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THE FREE INDOLOGICAL
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- The TFIC Team.
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भगवान महाकार
(भगवान महावीर का प्रामाणिक जीवन चरित्र)
लेखक
चन्द्र राजभडारी विशारद
प्रकाश
श्रीमहावीर ग्रंथ प्रकाश मन्दिर,
भानपुरा (en)
प्रथम प्रसारण
(गूल्स-रेशमी जिल्ट ४JRO हे राम संस्करण १०) ए.
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प्रकाशक
श्रीमहावीर ग्रंथ प्रकाश मंदिर, भानपुरा (होलकर राज्य)
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ग्राहकों से क्षमा प्रार्थना
हमने “भगवान् महावीर” के भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा तक ग्राहकों के पास पहुँचादेने का वायदा किया था । उसी वायदे के अनुसार पुस्तक चित्रों सहित एकादशी पर ही तैयार हो गई थी पर 'जिल्ददधी कलकत्ते में होने के कारण यह इतने विलम्व से पाठकों के पास पहुँच रही है। इसके लिये हमें दुख है 1
मुद्रक - गणपति कृष्ण गुर्जर, श्रीलक्ष्मीनारायण प्रेस, बनारस सिटी | १३९९ - २४
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भगवान् महावीर पर न्याय विशारद न्यायाचार्य जैनमुनि श्री न्यायविजयजी
की सम्मति 'जिन'का चरिन अभी तक किसी भी लोक-भाषा में पूर्णतया (सागोगग) प्रकाशित नहीं हुभा है उन महावीर देव के जीवन के लिखने के निए लेखक को शनश साधुगद । यह शुभ अध्यवसाय और शुभ प्रयल नया अनुमोदनीय है । इसके लिखने में लेखक ने अनेकानेक अन्यों के आधार पर गवेपणापूर्ण दृष्टि से जो काम लिया है वह इस पुस्तक की प्रशंसनीय विशेषता है । ऐतिहासिक दृष्टि और वैज्ञानिक पद्धति का अनुसरण तो-इसके अंदर यथा संभव आदि से अन्न तक है ही किन्तु कहीं कहीं विचार-स्वातन्त्र्य का उपयोग भी दीख पटना है; परन्त दर समय के लिये वह तो दूपणरूप न होकर भूपणरूप है, और प्रज्ञावान् के लिये वह अनिवार्य भी। हाँ, केवल कल्पनासम्भूतनऊ के माधार पर मतापही दो जाना, निःसन्देह, हृदय की अनुदार वृत्ति * । वमान नयी रोशनी के कई लेखकों के अंदर ऐसी वृत्ति पाई जाती
। प्रस्तुत पुस्तक में भी कहीं यह यात पाई जाय तो कोई आश्चर्य नहीं। टियों का होना प्रायः हर एक कार्य में साहजिक है।
पुस्तफ पडे काम की है। महावीर-जीवन की ऐसी पुस्तक यह पहले ही नजर आती है। जैन के सभी फिरके वालों को अपनाने के योग्य है। और भाशा है कि-महावीर-देव के जीवन-चित्रण के लिए
से छोटे बड़े प्रयास अधिकाधिक अध्यवसाय पूर्वक जारी रहने पर एक दिन यह मा सकेगा कि महावीर-जीवन का सम्पूर्ण-व्यवस्थित महाभारत दुनिया के सन्मुस रक्या नायगा।
इन्दौर दिनमा १ रवि० वि. धर्म-मवर० ३ )
मुनि न्यायविजय
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শার্জী
,
تشيكي
والتي
سه ..
- مهمان
श्रीमान् राय लेठ चांटमलजी रीयांवाल.
नोट.-चित्र परिचय के लिये पृष्ट नरना ४६५ देखिये ।
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र भूमिका।
RIATESन महात्माओंने पृथ्वी पर अवतीर्ण होकर जीवन के कठिन
रहस्यों को सुलझाने का प्रयत्न किया है-जिन महा.
स्माओं ने मनुष्य जाति के कल्याण की कामना पर R SE अपने जीवन का बलिदान कर दिया है और जिन महात्माओं ने भूली हुई मनुष्य जाति को ज्ञान के पथ पर लगाने का प्रवल प्रयास किया है उन महात्मानों के जीवन चरित्र सर्वसाधारण के रिए कितने उपयोगी हैं यह बतलाने की आवश्यकता नहीं । उन्नत देशों में और सुसंस्कृत साहित्य में ऐसे जीवन भल्कार स्वरूप समझे जाते हैं। ___भाज हम पाठकों के सम्मुख ऐसे ही उच्च श्रेणी के एक महान पुरुष का जीवन चरित्र लेकर उपस्थित होते हैं । पाठकों को इस जीवन चरित्र के पड़नेसे मालूम होगा कि भगवान महावीर का व्यक्तित्व कितना उन्नत और उदार था, उनका चरित्र कितना कठिन और संयम पूर्ण था एवं उनका उपदेश कितना दिव्य और मनोहर था।
भाजकल भारतवर्ष में साम्प्रदायिकता की लहर इतनी अधिकता के साथ उठ रही है-आजकल हमारा धार्मिक वायुमण्डल ऐसा विकृत हो रहा है कि उसमें रहकर वास्तविकता का प्रचार करना की बहुत कठिन हो रहा है। भगवान् महावीर का जीवन चरित्र लिखने वाले के मार्ग में भी ऐसी अनेक वाधाएं आकर उपस्थित होती हैं। साम्प्रदायिक झगड़ों के कारण भगवान् महावीर का भी रूप ऐसा विकृत हो गया है कि उसमें से वास्तविकता को निकालना अत्यन्त कठिन है। दिगम्बरी लोग कहते हैं
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भगवान महावीर वाल ब्रह्मचारी थे, श्वेताम्बरी कहते हैं नहीं उनका विवाह हुमा था। ऐसी हालत में लेखक के विचारों का ठिकाना नहीं रह जाता, उसे सत्य का अन्वेपण करना महा कठिन हो जाता है । साम्प्रदायिक ढक्त से जीवन चरित्र लिखनेवालों को तो इन दिदतों का सामना नहीं करना पडता पर जो एक सार्वजनिक एवं सर्वोपयोगी ग्रन्थ लिसने बैठता है उसे तो महा भयङ्कर कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है । हमारे खयाल से इसी कारण आजतक किसी भी विद्वान् ने इस कठिनाई पूर्ण काल में हाथ डालना उचित न समझा।
लेकिन इन सब कठिनाइयों और असुविधाओं का अनुभव करते हुए भी हम इस महान दुस्तर और कठिन कार्य में हाथ डालने का प्रयास कर रहे हैं। भगवान महावीर का जीवन चरित्र इतना गम्भीर और रहस्यपूर्ण है कि उसे लिखना तो क्या समझना भी महा कठिन है । अनुभव शील और दिग्गज विद्वान् ही इस महान कार्य में सफल हो सकते है । हम जानते हैं कि महावीर के जीवन चरित्र को लिखने के लिए जितनी योग्यता की दरकार है उसका शतांश भी हममें नहीं है। फिर भी इस महान् कार्य में हाथ डालने का कारण यह है कि कुछ भी न होने की अपेक्षा कुछ होना ही अच्छा है, कम से कम भविष्य के लेखकों के लिए ऐसी आधार शिलानों का साहित्य में होना आवश्यक है। ___यहाँ हम यह बतला देना भावश्यक समझते हैं कि हमने यह ग्रन्थ किसी पक्षपात के वश होकर नहीं लिखा है और न इस ग्रन्थ की रचना किसी सम्प्रदाय विशेप ही के लिए की है। इस ग्रन्थ को लिखने का हमारा प्रधान उद्देश्य ही यह है कि इसे सब लोग जैन और भजैन, श्रेताम्ररी और दिगम्बरी प्रेम पूर्वक पढ़ें और लाभ उठावें । लेखक का यह निर्भीक मन्तव्य है कि "भगवान् महावीर" किसी सम्प्रदाय विशेष की मौरूसी जायदाद नहीं है। वे सारे विश्व के हैं उनका उपदेश सारे विश्व का वल्याण करता है। ऐसा स्थिति में यदि कोई पाठक इसमें साम्प्रदायिकता
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की भावनाओं को ढूंढने का प्रयास करेंगे तो निराश होंगे। क्योंकि जो रेसक साम्प्रदायिकता को देश और जाति की नाशक समझता है उसके ग्रन्य में ऐसी भावनाओं का मिलना कैसे सम्भव है ? हाँ, जो लोग निरपेक्ष भाव से महावीर के जीवन के रहस्यों को और उनके विश्वव्यापी सिद्धान्तों को जानने के उद्देश्य से इस ग्रन्थ को सोलेंगे तो हमारा विश्वास है कि वे अवश्य सन्तुष्ट होगें।
महानोर के जीवन से सम्बन्ध रखनेवाली जितनी सर्वव्यापी बातें लेचक को दिगन्यरी अन्यों से मिली वे उसने दिगम्बरी ग्रन्थों से लीं, श्वेतान्यरी ग्रन्थों मे मिली वे उसने श्वेताम्बरी ग्रन्थों से लीं, जितनी चौद् अन्यों से मिली ये बौद्ध ग्रन्थों से गं, और जितनी अंग्रेजी ग्रन्थों से मिली ये अंग्रेजी ग्रन्थों से ली है। जो जो बातें जिस ढग से उसकी उदि को मान्य हुई उन्हें उनी दर से लिखी है । सम्भव है हमारे इस कृत्य मे कुछ पाठक नारान हाँ, पर इसके लिए हम लाचार हैं हमने इमारी बुद्धि के अनुसार हाँ तक अना महावीर के इस जीवन को उत्कृष्ट और मर्यव्यापी बनाने का प्रयास किया है।
हमारे गयाल से महावीर के जीवन का महत्व इससे नहीं होसकता कि वे मााचारी थे या विवाहित, इससे भी उनके जीवन का महत्व नहीं पा सकता कि ये पासणी के गर्भ में गये थे या नहीं। महावीर के जीरन का महल तो उनके असण्ट त्याग, कठिन संयम, उनत चरित्र और विश्वव्यापी उदारता के अन्तर्गत छिपा हुभा है। उसके पश्चात् उनके जीवन का महन्ध उनके विश्वव्यापी और उदार सिद्धान्तों से है। इन्हीं बातों के कारण भगवान महावीर संसार के सब महात्मानों से आगे बढ़े हुए नजर भाते हैं। इन्हीं बातों के कारण संसार उनकी इजत करता है।
हमारा कर्तव्य है कि हम इस सङ्कीर्णता और साम्प्रदायिकता को गेट कर-जो कि हमारी जाति और धर्मका नाश करने वाली है-महा. चोर की वास्तविकता को समझने का प्रयन करें। पक्षपात के अन्धे चश्में
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( ४) को उतारकर हम इन तत्वों को देखें जिनके कारण महावीर "भगवान् महावीर" हुए हैं। यदि हम निर्पेक्ष हो बुद्धि को शुद्ध कर महावीर के जीवन के गम्भीर रहस्यों का, उनके उदार और असण्डनीय तन्वों का अध्ययन करेंगे तो हमें वह उज्वल मानन्द, दिव्य शान्ति और ज्ञान का अलौकिक प्रकाश दिखलाई देगा जो वर्णनातीत है। __इस ग्रन्थ के प्रणयन में हमें करीव ५५ छोटे बड़े अन्यों से सहायता मिली है, उन सब के लेखकों के हम कृतज्ञ हैं । सव ग्रन्थों का गमोल्लेख करना यहाँ असम्भव है इसलिए उनमें से कुछ मुख्य २ ग्रन्थों का नाम दे देना आवश्यक समझते हैं।
महावीर जीवन विस्तार (गुजराती)। त्रिपिष्ठशाला के पुरुषों का चरित्र (गुजराती)। कल्पसूत्र, आचाराङ्ग सूत्र और उत्तराध्यन सूत्र । महावीर पुराण । कल्पसूत्र उपर निबन्ध (गुजराती)। हर्मनजेकोबी द्वारा लिखित सूत्रों की प्रस्तावना । डाक्टर हार्नल के लिखे हुए जैनधर्म सम्बन्धी विचार । बौद्धपर्व (मराठी)। दैशिक शास्त्र (हिन्दी)। भारतवर्प का इतिहास (लाला लाजपतराय)। जैनधर्मनु आहिंसातत्व (गुजराती)। मुक्तिका स्वरूप (हिन्दी सरस्वती से)। जैन साहित्य मा विकार थवा थी थयेली हानि (गुजराती)। डाक्टर परटोल्ड का धूलिया में दिया हुमा व्याख्यान । जैनदर्शन (मुनि न्यायविजयजी)। प्रवचनसार (कुन्दकुन्दाचार्य)। समयसार ( , ,)
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( ५ )
श्रेणिकचरित्र (हिन्दी)
उपरोक्त साहित्य के सिवा कई अंग्रेजी, बङ्गला ग्रन्थों और सामयिक पत्रों से भी सहायता मिली है। जिसके लिए लेखक उन सब रचयितानों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करता है ।
शान्ति मन्दिर भानपुरा श्रावणीपूरणमा १९८१
'चन्द्रराज भण्डारा विशारद'
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शुद्ध
शुद्धि पत्र इस ग्रंथ मे संशोधकों की दृष्टि दोष से यत्रतत्र कुछ अशुद्धियां रह गई हैं उनके लिये हमें खेद है । आशा है पाठक उन्हें सुधार कर पढ़ेंगे । इस स्थान पर हम उन थोड़ी सी मोटी २ अशुद्धियों का शुद्धिपत्र दे रहे हैं जिनसे भावों में अंतर आने का डर है । पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध ४७ २ इस ५० १२ प्रस्पोटिक
प्रस्पोटित ५१ १२ क
मजाक ५४ ९ या
पर ५७ ११ प्राणी को प्राणो की ६० १५ प्रताप ही के प्रताप ही से ६४ १० अव
जव ८ प्रोटेस्सेन्ट प्रोटेस्टेन्ट ६४ २४ विहिताश्रम विहितानव ६५ २२ ज्ञानीपुत्र
ज्ञातिपुत्र ६६ २ महापगा
महापग्ग ६७ ३ बात है
बात है जब ६८ १६ अनुमती
अनुमति ६९ १६ कोसिश
कोशिश ७१ ७ कल्यनाएं कल्पनायें ७२ १६ उपदेशों के उपदेशो का ७२ १६ इतिहास का इतिहास को ७३ १ आचार्य
आचौर्य ७३ २३ प्रतिस्पर्धी प्रतिस्पर्धा ८० ९ हिलाब
हिसाब
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८० १७ अंकर
अन्तर ८० ११ अत्तर
अन्तर ८३ ९ नहपान
नहयान ८४ १५ वीर
बीच १७ नगरी
नगरी का १९ न्याय
नाय ९० ७० लोगों के लोगों को ९४ १८ शब्द के आगे दत्त शब्द के आगे दत्त शब्द
का प्रयोग नहीं होता दिन ९५ ९ करके
कहके ९५ १० उपाहोह
उहापोह ९५ १२ निफर्म
निष्कर्ष ९६ १४ यदि ९७ २३ उपदेशा
उपदेशो ९९ ३ त्रिरान
त्रिरत्न १११ ७ उनके
लोगो के ११५ १५ और
और उन २१७ ७ अखण्ड राज्य वैमन के त्याग के ११९ २४ अवन शाला अहन शाला १२३ २३ निष्कर्म
(होती है त्यो २ अधिकाधिक १३५ २१ होती... ... रविपत्तियों का समूह उसपर
(उतरता है १३६ १० घात में ... यात को १३७ १४ मनुष्य के ...
मनुष्य के अन्तर्गत
निपकर्ष
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९३९ १३ अध्ययन १४७ २४ रहते १४१ ८ निकांचित १४१ २२ आत्मावाले... १४२१५-१७ श्वेताम्बरी १४३ १ अनिष्टको कर की
१४३ ९ १४३ ९ उससे
( ३ )
शक्ति
१४३ १० १४७ ८ जाति १४९ ९ आत्मा १५१ ४ उपसर्गों की
१५२ २४ भ्रम
१५१ २० गढता १६० ५ लेवल
१६२ १५ समय
१६५ ४ सुख
१६६ ३ खाक १६८ ५ वाहर १७० ४ पारिधि १७४ ३ स्वांस १७७ ६ कुछ चक्र
...
...
...
...
...
...
...
...
...
...
..
...
...
अध्ययन व
करते
निकाचित
आनेवाले
श्वेताम्वी
अनिष्ट कर
कि
...
स्थिति
जति
आत्मा को उपसगों को
क्रम
गठिता
केवल
संयय
दुख
खरक
बारह
परिधी
स्वांग
कुचक्र
..
यह
पृष्ठ ७५ के अंदर भूल से लिखा गया है कि, महात्माओं ने परस्थिति का अध्ययन कर एक २ नवीन चात भूल से लिखी गई है । महावीर ने किसो नवीन धर्म की नींव नहीं डाली प्रत्युन प्राचीन काल से चले श्राये हुए जैन धर्म का ही नेतृत्व ग्रहण किया । जैसे कि इमी पुस्तक में अन्यत्र लिखा गया है ।
+ ·
महावीर और बुद्ध दोनों धर्म भी नींव डाली।
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ऐतिहासिक खण्ड
अवतरणिका पहला अध्याय उस समय का भारतवर्ष उस समय के बड़े नगर उस समय की ग्राम रचना भार्थिक अवस्था सामाजिक स्थिति .. वर्णाश्रम-धर्म का इतिहास
धार्मिक-स्थिति दूसरा अध्याय
बौद्ध-धर्म का उदय तीसरा अध्याय
भाजीविक सम्प्रदाय ... चौथा अध्याय
उस समय के दूसरे सम्प्रदाय पाँचवा अध्याय क्या जैन और बौद्ध-धर्म धार्मिक क्रांतियाँ थीं ?
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( २ )
..
बनाय
छठवॉ अध्याय
जैन और बौद्ध धर्म में संवर्प सातवाँ अध्याय क्या महावीर जैन-धर्म के मूल संस्थापक थे? जैन धर्म की उन्नति और समाज पर प्रभाव आठवाँ अध्याय भगवान् महावीर का काल निर्णय भगवान महावीर की जन्मभूमि ... भगवान महावीर के माता पिता त्रिशला रानी के माता पिता भगवान महावीर का जन्म
जैन धर्म और बौद्ध धर्म पर तुलनात्मक दृष्टि मनोवैज्ञानिक खण्ड पहला अध्याय
उस समय की मनोवैज्ञानिक स्थिति .. भगवान महावीर का बाल्यकाल यौवन काल दीक्षा संस्कार भगवान् महावीर का भ्रमण कैवल्य प्राप्ति उपदेश प्रारम्भ शिष्य और गणधर भगवान महावीर का निर्वाण
" , का चरित्र
م
م
११८
م
م
م
...
م
م
م
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م
१८३
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( ३ )
पृष्ट
२१९
पाराणिक खण्ड प्रथम अध्याय नगवान् के पूर्वभव ...
१९३ भगवान महावीर का जन्म
२०७ भगवान् महावीर का भ्रमण
२१३ गौशाला की कथा . वैवल्य प्राप्ति और चतुर्विध संघ की स्थापना
२३० श्रेणिक को सम्यक भौर मेधकुमार तथा नन्दिशेण को दिक्षा २४४ प्रभु का अंतिम उपदेश
... २८२ दार्शनिक खण्ड प्रथम अध्याय जैन धर्म और महिसा ..
२८९ अहिंसा का अर्थ
२९७ अहिंसा के भेट गृहन्य का स्थूल अहिसा धर्म मुनियों की सूक्ष्म अहिंसा
जैन अहिंसा और मनुष्य-प्रकृति दूसरा अध्याय स्याहाट आन
३१७ शंकराचार्य का आक्षेप ... सप्तभंगी ...
३२९ तीसरा अध्याय
२९९
३०१
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चौथा अध्याय मोक्ष का स्वरूप
वेद दर्शन
बौद्ध दर्शन
जैन दर्शन
पाँचवाँ अध्याय
जैन-धर्म में आत्मा का अध्यात्मिक विकास
( ४ )
रात्रि भोजन निषेद
908
...
अध्यात्म
छठवाँ अध्याय
जैन शास्त्रों में भौतिक विकास
सातवाँ अध्याय गृहस्थ के धर्म
परिशिष्ट खण्ड
चित्र परिचय
...
:
600
...
•
जैन धर्म का विश्वव्यापित्व
...
...
...
948
...
...
800
::
आठवाँ अध्याय
धर्म के तुलनात्मक शास्त्रों में जैन-धर्म का स्थान
नौवाँ अध्याय
...
...
...
...
:
...
...
...
6.4
...
..
8.0
:
...
...
पृष्ठ
३४१
३५५
३५५
३५९
३६०
३६७
३७५
३८०
३८६
३९१
४०३
४६४
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*2*32- भगवान् महावीर
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........................ भगवान् महावीरके लेखक
श्री चन्द्रराज भडारी " विशारद "
(Elec * *<>-9
Elucks & Printings by the Banik Press, Cal
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ऐतिहासिक खण्ड HISTORICAL PART
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भगवान महावीर का प्रादुर्भाव ।
लेखक-कवि पुष्कर
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जब अधर्म का दुखद राज्य होता है जारी। होते हैं अन्याय जगत में निशिदिन भारी ॥ सामाजिक सब रीति-नीतियाँ नस जाती हैं।
अनाचार की वृत्ति हृदय में बस जाती हैं । तब ऐसे सत्पुरुष का, होता झट अवतार है। जो अपने सच्चरित से, हरता पापाचार है॥
भारत में जब सदाचार की गिरी अवस्था । वर्णाश्रम की नहीं रह गई मूल व्यवस्था । नर-पशुओं की फैल रही थी दुर्गुण-सत्ता ।
भ्रष्ट हो रही थी मुनियों की प्रिय नय-मत्ता ॥ महावीर भगवान का, उसी काल मागम हुमा । जिनके तेज-प्रताप से, नष्ट ऊत उधम हुआ ।
पूज्य पिता सिद्धार्थ धन्य ! थीं त्रिशलामाता। वैशाली था जन्म-नगर सव सुख का दाता ।। तीस वर्ष में जगजाल तज हुए तपस्वी।
कर्म-भोग निर्वाण-सुपथ में हुये यशस्वी॥ सदुपदेश दे देश को, पाठ अहिंसा का पढ़ा। अमर हुये इस लोक में, जैन धर्म आगे बढ़ा।
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भगवान् महावीर
7 अवतरणिका
बहुत दिनों की बात है-करीब ढाई हजार वर्ष व्यतीत हुए
होंगे-जब भारतीय समाज के अंतर्गत एक भय
दूर विशृंखला उत्पन्न हो रही थी। वे सब सामाजिक नियम जो समाज को उन्नत बनाये रखने के लिये प्राचीन ऋपियों ने आविष्कृत किये थे नष्ट-भ्रष्ट हो चुके थे। वर्णाश्रम व्यवस्था का वह सुन्दर दृश्य जिसके लिये प्लेटो और एरिम्टोटल के समान प्रसिद्ध दार्शनिक भी तरसते थे, इस काल में बहुत कुछ नष्ट हो चुका था, ब्राह्मण अपने ब्राह्मणत्व को भूल गये थे। स्वार्थ के वशीभूत होकर वे अपनी उन सव सत्ताओं का दुरुपयोग करने लग गये थे जो उन्हें प्राचीन काल से अपनी बहुमूल्य सेवाओं के बदले समाज से कानूनन प्राप्त हुई थी। क्षत्रिय लोग भी ब्राह्मणों के हाथ की कठपुतली बन अपने कर्तव्य से च्युत हो गये थे। समाज का राजदंड अत्याचार के हाथ में जा पड़ा था । सत्ता अहंकार की गुलाम हो गई थी, राज मुकुट अधर्म के सिरपर मण्डित था,समान में त्राहि त्राहि मच गई थी।
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भगवान् महावीर
भारतवर्ष के सामाजिक और धार्मिक इतिहास में यह काल बड़ा ही भोषण था । यह वह समय था जब मनुष्य अपने मनुप्यत्व को भूल गये थे-सत्ताधारीलोग अपनी सत्ता का दुरुपयोग करने लग गये थे, बलवान निलों पर छुरा तान कर खड़े हो गये थे, और वे लोग पोसे जा रहे थे जिन पर समाज की पवित्र सेवा का भार था।
समाज के अन्तर्गत अत्याचार की भट्टी धधक रही थी। धर्म पर स्वार्थ का राज्य था; कर्तव्य सत्ता का गुलाम था, करुणा पाशविकता की दासी थी, मनुष्यत्व अत्याचार पर वलिदान कर दिया गया था। शूद्र ब्राह्मणों के गुलाम थे, त्रियां पुरुषों के घर की सम्पत्ति-मात्र समझी जाने लगी थीं, प्रेम का नामो निशा केवल प्राचीन ग्रन्थो मे रह गया था। सारे समाज मे "जिनकी लाठी उसकी भस" वाली कहावत चरितार्थ हो रही थी। , मतलब यह है कि ब्राह्मणों के अत्याचारों से सारा भारत शुब्ध हो उठा था, सब लोग एक ऐसे पुरुप की प्रतीक्षा कर रहे थ जो अत्याचार की उस धधकती हुई भही को बुझा कर समाज में शान्ति की स्थापना करे जो अपने गम्भीर विचारो से भटके हुए लोगों की राह पर लगादे, जो अपने दिव्य सद्धपदेश से लोगो की आत्म-पिपासा को शान्त कर दे । एवं जो मनुष्यो को मनुन्यत्व का पवित्र सन्देशा सुना कर उस अशान्ति का नाश कर दे या यों कहिये कि जो नष्ट हुए धर्म को संशोधित कर नवीन विचारों के साथ नवीन रूप में जनता के सम्मुख रक्खे ।
समाज के अन्तर्गत जन इस प्रकार की आवश्यकता होती है तव प्रकृति उसे पूरी करने के लिए अवश्य किसी महापुरुष को
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भगवान महावीर पैदा करती है। प्रकृति का यह नियम सनातन है। इसी नियम के अनुसार उसने तत्कालीन सामाजिक परिस्थिति का संशोधन करने के लिये एक साथ दो महापुरुषों को पैदा किये। ये दोनों महापुरुष भगवान महावीर और भगवान् बुद्धदेव थे । संसार के इतिहास में इन दोनों ही महात्माओं को कितना उच्च स्थान प्राप्त है, यह पतलाने की आवश्यकता नहीं।
इन दाना महापुरुषों ने भारतवर्ष में अवतीणे होकर यहा की नैतिक, मानसिक, सामाजिक और धार्मिक दुरावस्थाओं का निराकरण कर समाज के अन्तर्गत ऐसी जीवित शान्ति उत्पन्न कर दी कि जिस के प्रताप से भारतीय समाज एक बार फिर से उन्नत ममाज कहलाने के लायक हो गया । इनके उन्नत चरित्र और मद्विचारों का जनता पर इतना दिव्य और स्थायी प्रभाव पडा कि जिसके कारण वह भविष्य में भी कई शताब्दियों तक अपना कर्तव्य-पालन करती रही । तात्पर्य यह है कि इन दोनो महापुरुषों ने अपने व्यक्तित्व के वल से भारत में पुन. स्वर्णचुग उपस्थित कर दिया।
इन्हीं दोनों महात्माओं में से भगवान महावीर का पवित्र जीवन चरित्र इस प्रन्थ में अष्ठित है। आजकल के कुछ लोग भगवान महावीर को बहुत ही संकीर्ण निगाह में देखते हैं। वे उनकी मांदा केवल जैन समाज तक ही मानते हैं । पर वास्तविक बात ऐसी नहीं है। आगे हम यह बतलाने का प्रयत्न करेंगे कि महावीर पर केवल जैनियों का ही अधिकार नहीं है। यह सत्य है कि उन्होंने पूर्व प्रचलित जैन धर्म को ग्रहण कर उसे कुछ संशोधन के साथ प्रचारित किया, पर इससे यह कदापि सिद्ध नहीं
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भगवान महावीर हो सकता कि भगवान महावीर पर केवल जैनियों का ही अधिकार है। ___हमारे ख़याल से तो उनका एक एक वाक्य विश्व-कल्याण के निमित्त निकला है और उससे विश्व का प्रत्येक व्यक्ति लाभ उठा सकता है। उनका सन्देश कितना सार्वजनिक और सर्वव्यापी है इसका दिग्दर्शन कराना भी इस ग्रन्थ का एक प्रधान उद्दश्य है । आगे चल कर हम क्रमानुसार ऐतिहासिक, पौराणिक
और मनोवैज्ञानिक दृष्टियों से उनके जीवन और सिद्धान्तो का विवेचन करेंगे।
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पहला अध्याय .
उस समय का भारतवर्ष mere भगवान महावीर के समय में भारतवर्ष तीन बड़े भागो में 7. बॅटा हुआ था। उसमें से वीच वाला भाग “मझिम
देश" (मध्यदेश) कहलाता था। मनुस्मृति के अनुमार हिमालय और विन्ध्याचल के बीच तथा सरस्वती नदी के पूर्व
और प्रयाग के पच्छिम वाले प्रान्त को मध्यदेश कहते हैं। इस मध्यदेश के उत्तर वाले प्रान्त को "उत्तरा-पथ" और दक्षिण वाले प्रान्त को "टनिणा पर्व" कहत थे । इन सब प्रान्तों में उस समय मिन्न भिन्न राजा गज्य करते थे। साम्राज्य का कुछ भी सगठन नहीं था, उस समय के प्रसिद्ध राज्यों में से चार राज्यो का विशेष रूप में उल्लेग्य मिलता है :
१-मगध-इसकी राजधानी राजगृह थी। यही बाद को "पाटलिपुत्र" बन गई। यहां पहले राजा विम्बसार ने राज्य किया और उसके पश्चात उसके पुत्र अजातशत्रु ने। इस वश का प्रवर्तक शिशु नाग नामक एक राजा था । विम्बसार इस वश का पांचवां गजा था, उसने अगदेश अर्थात् मुंगेर और भागल पुरको जीतकर अपने राज्य में मिला लिया।
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२ - दूसरा राज्य उत्तर-पश्चिम में कौशल का था । इसकी राजधानी "श्री वस्ती" रापती नदी के तीर पर्वत के अश्वल में स्थित थी ।
३ – तीसरा राज्य कौशल से दक्षिण की ओर वत्सो का था । उसकी राजधानी यमुना तीर पर कौशाम्बी थी । इसमें परन्तप का पुत्र "उदयन" राज्य करता था । हेमचन्द्राचार्य के कथनानुसार उदयन के पिता का नाम " शतानिक था" ।
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४ - चौथा राज्य इससे भी दक्षिण में "अवन्ति" का था, इसकी राजधानी उज्जयिनी थी और यहां पर राजा "चण्डप्रद्योत "
राज्य करता था ।
इन चार के अतिरिक्त निम्नांकित छोटी बड़ी वारह राजनैतिक शक्तियां और थीं ।
१ - अङ्ग राज्य - - इसकी राजधानी चम्पापुरी -जो आज कल भागलपुर के समीप है— थी ।
२ -- काशी राज्य -- जिसकी राजधानी वनारस मे थी ।
३ - वज्जियो का राज्य -- इस राज्य में आठ वंश सम्मलित थे, इनमें सबसे बड़े लिच्छवि और विदेह थे । उस समय मे यह राज्य प्रजातन्त्र के सिद्धान्तों पर व्यवस्थित था । इसका क्षेत्रफल तेईससौ मील के लगभग था । इसकी राजधानी मिथिला थी । प्रसिद्ध कर्मयोगी राजा जनक इसी विदेह वंश के थे ।
४ - कुशीनारा और पावा के मल्ल ये दोनों स्वाधीन जातियां थी । इनका प्रदेश पर्वत के अचल मे था ।
५ - चेदि राज्य -- इसके दो उपनिवेश थे, पुराना नैपाल में और नबीन पूर्व में कौशाम्बी के समीप था ।
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-- E-कुरु राज्य-इसको राजधानी इन्द्रप्रस्थ थी। इसके पूर्व में पांचाल और दक्षिण में मत्स्य जातियाँ वसती थी । इतिहासकों की गय में इसका क्षेत्रफल दो सहस्र वर्ग मील था।
७-दो राज्य पांचालों के थे। इनकी राजधानियो "कन्नौज" और "कपिला" थीं।
८-मत्स्य गज्य जो फुरु राज्य के दक्षिण में और जमुना के पश्चिम में था, इममें अलवर, जयपुर, और भरतपुर के हिस्से शामिल थे।
५-शूग्मेनों का राज्य-इसकी राजधानी मथुरा मे थी।
१०-अश्मक राज्य-इसकी राजधानी गोदावरी नदी के तीर पादन या पातली में थी।
११-गान्धार-इसकी राजधानी तक्षशिला में थी। १.-काम्बोज राज्य-इसको गजधानी द्वारिका मे थी।
बडम्मरण रखना चाहिये कि उपरोक्त सोलह ही नाम शामक जातियों के थे, पर इन जातियों के नाम से उनके अधीनस्थ देशों के भी वही नाम पड़ गये थे । इन जातियो अथवा राज्यों में ऊपर कोई शक्ति ऐसी न थी जो इन पर अपना आतङ्क जमा मकं । प्रयवा इन सबों को एकत्रित कर एक छत्री साम्राज्य का मगठन कर सके। ये छोटे छोटे राज्य कभी २ आपस में लड़ भी पडत थे क्योंकि राजनैतिक स्वतंत्रता के भाव लोगो के अन्तर्गन बहुन फैल हुए थे।
उस काल में उत्तरीय भारत के अंतर्गत बहुत से प्रजातन्त्र गन्य भी थे। अध्यापक “राइजडेविड्स" अपनी "बुद्धिस्ट
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इण्डिया" नामक पुस्तक में निम्नांकित ग्यारह प्रजातन्त्र राज्यो का उल्लेख करते हैं:
१-शाक्यों का प्रजातन्त्र राज्य-जिस की राजधानी "कपिलवस्तु" में थी।
२-भग्गो का प्रजातन्त्र राज्य-जिसकी राजधानी "संसुमार पहाड़ी" थी। . ३-बुल्लियों का प्रजातन्त्र राज्य-जिसकी राजधानी "अलकप्य" थी।
४-कोलियो का प्रजातन्त्र राज्य-जिसकी राजधानी "केशपुज" थी।
५-कालामो का प्रजातन्त्र राज्य-जिसकी राजधानी "राम प्राम" थी।
६-मलयों का प्रजातन्त्र राज्य-जिसकी राजधानी "कुशिनगरी" थी। - ७-मलयों का प्रजातन्त्र राज्य-जिसकी राजधानी "पावा" थी।
. ८-मलयो का प्रजातन्त्र राज्य–जिसको राजधानी 'कांशी' थी।
९-मौय्यों का प्रजातन्त्र राज्य-जिसकी राजधानी 'पिप्पली वन" थी।
१०-विदेहो का प्रजातन्त्र राज्य-जिसकी राजधानी मिथिला थी।
११-लिच्छावियों का प्रजातन्त्र राज्य-जिसकी राजधानी' वैशाली थी । भगवान् महावीर की माता इसी वंश की लड़की थी।
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ये मब प्रजातन्त्र राज्य प्रायः आजकल के गोरखपुर, वस्ती और मुजफ्फरपुर जिले के उत्तर मे अर्थात् विहार प्रान्त में फैले हुए थे। येजातियाँ प्रजातन्त्र के सिद्धान्तों पर शासन करती थी। इनकी शासन प्रणाली कई बातों में प्राचीन काल के यूनानी प्रजातन्त्र राज्यों के सहश थी । इन प्रजातन्त्र जातियों में से सब मे वी शाक्य जाति थी। इस जाति के राज्य की जन सख्या सम वक्त करीव दस लास थी, उनका देश नेपाल की तराई में पूर्व से पश्चिम को लगभग पचास मील और उत्तर से दनिण को करीब चालीन मील तक फैला हुआ था। इस राज्य की राजधानी कपिलवन्तु में थी। इस गज्य के शासन का कार्य एक ममा के द्वारा होता था। इस सभा को "सथागार" कहते थे। घोंट और बंड सब लोग इस सभा मे सन्मिलित होकर गव्य कं काय्य में भाग लेते थे। “संथागार" एक बड़े भाग मभाभवन में जुटनी थी। इस सभा में सब लोग मिलकर एक व्यक्ति को सभापनि चुन देते थे। उसी को राजा का सम्मानमृचक पद प्राप्त होता था। उस समय भगवान् बुद्ध के पिता इस सभा के सभापति थे। भगवान गौतमवुद्ध इसी प्रजातन्त्र के एक नागरिक थे । यही पर रह कर उन्होंने स्वाधीनता की शिना भी प्राप्त की थी। और इसी प्रजातन्त्र राज्य के आदर्श पर उन्होंने अपने भिक्षु'सम्प्रदाय का संगठन भी किया था।
वजियों का प्रजातन्त्र राज्य प्राचीन भारत का एक सयुक्त राज्य था। इस प्रजातन्त्र राज्य में कई जातियाँ सम्मिलित थी। इस मंयुक्त राज्य की राजधानी वैशाली थी। इसकी दो प्रधान जातियाँ विदेह और लिच्छवि नाम की थी। वन्नी लोग तीन
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भगवान् महावीर मनुष्यो को चुन कर उनके हाथ मे शासन कार्य सौंप देते थे। ये तीनो अग्रणो समझे जाते थे। लिच्छवियों की एक महासभा थी। इस महासभा में भी सब लोग सम्मिलित हो कर कार्य में भाग लेते थे। "वरण जातक" और "चुलमकलिंग जातक" नामक वौद्ध ग्रन्थों में इस महासभा के सदस्यों की सख्या ७७०७ दी गई है । ये लोग महा सभा में बैठ कर न सिर्फ कानून बनाने में राय देते थे, प्रत्युत् सेना और आय व्यय सम्बन्धी सभी बातों की देखभाल करते थे। यह महासभा राज्य-शासन की सहूलियत के निमित्त नौ सभासदो को चुनकर उनकी एक कमेटी बना देती थी। ये नौ सभासद् "गणराजन्" कहलाते थे। ये लोग समस्त जनसमुदाय के प्रतिनिधि होते थे। "भट्ट साल जातक" नामक वौद्ध ग्रन्थ में लिखा है कि इन सभासदों का नियमानुसार जलाभिषेक होता था। और तब ये राजा की पदवी से विभूषित किये जाते थे।
ये प्रजातन्त्र राज्य कभी कभी आपस में लड़ भी पड़ते थे। "कुनाल जातक" नामक बौद्ध ग्रन्थ में लिखा है कि एक बार शाक्यो और कोलियों में बड़ा भारी युद्ध हुआ। युद्ध का कारण यह था कि दोनों ही राज्य अपने अपने खेत सींचने के निमित्त रोहिणी नदी को अपने अधिकार में रखना चाहते थे।
उस समय के राजा लोग आपस में किस प्रकार लड़ा करते थे. इसका खुलासा निम्नांकित उदाहरण से हो जायगा। ____ उस समय कोशल देश में "ब्रह्मदत्त" नामक एक राजा राज्य करता था। उसने अपनी कन्या का विवाह मगध के राजा "श्रेणिक" (विम्बसार) के साथ कर दिया और आप अपने
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पुत्र प्रसेनजित को राज्य देकर आत्म-चिन्तन में लगगया । राजा श्रेणिक ने भी कुछ समय पश्चात् अपने श्वसुर का अनुकरण कर राज्य का भार अपनी बड़ी रानी के पुत्र कुणिक (अजात शत्रु) के हाथ में दे दिया और वह केवल राजकार्य की देखरेख करता रहा। पर अजातशत्रु को इतनी पराधीनता भी पसन्द न आई और उसने कपट करके अपने पिता को मरवा डाला। कहा जाता है कि अजातशत्रु को यह दुष्ट सलाह बुद्ध के चचेरे भाई देवदत्त ने दी थी। अपने बहनोई की इस हत्या से राजा प्रसेनजित को बड़ा क्रोध आया, और उसने क्रोधित होकर मगध राज को दहेज स्वरूप दी हुई काशी नगरी की उत्पन्न को पुनः जप्त कर लिया। इस घटना से क्रुद्ध होकर अजातशत्रु ने प्रसेनजित के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया। पर बहुत चंष्टा करने पर भी वह कृतकार्य न हो सका और अन्त में वह प्रसेनजित के हाथ बन्दी हो गया। प्रसेनजित को उसके दीन मुखमण्डल पर बड़ी दया आई और अन्त मे अजातशत्रु के बहुत प्रार्थना करने पर उसने उसे छोड़ दिया। इतना ही नहीं अपनी लड़की का विवाह भी उसके साथ कर दिया, एवं काशी कोजागीरी भी उसे वापस फरदी । इसके तीन वर्षे पश्चात् जब कि प्रसेनजित कार्यवश कहीं बाहर गया हुआ था, उसके लड़के "विमदाम" ने पीछे से अपने पिता के विरुद्ध विद्रोह खडा कर दिया, और उस विद्रोह में सहायता प्राप्त करने की आशा से वह अजातशत्रु के पास जाने को उद्यत हुआ, पर दैवयोग से रास्ते ही में उसके प्राणन्त हो गये। प्रसेनजित उस काल का एक बड़ा ही न्यायी राजा था। बचपन से ही वह बड़ा बुद्धिमानः
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२८ और दूरदर्शी था । तक्षशिला विश्वविद्यालय में उसने विद्योपार्जन किया था। इसने अपनी बहन के साथ बौद्धधर्म ग्रहण किया था और बौद्धधर्मावलम्विनी कन्या से ही विवाह करने का इसका इरादा था । वहुत कोशिश के पश्चात् इसे शाक्य वंश की एक कन्या का पता लगा । पर शाक्य राजा ने इसे कन्या देने से इन्कार किया, क्योंकि वे कौशल राज्य को अपनी कन्या नहीं देते थे। इस पर प्रसेनजित ने उनसे युद्ध करना चाहा। पर इस अवसर को टाल देने के निमित्त उन्होंने अपनी दासी पुत्री वासवक्षत्रिया को राजकुमारी कह कर उसके साथ प्रसेनजित की शादी कर दी। “विरुदाम" प्रसेनजित की इसी स्त्री का लड़का था । जब विरुदाभ बड़ा हुआ और उसे यह घटना मालम हुई तो उसने इसका बदला लेने के लिए कपिलवस्तु पर चढ़ाई कर दी और वहां के लोगो की इस निर्दयता के साथ कतल की कि जिससे वहां पर रक्त की नदियां वहने लगी। इन घटनाओ से तत्कालीन राजकीय परिस्थिति का अनुमान करना अपेक्षाकृत अवश्य आसान हो जायगा।
मतलब यह है कि बुद्ध और महावीर के समयमे भारतवर्ष के राजनैतिक वायुमण्डल में क्रान्ति होने के पूर्ण लक्षण नजर आने लगगये थे । क्या लोगो के आचार विचार मे, क्या धर्म-सम्बन्धी कार्य में, सामाजिक रीति रिवाजों में और क्या साहित्य मे, सभी अगों में क्रान्ति के लक्षण प्रगट होने लग गये थे। देश का वायुमण्डल क्रान्ति की पूर्ण तैयारी कर चुका था। यह बात निर्विवाद सिद्ध है कि, किसी भी क्रान्ति का वायुमण्डल एक दम तैयार नही हो जाता । क्रान्ति के अनुकूल परिस्थिति बनने में सैकड़ो
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ज्यगत वर्ष लग जाते हैं । यहुत ही शनैः शनैः क्रम क्रम से ऐसी परिथिनि तैयार होती है इसलिए यह निश्रय है कि बौद्धधर्म और जैनधर्म के समान विशाल कान्तियों की तैयारी भारतवर्ष दो या चार वर्षों से नहीं. प्रत्युत सैकड़ो वर्षों से कर रहा था।
उस समय के बड़े बड़े नगर भगवान महावीर के समय में इस देश में निम्नांकित बडे बडे नगर थे । इन मय नगरों में ऊंचे २ प्राचीर बने हुए थे। इन नगरी के मनन चूने, ईट और पत्थर के बनाये जाते थे। लकड़ी का भी प्रचुरता से उपयोग किया जाता था, मकान बहुत मा रहन थे, कई मकान सात मंजिल के होते थे। इनमें गर्म न्नानागार भी रहन थे। येस्नानागार प्रायः तुर्की ढग के होते थे।
१-प्रमोध्या जो सरयू नदी पर था।
२-नाग्म जो गंगा तीर पर धा--उस समय इसका विस्तार करीव ८५ मील था ।
3.-चम्पा-यह अङ्ग राज्य की राजधानी थी और चम्पा नदी के किनारं बसी हुई थी।
४-काम्पिला-उत्तरीय पाञ्चाल जाति की राजधानी थी।
५-कौशाम्बी-बनारस से २३० मील की दूरी पर यमुना तट पर स्थित थी । यह व्यापार की बहुत बडी मण्डी थी।
६-मधुपुरी-यह यमुना तीर पर शुरसेनों की राजधानी थी, कई लोगों का मत है कि वर्तमान मथुरा वही स्थान है जहां मधुरा या मधुपुरी थी।
७-मिथिला-राजा जनक की राजधानी थी।
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८ --- राजगृह - मगध की राजधानी थी । ९ - रोरुक सौवीर - जो बाद को रोरु जिससे वर्तमान काल का सूरत निकला है । उस व्यापार की बड़ी भारी मण्डी थी ।
१० -- सागल —— उत्तर पच्छिम में था इसके राजा ने सिकन्दर
बन गया और समय भी यह
का सामना किया था ।
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११ - साकेत – जो उन्नाव जिले के तट पर सुजानकोट के स्थान पर पहचाना गया है ।
१२ – श्रावस्ती - यह बुद्धकाल के छः प्रसिद्ध शहरो में -से एक थी ।
अन्तर्गत सई नदी के
१३ – उज्जैन -- यह मालवे का प्रसिद्ध शहर था । १४ - वैशाली - - इसका घेरा १२ मील था ।
उस समय की ग्राम रचना
1
प्रोफेसर रिस डेविड्ज़ अपनी "बुद्धिस्टिक इंडिया" नामक पुस्तक मे उस समय के गावो का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि उस काल में सब गांव प्रायः एक ही तरीके के बनाये जाते थे । सारी बस्ती को एक जगह इकट्ठी करके उसको गलियो में बाँटा जाता था, गांव के समीप वृक्षो का एक झुंड रखा जाता था । उन वृक्षो को छांह में ग्राम पंचायत की बैठक हुआ करती थी । बस्ती के आस पास खेती की जमीन होती थी, गोचर भूमि पब्लिक प्रापर्टी में रक्खी जाती थी। जंगल का एक टुकड़ा इस लिये छोड़ दिया जाता था कि जहां से प्रत्येक व्यक्ति जलाने के लिये ईंधन ला सके | सब लोग अपने अपने पशु अलग अलग
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- रखते थे। पर गोचरभूमि सभी की सम्मिलित रहती थी। जितनी जमीन में खेती होती थी उसके उतने ही भाग कर दिये जाते घे जितने कि उस ग्राम में घर होते थे। सब लोग अपने अपने टुकड़ों में खेती करते थे। जल सिंचन के लिये नालियाँ बनाई जाती थीं। सारी जोती हुई भूमि की एक बाड़ रहती थी। अलग अलग ग्वतों की अलग अलग बाड़ें न रहती थी। मारी भूमि गाँव की मिल्कियत समझी जाती थी। प्राचीन कथाओं में ऐसा एक भी उदाहरण नहीं मिलता कि जिसमे क्मिी भागीदार ने अपनी जोती हुई भूमि का भाग किसी विदेशी के हाथ बंच दिया हो। किसी अकेले भागीदार को अपनी भूमि वमीयत करने का भी अधिकार न था। यह सब काम नत्कालीन रिवाजों के अनुसार होते थे। उस समय राजा भूमि का मालिक नहीं समझा जाता था । वह केवल कर लेन का अधिकारी था।
आर्थिक अवस्था उस समय की दन्तफयाओं और पुराणो से पता चलता है कि टम काल में भी इस देश में कई प्रकार के व्यवसाय जारी थे । जैसे बढ़ई, लुहार, पत्थर छीलने वाला, जुलाहे, रंगरेज़. सुनार, कुम्हार, धीवर, कसाई, व्याध, नाई, पालिश करने वाले, चमार, सगमरमर की चीजें बेचने वाले, चित्रकार आदि सब तरह के व्यवसाई पाये जाते थे, उनकी कारीगरी के कुछ नमूने प्रोफसर रिस डेविड्स ने "बुद्धिस्टिक इण्डिया" नामक पुस्तक के छठे अध्याय में दिये हैं। सब तरह के व्यवसायों के होते हुए भी
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--mam
उस समय प्रधान धंधा कृषि का ही समझा जाता था। आजकल की तरह न तो उस समय यहाँ की जनसंख्या ही इननी बढ़ी हुई थी और न यहाँ का अन्न विदेशो में जाता था । इस कारण सत्र व्यक्तियों के हिस्से मे जीवन-निर्वाह के पूर्ति या उससे भी अधिक जमीन आती थी । खेती की उत्पन्न का दसवाँ हिम्मा जहाँ राज्य कोप में जमा कर दिया कि बस सब ओर से निश्चिन्तता हो जाती थी। सरदारों-सरकारी कर्मचारियों और पुरोहितो को इनाम की जमीन भी मिलती थी. पर उस जमीन का इन्तिजाम उनके हाथ में नहीं रहता था। इन्तिजाम के लिये दूसरे कृपिकार नियुक्त रहते थे।
पैसे लेकर मजदूरी करने का रिवाज उस समय बिल्कुल न था । मजदूरी को लोग हेच समझते थे। सब लोग अपनी स्वतंत्र आजीविका से कमाते और खाते थे। न उस समय धनाढ्य और अमीर मिलते थे न निर्धन और गरीव । वहत बड़े कारखाने और फर्स भी उस समय नहीं थे। सब लोग अपने और अपने कुटुम्ब के निर्वाह के लायक छोटा सा धन्धा कर लेते और सन्तोष-पूर्वक जीवन-यापन करते थे । केवल ब्राह्मणो के स्वार्थ की मात्रा बढ़ी हुई थी। और इसी कारण समाज के इतर लोगो के हृदय में उनके प्रति घृणा के भाव उदय हो रहे थे।
सामाजिक स्थिति
उपरोक्त विवेचन पढ़ने से पाठको के मन में उस समय की राजनैतिक और आर्थिक अवस्था के प्रति कुछ श्रद्धा की लहर का उठना सम्भव है । पर उन्हे हमेशा इस बात को ध्यान में
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भगवान् महावोर रखना चाहिए कि जहाँ तक समाज की नैतिक और धार्मिक परिस्थिति सन्तोष जनक नहीं होती, वहाँ तक राजनैतिक परि स्थिति भी - फिर चाहे वह बाहर से कितनी ही अच्छी क्यो न हो -- कभी समुन्नत नहीं हो सकती । समाज की नैतिक- परिस्थिति का राजनैतिक परिस्थिति के साथ कारण और कार्य का सम्बन्ध है । यदि समाज की नैतिक स्थिति खराब है, यदि तत्कालीन जनसमुदाय में नैतिकवल की कमी है, तो समझ लीजिए कि उस काल की राजनैतिक स्थिति कभी अच्छी नहीं हो सकतीइसके विपरीत यदि समाज में नैतिकवल पर्याप्त है, जनसमुदाय के मनोभावों में व्यक्तिगत स्वार्थ की मात्रा नहीं है तो ऐसी हालत मे उस समाज की राजनैतिक स्थिति भी खराब नही हो सकती । यदि भी तो वह बहुत ही शीघ्र सुधर जाती है । किसी भी राजनैतिक प्रान्दोलन को भविष्य आन्दोलन कर्ताओ के नैतिकचल का अध्ययन करने से बहुत शीघ्र निकाला जा सकता है । यह सिद्धान्त नूतन नहीं, प्रत्युत बहुत पुरातन है और इसी सिद्धान्त की विस्मृति हो जाने के कारण ही भारत का यह दीर्घ - कालीन पतन हो रहा है । अस्तु ।
अब आगे हम उस काल की सामाजिक और नैतिक परिस्थिति का विवेचन करते हैं। पाठक अवश्य इन सब परिस्थितियों को मनन कर वास्तविक निस्कर्ष निकाल लेंगे ।
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भगवान् महावीर का जन्म होने के बहुत पूर्व आर्य्य लोगों के समुदाय पंजाब से बढ़ते बढ़ते बंगाल तक पहुँच चुके थे । उत्तम श्रावदवा और उपजाऊ जमीन को देख कर ये लोग स्थायी रूप से यहीं बसने लग गये । अब इन लोगो ने चौपाये
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घराने का अस्थिर व्यवसाय छोड़ कर खेती करना प्रारम्भ किया । इस व्यवसाय के कारण ये लोग स्थायी रूप से मकान बना २ कर रहने लगे । धीरे धीरे इन मकानो के भी समुदाय बनने लगे, और वे ग्राम सज्ञा से सम्बोधित किये जाने लगे। इस प्रकार स्थायी रूप से जम जाने पर कुदरत के कानूनानुसार इन लोगो के विचारो मे परिवर्तन होने लगा | इधर उधर फिरते रहने की अवस्था में उनके हृदय में स्थल अभिमान उत्पन्न नहीं हुआ था, पर अब एक स्थल पर स्थायी रूप से जम जान के कारण उनके मनोभावों मे स्थलाभिमान का सचार होने लगा ।
इसके अतिरिक्त यहां के मूल निवासियों को इन लोगों ने अपने गुलाम बना लिये थे और इस कारण उनके हृदय में स्वामित्व, और दासत्व, श्रेष्ठत्व और हीनत्व की भावनाओं का संचार होने लग गया | उनके तत्कालीन साहित्य में जित और जेता की तथा आर्य व अनार्य की भावनाएँ स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होती हैं । ये भावनाएँ यही पर खतम न हुई । श्रभिमान किसी भी छिन से जहां घुसा कि फिर वह अपना विस्तार बहुत कर लेता है । आय के मनमें केवल अनाय्यों के ही प्रति ऐसे मनो-विकार उत्पन्न होकर नही रह गये प्रत्युत आगे जाकर उनके हृदयो में आपन में भी ये भावनाएँ दृष्टि गोचर होने लगी । क्योंकि इन लोगों में भी सब लोग समान व्यवसाई तो थे नहीं सब भिन्न भिन्न व्यवसाय के करने वाले थे। कोई खेती करता था, कोई व्यापार करता था, कोई मजदूरी करता था तो कोई अध्ययन का काम करके अपना जीवन निर्वाह करता था । कोई उच्च कर्म करता था और कोई निकृष्ट । उत्कृष्ट व्यवसायी लोग निकृष्ट व्यव
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साथियों से घृणा करने लगे फल इसका यह हुआ कि समाज में एक प्रकार की विश्रृंखला उत्पन्न हो गई ।
इस विशृंखलता को मिटा कर समाज मे शान्ति और सुव्यवस्था रखने के उद्देश्य से हमारे पूर्वज ऋषियों ने वर्णाश्रमधर्म के समान सुन्दर विधान की रचना की थी । यह व्यवस्था इतनी सुन्दर और सुसंगठित थी कि जहाँ तक समाज में यह अपने असली रूप से चलती रही वहाँ तक यहाँ का समाज ससार के सब समाजो में आदर्श बना रहा । इसका विधान इतना सुन्दर था कि यूरोप के प्रसिद्ध तत्त्ववेत्ता प्लेटो ने अपने "रिपब्लिक" नामक ग्रन्थ में और एरिस्टोटल ने " पालिटिक्स" मे इसी विधान का अनुकरण किया है । यदि विपयान्तर होने का डर न होता तो अवश्य हम पाठको के मनोरजनार्थ इस विधान का विस्तृत विवेचन यहाँ पर करते, पर यह विवेचन इस स्थान पर अवश्य असङ्गत मालूम होगा इसलिये हम केवल उन बहुत ही मोटी बातो का वर्णन कर, जिसके विना इस पुस्तक का क्रम नहीं जम सकता, इस विषय को समाप्त कर देंगे ।
वर्णाश्रम धर्म का संक्षिप्त इतिहास
वर्णाश्रम धर्म की उत्पत्ति कैसे हुई, जब समाज के अन्तर्गत बहुत प्रयत्न करने पर भी शान्ति स्थिर न रह सकी तब हमारे पूर्वज ऋषियों ने उत्कट आत्मवल के सहारे शान्ति प्रचार के उपाय की खोज करना प्रारम्भ की, उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि समाज में शान्ति बनाये रखने के लिये उसमें
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भगवान महावीर श्रेष्ठ बुद्धि का, उत्कृष्ट पौरुप का, पर्याप्त अर्थ का और यथेष्ट अवकाश का संयोग होना आवश्यक है। समाज म इन चार बातों में से एक के भी कम होने अथवा उनके साधारण कोटि के होने से सुप्रत्यर्थी गुणों की साम्यावस्था की धारणा नहीं हो सकती है। श्रेष्ठ बुद्धि का, उत्कट पौरुप का, पर्याप्त अर्थ का, और यथेष्ट अवकाश का संयोग करने के लिए पर्याप्त-संख्यक चार प्रकार के प्रवीण मनुष्य होने चाहिए। एक वे जो समाज मे श्रेष्ठ बुद्धि को बनाए रक्खें, दूसरे वे जो समाज में उत्कट-पौरुप का योग-क्षेम किया करे, तीसरे वे जो समाज में अर्थ का पर्याप्त उपार्जन और वितरण किया करें और चौथे वे जो समाज की बड़ी बड़ी बातो पर विचार करने के लिए पूर्वोक्त तीनो वर्णो को यथेष्ट अवकाश प्रदान करें।
उन्होंने इस विधान के अनुसार समाज के गुण कर्मानुसार चार विभाग कर दिये । एक एक विभाग को एक एक काम दिया गया। विद्या द्वारा समाज मे श्रेष्ठ बुद्धि का, योग-क्षेम
और समाज की स्वाभाविक खतन्त्रता की रक्षा करने वाला वर्ग ब्राह्मण वर्ग कहलाया। बल-वीर्य द्वारा समाज में पौरुप बनाए रखने वाला और समाज की शासनिक स्वतन्त्रा की रक्षा करनेवाला वर्ण क्षत्रिय वर्ण कहलाया, अर्थद्वारा समाज में श्री स्मृद्धि को बनाए रखने वाला और समाज की आर्थिक स्वतन्त्रता की रक्षा करने वाला वर्ण वैश्य वर्ण कहलाया । शारीरिक श्रम और सेवा द्वारा समाज की अवकाशिक स्वतन्त्रता की रक्षा करनेवाला वर्ण शूद्र वर्ण कहलाया।
केवल इन कर्त्तव्यो को निश्चत कर के ही हमारे पूर्वज
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मा चुप नहीं हो गये। वे जानते थे कि मनुष्य-प्रकृति ही कुछ ऐसी है कि सेवा का उचित पुरस्कार पाये विना वह सन्तुष्ट नहीं होती । प्रत्येक वर्ण पर समाज की उचित सेवा का भार तो रख दिया, पर जहाँ तक इसका यथेष्ट पुरस्कार इन वणों को समाज को ओर से न मिल जाय वहाँ तक यह विधान कभी सफलता-पूर्वक नहीं चल सकता। इसलिए उन्होंने चारों वर्षों का पुरुस्कार भी निश्चित कर दिया। उन्होंने चारों वर्गों को चार प्रकार की समाजिक विभूतियाँ प्रदान की। इन विभूतियों का उन्होंने इस प्रकार विभाग किया कि जिससे प्रत्येक वर्ण अपने अपने धर्म का पालन करता जाय । कोई वर्ण अपने धर्म को त्याग कर दूसरे धर्म में हस्तनेप न करे ।
प्रत्येक वर्ण को केवल एक ही विभूति दी जाती थी। बामणो को फेवल मान, क्षत्रियो के केवल ऐश्वर्य, वैश्यों को कंबल विलास और ग्रहों को केवल नैश्चिन्त्य दिया जाता था। ब्रामण के बराबर मान, क्षत्रिय के बराबर ऐश्वर्य, वैश्य के वराघर विलास और शूद्र के बराबर नैश्चिन्त्य समाज में किसी को न मिलता था। ये विभाग भी मनो-विनान के पूर्ण अध्ययन के साथ किये गये थे। प्रत्येक मनोविज्ञान वेत्ता से यह बात छिपी नहीं है कि विद्या के द्वाग जात्युपकार करने वाले का मानप्रिय होना, बल द्वारा जाति सेवा करने वाले का ऐश्वयं-प्रिय होना, व्यवसाय द्वारा जात्युपकार करने वाले का विलास-प्रिय होना और सेवा द्वारा जाति सेवा करने वाले का नैश्चिन्त्य-प्रिय होना स्वाभाविक है। और इसी कारण उनकी मनोवृत्तियों के अनुकूल ही उन्हें विभूतियां दी गई। मान-प्रधान ब्राह्मणों के
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भगवान् महावीर हाथ में सारे समाज की सत्ता का भार दे दिया गया। लेकिन इसके साथ ही वे उस सत्ता में लिप्त न हो जाय-उसका दुरुपयोग न करने लग जाय इसलिये यह नियम रखा गया कि वे अपने लिए कुछ भी सम्पति उपार्जन न कर सके। इसके अतिरिक्त वे जो कुछ भी सोचें, समाज मे जो कुछ भी सुधार करना चाहे, राजा के द्वारा करवायें। वे ऐश्वर्य और विलास से हमेशा विरक्त रहे । यह विधान उनके लिए रख कर क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र तीनों वर्ण उनके अधिकार में कर दिये गये।। ____ यही वर्णाश्रम-धर्म का उद्देश्य है । इसमें कोई सन्देह नहीं कि हमारे पूर्वजों ने बहुत ही गहरे पेठ कर समाज की इस व्यवस्था-प्रणाली का आविष्कार किया। और जहाँ तक समाज के अन्दर ब्राह्माणों ने निस्वार्थ भाव से तीनों वर्गों पर शासन किया, वहां तक यहां के समाज का व्श्य अत्यन्त सुन्दर रहा । पर देव-दुर्वियोग से या यों कहिये कि मनुष्य-प्रकृति की कम. जोरी से ब्राह्मणो के मस्तिष्क मे भौतिक-स्वार्थ का कीड़ा घुसा। अध्यात्मिकता की जगह वे भी भौतिकता मे रमण करने लगे। बस फिर क्या था, सत्ता तो उनके पास थी हो, वे मनमाने ढग से अपने नीचे वाले वर्षों पर अत्याचार करने लगे। फल स्वरूप समाज मे भयंकरक्रान्ति मच गई। कुछ समय तक तो क्षत्रिय भी ब्राह्मणों के हाथ की कठ पुतली बने रहे, और उनके अत्याचारों मे योग देते रहे, पर आगे जाकर वे भी इनसे घृणा करने लग गये, ब्राह्मणों के अत्याचार और बढ़ने लगे। भगवान् महावीर
और बुद्धदेव के कुछ पूर्व ये अत्याचार बहुत बढ़ गये थे इनके कारण समाज में भयङ्कर त्राहि त्राहि मच गई थी, इन अत्या
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चारों के कुछ दृश्य हमें बौद्ध और जैन ग्रन्थो में देखने को मिलते हैं।
"चित्त सम्भूत जातक" नामक ग्रन्थ में लिखा है कि, एक समय ब्राह्मण और वैश्य वश की दो त्रियां एक नगर के फाटक से निकल रही थीं, रास्ते में उन्हें दो चाण्डाल मिले । चाण्डालदर्शन को उन्होने अप शकुन समझा। घर आकर उन्होंने शुद्ध होने के लिए अपनी आंखो को खुव धोया, उसके बाद उन्होंने उन चाण्डालों को खूब पिटवाया, और उनकी अत्यन्त दुर्गति करवाई।
"मातंग जातक" तथा "सत् धर्म जातक" नामक बौद्धग्रन्थो से भी पता चलता है कि उस समय अछूतों के प्रति बहुत ही घृणित व्यवहार किया जाता था । ऐसा भी कहा जाता है कि उस समय यदि कोई ब्राह्मण वेद मंत्र का पाठ करता था और अकस्मात् अगर कोई शूद्र उसके आगे से होकर निकल जाता था तो उसके कानो मे कीलें तक ठुकवा दी जाती थीं। ____कहने का मतलब यह है कि ब्राह्मणों के ये कर्म सर्व-साधारण को बहुत अखरने लग गये थे। अप्रत्यक्ष रूप से लोगों के हृदय मे ब्राह्मणों के प्रति बहुत घृण के भाव फैल गये थे। और यही कारण है कि उस समय के ब्राह्मण-ग्रन्थों में बौद्ध लोगों की, और बौद्ध तथा जैन धर्म-शाखों में ब्राह्मण वर्ग की खुब ही निन्दा की गई है,। बौद्ध और जैन ग्रन्थों में ब्राह्मण का स्थान क्षत्रियों से नीचे रखा गया है और उनका उल्लेख अपमानपूर्ण शब्दो मे किया है। कल्पसूत्र नामक भगवान महावीर के पौराणिक जीवन-चरित में लिखा है कि अर्हत आदि उच्च पुरुष
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भगवान् महावीर ब्राह्मण जाति में जन्म ग्रहण नहीं करते और सम्भव है यह घृणा
और भी जोरदार रूप मे प्रदर्शित करने के लिए ही शायद उसके लेखक ने भगवान महावीर की आत्मा को पहले ब्राह्मणी के गर्भ मे भेज कर फिर क्षत्राणी के गर्भ में जाने का उल्लेख किया है।
खैर इस पर हम आगे विचार करेंगे। यहां पर हम इतना लिखना पर्याप्त समझते हैं कि समाज में प्रचारित ब्राह्मणों के अत्याचारो के खिलाफ इन दोनों महात्माओं ने बड़े जोर की आवाज उठाई। इन महात्माओं ने इस अन्याय को दूर करने के लिए छूता-छूत के भेद को विल्कुल छोड़ दिया और अपने धर्म तथा सम्प्रदाय का द्वार सब धर्मों और जातियो के लिए समान रूप से खोल दिया।
कुछ लोगों का यह खयाल है कि भगवान् बुद्ध और महावीर ने वर्णाश्रम-धर्म की सुन्दर व्यवस्था को तोड़ कर भारत के प्रति बड़ा भारी अन्याय किया। पर उनका यह कथन बहुत भ्रम पूर्ण है। जो लोग यह कहते है कि भगवान महावीर ने वर्णाश्रम-धर्म को तोड़ दिया वे बड़ी गलती पर हैं । भगवान् महावीर ने वर्णाश्रम-धर्म के विरुद्ध आवाज न उठाई थी प्रत्युत उस वि, खला के प्रति उठाई थी जिसने वर्णाश्रम-धर्म मे घुस कर उसको बड़ा ही भयङ्कर बना रक्खा था । उन्होंने ब्राह्मणों की उस स्वार्थपरता के विरुद्ध आवाज उठाई थी जिसके कारण शूद्र बुरी तरह से कुचले जा रहे थे। भगवान महावीर वर्णाश्रम-धर्म के नाशक न थे प्रत्युत उसके संशोधक थे।
मतलब यह कि उस समय में जैसा वर्णाश्रम-धर्म प्रच
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लित हो रहा था, उसको संशोधन करना आवश्यक था, भगवान्बुद्ध और महावीर ने ऐसा किया भी। उन्होंने वर्णाश्रम-धर्म की उस सब असभ्यता को नष्ट कर दिया जो मनुष्यजाति के पतन का कारण थी। जातक कथाओ से पता चलता है कि उस समय सब वर्णों और जातियों के मनुष्य परस्पर एक दूसरे का धंधा करने लग गये थे, ब्राह्मण लोग व्यापार भी करते थे । वे कपडा बुनते हुए, बढ़ई का काम करते हुए और खेती करते हुए भी पाये जाते थे। नत्रिय लोग भी व्यापार करते थे। लेकिन इन कामो से इनकी जातियो तथा वर्णों में कोई गड़बड़ पैदा न होती थी। ___तात्पर्य यह है कि भगवान महावीर के पूर्व भारत की सामाजिक और नैतिक दशा का भयङ्कर पतन हो गया था । धार्मिक स्थिति का उससे भी कितना अधिक गहरा पतन हो गया था, यह आगे चल कर मालूम होगा।
धार्मिक-स्थिति भगवान महावीर के समय में भारत की धार्मिक अवस्था बहुत ही भयङ्कर थी। पशुयज्ञ और बलिदान उस समय अपनी सीमा पर पहुँच गया था। प्रति दिन हजारों निरपराध पशु तलवार के घाट उतार दिये जाते थे। दीन, मूक, और निरपराध पशुओं के खून से यज्ञ की वेदी लाल कर ब्राह्मण लोग अपने नीच स्वार्थ की पूर्ति करते थे। जो मनुष्य अपने यत्र में जितनी ही अधिक हिंसा करता था, वह उतना ही पुण्यवान समझा जाता था। जो ब्राह्मण पहले किसी समय
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में दया के अवतार होते थे, वे ही इस समय में पाशविकता की प्रचण्ड मूर्ति की तरह छुरा लेकर मूक पशुओ का वध करने के लिए तैयार रहते थे। विधान बनाना तो इन लोगों के हाथ मे था ही जिस कार्य में ये अपनी स्वार्थ लिप्सा को चरितार्थ होती देखते थे, उसी को विधान रूप बना डालते थे। मालूम होता है कि "वैदि की हिसा हिसा न भवति" आदि विधान उसी समय में उन्होंने अपनी दुष्ट-वृति को चरितार्थ करने के निमित्त बना लिये थे।"
सारे समाज के अन्दर कर्म-काण्ड का सार्वभौमिक राज्य हो गया था। समाज वाह्याडम्वर मे सर्वतोभाव फंस चुका था। उसकी यात्मा घोर अन्धकार में पड़ी हुई प्रकाश को पाने के लिए चिल्ला रही थी। किन्तु कोई इस चिल्लाहट को सुनने वाला न था। इस यज्ञ-प्रथा का प्रभाव समाज में बहुत भयङ्कर रूप से बढ़ रहा था। यज्ञो मे भयङ्कर पशुवध को देखते देखते लोगों के हृदय बहुत क्रूर और निर्दय हो गये थे । उनके हृदय में से दया और कोमलता की भावनाएँ नष्ट हो चुकी थीं। वे आत्मिक-जीवन के गौरव को भूल गये थे। अध्यात्मिकता को छोड़ कर समाज भौतिकता का उपासक हो गया था। केवल यज्ञ करना और कराना ही उस काल में मुक्ति का मार्ग समझा जाने लगा था। वास्तविकता से लोग बहुत दूर जा पड़े थे। उनमे यह विश्वास बढ़ता से फैल गया था कि यज्ञ की अग्नि मे पशुओं के मांस के साथ साथ हमारे दुष्कर्म भी भस्म हो जाते हैं। ऐसी अप्रमाणिक स्थिति के बीच वास्तविकता का गौरव समाज में कैसे रह सकता था।
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इसके सिवाय यज्ञ करने में बहुत सा धन भी खर्च होता था, जिस यज्ञ मे ब्राह्मणों को दक्षिणाएँ न दी जाती थीं वह यज्ञ अपूणे समझा जाता था, बड़ी बड़ी दक्षिणाएँ ब्राह्मणों को दी जाती थीं। कुछ यज्ञ तो ऐसे होते थे जिनमें साल साल भर लग जाता था और हजारों ब्राह्मणों की जरूरत पड़ती थी, अतएव जो लोगसम्पतिशील होते थे, वे तो यज्ञादि कमों के द्वारा अपने पापों को नष्ट करते थे, पर निर्धन लोगों के लिए यह मार्ग सुगम न था। उन्हें किसी भी प्रकार ब्राह्मण लोग मुक्ति का परवाना न देते थे। इसलिए साधारण स्थिति के लोगो ने आत्मा की उन्नति के लिए दूसरे उपाय ढूँढना गरम्भ किये। इन उपायों में से एक उपाय "हठयोग" भी था, उस समय लोगों को यह विश्वास हो गया था कि कठिन से कठिन तपस्या करने पर ऋद्धि सिद्धि प्राप्त हो सकती है। आत्मिक उन्नति प्राप्त करने और प्रकृति पर विजय पाने के निमित्त लोग अनेक प्रकार की तपस्याओं के द्वारा अपनी काया को कष्ट देते थे, पञ्चाग्नि तपना, एक पैर से खड़े होकर एक हाथ उठा कर तपस्या करना, महीनो तक कठिन से कठिन उपवास करना, आदि इसी प्रकार की कई अन्य तपस्याएँ भी इन्द्रियो पर विजय प्राप्त करने के लिए आवश्यक समझी जाती थीं।
इन तपस्याओं के करते करते लोगों का अभ्यास इतना बढ़ गया था कि उन्हे कठिन से कठिन यन्त्रणाभुगतने में भी अधिक कष्ट न होता था। जनता के अन्दर यह विश्वास जोरो के साथ फैल गया था कि यदि यह तपस्या पूर्ण रूपेण हो जाय तो आदमी विश्व का सम्राट् हो सकता है । यह भ्रम इतनी सत्यता
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भगवान् महावीर के साथ समाज में फैला हुआ था कि स्वयं बुद्धदेव भी छ. साल तक उसके चक्कर में पड़े रहे पर अन्त में इसकी निस्सारता मालूम होते ही उन्होने इसे छोड़ दिया।
समाज में यज्ञवादियों और हठयोगवादियों के अतिरिक्त कुछ अश ऐसा भी था, जिसे इन दोनो ही मागों से शान्ति न मिलती थी। वे लोग सच्ची धार्मिक उन्नति के उपासक थे। या उनको समाज का यह कृत्रिम जीवन बहुत कष्ट देता था। ये लोग समाज से और घर-बार से मुंह मोड़ कर सत्य की खोज के लिये जगलों मे भटकते फिरते थे।भगवान महावीर के पहले और उनके समय में ऐसे बहुत से परिव्राजक, सन्यासी और साधु एक स्थान से दूसरे स्थान पर विचरण करते थे। समाज की प्रचलित संस्थाओ से उनका कोई सम्बन्ध न था। बल्कि वे लोग तत्कालीन प्रचलित धर्म और प्रणाली का डंके की चोट विरोध करते थे। सव-साधारण के हृदयो मे वे प्रचलित धर्म के प्रति अविश्वास का बीज आरोपित करते जाते थे। इन सन्यासियों ने समाज के अन्दर बहुत सा उत्तम विचारों का क्षेत्र तैयार कर दिया था।
इसके अतिरिक्त भगवान महावीर के पूर्व उपनिपदों का भी प्रादुर्भाव हो चुका था । इन उपनिषदों मे कर्म के ऊपर ज्ञान की प्रधानता दिखलाई गई थी, उनमें ज्ञान के द्वारा अज्ञान का नाश और मोह से निवृति बतलाई गई थी। इन उपनिषदों में पुनर्जन्म का अनुमान, जीव के सुख दुख का कारण परमात्मा की सत्ता, आत्मा और परमात्मा में सम्बन्ध आदि कई गम्भीर प्रश्नों पर विचार किया है। धीरे धीरे इन उपनिषदों का अनु
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शीलन करने वालों की संख्या बढ़ने लगी, इनके अध्ययन से लोगों ने और कई तत्त्वज्ञान निकाले । किसी ने इन उपनिषदो से अद्वैतवाद का अविष्कार किया किसी ने विशिष्टाद्वैत का और किसी ने द्वैतवाद का । लेकिन यह स्मरण रखना चाहिये कि ऐसे लोगों की मख्या उस समय समाज मे बहुत ही कम थी और समाज में इनकी प्रधानता भी न थी । मतलब यह है कि महावीर के
भारत में कई मत मतान्तर प्रचलित हो गये पर प्रधानतया उपरोक्त तीन प्रधान विचार प्रवाह भगवान् महावीर के पूर्व समाज में प्रचलित हो रहे थे । इनके अतिरिक्त टोने, टुटके भूत, चूड़ैल आदि बातों के भी छोटे छोटे मत मतान्तर जारी थे, पर लोगों का हृदय जिस प्रश्न का उत्तर चाहता था, जिस शका का वह समाधान चाहता था, जिस दुख की निवृति का वह मार्ग चाहता था यह उपरोक्त किसी भी मत से न मिलता था ।
लोग इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए इच्छुक थे कि समार में प्रचलित इस दुख का और अशान्ति का प्रधान कारण क्या है |
यानिक कहते थे कि देवताओं का कोप ही संसार की अशान्ति का प्रधान कारण है । इस अशान्ति को मिटाने के लिए उन्होंने देवताओ को प्रसन्न करना आवश्यक बतलाया और इसके लिए पशु-यज्ञ की योजना की । हठयोगवादियो ने इस दुग्य का मुख्य कारण तपस्या का अभाव बतलाया । उन्होने कहा कि तपस्या के द्वारा मनुष्य अपने शरीर और इन्द्रियो पर अधिकार कर सकता है और इन पर अधिकार होते ही अशान्ति
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और दुख से छुटकारा मिल जाता है। ज्ञान मार्ग का अनुसरण करने वालों ने कहा कि-अशान्ति का मूल कारण प्रशान है। ज्ञान के द्वार अज्ञान का नाश कर देने से मनुष्य सथी शान्ति प्राप्त कर सकता है। __ पर इन सब समाधानों से जनता के मन को तृप्ति न होती थी। जिस भयङ्कर उहापोह के अन्दर समाज पड़ रहा था, उसका निराकरण करने में ये शुष्क उत्तर बिल्कुल असमर्थ थे। समाज को उस समय सहानुभूति, प्रेम और दया की मब मे अधिक भावश्यकता थी। कृतन्नता मोह और अत्याचार की भयङ्कर अनि उसको बेतरह दग्ध कर रही थी। ऐसी भयङ्कर परस्थिति मे वह ऐसे महात्माओ की प्रतीक्षा कर रहा था जो सारे समाज के अन्दर शान्ति प्रेम और सहानुभूति का मुन्दर झरना वहा दे । ठीक ऐसे भयङ्कर समय में देश के सौभाग्य ले भगवान-महावीर और भगवान् बुद्ध देव यहाँ पर अवतीर्ण हुए। परिस्थिति के पूर्ण अध्ययन के पश्चात् उन्होंने भारतवर्ष को और सारे संसार को दिव्य सदेशा दिया। उन्होने बतलाया कि यजा से और मन्त्रों से कभी शान्ति नहीं मिल सकती, इसी प्रकार हठ योग आदि (कुतपस्याएँ) भी व्यर्थ हैं। उन्होंने बतलाया कि यज्ञ, कर्मकाण्ड और कुतपस्याओं की अपेक्षा शुद्ध अन्तःकरण का होना बहुत आवश्यक है । उन्होंने साधारण जनता को अहिंसा सत्य, आचार, ब्रह्मचर्य और परिग्रह परिमाण आदि पाँच व्रतों का उपदेश दिया। उनकी निगाह में ब्राह्मण और शूद्र उच्च और नीच, अमीर और गरीब सब बरावर थे, उनका निर्वाण मार्ग सब के लिए खुला था।
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भगवान् महावीर
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मतलब यह कि ऐसी भयङ्कर परिस्थिति के अन्दर अवतीर्ण होकर इस दोनों महात्माओं ने तत्कालीन तड़पते हुए समाज के अन्दर नव जीवन का संचार किया । अशान्ति की त्राहि त्राहि को मिटा कर उन्होने समाज में शान्ति की धारा बहा दी । इनके दिव्य उपदेश से अकर्मण्य और आलसी कर्मयोगी हो गये । अत्याचारी पूर्ण दयालु हो गये । और सारा विश्रृंखला युक्त समाज सुश्रृंखला चद्ध हो गया । इन महात्माओ ने ऐहिक और और पारलौकिक दोनों दृष्टियों से विश्व का कल्याण किया ।
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दूसरा अध्याय :
बौद्ध-धर्म का उदय
समय महावीर सन्यासावस्था को ग्रहण करके ससार
- को विश्वप्रेम का सन्देश दे रहे थे। जिस समय सारे भारतीय समाज के अन्दर जैन धर्म रूपी क्रान्ति प्रसारित हो रही थी। ठीक उसी समय इसी भारत भूमिपर एक और महान पुरुष अवतीर्ण हो रहे थे। मालूम होता है कि उस समय समाज की इतनी अधिक दुरावस्था हो रही थी कि भगवती प्रकृति को केवल एक ही दिव्यात्मा उत्पन्न करके सन्तोप नहीं हुआ। समाज की उस जटिल अवस्था को सुलझाने के लिये उसे एक और महापुरुष को उत्पन्न करने की आवश्यकता प्रतीत हुई और इसीलिए शायद उसने भगवान् महावीर के पश्चात ही भगवान बुद्ध को उत्पन्न किया। ____ मगधदेश के जिस शाक्य प्रजातन्त्र का वर्णन हम पहले कर आये हैं। उस समय उसके सभापति राजा शुद्धोधन थे। इनकी राजधानी कपिल वस्तु मे थी । भगवान् बुद्धदेव का जन्म इन्हीं शुद्धोधन की रानी महामाया के गर्भ से हुआ था। वचपन से ही इनका मन सांसारिक वस्तुओ की ओर आकृष्ट न होता था। राजा सुद्धोधन ने इनको संसार में आसक्त करने के लिए
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भगवान महावीर . कई उपाय किये, प्रमोद भवन वनाये । सुन्दरीयशोधरासे विवाह किया। पर कुमार सिद्धार्थ का हृदय किसी भी वस्तु पर अधिक समय के लिए आसक्त न हुआ । समाज का करुण कन्दन उनके हृदय पर दारण चोट पहुँचा रहा था । मनुष्य जाति के दुःख से उनका हृदय दिनगत रोया करता था। वैराग्य को अग्नि उनके हदय में दिन पर दिन अधिकाधिक प्रज्वलित होती जा रही थी। अन्त मे एक दिन अवसर पाकर गत के समय अपने पिता, माता (गोतमी) पत्नी, पुत्र आदि सव परिजनों को सोता हुआ छोड कर बुद्धदेव घर से निकल पड़े। वे मन्यासी हए । उन्होंने बहुत शीत्र समाज के अत्याचारों के विरुद्ध जोर की आवाज उठाई । महावीर की आवाज ने समाज को पहले ही सजग कर दिया था। बुद्ध की आवाज ने उसका रहा महा भ्रम भी मिटा दिया, फिर क्या था ? सारे समाज के अन्दर एक नव जीवन का संचार हो आया। मोह का पग्दा फट गया, मनुष्यत्व का विकास हुआ। जो लोग महावीर के मरडे के नीचे जाने से हिचकते थे। वे भी खुशी के साथ बुद्ध के मण्ड के नीचे एकत्र होने लगे। इसका कारण यह था कि जैन धर्म एक तो बिल्कुल नवीन नथा, वह पहले ही से चला पा रहा था, और मनुष्य प्रकृति कुछ ऐसी है कि वह नवीनता को जितना अधिक पसन्द करती है। उतनी प्राचीनता को नहीं। दूसरा कारण यह था कि भगवान महावीर ने श्रावक के नियम कुछ ऐसे कठिन रख दिये थे, कि सर्व साधारण सुगमता के साथ उनका पालन नहीं कर सकते थे। इधर बुद्ध-धर्म पूर्ण उदारता के साथ सर्व साधारण को अपने झण्डे
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भगवान् महावीर के नीचे आने का निमन्त्रण दे रहा था। उसके नियम इतने सरल थे, कि, सर्व साधारण सुगमता के साथ उनका पालन कर सकते थे। इसके अतिरिक्त और भी कुछ ऐसे कारण थे कि जिनके कारण कुछ समय के लिये बुद्ध-धर्म को फैलने का खूव ही अवसर मिला । यद्यपि उस समय वौद्ध-धर्म जैन. धर्म की अपेक्षा बहुत अधिक फैल गया, तथापि उसकी नीव मे कुछ ऐसी कमजोरी रह गई थी कि, जिसके कारण वह भारत में स्थायी रूप से न चल सका। और जैन धर्म की नीव इतनी उढ़ रक्खी गई थी कि, उस समय बहुत अधिका न फैलने पर भी वह आज तक भारतवर्ष में प्रचलित है।
दूसरे शब्दों में हम यो कह सकते हैं कि वौद्ध-धर्म समाज मे उस आकस्मिक तूफान की तरह था जो एक दम प्रस्फोटिक होकर बहुत शीघ्र बन्द हो जाता है, पर जैन-धर्म उस शान्त नदी की तरह था जो धीरे धीरे बहती है और बहुत समय तक स्थायी रहती है।
मतलब यह कि बौद्ध-धर्म ने उदय होकर तत्कालीन समाज पर एक अभूत पूर्वे प्रभाव डाला। केवल साधारण जनता ने ही नहीं प्रत्युत बड़े बड़े सम्भ्रान्त व्यक्तियों ने, रईसों ने, जागीरदारों ने और यहाँ तक कि बड़े बड़े राजाओं ने भी बौद्ध-धर्म को स्वीकार किया। और यह स्वीकार करना ही पड़ेगा कि जैन-धर्म की अपेक्षा बौद्ध-धर्म ने तत्कालीन समाज पर बहुत अधिक प्रभाव डाला ।
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4 तीसरा अध्याय
आजीविक सम्प्रदाय
ईसा के पूर्व छठवी शताब्दी में अर्थात् भगवान महावीर हर के समय में भारतवर्ष के अन्तर्गत और भी कई छोटे बड़े
सम्प्रदाय प्रचलित थे । इतिहास के अन्तर्गत इन मतों में तीन मतों का अधिक उल्लेख पाया जाता है। वौद्ध, जैन और
आजीविक । चौद्ध-धर्म के प्रवर्तक महात्मा बुद्ध का परिचय हम पाठकों को पहले दे चुके हैं। इस स्थान पर आजीविक सम्प्रदाय से हम उनका थोडा परिचय करवा देना चाहते हैं।
जिन लोगों ने पुराणों में भगवान महावीर के जीवन का पठन किया है। वे मश्करी पुत्र गोशाल के नाम से अपरिचित न होंगे। यही गौशाल आजीविक सम्प्रदाय के मुख्य प्रवर्तक
। जैन पुराणों में आजीविक सम्प्रदाय के प्रवर्तक "गौशाल को "मश्करीपुत्र" अर्थात् विदूषक कह कर' उनकी खूब
क उड़ाई है। इनकी जीवनी का कुछ विस्तृत विवेचन हम पौराणिक खण्ड में करेंगे । यहाँ पर सिल सिला जमाने के निमित्त कुछ सक्षिप्त विवेचन करेंगे।
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अपने चरण कमलों से पृथ्वी को पवित्र करते हुए एक बार "भगवान महावीर " राजगृही नगरी मे पहुँचे । इस स्थान पर उन्हे "गौशाला" नामक एक व्यक्ति शिष्य होने की इच्छा से मिला । महावीर उस समय किसी को भी शिष्य को तरह ग्रहण न करते थे । क्योकि उस समय तक उनको कैवल्य की प्राप्ति नही हुई थी भगवान् महावीर यह जानते थे कि जब तक मनुष्य अपने आपका पूर्ण कल्याण नही कर लेता तब तक वह अपनी सामर्थ्य से दूसरे का दारिद्र्य हरण करने में असमर्थ होता है । और इसी कारण जब गौशाला ने उनसे शिष्य बना लेने की याचना की तो उन्होंने मौन ग्रहण कर लिया, तो भी गौशाला ने प्रभु का साथ न छोड़ा, उसने महावीर में गुरु बुद्धि की स्थापना कर भिक्षा के द्वारा अपना गुजर करना प्रारंभ किया । सत्य को प्राप्त करने की उसमें कुछ अभिलाषा थी, आत्मशक्ति का विकास करने के निमित्त योग्य पुरुषार्थ करने को वह प्रस्तुत था, पर दुर्भाग्य से उस समय भगवान महावीर उपदेश के कार्य से बिलकुल विमुख थे । उस समय आत्मचिन्तन और कर्मनिर्जरा के सिवाय उनका दूसरा कार्य न था, ऐसे अवसर में गौशाला ने महाबीर के सम्बन्ध में अपनी मनोकल्पना से जो बोध ग्रहण किया वह विल्कुल एक तर्फा और अनिष्ट कर साबित हुआ, वह कई बार भगवान को किसी भावी घटना के विपय में पूछता, महाबीर अवधिज्ञान के बलसे वही उत्तर देते जो भविष्य में होने वाला होता था । उनका कथन बिल्कुल " बावन तोला, पाव रतो," उतरते देख कर गौशाला ने यह सिद्धान्त निश्चय कर लिया कि भविष्य में जो कुछ होने वाला है, वही होता है ।
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मनुष्य के प्रयत्न से उसमें कभी कोई फेरफार नहीं हो सकता । गौशाला का यही सिद्धान्त इतिहास में " नियतिवाद" के नाम से प्रसिद्ध है | यह सिद्धान्त उसके मस्तिष्क में इतनी दृढ़ता के साथ उस गया था कि उसके जीवन में फिर परिवर्तनन हो सका । और श्मी सिद्धान्त के कारण आगे जाकर वह जैन धर्म से भी विमुख होकर अपने सिद्धान्तों का स्वतंत्रता से प्रचार
करने लगा ।
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इसी मत के कारण हमारे जैन ग्रंथकारों ने गौशाला को अत्यन्त मूर्य, बुद्धिहीन, और विदूषक के रूपमें बतलाने का प्रयत्न किया है । हमारे सयाल से जिस समय में यह पुराण लिखे गये है उस समय के लोगों को प्रवृति कुछ ऐसी विगड़ गई थी कि वे अपने धर्म के सिवाय दूसरे धर्म के संस्थापकों की सर पेट निन्दा करने में ही अपना गौरव समझते थे, उनकी दृष्टि इतनी संकुचित हो गई थी कि वे अपने महापुरुष के अतिरिक्त किसी दूसरे को मानने को तैयार ही न थे और इसी संकुचित दृष्टि के परिणाम स्वरूप हमारे ग्रन्थों में प्रायः सभी अन्य मत संस्थापकों की निन्दा देखते हैं, केवल जैनशास्त्रकार ही नहीं प्रायः उस समय के सभी शास्त्रकार इस संकुचित दृष्टि से नहीं बचे थे । तमाम धमों के शास्त्रकारों की मनोवृत्तियां कुछ ऐसी ही संकुचित हो रही थीं ।
हमारे सयाल से जैन शास्त्रों में "गौशाला" को जितना मूर्ख कम अष्ट और उन्मत्त चित्रित किया गया है, वास्तव में वह उतना नहीं था, श्री मद हेमचन्द्राचार्य ने गौशाला की जिन जिन भद्दी चेष्टाओं का वर्णन किया है, उसको पढ़कर तो प्रत्येक
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छूट पाठक यही अनुमान बांधेगा कि, वह किसी पागल खाने से कर आया होगा । परन्तु प्रत्येक बुद्धिमान मनुष्य की सामान्य बुद्धि भी यह बात स्वीकार न करेगी कि, जिस गौशाला के अनुयायियों की संख्या स्वयं हमारे शास्त्रकार महावीर के अनुयायियों की संख्या से भी अधिक बतला रहे हैं । जिस गौशाला की सगठनशक्ति की प्रशंसा कई ग्रन्थों में की गई है उस गौशाला को इतना बुद्धिहीन और विदूषक कोई बुद्धिमान स्वीकार नहीं कर सकता । जैन साहित्य के ही समकालीन बौद्ध साहित्य में भी कई स्थानों पर " गौशाला" का नाम आया है । या उस साहित्य में गौशाला को इतना मूर्ख और नष्ट ज्ञान नहीं बतलाया है। उसके द्वारा प्रचलित किया हुआ आजीविक सम्प्रदाय आज दुनियां के पर्दे से उठ गया है । और उसके धर्म शास्त्र और सिद्धान्त भी प्रायः गुम हो गये हैं । इसलिये आज उसके विषय में कोई अधिक नही कह सकता, पर यह निश्चय है किबुद्ध और महावीर के काल मे और उसके पश्चात अशोक के काल में यह मन एक बलवान और प्रभावशाली मत समझा जाता था, प्रोफेसर कर्न का कथन है कि खुद सम्राट अशोक ने आजीविक मत के सम्बन्ध में शिला लेख खुदवाये थे ।
बुद्ध और महावीर की तरह आजीविक मत का मुख्य सिद्धान्त भी श्रहिंसा ही है, इस विषय मे मनोरंजन घोष नामक एक विद्वान् लिखते हैं कि:---
The history of the Ajivkas reveals the curious fact that sacredness of animal life was not the pecaliar tenet of Buddhism alone but the religion of Sakyamuni shared it with the Ajivkas and the Nigrantas, They
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Gaisa
mas the main the letukas an Indisine ser
. भगवान् महावार
म bad somc tcocts in common but differed in detalls . .. ... .. They were naked , monks practising severe fenances Wc Gud the Ajivkas au influential sect In existence eren in the ille time of Buddha. Mokkall Gossin as the teacher of the Ajivkas with whom G:: Buddha hnd a religious controversy.
