १ तामित्युक्त्वा च नत्वा च ४ ४८२ तेनेत्याश्वासिता सीता ९ तस्यैव कीर्तयिष्याम० ११ तामित्युक्त्वाऽर्पयामास २ ५७७ तेनेत्युक्ते पूर्वमपि तस्यैवं वदतोऽभ्येत्य ५९६ तामुत्क्षिप्य निजोत्सङ्गे ८ तेनैवं दर्शितैस्तैस्तै० १० तं कन्दुकमिव न्यस्य २१९ तामेकदा तु चक्राङ्क० २ । २८२ तेऽपि राघवसेनान्यः ७ तं खड्गमाददे सोऽथ ३८६ तारायां रममाणस्य २ २८७ तेऽप्युचिरे गतः प्रावृट्० ८ तं च योग्यं मुनित्विा ५ १० तारा व्योमन्यसिश्यामे ६ २९४ तेऽप्युचुः किं तया पुर्या० ६ तं च वप्रमवष्टभ्या० २ ५५४ तावद्रूप इवैकोऽपि ३६८ तेऽप्येत्य कुम्भकर्णाद्या० २ तं तथा विधुरं प्रेक्ष्या० ४ ३०१ तावधीताखिलकलौ ९ ४७ ते बिभीषणसुग्रीव० १० १३२ तं दिव्यं रथमारुह्य ५ ३७७ तावन्यदा प्राव्रजतां २१२ तेऽमरा: पालयामासुः २ ५१० तं दृष्ट्वा पश्चिमोऽकार्षी० ८ तावन्यदा भवदत्ता०८ ते मुनेरतिवेगस्य १० १६० तं दृष्ट्वा पालक: क्रूरः ५ ३४८ तावप्यथ बभाषाते १० २५४ तेषामधोमुखत्वेन ४९ तं देवर्षि दशरथो ४ तावप्येवं निषिध्येन्द्रः १० २५३ तेषाममारिमाघोष्य तं देशं सर्वतो वीक्ष्य ५ तावालिङ्ग्य निजोत्सङ्ग०९ १५७ तेषामेकतमे क्वाऽपि २८ तं नत्वा रावणोऽप्येव १२६ तावूचतुर्मातुलाऽलं ११० तेषां कलकलादेयु: ४ २९३ तं नत्वोवाच वृषभ० १० तावेव रामसौमित्री ६ तेषां कृतान्तदन्ताभ० ७ १७५ तं न पश्यामि सौमित्रि० ५। ४३४ तां कीर्तिधवलोढां तु १ ११ तेषां क्षोभार्थमायाता० २ तं नंष्टुमनसं सानु० ५ १५६ तां च ते यानमारोप्य ३ १३१ ।। तेषां चिरमभूदु युद्धं १२८ २६१ 0W २१४ ८४ २६५ ४४७ ५२६ २१९ ३८ २०७ ५५५ २४ १३५ ३३ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः २२८ २४ २५९ ८ २३८ ३२६ १९५ ५७० १७५ २६६ २७६ २७२ १३६ २८० २४१ ५६ त्वत्स्वसा च कुलीना चेत् ४ त्वदीये तं न पश्यामि ६ त्वदर्शनात् तवाऽप्यद्य ४ त्वद्दर्शनात् प्रणश्यन्ति ११ त्वद्दर्शनाद् देहभाजो त्वद्देश इव मद्देशे ७ त्वद्वियोगभवाद् दुःखा० ८ त्वमायासी: कुत: स्थानात् ४ त्वमुपात्तपरिव्रज्यो० १ त्वमेकोऽत्राऽवतिष्ठस्व ४ त्वया परोक्षे मद्भर्तु० ७ त्वयि सम्भाव्यते सर्वं ६ त्वयि ह्येवं स्थिते भ्रातः! १० त्वयैव सत्ये लोकोऽयं २ । त्वय्यपुत्रे व्रतभाजि ४ । त्वर्यतां त्वर्यतां तस्मात् ७ त्वं च मुञ्च परिव्रज्यां १० त्वं दोष्माञ्छावकश्चाऽसि २ त्वामपि स्कन्धमारोप्य ६ त्वां बोधयितुकामोऽहं ७ त्वां विनाऽऽराधका: सर्वे ५ ४७९ ३४७ १०५ ३६१ ४४६ ३३ २८३ २२३ २१२ ३५९ १८७ ३४६ murvrror ५५६ २२३ १२ ३९२ १७२ ३२१ १५५ २१४ तेषां जङ्घाचारणानां तेषां रोधाय कल्पान्त० ४ तेषां सप्तऋषीणां तेषां सीतार्पणगिरा तेषु च तत्र तिष्ठत्सु तेषु चोपाविशन् भूपाः ९ तेष्वर्धबर्बरो नाम तेष्वाद्यः सर्वसंवित्त्या ८ ते समागत्य लङ्कायां १ ते सर्वे शिश्रियु: पद्म० ८ तैर्दीनैः प्रार्थ्यमानोऽपि ४ तैश्च सोदाससू: सिंह० ४ तौ छिन्नास्वावथाऽन्योन्य०६ सौ जयन्तौ नृपान् सिन्धोः ९ तौ तु पाताललङ्कायां ६ तौ त्वदीयौ क्रमायातौ २ तौ देशभूषणकुल० ८ तौ द्वावपि पितुः कूर्च० ४ तौ द्वावपि महाप्राणौ ६ तौ नमश्चक्रतुः सीतां ९ तौ निशातैर्निशातानि तौ प्रेक्ष्य रामसौमित्री ९ तौ मूर्ध्याघ्राय वैदेह्या ९ तौ रामलक्ष्मणौ ज्ञात्वा ५ तौ विपद्य च सौधर्मे ४ । त्यक्तसङ्गो जीर्णवासा ११ त्यक्तानि मौलिमाल्यानि ६ त्यक्तोग्राश्वापदेऽरण्ये ९ त्यक्त्वा सोऽपि समिद्भारं ५ त्यजन् दुःशीलसंसर्ग ११ त्यजन्न: सह राज्येन ८ त्यागात् प्रभृति सीतायाः ९ त्रपुपानशिलास्फाल० २ त्रयस्त्रिंशदहोरात्री १० त्रयोदश निजा: कन्या ६ त्रयोदशेऽब्दे घोषेण ५ त्रयोऽपि निर्ययुः पुर्या ४ त्रात्वाऽरिभ्य: श्वशुर्यं तं २ त्रायमाणस्य ते विश्वं ६ त्रिरत्नी तु त्रिवेदीय० २ त्रिवार्षिकाणि धान्यानि २ त्रिशूलपाणय: केचित् ७ त्रिसन्ध्यमपि मेर्वद्रौ ९ त्रीणि कन्यासहस्राणि ७ त्रेसुश्च विजयसिंह त्रोटयित्वा त्रोटयित्वा ४ त्वत्कृते प्रेषि रामेण त्वत्पादाब्जप्रणामेन ७ त्वत्प्रसादात् क्षतारि: सन् ६ त्वत्प्रवृत्तिकृते रामे ६ ३७१ दशग्रीवो विमृश्यैवं ७ २२४ दशाननानुजं पञ्चा० दशास्यस्तगिरा स्मित्वा २ ९६ दशास्यस्त्वां वदत्येवं ७ ३१० दशास्य: सञ्जहाराग्नि० २ दशास्योऽचिन्तयच्चैवं ७ २२३ दह्यमानास्त्रयोऽप्युच्चै० १० २४८ दातव्या कस्य कन्येय० ८ दासस्ते स्वयमप्यस्मि ६ १३९ दिक्पालाश्चतुरश्चक्रे १ दिग्गजा इव चत्वार० ७ १४८ दिग्यात्रार्थं सोऽनुचक्र १४ दिनान्यतीयुश्चत्वारि ५ ३१६ दिव्यस्वर्णाम्बुजासीनो १० २२९ दिष्ट्या दृष्टोऽसि हे वत्स! ८ दीनादिभ्यो ददात्यर्थ० ५ दीपायमाननयनं दुधरैश्चरणन्यासैः १०९ दुर्निमित्तेष्वशकुने ३०८ दुर्लङ्घनगरेऽथेन्द्र० दुर्लकमेतद् दुर्लक० दुर्लक्वह्रिप्राकारं ५८९ दुस्तपं स तपस्तप्त्वा दुःखाकृदिहलोकेऽपि ६ दुःखितानां हि नारीणां ३ । दुःश्रवं तद्वचः श्रुत्वा ३ २५९ दु:स्थां भवस्थिति स्थेम्ना ११ ८६ दूत: सिंहरथेनोच्चै० ४ दूतानुपदमेवाऽथ दूताहुतास्ततश्चेयुः ३ २८२ दूतीमुखेन पद्माऽपि दूतेन कीर्तिधवल: दूतेनाऽऽगत्य विज्ञप्तो २ दूतोऽप्यवादीन्मद्भर्तुः ४ दूतोऽप्युवाच न: स्वामी ५ दूतोऽप्यूचे महावीर्यो० ५ २०१ दूतोऽसीति न हन्मि त्वां २ दूयमानां ज्योत्स्नयाऽपि ३ दूरं विद्याधरा भ्रान्त्वा ६ ४८ दूराद् दशरथं नत्वा ४ ४५४ दूरापाती दृढाघाती २८६ दूरे गच्छति मे बन्धु० ४ ४८१ दूरे स्तां रामसौमित्री ७ दूषणो लक्ष्मणेनाऽपि दृढभक्त्येति भाषित्वा दृशामनिमिषीकार० ५ ४२३ दृष्टः क्षीरकदम्बोऽद्य दृष्ट्वा च रावणं कण्ठे दृष्ट्वा दशमुखस्तत् तु ७ दृष्ट्वा नष्टं निजं सैन्यं ६ ३८५ ३११ १८७ २२७ ४६८ १४९ ११५ ९० । १०२ १५३ १४६ १५५ ३४९ २० २६२ २४६ ३५० ५६९ WR.00 nor ११६ ३०२ दक्षिणस्यामथोपेत्य १२ दक्षौ भूचारिणौ तौ तु ६ दण्डकस्य पालकस्य ५ दण्डकोऽपि भवे भ्रान्त्वा ५ दण्डमादौ विधायाऽद्य ९ दत्तमेतावता राज्य दत्तहस्ता प्रतीहार्या दत्तावासस्तटेऽमुष्मि० २ दत्ता सागरदत्तेन १० दत्ता:प्राणास्त्वया स्वामिन्!२ ददर्श तत्र तं बालं ४ । ददुः सौमित्रये विद्या० ४ ददौ चाऽऽशालिका विद्यां २ दध्यतुश्चेन्द्रजिन्मेघ० ७ दन्तयन्त्रातिथीचक्रे दन्तादन्तिप्रवृत्तेभै० दभ्रस्थलपुरेशस्य दम्पतित्वमहो युक्तं दर्पणे विद्यमानेऽपि दर्शयामासतुः सद्यो दर्श्यमानपथो विद्या० दलयन् क्ष्मां पदन्यासैः ६ दवानलस्तदा द्वीपे दवीयसि प्रदेशे तु दशकण्ठस्य विस्मृत्या २ दशकन्धरसेनान्यो दशकोटीसहस्राणि २ दशग्रीवाङ्गसंस्कार १६३ ६२ ००० ४८३ १९० १०४ ३७० १२१ १३६ ४२० १४८ ११९ १० ३११ १८४ ७ २५५ २६३ ३९३ ५९९ ६१ १७७ ३३५ १०५ ३४३ ४८ २८ २०७ ८ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः १९९ १४८ or ध्यायन्ती मनसा पञ्च० ६ ध्यायन्ती रामपादाब्जे ६ ध्रुवं मायाविनी काचि० ५ ४०७ r x or w w marw z द्वावप्यभूतां तौ मृत्वा ४ ४१५ द्वावप्यमर्षणौ द्वाव० २ द्वावप्येतावभिजातो द्वितीयाऽपीत्यभाषिष्ट ३ द्वितीयो भरतो मेऽसि ५ द्विधाऽपि हि वराकोऽयं ६ द्विमासोपोषितौ तौ तु ५ द्विषज्जयाय यद्येष २११ द्वीपेऽथ धातकीखण्डे ४ ३९६ द्वे कराभ्यां द्वे कक्षाभ्यां ५ २५३ द्वौ देवौ कौतुकात् तत्र १० - ११८ mMMMmmM ३४० ७१ 30 min m Xxxv १३५ २८२ १३८ १८६ १९९ ३३० ५७२ ४२० १८ १५ ७२ १७९ २७८ २७० ५१४ १५८ ३३३ savoraran १४० १९१ ११ ९७ २२० १८३ ३९८ दृष्ट्वा निर्वासयामास ९ दृष्ट्वा परबलं राजा ६ दृष्ट्वाऽपि तत् तथा रामो ८ दृष्ट्वाऽपि रामादत्युग्र० ५ दृष्ट्वा ससम्भ्रमस्तां च ३ दृष्ट्वा सिंहोदरो रामं ५ देवताधिष्ठितैरस्त्रै० ३ देवताभिरसत्योक्ति० २ देव! त्वत्पादसंस्पर्शा० ७ देव! देवी नृशंसेन देव! देव्यां प्रवादोऽस्ति ८ देव! पाताललङ्काया: २ देवलोकात् परिच्युत्य ४ देवं सर्वज्ञमर्हन्तं २ देवाधिदेवाय जग० देवासुरैरप्यजय्यं देवीव लालिताऽसि त्वं ४ देवैश्च केवलज्ञान देवै: संवर्धितत्वाच्च देवोपगीतनगरं देशनान्ते क्षमयित्वा देशनान्ते च पप्रच्छ देशनान्ते जगद्भर्तुः देशनान्ते दशास्येन २ देशनान्तेऽनन्तवीर्य: देशे गृहे च न व्याधि० ७ दैवाच्छुश्राव तं मन्त्रं दैवाच्छामण्यमासाद्य ४ दोर्दण्डबुद्ध्या यत्नेन दोर्वीर्येणाऽपि निर्जेतुं २ दोर्वीर्येणाऽविजय्यं २ दोषोऽध्यारोपित: श्वश्वा ३ दोष्णा तक्षककल्पेन ७ दोष्णो: केऽपि मुखे केऽपि ७ द्रष्टुमप्युचिता नाऽसि ६ द्राक् चरास्ते बहिः श्रुत्वा ८ द्रुतमायातु सुग्रीवः ६ द्रुतमिन्द्रोऽपि सन्नह्य द्रुतं निर्वास्यतामेषा द्रुतं राज्ञि जने चाऽपि द्रोणमेघसहोदर्या द्वयोरपि तयोर्भेद द्वयोरपि तयोर्युद्धा० द्वयोरपि महाबाह्वोः द्वयोरपि हि सैन्यानि द्वयोर्वधूवरत्वेन ४ द्वात्रिंशदिभ्यकन्या: स ८ द्वादशाब्दसहस्राणि १० द्वारस्तम्भनिषण्णाङ्गी ३ द्वावपीभौ महाप्राणौ २ , 31 ३६ ६५१ ३१२ २७३ २७८ २४२ ३६६ ण्ठा १ ३७ १९६ न करिष्यति यस्त्वेवं नघुषस्य नृसिंहस्य ४ नघुषस्याऽन्यदा दाह० ४ न चेच्छिक्षयसि क्षुद्र० २ नचेदायामि भूयोऽपि ५ न जाने कं वृणोषि त्वं २ न तद् वो युज्यते योद्धं १ नत्वाऽथ राममूचाते १० नत्वा प्रहसितोऽवादी० ३ नत्वा बभाषे भरतो० ४ नत्वा बिभीषणोऽपृच्छत् १० नत्वा बिभीषणोऽप्यूचे ८ नत्वा भूयोऽपि सोऽवोच०९ नत्वा रामाग्रतस्तस्थुः ८ नत्वा विराधोऽप्यवद० ६ नत्वेन्द्रजित् तमित्यूचे ७ न दोषो देवयोः कोऽपि १० न न: किमपि कर्तव्य० ५ ननतुर्नारदाद्याः खे ९ नन्दिघोष: पिता यस्ते ४ नन्दिघोष: सुतं राज्ये नन्दीश्वरेऽथ श्रीकण्ठो नन्द्यावर्तपुराधीशो० नन्वद्याऽपि स एवाऽस्मि २ न पौरुषाभिमानोऽत्र ५ नभश्चरक्ष्माचराणां नमश्चकार रामं च नमस्कार्यो मया नान्य० ५ नमस्कृत्य पुनर्भक्त्या ३ न मे यावत्कलकोऽय० न मेऽर्थः कश्चिदप्यस्ति ५ नर्भगवतस्तीर्थे न मे श्वशरयोर्दोषो ३ नमो नमिजिनेन्द्राय ११ न यद्यपि द्विषद्भ्यस्ते न यद्यप्यन्यथाभावि ६ न यावदिह हन्तुं नः नयवास्तनयस्तस्य २ न यावद् रामसौमित्रि० ५ न युक्तं महतां यतू स्व० ३ नयेन्नित्यमहोरात्रं नरकायुश्चाऽनुभूय १० नरकेऽपि मया गत्वा ४ न रणे रावणोऽप्यासी० ९ नराभिरामजीवोऽपि १२ नरेन्द्र आदित्यरजा० २ २५६ २४२ ३५ २० ३८४ धगद्धगिति ज्वलन्तीं ७ २१० धनदत्तवसुदत्त० धनदत्तवसुदत्तौ धनुष्टङ्कारतस्तस्मात् धनुष्यारोपयामास ५ धनु: समुद्रावर्त चा० ८ १७४ धनु:स्फुलिङ्गज्वालाभि० ४ ३४१ धन्यान्यक्षीणि यानि ७ धन्याऽसि या हि प्रापस्त्वं ३ धन्यो महाबलो वाली ६ धन्वी निषङ्गी सन्नाही धरणेन्द्रप्रदत्तां ता० ७ २०९ धरणेन्द्राद् रावणेन धर्मद्वारं देहि मह्यं धर्मबीजसमुद्ध धर्मस्य ते च माहात्म्यात् ८ धर्मं श्रुत्वाऽन्यदा राजा ५ २८० धर्मः प्रोक्तो ह्यहिंसातः २ ३७९ धर्मो नाऽऽम्नायिको वोऽयं ८ १२३ धर्मो मनसि तस्यैको ११ धात्रीजनैाल्यमानौ ९ धात्रीभिर्लाल्यमानौ तौ ४ १९४ धात्री सुकोशलस्याऽथ ४ धिगस्मान् रामपादाना० ४ ५०० धिगहं मन्दभाग्याऽस्मि ७ २५१ धिगाशां ते हताशस्या० ६ १४१ धिग्धिङ्ममाऽविवेकेन ३ धीमतो गौतमाख्यस्यो०२ ४७८ धीरेष्वपि हि धीरस्त्वं १० १४३ धूमकेतुरपि च्युत्वा ५ धूमकेशाभिधानस्य ४ २२३ धतमातलिङ्गशक्ति० ११ ९९ धैर्यमाधेहि जानीहि ७ २३३ धैर्यमालम्ब्य काकुत्स्थ०८ २८८ ध्यात्वेति हनुमान् क्रुद्धः ६ २४७ ध्यात्वेत्युवाच सौमित्रि: ५ ८३ ध्यानानलेन निर्दह्य १० ११३ ध्यानारूढस्त्वया बद्ध० २ ६४२ ३३७ २१९ १५५ १६१ ११७ १३७ ४४ २९६ २६५ ६०५ १४१ ४८७ १५२ २९० Gm Goa १६६ १६१ १९५ ४५९ ३८ ७४ ८७ ३१८ १३५ १९० २३२ ४११ ६११ ७ । १७० Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक: सर्गः क्रमाङ्कः ६० २०५ १५८ ५२ ९४ 9m rrrrow, rowoo ००wwx १२० २९३ ७५ २२ Sm श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः निरागसो वध्यमानां० २। निरीक्ष्य रामं सा सद्यो० ५ ३९८ पक्षौ हेमावजायेतां ५ ३३१ निर्जगाम प्रहसितो ११० पङ्कजश्रीदस्युदृशं १०४ निर्दोष: सर्वथाऽसि त्वं १० ६१ पङ्कात् तमश्वमुत्तार्य निर्दोषा दोषमारोप्य १०४ पङ्के नन्दनपुण्याख्य० १० २०४ निर्बन्धाद् भूभुजा पृष्टः २ ५३० पञ्चत्रिंशदतिशय० ११ ५८ निर्बन्धेन तु सा पृष्टा १०० पञ्चस्वब्दसहस्रेषु ४२ निर्भय: साम्प्रतं हत्वा ४ पटे लिखित्वा तत् सीतां ४ निर्ममौ नि:कषायौ तौ ४ पतित्वा पादयोस्तस्य ३ निर्ययौ मधुपिङ्गोऽथ ४७३ पतित्वा पादयोस्तस्य ६ निर्वाणकल्याणमुपेत्य ११ ११२ पतित्वा रामपादेषु ८ ३०४ निर्वाणसङ्गमो नाम पतिव्रता: पतिशोकात् ३ निर्वासिता: पुराऽप्येते १ पत्त्यनीकपतिं सीता० ९ निर्वासिते तदा तेन २ १८३ पत्न्या जयन्त्या सार्धं स ८ निर्विकारान् स्थिराकारां० २ ३२ पत्न्यां तस्याऽनुकोशायां ४ निर्विण्णा कर्मणामीग् ९ २३० पत्न्यां हृदयसुन्दाँ ३ निर्वेदादित्युपाध्यायः २ ४०५ पत्न्यौ तस्य च कनको० ३ निर्व्याजो व्याजहारैवं ९ पत्यवज्ञावियोगार्ता० ३ निवृत्य यद् वाऽयोध्यायां ४ पत्युः सुतानां तन्मातृ० ४ ५२२ निवेश्य सुप्रभं नाम ११ पदार्थैः पुष्पगन्धाद्यै० ७ ३३६ निशाकरमिवाऽवन्या० १० १९४ पदे पदे प्रस्खलन्ती निशामेकां वसामीति ५ पद्मनाभोऽप्यभाषिष्ट निशायामथ काकुत्स्थ: ८ २९० पद्मनारायणावेता० निशायां निर्ययौ रामः ५ २५९ पद्मपादान् दर्शय मे निषिध्यैवं दशग्रीवं ७ १४२ पद्यः पद्मसरस्येत्य ८ निष्पील्यमानानेतांस्तु ५ ३५८ पद्यानिवासपद्यस्य निसर्गात् स्निह्यति मनो ९ पद्मावत्यां सधर्मिण्यां २८९ निहत्य सुतहन्तार० १ ८५ पद्मां हरति कोऽपीति १६ निःशङ्कं युध्यमानास्ते ९ ११५ पद्मिनी कलयामास ६ २८७ निःशङ्कोऽथ दशग्रीवः ४४२ पद्मिन्य इव मार्तण्डं २ ८७ निःसृत्य दशकण्ठोऽथ २ पद्मो बिभीषणायाऽदा० ८ १५६ नि:स्पृहौ स्वशरीरेऽपि ४ पपात च गिरेर्मूर्ध्नि नीतिशास्त्रे स्मृतौ देशे ९ पपात पादयोस्तस्य ३४१ नीत्वा चोत्तारयामास २० ३ पप्रच्छतुर्देशनान्ते २१५ नीत्वा स्नानगृहे रामः १० पप्रच्छ लवणोऽथैवं नृपचन्द्रोऽभिचन्द्रोऽपि २ परदेशे स्थिता देवी १६९ परमेष न गृह्णाति ४ नृपतिर्मोचयामास १८९ परस्तादस्ति किं कोऽपि २ ३१४ नृपतिर्वज्रजङ्घोऽयं परस्त्रियमनिच्छन्ती ६५३ नृपश्चिन्तामणिरिव १७९ परंतु युष्मदाशीर्भि० ८ ९६ नृपादेशाद् विदेशाया० ५ २७४ परासुं लक्ष्मणं दृष्ट्वा १० १२५ नृपुण्डरीकं वर्णेन १७७ परासुं लक्ष्मणं प्रेक्ष्य १२७ नृपौकसि सनाथानि ४ १८१ परितोऽपि पुरी लङ्का ६२७ नृमांसमिति सोऽप्याख्यत् ४ ९४ परितो रत्नखचिता० ११ १२ नेदं साध्विति रामेणा० ८ २७१ परिव्रज्योत्सुको राजा ४ ४९२ नैवं वो युध्यमानानां १० २४७ परेच्छया प्रतिज्ञातं ४ ३३० नैसर्गिकेण वैरेण . ६ ३०० परोक्षत: पत्तयोऽमी १४४ न्यग्नाजरं महापोत० २ २३७ पर्यस्थ: कदाऽप्यस्थात् १० न्यस्य रत्नरथे राज्यं ५ २९२ ।। पर्यटन्ती तु सा प्राप १५२ न्याय्ये काले ततो देव० ११ ७९ पल्लीस्थितो दशरथ० ४ । २३१ नर्मदायां कुम्भकर्णो नर्मोक्तिरपि तेऽस्मासु ४ २३ नर्मोक्तिरावयोरासीत् ४ नलकूबरराजेन २ ५७८ नल: समुद्र सेतुं च नवमाणिक्यसङ्क्रान्त० १ नवरागो नवरागां नव: कुलकलङ्कोऽयं २ नवाऽपि निधयो गङ्गा० १२ न वालुकाभ्यस्तैलं स्यात् १० न विषादो न वा हर्षो० ५। १०३ नवोढास्ता दशग्रीव० २ नव्यतीर्थप्रतिष्ठातु०११ ३२ नष्टज्योत्स्नस्य शशिन० २ नस्त्रीमात्रकृते जातु ८ २८९ न हि स्थलं न हि जलं ६ नागपाशमिवाऽन्योऽन्यं २ ६१० नागपाशैरबध्नाच्च २ नागपाशैर्द्रढीयोभि० ३८६ नागपाशैस्तथा बद्धौ १५३ नागपाशै: कुम्भकर्णं ७ २०५ नागराजायतभुजः ३ २८० नागरीभि: प्रतिपद०६ २९० नाऽत: परं त्वया वाच्य०८ ३०५ नाऽन्यनारीमनिच्छन्तीं ६ १३० नाऽपूर्यत रणश्रद्धा ९ १२४ नाऽभूदिह भवे ताव०५ नाम नारायण इति नाऽमरीषु न नागीषु ३०८ नाम्नाऽपराजितां चारु० ४ १२२ नाम्ना सागरदत्तश्च नारदेन जनैश्च त्वां ४७९ नारदोदितसंवादि० नारायणस्य तैर्बाणै० ७ ३६९ नारीसहस्रभोक्तृणां ३ नाऽर्थो न: कश्चिदप्यस्ती ५ नाऽर्थो राज्येन न: कश्चित् ८ नाऽस्तीह नघुष इति ४ नाऽस्त्येव स्थानमपि त०२ ३९६ नाऽस्य तुल्यो द्वितीयोऽस्ति६ २२५ निकृत्तपक्ष: पक्षीव ४४९ निजभार्यां समानेतुं निजं वंशक्रमायातं नितम्बन्यस्तविम्रस्त० ३ नित्यालोकपुरे नित्या० २ २३५ निद्राच्छेदे योषिदङ्ग० ११ निद्रायमाणं स्वं सैन्यं ७ निधाय किष्किन्धपुरं १ निनदन् विटसुग्रीवो ६ निपेतुः स्यन्दना: क्वाऽपि १ mogus ja १२ १८४ १८० १२१ १९२ १९ २५७ २११ ३३६ सवाद० २६२ ३१९ ४०७ २११ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकः सर्गः क्रमाङ्क: २० w ९४ w ५७३ २२२ २६५ ३२५ १५१ ७४ ४९७ ४३ २४१ w w w ७६ omw»31I १०८ १३४ २७० २५८ २०९ ३ ००० २१३ or orm Noro 5 २१४ ३० m w o २७० २८२ २४४ १७३ ४०० ६५२ ४० श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः पवनञ्जय इत्यूचे पुत्रस्नेहाच्च तातेन ४ २७४ पवनञ्जयमुज्झित्वा पुत्रा रत्नरथस्याऽथ ८ २४२ पवनप्रतिसूर्यौ तौ २८३ पुत्रास्तेऽपि सुकेशस्य १ पवनाञ्जनसुन्दर्यो पुत्री कामध्वजस्याऽसि २ पवनोऽत्राऽन्तरे तत्र पुत्रीं सत्यवतीं नाम ३ पवनोऽप्याललापैवं ११६ पुत्रे भ्रातरि चोत्कण्ठा ६ २४ पवमानवदुत्पत्य पुत्रौ तवाऽऽवामायाता० ९ पविनेवाऽऽहतस्तेन पुनर्गवेषयिष्यामि ३ २३२ पश्चाच्च पृथिवी देवी पुनयुद्धेन सुग्रीव: ६८० पश्चिमं निष्कुटं सिन्धोः १३ पुरचैत्येषु सर्वेषु ४ १८८ पश्चिमायायिनं रामं ४ पुरन्दरयशा नामा पश्यन् प्रत्येकमप्यात्म० ७ पुरन्दरयशोदत्त० पश्यश्चतुर्दशरज्जु० १० पुरन्दरयशोमुख्य ५ ३४३ पश्यैतानि च तत्स्त्रीणां २ ३२४ पुरन्दरोऽपि स्वे राज्ये ४ ३० पाणिग्रहात् प्रभृत्येव ३ पुरं सवज्रकर्णं तद् ३८ पाणिस्पर्श विना नेयं २ पुरं हनुरुहं जग्मु० २७५ पाताललङ्का चाऽऽच्छिन्ना पुर:स्थमपि सौमित्रि० पाताललङ्काराज्ये च ६ पुरःस्थं गरुडस्थं तं पाताललङ्कांस प्राप ६ पुरान्निःसृत्य वरुणो ३ पादयोः पतितं रामो ८ पुराऽपि च्छलितस्तात० ७ २५ पादाब्जयोः प्रणमन्तौ ४ पुरे कुन्दपुरे श्राद्धः पारणायाऽन्यदोपेत्य पुरे च तस्मिन्नभवद् पारदारिकदोषण पुरेऽन्यदा राजगृहे १२८ पार्वणेन शशाङ्केन ४४ पुरे हनुरुहे यस्मा० ३ २१६ पार्श्वद्वितयमाघ्नन्त्या ३ पुरोगेण विराधेन पार्श्वे क्षीरकदम्बकस्य २ । ३८६ पुरोधा: सोऽन्यदा पुंसा ४ । पाल्यमानोऽथ धात्रीभिः ११ ३९ पुरोधोगृहिहस्त्यश्व० १३ पावनिः कुपितस्तेभ्य० ६ पुरोधोवर्धकिगृहि० पाशबद्धाविमौ चाऽरी ७ १६५ पुर्यां पाताललङ्कायां पिङ्गकेशं पिङ्गनेत्रं ४ २९० पुष्पन्ति बकुलप्राया ८ २६६ पिताछऽवयोर्वियोगेन ५ पुष्पवतीचन्द्रगत्यो० ४ २४९ पितुमनोरथ इव ११ पुष्पोत्तरोऽपि तत्राऽऽशु १ १८ पितृभ्यां वार्यमाणोऽपि ५ ३७९ पूजापानान्नसहिता ५ ३९४ पितृराज्याय स भ्राम्यन् ४ ।। २३४ पूज्ये ते न: सदा गोत्र० ४ ३२३ पित्रा निर्वास्यमानांस्तान् ८ २०९ पूर्णे काले नभ:कृष्णा० ११ २३ पित्रा भूसञ्जयाऽऽदिष्टो २ ५२० पूर्वद्वारेऽत्र यच्चैत्यं पित्रा राज्येऽभिषिक्तश्च १३ पूर्वमेव दशास्येन ५९७ पित्राऽऽश्रितं श्रयिष्यामि २ पूर्ववत् स्वस्वराज्यानि ८ १४ पित्रा स्वयंवरे तस्या २ ४५७ पूर्ववैराद् वसुभूति० ५ २८२ पित्रोदृशां सुधावृष्टिं २ ७२ पूर्वोपकारान् स्मरता पिपासितायां सीतायां ५ पूर्वोपात्तामभुञ्जानां ३ पिपासितायां सीतायां ५ पृच्छामि किममून् यद् वा ८ । पिशुनानामिवाऽवाच्यं २ ५३७ पृष्टो मया सत्यभूत०७ २७७ पीडिता पीडया पत्यु: ६ १३१ पेतुर्भटानां मूर्धानो १ १२२ पीयूषेणेव संसिक्तो ६ ४२ पैतृकं शासतस्तस्य पुच्छाच्छोटकृतो व्याघ्रा: ६ १४६ पौराणां हर्षतस्तत्र पुञ्जस्थल: ककुत्स्थोऽथ ४ ११० पौर्य: स्वस्वगृहद्वारि पुण्डरीकपुरं चाऽगा० ९ प्रचचालाऽथ सुग्रीवो ६ ९८ पुण्यलावण्यसौन्दर्य० ४ प्रच्युत्य रत्नमाली तु ४ । पुत्रयोर्विक्रमं दृष्ट्वा ९ १६१ प्रज्ञप्ती रोहिणी गौरी २ ५९।। १७१ ४८० प्रणताय ततस्तस्मै २ प्रणम्य पितरौ तत्रा० प्रणम्य वालिनं भूय० २ प्रतिज्ञामित्यनुग्राह्य ४ प्रतिपक्षासनोत्कम्पं १ प्रतिपद्य स तद्वाच० प्रतिपद्य स मे वाचं २ प्रतिपद्येति काकुत्स्थ० ५ प्रतिमन्युनृपस्तस्मात् प्रतिमार्ग प्रतिगृह प्रतिसूर्य परिष्वज्य प्रतिसूर्याञ्जनयोस्ते प्रतिसूर्योऽथ जामेयीं प्रतिसूर्योऽनुपत्याऽऽशु ३ प्रतिसूर्यो विमानेन प्रतिस्थलं प्रतिजलं ८ प्रतिस्थानं च चैत्यानि ४ प्रतीचीमुपभुज्याऽऽशां ६ प्रतीच्यां नीलसमर० ७ प्रत्यक्षमिह व: सीता प्रत्यक्षं सर्वलोकानां ९ प्रत्यग्विदेहे वैताढ्ये ४ प्रत्यादेष्टुः कुमार्गाणा० ११ प्रत्युवाच कृतान्तोऽपि १० प्रत्यूचे लक्ष्मणोऽप्येवं ४ । प्रत्यूचे वर्जकर्णोऽपि प्रथमापत्यरत्नस्य ४ प्रथमा प्रत्युवाचैवं प्रबुद्धयोर्निशाशेषे प्रबुद्धो ब्राह्मण: सोऽपि प्रभञ्जन इवौजस्वी प्रभवोऽपि भवं भ्रान्त्वा २ प्रभातप्रायमालोक्य ३ प्रभोरभूवन् साधूनां ११ प्रभोर्भामण्डलस्याऽद्यो० ५ प्रभौ गर्भस्थिते रुद्धा ११ प्रमाणमुभयोरत्र २ प्रम्लानवदनाम्भोजां प्रयच्छ मथुरां मह्यं प्रययुस्ते विमानेना० प्रयाणभम्भा वाद्यन्तां प्रवर्धमाने तद्युद्धे प्रवर्षयन्निन्दकान्तान् ६ प्रविवेशाऽग्रतो यावत ५ प्रविव्रजिषुरन्येद्युः प्रविश्य तत्राऽऽयतने० ५ प्रविश्य विधिना तत्र ११ प्रशस्तलक्षणौ साक्षा० ९ प्रसन्नकीर्तिमाहेन्द्रि० ६ प्रसीद मत्प्रवेशाय १७८ ३७१ टिक १२ x mo १६२ ३०९ ५१७ ५४५ ro. me Moro romMN5 ३५६ २२३ و و و १२५ کنا ४१६ ३०६ ३८९ کی १७५ ७२ ४४ २४३ २५२ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्क: ५३५ ६०० २७५ १२६ ० wwwG का 5 w x var २६४ २१९ १७९ ६३४ ५८३ २९१ १७ १७७ २२५ ८२ रामा ७ ८१ १८८ ४३९ ४० ४७ ३३४ २२२ ३३४ १५० १८२ २५ २९ २३९ २५५ २४२ २८५ २८६ ४८४ ४८६ ३४४ ३२ २८२ १०४ ६७ १४८ १५३ निक १४० १९ प्रसीद विरम म्लेच्छा० ४ प्रस्वापनास्त्रं तेषूच्चैः ७ प्रह्लादतनयस्त्वेष प्रह्लादनसुप्रभराट् प्रह्लादसूनो: पवन प्रह्लादस्तत्र यान् प्रेक्ष्य० प्रह्लादोऽञ्जनसुन्दर्या प्रह्लादोऽथ दशास्याय ३ प्रह्लादोऽप्यब्रवीत् साश्रु ३ प्राकारवलयो रत्न प्राक् प्रजोपद्रवेणो०८ प्राग्जन्मनि मया तेपे प्राम्जन्म सोऽवधेत्विा १ प्राग्जन्माऽवधिनाऽपश्यद् ४ प्राग्जन्मोपार्जितैस्तैस्तैः १० प्राच्यां द्वारेषु तत्राऽस्थुः ७ । प्राणा अपि हि दीयन्ते २ प्राणैरिव विनिर्यद्भि० ४ प्रातरुत्थाय सा दीना प्रातर्भूयोऽपि सैन्यानि प्रातर्मङ्गलशब्देन प्रातश्च रामसौमित्री ८ प्रातश्चोचे प्रहसितं प्रात: कृतार्थीकृत्य त्वा० ७ प्रात: पश्य परं बन्धो! ७ प्रात: प्रातर्दिव्यगन्धै० २ प्राप क्रमेण रामोऽपि ५ प्रापय्याऽभीप्सितं स्थानं ५ प्राप्ते च कार्तिके मासि ४ प्राभञ्जनिर्बभञ्जाऽथ ६ प्रावर्तत निशा घोरा प्राव्रजिष्यं तदैवाऽहं प्रासादे खरराजस्य प्रियदर्शनजीवोऽपि प्रिय: पर्वतकः पुत्रः २ प्रियामपश्यंस्तत्राऽपि प्रेक्ष्योन्मत्तमिव ज्येष्ठं प्रेतकार्यं च सीतायाः प्रेयस्याः पुष्पवत्याश्चा० ४ प्रेषयिष्यत्यर्चयित्वा ७ प्रेष्य प्रधानपुरुषां प्रोचे प्रहसितोऽप्येवं ३ प्रोवाचैवमभिज्ञानं प्लवङ्गमैरस्खलित: <<<Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः ram ० ५३ भ्रातृभिश्च मन्त्रिभिश्च १ भ्रातृभ्यां स्वानुरूपाभ्यां २ ५८७ भ्रातृहत्याभयादुक्तो ७ १९१ भ्रातृहत्याभयादुक्तो ७ १९२ भ्रान्त्वा च वसुदत्तोऽभू० १० । भ्रान्त्वा धनोऽपि संसारं ८ १४२ भ्रान्त्वा भवं वसुभूति० ५। भ्रान्त्वा श्रीकान्तजीवोऽभू०१० भ्राम्यदर्कभ्रमकरं ९ १४४ भ्रूभङ्गमप्यकुर्वाणो ४ २८२ भ्रूभङ्गमप्यकृत्वैव ११ १४ २५ २८६ ५२ ११ १५३ २९१ ०६० २७१ ३६७ ३६३ ५०६ १०८ १९७ x १०५ 5 भामण्डलो नमश्चक्रे ८ भामण्डलो नलो नीलो ७ भामण्डलोऽपीन्द्रजितो ७ भामण्डलोऽप्ययोध्यायां ७ भामण्डलोऽप्युवाचैवं ९ १०२ भामण्डलो लब्धसञ्ज्ञः ४ ३८१ भामण्डलो विराधश्च ६ ३५१ भामण्डलो विराधश्च ७ २४५ भार्यायाचित्रसुन्दर्या ९८ भाव्यवश्यं महाराजो २०४ भीमेन्द्रेण पुरा दत्तं भीषणं नारदं प्रेक्ष्य भुक्तप्रायमिदं चाऽस्या० ३ भुक्तोत्तरे चाऽनुशिष्य ५ भुक्त्वा स सुचिरं राज्यं ३ भूत्वा गुरोः प्रसादेन भूपालै: पाल्यमानाज्ञो १२ २८ भूमिष्ठः कुम्भकर्णोऽथ ७ भूमौ नभसि पृष्ठेऽग्रे ७ भूयस्तां पवनोऽवोच० ३ १०८ भूय: प्रववृते युद्धं भूय: स्वदारसङ्गस्य भूयांसि ह्यपवादस्य ७० भूयांसो भूभुजोऽभ्येयु० ५ भूयोऽपि गृह्णतां दोष० ९ भूयोऽपि मथुराशैल० ८ भूयोऽपि मिलिताङ्गास्ता०१० २५८ भूयोऽपि लक्ष्मणोऽवोच०५ भूयोऽपि हि सनिर्बन्धं ६ भूयोऽप्युवाच नागेन्द्रः २ भूयोऽप्युवाच शत्रुघ्नो ८ २३३ भूयोऽप्यूचे वज्रकर्णः ५ भूयो भूयश्च रुदती ९ २ भूयो भूयः प्रार्थये त्वा० ७ ३३७ भूयो भूयोऽपराधानां २ २५८ भूयो भूयोऽपि पप्रच्छ ६ भूयो रामो जगादेवं ७ भूरिनन्दनराजोऽभू० ४ ४१० भूर्भुवःस्वस्त्रयीवीरं ६ भोगान चेद् दशास्येन ९ १८५ भोगासक्तः कयानोऽपि ४ भोगांस्तत्रोपभुञ्जानौ ८ भो भूचरा:! खेचराश्च १० भो भो! ध्यानजडा यूयं २ भो भो! महानुभावैवं ४ भो भो! राघव! सीतेयं ९ १९२ भ्रमन्नागामिमां पल्ली ५ भ्रातर्दोषोऽपि नाऽस्त्येव ३ भ्रातर्धातब्रूहि शीघ्रं १० १४७ भ्राता मानसवेगाख्य० ३ २०१ १९५ २२१ मम सूनुर्हतो येन ५ ३९६ ममाऽन्यथा हि द्वे कष्टे ४ ४२१ ममाऽसौ किं मृतो भ्राता १० १२२ मया चेज्जीवता तेऽर्थ० ६ १२९ मयाऽपमानना काचित् १० १४० मया प्रमादघातेन ६ मया भ्रान्त्वाऽखिलां पृथ्वी ३ २४८ मया सपरिवारेण मया सहाऽस्या निर्वासो ९ २०७ मयूर इव जीमूतं मयूरकेतवः केचित् ५८ मयूरमालनगरे २६७ मरुत्तराज: स्वां कन्यां ५१६ मरुत्तो रावणं नत्वा ५०३ मलिनानां किमेतेषां १२८ मलिनीभूतवसनां ३२८ महति व्यसने स्वामी महत्या प्रतिपत्त्या स ५ २५७ महत्यामथ वेलायां ३१८ महात्मन्नत्र विपिने १९७ महात्मानौ च पितरौ महानदीमेत्य सिन्धुं महानिशायां प्रकृते महान्तमुत्सवं चक्रु० महाप्रसाद इत्यूचे महाप्लवङ्गरूपाणि महाबलौ पिपिषतु० २ ६१५ महामुनितिरस्कार २६४६ महामुनेः सत्यभूते: ४ ५२९ महारक्षा अपि चिरं महालोचनदेवोऽपि महाविद्याधराधीशा: महाविद्याधराधाशा: ७३ महासत्त्वस्य तस्याऽल्प० ३ महासत्यञ्जना नाम ३ २४३ महासामन्तसेनानी० महिष्यां हरिणीनाम्न्यां ८ महीधरमनुज्ञाप्य महीधरेण स्वं सैन्यं महीपति: शुभमति: महेन्द्रनगरासन्ने महेन्द्रस्याऽऽज्ञयाऽमात्या ३ महेन्द्रहनुमच्चम्वौ० २४१ महेन्द्रः प्रतिपेदे त०३ महेन्द्रोऽपि समालिङ्ग्य ६ महेन्द्रोऽप्याययौ तत्र ३ २७६ महोत्सवां महोत्साहो ५ ४५८ महौजसो वारुणयो ३ २९१ माकरध्वजिरादित्य० १ १०८ मा कार्षीश्चौरिकां भूय० ५ मा कुपो वज्रकर्णाय ५ ५३ or on ५२ ३२३ १७२ २७५ मञ्जु वृक्षानिवाऽभाङ्क्षी० ६ ३७२ मद्हादद्य निर्गच्छ ३ १२९ मजन्तं व्यसनाम्भोधौ ३ मणिचूलाभिधस्ताव० ३ १९१ मत्पुत्रीणां पति: क: स्या०६ २६२ मत्स्यानुच्छालयामास २ ३१० मथुरां मे प्रयच्छेति ८ १६० मदनाङ्कुरसन्ताप० ७ मदरी यच्छितोऽसि त्वं ६ ४०० मदान्धोऽप्यमद: सोऽभूत् ८ मदूर्मिकामिमां देव्या ६ २३२ मद्हादद्य निर्गच्छ १२९ मद्दोषादीदृशीमागा० ३ मद्वंशपर्वभूतेयं ३ २७२ मधुदेहस्योपरिष्टात् १७९ मधुपिङ्गोऽप्यपमानात् २ ४७४ मधुः सुतवधक्रुद्धो मध्याह्नदेहच्छायावत् २ २५४ मध्येकृत्वेति काकुत्स्थौ ७ २४६ मध्येसैन्यं दशास्यो भू० ७ ८९ मनश्चिन्तितकल्याण. ३ १६० मनोभवविकाराब्धि० १ मनोहरवने पार्श्वे मन्त्रतन्त्रादिना घात० ७ मन्त्रिणां तत् समाख्याय ४ मन्त्रिणोऽप्येवमूचुस्तं ७ मन्दभाग्येन रामेण ४५२ मन्दाकिनीचन्द्रमुख्योः १० ९८ मन्दोदरीमुपादाय २८१ मन्दोदर्यङ्गदोदन्तं ३५३ मन्दोदर्यादिभिः सार्धं ८ ६ मन्यमानेन सेव्यं स्वं २ २०० मन्ये पाखण्डिना केना० २ ३८ मन्ये मयि कृपां कुर्वन् २ २५९ मन्ये विस्मृतरामेयं ३३४ मन्ये व्याघ्रण सिंहेन मम भर्ता त्वदर्थे हि २ ५३४ ।। मम भामण्डलस्येव ९ on 333 mmMMMMMMM For more 2.moras १२ १३ २४० WO १४३ ३०६ wa sen २५१ ४०५ ११७ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ श्लोकः सर्ग: क्रमाङ्क: श्लोक: सर्गः क्रमाङ्क: श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः २२७ २२२ ३८३ ५० ४८६ २३४ १६४ २१४ ३२१ ३३७ १७० १४८ १७७ २०० १५९ २२१ ९२ ८४ १७५ ३०६ १४९ ९१ १०६ ३८९ १७२ ११ ५र मुमोच यावन्त्यस्त्राणि ६ मुहुरालाप्यमानाऽपि ३ मुहुर्मुहुः सा मूर्च्छित्वा ९ मूर्छिते भ्रातरि क्रुद्धः ७ मूर्च्छितो जम्बूमाल्युा ७ मूर्ति दाशरथीं लेप्य० ४ मृगं व्याघ्र इवाऽऽदाय ५ मृतकार्यं ततो राम० मृतं दशरथं ज्ञात्वा ४ मृतार्भकस्य तस्यैवा० ४ मृतां जानासि मे भार्या० १० मृत्युजीवितयोस्तुल्या० ९ मृत्योः प्रियवियोगार्ति० ३ । मृत्वा च तत्प्रभावेण १० मृत्वा तद्दानधर्मेणो० १० मृत्वाऽनलप्रभः सोऽयं ५ मृत्वा प्रथमसाधुस्तु ८ मृत्वा समाधिना साऽभूदु १० मोक्षकालमथ ज्ञात्वा ११ मोक्षाध्वमीक्षकमिवो० ४ म्रियस्व यदि वा मार्य० ७ म्लानिमासादयामास ६ म्लेच्छानां भूरि यच्छामि ५ म्लेच्छा: प्रणश्य ते जग्मुः ४ म्लेच्छेश: प्राग्भवे सोमभू०५ १९४ १५४ १५७ १४९ १६२ २५३ २१७ ८४ ५२८ १०९ २१० ८४ २६५ ५७ १८१ ४७५ ४५३ १०० ४१२ ४९२ ३८२ १७६ ४२५ १७४ २२८ १५७ २८६ ९४ ५३ १६९ माघस्य शुक्लद्वादश्यां १० मातुः प्रभावं तं दृष्ट्वा ९ मातृमेधे वधो मातुः २ मा त्याक्षीमद्वियोगेन ६ मात्सर्यात् कनकोदर्या ३ मा भूदु भूय: पुरक्षोभः १० मायाक्ष्वेडामथो कृत्वा ६ मायापराक्रमोत्कृष्टः ६ मारीचरक्ष:सन्तापं मारुतिस्तद्वचः श्रुत्वा ७ मारुतिं रावण: स्माऽऽह ६ मार्गस्य शुक्लैकादश्या० ११ मालवकैशिकीमुख्य० ११ मालाकार इवोच्चित्य २ मासजातं सुतं राज्ये ८ मासान्ते वैशाखकृष्ण० ११ मासेनैकेन मासाभ्यां १० मासै: सिध्यति या षड्भिः६ माहेन्द्रकल्पे देवोऽभू० १ माहेन्द्रोदयमुद्यानं मां नमस्कृत्य वत्सोऽद्य ४ मां पतिं देवि! मन्यस्व ५ मांव्रतायाऽनुमन्यस्व ८ मांसप्रत्याख्यानभङ्गं मांसस्य भक्षणं तेषां मांसाप्राप्तिरित इतो मित्रं प्रहसितं नामो० ३ मिथश्च मैथिलैक्ष्वाको ४ मिथोघातैर्विषाणेभ्यः २ मिथ्यात्ववर्जिता तत्र २ मिथ्यात्वेनाऽनन्तवीर्य० ५ मिथ्याभिमानवाचो हि २ मीने दैत्यगुरुस्तुङ्ग० ३ मुक्त्वोपसाधु वैदेही ५ मुखमापाण्डुगण्डश्री० ३ मुञ्चाम्येतामद्य चेत् त० ७ मुञ्चैनं मत्प्रभुं नाथ! ५ मुदितास्ता: पितुर्गत्वा ६ मुदितो वैरिनिर्घाता० १ मुधा कपे! गर्जसीति ६ मुनिन्यत्कारजात् पापा० २ मुनिराख्यदवश्यं ते मुनिवरमथ नत्वा मुनिश्चोचे तव पिता ९ मुनिसुव्रतनिर्वाणा० मुनिसुव्रतवंशस्य १० मुनिं नत्वा तु तं रामः ८ मुनिः कीर्तिधरः सोऽपि ४ मुनि: सोऽथाऽब्रवीत् पुर्यां ८ मुमोच जनकं राजौ० ४ यद्यतो यास्यसि स्वामि० ५ यद् यदस्त्रं दशग्रीवो २ यद्यपि स्वसुता सीता ४ यद्यप्यज्ञेन दैवेन ६ यद्यादिशसि तत् स्वामिन्!