'प्रर्थान् "आजीविकों के इतिहास में हमें एक जानने योग्य तत्त्व यह मिलता है कि जीव दया यह केवल बौद्धोका ही सिद्धान्त नया प्रत्युत आजीविकों और निर्गन्थों का भी यही सिद्धान्त था। इनके अधिकांश नियम प्राय. सभी समान है। केवल वृत्तान और पाख्यायन मात्र में अन्तर है-आजीविक शरीर मे नन्न रहते थे, और बहुत कठिन तपस्या करते थे, वुद्ध के समय में भी थाजीविकों का सम्प्रदाय एक प्रभाव युक्त-सम्प्रदाय गिना जाता था, मखलीपुत्र गौशाला उनका नेता था, एक बार उसके माथ धार्मिक शास्त्रार्थ करने के निमित्त गौतम बुद्ध को भी उतरना पड़ा था।
Ancient Civilization नामक ग्रन्थ में एक स्थान पर उसका विद्वान् लेखक लिखता है कि:
Among'ibe olher sccts of ascetics which flourished videly side with the Buddhist and Nigranthas (Jains) m the sixth century B C the Ajlykas founded by Gosala were the best known in their day. Asoka named them in their inscriptions a long with Brahmins and Nigranthas. Gosala was there for a rival of Buddba aad Mababir. but this oced has now censed to exist.
अर्थात् ईस्वी सन् के छःसौ वर्ष पूर्व बौद्धों और जैनियो के साथ साथ त्याग धर्म वाले जो दूसरे मत प्रचलित हुए थे, उन
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भगवान महावीर
समन में गौशाला के द्वारा स्थापित किया हुआ आजीविक सम्प्रदाय सब से अधिक लोक परिचित था, सम्राट अशोक ने अपने शिलालेखो में ब्राह्मणो और जैनियों के साथ इस सम्प्रदाय का भी विवेचन किया है। इससे मालूम होता है कि, गौशाला बुद्ध और महावीर का प्रतिस्पर्धी था लेकिन अब उसका चलाया हुआ धर्म लोप हो गया है।।
हाल के नवीन अन्वेपणो से इतना स्पष्ट मालूम होता है कि गौशाला एक समर्थ मत प्रवर्तक था, किसी कारणवश महावीर के साथ उसका मत भेद हो गया था, और उस मत भेद के कारण भविष्य मे जाकर वह उनका विरोधी हो गया था। इस विरोध की छाप उस समय जैन धर्मानुयायियो के हृदय पर बैठ गई होगी, और भविष्य मे वह घटने के बदले प्रति दिन बढ़ती गई होगी, एवं जिस समय जैन सिद्धान्त और कथाएं लेख बद्ध हुई, उस समय जैनी लोग उसको इस रूप में मानने लग गये होंगे और इसी कारण उन के ग्रन्थों में भी उनकी मान्यता के अनुसार उसका वैसा ही विकृत रूप लेखों में चित्रित कर दिया होगा। क्योंकि हम देखते हैं कि बौद्ध ग्रन्थों में उसका रूप इतना विकृत नहीं दिखाई पड़ता है। इससे मालूम होता है कि गौशाला वास्तव में वैसा नहीं था जैसा जैन लेखकों ने उसे चित्रित किया है, सम्भव है हमारो दृष्टि से उसका तत्वज्ञान कुछ भ्रम पूर्ण हो पर यह अवश्य खोकार करना ही पड़ेगा 'कि वह एक तत्वज्ञानी था ।
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चौथा अध्याय )
उस समय के दूसरे सम्प्रदाय
वौद्ध और आजीविक सम्प्रदाय का वर्णन तो हम कर
चुके, अब यहां पर उन शेप छोटे छोटे मतों
“का विवेचन करना चाहते हैं जो भगवान महावीर के समय में इस देश के अंतर्गत प्रचलित थे। जैन शास्त्रो में इन मतों का विरोध किया गया है।
सूत्र कृतांग २,१,३५५ र २१ में दो जड़वादी मतोका नल्लेख किया गया है। पहले सूत्र मे आत्मा को एक और अभिन्न बनाने वाले एक मत का वर्णन है। और दूसरे सूत्र मे "पचभूत" कोही नित्य और सृष्टि का मूल तत्व मानने वाले एक दूसरे मत का वर्णन है। सूत्र कृतांग मे जाहिर होता है कि ये दोनों ही मत जीवित प्राणी को हिंसा मे पाप नहीं समझते थे।
बौद्धों के "सामन फल सूत्र" मे " पूरणकस्सप" और "अजितकेश कम्पलि" के मतों का उल्लेख किया गया है। इन दोनों मतो के तत्वों में और सूत्र कृतांग में वर्णन किये हुए उप
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भगवान् महावीर रोक्त दोनों मतों में बहुत समानता पाई जाती है। "पूरण कस्सप" पुण्य और पाप को कोई वस्तु नहीं मानता था और "अजित केश कम्बलि" का यह सिद्धान्त था कि लोक के अंतर्गत अनुभवातीत जो काल्पनिक मत प्रचलित है, उनको कोई तात्विक आधार नहीं है। इसके अतिरिक्त वह यह मानता था कि मनुष्य चार तत्वों का बना हुआ है, जब वह मर जाता है, तब पृथ्वी, पृथ्वी मे, जल जल में, अग्नि अग्नि में, और ज्ञानेन्द्रियां हवा में मिल जाती हैं। शव को उठाने वाले चार पुरुप मुर्दे को उठा कर स्मशान में ले जाते हैं और वहां उसका कल्पान्त कर डालते हैं। कपोत रग की हड्डियां शेप रह जाती हैं और वाकी सब पदार्थ जल कर भस्म हो जाते हैं। इसी बात को सूत्र कृतांग में कुछ हेर फेर के साथ इस प्रकार लिखी है। "दूसरे लोग मुद्दे को जलाने के निमित्त वाहर ले जाते हैं। जब अग्नि उसको जला डालती है। तव केवल कपोत रङ्ग की ही हड्डियां शेष रह जाती है और चारों उठानेवाले हड़ियों को लेकर ग्राम की ओर मुड़ जाते हैं।"
इन मतों के अतिरिक्त एक "अज्ञेयवाद" नामक मत भी प्रचलित था, इसका प्रवर्तक "सज्जयवेलट्रिपुत्त" था। "सामञ्जफल सुत्त' नामक बौद्ध ग्रन्थ में उसका विवेचन इस प्रकार किया गया है। महाराज! यदि-तुम मुझसे यह प्रश्न करोगे कि जीव की कोई भावी अवस्था है ? तो मैं यही उत्तर दूंगा कि, जब में उस अवस्था का अनुभव कर सकूँगा तभी उसके विषय में कुछ कह सकूँगा। यदि तुम मुझसे पूछोगे कि "क्या वह अवस्था इस प्रकार की है तो मैं यही कहूँगा कि "यह मेरा विषय
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भगवान् महावीर नहीं है" यदि तुम पूछोगे कि "क्या वह अवस्था उस प्रकार की है । तो भी यही कहूँगा कि "यह मेरा विषय नहीं"क्या वह इन दोनों से भिन्न है ? तब भी यही कहूँगा कि यह मेरा विषय नहीं । इसी प्रकार मृत्यु के पश्चात् तथागत की स्थिति रहती है, या नही ? रहती है ? यह भीनही! नही रहती है ? यह भी नही । इस प्रकार के तमाम प्रश्नो का वह यही उत्तर देता है, इससे जान पड़ता है कि, अज्ञेयवादी किसी भी वस्तु के अस्तित्व और नास्तित्व के सम्बन्ध मे सब प्रकार की निरूपण पद्धतियों की जांच करते थे। इस जांच पर से भी जो वस्तु उन्हें अनुभवातीत मालूम होती है तो वे उसके विषय मे कहे गये सव मतों के कथन को अस्वीकृत करते थे। __जर्मनी के प्रसिद्ध विद्वान् डा० हर्मन जेकोबी का मत है कि सञ्जय के इसी “अज्ञेयवाद" के विरुद्ध महावीर ने अपने प्रसिद्ध "सप्तभङ्गीन्याय" को सृष्टि की थी। अज्ञेयवाद बतलाता है कि, जो वस्तु हमारे अनुभव से अतीत है, उसके विषय मे उसके अस्तित्व ( यह है ) नास्तित्व ( यह नहीं है) युगपत् अस्तित्व (है और नहीं है ) और युगपत् नास्तित्व (नहीं है और है) का विधान और निषेध नहीं किया जा सकता । उसी प्रकार-पर उससे बिल्कुल विपरीत दिशा में दौड़ता हुआ "स्याद्वाद दर्शन" यह प्रतिपादित करता है कि, एक दृष्टि से (अपेक्षा से) कोई पुरुष वस्तु के अस्तित्व का विधान (स्यादस्ति) कर सकता है और दूसरी दृष्टि से वह उसका निषेध भी कर सकता है, और उसी प्रकार भिन्न भिन्न काल में वह वस्तु के अस्तित्व तथा नास्तित्व का विधान भी (स्यादस्ति- .
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भगवान् महावीर नास्ति) कर सकता है, पर एक ही काल और एक हो दृष्टि से कोई मनुष्य वस्तु के अस्तित्र और नास्तित्व के विधान करने की इच्छा रखता हो तो उसे "त्याद-अवक्तव्य." कहना पड़ेगा, सनय के "अनेयवाद' और जैनियों के स्याद्वाद में सब से बड़ा और महत्व का अन्तर यही है कि जहाँ सञ्जय किसी भी वस्तु का निर्णय करने में सन्देहाश्रित रहता है, वहाँ स्याद्वाद विल्कुल निश्चयात्मक ढङ्ग से वस्तुतव का प्रतिपादन करता है। ___ जेकोबी महाशय का कथन है कि, ऐसा जान पड़ता है उस समय में अजेयवादियों के सूक्ष्म विवेचन ने बहुसंख्यक आदमियों को भ्रम में डाल रक्खा था, इस भ्रमजाल से उन सवा को मुक्त करने के निमित्त ही जैन-धर्म में स्याद्वाद के क्षेम-मार्ग की योजना की गई थी। इस अद्भुत तत्र ज्ञान के सामने आकर सन्जयवादी खुद अपने ही प्रति पक्षो हो जाते थे। इस दर्शन के प्रताप ही के अजयवादियों के मत का पूर्ण खण्डन करने की सामर्थ्य लोगों में आगई। नहीं कहा जा सकता कि, इस शान के प्रताप से कितने ही अज्ञानवादिया ने जैन-धर्म की शरण ली होगी।
कोत्री महाशय के इस अनुमान में सत्य का कितना अंश है इसके विषय में कुछ भो निश्चय नहीं कहा जा सकता।
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४ पाँचवाँ अध्याय
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क्या जैन और बुद्ध धर्म ब्राह्मण धर्म के
विरुद्ध क्रान्ति रूप उदय हुए थे:गहम पहिले इन दोनों धर्मों को क्रान्ति सन्ना से सम्बोधित
..,मत पाये हैं। सम्भव है कि कुछ लोगो को
इसमें कुछ एतगज हो। क्योंकि क्रान्ति शब्द का माधारण अर्थ आज कल गजनैतिक वलवे मे लिया जाता है। इमम पुछ लोग महज ही कह सकते हैं कि जैन और बौद्ध धर्म कोई गजनैतिक बलवे तो थे नहीं कि, जिसके कारण उन्हें 'कान्नि"या जाच, इसके उत्तर-स्वरूप हम यही कह देना उचित समर्मत है कि केवल राजनैतिक दलवे को ही क्रान्ति नहीं कहते। समाज की विशृखला 'पौर दुर्व्यवस्था को मिटाने के लिए जो अान्दोलन होने हैं, उन्हींको क्रान्ति कहते हैं। फिर चाहे वे आन्दोलन राजनैतिक रूप से हो चाहे सामाजिक रूप से हो चाहे धार्मिक रूप से । समय की आवश्यकता को देखकर तत्कालीन महापुन्प कभी गजनैतिक रूप से उस क्रान्ति का उद्गम करते हैं कमी सामाजिक रूपमे और कभी धार्मिक रूप से महात्मा गांधी की क्रान्ति राजनैतिकता और धार्मिकता का मिश्रण है। स्वामी
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भगवान महापीर
दयानन्द की क्रान्ति सामाजिक क्रान्ति थी और महावीर, बुद्ध और ईसा की धार्मिक क्रान्तियां थीं।
महावीर और बुद्ध ने तत्कालीन सामाजिक और धार्मिक अवस्था के प्रति आन्दोलन उठाया था। उन्होंने यज्ञादिक कर्मकाण्ड के खिलाफ, हठयोगादि कुतपस्याओं के विरुद्ध और शूद्रों के प्रति जुल्मों के विरुद्ध अपनी आवाज उठा कर समाज में तहलका मचा दिया था। अतएव जैन और बुद्ध धर्म को तत्कालीन धर्म के विरुद्ध क्रान्ति कहे तो अनुपयुक्त न होगा। जैन और चौद्ध धर्म वास्तव में तत्कालीन वैदिक धर्म के विरुद्ध उत्पन्न हुई प्रबल क्रान्तियां थीं। जिनके नेता भगवान महावीर और बुद्ध थे।
CRI
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छठवां अध्याय।
जैन और बौद्ध-धर्म में संघर्ष यद्यपि "भगवान महावीर" और "भगवान बुद्ध" दोनों ने एक
साथ ही इस कर्म भूमि पर अवतीर्ण होकर एक साथ
ही कार्य किया था। एवं जैन और बौद्ध-धर्म का प्रफाश भी एक ही साथ समाज में फैला हुआ था। और एक ही उद्देश्य को लेकर दोनो धम्मों का विकाश हुआ था तथापि भाग जाफर दैव दुर्वियोग से इन दोनों धर्मों में पारस्परिक वैमनस्य फैल गया था। एक ही उद्देश्य से उत्पन्न हुए दोनो बंधु परस्पर में ही लडने लगे जिसका परिणाम यह हुआ कि, समाज में इन दोनों धर्मों के प्रति फिर से हीनता के भाव दृष्टि गोचर होने लगे और मृतप्रायः वैदिक धर्म पुनर्जीवित होने लगा।
प्रकृति का यह नियम केवल जैन और यौद्ध-धर्म के ही लिए पैदा नहीं हुआ था। सभी धर्मों में यह सनातन नियम चलता रहता है। जहाँ तक समाज जागृतावस्था में रहता है वहाँ तक कभी नए नियम की विजय नहीं हो सकती। पर ज्याही समाज कुछ सुप्तावस्था में होने लगता है त्योंही यह नियम जोर शोर से अपना कार्य करने लगता है। इसका उदाहरण जगत का प्राचीन इतिहास है।
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भगवान महावीर
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वैदिक धर्म को ही लीजिए पहले कितनी बढ़ नीव पर इसकी इमारत खड़ी की गई थी, इस धर्म के द्वारा संसार को कितना दिव्य सन्देश मिला था, पर आगे जाकर व्याही समाज के तत्वो मे अन्तर आने लगा। त्याही इसमें कितने फिरके हो गये और वे आपस में किस प्रकार रक्त बहाने लगे। मुसलमान धर्म को लीजिए शिया और सुन्नी के नाम पर क्या उसमें कम खून खरावा हुआ है। ईसाई धर्म में क्या रोमन कैथालिक और प्रोटेस्सेण्ट के नाम पर कम अत्याचार हुए हैं, मतलव यह कि प्रकृति का यह नियम सब स्थानों पर समान रूप से काम करता रहता है । अव एक ही धर्म के अन्दर इस तरह फिरके उत्पन्न हो कर आपस में लड़ते है । तब जैन और वौद्ध-धर्म तो अलग अलग धर्म थे इनमे यदि संघर्ष पैदा हो तो क्या आश्चर्या । ___मतलव यह कि आगे जाकर जैन और बौद्ध धर्म मे खून ही जोर का सघर्ष चला। जैन ग्रन्या मे वौद्धों की और बौद्ध ग्रन्थ मे जैनियों की दिल खोल कर निन्दा की गई। उसके कुछ उदाहरण लीजिए 1.
दिगम्बर सम्प्रदाय मे "दर्शनसार" नामक एक अन्ध है । इसके लेखक देवानन्द नाम के कोई आवार्य हैं। यह ग्रन्थ सन् ९९० ईस्वी में उज्जैन के अन्दर लिखा गया है । इस ग्रन्थ मे लेखक ने बुद्ध धर्म की उत्पत्ति का बड़ा ही मनोरंजक या यो कहिये कि हास्यास्पद उल्लेख किया है। इस ग्रन्थ में लिखा है कि, "भगवान पार्श्वनाथ" "और भगवान महावीर" के समय के दर्मियान पार्श्वनाथ स्वामी के शिष्य पिहिताश्रम नामक मुनि का "युद्ध
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भगवान् महावीर
कीर्ति" नामक शिष्य पलाश नगर के पास सरयू नदी के किनारे पर तप कर रहा था। "वुद्ध काति" ने एक वार आहार लेने की इच्छा से आस पास दृष्टि डाली, इतने ही में उसे नदी किनारे एक मरा हुआ मत्स्य नजर आया। उसको देख कर उसने कुछ समय तक विचार किया और अन्त में यह निश्चय किया कि, मरी हुई मछली को खाने में कुछ भी पाप नहीं, क्योंकि इसमें जीव नहीं है, और जहां जीव नहीं वहां हिंसा नहीं। ऐसा विचार कर उसने पार्श्वनाथ का पंथ छोड़ दिया और “बुद्धधर्म" नाम का अपना एक नया ही वर्म शुरु किया। महावीरखामी के तीर्थकर होने से पूर्व ही उसने उपदेश देना प्रारम्म कर दिया था।"
इस दन्त कया की आलोचना करना हम व्यर्थ समनाते हैं। क्योंकि कोई भी निप्पन पात फिर चाहं व जैन ही क्यो न हो इस कथा पर हसे विना न रहेगा।
इसके अतिरिक्त जैनियों के और भी कई ग्रन्यो में बौद्धों की निन्दा में पृष्ट के पृष्ट रखे हुए हैं। श्रेणिकचरित्र, अफलंकचन्त्रि श्रादि ग्रन्यों के लिखने का तो शायद मूल उद्देश्य ही बोवां की निन्दा करना था।।
इसी प्रकार बौद्ध ग्रन्यों में भी जन-धन्म की भर पेट निन्दा की गई है । स्थान स्थान पर "निनन्यको यर्म-द्रोही के नाम । ने लवाधिन किया गया है "मागोमनिकाय' नामक बौद्धों का एक ग्रन्य है, उसमें लिखा है कि, बानीपुत्र ( महावीर ) ने अपने • अभय कुमारनामक एक शिव्य को बुद्धदेव के पास शाखार्थ करने के लिए भेजा पर वह ऐसा परात हुआ कि वापस अपने
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भगवान महावीर गुरु के पास गया ही नहीं, उसी समय उसने बुद्धधर्म अद्गिकार कर लिया । "महापगा" नामक ग्रन्थ में लिखा है कि, लिक्षिक जाति के ज्ञानीपुत्र के एक शिष्य ने बुद्धसं मुलाकात की थी और उसने तत्काल ही अपना मत बदल दिया। इस प्रकार और भी कई अन्थो में जैनियों की खूब निन्दा की गई है। ___ आगे जाकर इन निन्दा के भावों ने विद्रोह का रूप धारण कर लिया और यह भी कहा जाता है कि, बौद्धधर्म के कुछ राजाओ ने जैन लोगो की कल तक करवा दी। पर इस बात में सत्य का कितना अंश है यह नहीं कहा जा सकता।
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का सातवाँ अध्याय -
क्या महावीर जैनधर्म के मूल संस्थापक थे ?
अभी बहुत समय नहीं हुआ है, केवल बीस पच्चीस वर्षों Laurकी बात है जनेतर विद्वानोका प्राय. यह विश्वास था कि जैनधर्म बौद्धधर्म की ही एक शाखा है, और महावीर भी बुद्ध के एफशिष्य थे। इस मत के प्रचारको में खासकर लेसन, बंबर और विल्सन का नाम लिया जा सकता है। यद्यपि इनलोगों का यह भ्रम अव दूर हो गया है, और डाक्टर हार्नल
और डाक्टर हर्मन जेकोबी नामक दो जर्मन विद्वानो के प्रयत्न में अब सब लोग जैनधर्म को एक स्वतन्त्र धर्म स्वीकार करने लगा गये हैं, तथापि पाठको के मनोरजनार्थ इस स्थान पर उन लोगों के मत का उल्लेख करदेना आवश्यक है, जिसके कारण वे जैनधर्म को बौद्धधर्म की एक शाखा मानते थे।
विल्सन साइव का खयाल था कि, जैनधर्म बौद्धधर्म की ही एक शाखा है। यह शाखा ईसा की दशवीं शताब्दी मे वौद्धधर्म का बिल्कुल नाश होने पर निकली है । ब्राह्मण जब यहा से बौद्धों को निकालने लग गये तो बचे हुए बौद्ध जाति भेद स्वीकार करके जैनी हो गये और निकाले जाने से बच गये । इसके अतिरिक्त उपरोक्त साहव का यह भी कथन है कि, बुद्ध और महावीर के
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भगवान् महावीर
यात्रजीवन में ऐसा आश्चर्यजनक साम्य पाया जाता है कि, उनको अलग अलग व्यक्ति स्वीकार करने में बुद्धि प्रेरणा नहीं करती। मसलन, महावीर और बुद्ध दोनों की स्त्री का नाम "यशोदा"
और दोनो ही के भाइयों का नाम,"नन्दिवर्धन" था ।इसके अतिरिक्त बुद्ध की कुमारावस्था का नाम "सिद्धार्थ" और महावीर के पिता का नाम भी सिद्धार्थ था । इन सब बातों से यह बात स्वीकार करने में बड़ा सन्देह होता है कि वुद्ध और महावीर अलग अलग व्यक्ति थे।
लेकिन विल्सन साहब की यह युक्ति प्रमाण नहीं मानी जा सकती । क्योंकि महावीर और बुद्ध के जीवन में जितनी बातों में साम्य पाया जाता है, उससे अधिक महत्वपूर्ण वातों में वैपम्य भी पाया जाता है। जैसेवुद्ध का जन्म कपिलवस्तु में हुआ और महावीर का कुण्डग्राम में । बुद्ध की माता वुद्ध का जन्म होते ही कुछ समय के अन्तर्गत स्वर्गस्थहो गई,जब की महावीर की माता उनके जन्म के २८ वर्ष तक जीवित रही, वुद्ध माता पिता और पन्नी की अनुमती के बिना सन्यासी हुए थे, पर महावीर माता, पिता के स्वर्गवास हुए के पश्चात् ज्येष्ठ भ्राता की अनुमति से संन्या. सी हुए थे । इसके अतिरिक्त सब से बडा प्रमाण यह है कि राजा विम्बसार जिसे जैनी लोग श्रेणिक कहते हैं । बुद्ध के समकालीन थे । इनको बुद्ध सहावीर दोनो ने उपदेश दिया था। और ओणक पहले बुद्ध और फिर जैनी हुए थे । इन सब बातो का आधार देकर डाक्टर जेकोबी ने विल्सन का खण्डन करते हुए यह सिद्ध कर दिया है कि, वुद्ध और महावीर दोनो भिन्न भिन्न व्यक्ति थे, और समकालीन थे ।
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भगवान् महावीर
अब लेसन,साहव का मत सुनिए उनका कथन है कि चार बड़ी - बढी बातों में जैनधर्म और वौद्धधर्म विल्कुल समान है।
१-दोनों सम्प्रदाय वाले अपने अपने आचाय्यों (Prop. hets) को एक हो (अर्हत ) संज्ञा से सम्बोधित करते हैं। इसके अतिरिक्त "सर्वज्ञ" "सुगत" "तथ्यगत" "सिद्ध" “बुद्ध" "मुंबुंदह" 'प्रादि सब संज्ञाओं को दोनों धर्म वाले अपने अपने आचार्यों के लिए प्रयुक्त करते हैं।
२-दोनो सम्प्रदाय वाले अपने अपने निर्वाणस्थ-प्राचार्यों को देवनाओं के समान पूजते हैं, उनकी मूर्तिया और मन्दिर बनान है।
दोनो ही मम्प्रदायो का मुख्य सिद्धान्त "अहिंसा" है। और दोनों की काल प्रणाली में भी वहत कुछ साम्य है।
४-जैन श्रमणो और बौद्ध श्रमणों के चरित्रों में भी बहुत माम्य पाया जाता है दोनों ही चार महानत के पालक होते हैं।
इन चारों दलीलों के आधार पर मि० लेसन यह सिद्ध करने को कोमिश करते हैं कि जैनमत भी बौद्धमत की ही एक शाखा है।
लेकिन लसन साहब के ये मत भी उतने ही भ्रम पूर्ण हैं जितने कि विल्सन साइव के। यह बात सत्य है कि "अर्हत"
आदि शब्दवौद्ध और जैन दोनों धमों में मिलते हैं। पर "जिन" "श्रमण" श्रादि शब्द जो कि जैन शाखों में मुख्यतय, प्रयुक्त किये जाते हैं। बौद्ध अन्यों में नहीं पाये जाते। इसके अतिरिक्त 'तभ्यगत' 'तीर्थकर' शब्द को यद्यपि दोनो ही व्यवहृत करते है, पर भिन्न भिन्न रूप में। जैनधर्म के तीर्थकर शब्द का प्रयोग
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भगवान् महावीर बहुत ऊँची श्रेणी के महात्माओं के लिये व्यवहत होता है । पर बौद्धधर्म मे भ्रष्ट उपाश्रय के स्थापित करने वाले को 'तश्वगत' कहा है । इसका कारण यही मालूम होता है कि, द्वेपांध होकर ही पीछे से वौद्ध लोगो ने जैनधर्म मे इस शब्द को उडा कर इस रूप में उसका प्रयोग किया । अव लेसन साहब की दूसरी युक्ति पर विचार कीजिए "अहिंसा" के लिये तो विचार करना ही व्यर्थ है । क्योंकि यह तो हिन्दुस्तान के प्राय. सभी धर्मों में पाई जाती है। रहा कालमापन का, इसके लिए हर्मन जैकोबी का मत सुनिये ।
The Buddhas improved upon tbc Brabwani system of yugas, while the pains invented thelr utassanpidi and Avasarpini eras after the model of the dny and on gbt of Brahma
अर्थात् बुद्ध लोगो ने ब्राह्मणो के युगो की सिस्टम का अनुकरण करके चार बड़े बड़े कल्पो का आविष्कार किया, ओर जैनियो ने ब्रह्म के दिन और रात (अहोरात्र) की कल्पना पर उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल की कल्पना की।
इससे लेसन साहब की तीसरी युक्ति भी निरर्थक ही जाती है । क्योंकि, जेकोबी के कथानुसार दोनों ही मतो ने कालमापन की कल्पना ब्राह्मणधर्म के अनुसार की। इसी प्रकार लेसन साहब को चौथी युक्ति भी निर्मूल हो जाती है। क्योकि जिन चार महाव्रतों का उन्होंने जिक्र किया है, वे ब्राहाण वौद्ध,
और जैन तीनों धर्मों में समान पाये जाते हैं। पर समान होते हए भी कोई बौद्धधर्म को ब्राह्मणधर्म की शाखा नहीं कह
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जनसकता। इसी प्रकार इसी प्रमाण पर जैनधर्म को बौद्धधर्म की शाग्वा मानना भी, हास्यास्पद ही होगा। इसके अतिरिक्त महावीर क समय में तो ये महाव्रत चार से पांच हो गये थे। सिवाय इसके जैनधर्म में तीर्थकर २४ माने गये हैं। पर बुद्ध लोग २५ घुद्धों का होना मानत हैं।
इस प्रकार डाक्टर जेकोबी वगैरह विद्वानो के प्रयत्न से अब उपरोक्त विद्वानो की कल्यनाएं बिल्कुल नष्ट हो गयी हैं और सिद्ध हो गया है कि, बुद्ध और महावीर दोनों अलग अलग व्यक्ति थे।
अब प्रभ रह जाता है कि, क्या महावीर ने ही जैनधर्म नामक धर्म की पहले पहल कल्पना की थो, या यह धर्म उनके भी पहिले मौजूद था।
जैन शाखा में तो जैनधर्म अनादि माना गया है। उनके अनुमार महावीर के पूर्व २३ तीर्थकर और हो चुके हैं। जिन्होंने ममय समय पर इस पृथ्वी पर अवतीर्ण होकर संसार के निर्वाण के लिए सत्य धर्म का प्रचार किया। इनमें से पहले तीर्थकर का नाम ऋपभदेव था। ऋषभदेव के काल का निर्णय करना इतिहास की शक्ति के बाहर है। जैन ग्रन्थों के अनुसार वे करोड़ों वर्षों तक जीवित रहे। अतएव प्राचीन तीर्थकरों के बारे मे जैन ग्रन्थों में लिखी हुई वातों पर एका. एक विश्वास नहीं किया जा सकता। कम से कम इतिहास तो इन घटनाओं को कदापि स्वीकार नहीं कर सकता। इस स्थान पर हम ऐतिहासिक दृष्टि से जैनधर्म की उत्पति पर कुछ विवेचन करना चाहते हैं।
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लोगों का विश्वास है कि भगवान् महावीर ही जैनधर्म के मूल संस्थापक थे । लेकिन यदि यह बात सत्य होती तो बौद्धग्रन्थो के अन्दर अवश्य इस बात का वृतान्त मिलता, पर वौद्धग्रन्थों में महावीर के लिए कहीं भी यह नहीं लिखा कि वे किसी धर्म विशेष संस्थापक थे। इसी प्रकार उनमें कहीं यह भी नहीं लिखा है कि, निमन्यधर्म कोई नया धर्म है । इससे यह सिद्ध होता है कि बुद्ध के पहले भी किसी न किसी अवस्था में जैनधर्म मौजूद था। यह बात अवश्य है कि, उनके पहिले यह बहुत विकृत अवस्था मे था। जिसका महावीर ने सशोधन किया ।
इधर आज कल की खोजो से यह बात सिद्ध हो गयी है कि, पार्श्वनाथ ऐतिहासिक व्यक्ति थे। डाक्टर जेकोवी आदि व्यकियो ने यह भी सिद्ध कर दिया है कि पार्श्वनाथ ही जैनधर्म के मूल संस्थापक थे । ये महावीर निर्वाण के करीव २५० वर्ष पूर्व हुए अतएव उनका समय ईसा के पूर्व आठवीं शताब्दी में निश्चय होता है । पार्श्व की जीवन सम्बन्धी घटनाओं और उपदेशों के इतिहास का वहुत कम ज्ञान है ।
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भद्रबाहु स्वामी रचित कल्पसूत्र के एक अध्याय में कई तीर्थंकरो की जीवनियां दी हुई हैं। उनमे पार्श्वनाथ की जीवनी भी है । उससे मालूम होता है कि, महावीर से २५० वर्ष पूर्व श्रीपार्श्वनाथ निर्वाण को गये । पार्श्वनाथ काशी के राजा अश्वसेन के पुत्र थे । इनकी माता का नाम वामादेवी था । तीस वर्ष तक गार्हस्थ्य सुख का उपभोग कर ये मुनि हो गये । ८३ दिन तक ये 'छदमावस्था मे रहे, और ८३ दिन कम सत्तर वर्ष तपस्या करके निर्वाणस्थ हुए। पार्श्वनाथ के समय में अणुव्रतो की संख्या
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ज्य
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केवल चार थी । १ - अहिंसा २- सत्य ३ - आचार्य ४ - परिगृहपरिमाण । पर समय की अवस्था को देख कर भगवान् महावीर ने इनमें "ब्रह्मचर्य्य" नामक एक व्रत की संख्या और बढ़ा दी । इसके अतिरिक्त पार्श्वनाथ ने अपने शिष्यो को एक अधोवस्त्र पहनने की आज्ञा दी है पर महावीर ने अपने शिष्यों को बिल्कुल नग्न रहने की शिक्षा दी है। इससे सम्भवतः यह मालूम होता है कि, आज कल के श्वेताम्बर और दिगम्बर समाज क्रम से पार्श्वनाथ और महावीर के अनुयायी थे ।
उपरोक्त विवेचन में यह मतलब निकलता है कि भगवान् महानी जैनधर्म के मूल संस्थापक न थे । प्रत्युत वे उसके एक संशोधक मात्र थे । अब प्रश्न यह है कि, क्या पार्श्वनाथ हो जैनधर्म के मूल संस्थापक थे ? यद्यपि जैनशास्त्र और जैन समाज वाले तो इस बात को भी स्वीकार नहीं कर सकते। क्योंकि उनके मत सेतोपार्श्वनाथ के पूर्व भी बाईम तीर्थकर और हो चुके हैं। और
न बाईस तीर्थकरी के पूर्व भी कई चौबिसियां गुजर चुकी हैं तथापि ऐतिहासिक दृष्टि मे भगवान् पार्श्वनाथ से आगे बढ़ने का अभी तक तो कोई मार्ग नहीं है। लेकिन निरंतर की खोज और उद्योग से जिस प्रकार जैनधर्म के मूल संस्थापक महावीर से पार्श्वनाथ माने जाने लगे। उसी प्रकार सम्भव है और भी जो खोज हो तो क्या आश्चर्य कि, पार्श्वनाथ से पूर्व नेमिनाथ का भी पता लगने लगे । पर अभी तो इसकी कोई आशा नहीं । अभी कुछ अग्रेज लेखक यह भी कहते हैं:
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"जैनियों और बौद्धों ने ब्राह्मणों के साथ प्रतिस्पर्धी करने के लिए ही अपने मत को पुराना बतलाने की चेष्टा की है । इन दोनो
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भगवान महावीर
मतवालो ने ब्राह्मणों को नीचा दिखाने के लिए ही इन मब प्राचीन नामों की कल्पना की है।
कुछ भी हो अभी तक हमारे पास कोई ऐसे साधन नहीं हैं कि, जिनके जरिये हम पार्श्वनाथ से पहले के तीर्थकरों का ऐतिहासिक अनुसंधान कर सकें। इसलिये ऐतिहासिक दृष्टि से हमे जैनधर्म के मूल संस्थापक पार्श्वनाथ को ही मान कर सन्तोष करना पडेगा। जैनधर्म की उन्नति और उसका तत्कालीन
समाज पर प्रभाव
एक विद्वान् का कथन है कि युद्ध, महामारी आदि वाह्य आपत्तियों से समाज के अन्दर क्रान्ति नहीं हो सकती। समाज में क्रान्ति उसी समय होती है, जब उसके अन्तर्तत्व मे कोई खास विशृखला उत्पन्न होती है । समाज के अन्तर्जगत् में जव मूलतत्वो के नष्टभ्रष्ट होने से खल बली मचती है, तभी क्रान्ति का बाह्य उद्गम होता है, क्रान्ति : उसी ज्वालामुखी पहाड़ की तरह समाज मे धधकती है, जिसके अतर्गत बहुत समय पूर्व से अन्दर ही अन्दर भभकने का मसाला तैयार होता रहता है।
उपरोक्त विद्वान् का यह कथन समाज-शास्त्र के पूर्ण अध्ययन का परिणाम है । समाज-शास्त्र की इस निर्मल कसोटी पर जब हम तत्कालीनासमाज को जांचते हैं तब हमे मालूम होता है कि, उस समय के मूलतत्त्वों में बहुत विश्रृंखला पैदा हो गई थी। समाज के अतर्गत उस समय बहुत हलचल उत्पन्न हो । गई थी। इस हलचल का ऐतिहासिक विवेचन हम पहले कर
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समाज उस समय उस क्रान्ति की तैयारी कर रहा था जो बहुत ही थोड़े समय के अन्दर उसमें प्रारम्भ होने वाली थी।
ठीक समय पर समाज के अन्दर क्रान्ति का उदय हुआ। यह क्रान्ति और कुछ नहीं समाज में जैन और बौद्ध धर्म का उदय थी। इन दोनों क्रान्तियों के नेता भगवान महावीर और भगवान् वद्ध थे। दोनों नेताओं ने समाज की उस दरावस्था के विरुद्ध अपनी आवाज उठाई और परिस्थिति का अध्ययन कर एक एक नवीन धर्म की नीव डाली।।
दोनों महात्माओ के आजाद सन्देश को सुन कर समाज मे हलचल मच गई। समाज के अत्याचारों से पीड़ित होकर लाखो त्रस्त मानव उनके भण्डे के नीचे एकत्रित होने लग गये । यहां नक कि इन दोनों धर्मों के नवीन प्रकाश में ब्राह्मणधर्म लुप्त प्रायसा नजर आने लग गया। समाज की ये क्रान्तियां केवल भारतवर्ष में ही प्रचारित होकर न रही। बुद्धधर्म तो चीन, जापान, वर्मा और सिलोन तक में प्रचारित हो गया। ___ जैन और बुद्धधर्म के इस शीघ्रगामी प्रचार का तत्कालीन परिणाम यह हुआ कि, समाज की वह दुर्व्यवस्था, समाज की वह हिंसात्मक प्रवृत्ति, और अछूतो के प्रति होनेवाले घृणित अत्याचार समाज में एकदम बन्द हो गये। लाखो मूक पशुओं का हत्याकांड वन्द हो गया "वैदि की हिसा हिंसान भवति" की भयंकर आवाज के स्थान पर "अहिंसा परमो धर्म" के उज्वल
और दिव्य सन्देशों का प्रचार हुआ। भयङ्कर-क्रान्ति के पश्चात् दिव्य शान्ति का उदय हुआ।
लोकमान्य तिलक का कथन है कि, सनातनधम के चिर
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'शान्त हृदय पर जैनधर्म की उज्वल और स्पष्ट मोहर लगी हुई है । वह मोहर हिंसा के विरुद्ध अहिसा के साम्राज्य की है। आज भी ब्राह्मणधर्म जैनधर्म का इस बात के लिए अहसान मन्द है कि, उसने उसे अहिंसा का उज्जल सन्देशा दिया ।
उस समय मे तो इन दोनों क्रान्तियो को समाज पर पूर्ण विजय मिली । यज्ञो में होनेवाली हिंसा बन्द हो गई और यह बात तो अब तक भी स्थायी है। इसके अतिरिक्त अछूतो के प्रति घृणा के भाव भी समाज से मिट गये। लेकिन थोड़े ही समय के पश्चात् जब कि शकराचार्य्य ने वैदिकधर्म का पुनरुद्धार किया, छुआछूत के ये भाव पुनः समाज में फैलने लगे और यहाँ तक फैले कि केवल वैदिकधर्म पर ही नहीं, पर इसका पूर्ण विरोधी जैनधर्म भी इसका कु-प्रभाव पड़ने से न बचा । वैदिकधर्म के दबाब के कारण अपने हृदय के विरुद्ध भी जैन लोगो ने इन भावो को स्वीकार किया । क्रमशः बढ़ते बढ़ते ये भाव जैनधर्म के हृदय में भी लग गये और अन्त मे इस बातका जो दुष्परिणाम हुआ वह आज आँखों के सामने प्रत्यक्ष है |
भगवान् महावीर
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मतलब यह है कि, उस समय इन दोनों क्रान्तियो का तत्कालीन समाज पर बहुत ही अधिक शुभ परिणाम हुआ । वर्णाश्रमधर्म तो नष्ट हो गया पर उसके बदले समाज में एक ऐसी दिव्य शान्ति का प्रादुर्भाव हुआ कि जिसके कारण समाज को वर्णाश्रमधर्म की कमी मालूम न हुई और उस शान्ति के परिणाम स्वरूप इतिहास में हमें भविष्य की स्वर्णशतान्दियाँ देखने को मिलती हैं ।
अब केवल एक प्रश्न बाकी रह जाता है । आजकल कुछ
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लोगो का ख्याल है कि, जैनधर्म ने तत्कालीन समाज को अहिंसा का सन्देश देकर उसमें कायरता के भाव फैला दिये। जिससे भारत का वीरव एक लम्बे काल के लिए या यों कहिए कि, अब तक के लिये लोप हो गया । इन विद्वानों में प्रधान आसन पंजाब केशरी लाला लाजपतराय जी का है। इस स्थान पर हमें अत्यन्त विनयपूर्ण शब्दो में कहना ही पड़ता है कि, लालाजी ने जैनधर्म का पूर्ण अध्ययन नहीं किया है। यदि वे जैन अहिंसा का पूर्ण अध्ययन करते, तो हमें विश्वास है कि, वे ऐसा कभी न कहते । इस विषय ' का विशद विवेचन हम किसी अगले अध्याय में करेंगे। यहाँ
पर हम इतना ही कह देना पर्याप्त समझते हैं कि, जैनधर्म कायरता का सन्देश देने वाला धर्म नहीं है। जैनधर्म वीरधर्म है और उसके नेता महावीर हैं। लेकिन इतना हम अवश्य स्वीकार करते हैं कि, आजकल के जैनधर्म में ऐसी विकृति हो गई है-उसकास्वरूप ऐसा भ्रष्ट हो गया है ह सचमुच कायर धर्म कहा जा सकता है । आजकल', को प्रचलित जैनधर्म वास्तविक जैनधर्म नहीं है। वास्तविक जैनधर्म भारत की हिन्दू जाति से कभी का लोप हो गया है। यह तो उसका एक विकृत ढांचा मात्र है। .. ।
टिलर
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आठवाँ अध्याय
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भगवान् महावीर काल-निर्णय
जैन शास्त्रों मे भगवान महावीर का निर्णय-काल ईसा ॐ के ५२७ वर्ष पूर्व माना गया है। अर्थात् भगवान
महावीर का यही समय लोग मनाते चले जा रहे है । उनका सम्बत भी जो वीरसंवत के नाम से प्रसिद्ध है, ईस्वी सन् से ५२७ वर्ष पहिले से प्रारम्भ होता है और इस दृष्टि से महावीर निर्वाण का समय ईसा से ५२७ वर्ष पूर्व मानने में कोई बाधा भी उपस्थित नहीं होती।
पर कुछ समय पूर्व डाक्टर हर्मन जेकोवी ने इस विषय पर एक नई उपपत्ति निकाली है। उनका कथन है कि, यदि हम महावीर निर्वाण कासमय ईसा से ५२७ वर्ष पूर्व मानते हैं तो सब से बड़ी अड़चन यह उपस्थित होती है कि फिर महावीर
और बुद्ध समकालीन नही हो सकते। अतएव यदि हम इस समय को स्वीकार करते हैं तो फिर बौद्ध ग्रन्थो का यह कथन मिथ्या सिद्ध हो जाता है कि, बुद्ध और महावीर समकालीन थे। इस बात पर प्रायः सव विद्वान् एक हैं, कि वुद्ध का निर्वाण
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ईसा के ४८० और ४८७ वर्ष पूर्व के बीच किसी समय में हुआ । अब यदि हम महावीर का निर्वाण ईसा से ५२७ वर्ष माने तो इन दोनो महापुरुषों के निर्वारण काल में करीब ४० या ५० वर्ष का अन्तर पड़ जाता है । इधर बुद्ध और जैन दोनो ग्रन्थों मे सूचित होता है कि, महावीर और बुद्ध दोनों विम्वसार के पुत्र अजातशत्रु के समकालीन थे । यदि महावीर का निर्वाण वास्तव मे ५२७ वर्ष ईसा से पूर्व हुआ है, तो फिर वे जातशत्रु के समकालीन नहीं हो सकते । इस प्रकार कई प्रमाण देते हुए अन्त में जेकोबी महाशय ने हेमचन्द्राचार्य्यं का प्रमाण दिया है । उनके परिशिष्ट पर्व में चन्द्रगुप्त का काल महावीर निर्वाण सवत् १५५ लिखा है । इधर आज कल की खोजो से मावित हो चुका था, कि चन्द्रगुप्त ईसा से ३२२ वर्ष पूर्व हुआ था । इस प्रकार ३२२ में १५५ मिला कर जेकोवी साहब ने महावीर निर्वाण का काल ईसा से ४७७ वपे पूर्व सिद्ध कर दिया है |
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इसमें सन्देह नहीं कि, डाक्टर जेकोवी ने निर्वाण काल का निष्कर्ष अच्छे प्रमाणो के साथ निकाला है । पर फिर भी इसमें शङ्का के अनेकस्थल मौजूद हैं । पहिले ही पहल उनका कथन है कि यदि हम महावीर निर्वाण का काल ५२७ वर्ष ईस्वी पूर्व मानते हैं तो फिर बुद्ध और महावीर समकालीन नही हो सकते । इसमें सन्देह नहीं कि, इस समय को मानने से अवश्य दोनो के काल में चालीस पचास वर्ष का अन्तर पड़ता है पर इससे यह नहीं कहा जा सकता कि वे विल्कुल समकालीन हो ही नही सकते । हम इस स्थान पर यह सिद्ध करना चाहते हैं कि, इतना
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अंतर पड़ने पर भी दोनों महापुरुष समकालीन हो सकते हैं। इतना अवश्य है कि उनकी समकालीनता का समय बहुत ही अल्पसिद्ध होगा। यदि हम महावीर निर्वाण ५२७ मे मानते हैं । तो यह आवश्यक है कि हमें उनका जन्म ५९९ ई० पूर्व में मानना पड़ेगा, इधर बुद्ध का निर्वाण यदि हम ४८७ ईस्वी पूर्व मानते हैं । तो निश्चय है कि, उनका जन्म ५६७ ईसवी पूर्व मे हुआ होगा । बुद्ध ग्रन्थो से यह भी स्पष्ट मालूम होता है कि बुद्ध ने उन्तालीस वर्ष की अवस्था मे उपदेश देना प्रारम्भ किया था । इस हिलाब से यदि हम देखें तो भी भगवान बुद्ध एक वर्ष तक महावीर के समकालीन रहे थे । यदि न भी रहे हों तो भी बुद्ध ग्रन्थों ने दो चार वर्ष के प्रकर को अत्तर न समझ कर उन्हें समकालीन लिख दिया हो । मतलब यह कि इस उपपत्ति में सन्देह करने को अनेक स्थल है । उसके अतिरिक्त लङ्का के हीनयान बौद्ध मतावलम्बी बुद्ध का निर्वाण ईसासे ५४४ वर्ष पूर्व मानते हैं । यदि यह ठीक है तव तो उपरोक्त प्रमाण की कोई आवश्यकता नही रह जाती है । जेकोवो साहब का दूसरा तर्क भी सन्देह से खाली नहीं । बौद्ध ग्रन्थो' में चाहे जो लिखा हो पर जैन ग्रन्थों मे तो भगवान महावीर को "कुरिणक" की अपेक्षा श्रेणिक ( विम्वसार) का ही समकालीन अधिक लिखा है । जिस समय भगवान महावीर को कैवल्य की प्राप्ति हो गई और उनकी समवशरण सभा बैठ गई, उस समय भी उनसे प्रश्न करने वाला श्रेणिक ही था । कुणिक ( अजातशत्रु) नही | सम्भव है इसी बीच महावीर निर्वाण के पूर्व ही श्रेणिक ने कुणिक को राज्य भार दे दिया हो, और पीछे से
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पुत्र के त्रास देने पर उसने आत्महत्या भी कर ली हो। पर भगवान महावीर के समवशरण तक मगध के राजसिंहासन पर श्रेणिक ही अधिष्ठित था यह बात निश्चित है । कुणिक के विषय में जैन-शाखों में इतना ही उल्लेख है कि उसने भगवान महावीर के दर्शन किये थे । पर क्या ताज्जुब वे दर्शन उस समय हुए हो जब भगवान का निवारण काल बिल्कुल समीप हो, भगवान महावीर बिम्बसार के समकालीन थे, उन्होंने विम्बसार को कई स्थानो पर उपदेश भी दिया है। और जब कि, विम्बसार का काल ५३० ई० पृ० में मानते हैं, तो भगवान महावीर का निर्वाण काल ५२७ ई० पू० मानने में कोई अडचन नही पड़ सकती। जैकोबी साहब का अन्तिम तर्फ अवश्य बहुत कुछ महत्व रखता है। हमचन्द्राचार्य ने अवश्य चन्द्रगुप्त काकाल महावीर निवाण मम्बत १५५ लिसा है और आज कल के ऐतिहासिकों ने बहुत ग्बोज के पश्चात् चन्द्रगुप्त का काल ३२२ ई० पूर्व सिद्ध कर दिया। इस हिसाब से जैकोबी साहब का मत पूर्णतयामाननीय हो सकता है। पर हाल ही में बंगाल के प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता नगेन्द्रनाथ वसु महोदय ने अपने वैश्यकांड नामक अन्य में कई अकाट्य प्रमाणों में यह सिद्ध करने की कोशिश की है कि ई० पू० ३२२ में आजकल के इतिहासन जिस चन्द्रगुप्त का होना मानते हैं, वह वास्तव में चन्द्रगुप्त नहीं, प्रत्युत्त उसका पोत्र अशोकथा। असली चन्द्रगुप्त का काल ई० पू० ३७५ मे ठहरता है। इस बात को उन्होंने
बन महादय का म उपपत्ति और उनके प्रमाणों का विस्तृत विवेचन हमने अपने "मारत के हिन्दू मम्राट" नामक ग्रंथ में किया है। नो बनारस के दिन्दा मादित्य मन्दिर से प्रकाशित हुई है । लेखक
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भगवान महावीर कई यूनानी जैन और बौद्ध ग्रन्थों से सावित कर दिया है । यद्यपि वसु महोदय का यह मत अभी तक सर्वमान्य नहीं हुआ है, तथापि यदि उनका यह अनुसन्धान ठीक निकला तो फिर जेकोबी साहव की ये तीनों उपपत्तियां एकदम जहां तक चन्द्रगुप्त का काल ई० पू० ३२२ माननीय है, वहाँ तक
कोवी साहब की यह तीसरी उपपत्ति अवश्य कुछ मादारखती है। पर इसमें भी कई प्रश्न उत्त्पन्न होते हैं। यदि हम हेमचन्द्राचार्य को प्रमाण मानें तो यह निश्चय है कि, उनके समय तक महावीर निर्वाण संवत् वरावर वास्तविक रूप में चला आ रहा होगा। फिर आगे जाकर किस समय मे, किस उद्देश्य से और किसने इस सवत् मे ५० वर्ष और मिला दिये इसका निर्णय करना होगा । ५० वर्ष मिलाने की किसी को क्या आवश्यकता पड़ी। यह प्रश्न वहुत ही विचारणीय है। इसको हल करने का कोई साधन हमारे पास नहीं है। और जहां तक ऐसा साधन नहीं है वहां तक ऐसा कहना भी व्यर्थ है।
उपरोक्त विवेचन का मतलव इतना ही है कि महावीर का काल वहुत सोचने पर भी हसारे खयाल से वही ठहरता है जो उनका प्रचलित संवत् कहता है। डा० हर्मन जेकोबी की उपपत्तियां बहुत महत्त्व पूर्ण हैं । पर उनमें शंका के ऐसे ऐसे स्थल हैं कि, उन पर एकाएक विश्वास नहीं किया जा सकता।
कुछ वर्षों पूर्व पाटलिपुत्र के सम्पादक और हिन्दी के लब्ध प्रतिष्ठित लेखक श्रीयुत् काशीप्रसाद जायसवाल ने भी । महावीर निर्वाण सम्वत् पर एक महत्वपूर्ण निवन्ध लिखा था। उस निबन्ध मे उन्होने महावीर निर्वाण संवत् मे १८ वर्ष की भूल
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बतलाने का प्रयन किया है, इस स्थान पर हम उसे ज्यों का त्यो उधृत कर देते हैं।
जैनियों के यहां कोई २५०० वर्ष की संवत् गणना का हिसाब हिन्दुओं भर में सब से अच्छा है। उससे विदित होता है कि, ऐतिहामिक परिपाटि की गणना यहां पर थी। और जगह पर यह नष्ट हो गई केवल जैनियों में बच रही । जैनियों की गणना के
आधार पर हमने पौराणिक और ऐतिहासिक कई घटनाओं से समय बद्ध किया और देखा कि उनका ठोक मिलान जानी हुई गणना में मिल जाता है। कई एक ऐतिहासिक वातों का पता जैनियों के ऐतिहासिक लेख और पट्टावलियो ही में मिलता है। जैसे "नहयान" का गुजरात में राज्य करना उसके सिको और शिलालेखो से सिद्ध है। इसका जिक्र पुराण में नहीं है। पर एक पहावली की गाथा में जिसमें महावीर स्वामी और विक्रम सन्वत के बीच का अन्तर दिया हुआ है। "नहयान" का नाम हमने पाया। वह “नह्यान" के रूप में है। जैनियो की पुरानी गणना में जो असम्बद्धता यूरोपीय विद्वानो द्वारा समझी जाती थी, वह हमने देखा कि वस्तुत नहीं है।
"महावीर के निर्वाण और "गर्दभिल्ल" का ४७० वर्प का अन्तर पुरानी गाथा में कहा हुआ है । जिसे दिगम्बर और श्वेतान्चर दाना दलवाले मानते हैं। यह याद रखने की बात है कि, बुद्ध और महावीर दोनों एक ही समय में हुए । बौद्धों के ग्रन्थो में "तथा गत" का निग्रन्थ नातपुत्त के पास जाना लिखा है और यह भी लिखा है कि जब वे शाक्यभूमि की ओर जा रहे थे तव देखा कि पावापुरी मे नातपुत्त का शरीरान्त हो गया है। जैनियो के
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के सरस्वतीगच्छ की पट्टावली मे विक्रम सम्वत् और विक्रम जन्म मे १८ वर्ष का अन्तरमाना है । यथा “वीरात् ४९२ विक्रम जन्मान्तर वर्ष २२ राज्यान्त वर्ष ४" विक्रम विषय की गाथा की भी यही ध्वनि है कि वे १७ वें या १८ वें वर्ष मे सिहासन पर बैठे । इससे सिद्ध है कि ४७० वर्ष जो जैन निर्वाण और गर्दभिल्ल राजा के राज्यान्त तक माने जाते हैं वे विक्रम जन्म तक हुए । (४९२% २२+४७०) अतः विक्रम जन्म (४७० म. नि.) में १८ और जोड़ने से निर्वाण का वर्ष विक्रमीयसंवत् की गणना मे निकलेगा । अर्थात् विक्रम सम्वत् से ४८८ वर्ष पूर्व अर्हन्त महावीर का निवाण हुआ। अब तक विक्रम संवत के १९७१ वर्ष और अब (१९८१)बीत गये हैं, अतः४८८ वि०पू०१९७१ = २४५९ वर्षे भाज से पहले महावीर निर्वाण का संवत्सर ठहरता है। पर आधुनिक जैन पत्रों में नि० सं० २४४१ देख पड़ता है। इसका समाधान कोई जैन सज्जन करें तो अच्छा हो । १८ वर्षे का अन्तर गर्दभिल्ल और विक्रम सम्वत् के वीर गणना छोड़ देने से उत्पन्न हुआ मालूम होता है। बौद्धलोग, लंका, श्याम आदि स्थानो में बुद्ध निर्वाण के आज २४४८ वर्षमानते है । हमारी यह गणना उससे भी ठीक मिल जाती है । इससे सिद्ध हो जाता है कि, महावीर बुद्ध के पूर्व निर्वाण को प्राप्त हुए । नही तो बौद्ध गणना और जैन गणना से अर्हन्त का अन्त बुद्ध निर्वाण से १६ या १७, वर्ष पश्चात् सिद्ध होगा जो पुराने सूत्रो की गवाही के विरुद्ध पड़ेगा।
' जायसवाल महोदय के उपरोक्त प्रमाण बहुत अधिक महत्व के हैं। जेकोबी महाशय' के निकाले हुए निष्कर्ष मे शङ्का के
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अनेक स्थल हैं पर उपरोक्तप्रमाणों में सत्य का बहुत अंशमालूम होता है। इस विषय पर हम विशेष मीमांसा न कर इसके निर्णय का भार जैन विद्वानों पर ही छोड़ देते हैं।
भगवान् महावीर की जन्मभूमि जैन शास्त्रों के अनुसार भगवान महावीर की जन्मभूमि "कुण्डग्राम" एक बड़ा शहर एवं स्वतंत्र राजधनी था। उसके गजा सिद्धार्थ एक बड़े नृपति थे। आजकल गया जिले के अन्तर्गत "लखवाई" नामक ग्राम जिस जगह पर बसा हुआ है वहां पर यह शहर स्थित था।
पर पश्चात् पुरातत्ववेताओं के मतानुसार “कुण्ड ग्राम" लिच्छवि वश की राजधानी वैशाली नगरी एक "पुरा" मात्र था और सिद्धार्थ वहां के जागीरदार थे। डा० हर्मन जेकोबी ने जैन-मृत्रों पर की प्रस्तावना में इस विपय की चर्चा की है। डाक्टर हार्नल ने भी अपने जैनधर्म सम्बन्धी विचारों मे इसका विवेचन किया है। कई जिज्ञासु पाठक अवश्य उन प्रमाणों को जानने के लिए लालायित होंगे। जिसके आधार पर पाश्चात्य विद्वानों ने इस कल्पना को ईजाद की है। अतएव हम नीचे ढा० हार्नल की लिखी हुई एक टिप्पणी का सारांश दे देना रचित सममते हैं।
"वाणियप्राम" लिच्छवि वंश की प्रसिद्ध राजधानी "वैशाली" नामक सुप्रसिद्ध शहर का दूसरा नाम है । कल्पसूत्र के १२२ वें पृष्ट में उसे वैशाली के समीपवर्ती एक भिन्न शहर की तरह माना है। लेकिन अनुसन्धान करने से यह मालूम होता
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है कि हम जिसको "वैशाली” नगरी कहते हैं वह बहुत ही लम्बी और विस्तृत थी ।
चीनी यात्री हुएनसन के समय में वह करीव १२ मील विस्तार वाली थी । उसके उस समय तीन विभाग थे । १- वैशाली जिसे आजकल "बेसूर" कहते हैं । २ - वाणियग्राम - जिसे आज कल वाणिया कहते हैं । और ३- कुण्डग्राम जिसे आज कल वसुकुंड कहते हैं । कुण्डग्राम भी "वैशाली" का ही एक नाम था । वही 'महावीर' की जन्मभूमि थी । इसी कारण से सम्भवतः जैन शास्त्रो में कई स्थानो पर महावीर को "वैशालीय" संज्ञा से भी सम्बोधित किया है "बुद्धचरित्र" के ६२ वें पृष्ठ में लिखी हुई एक आख्यायिका से भी वैशाली के तीन भाग होना पाया जाता है । ये तीनो भाग कदाचित् "वैशाली" वाणिय ग्राम और कुण्ड ग्राम के सूचक होंगे। जो कि अनुभव से सारे शहर के आमेय, इशान्य और पश्चिमात्य भागों में व्याप्त थे ।
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ईशान्य कोण मे कुण्डपुर से आगे "कोल्लंगी" नामका एक मुहल्ला था जिसमें सम्भवतः "ज्ञातृ" अथवा " नाय" जाति के क्षत्रिय लोग बसते थे । इसी कुल मे भगवान महावीर का जन्म हुआ प्रतीत होता है। सूत्र ६६ में इस मुहल्ले का न्याय कुल के नाम से उल्लेख किया गया है। यह "कोल्लांग सन्निवेश” के साथ सम्बद्ध था । इसके बाहर "दुईयलास" नामक एक चैत्य था । साधारण चैत्य की तरह इसमें एक मन्दिर और उसके आस पास एक उद्यान था । इसी कारण से "विपाक सूत्र" में उसे "दइपलास उज्जाण" लिखा है । और "नाय सण्डे
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उज्जाणे" आदि शब्दों से मालूम होता है कि वह नाय कुल का ही था।
उपरोक्त कथन से जैन शास्त्रों के उस कथन का समर्थन होता है। जिसमे "कुण्ड ग्राम" का "नायर" (नगर) की तरह उल्लेख किया गया है। क्योकि कुण्डग्राम वैशाली का ही दूसरा नाम था। कल्प सूत्र पृष्ट १००वें में कुण्ठपुर के साथ "नयरं-समितर वाहिरियं" इस प्रकार का विशेषण लगा हुआ है। इस वर्णन से माफ मालूम होता है कि, यह वैशाली का ही वर्णन है । जिस सूत्र के आधार पर कुण्डग्राम को सन्निवेश सिद्ध किया जाता है। वह वरावर ठीक नहीं है।
इन सब बातो से यह पता चलता है कि महावीर के पिता "सिद्धार्थ" कुण्डग्राम अथवा वैशाली नामक शहर के "कोलभाग" नामक पुरे में बसने वाले नाय जाति के क्षत्रियो के मुख्य सरदार थे। इस बात का प्रमाण हमे जैन ग्रन्थो में भी कई स्थानो पर मिलता है। कल्पसूत्रादि प्राचीन ग्रन्थो मे "सिद्धार्थ" को "कुण्डग्राम" के राजा की तरह ने बहुत ही कम स्थानों में वर्णित किया है अधिक स्थानो पर उसे साधारण क्षत्रिय मरदार की तरह लिखा है। यदि कहीं कही एक दो स्थानों पर राजा की तरह से उसका उल्लेख भी पाया जाता है तो वह कंवल अपवाद रूप से ।
इन प्रमारणों से यह साफ जाहिर होता है कि "महावीर" को जन्मभूमि कोल्लांग ही थी और यही कारण है कि दीक्षा लेते ही वे सब से प्रथम अपनी जन्मभूमि के पास वाले दुईपलास नामक चैत्य में ही जा कर रहे, महावीर के माता पिता और दूसरे
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नाय वंश के क्षत्रिय पार्श्वनाथ के अनुयायी थे। इस कारण ऐसा मालूम होता है कि, उन्होने पार्श्वनाथ के अनुयायी साधुओ की सुभीता के लिये एक चैत्य की स्थापना की थी।
विशेष प्रमाण में यह बात और कही जा सकती है कि सूत्र ७७ और ७८ में वाणिय गाम के विषय में लिखे हुए "उच्चनीय मज्मिम कुलाई" वर्णन के साथ रोखिलकृत बुद्ध चरित्र का वर्णन बहुत मेल खाता है । उसमें लिखा है कि:___वैशाली के तीन भाग थे। पहले विभाग मे सुवर्ण कलश चाले ७००० घर थे, मध्यम विभाग में रजत कलश वाले १४००० घर थे और अन्तिम विभाग मे ताम्र कलश वाले २१००० घर थे। इन विभागो मे क्रम से उच्च, मध्यम और नीच वर्ग वाले लोग रहते थे।
डा० हार्नेल का मत दे दिया गया है। यह कथन अवश्य प्रमाण युक्त है, पर इसमें सत्य का कितना अंश है, इसके विपय में ठीक कुछ भी नहीं कहा जा सकता।
भगवान महावीर के माता पिता । दिगम्बर ग्रन्थ महावीर पुराण के अन्तर्गत महावीर के पिता राजा सिद्धार्थ को एक बहुत बड़ा राजा बतलाया है और उसकी प्रधान रानी का नाम त्रिशला बतलाया है। लेकिन कल्पसूत्र के अन्तर्गत सिद्धार्थ को एक मामूली जागीरदार की तरह सम्बोधित किया है, स्थान स्थान पर उसमें “राजा सिद्धार्थ" नहीं प्रत्युत "क्षत्रिय सिद्धार्थ" के नाम से सम्बोधित किया है। उसी प्रकार त्रिशला को भी "रानी त्रिशला" के स्थान पर "क्षत्रि
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यारणी "त्रिशला" ही कहा है, इससे तो साफ जाहिर होता है कि भगवान् महावीर के पिता एक मामूली जागीरदार ही थे, या अधिक से अधिक एक छोटे राज्य के स्वामी होंगे। लेकिन इसमें एक बात विचारणीय है वह यह है कि, राजा सिद्धार्थ का सम्बन्ध वैशाली के समान प्रसिद्ध राजवंश से हुआ था इससे यह मालूम होता है कि. सिद्धार्थ चाहे कितने ही साधारण राजा क्यों न हो, पर उनका यादर तत्कालीन राजाओं के अन्दर बहुत अधिक था । त्रिशला रानी के माता पिता ।
त्रिशला रानी के माता पिता के सम्बन्ध मे भी दिगम्बर और श्वेताम्बर ग्रन्थों में बहुत मतभेद पाया जाता है । दिगम्बर ग्रन्थों में त्रिशला को सिद्धदेश के राजा चेटक की पुत्री लिखा है और कल्पसूत्र तथा अन्य श्वेताम्बर ग्रन्थों में त्रिशला रानी को वैशाली के राजा चेतक की बहन लिखा है । यह दोनो चेतक एक ही थे या भिन्न भिन्न यह निश्चय नहीं कहा जा सकता । वौद्ध ग्रन्थों में भी चेतक का राजा की तरह वर्णन नहीं पाया जाता । चल्कि यह पाया जाता है कि उस राज्य का प्रवन्ध एक मण्डल के द्वारा होता था और राजा उस मण्डल का प्रमुख समझा जाता था, राजा के हाथ में वाइसराय और सेनापति की पूरी शक्तियां रहती थीं। इस मण्डल के अन्तर्गत अठारह विभाग थे । इन सब विभागों पर एक व्यक्ति नियुक्त था और इसके बदले मे इन सब लोगों को छोटे छोटे राज्य का स्वामी बना दिया जाता था । "निर्यावलिसूत्र” नामक घौद्ध ग्रन्थ से पता चलता है कि चम्पानगरी के राजा " कुणिक" ने जब चेतक के उपर चढ़ाई की,
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च्यान उस समय चेतक ने अठारहों राजाओं को बुला कर उनसे सलाह ली थी।
भगवान महावीर का निवारणात्सव मनाने के लिए जिन अठारहों राजाओ ने दीपावली का उत्सव मनाया था, सम्भवतः वे इसी मंडल के मेम्बर हों। लेकिन इन अठारहों राजाओ के अन्तर्गत चेतक का नाम प्रमुख के ढग रो नहीं आया है। इससे मालूम होता है कि चेतक का दर्जा सम्भवतः उन अठारहो राजाओ के बराबर ही हो। इसके अतिरिक्त सम्भव है कि, उनकी सत्ता भी स्वतंत्र न होगी इन सब कारणों से ही मालूम होता हैं कि बौद्ध लोगो के धर्म प्रचार के निमित्त उसकी विशेप आवश्यकता न पड़ी और इसीलिए उनके प्रथों में भी उसका विशेष उल्लेख नहीं पाया जाता है। जैन ग्रन्थो मे तो स्थान स्थान पर उनका नाम आना स्वाभाविक ही है क्योकि एक तो वे भगवान महावीर के मामा भी थे और दूसरे जैनधर्म के आधार स्तम्भ भी।
राजा चेतक को एक पुत्री और भी थी। उसका नाम "चेलना" था । यह मगध देश के राजा बिम्बसार को व्याही गई थी, मालूम होता है कि राजा बिम्बसार बौद्ध और जैन दोनो ही मतों का पोपक था। क्योंकि इसका नाम दोनो ही धम्मों के ग्रन्थों में समान रूप से पाया जाता है, इसके पुत्र "कुणिक" प्रारम्भ में तो जैन मतावलम्बी था, पर पीछे से बुद्ध निर्वाण के करीब आठ वर्ष पहिले वह बौद्धमतावलम्बी हो गया था। बौद्ध ग्रन्थों में इसे अजातशत्रु के नाम से लिखा है।
त्रिशला रानी को भगवान महावीर के सिवाय एक पुत्र
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भगवान् महावीर
स्वअन
और एक पुत्री और हुई थी, जिनके नाम क्रमशः नन्दिवर्द्धन और सुदर्शना थे । महावीर स्वामी के काका का नाम सुपार्श्व था । निम्नांकित तालिका से भगवान् महावीर के कुटुम्ब का साफ
साफ पता चल जायगा ।
सुपार्श्व
नन्दिवर्द्धन वर्द्धमान
सिद्धार्थ त्रिशला चेतक सुभद्रा
चलना बिम्वसार
چا
कुणिक या अजात शत्रु
सुदर्शना
प्रियदर्शना
उद्दिन
यह तालिका श्वेताम्बर ग्रन्थों के आधार से बनाई गई है । दिगम्बर ग्रन्थों मे भगवान महावीर की पुत्री प्रियदर्शना का उल्लेख नही किया गया है । उनके ग्रन्थों में महावीर को बालब्रह्मचारी माना है। भगवान महावीर बालब्रह्मचारी थे या नही, इस विषय पर आगे विचार किया जायगा । भगवान् महावीर का जन्म
कल्पसूत्र के अंतर्गत 'भगवान महाबीर' के गर्भ स्थान वदलने का वर्णन पाया जाता है। यह घटना दिगम्बर ग्रन्थो मे कही भी नहीं पाई जाती । आजकल के विद्वान् भी इस घटना को प्राय: असम्भव सी मानते हैं। लेकिन श्वेताम्बरियों के बहुत प्राचीन ग्रन्थों में इसका वर्णन पाया जाता है । इसलिये यह बात अवश्य विचारणीय है ।
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भगवान् महावीर
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प्राचीन दन्त-कथाओं में हम प्रायः इस प्रकार की घटनाएँ सुना करते हैं। जिनमें गर्भ बदलने की तो नहीं पर कन्या के स्थान पर पुत्र और और पुत्र के स्थान पर कन्या को रख देने की बातें पायी जाती हैं । अथवा यदि किसी के सन्तति न होती हो तो दूसरी सन्तान को लाकर "रानी के गर्भ से पैदा हुई है " इस प्रकार की अफवाह उड़ा दी जाती है । इस प्रकार की घटनाएँ जय प्रकाश में आती हैं तो कुछ दिनों पश्चात् लोग उसको चढ़ा कर राई का पर्वत और तिल का ताड़ कर देते हैं ।
लोगों का ख्याल है कि इसी प्रकार की कोई घटना शायद महावीर के जन्म समय भी हुई हो, जिसको बढ़ाते २ यह रूप दे दिया गया हो । कल्पसूत्र के अनुसार भगवान महावीर पहले ऋषभदत्त ब्राह्मण की पत्नी देवनन्दा के गर्भ में अवतरित हुए थे । जब यह खबर इन्द्र को मालूम हुई तो वह बड़े असमज्जस में पड़ गया, क्योंकि ब्राह्मणी के गर्भ मे तीर्थकर के जीव का जाना असम्भव माना जाता है । अन्त मे उसने महावीर का गर्भ स्थान बदलने के निमित्त "हरिनैगम" नामक दैव को बुला कर उस गर्भ को क्षत्रिय राजा सिद्धार्थ को रानी त्रिशला की कुति में बदलने को कहा ।
उपरोक्त सब कुछ बाते ऐसे ढग की हैं जिन पर सिवाय श्रद्धावादी जैनियों के दूसरे विद्वान् विश्वास नही कर सकते । कुछ लोगों ने इस घटना के विरुद्ध कई प्रमाण संग्रह करके यह सिद्ध करने की कोशिश की है कि, यह घटना बहुत पीछे से मिलाई, गई है । उन प्रमाणों को संक्षिप्त में नीचे देते हैं । ( १ ) कल्पसूत्र के रचियता लिखते हैं कि, तीर्थकर - 1
"
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नामक कर्म के बंधे हुए जीव अन्तकुल, भिक्षाकुल, तुच्छकुल, दरिदकुल, प्रान्तकुल और ब्राह्मणकुल में जन्म नहीं लेते प्रत्युत क्षत्रियकुल, हरिवंशफुल, आदि . इसी प्रकार के विशुद्ध कुलों मे जन्म लेते हैं। यहाँ पर हमें यह नहीं मगलूम होता कि कल्प सूत्र के रचयिता "विशुद्ध कुल" का क्या अर्थ लगाते हैं। क्या ब्राह्मण लोग विशुद्ध कुल के नहीं थे, इस स्थान पर मालूम होता है कि जैनियों ने ब्राह्मणों को बदनाम करने ही के लिए इस उपपत्ति की रचना की है।
(२) उस समय ब्राह्मणां, जैनियो और वौद्धो के बीच में भयङ्कर संघर्ष चल रहा था । तत्कालीन प्रन्थों में इस विद्वेष का प्रतिविम्य साफ साफ दिखलाई पड़ रहा है। ब्राह्मण ग्रन्थों में जैनियों और बौद्धों को एव जैन और चौद्ध ग्रन्थों में ब्राह्मणों को बहुत ही नीचा दिखलाने का प्रयत्न किया है । सम्भवत' महावीरस्वामी के गर्म परिवर्तन की कल्पना भी इसी उद्देश्य की सिद्धि के लिये की गई हो । क्योंकि इसके पश्चात् ही हम यह भी देखते हैं कि भगवान महावीर की समवशरण सभा के ग्यारह गणधर भी ब्राहाण कुलोत्पन्न ही थे। यदि वे अशुद्ध समझे जाते तो कदाचित ननक गणधर भी न होने पाते। ___३-मालूम होता है कि भद्रबाहु स्वामी नेवहुत पीछे ब्राह्मण कुल को इन सात फुलों के साथ रख दिया है। क्योकि ब्राह्मण कुल के पहले जितने भी नाम आये हैं जैसे अन्तकुल मिताकुल, तुन्छकुल आदि के सब गुण के सूचक हैं । फिर केवल अकेला ब्राह्मण कुल ही क्यों "जाति दर्शक" रक्खा गया। इससे मालूम होता है कि भगवाहु के समय में ब्राह्मणों और जैनियों का संघर्ष
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भगवान महावीर
पराकाष्टा पर पहुंच गया था और इसी कारण शायद उन्होंने इस नवीन उपपत्ति की रचना की थी।
इस विषय मे डाक्टर हर्मन जेकोबी का मत कुछ दूसरा ही है। उनका कथन है कि, सिद्धार्थ राजा के दो गनियां थीं, पहली पटरानी का नाम त्रिशला था, यह क्षत्रिय कुलोत्पन्न थी
और दूसरी को नाम "देवानन्दा" था यह ब्राह्मणी थी । भगवान महावीर का जन्म देवानन्दा के गर्भ से हुआ था। पर चूंकि त्रिशला वैशाली के राजा "चेटक" की बहन थी, और सिद्धार्थ की पटरानी भी थी, इसलिए महावीर का जन्म उसकी कुक्षि से हुआ यह प्रकाशित कर देने से एक साथ दो लाभ होते थे। पहला तो यह कि, वैशाली के समान विस्तृत राज्य से उनका सम्बन्ध और भी बढ़ हो जाता और दूसरा यह कि "महावीर' युवराज भी बनाये जा सकते थे । सम्भवतः इसी वात को सोच कर उन्होने यह वात प्रकट कर दी होतोक्या आश्वाय? इस वात की औरभी पुष्टि करने के लिये वेनिम्नांकित प्रमाण पेश करते हैं:
वे कहते हैं कि "ऋषभदत्त" को देवानन्दा का पति कहने की वात बिल्कुल असत्य है, क्योंकि प्राकृतिभापा मैं किसी व्यक्ति चाचक शब्द के आगे "दत्त" शब्द का प्रयोग अवश्य होता है पर वह भी ब्राह्मणो के नाम के आगे नहीं हो सकता । अतएव "देवानन्दा" का पति "ऋपभदत" था यह कल्पना बहुत पीछे से मिलाई गई है।
जेकोबी साहब की पहली कल्पना तो विशेष महत्व नहीं रखती, उनका यह कहना कि क्षत्रिय राजा सिद्धार्थ की एक रानी देवानन्दा ब्राह्मणी भीथी यह बिल्कुल भूल से भरी हुई बात है। क्योंकि उस
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भगवान महावीर
काल में ब्राह्मण कन्या का क्षत्रिय के साथ विवाह नहीं होता था। यह प्रथा सम्भवतः महावीर और बुद्ध के कई वर्षों पश्चात् चली थी। इसके अतिरिक्त दिगम्बरी अन्य महावीर पुराण में साफ लिखा है कि महावीर विशला से ही उत्पन्न थे। हां उनकी दूसरी कल्पना अवश्य महत्व पूर्ण और विचारणीय है।
इसमें सन्देह नहीं कि, उपरोक्त प्रमाणो मे से बहुत से प्रमाण बहुत ही महत्व पूर्ण हैं । इनसे तो प्रायः यही जाहिर होता है कि "गर्भ हरण" की घटना कवि की कल्पना ही है, पर हम एक दम ऐसा करके प्राचीन ग्रन्थों की अवहेलना नहीं कर देना चाहते। हमारा तो यही कथन है कि, इस विषय पर और उपाहोह हो । सब जैन विद्वान इस विपय को सोचें और बढ़ प्रमाणों के साथ जो निकर्म निरुल उसी को स्वीकार करें। केवल प्राचीन लकीर के फकीर या अन्धश्रद्धा के वशीभूत होकर प्राचीनता का पक्ष कर लेना भी ठीक नहीं। हर एक बात को बुद्धि की कसौटी पर अवश्य जांच लेना चाहिए । अस्तु ।
स्त्री सन् से ५९९ वर्ष पूर्व चैत्र गुहा त्रयोदशी के दिन रानी त्रिशला के गर्भ से भगवान महावीर का जन्म हुआ, जन्म के उपलक्ष्य में बहुत बड़ा उत्सव मनाया गया।
भगवान महावीर का वाल्यजीवन और यौवनकाल किस प्रकार व्यतीत हुआ इसके बतलाने में इतिहास प्रायः चुप है। पुराणों में भी बाल्यकाल और यौवनजीवन की बहुत ही कम घटनाओं का वर्णन है। अतएव अनुमान प्रमाण से इन दो अवस्थाओं का जो कुछ भी निष्कर्ष निकाला जा सकता है वह आगे के "मना वैज्ञानिक" खण्ड मे निकाला जायगा।
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भगवान् महावीर न्वयन
यहां पर एक बात बतला देना आवश्यक समझते हैं, वह यह कि श्वेताम्बरी धर्मशास्त्र भगवान महावीर का विवाह "यशोदा" नामक राजकुमारी के साथ होना मानते हैं । उनके मतानुसार भगवान महावीर को प्रियदर्शना नामक एक पुत्री थी। जिसका विवाह राजकुमार “जामालि" के साथ किया गया था। पर दिगम्बरी धर्म शाखों के मत से महावीर बाल ब्रह्मचारी थे । इन दोनो में से कौनसा मत सच्चा है इसका निर्णय करने के लिए इतिहासज्ञो के पास कोई प्रमाणभूत सामग्री नहीं है । हां अनुमान के वल पर कई मनो वैज्ञानिको ने इसका निर्णय किया है जिसका विवेचन आगामी खण्ड मे किया जायगा ।
बाल्यकाल और यौवनजीवन को लांघ कर इतिहास एकदम उस स्थान पर पहुंचता है जहां पर महावीर का दीक्षा संस्कार होता है । पिता की मृत्यु के पश्चात् तीस वर्ष की अवमा में महावीर ने दीक्षा ग्रहण की । डा० हार्नल का मत है कि, यदि जीवन के प्रारम्भ काल ही में महावीर दुईपलास नामक चैत्य में पार्श्वनाथ की सम्प्रदाय में सम्मलित होकर रहने लगे। पर उनके त्याग विषयक नियमो से इनका कुछ मत भेद हो गया यह मत भेद खास कर "दिगम्वरत्व" के वियष में था। पार्श्वनाथ के अनुयायी वस्त्र धारण करते थे और महावीर बिल्कुल नग्न रहना पसन्द करते थे। इस मत भेद के कारण कुछ समय पश्चात् वे उनसे अलग होकर बिहार करने लगे। दिगम्बर होकर उन्होने बिहार के दक्षिण तथा उत्तर प्रान्त में आधुनिक राजमहल तक १२ वर्ष तक खूब भ्रमण किया । इसके पश्चात् इनका उपनाम महावीर हुआ। इसके पूर्व में ये वर्द्धमान के नाम से प्रसिद्ध थे।
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भगवान महावीर
इस समय इन्हे केवल्य की भी प्रप्ति हुई। केवल्य प्राप्ति के पश्चातइन्होने ३० वर्षे तक जनता को धार्मिक उपदेश दिया।
भगवान महावीर का उपदेश कितना दिव्य -और उज्वल था, इसका विवेचन करते हुए साहित्य सम्राट रवीन्द्रनाथ टैगोर
Mababir proclaimed in India the message of salvation that religion is a reality and not a mere social conyention, that salvation comes from taking reluge in that true religion and pot for observing the external ceremonies of the community, that religion can not regard any barrier between man and man as an eternal verity Wondrous to relate, this teaching rapidly overtopped the barriers of the race's abiding instinct and conqured the whole country for a long peğiod now the influence of kshatriya teachers completely suppressed the Brahmin power
"महावीर ने भारतवर्ष को ऊँचे स्वर से मोक्ष का सदेशा दिया। उन्होने कहा कि धर्म केवल सामाजिक रूढ़ि नहीं है, बल्कि वास्तविक सत्य है। मोक्ष केवल साम्प्रादिक वाह्य क्रियाकाण्ड से नहीं मिल सकता प्रत्युत सत्य धर्म के स्वरूप का आश्रय लेने से प्राप्त होता है, धर्म के अन्तर्गत मनुष्य और मनुष्य के वीच रहने वाला भेद भाव कभी स्थायी नहीं रह सकता । कहते हुए आश्चर्य होता है कि, महावीर की इस शिक्षा ने समाज के हृदय में जड़, जमा कर पूर्व संस्कारो से बैठी हुई भावनाओ को बहुत शीघ्र नेस्तनाबूद कर और सारे देश को वशीभूत कर लिया। महावीर के पश्चात् भी बहुत काल तक क्षत्रिय लोगों के उपदेशा के प्रभाव से ब्राह्मणों की सत्ता अमिभूत रही।
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भगवान् महावीर
जैन और बौद्धधर्म पर तुलनात्मक दृष्टि
बाह्य दृष्टि से जब हम जैन और बौद्ध इन दोनों धर्मों पर तुलनात्मक दृष्टि डालते हैं, तो हमारे सन्मुख सहजही दो प्रश्न उपस्थित होते हैं।
१-वह कौनसा कारण है जिससे एक ही कारण से-एक एक ही समय में पैदा हुए दो धर्मों मे से एक धर्म तो बहुत ही कम समय मे सर्वव्यापी हो गया और दूसरा न हो सका।
२-वह कौन सा कारण है जिससे एक ही कारण से, एक ही समय में पैदा हुए दो धर्मों में से एक सर्वव्यापी होने बाला धर्म तो समय प्रवाह में भारतवर्ष से वह गया और दूसरा अब तक स्थायी रूप से चल रहा है। ___ ये दोनो ही प्रश्न बड़े महत्वपूर्ण हैं इन्हीं प्रभो में इन धर्मों का बहुत सा रहस्य छिपा हुआ है इस स्थान पर सक्षिप्त रूप से इन दोनों प्रश्नों पर अलग अलग विचार करने का प्रयत्न करते हैं।
बौद्ध और जैनधर्म की अनेक साम्यताओं में से दो साम्यताएँ निम्न लिखित भी हैं।
१-दोनों ही धर्म वाले “त्रिरत्न" शब्द को मानते हैं, बौद्धधर्म वाले बुद्ध, धर्म और संघ को "त्रिरत्न" कहते हैं और जैनधर्म वाले सम्यक् दर्शन, सम्यक् शान, और सम्यक्चरित्र को त्रिरत मानते हैं।
२-दोनों ही धर्म वाले "संघ" शब्द को मानते हैं, जैनियों मे संघ के मुनि, अर्जिका, श्रावक और श्राविका ऐसे चार- भेद
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भगवान महावीर किये हैं पर बौद्धों में केवल भिक्षुक और भिक्षुकी यही दो भेद किये हैं।
दोनों ही धमों के त्रिरान वाले मुद्रालेख खास विचार के सूचक हैं। वौद्ध लोगों का यह मुद्रालेख आधि-भौतिक अर्थ से सम्बन्ध रखता है, और जैनियों का आध्यात्मिकता से। पहले तीन रत्नों (बुद्ध, धमे और सघ )से मालूम होता है कि ये भेद व्यवहारिकता को पूर्ण रूप से सन्मुख रख कर बनाये गये हैं। इनके द्वारा लोगों के अन्तर्गत बहुत शीघ्रता से उत्साह भरा जा सकता है । और दूसरे तीन रनों ( सम्यक्दर्शन, · सम्यकज्ञान, और सम्यकचरित्र ) से मालूम होता है कि ये तीनो आदर्श और व्यवहार इन दोनों वष्टियों को समान पलड़े पर रखकर बनाये गये हैं। इनके द्वारा मनुष्यों में वाह्य ज्वलन्त साहस का उदय तो नहीं होता पर शान्त और स्थिर मनों-भावनाओं की उत्पति होती है। पहले "त्रिरत्न" से मनुष्य क्षणिक आवेश में आता है पर दूसरे "त्रिरत्न" से स्थायी आवेश का उद्गम होता है। पहले "त्रिरत्र" में समय को देख कर उत्तेजित होने वाले असंख्य लोग सम्मिलित हो जाते हैं पर दूसरे "त्रिरत्न" में स्थायी भावनाओं वाले बहुत ही कम लोग सम्मिलित होते हैं । इस अनुमान का इतिहास भी अनुमोदन करता है, अपने चपल और प्रवर्तक उत्साह की उमंग से वौद्धधर्म हिन्दुस्थान के बाहर भी प्रसारित हो गया। पर जैनधर्म केवल भारतवर्ष में ही शान्त और मन्थर गवि से चलता रहा।
"निरन" की ही तरह "संघ" शब्द के भेद भी बड़े हो महत्व पूर्ण है। बौद्ध लोगों के संघ में केवल मिक्षक और मिथुकी
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का ही समावेश किया गया है। इस पंथ मे साधारण गृहस्थलोग किसी खास नाम से प्रविष्ट नहीं किये गये हैं। यह स्पष्ट है कि साधारण जन समाज से किसी प्रकार का व्यवस्थित सम्बन्ध रखे बिना कोई भी भिक्षु-संघ स्थायी रूप से नहीं चल सकता। क्योकि, अपने सम्प्रदाय का अस्तित्व कायम रखने के लिये अपने अनुयायी गृहस्थजन-समुदाय से द्रव्य वगैरह की सहायता लेना आवश्यक होता है। पर अपनी अत्यन्त उदारता के कारण मनुष्य प्रकृति की कमजोरी की कुछ परवाह न करते हुए बौद्धों ने इस बात की कोई दृढ़ व्यवस्था न की । गृहस्थों को अपने संघ में विधिपूर्वक प्रविष्ट करने के लिये उन्होने कोई उपाय नहीं किया। उनके धर्म मे हर कोई प्रविष्ट हो सकता था, उसे किसी भी प्रकार की प्रतिज्ञा लेने की कोई आवश्यकता न होती थी। धर्मानुयायी गृहस्थों के लिए विधि-निषेध का कोई खास ग्रन्थ भी न था। उनके लिए किसी विशिष्ट प्रकार की धर्म क्रिया की व्यवस्था भी न थी । अच्छे और बुरे, सदाचारी और दुराचारी, सभी लोग बौद्धधर्म में आसानी से प्रविष्ट हो सकते थे। संक्षिप्त मे यो कह सकते है कि एक मनुष्य उनका अनुयायी होने के साथ साथ दूसरे धर्म का अनुयायी भी हो सकता था। क्योंकि उसके लिए किसी प्रकार के कोई खास नियम लागू न थे। "मैं बुद्ध के महासंघ में से एक हूँ। और उसकी धार्मिक क्रियाओं का यथेष्ट रीति से पालन करता हूँ।" इस प्रकार का धर्माभिमान रखने का अधिकार किसी बौद्धधर्म अनुयायी को न था। बौद्धधर्म की इसी उदारता के कारण उस समय अच्छे बुरे, बड़े छोटे उचे और नीचे सभी
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भगवान् महावीर लोग उस माड़े के नीचे आ गये। बडे बड़े राजा भी आये
और छोटे छोटे रंक भी, अमीर भी आये और गरीव भी, सज्जन भी आये और दुष्ट भी । मतलब यह कि बौद्धधर्म सर्व व्यापी हो गया।
पर जैन प्राविकों की स्थिति इनसे बिल्कुल भिन्न थी। बौद्धानुयायियों में बिल्कुल विपरीत वे अपने संघ के एक खास अग में गिने जाते थे और अपने मुनिआर्जिकाओं के साथ वे अपना गादा मन्वन्ध समझते थे।
डास्टर हार्नल इस विषय पर प्रकाश डालते हुए कहते है कि:
"इम विषय में चौद्ध लोगों ने हिमालय पहाड़ के समान भारी भूल की है । इमी भयङ्कर भूल के कारण यह विशाल धर्म अपनी जन्मभूमि पर में ही जड़ मूल मे नष्ट हो गया है । ईमा की सातवीं शताब्दी में लोगों के धार्मिकवलन में फेर फार होने से हुएनसग के समय में घौद्ध-धर्म का पतन आरम्भ हुआ। उसके पश्चात नौवीं शताब्दी में शंकराचार्य की भयङ्कर चोट में पछाड़ ग्वाकर वह और भी धराशायी हो गया। आखिर जब बारहवीं और तेरहवीं शताब्दी में भारतवर्ष पर मुसलमानों का श्राक्रमण हुश्रा । तब वारानाथ और मिन्हाजुद्दीन के इतिहास में लिम्बे अनुसार थोड़े बहुत शेप रहे हुए वौद्ध-विहारों और चैत्यों को और भी सख्त आघात पहुँचा। जिससे चौद्धधर्म और भी छिन्न भिन्न होते होने अन्त में नष्ट हो गया। प्रारम्भ मे ही उसने अपने उपासकों का भिक्षु-संघ के साथ में कोई गादा सम्बन्ध न रक्खा था । और पीछे से भी उसके आचार्यों को यह करने की न सूझी। इस भूल के कारण
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भगवान् महावीर
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उसके सब साधारण उपासक पीछे ब्राह्मण धर्म मे सम्मिलित हो गये ।
बौद्ध-धर्म के इस विनाश के समय में भी जैन-धर्म अपनी शान्त और मन्थर गति से भारत की भूमि पर चलता रहा । शङ्कराचार्य के भयङ्कर हमले का भी उसकी नीव पर कोई 'असर' न हुआ । उसके पश्चात मुसलमानो के भयङ्कर आक्र मणों और समय प्रवाह के अन्य अन्य भीषण तूफानो के बीच में भी वह अटल बना रहा । इतना अवश्य हुआ कि, समय की भयङ्कर चोटों से उसकी असलियत में बहुत कुछ विकृति आ गई। वह अपने असली स्वरूप को बहुत कुछ भूल गया जैसा कि आज हम देख रहे हैं। पर इतने पर भी उसकी जड़ कालचक्र के सिद्धान्तों को उलाहना देती हुई आज भी मौजूद है।
बौद्ध धर्म के विनाश का एक कारण और हमे प्रत्यक्ष मालूम होता है । वह यह है कि सजय के अज्ञेयवाद के विरुद्ध जैनाचाप्यों ने जिस प्रकार "स्याद्वाद" दर्शन की व्युत्पति की, उस प्रकार बौद्धाचाय्यों ने कुछ भी न किया । उलटे सजय के कई सिद्धान्तों को उन्होंने स्वयं स्वीकार कर लिया । बुद्ध ने अपने "निर्वाण" विषयक सिद्धान्तों में “अज्ञेयवाद" का पूरा पूरा अनुकरण किया । मृत्यु के पश्चात् तथागत का अस्तित्व रहता है या नहीं, इस प्रकार के प्रश्नों का उत्तर देने में बुद्ध बिल्कुल इन्कार करते थे । निर्वाण के स्वरूप के सम्बन्ध में किया हुआ बुद्ध का मौन, सम्भव है उस काल में बुद्धिमानी पूर्ण गिनाता होगा पर यह तो निश्चय है कि इस
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भगवान् महायार
बात ने बौद्धों के विकास में बहुत बड़ी बाधा दी। क्योंकि इन विषय में यौद्धमत के अनुयायी ब्राह्मण दार्शनिकों के सन्मुख पंजे टेक देते थे। अन्त में अपने धर्म का अस्तित्व रखने के निमित्त इस महान प्रश्न का जिसके विपय में कि स्वयं बुद्ध ने कोई निश्चयात्मक धात न कही थी निपटारा करने के लिए बोद्धा की सभा हुई। जिसमें यौद्ध-धर्म महायान, हीनयान
आदि आदि कई सम्प्रदायों में विभक्त हो गया। आज भी ला, जावा, सुमात्रा आदि द्वीपों में जहाँ कि मामण दार्शनिकों को पहुँच न थी, बुद्ध का निर्वाण विषयक सिद्धान्त अपने असली रूप में प्रचलित है।
इसके अतिरिक्त कई ऐसे फारण हैं जिनसे बौद्ध-धर्म उस समय में सर्वव्यापी हो गया, और जैन धर्म अपनी मर्यादिन स्थिति में ही रहा । सिवाय इसके जैन-धर्म की मजबूती के और बुद्धधर्म को अस्थिरता के भी कई कारण है। जिनका विवेचन इस लघुकाय प्रन्य में असम्भव है।"
ऐतिहासिक संड समाप्त 1
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हिन्दी की हर प्रकार की पुस्तकें
मिलने के पते
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( १ ) गांधी हिन्दी मंदिर
अजमेर और भानपुरा ( हो० ग०)
(२) हिन्दी साहित्य -मंदिर
वनारस
(३) साहित्य कुल कार्यालय
भानपुरा ( हो० रा० )
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ܐܟܝܬܟܕܟܕܬܟܕܟܨܟܕܟܕܟ
मनोवैज्ञानिक खण्ड
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मनोवैज्ञानिक खण्ड
पहला अध्याय
OPEOS
ऐसा मालूम होता है कि ईसामसीह से लगभग छः सौ
वर्ष पूर्व सारे भूमण्डल के अन्तर्गत एक विलक्षण
प्रकार की मानसिक क्रान्ति का उद्गम हुआ था। सारी मनुष्यजाति के मनोविकागें में एक विलक्षण प्रचार की स्वतंत्रत्य भावना का एक विलक्षण प्रकार के बन्धुत्व का पादुर्भाव हो रहा था। सारे संसार के अंतर्गत एक नवीन परिपाटी का जन्म हो रहा था।
इसी काल में यूरोप के अन्तर्गत प्रसिद्ध तत्त्वज्ञानी "पैथेगोरस" का पादुर्भाव हुआ । इसका जन्म सभ्य यूनान की सुंदर भूमि पर हुआ था। इसने सारे संसार को एकता का दिव्य सन्देश दिया। शायद उसके पूर्व यूरोप अथवा यूनान के अन्त
र्गत अनेकत्व की भावनाओं का प्रचार हो रहा होगा, भारतवर्ष । की ही तरह वहां पर भी सामाजिक अशान्ति का दौरादौर होगा
और सम्भवत. इसी कारण इस तत्त्वज्ञानी ने अपने दिव्य सन्देश के द्वारा लोगों की उन संकीर्ण भावनाओं को नाश करने का प्रयत्र किया होगा।
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मगवान् महावीर त्य
इसी काल में एशिया के अन्तर्गत एक साथ चार तत्वज्ञानी अवतीर्ण हुए। चीन में प्रसिद्ध तत्वबानी "कनफ्यूशस' का आविर्भाव हुआ। इसने अपनी उन शिक्षाओं के द्वारा लिन्हें गोल्डन रूल (Golden rule) कहते हैं चीन के अन्तर्गत सामाजिक शान्ति की स्थापना की । करीव इसी के साथ साथ ईरान की भूमि पर प्रसिद्ध तत्त्वज्ञानी "लोरोस्टर" अवतीर्ण हुआ, जिसने अपने उन दो सिद्धान्तों के द्वारा जिन्हें "प्रारमुजड" (Armugd) और अहिरिमन कहते हैं । (Ahiriman) जो कि प्रकाश और अन्धकार की शक्तियों के विसम्वाद के सम्बन्ध में है-के द्वारा यह कार्य किया। ___ भारतवर्ष के अन्तर्गत "वर्द्धमान"-जिन्हें महावीर भी कहते हैं-ने प्रकट हो कर अपने उत्कट आत्मसंयम के सिद्धान्त को प्रकट किया। उन्होंने अपनी उत्कट प्रतिभा के बल से "स्याद्वाद" नामक प्रसिद्ध तत्त्वज्ञान का आविष्कार किया। इसके अतिरिक्त उन्होंने अपनी अलौकिक सहनशीलता, दिव्य आत्म-संयम और अद्भुत त्याग के द्वारा लोगों के सन्मुख एक उज्वल आदर्श खड़ा कर दिया । सामाजिक अशान्ति को नष्ट करने और स्थायी शान्ति की जड़ जमाने के लिये उन्होंने यहां की विगड़ी हुई जातिप्रथा को सुधारने का-अथवा यदि न सुधरे तो नष्ट करने का प्रयत्न किया। उन्होंने पूर्व प्रचलित जैन-धर्म को हाथ में लेकर उसका संशोधन किया और उसे समाज के निमित्त उपयोगी बना दिया।
महावीर के ही साथ साथ इस देश में "वुद्ध" का भी अवतार हुआ ! मालूम होता है भारतवर्ष की भयङ्कर अशान्ति
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भगवान् महावीर
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का नाश करने के लिए प्रकृति ने केवल एक ही व्यक्ति को पर्याप्त न समझा। और इसीलिए उसने महावीर के पश्चात् तत्काल ही बुद्ध को भी पैदा कर दिया। बुद्ध ने और भी बुलन्द आवाज़ के साथ प्राचीन सामाजिक नियमो का विरोध किया। उन्होंने अपनी पूरी शक्ति के साथ प्राचीन सामाजिक प्रथा के साथ युद्ध करके उसे बिल्कुल हो नष्ट कर दिया। महावीर ने जैन-धर्म का मार्ग जितना विस्तीर्ण रक्या था बुद्ध ने अपने धर्म का उससे मी अधिक विस्तीर्ण मार्ग रक्सा। जैन-धर्म के अन्तर्गत उस समय वेही लोग प्रविष्ट होने पाते थे जो परले सिरे के आत्मसंयमी और चरित्र के पक्के होते थे, पर युद्ध धर्म में ऐसी कोई बाधा न थी और इसी कारण ने उसने बहुत ही कम समय में समाज के अधिकांश भाग पर अपना अधिकार कर लिया। सारे हिन्दुनान में अधिकांश चौद्ध और उनसे कम जैनी नज़र आने लगे। नाना-धर्म एक बारगी ही लुप्त सा हो गया।
मंसार की इन सब कान्तियो का जब हम गम्भीरता के साय अध्ययन करते हैं तो मालूम होता है कि, जव समाज का एक बलवान और सत्ताधारी अङ्ग अपने स्थूल स्वार्थ की रक्षा के निमित्त श्रसत्य और अधर्म का पक्ष लेकर अपने से दुर्बल अङ्ग को सत्य में वचित रखने का प्रयत्न करता है तब उस पराजित सत्य को भम्म में में एक ऐसी दिव्य चिनगारी पैदा होती है कि, जिसकी प्रचण्ड ज्वाला में उस अधर्म और अनीति की आहुति लग जाती है। उस दिव्य प्रकाश के उस दिन्यविभूति के प्रादुर्भाव में नीति की अपेक्षा अनीति और धर्म की अपेक्षा अधर्म का ही अधिक हाथ रहता है। पराजित और प्रताड़ित सत्य को पुनः
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भगवान महावीर उसके गौरव युक्त आसन पर प्रतिष्टित करने के निमित्त ही महापुरुषों का अवतार होता है। दैवी और आसुरी सम्पद के घात प्रतिघात में जब आसुरी तत्त्व अपने स्थूल बल के प्रभाव से दैवी तत्त्व को दवा देता है, और अपने अधर्म-युक्त शासन का प्रभाव समाज पर डाल देता है, तब प्रति शासक की तरह दैवीतत्त्व का पक्ष लेकर असत्य का निकन्दन करने के निमित्त प्रकृति के गर्भागार में से एक अमोघ वीर्यवान आत्मा अवतीर्ण होती है। इस अमोघ-शक्ति को लोग "अवतार" की संज्ञा देते हैं । इन पुरुषो के अवतरण का मुख्य हेतु जगत की सावदेशिक प्रगति के विरुद्ध जो विघ्न आते रहते हैं उनको दूर करने का होता है। "महत्ता" केवल सामर्थ्य पर ही अवलम्बित नहीं है। प्रत्युत विघ्नो के दूर करने में सामर्थ्य का जो उपयोग होता है उसी पर अवलम्बित है। जितने ही भयकर विनों और प्रति बन्धों के विरुद्ध उसका उपयोग होता है उतनी ही अधिक उसकी महत्ता होती है। संसार के इतिहास में जितने भी महापुरुषों ने पूज्यनीय स्थान प्राप्त किया है, वह केवल सामर्थ्य के प्रभाव से ही नहीं प्रत्युत उस सामर्थ्य के द्वारा अधर्म के विरुद्ध क्रान्ति उठा कर ही किया है। क्रियाहीन । -सामर्थ्य का उल्लेख इतिहास के पत्रों में नहीं रहता। वस्तुतः देखा जाय तो इन महात्माओं को आकर्षण करने की शक्ति अधर्म में नहीं होती पर जब अधर्म का प्राबल्य धर्म को दबोच देता हैउसे तत्वहीन बना देता है तब प्रताड़ित सत्य की दुख भरी पुकार ही, उन्हें उत्पन्न होने को वाध्य करती है।
इस पुस्तक के ऐतिहासिक खण्ड को पढ़ने से पाठक अवश्य
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भगवान महावीर समझ गये होंगे कि उस समय भारतीय समाज की ठीक यही सिति हो रही थी, ब्राह्मणों का बलवान अग शूद्रों के निर्वल अझ के तमाम अधिकारों को छीन चुका था और पुरुपो का सबल अङ्ग स्त्रियों के निल अंग को तत्त्व हीन कर चुका था । पशुओं के प्राणों का कुछ भी मुल्य नहीं समझा जाता था। हजारों, लाखों प्राणी दिन दहाड़े यज्ञ की पवित्र वेदी पर तलवार के घाट उतार दिये जाते थे। उनके अन्तर्जगत में अशान्ति की मीपण जाला धधक रही थी। वे लोग बड़ी ही उत्कण्ठा के साथ मे पुरप की गह देख रहे थे जो उस ज्वाला का-उन मनोविकारों का स्फोट कर दे। महावीर और बुद्ध ने प्रकट हो कर यही कार्य किया नन्दाने अपने असीम साहस और उत्कट प्रतिभा के चल से लोगों के इन अंतर्भावों को वाह्य क्रान्ति का रूप दे दिया।
हमाग विश्वाम है कि यदि ये दोनों महात्मा लोगो की मनोमृतियों के अनुकूल न रहते हुए उनकी भावनाओं के प्रतिकूल कोई मान्ति उपस्थित करते तो कभी उन्हें इतनी सफलता न मिलती, पर वे तो मनोविज्ञान के पूरे पण्डित थे, समाज के इसी मर्ज को
और धर्म के असली तत्त्व की खोज में ही उन्होंने अपनी जिन्दगी के बारह वर्ष व्यतीत कर दिये थे। उनसे ऐसी बड़ी मूल कम हो सकती थी। उन्होंने बहुत ही सूक्ष्मता से लोंगो की मनोवृत्तियों का अध्ययन कर अपने अपने धर्म का मुख्य सिद्धान्त "महिसा" और "साम्यवाद" रक्खा। उन्होंने अपनी अतुलप्रतिभा के द्वारा लोगों को मनोवृत्तियों का नेतृत्व Lead करना , शुरू किया । और मालूम होता है इसी कारण तत्कालीन समाज ।
ने उन्हें तुरत ही अपना नेता खोकार कर लिया।
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भगवान् महावीर न्या
जैन और बौद्ध इन दोनों धर्मों का जब हम अध्ययन करते हैं तो मालूम होता है कि इन दोनों धर्मों के मोटे मोटे सिद्धान्त प्रायः समान ही हैं। कई सिद्धान्तों में तो आश्चर्यजनक समानता पाई जाती है, मत भेद उन्ही स्थानों पर जाकर पड़ता है जहां पर कि साधारण जनता की पहुँच नहीं है। जहां तक हम सोचते हैं इस समानता का प्रधान कारण हमें तत्कालीन समाज की रुचि ही मालूम होती है। दोनो ही महापुरुषो ने लोक रुचि के विरुद्ध पैर रखना उचित न समझा और इसी कारण उनमे
आश्चर्य जनक समानता पाई जाती है, दोनों ही धर्मों का मुख्य सिद्धान्त अहिंसा है। यदि हम यह भी कह दे कि, इसो उज्वल तत्त्व पर दोनों धर्मों की नींव रक्खी हुई है तो भी अनुचित न होगा। अब हम यदि इस विषय पर विचार करे कि इनका प्रधान तत्त्व "अहिंसा" और "साम्यवाद" ही क्यो हुआ तो इसका समाधान करने के लिए इतिहास तत्काल ही हमारे सम्मुख उस समय के "हिंसाकाण्ड" का और 'असम्यता' का चित्र खींच देता है, बस, तत्काल ही हमारा सन्तोष कारक समाधान हो जाता है।
यहां तक तो हमने उस समय की स्थिति और उसके साथ प्रकृति के लगाव का वर्णन किया अब हम अपने ग्रन्थ-नायक भगवान महावीर की जीवनी पर मनोवैज्ञानिक ढङ्ग से कुछ विचार करना चाहते हैं । क्योंकि जब तक हमे यह मालूम नहीं हो जाता कि महावीर किस प्रकार-महावीर हुए, किस प्रकार उनके जीवन का क्रम विकास हुआ, किन किन परिस्थितियो के कारणवे संसार की बड़ी हस्तियों में गिनाने के लायकहुए-तब तक
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अधिक भाग कोरा रह जाता है ।
उनके जीवन का आधे से महावीर एक महापुरुष हो गये हैं जो जैनियो के अन्तिम तीर्थ
कर थे । फेवल इतना ही कहने से लोगों को मकना, न उनमें कुछ लाभ हो हो सकता है। के अंतर्गत महावीर के जीवन का रहस्य छिपा हुआ है, जिन तत्वों में मनुष्य जीवन का मुशकिले आसान हो जाता है, उन घटनाओं और तत्त्वों को जय तक हम पूर्णतया न जानलें तब तक जीवन चरित्र का मघा कार्य अधूरा ही रह जाता है ।
हमारे दुर्भाग्य से भारतवर्ष के प्राचीन इतिहास की सामग्री बहुत ही फम प्राप्त है। अत्यन्त दौड़ धूप के पश्चात किसी प्रकार चन्द्रगुम तक तो लोग पहुँचे है पर उसके बाद तो प्राय अन्धकार ही है । पाचात्य विद्वान पुराणो और दन्तस्थाओं के आधार पर कुछ अनुमान निकालते अवश्य हैं पर कुछ समय के पश्चात यह अनुमान उन्हे ही गलत मालूम ए लगता है। भगवान महावीर के सम्बन्ध में भी यदि वही यान की जाय तो अनुचित न होगा, धौद्ध और जैनप्रन्धों के sarara में यद्यपि कुछ विद्वानों ने कुछ धातों का निपटारा कर लिया है। पर उसमें भी बहुत मतभेद है । विद्वान भी बेचारे क्या करें, कहाँ तक तर्फ लगावें आखिर मन आधार सम्भ तो प्राचीन प्रन्थ ही रहते हैं। उन प्राचीन ग्रन्थों से आपस में ही मत भेद पाया जाता ៩ वे कहते हैं कि महावीर स्वामी का गर्भ हरण हुआ था । दिगम् कहते है कि, नहीं हुआ। इधर दिगम्बरी कहते हैं कि महावीर बालाचारी थे तो श्वेताम्बरी कहते हैं कि नहीं
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भगवान् महावार
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सन्तोष नहीं हो जिन घटनाओ
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उनका विवाह हुआ था, और उस विवाह से उनको एक कन्या भी हुई थी । महावीर की पत्नी का नाम यशोदा और कन्या का नाम प्रियदर्शना था । ऐसी हालत में विद्वान् क्या करें " किसको झूठा माने और किसको सञ्चा" उनके पास कोई ऐसा प्राचीन शिलालेख या ताम्रपत्र तो है ही नहीं जिसके बल पर वे निर्द्वन्दता-पूर्वक एक को झूठा और दूसरे को सच्चा कह दें। ऐसी हालत में सिवाय अनुमान प्रमाण के और कोई आधार शेष नहीं रह जाता ।
भगवान् महावीर
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इस स्थान पर हम कल्पसूत्र आदि प्राचीन ग्रन्थों और अनुमान के आधार पर महावीर के जीवन से सम्वन्ध रखने वाली कुछ बातों का विवेचन करेंगे । इस भाग में उनके जीवन का वही भाग सम्मिलित रहेगा जो मनोविज्ञान सं सम्वन्ध रखता है । शेष बातें पौराणिक खण्ड में लिखी जायंगी ।
यह बात प्रायः निर्विवाद है कि भगवान महावीर संसार के बड़े से बड़े पुरुषों में से एक हैं । इतिहास में बहुत ही कम महापुरुष उनकी श्रेणी में रखने योग्य मिलते है । लेकिन भारत के दुर्भाग्य से या यों कहिये कि हमारी अन्धश्रद्धा के कारण हम लोग उन्हें मानवीयता की सीमा से परे रखते हैं । हम लोग उन्हें अलौकिक, मर्त्य लोक की श्रृष्टि से बाहर और दुनियाँ के स्पर्श से एकदम मुक्त मानते और इसी कारण हम लोग महावीर की उतनी कद्र नहीं कर सके जितनी हमे करना चाहिये । महावीर के जीवन का महत्व इसमें नहीं है कि वे अलौकिक महापुरुष की तरह पैदा हुए और उसी
हैं
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भगवान महावीर
हालत में मोक्ष गये। यल्कि महावीर के जीवन का महत्व इसी में है कि, मनुष्य जाति के अन्दर पैदा होकर भी, उस वायुमण्डल में जन्म लेकर भी उन्होंने परम पद को प्राप्त किया। महावीरस्वामी यदि प्रारम्भ में ही अलौकिक थे, और यदि उन्होंने अलौकिकना में से ही अलौकिक पद प्राप्त किया, तो इंसमें उनका फोई वीरत्र प्रदर्शित नहीं होता और न उनका जीवन ही हम लोगों के लिये आदर्श हो सकता है। क्योंकि हम लोग तो लौकिक है। हमें तो लौकिकता में से अलौकिकता प्राप्त करना है। हमें तो नर में नारायण होना है। इसलिए हमारे लिये इसी मनुष्य फा जीवन आदर्श हो सकता है जो हमारी नरह मनुष्य रहा हो और उसी मनुष्यत्व में से जिमने देवत्व प्राप्त किया हो । सारौ मनुष्य जाति को इसी प्रकार के आदर्श की पावश्यकता है।
मनुष्य प्रकृति के अन्दर निर्वलता की जो विन्दुएँ हैं, मनुष्य के मनोविकारों में कमजोरी की जो भावनाएँ हैं और भावनाओं फो नष्ट करने के निमित्त जिस पुरुपार्थ की आवश्यकता है वह पुरुषार्थ यदि भगवान महावीर में न था, यदि वे किसी अलौकिक शक्ति के प्राप्त में इतने ऊँचे पद को प्राम हुए तो इसमे उनकी क्या विशेषता ? वह नो प्रकृति का ही काम था, इस प्रकार के महावीर तो मसार के आदर्श नहीं हो सकते ।।
लेकिन वाम्नविक बात इस प्रकार को नहीं है, महावीर के विषय में इस प्रकार की धारणा करना हमारी भूल है, उसमें हमागही दाप है। यदि हम मूक्ष्म दृष्टि से महावीर के जीवन फा अध्ययन करें तो हमें मालूम होगा कि, महावीर का जीवन
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भगवान महावीर
मनुष्य की उन्हीं प्रवृत्तियो का क्रमविकास है जो साधारण मनुष्यों मे भी पाई जाती हैं। मनोविज्ञान के उन सब सूक्ष्म तत्वों का महावीर के जीवन में समावेश था। जो हम लोगों के अन्दर भी पाये जाते हैं। अन्तर केवल इतना ही था कि हम लोग अपनी कमजोरी के कारण या यों कहिये कि नैतिकवल की हीनता के कारण उन तत्त्रों का विकास करने में असमर्थ रहते हैं। हम प्रकृति की दी हुई अपार शक्तियो को अपनी दुर्बलता के कारण नही पहचान पाते हैं और महावीर ने अपने असीम पुरुपार्थ के तेज से, अपने अपार नैतिक बल के साहस से अपनी सब शक्तियो को पहचान लिया था। उन्होने बहुत ही बहादुरी के साथ उन सब मोह के आवरणो को फाड़कर फेंक दिया था जो मनुष्य की दिव्य शक्तियों पर पड़े रहते हैं।
"महावीर," "महावीर" थे, उनमें इच्छाओं को दमन करने की असीम शक्ति थी। उनमे मनोविकारो पर विजय पाने का अद्भुत पुरुषार्थे था। वे हमारे समान साधारण मनुष्यों की तरह कमजोर न थे-इच्छाओ के गुलाम-नथे। उनमें चरित्र का तेज था, ज्ञान का बल था वे मानव जीवन की वास्तविकता को समझते थे। हां वे उन तत्त्वों के अनुगामी थे जिनके द्वारा मनुष्य परम-पद को, अपने वास्तविक रूप को प्राप्त कर सकता है। इसी कारण भगवान महावीर हमारे आदर्श हैं। इसी कारण वे संसार के पूजनीय हैं। ___भगवान महावीर में इतर लोगो से क्या विशेषता थी। वे एक साधारण राजघराने में पैदा हुए थे। हमारे इतने सुयोग्य भी उनको प्राप्त न थे। यह बात हर कोई जानता है कि, एक
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भगवान् महावार
साधारण मनुष्य को अध्यात्म विषय का अध्ययन करने में जितनी सुगमता हो सकती है उतनी एक राजकुमार को नहीं मिल सकती। ऊँचे ऊंचे विलास मन्दिरों में अनेक विलास-सामग्रियों के बीच विरले ही महापुरुषों को वैराग्य का ध्यान आता है, ऐसी प्रतिकूल स्थिति के अन्तर्गत रहते हुए भी उनके अन्दर वैराग्य की चिनगारी किस प्रकार प्रवेश कर गई इसी एक बात में महावीर के जीवन का रहस्य छिपा हुआ है, अखण्ड राज्य वैभव के मार्ग मे ऐसा कौनसा सत्य, ऐसा कौनसा सुख, ऐसी कौनसी शान्ति दृष्टि गोचर हुई कि जिसके प्रलोभन में आकर उन्होंने अपार राज लक्ष्मी को, आदर्श मातृप्रेम को, और उस पत्नी-प्रेम को, जहा मे शक्ति की सुन्दर तरगिणी का उद्गम होता है, लात मार कर जगल का रास्ता लिया। एक गरीब मनुष्य जो संसार का भार महन करने में असमर्थ है, जो दोनों समय पूरा भोजन भी नहीं पा सकता, जो ससार के तमाम सुखों से वञ्चित है, दरिद्रता का पाश जिसके गले में पड़ा हुआ है, अत्यन्त दुखों से तग आकर यदि वैराग्य को ग्रहण कर ले तो उसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं। पर भगवान महावीर की ऐसी स्थिति न थी। उनके प्राण से भी अधिक प्रिय माता थी। सुंदर, सुशील, और सद्गुण-शालिनी पत्नी थी, उदार पिता थे। राज्य था । राज्य-भक्त प्रजा थी और उसके साथ ही साथ अत्यन्त वैभव था । इन सब जातों का त्याग करके मुट्ठी भर धूल की तरह इन सब सामग्रियों को छोड़कर उन्होंने मुनिवृत्ति ग्रहण की इसी आश्चर्य जनक यात में महावीर के जीवन की वास्तविकता छिपी हुई है।
हमारे दुर्भाग्य से हमें भगवान महावीर के बाल्यकाल, शिक्षा
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काल, यौवन काल, और दीक्षाकाल का कोई भी प्रामाणिक इतिहास देखने को नहीं मिलता। देखने को केवल ऐसी ऐसी बातें मिलती हैं कि जिन पर आज कल का बुद्धिवादी जमाना बिल्कुल विश्वास नहीं कर सकता । और जिस बात पर विश्वास नही किया जा सकता उसके आदर्श रूप मे किस प्रकार परिणित किया जा सकता है ।
भगवान महावीर का बाल्यकाल ।
भगवान महावीर का वाल्यकाल किस प्रकार व्यतीत हुआ । यह जानने का हमारे पास कोई साधन नहीं है, हम इस बात को नही जानते कि, बालकपन में उनका क्रम विकास किस ढग से हुआ । उनकी बालकपन की चेष्टाएं किस प्रकार की थी। असल मे देखा जाय तो मनुष्य के भविष्य का प्रतिबिम्ब उसके वाल्यजीवन पर पड़ता रहता है । मनुष्य संस्कारों का संग्रह बालकपन मे ही करता है । भविष्य में उनका विकास मात्र होता है, इस लिये किसी भी व्यक्ति का जीवन चरित्र लिखने के पूर्व उसके बाल्यकाल को अध्ययन करना अत्यन्त आवश्यक होता है । पर भगवान महावीर के बाल्यकाल के विषय मे हमारे ग्रन्थ कुछ भी प्रमाणभूत तत्त्व नही देते । वे केवल इतना ही कह कर चुप हैं कि, भगवान, मति, श्रुति, अवधि नामक तीन ज्ञानो को साथ ले कर उत्पन्न हुए थे । वे हमारे सामने केवल एक गढ़ी गढ़ाई प्रतिमा की तरह दिखलाई पड़ने लगते हैं । इसमें हमें यथार्थ सन्तोष नहीं होता । हम मनुष्य हैं, हम हमारे पूज्य नेता को मनुष्य रूप में देखना चाहते हैं । मानवीयता का जो महत्व है,
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मनुष्य का जो सौन्दर्य है उसी को हम भगवान महावीर में देखना चाहते हैं । हम उन्हें मनुष्य जाति के सन्मुख आदर्श रूप में रखना चाहते है | हम उनके जीवन से मनुष्य जाति को एक सन्देशा देना चाहते हैं । और इसीलिये हमे उनके वाल्य-जीवन को पूर्ण रूप से अध्ययन करने की आवश्यकता है। हमें यह जानने की अनिवार्य्य आवश्यकता है कि, भगवान महावीर की
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दिनचर्या किस प्रकार थी। उनकी शिक्षा का प्रबन्ध किस प्रकार था, आदि आदि पर हमारे शास्त्रों में इस प्रकार कोई विशद विवेचन नहीं दिया गया है ।
फिर भी कल्पसूत्र आदि ग्रन्थों में महावीर के पिता सिद्धार्थ की जो दिनचर्या दी हुई है, उससे महावीर की दिनचर्या का कुछ कुछ अनुमान लगाया जा सकता है। कल्पसूत्र में सिद्धार्थ की चर्चा का जो वर्णन किया है उसका संस्कृत रूप हम नीचे देते हैं ।
"वालात वकुक में खीचते जीव लोके, शयनीश्युतिष्ठति पादपीठा प्रत्यवरति प्रत्युवतार्य्यं यत्रेवाहन शालातत्रेवोया गच्छति उपगन्यानशाला मनु प्रविशनि" अनुप्रविश्या, नेकव्यायाम, योग्य बालान व्यामर्दन महयुद्ध करेंण श्रान्त परिश्रान्त, शतपाक सहमे सुगंधवर तैलादि भीः प्रीणनीचे दीपनीवै. दर्पनीचे, मर्द - नीचैः बृहणीयेः सर्वेन्द्रियगात्र- प्रल्हाल नीचैः श्रम्यङ्गितः सन प्रति पूर्ण पाणि पाहु, सुकुमाल कमल तलैः इत्यादि विशेषण युक्त:पुरुपैः सवाधनया संवाहिताः श्रपगत परिश्रमः अपून शालायः प्रतिनिष्क्रामति"
मूर्योदय के अनन्तर सिद्धार्थ राजा अवृनशाला अर्थात्
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च्यायाम शाला में आते थे। वहाँ वे कई प्रकार के दण्ड वैठक, मुग्दर उठाना आदि व्यायाम करते थे। उसके अनन्तर वे मल्ल युद्ध करते थे इसमें उनको बहुत परिश्रम हो जाता था। इसके पश्चात शतपक तैल-जो सौ प्रकार के द्रव्यों से निकाला जाता था, अोर सहस्रपक्क तेल जो एक हजार द्रव्या स निकाला जाता था-ले मालिश करवाते थे, यह मालिश रस रुधिर धातुओं को प्रीति करनेवाला-दीपन करनेवाला, बल की वृद्धि करनेवाला और सब इन्द्रियों को आल्हाद देने वाला होता था। ___व्यायाम के पश्चात् सिद्धार्थ स्नान करते थे । इम स्नान का वर्णन भी कल्पसूत्र में बड़े ही मनोहर ढग में किया गया है, इस प्रकार यदि हम सिद्धार्थ की दिनचर्या का अध्ययन करते हैं तो वह बहुत ही भव्य मालूम होती है। पिता के इन संस्कारों का प्रभाव महावीर के जीवन पर अवश्य पड़ा होगा, इन सब बातों से यह भी मालूम होता है कि, उस समय उनके आसपास का वायुमण्डल बहुत ही शुद्ध और पवित्र था। शारीरिक, मानसिक, और आध्यात्मिक उन्नति के सव साधन उनको प्राप्त थे। ऐसा मालूम होता है कि, भगवान महावीर की शारीरिक सम्पति तो बहुत ही अतुल होगी। कदाचित इसी कारण उनका नाम "वर्धमान" से महावीर पड़ गया हो। ___महावीर स्वामी की शिक्षा प्रवन्ध वगैरह के विषय में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। हमारे शारों में उन्हें जन्म से ही, मति, श्रुति, अवधि ज्ञान के धारक माने हैं। इस
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तो गृहस्थ का धर्म है, उनके पूर्व कालीन प्रायः सभी तीर्थकरोंने [ एक दो छोड़ कर ] विवाह किये थे । इसके सिवाय उनकी परिस्थिति भी विवाह के सर्वथा अनुकूल थी । ऐसी हालत में मनोविज्ञान की दृष्टि के अनुसार भी उनका विवाह करना ही अधिक सम्भवः माना जा सकता है अव आदर्श की दृष्टि से लीजिए । यदि हम महावीर को गृहस्थ धर्म की राह मे 'विकास करते देखते हैं तो हमें प्रसन्नता होती है । हमारे हृदय के अन्दर इस भावना का संसार होने लगता है किमहावीर की ही तरह हम भी गृहस्थाश्रम के मार्ग से होते हुए ईश्वरत्व की ओर जा सकते हैं ।
आदर्श जीवन व्यतीत करनेवाले मनुष्य की साधारणतया दो अवस्थाएँ होती हैं । इन दोनों अवस्थाओ को अंग्रेजी में क्रमशः ? Self Aasertion और Self Realization कहते हैं । इन दोनों को हम प्रवृति मार्ग और निवृति मार्ग के नाम से कहे तो अनुचित न होगा ।। इन दोनो मार्गों में परस्पर कारण और कार्य का सम्बन्ध है । पहली अवस्था में मनुष्य को धर्म, अर्थ और काम को सम्पन्न करने की आवश्यकता होती है । यह प्रवृति शरीर और मन दोनों से सम्बन्ध रखती है । पैसा कमाना, विवाह करना, व्यवसाय करना, अत्याचार का सामना करना, आदि गृहस्थाश्रम में पालनीय वस्तुएँ इस अवस्था का बाह्य उपदेश रहता है । पर वास्तविक उद्देश्य उसका कुछ दूसरा ही रहता है । वास्तविक रूप से देखा जाय तो वाह्य जगत को यह सब क्रियाएँ जीवन की वास्तविक स्थिति को प्राप्त करने की पूर्व तैयारियाँ हैं । बिना
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इन क्रियाओं के मनुष्य जीवन के वास्तविक उदेश्य पर सफलता पूर्वक नहीं पहुंचा जा सकता।
हमारे प्राचीन शास्त्रकार दूरदर्शी थे। मनुष्य स्वभाव के अगाध पण्डित थे । वे जानते थे कि, विना गृहस्थाश्रम का पालन किये सन्यस्ताश्रम का पालन करना महा कठिन है।
प्रवृति और निवृति जीवन उत्थान के ये दो मार्ग हैं। प्रवृति से यद्यपि जीवन का विकास नहीं हो सकता तथापि जीवन के । विकास के लिए उसकी आवश्यकता अनिवार्य है, विना प्रवृति
भार्ग के ज्ञान और अनुभव मे निवृति मार्ग में पहुँचना अत्यन्त कठिन है। मनुष्य की गृहस्थाश्रम अवस्था इसी प्रवृति मार्ग का द्वार है। गृहस्थाश्रम में प्रवेश करके मनुष्य उन सब मोहनीय पदार्थों को पाता है, वह उसका अनुभव करता है, उनमें आनन्द की खोज करता है, करते करते जब वह थक जाता है, तृप्ति की खोज करते करते थक जाने पर भी जब उसे तृप्ति नहीं मिलती तब उसे प्रवृति मार्ग की अपूर्णता का ज्ञान होता है। वह उससे ऊपर उटता है, पूर्णता प्राप्त करने के लिए अन्त मे उसे निवृति मार्ग में प्रवेश करना पड़ता है, और तभी वह अपने उद्देश्य मे सफल भी होता है।
__ मनुष्य की यह एक स्वाभाविक प्रवृति है कि जब तक वह किसी चीज का स्वय अनुभव नहीं कर लेता, जव तक वह उसकी मिथ्यावादिता का स्वय स्पर्श नहीं कर लेता तब तक उस वस्तु में उसका स्वाभाविकतया ही एक प्रकार का मोह रहता है। जो लोग प्रवृति मार्ग का विना तर्जुवा किये ही निवृति मार्ग में प्रवेश कर जाते हैं। उन लोगो की भी प्रायः यही अवस्था होती है
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१२८ राज उन्हें इस बात का कुछ न कुछ अणुमात्र सन्देह रह ही जाता है कि प्रवृति मागे में भी सुख हो सकता है। क्योंकि उस माग का उन्हें कला चिट्ठा तो मालूम रहता ही नहीं। वे उस मान की त्रुटियों को तो जानते ही नहीं सारे संसार को सुख की खोज में उधर ही गति करते हुए देख कर यदि उनके हृदय में रंचमात्र इस भावना का उदय भी हो जाय तो क्या आश्चर्य ! ___ इसलिए प्राय. सभी धर्मों के अन्तर्गत प्रवृति-मार्ग या गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने की आज्ञा दी है। जैन धर्मशास्त्रों में भी इस प्रवृति मार्ग का खूब ही विस्तृत वर्णन लिया है. हमारे तीर्थरों, चक्रवर्तियों, नारायणों आदि शलाक के महापुन्या के वैभव का. उनके विलास का वर्णन करने में उन्होंन कमाल कर दिया है। और इन सुखों की प्राप्ति का कारण पूर्वजन्म कृत पुल्यो को बतलाया है। इसी से पता चलता है कि हमारे धर्मशास्त्रों में प्रवृति मार्ग को कितना अधिक महत्व दिया है। प्रवृति मार्ग में पूर्णता प्राप्त होना भी पूर्व जन्म के पुण्य का सूचक माना गया है । क्योकि जब तक मनुष्य सांसारिक सुख भोग में अपूर्ण रह जाता है तब तक उन भोगों से उसकी विरक्ति नहीं हो सकती, क्योंकि जो भोग उसे प्राप्य हैं उन्ही में उसे सुख की पूर्णता दिखलाई देती है, और उन्हीं के मोह में वह भटका करता है। उनके कारण वह दुनियां से निवृत नहीं हो सकता । पर जब उसे संसारसंभव सव विलासों और सुखों की प्राप्ति हो जाती है और फिर भी उसकी तृप्ति नहीं होती, तभी उसे ससार की ओर से निवृति हो जाती है और इसीलिये प्रवृतिमार्ग में पूर्णता का होना पूर्वजन्म के अनेक पुण्यों का फल माना गया है।
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भगवान् महावीर
दिगम्बर शास्त्रों में वर्णित भगवान महावीर के जीवन को हम देखते हैं तो हमें मालूम होता है कि उनके गार्हस्थ्य जोवन मे सांसारिक भागों को (प्रवृत्ति मार्ग में) अन्य पूर्मताओ के होते हुए भी विवाह सम्बन्धी अपूर्णता रह गई थी। भगवान् महा वीर के गार्हस्थ्य जीवन की यह अपूर्णता क्या ऐतिहासिक दृष्टि में, क्या व्यवहारिक दृष्टि से, क्या आदर्श की दृष्टि से और क्या दार्शनिक दृष्टि से, किसी भी प्रकार की घुद्धि को मान्य नहीं हो मकती। इस बारे में श्वेताम्बर-ग्रन्थों का कथन ही हमें अधिक मान्य मालूम पड़ता है।
बुद्ध या जीवनचरित्र इन सब बातों में आदर्श रूप है। उनके जीवन में प्रवृत्ति मार्ग की । र्णता, उसकी वास्तविकता, उससे विरक्ति और अन्न में निवृत्ति मार्ग में प्रवेश बतलाया गया है। उनका जीवन चरित्र मनुष्य-प्रकृति के अध्ययन के साथ लिया गया है। श्वेताम्बरी-प्रन्यों में भी इसी पद्धति से भगवान महावीर का जीवनचरित्र लिखा गया है।
मर खयाल में भगवान महावीर बाल ब्रह्मचारी नहीं थे। वं गृहन्थ थे। गृहस्थ भी सामान्य नहीं, उत्कृष्ट श्रेणी के थे। उन्होंन गृहस्थाश्रम के प्रमोद-कानन में हजारों रसिकता की क्रियाए की होंगी। यौवन के लीला-निकेतन में युद्ध की तरह वे भी अपनी प्रेमिका के साथ रसमयो तरङ्गिणी के प्रवाह में प्रवाहित हुए होगे । पर प्रवृत्ति की इस पूर्णता के वे कभी आधीन नहीं हुए । हमेशा प्रवृत्ति पर वे शासन करते रहे, और अन्त में एक दिन इन प्रवृत्ति की लीलाओं से विरुद्ध हो अवसर पाकर सब भोग-विलासों पर लात मार कर वे सन्यासी हो
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वान् महावीर
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गये | ऐसे ही महावीर संसार के आदर्श हो सकते हैं; संसार ऐसे ही महावीर को अपना उद्धारक मान सकता है ।
जो लोग महावीर स्वामी का विकास क्रम नहीं मानते, जो जन्म से ही उन्हें देवता की तरह मानते हैं उनको उपरोक्त विवेचन ने अवश्य क्रोध एवं हास्य उत्पन्न होगा । पर जो लोग भगवान महावीर को प्रारम्भ से ही मनुष्य की तरह मानकर क्रम विकास के अनुसार अन्त में ईश्वर की तरह मानते हैं उनको अवश्य इस कथन में कुछ न कुछ रहस्य मालूम होगा । दीक्षा - संस्कार
भगवान् महावीर ने अपने उत्तम जीवन का अधिकांश भाग गृहस्थाश्रम के अंतर्गत सत्य और जीवन - रहस्य के तत्त्वों की शोध में व्यतीत कर दिया । जीवन के आदर्श पर लिखते हुए एक जैन लेखक लिखते हैं कि:
"All straining and striving, which is going on in the world, is the outcome of a thirst for happiness, it is on account of this insatiable thirst that ideal after ideal i conceived adhered for a time and then ultimately, wher to be in sufficient, discarded and replaceb by a seemingl discovered better one.s-ome People spend their whole lives in thus trying object after object for the satisfaction of this Inlination for happiness
जीवन के तीस वर्ष गृहस्थाश्रम में व्यतीत करने पर भगवान महावीर को यही अनुभव हुआ कि गृहस्थाश्रम "सत्य" हैं पर जीवन के लिए सन्यास उससे भी बड़ा सत्य है । और इसी कारण अब मुझे उस बड़े सत्य को प्राप्त करने की आवश्यकता है । मेरा
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खयाल है भगवान् बुद्ध की ही तरह उन्हे भी संसार के इन दुखमय दृश्यों से बड़ी घृणा हुई होगी। उस समय की सामाजिक अवस्था को देखकर अवश्य उनके कोमल हृदय में दया का संचार हुआ होगा और इन्ही भावनाओं से प्रेरित होकर सत्य ज्ञान पाने' के लिये उन्होंने दीक्षा ग्रहण की होगी ।
प्रत्येक ऊँचे दर्जे के मनुष्य के जीवन में एक ऐसी स्थिति आती है, जब उसका हृदय तमाम विलास सामग्रियों की ओर से विरक्त होकर वास्तविक उच्च सत्य को प्राप्त करने के लिये ' व्यग्र हो उठता है । विलास से विरक्त होकर वह आत्म-सयम की ऊँची भावनाओं को प्राप्त करना चाहता है ।
"
श्रात्म-संयम का ऊँची भावनाओ का आश्रय लेकर वह भोगों को भोग दे डालता है ।
To live for pure life's sake jand to utilise wealth f body etc. for living in that manas wis Lord Mahabir's Principle so he utilised his body full for self-denial or for life.
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जोवन की शुद्ध स्थिति के निमित्त जीना यही जीवन का प्रधान उद्देश्य है । पैसा, राज्य, विलास आदि वस्तुएँ तो शरीर के चाह्य साधन है । भगवान् महावीर ने पहले शरीर के इन बाहरी साधनों का सदुपयोग किया । उसके पश्चात वे सुखको प्राप्त करने के निमित्त सचेष्ट हुए । एक अंग्रेज लेखक लिखते हैं ।
Money connot make us happy, friends cannot make us happy, success cannot make us happy, health strength cannot make us happy, All these make for happiness but none of them can secure it. Nature may do all she cau, she may give us fame, health,
money
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long life, but she coonut wake us ouppy, every one of us must do that for bismelf. Our language expresses this admirably. What do we say if we had a happy day ? We say we have enjcyed "ourselves" This expression of our molber tongue secms very suggestive Our happiness depends on ourselves
"पैसा हमको सुखी नहीं बना सकता। सफलता हमको सुखी नहीं बना सकती । मित्रगण हमे सुखी नहीं कर सकते । स्वास्थ्य और शक्ति भी हमको सुखी नहीं बना सकती। यद्यपि ये सब वस्तुएँ सुखक लिए निर्माण की गई हैं, पर वास्तविक सुख को देने मे ये सब असमर्थ हैं । प्रकृति सब कुछ कर सकती है।' वह हमको स्वस्थता, पैसा, दीर्घ जीवन आदि सब वस्तुएँ प्रदान कर सकती है। पर वह भी सच्चा सुख नहीं दे सकती। प्रत्येक व्यक्ति को सुखी होने के लिये अपने आप स्वावलम्बन पर खड़े होना चाहिये । इस बात को हमारी भाषा भलिभाँति सिद्ध करती है। जब हमे सुख मिलता है, उस दिन हम उसे किस प्रकार प्रकाशित करते हैं ! हम कहते हैं कि हमने अपने आप कामनोरंजन किया । हमारी मातृभाषा का यह शब्द Our selves बहुत प्रमाण युक्त मालूम होता है। हमारा सुख हमारे स्वावलम्बन पर निर्भर है।
इस ऊचे सत्य का भगवान् महावीर ने मनन और अनुभव किया था । और इसके अनुसार उन्होंने अपने जीवन प्रवाह को बदला था । अट्ठाईस वर्ष की अवस्था में ही उनके अन्तर्जगत् मे इन भावो ने खलबली डाल दी थी और उसी समय वे दीक्षा लेने को प्रस्तुत हो गये थे पर कुटुम्बियों के आग्रह से गृहस्थाश्रम
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भगवान महावीर में दो वर्ष और अधिक रहना उन्होंने स्वीकार किया। अन्त मे तीस वर्ष की अवस्था होने पर एक दिन दर्शको को हर्प-ध्वनि के बीच सांसारिक मुखों को लात मार कर परमसत्य को प्राप्त करने के लिए उन्होंने दीक्षा ग्रहण कर लो।
राजकुमार महावीर सन्यासो हो गये । सत्र राज भोगों को, ऊचे ऊचे विलास मन्दिरों को,सुन्दरी यशोदा को और सारी प्रजा के मोह को छोड कर उन्होंने जंगल की राह ले ली। वह कौनना वडा सुन या-जिलको प्राप्त करने के लिए महावीरने सन्यास की इस कठिन नपस्या को स्वीकार किया। वह सुख सत्य का
वास्तविक सौन्दर्य था । जिसको प्रामा करने के लिए महावीर ने __• इतनी बडी बड़ी विभूतियों को कुछ भी न समझा।
दीक्षा के समय से लेकर कैवल्य प्राप्त तक अर्थात् लगभग बारह वर्ष तक भगवान महावीर ने मौन स्वीकार किया था। उनके चरित्र का यह अरा अत्यन्त बाधक और अमूल्य शिक्षाश्री मे युक्त है । बारह वर्ष तक उन्होंने किसी को किसीखास प्रकार का उपदेश न दिया। महावीर के पास उम समय कैवल्य को छोड़ कर शेष चार जान विद्यमान थे । इन्हीं ज्ञानो के सहारे यदि वे चाहत तो लाखो भटकते हुए प्राणियों को मार्ग पर लगा मकते थे। पर ऐसा न करते हुए सर्व प्रथम उन्होने अपना निजी हितसाधन के निमित्त मौन धारण करना ही उचित समझा। महावीर स्वामी को स्वीकार की हुई इस बात के अन्तर्गत बड़ा रहस्य छिपा हुआ मालूम होताहै,।
श्रात्मा जितने ही अंशों में पूर्णता को प्राप्त कर लेती है जितने ही अंशों में वह परमपद के समीप पहुँच जाती है उत्तने
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१३४ प ही अंशो तक मनुष्य जाति का हित करने में समर्थ हो सकती है। जिसके जीवन की सैकड़ो बाजुएं दोषयुक्त होती हैं वह यदि दूसरों के सुधारने का बीड़ा लेकर मैदान में उतरता है तो उससे सिवाय हानि के किसी प्रकार का लाभ सम्पन्न नहीं हो सकता।
अपने अन्तःकरण की कालिमा को दूर किये बिना ही दूसरे के अन्तःकरण को शुद्ध करने का प्रयत्न करना एक कोयले से दूसरे कोयले को उज्वल करने की चेष्टा से अधिक महत्व का नहीं हो सकता । अपनी आत्मा को पूर्ण शुद्ध किये के पश्चात् अपने ज्वलन्त उदाहरण के द्वारा दूसरो का हितसाधन करने मे जितनी सफलता मिलती है, उतनी अपूर्णावस्था में अत्यन्त उत्साह और आवेग से कार्य करने पर भी नहीं मिल सकती, पूर्णता से युक्त व्यक्ति थोड़े ही प्रयत्न के बल से हजारो मनुष्यो के हृदयों में गहरा असर पैदा कर सक्ता है, पर अपूर्ण मनुष्यो का पागलपन से भरा हुआ परहित-साधन का आवेग सेमर के फूल की तरह बाहरी रङ्ग दिखा कर अन्त मे फट जाता है और उसमे से थोड़ी सी रूई इधर उधर उड़ती नजर आती है । बाहा आडम्बर चाहे जितना चटकीला और पालिश किया हुआ हो, पर जब तक उपदेशक के अन्तःकरण से विकार और न्यूनताएं दूर न हो जाती, तब तक जनता के हृदय पर उसका स्थायी असर नही हो सकता । मनुष्य के अन्तःकरण में ज्ञान का दीपक जितने अशो में प्रकाशित है, उतने ही अशों में वह दूसरे को भी प्रकाश में ला सकता है। अपना स्वहित साधन किये के बिना ही जो लोग दूसरो का हित साधन करने की मूर्खता करते हैं, उनकी इस
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भगवान् महावीर निर्बलता पर अपना उदाहरणरुप अंकुश लगाने के लिये ही भगवान महावीर ने इतना लम्बा मौन धारण किया होगा।
भगवान् महावीर का भ्रमण पौराणिक ग्रन्थों के अन्तर्गत भगवान महावीर का भ्रमणवृतान्त भी लगभग वैसी ही अलङ्कारपूर्ण भाव में वर्णित है जैसा उनकी जीवनी का दूसरा अंश है। दीक्षा लिये के बाद लगभग बारह वर्ष तक उन्हें कैवल्य रहित अवस्था में भ्रमण करना पड़ा था। इन बारह वर्षों में उन पर आये हुए उपसगों का बडी ही सुन्दर भाषा में वर्णन किया गया है। उनके उन असह्य कठों के वर्णन को पढ़ते पढ़ते चाहे कितना ही कठिन हृदय क्यों न हो, पिघले बिना नहीं रह सकता । ___सम्भव है महावीर पर आये हुए उपसर्गों का अतिशयोक्ति पूर्ण वर्णन पुराणकारों ने किया हो, पर इसमे तो सन्देह नहीं कि उन बारह वर्षों के अन्दर महावीर पर कठिन से कठिन विप. त्तियों का समूह उतरा होगा । महावीर परही क्यो प्रत्येक मुमुक्षु. जन पर ऐसी स्थिति में उपसर्ग आते हैं, और अवश्य आते हैं। केवल पुगण ही नहीं, तत्व-ज्ञान भी उस बात का समर्थन करना है।
श्रात्मा ज्यों ज्यों मोक्ष के अधिकाधिक समीप पहुँचने की चंष्टा में रत होती है। जिस प्रकार किसी विश्वासपात्र सेठ के घर पर भी दिवाला निकलते समय लेनदारो का एक साथ तकाजा आने लगता है। उसी प्रकार मोक्षाभिमुख आत्मा को उसके उपार्जित किए हुए पूर्व कर्म एक साथ इकट्ठे होकर फल
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१३६ प्रदान करने लग जाते हैं । वे एक साथ अपना चूकता कर्ज वसूल करने को तैयार हो जाते हैं। मोक्ष के मार्ग में विचरण करने चाली आत्मा को कई बार असाधारण संकटो का सामना करना पड़ता है इसी तत्व को साधारण लोगों में प्रचलित करने के निमित्त अनेक उत्तम ग्रन्थकारों ने "उपमिति-भवप्रपच कथा" "मोहराजा का रास" "ज्ञान सूर्योदय नाटक" आदि ग्रन्थों का निर्माण किया है। इन ग्रन्थो के द्वारा उन लोगों ने यह बात स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है कि मोक्ष मार्ग के पथिक के मार्ग में मोहराजा के सुभट हमेशा अनेक विघ्न डालते रहते हैं। जो दर्शन-शास्त्र ईश्वर को सृष्टि का कर्ता मानते हैं वह इसी बात में "प्रभु भक्तो की परीक्षा लेते हैं, " आदि रूप में कहते हैं। कोई उसको रक्त बीज और कोई उसको (Dwellers on the thresh hold ) कहते हैं । मतलब यह कि मोक्ष मार्ग से अग्र. सर होने वाले व्यक्ति के मार्ग में अनेक कष्टों की परम्परा उपस्थित होती रहती है।
लेकिन इसी की दूसरी बाजूपर एक बात और भी है। जिससे यह कठिन समस्या कई अंशो में आसान हो जाती है। वह यह है कि उन लोगो पर आये हुए कष्ट हम लोगो की दृष्टि में जितने भयङ्कर जंचते हैं, हम लोगों की क्षुद्र एवं ममता-मयी निगाह में उनका जितना गम्भीर असर होता है, उतना असर उन लोगो पर जो मोक्षपथ के पथिक हैं, एवं जिनका दैहिक मोह शांत हो गया है, नहीं होता । जिस स्थिति को केवल शास्त्रों में पढ़कर ही हमारा हृदय थर्रा उठता है। उस स्थिति का प्रत्यक्ष रूप से अनुभव करते हुए भी वे उतने नहीं हिचकते। इसका
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बड़ा ही गम्भीर कारण है। हमलोग संसारी जीव हैं, हमलोग हमारी देह को अपनी आत्मा से भिन्न समझते हुए भी उसके सुख दुःख को आत्मा का सुःख दुख हो समझते हैं । हमलोग आत्मा और देह के अनुभव को जुदा जुदा नहीं समझते, और इसी कारण ये दैहिक उपसर्ग भी हम लोगों की आत्मा को थ देते हैं । इन्हीं उपलगों में हम "अह्तत्व" की कल्पना कर महा दुखी हो जाते हैं । पर जिन महान् आत्माओ के रोम रोम मे बड़ निश्चय कूट कूट कर भरा हुआ है कि देह और देहके धर्म तीन काल में भी श्रात्मा के नहीं हो सकते हैं । जिनके हृदय मे पत्थर की लीक की तरह यह सत्य जमा हुआ है कि देह और आत्मा जुदी जुदी वस्तु है, उनके स्वभाव भी जुड़े जुदे हैं। उनकी श्रात्मा को यह शारिरिक उपसर्ग किस प्रकार विचलित कर सकते हैं, एवं कष्ट पहुँचा सकते हैं ।
मनुष्य के जितने भी अशों में देहादिक पुद्गलो का अभाव हता है उतने ही शो मे शरीर के सुख दुखादि कर्म उसकी श्रात्मा पर अमर करते हैं और उसी हदतक शास्त्रकारो ने मोहनीय और वेदनीय कर्म को प्रकृतियों को जुदी जुदी बतलाई
। अर्थात जितने शो मे मोहनीय कर्म का प्राबल्य होता है, उतने ही अशां में वेदनीय कर्म आत्मा पर असर करता है । मोहनीय कर्म के शिथिल पडते ही वेदनीय कर्म नहीं के समान हो जाता है । यदि हम वेदनीय कर्म को एक विशाल पाटवाली नदी और मोहनीय कर्म को उसमें भरा हुआ जल मानले तो यह विषय और भी स्पष्ट हो जायगा । जिस प्रकार चाहे जितने ही विशालपाट वाली नदी भी जल के बिना किसी चीज को वहा ले
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जाने मे असमर्थ है, उसी प्रकार बिना मोहनीय कर्म के वेदनीय कर्मका उदय भी आत्मा को सुख दुख का अनुभव करवाने मे समर्थ रहता है ।
इस कथन का यह मतलब कदापि नहीं है कि ज्ञानी को कष्ट होता ही नहीं, प्रत्युत इसका तात्पर्य यही है कि उस कष्ट का अनुभव उसकी अवशिष्ट रही हुई मोहनीय कर्म की प्रकृतियों के अनुसार ही होता है । सुख दुख की लागणों का मूल मोहनीय कर्म है । वह जितना ही अधिक प्रबल होता है उतने ही अंशों मे आत्मा भी शरीर के सुख दुख का अनुभव करती है ।
महावीर के दीक्षाकाल में जिन जिन उपसर्गो का प्रार्दुभाव हुआ है उनको भी हमें इसी दृष्टि से देखना चाहिये। उनका मोहनीय कर्म क्षीण प्रायः हो चुका था और इस कारण उन कष्टों मे जितनी आत्म-वेदना का अश हमारी विमुग्ध दृष्टि को अनुभव होता है उतना उनकी आत्मा को नहीं हो सकता था। एक ही प्रकार का किया हुआ प्रहार जिस प्रकार सवल और निर्बल मनुष्य के शरीर पर भिन्न भिन्न प्रकार के असर पैदा करता है उसी प्रकार एक ही प्रकार का संकट, ज्ञानी और अज्ञानी की आत्मा पर भी भिन्न भिन्न प्रकार से असर करता है । भगवान् महावीर के कानों में गुवाले के द्वारा ठोके गये कीलों की कथा पढ़ कर आज भी हमारे हृदय से आन्तरिक चीख निकल पड़ती है, पर इसी घटना का खुद अनुभव करते हुए भी महावीर रंच मात्र विचलित नही हुए । उनका ध्यान तक इस घटना से नहीं टूटा, क्योकि वे महावीर थे । उनकी सहिष्णुता हम से बहुत बढ़ी चढ़ी थी। वे उत्कृष्ट श्रेणी के योगी थे। हम लोग कई बार दूसरे पर
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बीती हुई आपत्ति का अनुमान अपनी स्थिति के अनुसार कर लेते हैं पर इस प्रकार का अनुमान करते समय हम यह भूल जाते हैं कि भोक्ता की स्थिति भी हमारे समान राग द्वेष मयी एवं कमजोर है, या उसमें हमारी स्थिति से कुछ विशेषता है । हम उस पर बीती हुई आपत्ति को अपने मोह-मय चश्मे से देखते हैं और इसी कारण एक गहरी भूल में पड़ जाते हैं । भगवान् महावीर पर बीती हुई इन आपत्तियों की कल्पना हम हमारे चश्मे से देख कर उनकी सहिष्णुता की स्तुति करते हैं पर इसके साथ हम उनकी मोह विहीन आत्मस्थिति, देह विरक्ति और अगाध आत्मबल को कल्पना करना भूल जाते हैं । यदि हम उस सहिष्णुता के उत्पति स्थान अगाध श्रात्मवल को देखें तो आत्मा के किसी विशेपगुण की स्तुति करने के साथ साथ यदि हम उस वस्तु का अध्ययन करे जहां से कि उस गुण का उद्गमन हुआ है तो हमारी वह स्तुति विशेष फल प्रदायक नहीं हो सकती। महावीर के जीवन का महत्व उनकी इस कष्ट सहिष्णुता मे नहीं है । प्रत्युत उस आत्मबल और देह विरक्ति मे है जहां से इस गुण का और इसके साथ साथ और भी कई गुणों का उद्गम हुआ है । यदि हम इस उद्गम स्थान के महत्व को छोड़ देते हैं तो महावीर के जीवन में रहा हुआ आधा महत्व नष्ट हो जाता है ।
बड़ा लाभ हो ।
मतलब यह है कि महावीर पर बड़े बड़े भयङ्कर दैहिक उपसर्ग आये थे, वे उपसर्ग इतने भयङ्कर थे कि जिनको पढ़ने से ही हमारी आत्मा कांप उठती है । पर भगवान के उत्कट आत्मबल के सन्मुख वे उपसर्ग उसी प्रकार फीके पड़ गये जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश के सामने चन्द्रमा का बिम्ब पड़ जाता है । अपने
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अनन्त तेज के सन्मुख प्रभु ने उन उपसर्गो को हीनप्रभा कर दिया। उन्होंने उनकी रंच मात्र भी परवाह न की।
एक वार भगवान महावीर "कुमार" नामक ग्राम के समीपवर्ती जंगल मे गये, वहां नासिका पर दृष्टि रख कर वे कायोत्सर्ग में खड़े थे । इतने ही में एक गुवाल दो चैलो के साथ वहां निकला । उसे कोई जरूरी काम था, इसलिये वह बैलो को भगवान के समीप छोड़ कर चला गया। इधर बैल चरते चरते कुछ दूर चले गये तव वह गुवाला लौटा । उसने महावीर को चैलो के विषय में पूछा पर प्रभु तो ध्यान में खड़े थे, उन्होने उसका कोई उत्तर न दिया। वह बैलो को ढूंढते ढूंढते दूसरी ओर निकल गया। दैवयोग से बैल फिरते फिरते पीछे महावीर के पास आकर खड़े हो गये। इधर ग्वाल भी दूढ़ता ढूंढ़ता फिर वहीं आ पहुंचा। वहां पर अपने बैलों को देखकर उसे यह सन्देह हुआ कि इस तपस्वी की नियत खराब मालूम होती है । इसने मेरे बैलो को छिपा दिये थे, ओर मौका पाकर यह इन्हे उडाले जाने की फिक्र करता है। यह सोच कर वह भगवान को मारने लगा । यह घटना अवधिज्ञान के द्वारा इन्द्र को मालूम हुई और वह तत्काल ही वहां आया। उसने उस गुवाले को समझा बुझा कर बिदा किया और हाथ जोड़ भगवान से कहने लगा-हे भगवन् १ अभी बारह वर्षों तक आप पर इसी प्रकार उपसों की वर्षा होने चाली है। यदि आप आज्ञा करें तो मैं उनका निवारण करने के निमित्त सेवक की तरह आपके साथ रहूँ। भगवान ने शान्त भाव से उसे उत्तर दिया “तीर्थकर" कभी अपने आप को दूसरे की सहायता पर अवलम्बित नहीं रहते। वे अपनी ताकत से,
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जानअपनी शक्ति से, अपने प्रात्मवल से उपसर्गों का, वाधाओ का मामना कर शान्ति पूर्वक उन्हें सहन करते हैं। वे दूसरे की मदद में कमी केवलनान प्राप्त नहीं करते।"
महान प्रात्माएं आत्मसिद्धि में आने वाले उपसगों का कभी अपनी लब्धियों से या शक्तियों से सामना नहीं करतीं। वे इन विनों के नाम में किसी प्रकार की देवी अथवा मानवीय महायता नहीं लेनी। क्योंकि वे भली-प्रकार तत्वज्ञान के इस म्हन्य जानती हैं कि निकांचित् कर्मों का फल कितना हो
चालन्धि कारक क्यों न हो उमे भोगना ही पड़ता है। साधानग नय कम दो प्रकार के होते हैं। एक तो वे जो तपस्या के पल ने अथवा मंयम की शक्ति से जल जाते हैं। इसके अतिरिन इन प्रकार के कर्म वे जिन्हें निकांचित् कहते हैं वे ऐसे होते है जिनका फल श्रात्मा को भोगना ही पड़ता है । वे नपत्या वगैरह से निवृत नहीं हो सकते। भगवान महावीर सिलासी के इस रहस्य को जानते थे। वे जानते थे कि फलप्रदायी सत्ता का निरोग तेरहवें गुण स्थान में विहार करने वाले मुनियों ने भी होना असम्भव है, यह इन्द्र तो क्या चीज़ है। और यही कारण है किमहावीर ने इन्द्र की प्रार्थना को अस्वीकार कर दिया। भक्तिभाव से प्रेरित हुए, इन्द्र को प्रभु के शरीर से ममता थी और इसी कारगग उमने यह प्रार्थना की। पर प्रभु महावीर के भाव से तो यह शरीर नितान्त तुच्छ था, ऐसी हालत में वे इन्द्र की प्रार्थना को क्या खोसार करने लगे, उनकी आत्मा, आत्मावाले उपसगों से ननिक भी भयभीत न थी । उनका अगाध आत्मवल किसी की मदद की अपेक्षा पर निर्भर न था, कमों को जीतने के लिए
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प्रभुने जिस उत्कृष्ट चरित्र का पालन किया वह चरित्र चाहे जिस आत्मा को मुक्त करने में समर्थ हो सकता था ।
हिमालय के समान निश्चल परिणामी, सागर के समान गम्भीर, सिंह के समान निर्भय, आकाश की तरह उन्मुक्त, कच्छप की तरह इन्द्रियो को गुप्त रखने वाले, मोह से अजेय, सुख और दुख में सम भावी, जल में स्थित कमल की तरह, संसार के कीचड़ में विचरण करते हुए भी पवित्र असंखलित गतिवाले, भगवान महावीर अपने कर्मों की निर्जरा करते हुए विचरस करने लगे ।
गुवाले की इस घटना के पश्चात् भगवान महावीर पर और भी कई भयङ्कर उपसर्ग आये, जिनका वर्णन आगामी खण्ड मे किया जायगा | यहां पर एक दो मुख्य मुख्य उपसर्गों का चर्णन करते हुए यह बतलाने का प्रयत्न करेंगे कि उनसे हमें क्या शिक्षा मिल सकती है ।
एक बार भगवान महावीर "श्वेताम्वरी” नगरी की ओर चले, मार्ग में एक गुवाल के पुत्र ने उनसे कहा "देव" यह मार्ग "श्वेताम्बरी" को सीधा जाता है पर इसके मार्ग में एक भयङ्कर दृष्टिविष सर्प रहता है। उसके भयङ्कर विप प्रकोप के कारण उस जमीन के आस पास पक्षियों तक का सभ्चार नहीं है, केवल वायु ही उस स्थानपर जा सकती है । इसलिये कृपा करके इस मार्ग को छोड़ कर उस मार्ग से चले जाईये, क्योंकि जिस कर्ण फूल से कान टूट जायं वह यदि सोनेका भी हो तो किस काम का ? गुवाले की बात सुन कर परम योगी : महावीर ने अपने दिव्यज्ञान से उस सर्प को पहचाना। उन्हें मालूम हुआ कि वह
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सर्प भव्य है, सुलभ बोधी है, किसी भयङ्कर अनिष्ट को कर प्रकृति के उदय से वह अभव्य की तरह दृष्टिगोचर हो रहा है, पर वास्तव में वह ऐसा नहीं है । वह थोड़े ही परिश्रम से सुमार्ग पर लगाया जा सकता है । चल्कि जितनी प्रबल शक्ति को वह कुमार्ग पर व्यय कर रहा है उतनी ही सुमार्ग पर भी कर सकता है ।
किसी भी प्रकार की बलवान मनःस्थिति फिर चाहे सुमार्ग पर लगी हो, चाहे कुमार्ग पर बहुत उपयोगी हुआ करती है । क्योंकि दोनों स्थितियां समान शक्ति सम्पन्न होती हैं । उस प्राणी की स्थिति से जिसके पास की शक्ति बिल्कुल ही नहीं, उससे उस प्राणी की शक्ति विशेष उत्तम है, जिसकी प्रबल शक्ति कुमार्ग पर लगी हुई हो क्योंकि कुमार्ग पर लगी हुई शक्ति तो थोड़े ही प्रयत्न से सुमार्ग की थोर मोड़ दी जाती है और वह अभव्य प्राण थोड़े ही प्रयत्न से भव्यता की ओर झुका दिया जा सकता है । पर जिसके पास शक्ति हो नहीं है- जो पापारण- प्रतिमा की तरह निश्चल अकर्मण्य है जो पाप पुन्य से रहित एव गति हीन है । उसमें नवीन शक्ति का उत्पन्न करना अत्यन्त कष्ट साध्य है । उसी की दशा सब से अधिक शोचनीय है । हम लोग तीव्र अनिष्ट कारक प्रवृति की निन्दा करते हैं उसे धिक्कारते हैं, पर उसके साथ इस बात को भूल जाते हैं कि यह शक्ति जितनी तीव्रता के साथ श्रनिष्टकारक कृत्य कर सकती है, यदि इष्ट कारक काय्यों की ओर झुका दी जाय तो उन कामों में भी वह उतनी ही प्रतिभा दिखला सकती है। जैन दर्शन में इसीलिए इस तत्व की योजना की गई है कि जो आत्मा तीव्र अनिष्ट कारक शक्ति के प्रभाव से
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स सातवे नरक मे जा सकती है, वही उसी शक्ति को दूसरी ओर मोड़ कर मोक्ष मे भी जा सकती है। जिसके अन्दर सातवां नरक उपार्जन करने के लिये परियाप्त पाप करने की शक्ति नहीं है, वह मोक्ष प्राप्त करने की शक्ति भी नहीं रख सकता । जिसके अन्तर्गत पाप करने की पर्याप्त शक्ति है वही पापा को काट कर मुक्ति भी प्राप्त कर सकता है।
भगवान महावीर इस सिद्धान्त को भली प्रकार जानते थे, यदि वे न जानते होते तो उन्हे उस भयकर मार्ग से जाने की कोई आवश्यकता नहीं रहती। पर उनकी प्रकृति हमेशा परोपकार ही की ओर लगी रहती थी। उनका ध्येय ही इस प्रकार के अभन्य और कुमार्ग-गामी जीवों को सुमार्ग पर लगाने का था। उनका अवतार ही मनुष्य जाति का उद्धार करने के निमित्त हुआ था। और इसी प्रकृति के कारण सर्प का उद्धार करने की इच्छा का होना स्वाभाविक ही था। वे जानते थे कि किसी शक्ति की विकृतावस्था उसकी अयोग्यता का लक्षण नहीं है। जिस जल के प्रवल पूर में आकर सैकड़ों हजारो ग्राम बह जाते है, उसी जल से सृष्टि का पालन भी होता है। जिस दृष्टि विष सर्प की क्रोध जाला के कारण गगन विहारी पक्षी भी भस्म हो जाते हैं, उसी सर्प के हृदय में कोशिश करने पर शान्ति और क्षमा की मधुर धारायें भी बहाई जा सकती हैं ।
'भगवान महावीर ने यह सोचकर उस गुवालवाल के के कथन की परवाह न की। वे शान्ति पूर्वक उसी स्थान की ओर बढ़े और उस सर्प के निवास स्थान के पास आकर कायोत्सर्गध्यान लगा शान्ति पूर्वक खड़े हो गये। कुछ समय के पश्चात्
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M
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भगवान् महावीरको देखकर चण्डकौशिक सर्पने भयकर फुफकार मारी जिमसे मारा वायुमण्डल नीला हो गया और गगनविहारी पची धगशाई हो गये ।
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भगवान् महावार वह सर्प बाहर निकला, वीरप्रभु को वहां खड़े देख कर वह क्रोध में आग बबूला हो गया। वह सोचने लगा कि मेरे राज्य के अन्तर्गत यह मानव-ध्रव की तरह स्थिर होकर कैसे खड़ा है।
क्रोध मे आकर उसने भयकर रूप से एक फुफकार मारी जिसके प्रताप से उसके आस पास का सारा वायु-मण्डल नौला
और ज्वालामय हो गया। आस पास के पक्षी और छोटे बड़े जीव चित्कार करके धराशायी हो गये । इतने पर भी उसने आश्चर्य मे देखा कि वह मानव ज्यो कात्यों ध्यानस्थ खड़ा है, उस भयंकर पुकार ने उसकी देह पर रंच मात्र भी असर नहीं किया। इससे उसने और भी अधिक क्रोध मे आकर जोर से भगवान के अँगूठे पर काटा । पर फिर भी आत्मवल के प्रभाव से उस विप ने और आसपास की ज्वाला ने भी भगवान् के शरीर पर कुछ असर न किया।
बुद्धिवाद के इस युग में सहसा लोग इस बात पर विश्वास न करेंगे-पर हमारी समझ में इस घटना में विशेष असम्भनता की छाया नहीं है। हम प्रत्यक्ष में देखते हैं कि साधारण से साधारण लोग अपने मंत्र-बल के प्रभाव से बड़े बड़े सपों को पकड़ लेते हैं, काटे हुए सर्पका विप उतार देते हैं, और सर्प के काटने का उनपर कुछ भी असर नहीं होता। जव साधारण मंत्र-बल की यह बात है तो एक ऐसे महानयोगी के शरीर में जिसका प्रात्मवल उच्चता की पराकाष्टा पर पहुंच चुका है-यदि सर्प का विष असर न करे तो उसमे कोई विशेप आश्रयं की बात नहीं ।
इस घटना से सर्प बड़ा ही अश्वियं-चकित हुभा-। बह घड़ी
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भगवान् महावीर
१४६ परा ही मुग्ध दृष्टि से परमयोगीश्वर की ओर देखने लगा । वह देखता क्या है कि उस पवित्र मुखमण्डल पर इन कृत्यो के प्रति लेशमात्र भी क्रोध की छाया नहीं है। उस सुस्मित वदन पर इतनी घटना के पश्चात् भी शान्ति, क्षमा और दया के उतने ही भाव वरस रहे हैं । सर्प उस राग द्वेप हीन प्रतिमा को देख कर मुग्ध हो गया, उसने ऐसी मूर्ति आज तक नहीं देखी थी। उस दिव्यमूर्ति के प्रभाव से उसके हृदय में भी क्रोध के स्थान पर शान्ति और नमा की धारा वहने लगी। उसे इस प्रकार सुधार की ओर पलटते देखकर महावीर बोले "हे चण्ड कौशिक ? समझ ! समझ !! मोह के वश मत हो । अपने पूर्वभव को स्मरण कर
और इस भव मे की हुई भूलों को छोड़कर कल्याण के मार्ग पर प्रवृत्त हो।'
यह सुनते ही उस सर्प को जाति स्मरण हो आया ! पूर्वभव ने वह एक मुनि था। एक वार उसके पैर के नीचे एक मेंढक कुचल कर मर गया था। इस पर उसके शिष्य ने कहा था कि “गुरूजी आप मेंढक मारने का पश्चात्ताप क्या नहीं कर लेते। इस पर क्रोधित होकर उस मुनि ने कहा "मृर्ख ! मैंने कव मेढक मारा" ? यह कह कर वह क्षुल्लक को मारने के लिये दौड़ा। रास्ते मे एक खम्भे से टकरा जाने के कारण उसकी मृत्यु हो गई
और तीव्र, क्रोध प्रवृत्ति के उदय के कारण वह इस भव में उपरोक्त सर्प हुआ । यह नियम है कि जो जिस प्रवृत्ति की अधिकता के साथ मृत्यु पाता है-वह उसी प्रवृति वाले जीवों में जन्म लेता है। कोई महाकामी यदि मरेगा तो निश्चय है वह कबूतर, चिड़िया कुत्ता आदि नीच कोटि में जन्म लेगा, इसी प्रकार क्रोधी मनुष्य
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भगवान् महावीर भी सर्प, व्यान, सिंह आदि योनियों में जन्म लेता है। जाति, स्मरण हो जाने के कारण सर्प को मालूम हो गया कि इसी भीपण क्रोध प्रवृति के कारण मेरी यह गति हुई है। यदि अव इस प्रवृनि को न छोडूंगा तो भविष्य मे न मालूम और कितनी अधमगनि होगी। यह सोचकर उसने उसी दिन से उस क्रोध की प्रवृति का त्याग कर दिया। उसी दिन से वह एक वैरागी की तरह शान्त और निचल रहने लगा और अन्त में उसी स्थिति में मृत्यु पाकर वह शुम जाति में उत्पन्न हुआ।।
बहुत लोग किमी क्रोधी मनुष्य का क्रोव अपने क्रोध के द्वारा उतारना चाहते हैं, पर उनका यह मार्ग अत्यन्त भूल से भग हुआ है। हम देखते है कि क्रोध से क्रोध की ज्वाला दुगुनी होती है, जहर में जहर उतारने वाला वैद्यक शास्त्र का नियम इम स्थान पर कामयाब नहीं हो सकता। जिस प्रकार जलती हुई अग्नि में और अग्नि मिलाने से वह अधिक चमक उठती है, उसी प्रकार क्रोध का वटला क्रोध से देने से वह और भी अधिक बलन्त हो उठता है। जगत के अतर्गतहमनित्य प्रति जीवन-कलह के जो अनेक श्य देखा करते हैं वे इसी गलत नियम के भयंकर परिणाम हैं। क्रोध की अनमोल दवा क्षमा है। विना क्षमा की शीनल धार के पडे अग्नि शान्त नहीं हो सकती । यदि महावीरप्रभु उस साप के काटने के बदले में उसे मारने दौड़ते अथवा अपन तेजोवल से उसे भस्म कर देते तो कदापि वह स्वार्थ सिद्ध न होता, जो क्षमा के स्थिरेप्रभाव से हुआ।"
लेकिन आधुनिक जगत में इस क्षमा के भी कई अर्थ होने लगे हैं अत. इस स्थान पर इस शब्द का स्पष्टीकरण कर देना
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१४८ आवश्यक है। हम देखते हैं कि आज कल जो आदमी दूसरे बलवान का मुकाविला करने में असमर्थ होता है, वह चुप्पी साध कर अलग हो जाता है-कहता है मैंने उसे क्षमा कर दिया, पर क्षमा का वास्तविक अर्थ यह नहीं है। यह क्षमा तो कायरता का प्रति रूप है। जो प्रतिहिसा चुकाने में असमर्थ है उसकी नमा का मुल्य क्या हो सकता है। वास्तविक क्षमा उसे कहते हैं जो एक शक्तिशाली बुद्धिमान् की ओर से किसी दुर्वल प्रजानी पर उसके किये हुए अज्ञानमय कृत्यों के प्रति की जाती है। उस अज्ञानी के प्रतिकार . का पूर्ण वल रखते हुए भी उसके अज्ञान को दूर करने की सुभावनाओ से जो क्षमा करता है उसीकी क्षमा का महत्व है। उसी क्षमा के द्वारा जगत में से क्रोध की भावनाओं का नाश होकर शान्ति की स्थापना हो सकती है। भगवान महावीर यदि उस सर्प के विष से भयभीत होकर भगते हुए उसे क्षमा कर देते तो उस दशा में इनकी क्षमा का कुछ भी मूल्य न होता। न सर्प का ही उद्धार होता-न उनके ही प्राण वचते । पर उनके अन्दर ऐसी शक्ति थी कि जिसके प्रताप से सर्प उनका कुछ भी न कर सका। यदि वे चाहते तो उसका नाश कर सकते थे। ऐसी शक्ति की विद्यमानता मे भी उन्होंने उस स्थान पर उसका उपयोग न किया और उसके प्रति क्षमा की अमोघ औषधि का व्यवहार कर उसका कल्याण पर दिया । महावीर के जीवन का वास्तविक सौन्दर्य इसी प्रकार की घटनाओं के अन्दर छिपा हुआ है। . एक दिन महावीर गंगा नदी उतरने के निमित्त दूसरे पथिको के साथ नौका पर आरूढ़ हुए। नौका जब नदी के मध्य में पहुँच
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भगवान् महावीर गई तब उनके पूर्व भव के बैरी की एक आत्मा जो सुदृष्ट दैन की योनि मे वहां रहती थी अपनी पूर्ण शत्रुता का स्मरण हो आया । यह देव पूर्व भव में एक सिंह था और महावीर "त्रिपुष्ट " नामक मनुष्य पर्याय में थे। उस समय उन्होने एक मामूली कारण के वशीभूत होकर सिंह को मार डाला था । छोटे छोटे कारणों के वशीभूत होकर जो लोग किसी प्राणी के बहूमूल्य प्राणों को हरण कर लेता है उसका बदला "कर्म की सत्ता " बहुत ही शक्ति के साथ चुकाती है । त्रिपुष्ट को जितना जीने का अधिकार प्रकृति से प्राप्त हुआ था उतना ही सिंह को भी प्राप्त था । कर्म की सत्ता ने जितनी आयु उस सिंह के निमित्त निर्धारित कर रक्खी थी उसे बोच ही में खण्डित करके त्रिपुष्ट ने प्रकृति के नियम में एक प्रकार की विश्रृंखला उत्पन्न कर दी थी। प्रकृति के किए हुए उस अपराध का बदला नियत समय पर त्रिपुष्ट की आत्मा को मिलना अनिवार्य्य था । मनुष्य का कर्त्तव्य अपने से हीन श्रेणी के जीवों की रक्षा करने का है । उसको अपने अधिकार और चल का प्रयोग अपने से नीची श्रेणियों के प्राणियों की रक्षा करने मे करना चाहिये । यदि वह अपने इस पवित्र कर्त्तव्य के पालन में त्रुटि करके प्रकृति की साम्यावस्था में किसी प्रकार की विषमता उत्पन्न करता है तो प्रकृति उस विषमता को पुन. साम्य करने का प्रयत्न करती है । इस प्रयत्न में कर्ता को अपने कृत्य का दंड भी भोगना पड़ता है । safarear को मिटाने में प्रकृति को जो समय लगता है उसे हमारे शास्त्रो में "कर्म की सत्तागत अवस्था" कहते हैं। इसके पश्चात् जिस समय में कर्ता की आत्मा के साथ प्रकृति का
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प्रत्याघात होता है और कर्ता को अपने कृत्य का उचित फल मिलने लगता है उस समय को हमारे शास्त्र “कर्मका उदय काल" कहते हैं । “कर्म की सत्तागत" अवस्था में ही यदि आत्मा सावधान होकर तपस्या के द्वारा अपने कृत्य का प्राश्चित कर लेती है तो वे कर्म न्यून बल हो जाते हैं। सत्तागत अवस्था मे तो वे पश्चाताप या तपस्या की अग्नि से भस्म किये जा सकते हैं पर 'उदय काल के पश्चात् निकाचित अवस्था में तो उनका फल भोगना अनिवार्य हो जाता है । उस समय न तो पश्चात्ताप की "हाय" ही उन्हें दूर कर सकती है और न तपस्या की ज्वाला ही उन्हें भस्म कर सकती है । अस्तु !