९ यद् वा खलसमक्षं न १० यद् वा सतीव्रतं यस्या १० यन्त्रे च वालुका: क्षिप्त्वा १० यन्मूलयन्मूलतोऽपि यमगुप्तेस्तमाकर्ष २ यम: पृषत्कैर्भूयोऽपि यमः शक्रं नमस्कृत्य यमाय नरकारक्षा० यमाय सुरसङ्गीतं ययाचे भोजनं तेभ्य० ययावयोध्यां भरत० ययुर्मयाद्या: स्वपुरं ययुः परमसंवेगं ययौ च सा तं न्यग्रोधं ययौ चाऽत्यन्तवेगेन ययौ पाताललङ्कांच ययौ ससैन्यो विजय० ५ यश्च नागसहस्रेण १ याचित: स नमस्कार० ३ याचिष्ये समये स्वामिन्! ४ याज्ञवल्क्यस्तु तज्ज्ञात्वा १० यात याताऽधुनाऽप्येतं २ यातेषु केषुचिन्मोक्षं ४ याग्रूपं यथावस्थं ४ यादृशी साऽस्ति रूपेण ४ यावत् किञ्चिदगात् तावत् ५ यावत् सा प्राविशत् ताव०९ यावद् बिभीषणवचो० २ यास्यन्ति कपयो नंष्ट्वा ७ युगपद् भूयसो बाणान् २ युगपद् रामसैन्यं तै० ४ युज्यते न वधः प्राणि० २ युद्धभूमौ च तद्रूपं ९ युद्धायाऽऽह्वयमानं तं ५ युद्धार्थं धावतस्तस्या० ७ युयुधाते महायोधौ ६ युयुधे सादिना सादी युवाभ्यां तत्कृतं पूर्वं युवा सेनापतिस्तत्र ५ यूयं येनाऽतिथीभूता ५ ये केचिदिह राजानो २ ये जीयन्ते क्षणात् तेऽन्ये ६ ये तवाऽष्टविधां पूजा ये ये सूनृतशीलाद्या योगेश्वरी बलोत्सादा २ २२ ३९ १५० ६१२ ३६४ Wo ५०८ ३०९ ३०७ ३९७ १५१ ३१५ ४२५ २११ २०८ २६८ ५६८ ३०४ १२२ १५५ २७९ यकृच्छकृन्मलश्लेष्म० ११ यच्छैलञ्चूर्णितोऽनेन ३ । २१७ यज्ञे वधाय चाऽऽनीतान् २ यत्र तत्रभ्रेमतुस्तौ ११८ यत्र यत्र पुरे ग्रामे यत्सेवकवरो मे त्व० ६ ३९३ यथाकामीनवृष्टीनि ६ १६९ यथा कुष्ठविशीर्णाङ्ग ४०१ यथा खलगिराऽत्याक्षी: ८ ३२३ यथा तथा गत: कालो २ । ६०२ यथा तथा ममाऽस्त्वन्यत् ११६४ यथा तव ददानस्य २ २७४ यथा न तातयोर्भेदः १० १०२ यथाऽपराजितो सूनो० ९ १३८ यथाविधि तमिस्रांस १३ यथा यथाऽवाचयत् तत् २ ४७२ यथाशक्ति तव स्वामी २ यथोचितैरन्नपानैः यदा न प्राप्नुयात् कूर्म २ यदि निर्वादभीतस्त्वं ८ यदि पश्यथ मे कान्तां ३ यदि प्राणिवधेनाऽपि २ यद् ब्रह्माण्डेऽपि मातं न ६ ३१५ यद् भ्राता रावणस्याऽसि ६ ३२० ३६० ६८ २६७ ८६ ३७६ ६४५ १४ ६५४ ७२ १११ १७८ २१० ७६ ४४८ ७२ ૬૮ www on wW.० २५२ १०५ १५९ ३५ २५० ३७३ २१ २४६ ३३२ १८ ६५ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः ३१२ ४९।। ५० योग्या भामण्डलस्येति ४ यो बालोमपि महाहारं २ योऽभूद् गुणवतीभ्राता १० यो य: स्याद् बाधको दोष०११ यौवनाच्छीघ्रगामिन्यो ४ यौवराज्ये तु सुग्रीवो २ २३२ ५० ४०. JMrrrrrorm) Mworormx orror ३५ ६८ ५०२ ४४ श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः राजादेशाद् वधार्थं स ८ १९५ राजानं सगरं राज्ञो० २ ४७६ राजाऽपि तगिरा भग्न० ८ १२४ राजाऽपि विजयः प्रातः ११ ३६ राजाऽपीत्यवदच्छ्वश्रूः ३ १४५ राजाऽप्यवोचद् गर्भस्थो ४ राजाऽप्युवाच भरतं ४ ५०३ राजाऽप्युवाच मा वत्स! ४ राजाऽप्यूचे राज्यमपि २ ५३१ राजाऽप्येवमभाषिष्ट ९ राजा राजसु सोऽराजद् ४ राजानं सगरं राज्ञो ४७६ राजैकदा तुरङ्गेण ५२५ राज्ञश्चक्रध्वजस्याऽति० ४ २२४ राज्ञः शुभमतेस्तत्र ४ १५१ राज्ञा हतस्तु श्रीभूति० १० ७४ राज्ञां कुमारान् प्रत्येकं ४ २५७ राज्ञीभी रममाणोऽस्थात् ४ १७४ राज्ञो हिरण्यगर्भस्य ४ राज्यभृत् क्षीरकण्ठोऽपि ४ राज्यं करोमि कल्याण० ५ राज्यं कुरुष्व निःशङ्को २ राज्यं चिरं पालयित्वा १० राज्यं पालयतो रत्न० ५ २९३ राज्याभिषेकमधुना राज्यार्थी भरत इति ४ ५१६ राज्येच्छुरेव मृत्वा स ४ २३५ राज्ये त्वां बालकं न्यस्य ४ ४६ रात्रिजागरणायास० ३१२ रात्रिशेषे ततो रामः २४१ रात्रेरिवाऽनुबद्धाया ६ ३१६ रामजन्मनि भूपालो रामभद्रस्तत: पूर्व० ७ १६८ रामभद्रे तु निष्क्रान्ते १० १८० रामभद्रेऽथ किष्किन्धा० ६ १०७ रामभद्रो भुजस्तम्भे० ५ २१८ रामभ्रूस या सिंहो० ५ ७० । रामर्षिर्देशनां चक्रे १० २०८ रामलक्ष्मणदशानना १३ ३०(१) रामलक्ष्मणयोः पत्ति० ६ रामलक्ष्मणवृत्तान्तं १२२ रामश्चरमदेहोऽपि १० ११६ रामसेनाकलकलो रामस्तत्र निशां नीत्वा ५ रामस्तद्वहिरुद्याने रामस्तमाललापैवं ९ १६४ रामस्तमूचे किं शुष्कं १० १६४ रामस्य केवलज्ञान० १० २२८ रामस्य पार्श्वे मां विद्धि ६ ३४० रामस्याऽऽन् महादेव्य० ८ २५३ श्लोकः सर्गः क्रमाङ्क: राम वनाय निर्यान्तं ४ ४६६ रामं सिहासनासीन० ८ राम: पप्रच्छ तं दूत० ५ २०० राम: पप्रच्छ भूयोऽपि १० १३ राम: प्रकृतिमालम्ब्यो० १० राम: प्रणम्य कैकेयी ४ राम: सद्योऽपि देवानां ८ राम: सरूपौ तौ दृष्ट्वा ६ रामः सौमित्रिमित्यूचे ७ रामाज्ञया च काकेन ५ १२१ रामाज्ञया च भृतकां० ९ रामाज्ञया च वैदेही रामाज्ञया च सौमित्रि० ५ १३१ रामाज्ञया तत्र शैले रामाज्ञया हस्तिपकैः ८ रामाज्ञा प्रतिपद्योच्चै० ५ रामादेशेन सौमित्रि० ५ रामानुजोऽप्यभिदधे रामाय स्वस्त्यथाऽऽशंसे ८ ३२५ रामेऽथ दृक्पथातीते ४ रामो जगाद भूयोऽपि ४ ४५० रामोत्सङ्गान्निजोत्सङ्ग ९ १५८ रामोऽथ विश्रमयितुं ५ रामोऽथोचे दशरथं २७३ रामोऽनुमान्य तं यक्ष १६७ रामोऽपराजितां देवीं ८ ८८ रामोऽपि तामुवाचैवं रामोऽपि निजगादेवं ६ रामोऽपि लक्ष्मणं स्वाङ्के १० १५६ रामोऽपि लोकवादेन ९ १५ रामोऽपि विस्मयव्रीडा० ९ १५४ रामोऽपि हृष्टोऽभाषिष्ट ४ रामोऽपृच्छन्महर्षी तौ ५ रामोऽप्युज्झितधर्माभि० १० रामोऽप्युदश्रुस्तं स्माऽऽह ८ रामोऽप्युवाच को नाम ५ रामोऽप्युवाच दत्तं ते ८ रामोऽप्युवाच पुंवेषै० ५ रामोऽप्युवाच सुग्रीव! ६ ११७ रामोऽप्युवाच हे लोका! ९ रामोऽप्यूचे कृतं तस्य २०८ रामोऽप्यूचे मम पुरा ८ २९८ रामोऽप्यूचे सत्यमेतद् ८ ३०२ रामो भरतमित्यूचे ४ ४३७ रामो भ्रातृविपत्त्या च १० रामो राजानमित्यूचे ४ ४४१ रामोऽरौत्सीत् कुम्भकर्णं ७ १९५ रामोऽस्ति त्वद्वियोगेन ६ ३४८ रामो हसितमानी स्व० ४ २८१ रावणस्तं बभाणैवं ३५३ रक्तं त्यक्त्वा तदानीं त्वा०१० २२१ रक्ताशोकेषु निःशूको ६ रक्षसां वानराणां च ७ रक्षोद्वीपाधिपेष्वेव रक्षोभङ्गेन सङ्कद्धः ७ १२० रक्षोभङ्गेन सङ्घद्धो रक्षोभटसहस्राग्रे ६ ३८ । रक्षोवंशादिकन्दाय २७ रक्षोविद्याधराणां चा० रघुनाथमथाऽऽजग्मु० २७६ रजन्यां जनकं हत्वा ३१५ रणकण्डूलदोर्दण्डा २७८ रतिवर्धनमाता तु ३३ रतिवर्धनराजेना० ८ २९ रत्नश्रवसे साऽऽचख्यौ रत्नश्रवःप्रभृतयः रत्नश्रवाः सिद्धविद्यो १ रत्नसिंहासनस्थानि रत्नस्वर्णादिकोशोऽय० ८ रत्नाकरश्रेणिनिभा ५ ३३२ रथनूपुरमेत्येन्द्र० २ रथं विराध: सौमित्रे० ९ रथादुत्तीर्य कैकेयी ४ ५१२ रमणोऽपि भवं भ्रान्त्वा ८ रमणो वेदमध्येतुं रमध्वं स्वैरमस्माभि० २ ३५ रमयित्वा च तां स्वैर० ३ २४५ रम्भादिका वारवधू० १०६ रह: पर्वतमूचेऽम्बा २ ४२७ रहो व्यज्ञपयद् राज्ञे राक्षस: सिंहजघनः राक्षसानेवमन्यान० ७ १९९ राक्षसावाससंवासा०८ ३१२ राघवोऽप्यब्रवीत् ताता० ५ राजन्ननेन पुत्रेण ७ राजनिहैव तिष्ठ त्वं ७ राजन्! राजपुरेऽमुष्मिन् २ राजवेश्म प्रविश्याऽथ ५ १५५ राजस्पश इव च्छन्नी० ३ २४ राजा तत्राऽयोघनोऽभूद् २ ४५६ राजाऽथ स्वार्थकुशलो ४ ३७ राजा दशरथस्तत्र ४ १७२ राजा दाशरथिसी० ५ २७३ २३१ 3mw344 ormmM X0G0 का mar,०० ३५८ १९३ ९८ २४२ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकः रावणस्तानवज्ञाय ७ रावणस्य वधस्तत्र ४ रावणः क्रीडयाऽन्येद्यु० २ रावणः परमार्थज्ञ० २ रावण: प्रत्युवाचैवं रावणाग्रेऽपातयंस्ते रावणानुजसुग्रीव० रावणाय स गत्वाऽऽख्यत् ७ रावणेन धृते शक्रे २ रावणेन बले भने २ रावणेन सहाऽचालीत् २ रावणेनाऽपनीतेयं ८ रावणोऽग्रेऽपि मे बन्धु० २ रावणो ध्यानसंलीनः रावणोऽन्यप्रतापस्या० रावणोऽपि जगादैव० २ २ रावणोऽपि तदा तत्रा० ६ रावणोऽपि प्रविश्याऽथ ३ रावणोऽपि ययौ स्वर्ण० रावणोऽपि विमानस्थो रावणोऽपि हतस्तेन २ ५ ८ रुष्य वा तुष्य वा नाथ! रूद्रव्रणोऽय सौमित्रि० रूपवत्यङ्गजो वन० सर्गः क्रमाङ्क: रोषारुणाक्षः सन्नह्य रोषोच्छ्वसित केशस्तं 6) ६ रावणोऽप्यधिकं क्रुद्धः रावणोऽप्यब्रवीदेव रावणोऽप्यभ्यधादेवं रावणोऽप्यापतन्तं तं ३ रावणरणतूर्याणि २ रावणो वरुणं तत्र रिष्टाः खराः फेरवश्च रुदती सह सुन्देन स्वन्तीं बोधयित्वा तां रुदन्तीं वारयित्वा तो रुषा बभाषे सीतैवं २ ८ 67 ३ १ ६ ३ ३ ६ २ 67 ल लक्ष्मणस्तद्गिरा क्रुद्धो ० ७ ३०८ १३९ ८५ ५६ ३५१ ५४ ७६ ३२२ ६२० ११८ २९६ २९१ १२४ ३४९ १८७ १४३ १३८ ३ २ ५९१ ४ २०७ १११ ३ ७ २३० रूपवन्तौ कुलीनौ च रूपिणीं च सुतामस्मै रेजे राजा दशरथ० रेमाते तत्र च स्वैर० रे रे!! दुष्टात्मं० रेवाम्भोभिः स्नपयित्वा २ रोगात् पितुश्च सा भीता रोधसी प्लावयित्वोभे रोधस्युवासरेवायाः रोधोगतन्महतोऽपि २ ३०८ रोवारुणास्तच्चक्रं ७ ३०४ १० ६० २ ३२३ २ ३०२ ७ १ ३७० ५२ ४६ १२० ६४९ ४५० १८४ ३१ १२८ २७३ २९५ १६ २९९ ११५ १२० २६६ २०३ १३५ १५८ २९८ २५१ ९ ३१७ ४५ सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः लक्ष्मणस्य सुतास्तत्र लक्ष्मणाय ददौ विद्यां ७ ५ ६ ४ लक्ष्मणेन सहोदश्रुः लक्ष्मणेनैवमाक्षिप्तो लक्ष्मणोऽपि क्षणेनाऽपि ६ लक्ष्मणोऽपि गजालानं लक्ष्मणोऽप्यब्रवीदेव लक्ष्मणोऽप्यर्णवावर्त लक्ष्मणोऽप्यवदत् ताते० ८ लक्ष्मणोऽप्यवदत् सिंह० ६ लक्ष्मणोऽप्यवदद् बाह्यो० ५ लक्ष्मणो वासुदेवोऽयं लापुर्यामपि तदा लापूर्वदिशि स्थिते लायां रामणोऽधाऽगा० ३ ८ १ ५ लङ्काराज्यं तदा तस्मै लङ्कां सराक्षसद्वीपां लङ्कां सराक्षसद्वीपां लङ्केशस्तेन देवेन लज्जानतमुखीं तां च लज्जानतश्याममुखो लतान्तरनिलीनाऽथ ३ ५ लतां हस्तीव हस्तेन लब्धसञ्ज्ञः समुत्थाय लब्धसञ्ज्ञः समुत्थाय ६ लब्धं मयाऽत्रैव साध्व्या ३ लम्पाकेष्वेककर्णाख्यं लवणाङ्कुशयोवंश ९ १० ७ ९ ७ २ ६ १ ५ ३ ९ ૪ २ लिखित्वा तां पटे कन्यां ८ लीलामुष्टिप्रहारेण लोकद्वयारं तद्यज्ञ लोकप्रत्ययतो भेजे लोकप्रसिद्धमधुना १० लोक: सौराज्यसुस्थोऽपि ८ २ ૪ ८ लोकोत्तरगुणा पुत्री लोको हि प्रवदत्येवं लोहाङ्कुशोपमनखं लोहिताङ्गो वृषे मध्ये ३ ३ व वचोऽश्रुत्वेव तत् सत्य० २ वज्रकर्णस्तदाकर्ण्य वज्रकर्णः सदाकारं वज्रपृभ्यां ता० वज्रजङ्घमथोवाच वज्रजतस्तदाकर्ण्य ५ ५ वज्रहस्तयोक्रे वज्रजः शशिचूलां जो निषण्णेषु ९ ९ ९ वज्रजोऽपि पुत्रान् स्वान् ९ वज्रनिर्घोष भोरं १०० १७० १५५ ३२१ २८ ५८ ४१ ३४८ ९४ ४ ४४७ ३० ४५ ७५ ७३ ५१ ३६ ४८ ६४ ५३ २४८ 67 २५५ १५४ ४३ ४६० ३०१ ४४ ६ २२९ ५४ ८७ १३८ ४६० १०७ ३३० ८ २३७ ७७ ६५ २४४ १९८ ३८० ४८४ १४४ ३०१ ३१७ २८५ १८९ २०७ श्लोकः वज्रबाहुकुमारोऽथ वज्रबाहुमथाऽवादी० वज्रबाहु प्रब्रजितं वज्रमिव वज्रपाणि वज्रावर्तार्णवावर्ते वज्रोदरवधक्रुद्धो १० वत्स! वत्सैहि सौमित्रे! वत्सः सुकोशलोऽप्यद्य ४ वत्से! मम मनः शल्य० २ वत्से! वत्सो रामभद्रो वधाय वलिनोऽमुष्य सर्गः ४ ४ ६ ८ ५ ५ वनमाला च कल्याण० वनमाला च बाल्येऽपि वनमालान्वेषणाय वनमालाऽपि तच्छ्रुत्वा ५ वनमालां नमस्कृत्य वनवासाय गच्छन्तं वनस्थिता साऽप्यनम० वनं भ्रान्तमिदं ताव० २ वनं व्रजिष्यति सुतः वनान्यटितुमेकाकी वने पद्मासनासीनं ४ १० ६ ४ ४ ११ ६ ८ वनेवासौ फलाहारौ वन्दित्वा तत्र सोऽर्हन्तं वन्दित्वा तं महासाधु० वन्दित्वा तौ च पप्रच्छ वन्दित्वा प्रतिमाः शैला० २ वन्यामिव महावातः २ प्राभिधाना तस्याऽभू० १३ वप्रां प्रेक्ष्य च तद्गर्भा० ११ वप्रेति नामतस्तस्य वयमाराधकास्तत्र वयस्यस्तस्य दूतस्य वयं हन्यामहे बद्ध्वा ११ वरं भवेत् सुखमृत्यु० वरस्योजः परीक्षार्थ बराकै: सैनिकरेभिः वरुणाग्नेयवायव्य० वरुणामेचरथयोः वर्धनी मोचनी चैव वर्षत्यब्दे च काकुत्स्थ० वर्षन्ती वारिधाराव० वर्षन् युगपदस्त्राणि वर्षायुतायुः परिपाल्य वल्लभोत्कण्ठितानां हि वश्योऽस्मि व्यन्तर इव वसन्ततिलके दोष्णा वसन्तसेनया सार्धं वसन्तेऽथाब्रवीद् रामः वसुदत्तस्ततो गत्वा १० १ ५ १ vors w ५ ६ ७ १२ ३ ५ ३ ८ ८ १० क्रमाङ्क: २२ १७ २८ ३४४ ३२२ १११ ३ ४१ ४६१ ४५६ ८८ २४९ १७१ १८६ १७४ ५४० ४४३ ७८ ३६ ४४९ ४५१ ९२ ३९० ३९ ५८ ११२ १३१ ११७ ८ ३८ १६ ३४५ २७३ ४७ २३५ २४७ ६०८ १७१ १०९ ६४ १३३ ३८१ ११० ३२ २१ ११९ ९६ १४५ २६५ २३ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१ ४ २७५ ४३३ ૨૨ ५३ ३२७ १९५ ५० ३५ ५२ ७१ ३१ १५९ ५४२ २२७ ३९ श्लोक: सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः वसुदत्तोऽभिधानेन १८७ विद्याधरेन्द्रस्तां पुष्पो० १ ९ विमृश्यैवमहत्वैव २ ३९८ वसुपर्वतको तत्र ३९२ विद्याधरेन्द्रानाह्वातुं विमोह्य मायया सर्वं ६ ११३ वसुपर्वतकौ पश्चा० ४०० विद्याधरेन्द्रैरन्वीतो ३७५ विरक्तश्चाऽन्यदा पञ्च० ५ ३४२ वसुभूतिस्ततश्च्युत्वा २१५ विद्याधरेन्द्रैर्विदधे २७७ विरहाच्चाऽतिसुन्दर्या २२९ वसुभूति: पुरीमेत्य विद्याधरैराहतानि विराधमिव सुग्रीवं ११५ वसुरूचे ततो मेऽम्ब० विद्याधरैर्दत्तदण्ड विराधाय तु पाताल० ८ १५७ वसुर्वसुमतीनाथ० २ ४४९ विद्याभिर्मोहयन्तस्ते २ ३३१ विराधेन ससैन्येन वसोः सुता: पृथुवसु० २ ४५१ विद्याभ्रंशनिमित्तं चा० ६ २६४ विराधोऽपि पुरोभूय १०० वहमानारघट्टोत्थैः । विद्याया बहुरूपाया ७ विराधोऽपि समं सैन्यैः वंशजालान्तरस्थस्य विद्यासहस्रं स्मृत्वा च २ २४५ विरुद्धं तद्बलं भूरि० वंशो न ज्ञायते यस्य विद्यासाधनविघ्नाय २ ३० विरोधिनं विराधं स्वं ६ वाजीव ग्रामपद्रस्थो विद्यासामर्थ्यतस्तत्र ३ २७४ विलक्षाश्चन्द्रगत्याद्या० ४ वानरद्वीपराज्येन विद्यासामर्थ्यतोऽस्तभ्ना०३ २९३ विलपत्स्वपि तेष्वेवं वामान्यकुम्भविन्यस्त० १२ विद्यासिद्धिं तु तां तेषां विलपन्त्यञ्जना सख्या ३ १५८ वामाभ्यां बीजपूरिभ्यां ११ विद्यां जपितुमारेभे ५ ३८२ विलीनदेहास्तत्राऽपि २४९ वारुणी भुवनाऽवन्ध्या २ ६३ विद्युत्प्रभो हृदि ययो० ३ विलुठन्तौ पितुरिव वालिखिल्यं विमुञ्चेति ५ विद्युल्लताभिधानायां ४ ४०१ विलोक्य लङ्कालुण्टाकां०२ वालिनोऽपि तदोत्पेदे विद्राव्य नरकारक्षा० २ विलोक्याऽचिन्तयद् राजा ४ ३७० वालिभट्टारकस्याऽथो २ विद्विषां मूर्धसु चिरं १ १५० विवाहं कारयामासु० २ ८३ विकारं मान्मथं देह० ५ ८२ विधाय तत्र चाऽऽवासं ३२३ विविक्षन्निव वसुधां विकृत्य तत्र प्रासाद० ३ ७७ विधाय नरकावासां० २ १४१ विविधाभिग्रहतप० विक्रीणते वा मूल्येन विधायाऽनशनं मृत्वा ५ २८५ विविधैरायुधैर्युद्ध्वा विगलत्पाटलापुष्प० ११ ४६ विधूयाऽशेषरक्षांसि ३६४ विवेद मेदिनीनाथ ४ विचित्रनागरक्रीडं ८ २६९ विधृत्य पाणिना दोष्णि ७ २६२ विशल्या प्राग्भवतप० ७ २९५ विचिन्त्यैवं नेशतुस्तौ ७ १६६ विना च देवमर्हन्तं ५ विशल्याऽपि हि सौमित्रिं ७ २९७ विजय: सूरदेवश्च ८ २७७ विना तेनाऽङ्गुलीयेन ५ विश्रवःसूनवे सद्यः विजये पुष्कलावत्यां ४ ३९७ विनाऽपि हेतुं हुङ्कार० १ १४९ विश्रवोनामधेयस्य २ विजिगीषौ मयि सति २ विनाऽर्हन्तं विना साधु ५ ६९ विश्वस्य सीताऽप्याचख्यौ ९ विज्ञप्तोऽथ तदाऽऽरक्ष० १० ४० विना शशाङ्कं श्यामेव ३ विश्वाधारः पुमानेष १० १२६ विज्ञप्यसे तथाऽपि त्वं ३ विनोदभार्या शाखाख्या ८ १३१ विश्वास इव मूर्तिस्थो २ ३४३ विज्ञातज्ञातिसम्बन्धौ ९ १२९ विन्ध्याटव्यामभूतां ता० १० २४ विश्वैश्वर्यस्याऽधिका ११ २९ विज्ञाततदुन्तोऽपि २२९ विपक्षवीरान् वृण्वन्तो ७ विषण्णं भ्रातरं प्रेक्ष्य ३७३ विज्ञानरहितस्तत्र विपद्य चाऽच्युते