भगवान् महावी
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महावीर को देखते ही सुदृष्ट ने पूर्व जन्म का बदला लेना प्रारम्भ किया । उसने नदी के अन्दर भयङ्कर तूफान पैदा किया । नदी का जल चारो ओर भयङ्कर रूप से उछलने लगा | नौका के बचने को बिल्कुल आशा न रही। उसमें बैठे हुए सब लोगों ने जीवन की आशा छोड़ दी । इतने ही में कम्वल और सम्बल नामक दो देव वहाँ पर आये । भगवान् की भक्ति से प्रेरित होकर उन्होंने उसी समय तूफान को शान्त कर दिया, और नाव को किनारे पर पहुँचा कर वे उनकी स्तुति करते 1 हुए चले गये । इस विकट समय में भी वीर भगवान् ने सुदृष्ट
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देव के प्रति किसी प्रकार का द्वेष या उन दोनो देवो के प्रति
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किसी प्रकार का रागजन्य भाव नहीं दिखलाया । देह सम्बन्धी सुख व दुःख से वे हर्ष व शोक के वशीभूत न हुए। वे जानते
थे कि सुख और दुःख के उत्पन्न होने का कारण
नियम है । ये दोनो देव भी स्वय पूर्व कारण
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प्रकृति का को कार्य्य रूप मे
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पाल्पा परिणित करने के हथियार-मात्र थे, और इस कारण सुष्ट की निन्दा का या इनकी स्तुति का कोई कारण न था। वायु जिस प्रकार सुगन्धित और दुर्गन्धित पदार्थों की गन्ध को रागद्वेप हीन भाव से लेकर विचरती है-उसी प्रकार महात्मा लोग भी सुख और दुःख दोनों के देनेवाले पर समान भाव रखते हैं।
एक बार भगवान् महावीर विहार करते हुए “पढाणा" नामक ग्राम के समीप पहुँचे । वहाँ पर एक वृक्ष पर वष्टि जमा कर वे कार्यात्सर्ग भाव से समाधिस्थ हो गये। उस समय इन्दने अपनी सभा में उनके चरित्र बल की बहुत प्रशंसा की, उस प्रशंमा को सुन कर उस सभा मे स्थित “सङ्गम" नामक एक देर जल उठा । उसने सोचा कि देव होकर भी इन्द्र एक साधारण मानव-योगी की इतनी अधिक स्तुति करता है, यह उसकी कितनी अनाधिकार चेष्टा है। अवश्य मैं उस तपस्वी के चरित्र को भ्रष्ट कर इन्द्र के इस कथन का प्रतिवाद करूगा। इस प्रकार की दुष्ट भावनाओ को हृदयगम कर वह देव भगवान महावीर के पास आया । उसने छः मास तक प्रभु पर जिन भयर उपसर्गों की वर्षा की है-उसे पढ़ते पढ़ते हृदय कांप उठता है। सब से पहले तो उसने भयङ्कर धूल की वर्षा की। उस रज-वृष्टि के प्रताप से भगवान का सारा शरीर ढक गया, यहाँ तक कि उन्हें श्वासोच्छ्रास लेने में भी बाधा होने लगी, पर तो भी टैहिक मोह से विरक्त हुए महावीर उस विकट संकट में भी पर्वत की तरह स्थिर रहे । उसके पश्चात् उसने भयङ्कर चीटियो और डांसों को उत्पन्न कर के उनके द्वारा प्रभु को
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डसवाया । उसके पश्चात् उसने भयङ्कर विच्छू, नेवले, सर्प, उत्पन्न कर के उनके द्वारा प्रभु को कष्ट दिया, पर जगत्बन्धु, दीर्घ तपस्वी महावीर इन भयङ्कर उपसगों से रथ मात्र भी विचलित न हुए। वे इन उपसगों की आत्मा मे रत्ती मात्र भी खेद न उपजाते हुए सहन कर रहे थे । इसी स्थान पर आकर महावीर जगत् के लोगों से आगे बढ़ते हैं । इसी स्थान पर श्राकर उनका महावीरत्व टपकता है । ऐसे विकट समय में भी जो व्यक्ति अपने धैर्य से लेरा मात्र भी विचलित न हो, इतना ही नहीं, ऐसे भीपण शत्रु के प्रति जिसके भावों में भी रश्च मात्र द्वेष उत्पन्न न हो, ऐसे उत्कट पुरुष को यदि संसार के लोग महावीर माने तो क्या आश्चर्य ।
यदि महावीर चाहते तो स्वयं अपनी शक्ति से अथवा इन्द्र के द्वारा इन उपसगों को रोक सकते थे, पर उन्होंने ऐसा करके प्रकृति के नियम मे क्रान्ति उत्पन्न करना उचित न समझा । यदि वे ऐसा करते तो उसका फल यह होता कि " सङ्गम" की अपेक्षा भी अधिक एक बलवान से प्रकृति के नियम को रोकना पड़ता, और जब तक प्रकृति मे पुनः साम्यावस्था उपस्थित न हो जाती, जब तक कर्म की सत्ता पुनः क्षीण न हो जाती, तब तक उनको कैवल्य प्राप्ति से वंचित रहना पड़ता ।
इसमें तो सन्देह नही कि विश्वासी जैन वन्धुओ को छोड़ कर आजकल का बुद्धिवादी समाज इन उपसर्गों को कभी सम्भव नहीं मान सकता । पर सङ्गम के किए हुए उन उपसर्गो में हमें मनुष्य प्रकृति का सुंदर निरीक्षण देखने को मिलता है । सङ्गम ने प्रभु को जिस भ्रम से कष्ट दिये थे, उनसे मालूम होता
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है कि वह मनुष्य प्रकृति के गूढ़ सिद्धान्तों से बहुत परिचित था, सबसे पहले उसने भगवान् महावीर को शारीरिक वेदना देना प्रारम्भ की, और ज्यो ज्यों वे वेदनाएँ निष्फल होती गई त्यों त्यो वह उनका रूप भीषण करता गया । मनुष्य की कल्पना शक्ति विनाश के जिन जिन साधनों की योजना कर सकती है, वे सब माधन उसने प्रभु पर आजमाए और अन्त में घबराकर उसने एक अत्यन्त वजनदार लोह का गोला उन पर फेंका। कहा जाता है कि उसके आघात से वे घुटने पर्यन्त पृथ्वी में घुस गये। इससे भरे जब उनके दिव्य शरीर को हानि न पहुँची, तब वह शारीfreeगों की ओर से प्रायः निराश हो गया। लेकिन एक प्रोर से निराश हो जाने पर भी उसने दूसरी प्रोर से आशा न छोड़ी. वह मनुष्य प्रकृति का गहरा पण्डित था, मनुष्य प्रकृति की निर्बल बाजुओं को वह पहचानता था। वह जानता था कि चंडे से बड़े महापुरुषों में भी कोई न कोई ऐसी कमजोरी होती है कि जिसमें किया हुया थोडा सा श्राघात भी असर दिखाता है, यह सोचकर उसने महावीर पर शारीरिक आपत्तियो की वर्षा बन्द कर मानसिक प्रहार करना प्रारम्भ किया, प्रतिकूल उपसर्गों को एक दम बन्द कर उसने अनुकूल उपसर्ग करना आरम्भ
किया।
प्रतिकूल उपसर्गों को सहन करने में बड़े भोपण साहस की दरकार होती है, फिर भी ऐसे उपसगों को सहन करने वाले योगी ससार में मिल ही जाते हैं, पर अनुकूल उपसर्गों पर विजय पाने वाले बहुत ही कम महापुरुष संसार में दृष्टिगोचर होते हैं । बामना, मोह, या काम ये ऐसी वस्तुएँ हैं जिनके फेर में पड़कर
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चड़े बड़े तपस्वियों की तपस्या स्खलित हो जाती है । शङ्कर सरीखे योगीराज और विश्वामित्र के समान तपस्वी भी इसके फेर में पड़ कर स्कलित हो गये थे । मनुष्य प्रकृति का यह विन्दु चहुत ही कमजोर रहता है इसी कारण हिन्दू धर्म शास्त्रों मे काम को सर्वविजयी कहा है । और इसी कारण भगवान के सच्चे भक्त दुखमय जीवन को ही अधिक पसन्द करते हैं। तपस्या मे प्रविष्ट होने वाला हिन्दू सबसे पहले ईश्वर से यही प्रार्थना करता है कि "हे प्रभु | कष्ट दायक उपसर्गों में मैं अपना स्वत्व प्रदर्शित करने में समर्थ हूँ, पर अनुकूल और वैभव युक्त स्थिति की परीक्षा मे शायद मै असमर्थ हो जाऊँ, इस कारण मुझे ऐसी 'परिस्थिति से हमेशा बचाये रखना ।"
" सङ्गम" इस निर्बलता के स्वरूप को भली प्रकार जानता था और इसी कारण उसने सब ओर से असफल होकर इस कठिन परीक्षा में भगवान् महावीर को डाला। उसने अपनी दैवी शक्ति से अनेक प्रकार के फल फूलों और कामोत्तेजक द्रव्यों से युक्त वसन्त ऋतु का आविर्भाव किया और उसके साथ कई ललितललनाओ की उत्पत्ति कर उसने कामसैन्य की पूर्ति की ।
अपने अनुपम सौन्दर्य की राशि से विश्व को विमोहित करने वाली अनेक सुंदर सलोनी रमणियां महावीर के आस पास 'आकर रास रचने लगी। नाना प्रकार के हावभाव, कटाक्ष और मोहक अङ्ग विशेष से वे अपनी केलि-कामना प्रकट करने लगीं । कई प्रकार के बहानों से वे अपने शरीर पर के वस्त्रों को ढीले करने लगीं, और बँधे हुए केशपाश को ऊँचे हाथ करके विखरने लगी। कुछ लावण्यवती वालिकाओं ने कामदेव के विजयी पुष्प
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चारण के समान दिव्य संगीत प्रारम्भ किया, और कोई प्रभु को गाट आलनिन थे, अपनी दीर्घ काल जनित विभोगामि को शांत फरने लगी, कोई अपनी लयकोली कमर के टुकडे करती हुई नाना प्रकार के हाव-भाव युक्त नृत्य करने लगी।
यदि कोई साधारगा फुल का तपस्वी-जिसने यौवनकाल में इस प्रकार के सुलों का अनुभव नहीं किया है-होता तो निधय था कि वह इम इन्द्र पुरी के नन्दनकानन को और उसमे विचरण करनेवाली मिलोलमयी रमग्गियों को देख कर तपस्या में बलित हो जाता। पर इस स्थान पर तो-जहाँ कि सद्गम अपनी विविध चेष्टाओं की प्राजमा रहा था-महावीर थे, ये वे
महावीर थे जिन्होंने अपने यौवन-फाल में इसी प्रकार के भोगों को गधी के माध भोगा था, और इनकी अपूर्णता को पूर्णतया समनफर एक दिन बहुत सन्तोप के साथ इनको लात मार हो थी, कैसे मम्भव था कि वही महावीर उन्ही भोगो की पुनगवृति पर गैमा जात । पतलब यह है कि सद्गम की यहचष्टा भी निरथंक ईवमय भागवती अपसराण प्रपनासा मुख लेकर चली गई।
पर साम महजही हारनेवाला देव न था, उस उपाय में भी प्रसफलता होते देख उसने एक नवीन कृत्य की योजना की। वहम बात को जानता था कि महावीर अपने मातापिता के बडे ही भक्त थे। उन्होंने अपनी उम्र में कभी मातापिता की आना का उल्लघन नहीं किया था। ऐसी स्थिति में यदि इस समय भी उनके माता-पीता के प्रति रूप में किसी को यहाँ उपस्थित किया जाय तो सम्भव है कि यह तपस्वी नपत्या से स्खलित हो जाय ।
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सङ्गम के विद्या-बल से तुरन्त ही राजा सिद्धार्थ और रानी त्रिशला वहाँ आ पहुँचे । त्रिशला ने आते ही महावीर के कन्धे पर हाथ रख कर कहा, "नन्दन | हम लोगों को दुखिया छोड़ कर तुम यहाँ कैसे चले श्राये। देखो तो मैं और तुम्हारे पिता तुम्हारे वियोग में कैसे जर्जित हो गये हैं, उठो लला घर चल कर प्रजा को और अपने माता पिता को सुखी करो।"
ये खेल सगम की दृष्टि में या अपनी दृष्टि में चाहे महत पूर्ण हों पर भगवान् महावीर की दृष्टि में तो बिल्कुल तुच्छ
थे; क्योकि वे तो जानते थे कि जब तक देव अपनी आयु को पूर्ण नहीं कर लेते, तब तक कही नहीं जा सकते । यह सङ्गम तो क्या-संसार की कोई महाशक्ति भी उन्हें यहाँ नहीं ला सकती। भला इस प्रकार के दिव्य ज्ञानधारी दीर्घतपस्वी महावीर ऐसे ऐन्द्रजालिक प्रलोभनो मे कैसे प्रा सकते थे।
बस इस अन्तिम चेष्टा के निष्फल होते ही सगम बिलकुल निराश हो गया। वह भली प्रकार समझ गया कि इन्द्र ने इनकी जितनी प्रशंसा की थी, प्रभु उससे भी अधिक महन् हैं। उनके शरीर और मनका एक भी अंश ऐसा निर्वल नहीं है कि जहाँ से किसी भी प्रकार की कमजोरी प्रविष्ट होकर उनकी तपस्या को भ्रष्ट कर डाले । अतएव वह निराश हो प्रनु की नाना प्रकार की स्तुति करके अपने स्थान पर चला गया । ___ एक बार महावीर विहार करते करते एक नगर के समीपवर्ती बन में आकर ठहरे, वहाँ पर मन वचन और काया का
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निरोध करके वे समाधिस्थ हो गये। उस मार्ग में एक गुवाल अपने दो वैलों को साथ लेकर निकला, उस स्थान पर आते
आते उसे किसी आवश्यकीय कार्य का स्मरण हो आया जिससे वह वैलों की रक्षा के निमित्त प्रभु को चेतावनी देकर पला गया । पर प्रभु को ध्यान में थे, उनका ध्यान गुवाल के उस कथन पर अथवा वैलों की ओर विलकुल न गया, और इसलिए उन्होंने उस गुवाल को कुछ भी उत्तर न दिया। इधर गुवाल भी "मौनं सम्मति लक्षणं" यह समझ कर चल दिया। दैवयोग से वैल चरते चरते वहाँ से कुछ दूर निकल गये । बहुत देर पश्चात् वह गुवाल पुन. वहाँ आया, वहाँ आकर उसने देखा कि उन दोनों वैलों का पता नहीं है। उसने भगवान् से बैलों के विषय में पूछा। पर प्रभु पहले ही के समान उस समय भी मौन रहे। उसने वार वार प्रभु से पूछा पर वे उसी अवस्था में मौन रहे। इससे उसे अत्यन्त क्रोध चढ़ आया। उसे उनको ध्यानस्थ अवस्था का रत्ती भर भी भान न था। प्रभु का यह मौन धारण उनके कर्म के उदय में निमित्त रूप हो रहा था। इस प्रसङ्ग पर गुवाल के द्वारा कर्म की फलदात्री सत्ता के उदय का काल आ पहुँचा था, प्रभु के पूर्वभव में किये हुए पापों का फल मिलने का अवसर विल्कुल समीप आ गया था। इस कष्ट की उत्पत्ति का कारण प्रभु ने त्रिपुष्ट वासुदेव के भव में उत्पन्न किया था। इस गुवाल का जीव उस समय त्रिपुष्ट वासुदेव का शैय्यापालक था। एक बार वासुदेव निद्रामग्न होने की तैयारी में थे, उस समय कई गायक उनके पास नाना प्रकार के
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१५८ सङ्गीत कर रहे थे । वासुदेव ने शय्यापालक को आज्ञा दी कि जव मै निद्रामग्न हो जाऊं तब इन गायकों को यहां से विदा कर देना। ऐसा कह कर कुछ समय पश्चात् निद्रामग्न हो गये। पर शैय्यापालक उस सङ्गीत की तान में इतना लीन हो रहा था कि उसे नन गायको की बिदा करने की सुध न रही यहां तक कि उन्हें गाते गाते सवेरा हो गया । वासुदेव भी शय्या छोड़ कर उठ बैठे और बैठ हुए उन गायकों को अभी तक गाते हुए देख कर बड़े आश्चर्यचकितहुए। उन्होंने शैय्यापालक से पूछा कि अभीतक इन गायको को क्यों नही निदा किये ? उसने उत्तर दिया कि "प्रभु सङ्गीत के लोभ से।" यह सुनते ही वासुदेव आग आग हो गये, इस छोटे से प्राणी की इतनी मजाल | उन्होने उसी समय हुक्म दिया कि इसकी कर्णेन्द्रिय ने यह भयङ्कर अपराध किया है, अतः इसके कानों मे सीसा गला कर भर दिया जावे, तत्कालीन आज्ञा का पालन हुआ। गलाया हुआ गर्म गर्म सीसा शैय्यापालक के कानो में डाला गया। इसी तीव्र वेदना के कारण उसकी मृत्यु हो गई। वह कई भावों मे भटकता हुआ इस गुवाले के शरीर में उत्पन्न हुआ। इधर त्रिपुष्ट की आत्मा भगवान महावीर के रूप में अवतीर्ण हुई। उस उम्र और प्रचण्ड भाव का उदय इस समय आकर हुआ । प्रभु ने पूर्व भव में अपने राजत्व के अभिमान में ओतप्रोत होकर एक साधारण कोपोत्तेजक कारण से इतना भयङ्कर कार्य कर डाला । उसी का बदला उसी प्रकार-बैल का पता न बतलाने ही के कारण से कुपित होकर उस गुवाले ने लिया। उसने प्रभु के दोनों कानों में शरकरा वृक्ष की दो कीलें जोर से ठोक दी, और उन कीलो के ठोकने की किसी को मालूम
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न हो इस वास्ते उसने बढ़े हुए मुँह काट कर उनको वेमालूम कर दिया। प्रभु इम भयङ्कर अवसर में भी अपनी उच्च वृति के कारण विचलित न हुए । वे जानते थे कि इस विश्व में किसी कारण के विना एक छोटा सा कार्य भी सम्पन्न नहीं हो सकता। वे जानते थे कि गुवाल ने जो भयङ्कर कष्ट दिया है उसके भी मूल कारण वे स्वयं ही थे, वह कार्य तो उनके उत्पन्न किये हुए कारग का फल मात्र था।
वासुदेव के भव में महावीर ने अपने सेवक के कानों में गर्म मीसा ढालते समय जिन मनोभावों के वश हो कर भयङ्कर असाता वेदनीय कर्म का वध किया उन मनोभावों के अंतर्गत दो तत्र मुन्न्यत. पाये जाते हैं
१-अपनी उपभोग सामग्री को दूसरे के उपभोग आते हुए देख कर उत्पन्न हुई ईपात्मक भावना
२-अपनी उपभोग सामग्री पर दूसरे को आक्रमण करते हुए देख कर उसके अपराध का विचार किये बिना ही मदान्यनीति के अनुसार उत्तेजना के वश होकर की हुई दण्ड की योजना ।
अपनी उपभोग सामग्री का उपभोग एक दूसरे व्यक्ति के द्वारा होते हुए देख कर उसका बदला लेते समय जिस प्रकृति का उदय होता है उसकी तीव्रता, गढ़ता और स्थायित्व का नियामक उस उपभोग सामग्री के प्रति रहा हुआ अपना ममत्र है। मेरे पुण्य वल से जो कुछ मुझे प्राप्त हुआ है उसका भोक्ता मेरे सिवाय कोई दूसरा नहीं हो सकता । इस प्रकार की भावना मनुष्य प्रकृति के अन्दर स्वभाव रूप ही पाई जाती है। यदि
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कोई दूसरा व्यक्ति नजर चुरा कर उन अधिकारां का उपभोग करने की चेष्टा करता है, तो उस पर स्वभावतयः ही क्रोध उत्पन्न होता है । पर यदि बुद्धि को निर्मल करके हम सोचते हैं तो हमे मालूम होता है कि जिस वस्तु को हम अपने पुण्यवल से प्राप्त हुई गिनते हैं, और जिस पर हम लेवल अपना ही अधिकार समझते हैं, उस वस्तु की सुखदायी शक्ति कितने ही विशेष कारणों पर अवलम्बित रहती है । वस्तु की सुखदात्री शक्ति जिन अंशों के समुच्चय से प्रगट होती है, उन अंशों का तिरस्कार करना भारी मूर्खता है। क्योंकि हमारा समाज हमारे - सुखों का कई अंशो मे सहभागी है। हमारे सुख का समाज के साथ शरीर और श्रवयव का सम्वन्ध है । अर्थात् समाज हमारे सुख का एक प्रधान अङ्ग (Constituent ) है । हमारी उपभोग सामग्री का आधार: कितने ही अंशा मे समाज पर निर्भर रहता है ।
मनुष्य हृदय के गुप्त मर्म का अध्ययन करने से हमें मालूम होता है कि सुंदर और सुखद वस्तुओं का उपभोग मात्र करने से हमें तृप्ति नही होती है। जब तक हमारे सुखानुभव का ज्ञान बाहरी जगत् को नहीं होता तब तक हमें उस सुख से तृप्ति नहीं हो सकती । सुन्दर वस्त्रालङ्कारों के पहनने में जो सुख है, उसका विश्लेषण करने से हमें मालूम होता है कि उस सुख का एक छोटा सा अश भी उन वस्त्रालंकारों में नहीं है । उनमे स्पर्श सुख भी बिल्कुल नही है । इतना ही नहीं, प्रत्युत उल्टे उन वखालकारो से शरीर पर एक प्रकार का भार सा मालूम होता है । फिर भी हम उसमें जो सुख का अनुभव करते हैं उस सुख का - मूल तत्व समाज, इन वस्त्रालंकारों के पहनने से हमे सुखी गिनेगा
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इसी बात में रहा हुआ है। यदि सुन्दर वखालकारों को पहनते समय इस एक भावना को अलग कर दी जाय तो शेष में उस सुख का किंचित मात्र अश भी नहीं रह जाता और इसी कारण जो लोग समाज के अन्तर्गत कितने ही नवीन वस्खालवार पहन पहन कर अपने सौभाग्य की नोटिसबाजी करते फिरते हैं, वे ही अपने मकान पर उन सब वस्त्रालङ्कारों को खोल खोल कर उनसे शीघ्र ही आजादी पाने का प्रयत्न करते हैं। इससे स्पष्ट जाहिर होता है कि पुण्य बल से प्राप्त हुआ अधिकांश सुख आस पास फी समाज पर निर्भर रहता है। वास्तविक सुख का अंश उस सम्मान में छिपा रहता है, जो हमारी समाज से हमें प्राप्त होता है। यदि जन समाज में हमें सुखी समझने वाला एक भी मनुष्य न हो तो हमें प्राप्त हुई अनन्तसुख सामग्री का उतना अधिक मूल्य नहीं रह जाता । सिद्धान्त यह निकला कि सुखी होने के लिए केवल सुख सामग्री की ही नहीं प्रत्युत अपने को सुखी समझने वाले एक जन समाज की भी आवश्यकता होती है।
ऐसी हालत में जब कि जन समाज पर हमारे सुख का इतना अधिक भाग अवलम्बित है तो फिर यह अभिमान करना कि मेरी उपभोग सामग्री पर उसका कुछ भी अधिकार नहीं है। एवं मेरे किये हुए पुण्यों का फल भोगने का मेरे सिवाय दूसरा कोई अधिकारी नहीं । सरासर अपने हृदय की संकीर्णता, पामरता और तुच्छता को प्रगट करना है। अपने सौभाग्य का अभिमान करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को यह ध्यान में रखना चाहिये कि यह संसार केवल तुम्हारी सुख प्राप्ति के निमित्त ही नहीं रचा गया है।
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१६२ यह दुनिया तुम्हारे पुण्यवल के प्रताप से प्रगट नहीं हुई है, समाज तुम्हारे सुख पर अवलम्बित नहीं है। प्रत्युत तुम्हारा सुस समाज की रुचि पर अवलम्बित है। ऐसी दशा में समाज के किसी व्यक्ति के प्रति तुम्हारी निराकार वृति तुम्हारी अघमता का सूचक है।
"एक आदमी की मालकियत पर उसके सिवाच दूमर किसी का अधिकार नहीं है; यह नियम केवल व्यवहार काण्ड में अव्यवस्था न होने देने के लिए एवं समाज की शान्ति रक्षा के निमित्त केवल राज्य सत्ताओं ने बना लिया है। लेकिन स्मरण रखना चाहिये कि यह लौकिक नियम विश्व के राज्य तन्त्र को चलाने वाली दिव्य सत्ता पर जरा भी बन्धन नहीं डाल सकना. लोगों की स्वार्थ वृति पर एक प्रकार का समय बनाये रखने के लिए राज्य सत्ताओं ने" एक की वस्तु पर दूसरा आक्रमण न करे इस लौकिक विधान की रचना को है। लेकिन प्रकृति के महागज्य में इस प्रकार के स्वार्थों की टकर बिलकुल नहीं होती और इसलिए उसमे प्रवेश करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को किसी भी वस्तु पर एकाधिकार की संकीर्ण भावनाओं को छोड़ देना चाहिये। यदि राजसत्ताओं के द्वारा चलाया हुआ उपरोक्त लौकिक नियम प्रकृति का मौलिक नियम होता तो महावीर, बुद्ध, ईसा आदि महापुरुष उस नियम का कदापि उल्लंघन न करते। पर जब उन्होंने अपनी उपार्जित की हुई वस्तु को सारे विश्व के कल्याण के निमित्त बांट दिया तो फिर उनको अपना आदर्श मानने वाले हम लोगों को भी मानना होगा कि व्यक्तिगत स्वार्थ को ऐसी भावनाएं आत्मा का अधःपतन करती हैं। उन्हीं भाव
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नाओं के कारण जातियां नष्ट हो जाती हैं, देश गुलाम हो जाते है और साम्राज्य विखर जाते हैं। और इन्हीं भावनाओ के कारण मनुष्य के नैतिक जीवन का नाश हो जाता है जो कि सत्र अनिष्टों की जड़ है । वासुदेव के भव में अपने शैय्यापालक के कान में गर्म गला हुआ शीशा डालने की जो क्रूर सज्जा महा-' वीर ने दी थी । उसके अन्तर्गत रहे हुए उग्र और निष्ठुर परिणाम इस भव में उदय हुए-प्रचंड असाता वेदनीय कर्म के कारण रूप थे । एक छोटे से अपराध के बदले में ऐसे भयङ्कर दण्ड की व्यवस्था देते समय वासुदेव के हृदय के अन्तर्गत जो स्वार्थ भावना और तीव्र घातक प्रवृत्ति समा रही थी, उसके फल स्वरूप महावीर को इस भव में वैसी ही सजा का मिलना आवश्यता था । इममे जरा भी सन्देह नहीं । __अपनी सत्ता का दुरुपयोग एक निवल मनुष्य पर करना बहुत ही वडा पाप है। हममे कोई जवाब तलव करने वाला नहीं है। हमारे सेवक का जन्म मरण हमारे वायें हाथ का खेल है, इस प्रकार की भावनाओं को हृदयगम कर एक निर्वल सेवक पर मनमाना अत्याचार करना मनुष्यत्व के विलकुल विरुद्ध है। उसका भयङ्कर बदला प्रकृति अवश्य चुका देगी। वासुदेव का सेवक एक निराधार मनुष्य था। उसके पास उनकी दी हुई सजा का विरोध करने के लिये रंच मात्र भी शक्ति न थी । ऐसी हालत में वासुदेव को अपनी बैर भावना पर अंकुश रखने की नितान्त आवश्यकता थी। जिस हालत में कि कोई मनुष्य हमारी
आना के विरुद्ध टससे मस नहीं कर सकता। उस हालत में उसको सजा देते समय मनुष्य को वहुत विवेक बुद्धि से काम
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उचलाय
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लेना चाहिये । हां यदि हमारा प्रतिपक्षी भी सबल है, हमारी श्राज्ञा का विरोध करने की उसमें शक्ति है, तो ऐसी हालत में यदि हम उसे ऐसी सजा दें भी तो विरोध की भावना के कारण | उतने तीव्र कर्मों का बंध नहीं होने पाता । क्योंकि उसके कर्मों का और हमारे कर्मों का बहुत कुछ समीकरण हो जाता है। शेष में जो कुछ कर्म बचते हैं, उन्हीं को हमें भोगना पड़ता है। लेकिन जहाँ ऐसी बात नहीं है, जहाँ विरोध की भावना का लेश मात्र भी अस्तित्व नहीं है । वहां पर दी हुई इस प्रकार की अविचार । पूर्ण सत्ता का फल बहुत उग्र रूप मे भोगना पड़ता है । इस बात को और भी स्पष्ट करने के लिये एक युद्ध का उदाहरण ले लीजिये | हम देखते ही हैं कि युद्ध के अन्दर भयङ्कर मारकाट होती है। हजारो आदमी उसमें गोलियों के निशान बना दिये जाते हैं, हजारों तलवार के घाट उतार दिये जाते हैं, और हजारो वछों में पिरो दिये जाते हैं । मतलब यह है कि रणक्षेत्र में मृत्यु का कोलाहल मच जाता है । इतने पर भी मारने वालों के और मरने वालो के उतने तीव्र कर्म का उदय नहीं होता, क्योकि वहाँ पर बदला लेने की शक्ति और विरोध की भावनाओ का अस्तित्व रहता है । अब मान लीजिये उस युद्ध में कुछ लोग कैदी हो गये, ऐसी हालत में यदि वह कैद करनेवाला अपने कैदियों की मनुष्यत्व के साथ रक्षा करता है, उनके खान पान का प्रबन्ध करता है, तब तो ठीक है । पर इसके विपरीत यदि ऐसा न करते हुए वह उनके साथ जरा भी निष्ठुरता का बर्ताव करता है, तो तीव्र असाता वेदनीय का बन्ध करता है । क्योंकि इस स्थान पर वे आश्रित हैं। इस स्थान पर वे बदला लेने में असमर्थ
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भगवान् महावीर हैं। विरोधी को मारने में उतना पाप नहीं बल्कि कभी कभी तो वह पाप कर्तव्य हो जाता है, लेकिन आश्रित को मारना तोभयकर पाप है, और उससे भयङ्कर वेदनीय कर्म का वन्ध हो जाता है।
सत्ताहीन रङ्क मनुष्य को सुख देने में जितना अनिष्ट होता है, उसे आत्मज्ञ पुरुप ही भली भांति समझ सकते हैं-सूक्ष्म भूमिका पर वैर की वृत्ति किस प्रकार वृद्धि पाती है, इस बात को जिन लोगों ने समझा है, वे सारे संसार को इस बात का सन्देश दे गये हैं। इतिहास के पृष्ट उस ध्रुव सत्य की साक्षी खुले आम दे रहे हैं। सोता के प्रति अन्याय करने ही से सोने की लङ्का खाक में मिल गई। द्रोपदी के अपमान ने ही इतने बड़े कुरु साम्राज्य का ध्वंस कर दिया । और भी कई एक क्षत्री राज्यसत्ताएँ कई बड़ी बड़ी जातियाँ, इस प्रकार की वृत्ति से नष्ट हो गई, जब बड़ी वड़ी जातियों और राज्यो का यह हाल है तो फिर एक मनुष्य इस प्रकार की पामर वृत्ति के उग्र फल से किस प्रकार बच सकता है। ___वासुदेव को यह सजा देते समय इस बात का गर्व था कि मेरे शासन चक्र में रहनेवाले तमाम मनुष्यों की मैं अपने इच्छानुसार गति कर सकता हूँ । मेरे कार्य में बाधा देनेवाली दूसरी कोई सत्ता इस विश्व में नहीं है। इस अभिमान के आवेश में वे इस बात को भूल गये कि इस भव के सिवाय दूसरा भी कोई भव है, जिसमें इम अधम कृत्य का भयङ्कर फल मिल सकता है। अपनी सत्ता के गर्व में अन्धे होकर वे प्रकृति की महान सता का विचार करना भूल गये, और इसी कारण इस भव में उनको उसका बदला सहन करना पड़ा । अस्तु !
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१६६ भगवान महावीर ने अपनी अपूर्व सहन शक्ति के द्वारा गुवाले का वह उपसर्ग भी शान्ति पूर्वक सहन कर लिया। वहां से चल कर वे एक दूसरे ग्राम में गये वहां पर "खाक" नामक एक वैद्य रहता था, उसने प्रभु की कान्ति को निस्तेज देख कर समझ लिया कि निश्चय इनको किसी प्रकार की शारीरिक पीड़ा है। अनुसन्धान करने से उसे शीघ्र ही उन कीलों का पता लग गया, सिद्धार्थ नामक एक सेठ की सहायता से उसने उन कीलों को खींच लिये । कहा जाता है कि उस समय प्रभु के मुख से एक भयङ्कर चीख निकल पड़ी थी। इतने भयङ्कर उपसगों को सहन करते समय उन्होंने एक भी कायरता का ठण्डा श्वास न डाला था, पर इस अन्तिम उपसर्ग में ऐसा मालूम होता है कि उनके उपशान्त मोहनीय कर्म की कोई प्रकृति अव्यक्त भाव से उदय हो गई होगी, जिसके कारण देह भाव का भान होने से चीख का निकलना सम्भव हो सकता है।
इस उत्कृष्ट उपसर्ग को सहन करने के पश्चात् उन पर किसी प्रकार का उपसर्ग न आया, इसके पश्चात् प्रभु को कैवल्य की प्राप्ति हो गई, कल्पसूत्र के अनुसार वैशाख सुदी दशमी के दिन, दिन के पिछले पहर में, विजय-मुहुर्त के अन्तगत, जंभीक नामक ग्राम को बाहर रख-बालिका नदी के तीर पर वैर्ध्यावर्त नामक चैत्य के नजदीक शालिवृक्ष की छाह में, शुक्ल ध्यानावस्थित प्रभु को सब ज्ञानो में श्रेष्ठ केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई।
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कैवल्य-प्राप्ति
इतनी कठिन तपस्या के पश्चात् भगवान को केवलज्ञान अथवा बोधिसत्व की प्राप्ति हुई । इतनी कठिन आंच को सहन करने के पश्चात् ज्ञान स्वर्ण अपनी पूरी दीप्ति के साथ चमकने लगा। भगवान् को सत्य सम्यकज्ञान की प्राप्ति हुई। ससार मे आनन्द छा गया । स्वर्ग भी उत्साहित हो उठा।
दुनियां को यदि सब से अधिक इच्छित और सच्चे सुख की प्राप्ति करानेवाली कोई वस्तु है तो वह ज्ञान है, इसी ज्ञान के अभाव से दुनियां अज्ञान के तिमिराच्छन्न गर्भ में गोते लगाती हुई भटकती है। इसी ज्ञान के अभाव के कारण संसार में दुःख तृष्णा और गुलामी के भयङ्कर दृश्य दिखलाई देते हैं । इसी ज्ञान के अभाव से मनुष्य मनुष्य पर जुल्म करता हैप्राणी प्राणी का अहार करता है। इसी ज्ञान के अभाव से संसार में भयङ्कर जीवन कलह के दृश्य देखने को मिलते हैं।
अज्ञान ही मनुष्य जाति का परम शत्रु है, और ज्ञान ही उसका सच्चा मित्र है, वही ज्ञान भगवान् महावीर को प्राप्त हुआ और उनके द्वारा संसार में विस्तीर्ण होनेवाला है, यही जान कर ससार सुखी है-मनुष्य जाति हर्षोन्मत्त है।
केवल ज्ञान की प्राप्ति के समय में जैन-शास्त्रों मे जिस उत्सव की कल्पना की है। वह चाहे कल्पना ही क्यों न हो । पर बड़ी ही सुन्दर है । उसके अन्तर्गत तत्व-ज्ञान का. रहस्य छिपा हुआ है। उसके अन्तर्गत उदार साम्यवाद का तत्त्व है।
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भगवान का उपदेश मनुष्य जाति को श्रवण कराने के निमित्ति जिस समवशरण की रचना की गई थी, वह बहुत ही भव्य था। एक बड़ा लम्बा चौड़ा मण्डप बनाया गया था। उसकी सजावट में किसी प्रकार की त्रुटि न रक्खी गई थी। उसके अन्तर्गत, बाहर भिन्न भिन्न विभाग किये गये थे। जिसके भिन्नभिन्न विभागों में देवता, पुरुष स्त्री और यहाँ तक कि पशु-पक्षियों के बैठने का भी स्थान था । भगवान् एक व्यासपीठ पर स्वर्ण के बनाये कमल पर विराजमान थे, उनके मुख से जो उपदेश ध्वनित होता था, उसे सत्र देवता मनुष्य यहाँ तक कि पशु-पक्षी भी अपनी अपनी भाषा मे समझते थे। यही उनके भाषण की व्यवस्था थी।
इन बातों में सत्य का कितना अंश है। इसका निर्णय करने की यहाँ पर आवश्यकता नहीं, पर इतना अवश्य है कि ये सब बातें एक विशेष प्रकार का अर्थ रखती हैं । पहली विशेषता तो यह थी कि उस सभा में मनुष्य सब समान समझ गये थे। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, सव एक समान भाव से पारस्परिक विद्वेष को भूल कर एक साथ उस उपदेश को सुनने के अधिकारी समझे गये थे। दूसरी विशेषता यह थी कि महावीर के अनन्त व्यक्तित्व के प्रभाव से हिंसक पशु भी अपनी हिंसकवृति को छोड़ कर अपने प्रतिद्वन्दी पशुओं के प्रति प्रेमभाव रखते हुए इस सभा में उपदेश सुनने के इच्छुक थे। इससे मालूम होता है कि भगवान की करुणा प्रवृति इतनी उच्च थी कि उसके दिव्य प्रभाव से हिसक पशुओं ने भी अपनी हिंसकवृति को छोड़ दी थी।
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क्षमा, समता और दया की पवित्र धारायें उस सभा में पैठनेवाले प्रत्येक प्राणी के हृदय में शतधार और सहस्रधार से प्रवाहित हो रही थी।
यह समवशरण “अपाया" नामक नगरी के बाहर रचा गया था। जिस समय समवशरण सभा में प्रभु का उपदेश सुनने के निमित्त हजारों पुरुप स्त्री जा रहे थे। ठीक उसी समय में किसी धनाढ्य गृहस्य के यहाँ इन्दभूति अग्निभूति और वायुभूति आदि ग्यारह ब्राह्मण पण्डित यन्न करवा रहे थे। उम काल में उनकी विद्वत्ता की ख्याति बहुत दूर दूर तक फैली हुई थी । इन लोगों ने असख्य नर-नारियो को उधर की ओर
आते हुए देख कर पहले तो यह सोचा कि ये सब हमारे इस यन को देखने के निमित्त पा रहे हैं और यह जानकर उन्हें बडा आनन्द भी हुआ। पर जब उन्होंने देखा कि इन आगान्तक व्यक्तियों में से किसी ने उनकी ओर आँख उठा कर भी न देखा, तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुश्रा । अन्त मे किसी से पूछने पर मालूम हुआ कि ये सब लोग सर्वज्ञ प्रभु महावीर की वन्दना करने को जा रहे हैं। इन्द्रभूति ने यह सुन कर अपने मन में कहा कि संसार में मेरे सिवाय भी दूसरा कोई सर्वज्ञ है। जिसके पास ये सब लोग दौड़े जा रहे हैं, सब से बड़ा आश्चर्य तो यह है कि इस समय परम पवित्र यज्ञ-मण्डल की ओर भी इनका ध्यान आकर्षित नहीं होता। सम्भव है कि जिस ढग का इनका सर्वन होगा, उसी ढग के ये भी होंगे। ऐसा सोच वह अप्रतिभसा होकर चुप हो गया।
इसके कुछ समय पश्चात् जब सब लोग भगवान महावीर
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की वन्दना करके वापिस आ गये तब इन्द्रभूति ने उनसे पूछा कि भाई, सर्वज्ञ देखा ! कैसा है ! तब उन्होने कहा कि अरे, क्या पूछते हो, उनके गुणों की गिनती करना तो गणित के पारिधी से भी बाहर है । यह सुन कर इन्द्रभूति ने मन ही मन सोचा कि यह पाखण्डी तो कोई जबरदस्त मालूम होता है । इसने तो बड़े बड़े बुद्धिमान मनुष्यो की बुद्धि को भी चक्कर में डाल दिया है । अव इस पाखण्डी के पाखण्ड की पोल को शीघ्रातिशीघ्र खोलना मेरा कर्तव्य है । नहीं तो असंख्य भोले प्राणी इसके पाखण्ड की ज्वाला में जल कर भस्म हो जायेंगे । यह सोच कर वह बड़े ही गर्वपूर्वक अपने पाँच सौ शिष्यो को लेकर महावीर को पराजित करने के इरादे से चला । सत्र से प्रथम तो वहाँ के ठाट को देख कर ही स्तम्भित हो गया, उसके पश्चात् वह अन्दर गया । महावीर तो अपने ज्ञान के प्रभाव से उसका नाम, गोत्र और उसके हृदय मे रहा हुआ गुम संशय जिसे कि उसने किसी के सामने प्रकट न किया था, जानते थे । उसे देखते हो अत्यन्त मधुर स्वर से उन्होने कहा:" हे गौतम । इन्द्रभूते त्वं सुखेन समागतोसि" महावीर के मुँह से इन शब्दों को सुन कर उसका आश्चर्य और भी वढ गया । पर यह सोच कर उसने अपना समाधान कर लिया कि मेरा नाम तो जगत प्रसिद्ध है, यदि उसे इसने कह दिया तो क्या हुआ । सर्वज्ञ तो इसे तव समझना चाहिये कि जब यह मेरे मनोगत भावों को बतला दे ।
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गुर
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इतने ही में महावीर कहते हैं कि हे विद्वान् ! "तेरे मन में जीव है या नहीं" इस बात का सशय है और इसका कारण वेद
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सकता है। इसलिये उन्होंने केवल ऐसे ही उपाय किये जिससे - मनुष्य जाति को सत्य की ओर रुचि हो, लोगों के अन्त.करण में सत्य की स्थाई छाप बैठ जाय । वे परिणामदर्शी थे । वे जानते थे कि केवल अधिक संख्या में समाज को बढ़ाने से कुछ लाभ नहीं । कुछ समय तक तो वह दुनिया के पर्दे पर चलता रहता है, पर ज्योंही उसमें कुछ विशृंखलता उत्पन्न हुई कि, त्योंही छिन्न भिन्न हो जाता है । यहाँ तक कि उसका कुछ चिन्ह तक शेष नहीं रह जाता, लोक का कल्याण और अपने समाज की संख्या बढ़ाना ये दोनों कार्य्यं बिल्कुल जुदे जुदे है । समाज का सङ्गठन करना अथवा उसकी संख्या बढ़ाना यह तो मनुष्य की व्यवस्थापक शक्ति पर निर्भर है। पर लोक कल्याण के लिए विशुद्ध प्रेम, निस्वार्थ भावना, और एक प्रकार की लौकिक शक्ति की आवश्यकता है ।
अनुयायियों की संख्या बढ़ाना यह महावीर का एक गौण लक्ष्य था, उनका प्रधान लक्ष्य तो लोक कल्याण ही था । उन्होंने हमेशा कपने सुखद - सिद्धान्तों को जनता के हृदय में गहरे पेठा देने का प्रयत्न किया । उनके अनुयायी "बुद्ध" और और "गौशाला" की अपेक्षा कम थे । पर जितने भी थे, पक्के थे। उनकी रग रग में महावीर का उपदेश व्याप्त हो गया था, और यही कारण है कि केवल संख्या के बल में श्रद्धा रखने - वाले " गौशाला" का एक भी अनुयायी आज भारतवर्ष के किसी भी कोने में नहीं मिलता। उसकी फिलासफी के खण्डहर भी कहीं देखने को नहीं मिलते। इसी प्रकार अशोक के समय में सारे भारतवर्ष पर अपना
बौद्धधर्म - जिसने अधिकार कर
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मुनि ने कहा - "जो दोक्षा ग्रहण करते हैं वे सारे जगत के स्वामी होते हैं ।" शालिभद्र ने कहा- "यदि ऐसा है तो मैं भी अपनी माता की आज्ञा ले कर दीक्षा लूंगा ।" ऐसा कह वह घर गया । और माता को नमस्कार कर कहा - "हे माता ! आज श्री धर्मघोप मुनि के मुख से मैंने संसार के सब दुखों से छुड़ा देने वाले धर्म की परिभाषा सुनी है। उसके कारण मुझे संसार से विरक्ति हो गई है। इसलिए तुम मुझे आज्ञा दो जिससे मै व्रत लेकर अपनी आत्मा का कल्याण करूं ।" भद्रा ने कहा- वत्स ! तेरा यह कथन विल्कुल उपयुक्त है । पर व्रत को निभाहना लोहे के चने चबाने से भी अधिक कष्टप्रद है । उसमें भी तेरे समान सुकोमल और दिव्य भोगों से लालित पुरुष के लिए तो यह बहुत ही कठिन है । इसलिए यदि तेरा यही विचार है तो धीरे धीरे थोड़े थोड़े भोगों का त्याग कर अपने अभ्यास को बढ़ाले । पश्चात् तरी इच्छा हो तो दीक्षा ग्रहण कर लेना ।” शालिभद्रने माता के इस कथन को स्वीकार किया और उसी दिन से वह एक एक शय्या और एक एक स्त्री का त्याग करने लगा ।
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कुछ समय पश्चात् जब वीरप्रभु वैभारगिरि पर पधारे तब शालिभद्रने जाकर उनसे मुनि व्रत ग्रहण किया । उग्र तपश्चर्या करते करते शालिभद्र मुनि मनुष्य आयु के व्यतीत हा जाने पर मानवीय देह को छोड़ कर सर्वार्थ सिद्धि विमान में देवता हुए ।
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राजा चण्डप्रद्योत को उसकी भङ्गारवती रानी से वासव
दत्ता नामक एक सर्व लक्षण युक्त
पुत्री थी । चण्डप्रद्योत उस
कन्या का बड़ा आदर करता था
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उसने उसे सर्व कलानिधान
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- सियों की पूर्ण योग्यता को मानना। उनके लिए गुरु-पद का आध्यात्मिक मार्ग खोल देना।
३-लोक भाषा में तत्त्वज्ञान और आचार का उपदेश करके केवल विद्वद्गम्य संस्कृत भाषा का मोह घटाना और योग्य अधिकारी के लिए ज्ञान प्राप्ति में भाषा का अन्तराय दूर करना ।
४-ऐहिक और पारलौकिक सुख के लिये होने वाले यज्ञ मादि कर्मकाण्डों की अपेक्षा संयम तथा तपस्या के स्वावलम्बी तथा पुरुषार्थ प्रधान मार्ग की महत्ता स्थापित करना एवं अहिसा धर्म में प्रीति उत्पन्न करना।
५-त्याग और तपस्या के नाम रूप शिथिलाचार के स्थान पर सचे त्याग और सच्ची तपस्या की प्रतिष्ठा करके भोग की जगह योग के महत्व का वायुमण्डल चारो ओर उत्पन्न करना।
उपरोक बातें तो उनके सर्ग-साधारण उपदेश में सम्मिलित थीं। तत्वज्ञान सम्बन्धी बातों में महावीर "अनेकान्त" और "सप्त मंगी स्याद्वाद" नामक प्रसिद्ध फिलासफी के जन्म दाता थे। इसका विवेचन किसी अगले खण्ड में किया जायगा।
भगवान् महावीर के अनुयायियों और शिष्यों में सभी जाति के लोगों का उल्लेख मिलता है। इन्द्रभूति वगैरह उनके ग्यारह गणधर प्रामण कुलोत्पन्न थे। उदायी, मेघकुमार, आदि क्षत्रिय भी भगवान महावीर के शिष्य हुए थे। शालिभद्र इत्यादि वैश्य और मेताराज तथा हरिकेशी जैसे अति शूद्र भी भगवान को दी हुई पवित्र दोक्षा का पालन कर उच्च पद को प्राप्त हुए थे। साधियो में चन्दनवाला क्षत्रिय पुत्री थी। देवानन्दा ब्राह्मणो थी। गृहस्थ अनुयायियों में उनके मामा वैशालीपति चेटक,
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भगवान् महावीर
onमगधनरेश, श्रेणिक और इनका पुत्र कोणिक आदि अनेक क्षत्रिय भूपति थे। आनन्द, कामदेव आदि प्रधान दृढ़ उपासकों में "शकहाल" कुम्हार था । और शेष ९ वैश्य थे। "ढंक" कुम्हार होते हुए भी भगवान् का सममदार और दृढ़ उपासक था। बधक, अम्बड़ आदि अनेक परिव्राजक और सोमील आदि अनेक ब्राह्मणों ने भगवान् का अनुसरण किया था। गृहस्थ उपासिकाओं में "रेवती, सुलमा" और "जयन्ति" के नाम प्रख्यात हैं । "जयन्ति" जैसी भक्त थी वैसी विदुपी भी थी । वह आजादी के साथ भगवान से शङ्का समाधान करती थी।
भगवान महावीर के पूर्व से हो जो जैन सम्प्रदाय चला आ रहा था वह उस समय "निगट्ट" के नाम से प्रसिद्ध था। उस समय प्रधान निगं? "क्शी कुमार" आदि थे और वे सब अपने को-पार्श्वनाथ की परम्परा के अनुयायी बतलाते थे। वे लोग तरह तरह के रगों का कपड़ा पहनते थे। एवं चातुयमि धर्म अर्थात् अहिंसा, सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह इन चार व्रतों का पालन करते थे। भगवान् महावीर ने इस पुरातन परम्परा में दो नवीन बातों का और समावेश कर दिया। एक "अचेलधर्म" (नगनत्व) और दूसरी ब्रह्मचर्य । इससे मालूम होता है कि पहले परम्परा में वख और बी के सम्बन्ध में अवश्य कुछ न कुछ शिथिलता आ गई होगी। इसी को दूर करने के लिए महावीर ने इन दोनों नवीन बातों को निग्रन्थत्व में स्थान दिया । पर प्रोफेसर हर्मन जेकोबी का मत कुछ और ही है। वे अपने जैन सूत्रों की प्रस्तावना में लिखते हैं कि ये दोनों बातें महावीर ने "गौशाला" की आजीनिक सम्प्रदाय से ग्रहण की हैं। इस बारे में
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भगवान महावीर
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उन्होने कई सुदृढ़ अनुमान प्रमाण भी दिये हैं। पर उनमे सत्य का कितना अश है यह नहीं कहा जा सकता। जो हो, पार्श्वनाथ के अनुयायियो ने प्राचीन और नवीन भिक्षुओ की एक महासभा मे इस परिवर्तन को स्वीकार कर लिया। कितने ही विद्वानों का मत है कि इस समझोते मे वस्त्र रखने तथा न रखने का जो मतभेद शान्त हुआ था। वही आगे चल कर भद्रवाह के समय मे फिर खड़ा हो गया और उसी समय जैन साधुओं में श्वेतान्बर “और दिगाम्वर के फिरके पड़ गये ।
शिष्य और गणधर कल्पसूत्र के अन्तर्गत भगवान महावीर के गणधरो, मुनियों, आणिकाओं, श्रावकों और श्राविकाओं की संख्या उनका दरजा, कुल तथा गौत्र का विस्तृत विवरण दिया गया है। पाठकों की जानकारी के निमित्त संक्षिप्त रूप से उनका विवरण यहाँ दिया जाता है:नाम गौत्र
शिज्य १. इद्रभूति गौतम गौत्र ) ५०० श्रमणों का २. अग्नि भूति
एक वृक्ष ३. वायु भूति " ४. आर्ण्य व्यक्त भरद्वाज गौत्र । ५. सुधमोचाय्य अग्निवैश्यायन गौत्र) ६. मण्डी पुत्र वसिष्ट गौत्र ' १२५० श्रमणों का वृक्ष ७. मौर्य पुत्र काश्यप गौत्र (२५० , का एक वृक्ष
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मगवान् महावीर ८. अंकापित गौतम गौत्र ५ ६०० श्रमणों का ९. अचल वृत हरितायन गौत्र । एक वृक्ष १०. मेत्रेयाचार्य काण्डीय गौत्र ११. प्रभासाचार्य
इस प्रकार महावीर के ग्यारह गणधर नौ वृन्द और ४२०० प्रवण मुख्य थे। इसके सिवाय और बहुत से श्रमण और अजिंकाएँ थी, जिनकी सरन्या क्रम से चौदह हजार और छत्तीस हजार थी। श्रावको की सख्या १५००० थीं, और श्राविकाओ की मंग्व्या ३,१८,००० थी।
इस स्थान पर एक बात बड़ी विचारणीय है। कितने ही पाश्चात्य विद्वान प्राचीन भारतवर्ष के लोगों पर यह एक बड़ा आरोप लगाते हैं कि उस समय के शाखो में "खो" को नरक की खानि कहा है। उमे ससार के वन्धन का कारण घतलाया है । हम इस बात को स्वीकार करते हैं कि हिन्दू धर्म-शास्त्रों में व्यक्ति के जीवन के लिए इस प्रकार की बातें कही गई हैं । पर गृहस्थावस्था के लक्ष्य-बिन्दु से ऐसा कहीं भी नहीं कहा गया है। घल्कि बिना सुयोग्य पत्नी के गृहस्थाश्राम को अधूरा भी बतलाया है। गृहस्थाश्रम के अन्तर्गत स्त्री का उतना ही आसन माना गया है जितना आज कल के पाश्चात्य समाज में माना जाता है।
भगवान महावीर और पार्श्वनाथ जो जीवन-आदर्श की अन्तिम सोढ़ा पर विहार कर रहे थे, उनको भी यह बात खटकती थो उन्होंने भी माफ कहा है कि'- . "शिशुत्व बैण्य वा यदस्तु तत्तिष्ठतु तदा ।
गुणाः पूजा स्थान गुणिपु न च लिग न च वयः"
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शिशु हो या स्त्री हो चाहे जो हो गुण का पात्र है वही पूजनीय है ।
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ऐसा मालूम होता है कि उस काल मे समाज के अन्तर्गत शूद्रो ही की तरह स्त्रियों के अधिकारो को भी कुचल दिया गया होगा । सम्भवत: इसी कारण शूद्रों ही की तरह स्त्रियों के लिये भी महावीर को इस प्रकार का नियम बनाना पड़ा होगा । जैन-धर्म पुरुष और स्त्री की आत्मा को समान स्वतन्त्रता देता है । जो लोग यह मानते हैं कि स्त्री को हिन्दू धर्म-शास्त्रों में (Individual liberty ) व्यक्ति स्वातन्त्र्य वे लोग बड़े भ्रम में है । केवल स्त्री और स्वतन्त्रता देकर ही महावीर के उदारहृदय ने बल्कि प्राणी मात्र चर और अचर सव को का देने वाला पहला महापुरुष महावीर था । था जिसने संसार के प्राणी मात्र की और आत्मा की स्वतन्त्रता के निमित्त ही अपने जीवन को विसर्जन कर दिया ।
नही दिया गया है
समान स्वतन्त्रता वह महावीर ही
पुरुष को समान विश्राम न लिया ।
महावीर के आश्रम में जितना दरजा श्रमण का माना जाता था, आर्यिका का भी उतना ही माना जाता था । पुरुष स्त्री के चरित्र की रक्षा के लिए उन्होने कितने ही भिन्न भिन्न आचारो का निर्माण किया था । महावीर जानते थे कि, स्त्रीख और पुरुषत्व केवल कर्मवशात् प्राप्त होता है। लेकिन स्त्री और पुरुष की समान शक्तियां होती हैं । जिस प्रकार एक पुरुष की अपेक्षा दूसरे पुरुष में संयोगवशात् आत्मिकशक्ति मे कमीबेशी हो जाती है। इसी प्रकार स्त्री और पुरुष नामक व्यक्तियों मे कमीबेशी हो जाती है । इसलिये यदि हम पुरुषों की स्वतन्त्रता के
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भगवान् महावीर
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सत्र हक स्वीकार करते हैं तो फिर 'त्रियो के हकों को क्यों स्वीकार न करें । विशालज्ञानी महावीर इस बात को जानते थे और इसी कारण उन्होने पुरुष और स्त्री के हकों को समान समझा था । श्रस्तु !
आगे के पौराणिक खण्ड मे हम भगवान् महावीर के धर्मप्रचार और उन पर आये हुए उपसगों का वर्णन करते हुए यह बतलाने की कोशिश करेंगे कि उनकी सहनशीलता, उनकी क्षमा और उनको शान्ति कितनी दिव्य थी ।
भगवान् महावीर का निर्वाण
तीस वर्षों तक अपने सदुपदेशों के द्वारा संसार को कल्याणमग सन्देशा देकर बहत्तर वर्ष की अवस्था मे अपने शिष्य सुधर्माचार्य के हाथ में धर्म की सत्ता दे राजगृह के पास पात्रांपुरी नामक स्थान में भगवान् महावीर ने कार्तिक कृष्ण श्रमावास्या को निर्वाण प्राप्त किया। उनके निर्वाणोत्सव में बहुत ही बड़ा उत्सव मनाया गया। जिसका बहुत ही विकृत रूप आज भी भारतवर्ष में "दीपावलि" के नाम से मनाया जाता है।
भगवान महावीर का चरित्र
Meu is heaven born not the thrall of circumstances and of necessitles, but the victorious subduer, behold ! how he can become the Announcer of himself and of his freedom. (Carlyle)
"मनुष्य देवि जन्म का धारक है। वह परिस्थिति और आवश्यक्ताओं का गुलाम नहीं । प्रत्युत उनका
विजयी नेता
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भगवान महावीर
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है। वह अपने खातन्त्र्य और व्यक्तित्व को किस प्रकार दुनियां के सन्मुख उपस्थित कर सकता है इस ओर ध्यान दें।"
आज कल के बुद्धि-वादी काल मे मनुष्य का ह्रदय बुद्धिगर्व से इतना अधिक संकीर्ण हो गया है कि वह व्यक्ति को
शक्ति पर विश्वास करने में बहुत हिचकता है । परिस्थितियों के 'बन्धनो को ठोकरों से उड़ाता हुआ और वाधाओं के जाल को काटता हुआ यदि कोई मनुष्य दुनियां मे महानता की ओर अग्रसर होता है तो हम उसके स्वातन्त्र्य बल को स्वीकार कर उसकी ओर पूज्य भावनाएँ प्रकट करने में बड़ी आना कानी करते हैं और एक बड़े दार्शनिक की तरह गम्भीर अावाज में कह देते हैं कि, उसमें कोई नई बात नही । महावीर का जन्म ऐसी परिस्थिति में हुआ था कि जिसमे रह कर वैसी शक्ति प्राप्त करना अत्यन्त आसान थी। अब वह परिस्थिति नष्ट हो गई है। इस कारण अब ऐसे मनुष्यो का उत्पन्न होना भी दुप्कर है। इस प्रकार कह कर बुद्धिवादी मनुष्य अपनी आत्मा को सन्तोष देते हैं। और इसी प्रकार अपने मे पाये जानेवाले कुदरती गुणों को दवा कर आत्मघात करने को तैयार हो जाते हैं। यह आत्मघात आधुनिक काल मे पहले सिरे की बुद्धिमानी और ज्ञान समझा जाता है। भगवान् महावीर देव थे, वे एक राजपुत्र थे। पूर्वभव मे उन्होने अच्छे कर्म किये थे । परिस्थिति उनके अनुकूल थी। कौटुम्बिक सुख उन्हे प्राप्त था। आदि ये सब बातें हमें प्राप्त नहीं हैं। इसीलिए हम उनके समान नहीं हो सकते । यदि वे भी हमारी ही स्थिति में होते तो कदापि इतनी उच्च स्थिति को प्राप्त न करते । इस
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भगवान् महावीर
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विपत्तियों का समूह उनपर एक साथ इकट्ठा हो कर उतरा था पर भयङ्कर विपत्तियों के बीच उन महान् उपसगों के अन्तर्गत भी महावीर का आत्म-सयम रच मात्र भी विचलित न हुषा । उनका धैर्य उस विक्ट समय मे भी पर्वत की तरह अचल रहा । अत्यंत शक्ति के साथ! विना एक डफ किये उन्होंने सब उपसर्गों को., सहन कियाइन्ही स्थानो पर भगवान महावीर के चरित्र की महत्ता मालमोहाती है।
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पौराणिक खण्ड
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४ पौराणिक खण्ड
। भगवान् के पूर्वभव
* कल्पसूत्रादि पुराणों में भगवान् महावीर के कई पूर्वभवों Sa - का वर्णन किया गया है। इस ग्रन्थ के पौराणिक
खण्ड की पूर्ति के निमित्त संक्षिप्त में इन भवों का वर्णन करना आवश्यक है। अतएव हम कई भिन्न २ ग्रन्थों के
आधार पर भगवान महावीर के कुछ भवों का वर्णन नीचे देते हैं।
इस जम्बूद्वीप के अन्तर्गत पश्चिम विदेहक्षेत्र के आभूषण की तरह "जयन्ती" नामक एक नगरी है। इस नगरी में उस समय “शत्रुमर्दन" नामक एक महाप्रतापी गजा राज्य करता था। उसके राज्यान्तर्गत “पृथ्वीप्रतिष्ठात" नामक एक ग्राम था। उसमे "नयसार" नामक एक स्वामीभक्त ग्रामचिन्तक रहता था: यद्यपि वह साधुओं के संसर्ग से रहित था, तथापि पापों से पराङ्मुख और दूसरो के छिद्रान्वेषण से विमुख था। एक बार राजा की आना से लकड़ी काटने के निमित्त वह जगल में गया. लकडी काटते काटते उसे मध्यान्ह होगया । भोजन का समयहो जाने से "नयसार" के नौकर उसके लिये भोजन सामग्री ले आये।।
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१९४ यद्यपि वह अत्यन्त क्षुधातुर था, फिर भी भोजन करने के पहले किसी अतिथि को भोजन कराने की उसकी प्रवल इच्छा थी। इतने ही में कुछ मुनि जो कि थकावट और पसीने से क्लान्त हो रहे थे, उधर निकल आये। उनको देखते ही वह अत्यन्त प्रसन्न हुआ । उनको नमस्कार करके उसने पूछा-"भगवान् । इस भयङ्कर जंगल में जहां कि अच्छे अच्छे शत्रधारी भी आने में हिचकते हैं-आप किस प्रकार आ निकले ?" मुनियों ने कहा कि एक मनुष्य हमारे साथ था, वह हमें छोड़ कर चला गया,
और हम मार्ग भूल कर इधर चले आये । नयसार ने मन ही मन उस मनुष्य की अत्यन्त भर्त्सना की और अत्यन्त श्रद्धापूर्वक मुनियों को भोजन करवा कर उन्हे मार्ग पर लगा दिया। उसी दिन से उसने अपने जीवन को भी धर्म की ओर लगा दिया । और अन्त समय शत्रु भावनाओ के साथ मर कर वह सौधर्म स्वर्ग में देवता हुआ। 1, इस भरतक्षेत्र मे "विनीता" नामक एक श्रेष्ट नगरी थी। उस समय उसमें श्री ऋपभनाथ के पुत्र भरतचक्रवर्ती राज्य करते थे। उन्हीं के घर पर उपरोक्त प्रामचिन्तक "नयसार" केोजीव ने जन्मग्रहण किया। इसका नाम "मरीचि" रक्खा गया। एक बार अपने पिता भरत चक्रवर्ती के साथ मरीचि, भगवान ऋषभदेव के प्रथम समवशरण में देशना सुनने के निमित्त गया । ऋषभदेव के उपदेश को सुन कर उसने उसी समय दीक्षा ग्रहण कर ली और तदनन्तर वह भगवान ऋषभदेव के साथ ही साथ भ्रमण करने में लगा । इस प्रकार 'बहुत समय तक यह बिहार करता रहा ।
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एक बार भयकर ग्रीष्म ऋतु का आगमन हुआ, पृथ्वी तवे की तरह तपने लगी, सूर्य की सीधी किरणें पृथ्वी पर पड़ने लगी । ऐसे समय "मरीचि" मुनि भयङ्कर तृषा से पीडित हुए
और घबराकर चरित्रावरणीय कर्म के उदय से इस प्रकार सोचने लगे कि सुमेरु पर्वत की तरह कठिन इस साधुवृत्ति का भार वहन करने में मैं सवेथा असमर्थ हूँ। पर अव इस वृत्ति को किस प्रकार छोडूं, जिससे लोक निन्दा सहन न करना पडे । सब से अच्छा यही है कि इस वृत्ति को छोड़ कर मैं त्रिदण्डो सन्यास को ग्रहण करलं । इस प्रकार कष्ट से कायर होकर मरीचि ने उस वृत्ति को छोड़ दिया और त्रिदण्डी सन्यास को ग्रहण किया। __ एक वार ऋषभदेव भ्रमण करते करते पुनः विनीता नगरी के समीप आये। भरत चक्रवर्ती उनके दर्शनार्थ आये। समव. शरण सभा में भरत चक्रवर्ती ने पूछा-भगवन् ! इस सभा में कोई ऐसा भी व्यक्ति उपस्थित है या नहीं जो भविष्य के इसी चौबीसी में तीर्थकर होने वाला हो। इस प्रश्न के उत्तर में ऋषभदेव ने मरीचि को ओर संकेत कर कहा कि यह तेरा पुत्र मरीचि इसी भरतक्षेत्र में "वीर" नामक अन्तिम तीर्थकर होगा। इसके पहले यही पोतनपुर में “त्रिपुष्ट" नामक प्रथम वासुदेव और
१ श्वेताम्बरी ग्रन्थकर्ताओं का कथन है कि इस प्रकार जाति भेद करके मरीचि ने "नीच "गोत्र" कर्म का वन्द कर दिया था। इसी के परिणाम स्वरूप इसके नीव को नीच गौत्र देवानन्दा ब्राह्मणी के गर्भ में जाना पड़ा था। पर दिगम्बरी अथकार इस बात को नहीं मानते।
. - लेखक
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१९६ विदेहक्षेत्र की मूकापुरी नामक नगरी मे "प्रियमित्र" नाम का चक्रवर्ती होगा। __ इस बात को सुनकर "मरीचि" हर्ष से उन्मत्त होकर नाचने लगा। वह उचे स्वर से कहने लगा कि पोतनपुर में मैं पहला वासुदेव होऊँगा, मूका नगरी में चक्रवर्ती होऊँगा और अन्त में अन्तिम तीर्थकर होऊँगा। अव मुझे किस बात की जरूरत है। मैं वासुदेवों में पहला, मेरा पिता चक्रवर्तियो मे पहला और मेरा दादा तीर्थंकरो में पहला । अहा मेरा कुल भी कितना उत्तम है !
श्री ऋषभदेव का निर्वाण ए पश्चात् मरीचि संसारी लोगो को उपदेश दे दे कर उच्चचरित्र साधुओ के पास भेजता था। एक वार वह बीमार हुआ। जव उसकी परिचर्या करने के निमित्त कोई उसके,समीपन आया तो उसे बड़ी ग्लानि हुई और स्वस्थ होने पर उसने अपना एक शिष्य बनाने का विचार किया। दैवयोग से अच्छा होने पर उसे “कपिल" नामक एक कुलीन मनुष्य मिला, उसको उसने जैनधर्म का उपदेश दिया। उस समय कपिल ने पूछा कि आप स्वयं इस धर्म का पालन क्यो नहीं करते हैं। मरीचि ने कहा-मैं उस धर्म का पालन करने मे समर्थ नहीं हूँ!" "कपिल ने कहा कि तब क्या आपके मार्ग मे धर्म नहीं है ? यह प्रश्न सुनते ही उसे प्रमादी जान अपना शिष्य बनाने की इच्छा से मरीचि ने कहा कि "धर्म तो उस मार्ग मे भी है, और इस मार्ग में भी है।" इस पर कपिल उसका शिष्य हो गया। जैन पुराणों का कथन है कि इस समय मिथ्याधर्म को उपदेश देने से "मरीचि" ने कोटाकोटि सागरोपम प्रमाण संसार का उपार्जन किया। उस पाप
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भगवान् महावीर की बिना कुछ आलोचना किये हुए ही अनशन के द्वारा उसने देह त्याग की और ब्रह्मदेव लोक में देवता हुआ। . ब्रह्मदेव लोक से च्यव कर मरीचि का जीव "कौलाक" नामक ग्राम में कौशिक नामक ब्राह्मण हुआ । विषय में अत्यन्त आसक्त, द्रव्योपार्जन मे तत्पर और हिंसा करने में अत्यन्त क्रूर एस ब्राह्मण ने बहुत काल निर्गमन किया। और अन्त में विदएडी से मृत्यु पाकर कई भवों में भ्रमण करता हुआ वद 'स्थूणां' नामक स्थान में "मित्र" नामक ब्राह्मण हुआ । वहां पर भी त्रिदण्डी से मृत्यु पाकर वह सौधर्म देवलोक में मध्य स्थिति चाला देव हुआ। वहां से च्यव कर "अग्न्युद्योत" नामक ब्राह्मण हुआ । इस जन्म में भी वह पूर्व की तरह "त्रिदण्डी" हुआ। उम योनि से मृत्यु पाकर वह इशान स्वर्ग मे देवता हुआ । वहां से च्यव कर मन्दिर नामक सन्निवेश में "अग्निभूति" नामक ब्राह्मण हुआ । उस भव में भी "त्रिदण्डी" ग्रहण कर बहुत सी
आयु का उपभोग किया और अन्त मे मर कर सनत्कुमार देवलोक में मध्यम आयुवाला देव हुआ। वहां से च्यव कर श्वेताम्बी नगरी में भारद्वाज नामक विप्र हुआ । उस भव में त्रिदण्डी होकर बहुत आयु भोगने के पश्चात् मृत्यु पाकर माहेन्द्र कल्प में मध्यम आयुवाला देव हुआ। वहां से च्यव कर राजगृही में वह "स्थावर" नामक ब्राह्मण हुआ। वहां से मृत्यु पाकर वह ब्रह्मदेव लोक में मध्यम आयुवाला देव हुआ। । राजगृही नगरी में "विश्वनन्दी" नामक राजा राज्य करता था। उसकी “प्रियङ्ग" नामक स्त्री से "विशाखनन्दी" नामक एक पुत्र हुआ । उस राजा के "विशाख भूति" नामक एक भाई भी
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काल की तरह वहां से निकला। उस सिह को पैदल अपनेको सवार, एवं उसे निःशस्त्र और अपने आपको सशस्त्र देख कर "त्रिपुष्ट" ने विचारा कि यह युद्ध तो समान युद्ध नहीं है । यह सोच कर वह सत्र शस्त्र को फेंक कर रथ पर से उतर पड़ा । यह देखते ही उस सिंह को जाति स्मरण हो आया। उसने अत्यन्त क्रोधान्वित हो "त्रिपुष्ट" पर आक्रमण किया, पर त्रिपुष्ट ने बहुत शीघ्रता के साथ एक हाथ उसके नीचे के जबड़े में और दूसरा ऊपर के जबड़े मे डाल दिया और अपने अखण्ड पराक्रम से उसके मुह को चीर दिया । सिंह घायल होकर गिर पड़ा । एक साधारण नि.शस्त्र मनुष्य के द्वारा अपनी यह दशा देख कर वह बड़ा दुखी हो रहा था, उमी समय इंद्रभूति गणधर के जीव ने जो कि उस समय " त्रिपुष्ट" का सारथी था, उस सिंह को प्रबोधा, जिससे शान्ति पाकर सिंह ने प्राण त्याग किया। उधर दोनों कुमार अपना कर्तव्य पूर्ण कर वापस पोतनपुर आ गये ।
इस घटना को सुन कर "अश्वग्रीव" त्रिपुष्ट से बहुत डरने लगा, उसने कपट के द्वारा इन दोनों ही कुमारों को मार डालने की योजना की, पर जब वह सफल न हुई तो उसने उनके साथ प्रत्यक्ष युद्ध छेड़ दिया । इसी युद्ध में वह स्वयं त्रिपुष्ट के हाथो
'भगवान् महावीर
- या
'मारा गया ।
इसके पश्चात् त्रिपुष्ट ने दिग्विजय करना आरंभ किया । अपने पराक्रम से दक्षिण भरतक्षेत्र तक विजय कर वे वापस पोतनपुर लौट आये । इस विजय में उन्हे कई अत्यन्य मोहक कण्ठवाले गायक भी मिले थे। एक वार रात्रि के समय उन गायकों का गाना हो रहा था, और वासुदेव
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पलंग पर लेटे हुए
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श
भगवान् महावीर सुन रहे थे । उन्होंने शैय्यापाल को आज्ञा दे रक्खी थी कि जब मुझे निद्रा लग जाय तब इन गायकों को विदा कर देना । कुछ समय पश्चात् त्रिपुष्ट तो सो गये पर संगीत मे तल्लीन हो जाने के कारण शैय्यापाल गायकों को विदा करना भूल गया। यहा तक कि उन्हें गाते गाते प्रातःकाल हो गया। उन गायको को गाते देख कर वासुदेव ने क्रोधित हो शैय्या पालक में पूछा कि ' तू ने अभी तक इनको विदा क्यों नहीं किये। शैय्यापाल ने कहा-प्रभु संगीत के लोभ से । यह सुन कर उनका क्रोध और भी भमक उठा और तत्काल ही उन्होंने उसके कान में गर्म गर्म गला हुआ सीसा ढालने की आज्ञा दी। इससे शैय्यापाल ने महायत्ररणा के साथ प्राण त्याग किये । इस दुष्ट कृत्य से "त्रिपुष्ट" ने भयकर प्रसातावेदनीयकर्म का धन्ध कर लिया । यहां से मृत्यु पाकर ये सातवें नरक में गये । और उनके वियोग में दीक्षा लेकर "अचल वलभद्र " मोन गये ।
नरक में से निकल कर "त्रिपुष्ट" का जीव केशरी (सिंह) हुआ, वहाँ से मृत्यु पाकर वह मनुष्य चौधे नरक में गया । इस प्रकार उसने तिर्यच और मनुष्य योनि के कई भवों में भ्रमण किया । तदनन्तर मनुष्य जन्म पा उसने शुभ कर्मों का उपार्जन किया, जिसके प्रताप में वह अपर विदेह की मूकानगरी के धनञ्जय राजा की रानी “धारियो" के गर्भ में गया । उस समय धारिणी को चक्रवर्ती पुत्र के सूचक चौदह स्वम दृष्टि गोचर हुए। गर्भ स्थिति पूर्ण हुए पश्चात् रानी ने एक सम्पूर्ण लक्षणो से युक्त पुत्र को जन्म दिया | माता पिता ने उसका नाम "प्रिय मित्र" रक्खा क्रमशः उसने बालकपन से यौवन प्राप्त किया, उधर संसार से
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विरक्त हो धनजय राजा ने सत्र राज्य भार इसे दे दीक्षा ग्रहण कर ली। राज्य सिंहासन पर बैठने के पश्चात् इसने अपने पराक्रम से छहो खण्डों को विजय किया। और चक्रवर्ती उपाधि ग्रहण की। तदनन्तर वह अत्यन्त न्याय-पूर्वक पृथ्वी का पालन करने लगा।
एक समय मूकानगरी के उद्यान में "पोहिल" नामक प्राचार्य पधारे, उनसे धर्म का स्वरूप समझ कर इसने अपने पुत्र को सिंहासन पर विठा दीक्षा ग्रहण क रली। बहुत समय तक तपस्या करके अन्त में मृत्यु पा महाशुभ वर्ग में यह "सर्वार्थ" नामक विमान पर देवता हुआ ।
महाशुक्र देवलोक से च्यव कर वह भरतखण्ड के अन्तर्गत 'छत्रा' नामक नगरी में जितशत्रु राजा की भद्रा नामक खी के गर्भ से नन्दन नामक पुत्र हुआ। उसके युवा होने पर जित-शत्रु ने राज्य का भार उसे दे दीक्षा ग्रहण की । बहुत समय पश्चात् इसने भी ससार से विरक्त होकर पोट्टिलाचार्य के पास दीक्षा प्रहण कर ली । अत्यन्त कठिन तपस्या करने के पश्चात् इसने इसी भव में तीर्थकर नामक नामकर्म का उपार्जन किया । पश्चात् साठ दिवस तक अनशन वृत ग्रहण कर वह दशम स्वर्ग में पुष्योचर नामक विस्तृत विमान की उपपाद नामक शैय्या में देवता हुआ। एक अन्तर्मुहूर्त में वह मूहद्धिक देव हो गया । पश्चात् अपने ऊपर रहे हुए दृष्य वस्त्र को दूर कर शैय्या पर वैठ कर उसने सब सामग्रियां देखी । उन सामग्रियो को देख कर वह अत्यन्त विस्मित हुआ। पर अवधि ज्ञान के बल से यह सब धर्म का प्रभाव जान वह शान्त हो गया। इसके पश्चात् उसके सेवक सब
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भगवान् महावीर देवता लोग इकट्ठे हो कर वहां आये, उन्होंने हाथ जोड़ कर इस प्रकार कहना प्रारम्भ किया।
"हे स्वामी । हे जगत को आनन्द देने वाले । हे जगत का उपकार करने वाले । तुम जयवन्त होओ। चिरकाल तक सुखी हो ओ। तुम हमारे स्वामी हो, रक्षक हो, और यशस्वी हो, तुम्हारी जय हो। हम तुम्हारे श्राज्ञाकारी देव हैं, ये सुन्दर उपवन हैं। ये स्नान करने की वापिकाएं हैं। यह सिद्धाय तन है। यह "सुधर्मा" नामक एक सभा भवन है और यह स्नानागृह है। इस प्रकार उनकी स्तुति कर देवता उनकी सेवा में जुट गये । इस स्वर्ग में अपनी लम्बी आयु को भोग कर अन्त में वहां से च्यव कर इनका जीव "त्रिशला" रानी के गर्भ में स्थित हुआ।
भगवान महावीर के इन भवो के वर्णन से और मतलब चाहं हासिल न होता हो । पर दार्शनिक तत्व तो इन में कई स्थान पर देखने को मिलते हैं। सबसे पहली बात हमें यह मालूम होती है कि तपस्या करने एवं मुनिवृत्ति ग्रहण करने का अधिकार प्रत्येक मनुष्य को नहीं होता। जो मनुष्य श्रावक-जीवन में इच्छाओं का दमन करने का पूर्ण अभ्यास नहीं कर लेता; जिसकी आत्मा से शारीरिक मोह को वृतियाँ प्रायः नए नहीं हो जाती; काम, क्रोध, लोभ, मोहादि की कामवृतियो पर निसका अधिकार नहीं हो जाता, उसे मुनि वृति प्रहण करने का कोई हक नहीं होता। प्रवृत्ति मार्ग से बिलकुल विरक्त हुए विना निवृत्ति मार्ग को ग्रहण कर लेना पूर्ण अनाधिकार चेष्टा है। इसी । सिद्वान्त का पूर्ण उपयोग हम मरीचि के जीवन में होता हुमा
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देखते हैं । बिना सोचे समझे, चरित्र की अपूर्ण अवस्था में ही मुनि वृत्ति ग्रहण कर लेने का कितना दुष्परिणाम उसे सहन करना पडा । तपस्या त्याग और सयम का अभ्यास मनुष्य को जन्म से ही करना चाहिये, इसके लिये मुनिवृत्ति ही कोई आवश्यक वस्तु नहीं है । श्रावक वृत्ति में भी वह इन गुणों को पराकाष्ठा पर पहुंचा सकता है । श्रावक वृत्ति मे जब वह आत्मा का पूर्ण विकास करले, जब उसे यह पक्का विश्वास हो जाय कि देहादिक पुद्गलो
और सांसारिक पदार्थों से उसे पूर्ण विरक्ति हो गई है तब वह चाहे तो मुनि वृति ग्रहण कर सकता है। इसक पहले असमय में ही बिना योग्यता प्राप्त किये ही मुनि वृत्ति को ग्रहण कर लेने से भयङ्कर हानि होने की सम्भावना होती है। किसी भी प्रकार का पकान यदि एक नियमित मात्रा मे खाया जाय तो निश्चय है कि वह खाने वाले को लाभ पहुंचायेगा, पर यदि वही पकान कसी कम खुराक वाले को अधिक तादाद में खिला दिया जाय तो लाभ के बदले हानि ही अधिक पहुँचावेगा। इससे पकवान को बुरा नहीं कह सकता, यह दोष तो उस खाने वाले की पात्रता का है। इसी प्रकार मुनि वृति को कोई बुरा नहीं कह सकता, मोक्ष का सच्चा मार्ग यही है। पर इस मार्ग पर चलने के पूर्व पात्रता -को प्राप्त कर लेना अत्यन्त आवश्यक है-बिना पात्रता प्राप्त किये हुए अनजान की तरह इस मार्ग पर चलने से बड़ा अनिष्ट होने का डर है। • दूसरी बात हमें यह देखने को मिलती है कि मनुष्य को अपने सुख अपनी सम्पत्ति अपनी शक्ति एवं अपनी कुलीनता आदि बातों का अहकार कभी न करना चाहिये। अहकार यह
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भगवान् महावीर मनुष्य का एक प्रबल शत्रु है। जब मनुष्य हृदय में अहंभाव की उत्पत्ति होती है तब उसकी आत्मा उच्चस्थान से पतित होकर चहुत निकृष्ट स्थिति का उपार्जन करती है। कार्य के साथ उसका फल, प्रयत्न के साथ उसका परिणाम, और आघात के साथ उसका प्रत्याघात बँधा हुआ है । आत्मा जव अहंकार के वशीभूत हो कर अपने से हीन कोटि वाले की भर्त्सना करनी है तब वह उसी स्थिति का वन्ध बाँधती है । "मरीचि” ने एक बहुत ही थोड़े समय के लिए अपनी जाति और कुल का अभिमान किया था उसका फल भी उसे भुगतना पड़ा । अहङ्कार ऐसी भयङ्कर वस्तु है कि वह महापुरुषो का पीछा भी नहीं छोड़ती ।
इसी प्रकार और भी अनेक तत्व हमे इन भवो के वर्णन मे देखने को मिलते हैं । उन सबका विस्तृत निवेचन करना इस ग्रन्थ में असम्भव है । पाठक स्वयं निष्कर्ष निकाल सकते हैं।
भगवान महावीर का जन्म
त्रिशला रानी को गर्भ धारण किये जब नव मास और साढ़े सात दिन हो गये, तब एक दिन दशी दिशायें प्रसन्न हो उठी । सुगन्धित पवन बहने लगा, सारा ससार हर्प से परिपूर्ण हो उठा, पुष्प वृष्टि होने लगी । चारों ओर शुभ शकुन होने लगे। वह दिन चैत्र शुक्ला त्रयोदशी का था, उस समय चन्द्र हस्तोतरा नक्षत्र में था । ठीक ऐसे ही समय मे त्रिशला देवी ने सिंह के लच्छन वाले सुवर्ण के समान कान्तिवान एक सुन्दर पुत्र को जन्म दिया ।
जैन शास्त्रों के अन्तर्गत प्रत्येक तीर्थंकर के जन्म का वर्णन करते हुए लिखा है कि जब किसी तीर्थकर का जन्म होता है तो
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भगवान महावीर
२०८ स्वर्ग मे सौधर्म नामक इन्द्र का आसन कम्पायमान होता है। इस शकुन के द्वारा वह तीर्थकर का जन्म जान तत्काल अपने कुटुम्ब-कवीले के साथ सुतिकागृह में जाता है। वहां वह तीर्थकर की माता को मोह निद्रा के वशीभूत कर तीर्थंकर के स्थान पर नकली वालक को रख तीर्थकर को उठालेता है। एक इन्द्र प्रभु पर छत्र लगाता है, दो उन पर दोनो और से चंवर करते हैं ओर एक वज्र उछालता हुआ उनके आगे चलता है। सब लोग मिल कर उन्हे सुमेरु पर्वत की पाण्डुक शिला पर ले जाते हैं । यहां पर एक हजार आठ कलशो से सब लोग मिल कर उनका अभिषेक करते हैं। उसके पश्चात् सब लोग मिल कर उनकी स्तुति करते हैं । तदनन्तर उन्हे वापिस उनकी माता के पास लाकर रख देते हैं। और उसकी मोह निद्रा को दूर कर एव उस नकली बालक को मिटा कर वे लोग अपने स्थान पर वापस चल देते हैं।
ये सब वाते प्रत्येक तीर्थकर के जन्म समय मे होती हैं ऐसा जैन पुराण मानते हैं । अत: यह कहने की आवश्यकता नहीं कि भगवान, महावीर के जन्म समय में भी ये सब बातें हुई।
दूसरे दिन प्रातःकाल राजा सिद्धार्थ ने पुत्र जन्म की खुशी में सब कैदियो को छोड़ दिया। तीसरे दिन माता पिता ने प्रसन्न होकर अपने पुत्र को सूर्य और चन्द्र के दर्शन करवाये । छठे दिन मधुर स्वर से सुन्दरी कुल शीला रमाणीयां मङ्गल गीतों को गाने लगी। कुंकुम के अङ्गराग को धारण करने वाली सोलह श्रृंगारो से युक्त अनेक कुलवती खियों के साथ राजा और रानी दोनो ने रात्रि जागरण उत्सव किया । जब ग्यारहवां दिन उप
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भगवान् महावी स्थित हुआ तब सिद्धार्थ राजा और त्रिशला देवी ने पुत्र का जातकर्मोत्सव किया । बारहवें दिन राजा ने अपने सब बन्धु-बान्धुओं
और जाति वालों को बुलाये । वेसव कई प्रकार के सुन्दर मङ्गलमय उपहार लेकर उपस्थित हुए । सिद्धार्थ राजा ने योग्य प्रतिदान के साथ उनका सत्कार किया। तत्पश्चात उसने उन सबी से "इम पुत्र के गर्भ में आने के दिन ही से हमारे घर में, नगर में और राज्य में धन धान्यादिक की वृद्धि हो रही है अत. इसका नाम "वर्द्धमान" रक्खा जाय"। सत्र लोगों ने इसका अनुमोदन किया। __ शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा की तरह बालक "वर्द्धमान" क्रमश बढ़ने लगे, बालकपन से ही उनकी प्रतिभा और उनकी शक्ति के कई लक्षण दृष्टि गोचर होने लगे । माता पिता को अपनी वाल्यक्रीड़ाओ से आनन्दित करते हुए "वर्द्धमान" ने क्रमसे युवावस्था मे पैर रक्खा । जन्म काल से लेकर अब तक भी अनेक चमत्कारिक घटनाओं से यद्यपि उनके माता पिता को उनका महान भविष्य दृष्टि गोचर होने लग गया था तथापि सुलभ स्नेह के वश होकर उनकी माता ने उनके विवाह का प्रबन्ध करना प्रारम्भ किया । इधर राजा समरवोर ने अपनी "यशोदा" नामक कन्या का विवाह “वर्द्धमान" कुमार से करने का प्रस्ताव सिद्धार्थ के पास भेजा । सिद्धार्थ ने उचर दिया मुझे और त्रिशला को कुमार का विवाह महोत्सव देखने की अत्यन्त अकांक्षा है। पर "वर्द्धमान" जन्म ही से संसार के प्रति कुछ उदासीन से रहते हैं । इस कारण हम तो उनके आगे ऐसा प्रस्ताव ले जाने का साहस नहीं कर सकते । हाँ आज उनके मित्रों द्वारा उनके आगे इस विषय की
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२१० चर्चा अवश्य करवाएंगे। इतना कह कर राजा ने उनके मित्रों को कई बातें समझा बुझा कर उनके पास भेजे । उन लोगोने जाकर बहुत ही प्रेम युक्त शब्दों में वर्द्धमान के सम्मुख विवाह का प्रस्ताव रखा वर्द्धमान कुमार ने उत्तर में कहा-"तुम हमेशा मेरे साथ रहने वाले हो और मेरे संसार-विरक्त भावों से भी तुम भली भांति परिचित हो, फिर व्यर्थ ही क्यों ऐसा प्रस्ताव सम्मुख रखते हो ?
मित्रों ने कहा-कुमार | हम जानते हैं कि तुम्हारे विचार संसार से विरक्त हैं पर इसके साथ तुम्हारे ये भी विचार हैं कि "माता पिता" की आज्ञा का अलंध्य समझ कर उसका पालन करना चाहिये-इसके अतिरिक्त तुमने हम लोगों की याचना की भी कभी अवहेलना न की। फिर आज एक साथ सवको दुःखी क्यों करते हो?
वर्द्धमान-मेरे मोहग्रस्त मित्रो। तुम्हारा यह आग्रह बहुत खराब है। क्योंकि स्त्री आदि का परिग्रह भव भ्रमण का कारण होता है। मैं तो अब तक दीक्षा भी ग्रहण कर लेता पर इसी एक बात से-कि इससे मेरे माता पिता को वियोग जनित दुख होगा, मैं अब तक रुका हुआ हूँ।
इतने में धीरे धीरे "त्रिशला" रानी ने कमरे में प्रवेश किया, उसको देखते ही "वर्द्धमान" उठ खड़े हुए और कहा-माता! तुम आई यह तो अच्छा हुआ। पर तुम्हारे इतना कष्ट करने का क्या कारण था, मुझे बुलाती तो मै खयं वहा आ जाता ।
• त्रिशला-नन्दन | अनेक प्रकार के शुभ कर्मों के उदय स्वरूप तुम हमारे यहाँ अवतरित हुए हो। जिनके दर्शन को तीनों लोक लालायित रहते हैं, वही हमारे यहां पुत्र रूप से
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भगवान महावीर अवतरित हुए हैं। यह हमारे कम सौभाग्य की बात नहीं है। मैं यह भी जानती हूँ कि तुम्हारा निर्माण जगत की रक्षा के निमित्त हुआ है। पर फिर भी हमारा स्नेह प्रधान हृदय पुत्रत्व की भावना को तजने में असमर्थ है। हमारी प्रबल इच्छा है कि हम तुम्हें वधु सहित देखें। इसलिये केवल हमको संतुष्ट करने के निमित्त ही तुम हमारे इस कथन को स्वीकार करो ।
माता के इस नम्र निवेदन को सुन कर महावीर बड़े विचार में पड़े । अन्त में उनका हृदय पसीज गया ।उन्होंने माता पिता को श्राज्ञा को स्वीकार कर "यशोदा" नामक राजकुमारी से विवाह कर लिया। शरीर से गृहवास में होते हुए भी महावीर का हृदय जंगल में था । उदित भोग कमों को वे बिल्कुल उदासीन भाव से भागते थे । जिन महात्माओं का हृदय भोग और योग इन दोनों भावों में समान रूप से रह सकता है, उनका वैराग्य ससार के प्रति रहे हुग द्वैप में से अथवा निराशा मे से प्रकट नहीं होता। वस्तुस्थिति के वास्तविक दर्शन में से ही उनका वैराग्य प्रकट होता है। वे जल के कमल की तरह ससार के अंतर्गत रहते हुए भी उससे विरक्त रहते हैं। उदयवान कर्मों की प्रकृति को तटस्थ भाव से भोग कर उसकी निर्जरा करना और राग द्वेप युक्त वायुमण्डल के मध्य मे भी "स्थित प्रतिज्ञ" रहनाय उनका भीषण व्रत होता है। बर्द्धमान कुमार इसी प्रकार अपना वैवाहिक जीवन व्यतीत करते थे। इस विवाह के
• दिगम्बरी ग्राथ इस बान साथा प्रनिल्न ई यह यात पहले भी लिम्ब चुके हैं। उनके मत से भावान् महावीर आजन्म नपाचारी थे।
-लेखक
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भगवान् महावीर
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फल स्वरूप उन्हे "प्रियदर्शना" नामक एक कन्या भी हुई, जिसका विवाह " जामालि" नामक राजपुत्र के साथ कर दिया गया । वर्द्धमान जब अट्ठाईस वर्ष के हुए, तब उनके माता पिता का
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स्वर्गवास हो गया । उनके वियोग से उनके भाई नन्दिवर्द्धन को बड़ा दुख हुआ । इस पर वर्द्धमान ने उनको सान्त्वना देते हुए कहा - " भाई । संसार का संसारत्व ही द्रव्य के उत्पाद और व्यय मे रहा हुआ है । जीव के पास हमेशा मृत्यु बनी रहती है । । जीना और मरना यह तो संसार का नियम ही है । इसके लिये शोक करना तो कायरता का चिह्न है ।" प्रभु के इन वचनों से नन्दिवर्द्धन कुछ स्वस्थ हुए, पश्चात् उन्होंने पिता के सिंहासन पर अधिष्ठित होने के लिये महावीर से कहा- पर ससार से विरक्त वर्द्धमान ने उसे स्वीकार नहीं किया । इस पर सब मंत्रियों ने मिलकर " नंदिवर्द्धन” को सिहासन पर बिठलाया ।
कुछ दिन पश्चात् वर्द्धमान - प्रभु ने भाई के पास जाकर कहा - " इस गार्हस्थ्य जीवन से अब मैं उकता गया हूँ इसलिए मुझे दीक्षा ग्रहण करने की आज्ञा दो । “नन्दिवर्द्धन" ने बहुत दुखित होकर कहा " कुमार ! अभीतक मैं अपने माता पिता का वियोग जनित दुख ही नहीं भूला हूँ। ऐसे समय में तुम और क्यो जले पर नमक छोड़ रहे हो ।"
: बन्धु की इस दीन वाणी को सुन कर कोमल हृदय " वर्द्धमान" प्रभुने कुछ दिन और गृहस्थाश्रम में रहना स्वीकार किया । पर यह समय उन्होंने बिल्कुल भाव-मुनि की तरह काटा । अन्त में दो वर्ष और ठहर कर उन्होंने दीक्षा ग्रहण की। इस अवसर पर देवताओं ने दीक्षा कल्याण का महोत्सव मनाया ।
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भगवान् महावीर
अब उस सवाग सुन्दर शरीर पर बढ़िया राज वखों के स्थान पर दिगम्वरत्व शोभित होने लगा। जो कोमल शरीर आजतक राज्य की विपुल स्मृद्धि के मध्य में पालित हुआ था। और जिसकी तप्त सुवर्ण के ममान ज्योति ने कमी उष्ण समोर का स्पर्श तक नहीं किया था, वही मोहक प्रतिमा आज सयम कफनी से आच्छादित हो गई। संसार के पापों को धो डालने के निमित्त भगवान ने सब पुण्य सामग्रियों का त्याग कर दिया । जिस शरीर की शोभा को समार कीच में फंसे हुए प्राणी अपना सर्वख सममते हैं, उसी को प्रभु ने केश लोच करके विनष्ट कर दी। जिस भोग के क्षणभर के वियोग से ही संसारी लोग कातर हो जाते हैं, उसी भोग को भगवान महावीर ने तिलमात्र खेद किये बिना ही तिलौंजली दे दी। परम सुन्दरी सुशीला पत्नी "यशोदा" प्रिय पुत्री "प्रियदर्शना" जेष्ठबन्धु "नन्दिवर्द्धन" राज्य की अतुल लक्ष्मी इन सवा का त्याग करते हुए उन्हें रंच मात्र भी मोह नहीं हुआ। ___दीक्षा ग्रहण किये पश्चात् उसी समय प्रभु को मन.पर्यय ज्ञान की प्राप्ति हुई । यह दिन ईसा के ५६९ वर्ष पूर्व मार्गशीर्ष फुरण दशमी का था।
भगवान् का भ्रमण । भगवान महावीर के भ्रमण का बहुत सा वृतान्त गत मनोवैज्ञानिकखण्ड में दिया जा चुका है। अत: इस स्थान पर उसको पुनवार देने की आवश्यकता न थी। पर कई घटनाएँ ऐसी रह गई हैं जो 'मनोवैज्ञानिक खण्ड' में घट गई है और जिनका दिया जाना यहां आवश्यक है।
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भगवान् महावीर
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सब से प्रथम भगवान महावीर पर गुवाले का उपसर्ग हुश्रा जिसका वर्णन पहले किया जा चुका है। एक समय भगवान महावीर भ्रमण करते करते "माराक" नामक ग्राम के समीप आये । वहाँ पर "दुई जान्तक" जाति के संन्यासी रहते थे। उन संन्यासियों का कुलपति महावीर के पिता राजा सिद्धार्थ का बड़ा मित्र था। उसने एक चतुर्मास उसी शान्त स्थान में व्यतीत करने की उनसे प्रार्थना की। ममता रहित होने पर भी महावीर ने उसे योग्य स्थान समझ वहाँ पर रहना स्वीकार किया। उस कुलपनि ने तव ममतावश होकर उनके लिये एक फूस का झोपड़ा वना दिया। वर्षाकाल में पानी बरसने के कारण उस झोपड़ी पर बहुत सा हरा घास जम गया। उसे देख कर ग्राम की गायें घास खाने के लोभ से वहाँ आकर चरने लगी। दूसरे तपस्वियों ने तो अपनी मोपड़ियों के आगे से गायों को भगा दिया पर महावीर बिलकुल निश्चेष्ट रहे । यहां तक कि उन गौओं ने उनकी सारी झोपड़ों को तुण रहित कर दी। यह देख कर कुलपति को बड़ा खेद हुआ, उसने उस विषय में महावीर को कुछ उपदेश दिया, उसके वाक्यों को सुन कर प्रभु ने सोचा कि मेरे कारण इन सब लोगों को खेद होता है, अतः अब मेरा इस स्थान पर रहना ठीक नहीं। उसी समय प्रमुन निन्नाकिंत पाँच अभिग्रह घारण किये। १-अ प्रीति कर स्थान पर कभी न रहना (३) प्रायः मौन धारण करके ही रहना (४) अलि पात्र में भोजन करना। (१) गृहस्थ का विनय नहीं करना। इस प्रकार पांच अभिग्रहधारण करके वे चतुर्मास के पन्द्रह दिन व्यतीत होने पर नियम विरुद्ध होते हुए भी वहां से चल कर "अस्थिक" नामक ग्राम में आये ।
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मगवान् महावीर प्रभु ने वह चतुर्मास वही व्यतीत करना चाहा, पर प्राम के लोगों ने उन्हें रोते हुए कहा कि यहां पर एक यक्ष रहता है। वह यहां पर किसी को नहीं रहने देता। जो कोई हठ करके यहां पर रात रहता है उसे वह बड़ी निर्दयता से मार डालता है। इसलिये आप कृपा करके पास ही के इस दूसरे स्थान पर चतुर्मास निर्गमन कीजिए। पर प्रभु ने उनकी बात को स्वीकार न कर वही रहने की आज्ञामांगी। लाचार दुखित हदयसे उन्होंने उन्हें वहां रहने की श्राज्ञा दी। प्रभु एक कोने में कायोत्सर्ग करके खड़े हो गये। सन्ध्या को उस मन्दिर के पुजारी ने भी उन्हे वहां रहने से मना किया, पर प्रभु ने मौन धारण कर रक्खा था। वे किसी प्रकार वहां से विचलित न हुए।
कमशः रात्रि हुई । वह यक्ष मन्दिर में पाया, महावीर को वहां देखते ही वह क्रोध से आग बबूला हो गया, उसने उनको भयभीत करने के निमित्त भयङ्कर अट्टहास किया । वह अट्टहास सारे आकाश में गूंज कर वायु पर नृत्य करने लगा। पर महावीर उससे तनिक भी विचलित न हुए। तत्पश्चात् उसने भयङ्कर हाथी, पिशाच आदि का रूप धर कर महावीर को डराना चाहा, जव वह इन प्रयत्नों में भी असफल हुआ तो भयङ्का सर्प का रूप धारण कर उसने उनको स्थान २ पर जोर से डसना प्रारम्भ किया। पर तपस्या के तेजोमय प्रभाव से उस विप का भी उन पर कुछ असर न हुआ। वे पूर्ववत् अटल रहे। इसके पश्चात् उसने और भी कई प्रकार से उन्हे कष्ट पहुँचाना चाहा। पर जब सब तरह से वह हार गया तो वह बहुत विस्मित हुआ। इन्हे उसने महाशक्तिशाली समझ कर नमस्कार किया और
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मावान् महावीर
२१६ कहने लगा-"दयानिधि ! तुम्हारी शक्ति को न समझ कर मैन तुम्हारे अत्यन्त अपराध किये हैं इसके लिए मुझक्षमा कीजिये। ___ महावीर ने कहा-"यक्ष ! तू वास्तविक तत्व को नहीं समझता है। इसलिए जो यथार्थ तत्व है उसे समझ-चीनगग में देव बुद्धि, साधुओं में गुरु वुद्धि और शास्त्रों में धर्म बुद्धि राव । अपनी ही आत्मा के समान सब की आत्मा को समझ। किसी की आत्मा को पीडा पहुंचाने का संकल्प मत रख । पूर्व किए हुए पापो का पश्चाताप कर । जिससे तेरा कल्याण हो।"
महावीर के उपदेश से यक्ष ने सम्यक्त को धारण किया । और फिर नमस्कार करके चला गया। चतुर्मास वहां पर व्यतीत कर भ्रमण करते हुए प्रभु एक बार फिर 'मोराक नामक ग्राम में भाकर वहां के उद्यान में ठहरे। वहां पर एक "श्रच्छन्दक" नामक पाखण्डी रहता था । वह बड़ा दुराचारी था। और मन्त्र तन्त्र का ढोग कर लोगों को ठगा करता था। महावीर ने उसके पाखण्ड को दूर कर उसे प्रवोधा। ___ यहा से चल कर विहार करते करते प्रभु 'श्वेतान्वरी' के समीप आये। यहां से कुछ दूर पर "चण्डकौशिक' नामक दृष्टि विष सर्प का निवास स्थान था। वहां पर जाकर उन्होंने उसे समकित का उपदेश दिया। जिसका विस्तृत वर्णन मानो बैज्ञानिक के खण्ड में किया जा चुका है। ___ "कौशिक" सर्प का इस प्रकार उद्धार कर भगवान् 'उचरवाचाल' नामक ग्राम के समीप आये। एक पक्ष के उपवास का अन्त होने पर पारणा करने के निमित्त वे ग्राम में "नागसेन" नामक गृहस्थ के घर गये। उसी दिन उसका एकलौता पुत्र
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पापा।
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भगवान् महावार बारह वर्ष के पश्चात् विदेश से आया था। जिसका उत्सव मनाया जा रहा था। ऐसे समय में भगवान् उसके यहांगोचरी के निमित्त पधारे । उन्हें देखते ही वह आनन्द से पुलकित हो उठा।
और अपना अहो भाग्य समझ उसने बडे ही भक्ति भाव में भोजन करवाया।
यहां से विहार करके प्रमु 'श्वेताम्बी' की ओर चले। यहां को राजा बड़ा ही जिन भक्त था। भगवान का आगमन सुन कर बड़े हर्प के साथ अपने कुटुम्ब और प्रजा जनों के सहित उनके दर्शनार्थ आया। और बड़े ही भक्ति भाव से उसने प्रभु की वन्दना की। यहां से विहार करते हुए प्रभु अनुक्रम से 'सुरभिपुर' नामक नगर के समीप आये। यहां पर गंगा नदी को पार करना पड़ता था। इसलिए प्रभु दूसरे मुसाफिरों के साथ में एक नाव पर आरुढ़ हो गये।
इसी स्थान पर उनके त्रिपुष्ट योनी का वैरी उस सिंह का जीव जिमे कि उन्होंने मारा था "सुदृष्ट" नामक देव योनि में रहता था। महावीर को देखते ही उसे अपने पूर्ण भव का स्मरण हो आया। क्रोधित होकर बदला चुकाने के निमित्त उसने उन पर उपसर्ग करना शुरु किया। इस उपसर्ग का वर्णन भी हम पहले कर चुके हैं। उस उपसर्ग को कम्बल और सम्बल नामक दो देवों ने दूर किया। और भगवान् को सकुशल नदी पार पहुँचा दिया।
भगवान अपने चरण कमलों से गंगा नदी की रेती को पवित्र करते हुए आगे जा रहे थे, इतने ही में "पुष्य" नामक' एक ज्योतिपी ने पीछे से रेती में मुद्रित हुए, उनके चरण चिन्हों
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NTPCine.
भगवान् महावीर
२१८ लाको देखा । वह सामुद्रिक लक्षण का ज्ञाता था। उसने सोचा कि अवश्य इस गह से कोई चक्रवर्ती अभी गया है। उसे अभी तक राज्य प्राप्त नहीं हुआ है। पर शीघ्र ही होगा। क्या ही अच्छा हो यदि किसी छल के द्वारा उसके राज्य पर मैं अधिठित हो जाऊं। ऐसा सोचता हुआ वह वहाँ से उधर को चला । आगे जाकर देखता क्या है कि एक अशोक वृक्ष के नीचे महावीर प्रभु कायोत्सर्ग में खडे हैं। उनके मस्तक पर मुकुट चिन्ह और भुजाओं में चक्र चिन्ह दिखाई दे रहे थे। ज्योतिपि ने सोचा कि यह कैसा आश्चर्य है। चक्रवर्ती के तमाम लक्षणयुक्त यह व्यक्ति तो भिक्षुक है। अवश्य ये सामुद्रिक शास्त्र किसी झूठे पाखण्डी ने बनाए हैं। __ ज्योतिपो के मन की यह बात अवधि ज्ञान के द्वारा इन्द्र को मालूम हुई, इन्द्र तत्काल वहाँ आया और उसने उस ज्योतिषी को कहा-ो मूर्ख ? तू शाब की निन्दा क्यो कर रहा है। शाखकार कोई भी बात असत्य नहीं करते । तू तो अभी तक केवल प्रभु के बाह्य लक्षणों को ही जानता है। उनके अन्तर्लक्षणो से तू अभी तक अपरिचित ही है। इन प्रभु का मांस और रुधिर दूध के समान उज्जवल और सफेद है। इनके मुख कमल का श्वास कमल की खुशबू के समान सुगन्धित है। इनका शरीर बिल्कुल निरोगी और मल तथा पसीने से रहित है। ये तीनों लोक के स्वामी, धर्मचक्री और विश्व को आश्रय देने वाले सिद्धार्थ राजा के पुत्र महावीर हैं। चौसठों इन्द्र इन के सेवक हैं। इनके सन्मुख चक्रवर्ती किस गिनती में है। शास्त्र में कह हुए सब लक्षण बराबर हैं। इसके लिये तू जरा भी खेद न कर।
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भगवान महावीर मैं तुझे इच्छित फल दूंगा, इतना कह कर इन्द्र ने उसे उसकी इच्छानुसार-फल प्रदान किया तत्पश्चात प्रभु की वन्दना कर वह वापस चला गया।
"गौशाला" की कथा अपने चरण कमलों से पृथ्वी को पवित्र करते हुए भगवान् महावीर अनुक्रम से राजगृह नगर में आये । उसनगर के समीप नालन्दा नामक एक भूमि भाग था । उस भूमि भाग को एक विशाल शाला में प्रभु पधारे। उस स्थान पर वर्षाकाल निर्गमन करने के निमित्त उन्होंने लोगों की अनुमति ली। तत्पश्चात् मासक्षपण ( एक एक मास के उपवास) करते हुए प्रभु उस शाला के एक कोने में रहने लगे।
उस समय में "मखली" नामक एक मख्य था, उसकी स्त्री का नाम भद्रा था। ये दोनों पति-पत्नि चित्रपट लेकर स्थान स्थान पर घूमते थे । अनुक्रम से फिरते हुए ये "शखण" नामक प्राम में गये । वहां एक ब्राह्मण की गौशाला में उसे एक पुत्र हुआ। इससे उसका नाम भी उन्होंने "गौशाला" रक्खा। जब वह अनुक्रम से युवक हुआ तव उसने अपने पिता का रोजगार सीख लिया । “गौशाला" स्वभाव से हो कलह प्रिय था। माता पिता के वश में न रहता था। जन्म से ही यह लक्षणहीन
और विचक्षण था। एक धार वह माता पिता के साथ कलह करके स्वतंत्र भिक्षा के लिए निकल पड़ा। और घूमता घूमता राजगृह नगर में आया । जिस शाला को भगवान महावीर ने
* चित्रकला के जानने वाले मितु विषेष ।
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भगवान महावीर
२२० अलंकृत कर रक्खी थी, उसी में आकर यह भी ठहरा। इधर प्रभु मासक्षपण का पारण करने के निमित्त शहर में गये। और इन्होंने "विजयश्रेष्टी" के यहां आहार लिया । उस समय आकाश से देवताओं ने रनवृष्टि, पुष्पवृष्टि वगैरह पांच दिव्य + प्रकट किये । इस सवाद को सुन कर "गौशाला" बड़ा विस्मित हुआ। उसने सोचा कि यह मुनि कोई सामान्य तो मालूम नहीं होता। क्योकि इसको भोजन देने वाले के घर में जब ऐसी स्मृद्धि हो गई, तब तो अवश्य ही यह कोई बड़ा आदमी है । इसलिये मैं तो अब इस पाखण्डमय व्यवसाय को छोड़ कर इसका शिष्य हो जाऊं क्योंकि यह गुरु कभी निष्फल नहीं जायगा । कुछ समय के पश्चात् जव प्रभु आये तो "गौशाला" उनके समीप पहुंचा और नमन करके बोला "प्रभो । मैंने तो सुज्ञ होकर भी अभीतक आप के समान् महापुरुष को नहीं पहचाना। यह मेरा दुर्भाग्य था। पर अब मैंने आपको पहचान लिया है अतः मैं आपका शिष्य होऊंगा। आज से एक मात्र तुम्ही मेरे शरण दाता हो।" इतना कह कर वह उनके उत्तर की प्रतीक्षा करने लगा। पर प्रभु ने उसके उत्तर मे कुछ न कह कर मौन धारण किया। इधर "गौशाला" मनही मन प्रभु में गुरु भक्ति रख भिक्षावृत्ति से अपना निर्वाह करने लगा। वह दिन-रात प्रभु के साथ रहने लगा । कुछ दिनों पश्चात् प्रभु का दूसरा मास क्षपण पूरा हा। उस दिन उन्होंने "आनन्द" नामक गृहस्य के यहां आहार
जिसके यहा तीर्थंकर भोजन लेते हैं। उसके यहा देवता लोग रलवृष्टि आदि पाच दिव्य प्रकट गरते है-ऐसाजैनशास्त्रों का कथन है।
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मगवान महावीर लिया। तीसरे मास क्षपण के पूर्ण होने पर "सुनन्द" नामक गृहस्थ के यहां आहार लिया। "गोशाला"भी भिक्षावृत्ति से अपना निर्वाह करता हुआ दिन-रात प्रभु के साथ रहने लगा।
एकवार कार्तिकमास की पूर्णिमा के दिन "गौशाला" ने सोचा कि ये बहुत बड़े ज्ञानी हैं, ऐसा मैं सुनता रहता हूँ। आज मैं स्वयं इनके ज्ञान को परीक्षा करके देखूगा । ऐसा विचार कर उसने महावीर से पूछा- "प्रभो" आज प्रत्येक घर में वाषिक महोत्सव होगा । ऐसे मंगलमय समय मे मुझे क्या भिक्षा मिलेगी इसके उत्तर में "सिद्धार्थ" नामक देवता ने महावीर के हृदय में प्रवेश कर कहा-"भद्र ! आज तुम्हे खट्टा, मट्ठा कूर धान्य (विशेष प्रकार का अन्न) और दक्षिणा में खोटा रुपया मिलेगा" यह सुन "गोशाला" प्रातःकाल से ही उत्तम भोजन की तलाश में घर घर भटकने लगा। पर उसे कहीं भी भिक्षा न मिली। अन्तमें जब सायंकाल हुआ तब एक सेवक उसे अपने घर ले गया । और खट्टा मट्ठाऔर कूर का अन्न भिक्षा में दिया । अत्यन्त क्षुधातुर होने के कारण वह उस अन्न को भी खा गया। तत्पश्चात् जाते समय उसने उसे एक खराव रुपया दक्षिणा में दिया। यह सब देख कर वह अत्यन्त लजित हुआ । इस घटना से उसने
*-हेमचन्द्राचार्य ने लिखा है कि जिस समय प्रमु भ्रमण को निकले थे उम ममय इन्द्र ने उपसगी से इनका रक्षा करने के लिए "सिद्धार्थ नामक देवता को अदृश्य रूप से रहने की आशा दी थी। यह "सिद्धार्थ" हमेंशा इनके साथ रहता था। और जहा कोई पश्नोत्तर का काम पड़ता, उस समय महावीर के हृदय में पूवेश कर यह उमका जवाब देता था।
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भगवान महावीर
२२२ "जो होनहार होता है वही होता है" इस नियतिवाद के सिद्धान्त को ग्रहण किया ! __ यहां से विहार कर प्रभो 'कोल्लाक' और 'स्वर्णखल्ल' स्थानों में विचरते हुए 'ब्राह्मण' ग्राम में आये । इस ग्राम में मुख्य दो मुहल्ले थे। जिनके नन्द और उपनन्द दोनों भाई मालिक थे । भगवान् महावीर तो आहार लेने के निमित्त नन्द के महल्ले में गये, वहां पर उन्हे नन्द नेवड़ीहीभक्तिपूर्वक आहार करवाया। इधर "गौशाला" उपनन्द का बड़ा घर देख उधर गया । उपनन्द की आज्ञा से उसकी एक दासी इसे वासी चावल का आहार देने लगी। यह देख "गौशाला" उपनन्द का तिरस्कार करने लगा। इससे क्रोधित हो उपनन्द ने दासी को कहा कि यदि यह अन्न नलेता हो तो इसके सिरपर डाल दे। दासी ने ऐसा ही किय । इस पर "गौशाला" ने अत्यन्त क्रोधित होकर कहा कि “यदि मेरे गुरु में तप का तेज हो तो यह मकान जल कर भस्म हो जाय ।" प्रभु का नाम सुन कर आस पास रहने वाले व्यन्तरों ने उस घर को घास के पूले की तरह भस्म कर डाला। यहां से विहार करके भगवान् महावीर 'चम्पापुरी' नगरी को पधारे। यहां पर उन्होंने दो दो मास क्षपण करने की प्रतिज्ञा लेकर तीसरा चर्तुमास व्यतीत करना आरम्भ किया । चतुर्मास समाप्त करके "गौशाला" सहित प्रभो फिर 'कोल्लाक नामक ग्राम में आये। वहां एक शून्य गृह के अन्दर वे कायोत्सर्ग करके ध्यान मग्न होगये । “गौशाला" बन्दर की तरह चपलता करता हुआ उसके द्वार पर बैठ गया।
उस ग्राम के स्वामी को "सिंह" नामक एक पुत्र था। नवयौवनावस्था में होने के कारण वह अपनी “विघुन्मती" दासी के
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भगवान् महावीर
साथ रति क्रीड़ा करने के निमित्त उस शुन्य गृह में आया.। उसने ऊंचे स्वर से कहा "इस गृह में जो कोई साधु, ब्राह्मण या मुसाफिर हो वह वाहर चला जाय" । प्रभु तो कायोत्सर्ग मे होने के कारण मौन रहे, पर "गौशाला" इन शब्दों को सुनने पर भी कुछ न वोला । वह चुपचाप सव वातो को देखता रहा । जव उस युवक को कोई प्रत्युत्तर न मिला तब उसने उस दासी के साथ बहुत समय तक काम क्रीड़ा की। तत्पश्चात् जब वह घर से बाहर निकलने लगा, उस समय द्वार पर बैठे हुए। “गौशाला" ने उस "विद्युन्मती" का हाथ से स्पर्श कर लिया । जिससे वह चीख मार कर वोली-स्वामी किसी पुरुष ने मुझे स्पर्श किया । यह सुन "सिंह ने गौशाला को पकड़ कर खूब पीटा। जब वह चला गया तव गौशाला ने कहा- स्वामी ! तुम्हारे होते हुए मुझ पर इतनीमार पड़ी? यह सुन कर "सिद्धार्थ ने उनके शरीर में प्रविष्ट होकर कहा तू हमारे समान शील क्यो नहीं रखता? द्वार में बैठ कर इस प्रकार चपलता करने से तो उसका दण्ड मिलता ही है। ___यहां से विहार कर प्रभु "कुमार" नामक सन्निवेश में आये। वहां के चम्पक रमणीय उद्यान मे वे प्रतिमा धर कर रहे । इस ग्राम में “कुपन" नामक एक कुम्हार वड़ा धनिक था। मदिरापान का इसको भयङ्कर व्यसन था । उस समय की शाला मे मुनि चन्द्राचार्य नामक पाश्वनाथ प्रभु के एक बहु श्रुत शिष्य रहते थे। वे अपने शिष्य वर्द्धनसूरि को गच्छ के पाट पर विठा कर स्वयं "जिनकल्प" का दुष्कर प्रति कर्म करते थे। तप, सत्य, श्रुत, एकत्व और बल ऐसी पांच प्रकार की तुलना करने के
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भगवान् महावीर
२२४ नमित्त वे समाधि पूर्वक रहते थे। एक दिन "गौशाला" जब मिक्षा वृत्ति के निमित्त ग्राम में गया तब उसने इन रंगीन वखों को धारण करने वाले और पात्रों को रखनेवाले साधुओं को देख कर उनसे पूछा "तुम कौन हो ?" उन्होने कहा कि हम श्री पार्श्वनाथ के निर्ग्रन्थ निगाण्ठ शिष्य हैं। "गौशाला" ने हंसते हंसते कहा कि "क्यो व्यर्थ मिथ्या भाषण करते हो। नाना प्रकार के वस्त्र और पात्रो को रखते हुए भी तुम निम्रन्थ हो? केवल बेट भरने के निमित्त ही शायद इस पाखण्ड की कल्पना की है।" इस प्रकार होते होते उनका वाद बढ़ गया तब क्रोध में
आकर "गौशाला" ने कहा कि तुम्हारा उपाश्रय जल जाय, उन्होंने कहा कि तेरे बचनों से हमारा कुछ भी नहीं विगड़ सकता । यह सुन लज्जित हो “गौशाला" भगवान महावीर के समीप आया और उसने कहा कि प्रभो। तुम्हारी निन्दा करने वाले सप्रन्थ साधुओ को मैंने शाप दिया कि तुम्हारा उपाश्रय जल जाय, पर न जला, इसका क्या कारण है ? "सिद्धार्थ" ने उत्तर दिया-"अरे मूर्ख। वे श्री “पार्श्वनाथस्वामी" के शिष्य हैं। तेरेशाप से उनका क्या अनिष्ट हो सकता है। __यहां से रवाना होकर प्रभु 'चोटाक' नामक ग्राम मे आये । वहां पर चोरों को ढूंढने वाले सरकारी मनुष्यो ने प्रभु को और "गौशाला" को भिक्षुक वेषधारी चोर समझ कर पकड़ लिया और उनको बांध कर कुंए में ढकेल दिया, इसी अवसर पर "सोमा" और "जयन्ति" नामक दो साध्वियें उधर आ निकली। इस संवाद को सुन कर उन्होंने अनुमान किया कि कहीं ये साधु अन्तिम तीर्थंकर भगवान् तो नहीं है । यह सोन कर वे वहाँ आई।
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भगवान महावीर और प्रभु की ऐसी स्थिति देख कर उन्होंने सिपाहियों से कहाअरे मूखों तुम क्यों मरने की इच्छा कर रहे हो। ये तो सिद्धार्थ राजा के पुत्र अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर हैं। यह सुनते ही उन लोगों ने डर कर भगवान् को बाहर निकाला और अपनी भूल के लिये क्षमा मांग कर चले गये।
क्रमश भ्रमण करते करते प्रभु चौथा चतुर्मास व्यतीत करने के लिए "पृष्ट चम्पा" नामक नगरी में आये । यहां पर उन्होने चार मास क्षपण (चार मास के उपवास) किया। वहां से चल कर "कृनमहल" नामक प्राम में गये । उस नगर में कई पाखण्डी रहते थे। उनके गहल्ले के मध्य मे एक देवालय था। उनमे उनके कुल देवता की प्रतिमा थी। उसके एक कोने में भगवान कायोत्सर्ग लगा कर स्तम्भ की तरह खड़े हो गये । माघ का मास था । फड़ाके की शीत पड रही थी। आधीरात व्यतीत होने पर वे सब लोग अपने स्त्री बच्चों सहित वहां आये । और मद्य पी पी कर वहां नाचने लगे । यह देख कर गौशाला हस कर बोला "अरे! ये पाखण्डी कौन हैं ? जिनकी स्त्रियां भी इस प्रकार मद्यपान कर नृत्य करती हैं। यह सुनते ही उन सब लोगों ने"गौशाला" को निकाल बाहर किया । अव कड़ाके की शीत के अन्दर "गौशाला" अग सिकोड़ सिकोड़ कर दाँत बजाने लगा। जिससे उन लोगों को दया आ गई और वे पीछे उसे वहां ले
आये । कुछ समय पश्चात् जब उसकी सर्दी दूर हो गई, वह फिर उसी प्रकार वोला, जिससे उन लोगों ने फिर उसे निकाल दिया और कुछ समय पश्चात् उसी प्रकार वापिस उसे ले आये इस प्रकार तीन बार उसे निकाला और वापस लाये, चौथी बार जब
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भगवान महावीर
२२६ उसने ऐसा ही कहा तो लोग उसे मारने को तैयार हो गये। पर वृद्धों ने यह समझा कर लोगों को शान्त किया कि यह तो पागल है । इसकी बात पर क्रोध न करना चाहिए। __ इस प्रकार स्थान स्थान पर अपनी बेवकूफी से सजा पाता हुआ "गौशाला" प्रभु के साथ विचरण करने लगा। अन्त में मार खाते खाते जब वह घबरा गया तब एक ऐसे स्थान पर जहां से दो रास्ते अलग होते थे। प्रभु से कहने लगा-भगवन ! अब मैं आपके सार्थ नहीं चल सकता क्योंकि मुझे कोई गालियां देता है, कोई मारता है और कोई अपमान करता है। श्राप किसी से कुछ भी नहीं कहते हैं । आपको जव उपसर्ग होते है तब मुझे भी उपसर्ग उठाना पड़ता है। लोग पहले मुझे मारते हैं। और पीछे आपको मारते हैं। ताड़वृक्ष की सेवा के समान आपकी निष्फल सेवा करने से क्या लाभ । इसलिये अब मैं जाता हूँ । ऐसा कह कर जिस रास्ते महावीर जा रहे थे उससे दूसरे रास्ते पर वह चला गया।
आगे जाकर वह ऐसे जंगल में जा पड़ा जहां पर पांचसौ चोरो का अड्डा था। चोरों ने इसे देखते ही मारना शुरु किया । पश्चात् एक चोर इसके कंधे पर चढ़ कर इसे चावुक से मार कर चिलाने लगा । जब इसका श्वास मात्र बाकी रह गया तब वे,इसे छोड़ कर चले गये, उस समय इसे बडा पश्चात्ताप हुआ। हाय । यदि प्रभु का साथ न छोड़ता तो मेरी यह दुर्गति न होती।
इधर भगवान् भ्रमण करते करते माघमास में "शालिशो" नामक प्राम में आये । वहां के एक उद्यान में वे ध्यानन्ध हो गये । इसी बारा मे एक व्यंत्तरी रहती थी, यह भगवान् के
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त्रिपुष्ट वाले भव में इनकी "विजयवती' नामक खी थी। उस भव में इन्होंने इसका वड़ा अपमान किया था, उसी का बदला चुकाने के निमित्त उसने इन पर उपसर्ग करना प्रारंभ किया। उसने उस कड़ाके की सर्दी में वर्फ की तरह ठण्डी हवा चलाना प्रारंभ किया । और उसके पीछे अत्यन्त शीतल जल के बिन्दू प्रभु के नग्न शरीर पर डालने लगी। रात भर वह इस प्रकार उपसर्ग करती रही। पर प्रभु इससे तनिक भी विचलित न हुए। प्रात.काल तक उनको विचलित न होते देख वह बड़ी विस्मित हुई, और अन्त में पश्चाताप पूर्वक प्रभु से प्रार्थना कर वह अन्तर्धान हो गई।
कुछ समय पश्चात् इधर उधर भ्रमण करता हुआ "गौशाला" प्रभु के पास आ गया, और कई प्रकार की क्षमा प्रार्थना कर उनके साथ भ्रमण करने लगा। वह चातुर्मास प्रभु ने "बालम्भिका" नामक नगरी में व्यतीत किया, वहां से प्रभु कुंडक, मर्दन, पुरिमताल, उप्णाक आदि स्थानों में गये । प्रायः इन सभी स्थानो में "गौशाला" ने अपनी मूर्खता के कारण मार खाई। ___ वहां से विहार कर प्रभु ने आठवां चतुर्मास मासक्षपण के नाथ राजगृह में व्यतीत किया-उसके पश्चात् उन्होंने सोचा कि यभी तक मुझे कर्मा की निर्जरा करना शेष है। यह सोच कर कर्मों की निर्जना करने के निमित्त "गौशाला" सहित वे वज्रभूमि, शुद्धभूमि और लाट वगैरह म्लेच्छ भूमि में गये। इन स्थानों पर म्लेच्छ लोगों ने प्रभु पर नाना प्रकार के भयंकर उपद्रव किये, कोई उनकी निन्दा करता तो कोई हंसी, कोई दुष्ट भावो के वशीभूत हो कर शिकारी कुत्तों को उन पर छोड़ता तो काई
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२२८ उन्हें लकड़ी से मारता । पर इन उपसगों से कर्मों का क्षय होता है । यह समझ कर प्रभु दुख की जगह हर्ष ही पाते थे। कर्मरोग की चिकित्सा करने वाले प्रभु कर्म का क्षय करने में सहायता देने वाले म्लेच्छों को वन्धु से भी अधिक मानते थे। धूप
और जाड़े से रक्षा करने के निमित्त प्रभु को आश्रयस्थान भी नहीं मिलता था । छः मास तक धर्म जागरण करते हुए वे ऐसे ही स्थानों में धूप और जाड़े को सहन करते हुए और एक वृक्ष के तले रह कर उन्होंने नौवां चतुर्मास निर्गमन किया ।
वहां से विहार कर प्रभु "गौशाला" के साथा सिद्धार्थपुर आये । वहां से कूर्मगांव की तरफ प्रस्थान किया, मार्ग में एक तिल के पौधे को देख कर गौशाला ने उनसे पूछा "स्वामी! यह तिल का पौधा फलेगा या नहीं। भवितव्यता के योग से स्वयं महावीर मौन छोड़ कर बोले-"भद्र ! यह विल का पौधा फलेगा। और इससे सात तिल उत्पन्न होंगे।" प्रभु की इस बात को असत्य करने के निमित्त गौशाला ने उस पौधे को उखाड़ कर दूसरे स्थान पर रख दिया। दैवयोग से उस प्रदेश में उसी समय एक गाय निकली उसके पैर का जोर लगने से वह पौधा वहीं पर लग गया। ___ यहां से चल कर प्रभु कूर्म ग्राम गये । वहां पर "गौशाला"ने "वैशिकायेन" नामक एक तापस को देखा। प्रभु का साथ छोड़ कर वह तत्काल वहां आया, और तापस को पूछने लगा-"अरे तापस! तू क्या तत्व जानता है ? बिना कुछ जाने तू क्यों पाखण्ड करता है।" यह सुन कर भी वह क्षमाशील तापस कुछ न बोला। तब गौशाला बार बार उसे उसी प्रकार के कठोर
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वचन कहने लगा । अन्त में तापस को क्रोध चढ़ आया और उसने "गौशाला" पर "तेजोलेश्या" का प्रहार किया । अब तो अनन्त श्रमि की ज्वालाएं "गौशाला" को भस्म कर देने के लिए उसके पीछे दौड़ीं, जिससे गौशाला बहुत ही भयभीत हो कर त्राहिमान् | त्राहिमान !! करता हुआ प्रभु के पास आया । प्रभु ने गौशाला की रक्षा के लिए दयार्द्र हो उसी समय "शीतलेश्या" को छोड़ी जिससे वह अग्नि शान्त हो गई। यह दृश्य देख वह तापस बड़ा विस्मित हुआ और प्रभु के पास आकर कहने लगा । “भगवन् ! मैं आपकी शक्ति से परिचित न था । इसलिए मुझसे यह विपरीत आचरण हो गया, इसके लिए मुझे क्षमा करें ।" इस प्रकार क्षमा याचना कर वह अपने स्थान पर गया । पश्चात् " गौशाला" ने प्रभु से पूछा "भगवन् ! यह "तेजोलेश्या" किस प्रकार प्राप्त होती है ?" प्रभु ने कहा- 'जो मनुष्य नियम- पूर्वक "छटु" करता है, और एक मुष्टी "कुल्माध” तथा अलि मात्र जल से पारणा करता है । उसे छः मास के अन्त में तेजोलेश्या प्राप्त होती है ।'
कूर्म ग्राम से विहार कर प्रभु फिर सिद्धार्थपुर की ओर आये मार्ग में वही तिल के पौधे वाला प्रदेश आया । वहां आकर " गौशाला " ने कहा "भगवन्, आपने जिस तिल के पौधे की बात कही थी वह लगा नही ।" महावीर ने कहा - "लगा है और यही है ।" तब गौशाला ने उसे चीर कर देखा । जब उसमें सात ही दाने नजर आये, तो वह बड़ा आश्चर्यान्वित हुआ, अन्त में उसने यह सिद्धान्त निश्चित किया कि शरीर का परावर्तन करके जीव पीछे जहां के तहां उत्पन्न होते हैं ।
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उसके पश्चात् वह प्रभु का साथ छोड़ कर " तेजोलेश्या साधने के निमित्त 'श्रावस्ती' नगरी गया । वहां एक कुम्हार की शाला में रह कर उसने प्रभु की वतलाई हुई विधि से "तेजोलेश्या " का साधन किया । तदनन्तर उसकी परीक्षा करने के निमित्त वह एक पनघट पर गया, वहाँ अपना क्रोध उत्पन्न करने के निमित्त उसने एक दासी का घड़ा कंकर मार कर फोड़ दिया । जिससे क्रोधान्वित हो दासी उसे गालियां देने लगी । यह देखते ही उसने तरकाल उस पर "तेजोलेश्या" का प्रहार किया, जिससे वह उसी समय जल कर खाक हो गई ।
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एक बार पार्श्वनाथ के छः शिष्य जो कि, चरित्र से भ्रष्ट हो गये थे, पर अष्टांग निमित्त के प्रकाण्ड पण्डित थे, गौशाला से मिले । गौशाला ने उनसे अष्टाङ्ग निमित्त का ज्ञान भी हासिल कर लिया। फिर क्या था, "तेजोलेश्या" और "अष्टाङ्ग निमित्त " का ज्ञान मिल जाने से उसने स्वयं अपने को "जिनेश्वर" प्रसिद्ध किया । और यही नाम धारण कर वह चारों ओर भ्रमण करने लगा ।
सिद्धार्थ पुर से विहार कर प्रभु वैशाली, वाणीज्य सानुयाष्ट्रिक, होते हुए म्लेच्छ लोगों से भरपूर "पेदारा" नामक ग्राम मे आये । इसी स्थान में भगवान् पर सब से कठिन “ सेंगम" देव वाला उपसर्ग हुआ । इस उपसर्ग का वर्णन हम पूर्व खण्ड
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में कर आये हैं । अतः यहाँ दुहराने की आवश्यकता नहीं ।
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. यहाँ से विहार कर प्रभु गोकुल, श्रावस्ती, कौशाम्बी और वाराणसी नगरी होते हुए "विशालपुरी" आये । यहाँ पर जिनदत्त नामक एक बड़ा ही धार्मिक श्रावक रहता था । वैभव का
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योपना नामांम लहगना : : ग्गनी लिओनमयी मगिाया श्राकर भगवान के प्रागे गम रचने लगी। I'lcche & Printmga is the timnok Pre sco
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क्षय हो जाने से वह "जीर्णश्रेष्टि" के नाम से प्रसिद्ध था । वह जव उद्यान में गया तो वहां बलदेव के मंदिर में कायोत्सर्ग में लीन प्रभु को उसने देखा । अनुमान वल से यह जान कर कि "ये अन्तिम तीर्थकर वीर प्रभु हैं ।" वह बहुत प्रसन्न हुआ । उसने बड़ी ही भक्ति से उनकी वन्दना की । उसके पश्चात् उसने सोचा कि प्रभु को आज उपवास मालूम होता है, यदि ये उपवास समाप्ति मेरे घर पर पारणा करें तो कितना अच्छा हो । इस प्रकार की आशा धारण कर उसने लगातार चार मास तक प्रभु की सेवा की, तीन दिन प्रभु को आमंत्रित कर वह अपने घर गया। उसने बहुत सें प्रासुक भोजन आहार देने के निमित्त तैयार करवा रक्खे थे । वह बड़ी उत्सुकता से प्रभु की प्रतीज्ञा कर रहा था । पर दैवयोग से उस दिन प्रभु ने उधर न जाकर वहां के नवीन नगरसेठ के यहां आहार ले लिया । यह सेठ बड़ा मिथ्या दृष्टि और लक्ष्मी के मद से मदोन्मत्त था । महावीर को देख कर इसने अपनी दासी से कहा कि जा तू उस भिक्षा दे दे। वह दासी काष्ट के पात्र, में "कुल्माष" आई वही आहार उसने महावीर को दिया । उसी ताओं ने उसके यहां "पाँचदिव्य" प्रकट किये। यह देख कर वह "जीर्ण श्रेष्टि" अत्यन्त दुखित हुआ । उसने मनही मन कहा "अहो ! मेरे समान मन्द भाग्य वाले को धिक्कार है मंग सब मनोरथ व्यर्थ गया, प्रभु ने मेरा घर छोड़ कर दूसरी जगह आहार ले लिया । "
* कुल्माष—उड़द के वाकले ।
साधु को धान्य लेकर
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श्राहार लेकर प्रभु तो अन्यत्र विहार कर गये। पर उसी उद्यान में श्री पार्श्वनाथ स्वामी के केवली शिष्य पधारे हुए थे। उनके पास जाकर वहां के राजा ने तथा दूसरे लोगों ने पूछा, "भगवन् ! नवीन श्रेष्टि और जीर्ण श्रेष्टि इन दोनों में से किसके हिस्से में पुण्य का अधिक भाग आया" केवली ने उत्तर दिया"जीर्ण श्रेष्टि" सब से अधिक पुण्यवान है। लोगों ने पूछा "कैसे ? क्योंकि उसके यहां तो प्रभु ने आहार लिया ही नहीं, प्रभु को आहार देने वाला तो नवीन श्रेष्टि है।" केवली ने कहा"भावों से तो उस जीर्ण श्रेष्टि ने ही प्रभु को पारणा करवाया है और उस भव से उसने अच्युत देव लोक को उपार्जन कर संसार को तोड़ डाला है। यह नवोनशेष्ठि शुद्ध भाव से रहित है। इस कारण इसे इस पारणे का फल इहलोक-सम्बन्धी हो. मिला है। जिस प्रकार कर्तव्य के लिए किया हुआ पुरुषार्थहोन मनोरथ निष्फल होता है उसी प्रकार भावनाहीन क्रिया का फल भी अत्यन्त अल्प होता है। ___यहां से विहार कर प्रभु "सुसुमा पुर" नामक ग्रास मे आये। वहां से भोगपुर, नन्दिग्राम, मेढ़क ग्राम होते हुए प्रभु कौशाम्बी नगरी में आये। ___ कौशाम्बी में उस समय, “शतानिक" नामक राजा राज्य करता था। उसके मृगावती नामक एक रानी थी। वह बड़ी धर्मात्मा और परम श्राविका थी। “शतानिक" राजा के सुगुप्त नामक मंत्री था, जिसकी “नन्दा" नामक एक पत्नी थी। वह भी बड़ी धर्मात्मा और मृगावती की परम सखी थी। उस नगरी में धनावह नामक एक सेठ रहता था। उसके "मूला" नामक स्त्री
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भगवान् महावीर थी। पोष मास की कृष्ण प्रतिपदा को वीर प्रभु यहां पर आये । उस दिन प्रभु ने भोजन के लिये बड़ा ही कठिन अभि ग्रह धारण किया। ___"कोई सती और सुन्दर राजकुमारी दासीवृति करती हो । जिसके पैर में लोह की वेड़ी पड़ी हो, जिसका सिर मुण्डा हुआ हो, मूखी हो, रुदन कर रही हो। एक पग देहली पर और दूसरा पग बाहर रखे हुए खड़ी हो और सब भिक्षुक उसके यहाँ
आकर चले गये हों। ऐसी स्त्री सूपड़े के एक कोने में दर्द रख • कर उनका आहार मुझे करावे तो करूं अन्यथा चिरकाल तक मैं अनाहार रहूँ।"
इस प्रकार का अभिग्रह लेकर प्रभु प्रति-दिन गोचरी के समय उच्च नीच गृहों में फिरने लगे। पर कहीं भी उनको अपने अभिग्रह की पूर्णता दिखलाई न दी। इस प्रकार चार मास बीत गये। यह देख कर सब लोगो को बड़ा शोच हुआ। सबों ने मोचा कि अवश्य प्रभु ने कोई कठिन अभिग्रह धारण कर रत्नवा है। सब लोग इस अभिग्रह को जानने की कोशिश करने लगे। राजा, रानी, मत्री, नगर-सेठ आदि सभी बड़े चिन्तित हुए। कोई ज्योतिपियों को बुलाकर यह बात जानने की कोशिश करने लगे, पर सत्र निष्फल हुआ।
इसी अवसर पर कुछ समय पूर्व “शतानिक" राजा ने चम्पानारी पर चढ़ाई की थी। चम्पा-पति “दविवाहन" राजा उससे डरकर भाग गया था। तब "शतानिक" राजाने अपनी सेना को श्राज्ञा दी कि जिसको जिस चीज़ की आवश्यकता हो लूट ले। यह सुनते ही सब लोगों ने नगर टूटना प्रारम्भ किया। दधि
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वाहन राजा को धारिणी नामक स्त्री और उसकी कन्या वसुमती इन दोनो को एक ऊँटवाला हर कर ले गया । धारिणी देवी के रूप पर मोहित होकर उस ऊँटवाले ने कहा कि "यह रूपवती स्त्री तो मेरी स्त्री होगी और इस कन्या को कौशाम्बी के चोरों मे बेच दूंगा ।" यह सुनते ही धारिणी देवी ने प्राण त्याग कर दिये । यह देख कर उस उटवाले ने बहुत ही दुखित होकर कहा कि "ऐसी सती स्त्री के प्रति मैंने ऐसे शब्द कह कर बड़ा पाप किया । इस कृत्य के लिए मुझे अत्यन्त धिक्कार है" । इस प्रकार पश्चाताप कर वह उस कन्या को बड़े ही सम्मानपूर्वक कौशाम्बी नगरी में लाया । और उसे बेचने के लिए आम रास्ते पर खड़ी कर दी । इतने ही में धनावह सेठ उधर निकला और उसने उस कुमारी को उच्च-कुलोत्पन्न जान उसे बड़ी ही शुभ भावना से खरीद लिया । और उसे घर लाकर पुत्री की तरह सम्मानपूर्वक रखने लगा । उसका नाम उसने "चन्दना" रक्खा।
कुछ समय पश्चात् उस मुग्ध कन्या का यौवन विकसित होने लगा । पूर्णिमा के चन्द्रमा को देख कर जिस प्रकार सागर हर्षोत्फुल्ल हो जाता है । उसी प्रकार वह सेठ भी उसे देखकर आनन्दित होने लगा । पर उसको स्त्री मूला को उसका विकसित सौन्दर्य देखकर बड़ी ईर्पा हुई । वह सोचने लगी कि "श्रेष्टि ने यद्यपि इस कन्या को पुत्रीवत रक्खा है, पर यदि उसके अभिनवसौन्दर्य को देखकर वह इससे विवाह कर ले तो मैं कहीं की भी न रहूँ ।" स्त्री हृदय की इस स्वाभाविक तुच्छता के वशीभूत हो कर वह दिन रात उदास रहने लगी । एक बार प्रीष्म ऋतु के उत्ताप से पीड़ित होकर सेठ दुकान से घर पर आये । उस समय
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कोई सेवक घर पर न होने से चन्दना ही उसके पैर धोने के लिये वहाँ आई। यद्यपि सेठ ने उसे ऐसा करने से मना किया तथापि पितृभक्ति से प्रेरित होकर उसने न माना और पैर धोने लगी। उसी समय उसका स्निधि, श्याम केशपाश, कीचड़युक्त भूमि में पड़ गया। यह देख सेठ ने पुत्री स्नेह से प्रेरित हो प्रेमपूर्वक उसके केशपाश को समेट दिया। "मूला" यह सब दृश्य देख रही थी। उसने उसी समय मन में सोचा कि जिस वात से मैं डर रही थी वही आगे आ रही है। अब यदि इस लड़की का उचित प्रतिकार न किया जायगा तो मेरी दुर्दशा का अन्त नरहेगा । इस प्रकार उसके विनाश का सकल्प मन ही मन कर वह योग्य अवसर देखने लगी। कुछ दिनों पश्चात् अवसर देखकर उसने एक नाई को घुलवाया और उससे उसके वाल मुण्डवा दिये । तत्पश्चात् उसके पैर में लोहे की वेड़ी डाल कर "मूला" ने उसको बहुत पीटी तदनन्तर एकान्त के किसी एक कमरे में उसे बन्द कर बाहर का ताला लगा दिया। पश्चात् नौकरो से कह दिया कि सेठ के पूछने पर भी उन्हें उस कमरे के विपय में कोई कुछ न कहे । इस प्रकार का आदेश सब लोगो को देकर वह अपने नैहर को चली गई। इधर सेठ ने नौकरों से "चन्दना" के बारे में पूछा पर मूला के डर के मारे किसी ने भी स्पष्ट उत्तर न दिया ? इससे सेठ ने यह समझ कर मौन धारण कर लिया कि शायद वह अपनी सहेलियों में से किसी के यहां मिलने को गई होगी। पर जब दूसरे और तीसरे दिन भी उसने "चन्दना" को न देखा तब उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने सब सेवको को धमका कर कहा कि सत्य बतलाओ"चन्दना" कहां है नहीं तो मैं
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तुम्हें उचित दण्ड देने की व्यवस्था करूँगा । यह सुन कर एक वृद्ध दासीने यह सोचकर "चन्दना" को बतला दिया कि अव मैं अधिक जीने की नहीं, मेरे इस अल्प जीवन के बदले यदि उस दीर्घजीवी बालिका के प्राण बच जाय तो अच्छा! सेठ ने उसी समय चन्दना को बाहर निकाला । उसकी ऐसी दुर्गति देख उसकी आंखों मे आँसू भर आये। उसने चन्दना से कहा-"वत्से ! तुझे बड़ा कष्ट हुआ अब तू स्वस्थ हो।" यह कह कर उसके लिए भोजन लाने को वे रसोई घर में गये। पर वहां पर सूपड़े के एक कोने में पड़े हुए थोड़े से कुल्माष के सिवाय उन्हे कुछ न मिला । उस समय चन्दना को उन्होंने वह सूप ज्यों का त्यो दे दिया और कहा "वत्से ! मैं तेरी बेड़ी काटने के लिये लुहार को बुला लाता हूँ, इतने तू इनको खाकर स्वस्थ हो। यह कह कर वह चला गया। ___ अब दरवाजे के पास उस सूप को लिए हुए चन्दना विचार करने लगी कि "कहां तो मैं राजा की लड़की, और कहां ये कुल्माष-आठ दिनों के उपवास के पश्चात् ये खाने को मिले हैं पर यदि कोई अतिथि आजाय तो उसको भोजन कराये पश्चात्भोजन करूँगी । अन्यथा नहीं । यह सोच कर वह किसी अतिथि की परीक्षा करने लगी। इतने ही में श्रीवीर प्रभु भिक्षा के लिये फिरते फिरते वहाँ आ पहुँचे। उनको देखते ही "चन्दना" बड़ी प्रसन्न हुई । और उनको आहार देने के निमित्त उसने बेड़ी से जकड़ा हुआ एक पैर देहली के बाहर और दूसरा पैर अन्दर रक्खा और बोली-"प्रभु ! यद्यपि यह अन्न आपके योग्य नहीं है पर आप तो परोपकारी हैं। इससे इसे ग्रहण कर मुझपर अनु
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ग्रह करें। पर उस समय चन्दना के नेत्र में आँसू न थे । इस कारण प्रभु वहाँ से आगे चलने लगे । पर उनके जरा मुड़ते ही चन्दना इतनो अधीर हुई कि उसकी आंखों से टप टप आँसू गिरने लगे । यह देखते ही अभिग्रह पूर्ण समझ भगवान् मुड़े और उन्होने उन कुल्माषो का आहार किया । प्रभु का अभि ग्रह पूर्ण होते ही देवता बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने चन्दना के यहाँ पांच आश्चर्यं प्रकट किये। उसी समय चन्दना की वेड़ियाँ टूट गई, और केशपाश पहले ही के समान सुन्दर हो गये । उसके पश्चात् राजा, राजमन्त्री, उसकी स्त्री आदि सब वहाँ आये और उस लड़की के प्रति भक्ति करने लगे, प्रभु के वहाँ से चले जाने पर राजा " शतानिक" चन्दना को अपने यहां ले आये और उसे कन्याओ के अन्तःपुर में रक्खा में रक्खा । पश्चात् जब प्रभु को कैवल्य प्राप्त हो गया तब उसने दीक्षा ग्रहण कर ली ।
वहां से विहार कर प्रभु सुमङ्गल, चम्पानगरी, मेढ़कग्राम श्रादि स्थानो में होते हुए "खडग मानि" ग्राम में आये, वहां पर ग्राम वाहर कायोत्सर्ग करके खड़े हो गये इसी स्थान पर उनके “त्रिपुष्ट” जन्म के वैरी शय्यापाल का जीव गुवाले के रूप मे दो बैलो को चराता हुआ उधर आया, उसने किस प्रकार अपने पूर्वभव का बदला चुकाने के लिए उनके कानों में कीलें ठोक दों, किस प्रकार " खड़गवैद्य" ने उनको निकाला और निकालते समय प्रभु ने चीख मारी आदि सब बातों का वर्णन मनोवैज्ञानिक
* हेमचन्द्राचार्य ने फिरकर वापस मुडने का कथन नहीं है यह कथन अन्यत्र पाया जाता है।
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भगवान् महावीर
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खण्ड में किया जा चुका है, वस भगवान पर आने वाले उपसों में यही सब से अधिक दुखद और अन्तिम उपसर्ग था । इसके पश्चात भगवान् पर कोई उपसर्ग न आया। कैवल्य प्राप्ति और चतुर्विध संघ की स्थापना
जम्बुक नामक ग्रामों में ऋजु वालिका नदी के तौर पर "शामाक" नामक एक गृहस्थ का क्षेत्र था । वहां पर एक गुप्त चैत्य था, उसके समीप एक शालि वृक्ष के नीचे उत्कृष्टासन लगा कर शुक्लध्यानावस्थावस्थित हो प्रभु आतापना करने लगे । बैसाख सुदी दसमी का सुंदर दिन था। चन्द्रहस्तोत्तरा नक्षत्र था, सुंदर समीर बह रहा था, संसार आनन्द मग्न था, ऐसे शुभ समय में विजय मुहुर्त के अन्तर्गत प्रभु के चार घातिया-कर्म (ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, और अन्तराय) जीर्ण रस्सी के समान टूट गये, उसी समय भगवान् को सर्वश्रेष्ठ केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई।
नियमानुसार इंद्र का आसन कम्पायमान हुआ जिससे उसने प्रभु को कैवल्य प्राप्ति का अनुमान कर लिया। इस समाचार को सुनते ही सब देवता अत्यन्त हर्षित चित्त हो वहां आये। उस अवसर पर श्रानन्द के मारे कोई कूदने लगे, कोई नाचने लगे, कोई घोड़े की तरह हिनहिनाने लगे तो कोई हाथी के समान चिंघाड़ने लगे। मतलब यह है कि हर्षोन्मत्त हो वे सब मनमानी क्रिडाएँ करने लगे। पश्चात् देवताओ ने बारह दरवाजो वाला समवशरण मंडप बनाया। भगवान महावीर ने जानते हुए भी रत्नसिंहासन पर बैठ कर उपदेश देना सर्व विरति को योग्य
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भगवान् महावीर नहीं है-अपना कल्प जान कर उस समवशरण मे बैठकर उपदेश दिया। पर वहां पर उपकार के योग्य लोगो का अभाव देख प्रभु ने अन्यत्र बिहार किया।
वहां से चल कर असंख्य देवताओं से सेवित महावीर प्रभु भव्यजनो का उपकार करने के निमित्त 'अपापा' नामक नगरी में पधारे। उस पुरी के समीप महासेन नामक बन मे देवताओ ने समवशरण की रचना की। उस समवशरण में पूर्व के द्वार से प्रभु ने प्रवेश किया। पश्चात् बत्तीप्त धनुप ऊंचे रत्न-प्रतिच्छन्द के समान चैत्य वृक्ष को तीन,प्रदक्षिणा दे "तीर्थायनम " ऐसा कह प्रभ ने अहंत धर्म की मर्यादा का पालन किया । तदनन्तर वे पादपीठ युक्त पूर्व सिहासन पर बैठे । उस समय देवताओ ने शेप तीन दिशाओ में भी प्रभु के प्रति रूप स्थापित किये जिससे चारो दिशा वाले आनन्दपूर्वक प्रभु को देख सकें, और उनका उपदेश सुन सकें । इसी अवसर पर सब देवता, मनुष्य तिर्यञ्च आदि अपने अपने नियमित स्थानो पर बैठ कर प्रभु के मुख की ओर अतुम दृष्टि से निहारने लगे। तत्पश्चात् इन्द्र ने भक्ति के श्रावेश में आ भगवान की एक लम्बी स्तुति की । उनकी स्तुति समाप्त होने पर प्रभु ने सब लोग अपनी अपनी भाषा में समझ ले-ऐसी विचित्र वाणी मे कहना प्रारम्भ किया :_ "यह ससार समुद्र के समान दारुण है, और वृक्ष के बीज
* तीर्थंकर का उपदेश कमी व्यर्थ नहीं जाता, ऐमी स्थिति में महावीर के पहले उपदेश का विलकुल व्यर्थ जाना अत्यन्त आश्चर्य-प्रद बात है, ऐसा जैनशास्त्रों का कथन है।
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की तरह उसका मूल कारण कर्म ही है । अपने ही किये हुए कमों से विवेक रहित होकर प्राणी कुत्रा खोदने वाले की तरह अधोगति को पाता है । और शुद्ध हृदय वाले पुरुष अपने ही उपार्जित किये हुए कमों से महल बांधने वाले की तरह उर्ध्वगति पाते हैं । अशुभ कर्मों के बन्ध का मूल कारण "हिंसा" है, इस लिए किसी भी प्रारणी की हिंसा कभी न करना चाहिये । हमेशा अपने ही प्राण की तरह दूसरो के प्राणो की रक्षा करने में भी तत्पर रहना चाहिये । श्रात्म पीड़ा के समान दूसरे जीव की पीड़ा को दूर करने की इच्छा रखने वाले प्राणी को कभी असत्य न बोलना चाहिए । मनुष्य के वहि प्राण के समान किसी का बिना दिया हुआ द्रव्य भी न लेना चाहिये क्योकि उसका द्रव्य हरण करना वाह्य दृष्टि से उसके मारने ही के समान भयंकर है । इसके अतिरिक्त प्राणी को मैथुन से भी बचे रहना चाहिये । क्योकि इसमे भी बहुत बड़ी हिंसा होती है । प्राज्ञ पुरुषो को तो मोक्ष के देने वाले ब्रह्मचर्य का ही सेवन करना चाहिये । परिग्रह का धारण भी न करना चाहिये । परिग्रह धारण करने से मनुष्य बहुत बोझा ढोनेवाले वैल की तरह क्लान्त होकर अधोगति को पाता है। इन पाचों ही वृत्तियों के सूक्ष्म और स्थूल ऐसे दो भेद हैं । जो लोग सूक्ष्म को त्याग करने में असमर्थ हैं उन्हे स्थूल पापो को तो अवश्य त्याग देना चाहिए । ”
इस प्रकार प्रभु का उपदेश सुन कर सव लोग आनन्दमन हो गये :
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ठीक उसी अवसर पर अपापा नगरी में "सोमिल" नामक एक घनाढ्य ब्राह्मण के घर यज्ञ था उसको सम्पन्न कराने के
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भगवान् महावीर
निमित्त चारों वेद के पाठी भारत प्रसिद्ध ग्यारह ब्राह्मण बुलाये गये थे। इनके नाम निम्नाङ्कित हैं
१-इन्द्रभूति, अग्निभूति, वायुभूति, आर्यव्यक्त, सुधर्माचार्य, मण्डीपुत्र, मौर्यपुत्र, अकम्पित, अचलवृत्त, मैत्रेयाचार्य और प्रभासाचावें।
ये लोग अपने ज्ञान के बल से सारे भारतवर्ष में मशहूर थे। जव समवशरण में उपदेश सुनने के निमित्त हजारों देव
और मानव उस रास्ते से होकर जाने लगे तब यह सोच कर कि ये सब लोग यज्ञ में आ रहे हैं इन पण्डितों ने कहा "इस यज्ञ का प्रभाव तो देखो अपने मंत्रों से बुलाये हुए देवता प्रत्यक्ष होकर इधर आ रहे हैं । पर जब सब लोग वहाँ एक क्षण मात्र भी न ठहरते हुए आगे बढ़ गये तब तो इनको वड़ा आश्चर्य हुश्रा। उसके पश्चात् किस प्रकार लोगों से पूछ कर सबसे पहले इन्द्रभूति भगवान से शास्त्रार्थ करने गये और किस प्रकार पराजित हो उन्होंने दीक्षा ग्रहण कर ली ये सब बातें पूर्व खण्ड में लिखी जा चुकी हैं। ' .