कल्पे ५ २९८ विषण्णो रावणो दध्यौ ७ ३७२ विज्ञाय तदभिप्राय विपन्न: स नमस्कार० ४ २२० विष्णनाऽपि रणे यस्य ६ ३० विज्ञायाऽऽसनकम्पेन विपरीतमिदं जज्ञे २६३ विससर्ज मखं सद्यो २ ३८१ विडम्ब्य बहधा रत्न० ५ २९५ विपुले गोकुल इव ३०१ विसृज्यमाना अपि ते ४९५ विदधुर्विविधांस्तत्रो० ७ ३४५ विप्रवृद्धैरथोचेस ४४४ विसृष्टः सप्रसादेन २३२ विदाञ्चकार सा भ्रातु. ३६७ विप्रवेषस्ततो भूत्वा ওও विस्मारयितुकामास्ता ८ १०५ विदुद्रुवू राक्षसास्ते १७८ विप्रियं कुर्वतस्तस्य २०२ विहरन्तः पुरी जग्मु० २१९ विदेहाऽपि रुरोदैवं ४ ३२८ विबुध्य भरतेनाऽपि विहरनन्यदा रामो २१३ विदेहामिति सम्बोध्य ४ ३३२ विभातायां विभावाँ ७ ८८ विहरन् स रथावर्त ६४१ विदेहा समयेऽसूत २३८ विमानं गच्छतस्तस्य १ वीक्ष्यमाण: सोपहासं ३४३ विद्यादानाद् गुरुस्थाने ५७५ विमाने लम्बमानोच्च० ३ वीतरागं सर्वविद० २ २२१ विद्याधरकुमारीभि० १० २२२ विमानैर्देववत् केचित् ७ वीरपत्नी पुराऽप्यासी० ९ १०७ विद्याधरनरेन्द्राणा० २३४ विमानैः स्यन्दनैरश्वै० ७ वीरपुत्रौ च वीरौ च ९ विद्याधरनरेन्द्रांश्च विमुक्तशस्त्रो दीनास्यः ५ १११ वीरवृत्त्याऽनया मृत्यु ८ विद्याधरसहस्ते विमुक्तशैशव: स्वामी ११ ४० वीराणां कामुकानां च २ विद्याधरा भयोभ्रान्ता ९ विमुक्तः प्राव्रजत् सोऽपि ८ वीराः शिरांसि वीराणां ७ ७० विद्याधरीभिरम्भोभिः ७ २४९ विमृश्य च ततो विद्या० ५ ४२८ वीरौ पितृपितृव्यौ वां ९ विद्याधरेन्द्रमिन्द्रं तं १ ११२ विमृश्येति प्रविश्याऽन्त० ४ वृद्धत्वात् सौविदल्ले तु ४ ११ १३१ २२४ ७३ २२६ و دو ک ک »mwar U २८७ २ »r १०८ २९४ ८९ ३५८ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकः वृषभो वृषभेणेव वेगात् तानन्वधावन्ता० वेगेनाऽऽपत्य तच्चक्र० ९ वेल्लन्तीमधिपर्य ३ वेश्मन्यानीय भक्त्याऽऽशु ४ देखते पत्रने रौद्रे० वैतादयदक्षिणश्रेणिं ४ ८ वैताढ्यदक्षिणश्रेणी वेताळप्रदक्षिणश्रेण्यां वैताढ्यस्येव सैन्यस्य बैताळ्याक्षिणत वैदेह्या भक्तपानाद्यै: वैफल्ये मन्त्रतन्त्राणां वैश्रवणोऽथ दूतेने ० सर्गः २ ७ ४ ९ १० २ ६ व्यक्तमन्तः स्फुरल्लक्ष्मा व्यक्तिर्यावद् भवेद् दोषा० ३ व्यक्तोडु कलयामास ६ व्याख्याद् रामस्तयाऽऽख्याते ८ व्याघ्रीय इव गौर्जीवन् ४ व्याघ्यैवं खाद्यमानोऽपि ४ व्याधिभूतादिदोषांश्च व्याधेनेव किरौ श्वानं व्यावृत्तांस्तान् रणात् प्रेक्ष्य २ व्याहर्ता मोक्षमार्गस्य व्योमनीय डिलेखा २ ७ ११ ६ व्योम्नाऽथ हनुमान् गच्छन् ६ व्रणसंरोहणं शल्या० ७ व्रतं भरतमाताऽपि ८ श शक्तिप्रहार सहते शक्तिशल्योद्धरणाय शक्रो निन्ये मेरुमूर्ध० शतत्रयं मण्डलित्वे शतबाहुरहं नाम्ना शतबाहुसहस्रांशू शत्रुघ्नजीव उत्पद्य शत्रुघ्नमत्याग्रहणं शत्रुघ्नमपि पादान्ते शत्रुघ्नमभिधानेन शत्रुघ्नोऽप्येवमवदद् मित्रेतृ शम्भुनाऽपि विमुक्ता सा १० शम्भुर्निहत्य श्रीभूतिं ११ १० २ २ शयानशयुनिः श्वास ० शरारि चिरं कृत्वा शल्यानि शङ्कवो बाणा० ७ शशंस चैव यन्मेरौ शशंस चोपयोगायाः शस्त्रखण्डैरुच्छलद्भि० शस्त्रमन्त्रास्त्रवैफल्य० ५ ४ ८ क्रमाङ्गः ६ २ २९६ ४८५ १४६ ९० ३०५ ३४० २४७ २४४ १०३ ६२ २६५ ४१ १३१ १०८ ३०२ १४४ २९५ २५५ २९५ ६४ २४४ ८ ६५ ११ २५ १० १८९ २ ३४५ २ ३६१ ८ १९२ ८ १६४ ८ ८१ २०५ १६२ ४८१ १८३ ३३५ २७ २७४ २५३ २७८ १५२ ९३ ६५ ६४ २३ १५२ ६६ १५९ २७६ ७४ २१६ ४७ सर्ग: श्लोकः शस्त्रास्त्र चिरं कृत्वा शस्त्रास्त्रकौशलेनोच्चै० ४ ७ शाखया रमणच्छुर्या ८ शाण्डिल्यस्याऽऽज्ञया सोऽपि २ शार्दूलकेतवः केचित् शिलायां पद्मिनीखण्ड० शिलीमुखानग्निमुखा० शीघ्रवेधी दशरथो शुकमङ्गनकाम्बोज० शुचिः पुष्पामिषस्तोत्रै० ११ ४ ४ शुद्धान्ते विटसुग्रीवः ६ शुभप्रदा रजोरूपा २ शुभेन परिणामेन ८ श्रुत्वाऽञ्जना जनमुखा० श्रुत्वा तद्रुदितं रत्न० श्रुत्वा धर्म च तत्पार्थे ६ १० ८ ३ शून्यदत्तदृशं शून्य० शून्येभ्य इभ्यवेश्मभ्यो ५ शेफाल्याः कुसुमानीन्दुः ६ शेषेकमूलमुशल ७ शोकेन तेन वैदेही श्रमस्थानेऽपि हि तयो० श्रावकत्वं चिरं सम्यक् श्रावकत्वं पालयित्वा श्रावकत्वं पालयित्वा श्रावकाणां लक्षमेकं श्रावस्त्यां च तदा राजा १ १ १ १ श्रीकण्ठं कीर्तिधवलो श्रीकण्ठतो वजकण्ठा० श्रीकण्ठपद्मयोस्तत्रै० श्रीकण्ठस्य सुतो जज्ञे श्रीकण्ठेनैकदा मेरो ० श्रीकण्ठोऽपि द्रुतं कीर्ति०] १ श्रीकान्तनाम्ने चाऽऽढ्याय १० श्रीचन्द्रो नाम भुक्त्वा च १० श्रीदामाख्याऽथ तद्राज्ञी ८ श्रीधराकुण्डले ते च ५ श्रीनन्दनो ययौ मोक्षं ८ श्रीमत्यरिञ्जयपुरे २ श्रीमत्यां तस्य कान्तायां १ श्रीमालायां च किष्किन्धे १ श्रीमालां समुपादाय श्रीशान्तिनाथ भगवन्! ७ श्रीशैलोऽपीवर्षेण श्रीसीमन्धरनाथस्य श्रुतद्वचनो वेगात् श्रुतधर्मौ च तत्पार्श्वे श्रुत्वा केतुमती तच्च श्रुत्वा च तं तथोन्मत्त० १ ६ ३ ४ ३ १० श्रुत्वा चाऽमी समायाताः ८ ५७ १६५ १६६ १६६ २६८ ७१ ६४ ६१ १३८ ९३ ४० ३०५ ३१९ १२६ १९९ ४६ ३९९ * १० ८१ ११ १०७ ५ ३३६ १ २५ ४२ २४ ३६ १२ १७ २१ क्रमाङ्क: ६ ४ १० ३७८ २०१ १३३ ४८२ ५० १२५ ७२ २१८ ६३५ ८ ९० ७७ ३३१ ३७७ १३७ २५२ २१३ २३४ १५४ २९९ ६५ ३ ५ ४४५ ४ २३० श्लोकः श्रुत्वा पुत्रवधोदन्त०] १ श्रुत्वा बिभीषणस्तत् तु ४ २ श्रुत्वा ब्रह्मचिस्तत् तु श्रुत्वा विपरिणम्याऽऽशु १० १० ५. १० सर्गः क्रमाङ्क: श्रुत्वा सन्नह्यतस्तांश्च श्रुत्वा स्वसृपतिस्ते तु श्रुत्वेति तद्वचो लोको श्रुत्वेति राम्रो द्वाःस्थेन श्रुत्वेत्थं लक्ष्मणोऽगच्छत् ५ ११ श्रुत्वेमां देशनां भ० श्रुत्वैवं सह तेनैव श्रेणिद्वयं वशीकृत्या० दशमुखेन श्वेतसजमार्ण श्वेतांशुकभूतो याम० स 6) १० ३ ष षट्खण्डां बुभुजे पृथ्वी० १३ षष्ठ्या द्वादशशती ११ षष्ट्यब्दी गुरुपादान्ते १० षोडशाऽन्तःपुरवधू० ८ स गच्छन्नभसाऽपश्य० स गत्वा द्वाःस्थविज्ञप्तः स गत्वा वालिनं नत्वा सगरस्याऽऽज्ञया द्वा: स्था सगरस्याऽपि नगरे सुलसायुक्तं सगरोऽप्यादिशद् विश्व० सङ्कल्पयोनिनाऽनेन सङ्क्रुद्धौ मातुलचमू० सजीतपुरनाथस्य सचन्द्रहासं मामूढ्वा सचन्द्रहासं लङ्केशं स चाऽपि साहसगति० सज्वालयितुमारेभे सञ्चेरतुः सदस्याना० सञ्जातजातिस्मरण: सञ्जातजातिस्मरणा० mr xx स इन्द्रो मालिना लोक० १ सकलं वासरं पत्या ३ सकलेऽपि जगत्यस्मिन् ६ स काञ्चनप्रभाराज्ञी ० ८ स कामबाणैः सद्योऽपि ५ स काममिति जल्पन्त्यो० २ स किं त्वया प्रहसित! ३ सकुटुम्बं दशग्रीवं ६ ८ स क्रन्दन् पथि दृष्टश्च सखे! गत्वा शंस पित्रो० ३ सखे! सुग्रीव! हनुमन्! स गच्छन्नन्तराऽपश्य० ७ ४ ६ ७ २ २ २ २ २ ११ ९ २ २ ४ ४ ७८ १४० ५०७ ५७ १०१ ४१८ ६२ ४२ २४८ ९६ २९ १०७ ३०३ ३६९ २७ २६ १०५ १८२ २४८ १२७ ८१ २७९ १९७ ८१ ३६ २३५ २३० २०० २३१ २३५ ९ २३७ ३०९ १८८ ४५८ ४८३ ५०० ४६८ ८४ ५५ २६३ २४३ २१८ २८८ ४०३ १९५ ४०९ ३० Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० ३५९ ७९ 2MR १२६ ५९० २८७ ११ १५ १३७ २२ x २४० ३८५ श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः माङ्क: सञ्जातजातिस्मरणो ५ ३२९ स प्रविव्रजिषुः पित्र० ८ १४० सर्वथा दोषवत्येषा ३ १४७ सञ्जातप्रत्ययास्तेऽपि ६ २१६ सप्रहासं दशास्येन २ ५६२ सर्वथा स्त्री विना नार्थ १५७ स तया घटयामास २ ४१४ स प्राग्वैराज्जातरोषो सर्वविद्याधरेन्द्राणा० ३ २३९ स तौ शिरसि चुम्बित्वा ९ १०६ स प्राप्तयौवनः सर्व० २ १८५ सर्वं पुरुष एवेदं ४९० सत्कृत्य पृष्टो रामेण ८ ६९ स प्रेयस्या: पद्मवत्या १३३ सर्व विशल्यावृत्तान्तं ७ २९९ सत्यभूतिं चन्द्रगतिं ४ ३९० स भव्याविति तत्पुत्रौ ९ ४६ ।। सर्वासामेव राज्ञीनां सत्यभूति महर्षि तं ३९१ सभायाममिलन सभ्या० २ ४४१ सर्वेषां व: स्वबन्धूनां १० १४६ सत्यवादीति स प्राप ४०८ सभायां यावदासीन० २ ३३९ सर्वेषु रम्यस्थानेषु १७२ सत्यश्रिया च त्वत्पत्न्या २ सभ्यीभूतस्ववीराणा० ७ सौजसाऽऽकुलीकृत्य ३ २९७ सत्येन तुष्टाः सान्निध्य० २ स भ्राम्यन् प्राप तत्रैव ३ २६७ स लब्धप्रसरोऽकार्षी० २ ४९४ स त्रस्यत: कपीनूचे समन्तात् तस्य सामन्ता ५ सलोकपाल: सानीकः १ सत्रोटिनखकोटीभि० ५. समन्तादन्तरीपाणि २ ३०९ स वित्ताभरणादीनि स त्वां प्रत्यापतन्नस्ति २ समयेऽङ्गीकृतराज्य: ७५ स विपद्य समुत्पेदे स ददर्श पुरीं तां च ५ समये प्रावृडम्भोद० १८७ स विपद्याऽभवत् कल्पे ६ स दध्याविति मन्येऽस्यां २ समर्थः प्रेष्यतां तत्र २१९ स सर्वान् साधयामास १ । १०४ सदा दिदेव द्यूतेन ८ १४४ समर्प्य गुरुरस्माक० ३९१ स सागर इवाऽगाधो ११ सदा य: रक्षितानां ९ समस्तवानराधीशं ३४७ ससीतोऽध्यास्य भुवना० ८ ४५ सदा विमृश्य कर्तुस्ते स महारक्षसे राज्य ससुग्रीव: प्रतस्थे च १०६ सदृक्षपुत्रलाभेन ९ १६२ समं च लङ्कासुन्दर्या ६ ३०८ स स्कन्दककुमारेण ५ ३४० सद्यः प्रहस्तं नीलोऽपि ७ समं तत्पितृभिर्विद्या० २ ९३ सस्नेहमिति तेनोक्त० १ ३० सद्य: सरणरणक: ८ समं राक्षसनाथेन ३ ५२ सह विद्याधरैः सूनुं ३ सद्य: संवेगमापन्नाः १० १०४ समं राज्ञीसहस्रेण ३१८ स हस्ती परितोऽधस्ता० २ ६१९ सद्यः सिंहोदरोऽकुप्य० ५ समं विदेहया देव्या सहस्रकिरणे राज्य० २ ३४६ सद्यो गन्धाम्बुम्भिस्तेन ७ २६७ समं श्रियेव कैकेय्या १७० सहस्रयोधिभि: पुम्भि० ५ ३५२ सद्योऽपि देवा: समव० ११ समं सुतैः स्नुषाभिश्च ३५४ सहस्ररश्मि ऽप्यस्मि ३ सद्योऽप्यपास्थ मन्दाक्ष० २ समाकृष्य स्नसां तन्त्रीं २ २६७ सहस्रं तेऽपि राजानः ८ १५० सद्यो भामण्डलो भूते० ४ २९९ समासहस्रत्रयमायु० १३ २९ सहस्रार: सदिक्पालो २ ६२३ सद्यो मुमूर्छ काकुत्स्थो ९ २३२ समुत्पतन्ती सा शक्तिः ७ सहस्रारः सहस्राक्ष. १ १०१ सद्यो रुदन सोऽप्यवादी० ३ २०० समुद्रसेतू राजानौ ७ ७ सहायातमपि त्यक्त्वा २ ६३८ सद्यो रूढप्रहारेण २६८ समुद्रोपरि शब्दोऽयं ५ सहिष्यसे शक्तिघातं ५ २५० सद्यो रोमाञ्चिततनुः १५७ समुद्रोऽपि हि रूपाभि० ७ सहैवैरावणेनेन्द्र ६२१ सद्यो व्यसनवेलाया २७३ सम्पद्यापदि चाऽन्यो० २ संवृद्धिजृम्भणी सर्वा० २ सनदीकमिव क्वाऽपि ९३ सम्पद् विस्तारमापन्ना ११ संस्मृत्य किं ममाऽऽगस्तत्६ १९७ स नागपाशबन्धोऽपि ३८७. सम्पूर्णचक्रवर्तिश्री० २६ संहृत्य शारभं रूपं ३ १९२ सनिदानं तपः कृत्वा ५४६ सम्प्राप्तयौवनायाऽस्मै १ १०३ सा कालेऽसूत हेमाभं १२ सन्देशहारकेणाऽपि सम्प्राप्तयौवनो रत्न० १ साकेतपुर्यां माहेन्द्रो २६६ सन्धानं वज्रजजेन सम्भ्रमाद् रामसौमित्री ८ १०९ साकेतमन्यदा मासो० ४ ३९ सन्धेहि वज्रकर्णेन सम्मेतयात्राचलितं १० साक्षेपं पर्वतोऽजल्प० २ ४२४ सन्नह्यन्ति स्म युद्धाय सम्मेते वन्दितुं चैत्या० ५ साक्षेपं लक्ष्मणश्चोचे १४१ सन्नह्य वालिराजोऽपि २ सम्यक्त्वं नियमांश्चाऽथ ३ साऽगच्छदागमदथ६ १५८ सन्नह्य समधावन्त ४ १४८ सम्यग्दृष्टिं न्यायवन्तं २ साग्रषोडशधनु:समु० १ १६४ सपदि जय जयेति ३७७ स यक्षोऽकृत तत्रैव २ ७० साऽग्रेऽधुना च निर्दोषा ३ २४७ स पापां गतोऽन्येधु० ५ स यमं हेलयाऽभाङ्क्षीत् २ ५८८ साऽऽचख्याविह सायासी०३ २२८ स पित्रा दुर्विनीतत्वात् ८ सरसाऽपि भवं भ्रान्त्वा ४ साञ्जनं तं समायान्त० ३ २६८ स पुण्डरीकविजये. ७५ सरसाविरहादा” २१८ साटोपमिति जल्पन्तो ४ १६० सपुत्रादिपरीवारो सरसो लूनपद्यस्य २ सा तु व्याघ्री विद्युदिव ४ सप्तत्रिंशत्सहस्राणि १८१ सरस्यपश्यन्मजन्ती० २ ८६ ।। साऽथ पर्वतकापाय० २ सप्तर्षीणां प्रभावेण २३१ सर्वत्र कलगीतानि ४ । सा दत्तबुद्ध्या रमण० ८ १३२ सप्तहस्तसमुच्छायं २ १३४।। सर्वथा गच्छ माताऽसि २ ५३८ साधयित्वा स्वयं गङ्गां १३ २२ स प्रवव्राज विजय० सर्वथा त्वं गुरु: स्वामी १० ४४ साधु केतुमति! कुल० ३ २९३ " m २१ १३३ ७० २८१ (६६ १७१ १४३ २३६ १० ३७३ १५४ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः २० २२१ د د د د د १३३ ८४ २२६ २५४ २०४ ४८ १२६ ३३५ १६८ ६३ २५४ ४०७ ११४ २१२ ८ १६३ १४० Om w ro go omaw w or wo or ma w w raram a vam Momr mowmro २७५ ३४२ २१५ श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः साधुनाऽनन्तवीर्येणा० ६ २१३ साधुभिर्वार्यमाणोऽपि ८ २५ साधु साध्वित्यभूद् वाणी २ साधूनां प्रत्यनीका सा ४ साधूपसर्ग साधूना०६ २५८ सान्त:पुरपरीवारौ साऽपि गद्गदवागूचे ४ ३६४ साऽपि प्रातरपश्यन्ती ५ १०० साऽप्याख्यत् त्वयि यात्रा ३ २२४ साऽप्याचख्यावत्र पुर्या० ५ १५० साऽप्युवाचेति तत्कृत्यं ३ साऽप्यूचे देवतारूपा ७ २९४ साऽप्यूचेऽद्याऽपि मेऽरण्य०९ १७८ साऽप्यूचेऽवन्तिराजस्य ५ ४०१ साऽप्यूचे साध्वकार्षीस्त्वं ५ २७७ साप्रोचे प्राञ्जलिर्भूत्वा ५ सामन्तः पुनरप्यूचे ७ ३१४ सामन्ता: सह सामन्तैः २ सामन्तो बालचन्द्राख्य० ४ सा याच्चाखण्डनात् पुत्र०५ सार्थवाहो विन्ध्यमाना० ७ सार्धेवर्षसहस्र द्वे ४१ सार्पवारुणमुख्यानि सा लज्जानम्रमख्येवं ३ १२७ सावज्ञं तान् स वन्दित्वा ८ सावज्ञाय तदस्त्रौघं ७ साऽवादीद् दीयतां पुत्र० २ साऽवोचद् वासुकेौलि०५ सा व्याघ्री शीघ्रमभितौ ४ साश्चर्यं पश्यतां तत्र ५। साधुम्लानमुखं तं च ८ सा सत्यश्रावणां चक्रे ४ सा समायातु विद्यां ते २ ५६७ साऽसूत च वने तस्मिन् २ १८४ सा हनूमन्तमित्यूचे ६ २७७ साहाय्यका) सुग्रीव: ६ ७८ साहाय्यस्य न योग्योऽसि ६ साहाय्यार्थं त्वयाऽऽहूतो ६ सांसारिकसुखास्वाद० ४ सिद्धविद्यासहस्रस्या० २ सिद्धाज्ञया निषिद्धश्च सिद्धार्था शत्रुदमनी २ ६८ सिंहचन्द्र इति ख्यातो १६९ सिंहद्विपाश्वमहिष० १ सिंहनादं च तं श्रुत्वा ५ सिंहादिरूपैर्विकृतै० १० २४६ सिंहासनात् समुत्थाय २ ३४० सिंहिकाया उपरिष्टात् ४ सिंहेन्द्रदत्तयोः सोऽपि ८ २०४ सिंहोदरमहिष्या: श्री० ५ २२३ २६७ २१८ ४३२ सिंहोदरं श्रीधरेति सिंहोदर: ससैन्योऽथ ५ सिंहोदरोऽथ दूतेन सिंहोदरोऽपि परया ५ सिंहोदरोऽपि प्रत्यूचे सिंहोदरोऽवदद् देवि! ५ सीताकुक्षिभवौ पुत्रौ ९ सीता च रूपलावण्य० ४२० सीता च ववृधे सार्धं ४ सीताचूडामणिं तं तु ६ सीता त्वधिजलं पद्मो० ९ सीतादेव्या नमश्चक्रे सीतादोषपदं तच्च सीतानिमित्तो क्ष्विाका०६ १८० सीताऽनुनीताऽवश्यं हि ६ सीता पराङ्मुखीभूये० ६ सीतापहारात् सौमित्रि० ७ २३६ सीतापहाराल्लङ्कायां ६४ सीताऽपि वनवातेन ८ ३१७ सीताऽपि सदनं गत्वा ८ सीताऽपि सद्यो रुदती ९ ८८ सीताऽप्यवोचदा: पापे! ६ ३३९ सीताऽप्युल्लोलमम्भस्तत् ९ २१७ सीताऽप्युवाच निःशोका ४ ४६० सीताऽप्यूचे दोहदो मे ८ सीताऽप्यूचे न ते दोषो ९ सीताऽप्यूचे प्राप्तशुद्धिः ९ सीताऽप्यूचे मया दृष्ट: ८ २५९ सीताप्रवृत्तिमानेतुं ६ सीताप्रवृत्तिमानेतु० ६ सीताप्रवृत्तिर्न प्राप्ता ६ सीता प्राणप्रियाऽग्रेऽपि सीताप्राप्तौ विमुक्ताशो ९ सीताभामण्डलयोश्च ४ सीताभिलाषजं तापं ४ ३७७ सीतामुपाययौ रामो ९ २२५ सीतामोक्षाय जल्पंश्चा० ७ सीताया रुदितं श्रुत्वा ९ सीतायाः कश्चिदाचख्यौ ७ सीतायाः प्रेक्ष्य तद्देवाः ९ सीता रक्ता विरक्ता वा ८ २८४ सीतारक्तेन तेनेयं २९२ सीतारूपं च सीतेन्द्रो १० २२० सीतार्पणेन निर्वाद १८९ सीता वो ह्रियतेऽनेन ४४४ सीतासौमित्रिसुग्रीव सीतास्वयंवरायाऽथ ४ सीता स्वहस्तलिखितं ८ २६२ सीताहरणमाकर्ण्य ६ सीताहरणवृत्तान्तं ६ २२९ सीतां त्वत्तोऽन्यथाकार०७ सीतां मोचयितुं सोऽपि ६ सीतां यथा दोषभीतो १० सीते! त्वमेव धन्याऽसि ६ सीतेन्द्रवचनैस्तैश्च सीतैकदा ऋतुस्नाता ८ सीतोदन्तेन तेनाऽथ ६ सुकोशलोऽपि तच्छ्रुत्वा ४ सुखं वैषयिकं ताभि० ४ सुगुप्तर्षिरथाऽऽचख्या० ५ सुग्रीव इति चाऽन्योऽभू०२ सुग्रीवद्वितयं दृष्ट्वा ६ सुग्रीवप्रतिपन्नाज्ञः २ सुग्रीवहनुमन्मुख्या सुग्रीवादिभिरासक्तो सुग्रीवाद्यैः खेचरैर्मा० ९ सुग्रीवेण पद्मरागा ३ सुग्रीवो दलयामास ७ सुग्रीवो न्यञ्चितग्रीव० सुग्रीवोऽपि स्वयं गच्छन् ६ सुग्रीवोऽप्यब्रवीदेते ७ सुग्रीवोऽप्यब्रवीदेवं ७ सुग्रीवोऽप्येवमूचेऽस्मिन् ६ सुग्रीवो भामण्डलश्च १० सुतस्नुषे अपश्यन्तौ ४ सुतां नाम्ना तडिन्मालां २ सुदर्शनमुनेस्तस्या० सुदर्शना तयोः पूर्व० १० सुनन्दरोहिणीपुत्रौ सुपार्श्वकीर्तिस्तु मनो० ८ सुप्तेष्वस्मासु सदनो० २ सुप्रभाद्यैर्नृपैः शक्रा० ११ सुबन्धुतिलकस्याऽथ सुभटा मुद्राघातै. सुमालिप्रमुखास्तत्र २ सुमित्रामन्यनाम्ना च सुमित्रो राजपुत्रोऽभू० २ सुरनन्दः श्रीनन्दः श्री० ८ सुखभमथाऽऽपृच्छ्य ५ सुलसाऽपि हि तच्छिक्षां २ सुवसुर्नवमः सूनु० २ सुवेलं नाम राजानं ७ सुशर्मा ब्राह्मणी साऽपि सूदोऽप्यमार्यां घुष्टायां ५ सूनवो द्वे शते सार्धे ८ सूनवोऽन्येऽपि दोष्मन्तः ७ सूनुः सिंहरथस्याऽभू० ४ सूपकारं च पप्रच्छ सूरोदयोऽपि तत्रैव सूर्यञ्जयेन पुत्रेण २१२ १०२ ६७ २३३ १८९ २५२ ३८७ ४४ १२३ २२ ३७९ १२४ ५२२ २१६ २०२ ३२२ ४६७ ४५३ ur or33 ०० ५५ < १०६ ९३ ११७ ४१४ २४ < Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ३१९ omm २२६ GG.. ००० ५३० ३०२ oor,03mm mrrorm orm mm ४९ WWW. m v mo ४८ श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः सर्गः क्रमाङ्कः सेतुबन्धेन रेवायां २ ३१७ सोऽहिः पुराभवे क्षेम० १२० स्वनायकान् प्रशंसन्तो ७ सेत्यूचे तव सिद्धाऽस्मि ७ ३५० सौत्रामण्यां विधानेन २ ४८५ स्वपत्तीन् मोचयामास २ १४८ सेत्स्यत्येतन्मया तत्रे २८८ सौधाग्रस्था सहदेवी ४० स्वपुत्रे त्वदवज्ञाया० १२५ सेद्धकाम: सूर्यहास: ५ ३८४ सौमित्रये च ताडङ्के ५ स्वप्नादनन्तरं तस्मा० १ १४६ सेनानीरपि सम्मेत०८ ३०७ सौमित्रये वज्रको स्वप्रतिज्ञामिति श्रुत्वा २ ३६० सेनानीरभ्यधाद् दूरे सौमित्रिमूर्छाविधुरो १४० स्वभर्तुरनुयानेना० ४५९ सेनान्या साधयामास १२ २४ सौमित्रिमैथिलसुता० स्वभावादप्यसद्दोष० सेनान्योद्घाटितां खण्ड० १२ सौमित्रिरेकवारं चेत् स्वभ्रातृवनवासेन सेनापुरे त्वं वणिजो ४ ३९२ सौमित्रिर्जीवित इति स्वमित्रं पोतनपतिं सैका हृदि दृशोरग्रे ९ ३४ सौमित्रिर्नागपाशास्त्रं स्वयमारुह्य युद्धाया० २ सैन्याः सैन्यैः समं सेना० २ १५१ सौमित्रिर्मारितोऽद्येति २५६ स्वयमुद्घाटितोदीच्य० १२ सोऽकामनिर्जरायोगा० ७ २७१ सौमित्रिवपुरालिङ्ग्य स्वयम्भूर्दुर्मतिं शम्भुं ७ १९६ सोऽङ्कुशाय ययाचे तु ९ सौमित्रे वनोद्वाहो० स्वयं दशास्यस्तत्राऽगा० २ सोचे गोकर्णयक्षेण ५ १४७ सौमित्रेर्वाहनीभूतं ७ १७२ स्वयं दुःख्यपि तद्दुःख० ६ सोच्छ्वास: सप्रजो राजा ४ १९० सौमित्रेर्विक्रमं दृष्ट्वा ७ स्वयंवरस्रज रामे ३४७ सोत्कण्ठस्तत्र चैत्यानि २ ५५० स्कन्दकाग्निकुमारोऽपि ५ स्वयं वेतालरूप: सो० ५ २६७ सोत्कण्ठैरुन्मुखैः पौरै० ८ ८५ स्कन्दको देशनां चक्रे ५ ३५० स्वर्गं यास्यत्यसौ ताव० २ सोऽथ क्रौञ्चरवातीरे ५ ३८० स्कन्धे स्त्रीमृतकं न्यस्यो० १० १७० स्वर्णस्तम्भमवष्टभ्य १० सोऽथ तस्यां कृतस्नानो २ ३०३ स्खल्यमाना विरहिभि० ६ स्वसतीत्वज्ञापनाय ४ सोऽथ सम्पूर्णचक्रिश्री० १३ २५ स्तुत्वेति शान्तिं लङ्केश: ७ स्वस्थावस्था तद्गिराऽस्थात् ७ सोऽथ स्वयं वशीचक्रे १३ स्त्रीरत्नमपहृत्येदं ५ ४०३ स्वानुपद्रूयमाणांस्तु २ सोऽदात् तस्मै नमस्कारं १ स्त्रीराज्यमिव तत्सैन्यं ५ स्वान्यशक्ती न जानीतो २ सोदासनृपते राज्ये० ४ स्त्रीवेषमथ सञ्जहे ५ २२३ स्वामिनौ वृषभस्वामि० ५ सोदासमपि ते प्रोचु० ४ स्त्रीशस्त्रेणाऽपि चेत्कामो ११ स्वामिन्नवश्यविज्ञप्यं ८ सोदास: प्राहिणोद् दूत० ४ स्थाने तत्राऽगमद् रामो ८ स्वामिन्निशेयमगम० ७ सोदासेनाऽपि चाऽन्येधु० ४ स्थापयित्वाऽध्यय:पीठं ४ स्वामिन्! पुण्यानुबन्धीनि ११ ६३ सोदासे राज्यमारोप्य ४ स्थित्वोपचितं पवनः ३ स्वामिन्! मा विषीद किञ्चि०२ सोदासोऽथ सिंहरथं ४ स्नपनान्ते जगन्नाथ० ११ स्वामिन्येषोऽस्मि मा भैषी०५ सोदासोऽपि सिंहरथं ४ स्नातुकाम इव व्योमा० ६ २८१ स्वामिन्! विना हि सुग्रीव० ७ सोदासोऽपि हि तन्मांस० ४ स्नात्रं श्रीशान्तिनाथस्य ७ ३२८ स्वामिन्! सह व्रतादान० ४ ४३४ सोदासोऽपि हितं धर्म० ४ स्नात्राम्भ: सौविदल्लेन ४ ३५६ स्वामिन्! स्मरसि योऽदत्त०४ सोदासोऽप्यवदत् सूदं ४ स्नात्वा भुक्त्वा च लकेशो ७ स्वामी तरुतलासीनो ६ १८८ सोऽद्य ते राज्यदानेन ४ स्नुषान्वेषणहेतोश्चा० ३ २५६ स्वां सत्यापयितुं सन्धां ४ सोद्यौवनान्यदा साधु १० ५५ स्नेहत: कातरो मा भूः २ स्वेच्छयैव वरादानं सोऽनमस्यद् रामभद्रं ५ स्नेहा भरतशत्रुघ्ना० ४ स्वेच्छादुर्ललितैर्मे चा० ८ सोऽन्यदा गोकुलंगच्छ० १० स्पष्टधाट_मिदं कर्म ४ ७६ स्वैरं भ्रमन् सोऽन्यदा तां १० ३४ सोऽन्यदाऽध्वनि यान् राज०८ १९३ स्फीतेऽन्धकारे नि:शङ्का ६ सोऽपि देवस्तयोस्तेजः ५ २६९ स्मस्तस्य कन्याः कुसुम०६ २६० हतबद्धपरीवारो सोऽप्यभ्यधाद् दशास्येन ६ २०० स्मारं स्मारं स्वबन्धूना० ७ २५९ हतविद्रुतमेवं च ११९ सोऽप्ययोध्याधिपो दध्यौ २ ३५९ स्मित्वा च लक्ष्मणोऽवोचद् ६ हतश्चेभो रणे सोऽथ ४०८ सोऽप्याख्यन्मम निर्वाणे ५ ३१३ स्मित्वा चोवाच सौमित्रि०६ २३ हत हतैतान् कुमारी० सोऽप्याचख्यौ भविष्यन्त्या ४ १३० स्मित्वा जटायुरप्यूचे १० १६७ हतं च भ्रातरं दृष्ट्वा ८ सोऽप्यूचेऽवन्तिदेशेऽस्मिन् ५ स्मित्वा पद्मोऽप्युवाचैवं ७ ३४३ हतः पुत्रो हतो भर्ता सोऽभ्यषिञ्चच्च तां मूर्ध्नि ४ ३६६ स्मित्वा सप्रश्रयं सोऽपि ६ ३५७ हते मालिनि वित्रेसू० सोमवंशे मम भ्राता २ ४६३ स्मित्वा सीताऽप्युवाचैवं ६ ३६० हते वज्रमुखे लङ्का० सोमाद्यैर्लोकपालैश्च १ ११९ स्मित्वा सीताऽप्युवाचैवं ९ १८६ हनुमन्तं समायातं सोऽवधेर्धातरं ज्ञात्वा ८ स्मृतः श्रुतः स्तुतो ध्यातो ११ हनुमन्मालिनौ वीरौ सोऽवोचद् देव! कौशाम्ब्यां ५ ११२ स्मृतिमात्रोपस्थितायां ७ ३६६ हनुमानप्यवर्धिष्ट २१८ सोऽवोचद् विस्मितं रामं ५ स्मेरपङ्कजकोशेभ्यो ६ ३१३ हनुमानप्युवाचैवं २२६ सोऽसाधयज्जातबलो ८ २०५ स्वनामाख्यानपूर्वं च ८ ४३ हनुमानप्युवाचैवं २३५ ००४mmym २६१ ३४५ २४२ २६ १०५ १५९ १०० ४२३ ३५४ ४४५ ५९५ ८५ २०६ २९७ ३१८ १२ १८७ w or w २७३ n २८८ o २८ १०१ on w १४१ w Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकः सर्गः क्रमाः ३९४ १५८ ९९ २७९ ३७३ ३७० ३८४ ३५४ ११४ १८२ ४०५ १५३ १६५ १५८ ३० १५० १२४ हनुमानप्युवाचैवं ६ हनुमान् कुम्भकर्णेन हनुमान् राक्षसानीक० ७ हनुमान् ववृधे तत्र ३ हनूमत: पश्यतोऽपि हनूमता क्रियमाण हनूमति स्खलन्ति स्म ६ हनूमदस्त्रक्षुण्णाङ्गाः हनूमदुपरोधेन हनूमन्तं प्रव्रजितं १० हनूमन्तं समायातं हनूमांश्च गदापाणिः हन्त मृत्यभयान्नाऽहं हन्तुं स्वमित्रहन्तारं हन्यतां गृह्यतां चैष हरिवाहणमुख्यानां हरिवाहणमुख्यानां हरिवाहणमुख्याश्च हरिषेणस्य कौमारे हर्षस्थाने विषादोऽयं ९ हले! किमिदमाचारी: ३ हले! मुक्त्वा वरं विद्युत् ३ हसित्वा बहुधा पौरै० २ हसित्वेषत् प्रहसितो ३ हस्तप्रहस्तनिधना० ७ हस्तो नलश्चाऽऽदितोऽपि ७ हंसद्वीपे दिनान्यष्टा० ७ हा नाथ! विद्विषन्माथ! ५ हा पद्म! पद्मनयन! १० हा राम! वत्स सौमित्रे! ६ हा वत्स! कुम्भकर्ण! त्वं ७ हा वत्स! जम्बुमाल्याद्या ७ हा वत्स! लक्ष्मण! क्वाऽगा०७ हा सीते! निजरेऽरण्ये ६ हिरण्यगर्भ: स्वेऽपश्य० ४ हुताशनमयान्येव २ हता विद्या दशास्येन ६ हृदयं जातुचिद् दत्तं हृदेव सुहृदा तेन हृद्यं जगौ च सौमित्रि० ५ हृष्टेनेन्द्रजिता निन्ये ६ हृष्टोऽथ स्वसुतां सीतां ४ हे लोकपाला! लोकाश्च ९ हेलोत्पाटितकैलासो २ हियाऽवगुण्ठितमुखी ५ ४५४ २०३ २५० ३९ ५५३ १९८ ५६४ ८८ २६५ ३८८ २८८ २०९ ५८५ १८४ For Private & Personal use. Only Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। द्वितीयं परिशिष्टम् ॥ ॥ पञ्चम-षष्ठ-सप्तमपर्वगतविशेषनाम्नां सचिः ।। श्लोकाः श्लोकाः पर्व सर्गः नाम प्राग्विदेह ६ २ भारत ३ भरत ४७२ ४०० १५३ २८ १३३ WU भरत प्राग्विदेह भरत २४४ २२ ३५४ २४० २६६ १७ १८१ ७ पर्व सर्ग: नाम ६ ६ इन्द्रकुब्ज सहस्राम्रवण नीलगुहा यमुनोद्वर्त ७ १ कुसुमोद्यान ' नन्दन मनोरम नन्दन देवरमण देवरमण माहेन्द्रोदय ८ कुसुमायुध ९ माहेन्द्रोदय ११ सहस्राम्रवण कुक्कुट ५ ४ वज्रतुण्ड क्षेत्र अपाग्भरत उत्तरकुरु पुष्करवर भरत महाविदेह पूर्वभरत प्राग्भरत प्राग्विदेह ऐरावत प्राग्विदेह भरत ऐरवत पश्चिमविदेह पूर्वैरवत प्राग्विदेह पर्व सर्गः नाम श्लोकाः अटवी-अरण्य-वन ५ १ नन्दनवन भूतरत्नाटवी २ अशोकवनिका ३७४ नन्दनवन ४१२ पाण्डक १७९ भूतरत्नाटवी १६९ भद्रशाल ४१ पाण्डक भीमारण्य भूतवन ४ दण्डकारण्य ३२२ विन्ध्याटवी १०१ दण्डकारण्य १५२ सिंहनिनादक ३०९ १३ मनोहरवन अनशन ५ १ पादपोपगम ४८९ अलङ्कार ७ १ हार १५३ ५ चूडामणि १६६ स्वयम्प्रभ(हार) ऊर्मिका २३२ चूडामणि २३२ आसन ६ ८ मण्डूकासन ८३ उद्यान ज्योतिर्वन २४० देवरमण ८४ सूरनिपात ४८ देवरमण १९३ षतुक १२५ रतिनन्दन ४०४ सहस्राम्रवण २८४ सहस्राम्रवण ७० सहस्राम्रवण ४९ ६ अशोकवनिका अपरविदेह भरत अपरविदेह भारत हरिवर्ष पूर्वविदेह भरत १ भरत २ धातकीखण्ड भरत ३ भरत उत्तरकुरु पूर्वविदेह प्रत्यग्विदेह भारत ७२ ३९६ ya १३६ ० moror Morn भारत १६५ ३५९ २५२ अपरविदेह भारत विदेह १०८ or देवकुरु प्राग्विदेह भरत or हरिवर्ष ११६ भरत ovo M० ११ प्रत्यग्विदेह भारत १२ भरत १३ ऐवत गज ५ ४ काश्चनकलश ताम्रकलश ऐरावण २ भुवनालङ्कार ७ भारत ५ भरत ६ १ प्राग्विदेह भारत २ ऐवत ९४ ३७२ १०५ १३५ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकाङ्कः १३४ पर्व सर्गः नाम ७८ भुवनालङ्कार गणधर ५ ५ चक्रायुध ६ १ स्वयम्भू २२१ Mor wor ३६७ ११३ ५४२ ०० ६ भिषक् २४८ or or or orm or orF ८६ or Y oro Y N ६ ५४५ ७ ११ कुम्भ गीति-राग ५ २ जातिराग ध्रुवा(गीति:) गुहा ५ ५ खण्डप्रपाता तमिम्रा खण्डप्रपाता तमिस्रा खण्डप्रपाता तमिम्रा खण्डप्रपाता तमिस्रा चक्रवर्ती रत्नध्वज ३ वज्रायुध ५ भरत शान्ति ११५ ror Firror २४६ श्लोकाः पर्व सर्गः नाम श्लोकाः ४५ ५ ४ आचामाम्लवर्धमान २४५ द्वात्रिंशत्कल्याण २३९ सिंहनिष्क्रीडित ३५६ तापस ५ १ जटिलकौशिक ४०० धर्मिल १९२ ४ सोमप्रभ अग्निक जम जमदग्नि परशुराम राम नारद २४३ ब्रह्मरुचि ५०४ १६३ विश्वावसु श्रीकुमार ५४५ ८ चन्द्रोदय सूरोदय ११५ तापसी ५ १ पवनवेगा ४०१ ७ २ कूर्मी ५०४ ज्योतिर्मति ५४५ १०६ ५ ४ श्रीनदीतीर्थ ९४ ३२८ कोटिशिला ५४३ १०४ प्रभास मागध वरदाम प्रभास वरदाम २६५ अश्वावबोध १३९ २ भरतेश्वरचैत्य ७५ पृष्टरक्षित २३८ मेघरथ १२ अनन्ततीर्थ मागध तीर्थकर ५ १ अमितयशस् ऋषभ __३६० १ नाभेय शान्ति ३३१ २ शान्ति ३०१ स्वयम्प्रभ ३१८ क्षेमङ्कर ७५५ १४१ शान्ति ७३ पर्व सर्गः नाम ५ ४ अनन्त अमितवाहन घनरथ धर्मनाथ शान्तिनाथ कुन्थुनाथ शान्तिनाथ अरनाथ कुन्थुनाथ अरनाथ अरनाथ ऋषभनाथ वासुपूज्य अरनाथ अरनाथ मल्लिनाथ मल्लिनाथ मुनिसुव्रत शीतलनाथ ८ मुनिसुव्रत ७ १ अजित श्रेयांस सुव्रतस्वामिन् ऋषभ मुनिसुव्रत विमल ४ ऋषभस्वामिन शान्ति सीमन्धरनाथ चन्द्रप्रभ मुनिसुव्रत वृषभस्वामिन् ७ शान्ति ९ ऋषभध्वज ११ नमिनाथ मुनिसुव्रत ७ १२ नमिनाथ १३ नमिनाथ दास । १ कपिल ५ द्रोणक दासी ५ १ कपिला २ किराती बर्बरी oro.oror wr तीर्थ २६६ ३ १९३ १७१ morror or १४९ १३८ १३७ ४३ ७ ३१२ २२० २ अर ४ सुभूम ८ महापद्य २ भरतेश्वर ८ अचल १० त्रिभुवनानन्द सर्वरत्नमति १२ हरिषेण १३ जय १३४ ३२७ ६० JrYour तपः ३३१ ५ २ एकावलि कनकावलि धर्मचक्रवाल भद्र मुक्तावलि सर्वतोभद्र चान्द्रायण रत्नावलि ००० Nom २६५ mmmmmmm १३५ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्व सर्गः नाम ५ ५ प्रियङ्करा श्लोकाङ्क: २६७ २७८ श्लोकाङ्क: २०९ २७१ १६८ दूत २३८ ७ ५ अमृतस्वर उदित मुदित १८३ १८१ ३०८ ११६ पर्व सर्गः नाम ७ ७ धरणेन्द्र पवनपुत्रक महालोचन चमर धरणेन्द्र वेणुदारिन् शक्र सुनासीर १० अच्युतेन्द्र कृतान्तवदन जटायुष् सीतेन्द्र ११ अच्युत जृम्भक भृकुटियक्ष शक्र २०२ २०१ ५६ ५७ १६९ श्लोकाः पर्व सर्गः नाम ४१३ ५ ५ सारस्वत सौपर्णेय हिमवत्कुमार २७२ ईशान २७२ कृतमालक २७२ क्षुद्रहिमवत्कुमार गन्धर्वयक्ष नाट्यमाल ४४६ मागधेश ४९२ वैताढ्याद्रिकुमार ३०५ शक्र ४९२ सौधर्मेन्द्र बुद्ध ४४६ ब्रह्मन् यक्षेन्द्रयक्ष ३८० सौधर्मेन्द्र ११२ ४ धन्वन्तरिन् वैश्वानर ६ कुबेरयक्ष १४१ शक्र ऐरावणदेव २०४ किल्बिषिक २०४ वरुणयक्ष . २२८ २८९ २९२ ७ सामन्त देव-यक्ष ईशान दिव्यचूल धरणेन्द्र मणिचूल वैश्रवण शक्र चमरेन्द्र धनद धरण शक्र ___ अच्युतेन्द्र ईशानेन्द्र चित्रचूल मणिकुम्भ मणिकेतु लोकान्तिक विद्युदंष्ट्र शक्र हिमचूल ईशान ताम्रचूल कृतमाल ११२ २५१ २१ २३३ १९४ ७५ शक्र १२९ ६५ ४८ १५३ ७१ १७८ अब्धिकुमार भीमेन्द्र शक्र अनादृत २९ २८४ १६९ ईशान ५१८ सुरूप ३०४ . २० १६९ . २१० क्षुद्रहिमवत्कुमार नाट्यमाल प्रभासाधिपति मागधतीर्थकुमार वरदामपति वैताढ्याद्रिकुमार १३ कृतमाल नाट्यमाल प्रभासाधीश्वर मागधतीर्थकुमार वरदामपति वैताठ्याद्रिकुमार हिमवत्कुमार देवलोक-कल्प प्राणत सौधर्म अच्युत सौधर्म अच्युत ईशान ग्रैवेयक अच्युत ग्रैवेयक ब्रह्मलोक ग्रैवेयक ब्रह्मलोक अच्युत ग्रैवेयक ४९१ ३९६ ८० ४२१ १३५ स्वर्णचूल अच्युत अब्दमुख ईशान कृतमाल गरुडयक्ष नाग नाट्यमाल पयोमुच् मेघमुख मेघास्य लोकान्तिक वैताढ्याद्रिकुमार वैश्रवण ३७९ १९१ चमर जृम्भक धरण भीम महाकालासुर राक्षसेन्द्र शक्र मणिचूल अतिबल अनलप्रभ इभकर्णयक्ष गोकर्णयक्ष धूमकेतु महाबल महालोचन सुकेश सुन्दर २० २९८ १६३ ३७३ २७८ २४३ २०९ २०५ २१३ २६७ २६६ २२७ १५१ १३४ १३४ २८७ २४६ १६२ ९७ ७३ २९८ ३०९ २८५ ८९ २६७ ३७३ शक्र शङ्खपालयक्ष ४५९ २८५ १२ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५ श्लोकाङ्क: ६२ ३८९ ३८७ श्लोकाः पर्व सर्गः नाम ३७२ कोसल ६ ३ मगध कुरुदेश मगध वत्स ७ २ कुरुक्षेत्र २३२ चेदि अर्धबर्बर २१७ अवन्ति उत्तरापथ काम्बोज दक्षिणापथ ur MM m ५७ २५८ ३९८ २६८ ०० मगध २१४ मङ्कन २६८ शुक २९८ २८५ ५२१ १९० १४१ १७८ पर्व सर्गः नाम ६ २ ब्रह्मलोक ३ माहेन्द्र सहस्रार महाशुक्र ब्रह्मलोक सौधर्म प्राणत सौधर्म ७ १ माहेन्द्र ४ ईशान ग्रैवेयक ब्रह्मलोक महाशुक्र सहस्रार सौधर्म अच्युत महाशुक्र माहेन्द्र अच्युत ब्रह्मलोक सनत्कुमार ईशान ग्रैवेयक ब्रह्मलोक माहेन्द्र लान्तक सौधर्म १२ सनत्कुमार १३ शुक्र देवी-यक्षिणी ५ २ नवमिका ४ अतिरूपिका सुरूपा निर्वाणीयक्षिणी सिन्धुदेवी ६ १ गङ्गादेवी बलायक्षिणी सिन्धुदेवी धारिणीयक्षिणी ६ वैरोट्यायक्षिणी ७ नरदत्तायक्षिणी ७ ९ विद्युदंष्ट्राराक्षसी ७ ११ गान्धारीयक्षिणी देश ५ १ मगध om MG श्लोकाः पर्व सर्गः नाम ५ रुचकद्वीप रत्नद्वीप ४० ६ १ जम्बूद्वीप २ जम्बूद्वीप १११ ६ २ सिंहलद्वीप ५ जम्बूद्वीप ४९३ ६ जम्बूद्वीप ३८३ जम्बूद्वीप ८ जम्बूद्वीप ५३१७ १ नन्दीश्वर बर्बरकूल रक्षोद्वीप राक्षसद्वीप १७२ वानरद्वीप सिंहल २६८ जम्बूद्वीप धातकीखण्ड राक्षसद्वीप वानरद्वीप ७९ जम्बूद्वीप ४ जम्बूद्वीप धातकीखण्ड ५ कम्बुद्वीप ६ कम्बुद्वीप दधिमुख राक्षसद्वीप ७९ ७ हंसद्वीप ७९ ८ धातकीखण्ड १० पुष्कर ११ जम्बूद्वीप १३ जम्बूद्वीप नक्षत्र ५ ५ भरणि ६ १ कृत्तिका ४६१ २ पौष्ण रेवती अश्वयु ३५९ याम्य ७ श्रवण ५५ ७ ११ अश्वकिनी अश्वदेवत २२७ अश्विनी २३० नगर-ग्राम अचलग्राम आदित्याभ २०८ ३९६ ३२७ १९६ २५३ ४८ २३७ २९ ७९ अवन्ति अनल ऋष कालाम्बु कुन्तल नन्दनचारु नन्दिनन्दन भीम भूतरव लम्पाक शलभ शूल सिंहल १० कुरु १२ पञ्चाल १३ मगध द्वीप जम्बूद्वीप नन्दीश्वर जम्बूद्वीप धातकीखण्ड पुष्करवर जम्बूद्वीप नन्दीश्वर जम्बूद्वीप धातकीखण्ड पुष्करार्ध जम्बूद्वीप नन्दीश्वर ३७९ ३२३ ३२३ ३७५ १५५ ६२ ११८ २५२ १२ १२५ २५३ १९६ १९९ १०० Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ श्लोकाङ्कः ८१ ११० ३७२ 3 पर्व सर्गः नाम ५ १ कौशाम्बी चमरचञ्चा पद्मिनीखण्ड पुण्डरीकिणी पोतनपुर रत्नपुर रथनूपुरचक्रवाल श्लोकाः पर्व सर्गः नाम १४ ७ १ आदित्यपुर ४१ काञ्चनपुर काशी १११ किष्किन्धा कौतुकमङ्गल १४२ ज्योतिष्पुर पाताललङ्का पुष्पान्तक १३८ २५६ Nov १०८ विजय २०२ 3 » १४३ मेघपुर ४०७ १४० २५२ » ३५९ वीतशोका गगनवल्लभ त्रिपुर शङ्खपुर शिवमन्दिर शुभा श्रीनन्दनपुर किन्नरपुर रत्नसञ्चया विन्ध्यपुर शुल्कपुर श्रीसार सुमन्दिरपुर स्वर्णतिलक अयोध्या अलका खड्गपुर नागपुर पद्मिनीखण्ड यक्षपुर रत्नपुर रथनूपुर लङ्का वाराणसी श्रावस्ती अयोध्या अरिञ्जय ऋक्षपुर किष्किन्धा कुम्भपुर चन्द्रावर्त चारणयुगल ज्योतिष्पुर श्लोकाङ्कः पर्व सर्गः नाम ६ १ हास्तिनपुर १५३ इभपुर १९२ काम्पील्य १०१ ताम्रलिप्ती पद्मिनीखण्ड रत्नपुर राजपुर सुसीमा १०५ हास्तिनपुर अरिञ्जयपुर ३७५ चक्रपुर पोतनपुर २९१ राजेन्द्रपुर विजयपुर चम्पा ९५ नेमिककोष्टक मिथिला १०५ वसन्तपुर ९२ विशाल हास्तिनपुर १६० वाराणसी शीलपुर सिंहपुर २०७ सुसीमा ६ अलका २९४ काम्पील्य काशी चम्पा मिथिला वाराणसी ३०० वीतशोका २३० श्रावस्ती साकेत ११९ हस्तिनापुर कौशाम्बी चम्पा ३९९ पद्मिनीखण्ड ३९९ भृगुकच्छ ४०१ राजगृह हस्तिनापुर उज्जयिनी ३८७ चम्पा श्रीनगर सिन्धुसदन सूरोदय हास्तिनपुर ६३५ १६३ १३८ १०१ ६३७ ४५५ १०३ ५५१ ११९ » दुर्लङ्घ २२१ ४५३ २३५ २८८ पुण्डरीकिणी ५१७ रत्नपुर ८१ वज्रपुर ११६ १५६ Mom ३६३ W० ० vorrrrr Nummro Mmm Mom Nw ० १०६ ३८३ १०८ ४३३ नागपुर नित्यालोकपुर पाताललङ्का मथुरा माहिष्मती रथनूपुर राजपुर लङ्का शतद्वार शुक्तिमती सुरसङ्गीत सूर्यावर्त स्वयम्प्रभ आदित्यपुर कनकपुर मन्दर महेन्द्रनगर मृगाङ्क लङ्का वारुण हनुपुर हनुरुहपुर शुभा सङ्घपुर सुमन्दिरपुर स्वर्णद्रुम स्वर्णनाभ कन्यकुब्ज काम्पील्य कृत्तिकापुर जयन्ती मन्दिरपुर शडपुर श्रीपुर हस्तिनापुर अलका खड्गि चक्रपुर १६२ ६३७ २०४ १९८ १११ २२१ १ AWK ૨૮૮ ४०१ ८ १६८ ११९ १७० ९३ २१४ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकाः श्लोकाङ्कः श्लोकाङ्कः २०४ १२३ २८५ १५१ २६९ १०५ ३९४ १२१ rrrrrrr 9ww ormw पर्व सर्गः नाम ७ १३ श्रीपुर नदी ५ १ शीतोदा सीता २ सीता ५ ३ सीता गङ्गा निकृति शङ्खनदी arom पर्व सर्गः नाम ७ ६ सुरसङ्गीत अयोध्या गजपुर लङ्का वेलन्धरपुर श्वेतङ्करपुर सङ्गीतपुर साकेतपुर अयोध्या ऋक्षपुर कौशाम्बी देवोपगीतनगर पाताललङ्का पोतनपुर प्रभापुर मथुरा ०० पर्व सर्गः नाम ७ ४ अयोध्या। कमलसङ्कल कौतुकमङ्गल चन्द्रपुर दभ्रस्थल दारुग्राम नागपुर पुण्डरीकिणी पुष्कला मयूरमाल महापुर मिथिला रथनूपुर राजगृह लङ्का विदग्ध शशिपुर सिंहपुर सेनापुर ५ अयोध्या MAN २६७ १५७ सिन्धु २०३ १५८ १५७ १४२ or morwrmr Morrowroom MMIMormour Om O १६९ सीता सीतोदा स्वर्णकूला उन्मना गङ्गा जाह्नवी निमग्ना सिन्धु २१५ १६० २३९ १५८ o raw our morw .. ३९२ २२८ रथनूपुर विबुद्धनगर श्रावस्ति २०० १५६ 3 अरिष्टपुर श्रीपुर m अरुणग्राम १२४ ६१ अवन्ती w m ३०१ ४७६ ३३५ ४९७ ३८० १२३ ३०९ सिन्धु २ सीता ७ १ जाह्नवी २ रेवा शुक्तिमती गम्भीरा ५ क्रौञ्चरवा तापी गङ्गा नर्मदा विन्ध्यस्थली गङ्गा सिन्धु १२ उन्मना गङ्गा निमग्ना सिन्धु १३ गङ्गा १७३ उज्जयिनी कुन्दपुर कुम्भकारकट कूबरपुर कौशाम्बी क्षेमाञ्जलि चन्द्रनगर दशाङ्गपुर नन्द्यावर्तपुर नलपल्ली पद्मिनी पाताललङ्का रामपुरी लङ्का वंशस्थल विजयपुर श्रावस्ती सिद्धार्थपुर किष्किन्धपुर दधिमुख पाताललङ्का महेन्द्रपुर ११६ साकेतपुर हनुपुर अयोध्या पुण्डरीकपुर पृथ्वीपुर पोतनपुर लोकाख्यपुर विजयस्थली काकन्दी काञ्चनपुर क्षेमपुर क्षेमा नन्दावर्त मृणालकन्द रत्नचित्रा विजयापुरी विजयावती सुप्रतिष्ठपुर स्यन्दनस्थल ११ कौशाम्बी मिथिला वीरपुर १२ काम्पील्यपुर नरपुर १३ राजगृह २७९ २७१ ३७८ १४७ ४५८ ५२ २४३ २३४ २३२ २५९ १६८ सिन्धु ७४ १९३ ५ ३ ३३६ २९९ ६० २५९ नर दत्त धर्ममित्र राज्यगुप्त प्रभव १०८ १०७ २३१ or orr 3rM ५२२ द ० WWG अङ्क लङ्का काल २७७ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ श्लोकाङ्कः श्लोकाङ्कः श्लोकाङ्कः २७७ ९८ २७७ पर्व सर्गः नाम ७ ९ काश्यप क्षेम पिङ्गल मधुमान् विजय पर्व सर्गः नाम ५ ३ मणिसागर मैनाक वैताढ्य वैरोचन(शिखर) पर्व सर्गः नाम ७ १ वैताढ्य सुमेरु अष्टापद क्षुद्रहिमवत् मेघरव ८२ २ २९२ २७७ २७७ २७७ २७७ २७७ सिद्धिपद १८५ १८० मेरु शूलधर सूरदेव ३५७ ३०३ ६४१ ३०१ नारद ५ ७ २ २ नारद नारद ° १८५ १८५ रथावर्त विन्ध्य वैताढ्य सम्मेतशैल स्वर्णतुङ्ग कैलास ६४९ my ४ १८६ दन्ति १८० १०८ ५ २८७ निकाय गरुड ज्योतिष्क सुपर्ण वायुकुमार निधि नैसर्प ५३० १३७ १६८ २७१ २३९ २३७ ५ ५ २४९ EX २४ २२८ हिमवत् अम्बरतिलक अष्टापद इष्वाकार क्षुद्रमेरु गजदन्त मानुषोत्तर मेरु वर्षधर वैताढ्य सङ्घगिरि अपारुचक उदारुचक ऋषभकूटाद्रि क्षुद्रहिमाद्रि पूर्वरुचक प्रत्यग्रुचक मेरु विदिग्रुचक वैताढ्य सम्मेताद्रि ऋषभकूट मलय मेरु वैताढ्य सम्मेत मेरु वैताढ्य सम्मेत वैताढ्य वैताढ्य हिमवगिरि वैताढ्य सम्मेत सम्मेत मन्दर वैताढ्य किष्किन्ध कैलास मधुपर्वत मानुषोत्तर २९९ २१५ ४४९ ३२३ ३२१ २५९ २८१ २३७ worom 3NNNNTrN133535 mon 00mm9 Norwmo V४ mmmm Wwrrrror ०००० ४२ ૨૮ २२३ १२७ ३०६ वैताढ्य गजदन्त चित्रकूट मेरु वसन्ताद्रि विन्ध्य वैताढ्य कम्बुशैल महागिरि रामगिरि वंशशैल सम्मेत महेन्द्रगिरि हिमवगिरि वैताढ्य सुवेलाद्रि सम्मेत कैलास मेरु १० मेरु ११ मेरु सम्मेत १२ ऋषभकूट वैताढ्य ऋषभकूट वैताढ्य पुराणपात्र ६ ४ उतथ्य बृहस्पति ममता पूजा ७ ४ शान्तिस्नात्र २ ७८ पक्षी ७ ५ गन्ध जटायुष् जटायुष् परिव्राजक ६ ७ भागवतव्रत परिव्राजिका ६ ६ चोक्षा ७ आत्रेयिका पर्वत क्षुद्रहिमवत् विन्ध्याद्रि वैताढ्य सीमाद्रि सुमेरु हिमवत् गिरिपर्वत नन्दनपर्वत मन्दर वैताढ्य श्रीपर्वत ३ ईषत्प्राग्भार ३ २७५ ३८३ ८ १०९ ४२१ ३५१ १०५ १०८ २९ ३६० ४६४ ६ ७ ८ ३०४ ३६६ ३१ ४१६ ४११ ९१ २५६ २२६ मेरु ३५५ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकाङ्कः पर्व सर्गः नाम प्रतिवासुदेव २ दमितारि २१० w w ३० in २०८ ६ or or on Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकाः ८२ ५५ पर्व सर्गः नाम ७ २ सुमालिन् ४ बिभीषण खर शम्बूक सारण पर्व सर्गः नाम ७ १२ पुरोधस् मणिरत्न वर्धकित्न सेनानीरत्न १३ अश्व काकिणी गृहि चक्र चर्म छत्र दण्ड निस्त्रिंश पुरोधस् मणि वर्धकि सेनानी अक्षकुमार इन्द्रजित् खर त्रिशिरस् दूषण बिभीषण वज्रमुख शम्बूक श्लोकाङ्कः पर्व सर्गः नाम श्लोकाङ्क: ७ ७ सुन्द सुमाल १९८ ३७८ स्वयम्भू ३७८ हस्त ४५७ इन्द्रजित् ३७८ कुम्भकर्ण ३७४ बिभीषण मेघवाहन ९ बिभीषण १६८ १३ १० बिभीषण १५ ३२ राक्षसवंशीयविद्याधरी ७ १ इन्द्राणी २७२ कैकसी चन्द्रणखा १४४ १४२ १६२ सुन्द देवी स्त्री १३२ १६२ अर्क अश्वरथ इन्द्रजित् उद्दाम कामाक्ष ६ ८ कुम्भ ३३ १९७ ' ८२ १९५ ८२ ३७८ ४३ १९६ ३३ १५८ १११ १२७ २७३ oro १९८ हस्तिन् रथ अर्हद्रथ ब्रह्मरथ राक्षसवंशीयविद्याधर कीर्तिधवल कुम्भकर्ण घनवाहन तडित्केश दशमुख देवरक्षस् बिभीषण भानुकर्ण महारक्षस् मालिन् माल्यवान् मेघवाहन रत्नश्रवस् सुकेश सुमालिन् कुम्भकर्ण दशमुख मालिन् मेघवाहन रत्नश्रवस् रावण विभीषण १५ प्रीतिमती शूर्पणखा श्रीचन्द्रा कैकसी चन्द्रणखा मन्दोदरी अनङ्गकुसुमा चन्द्रणखा चन्द्रणखा चन्द्रणखा त्रिजटा मन्दोदरी लङ्कासुन्दरी मन्दोदरी राजा-राजपुत्र इन्दुषेण बिन्दुषेण विजयभद्र श्रीविजय श्रीषेण अनन्तसेन महेन्द्र श्रीविजय स्तिमितसागर अजितसेन कनकशक्ति क्षेमङ्कर नलिनकेतु मेरुमालिन् वज्रायुध १७ ५ १ ८२ कुम्भकर्ण केतु गम्भीर घटोदर चन्द्र चन्द्रणख जम्बुमालिन् ज्वर धूम्राक्ष प्रहस्त बिभीषण बीभत्स मकर मय महोदर मारीच मालिन् मेघवाहन रत्नश्रवस् वज्रोदर शम्भु शुक सारण सिंहजघन सिंहरथ var १५० १४९ ११५ ३६० १४७ १९ १०४ १६२ mamm or १०६ १६० सुकेश Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकाङ्कः श्लोकाङ्कः or १०५ श्लोकाङ्कः ४५३ ५१८ w or x ३ ४६४ ३६३ पर्व सर्गः नाम ५ ३ विन्ध्यदत्त शतबलि सहस्रायुध अभयघोष घनरथ दृढरथ धनसेन नन्दिषेण निहतशत्रु पर्व सर्गः नाम ६ ४ भूपाल हस्तिन् अग्निसिंह मन्दरधीर ललितमित्र वसुन्धर अदीनशत्रु कुम्भ चन्द्रच्छाय 5 or ४४.३४४४४६, पर्व सर्गः नाम ७ २ बृहद्ध्वज मधु मधुपिङ्ग मरुत्त महाशूर मौनिसुव्रति वसु वासव विभावसु विश्वावसु शक्र शतबाहु सगर सहस्रकिरण सहस्रांशु सुमित्र सुवसु सुव्रत ४५२ ३८४ ३८५ ४५१ ४५१ ४५१ जितशत्रु मेघरथ मेघसेन Fors ४५१ प्रतिबुद्धि बल बलभद्र ४५७ मल्ल or or 3 ३४६ रथसेन वज्रायुध शङ्ख शत्रुञ्जय सहस्रायुध सुरेन्द्रदत्त स्तिमितसागर १०१ ३१६ ५२२ ४५३ ३०० roor ३८४ हेमाङ्गद ४५१ सूर्य ४६२ १५३ ३७९ १२१ ११५ ३२८ ४६२ सोम हरिवाहण कनकरथ ३ कुरुचन्द्र चक्रायुध दृढरथ बाहुबलिन् मेघरथ विश्वसेन सुमित्र कुरूद्वह व्याघ्रसिंह GG ००० ० ००० ०GKG०००G० 8:30a 20066 १७४ २५ सिंहचन्द्र or or or or or or or १६८ १६८ १० २८८ ११२ महाबल रुक्मिन् विश्वसेन शङ्ख गिरि चन्द्रकीर्ति जितशत्रु पृथ्वीपति ब्रह्मदत्त महागिरि मित्रगिरि वसुगिरि सुमित्र सुमुख सुरश्रेष्ठ सुव्रत हिमगिरि काल जनमेजय पद्मोत्तर प्रजापाल महासेन विष्णुकुमार श्रीवर्मन् सिंहबल अनरण्य अभिचन्द्र अयोधन १११ ४०८ शूर १०७ १०७ ४९ १०७ ३०७ हरिचन्द्र अनन्तरथ अनरण्य अरिसूदन आदित्यरथ इन्दुरथ इभवाहन उदयपृथु उदयसुन्दर ककुत्स्थ कनक कीर्तिधर कुण्डलमण्डित कुन्थु कुबेरदत्त चतुर्मुख जनक दशरथ द्रोणमेघ ११० १४२ ३५३ सिंहावह अपराजित अरविन्द ईशानचन्द्र धनपति रत्नाकर सुदर्शन उपेन्द्रसेन प्रियमित्र महाशिरस् सुकेतु सुदर्शन अनन्तवीर्य कुरु कृतवीर्य ३ २२१ १०९ १०९ १०६ चित्रवसु ३५८ ३८४ ४५६ ४५१ ४६३ ४५१ ४६२ ११२ १५२ १०९ द्विरद जितशत्रु तृणबिन्दु पृथुवसु बाहुबलिन् ६८ नघुष नन्दिघोष पद्मरथ ३९७ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकाङ्कः श्लोकाः ३९७ पर्व सर्गः नाम ७ ५ रत्नरथ वज्रकर्ण वालिखिल्य विजयपर्वत विजयकथ ४९ १५२ ७७ पर्व सर्गः नाम नन्दिवर्धन पद्मबन्धु पुनस्थल पुरन्दर प्रकाशसिंह प्रतिमन्यु ब्रह्मरथ भरत भूरिनन्दन मान्धातृ ८८ २२१ १०८ वृषभ WWWSANG WWW०० २३९ श्लोकाः पर्व सर्गः नाम २८९७ ९ पृथु बाहुबलि भ्रातृशत २७१ मदनाङ्कुश २२५ वज्रज १७३ व्याघ्ररथ २४५ इन्द्रायुध ऋषभध्वज १७३ कुण्डलमण्डित ३३६ कुमारवार्त २६९ छत्रच्छाय १५१ जयकान्त जयप्रभ २७३ प्रतिनन्दि प्रियङ्कर मेघरथ रतिवर्धन वज्रकण्ठ विपुलवाहन २०४ ४०५ ० २३६ रघु 10 १०८ २३६ 3 १५२ २३६ १९८ शम्भु २०५ १०९ २५१ १५१ ११३ २०३ ११६ १२० शत्रुदमन सिंहोदर सुरेन्द्ररूप स्कन्दक गन्धर्वराज जनक दशरथ द्रोणमेघ वेलन्धर समुद्र सुवेल सेत हंसरथ अचल अर्जुन इन्द्रदत्त कुलङ्कर क्षेमकर चन्द्रभद्र नन्दिघोष पृथ्वीतिलक प्रह्लादन प्रियदर्शन भानुप्रभ मङ्गल मधु रतिवर्धन विमल श्रीकेशी श्रीधर श्रीनन्दन सत्यकीर्ति सिंहोदर सुपार्श्वकीर्ति १०९ शुभङ्कर श्रीचन्द्र ११ दत्त विजय सिद्धार्थ ९७ १९६ អកអំបុរអនុ रविमन्यु वज्रबाह वसन्ततिलक वारिरथ वासवकेतु विजय वीरसेन शतरथ शत्रुघ्न शरभ शुभमति सहस्रकिरण सिंहदशन सिंहरथ सुकोशल सुबन्धतिलक सोदास हरिवाहण हिरण्यकशिपु हिरण्यगर्भ हेमरथ अतिवीर्य अनुद्वर कल्याणमाल कुलभूषण क्षेमङ्कर चित्ररथ जनक जितशत्रु दण्डक देशभूषण प्रियंवद भरत महीधर mor सुप्रभ २५० ११५ १०९ १९८ ६६ २५१ १६३ १०६ ११५ २९० १० ८० २५२ २५१ २५० २१५ १०७ ३०० २९९ १२ नरभिराम महाहरि १३ वसुन्धर विजय विनयन्धर राज्ञी-राजपुत्री ५ १ अभिनन्दिता कनकलता कनकश्री ज्योतिष्प्रभा पद्मलता पद्या शिखिनन्दिता श्रीकान्ता श्रीमती हेममालिनी अनन्तमति अनुद्धरा कनकश्री १५१ १०९ २८९ २५२ ४३४ 101050 २५२ ३३५ सुप्रभ ११५ ११६ १०७ २८८ २ हरिमति अनङ्गलवण कुबेरकान्त गजवाहन ३६१ ४९ ४ १७० ३६४ . Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकाः श्लोकाः ३५८ पर्व सर्गः नाम ६ ८ लक्ष्मी ७ २ कनकप्रभा श्लोकाङ्क: १७० २३० दिति ५१६ ४५६ २९९ ३३५ ३३५ ५४८ १६१ ५२५ २९३ ४६४ ४५६ २६० १५६ १६३ १६१ १७५ १६८ २७४ २७५ १७५ २२४ २४४ १६३ १०६ १०१ मनोरमा वनमाला सत्ययशस् सुलसा कनकोदरी प्रियङ्गुलक्ष्मी लक्ष्मीवती अतिसुन्दरी अपराजिता अमृतप्रभा केकयी कैकेयी कौशल्या गन्धारा चित्रमाला चूडामणि जानकी पृथिवी 20 २३ ४ १२३ १५१ ४४९ १२० १२० २४९ ११६ २४९ २०४ २१५ २५३ ४०८ १३० १५३ २५३ पृथ्वी ११२ २४९ पर्व सर्गः नाम ५ २ धनश्री वसुन्धरा विरता सुमति कनकमाला कनकश्री जयना प्रियसेना मल्ला रत्नमाला लक्ष्मीवती वसन्तसेना सुलक्षणा देवानन्दा धृतिषणा पृथ्वीदेवी पृथ्वीसेना प्रियमति प्रियमित्रा मनोरमा वज्रमालिनी सुमति सुवर्णतिलका अचिरा यशोमती ६ १ श्री अनङ्गसुन्दरी देवी पद्मावती लक्ष्मीवती वैजयन्ती तारा रेणुका जयन्ती शेषवती कमलश्री धारणी धारिणी पद्मावती प्रभावती सुबाहु पद्यावती प्रभावती ज्वाला नागवती मदनावली paslui linnukala kalaunelmi ११७ पर्व सर्गः नाम ७ ५ वनमाला विजयसुन्दरी विमलदेवी श्रीधरा श्रीप्रभा सीता कुसुममाला सीता प्रियङ्करा विशल्या सीता अभयवती इन्दुमुखी कल्याणमालिका चन्द्रलेखा जितपद्या दत्ता धारणी प्रभावती मनोरमा रतिनिभा रत्नमालिका रूपवती ललिता वनमाला विशल्या श्रीदामन् सीता हरिणी अमृतवती कनकमालिका बन्धुदेवी लक्ष्मीवती शशिचूला सीता १० पद्मावती लक्ष्मी श्रीदत्ता सुदर्शना हेमवती ११ वप्रा १२ मेरा १३ पद्मवती वप्रा लब्धि ७ ८ जङ्घाचारण Y Y Y ir ia o wym N २२१ १९३ २४९ ११४ ३५३ १५३ २५३ १२३ ६८ २३५ १३९ 0 So पृथ्वीश्री प्रवरावली भद्रा मनोरमा मित्रादेवी मृगावती विदेहा विपुला सहदेवी सिंहिका सीता सुप्रभा सुमित्रा हिमचूला इन्द्राणी कनकादेवी कनकाभा कल्याणमाला जितपद्या धारिणी पद्मावती पुरन्दरयशस् पृथ्वी रतिमाला २५२ १२५ So So 50 १२४ ur १७० २४६ २९० २४६ २२६ २४९ ३३७ ८८ २२७ २१८ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ श्लोकाङ्कः पर्व सर्गः नाम लाञ्छन ६ २ नन्द्यावर्त वंश ५ ५ इक्ष्वाकु ६ ७ हरिवंश ७ १ वानर रक्षोवंश ३५ सूर्य ४६३ ७ ४६३ ५ २ सोम आदित्य इक्ष्वाकु हरिवंश १२ इक्ष्वाकु १३ इक्ष्वाकु वणिक् ४ दत्त धन धनवसु नन्दन सागरदत्त कामपाल जयन्तिदेव धनद धनपति धनेश्वर पञ्चनन्दिन् प्रियङ्कर वरदत्त वसन्तदेव WWWowNw ४०७ पर्व सर्गः नाम श्लोकाङ्कः पर्व सर्गः नाम श्लोकाङ्कः ७ ८ अर्हद्दत्त २२२ ७ ६ वालिन् धन १३३ विराध भूषण शरभ गुणधर श्रीभूति धनदत्त सुग्रीव नयदत्त अङ्कुर वसुदत्त अङ्गद श्रीकान्त अनघ सागरदत्त आक्रोश वादित्र जाम्बवान् ७ ४ ईप्सितनादिनी(वीणा) दुरित नन्दन वानरवंशीयविद्याधर नल ७ १ अन्धक नील ७ १ आदित्यरजस् पुष्पास्त्र ऋक्षरजस् प्रथित किष्किन्धि प्रीतिकर घनोदधिरव मदन वज्रकण्ठ विघ्न अगद २८७ विराध ऋक्षरजस् १३८ सन्ताप किष्किन्धि १३८ सुग्रीव चन्द्ररश्मि चन्द्रोदर १७४ ८ सुग्रीव जयानन्द २८७ ९ सग्रीव नल १६९ १० सुग्रीव नील वानरवंशीयविद्याधरी वालिन् १६६ विराध १८४ ७ १ श्रीमाला श्रीकण्ठ २ अनुराधा १८३ सुग्रीव १६८ इन्दुमालिनी १६६ तारा सूर्यरजस् १३८ २८१ श्रीप्रभा ३ नल ३०२ १६८ सुग्रीव ३०२ हरिकान्ता १६९ पद्मरागा अङ्गद २२७ ३०२ हरिमालिनी २७७ गन्धमादन ३०२ गव २२७ वापी गवय ५ ३ प्रियदर्शना गवाक्ष वासुदेव चन्द्ररश्मि ५ १ त्रिपृष्ठ चन्द्रोदर २ अनन्तवीर्य जाम्बवान् २२७ अनन्तवीर्य द्विविद अनन्तवीर्य ३०१ नल पुरुषपुण्डरीक नील नन्दन मैन्द २२७ ७ १ नारायण २३२ सुषेण ३८८ ३८८ १६९ ४०७ ४०६ ४३३ १८९ सुदत्त ४३३ १११ १० ११५ १४३ २२७ सुधन ऋषभदत्त जिनदास बुद्धदास वीरभद्र शङ्ख सागरदत्त दमयन्त प्रियनन्दिन् धन भावन वरुण विद्युदङ्ग समुद्रसङ्गम विन्ध्य २२७ १३८ ३४४ ३ ३९२ ३९४ २२७ २२७ mom. or mr wr १९ २२७ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकाङ्कः १९२ श्लोकाङ्कः ५५२ श्लोकाङ्कः पर्व सर्गः नाम ७ २ आशाली इन्द्राणी कामगामिनी कामदायिनी कुटिलाकृति कौबेरी खगामिनी गान्धारी गिरिदारणी गौरी घोरा चण्डा चित्तोद्भवकरी जगत्कम्पकारिणी जया जृम्भणी तपोरूपा तोयस्तम्भनी पर्व सर्गः नाम ७ २ वशकारिणी वह्नि वाराही वारुणी विजया विपुलोदरी व्योमगामिनी शत्रुदमनी शान्ति शुभप्रदा शेमुषी संवृद्धि समाकृष्टि सर्वाहारिणी सिद्धार्था सुविधाना अवलोकनी आशालिका प्रतारणी मनोगामिनी अवलोकनी गारुडी wwwwwwwwwwwwww W०GG००GWWW ६७ ६१ ६७ ६८ २९९ ४२८ २६८ दहनी २६५ २५३ १७० पर्व सर्गः नाम ७ ४ नारायण ५ सौमित्रि ६ सौमित्रि ७ सौमित्रि ८ नारायण ९ लक्ष्मण १० सौमित्रि विजय ५ १ पुष्कलावती सलिलावती रमणीय मङ्गलावती सुकच्छ पुष्कलावती रमणीय सूत्र ६ १ आवर्त वत्स ६ सलिलावती ७ भरत सुकच्छ ७ १० पुण्डरीक ११ भरत विद्या-मन्त्र ५ १ अघोरमन्त्र प्रतारणी बन्धनी भ्रामरी महाज्वाला मोचनी विप्रतारणिका शस्त्रावरणी प्रज्ञप्ति महाविद्या ३ प्रज्ञप्तिका ६ २ आभोगिनी ४ पारशवी अक्षोभ्या अजरामरा अणिमा अदर्शनी अनलस्तम्भनी अवन्ध्या अवलोकनी अष्टाक्षरी प्रज्ञप्ति २४४ १२७ १२७ १६९ ४०६ २५२ २९५ ५ १ १४४ २९६ ३८६ ३०४ २९५ २४१ २९५ दारुणी दिनरात्रिविधायिनी दुर्निवारा धीरा नभःसञ्चारिणी निर्व्याघाता प्रज्ञप्ति प्रधर्षिणी बलोत्सादा भानुमालिनी भास्करी भीति भुजङ्गिनी भुवना . मदनाशिनी मनःस्तम्भनकारिणी मोचनी योगेश्वरी रजोरूपा राक्षसी रूपविकारिणी रूपसम्पन्ना रोशनी रोहिणी लघिमा वज्रोदरी वर्धनी १३६ २९७ २९७ २४१ ५४ प्रबोधिनी बहुरूपा सिंहनिनादा विद्याधर अमिततेजस् अमितवेग अर्ककीर्ति अर्कप्रभ अर्करथ अशनिघोष अश्वघोष आदित्ययशस् इन्द्राशनि किरणवेग घनघोष चित्ररथ ज्वलनजटिन् दीपशिख प्रभाकर भानु भानुवेग भीमघोष मणिकुण्डलिन् २९६ ४१६ २७९ २९७ ३२३ २९६ २७६ १३५ ६३ ५९ ६० २७१ २९७ २९६ २९६ ३२३ १०० Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकाङ्कः १०८ श्लोकाः १९८ १४० श्लोकाङ्कः ३२३ ३७३ ३२३ १४० २९७ पर्व सर्गः नाम ७ १ माकरध्वजि मन्दरमालिन् मेघरथ यम वरुण विजयसिंह विद्युद्वेग विश्रवस् वैश्रमण व्योमबिन्दु श्रीकण्ठ सहस्रार २९६ ३२३ २७१ ६२ १३१ १३९ २१७ orar rarwwvor Vvvrow vommo9 १७० १७० २१६ ९९ २ ४१३ २९२ २९३ ४०८ ४०८ पर्व सर्गः नाम ५ १ महाघोष मारीचि मेघघोष मेघवन रवितेजस् रविवेग रश्मिवेग शतघोष सम्भिन्नश्रोतस् सहस्रकिरण सहस्रघोष सहस्ररश्मि सुकुण्डलिन् अमिततेजस् अश्वग्रीव कनकपूज्य कीर्तिधर मेघनाद मेघवाहन वीराङ्ग अजितसेन अमिततेजस् अश्वग्रीव दीप्तचूल पवनवेग महेन्द्रविक्रम शुक्लदन्त गरुडवेग चन्द्रतिलक विधुद्रथ सिंहस्थ सूर्यतिलक ६ २ रतिवल्लभ मेघनाद इन्द्रधनुष् गङ्गाधर महीधर ७ १ अतीन्द्र अशनिवेग पर्व सर्गः नाम ७ ३ प्रतिसूर्य प्रसन्नकीर्ति प्रहसित प्रह्लाद महेन्द्र यम राजीव वरुण विद्युत्प्रभ श्रीशैल सिंहवाहन सुकण्ठराज हनुमत् हिरण्याभ कुलनन्दन चन्द्रगति चपलगति भामण्डल रत्नमालिन् वज्रनयन सूर्यञ्जय भामण्डल रत्नजटिन् अङ्गारक प्रसन्नकीर्ति भामण्डल महेन्द्र रत्नजटिन् वरुण साहसगति हनूमत् अङ्ग ५७६ १७३ २८२ सोम अमरसुन्दर आनन्दमालिन् कनक कामध्वज खर चक्राङ्क ज्वलनशिख ज्वलनसिंह तडित्प्रभ दिवाकर दूषण नलकूबर नित्यालोक ३७५ १२१ २०६ २०४ ६३५ ६३७ ४९६ १७९ ० ० ० ० ०NG ०००&MSXxxwww SMG WWWGWWW.KAM 1000 Km २६१ १२० २३५ बुध १९६ ३९५ २०८ २०९ ११० ७४ १०१ १७३ १३९ २४३ २७५ कुन्द १९८ ८८ मय महोदर मेघप्रभ यम विश्रवस् वीर वैश्रवण साहसगति सुरसुन्दर अरिन्दम १०३ कुबेर कुमुद १०७ १०७ २८२ कूर्म गज १४० १२४ २४३ २४५ २४४ २४२ १२४ २४४ तार दधिमुख कुबेर दुर्धर कालाग्नि कुबेर निर्घात नैगमेषिन् पद्मोत्तर पुष्पोत्तर 9 Wwror Worror orow २६३ १०६ खर चित्रभानु दूषण नलकूबर पवनञ्जय पुण्डरीक पावनञ्जयि प्रतिचन्द्र भामण्डल भुवनजित् मन्मथ २४५ २४४ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकाङ्कः श्लोकाङ्कः ९४ २४६ १४० १०८ १४० २४४ २४३ २६३ २४४ २४४ २६४ or or morporon or ww v300 १९ २१ २४९ १९७ १०० ६३६ पर्व सर्गः नाम ६ ८ श्रीकान्ता ७ १ आदित्यकीर्ति कनकावली कौशिका चित्रसुन्दरी देवी पद्मा वरुणा श्रीप्रभा श्रीमती श्रीमाला अशोकलता अहल्या उपरम्भा कौशिका तडिन्माला तारा नन्दवती पङ्कजश्री पद्मावती मनोवेगा मन्दोदरी रत्नावली रूपिणी विद्युत्प्रभा वेगवती श्रीमती ५५८ १९८ १०२ २८१ ४७ validitHHttHoltalkt ३ १६७ १०४ पर्व सर्गः नाम ७ ७ महेन्द्र यम वरुण विजय विहङ्गम शशिमण्डल समरशील सम्भव सहस्रविजय साहस रत्नरथ जयभूषण भामण्डल हरिविक्रम हेमशिख कनकप्रभ कनकरथ नन्दीश्वर नयनानन्द पुनर्वसु विद्याधरी अजितसेना आसुरी ज्योतिर्माला सुतारा स्वयम्प्रभा अनिलवेगा कनकश्री मदिरा मेघमालिनी वज्रश्यामलिका वायुवेगा अनिलवेगा चन्द्रकीर्ति यशोधरा शान्तिमती सुकान्ता ४ मानसवेगा वेगवती मदनमञ्जका रत्नप्रभा वज्रवेगवती पद्मश्री ८ जयचन्द्रा वेगवती ९ १०० २३५ पर्व सर्गः नाम श्लोकाङ्कः ७ ८ श्रीदामा ९ किरणमण्डला १९८ १० कनकाभा ४८ चन्द्रमुखी ९८ १० मन्दाकिनी विमान ५ १ नन्दितावर्त ४९२ सुस्थितावर्त ४९२ नन्दितावर्त सुस्थितावर्त सर्वार्थसिद्ध ३५८ पालक सर्वार्थसिद्ध २५ सर्वार्थसिद्ध १३ वैजयन्त २३९ ७ २ पुष्पक १२९ पुष्पक ४२४ पुष्पक पुष्पक ७८ १० वैजयन्त ११ अपराजित वृक्ष ५ ५ नन्दिवृक्ष २९२ १ तिलकद्रु २ सहकार ६ अशोक ७ चम्पक ७ ११ बकुल वेद ७ २ ऋग्वेद ४१८ वेश्या ५ १ अनन्तमतिका मदनमञ्जरी ३ सुदर्शना सुसेना ७ ५ कामलता ८ वसन्तसेना शस्त्र ६ ४ परशु वज्र १०५ अमोघविजया(शक्ति) २७६ चन्द्रहास प्रस्वापन शूल ४१६ ९० १४० १४६ १३७ २९४ १४७ ३०६ ४०८ ६३५ २८१ ६४४ ००० सत्यश्री सन्ध्या सर्वश्री सुन्दरी सुरूपनयना हेमवती ५७६ १०१ २९३ १२० ७५ mom or ९७ २०१ २०८ २५ २०० २१० २७६ २८३ २८३ अञ्जनसुन्दरी कनकोदरी केतुमती मानसवेगा मिश्रकेशी वसन्ततिलका सुन्दरीमाला सुमनस् हृदयसुन्दरी पुष्पवती विद्युल्लता चन्द्रमुखी मनोरमा WWmod hi २१६ ४०१ २४० २४० ७३ ९८ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकाङ्कः २३३ .. श्लोकाङ्कः १८४ १८४ om a ४० २६५ २०२ २४३ १३८ २०१ १३९ ६४३ २२६ ६३३ १७१ पर्व सर्गः नाम श्लोकाङ्कः ७ ३ सुदर्शनचक्र ५६१ ४ अर्णवावर्त(धनुष्) ३२२ वज्रावर्त(धनुष्) ३२२ ६ नागपाश ३८५ अमोघविजया(शक्ति) २०९ आग्नेय १७१ चण्डरवा(शक्ति) तडिद्दण्ड १३६ तपन तामस २०० नागपाश प्रस्वापनास्त्र १२६ मुशल १६९ वरुण वायव्य १७१ विद्युद्वदना(गदा) शूल हल १६९ चक्र १४२ मुशलरत्न वज्रावर्त १३४ हलरत्न १३६ १० वज्रावर्त १५६ शिबिका ५ ५ सर्वार्था ६ १ विजया ७० २ वैजयन्ती ६ जयन्ती २०४ ७ अपराजिता ७ ११ देवकुरु शिला ६ ३ कोटिशिला पर्व सर्गः नाम ७ १० सुनन्द समुद्र ५ ४ कालोद लवणोद ६ १ क्षीरोद ३ स्वयम्भूरमण ७ २ लवणार्णव सरोवर ७ ३ मानससरस् १० नन्दनपुण्यसरस् साधु अग्निजटिन् अचल अभिनन्दन अर्ककीर्ति जगन्नन्दन जयन्त धर्मरुचि पुष्पकेतु बलभद्र महामति विजटिन् विपुलमति विमलमति शाण्डिल्य अमरगुरु कीर्तिधर जयन्धर नन्दनगिरि सत्ययशस् ३३९ १५८ ३६१ १४५ ३६१ १५४ ३०५ १३१ १७० २०७ १५८ १७१ २२९ १३५ ४१४ ४१९ ४७४ ३६४ पर्व सर्गः नाम ६ ३ वसुभूति सुमित्र ४ सम्भूत ५ सुधर्म ६ वरधर्म नन्दन त्रिविक्रम पद्मोत्तर विष्णुकुमार समाधिगुप्त सुव्रताचार्य कल्याण गगनचन्द्रर्षि निर्वाणसङ्गम वालिन शतबाहु अमितगति लक्ष्मीधर आर्यगुप्त गुणसागर तिलकसुन्दराचार्य निर्वाणमोह पिङ्गलर्षि मुनिचन्द्र यशोधर विजयसेनसूरि विमल सत्यभूति अनन्तवीर्य कुलभूषण त्रिगुप्त देशभूषण नन्दावतंस प्रीतिवर्धन मतिवर्धन सुगुप्त स्कन्दकाचार्य सत्यभूतशरण अप्रमेयबल अभिनन्दन कल्याणमुनि कुलभूषण चामर जयन्त जयमित्र देशभूषण २३० २३४ ३९८ ३७ ३६५ १८९ ४१४ २४८ ७० ३७२ ४०३ ३११ २७१ ३६८ २५९ २७४ ३२४ ३०० सुव्रतर्षि १६२ १३४ २१९ २८० ३२४ ३४२ २७७ ६८ २२२ स्तिमितसागर स्वयम्प्रभ नलिनकेतु पिहिताम्रव विपुलमति दन्तमथन धृतिधर भोगवर्धन राज्यगुप्त सर्वगुप्त सागरचन्द्र १८० १२९ २४२ १५९ श्रावक ६ ६ अर्हनय ७ कार्तिक जिनधर्म ७ ९ सिद्धार्थ १० अर्हद्दास जिनदास पद्मरुचि मेरु सुदर्शन ११८ २०४ ४३ १७८ २३३ १९५ २४५ २३४ orm mr moom ११२ २१६ संवर २१६ २३३ धनपति संवर २१६ ११० Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकाङ्कः २२५ २१७ श्लोकाङ्क: ३९२ ३९४ २२ २२३ १३४ २१६ १३६ पर्व सर्गः नाम ७ ४ दीपिका सुन्दरी ५ उपयोगा ८ लक्ष्मी १० गुणवती धारणी रत्नप्रभा रोहिणी स्थल ७ २ मरु २१६ २१७ orm mm २१६ २१६ २०० १६० १३८ 33७ ५ ६ ५ १ पद्म पद्म ५५ १७८ ११२ १३५ पर्व सर्गः नाम ७ ८ द्युति प्रीतिकर भवदत्त श्रीतिलक श्रीधर श्रीनन्द श्रीनन्दन सर्वसुन्दर सुरनन्द ९ जयभूषण अतिवेग अमृतघोष धर्मरत्नाचार्य विजयसेनर्षि सुदर्शन सुव्रत ७ ११ सुदर्शन १३ वरधर्म साध्वी ५ १ अजितसेना ६ २ सुव्रता ७ २ इन्दुमाला ४ कमलश्री ९ सुप्रभा लक्ष्मीवती हरिकान्तार्या सेनानी ७ ८ कृतान्तवदन कृतान्तवदन स्त्री चन्द्रयशस् हिरण्यलोमिका श्रीदत्ता प्रभङ्करा श्रीदत्ता विजयसेना शङ्घिका ५ केसरा मदिरा जिनमती प्रियदर्शना विनयवती ७ वनमाला ७ ३ जया ४ उपास्ति २१३ २३३ ११२ १९३ १९३ २५३ १०८ ११० २८९ २३२ ४०१ ४०१ १०५ १०५ १५४ १९ १६४ ३९२ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। तृतीयं परिशिष्टम् ॥ । हैमवचनामृतम् ॥ ॥ पञ्चमं पर्व ॥ ॥ प्रथमः सर्गः॥ फल्गु बाह्यं हि मण्डनम् ॥११|| दुर्जया विषयाः खलु ।।२८।। प्रज्ञाया: किं न गोचरः? ॥३१॥ विदेशो विदुषां हि कः ? ॥३३॥ क्व नाऽर्घन्त्युज्ज्वला गुणा: ?||३९|| आराध्योऽतिथिमात्रोऽपि किं पुन: स पिताऽतिथि:? ॥६२।। महात्मानः प्रकृत्याऽपि शपथच्छेदकातराः ॥६९।। दण्डसाध्यास्तु दुर्मदाः ॥८६॥ न मनागपि जीवन्ति कुलनार्य: पतिं विना ।।८९|| ....नोत्कण्ठा विलम्ब सहते क्वचित् ॥१५९|| निराम्नायस्य वचसि श्रद्धा न प्रत्ययं विना ॥१८७।। ज्ञानमव्यभिचारि स्यान्नान्यतो जिनशासनात् ॥१९०॥ ....विवेको हि स्मरार्तानां कियच्चिरम्? ॥१९५।। अवश्यभावी यो ह्यर्थो यत्र तत्र स नाऽन्यथा ॥२०१।। न भावि क्वचिदन्यथा ॥२१८॥ स्वाम्युदर्काय धीमन्तो यान्ति स्वाम्यन्तरेऽपि हि ॥२३॥ अभियोगो हि योगाय क्षेमे सति विपश्चिताम् ।।२५।। दैवं हि बलवत् परम् ॥२६३।। धैर्य-वीर्यविहीनानां छलमेव हि पौरुषम् ॥३१०॥ सुमेरुमपि गच्छन्ति खगाः किं तेषु पौरुषम्? ॥३१६॥ न वालुकादेवकुलं सहते सरितो रयम् ॥३१७॥ कृते प्रतिकृतं सद्यो कुर्वन्ति हि मनस्विनः ।।३४२।। न हीन्द्रकुलिशस्याऽपि स्फूति: केवलिपर्षदि ॥३६७।। ....पूर्वसंस्कारो याति जन्मशतान्यपि ॥४१७।। कौमुदी हि निशान्तेऽपि कुमुदामोदकारणम् ॥४८५।। ॥ द्वितीयः सर्गः॥ प्रष्टुमर्हो न सामान्यजनो हि स्वप्नमुत्तमम् ॥१२॥ स्वकार्यमारब्धमपि सन्तोऽन्यार्थे त्यजन्ति हि ॥४६॥ दीयमाने हि सदने किं भवत्यश्वकः पृथकू? ॥८६।। ....न लवन्ते पूज्यपूजां विवेकिनः ॥९८।। गुणः श्रुतो जनश्रुत्याऽप्यनुरागाय तद्विदाम् ॥११६॥ अपूर्वस्य दिदृक्षा हि कालक्षेपं क्षमेत न ॥११७।। यस्योदय: स वन्द्यो हि यथा हीन्दुर्यथा रविः ॥२४२।। विषमल्पमपि प्सातं प्राणनाशाय जायते ॥३०८।। Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोकेनाऽपि हि रन्ध्रेण यथा मज्जति नौजले। दुष्कर्मणाऽल्पकेनाऽपि तथा दुःखेषु ही जनः ।।३१२॥ महात्मभ्य: प्रदत्तं हि कोटिकोटिगुणं भवेत् ॥३४०।। स्थानं नैकत्र साधूनां नि:सङ्गानां समीरवत् ॥३४१।। नाशो नार्जितकर्मणाम् ॥४००॥ अपत्यस्नेहो बली खलु ॥४०२|| महतामनुलग्नैर्हि महदासाद्यते फलम् ॥४०४।। किं कम्पते क्वचिच्छैलो दन्तघातेन दन्तिन:? ॥४१९।। । तृतीयः सर्गः॥ न वन्ध्यं दर्शनं सताम् ॥३१॥ उपचार: स्याद् भाविन्यपि हि भूतवत् ॥७२॥ कषाया नरकायैव यतोऽनन्तानुबन्धिनः ।।१३८।। कृतज्ञा हि विवेकिनः ।।१७५।। ...पक्षे सतां जनः ।।१८७।। ....सूर्यभालोके कियत् तिष्ठन्ति कौशिका: ? ॥२१४।। क्षीणोपायविशेषाणां क्षीणपौरुषसम्पदाम् । परैराक्रम्यमाणानां शरणं कुलदेवताः ॥२०६।। भक्तिग्राह्या हि देवताः ॥२०९|| उन्मूढे हि क्षुते प्रायेणैकः शरणमर्यमा ।।२१२।। दुष्करं नास्ति दोष्मताम् ॥२४६॥ मूलेषु हि विशुष्केषु शुष्क एव महीरुहः ॥३२२।। हन्यते हैमनं जाड्यं न विना ज्वलितानलम् ।।३२३।। वीरैः कृष्टेष्टकः पूर्वं वप्र: कै: कैर्न खण्ड्यते ? ॥३२५।। वस्त्वधीनं बहूनां हि न खल्वेकेन भुज्यते ॥३८५।। पूर्वकर्मानुसारेण जायते जन्मिनां हि धीः ॥३८६।। सुलक्षं हि परस्वान्तमिङ्गिताकारवेदिभिः ॥४१३।। प्रायो मनुष्यघटितं कार्यं विघटते क्वचित् ॥४२९।। न हि मिथ्या कुलीनवाक् ।।४३८।। प्रतिज्ञा च कुलीनानां न मुधा जातु जायते ॥४३९।। अङ्गुलीदर्शनेनेव कूष्माण्डं हा विपत्स्यते ।।४४५।। ....शस्यमानं हि दुःखं प्राय: प्रशाम्यति ॥४५३।। जीवन् हि नरो भद्राणि पश्यति ।।४५७|| प्रयाति सात्त्विकानां हि दैवमप्यनुकूलताम् ।।४८३॥ आत्मैवोपरि सर्वस्य प्रायेणोपस्थिते भये ॥४६७|| सुप्रयुक्तस्य दम्भस्य ब्रह्माऽप्यन्तं न गच्छति ॥५०५।। अन्यं हि दुःखितं दृष्ट्वा समाश्वसन्ति दु:खिनः ।।५२१।। ॥ चतुर्थः सर्गः॥ समृगेन्द्रे गतिर्मार्गे मृगस्य कुशलाय न ॥३२।। आर्तध्यानस्य हि फलं तिर्यग्योनिषु सम्भवः ॥१२॥ छद्मस्था हि जिना नाऽन्यमुनिवत् क्वचिदासते ॥१३७॥ दुःस्थितेषु हि महतां वात्सल्यमतिरिच्यते ॥२३६।। क्षत्रियाणां न धर्मोऽयं शरणार्थी यदर्प्यते ॥२५९।। पित्ताग्निः शर्कराशम्य: पयसा किं न शाम्यति ? ॥२६५।। सर्वेष्वप्यनुकूला हि महान्त: करुणाधनाः ॥२६९।। धर्मप्रियोऽपि किं पापं न करोति बुभुक्षित: ? ॥२७१।। सूनो: पुरुषकारो हि हर्षाय प्रथमं पितुः ॥२९३।। लोभ: कस्य न मृत्यवे? ॥२९७।। सत्यो हि पतिवम॑गाः ॥३३७|| XXE ॥ पञ्चम: सर्गः॥ Recommam अर्हत्प्रभावस्याऽवधिर्न हि॥४८।। सर्वं शोभते समयोचितम् ॥१०६|| दयावीरा महात्मान: प्रसृतेऽन्यरसेऽपि हि ॥१०८।। पुत्रोद्वाहोत्सवानां हि न तृप्यन्ति महर्द्धयः ॥११०।। महतामवतारो हि विश्वपालनहेतवे ॥११२।। निकाचितं भोगफलं भोग्यं कर्माऽर्हतामपि ॥११३।। दुर्वारा भवितव्यता ।।२८७।। कलङ्कः खलु धर्मस्य स्तोकोऽप्यत्यन्तदु:खदः । पूजामाचारपूज्यस्य पूज्या अपि हि कुर्वते ॥१२७|| सर्वमप्य॒जु दोष्मताम् ।।१७०॥ सर्वत्राऽस्खलितो मार्गः प्रभूणां स्रोतसामिव ।।१७२।। Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ षष्ठं पर्व॥ ॥ प्रथमः सर्गः॥ विनाऽपि तीव्रतां विश्वं प्रकाशयति चन्द्रमाः ॥२२॥ यद्वोत्पन्ने तीर्थनाथे सदोत्सवमयं जगत् ।।४९|| महात्मानो हि कुर्वन्ति सेवकेष्वपि सत्कृतिम् ॥५५॥ लोलेन्द्रिये यौवने हि यत् तपस्तत् तपो ननु । दारुणास्त्रे रणे यो हि शूरः शूरः स उच्यते ॥२५॥ धिङ् मूढानां तपोव्ययम् ।।४७|| प्रेम्णो दूरे न किञ्चन ॥५९॥ काम: कामं निरङ्कुशः ॥६०॥ स्त्रीणां लुब्धो जनः प्रायो दोषं न खलु वीक्षते ॥६३॥ किं यमस्य दवीयसि ? ||७४|| राज्यं हि विक्रमाधीनं न प्रमाणं क्रमाक्रमौ ॥७५।। सदा वैरायमाणा हि शङ्कन्ते परतो मृतिम् ॥८४॥ क्षात्रं तेजो हि दुर्धरम् ।।९४|| किं न स्यात् पुण्यसम्पदा ? ॥९९|| ॥ षष्ठः सर्गः॥ सामान्यपुण्यैर्न ह्यर्हन् देव: साक्षानिरीक्ष्यते ॥४४॥ पुर: कल्पलताया हि सहकारलता: कियत् ? ॥९५।। असृजा क्षाल्यमानं किमसृन्दिग्धं विशुध्यति ? ॥१२८|| केनेश्वरवचो युक्तियुक्तं बाधितुमीश्यते ? ॥१३०॥ किं स्यान्नाऽर्हदनुग्रहात् ? ॥१९७।। ॥ द्वितीयः सर्गः॥ आत्मनीनो हि सर्वोऽपि स्तोकेच्छुः कोऽपि नात्मनः ॥११०॥ तिष्ठन्ति न चिरं जातु मानिन: श्वशुरौकसि ॥१२५॥ याति वर्णपरावृत्त्या रूपं काव्यवदन्यताम् ॥१३९॥ विना पतिं कुलस्त्रीणां वासो ह्यन्यत्र नोचितः ॥१४१।। गीतहार्या मृगा अपि ॥१८४॥ शोभते पुष्पदाम्नैव प्रतिमा सकलाऽपि हि ॥१८६।। वरं मणि: केवलैव न तु काचाङ्गुलीयगा। वरं सरिजलरिक्ता न तु याद:समाकुला ॥२०१।। शून्यैव वरं शाला न तु तस्करपूरिता। अद्रुमैव वरं वाटी विषद्रुममयी न तु ॥२०२॥ अनुदूढा वरं नारी रूपयौवनवत्यपि। निष्कलेनाऽकुलीनेन न तु पत्या विडम्बिता ॥२०३॥ 'बहुरत्ना हि भूरियम् ॥२०५॥ सम्बन्धश्च सखित्वं च समयोरेव शोभते ॥२२६।। आस्तामत्र सतां सङ्ग: परलोकेऽपि शर्मणे ॥२३१॥ स्त्रीणां प्रकृतिलोलानां परं स्थैर्ये न निश्चयः ॥२३३॥ पुत्री-जामातृविरहः प्राय: कस्य न दुःसहः ? ॥२४२।। गतिः साहसिकानां हि समा स्थल-जलाध्वनोः ॥२४३|| मृत्यु ऽत्रुटितायुषः ॥२४८॥ एकाऽपि हि हरेच्चित्तं किं पुन: सकला: कला: ? ॥३०७।। वृत्तकं स्यादनुभूतं प्राक्पुंसां चरितं कथा ॥३२४॥ सेवकानां विना सेवां भज्यते खलु जीविका ॥३४४॥ प्रियोदन्ताहर: कस्य न वल्लभ: ? ॥३५९।। यत्र तत्र पुण्यं ह्यनुचरं नृणाम् ॥३७४।। ॥ सप्तमः सर्गः॥ प्रायेण प्रेयसीप्राप्तिप्रत्याशाऽपि हि शर्मणे ॥५७|| स्निग्धद्रव्यस्य योगाद्धि स्निग्धीभवति भाजनम् ॥१६७।। न मोघा देशनाऽर्हताम् ॥१९॥ ॥ अष्टम: सर्गः॥ तपोलेशोऽपि नाऽफलः॥५|| पाखण्डिनां हि पाण्डित्यं प्राकृतेष्वेव ज़म्भते ॥२१॥ स्थानं विदेशो हि मानिनामपमानिनाम् ॥३८॥ अभ्यागतेऽन्यनपतिप्रधाने ह्यर्थिनो नृपाः ॥३९।। गेहेनर्दीत्यपवादः सुलभ: गर्जतां गृहे ॥४३॥ उपायं वचसा वक्तुं कातरा अपि पण्डिताः ।।४४|| छद्याऽपि क्वाऽपि शोभते ॥७५।। आन्ध्याय क्रोध एकोऽपि कि पुनर्मदमूर्छितः ? ॥७६।। जीवन्मृता हीनवरा: स्त्रियः ॥९५।। एकद्रव्याभिलाषो हि महद्वैरस्य कारणम् ॥१०८॥ साधूनां लब्धिभोगोऽपदे न हि ॥१४१॥ न्यासवत् प्रतिपन्नस्य नाऽस्ति नाशो महात्मसु ॥१४४।। उपयोगोऽपिलब्धीनां सङ्घकार्ये न दुष्यति ॥१५९|| स्वामिनो भृत्यदोषेण गृह्यन्ते ॥१९२।। ॥ तृतीयः सर्गः॥ वीराणां हि रणो मुदे ॥३१॥ ॥ चतुर्थः सर्गः॥ वृन्दं हि बलवत्तरम् ॥३॥ वीरा: सत्त्वाच्चलन्ति न ||१७|| निशीथकृत्यं कः प्रात: कुर्यादुद्योगवानपि ? ॥२२॥ जलमानेन नलिनीनालं हि परिवर्धते ॥२४॥ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ सप्तमं पर्व ॥ ॥ प्रथमः सर्गः ॥ प्रायो विचार कोषः सुप्रशमः खलु ॥ २३॥ यथा राजा तथा प्रजाः ||३३|| असह्यो हि स्त्रीपराभवः || ४६ || वन्दनीयः सतां साधुपकारी विशेषतः ॥४९॥ निर्नाथानां कुतः शौर्यं ? हतं सैन्यं ह्यनायकम् ॥७६॥ क्वाऽप्युपायोऽपसर्पणम् ॥८४॥ मृत्यवे हि स्याद् वीरैर्वैरं चिरादपि ॥ ९५ ॥ बलवानपि किं कुर्यात् प्राप्तः केसरिणा करी ? ॥ १२३॥ भिप्रायां प्राय: प्राणा हि तृणसन्निभाः ॥ १२८॥ ॥ द्वितीयः सर्गः ॥ तालिका नैकहस्तिकाः ||३६|| महतामपराद्धे हि प्रणिपात: प्रतिक्रिया ॥६९॥ सरसो लूनपद्यस्य भग्नदन्तस्य दन्तिनः । शाखिनश्छिन्नशाखस्याऽलङ्कारस्य च निर्मणेः ॥ ११९ ॥ नष्टज्योत्स्नस्य शशिनस्तोयदस्य गताम्भसः । परैश्च भग्नमनस्य मानिनो धिगवस्थितिम् ॥ १२० ॥ युग्मम् ॥ आश्रयस्य हि दौर्बल्यादावितः परिभूयते ॥ १४३॥ महतामागमो ह्याशु क्लेशच्छेदाय कस्य न ? ॥ १४८ ॥ दोष्मतां हि प्रियो युद्धातिथिः खलु ॥ २०५ ॥ दोष्मन्तो हि निजैरेव दोर्भिर्विजयकाङ्क्षिणः ॥ २११ ॥ क हस्तिनामवस्थानं वने सिंहनिषेविते ? ॥ २२४ ॥ रत्ने हि बहवोऽर्थिनः ॥ २८३॥ यदि प्राणिवर्धनाऽपि स्वर्गे जावेत देहिनाम् । तच्छून्यो जीवलोकोऽयमल्पैरेव दिनैर्भवेत् ||३७३॥ Pissत्मीयाः कस्यचिन्नृपाः || ४१४ || सत्या वा यदि वा मिथ्या प्रसिद्धिर्जयिनी नृणाम् ॥४१७।। अविमृश्य विधातारो भवन्ति विपदां पदम् ||४२८॥ पुत्रार्थे क्रियते न किम् ? ॥४३०॥ प्राणैरप्युपकुर्वन्ति महान्तः किं पुनर्निरा ? || ४३६ ॥ प्राणात्ययेऽपि न शंसन्ति नाऽसत्यं सत्यभाषिणः ॥४३७॥ घटप्रभृतिदिव्यानि वर्तन्ते हन्त सत्यतः । सत्याद् वर्षति पर्जन्यः सत्यात् सिध्यन्ति देवताः || ४४५ ॥ न वाग्मानं कलाय विशुद्धमनसां नृणाम् ॥ ५६६ ।। अर्थोऽर्थेषु न तथा दोष्मन्तो विजये यथा ॥ ५७३ ॥ एकान्तविक्रमः काऽपि विपदेऽपि प्रजायते । एकान्तविक्रमान्नाशं शरभाद्याः प्रयान्ति हि ॥ ५८२|| वीरा हिन सहन्ते ऽन्यवीराहङ्कारडम्बरम् ||६०५ ॥ तेजस्विनां हि निस्तेजो मृत्युतोऽप्यतिदुःसहम् ॥ ६३२॥ ७३ कर्माण्यवश्यं सर्वस्य फलन्त्येव चिरादपि । आपुरन्दरमाकीटं संसारस्थितिरीदृशी ||६४७॥ ॥ तृतीयः सर्गः ॥ स्तोकमप्यमृतं श्रेयो भारोऽपि न विषस्य तु ॥ २८ ॥ भृत्योऽपि हि विरक्तः स्यादापदे किं पुनः प्रिया ? ||३५|| किं स्वादुनाऽपि भोज्येन रोचते न यदात्मने ? ॥३६॥ मानिनो ह्यवलेपं न विस्मरन्ति यतस्ततः ॥ ४६ ॥ स्वदुः खाख्यानपात्रं हि नाऽपरः सुहृदं विना ॥ ८५ ॥ रहःस्थयोर्हि दम्पत्योर्नछेका पार्श्ववर्तिनः ॥ ११० ॥ स्वामिवत् स्वाम्यपत्येऽपि सेवकाः समवृत्तयः ॥ १३२॥ सन्तः सतां न विपदं विलोकयितुमीश्वराः ॥ १३३ ।। अचिन्त्यं चरितं स्त्रीणां हि (ही) विपाको विधेरिव ।। १३८ ।। अञ्जनलेशोऽपि दूषयत्वंशुकं शुचि ॥ १३९ ॥ अदिष्टामुलि किं न छिद्यते धीमता नृणा ? ॥ १४१ ॥ दु:खे दुहितृणां शरणं शरणं पितुः ॥ १४२ ॥ अत्युग्रपुण्य-पापानामिहैव ह्याप्यते फलम् ॥ २३७॥ धिग्धिक् पतिमपण्डितम् ॥ २४७॥ प्रहरेद् बाहुना को हि तीक्ष्णे प्रहरणे सति ? ॥ २८४ ॥ सर्वत्र बलवच्छलम् ॥ २९७ ॥ प्रणिपातान्तः प्रकोपो हि महात्मनाम् ॥ २९९ ॥ ॥ चतुर्थः सर्गः ॥ नमतिर्न हि सत्यैव प्रायो धवलगीतवत् ॥ १८॥ कुलधर्मः क्षत्रियाणां स्वसन्धापालनं खलु ॥ २५॥ प्रामोदयं हि तरणिं तिरोधातुं क ईश्वरः ? ||३६|| लोभाभिभूतमनसां विवेकः स्यात् कियच्चिरम् ॥४३॥ भाविन्यप्युपचारो हि भूतयत् ॥५०॥ दूरादभ्यागमस्तुल्यो दुर्हृदां सुहृदामपि ॥५७॥ छलनिष्ठा हि वैरिणः ॥ ७३ ॥ किं सिंही हन्ति न द्विपान् ? ॥७४॥ नासत् प्राप्यते काऽपि केनाऽप्याकाशपुष्पवत् ॥८९॥ आप्ता हि स्फुटभाषिणः ॥ १२९ ॥ समयज्ञा हि धीमन्तो न तिष्ठन्ति यथा तथा ॥ १७१ ॥ राज्यं सर्वत्र दोष्मताम् ।। १७३ ।। विशेषतः प्रीतये हि राज्ञां भूः स्वयमर्जिता ।।१७४।। लोकस्थितिरियं जाते नन्दने दानमक्षयम् ॥ १७९ ॥ हर्षे को नाम तृप्यति ? ॥१९१॥ किं न कुर्यात् स्मरातुरः १ ॥ ११०॥ ? व्रत होकाहमात्रेऽपि न स्वर्गादन्यतो गतिः ॥ २१४॥ कोपः शाम्यति महतां दीने श्री रावपि ॥ २३३॥ शोको हर्षश्च संसारे नरमायाति याति च ॥ २५३॥ सन्तः सतां परित्राणे विलम्बन्ते न जातुचित् ॥ २७२॥ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ दीयन्ते कन्यका: सकृत् ॥३१९॥ ध्वस्ते माने हि दु:खाय जीवितं मरणादपि ॥३६०॥ प्रस्तरोत्कीर्णरेखेव प्रतिज्ञा हि महात्मनाम् ।।४२४।। महतां हि प्रतिज्ञातं न चलत्यद्रिपादवत् ।।४९४|| न ही: पूज्याद्धि बिभ्यताम् ॥१६४|| पर्यस्ते शकटे हन्त किं कुर्वीत गणाधिप: ? ॥२८३।। राजकार्येऽपि राजान उत्थाप्यन्ते झुपायतः ।।२८६।। नाऽऽप्तस्याऽऽप्ते प्ररोचना ॥२८७।। अयोऽपि हेमीभवति स्पर्शवेधिरसान्न किम् ? ||३३४।। ।। पञ्चमः सर्गः।। ॥ अष्टमः सर्गः॥ मायोपायो बलीयसि ॥१५॥ खला: सर्वङ्कषा: खलु ॥१६॥ जातु धर्ममधर्मं वा न गणयन्ति मानिनः ॥३७॥ भृत्ये कोप: शिक्षामात्रकृते शिष्ये गुरोरिव ॥६३॥ मन्त्रिणां मन्त्रसामर्थ्यात् स्यादलीकेऽपि सत्यता ॥९३।। शकुनं चाऽशकुनं च गणयन्ति हि दुर्बलाः ॥१०३॥ सन्तो हि नतवत्सला: ।।२२९।। सामान्योऽप्यतिथि: पूज्य: किं पुनः पुरुषोत्तम: ? ॥२५७|| अपूर्वशस्वालोके हि क्षत्रियाणां कुतूहलम् ।।३८६।। कामावेश: कामिनीनां शोकोद्रेकेऽपि कोऽप्यहो! ॥३९८।। महत्सु जायते जातु न वृथा प्रार्थनाऽर्थिनाम् ।।४०६।। वीरा हि प्रजासु समदृष्टयः ॥३॥ विवेके न हि रौद्रता ॥१४८॥ नैकत्र मुनयः स्थिरा: ॥२३५।। प्रवादा लोकनिर्मिताः ॥२६४॥ अवश्यमेव भोक्तव्ये कर्माधीने सुखासुखे ॥२७३।। धर्मः शरणमापदि ॥२७४।। राजतेजो हि दुस्सहम् ।।२७८।। प्राय: प्रेमाऽतिदुस्त्यजम् ।।२८७|| न भक्ता: क्वाऽप्युपेक्षकाः ॥२८८|| न रक्तो दोषमीक्षते ।।२९२॥ यथा तथाऽपवदिता यदबद्धमुखो जनः ।।३००॥ लोक: सौराज्यसुस्थोऽपि राजदोषपरो भवेत् । शिक्षणीयो न चेत् तत्रोपेक्षणीय: स भूभुजाम् ।।१०१|| सर्वलोकविरुद्धं तु त्याज्यमेव यशस्विना ॥३०२।। ॥ षष्ठः सर्गः॥ न सिंहस्य सखा युधि ।।१२।। विजयो ह्यन्यसाहाय्याद् दोष्मतां हिये ।।१९।। अनिर्वेदः श्रियो मूलं ॥५१॥ यद् घात्या एव रिपव: स्वतोऽपि परतोऽपि वा ।।८८॥ सतां सङ्गो हि पुण्यत: ।।९७॥ क्षुते हि सर्वथा मूढे शरणं तरणिः खलु ॥१०१॥ स्वकार्यादधिको यत्नः परकार्ये महीयसाम् ॥१०२।। रणाय नाऽलसा: शूरा भोजनाय द्विजा इव ॥१०८॥ न द्वितीया चपेटा हि हरेहरिणमारणे ॥११४।। धिगहो! कामावस्था बलीयसी॥१४२॥ महात्मनां न्यायभाजां कः पक्षं नाऽवलम्बते? ॥१७९।। अनागतं हि पश्यन्ति गन्त्रिणो मन्त्रचक्षुषा ॥१८१।। छलच्छेका: खला: खलु ॥२९|| धिगहो! नीचसौहृदम् ॥३०४।। सर्वमस्त्रं बलीयसाम् ॥३७१।। कौतुकाद्धि क्षणं दत्ते शक्तो जयमपि द्विषाम् ।।३८७।। अङ्गारान् परहस्तेन कर्षयन्ति हि धूर्तकाः ।।३९२।। बद्धो हि नलिनीनालैः कियत् तिष्ठति कुञ्जर: ? ||४०३।। ॥ नवमः सर्गः॥ एकं धर्मं प्रपन्ना हि सर्वे स्युर्बन्धवो मिथः ॥१३॥ स्त्रीणां पतिगृहादन्यत् स्थानं भ्रातृनिकेतनम् ।।१४॥ विधुरेषु हि मित्राणि स्मरणीयानि मन्त्रवत् ॥५२॥ पूज्ये हि विनयोऽर्हति ॥१०॥ पुत्रात् पराजयो वंशोद्योतनाय न कस्य हि ? ॥१५०॥ दैवस्येव हि दिव्यस्य प्रायेण विषमा गतिः ॥२०६॥ ॥ दशमः सर्गः ॥ वध्या भ्रातरः खलु ॥१०१।। कर्मविपाको दुरतिक्रमः ॥१२३॥ प्रविशन्ति च्छिद्रशते नृणां भूतशतानि हि ॥१४१।। गतय: कर्माधीना हि देहिनाम् ।।२३।। ॥त्रयोदश: सर्गः।। न देवोऽपि भुव्यलं चक्रवर्तिनः ॥१५|| ॥ सप्तमः सर्गः॥ रिपावपि पराभूते महान्तो हि कृपालवः ।।९।। आप्तेन मन्त्रिणा मन्त्र: शुभोदर्को हि भूभुजाम् ॥२७॥ यथा तथा हि विश्वास: शाकिन्यामिव न द्विषि ॥३६।। न मुधा भवति क्वाऽपि प्रणिपातो महात्मसु ॥४४।। Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ત્રિષષ્ટિશલાકાપુરુષચરિત यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न कुत्रचित् // ‘જે અહીં છે તે અન્ય સ્થળે છે; જે અહીં નથી તે ક્યાંય નથી.” ઉપરનાં વચન મહાભારત માટે લખાયેલાં છે. તે જ વચન ત્રિષષ્ટિશલાકાપુરુષચરિતને સારી રીતે લાગુ પડે છે. ત્રિષષ્ટિશલાકાપુરુષચરિત એટલે જૈન સંપ્રદાયના સિદ્ધાંતો, કથાનકો, ઇતિહાસ, પૌરાણિક કથાઓ, તત્ત્વજ્ઞાનનો સર્વસંગ્રહ, આખા ગ્રંથનું કદ 36000 શ્લોક ઉપરાંત પ્રમાણનું થવા જાય છે. આ મહીસાગર સમાન વિશાળ ગ્રંથની રચના શ્રી હેમચંદ્રાચાર્ય તેમની ઉત્તરાવસ્થામાં કરી હતી. શ્રી હેમચંદ્રાચાર્યની સુ ધાવષિણી વાણીનાં ગૌરવ અને મીઠાશ એ મહા કાવ્યમાં આપણે અનુભવી શકીએ છીએ, સમ કાલીન સામાજિક, ધાર્મિક અને વિચારગત પ્રણાલિકાનાં પ્રતિબિંબો એ વિશાળ ગ્રંથમાં ઘણે સ્થળે આપણે જોઈ શકીએ છીએ. એ રીતે તો ગુજરાતનો તે કાલનો સમાજ અને તેનું માનસ તેમાં નિગઢ રીતે પ્રતિબિંબિત થયા છે. આ દૃષ્ટિએ ત્રિષષ્ટિશલાકાપુરુષચરિતનું મહત્વ હેમચંદ્રાચાર્યની કૃતિઓમાં વિશિષ્ટ પ્રકારનું છે. કચાશ્રયમાં જેટલું વૈવિધ્ય તેમનાથી સાધી શકાયું છે તેના કરતાં અનેક પ્રકારે ચઢિયાતું વૈવિધ્ય આ ગ્રંથમાં દૃષ્ટિગોચર થાય છે. ત્રિષષ્ટિશલાકાપુરુષચરિતમાં 63 ‘શલા કાપુરુષો ’’નાં ચરિતોનું આલેખન કરવામાં આવ્યું છે. “શલાકાપુરુષો '' એટલે તે પ્રભાવ કે પુરુષો જેમના મોક્ષ વિષે સંદેહ નથી. આ ત્રેસઠ શલાકાપુરુષોમાં ર૪ તીર્થકર, 1 2 ચક્રવતી, 9 વાસુદેવ, 9 બળદેવ, તથા 9 પ્રતિવાસુદેવનો સમાવેશ થાય છે. કાવ્યની અને શશાસ્ત્રની દૃષ્ટિએ તો કાવ્યની વાત જ શી કરવી? તેમાં પ્રસાદ છે, કલ્પના છે, શબ્દનું માધુર્ય છે, સરળતા છતાંય ગૌરવ છે. આ નાના પ્રકરણમાં આ બધુંય બતાવવા માટે શી રીતે અવતરણો આપવાં ? જિsiાસુને તો મળjથ જોવા માટે જ ભલામણ કરવી રહી. એક પરિશીલન કરનાર કહે છે કે “એ ગ્રંથ આખોય સાવંત વાંચવામાં આવે તો સંસ્કૃત ભાષાના આખા કોશનો અભ્યાસ થઈ જાય તેવી તેની ગોઠવણ છે.” | ત્રિપષ્ટિશલાકાપુરુષચરિતનું આખુંય અવલોકન અને પરિશીલન એ નાના પ્રકરણનો વિષય ન જ થઈ શકે. 36000 શ્લોકના અગાધ કાવ્યશક્તિ અને વ્યુત્પત્તિથી ભરેલા ગ્રંથનું પ્રસ્તુત પરિશીલન અત્યંત અલ્પ છે. આખાય ગ્રંથનું સમગ્ર પરીક્ષણ તો એક વિસ્તૃત મહાનિબંધનો વિષય બની શકે. હેમચંદ્રાચાર્યનું કલિકાલસર્વજ્ઞનું બિરૂદ આ એકલો ગ્રંથ પણ સિદ્ધ કરી શકે એવો એ વિશાળ, ગંભીર, સર્વદશી છે. એક દિશાસુચક પ્રકારશિલાકાથી વધારે તો ક્યાંથી આ નાનું લખાણ આપી શકે? કાલિદાસના શબ્દોમાં ‘દુસ્તર સમુદ્રને તરાપા ''થી ઓળંગવા માટે આશા સેવતા હેમસારસ્વતના ઉપાસકેના પ્રયત્ન કરતાં આ પ્રકરણમાં વધારે હોઈ પણ શું શકે ? - મધુસૂદન મોદી (“હેમસમીક્ષા''માંથી સભાર ઉદ્ધત)