इन्द्रभूति की दीक्षा का समाचार सुन अग्निभूति प्रभु से शास्त्रार्थ करने के निमित्त आया । उसके आते ही प्रभु ने उसका खागत करते हुए कहा-“हे गौतम गौत्री अग्निभूति । तेरे हृदय मे यह सन्देह है कि कर्म है या नहीं ? यदि कर्म है तो प्रत्यक्षादि प्रमाणों से अगम्य होते हुए भी वे मूर्तिमान हैं। ऐसे मूर्तिमान कर्म अमूर्तिमान जीव को किस प्रकार बाँध लेते हैं ? अमूर्तिक जीव को मूर्तिमान कर्म से उपधात और अनुग्रह किस प्रकार होता है ? इस प्रकार का संशय तेरे मस्तक में घुस रहा है पर
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छ
वह व्यर्थ है । क्योंकि अतिशय ज्ञानी पुरुषों को कर्म प्रत्यक्ष ही मालूम होते हैं । और तेरे समान छद्मस्थ पुरुषो को जीव की विचित्रता देखने से - अनुमान प्रमाण से ही कर्म मालूम होते हैं । कर्म को विचित्रता से ही प्राणियों को सुख दुःखादि विचित्र भाव प्राप्त होते रहते हैं । इससे कर्म है, तू ऐसा निश्चय समझ । कितने ही जीव राजा होते हैं । और कितने ही हाथी, अश्व आदि वाहन गति को पाते हैं। कोई हजारों पुरुषों का पालन करने वाले महापुरुप होते हैं । और कोई भिक्षा माग कर भी भूखों मरने वाले रङ्क होते हैं। एक ही देश एक ही काल, और एक ही परिस्थिति में एक ही व्यापार करने वाले दो मनुष्यो में से एक को तो अत्यन्त लाभ हो जाता है और दूसरे की मूल पूंजी का भी नाश हो जाता है । इसका क्या कारण ? इन सब कार्यों का मूल कारण कर्म है । क्योंकि कारण के विना कार्य्यं में विचित्रता नहीं होती । मूर्तिमान कर्म का अमूर्तिमान जीव के साथ जो सम्बन्ध है वह आकाश और घोड़े के सम्बन्ध के समान बराबर मिलता हुआ है । नाना प्रकार के मद्य और विविध प्रकार की औषधियों से जिस प्रकार जीव को उपघात और अनुग्रह होता है, उसी प्रकार कर्मों से भी जीव का उपघात और अनुग्रह होता है ।" इस प्रकार कह कर प्रभु ने उसका संशय मिटा दिया । अग्निभूति भी ईर्षा छोड़ कर अपने पांच सौ शिष्यों के साथ दीक्षित हो गया ।
उसके पश्चात् वायुभूति आया, उसके आते ही प्रभु ने कहा - " वायुभूति तुझे जीव और शरीर के विषय मे बड़ा भ्रम है । प्रत्यक्षादि प्रमाणों से ग्रहण न होने कारण जीव शरीर
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Gura
भगवान् महावोर से भिन्न मालूम नहीं होता । इस से जल में उत्पन्न हुए भांग की तरह वह शरीर मे उत्पन्न होता है और शरीर ही में नष्ट हो जाता है । ऐसा तेरा आशय है पर वह मिथ्या है । क्योंकि इच्छा वगैरह गुणो के प्रत्यक्ष होने से जीव एक दृष्टि से तो प्रत्यक्ष है। उसे अपना अनुभव स्वयं ही होता है । वह जीव, देह और इन्द्रियों से भिन्न है । और इन्द्रियां जब नष्ट हो जाती
तब भी वह इन्द्रियों के द्वारा पूर्व मे भोगे हुए भोगो को स्मरण करता है ।" इस प्रकार वायुभूति का समाधान कर प्रभु ने उसे भी अपने धर्म मे दीक्षित किया ।
इनके पश्चात् आर्यव्यक्त सुधर्माचार्य, आदि सब पण्डित लोग आये । भगवान ने उन सब की शंकाओ का निवारण कर उनके शिष्यों सहित सबको अपने धर्म में दीक्षित किया ।
इस समय शतानिक राजा के घर पर चन्दना ने आकाश मार्ग से जाते हुए देवो को देख अनुमान से प्रभु को केवल ज्ञान होने का समाचार जान लिया, उसी समय उसे व्रत लेने की इच्छा हुई । उसकी ऐसी इच्छा होते ही किसी समीपवर्ती देवता ने उसे समवशरण सभा में पहुँचा दिया । उसने प्रभु को तीन प्रदिक्षणा दे दीक्षा लेने की इच्छा प्रदर्शित की । उसी समय दूसरी भी कई स्त्रियाँ दीक्षा लेने को तैयार हो गई । तब प्रभु ने चन्दना को आगे करके सबको दीक्षा दी ।
इसके पश्चात् श्रावक और श्राविका धर्म मे जिन लोगो ने दीक्षित होना चाहा उन्हे अपने २ धर्म का उपदेश दिया। इस प्रकार भगवान् ने मुनि, आर्जिका, श्रावक और श्राविका ऐसे चतुर्विध संघ की रचना की । तदनन्तर प्रभु ने इन्द्रभूति वगैरह
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२४४ पष्ट गणधरों को ध्रौव्य, उत्पादक और व्ययात्मक ऐसी त्रिपदी कह सुनाई । उस त्रिपदी के लिए उन्होंने आचाराग, सूत्र कृताङ्ग, ठाणांग, समवायाङ्ग, भगवती अंग, ज्ञाता धर्म कथा उपासक अन्त कृत, अनुत्तरोप पातिक दशा, प्रश्न व्याकरण, विपाक सूत्र
और दृष्टि वाद इस प्रकार बारह अगों की रचना की, फिर दृष्टिवाद के अंतर्गत चौदह पूर्वो की रचना की। इस रचना के समय सात गण घरो की सूत्र-बांचना परस्पर भिन्न भिन्न हो गई। और अकम्पित तथा अचल भ्राता की एव मैत्रेय और प्रभास की वांचना समान हुई। इस प्रकार प्रभु के ग्यारह गणधर होने पर भी चार गणधरो की वांचना दो प्रकार की होने से गण नौ कहलाये। राजा श्रेणिक को सम्यक्त्व और मेघकुमार
तथा नन्दीषण को दीक्षा। श्रीवीर प्रभु भव्य प्राणियों को बोध करने के निमित्त विहार करते हुए सुर असुरो के परिवार सहित राजगृह नगर मे आये । वहॉ गुण शील चैत्य में बनाये हुएं चैत्य वृक्ष ले शोभित समवशरण में प्रभु ने प्रवेश किया। वीर प्रभु के पधारने का संवाद सुन राजा श्रेणिक बड़े ठाट बाट के साथ अपने पुत्रों समेत उनकी बन्दना करने को आये। प्रभु को प्रदिक्षण देकर उन्होने बड़ी ही भक्ति पूर्वक उनको नमन किया । तत्पश्चात् योग्यस्थान पर बैठकर बड़ी ही श्रद्धा के साथ उन्होने भगवान्
*गण'मुनिसमुदाय ।
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भगवान् गमवीर की स्तुति की। तब भगवान् ने उन्हें सम्यक्त्व का उपदेश दिया जिसके फल स्वरूप श्रेणिक ने सम्यक्त्व को और अभय कुमार वगैरह ने श्रावक धर्म को ग्रहण किया। देशना समाप्त हो जाने पर सब लोग भगवान् को नमन कर प्रसन्नचित्त से अपने अपने घर गये।
घर जाकर श्रेणिक (विम्बसार ) के पुत्र मेवकुमार ने अपनी माता धारिणो देवी और पिता से प्रार्थना की-"मैं अब इस अनन्त दुःखप्रद संसार को देख कर चकित हो गया हूँ। इस कारण मुझे इस दुःख से छूट कर श्रीवीर प्रभु की शरण में जाने दो"। यह सुनते ही राजा और रानी बड़े दुखित हुए, उन्होंने मंयकुमार को कितना ही समझाया पर वह अपनी प्रतिज्ञा से विचलित न हुआ । अन्त मे श्रेणिक ने कहा कि यदि तुमन दीक्षा लेना है। निश्चय किया है, तो कुछ समय तक राज्य सुख भोग लो तत्पश्चात् दीक्षा ले लेना । बहुत आग्रह करने पर मेघागर ने उस बात का खोकार किया। तव राजा ने एक बड़ा उत्सव कर मेवकुमार को सिंहासन पर विठाया। तत्पश्चात् हर्प के आवेश में आकर गजा ने पूछा, "अव तुमे और किस बात को जरूरत है।" मेवकुमार ने कहा-"पिता जी यदि प्राप मुझ पर प्रसन्न हुए हैं तो कृपा कर मुझे दीक्षा ग्रहण करने की
आज्ञा दीजिये।" लाचार हो राजा ने मेघकुमार को आज्ञ. दी, तब मेधकुमार ने प्रसन्न चित्त हो वीर प्रभु के पास जा कर दीक्षा ली।
दीक्षा की पहली ही रात्रि में मेघकुमार मुनि छोटे बड़े के क्रम से अन्तिम सन्यारे (सोने का स्थान ) पर सोये थे, जिससे
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बाहर आने जाने वाले तमाम मुनियों के चरण पार वार इनके शरीर से टकराते थे, इससे ये बड़े दुःखी हुए और सोचा कि मेरे वैभव रहित होने ही से ये लोग मेरे ठोकरें मारते जाते हैं। इसलिये मैं तो प्रातःकाल प्रभु की आज्ञा को लेकर यह व्रत छोड़ दूंगा, प्रातःकाल व्रत छोड़ने की इच्छा से ये प्रभु के पास गये। प्रभु ने केवल ज्ञान के द्वारा इनका हार्दिकभाव जान कर कहा "ओ मेघकुमार। संयम के मार से भग्नचित्त होकर तु तेरे पूर्व जन्म को क्यों नहीं याद करता । सुन इससे पहले भव में तू विन्ध्याचल पर्वत पर मेरुप्रभ नामक हाथी था। एक बार वन में भयङ्कर दावानल लगा। उसमें तैने अपने यूथ की रक्षा करने के निमित्त नदी किनारे पर वृक्ष वगैरह उखाड़ कर तीन स्थंडिल बनाए । वन में दावानल को जोर पर देख उससे रक्षा पाने के निमित्त तू स्थंडिलो की ओर गया। पर पहले दो स्थडिल तो तेरे जाने से पूर्व ही मृगादिक जानवरों से भर चुके थे, तब तू , तीसरे स्थंडिल के एक बहुत ही सकीर्ण स्थान में जा कर खड़ा हो गया। वहां खड़े खड़े तूने अपना वदन खुजलाने के निमित्त एक पैर ऊंचा किया, इतने ही में एक भयभीत खरगोश दावानल से रचा पाने के लिए तेरे उस ऊंचे किये हुए पैर के नीचे आ कर बैठ गया। उसकी जान को जोखिम में देख तूने दया हो अपना पैर ज्यो का ज्यों ऊँचा रहने दिया, और तीन पैर के वल ही खड़ा रहा। ढाई दिन के पश्चात् जव दावानल शान्त हुआ और सब छोटे बड़े प्राणी चले गये। तव भूख प्यास से पीड़ित हो तू पानी की ओर दौड़ने लगा। पर बहुत देर तक तीन पैर पर खड़े रहने से तेरा चौथा पैर जमीन पर न टिका। और तू
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धम से गिर पड़ा। भूख और प्यास की यन्त्रणा से तीसरे दिन मृत्यु हो गई, उसी खरगोश पर की गई दया के प्रताप से तू राजपुत्र हुआ है । एक खरगोश की रक्षा के लिये जब तैंने इतना कष्ट सहन किया तो फिर इन साधुओं के चरण संघर्ष के कष्ट से क्यों खेद पाता है । इसलिये जिस वृत्त को तैने धारण किया है, उसको पूरा कर और भवसागर से पार हो जा ।"
प्रभु के इस वक्तव्य को सुन कर मेघकुमार शान्त हुआ, उसे अपनी इस कमज़ोरी का बड़ा पश्चात्ताप हुआ और अब वह बड़े साहस के साथ कठिन से कठिन तपस्या करने में प्रवृत्त हुआ । एक दिन प्रभु के उपदेश से प्रतिबोध पाकर श्रेणिक का दूसरा पुत्र नन्दीपेण दीक्षा लेने को तत्पर हुआ । उसे भी उसके पिता ने बहुत समझाया । पर न मानने से लाचार होकर उसे भी आज्ञा दी । जिस समय नन्दीपेण दीक्षा लेने के निमित्त जा रहा था उसी समय उसके अन्तःकरण में मानों किसी ने कहा कि " वत्स । तू व्रत लेने को अभी से क्यों उत्सुक हो रहा है ? अभी तेरे चरित्र पर आचरण डालनेवाला भोग फल कर्म शेष है । जहाँ तक उस कर्म का क्षय न हो जाय वहाँ तक तू घर में रह पश्चात् दीक्षा ले लेना ।" पर नन्दीषेण ने अन्तःकरण के इस प्रबोध की कुछ परवाह न की और वह प्रभु के पास आया। उन्होंने भी उसे उस समय दीक्षा लेने से मना किया । पर उसने अपने हठ को न छोड़ा और क्षणिक आवेश में आकर दीक्षा ग्रहण कर ली । दीक्षा लेते ही उन्होंने अत्यन्त उम्र तपस्या कर अपना शरीर
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२४८ क्षीण करना प्रारम्भ किया। पर जिस भोग फल कर्म का उदय टालने में तीर्थकर भी असमर्थ हैं उसे वे किस प्रकार टाल सकते थे।
एक वार नन्दीपेण मुनि अकेले छह का पारणा करने के निमित्त शहर में गये। अन्त भोग के दोष से प्रेरित होकर उन्होंने एक वैश्या के घर में प्रवेश कर धर्म-लाभ इस शब्द का उच्चारण किया। वैश्या ने उत्तर में कहा, "मुझे तो अर्थ लाम की जरूरत है। मैं धर्म कर्म को क्या करूं।" ऐसा कह कर विकार युक्त हृदय वाली वह वैश्या हँसने लगी। उस समय यह वैश्या मुझे क्यो हँसती है, इस प्रकार विचार कर उन्होंने अपनी लब्धि के बल से वहाँ पर रत्नों के ढेर कर दिये। "पहले अर्थ लाभ" ऐसा कह कर नन्दीपेण मुनि चलने लगे। यह देख वैश्या पीछे दौड़ी और कहा-"प्राणनाथ, इस कठिन वृत्त को छोड़ दो और मेरे साथ स्वर्गीय भोगो को भोगो।" इस प्रकार कह कर उसने उन्हे पकड़ लिया और चार बार व्रत छोड़ने का आग्रह करने लगी। इस समय नन्दीषेण ने व्रत छोड़ने के दोष को जानते हुए भी भोग फल कर्म के वश होकर उसका कथन स्वीकार किया। पर उसके साथ ही उन्होंने यह प्रतिज्ञा की कि, "जो मैं प्रति दिन दश अथवा इस से अधिक मनुष्यों को बोध न करूं तो उसी दिन पुनः दोक्षा ग्रहण कर लूं।" ___यह प्रतिज्ञा कर उन्होंने मुनिलिम, को छोड़ दिया। और वैश्या के साथ भोग भोगते हुए अपने अन्तः करण की उस आवाज़ का स्मरण करने लगे। वहाँ रहते हुए भी वे प्रति दिन
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निमित्त वीर प्रभु उनका भोग फल कर्म
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दस आदमियो को प्रबोध कर दीक्षा लेने के
दिन जब कि
के पास भेजते रहे । एक क्षीण हो चुका था, उन्हें केवल नौ ही आदमी दीक्षा ग्रहण - करनेवाले मिले । दसवां एक सोनी था, पर वह किसी प्रकार प्रवोध न पाता था, उसी दिन नन्दीपेण मुनि ने उस वैश्या को छोड कर दशमस्थान की पूर्ति की ।
कई स्थानों में भ्रमण करते हुए भगवान महावीर "क्षत्रिय कुण्ड" ग्राम मे पधारे। वहाँ समवशरण सभा में बैठ कर उन्होंने उपदेश दिया । प्रभु को पधारे हुए जान नगर निवासी बड़ी भारी समृद्धि और भक्ति के साथ प्रभु की वन्दना करने को गये थे । तीन प्रदक्षिणा दे, जगद्गुरु को नमस्कार कर वे अपने योग्य स्थान पर बैठ गये । उसी समय भगवान् महावीर के जमाता जमालि उनकी पुत्री प्रियदर्शना सहित प्रभु की वन्दना ' करने को आये । भगवान् के उपदेश से प्रबोध पाकर उन दोनों पति-पत्नी ने गुरु जनों से दीक्षा लेने की अनुमति ले दीक्षा ग्रहण की। जमालि ने ५०० आदमियो के साथ और प्रियदर्शना ने एक हजार स्त्रियो के साथ दीक्षा ग्रहण की। अनुक्रम से जमालि मुनि ने ग्यारह अगो का अध्ययन कर लिया। तबप्रभु ने उनको एक हजार मुनियों का आचार्य बना दिया। उनके पश्चात् उन्होंने और भी उम्र तपस्या करना प्रारम्भ किया । इधर चन्दना का अनुकरण करती हुई प्रियदर्शना भी उम्र तप करने लगी । एक बार जमालि ने अपने परिवार सहित प्रभु की वन्दना - कर कहा - "भगवन् यदि आपकी आज्ञा हो तो अब हम स्वत-
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न्त्रता पूर्वक विचरण करें।" पर भगवान महावीर ने ज्ञान चक्षुओं के द्वारा भविष्य में उनके द्वारा होने वाले अनर्थ को जान लिया। इस कारण उन्होंने उनकी बात का कुछ उत्तर न देकर मौन ग्रहण कर लिया। इधर जमालि "मौनं सम्मति लक्षणं" समझ कर परिवार सहित विहार करने को निकल पड़े। विहार करते करते अनुक्रम से वे श्रावस्ती नगरी में आये । वहाँ कोष्टक नामक उद्यान में वे ठहरे । यहाँ पर विरस, शीतल, रूखे, तुच्छ, और ठण्डे अन्नपान का व्यवहार करने से उनके शरीर मे पित्तवर की पीड़ा उत्पन्न हो गई। इस पीड़ा के कारण वे अधिक समय तक खड़े नहीं रह सकते थे। इस कारण पास ही के एक मुनि से उन्होंने संधारा (आसन) करने को फहा । मुनियों ने तुरन्त सयारा करना प्रारम्भ किया । पित्त की अत्यन्त पीड़ा से व्याकुल होकर जमालि वार २ मुनियों से पूछने लगे कि-"अरे साधुओं। क्या संथारा प्रसारित कर दिया।" साधुओं ने कहा कि-"सथारा हो गया ।" यह सुन जमालि तुरन्त उनके पास गये, वहाँ उनको संथारा विछाते देख वे जमीन पर बैठ गये। उसी समय मिथ्यात्व के उदय से क्रोधित हो उन्होंने कहना प्रारम्भ किया
"अरे साधुओं ! हम बहुत समय से भ्रम में पड़े हुए हैं। चिरकाल के पश्चात् अव मेरे ध्यान में यह बात आई है कि जो कार्य किया जा रहा हो उसे कर डालो" ऐसा नहीं कह सकते। संथारा बिछाया जा रहा था। ऐसी हालत में तुमने “विछा दिया" यह कर असत्य भाषण किया है । इस प्रकार असत्य चोलना अयुक्त है । जो उत्पन्न हो रहा हो, उसे उत्पन्न हुआ
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कह देना और "किया जा रहा हो" उसे "कर डाला" कह देना ऐसा जो अरिहन्त प्रभु कहते हैं वह ठीक नहीं मालूम होता । इसमें प्रत्येक विरोध मालूम होता है। वर्तमान और भविष्य क्षणों के व्यूह के योग निष्पन्न होते हुए एक कार्य के विषय मे "किया" ऐसा कैसे कहा जा सकता है। जो अर्थ और क्रिया का विधान करता है उसी में वस्तुत्व रहता है। कार्य यदि आरम्भ से ही "किया" ऐसा कहलाने लग जाय तो फिर शेष क्षणों में किये हुए कार्य में अवश्य अनवस्था दोष की उत्पत्ति होती है। युक्ति से यही सिद्ध होता है कि कार्य पूर्ण हो चुका है, वही स्पष्ट रूप से किया हुआ कहा जा सकता है । इसलिये हे मुनियों। जो मैं कहता हूँ वही प्रत्यक्ष सत्य है। उसे अङ्गीकार करो । जो युक्ति से सिद्ध होता हो उसी को ग्रहण करना बुद्धिमानों का काम है। सर्वज्ञ नाम से प्रसिद्ध अरिहंत प्रभु मिथ्या बोलते हो नहीं है ऐसी कल्पना करना व्यर्थ है क्योंकि महान् पुरुषों का भी कभी कभी स्खलित हो जाया करते हैं।"
जमालि के इस वक्तव्य को सुन कर मुनिचोले-"जमालि । तुम यह विपरीत कथन क्यो करते हो! राग-द्वेष से रहित अर्हत प्रभु कभी असत्य नहीं बोलते । उनकी वाणी मे प्रत्यक्ष तथा प्रमुख दोष का एक अंश भी नहीं होता। आध समय में यदि वस्तु निप्पन्न हुई न कहलाय तो समय के अवशेष पन से दूसरे समय में भी उसकी उत्पत्ति हुई ऐसा कैसे कहा जा सकता है। अर्थ और क्रिया का साधकपन वस्तु का लक्षण है। किसी को भी कोई कार्य करते हुए देख कर यदि हम उसे पूछे कि "क्या
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२५२ कर रहे हो"। उसके उत्तर में यदि वह कहे कि "मैं अमुक वस्तु बना रहा हूँ" तो इसमें वह किसी प्रकार की भूल नहीं कर रहा है । क्योकि उसके गर्भ में कार्य का साधन बना हुआ है।" तुम्हारे समान छद्मस्थ को रक्त और अयुक्त का पूर्ण ज्ञान कैसे हो सकता है। और तुमने यह कहा कि "महान पुरुपों का भी स्खलन हो जाता है" सो तुम्हारा यह कथन बिल्कुल मत्त प्रमत्त
और उन्मत्त के समान है। जो किया जा रहा हो उसे किया हुआ कह देना "ऐसा जो सर्वज्ञ का कथन है वह बिल्कुल ठीक है।" इसके पश्चात् उनके आपस में और भो गर्मागर्म वहस हुई। अन्त मे वे सब लोग जमालि को छोड़ कर श्रीवीर प्रभु के पास चले गये। प्रियदर्शना ने अपने परिवार सहित पूर्व स्नेह के कारण जमालि का पक्ष ग्रहण किया । जमालि कुछ दिनो पश्चात् उन्मत्त हो गया और वह साधारण लोगों मे अपन मत का प्रचार करता हुआ घूमने लगा। ६ एक बार अपने ज्ञान के मद में मदोन्मत्त हो जमालि चम्पानगरी के समीपवर्ती पूर्णभद्र नाम के वन मे गया। उस समय वहां पर प्रभु का समावशरण रचा हुआ था। वह समवशरण सभा में गया और बोला-"भगवन् । तुम्हारे बहुत से शिष्य केवल नान को पाये बिना ही मृत्यु को प्राप्त हो गये। पर मैं ऐसा नहीं हूँ, मुझे तो केवल ज्ञान और केवल दर्शन अक्षत रूप मे प्राप्त हुए हैं। इससे मै भी इस पृथ्वी पर सर्वज्ञ और सर्वदर्शी
• यह विषय बहुत गहरे तत्वशान मे सम्पन्न रखता है । वहुत गम्भीर विचार और अध्ययन किये विना श्सका समझना कठिन हैं। किसी तर्कशास्त्र के पास ना कर इस विषय के जिज्ञासुओं को इसका ज्ञान प्राप्त करना चाहिये।
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प्लेगा अर्हन्त हूँ।" उसके इन मिथ्या वचनों को सुन गौतम स्वामी बोले "जमालि ! यदि तू सचमुच मे ज्ञानी है तो वतला कि जीव और लोक शाश्वत है या अशाश्वत ?" इस प्रश्न का उत्तर देने में असमर्थ जमालि कौवे के समान मुख पसार कर चुपचाप बैठा रहा । तव भगवान ने कहा-"जमालि, यह लोक भिन्न भिन्न तत्वों से शाश्वत और अशाश्वत है। उसी प्रकार जीव भी शाश्वत और अशाश्वत है। द्रव्य रूप से यह लोक और जीव दोनों शाश्वत अर्थात् अविनाशी हैं पर प्रतिक्षण बदलते हुए पर्याय के रूप में वे अशाश्वत और विनाशो है। जिस प्रकार एक घड़ा मिट्टी की अपेक्षा से अविनाशी और घड़े की पर्याय अवस्था से विनाशी है-उसी प्रकार लोक और जीव को समझना चाहिये।"
प्रभु के इस यथार्थ कथन को उसने सुना पर मिथ्याव के उदय से उसका ज्ञान नष्ट हो रहा था इसलिए वह इस पर कुछ ध्यान न दे समवशरण से बाहर चला गया। एक बार विहार करता हुआ जमालि "श्रावस्ती" नगरी में गया। प्रिय दर्शना भी एक हजार आर्जिकाओं के साथ वहीं "टक" नामक कुम्हार की शाला मे उतरी हुई थी। यह कुम्हार परम श्रावक था। उसने प्रियदर्शना को भ्रम में पड़ी हुई देख कर विचार किया "किसी भी उपाय से यदि मैं इसे ठीक रास्ते पर लगा दें तो बड़ा अच्छा हो।" यह सोच कर उसने एक समय वाड़े में से पात्रो को इकट्ठे करते समय एक जलता हुआ तिनका बहुत ही गुम रीति से प्रियदर्शना के कपड़ों में डाल दिया। कुछ समय पश्चात् वख को जलता हुआ देख प्रियदर्शना बोली "अरे ढस देख तेरे प्रमाद से मेरा यह वन जल गया।" ढङ्क ने कहा
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"साध्वी ! तुम पूँठ मत बोलो। तुम्हारे मत के अनुसार जब सारा वस्त्र जल कर राख हो जाय तभी उसे "जला" ऐमा कह सकते हैं। जलते हुए को जल गया कहना यह तो श्री अर्हन्त का वचन है।" यह सुनते ही प्रियदर्शना को शुद्ध बुद्धि उत्पन्न हुई। उसी समय वह वोली "ढङ्क ! तेरा कहना- यथार्थ है। चिरकाल से मेरी बुद्धि नष्ट हो रही थी। तैने मुझे अच्छा वोघ किया । अव मुझे अपने किये का पड़ा पश्चात्ताप है।" ढङ्क ने कहा-"साध्वी ! तुम्हारा हृदय शुद्ध और साफ है, तुम शीघ्र ही वीर प्रभु के पास जाकर इसका पश्चात्ताप कर लो।" यह सुन कर प्रियदर्शना जमालि का साथ छोड़ अपने परिवार सहित वीर प्रभु की शरण में आई। उसके साथ ही साथ जमालि के दूसरे शिष्य भी उसे छोड़ कर भगवान् की शरण में आ गये। क्वल मिथ्यात्व से खदेड़ा हुआ, अकेला जमालि कई वर्षों तक पृथ्वी पर भ्रमण करता रहा । अन्त में एक वार पन्द्रह दिन का अनशन कर वह मृत्यु को प्राप्त हुआ।
उस समय गौतम प्रभु ने भगवान् से पूछा-'हे प्रभु ! जमालि कौन सी गति में गया ?" वीर प्रभु ने कहा-"गौतम ! तपोधन जमालि लावङ्क देवलोक में किग्विपिक देवता हुआ है। वहाँ से भयंकर पांच २ भव नरक, तिर्यंच, और मनुष्य गति में भ्रमण करके निर्वाण को प्राप्त होगा। जो लोग धर्माचार्य का विरोध करते हैं उनकी ऐसीही गति होती है। इस प्रकार उपदेश देकर प्रभु ने वहाँ से अन्यत्र विहार किया। __उस समय अवन्ति नगरी में परम पराक्रमी राजा चण्ड, प्रद्योत राज्य करता था, वह सुन्दर खियों का बड़ा लोलुपी था ।
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एक दिन वह अपते सामन्तो के साथ राज सभा में बैठा था। उस समय एक प्रसिद्ध चित्रकार ने राजसभा में प्रवेश कर उसका अभिवादन किया। और उपहार स्वरूप एक बड़ो सुन्दर रमणी का मनोहर चित्र उसको भेंट किया। उस चित्र को देखते ही जिा चण्डप्रद्योत ने कहा-"कुशल चित्रकार । तेरा चित्रकौशल सचमुच विधाता के समान है। एसा स्वरूप मानव लोक के अन्तर्गत . कभी देखने मे न आया, इसलिए तेरी की हुई इम चित्र कल्पना को धन्य है, यह सुन चित्रकार ने कहाः
"राजन् ! यह केवल कल्पना ही नहीं हैं। इस चित्र में उलिखित रमणी इस समय भी कोशम्बी के राजा शतानिक के अन्तपुर में विद्यमान हैं। इसका नाम मृगावती है। यह मृगाक्षी राजा शतानिक की पटरानी है उसका यथार्थ रूप चित्रित करने में तो विश्वकर्मा भी असमर्थ हैं। मैंने तो उस रूप का किञ्चित अामास मात्र इस चित्र में अंकित किया है। उसका वास्तविक रूप तो वाणी के भी अगोचर है।"
इस बात को सुनते ही रमणी लोलुप चण्डप्रद्योत कामान्ध हो गया। उस ममय वह नीति और अनीति के विचार को विलकुल भूल गया। उसने उसी समय कहा कि-"मृग को देखते हुए सिह जिस प्रकार मृगी को पकड़ लेता है, उसी प्रकार शतानिक के देखते देखते में मृगावती को ग्रहण कर लूंगा।" ऐसा विचार कर उसने पहले एक दूत को राजा शतानिक के समीप भेजा। उस दूत ने शतानिक को जाकर कहा-“हे शतानिक राजा! अवन्ति नरेश चण्डप्रद्योत तुम्हे आज्ञा करता है कि मृगावती के समान रन-जो कि देव योग से तुम्हारे समान
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दूत के इन भयङ्कर वचनों को सुन कर राजा शवानिक क्रोध से अधीर हो उठा। उसने कहा-"अरे अधम दूत ! तेरे मुख से इस प्रकार की बातें सुन मैं अवश्य तुमे भयङ्कर दण्ड देता, पर तू दूत है और दूत को मारना राजनीति के विरुद्ध है, इस लिए मैं तुझे छोड़ देता हूँ। तू उस अधम राजा को कह देना कि शतानिक तुम्हारे समान चाण्डालो से नहीं डरता"। इस प्रकार कह कर उसने तिरस्कार पूर्वक दूत को वहाँ से निकाल दिया। इसने वे सब बातें अवन्ति (उज्जैनी) आ कर राजा चण्डप्रद्योत से कही, जिन्हे सुन कर वह अत्यन्त क्रोधित हो उठा । उसने उसी समय अपनी असंख्य सेना को कौशम्बी पर आक्रमण करने की आज्ञा दी और स्वयं भी उसके साथ चला। इधर अपने को चण्डप्रद्योत का सामना करने में असमर्थ समझ शतानिक अत्यन्त दुखी हुआ, यहां तक कि इस दुख के मारे उसके पाण भी निकल कये।।
ऐसे निकट समय में मृगावती की जो स्थिति हुई उसे बतलाना अशक्य है। पर, फिर भी एक वीर स्त्री की तरह उसने -सोचा कि मेरे पति की तो मृत्यु हो गई.और "उदयन कुमार"
अभी तक बालक ही है। ऐसे विकट समय मे. बिना किसी प्रकार का कपट जाल रचे काम नहीं चल सकता।। यह सोच उसने एक दूत को चण्डप्रद्योत के पास भेज कर, यह कहलाया "मेरे पति तो स्वर्ग चले गये, इसलिए अब तो मुझे आप ही
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भगवान महावीर
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को शरण है । पर इस समय मेरा पुत्र विलकुल बलहीन बालक है, इससे यदि मैं इसके हाथ राज्य भार दे चलो जाऊँ तो निश्चय है कि आसपास के राजा इसका पराभव कर सारा राज्य हड़प जायँगे। यद्यपि आप के सम्मुख कोई राजा ऐसा साहस नहीं कर सकता, पर आप हमेशा तो यहां रहेगे ही नहीं, रहेगे सुदूरवर्ती उज्ययिनो नगरी में। ऐसी हालत में "सांप तो सिर पर और बूटी पहाड़ पर" वाली कहावत चरितार्थ होगी, इसलिये यदि आप जियिनी से इटे मॅगवा कर कौशाम्बी के चारों तरफ एक मजबूत किला वधवा दें तो फिर मुझे आपके साथ चलने में कोई आपत्ति न रह जाय।"
यह सुनते ही राजा चण्डप्रद्योत ने हर्षित चित्त से उसी समय किना बंधवाने की आज्ञा दे दी । भारी आयोजन के साथ किला बाँधना शुरू हो गया, कुछ दिन बीतने पर किला बिल्कुल तैयार हो गया," इसके पश्चात् मृगावती ने दूसरा दूत भेज कर प्रद्योत से कहलाया-"राजन् ! अब तुम धन, धान्य, और इधनादिक से नगरी को भरपूर कर दो, काम लोलुप चण्डप्रद्योत इतने पर भी मृगावती का मतलब न समझा और उसने वहुत शीघ्र उसकी आज्ञानुसार सब काम करवा दिया।
इतना सब हो जाने पर मृगावती ने चतुराई के साथ नगर के सत्र दरवाजों को वन्द करवा दिये। और किले पर अपनी सेना के बहादुर सुभटो को चुन कर चढ़ा दिये । अव तो चण्डप्रद्योत राजा शाखा भ्रष्ट बन्दर की तरह नगरी को घेर कर वैठ गया। वह हत बुद्धि हो मृगावती की बुद्धि पर आश्चर्य करने लगा।
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एक दिन मृगावती के हृदय में संसार के प्रति बड़ा वैराग्य हो आया, उसने सोचा कि यदि वीर प्रभु मेरे भाग्य से इधर पघार जांय तो मैं उनके समीप जाकर दीना ले लूँ । भगवान् महावीर ने ज्ञान के द्वारा मृगावती का यह संकल्प जान लिया और वे तत्काल उसकी मनोवांछा पूर्ण करने के निमित्त वहां पधारे । प्रभु के आने का समाचार सुन मृगावती तत्काल नगर का द्वार खोल भगवान् की वन्दना करने को समवशरण में गई ! राजा चण्डप्रद्योत भी वीर प्रभु का भक्त था, छतएव वह भी पारस्परिक शत्रुता को भूल कर प्रभु की वन्दना को गया । तब प्रभु ने अपना सार्वभाषिक उपदेश प्रारम्भ किया ।
उपदेश समाप्त होने पर मृगावती ने प्रभु को नमस्कार कर कहा कि—–चण्डप्रद्योत राजा की आज्ञा लेकर मै दीक्षा ग्रहण करूंगी। पश्चात् चण्डप्रद्योत के पास जाकर उसने कहा- यदि तुम्हारी आज्ञा हो तो मैं दीक्षा ग्रहण कर लू । क्योंकि मुझे संसार से अब घृणा हो गई है ।" प्रभु के प्रभाव से चण्डप्रद्योत का चैर तो शान्त हो ही गया था, इस लिए उसने मृगावती के पुत्र "उदयन" को तो कौशाम्बी का राजा बना दिया, और मृगावती को दीक्षा ग्रहण करने की आज्ञा दी । मृगावती के साथ साथ चण्डप्रद्योत की अङ्गारवती आदि आठ रानियो ने भी दीक्षा ग्रहण कर ली । '
यहां से बिहार कर सुरासुरों से सेवित महावीर प्रभु वाणिजग्राम नामक प्रसिद्ध नगर में पधारे। उस नगर के पुतिपलाश नामक उद्यान मे देवताओ ने समवशरण की रचना की । उस नगर में पितृवत् प्रजा का पालन करने वाला जितशत्रु नामक
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राजा राज्य करता था। और "प्रानन्द" नामक प्रहपति वहां का नगर प्रेष्टि या, उसके "शिवानन्दा" नामक परम रुपवती पत्री थी, वह बारह करोड़ स्वर्ण मुद्राओं का स्वामी था। बीर प्रनु को वहां पधारे हुए जान वह हर्षोसुल हो उनकी वंदना करने को गया, और उपदेश प्रवण किये, पत्रात उसने बारह प्रकार के गृहस्य धमों को प्रनीकार किया। उसके गये पश्चात् उसकी मी शिवानन्दा ने भी श्राकर इन्हीं बारह धमों को ग्रहण किया । इसके पश्चात् प्रभु ने चम्पा नामक नगरी में कुलपतिनामक गृहस्य को उसकी भता नामक पत्नी सहित और काशी नगरी में चुलनीपिता नामक गृहस्य को उसकी श्यामा नामक स्त्री सहित गवक धर्म में दीक्षितकिये। ये दोनों गृहस्य क्रम से अठारह करोड़ और चौबीस करोड़ स्वस मुद्रात्रों के अधिपनि थे। तदनन्तर काशी में सुगदेव को, प्रालम्भिका में चुहावरु को काम्पील्यपुर में फुण्डकोलिक को गृहम्य धर्म में दीतित किया ये सब लोग असंख्य सम्पत्ति के मालिक थे।
पलाशपुर नामक नगर में सन्नालपुत्र नामक एक कुम्हार रहता था। यह पुम्दार श्राजीविक-सम्प्रदाय के सस्थापक "गौशाला" का अनुगायी था। उसके अमिमित्रा नामक स्त्री धी। यह वीन करोड़ म्यण मुद्रों का स्वामी था। पलाशपुर के थाहर इसकी मिट्टी के यतनों का वेंचने की पांच सौ दुकानें चलती थीं। एक दिन किसी ने आकर उमसे कहा कि कल प्रात: काल महाया लोक्य पूतिसवन प्रमु यहाँ पर पधारेंगे। शब्दालपुत्र ने इससे यह समना कि जरूर इसने यह कथन मेरे धर्म गुरु गोशाला के विषय में किया है। यह बात सुन वह दूसरे
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.२६० दिन प्रभु के समवशरण में गया । प्रभु ने दर्शन दिये के पश्चात् कहा-हे शब्दालपुत्र । कल किसी ने आकर तुझे कहा था कि "कल प्रातःकाल सर्वज्ञ प्रभु यहां पर आएगे, इस पर तेने गौशाला के आने का अनुमान किया था, " यह सुन उस कुम्हार ने सोचा कि "अहो, ये तो सर्वज्ञ महाब्राह्मण अर्हन्त श्रीवीर प्रमु हैं। ऐसा सोच उसने पुनः उनको नमस्कार किया। पश्चात प्रभु ने बड़े हो मधुर शब्दों में उसे "नियतिवाद" की कमजोरियां बतला कर उसे अपना अनुयायी बना लिया । उसने उसी समय प्रभु से श्रावकधर्म को ग्रहण किया।
जव गौशाला ने यह घटना सुनी तो वह शब्दालपुत्र को पुनः अपने मत में मिलाने के निमित्त वहां आया। पर जव शब्दालपुत्र ने उसे दृष्टि से भी मान न दिया तो लाचार होकर वह वहां से वापस चला गया।
यहां से चल कर प्रमु राजगृह नगर के बाहर स्थित गुणशील नामक चैत्य में पधारे ! उस नगर मे "महाशतक" नामक चौबीस करोड़ स्वर्ण मुद्रांओं का अधिपति एक सेठ रहता था, उसके रेवती वगैरह तेरह रानियां थीं। इन सबो ने भगवान •महावीर से श्रावक धर्म ग्रहण किया। वहां से बिहार कर प्रभु श्रावस्ती पुरी में आये, वहां पर, नन्दिनीयिता नामक एक गृहस्थ रहता था। इसके "आश्विनी" नामक स्त्री थी। यह बारह करोड़, स्वर्ण मुद्राओं का अधिपति था। इसको भी श्री वीर प्रभु ने सकुटुम्ब श्रावक धर्म में दीक्षित किया। इस प्रकार प्रभु के दस "मुख्य श्रावक" हो गये।
कई स्थानों पर भ्रमण करते हुए प्रभु एक वार पुनः श्रावस्ती.
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MEपुरी में आये। यहां के कोष्टक नामक उद्यान में देवताओं ने उनका समवशरण बनाया। इसी स्थान पर "जोलेश्या" के पल से अपने विरोधियों का नाश करने वाला "श्रष्टांगनिमित्त" के जान से लोगों के मन को यात कहने वाला और अपने आपको "जिन" कहने वाला गौगाला पहले ही में थाया हुआ था। यह "हालाहन्ना" नामक फिसी कुम्हार की दुकान में उतरा था। अईन्त के समान उसकी ख्याति को सुन कर सैकड़ो मुग्ध लोग नम पाम 'प्राने और उसके मत को प्रहण करते थे। एक बार जब गौतमयामी प्रमु फी भासा में यहार लेने के निमित्त नगर में गये तय वहां उन्होंने सुना कि "यहां पर गौशाला पाईन्त और मर्वज्ञ के नाम से विख्यान होफर 'प्राया हुआ है। इस बात को सुन कर गौतमस्वामी गंद पाने इए प्रभु के पास प्राये। उन्होंने सब लोगों के सम्मुख स्वच्छ बुद्धि में पूछा भगवन । इस नगरी के लोग गौशाला को सर्वश कइने हैं। क्या यह बात सत्य है ? "प्रभु ने कहा" मंग्वली का पुत्र गौशाला है। अजिन होते हुए भी यह अपने को जिन मानता है। गौतम। मैंने ही उसको दीना दी है। शिक्षा मो इसको मैने दी दी है। पर पीछे में मिथ्याची होकर यह मुम में अलग हो गया है । यह सर्वज्ञ नहीं है।
एक बार प्रभु के शिष्य श्री "यानन्द मुनि" आहार लेने के निमित्त नगरी में गये, मार्ग में नन्हें गौशला ने घुला फर कहा"अरे आनन्द । तेरा धर्माचार्य लोगों में अपना मत्कार करवाने की इच्छा में समा के बीच में अपनी प्रशंसा और मेरी निन्दा करता है और कहता है कि यह गौशाला मंखली पुत्र है।
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अर्हन्त तथा सर्वज्ञ नहीं । पर वह अब तक शत्रु के दहन करने में समर्थ मेरो तेजोलेश्या को नहीं जानता है। तू निश्चय रख मैं उसे परिवार समेत नष्ट कर दूंगा । हां यदि तैने मेरा विरोध न किया तो तुझे छोड़ दूंगा ।
आनन्द मुनि ने यह बात प्रभु के आगे आकर कही । फिर उन्होंने शकित होकर पूछा "स्वामी ! गौशाला ने भस्म कर देने की बात कही है । वह वास्तविक है या उसका प्रलाप मात्र है ? प्रभु ने कहा - " अर्हन्त के सिवाय दूसरे को भस्म कर देने मे वह समर्थ है । इसलिये आनन्द ! तू गौतम वगैरह सब मुनियों को जाकर कहदे कि उसके साथ कोई भाषण न करे ।" आनन्द मुनि ने सब लोगों को यह बात जाकर कह दी। इतने ही मे गौशाला वहाँ आया और उसने प्रभु को देख कर कहा"ओ काश्यप । तू मुझे मंखली पुत्र और अपना शिष्य बतलाता है । यह बिल्कुल मिथ्या है। क्योंकि तेरा शिष्य गौशाला तो शुककुल का था । वह तो धर्म ध्यान से मृत्यु पाकर देवगति में उत्पन्न हो गया है उसके शरीर को उपसर्ग और परिषह सहने में समर्थ जान - मैंने अपनी आत्मा को अपने शरीर से निकाल कर उसमें डाल दिया है । मेरा नाम तो "उदाय मुनि " है । मुझे बिना जाने ही तू अपना शिष्य किस महावीर ने कहा - " पुलिस की निगाह में पड़ा छिपने का स्थान न पाकर जिस प्रकार रुई,
प्रकार कहता है ?
हुआ चोर कहीं सन, या ऊन से
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ही अपने शरीर को ढंकने की चेष्टा करता है उसी प्रकार तू भी क्यों असत्य बोल कर अपने को धोखा देता है ।" प्रभु इन वचनों को सुन गौशाला बोला “अरे काश्यप ! आज तू
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न्य भ्रए हो जायगा, नष्ट हो जायगा।" उसके इन वचनों को सुन कर प्रमु के शिष्य सर्वानुभूति मुनि अपने को न सम्हाल सके। वे घोले-"अरे गौशाला । जिस गुरु ने तुझे दीक्षा और शिक्षा दी, उसी का तू इस प्रकार तिरस्कार कैसे करता है। यह सुनते ही क्रोधित हो गौशाला ने दृष्टि विप 'सर्प की ज्वाला की तरह उन पर तेजोलेश्या का प्रहार किया । सर्वानुभूति मुनि उस जाला से दग्ध होकर शुभ ध्यान में मरण पा स्वर्ग गये। अपनी लेश्या की शक्ति से गर्वित होकर गौशाला फिर प्रभु का तिरस्कार करने लगा। तब सुनक्षत्र नामक शिष्य ने प्रभु की निन्दाम क्रोधित हो गौशाला को कठोर वचन कहे। गौशाला ने उन्हें भी मवानुभूति की तरह भस्म कर बाला । इम से और भी गर्वित हो वह प्रमु को कटुक्तिया कदने लगा। ___ नव प्रभु ने अत्यन्न शान्ति पूर्वक कहा-"गौशाला ! मैंने की तुमे शिक्षा और दीक्षा देकर शास्त्र का पात्र किया है। और मेरेशी प्रति तू ऐसे शब्द बोल रहा है। यह क्या तुझे योग्य है।" इन वचनों से अत्यन्त क्रोधित हो गौशाला ने कुछ समीप श्रा प्रमु पर भी तेजोलेश्या का प्रहार किया। पर जिस प्रकार भयहार यवएडर पर्वत से टकरा कर वापस लौट जाता है, उसी प्रकार वह लेश्या भी प्रभु को मम्म करने में असमर्थ हो वापस लौट गई। और फिर अकार्य प्रेरित करने से क्रोधित हो उसने वापस गौशाला के ही शरीर पर प्रहार किया। जिससे गौशाला का सारा शरीर अन्दर से जलने लगा। पर जलते जलते भी ढोठ हो कर उसने प्रमुसे कहा-"अरे काश्यप ! मेरी तेजोलेश्या के प्रभाव से इस समय तू बच गया है। पर इससे उत्पन्न हुए
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पित्तज्वर के कारण आज से छः मास के पश्चात् तू छद्मस्थ अवस्था में ही मर जायगा ।" महावीर ने कहा- गौशाला ! तेरा यह कथन व्यर्थ है । मैं तो अभी इसी कैवल्य अवस्था में सालह वर्ष तक और विहार करूंगा पर तू आज से सातवें दिन तेरी तेजोलेश्या से उत्पन्न हुए पित्तज्वर के कारण मृत्यु को प्राप्त होगा ।" फिर कुछ समय के पश्चात् तेजोलेश्या की भयङ्कर जलन से पीड़ित हो गौशाला वहीं पड़ गया। तब अपने गुरु की अवज्ञा से क्रोधित हुए गौतम वगैरह मुनि उससे कहने लगे---"अरे मूर्ख । जो कोई अपने धर्माचार्य के प्रतिकूल होता है, उसकी ऐसी ही दशा होती है । तेरी धर्माचार्य पर फेंकी हुई वह तेजोलेश्या कहां गई ?" उस समय गौशाला ने गड्ढे में पड़े हुए सिंह की तरह अत्यन्त क्रोधित दृष्टि से उनकी ओर देखा । पर अपने आप को असमर्थ देख वह क्रोध के मारे उछाले मारने लगा और फिर अत्यन्त कष्ट पूर्वक उठ कर हाय हाय करता हुआ वह अपने स्थान पर गया ।
छः दिन व्यतीत होने पर जब सातवे दिन उसका अन्त समय उपस्थित हुआ तो उसको सत्य ज्ञान का उदय हुआ । उसका हृदय पश्चाताप की अग्नि में भस्म होने लगा । तब उसने अपने सब शिष्यों को बुला कर कहा " हे शिष्यों । सुनो मैं अर्हन्त नहीं - - केवलो नहीं- मैं वीर प्रभु का शिष्य मंखली पुत्र गौशाला हूँ । आश्रय को ही भक्षण करनेवाली अभि के समान मैं श्री गुरु का प्रतिद्वन्दी हुआ हूँ । इतने काल तक दम्भ के मारे मैंने अपनी अत्मा और संसार को धोखा दिया है, इसके लिए तुम मुझे क्षमा करना" ऐसा कह कर वह मृत्यु पा स्वर्गलोक को गया ।
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अनुक्रम से विहार करते करते प्रभु " पोतनपुर" पधारे। उस नगर के समीपवर्ती मनोरम नामक उद्यान में देवताओं ने समवशरण की रचना की। वहां का राजा प्रसन्नचन्द्र उसी समय प्रभु की वन्दना करने के निमित्त आया । प्रभु की देशना सुन इसको उमी समय ससार के प्रति वैराग्य हो आया, तत्र अपने पुत्र को राज्य का भार दे उसने दीक्षा ग्रहण कर ली । उम्र तपस्या करते हुए राजर्षि प्रसन्नचन्द्र भगवान् के साथ बिहार करने लगे कुछ समय पश्चात् भगवात् महावीर के साथ वे राजगृही नामक नगरी में आये यह सुनने हो कि भगवान् महावीर राजगृह के समीपवर्ती वन में श्राये हुए हैं। राजा श्रेणिक अत्यन्त उत्कण्ठित चिच से अपने परिवार के साथ उनकी वन्दना करने गया । उसकी सेना के आगे चलने वाले सुमुख और दुर्मुन दो सेनापति मिध्यादृष्टि थे । वे आपस में कई प्रकार की बातें करते हुए जा रहे थे, मार्ग में उनको प्रसन्नचन्द्र मुनि दिव्यलाई दिये । वे एक पैर से खडे होकर ऊंचे हाथ किये हुए श्रातापना कर रहे थे ! उनको देख कर सुमुख बोला । "ऐसी प्रतापना करने वाले मुनि के लिए वर्ग और मोक्ष कुछ भी दुर्लभ नहीं हैं ।" यह सुन कर दुर्मुख बोला " अरे यह तो पोतनपुर का गजा प्रसन्नचन्द्र है, इसने अपने छोटे से लड़के को इतना बड़ा राज्य देकर उसके प्राणों पर कैसी विपत्ति खड़ी कर दी है। उसके मंत्री श्रव चम्पानगरी के राजा दधिवाहन से मिल कर उस लड़के को राजभ्रष्ट करने की कोशिश में लगे हुए हैं। इसी प्रकार इसको पत्नियां भी कहीं चली गई हैं। यह कोई धर्म है । प्रसन्नचन्द्र के ध्यान रूपी पर्वत पर इन वचनों ने वस्त्र
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का काम किया । वे सोचने लगे- “मेरे उन अकृतज्ञ मंत्रियों को धिक्कार है । आज तक मैंने उनके श्रादर में किसी प्रकार की कमी नही की, इस कृतज्ञता का उन्होंने यही बदला दिया । यदि इस समय में वहां होता तो उनको अत्यन्त कठिन सजा देता ।" ऐसे संकल्प विकल्पों से व्याकुल होकर प्रसन्नचन्द्र मुनि अपने प्रहण किये हुए व्रत को भूल गये । और अपने को राजा ही समझ कर वे मन ही मन मंत्रियों के साथ युद्ध करके लगे । इतने में श्रेणिक राजा वहां आया और उसने विनय पूर्वक उनकी वन्दना की, वहां से चल कर वह वोर प्रभु के समीप आया और वन्दना कर उसने पूछा "हे प्रभु मैंने प्रसन्नचन्द्र मुनि को उनकी पूर्ण ध्यानावस्था वन्दना की है । भगवन्। मैं यह जानना चाहता हूँ कि यदि वे उसी स्थिति में मृत्यु को प्राप्त हो तो कौनसी गति में जायगे । प्रभु ने कहा "सातवें नरक में जायेंगे" यह सुन कर श्रेणिक बड़े विचार मे पड़ गया, क्योकि उसे यह मालूम था कि मुनि नरक गामी नहीं होते, अतएव उसे अपने कानों पर विश्वास न हुआ और उसने फिर दूसरी बार पूछा "भगवन् । यदि प्रसन्नचन्द्र मुनि इस समय मृत्यु पा जायं तो कौनसी गति में जायेंगे ।" प्रभु ने कहा - सर्वार्थ सिद्धि विमान में जायगे । श्रेणिक ने पूछा भगवन् आपने एक ही क्षण के अन्तर पर दो बातें एक दूसरी से विपरीत कहीं इसका क्या कारण हैं प्रभु ने कहा -- ध्यान के भेद में प्रसन्नचन्द्र मुनि की अवस्था दो प्रकार की हो गई है । इसी से मैंने ऐसी बात कही है । पहले दुर्मुख के वचनों से प्रसन्नमुनि अत्यन्त क्रोधित हो गये थे । और अपने मन्त्रियों और सामन्तो से मन ही मन युद्ध
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कर रहे थे। उसी समय तुमने उनकी बन्दना की थी, इससे उस समय उनकी स्थिति नरक गति के योग्य थी । उसके पश्चात् वहीँ से तुम्हारे आने पर उन्होंने मन में विचार किया कि अव वो मेरे सब श्रायुध व्यतीत हो चुके हैं। इसलिये अब मैं शिरस्त्राण ही से शत्रु को मारूँगा । "ऐसा सोच उन्होंने अपना हाथ शिर पर रक्खा | वहां अपने लोच किये हुए नगे शिर को देख कर उन्हें तत्काल अपने वृत्त का स्मरण हो आया, जिस से तत्काल उन्हें अपने किये का भयङ्कर पञ्चाताप हुआ । अपने इस कृत्य की खूब आलोचना कर फिर ध्यानमग्न हो गये उसी समय तुमने यह दूसरा प्रश्न किया । और इसी कारण मैने तुम्हारे दूसरे प्रश्न का दूसरा उत्तर दिया । "
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इस प्रकार की बात चल रही थी कि इतने में प्रसन्नचन्द्र मुनि के समीप देवदुन्दुभि वगैरह का कोलाहल होने लगा । उसको सुन कर श्रेणिक ने प्रभु मे पूछा
श्रेणिक - स्वामी यह क्या हुआ ?
प्रभु - " ने कहा ध्यान में स्थिर प्रसन्नचन्द्र मुनि को इसी क्षण केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई है । देवता उसी केवल ज्ञान की महिमा कर रहे हैं ।"
" तदन्तर श्रेणिक ने पूछा - भगवन् ! अगले जन्म में मेरी क्या गति होवेगी ?"
महावीर ने उत्तर दिया---" श्रेणिक यहां से मृत्यु पाकर तू पहले नरक को जायगा । और वहाँ अपनी अवधि को पूरी कर तू इसी भरत क्षेत्र की अगली चौवीसी में "पद्मनाथ" नाम का पहला तीर्थकर होगा
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श्रेणिक ने तब प्रभु को नमस्कार कर कहा-भगवन् । आपके समान जगदुद्धारक स्वामी के होते हुए भी मेरी गति नरक मे क्यों कर होगी ?" ___“वीर प्रभु ने कहा-राजन् तेने पूर्व में नरक का आयु उपार्जन कर रक्खा है इस लिये तू अवश्य नरक में जायगा। क्योंकि पूर्व के बँधे हुए शुभ और अशुभ कर्म के फल अवश्य भोगने ही पड़ते हैं उसको कोई अन्यथा नहीं कर सकता।" . श्रेणिक ने कहा हे नाथ ! क्या कोई ऐसा भी उपाय है, "जिससे इस भयङ्कर गति से मेरी रक्षा हो जाय !" ।
प्रभु ने कहा-हे राजन् । यदि तू तेरे नगर में बसने वाली कपिला ब्राह्मणी के पास से सहर्ष साधुओं को भिक्षा दिला दे और "कालसौकरिक" नामक कसाई से जीवहिंसा छुड़वा,दे तो नरक से तेरा छुटकारा हो सकता है, अन्यथा नहीं।" इस प्रकार प्रभु के वचनों को हृदय में धारण कर राजा श्रेणिक अपने स्थान पर गया।
श्रेणिक ने वहाँ जाकर पहिले कपिला ब्राह्मणी को बुलवाई और कहा-"भद्रे तू श्रद्धापूर्वक साधुओं को भिक्षा दे, मैं तुझे धन और सम्पत्ति से निहाल कर दूंगा।" ___ कपिला ने कहा यदि तुम मुझे सोने मे भी गाड़ दो या सारा राज्य ही मेरे सुपुर्द कर दो, तो भी मैं यह अकृत्य कदापि नहीं कर सकती।"
तत्पश्चात् राजाने "कालसौकरिक" को बुलाया और कहायदि तू इस कसाई के धन्धे को छोड़ दे तो मैं तुझे बहुत सा प्रव्य देकर निहाल कर दूं। तुझे इसमें कुछ हानि भी नहीं, क्योंकि द्रव्य की ही इच्छा से तो तू यह कार्य करता है।"
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भगवान् महावीर "कालसौकरिक" ने कहा-इस काम में क्या दोष है। जिससे अनेक मनुष्यों के जीवन की रक्षा होती हैं, ऐसे कसाई के धन्धे को मैं कदापि नहीं छोड़ सकता। "यह सुन करके क्रोधित हो राजा ने कहा:-देखें तू अब किस प्रकार यह धन्धा कर लेता है ? यह कह कर श्रेणिक ने उसे अन्धेरे कूप में कैद कर दिया ।" तत्पश्चात् वीर प्रभु के पास आकर उसने कहा---
श्रेणिक-भगवन मैने "कालसौकरिक" से एक दिन और रात्रि के लिये कसाई का काम छुड़वा दिया है ।" यह सुन कर प्रभु ने कहा
प्रभु-हे राजन् । उसने उस अन्ध कूप में भी पांच सौ भैंस मिट्टी के बना बना कर मारे है ।" उसी समय श्रेणिक राजा ने वहां जाकर देखा तो सचमुच उसे वही दृश्य दिखलाई दिया । उससे उसे बड़ा अनुताप हुआ और वह अपने पूर्व उपार्जित कर्मों को धिक्कारने लगा।"
श्रीवीर प्रभु वहाँ से विहार कर पृष्ट चम्पा नगरी को पधारे। वहाँ केराजा "साल" और उनके लघु भ्राता "महासाल" प्रभु की वन्दना करने के निमित्त वहां आये । प्रभु की देशना सुन कर उन्हें संसार से वैराग्य हो आया। इससे उन्होंने अपनी वहन यशोमती के पुत्र “गागजी" को राज्य का भार दे दीक्षा ग्रहण करली। कुछ दिनों पश्चात् वीर प्रभु की आज्ञा ले साल और महा-साल के साथ गौतम खामी पुनः पृष्ठ चम्पा को गये । वहां के राजा गागली ने उनकी देशना सुन कर, अपने पुत्र को राज्य गद्दी दे दीक्षा ग्रहण कर ली। गौतम खामी तब वहाँ से चलकर वीर प्रभु के पास आने लगे, मार्ग ही मे शुभ भावनाओ
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के कारण साल, महासाल, गागली आदि को केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई। जब वे लोग प्रभु के पास गये तो प्रभ को प्रदिक्षण दे, गौतम स्वामी को प्रणाम कर और तीर्थ को नमकर पर्षदा में जाने लगे। तव गौतम स्वामी ने उनको कहा-प्रभु की चन्दना करो । प्रभु ने कहा-गौतम । केवली की आशातना मत करो। तत्काल गौतम ने अपने किये का पश्चाताप कर उनसे क्षमा मांगी।
पश्चात् गौतम दुखी होकर सोचने लगे-क्या मुझे केवल ज्ञान प्राप्त न होगा, क्या मैं इस भव में सिद्ध न हो सकूँगा ?" वे ऐसा विचार कर ही रहे थे कि वीर प्रभु ने अपनी देशना में कहा कि जो अपनी लब्धि के द्वारा अष्टापद पर जाकर एक रात्रि वहाँ रहे, वह इसी भव में सिद्धि को प्राप्त हो।" यह सुनते ही गौतम स्वामी प्रभु की आज्ञा लेकर वहाँ जाने के लिए निकल पड़े। वहाँ की यात्रा कर जब वे वापिस लौट रहे थे तब मार्ग में पाँच सौ मुनि उनको मिले उन सबों ने गौतम स्वामी के शिष्य होना चाहा । पर गौतम ने कहा कि सर्वज्ञ परमेश्वर
जो भगवान महावीर हैं वे ही तुम्हारे गुरु हो ओ। यह सुन “उन मुनियों ने सोचा कि “जगद्गुरु श्री वीर परमात्मा हमें गुरु रूप में मिले हैं, इसी प्रकार पिता के समान ये मुनि हमें वोध करने के लिये मिले हैं सचमुच हम बड़े पुण्यवान हैं।" इस प्रकार शुभ भावनाओं का उदय होने से उन पाँच सौं ही मुनियों को कैवल्य की प्राप्ति हो गई। समवशरण में आकर वे वीर-प्रभु की प्रदिक्षण कर केवलियों की सभा की ओर चले। यह देख गौतम स्वामी बोले “वीर प्रभु की वन्दना करो।" यह सुन प्रभु
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ने कहा-ौतम केवली की आशातना मत करो।" यह सुन गौतम ने उनसे भी इसके लिए क्षमा मांगी।
गौतम फिर सोचने लगे.-"अवश्य मैं इस भव में सिद्धि न पा सकूगा। क्योंकि मैं गुरु कर्मी हूँ। इन महात्माओं को धन्य है जिनको कि क्षणमात्र में कैल्य प्राप्ति हो गई।" गौतम के मन की स्थिति को अपने ज्ञान द्वारा जान कर प्रमु ने उससे कहा गौतम् ! तीर्थंकरों का वचन सत्य होता है अथवा देवता का ? गौतम ने कहा-तीर्थकर का।
प्रमु ने कहा-तब अधीर मत हो, खिओं, शिष्यों पर गुरु का स्नेह द्विदल (वह अन्न जिसकी दाल वनती है ) के ऊपर के तृण के समान होता है। जो कि तत्काल दूर हो जाता है। पर गुरु पर शिष्य का स्नेह ऊन की चटाई के समान दृढ़ होता है । चिरकाल के संसर्ग से हमारे पर तुम्हारा स्नेह बहुत दृढ़ हो गया है। यह स्नेह का जब अभाव होगा तभी तुम्हें कैवल्य की प्राप्ति होगी।
राजगृह नगर के समीप वर्ती "शालि" नामक ग्राम में चन्या नामक एक स्त्री आकर रही थी, उसकी सारी सम्पत्ति
और वंश नष्ट हो गया था। केवल सगमक नामक एक पुत्र चचा हुआ था । उसको साथ लेकर वह वहां रहती थीं । सङ्गमक वहाँ के निवासियों के बछड़ों को चराता था। एक बार किसी पर्वोत्सव का दिन आया । घर घर खीर खाण्ड के भोजन बनने लगे, संगमक ने भी इस प्रकार का भोजन बनाते हुए देखा । उन भोजनों को देख कर उसकी इच्छा भी खीर खाने को हुई तब उसने घर जाकर अपनी दीन-माता से खीर बनाने
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के लिये कहा । वह बोली पुत्र ! मैं दरिद्री हूँ, मैं खीर के पैमे कहां से लाऊँ ?" पर जव वालक ने हठ पकड़ ली तर धन्या अपनी पूर्व स्मृति को स्मरण करके रोने लगी। उसको सदन करते देख उसकी पड़ोसियों ने इसका कारण पूछा। धन्या ने गद्गद स्वर से अपने दुख का कारण कहा । नव सवों ने मिल कर दर्याद्र हो उसको दूध वगैरह सामान ला दिया। सब सामान पाकर धन्या ने खीर बनाई और एक थाली में पगेस वह किसी गृह कार्य में संलग्न हो गई। इसी समय कोई गस क्षपण धारी मुनिराज उधर आहार लेने के निमित्त निक्ले । उन्हें देखते ही सगमक के हृदय में भक्ति का उद्रेक हो आया और उसने वह खीर स्वयं न खा, मुनि को खिला दी। कुछ समय पश्चात् जब उसकी माता आई और उसने पुत्र की थाली मे खीर न देखी तो उसने और बहुत सी खीर उसकी थाली मे परोस दी। अतृप्त सङ्गमक ने उस खीर को कण्ठ तक खाया, जिससे उसे भयङ्कर अजीर्ण हो गया। और वह उस रोग से उसी रात को उन मुनि का स्मरण करते करते परलोक गामी हो गया।
मुनि दान के प्रभाव से सनमक का जीव राजगृह नगर मे गोभद्र सेठ की भद्रा नामक स्त्रो के उदर में अवतरित हुआ। भद्रा ने स्वप्न में पका हुआ शालि-क्षेत्र देखा, उसने वह बात अपने पति से कही, तब पति ने कहा कि 'तुम्हे पुत्र प्राति होगी' गर्भ जब चार मास का हो गया, तब भद्रा को दान धर्म और सुकृत करने का दोहला हुआ। भद्र बुद्धि गौ मद्र ने वह दोहला बड़े ही उत्साह के साथ पूर्ण किया। स्थिति काल पूर्ण हो
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जाने पर भद्रा ने दिशाओं के मुख को उज्ज्वल करने वाले एक सर्वाङ्ग सुन्दर पुत्र को जन्म दिया । नामकरण के दिन माता पिता ने हर्पित हो स्वप्नानुसार उसका नाम " शालिभद्र " रक्खा । पाँच धात्रियों की गोद में पलता हुआ शालिभद्र अनुक्रम से बड़ा हुआ । सात वर्ष का होने पर उसकी शिक्षा प्रारम्भ की गई। कुछ समय में वह सर्व कला- पारङ्गत हो गया । बालकपन व्यतीत होने पर क्रमश. यौवन का प्रार्दुभाव हुआ । तब वहाँ के नगर श्रेष्टि ने अपनी बत्तीस वन्याओं का विवाह उसके साथ करने का प्रस्ताव गौभद्र सेठ के पास भेजा ।" जिसे उसने सहर्ष स्वीकार किया । तदनन्तर सर्व लक्षण संयुक्त बत्तीस कन्याएँ बडे ही उत्सव समारोह के साथ शालिभद्र को व्याी गई । अव शालिभद्र विमान के समान रमणीक विलास मन्दिर में अपनी बत्तीसों पत्रियो के साथ रमण करने लगा । श्रानन्द में वह इतना मन हो गया कि उसे सूर्योदय और सूर्यास्त का भान भी न रहता था । उसके माता पिता उसके भोग की सब सामग्रियों की पूर्ति कर देते थे । कुछ समय पश्चात् गौभद्र सेठ ने श्री वीर प्रभु के पास से दीक्षा ग्रहण करली. और विधि पूर्वक अनशनादिक करके वह स्वर्ग गया । वहाँ से अवधि ज्ञान के द्वारा अपने पुत्र को देख उसके पुण्य के वश हो कर वह पुत्र वात्सल्य में तत्पर हुआ । कल्पवृक्ष की तरह वह उसकी पत्रियो सहित उसको प्रति दिन दिव्य वस्त्र और दूसरी सामग्री देने लगा । इधर पुरुष के योग्य जो काम होते उन सब ' को भद्रा पूर्ण करती थी, शालिभद्र तो पूर्व दान के प्रभाव से केवल भोगों को भोगना था ।
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भगगन महावीर
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एक समय एक व्यापारी "रत्न कम्वल" लेकर श्रेणिक राजा के पास बेचने आया । पर उनका मूल्य बहुत होने से श्रेणिक ने उन्हें न खरीदा । तब वह फिरता फिरता शालिभद्र के घर गया । वहाँ भद्राने उसको मुंह मांगा मूल्य देकर सत्र. कम्वल खरीद लिये । इधर रानी चेलना ने श्रेणिक से कहा कि मेरे लिए एक रत्न कम्बल सगवादी । तब श्रेणिक ने उस व्यापारी को बुलवाया । व्यापारी ने आ कर कहा" राजन् ! रत्न कम्वल तो सब भद्रा सेठानी ने खरीद लिये हैं ।" यह सुन श्रेणिक राजा ने एक चतुर मनुष्य को उचित मूल्य देकर ग्न कम्वल लेने के लिए भद्रा के पास भेजा । उसने भद्रा से आकर कम्बल माँगा, पर भद्रा ने कहा कि मैंने उन कचलो के टुकड़े कर शालिभद्र की स्त्रियो को पैर पोंछने के लिये दे दिये हैं, यदि श्रेणिक राजा को उन जीर्ण कम्बलों की आवश्यकता हो तो ले जाओ । वह बात ज्यों की त्यों आकर उस व्यक्ति ने राजा श्रेणिक को कही । यह सुन चेलना ने कहा- देखो तुम्हारे सें और उस वणिक में पीतल और सोने के समान अन्तर है । तव राजा ने कौतुक वरा होकर शालिभद्र को बुलाने के लिये उसी पुरुष को भेजा । लेकिन उसके उत्तर में भद्रा ने राजा के पास
कर कहा - " मेरा पुत्र कभी घर के बाहर नहीं निकलता इसलिये अच्छा हो यदि आपही मेरे घर पधारने को कृपा करे ।" श्रेणिक ने, कौतुक वश हो वैसा ही करना स्वीकार किया । तब भद्रा ने अपने महल से लेकर राजमहल तक मार्ग को विचित्र वस्त्र, और - माणिक्यादि से सुशोभित करवा दिया । उस सुंदर शोभा को चर्यपूर्वक देखता हुआ श्रेणिक : शालिभद्र के घर आया ।
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भगवान महावीर
उस मकान में स्वर्ण के स्तम्भ पर इन्द्रनील मणि के तोरण मूल रहे थे, द्वार की भूमि पर मोतियों के साथिये वनाये हुए थे, स्थान स्थान पर दिव्य वस्त्रों के चन्दवे तने हुए थे। इन सत्रों को अत्यन्त विस्मय पूर्वक देखते देखते राजा ने मकान में प्रवेश किया, और चौथे मंजिल पर चढ़ कर मुशोभितसिंहासन को अलकृत किया। तत्पश्चात् भद्रा ने सातवी मजिल पर जाकर शालिभद्र से कहा-"वत्स, श्रेणिक यहाँ पर आये हुए हैं । इसलिये तू उनको देखने के लिये चल ।" शालिभद्र ने कहा-माता ! इस विषय में तुम सब जानती हो इसलिये जो कुछ मूल्य देना हो वह तुम्ही दे दो। मेरे वहाँ चलने की क्या
आवश्यकता है? भद्रा ने कहा-"वत्स श्रेणिक कोई खरीदने की सामग्री नहीं हैं। वे तो सब लोगो के और तेरे भी मालिक हैं।" यह सुन कर शालिभद्र ने खेद पूर्वक सोचा-"मेरे इस सांसारिक ऐश्वर्या को धिकार है जिसमें मंग भी कोई दूसरा स्वामी है। इसलिए अब तो मैं इस सत्र भोग को सर्प के फण के समान छोड़ कर श्री वीरप्रभु की शरण लूगा।" इस प्रकार सोच कर वह बड़ा व्यथित हुआ, पर माता के आग्रह से वह अपनी खियो सहित श्रेणिक के पास आया और विनय पूर्वक उनसे प्रणाम किया । राजा श्रेणिक ने उसे आलिङ्गन कर अपने पुत्र की तरह गोद में विठलाया। कुछ समय पश्चात् भद्रा ने कहा"देव ! अव इसे छोड़ दीजिए । यह मनुष्य होते हुए भी मनुष्य की गध से बाधा पाता है। इसके पिता देवता हुए हैं। वे इसे और इसकी त्रियों को प्रतिदिन दिव्य वेप, वन तथा अङ्गराग वगैरह देते हैं।" यह सुन राजा ने उसे उसी समय विदा कर दिया।
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पश्चात् भद्रा ने राजा से निवेदन किया कि "आज तो यहीं भोजन करने की कृपा कीजिए ।" भद्रा के आग्रह से राजा ने उसकी बात स्वीकार की । उसी समय भद्रा ने सब प्रकार के पकवान तैयार करवाये । तदनन्तर राजा ने स्नान के योग्य तैलचूर्णादि द्रव्यों के साथ शुद्धजल से स्नान किया। स्नान करते समय उसकी उँगली मे से एक अंगूठी गृह वापिका के जल में गिर गई। राजा इधर उधर उसे दृढने लगा। यह देख भद्रा ने दासी को आज्ञा दी कि इस वापिका का जल दूसरी ओर से निकाल डाल । दासी के ऐसा करते ही उस वापिका का जल खाली हो गया, और उस वापिका में अनेक दिव्य आभरणो के बीच में वह ज्योति हीन अगूठी दृष्टि गोचर होने लगी । उन आभरणो को देख आश्चर्यान्वित हो राजा ने पूछा "यह सब क्या है ?" दासी ने कहा - " प्रति दिन शालिभद्र के और उनकी स्त्रियों के निर्माल्य आभूषण निकाल निकाल कर इसमें डाल दिये जाते हैं । ये सब वे ही हैं।" यह सुन कर राजा ने मन ही मन कहा "इस शालिभद्र के पुण्य कर्मों को धन्य है, और उसके साथ साथ मुझे भी धन्य है, जिसके राज्य मे ऐसे धनाढ्य लोग वास करते हैं। " तत्पश्चात् श्रेणिक राजा सपरिवार भोजन वगैरह करके राजमहल में गये ।
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उसी दिन से शालिभद्र ससार से मुक्त होने का विचार करता रहा। एक दिन उसके एक मित्र ने आकर कहा - "चारों ज्ञान के धारी और सुरासुरों से सेवित धर्मघोष नामक मुनि उद्यान में पधारे हैं ।" यह सुन शालिभद्र हर्षान्वित हो उनकी वन्दना करने के लिये गया । उनकी देशना समाप्त हो जाने पर उसने पूछा"भगवन् कौनसा कर्म करने से राजा अपना स्वामी न हो ।”
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मुनि ने कहा-"जो दीक्षा ग्रहण करते हैं वे सारे जगत के स्वामी होते हैं।" शालिभद्र ने कहा-"यदि ऐसा है तो मैं भी अपनी माता की आज्ञा ले कर दीक्षा लूंगा।" ऐसा कह वह घर गया ।
और माता को नमस्कार कर कहा-“हे माता ! आज श्री धर्मघोष मुनि के मुख से मैने संसार के सब दुखों से छुडा देने वाले धर्म की परिभाषा सुनी है। उसके कारण मुझे संसार से विरक्ति हो गई है। इसलिए तुम मुझे आज्ञा दो जिससे मै व्रत लेकर अपनी आत्मा का कल्याण करू।" भद्रा ने कहा-वत्स ! तेरा यह कथन विल्कुल उपयुक्त है। पर व्रत को निभाहना लोहे के चने चबाने से भी अधिक कष्टप्रद है। उसमें भी तेरे समान सुकोमल और दिव्य भोगों से लालित पुरुप के लिए तो यह बहुत ही कठिन है। इसलिए यदि तेरा यही विचार है तो धीरे धीरे थोड़े थोड़े भोगों का त्याग कर अपने अभ्यास को बढ़ाले। पश्चात तरी इच्छा हो तो दीक्षा ग्रहण कर लेना।" शालिमद्रने माता के इस कथन को स्वीकार किया और उसी दिन से वह एक एक शय्या और एक एक खी का त्याग करने लगा।
कुछ समय पश्चात् जब वीरप्रभु वैभारगिरि पर पधारे तब शालिभद्रने जाकर उनसे मुनि व्रत ग्रहण किया। उग्र तपश्चर्या करते करते शालिभद्र मुनि मनुष्य आयु के व्यतीत हा जाने पर मानवीय देह को छोड़ कर सर्वार्थ सिद्धि विमान में देवता हुए।
राजा चण्डप्रद्योत को उसकी भङ्गारवती रानी से यासव दत्ता नामक एक सर्व लक्षण युक्त पुत्री थी। चण्डप्रद्योत उस कन्या का बड़ा आदर करता था। उसने उसे सर्व कलानिधान
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भगवान महावीर
२७८ कर दी थी। केवल वह सगीत कला की शिक्षा अभी तक उसे न दे सका था। वह सगीत कला मे पारङ्गत एक अध्यापक की खोज में था। कुछ समय पश्चात् उसे पता लगा कि कौशाम्बीपति राजा "उदयन" सगीत कला में अत्यन्त निपुण हैं। यह सुन उसने कई कौशलो से राजा उदयन को हरण कर मंगवा लिया और उसे कहा कि मेरे एक आँख वाली एक पुत्री है। उसे तुम सङ्गीत कला में निपुण कर दो। यदि तुम इस बात को स्वीकार करने मे आनाकानी करोगे तो "मैं तुम्हे कठिन बन्धन मे डाल दूंगा।" राजा उदयन ने भी उस समय की परिस्थिति को देख प्रद्योत का कथन स्वीकार किया। तब प्रद्योत ने उमे कहा-"मेरी कन्या एकाक्षी है इसलिए तुम उसकी
ओर कभी मत देखना क्योकि तुम्हारे देखने से वह अत्यन्त लज्जित होगी।" इस प्रकार उदयन को कह कर वह अन्तःपुर को गया। वहाँ जाकर उसने वासवदत्ता से कहा-"तरे लिये गन्धर्व-विद्या विशारद एक गुरु चुलवाया है वह तुझे सङ्गीतशास्त्र की शिक्षा देगा । पर वह कुष्टी है इसलिये तू कभी उसके सम्मुख न देखना ।" कन्या ने पिता की बात को स्वीकार किया। तत्पश्चात् वत्सराज उदयन ने उसको गन्धर्व विद्या की शिक्षा देना प्रारम्भ किया। प्रद्योत राजा के किये हुए कौशल से कुछ दिनो तक दोनो ने एक दूसरे की ओर न देखा । पर एक दिन वासवदत्ता के मन में उदयन को देखने की इच्छा हई । जिससे वह जान बूझ कर हत बुद्धि सी हो गई। तब उदयन ने उसको डाट कर कहा-"अरी एकाक्षी । पढ़ने में ध्यान न देकर तू क्यों गंधर्व विद्या का नाश करती है।" इस तिरस्कार से
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क्रोधित हो उसने वत्सराज से कहा - "तुम खुद कुष्टो हो, उसको न देख कर मुझे व्यर्थ हो क्यों एकाक्षी कहते हो ?" यह सुन कर वत्सराज को बड़ा आश्चर्य हुआ उसने सोचा कि जैसा मैं कुंष्टी हूँ वैसोही यह एकाक्षी होगी । ऐसा मालूम होता है कि प्रद्योत राजा ने यह सब जाल किसी विशेष उद्देश्य सिद्धि के लिये बनाया हैं । यह सोच उसने वासवदत्ता को देखने की इच्छा से बीच का परदा हटा दिया ।
चादलों से मुक्त होकर शरद पूर्णिमा का चन्द्रमा जिस प्रकार अपनी कला का विस्तार करता है, उसी प्रकार परदे में से मुक्त होकर चन्द्रकला की तरह वासवदत्ता उदयन के देखने में आई। इधर वासवदत्ता ने भी लोचन ' विस्तार कर साक्षात् कामदेव के समान वत्सराज उदयन को देखा। दोनों की चार आखें हुई । दोनों यौवन के मध्यान्ह भूले में झूल रहे थे- दोनों ही सौन्दर्य के नन्दन कानन में विचरण कर रहे थे। दोनों ही एक दूसरे को देख कर प्रसन्न हुए। दो बांसो के सघर्प से जिस प्रकार अमि उत्पन्न हो जाती है उसी प्रकार चारों आँखोंके संघर्ष से प्रमोत्पत्ति हुई । उसी ममय वासवदत्ता ने उदयन - राज को आत्म समर्पण कर दिया ।
एक दिन अवसर देख कर उदयेन राज अपने मत्री की सहायता से - जो कि अपने राजा को छुड़ाने के निमित्त गुप्त रूपसे वहां आया हुआ था - वासवदत्ता को लेकर उज्जयिनी से निकल गया । चण्डप्रद्योत ने उसको पकडने के लिये लाख सिर पीटा पर कुछ फल न हुआ । अन्त में उसने भी उसे अपना जमात स्वीकार किया ।
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•भगवान महावीर
२८० वासवदत्ता के साथ बहुत समय तक विलास कर एक दिन उदचनने संसार से विरक्तहो वीर प्रभु के पास से दीना ग्रहण कर लो।
___ एक दिन "अभय कुमार" ने अपने पिता श्रेणिक राजा से दीक्षा लेने की श्राजा मांगी। इसमे श्रेणिक बड़े दुखी हुए क्योंकि वे अभय कुमार को अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहते थे। पर बुद्विमान् अभय कुमार ने उनको कई प्रकार से समन्त्र चुझा कर शान्त किया और दीक्षा लेने की प्राना ले ली। तदन्तर वीर प्रभु के पास जाकर उन्होंने दीक्षा ग्रहण कर ली । दीक्षा लेने के पूर्व उन्होंने वीर प्रभु की बड़ी हो तत्वपूर्ण न्तुति की थी। उसका सार हम नीचे देते हैं।
"हे स्वामी ! यदि जीव को हम एकान्त-नित्य-मानें तो कृत लाश और अकृतागम का दोष आता है। इसी प्रकार यदि जोव को एकान्त-अनित्य माने तो भी · पराक्त दोनों दोप आते हैं। यदि आत्मा को एकान्त-अनित्य मानें तो सुख और दुख का भोग नहीं रह जाता। पुण्य और पाप एवं वन्ध तथा मोक्ष जीव को एकान्त नित्य-और एकान्त अनित्य मानने वाले दर्शन में कभी सम्भव नहीं हो सकते । इससे हे भगवन् ! तुम्हारे -कथनानुसार वस्तु का नित्यानित्य स्वरूप ही सब दृष्टियो से ठीक
और दोष रहित हैं । गुड़ क्फ को उत्पन्न करता है और सोंठ पित्त को पैदा करती है। पर यदि ये दोनों औषधियाँ मिश्रित
हो तो कुछ दोष उत्पन्न नहीं हो सकता। असत् प्रमाण की -प्रसिद्धि के लिये "दो विरुद्ध भाव एक स्थान पर नहीं हो सकते" यह कहना मिथ्या है। क्योंकि चितकबरी वस्त में
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भगवान महावीर
विरुद्ध वर्णों का योग एक स्थान पर दिखलाई देता है । "विज्ञान का एक आकार विविध श्राकारों के संयोग से उत्पन्न हुश्रा है" इस प्रकार मानने वाला बौद्ध-दर्शन अनेकान्तदर्शन का खण्डन नहीं कर सकता । पृथ्वी को परमाणु स्वरूप से नित्य और स्थूल रूप से अनित्य मानने वाला तथा द्रव्यत्व, पृथ्वीव आदि गुणो को सामान्य और विशेष रूप से स्वीकार करने वाला वैशेषिक दर्शन भी उसका खण्डन नहीं कर सकता । इसी प्रकार सत्व, रज, तम, श्रादि विरुद्ध गुणों से आत्मा को गुंथी हुई मानने वाला सांख्यदर्शन भी इसका खण्डन नहीं कर सकता। इसके अतिरिक्त चार्वाक का खण्डन और मण्डन देखने की तो आवश्यकता ही नहीं है। क्योंकि उसकी बुद्धि तो परलोक, आत्मा और मोक्ष के सम्बन्ध में मूढ़ हो गई है। इससे हे स्वामी ! उत्पाद, व्यय ओर ध्रौव्य के अनुसार सिद्ध को हुई वस्तु मे ही वस्तुत्र रह सकता है, आप का यह कथन बिल्कुल मान्य है।"
अभय कुमार के दीक्षा लिए पश्चात श्रेणिकपुत्र कुणिक ने पड़यन्त्र करके श्रेणिक को जेल में डाल दिया और स्वयं राजा बन बैठा । अत्यन्त कष्टो से त्रसित हो श्रेणिक ने एक दिन आत्म-हत्या करली। तदनन्तर कुछ समय पश्चात कुणिक का वैशालीपति चेटक के साथ बडा ही भयङ्कर युद्ध हुआ। जिसमें कुछ दिनों तक तो चेटक की विजय होती रही। पर अन्त में कुणिक ने उनको पराजित कर वैशाली की दुर्गति करदी। तत्पश्वात दिग्विजय करने की आशा से कुणिक सेना सहित निकला।
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पर रास्ते में एक स्थान पर मारा गया। कुरिणकराज के पश्चात् राज्य के प्रधान पुरुषों ने उसके पुत्र “उदायो" को सिंहासन पर बैठाया । उसने प्रजा का बड़े ही न्यायपूर्वक पालन किया, इसके द्वारा जैन धर्म की वहुत तरक्की हुई।
केवल ज्ञान की उत्पत्ति से लेकर निर्वाण प्राप्ति के पूर्व तक भगवान् महावीर के परिवार में चौदह हजार मुनि, छत्तीस हजार आर्जिकाएँ, तीन सौ चौदहपूर्व धारी मुनि, तेरह सौ अवधिज्ञानी मुनि, सात सौ वैक्रियिक लन्धि के धारक, उतने ही केवली, उतने ही अनुत्तर विमान में जाने वाले, पाँच सौ मनः पर्यय ज्ञान के धारक, चौदह सौ वादी, एक लाख उनसठ हजार श्रावक, और तीन लाख अठारह हजार श्राविकाएं हो गई। ___ इन्द्रभूति गौतम और सुधर्माचार्य के सिवाय शेष नौ गणधर मोक्ष गये । तत्पश्चात् भगवान महावीर अपापा नगरी में पधारे।
प्रभु का अन्तिम उपदेश अपापा नगरी में रचे हुए समवशरण के अन्तर्गत भगवान् महावीर प्रतिष्ठित हुए। उस समय इन्द्र ने नमस्कार करके स्तुति करना प्रारम्भ की। इन्द्र की स्तुति समाप्त होने पर अपापा के राजा ने अपनी स्तुति प्रारम्भ की, उसके पश्चात् भगवान ने अपना निन्नावित अन्तिम उपदेश देना ग्रारम्भ किया :
इस संसार में धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष ये चार पुरुपार्थ हैं। इनमें काम और अर्थ तो प्राणियों के नाम से ही अर्थ रूप है, चारों पुरुपार्थों में वास्तविक अर्थ रखने वाला तो एक
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भगवान महावीर
मोक्ष है और उसका मूल कारण धर्म है । वह धर्म संयम वगैरह दस प्रकार का है। यह धर्म संसार सागर से पार लगाने वाला है । अनन्त दुख रूप संसार है, और अनन्त सुख रूप मोक्ष है । संसार के त्याग का और मोक्ष प्राप्ति का मुख्य हेतु धर्म के सिवाय दूसरा कोई नहीं । लगड़ा मनुष्य भी जिस प्रकार वाहन के श्राश्रय से पार हो सकता है उसी प्रकार धन-कर्मी भी धर्म के श्राश्रय से मोक्ष पा सकता है ।"
इस प्रकार देशना देकर प्रभु स्थिर हुए, तत्पश्चात् पापा के राजा हस्तिपाल ने अपने आठ स्वप्न का फल प्रभु से पूछा, जिसका अलग अलग उत्तर प्रभु ने दिया । उसके पश्चात् गौतम स्वामी के पूछने पर उन्होने अवसर्पिणी काल के पाँचवें और छठे काल की स्थिति बतलाई । जिसका विस्तृत वर्णन करना यहां आवश्यक नहीं जान पडता ।
उसी दिन की रात्रि को अपना मोक्ष जान प्रभु ने विचार किया कि - " गौतम का मुझ पर बहुत स्नेह है और वही उस की कैवल्योपत्ति मे वाघा देता है । इस कारण उस स्नेह का उच्छेद करना आवश्यक है ।" यह सोच उन्होंने गौतम से कहा" गौतम । इस समीपवर्ती ग्राम मे देवशर्मा नामक एक ब्राह्मण हैं, वह तुम से प्रतिबोध पावेगा, इसलिये तुम वहाँ जाओ ।" प्रभु की आज्ञा मस्तक पर धारण कर गौतम वहाँ गये और उन्होने उस ब्राह्मण को उपदेश देकर राह पर लगाया । इधर कार्तिक मास की अमावस्या को पिछली रात्रि के समय स्वाति नक्षत्र के चन्द्रमा में श्री वीर प्रभु ने पचपन अध्ययन पुण्य फल विपाक सम्बन्धी और उतने ही पाप फल विपाक सम्बन्धी कहे । उसके
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भगवान् महावीर
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पञ्चात् छत्तीस अध्ययन प्रश्न व्याकरण अर्थात् निना किसी के पूछे ही कहे, जिस समय वे अन्तिम " प्रधान" नामक अध्ययन कहने लगे, उस समय इन्द्र श्रासनकम्प से उनका मोक्ष समय जान सर्व परिवार सहित वहाँ आया । उसने प्रभु को नमस्कार कर गन्द कण्ठ से निवेदन किया:
" नाथ ! आपके गर्भ, जन्म, दोना और कैवल्य में हस्तोत्तरा नक्षत्र था । इस समय उसमें "भस्मक" गृह संक्रान्न होने वाला हैं । आपके जन्म नक्षत्र में सक्रमण हुआ यह ग्रह दो हजार वर्ष तक आपके भावों अनुयायियों को बाधा पहुॅचायगा । इस लिए जब तक यह ग्रह आपके जन्म-नक्षत्र में मक्रान्त हो तब तक आप ठहरिये । यदि आपके सम्मुख ही यह संक्रान्त हो गया तो आपके प्रभाव मे वह निम्फल हो जायगा ।"
प्रभु ने कहा - " हे शकेन्द्र | आयुष्य को बढ़ाने में कोई -समर्थ नहीं। इस बात को जानते हुए भी तू क्यों मोह के वश होकर इस प्रकार बोलता है ? आगामी पंचमकाल की प्रवृत्ति से ही तीर्थ को वाधा होने वाली है। उसो भवितव्यता के अनुसार इस ग्रह का उदय हुआ है ।"
इस प्रकार इन्द्र को समझा कर प्रभु ने स्थूल मनोयोग और वचनयोग को रोका, फिर सूक्ष्म काययोग में स्थिर होकर प्रभु ने स्थूल काययोग को भी रोका, पश्चात् वाणी और मनके सूक्ष्म योग को भी उन्होने रोके । इस प्रकार प्रभु ने शुलध्यान की तीसरी स्थिति को प्राप्त की । तदनन्तर सूक्ष्म काययोग को भी -रोक कर समुच्छिन्न क्रिया नामक शुकुध्यान की चौथी स्थिति को धारण की। बाद में पाँच हस्वाक्षरों का उच्चारण कर, शुल
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दाशनिक खण्ड
। पहला अध्याय
जैन-धर्म और अहिंसा
त्राव हम पाठको के सम्मुख भगवान महावीर के उस महत् सिद्धान्त को रखना चाहते हैं जो जैन धर्म का प्राण
है। वह सिद्धान्त अहिंसा का है । जैन धर्म के तमाम आचार विचार अहिंसा की नींव पर रचे गये हैं। यों तो भारतवर्ष के ब्राह्मण, बौद्धादि सभी प्रसिद्ध धर्म अहिंसा को "सर्व श्रेष्ठ धर्म" मानते हैं । इन धर्मों के प्रायः सभी महापुरुषो ने अहिंसा के महत्व तथा उस के उपादेयत्व को बतनाया है। पर इस तत्र की जितनी विस्तृत, जितनी सूक्ष्म, और जितनी गहन मीमांसा जैन-धर्म में की गई है उतनी शायद दूसने किसी भी धर्म में न की गई होगी। जैन-धर्म के प्रवर्तकों ने अहिसातत्व को उसकी चरम सीमा पर पहुंचा दिया है। वे केवल अहिंसा की इतनी विस्तृत मीमांसा करके हो चुप नहीं हो गये हैं प्रत्युत् उसको आचरण में लाकर, उसे व्यवहारिक रूप देकर भी उन्होंने वतला दिया है। दूसरे धर्मों में, अहिंसा का तल
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भगवान महावीर
०९० केवल कायिक रूप (शारीरिक) बन करही समाप्त हो गया है, पर जैन-धर्म का अहिंसातत्व उससे बहुत आगे वाचिक और मानसिक होकर आत्मिक रूप तक चला गया है। दूसरे धर्मों की अहिंसा की मर्यादा मनुष्य जाति तक ही अथवा बहुत आगे गई है तो पशु और पत्तियों के जगत् में जाकर समाप्त हो गई है, पर जैन अहिंसा की कोई मादा ही नहीं है। उसकी मर्यादा में तमाम चराचर जीवो का समावेश हो जाने पर भी वह अपरिमित ही रहती है । यह अहिंसा विश्व की तरह अमर्यादित और आलाश की तरह अनन्त है।
लेकिन जैन-धर्म के इस महान तत्व के यथार्य रहस्य को समजने का प्रयास बहुत ही कम लोगों ने किया है । जैनियों की इस अहिसा के विषय में जनता के अन्तर्गत बहुत प्रज्ञान
और भ्रम फैला हुआ है। बहुत से बड़े बड़े प्रतिष्ठित विद्वान् इसको अन्यवहार्य, अनाचरणोय, आत्मघातकी, एवं वाय. रता की जननी समझ कर इसको राष्ट्रनाशक बतलाते हैं । उन लोगों के दिल और दिमाग में यह बात जोरों से ठसी हुई है कि जैनियों की इस अहिंसा ने देश को कायर, और निर्वीर्य वना दिया है और इसका प्रधान कारण यह है कि प्राधुनिक जैन समाज में अहिंसा का जो अर्थ किया जाता है वह वास्तव में ही ऐसा है। जैन-धर्म की असली अहिंसा के तत्व ने आधुनिक जैन समाज में अवश्य कायरता का रूप धारण कर लिया है। इसी आधुनिक अहिंसा के रूप को देख कर यदि विद्वान् लोग भी उसको कायरता-प्रधान धर्म मानने लग जाय तो आश्चर्य नहीं।
लोगों ने रिहत्य को
। के विषय
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भगवान महावीर ' परन्तु जैन अहिंसा का वास्तविक रूप यह नहीं है जो आधुनिक जैन समाज में प्रचलित है। यह तो उसका बहुत ही विकृत रूप है। समाज में जब देवी सम्पद् का हास और आसुरी सम्पद् का आधिक्य होने लगता है तो प्रायः सभी उत्कृष्ट तत्वों के ऐसे ही विकृत रूप हो जाते हैं। श्रासुरी सम्पद् का आधिक्य भारतीय समाज में हो जाने के कारण ही क्या अहिंसा और क्या अन्य तत्व सभी के विकृत रूप हो गये हैं। ये रूप इतने भयङ्कर हो गये हैं कि उन्हें स्पर्श करने तक का साहस भी नहीं होता।
जैन अहिंसा के इस विकृत रूप को छोड़ कर यदि हम उसके शुद्ध और असली रूप को देखें तो ऊपर के सब आक्षेपो का निराकरण हो जाता है। इस स्थान पर हम उन चन्द आक्षेपो के निराकरण करने की चेष्टा करते हैं जो आधुनिक विद्वानो के द्वारा जैन अहिंसा पर लगाये जाते हैं । इस निराकरण से हम समझते हैं कि आक्षेपो की निवृत्ति के साथ साथ जैन अहिंसा का संक्षिप्त स्वरूप भी समझ में आ जायगा ।*
जैन अहिंसा पर सव से पहला आक्षेप यह किया जाता है कि जैनधर्म के प्रवर्तकों ने अहिसा को मर्यादा को इतनी सूक्ष्म कोटि पर पहुँचा दी है कि जहाँ पर जाकर वह करीब करीब अन्ववहाय्य हो गई है । जैन अहिंसा का जो कोई पूर्ण रूपेण पालन करना चाहे, उसको जीवन की तमाम क्रियाओं को बन्द
• यह लेख मुनि जिनविनय जी द्वारा लिखिन "जैनधर्म नु अहिंमा नन्द नामक लेख के आधार पर लिखा गया है।
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कर देना पड़ेगा और निश्चेष्ट होकर देह को त्यागना पड़ेगा । मतलब यह है कि जीवन व्यवहार को प्रारम्भ रखना और जैन अहिसा का पालन करना ये दोनो वातें परस्पर एक दूसरे के विरुद्ध हैं । अतः मनुष्य-प्रकृति के लिए यह कदापि सम्भव नहीं ।
इसमें सन्देह नही कि जैन अहिसा की मर्यादा वहुत ही विस्तृत है और उसका पालन करना सर्वसाधरण के लिए बहुत ही कठिन है और इसी कारण जैनधर्म के अतर्गत पूर्ण अहिंसा के अधिकारी केवल मुनि ही माने गये हैं, साधारण गृहस्थ नही । पर इसके लिए यह कहना कि यह सर्वथा अन्य वहाय है अथवा आत्म- घातक है, बिल्कुल भ्रममूलक है । इस बात को प्रायः सब लोग मानते तथा जानते हैं कि अहिसा - तत्व के प्रवर्तको ने अपने जीवन में इस तत्व का पूर्ण अमल किया था । अपने जीवन में पूरी तरह पालन करते हुए भी वे कितने ही वर्षों तक जीवित रहे थे। उनके उपदेश से प्रेरित हो कर लाखों आदमी उनके अनुयायी हुए थे जो कि आज तक उनके उपदेश का पालन करते चले आ रहे हैं। पर फिर भी हम देखते हैं कि किसी को इस तत्व का पालन करने के निमित्त आत्मघात करने की आवश्यकता नहीं हुई । इस पर यह बात ता. स्वयंसिद्ध हो जाती है कि जैन श्रहिंसा अव्यवहार्य नहीं है । इतना अवश्य है कि जो लोग अपने जीवन का सद्व्यय करने को तैयार नहीं हैं, जो अपने स्वार्थों का भोग देने में हिचकते हैं, उन लोगों के लिये यह तत्व अवश्य अव्यवहार्य है । क्योकि अहिसा का तत्व आत्मा के उद्धार से बहुत सम्बन्ध रखता है । आत्मा को संसार और कर्मबन्धन से स्वतन्त्र करने और दुख
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के झगड़ों से मुक्त करने लिए तमाम मायावी सुखों की सामग्री को त्याग देने की आवश्यकता होती है। इसलिए जो लोग मुमुक्ष हैं, अपनी आत्मा का उद्धार करने के लिये इच्छुक हैं, उनको तो जैन अहिंसा कभी आत्मनाशक या अव्यवहार्य मालूम नहीं हो सकती । स्वार्थलोलुप और विलासी आदमियों को तो पात ही दूसरी है।
जैन अहिंसा पर दूसरा सब से बड़ा आक्षेप यह किया जाता है कि इस अहिंसा के प्रचार ने भारतवर्ष को कायर और गुलाम वना दिया है । इस आक्षेप के करनेवालों का कथन है कि अहिसाजन्य पापों से डरकर भारतीय लोगों ने मांस खाना छोड दिया एवं यह निश्चय है कि मांस भक्षण के बिनाशरीर में चल और मन में शौर्य नहीं रह सकता। शौर्य और बल की कमी हो जाने के कारण यहाँ की प्रजा के हृदय से युद्ध की भावना विल्कुल नष्ट हो गई जिससे विदेशी लोगों ने लगातार इस देश पर श्राक्रमण करके उसे अपने अधीन कर लिया । इस प्रकार अहिंसा के प्रचार से भारतवर्षे गुलाम हो गया और यहाँ की प्रजा पराक्रम-रहित हो गई।
अहिंसा पर किया गया यह आक्षेप विस्कुल प्रमाण-रहिन और युक्ति-शून्य है। इस कल्पना की जड़ में बहुत बड़ा अज्ञान भरा हुआ है। सब से पहले हम ऐतिहासिक-वष्टि से इस प्रश्न पर विचार करेंगे। भारत का प्राचीन इतिहास डके की चोट इस वात को पतला रहा है कि जब तक इस देश पर अहिंसा-प्रधान जातियों का राज्य रहा तब तक यहाँ की प्रजा में शान्ति, शौर्या, सुख और सन्तोप यथेष्टरूप से व्याप्त थे । सम्राट चन्द्रगुप्त और
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भगवान् महावीर अशोक अहिंसा-धर्म के सब से बड़े उपासक और प्रचारक थे। पर उनके काल में भारत कभी पराधीन नहीं हुआ। उस समय यहाँ की प्रजा में जो वीर्य, शान्ति और साहस था, वह आज कल की दुनिया में कहीं नसीब नहीं हो सकता। दक्षिण भारत के पल्लव और चालुक्य वंश के प्रतापी राजा अहिंसा-धर्म के अनुयायी थे, पर इनके राज्य-काल में किसी भी विदेशी ने आकर भारत को सताने का साहस नहीं किया। इतिहास खुले खुले शब्दों में कह रहा है कि भारतवर्ष के लिये अहिसा-प्रधान युग ही स्वर्णयुग रहा है। जब तक यहां पर बौद्ध और जैनधर्म का जोर रहा, जवतक ये धर्म राष्ट्रीयधर्म की तरह भारत मे प्रचलित रहे तव तक भारतवर्ष में स्वतत्रता, शान्ति और सम्पत्ति यथेष्ट रूप में विद्यमान थी। अहिंसाधर्म के श्रेष्ठ उपासक उपरोक्त नृपतियो ने अहिसाधर्म का पालन करते हुए भी अनेक युद्ध किये और अनेक शत्रुओ, को पगजित किया था। जिन लोगों को गुजरात और राजपूताने के इतिहास का कुछ भी ज्ञान है, वे इस बात को भली प्रकार जानते हैं कि इन देशों को स्वतंत्र, समुन्नत और सुखी रखने के निमित्त जैनियो ने कितने बड़े बड़े पराक्रम-युक्त कार्य किये थे। गुजरात के सारे इतिहास मे वही भाग सब से अधिक चमक रहा है जिसमे जैन राजाओं के शासन का वर्णन है। उस समय गुजरात का ऐश्वर्या चरम सीमा पर पहुँच चुका था। वहाँ के सिंहासन का तेज दिगदिगन्त में व्याप्त था, गुजरात के इतिहास मे दण्डनायक विमल शाह, मंत्री मुजाल, मंत्री शान्तु, महामात्य उद्दयन और वाहड़, वस्तुपाल और तेजपाल, प्रामु और जगडू इत्यादि
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भगवान महावीर जैन राज्याधिकारियों को जो स्थान प्राप्त है, वह शायद दूसरों को न होगा। केवल गुजरात ही में नहीं प्रत्युत् भारत के इतिहास में भी बहुत से अहिंसक राजाओं की वीरता के दृष्टान्त देखने को मिलते हैं।
जिस धर्म के अनुयायी इतने पराक्रमशील और शूर वीर थे और जिन्होंने अपने पराक्रम से देश को तथा अपने राज्य को इतना समृद्ध और सत्त्वशील बनाया था उस धर्म के प्रचार से देश और प्रजा की अधोगति किस प्रकार हो सकती है। कायरता या गुलामी का मूल कारण अहिंसा कभी नहीं हो सकती। जिन देशों में हिंसा खूब जोर शोर से प्रचलित है, जिस देश के निवासी अहिंसा का नाम तक नहीं जानते, केवल मांस हो जिनका प्रधान अहार है और जिनकी वृत्तियां हिंसक पशुओ से भी अधिक क्रूर है, क्या वे देश हमेशा आजाद रहते हैं ? गेमन साम्राज्य ने किस दिन अहिंसा का नाम सुना था ? उसने कब मांस-भक्षण का त्याग किया था ? फिर वह कौन सा कारण था जिससे उसका नाम दुनिया के परदे से बिल्कुल मिट गया ? तुर्क प्रजा ने कव अपनी हिंसक और क्रूर वृत्तियों को छोड़ा था; फिर क्या कारण है कि आज वह इतनी मरणोन्मुख दशा में अपने दिन बिता रही है ? स्वयं भारतवर्ष का ही उदाहरण लीजिए। मुगल सम्राटों ने किस दिन अहिंसा की धाराधना की थी, उन्होंने कव पशु-वध को छोड़ा था; फिर क्या कारण है कि उनका अस्तित्व नष्ट हो गया ? इन उदाहरणों से स्पष्ट जाहिर होता है कि देश की राजनैतिक उन्नति और अवनति में हिंसा अथवा अहिंसा कोई कारणभूत नहीं है।
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जान
और स्थूल हिंसा का त्यागी हो सकता है। शेष हिंसाएँ गृहस्थ के लिये क्षम्य होती हैं । गृह कार्य में होने वाली श्रारम्भी हिंसा, व्यापार में होने वाली व्यवहारिक हिंसा तथा श्रात्म-रक्षा के निमित्त होने वाली विरोधी हिंसा में यदि उसकी मनोभावनाएं शुद्ध और पवित्र हैं तो वह दोष का भागी नहीं हो सकता । वल्कि कभी कभी तो इस प्रकार की हिंसा जैन-दृष्टि से भी कर्तव्य का रूप धारण कर लेती है । मान लीजिए एक राजा है, वह न्यायपूर्वक अपनी प्रजा का पालन कर रहा है । प्रजा राजा से खुश है और राजा प्रजा से खुश है। ऐसी हालत में यदि कोई अत्याचारी आततायी आकर उसके शान्तिमय राज्य पर आक्रमण करता है अथवा उसकी शान्ति में वाधा डालता है तो उस राजा का कर्तव्य होगा कि देश की शान्ति रक्षा के निमित्त वह पूरी शक्ति के साथ उस आततायी का सामना करे, उस समय वह युद्ध में होने वाली हिंसा की परवाह न करे । इतना अवश्य है कि वह अपने भावों में हिंसक प्रवृति को प्रविष्ट न होने दे । उस युद्ध के समय भी वह कीचड़ के कमल की तरह अपने को निर्लिप्त रक्खे -- उस भयंकर मार काट में भी वह आततायी के कल्याण ही की चिन्ता करे । यदि शुद्ध और सात्विक मनोभावों के रखते हुए वह हिंसाकाण्ड भी करता है तो हिंसा के पाप का भागी नहीं गिना जा सकता । विपरीत -इसके यदि ऐसे भयंकर समय में वह अहिंसा का नाम लेकर हाथ पर हाथ धर कर कायर की तरह बैठ जाता है, तो अपने राज्य धर्म से एवं मनुष्यत्व से च्युत होता है। इसी प्रकार मान लीजिए कोई गृहस्थ है उसके घर में एक कुलीन, साध्वी, और
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रूपवती पत्नी है। यदि कोई दुष्ट विकारया सत्ता के वशीभूत होकर दुष्ट भावना से उस स्त्री पर अत्याचार करने की कोशिश करता है तो उस गृहस्थ का परम कर्तव्य होगा कि वह अपनी पूर्ण शक्ति के साथ उस दुष्ट से अपनी स्त्री की रक्षा करे, यदि ऐसे कठिन समय में उसके धर्म की रक्षा करने के निमित्त उसे उस आततायी की हत्या भी कर देना पड़े तो उसके व्रत में कोई भी वाचा नहीं पड़ सकती । पर श यह है कि हत्या करते समय भी उसकी वृत्तियां शुद्ध और पवित्र हों। यदि ऐसे समय में अहिसा के वशीभूत होकर वह उस आततायी का प्रतिकार करने में हिचकिचाता है तो उसका भयकर नैतिक अधःपात हो जाता है जो कि हिंसा का जनक है। क्योंकि इसमे आत्मा की उम्र वृत्ति का घात हो जाता है। अहिंसा के उपासक के लिए अपनी स्वार्थवृत्ति के निमित्त की जाने वाली स्थूल या सकल्पी हिंसा का पूर्ण त्याग करना, अत्यन्त आवश्यक है जो लोग अपनी क्षुद्र वासनाओं की तृप्ति के निमित्त दूसरे जीवो को लेश पहुँचाते हैं-उनका हनन करते हैं-वे कदापि अहिंसा धर्म का पालन नहीं कर सकते । अहिंसक गृहस्यों के लिए वही हिंसा कर्तव्य का रूप धारण कर सकती है जो देश जाति अथवा श्रात्म-रक्षा के निमित्त शुद्ध मावनाओं को रखते हुए मजबूरन की गई हो। इतने विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि अहिंसा प्रत पालन करते हुए भी मनुष्य युद्ध कर सकता है, आत्म-रक्षा के निमित्त हिंसक पशुओं का वध कर सकता है, यदि ऐसे समय में वह अहिंसा धर्म की आड़ लेता है तो अपने कर्तव्य से च्युत होता है। इसी बात को और भी स्पष्ट करने के निमित्त हम
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OLDERA
यहां पर इसी विषय का एक ऐतिहासिक उदाहरण पाठको के सम्सुख पेश करते हैं ।
गुजरात के अन्तिम सोलंकी राजा दूसरे भीमदेव के समय मे एकबार उनकी राजधानी "अनहिलपुर" पर मुसलमानो का आक्रमण हुआ । राजा उस समय राजधानी मे उपस्थित न था केवल रानी वहां मौजूद थी । मुसलमानो के आक्रमण से राज्य की किस प्रकार रक्षा की जाय इसके लिये राज्य के तमाम अधिकारियों को बड़ी चिन्ता हुई। उस समय दण्डनायक अथवा सेनाध्यक्ष के पद पर “आभू" नामक एक श्रीमाली वणिक था । वह उस समय उस पद पर नवीन ही आया था । यह व्यक्ति पक्का धर्माचरणी था । इस कारण इसकी रण चतुरता पर किसी को पक्का विश्वास न था, एक. तो राजा उस समय वहां उपस्थित न था, दूसरे कोई ऐसा पराक्रमी पुरुप न था जो राज्य की रक्षा का विश्वास दिला सके और तीसरे राज्य में युद्ध के लिये पूरी सेना भी न थी । इससे रानी को और दूसरे अधिकारियों को अत्यन्त चिन्ता हो गई । अन्त मे बहुत विचार करने के पश्चात् रानी ने "भू" को अपने पास बुलाकर शहर पर आने वाले भयंकर संकट की -- सूचना दी और उसकी निवृति के लिये उससे सलाह पूछी । दण्ड नायक ने अजन्त नम्र शब्दों में उत्तर दिया कि यदि महारानी साहिबा मुझ पर विश्वास करके युद्ध सम्बन्धी पूर्ण सत्ता मुझे सौंप देगी तो मुझे विश्वास है कि मैं दुश्मनों के हाथों से पूरी तरह रक्षा कर लूंगा उत्साह दायक कथन से आनन्दित हो रानो ने
अपने देश की
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आभू के इस उसी समय युद्ध
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गु
भगवान् महावीर सम्बन्धी सम्पूर्ण सत्ता उसके हाथ में सौप कर युद्ध को घोपणा कर दी, सेनाध्यक्ष “आभू” ने उसी दम सैनिक सङ्गठन कर लडाई के मैदान में पडाव डाल दिया। दूसरे दिन प्रातः काल युद्ध प्रारम्भ होनेवाला था। पहले दिन सेनाध्यक्ष को अपनी सेना की व्यवस्था करते करते संध्या हो गई। यह व्रतधारी श्रावक था। दोनों वक्त प्रतिक्रमण करने का इसे नियम था । सध्या होते ही प्रतिक्रमण का समय समीप जान इसने कही एकान्त मे जाकर प्रतिक्रमण करने का निश्चय किया । परन्तु उसी समय उसे मालूम हुआ कि यदि वह युद्धस्थल को छोड फर बाहर जायगा तो सेना में विश्टखला होने की संभावना है । यह मालूम होते ही उसने अन्यत्र जाने का विचार छोड़ दिया और हाथी के हौदे पर हो बैठे २ प्रतिक्रमण प्रारम्भ कर दिया । जिस समय वह प्रतिक्रमण में आये हुए "जे में जीवा विराहिया - एगिदिया वैगिदिया" इत्यादि शब्दों का रचा
रण कर रहा था । उसी समय किसी सैनिक ने इन शब्दो को सुन लिया । उस सैनिक ने एक दूसरे सरदार के पास जाकर कहा - देखिये साहब ! हमारे सेनापति साहव इस युद्ध के मैदान में जहाँ पर की "मार मार" की पुकार और शस्त्रों को वन खनाहट के सिवाय कुछ भी सुनाई नही पड़ता है- "एगि दिया गिदिया" कर रहे हैं। नरम नरम हलवे के खानेवाले ये श्रावक साहब क्या बहादुरी बतलायेंगे ? शनैः शनै. यह बात रानी के कानो तक पहुँच गई, जिससे वह पड़ो चिन्तित हो गई, पर इस समय और कोई दूसरा उपाय न था इस कारण भविष्य पर सब भार छोड़ कर वह चुप हो गई । दूसरे
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दिन प्रातःकाल युद्ध आरम्भ हुआ, योग्य अवसर ढूंढ कर सेनापति ने इतने पराक्रम और शौर्य के साथ शत्रु पर आक्रमण किया कि जिससे कुछ ही घड़ियों में शत्रु सेना का भयङ्कर सहार हो गया और मुसलमानों के सेनापति ने हथियारी को नीचे रख युद्ध वन्द करने को प्रार्थना की। आभू की विजय हुई। अनहिलपुर की सारी प्रजा मे उसका जय जयकार होने लगा। रानी ने वडे सम्मान के साथ उसका स्वागत किया। पश्चात् एक बडा दरवार करके राजा और प्रजा की
ओर से उसे उचित सम्मान प्रदान किया गया । इस प्रसङ्ग पर रानी ने हँस कर कहा "दण्ड नायक । जिस समय युद्ध में व्यूह रचना करते समय तुम "एगि दिया" का पाठ करने लग गये थे उस समय तो अपने सैनिको को तुम्हारी ओर से बड़ी ही निराशा हो गई थी। पर आज तुम्हारी वीरता को देख कर तो सभी लोग आश्चर्यान्वित हो रहे है।" यह सुन कर दण्डनायक ने नम्र शब्दों में उत्तर दिया--"महारानी । मेरा अहिंसावृत मेरी आत्मा के साथ सम्बन्ध रखता है। 'एंगिदिया गिदिया' मे बध न करने का जो नियम मैंने ले रक्खा है वह मेरे व्यक्ति गत स्वार्थ की अपेक्षा से है। देश की रक्षा के लिये अथवा राज्य की आज्ञा के लिये यदि मुझे वध अथवा हिसा करने की आवश्यकता पड़े तो वैसा करना मैं अपना परम कर्तव्य समझता हूँ। मेरा यह शरीर राष्ट्र की सम्पत्ति है इस कारण राष्ट्र की आज्ञा और आवश्यकता के अनुसार इसका उपयोग होना आवश्यक है। शरीरस्थ आत्मा और मन मेरी निज की सम्पत्ति है। इन दोनो को हिसा भाव
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से अलग रखना यही मेरे अहिंसा व्रत का लक्षण है।
इस ऐतिहासिक उदाहरण से यह भली प्रकार समझ में आ जायगा कि जैन गृहस्थ के पालने योग्य अहिसा व्रत का यथार्थ स्वरूप क्या है।
मुनियों की सूक्ष्म अहिंसा जो मनुग्य अहिंसा व्रत का पूर्ण अर्थात् सूक्ष्म रीति से पालन करता है उसको जैन-शास्त्रो मे मुनि, भिक्षु, श्रमण अथवा संन्यासी शब्दों से सम्बोधित किया गया है। ऐसे लोग ससार के सब कामो से दूर और अलिप्त रहते हैं। उनका कर्तव्य केवल
आत्मकल्याण करना तथा मुमुन जनो को आत्मकल्याण का मार्ग बताना रहता है। उनकी आत्मा विषयविकार तथा कपाय भाव से बिल्कुल परे रहती है। उनकी दृष्टि में जगत् के तमाम प्राणी आत्मवत् दृष्टिगोचर होते हैं। अपने और पराये का द्वेष भाव उनके हृदय में से नष्ट हो जाता है। उनके मन वचन और काय तीनो एक रूप हो जाते है। सुख, दुख, हर्प और शोक इन सबो मे उनकी भावनाएं सम रहती है । जो पुरुष इस प्रकार की अवस्था को प्राम कर लेते हैं, वे महाव्रती कहलाते हैं। वे पूर्ण अहिंसा का पालन करने में समर्थ होते हैं। ऐसे महाव्रती के लिए स्वार्थ हिंसा और परार्थ-हिंसा दोनों वर्जनीय हैं। वे मूक्ष्म तथा स्थूल दोनों प्रकार की हिंसाओं से मुक्त रहते हैं।
। यहाँ एक प्रश्न यह हो सकता है, कि इस प्रकार के महाव्रतियो से भी खाने, पीने, उठने, बैठने में तो जीव-हिंसा का होना अनिवार्य है। फिर वे हिंसाजन्य पाप से कैसे बच सकते है ?
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उपप्रक
यद्यपि यह बात सत्य है कि इस प्रकार के महाव्रतियों से भी उक्त क्रियाएं करने में सूक्ष्म जीव हिंसा होती रहती है । पर उनकी उच्च मनोदशा के कारण उनको हिसाजन्य पाप का तनिक भी स्पर्श नही होने पाता और इस कारण उनकी श्रात्मा इस प्रकार के पाप बन्धन से मुक्त ही रहती है। जब तक आत्मा इस स्थूल शरीर के संसर्ग मे रहती है, तब तक इस शरीर से इस प्रकार को हिंसा का होते रहना अनिवार्य है । परन्तु इस हिंसा में आत्मा का किसी भी प्रकार का संकल्प व विकल्प न होने से वह उससे अलिप्त ही रहती है । महावृत्तियों के शरीर से होने वाली यह हिंसा द्रव्य अर्थात् स्वरूप हिंसा कहलाती है । भावहिंसा अथवा परमार्थ हिंसा नही । योक उस हिंसा का भावो के साथ कोई सम्बन्ध नहीं रहता | हिमाजन्य पाप से वही आत्मा वृद्ध होती है जो कि हिंसक भाव से हिंसा करती है । हिंसा का लक्षण बतलाते हुए जैनियो के तत्वार्थ सूत्र नामक ग्रन्थ में लिखा है कि
" प्रमत्तयोगा प्राणव्य परोपणं हिसा"
अर्थात् प्रमत्त भाव से जो प्राणियों के प्राणों का नाश किया जाता है, उसी को हिंसा कहते हैं । जो प्राणी विषय अथवा कषाय के वशीभूत होकर किसी प्राणी को कष्ट पहुँचाता है वही हिंसाजन्य पाप का भागी होता है । इस हिसा की व्याप्ति केवल शरीर जन्य कष्ट तक ही नहीं पर मन और वचन जन्य कष्ट तक है । जो विषय तथा कत्राय के वंशीभूत होकर दूसरों के प्रति अनि चिन्तन या अनिष्ट भाषण करता है वह भी भाव हिसा का दोषी माना जाता
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है। इसके विपरीत विषय और कपाय से विरक्त मनुष्य के द्वारा किसी प्रकार की हिसा भी हो जाय तो उसकी वह हिंसा परमार्थहिसा नहीं कहलाती। मान लीजिये कि एक बालक है उस अन्तर्गत किसी प्रकार की खराव प्रवृत्ति है। उस प्रवृत्ति में रुष्ट होकर उसका पिता अथवा गुरु केवल मात्र उसकी कल्याण कामना से प्रेरित होकर कठोर वचनों से उसका ताड़न करते हैं, अथवा उसे शारीरिक दण्ड भी देते हैं, तो इसके लिए कोई भी उस गुरु अथवा पिता को दण्डनीय अथवा निन्दनीय नहीं मान सकता, क्योंकि वह दण्ड देते समय पिता तथा गुरु की वृत्तियो मे किसी प्रकार की मलिगता के भाव नथे, उनके हृदय में उस समय भी उज्वल अहिंसक और कल्याण कारक भाव कार्य कर रहे थे। इसके विपरीत यदि कोई मनुष्य द्वेषभाव के वश में होकर किसी दूसरे व्यक्ति को मारता है अथवा गालियां देता है तो समाज मे निन्दनीय और राज्य से दण्डनीय होता है। क्योंकि उस व्यवहार में उसकी भावनाएँ कलुपित रहती हैं-उसका आशय दुष्ट रहता है। यद्यपि उपरोक्त दोनो प्रकार के व्यवहारो का वाह्य स्वरूप एक ही प्रकार का है तथापि भावनाओं के भेद से उनका अन्तरूप बिल्कुल एक दूसरे से विपरीत है। इसी प्रकार का भेद द्रव्य और गाव हिंसा के स्वरूप में होता है।
वास्तव मे यदि देखा जाय तो हिसा और अहिसा का रहस्य मनुष्य की मनोभावना पर अवलम्बित है। किसी भी कन्ग के शुभाशुभ वन्ध का आधार कता के मनोभाव पर अवलम्बित है। जिस भाव से प्रेरित होकर मनुष्य जो कर्म करता है उसी के
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अनुसार उसे उसका फल मिलता है। कर्म की शुभाशुभता उसके स्वरूप पर नहीं, प्रत्युत्त कर्त्ता की मनो भावनाओं पर निर्भर है। जिस कर्म के करने में कर्त्ता का विचार शुभ है वह शुभ कर्म कहलाता है और जिसके करने में उसके विचार अशुभ हैं वह कर्म अशुभकर्म कहलाता है । एक डाक्टर किसी प्रकार की अस्त्र क्रिया करने के निमित्त बीमार को होरोफार्म सुंघाकर बेहोश करता है, और एक चोर अथवा खूनी उसका धन अथवा प्राण हरने के निमित्त चेहोश करता है । क्रिया की दृष्टि से दोनों कर्म बिल्कुल एक हैं। पर फल की दृष्टि से यदि देखा जाय तो डाक्टर को उस कार्य के बदले में सम्मान मिलता है और चोर तथा खूनी को सजा तथा फांसी मिलती है । कर्म के स्वरूप में कुछ भी अन्तर न होते हुए भो फल के स्वरूप में इतना अन्तर क्यों पड़ता है इसका एक मात्र कारण यही है कि कर्म करने वाले के भाव में विल्कुल विपरीतता होने से उसके फल में भी विपरीतता दृष्टि गोचर होती है । इसी फल के परिरणाम पर से कर्त्ता के मनोभावों का निष्कर्ष निकाला जाता है, इसी मनोभाव के प्रमाण से कर्म की शुभाशुभता का निश्चय किया जाता है। इससे यह सिद्ध होता है कि धर्म, अधर्म, पुण्य, पाप का मूल भूत केवल "मन" है भागवत धर्म के " नारद पंचरत्न" नामक ग्रन्थ में एक स्थल पर कहा है कि
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" मानसं प्राणिनामेव सर्वकर्मैक कारणम् । मनोरूपं वाक्यं च वावयेन प्रस्फुटं मन. ॥"
अर्थात् - प्राणियों के तमाम कर्मों का मूल एक मात्र मन ही है । मन के अनुरूप ही मनुष्य की वचन आदि प्रवृत्तियाँ
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होती हैं और इन्ही प्रवृत्तियो के द्वारा मन का रूप प्रकट होता है।
इस प्रकार तमाम कमों के अन्तर्गत मन की ही प्रधानता रहती है। इस कारण आत्मिक विकास में सब से प्रथम मन को शुद्ध और सयन बनाने को आवश्यकता है। जिसका मन इस प्रकार शुद्ध और संयत बन गया है, यद्यपि वह जब तक देह वारण करता है तब तक कर्मों से अलग नहीं रह सकता, तथापि उनम्न निर्लिप्त अवश्य रहता है। गोता मे कहा है कि
"नाहि देहन्द्रता शक्यं त्यक्तुं कर्मण्य शेपत योग युक्तो भूतात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः
सर्व भूतात्म भूतारमा कुर्वन्नपि न लिप्यते । गीता के इस कथनानुसार जो योगयुक्त विशुद्धात्मा, जितेन्द्रिय और सब जीवो में आत्म-बुद्धि रखने वाला पुरुष है वह कर्म करता हुआ भी उससे निर्लिप्त रहता है।
उपरोक्त सिद्धान्त से यह वात स्पष्ट होजाती है कि जो सर्व व्रती और पूर्ण त्यागी मनुष्य है, उससे यदि सूक्ष्म कायिक हिंसा होती भी है तो वह उसके फल का भोक्ता नहीं हो सकता। क्योंकि उससे होनेवाली उस हिंसा में उसके भाव रंच-मात्र भी अशुद्ध नहीं होने पाते और हिंसक भावो से रहित होनेवाली हिंसा हिंसा नही कहलाती । “पावश्यक महाभाष्य" नामक जैन प्रन्थ में कहा है कि__ "मसुम परिणाम हेट जीवा वाहो तितो मयं हिंसा
जस्स उन सो निमित्तं संतो विन तस्स सा हिंसा ।" अर्थात् किसी जीव को कष्ट पहुंचाने में जो अशुभ परिणाम
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अर्थात् समिति गुप्त युक्त महावृत्तियो से किसी जीव का वध हो जाने पर भी उन्हें उसका वन्ध नहीं होता, क्योकि बन्ध में मानसिक भाव ही कारण भूत होते हैं। कायिक व्यापार नहीं।
इससे विपरीत जिसका मन शुद्ध अथवा संयत नहीं है, जो विषय तथा कषाय से लिप्त है वह वाह्य स्वरूप में अहिसक दिखाई देने पर भी हिंसक ही है । उसके लिए स्पष्ट कहा गया है कि:___ "अहणं तो विहिंसों दुदरण ओमओ अहिम रोव"
जिसका मन दुष्ट भावों से भरा हुआ है वह यदि कायिक रूप से किसी को न भी मारता है, तो भी हिसक ही है। यही जैन-धर्म की अहिंसा का संक्षिप्त स्वरूप है।
जैन-अहिंसा और मनुष्य-प्रकृति अव इस स्थान पर हम जैन-अहिंसा पर मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी कुछ विचार करना आवश्यक समझते हैं। क्योकि कोई भी सिद्धान्त या तत्त्व तब तक मनुष्य समाज मे समष्टिगत नहीं
हो सकता जब तक कि उसका मनस्तत्व अथवा मनोविज्ञान से . घनिष्ट सम्बन्ध न हो जाय ।
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पार आदर्श और व्यवहार में कभी २ बड़ा अन्तर हो जाया करता है। यह अवश्य है कि आदर्श हमेशा पवित्र और आत्मा को उन्नति के मार्ग में लेजाने वाला होता है पर यह आवश्यक नहीं कि वह हमेशा मनुष्य-प्रकृति के अनुकूल हो। हम यह जानते हैं कि अहिसा और क्षमा दोनों वस्तुएं बहुत ही उज्वल एव मनुष्यजाति को उन्नति के पथ में लेजाने वाली हैं। यदि इन दोना का आदर्श रूप संसार में प्रचलित हो जाय तो ससार मे श्राज ही युद्ध, रक्तपात और जीवन-कलह के दृश्य मिट जांय और शान्ति की सुन्दर तरिङ्गिणी वहने लगे। पर यदि कोई इस प्राशा से कि ये तत्व ससार में समष्टिगत हो जायं प्रयत्न करना प्रारम्भ करे तो यह कभी सम्भव नहीं कि वह सफल हो जाय । इसका मूल कारण यह है कि समाज की समष्टिगत प्रकृति इन तत्वो को एकान्त रूप से स्वीकार नहीं कर सकती।
प्रकृति ने मनुष्य स्वभाव की रचना ही कुछ ऐसे ढग से की है कि जिसने वह शुद्ध आदर्श को ग्रहण करने में असमर्थ रहता है। मनुष्य प्रकृति की बनावट ही पाप और पुण्य, गुण और दोप एव प्रकाश और अन्धकार के मिश्रण से की गई है। चाहे
आप इम प्रकृति क्हे, चाहे विकृति पर एक तत्व ऐसा मनुष्य स्वभाव में मिश्रित है कि जिससे उसके अन्तर्गत उत्साह के साथ प्रमाद का, क्षमा के साथ क्रोध का, बन्धुत्व के साथ अहङ्कार का और अहिंसा के साथ हिंसक प्रवृति का समावेश अनिवार्य रूपसे पाया जाता है। कोई भी मनस्तत्व का वेत्ता मनुष्य हृदय की इस प्रकृति या विकृति की उपेक्षा नहीं कर सकता। यह
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३११ अवश्य है कि मनुष्य-हृदय की यह विकृति जब अपनी मीमा से वाहर होने लगती है,जब यह व्यष्टिगत से समष्टिगत होने लगती है तब कोई महापुरुप अवतीर्ण होकर उसको पुनः सीमावद्ध कर देते हैं। पर यह तो कभी सम्भव नहीं कि मनुष्य-प्रकृति की इस कुप्रवृति को विल्कुल ही नष्ट कर दिया जाय । आज तक ससार के किसी भी अतीत इतिहास में इस प्रकार का दृश्य देखने को नहीं मिलता। जिस प्रकार शुद्ध ऑक्सिजन वायु से वायुमण्डल का कार्य नहीं चल सकता उसी प्रकार केवल आदर्श से भी समाज का व्यवहार वरावर नहीं चल सकता। बिना व्यवहार की उचित मात्रा के मिलाए वह समष्टिगत उपयोगी नहीं हो सकता। अतएव सिद्ध हुआ कि अहिंसा. ज्ञमा, दया आदि के भाव उसी सीमा तक मनुष्य समाज के लिए उपयोगी और अमलयाफ्ता हो सकते हैं जब तक मनोविज्ञान से उनका हढ़ सन्बन्ध बना रहता है। ___ आधुनिक संसार के अन्तर्गत दो परस्पर विरुद्ध मार्ग एक साथ प्रचलित हो रहे हैं। एक मार्ग तो अहिंसा. क्षमा. दया
आदि को केवल मनुष्य के काल्पनिक भाव वतलाना हुआ एवं उनका मखौल उड़ाता हुआ, हिंसा, युद्ध, वन्धु-विद्रोह आदि का समर्थन कर “जिसकी लाठी उसकी भैंस" वाली कहावत का अनुगामी हो रहा है। उसका आदर्श इहलौकिक सुख की पूर्णता ही में समाप्त होता है । और दूसरा पक्ष ऐसा है जो मनुष्य जाति को विल्कुल शुद्ध आदर्श का सन्देशा देना चाहता है। वह मनुष्य जाति को उस ऊंचे आदर्श पर ले जाकर स्थित करना चाहता है जिस स्थान पर जाकर मनुष्य मनुष्य नहीं रह जाता
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देवता हो जाता है । पहले पथ के पथिक यूरोप के आधुनिक गजनीतिज्ञ हैं और दूसरे के टालस्टाय, रस्किन और महात्मा गांधी के समान मानवातीत ( Superhuman ) श्रेणी के महापुरुष ।
इन आधुनिक महापुरुषां ने अहिंसा आदि का बहुत ही उज्वल स्वरूप मानवजाति के सम्मुख रक्खा है। यह उज्वलम्प इतना सुन्दर है कि यदि मनुष्यजाति में इसका समप्टि रूप से प्रचार हो जाय तो यह निश्चय है कि संसार स्वर्ग हो जाय और मनुष्य देवता । पर हमारी नाकिल राय में यह जंचता है कि मनुष्यत्व का इतना उज्वल सौन्दर्य देखने के लिए मनुष्यजाति तैयार नहीं । सम्भव है इस स्थान पर हमारा कई विद्वानों से मतानैक्य हो जाय पर हम तो नम्रता पूर्वक यही कहेंगे कि कुछ मानवातीत महापुरुषों को छोड़ कर सारी मानवजाति के लिए यह रूप व्यवहारिक नहीं हो सकता । मनुष्य को प्रकृति में जो विकृति छिपी हुई है वह इसे सफल नहीं होने दे सकती और इसीलिए मनोविज्ञान की दृष्टि से इसे हम कुछ अव्यवहारिक भी कहे तो श्रनुचित न होगा ।
पर भगवान् महावीर की हिंसा में यह दोप या अतिरेक कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं होता । इसमे यह न समझना चाहिए कि महावीर ने अहिंसा का ऐसा उज्वल रूप निर्मित ही नही किया, उन्होंने इससे भी बहुत ऊंचे और महत रूप की रचना की है । पर वह रूप केवल उन्हीं थोड़े से महान पुरुषो के लिए
क्या है जो उसके बिल्कुल योग्य है, जो संसार और गार्हस्थ्य से 'अपना सम्बन्ध छोड़ चुके हैं। और जो साधारण मनुष्य - प्रकृति
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भगवान् महावीर
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से बहुत ऊपर उठ गये हैं। महावीर भली प्रकार इस बात को जानते थे कि साधारण मनुष्यजाति इस उज्वल रूप को ग्रहणः करने में असमर्थ है, वह इस आदर्श को अमल में ला नहीं सकती और इसीलिए उन्होंने साधारण गृहस्थों के लिए उसका उतना ही अश रक्खा जिसका वे स्वभावतयः ही पालन करसकें
और वहां से क्रमशः अपनी उन्नति करते हुए अपने मजिले मकसूद पर पहुंच जायं ।
किस सीमा तक मनुष्य अपनी हिंसक-प्रवृत्ति पर अधिकार रख सकता है और उस सीमा से अधिक कन्ट्रोल अनविकार अवस्था में रखने से किस प्रकार उसका नैतिक अध:पात हो जाता है एव किस सीमा पर जाकर उसकी यह हिंसक प्रवृत्ति क्रूर रूप धारण कर लेती है और उसपर कैसे संयम किया जा सकता है आदि सब बातो का समाधान जैन-अहिंसा का सूक्ष्म अध्ययन करने से हो सकता है। यह विषय ऐसा गहन है कि संक्षिप्त में इसको बतलाना असम्भव है। हमारा मतलब केवल इतना ही है कि महावीर की जैन-अहिंसा मनोविज्ञान की कसौटी पर भी बिल्कुल खरी उतरती है । जो जिज्ञासु तुलनात्मक ढङ्ग से इसका विस्तृत अध्ययन करना चाहे उन्हें आधुनिक महात्माओ की अंहिसा और जैन-अहिसा का सूक्ष्म-दृष्टि से अवश्य अध्ययन करना चाहिए।
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दूसरा अध्याय
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स्याद्वाद-दर्शन
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जी के प्रसिद्ध विद्वान् डाक्टर "थामस" का कथन
है। कि "न्याय-शास्त्र में जैन-न्याय का स्थान वहुत " ऊँचा है इसके कितने ही तर्क पाश्चात्य तर्क-शास्त्र के नियमों से विल्कुल मिलत हुए हैं । स्याद्वाद का सिद्धान्त वड़ा ही गम्भीर है। यह वस्तु की भिन्न भिन्न स्थितियों पर अच्छा प्रकाश डालता है।" ____ इटालियन विद्वान् डा० टेसीटोरी का कथन है कि जैनदर्शन के मुख्य तत्व विनान-शास्त्र के आधार पर स्थित हैं। मेरा यह पूर्ण विश्वास है कि व्यो ज्यो पदार्थ विज्ञान की उन्नति होती जायगी, त्यों त्यों जैन-धर्म के सिद्धान्त वैज्ञानिक प्रमाणित होते जायँगे।
जैन-तत्व-ज्ञान की प्रधान नीव स्याद्वाद-दर्शन पर स्थित है। डाक्टर हर्मन जेकोवी का कथन है कि इसी स्याद्वाद के ही प्रताप से महावीर ने अपने प्रतिद्वन्दियो को परास्त करने में अपूर्व सफलता प्राप्त को थी। सञ्जय के "अज्ञेयवाद" के विल्कुल प्रतिकूले इसकी रचना की गई थी।
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भगवान महावीर पत
जो कुछ हो यह तो निश्चय है कि स्याद्वाद-दर्शन संसार के तत्वज्ञान में अपना एक खास स्थान रखता है। स्याद्वाद का अर्थ है-वस्तु का भिन्न भिन्न दृष्टि-विन्दुओ से विचार करना, देखना या कहना । स्याद्वाद का एक ही शब्द मे हम अर्थ करना चाहे तो उसे "अपेक्षावाद" कह सकते हैं। एक ही वस्तु में अमुक अमुक अपेक्षा से भिन्न भिन्न धर्मों को स्वीकार करने ही का नाम स्याद्वाद है। जैसे एक ही पुरुष भिन्न भिन्न लोगों की अपेक्षा से पिता, पुत्र, चाचा, भतीजा, पति, मामा, भानेज अदि माना जाता है। उसी प्रकार एक ही वस्तु मे भिन्न भिन्न अपेक्षा से भिन्न भिन्न धर्म माने जाते हैं। एक ही घट में नित्यव और अनित्यत्व आदि विरुद्ध रूप में दिखाई देनेवाले धर्मों को अपेक्षा-दृष्टि से स्वीकार करने ही का नाम "स्याद्वाददर्शन" है।
वस्तु का स्वरूप ही कुछ ऐसे ढग का है कि वह एक ही समयमे एक ही शब्द के द्वारा पूर्णतया नहीं कहा जा सकता। एक ही पुरुष अपने पुत्र की अपेक्षा से पिता, अपने भतीजे की अपेक्षा से चचा, और अपने चचा को अपेक्षा से -भतीजा होता है। इस प्रकार परस्पर दिखाई देनेवाली बातें भी भिन्न २ अपेक्षाओं से एक ही मनुष्य में स्थित रहती हैं। यही हालत प्रायः सभी वस्तुओ की है। भिन्न भिन्न अपेक्षाओं से सभी वस्तुओ में सत् , असत् नित्य और अनित्य आदि गुण पाये जाते हैं।
मान लीजिए एक,घड़ा है, हम देखते हैं कि जिस मिट्टी से घड़ा बनता है उसी से और भी कई प्रकार के बर्तन बनते हैं।
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भगवान् महावीर
पर यदि उस घड़े को फोड़ कर हम उसी मिट्टी का बनाया हुप्रा कोई दूसरा पदार्थ किसी को दिखलाये तो वह कदापि उसको बड़ा नहीं कहेगा। उसी मिट्टी और द्रव्य के होते हुए भी उसको घड़ा न कहने का कारण यह है कि उसका आकार उल घड़े का मा नहीं है । इससे सिद्ध होता है कि घडा मिट्टी का एक आकार विशर है। मगर यह बात ध्यान में रखना चाहिये कि श्राकार विशप मिट्टी से सर्वथा भिन्न नहीं हो सकता, आकार परिवर्तित की हुई मिट्टी ही जब घड़ा, सिकोरा, मटका आदि नानी ने सम्बोधित होती है, तो ऐसी स्थिति में ये आकार मिट्टी से सर्वथा भिन्न नहीं कहे जा सस्त। इससे साफ जाहिर है कि घड़े का श्राकार और मिट्टी ये दोनों घडे के स्वरूप हैं। अब देखना यह है कि इन दोनों रूपों में विनाशी रूप कौन सा है और ध्रुव कौन सा ? यह प्रत्यक्ष वष्टिगोचर होता है कि घड़ें का आकार स्वरूप विनाशी है । क्योंकि घड़ा फूट जाता है-उसका रूप नष्ट हो जाता है । पर घड का जो दूसरा स्वरूप मिट्टी है वह अविनाशी है क्योंकि उसका नाश होता ही नहीं, उसके कई पदार्थ बनत और बिगड़त रहते हैं।
इतने विवेचन से हम इस बात को स्पष्ट समझ सकते हैं कि घड़े का एक स्वरूप विनाशी है और दूसरा ध्रुव । इसी बात को यदि हम या कहे कि विनाशी रूप से घड़ा अनित्य है, और ध्रुव रूप से नित्य है तो कोई अनुचित न होगा, इसी तरह एक ही वस्तु में नित्यता और अनित्यता सिद्ध करनेवाले सिद्धान्त ही को स्याद्वाट कहते हैं।
स्याहाद की सीमा केवल नित्य और अनित्य इन्हीं दो वातों
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पालु
रूप
में समाप्त नहीं हो जाती, सत् और असत् आदि दूसरे विरुद्धमें दिखलाई देनेवाली वार्ते भी इस तत्त्र ज्ञान के अन्दर सम्मिलित हो जाती हैं। घड़ा आंखों से स्पष्ट दिखलाई देवा है । इससे हर कोई सहज ही कह सकता है कि "वह मन् है ।" मगर न्याय कहता है कि अनुक दृष्टि से वह "असन्" भी है यह बात बड़ी गम्भीरता के साथ मनन करने योग्य है कि प्रत्येक पदार्थ किन बातों के कारण "सन्" कहलाता है । द्रप. रस, गन्ध आकारादि अपने ही गुणों और अपने ही धर्मों से प्रत्येक पदार्थ "सत्" होता है । दूसरे के गुणों से कोई पदार्थ " सन्" नही कहला सकता। एक स्कूल का मास्टर अपने विद्यार्थी की दृष्टि से "मास्टर" कहला सकता है । एक पिता अपने पुत्र की दृष्टि से पिता कहला सकता है । पर वही मास्टर और वही पिता दूसरे की दृष्टि से मास्टर या पिता नही कहता सकता । जैसे स्वपुत्र की अपेक्षा से जो पिता होता है वही पर पुत्र की अपेक्षा से पिता नहीं होता है उसी तरह अपने गुणों से, अपने धर्मों से, अपने खरूप से जो पदार्थ सत् हैं, वही दूसरे पदार्थ के धर्मों से, गुणों से और स्वरूप से "सत्” नहीं हो सकता है । जो वस्तु "सत्" नहीं है, उसे "असत्" कहने में कोई दोष उत्पन्न नहीं हो सकता ।
● इसी विषय को कूल ज्या में श्री हरिन्द्रकिर
भगवान महावीर
कहते हैं।
“चवताः स·द्रव्यक्षेत्रकालमावरपेय सद् वने, परद्रव्य -चाइन् । ततश्च सच सच भवति । अन्यथा तदमच प्रहार (वय नवगाव) इचादि । अनेकन् या पृष्ठ ३० ।
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भगवान महावीर इस प्रकार भिन्न भिन्न अपेक्षाओं से वस्तु को "सत्" और "असत्" कहने में विचारशील विद्वानों को कोई बाधा उपस्थिन नहीं हो सकती । एक कुम्हार है, वह यदि कहे कि “मैं सुनार नहीं हूँ" तो इस बात में वह कुछ भी अनुचित नहीं कह रहा है। मनुष्य की दृष्टि से यद्यपि वह "सत्" है तथापि सुनार की दृष्टि मे वह "असत्" है। इस प्रकार अनुसन्धान करनेसे एक ही व्यक्ति में "सत्" और "असत्" का स्याद्वाद बरावर सिद्ध हो जाता है। किसी वस्तु को "असत्" कहने से यह मतलब नहीं है कि हम उसके "सत्" धर्म के विरुद्ध कुछ बोल रहे हैं। प्रत्युत हम तो दूसरी अपेक्षा से उसका वर्णन कर रहे हैं। इसी बात को Dialogues of Plato में प्लेटो इस प्रकार लिखते हैं
When we speak of not belug we speak, I sappose BUI um. tblog opposed to belog but only different
जगत के सब पदार्थ उत्पत्ति, स्थिति और विनाश इन तीन धर्मों से युक्त हैं। उदाहरण के लिये एक लोहे की तलवार ले लीजिए। उसको गला कर उसकी "कटारी" बना ली। इससे यह तो स्पष्ट हो गया कि तलवार का विनाश होकर कटारी की उत्पत्ति हो गई। लेकिन इससे यह नहीं कहा जा सकता कि तलवार बिल्कुल ही नष्ट हो गई अथवा कटारी बिल्कुल नई वन गई। क्योंकि तलवार और कटारी का जो मूल तत्व है वह तो अपनी उसी स्थिति में मौजूद है। विनाश और उत्पत्ति तो केवल आकार को हुई । इस उदाहरण से-तलवार को तोड़ कर कटारी बनाने में तलवार के आकार का नाश, कटारी के आकार की उत्पत्ति और लोहे की स्थिति ये तीनों बातें भली भांति सिद्ध
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कान्ततत्व का प्रतिपादन करता है। यदि शङ्कराचार्य इस दृष्टि से खण्डन करने का प्रयत्न करते तो उनके लिये ठीक भी था। पर उनका किया हुआ यह खण्डन तो बिल्कुल भ्रममूलक है।
"त्यात्" शब्द का अर्थ "कदाचित्" "शायद" आदि संशय मूलक शब्दों में न करना चाहिये । इसका वास्तविक अर्थ है "अमुक अपेक्षा से।" इस प्रकार वास्तविक अर्थ करने मे इसे कोई संशयवाद नहीं कह सकता ।
विशाल दृष्टि से दर्शन-शाखों का अवलोकन करने पर हमें मालूम होता है कि प्रत्यक्ष या परोक्ष किसी भी तरह से प्रत्येक दर्शनकार ने इस सिद्धान्त को स्वीकार किया है। सत्व, रज और तम इन विरुद्ध गुण वाली तीन प्रकृतियों को मानने वाला सांख्यदर्शन, पृथ्वी को परमाणु रूप से नित्य और स्थूल रूप से अनित्य मानने वाला नैयायिक तथा द्रव्यत्व, पृथ्वीव, आदि धमां का सामान्य और विशेष रूप से स्वीकार करने वाला और वैशोषिक दर्शन, अनेक वर्णयुक्त वस्तु के अनेक वर्णाकार वाले एक चित्र ज्ञान को जिसमे अनेक विरुद्ध वर्ण प्रतिभासित होते हैं, मानने वाला वौद्ध-दर्शन, प्रमाता, प्रमिति और प्रमेय आकार वाले एक ज्ञान को जो उन तीन पदार्थों का प्रतिभास रूप हैं, मंजूर करने वाला मीमांसक-दर्शन और अन्य प्रकार से दूसरे दर्शन भी स्याद्वाद को अर्थतः स्वीकार करते हैं।
एक प्राचीन लेखक लिखते हैं-"जाति और व्यक्ति इन दो रूपों से वस्तु को ववाने वाले भट्ट स्याद्वाद की उपेक्षा नहीं कर सकते । आत्मा को व्यवहार से बद्ध और परमार्थ से अबद्ध
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मानने वाले ब्रह्मवादी न्यावाद का तिरस्कार नहीं कर सकते। भिन्न भिन्न नयों की अपेक्षा से भिन्न भिन्न अर्थों का प्रतिपादन करने वाले बंद भो सर्वतन्त्र सिद्ध त्याद्वाद को धिकार नहीं दे सकते।"
सप्त भङ्गी वन्तुत्व के खरूप का सम्पूर्ण विचार प्रदर्शित करने के लिए जैनाचाव्यों ने सात प्रकार के वाक्यों की योजना को है-वह इस प्रकार है१ न्यादस्ति
कथंचित है २ न्यान्नास्ति
" नहीं है ३ न्यादतिनाति ___" है और नहीं है। ४ यादवक्तव्यम् कचित अवाच्य है। ५ बादम्ति श्रवक्तव्यमच " है और अवार है। ६ म्यान्नाति श्रवक्तव्यमच " नही और अवाच्य है। ७ म्यादस्ति नास्ति वक्तव्यंच" है नहीं और अवाच्य है।
-प्रश्रम शब्द प्रयोग-'यह निश्चित है कि घट "सत्" है मगर "अमुक अपेक्षास" इस वाक्य से अमुक दृष्टि ने घट में मुख्यतया अस्तित्व धर्म का विधान होता है । (स्यादस्ति)
२-दूसरा शब्द प्रयोग-यह निश्चित है कि घट "असत्" है, मगर अमुक अपेना से। इस वाक्य द्वारा घट में अमुक अपेक्षा में मुख्यतया नास्तित्व धर्म का विधान होता है । (स्यान्नास्ति)
३-तीसरा शब्द प्रयोग-किसी ने पूछा कि-"घट क्या
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भगवान् महावीर
अनित्य और नित्य दोनों धर्म वाला है ?" उमके उत्तर में कहना कि-"हाँ. घट अमुक अपेक्षासे अवश्यमेव नित्य और अनित्य है।" यह तोसरा वचन-प्रकार है। इस वाच्य से मुख्य तथा अनित्य धर्म का विधान और उसका निषेध, क्रमशः क्यिा जाता है । (त्यादस्तिनाति)
४-चतुर्थ शब्द प्रयोग-"घट किसी अपेक्षा से प्रवक्तव्य है।" घट अनित्य और नित्य दोनों तरह से क्रमश. बताया जा सत्ता है। जैसा कि तीसरे शब्द प्रयोग में कहा गया है। मगर यदि क्रम विना. युगपत् ( एक ही साथ ) वट को अनित्य और नित्य बताना हो तो, उसके लिए जैन शास्त्रकारों ने-'अनिल' 'नित्य' या दूसरा कोई शब्द उपगेगी न सम-इन 'अवतन्य' शब्द का व्यवहार किया है। यह भी ठीक है। घट जैसे अनित्य रूप से अनुभव में आता है। उसी तरह नित्य
रूप से भी अनुभव में आता है। इससे घट जैसे केवल अनित्य __ रूप में नहीं ठहरता वैसे ही केवल नित्य रूप में भी घटित नहीं
होता है। बल्कि वह नित्यानित्य रूप बिलजण जाति वाला ठहरता है। ऐसी हालत में घट को यदि यथार्थ त्य में नित्य और अनित्य दोनों तरह से क्रमशः नहीं, किन्तु एक ही साथ बताना हो तो शाखकार कहते हैं कि इस तरह बताने के लिये कोई शब्द नहीं है । अतः घट अवक्तव्य है।
चार वचन प्रकार बताये गये। उनमें मूल तो प्रारम्भ के दो हो हैं। पिछले दो वचन प्रकार प्रारम्भ के संयोग से उत्पन्न हुए हैं। "कथंचित-अमुक अपेक्षा से घट अनित्य ही है।" "कथंचित-अमुक अपेक्षा से घट नित्य ही है"। ये प्रारम्भ के
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भगवान् महावीर दो वाक्य जो अर्थ वताते हैं, वही अर्थ तीसरा वचन-प्रकार क्रमश बताता है। और उसी अर्थ को चौथा वाक्य युगपत् एक साथ बताता है। इस चौथे वाक्य पर विचार करने से यह समझ में आ सकता है कि घट किसी अपेक्षा से अवक्तव्य भी है। अर्थात् किसी अपेक्षा से घट में "वक्तन्य" धर्म भी है। परन्तु घट को कभी एकान्त अवक्तव्य नहीं मानना चाहिये । यदि ऐसा मानेंगे तो घट जो अमुक अपेक्षा से अनित्य और अमुक अपेक्षा से नित्यरूप से अनुभव में आता है। उसमें बाधा श्रा जायगी। अतएव ऊपर के चारों वचन प्रयोगो को "स्यात्" शब्द से युक्त, अर्थात् कथंचित-अमुक अपेक्षा से, समझना चाहिये। ____ इन चार वचन प्रकारों से अन्य तीन वचन प्रयोग भी उत्पन्न किये जा सकते हैं।
पाचौँ वचन प्रकार-"अमुक अपेक्षा से घट नित्य, होने के साथ ही प्रवक्तव्य भी है।
छठा वचन प्रकार-"अमुक अपेक्षा से घट अनित्य होने के माथ ही अवक्तव्य भी है।"
सातवाँ वचन प्रकार-"अमुक अपेक्षा से घट नित्यानित्य होने के साथ ही श्रवक्तव्य भी है।"
सामान्यतया, घटका तीन तरह से-नित्य, अनित्य और श्रवक्तव्य रूप से विचार किया जा चुका है। इन तीन वचन प्रकारो को उक्त चार वचन-प्रकारो के साथ मिला देने से सात वचन प्रकार होते हैं । इन सात वचन प्रकारों को जैन शास्त्रों में "समभंगी" कहते हैं। 'सप्त' यानी सात, और 'भंग' यानी वचन
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प्रकार । अर्थात् सात वचन प्रकार के समूह को सप्त भगी कहते हैं । इन सातो वचन प्रयोगो को भिन्न २ अपेक्षा से भिन्न भिन्न दृष्टि से समझना चाहिये। किसी भी वचन प्रकार को एकान्त दृष्टि से नहीं मानना चाहिये। यह बात तो सरलता से समझ में आ सकती है कि यदि एक वचन प्रकार को एकान्त घटि से मानेंगे तो दूसरे वचन प्रकार असत्य हो जायगे।
यह सप्त भंगी ( सात वचन प्रयोग) दो भागों में विभक्त की जाती है। एक को कहते हैं "सकला देश" और दूसरे को "विकला देश" । "अमुक अपेक्षा से यह घट अदित्य ही है।" इस वाक्य से अनित्य धर्म के साथ रहते हुए घट के दूमरे धर्मों को वोधन कराने का कार्य 'सकला देश' करता है। 'सकल' यानी तमाम धर्मों का 'प्रादेश' यानी कहने वाला। यह प्रमाण चाक्य भी कहा जाता है। क्योंकि प्रमाण वस्तु के तमाम धर्मों को स्पष्ट करने वाला माना जाता है। "अमुक अपेक्षा से घट अनित्य ही है।" इस वाक्य से घट के केवल अनित्य धर्म को बताने का कार्य विकला देश' का है। "विकल' यानी अपूर्ण । अर्थात् अमुक वस्तु धर्म को 'आदेश' यानी कहने वाला विकला देश है। विकला देश नय वाक्य माना गया है। 'नय प्रमाण का अंश है । प्रमाण सम्पूर्ण वस्तु को ग्रहण करता है, और नय उसके अंश को।
इस बात को हर एक समझता है कि शब्द या वाक्य का कार्य अर्थबोध कराने का होता है। वस्तु के सम्पूर्ण ज्ञान को 'प्रमाण' कहते हैं। और उस ज्ञान को प्रकाशित करने वाला वाक्य प्रमाण वाक्य कहलाता है। वस्तु के किसी एक अंश के
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भगवान् महावीर
वान को 'नय' कहते हैं और उस एक अंश के ज्ञान को प्रकाशित करने वाला 'नय वाक्य' कहलाता है। इन प्रमाण वाक्यो और नर वाक्यों को सात विभागों में बांटने ही का नाम सप्त भगी है ।
• यह विपत्र प्रत्यन्त गहन और विस्तृत है। 'सप्त मंगी तरगिणी' नामक जैन तक ग्रन्थ में इस विषय का प्रनि पादन किया गया है, 'सम्मति पकरण' आदि जैन न्यायगान्त्री नेम विपय का बहुन ग्भीरता से विचार किया गया है।
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तीसरा अध्याय
नय
एक हीवस्तु के विषय में भिन्न भिन्न दृष्टि विन्दुओ से उत्पन्न
ने वाले भिन्न भिन्न यथार्थ अभिप्राय को "नय"
कहते हैं। एक ही मनुष्य भिन्न भिन्न अपेक्षाओ'से 'काका, मामा, भतीजा, भानेज, भाई, पुत्र, पिता, ससुर और जमाई समझा जाता है यह "नय” के सिवा और कुछ नहीं है। हम यह बता चुके हैं कि वस्तु में एक ही धर्म नहीं है। अनेक धर्म वाली वस्तु में अमुक धर्म से सम्बन्ध रखने चाला जो अभिप्राय बंधता है। उसको जैन शाखों ने "नय" संज्ञा दी है। वस्तु में जितने धर्म है, उनसे सम्बन्ध रखने वाले जितने अभिप्राय हैं, वे सब 'नय' कहलाते हैं।
एक ही घट मूलवस्तु द्रव्य-मिट्टी की अपेक्षा से अविनाशी है, नित्य है। परन्तु घट के आकार-रूप परिणाम की दृष्टि से विनाशी है। इस तरह भिन्न मिन्न दृष्टि विन्दु से घट को नित्य और विनाशी मानने वाली दोनों मान्यताएं 'नय' है।
इस बात को सब मानते हैं कि आत्मा नित्य है और यह बात है भी ठीक क्योंकि इसका नाश नहीं होता है। मगर इस बात का सब को अनुभव हो सकता है कि उसका परिवर्तन
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भगवान् महावोर
प
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विचित्र तरह से होता है । कारण आत्मा किसी समय पशु अवस्था में होती है, किसी समय मनुष्य स्थिति प्राप्त करती है कभी दैवगति की भोक्ता बनती है और कभी नरकादि दुर्गतियों में जाकर गिरती है । यह कितना परिवर्तन है ? एक ही आत्मा की यह कैसी विलक्षण अवस्था है ! यह क्या बताती है ? श्रात्मा की परिवर्तन शीलता ! एक शरीर के परिवर्तन से भी यह समझ में आ सकता है कि आत्मा परिवर्तन की घटमाल मे फिरती रहती है, ऐसी स्थिति मे यह नहीं माना जा सकता है कि आत्मा सर्वथा एकान्त नित्य है । अतएव यह माना जा सकता है कि आत्मा न एकान्त नित्य है, न एकान्त है बल्कि नित्यानित्य है । इस दशा में आत्मा जिस दृष्टि से नित्य है वह, और जिस दृष्टि से अनित्य है, वह दोनों ही दृष्टियां "नय" कहलाती है ।
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नित्य
यह बात सुस्पष्ट और निस्सन्देह है कि आत्मा शरीर से जुदी है । तो भी यह ध्यान में रखना चाहिये कि आत्मा शरीर में ऐसे ही व्याप्त हो रही है, जैसे कि मक्खन में घृत । इसी से शरीर के किसी भी भाग में जब चोट पहुँचती है, तत्र तत्काल ही आत्मा को वेदना होने लगती है । शरीर और आत्मा के ऐसे प्रगाढ़ सम्बन्ध को लेकर जैन शास्त्रकार कहते हैं कि यद्यपि आत्मा शरीर से वस्तुत. भिन्न है तथापि सर्वथा नही । यदि सर्वथा भिन्न मानेंगे तो आत्मा को शरीर पर आघात लगने से कुछ कष्ट नहीं होगा, जैसे कि एक आदमी को आघात पहुँचाने से दूसरे आदमी को कष्ट नहीं होता है । परन्तु आबाल वृद्ध का यह अनुभव है कि शरीर पर आघात होने से आत्मा को उसकी
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भगवान् महावीर
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वेदना होती है । इसलिये किसी अंश में आत्मा और शरीर को अमिन्न भी मानना होगा। अर्थात् शरीर और आत्मा भिन्न होने के साथ ही कदाचित अभिन्न भी है। इस स्थिति मे जिस दृष्टि से आत्मा और शरीर भिन्न है वह, और जिस घष्टि से आत्मा और शरीर अभिन्न हैं वह, दोनो दृष्टियाँ 'नय' कहलाती हैं।
जो अभिप्राय ज्ञान से मोक्ष होना बतलाता है वह ज्ञाननय है और जो अभिप्राय क्रिया से मोक्षसिद्धि वतलाता है, वह क्रिया नय है ये दोनों ही अभिप्राय 'नय' है। ___जो दृष्टि, वस्तु की तात्त्विक स्थिति को अर्थात् वस्तु के मूलस्वरूप को स्पर्श करने वाली है वह 'निश्चय नय' है और जो दृष्टि वस्तु की वाह्य अवस्था की ओर लक्ष्य खींचती है, वह 'व्यवहार नय' है। निश्चय नय बताता है कि आत्मा (संसारीजीव ) शुद्ध-बुद्ध-निरंजन सच्चिदानन्दमय है और व्यवहार नय बताता है कि आत्मा, कर्मबद्ध अवस्था में मोहवान्-अविद्यावान् है । इस तरह के निश्चय और व्यवहार के अनेक उदाहरण हैं।
अभिप्राय बनानेवाले शब्द, वाक्य, शास्त्र या सिद्धान्त सब 'नय' कहलाते हैं-उक्त नय अपनी मर्यादा में माननीय है। परन्तु यदि वे एक दूसरे को असत्य ठहराने के लिये तत्पर होते हैं तो अमान्य हो जाते है। जैसे-ज्ञान से मुक्ति बतानेवाला सिद्धान्त और क्रिया से मुक्ति बतानेवाला सिद्धान्त-ये दोनों सिद्धान्त स्वपक्ष का मण्डन करते हुए यदि वे एक दूसरे का खण्डन करने लगें तो तिरस्कार के पात्र हैं। इस तरह घट को अनित्य और नित्य बतानेवाले सिद्धान्त, तथा आत्मा और शरीर
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भगवान् महावीर
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का भेद और अभेद बतानेवाले | सिद्धान्त यदि आक्षेप करने को उतारु हो तो वे अमान्य ठहरते हैं ।
एक दूसरे पर
यह समझ रखना चाहिये कि नय आंशिक सत्य है, आंशिक सत्य सम्पूर्ण सत्य नही माना जा सकता है । आत्मा को नित्य या घट को नित्य मानना सर्वाश में सत्य नहीं हो सकता है । जो सत्य जितने अंशों में हो उसको उतने ही श्रंशों में मानना युक्त है ।
इसकी गिनती नहीं हो सकती है कि वस्तुतः नय कितने हैं । अभिप्राय, या वचन प्रयोग जब गणना से बाहर हैं तब नय जो उनसे जुदा नहीं हैं कैसे गणना के अन्दर हो सकते है । यानी नयो की भो गिनती नहीं हो सकती है। ऐसा होने पर भी नयों के मुख्यतया दो भेद बताये गये हैं । द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक । मूल पदार्थ को 'द्रव्य' कहते हैं; जैसे -- घड़े की मिट्टी । मूल द्रव्य के परिणाम को पर्याय कहते हैं । मिट्टी अथवा अन्य किसी द्रव्य मे जो परिवर्तन होता है वह सब पर्याय है । द्रव्यार्थिक का मतलब है, मूल पदार्थों पर लक्ष्य देने वाला अभिप्राय और 'पर्यार्थिक नय' का मतलब है, पर्यायो पर लक्ष्य करनेवाला अभिप्राय | द्रव्यार्थिक नय सब पदार्थों को नित्य मानता है । जैसे-घड़ा, मूलद्रव्य मृतिका रूप से नित्य है । पर्यायार्थिक नय सब पदार्थों को अनित्य मानता है । जैसे स्वर्ण की माला, जंजीर कड़े अंगूठी आदि पदार्थों में परि• वर्तन होता रहता है । इस अनित्यत्व को परिवर्तन होने जितना ही समझना चाहिये, क्योकि सर्वथा नाश या सर्वथा अपूर्व उत्पाद किसी वस्तु का कभी नही होता है ।
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प्रकारान्तर से नय के सात भेद बताये गये हैं । नैगम, संग्रह, व्यवहार ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवम्भूत, नैगम - 'निगम' का अर्थ है संकल्प-कल्पना । इस कल्पना से जो वस्तु व्यवहार होती है वह नैगम नय कहलाता है । यह नय तीन प्रकार का होता है, भूत नैगम, भविष्य नैगम और वर्तमान नैगम । जो वस्तु हो चुकी है उसको वर्तमान् रूप मे व्यवहार करना 'भूतनैगम' है । जैसे- "आज वही दिवाली का दिन है कि जिस दिन महावीरस्वामी मोक्ष में गये थे ।" यह भूतकाल का वर्तमान में उपचार है, महावीर के निर्वाण का दिन आज ( आज दिवाली का दिन ) मान इस तरह भूतकाल के वर्तमान में उपचार के हैं । होनेवाली वस्तु को हुई कहना 'भविष्य चावल पूरे पके न हो, पक जाने मे थोड़ी ही देर रही हो, तो उस समय कहा जाता है कि चावल पक गये हैं ।" ऐसा वाक्प व्यवहार प्रचलित है अथवा अर्हतदेव को मुक्त होने के पहले ही कहा जाता है कि मुक्त हो गये यह नैगम नय है । ईवन, पानी आदि चावल पकाने का सामान इकट्ठा करते हुए मनुष्य को कोई पूछे कि क्या करते हो ? वह उत्तर दे कि "मैं चावल पकाता हूँ ।" यह उत्तर 'वर्त्तमान नैगम नय' है क्योकि चावल पकाने की क्रिया यद्यपि वर्तमान में प्रारम्भ नहीं हुई है तो भी वर्तमान रूप में बताई गई है ।
वह
लिया
जाता है । अनेक उदाहरण नैगम' है । जैसे
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संग्रह - सामान्यतया वस्तुओं का समुच्चय करके कथन करना संग्रह नय है । जैसे- "सारे शरीरों की आत्मा एक है ।" इस कथन से वस्तुतः सब शरीर में एक आत्मा सिद्ध नहीं
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खान होती है । प्रत्येक शरीर में आत्मा भिन्न भिन्न ही है; तथापि सब श्रात्माओं में रही हुई समान जाति को अपेक्षा से कहा जाता है कि-"सव शरीरों में आत्मा एक है।" ___व्यवहार-यह नय वस्तुओं में रही हुई समानता की उपेक्षा करकं, विशेषता की ओर लक्ष खींचता है इस नय की प्रवृति लोक व्यवहार की तरफ है । पाँच वर्म वाले भँवरे को 'काला भवर' बताना इस नय की पद्धति है। 'रस्ता आता है' कुंडा मरता है, इन सब उपचारो का इस नय मे समावेश हो जाता है।
ऋजु सूत्र-वस्तु में होते हुए नवीन नवोन रूपान्तरो की अोर यह लक्ष्य आकर्पित करता है। स्वर्ण का मुकुट, कुण्डल आदि जो पायें हैं, उन पर्यायों को यह नय देखता है। पर्यायों के अलावा स्थायो 'द्रव्य की ओर यह नय गपात नहीं करता है। इसीलिये पर्याय विनश्वर होने से सदा स्थायी द्रव्य इस नय की दृष्टि में कोई चीज नहीं है।
शब्द-इस नय का काम है अनेक पर्याय शब्दों का एक अर्थ मानना । यह नय बताता है कि, कपड़ा, वस्त्र, वसन आदि शब्दों का अर्थ एक ही है।
समभिरूढ़-इस नय की पद्धति है कि पर्याय शब्दों के भेद से अर्थ का भेद मानना । यह नय कहता है कि कुभ, कलश, घट आदि शब्द भिन्न अर्थ वाले हैं, क्योकि कुभ, कलश, घट आदि शब्द यदि भिन्न अर्थ वाले न हों तो घट, पट, अश्व आदि शब्द श्री भिन्न अर्थ वाले न होने चाहिये । इसलिए शब्द के भेद से अर्थ का भेद है।
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एवंभूत-इस नय की दृष्टि से शब्द, अपने अर्थ का वाचक ( कहने वाला) उस समय होता है-जिस समय वह अर्थ-पदार्थ उस शब्द की व्युत्पत्ति में से क्रिया का जो भाव निकलता हो, उस क्रिया में प्रवर्ता हुआ हो। जैसे 'गो' शब्द की व्युत्पत्ति है-"गच्छंतीति गौः" अर्थात् जो गमन करता है-उसे गो कहते हैं, मगर वह 'गो' शब्द-इस नय के अभिप्राय से-प्रत्येक गऊ का वाचक नहीं हो सकता है। किन्तु केवल गमन क्रिया में प्रवृत-चलती हुई गाय का ही वाचक हो सकता है ! इस नय का कथन है कि शब्द की व्युत्पत्ति के अनुसार ही यदि उसका अर्थ होता है तो उस अर्थ को वह शब्द कह सकता है। ___ यह वात भली प्रकार से समझा कर कही जा चुकी है, कि यह सातो नय एक प्रकार के घष्टि विन्दु हैं। अपनी अपनी मर्यादा मे स्थित रह कर, अन्य दृष्टि विन्दुयो का खंडन न करने ही में नयों की साधुता है। मध्यस्थ पुरुप सब नयों को भिन्न भिन्न चष्टि से मान देकर तत्वक्षेत्र की विशाल सीमा का अवलोकन करते हैं। इसीलिये वे रागद्वेष की बाधा न होने से, आत्मा की निर्मल दशा को प्राप्त कर सकते हैं।
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चौथा अध्याय
मोक्ष का स्वरूप
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जैन तत्व-ज्ञान में "मोक्ष" का बहुत ही विशद और गहन विवेचन किया गया है। इस विपय के विवेचन को प्रावश्यक समझ हम एक जैन विद्वान के इसी विषय पर लिखे हुए लेव के प्रावार ने यहां इस विपय पर कुछ प्रकाश डालने की चेष्टा करते हैं।
मोक्ष शब्द की व्युत्पत्ति सस्कृत की "मुञ्च" धातु से है। इनका अब सब प्रकार के बन्धनों से छुटकारा पाना है। इस शह से ही यह मालूम होता है कि जगत् की तमाम वस्तुए एक दूसरे के बन्धन में हैं और उस बन्धन सं स्वतत्र हो जाने ही को मोक्ष कहते हैं । मोक्ष पर विचार करने से पूर्व ये प्रश्न सहज ही उत्पन्न हो सकते हैं कि कौन बन्धन में है ? किसके बन्धन में है ? वह बन्धन किस प्रकार होता है, कब से है, उससे छुटकारा पाने की क्या आवश्यकता है ? और वह छुटकारा किस प्रकार हो सकता है ?
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श्रीयुत रघुवर दयाल लिखित पीर सरस्वती में प्रकाशित "मुक्ति का स्वरूप" नामक लेस के आधारपर लिखित
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इन सब शङ्काओ का समाधान करने के पूर्व हमे द्रव्य की गुण और पर्याय पर विचार करना पड़ेगा । जो वस्तु गुण और पर्याय से युक्त होती है उसे द्रव्य कहते हैं, द्रव्य अनादि, अकृत्रिम और अनन्त है। वे अनादि काल से चले आते हैं, न उनकी कभी उत्पत्ति हुई न कभी नाश होगा। हां, उनकी पर्याय मे हमेशा परिवर्तन होता रहता है। कोई भी नवीन द्रव्य जिसका कि पहिले अस्तित्व न था, कभी अस्तित्व मे नहीं आ सकता । अतः द्रव्यादि से युक्त इस सृष्टि का कर्ता परमेश्वर को मानना महज भल है।
जैन-शास्त्रों में द्रव्य दो प्रकार के बतलाए गये हैं (१) चेतन अथवा जीव और(२) जड़ अथवा अजीव । अजीव द्रव्य के पांच प्रकार हैं-पुद्गल ( Matter ) धर्म (Medium of Motion) अधर्म ( Medium of Rest ) काल (rime) आकाश (Space) इनमे से पुगल मूर्तिक और शेष अमूर्तिक हैं।
जीव और पुद्गल इन दोनों द्रव्यों के अन्तर्गत वैभाविकी शक्ति" नामक एक विशेष गुण होता है। इस के कारण इन दोनों मे एक प्रकार का अशुद्ध परिणमन होता है इसी परिणमन को बन्धन कहते हैं। ' इतने विवेचन से हमारे पहले दो प्रश्नों का हल हो गया अर्थात् हमे यह मालूम हो गया कि जीव बन्धन में है और वह बन्धन पुद्गल परमाणुओ का है। इसी बन्धन से छुटकारा पाने ही का नाम मोक्ष है। - अब इस बात का विचार करना है कि यह बन्धन 'किस प्रकार होता है और किन उपायों से उससे जीव स्वतंत्र होता
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याहै ? इन सब बातों को जैन तत्व-ज्ञान के अन्तर्गत सात भागों में विभक्त कर दी हैं जिनको स्गत तत्व कहते हैं। अर्थात् जोव, अजीव, आश्रव (पुद्गल के साथ जीव का सम्बन्ध होने का कारण) वन्ध, सँवर (उन कारणों को रोकने का प्रयत्न) निर्जरा (उन बन्धनों को तोड़ने का उपाय ) मोक्ष ( उन सब बन्धनों से आजाद हो जाना ) । इन्ही सात तत्वों के द्वारा जीव की शुद्ध और अशुद्ध दशाओं का बोध होता है। .
मोक्ष को मानने वाले लोग जीव को वर्तमान और भविष्य अवस्था को मानते हैं। व जीव को ज्ञान स्वरूप एव प्रकृति से भिन्न भी मानते है । पर कुछ लोग ऐसे भी हैं जो उनके अनादिव एव अविनाशित्व को स्वीकार नहीं करते। उनके मतानुसार गर्भ से लेकर मृत्यु पर्यन्त ही जीव का अस्तित्व रहता है बाद में नष्ट हो जाता है। पर यदि वे सूक्ष्म दृष्टि से इस विषय पर विचार करेंगे तो अवश्य उन्हें अपने इस कथन में भ्रम मालम होगा । में सुखी हूँ, मैं दुखी हूँ, मैं राजा हूँ, मैं रक्षक हूँ,
आदि वालों में "मैं" शब्द का वाच्य इस शरीर से भिन्न अवश्य काई दूसग पदार्थ है और वह जोव है। सुख, दुखादि का अनुभव पुद्गल को नहीं होता उसका अनुभव करने वाला कोई दूसरा द्रव्य अवश्य होना चाहिए जो कि उसके साथ सम्बद्ध है। इसके अतिरिक्त श्वासोच्छ्रास आदि क्रियाए भी उसके अस्तित्व को साबित करती हैं। कंवल पुद्गल में श्वासोच्छ्रास नहीं हो सकता । जहां श्वासोच्छ्रास है वहां जीव का अस्तित्व होना चाहिए । आकाक्षा, इच्छा, स्मृति आदि बातों से भी जीव के अस्तित्व की पुष्टि होती है।
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इन सब बातो पर विचार करने से मालूम होता है कि जीव स्वतंत्र पदार्थ है, वह अनादि, अकृत्रिम और अविनाशी है । जो लोग इस प्रकार जीव की सत्ता को मानते हैं वे इसके वन्धन को और मोक्ष को भी मानते हैं। पर इन लोगों के मुक्ति विषयक विचारों में भी बड़ा मतभेद है। कई लोग तो मानते हैं कि जीव का अस्तित्व पहले नहीं होता। परमात्मा उसको पैदा करता है, पर क्रिया करने में स्वतंत्र होने के कारण जन्म के पश्चात् वह इच्छानुसार पुण्य और पाप करता है। जो पाप करता है वह नरक में पड़ता है और जो पुण्य करता है वह मरण के पश्चात् पुन: परमात्मा से सम्बन्ध कर लेता है । कोई कहते हैं, कि मृत्यु के पश्चात् तुरन्त ही यह सुख मिल जाता है. कोई कहते हैं कि नहीं आकवत के दिन तक उसे ठहरना पढता है और फिर खुदा के इन्साफ करने पर वह जना या सजा भोगता है। एक पक्ष का कथन है कि चेनन के दो भेद हैं एक परमात्मा और दूसरा जीवात्मा । परमात्मा सर्वज्ञ, सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान, अनादि, शुद्ध, जगत् का कर्ता हत्ता, जीवात्मा से नितान्त भिन्न सचिदानन्द है और जीवात्मा अल्पज्ञ, इच्छा, द्वेष, और प्रयन सहित है। यह जीव अपने कर्मों के अनुसार ईश्वर के दिये हुए फल भोगता है और वेदोक्त कर्म करने से मुक्ति प्राप्त करता है। ये विचार ठीक नहीं कहे जा सकते क्योंकि ऐसे ईश्वर की सत्ता सिद्ध नहीं हो सकती । ___कुछ लोग ऐसे जीव को एक स्वतंत्र द्रव्य नहीं मानते । उनका कथन है कि एक ब्रह्म के सिवा और कुछ नहीं है (एकोब्रह्म द्वितीयोनास्ति) ये सब माया और भ्रम हैं, भ्रम के दूर
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होने पर यह माना हुआ जीव भ्रम हो जाता है और इसका माना हुश्रा सुख दुख दूर होने पर सच्चिदानन्द स्वरूप होने को मोज्ञ कहते हैं। पर जिम विचार मे अनेक प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाले जीवों की सत्ता नहीं मानी जाती वह विचार अनुभव तथा न्याय से कितना दूर है यह बात स्वयं स्पष्ट है।
जैन-तत्वज्ञान में माने हुए छः द्रव्यो का संक्षिप्त विवेचन हम ऊपर कर आये हैं। हम यह बतला आये हैं कि जैन धर्म में चेतन द्रव्य एक जीव ही माना गया है । जैन सिद्धान्त में जीव अनादि और अनन्त हैं, उसका स्वरूप सचिदानन्द है। इन जीवों के दो प्रकार बतलाए गये हैं जिनकी सत्ता जन्म-मरणमय होती है, जिनकी चेतना अनन्तज्ञान और अनन्त दर्शनमय नहीं होती
और जिनका आनन्द अनन्त सुव नहीं होता वे "संसारीजीव" कहलाते हैं और वे जीव जो अमर, अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शनमय होते हैं मुक्त कहलाते हैं।
संसारी जीव प्रशुद्ध अवस्था में होते हैं। वे प्रत्यक्ष रूप से शरीर के वन्धन में होते हैं । उनको विशेष कर इन्द्रिय जान ही होता है। अपने साथ शरीर का निमित्त, नैमित्तिक, सम्बन्ध होने के कारण वे अपने में और शरीर में भिन्नता का अनुभव नहीं करतं । इस कारण वे इच्छाओं के वशीभूत होकर मन्द और वीन कपाययुक्त अनेक क्रियाए करते रहते हैं। इस प्रकार अशुद्ध अर्थात् पुद्गल के बन्धन बंधा हुआ जीव पुद्गल के प्रभाव में आकर कार्य करता रहता है। उन पुद्गल परमाणुओं कोजो जीव पर अपना प्रभाव डालते हैं जैनशाखों में "कर्म' कहते हैं। इनकर्मों के बाधन में पड़कर जीव मृगतृष्णा की तरह रंसार
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३४६ के अन्दर चक्कर लगाता हुआ अनेक दुःखों को भोगता है। जब तक इनसे उसका छुटकारा नहीं होजाता तब तक उसे सच्चा, आकुलता रहित सुख नसीव नहीं हो सकता, इसी कारण कर्मबन्धन से मुक्त होने की प्रत्येक जीव को आवश्यकता होती है।
जीवो की परिणति तीन तरह की होती है-एक शुभ अर्थात् अच्छे काम, दूसरी अशुभ अर्थात् बुरे काम, और तीसरी शुद्ध अर्थात् वैराग्य रूप । शुभ परिणति से पुण्य-बन्धन होता है, जिससे ससारिक सुख की प्राप्ति होती है और अशुभ परिणति से पाप-बन्धन होता है, जिससे संसार में दुख की सामग्री मिलती है और दुख भोगना होता है। शुद्ध या वैराग्य वाली परिणति से जीव के पुण्य-पापरूपी बन्धन हलके होते होते दूर हो जाते हैं और जीव मे शुद्ध परम सच्चिदानन्द अवस्था का आविर्भाव होता है।
इन शुभाशुभ परिणतियों या पुण्य-पापरूपी बन्धनो के कारण विशेष करके चार होते हैं, एक मिथ्यात्व अर्थात् मिथ्या श्रद्धा दूसरा अविरत अर्थात् हिंसा और इन्द्रिय तथा मन के विषयों मे प्रवृत्ति, तीसरा तीव्र और तीव्रतर, मन्द और मन्दतर भेदवाले चार-क्रोध, मान, माया, लोभ, कषाय और नेकपाय और चौथा मन, वचन, काय नामक तीन योग जो कर्मों के आगमन के मुख्य कारण हैं। यहाँ यह भी समझ लेना होगा कि लोभ अर्थात् इच्छा पाप (जिसका यहाँ बन्धन से मतलब है) का कारण है। लोभ के उदय से जीव प्रकृति से संयोग करता है और पुद्गल पदार्थों के न मिलने से दुखी होता है।
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लगअगर व मिल जाते हैं तो उसे सुख का भास होता है, और उन पदायों पर अधिकार करके वह मान करता है, फिर उनको रखने या और इकट्ठे करने के लिए माया करता है। अगर कोई उनको उससे ले ले या उन सङ्ग्रह करने में बाधा डाले या उसके मान की हानि करे तो वह क्रोध करता है। ये क्रियाये माननिक भी होती हैं।
इस तरह कर्मों का श्रागमन होता है। परन्तु कर्म जीव पर तभी प्रबल होते हैं जब जीव इच्छा के वश मे, दीनता की दशा में, अपने स्वाभाविक शुद्धोपयोग रूप निज वल को छोड कर निर्वल होता है।
नं पुल के अति सूक्ष्म परमाणु जीव के भावों और क्रियाओं के निमित्त से उसके बन्धन होते हैं। इन कर्मवर्गों में बन्धन के चार विशेपण होते हैं, एक प्रकृति-बन्धन (Quality ॥ (Ik matter) जिम अनुसार कर्मवों में भिन्न भिन्न प्रकार की शक्तियाँ होती है, दूसरे प्रदेश-बन्धन ( Extent of hit matter ) जिसके अनुसार आत्म-प्रदेशों से कर्म प्रदेशों का मन्यन्य होता है, तीसरे स्थिति बन्धन (Duration of .. ....'c matter ) जिसके अनुसार कर्मवों की सत्ता या उदयकाल का प्रमाण होता है, और चोथे अनुमाग-बन्धन (Qurallly of Intensity of Karmic maller ) जिम अनुसार कर्मवों मे फलदायक शक्ति होती है।
प्रकृति और प्रदेश-बन्धन योगों के अनुसार होते हैं और स्थिति और अनुभाग-बन्धन कपायों के अनुसार। जीव के भावी की हालत योगों और कपायों का जैसा फल हो वैसी होती है ।
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कर्म आठ प्रकार के होते हैं-(१) ज्ञानावरणीय जो जीव के ज्ञाग को ढकते हैं, (२) दर्शनावरणीय जो जीव के देखने को शक्ति को ढकते हैं, (३) मोहनीय जो आत्मा को भ्रम रूप करते हैं, (४) अन्तराय जो वाञ्छित कार्य में विन्न पहुँ. चाते हैं, (५) आयु जो किसी नियत समय तक एक गति में स्थिति रखते हैं, (६) नाम जो शरीरादिक बनाते हैं, (७) गोत्र जो कुलों की शुभाशुभ अवस्थाओ मे कारण हाते हैं और (८) वंदनीय जो सुख दुख रूप सामग्री के कारण होते हैं।
ऐसे द्रव्य-कर्मों से भाव-कर्म होते हैं और भाव-कर्मों से द्रव्य-कर्म बंधते है। इस प्रकार अनादि सन्तान क्रम से पूर्व बद्ध कर्मों के फल से विकृत परिणामो को प्राप्त होकर जोव थापन हो अपराध से आप नवीन कर्मों का वन्धन प्रस्तुत करता है। इन्हों नवीन कर्मों के उदय से पुनः इसके विकृत परिणाम होते हैं और उनसे पुन. पुनः नवीन नवीन कर्मों का बन्धन प्रस्तुत करता हुआ वह अनादि काल से इस संसार में पर्यटन करता है।
जीव सन्तान-क्रम से बीज-वृक्षवत् अनादि काल से अशुद्ध है। ऐसा नहीं है कि वह पहले शुद्ध था और पीछे अशुद्ध हो गया, क्योकि यदि वह पहले शुद्ध होता तो विना कारण बीच में अशुद्ध कैसे हो जाता और यदि बिना कारण ही बीच में अशुद्ध हो गया है तो इससे पहले अशुद्ध क्यों नही हो गया ? बिना कारण के कार्य नहीं हो सकता, यह नियम है, अतएव जीव अनादि से अशुद्ध है। इस पर शायद यह कहा जाय कि जो हमेशा अशुद्ध है उसे हमेशा अशुद्ध रहना चाहिए और तब ये मोक्ष की बातें कैसी ? इस सम्बन्ध में कहा जा सकता है कि
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धान का बीज-वृक्ष-सम्बन्ध अनादि काल से चला आ रहा है। परन्तु जब धान पर से छिलका उतर जाता है तव चावल अनेक प्रयत्न करने पर भी नहीं उगता, उसी प्रकार जीव के भी अनादि सन्तान-क्रम विकृत भावों से कम-बन्धन और कर्म के उदय में विकृट भात्र होते चले आये हैं। परन्तु जब छिलका रूपी विकृत भाव जुदा हो जाते हैं तब फिर चावल रूपी शुद्ध जीव को घरोत्पत्ति रूपी कर्म बन्धन नहीं होता।
बन्धन का स्वरूप और उससे छुटकारा होने की सम्भावना मालूम कर लेने के बाद यह भी जान लेना थावश्यक है कि छुटकारा किसी परमात्मा के कर्म-फल देने या पैगम्बर के दिलाने से होता है या जीव ही अपने पुरुपार्थ से बन्धनों से मुक्त हो जाता है।
यदि परमात्मा की जरूरत कर्म-फल देने के लिए है तो यह देखना चाहिए कि विपादिक भक्षण करनेवालों को मरणादिक फल बिना किसी फल-दाता के हो मिल जाता है। अगर यह कहा जाय कि विप खाने का फल भी ईश्वर ही देता है। क्योंकि जीव कर्मों के करने में तो स्वतन्त्र है परन्तु उनके फल भागने में परनन्त्र है तो यह भी ठीक नहीं। किसी धनान्य ने ऐसा कर्म किया जिसका फल उसे उसका धनहरण होने से मिल सकता है। ईश्वर स्खय तो उसका धन चुराने के लिए आता नही, किन्तु किसी चोर के द्वारा उसका धनहरण कराता है। ऐसी अवस्था में अर्थात् जव चोर ने एक धनाढ्य का धन चुराया तब इस क्रिया से धनाढ्य को पूर्वकृत कर्म का फल मिला और चोर ने नवीन कर्म किया। अब बताइए कि चोर ने धनाड्य के
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भगवान् महावीर धनहरणरूप जो यह क्रिया की है उसे उसने स्वतन्त्रता से की है या ईश्वर की प्रेरणा से। यदि उसने उसे स्वतन्त्रता से की है और उसमें ईश्वर की कुछ भी प्रेरणा नहीं है, नो काव्य को जो न का फल मिला वह ईश्वरकृत नहीं हुश्रा और यदि ईश्वर को प्रेरणा से चोर ने धन चुराया है. तो चोर समं के करने में स्वतन्त्र नहीं रहा और वह निर्दोष है, पर उसी चोर को वही ईश्वर राजा के द्वारा चोरी का दण्ड दिलाता है। पहले दो उसने स्वयं उससे चोरी करवाई और फिर स्वयं ही उसने दरड दिलाता है. इससे ईश्वर के न्याय में बड़ा भारी बट्टा लगता है। संसार में जितने अनर्थ होते हैं उन सबका विधाता ईश्वर ह. रेगा, परन्तु उन सब कमों का फल बेचारे निर्दोर जीने को मोगना पड़ेगा। जैसा अच्छा न्याय है । अपराधी ईवर और दण्ड भोगे जीव !
जो लोग किसी पैग़न्वर को मुक्ति दिलानवाला मान्ने हैं वे यह कहते हैं कि जीव इतना पापी है कि वह अपने आप पाप से निवृत्त नहीं हो सकता है । यदि ऐसा हो तो एक रेष्ट से श्रेष्ठ पुन्य. जिसको ऐसे नजात दिलानेवाले पैग़न्दर के नामनिशान का पता नहीं है मुक्ति से अथवा स्वर्ग-राज्य से निर्दोष वञ्चित रह जायगा । यह कितना बड़ा जुल्म होगा। असल में इनके दार्शनिक यह नहीं समझे हुए हैं कि जीव अपने परिणामों के निमित्त से पूर्व बंधे काँका मोउत्कर्षण, अपकर्षण, सक्रमण
आदि करता है और इससे उनकी शक्ति को अपने पुरुषार्थ ने उपदेश आदि के निमित्त से धर्म-कार्य में प्रवृति करके हीन करता है।
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भगवान महावीर ऊपर बताये हुए जिन कारणों से नवीन बन्धन होता है उनका अभाव होने से नवीन बन्धन का होना रुक जाता है और जो सञ्चित कर्म हैं वे अपनी स्थिति पूरी करके अपने आप समाप्त हो जाते हैं और उनको जीव तप आदि से भी छिपा देते हैं। जब नवीन कमों का आश्व नहीं होगा और पूर्व-बद्ध कमाँ की निर्जरा हो जायगी तव आत्मा से सब कर्मों के पृथक होने के कारण आत्मा शुद्ध हो जायगी और उसकी इस शुद्ध अवस्था को हो मोक्ष कहते हैं। मोक्ष मे आत्मा से सब कर्म पृथक हो गये, इसलिए कर्मजनित विकार भी प्रात्मा से दूर हो गये। ये विकार ही नवीन वन्धन के कारण हैं, इसलिए मोक्ष प्राप्त होने के बाद कम फिर मल से लिप्त नहीं होते, अर्थात् मुक्त जीव मुक्ति से वापम नहीं आ सकते । जिस मुक्ति ने वापस आना पड़े वह मुक्ति कैसी? आवागमन तो बना ही रहा । जो लोग मुक्ति से वापस आना मानते हैं तो मुक्ति शब्द का प्रयोग करके सस्कृत-भाषा का भी खून करते हैं। वे कहते हैं कि ईवर जीव को वेदोक्त ज्ञान-सहित वेदोक्त कर्मों के करने का फल भोगने के लिए मुक्ति देता है और कर्म मर्यादासहित होते हैं। उनका मुक्ति-रूप फल भी मर्यादा-सहित होता है, अर्थात् जीव मुक्ति में अपने कर्मों का फल भोग कर कुछ थोड़े से बचे हुए कमों के कारण जन्म-मरण करता हुआ मसार मैं फिर पर्यटन करता है। उन्हें यह सोचना चाहिए कि मुक्ति तो जीव के सर्वथा कर्म-रहित होने को कहते हैं और कमों के फल तो संसार में आवागमन करके ही भोगे जाते हैं।
जैन-धर्म में यह माना जाता है कि इस मध्यलोक और
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भगवान महावीर
३५२ सिद्ध-शिला (जहां मुक्त जीव रहते हैं) के बीच मे १६ स्वर्ग हैं । उन खगों में जीव अपने पुण्योदय से दीर्घायुवाली देवगति पाकर देव अथवा देवाङ्गना बन कर सांसारिक सुख भोगते हैं, और आयु पूरी होने पर वहां से अपने कर्मानुसार भ्रमण करते हैं। शायद मुक्ति से लौट आना माननेवालों का मतलब ऊपर के खगों से ही हो और उनको मोक्ष के सच्चे स्वरूप का पता ही न हो।
जैन-धर्म में "सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः" कहा है अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र की एकता ही मोक्षमार्ग है। जितने जितने अशों में जीव की सच्ची श्रद्धा, सच्चा ज्ञान
और सञ्चा चरित्र होता है उतने ही उतने अशो मे जीव मोक्ष की ओर झुकता है। सम्यग्दर्शन से मतलब ऊपर बताये हुए सात तत्त्वो की सच्ची भावना करना है। अर्थात् जीव, परमात्मा
और जीव से परमात्मा होने के उपाय इत्यादि की सच्ची भावना करना, जीव और जीवादिक और जीव के मोक्ष होने के उपायो के ज्ञान को सम्यग्ज्ञान और उन उपायो में प्रवृत्तिरूप क्रियाओं को सम्यक्चारित्र कहते हैं। धर्म दो प्रकार का होता है एक गृहस्थो का दूसरा साधुओं का । गृहस्थ व्यवहार-धर्म का पालन करते हुए निश्चय मोक्षमार्ग की तैयारी करते हैं और साधु इच्छाओ पर सर्वथा विजय पाने के लिए ज्ञान, ध्यान और तप में लीन रहते हैं। धर्म-ध्यान और शुक्ल-ध्यान ही मोक्ष के मुख्य कारण होते हैं और बाकी सब जीव को ध्यान में निश्चल बनाने के उपाय हैं।
ज्ञानवरण-कर्म के अभाव से अनन्वज्ञान, दर्शनावरण-कर्म
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भगवान् महावीर
के अभाव से अनन्त दर्शन, अन्तराय के अभाव से अनन्त गये, दर्शन-मोहनीय के अभाव से शुद्ध सम्यकन, चारित्रमोहनीय के प्रभाव से शुद्ध चारित्र और इन समस्त कमों के अभाव से अनन्त सुख होता है, मगर शेष के चार कमों के वाकी रहने से जीव ऐसी ही जीवन-मुक्त अवस्था मे ससार में रहता है और इसी अवस्थावाले सर्वज्ञ वीतराग तीर्थकर भगवान से सामारिक जीवा को मचे धर्म का उपदेश मिलता है, यही सर्वज्ञोपदेशित सब का हितकारी जैन-धर्म है।
ऊपर के चार अघातिया--अर्थात् वेदनीय, गोत्र, नाम और आयु-कर्मों की स्थिति पूरी होने पर जीव अपने ऊर्ध्व गमन स्वभाव से जिस स्थान पर कर्मों से मुक्त होता है उस स्थान से सीधा पवन के भकोरों से रहित अमि की तरह ऊर्ध्वगमन करता है और जहाँ तक ऊपर बताये हुए गमन सहकारी धर्म दव्य का सद्भाव है वहाँ तक वह गमन करता है। आगे धर्महग्य का प्रभाव होने से अलोकाकाश में उसका गमन नहीं होता। इस कारण समस्त मुक्तजीव लोक के शिखर पर विराजमान रहते हैं। यहाँ जिस शरीर से मुक्ति होती है उस शरीर मे जीव का आकार किश्चित न्यून होता है।
यदि यहाँ कोई यह शङ्का करे कि जव जीव मोक्ष मे लौट कर आते नहीं तथा नवीन जीव उत्पन्न होते नहीं और मुक्त होने का सिलसिला हमेशा जारी रहता है तो एक दिन संसार के सब जीव मोक्ष को प्राप्त कर लेंगे और संसार शून्य हो जायगा । परन्तु जीव-राशि अक्षय, अनन्त है, जिस तरह आकाश द्रन्य सर्वव्यापी अनन्त है। किसी एक दिशा मे विना मुड़े निरन्तर
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भगवान् महावार
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यदि कोई गमन करता चला जाय तो आकाश का अन्त कभी नहीं होता है, अन्यथा वह सर्वव्यापी नहीं हो सकता था । इसी प्रकार जीवराशि का अन्त नहीं होगा। .
इस तरह मोक्ष में अनन्त शुद्ध जीव अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त वीर्य और अनन्त सुखवाले अनन्त परमात्मरूप अपनी अपनी सत्ता मे सच्चिदानन्द स्वरूप होकर हमेशा परमानन्द में रहते हैं। आत्म-कल्याण के चाहनेवाले जीव ऐसे परमोत्कृष्ट वीतराग सर्वज्ञ परमात्मा को अपना आदर्श बनाकर उसकी पूजा-स्तुति करके शुभ-कर्म उपार्जन करते हैं, शुद्धोपोग में प्रवृत्त रहते हैं और क्रम से विशुद्ध प्रयत्न करते हुए एक दिन स्वयं परमात्म-पद को प्राप्त कर लेत हैं।
जैन-धर्म के मोक्ष का यही सच्चा स्वरूप है। इसी-1 सर्वज्ञों ने उपदेश किया है और यह न्याय से सिद्ध है। यह आत्मधर्म किसी एक समाज या जाति की पैत्रिक सम्पनि नही है, बल्कि सब जीवो का हितकारी है।
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पाँचवाँ अध्याय
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जैन धर्म में आत्मा का आध्यात्मिक विकास
संसार के प्राय सभी धर्मों ने मोक्ष को आत्मा के विकास की सर्वोच्च स्थिति माना है, लेकिन मोक्ष तक पहुँचने के पूर्व उनका किस प्रकार क्रम विकास हाता है इस पर भिन्न भिन्न aari के भिन्न भिन्न मत हैं । नीचे हम तुलनात्मक दृष्टि से आत्मा के इस क्रम विकास पर कुछ विचार करना चाहते हैं । वैटिक दर्शन
महर्षि पतञ्जलि ने योग दर्शन में मोक्ष की साधना के लिए योग का वर्णन किया है। योग को हम आध्यात्मिक विकास क्रम की भूमिका कह सकते हैं। इस योग के प्रारम्भ काल की भूमिका से लेकर क्रमशः पुत्र होते होते उसकी उच्चातिउच्च अवस्था की भूमिका तक पहुँचने की सीढ़ियों को आध्यात्मिक विकास क्रम कह सकते हैं। योग के प्रारम्भ से पूर्व की भूमिकाएँ आत्मा के अविकास की भूमिकाएँ हैं । सूत्रकार के इस विषय को और भी स्पष्ट करने के लिए भाष्यकार महर्षि व्यास ने उन भूमिकाओं को पांच भागों में विभक्त कर दिया है ।
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भगव
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३५६ १ क्षिप्त', २ मूढः, ३ विक्षिप्त', ४ एकाग्र', ५ निरुद्धः ।
इन पाँच भूमिकाओ में से पहली दो आत्मा के अविकास की सूचक है। तीसरी भूमिका विकास और अविकास का सम्मेलन है उसमे विकास की अपेक्षा अविकास का ही अधिक वल रहता है। चौथी भूमिका में विकास का बल बढ़ता है और वह पाँचवी निरुद्ध भूमिका में पूर्णोन्नति पर पहुँच जाता है। यदि भाष्यकार के इसी भाव को दूसरे शब्दों में कहना चाहे तो यों कह सकते हैं कि पहली तीन भूमिकाएँ आत्मा के अविकास काल को है, और शेप दो भूमिकाएँ विकास काल की। इन पाँच भूमिकाओं के बाद की स्थिति को मोक्ष कहते हैं।
योगवासिष्ठ में आत्मा की स्थिति के संक्षेप में दो भाग कर दिये हैं ।१.अज्ञानमय और २ ज्ञानमय । अज्ञानरूप स्थिति को अविकास काल और ज्ञानमय स्थिति को विकास काल कह सकते हैं। आगे चल कर इन दोनों स्थितियो के और मीसात विभाग कर दिये गये
१ नो चित्त रजोगुण को अधिकता से हमेशा अनेक विषयों की ओर प्रेरित होने से अस्थिर रहता है, उसे क्षिप्त कहते है।
२. जो चित्त तमोगुण के प्रावल्य से हमेशा निद्रा मन रहता है उसे मूह कहते हैं ।
३. जो चित्त अस्थिरता को विशेषता रहते हुए भी कुछ प्रशस्त विषयो में स्थिर रह सकता है। वह "विक्षिप्त" कहलाता है।
४. नो चित्त अपने विषय में स्थिर वन कर रह सकता है, वह एकाग्र कहलाता है।
५. निस चित्त में तमाम वृत्तियों का निरोध हो गया हो, केवल मात्र उनके सस्कार रह गये हों, वह निरुद्ध कहलाता है।
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हैं जिनको हम क्रमश: अज्ञानमय और ज्ञानमय भूमिकाओं के नाम से पहिचान सकते हैं। अज्ञान की सात भूमिकाएँ ये हैं
१. वीज जागृत', २. जागृत', ३. महाजागृत', ४. जागृत - स्वप्न ५. स्वप्न, ६. स्वप्न जागृत ७. सुपुमक', इसी प्रकार ज्ञान
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१.म भूमिका में "प्रहत्व ममत्व" बुद्धि की पूर्ण जागृति तो नहीं होती पर टमको जागृति यो चिन्ह दृष्टि गोचर हो जाने हैं । इमा काररा इनका नाम याज दागत रक्सा गया है। यह भूमिका बनम्पति के ममान शुद्र जीवों में भी मानी पाती है।
..म भूमिका में "प्रदत्य ममत्व" उदि अल्मान में जान हो जाता है, उनी पारप इसका नाम जागृत ग्न्तया गया है। यह भूमिका कोट पतग और पशुओं में भी मानी पाना है।
३. म भूमिका में "प्रात ममल" का उशि और मा पुष्ट होताई, ममे यह गदा पाव कहलाती है । यह भूमिका मनुष्य और देवतामों में पाई जाती है ।
४. चीधी भूमिका में "जागृत अवस्था" फेब्रन का नाश हो जाता है। नेमे कही जगद दो चन्द्रमा हिमां देना इत्यादि इममे म भूमिका का नाम "मात स्वप्न" रस्सा गया।
५. म भूमिका में निद्रित प्रारथा में भाये हुए रन का नेतन्य अवस्था में सो अनुमत्र होता धमका ममावेश रएता दे, इमलिए यह "खान" नाम मे पुकारी जानी।
म भूमिका में कई ग्रामक चालू रहने वाले ग्राम का समावेश रहता है। यह स्वान गरीर पात होने पर भी चालू रहता है। इससे यह स्वम जागृत कहलाती है।
७. यह भूमिका गाई निद्रा की होती है। इसमें "ज" के समान स्थिति हो जाती है। फेवल मात्र कर्म वासना उप में रहते है, इसी से यह सुपुप्ति कहलाती है। इनमें से ७ तक को भूमिकाएं सष्ट रूप से मनुष्यों के अनुभव में आती हैं। (योग यशिष्ट उत्पत्ति प्रकरण ११७)
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मय स्थिति के भी सात विभाग कर दिये गये हैं।
१. शुभेच्छा', २. विचारणा । ३. तनुमानसा", ४. सत्वापत्ति, ५. असंसक्तिर, ६. पदार्थ भावुकी', ७. तुर्यगा"।
पहली सात भूमिका में अज्ञान का प्रावल्य रहने से वे अविकास काल की और अन्त की सात भूमिकाओ मे ज्ञान
. "मैं मूर्ख ही क्यों बना रहूं, किसी शास्त्र या सज्जन के द्वारा प्रात्मावलोकन कर अपना उद्धार क्यों न करलूँ।" इस प्रकार की वैराग्यपूर्ण उच्श का 'शुभेच्छा" कहते हैं।
६. उस शुभेच्छा के फल स्वरूप वैराग्याभ्याम के कारण सदाचार में जो प्रवृति होती है, उसे "विचारण" कहते है।
१०. शुभेच्छा और विचारणा के कारण इन्द्रियों अथवा विपयों से जो उदासीनता हो जाती है। उसे "तनु मानसा" कहते हैं ।
११. उपरोक्त तीन भूमिकाओं के अभ्यास से चित्त में जो वृति होतो है, और उस मृति के कारण जो आत्मा का स्थिति होती है उसे "सत्वापत्ति" कहते है।
१२. उपरोक्त चार भूमिकाओं के अभ्यासासे चित्त में जो एक प्रकार का आनन्द प्राप्त होता है, उसे "अससक्ति" भूमिका कहते हैं।
१३. पाँच प्रकार की भूमिका के अभ्याम से बढती हुई आत्मा की स्थिति से एक ऐसी दशा प्राप्त होती है कि जिससे वाद्य और अन्तरग सब पदार्थों की भावना छुट जाती है । केवल दूसरों के प्रयन से शरीर की मासारिक यात्रा चलती है । इसे "पदार्थ भावुकी" भूमिका कहते हैं ।
१४. छः भूमिकाओं के अभ्यास से अहभाव का शान विल्कुल शमनहो जाने से एक प्रकार की स्वभाव निष्टा प्राप्त होती है । उसे "तुर्यगा" कहते हैं । 'तुर्यगा की अवस्था' जीवन मुक्त में होती है । तुर्यगा के पश्रात् की अवस्था 'विदेह युक्त' होती है; ( योग वशिष्ट उत्पत्ति प्र. स. ११८ तथा निर्वाण से १२०)
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का प्रावल्य रहने से वे विकास काल की गिनी जाती हैं
जान की सातवी भमिका में विकास अपनी पूर्ण कला को पहुँच जाता है । इसके बाद की स्थिति को मोक्ष कहते हैं।
बौद्ध-दर्शन। चौद्ध साहित्य के मौलिक ग्रन्थों को "पिटक" कहते हैं। पिटक में कई स्थानों पर अध्यात्मिक विकास का व्यवस्थित और म्पष्ट वर्णन किया है। उसके अन्दर आत्मा को छः स्थितिय वतलाई गई हैं। १. वपुथ्थुजन २ कल्याण पुथ्युजन ३. स्रोतापन्न ४. मकदागामी ५. ओपपत्तिक ६. अरहा "
१. 'पुथ्थु" मानन्य मनुष्य को करते है। इसके "' पुस्खुन्न" और "कल्याण पुथुदन" नामक दो विमाग किये है । यया---
दुवे पुशुजना पुढेना दिग पन्धुना,
'प्रो पुथ्यानो वो कल्याणे को पुथ्थुजनो। (क) न दोनों में मयोजना (धन) तो दरा हो प्रकार की होती है, पार केवल दनना ही रहना है कि, नही पहले का वह प्राप्त रहती है। वहा दूसरे को अप्राप्त रहती है। ये दोनों मोक्षमार्ग मे पराङ्मुख होते है।
२. मोजमार्ग को और अपनर होनेवालों के चार भेद है-निन्होंने तान सयोजना का नाश कर दिया है। वे "मोनापन" कहलाते है। मोतापन्न अधिक से अधिक :स मनुष्य लोक में मात वार जन्म ग्रहण करते है, उसके बाद अवश्य निर्वाग को प्राप्त होते है।
३. जिन्होंने तीन भयोजना का तो नारा कर दिया हो और दो को कपिल कर डाला हो वे "मकटागामी" कहलाते हैं। "मकदागामी" केवल एक दो बार मनुष्य लोक में और अत हैं। उमके पश्चात् वे निर्वाण प्राप्त कर लेते है।
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इनमें से प्रथम स्थिति अध्यात्मिक विकास की स्थिति है, दूसरी में यद्यपि कुछ कुछ विकास का स्फुरण होता है, फिर भी अविकास का ही अधिक प्रभाव रहता है तीसरी से छठो स्थिति' तक उत्तरोत्तर विकास का कम वढ़ता जाता है। और छठी स्थिति में जाकर ग्ह विकास के उच्च शिखर पर पहुँच जाता है। उसके पश्चात् निर्वाण-तत्व की प्राप्ति होती है, यदि इस विचाराबलि को सक्षेप में कहा जाय तो यों कह सकते हैं कि पहली दो स्थितियां अविकास काल की हैं और अन्त की चार विकास काल को । उसके पश्चात् निर्वाण काल है।
जैन दर्शन जैन साहित्य के प्राचीन ग्रन्थो मे जो आगम के नाम ले प्रचलित है । आध्यात्मिक विकास का क्रम वहुत ही सुव्यवस्थित रूप से मिलता है। उनमें आत्मिक-स्थिति के चौदह विभाग कर रक्खे हैं-जो "गुणस्थान" नाम से सम्बोधित किये जाते हैं।
गुणस्थान-आत्मा की साम्य तत्त्वचेतना, वीर्य, चरित्र, आदि शक्तियों को "गुण" कहते हैं और उन शक्तियों की तारतम्य अवस्था को स्थान कहते हैं। जिस प्रकार बादलों की
आड़ में सूर्य छिप जाता है, उसी प्रकार आत्मा के स्वाभाविक गुण भी कई प्रकार के आवरणों से छिप कर सांसारिक दशा
४. निन्होंने पाँच त योजना का नाश कर डाला हो, वे स्रोपपातिक कहलाते है। ओपपातिक ब्रह्मलोक में से ही निर्वाण प्राप्त कर लेते हैं।
५. जिन्होंने दशों सयोजना का नाश कर डाला हो, वे 'अरहा' कहलाते हैं। वे इसी स्थिति में निर्वाण प्राप्त कर लेते हैं।
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भगवान महावीर में आवृत्त होते हैं। उन आवरणों का प्राबल्य ज्यो ज्यों कम होता है वे वादल ज्यों ज्यों फटते जाते हैं-त्यों त्यों आत्मा के शाभाविक गुण प्रकाशमान होते जाते हैं। आवरणों का क्षय जितना ही अधिक होता है उतना ही अधिक आत्मा का विकास होता इन गुणों की असंख्य स्थितियाँ होजाती हैं, पर जैन प्राचार्यों ने स्थूलतम, उनको चौदह स्थितियां बतलाई हैं। जिन्हे गुणस्थान कहते हैं। गुणस्थान की कल्पना प्रधानत. मोहनीय कर्म की प्रबलता या निर्बलता के ऊपर स्थित है, मोहनीय कर्म की प्रधान शक्तियां दो हैं। १-दर्शन मोहनीय २-चरित्र मोहनीय । पहली शक्ति का कार्य आत्मा के सम्यक्त (वास्तविक) गुणों को बाच्छन्न करने का है। इसके कारण प्रात्मा में सात्विक रुचि और सत्य दर्शन नहीं होने पाता। दूसरी शक्ति का कार्य आत्मा के चरित्र गुण को ढक देने का है । इसके कारण श्मात्मा तात्त्विक रुचि और सत्य दर्शन होने पर भी उसके अनुसार अग्रसर होकर अपने वास्तविक स्वरूप को नहीं जान पाती, इन दोनों शक्तियों में दर्शन मोहनीय अधिक बलवान है। जहां तक यह शक्ति निर्वल नहीं होती, वहां तक चरित्र मोहनीय का घल नहीं घट सकता, दर्शन मोहनीय का बल घटते ही चरित्र मोहनीय क्रमशः निर्वल होता होता अन्त में नष्ट हो जाता है। आठों कर्मों में [ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र] मोहनीय सबसे प्रधान और बलशाली है। इसका कारण यह है कि जहां तक मोहनीय का प्रावल्य रहता है-वहां तक अन्य कर्मों का बल नहीं घट सकता और उसकी शक्ति के घटते ही अन्य कर्म भी क्रमागत-हास को प्राप्त
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होते हैं । यही कारण है कि गुणस्थानो की कल्पना मोहनीय कर्म के तारतम्यानुसार ही की गई है।
पहला गुणस्थान अविकास काल है, दूसरे और तीसरे मे विकास का कुछ स्फुरण होता है, पर प्रधानता अविकास की रहती है। चौथे गुणस्थान से विकास होते होते अन्त में चौदहवें में जाकर आत्मा पूर्ण कला पर पहुँच जाती है । उसके पश्चात् मोक्ष प्राप्त होता है। संक्षिप्त में पहले तीन गुणस्थान अविकास के हैं। और अन्तिम ग्यारह विकास काल के उसके पश्चात् मोक्ष का स्थान है।
यद्यपि यह विषय बहुत ही सूक्ष्म है, तथापि यदि इसको समझने की चेष्टा करते हैं तो यह बहुत ही अच्छा लगता है। यह आत्मिक-उत्क्रान्ति की विवेचना है मोक्ष-मन्दिर में पहुंचने के लिए निसेनी है। पहले सोपान से-जीने से-सब जीव चढ़ना प्रारम्भ करते हैं, कोई धीरे चलने से देर में, और कोई तेज चलने से जल्दी चौदहवे जीने पर पहुंचते ही मोक्ष-मन्दिर में दाखिल हो जाते हैं। कई चढ़ते हुए ध्यान नहीं रखने से फिसल जाते हैं और प्रथम सोपान पर आ जाते हैं। ग्यारहवें सोपान पर चढ़े हुए जीव भी मोह की फटकार के कारण गिर कर प्रथम जीने पर आ जाते हैं। इसलिए शास्त्रकार बार बार कहते है कि चलते हुए लेश-मात्र भी गफलत न करो। बारहवें जीने पर पहुँचने के बाद गिरने का कोई भय नहीं रहता है। आठवें और नवें जीने मे भो यदि मोह-क्षय होना प्रारम्भ हो जाता है, तो गिरने का भय मिट जाता है।
इन चौदह गुण-स्थानों के निम्नाकित नाम हैं:-मिथ्यात्व,
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सासादन, मिश्र, अविरतसम्यकद्दष्टि, देशविरति,प्रमत्त, अप्रमत्त, अपूर्वकरण. अनिवृति, सूक्ष्मसंपराय, उपशान्त मोह, क्षीण मोह, सयोग केवली और प्रयोग केवली।
मिथ्या दृष्टि गुणस्थान-इस बात को सब लोग समझते है कि प्रारम्भ में सब जीव अधोगति ही में होते हैं इसलिए जो जीव प्रथम श्रेणी में होते हैं वे मिध्यादृष्टि में होते हैं। मिथ्या दृष्टि का अर्थ है-वस्तुतत्व के यथार्थ ज्ञान का प्रभाव । इसी प्रथम श्रेणी से जीव आगे बढ़ते हैं। यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि इस दोप-युक्त प्रथम श्रेणी में भी ऐसा कौन मा गुण है जिससे इसकी गिनती भी गुण-श्रेणी में की गई है इसका समाधान यह है कि सूक्ष्मातिसूक्ष्म और नीची हद के जीवो में भी चेतना की कुछ मात्रा तो अवश्यमेव उज्ज्वल रहती है। इसी उज्ज्वलता के कारण मिथ्या दृष्टि की गणना भी 'गुण-श्रेणी' में की गई है।
सासादनम-सम्यकदर्शन से गिरती हुई दशा का यह नाम है। सम्यकदर्शन प्राप्त होने के बाद क्रोधादि अति तीन कपायो का उदय हाने से जीव के गिरने का समय आता है यह गुणस्थान पतनावस्था का है मगर इसके पहले जीव को सम्यग्दर्शन हो गया होता है, इमलिए यह भी निश्चित हो जाता है कि वह कितने समय तक संसार में भ्रमण करेगा।
मिश्र गुणस्थान की अवस्था में आत्मा के भाव बड़े ही विचित्र होते हैं इस गुणस्थानवाला सत्य मार्ग और असत्य
'भमादन' का अर्थ है अतिताम क्रोधादि कपाय । जो श्न कपायों से युक्त होता है उसी को 'सासादन' कहते हैं ।
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-मार्ग दोनो पर श्रद्धा रखता है। जैसे जिस देश मे नारियलों के फलो का भोजन होता है उस देश के लोग अन्न पर न श्रद्धा रखते हैं और न अश्रद्धा ही। इसी तरह इस गुणस्थान वाले को भी सत्य मार्ग पर न रुचि होती है और न अरुचि ही । खल और गुड़ दोनों को समान समझनेवाली मोडमिश्रित वृति इसमें रहती है। इतना होने पर भी इस गुणस्थान मे आने के पहले जीव को सम्यक्त्व हो गया होता है । इसलिये खासादन गुणस्थान की तरह उसके भव-भ्रमण का भी काल निश्चित हो जाता है ।
अविरतसम्यकदृष्टि-विरत का अर्थ है व्रत । व्रत बिना जो सम्यक्त्व होता है उसको 'अविरत सम्यकदृष्टि' कहते हैं । यदि सम्यक्त्व का थोड़ा सा भी स्पर्श हो जाता है, तो जीव के भवभ्रमण की अवधि निश्चित हो जाती है । इसी के प्रभाव से सासादन और मिश्र गुणस्थान वाले जीवो का भव-भ्रमण काल निश्चित हो जाता है । आत्मा के एक प्रकार के शुद्ध विकास को सम्यकूदर्शन या सम्यकदृष्टि कहते हैं इस स्थिति में तत्त्व-विषयक या सशय भ्रम को स्थान नहीं मिलता है । इस सम्यक्त्व से मनुष्य मोक्ष प्राप्ति के योग्य होता है । इसके अतिरिक्त चाहे कितना ही कष्टानुष्ठान किया जाय, उससे मनुष्य को मुक्ति नहीं मिलती । मनुस्मृति में लिखा है :
“सम्यक दर्शन सम्पन्नः कर्मर्णा नहि बध्यते । दर्शनेन विहींनस्तु संसारं प्रति पद्यते " ॥
भवार्थ - सम्यकूदर्शन वाला जीव कर्मों से नहीं बंधता है, "और सम्यक दर्शन विहीन प्राणी संसार में भटकता फिरता है ।
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देशविरति - सम्यक्त्व सहित, गृहस्थ के व्रतो को परिपालन करने का नाम देश विरति है । 'देश विरति', - शब्द का अर्थ हैसर्वथा नहीं - मगर अमुक अंश मे पाप कर्म से विरत होना ।
प्रमत्त गुणस्थान- उन मुनि महात्माओं का है कि जो पश्च महात्रता के धारक होने पर भी प्रमाद के बंधन से सर्वथा मुक्त नही होते हैं ।
अप्रमत्त गुणस्थान - प्रमाद बंधन से मुक्त हुए महामुनियों का यह सातवां गुणम्धान है ।
पूर्व + करण - मोहनीय कर्म को उपशम या क्षय करने का अपूर्व (जो पहिले प्राप्त नहीं हुआ) अध्यवसाय इस गुणस्थान में प्राप्त होता है ।
अनिवृत्ति गुणस्थान- इसमे पूर्व गुणस्थान की अपेक्षा ऐसा अधिक उज्ज्वल श्रात्म परिणाम होता है कि जिससे मोह का उपशम या क्षय होने लगता है ।
सूक्ष्म' सपराय - छक्त गुण स्थानों में जब मोहनीय कर्म का क्षय या उपशम होते हुए सूक्ष्म लोभांशही शेष रह जाता है, तब यह गुण स्थान प्राप्त होता है ।
+ 'करण' यानी अध्यवसाय - आत्म परिणाम 1,
''मम्पराय' शब्द का अर्थ कपाय होता है-परंतु यहाँ 'लोभ' समझना चाहिये ।
२-यहाँ और ऊपर नीचे के गुण स्थानों में 'मोह' 'मोहनीय' ऐसे सामान्य शब्द रक्खे हैं मगर इससे मोहनीय कर्म के जो विशेष प्रकार घटित होते हैं उन्हीं को यथायोग्य ग्रहण करना चाहिये, अवकाश के प्रभाव से यहाँ उनका उल्लेख नहीं किया गया है 1
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'भगवान् महावीर
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उपशान्त मोह-पूर्व गुण स्थानों में मोह का उपशम करते करते जब आत्मा पूर्णतया मोह को दबा देती हैमोह का उपशम कर देती है, तब उसको यह गुणस्थान प्राप्त होता है।
नौणमोह-पूर्व गुण स्थानों में जिसने मोहनीय कर्म का जय करना प्रारंभ क्यिा होता है, वह जब पूर्णतया मोह को सील कर देता है, उसको यह गुणस्यान प्राप्त होता है।
यहाँ उपशम और क्ष्य के भेद को भी समझा देना आवश्यक है। मोह का सर्वथा उपशम हो जाने पर भी वह पुनः शवसूत हुए बिना नहीं रहता है। जैसे किसी पानी के वर्तन में मिट्टी के नीचे जम जाने पर उसका पानी स्वच्छ दिवाई देता है परन्तु उस पानी में किसी प्रकार की हलन चलन होते ही मिट्टी ऊपर उठ आती है और वह पानी गदला हो जाता है। इसी तरह जब मोह के रजकण-मोह के पुंज-आत्म प्रदेशों में स्थिर हो जाते हैं तब आत्म प्रदेश स्वच्छ से दिखाई देते हैं, परन्तु वे उपशान मोह के रज-कण किसी कारण को पाकर फिर से उदय में आते हैं, और उनके उदय में आने से जिस तरह आत्मा गुणश्रेणियों में चन होता है, उसी तरह वापिस गिरता है। इससे स्पष्ट है कि केवल ज्ञान मोह के सर्वथा क्षय होने ही मे प्राप्त होता है, क्योंकि मोह का क्षय हो जाने पर पुन. वह प्रादुर्भूत नहीं होता है।
केवल ज्ञान के होते ही:
'सयोग केवली' गुणस्थान-प्रारम्म होता है, इस गुणस्थान के नाम में जो "सयोग" शब्द रखा गया है, उसका अर्थ
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भगवान महायार 'योगवाला होता है। योग का अर्थ है शरीगदि का व्यापार, केवल शान होने के बाद भी शरीरधारी के गमनागमन का व्यापार, बोलन का व्यापार प्रादि व्यापार होते हैं इसलिये वे गगेर धारी केवली 'मयोग कहलाते हैं।
उन केवली परमात्मा त्रों कं, वायुप्य के अन्त में, प्रबल शुष्ठच्यान के प्रभाव मे, जब सारे व्यापार मक जाते हैं. नय टनको जो अवस्था प्राप्त होती है उसका नाम -
'प्रयोग येवली गुणस्थान है । अयोगी का अर्थ है नर्व व्यापार रहित-सर्व क्रिथा रहित ।
ऊपर यह विचार किया जा चुका है, कि प्रात्मा गुण श्रेणियों में आगे बढ़ता हुना, केवल ज्ञान प्राप्त कर, प्रायुष्य के अन्त में अयोगी धन तत्काल ही मुक्ति प्राप्त कर लेता है। यह श्राध्यानिमक विषय है-उमलिए यहाँ घोड़ी सी आध्यात्मिक पाती का दिग्दर्शन करना उचित होगा।
अध्यात्म संमार की गति गहन है. जगन् में सुखी जीवों की अपेक्षा दुखी जीवों का नेत्र बहुत बड़ा है। लोक प्राधिव्याधि और शोक संताप में परिपूर्ण है। हजारों तरह के सुख साधनों की उपस्थिति में भी मांसारिक वासनाओं में दुख की सत्ता भिन्न नहीं होती। आरोग्य लक्ष्मी सुवनिता और सत्पुत्रादि के मिलने पर भी दुप का संयोग सम नहीं होता। इससे यह ममझ में श्रा जाता है कि दुःख से सुस को भिन्न करना-केवल मुख भोगी यनना यहुत ही दुःसाध्य है।
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ह सकता है । मवान को दरिद्रयों का बिल
सुख दुख का सारा आधार मनोवृत्तियों पर है, महान् धनी मनुष्य भी लोभ के चक्कर में फंस कर दुख उठाता है और महान निर्धन मनुष्य भी सन्तोष वृत्ति के प्रभाव से मन के उद्वेगो को रोक कर सुखी रह सकता है । महात्मा भर्तृहरि कहते हैं:
"मनसि च परितुटेकोऽर्थवान् को दरिद्र ।" इस वाक्य से स्पष्ट हो जाता है कि मनोवृत्तियों का विलक्षण प्रवाह ही सुख दुख के प्रवाह का मूल है।
एक ही वस्तु एक को सुख कर होती है, और दूसरे को दुख कर। जो चीज़ एक बार किसी को रुचि कर होती हैवही दूसरी बार उसको अरुचिकर हो जाती है। इससे हम जान सकते हैं कि बाह्य पदार्थ सुख दुख के साधक नहीं हैइनका आधार मनोवृत्तियो का विचित्र प्रवाह ही है। __ राग, द्वेष और मोह ये मनोवृत्तियों के परिणाम हैं। इन्ही तीनों पर सारा संसारचक्र फिर रहा है। इस त्रिदोष को दूर करने का उपाय अध्यात्म शाख के सिवा अन्य (वैद्यक) अन्थो मे नहीं है । मगर 'मैं रोगी हूँ' ऐसा अनुभव मनुष्य को बड़ी कठिनता से होता है। जहाँ संसार की सुख तरंगे मन से टकराती हों, विषयरूपी बिजली की चमक हृदयाकाश में खेल रही हो, और तृष्णारूपी पानी की प्रबल धारा में गिर कर आत्मा बे मानहोरहाहो वहाँ अपना गुप्त रोग समझना अत्यन्त कष्ट साध्य है। अपनी आन्तरिक स्थिति को नहीं समझने वाले जीव एक दम नीचे दर्जे पर हैं। मगर जो जीव इनसे ऊँचे दर्जे के हैं जो अपने को त्रिदोषाक्रान्त समझते हैं, जो अपने को त्रिदोषजन्य उग्रताप से पीड़ित सममते हैं और जो उस रोग
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के प्रतिकार की शोध में हैं। उनके लिए श्राध्यात्मिक उपदेश की आवश्यकता है।
'अध्यात्म' शब्द 'अधि" और "आत्मा" इन दो शब्दों के के मेल से बना है । इसका अर्थ है आत्मा के शुद्ध स्वरूप को लक्ष्य करके उसके अनुसार धर्ताव करना । संसार के मुख्य दो तत्व जड़ और चेतन - जिनमें से एक को जाने बिना दूसरा नहीं जाना जा सकता है इस आध्यात्मिक विषय में पूर्णतया अपना स्थान रखते हैं ।
" श्रात्मा क्या चीज हैं ? आत्मा को सुख दुख का अनुभव कैसे होता है ? सुख दुम के अनुभव का कारण स्वयं श्रात्मा ही है या किसी अन्य के संसर्ग से आत्मा को सुख दुख का अनुभव होता है । श्रात्मा के साथ कर्म का सम्बन्ध कैसे होता है वह सम्वन्ध श्रादिमान है या अनादि १ यदि अनादि है तो इसका उच्छेद कैसे हो सकता है-कर्म के भेद प्रभेदों का क्या हिसाब है। कार्मिक वय, उदय और सत्ता कैसे नियम बद्ध है ?" अध्यात्म में इन सब बातों का भली प्रकार से विवेचन है |
इसके सिवा अध्यात्म विषय मे मुख्यतया संसार की असारता का हूबहू चित्र सींचा गया है । अध्यात्म शास्त्र का प्रधान उपदेश भिन्न भिन्न भावनाओं को स्पष्टतया ममता के ऊपर दबाव रखना है ।
समझा कर मोह
दुराग्रह का त्याग, तत्व श्रवरण की इच्छा, सन्तो का समागम साधुपुरुषों के प्रति प्रीति, तत्वों का श्रवण, मनन और अध्य - वसन, मिध्यादृष्टि का नाश, सम्यकदृष्टि का प्रकाश, क्रोध
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मान, माया, और लोभ इन चार कपायो का मंहार, इन्द्रियो का सयम, ममता का परिहार, समता का प्रादुर्भाव, मनोवृतियों का निग्रह, चित्त की निश्चलता, आत्म स्वरूप की रमणता, ध्यान का प्रवाह, समाधि का आविर्भाव-मोहादिकर्मो का क्षय और अन्त में केवलज्ञान तथा मोक्ष की प्राप्ति, इस तरह आत्मोन्नति का क्रम अध्यात्म शानों में बताया गया है।
'अध्यात्म' कहिए चाहे 'योग' दोनो बातें एक ही हैं। योग शब्द 'युज्' धातु से बना है। जिसका अर्थ है 'जोड़ना' । जो साधन मुक्ति के साथ सम्बन्ध जोड़ता है उसको योग कहते हैं।
अनन्त ज्ञान स्वरुप सच्चिदानदमय आत्मा कर्मों के संसर्ग से शरीर रूपी अन्धेरी कोठरी में बंद हो गया है। कर्म के मसर्ग का मूल कारण अज्ञानता है, सारे शास्त्रों और सारी विद्याओं के सीखने पर भी जिसको आत्मा का ज्ञान न हुश्रा हो उसके लिये समझना चाहिये कि वह अज्ञानी है। मनुष्य का ऊँचे से ऊँचा ज्ञान भी आत्मिक ज्ञान के विना निरर्थक होता है। ___ अज्ञानता से जो दुख होता है वह आत्मिकज्ञान से ही क्षीण किया जा सकता है। ज्ञान और अज्ञान में प्रकाश और अन्धकार के समान विरोध है। अन्धकार को दूर करने के लिये जैसे प्रकाश की आवश्यकता होती है, वैसे ही अज्ञान को दूर करने के लिये ज्ञान की जरूरत पड़ती है। आत्मा जव तक कपायों इन्द्रियों और मन के अधीन रहता है-तब तक वह संसारिक कहलाता है। मगर वही जब इनसे भिन्न हो जाता हैनिर्मोहे बन अपनी शक्तियों को पूर्ण विकसित करता है, तब 'मुमुक्ष कहलाता है।
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क्रोध का निग्रह क्षमा से होता है-मान का पराजय मृदुता से होता है-माया का संहार सरलता से होता है-और लोभ का निकदन संतोप से होता है-इन कपायो को जीतने के लिये इन्द्रियो को अपने अधिकार में करना चाहिये, इन्द्रियों पर सत्ता जमाने के लिये मनः शुद्धि की आवश्यकता होती हैमनोवृतियों को रोकने की आवश्यकता होती है, वैराग्य और प्रक्रिया के अभ्यास से मन का रोध होता है। मनोवृत्तियाँ अविकृत होती हैं । मन को रोकने के लिये राग द्वेप को अपने काबू में करना बहुत जरूरी है-रागद्वेप रूपी मैल को घोने का कार्य समता रूपी जल करता है। ममता के विना. मिटे समता का प्रादुर्भाव नहीं होता। ममता मिटाने के लियेकहा गया है कि:
'भनिन्यं संसारे भवति सकलं यनयनगम् ।' अर्थात्-'आंखों से इस ससार में जो दिखता है वह सब अनित्य है' ऐसीअनित्य भावना, और "अशरण' आदि भावनाएँ करनी चाहिये, इन भावनाओ का वेग जैसे जैसे प्रवल होता जाता है वैसे ही वैसे ममत्व रूपी अधकार क्षीण होता जाता है और समता की दैदीप्यमान ज्योति जगमगाने लगती है। ध्यान, की मुख्य जड़ समता है। समता की पराकाष्ठा ही से चित्त किसी एक पदार्थ पर स्थिर हो सकता है। ध्यान श्रेणी में आने के बाद-लब्धियां सिद्धियां प्राप्त होने पर यदि फिर से मनुष्य मोह
*१-"प्रमशय महाबाहो ! मनो निग्रह चलम् ।
अभ्यासेन च कौन्तेय ! वैराग्येण च गृह्यते ॥" (भगवद्गीता)
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३७२ में फंस जाता है, तो उसका अधःपात हो जाता है, इसलिये "ध्यानी मनुष्य को भी प्रतिक्षण इस बात के लिए सचेत रहना चाहिये कि वह कही मोह में न फंस जाय। __ध्यान की उच्च अवस्था को 'समाधि' का नाम दिया गया है। समाधि से कर्म-व्यूह का क्षय होता है। केवलज्ञान का प्रकाश होता है। केवल ज्ञानी जब तक शरीरी रहता है तब तक वह जीवन मुक्त कहलाता है, पञ्चात् शरीर का सबन्ध छूट जाने पर वह परब्रह्म स्वरूपी हो जाता है।
आत्मा मूढ़ दृष्टि होता है तब 'वहिरात्मा' औरतत्त्वष्टि होने 'पर 'अन्तरात्मा' कहलाता है। सम्पूर्ण ज्ञानवान होने पर 'परमात्मा' कहलाता है। दूसरी तरह से कहे तो यों कह सकते हैं कि शरीर 'बहिरात्मा' है। शरीर सचैतन्य स्वरूप जीव 'अन्तरात्मा' है और अविद्यामुक्त परम शुद्धसच्चिदानन्द रूप बना हुआ जीव ही 'परमात्मा' है।
जैन शास्त्रकारो ने आत्मा की आठ दृष्टियो का वर्णन किया है, उनके ये नाम हैं-मित्रा, तारा, बला, दीपता, स्थिरा, कान्ता, प्रभा और परा । इन दृष्टियों में आत्मा की उन्नति का क्रम है। प्रथम दृष्टि में जो बोध होता है-उसके प्रकाश को तृणाग्नि के 'उद्योत की उपमा दी गई है । उस बोध के अनुसार उस दृष्टि में सामान्यतया सद्वर्तन होता है। इस स्थिति में से जीव जैसे
से ज्ञान और वर्तन में आगे बढ़ता जाता है तैसे तैसे उसका "विकास होता है।
ज्ञान और क्रिया की ये आठ भूमियां हैं। पूर्व भूमि की - 'अपेक्षा उत्तर भूमि में ज्ञान और क्रिया का प्रकर्ष होता है। इन
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था दृष्टियों में योग के आठ अंग जैसे-यम, नियम, आसन, प्राणायाम. प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि क्रमश: मिद्ध किये जाते हैं । इस तरह श्रात्मोन्नति का व्यापार करते हुए जीव जब अन्तिम भूमि में पहुँचता है, तब उसका आवरण नी होता है और उसे केवल ज्ञान मिलता है ।
महात्मा पातलि ने योग के लिये लिखा है- "योगश्चित - वृत्ति निशेव." अर्थात् चित्त की वृतियों पर अधिकार रखना इधर, उधर भटकती हुई वृत्तियों को आत्म स्वरूप में जोड कर रखना इसको योग कहते हैं। इसके सिवा इस हद पर पहुँचने के लिये जो शुभ व्यापार हैं वे भी योग के कारण होने से योग कहलाते है ।
दुनिया में मुक्ति विषय के साथ सीधा सम्बन्ध रखने वाला एक अध्यात्म शास्त्र है । अध्यात्म शास्त्र का प्रतिपाद्य विषय है मुक्ति साधन का मार्ग दिखाना और उसमे आनेवाली बाधाओं को दूर करने का उपाय बताना । मोत साधन के केवल ' दो उपाय 1 प्रथम पूर्व सचित कर्मों का क्षय करना और द्वितीय, नवीन थानेवाले कर्मों को रोकना । इनमे प्रथम उपाय को 'निर्जग' और द्वितीय उपाय को 'सवर' कहते हैं - इनका वर्णन पहले किया जा चुका है । इन उपायो के सिद्ध करने के लिये शुद्ध विचार करना, हार्दिक भावनाएँ दृढ़ रखना, अध्या-त्मिक तत्त्वों का पुनः पुन. परिशीलन करना और खराब सयोगो से दूर रहना यही अध्यात्मशास्त्र के उपदेश का रहस्य है ।
आत्मा में अनन्त शक्तियां है । आवरणों के हटने से आत्मा की जो शक्तियां प्रकाश में आती हैं उनका वर्णन करना कठिन
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के सातवां अध्याय
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गृहस्थ के धर्म
नाचार्यों ने अपने शास्त्रो में गृहत्य-धर्म और साधु: धर्म पर बहुत विस्तृत विवेचन किया है। दिगम्बर.
साहित्य में तो "रत्नकरण्ड श्रावकाचार" के समान पुस्तकें इस विषय पर मौजूद हैं । गृहस्थ-धर्म का दूसरा नाम श्रावक-धर्म भी है। इस धर्म का पालन करनेवाले पुरुष “श्रावक"
और स्त्रियाँ "श्राविकाएँ" कहलाती हैं। गृहस्थ-धर्म पालने में, बारह व्रत बतलाये गये हैं।
१-स्थूल प्राणातिपात विरमण, २-स्थूल मृषावाद विरमण ३-स्थूल अदत्तादान विरमण, ४-स्थूल मैथुन विरमण, ५-परिग्रह परिणाम, ६-दिग्व्रत, ७-भोगोपभोग परिमाण, ८-अनर्थ दण्ड. विरति, ९-सामायिक, १०-देशावकाशिक, ११-प्रोषध और ९२-अतिथि संविभाग।
१-स्थूल प्राणातिपात विरमण-(अहिसा) इस व्रत का विस्तृत वर्णन हम इस खण्ड के पहले अध्याय में कर आये हैं। उस लेख में हम यह बतला चुके हैं कि गृहस्थ स्थूल हिसा का त्यागी नहीं होता। संसारिक व्यवहार चलाने के लिये अथवा
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देश, जाति एव राष्ट्र की रक्षा करने के लिये उसे हिसा करना अनिवार्य होना है और जैन शाखों में इम प्रवार को हिंसा की मनाई भी नहीं है। लालालाजपराय तथा अन्य विद्वानो का यह कथन बिल्कुल भ्रम मूलक है कि जैन श्रहिंसा मनुष्य के पुरुपल को नष्ट कर कायर बना देती है। जैन अहिंसा का पालन और अध्ययन करते समय यह खयाल में रखना चाहिये कि जैन-धर्म का दया सन्वन्धी उपदेश दुनिया को कायर बनाने वाला नहीं है बल्कि विवेक मार्ग को सिखानेवाला है । व्यर्थ को लड़ाई करने से, अथवा ढण्टा खड़ा करने से मानवीय शक्ति का दुरुपयोग होता है, देश बर्बाद होता है, जाति नष्ट होती है—और तामलिक वृत्ति को अभिवृद्धि होवर मनुष्य क्रूर बन जाता है। देश की रक्षा के लिए सात्विक शौर्य दिखाने की. युद्ध करने की और क्रूर लोगों के हाथ से प्रजा को बचाने की जैन धर्म में श्राज्ञा है । इतिहास और प्राचीन जैन शास्त्र इस बात के प्रमाण हैं ! जैन-धर्म गृहस्थों को गृहस्थ के मुताबिक चलने की आज्ञा देता है । उसका कथन तो सिर्फ इतना ही है कि अपने स्वार्थ के लिए अपने में निरपराध दुर्बल प्राणी को व्यर्थ मत सतायो । इस बात का अनुमोदन कोई भी धर्मशास्त्र नहीं कर सकता कि निरपराध को सताना अच्छा है । योग्यतानुसार अपराधी को दण्ड देने को योजना करना किसी धर्मशास्त्र में निषिद्ध नहीं है ।
जो व्यक्ति मनस्तत्व के सिद्धान्तों को नहीं जानता है, वह धर्म के तत्वों को भा नहीं समझ सकता है और इसीलिए उसके जीवन की दशा बहुत अनवस्थित हो जाती है ।
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लकी
कल्याण उन्हीं
मनुष्य को मनुष्यता इसी में है कि वह अपनी लागणियों को अपने जज्बों को दया से दवा रक्खे । जगत का लोगो से होता है जो उदार हृदय वाले होते हैं। दयाहीन स्वार्थी लोगो का दौरदौरा होता है उस काल में प्रजा को जो दुःख उठाने पड़ते हैं वे इतिहास के वेत्ताओं से छिपे नही है ।
जिस काल में
इसलिए जैन शास्त्रों में गृहस्थ धर्म का वर्णन करते हुए कहा है कि:-गृहस्थ को जान बूझ कर संकल्प पूर्वक किसी त्रस्त जीव को न मारना चाहिये न सताना चाहिये । बिना किसी प्रयोजन के किसी भी आत्मा को खेद पहुँचे इस प्रकार के दुर्वचन न कहना चाहिये ।
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स्थूल मृषावाद विरमरण-जो सूक्ष्म असत्य से बचने का व्रत नहीं निभा सकते हैं - उनके लिए स्थूल (मोटे) असत्यो का त्याग करना बताया गया है। इसमे कहा गया है कि, कन्या के सम्वन्ध में, पशुओं के सम्बन्ध में, खेत कुत्रों के सम्बन्ध मे और इसी तरह की और बातों के सम्बन्ध मे झूठ नहीं बोलना चाहिये | यह भी आदेश किया गया है कि दूसरो की धरोहर नहीं पचा जाना चाहिये, झूठी गवाही नहीं देनी चाहिये, और जाली लेख- दस्तावेज नहीं बनाने चाहियें ।
स्थूल अदत्तादान विरमण - जो सूक्ष्म चोरी को त्यागने का नियम नही पाल सकते उनके लिये स्थूल चोरी छोड़ने का नियम बताया गया है । स्थूल चोरी में इन बातो का समावेश होता है:
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"पतितं विस्मृतं नष्टं स्थितं स्थापित माहितम् । तं नाददीतस्वं परकीयं चिद सुधी ॥ " स्वाद डालना, ताला तोड़ना, जेबकटी करना, खोटे वाट, नोल रखना, कम देना, ज्यादा लेना आदि और ऐसी करना जो राज नियमों में अपराध बताई गई हो। गस्त में पड़ी हुई चीज को उठा लेना, किसी के जमीन मे गढ़े हुए धन को निकाल लेना और किसी की धरोहर पचा लेनाइन बातों का इस व्रत में पूर्णतया त्याग करना चाहिये ।
चोरी नहीं किसी की
•
स्थूल मैथुन विरमण - इस व्रत का अभिप्राय है, पर ख का त्याग करना, वैश्या, विधवा, और कुमारी की संगति ने दूर रहना तथा जिस बात में जीवों का संहार होता हो, ऐसा पापमय व्यापार नहीं करना ।
अनर्थ दंड विरमण - इसका अर्थ है विना मतलब दडित होने से - पराप द्वारा बंधने से बचना । व्यर्थ खराव ध्यान न करना. व्यर्थ पापांपदेश न देना और व्यर्थ दूसरो को हिंसक उपकरण न देना, इस व्रत का पालन है । इनके अतिरिक्त, बेल तमाशे देखना, गप्पें लड़ाना, हसी दिल्लगी करना आदि प्रमादाचरण करने से यथाशक्ति बचते रहना भी इस व्रत में श्रा जाता है ।
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सामायिक व्रत - राग द्वेप रहित शान्ति के साथ मे दो घड़ो यानी ४८ मिनिट तक आसन पर बैठने का नाम सामयिक है । इस समय में आत्मतत्व का चिन्तन, वैराग्यमय शास्त्रों का परिशीलन अथवा परमात्मा का ध्याय करना चाहिये ।
देशावकाशिक व्रत - इसका अभिप्राय है छठे व्रत में ग्रहण
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किये हुए दिग्बत के दीर्घकालिक नियम को एक दिन या अमुक समय तक के लिये परिमित करना, इसी तरह दूसरे व्रतों में जो छुट हो उसको भी सक्षेप करना ।
प्रोषध ब्रत-यह धर्म का पोषक होता है इसलिए-'प्रोप कहलाता है। इस व्रत का अभिप्राय है-उपवासादि तप करके चार या आठ पहर तक साधु की तरह धर्म कार्य में आरूढ़ रहना। इस प्रोषध में शरीर की, तैलमर्दन श्रादि द्वारा शुश्रूपा का त्याग, पाप व्यापार का त्याग तथा ब्रह्मचर्य पूर्वक धर्मक्रिया करने को, शुभ ध्यान को, अथवा शात्र मनन को, स्वीकार किया जाता है । त्याग करना भी इसी व्रत मे जाता है।
परिग्रह परिमाण-इच्छा अपरिमित है। इस व्रत का अभिप्राय है-इच्छा को नियमित रखना । धन, धान्य,सोना, चाँदी घर, खेत, पशु आदि तमाम जायदाद के लिए अपनी इच्छानुसार नियम ले लेना चाहिए। नियम से विशेष कमाई हो तो उसको धर्म कार्य में खर्च कर देना चाहिये। इसका परिमाण नहीं होने से लोभ का विशेष रूप से वोझा पड़ता है और उसके कारण आत्मा अधोगति में चली जाती है। इसलिए इस व्रत की आवश्यकता है।
दिग्व्रत-उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम इन चारों -दिशाओं और ईशान, भग्नेय, नैऋन्य और वायव्य इन विदिशाओं में जाने आने का नियम करना, यह इस व्रत का अभिशय है। बढ़ती हुई लोभ वृत्ति को रोकने के लिये यह नियम बनाया गया है। • भोगोपभोग परिमाण-तो पदार्थ एक ही बार उपभोग
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भगवान् महावीर में आते हैं-ये मोग कहलाते हैं, जैसे अन्न, पानो आदि। और जो पदार्थ बार बार काम में आ सकते हैं वे उपभोग कहलाते हैं जैसे-वर जेवर आदि। इस व्रत का अभिप्राय है कि इनका नियम करना, इच्छानुसार निरन्तर परिमाण करना । तृष्णा लोलुपता पर इस व्रत का कितना प्रभाव पड़ता है-इससे तृष्णा कितनी नियमित हो जाती है, सो अनुभव करने ही से मनुप्य भली प्रकार जान सकता है। मद्य, मांस, कन्दमूल आदि प्रभक्ष पदायों का त्याग भी इमी व्रत में या जाता है। शान्ति मार्ग में आगे वटने की जब मनुष्य को इच्छा होती है, तब वह इस व्रत का पालन करता है।
अतिथि सविभाग अपनी आत्मोन्नति करने के लिये गृहम्याश्रम का त्याग करने वाले मुमुक्ष 'अतिथि' कहलाते हैं। उन अतिथियों को, मुनि महात्मात्री को अन्न वस्र श्रादि चीजो का जो उनके मार्ग में बाधा न डालें, मगर उनके सयम पालन में उपकारी हो, दान देना और रहने के लिए स्थान देना इस व्रत का अभिप्राय है। साधु-सतों के अतिरिक्त उत्तम गुण-पात्र गृहस्था के प्रति भक्ति करना भी इस व्रत में सम्मिलित होता है।
इन बारह व्रतों में से प्रारम्भ के पाँच त "अणुव्रत" कहलाते हैं। इनका अभिप्राय यह है कि वे साधु के महानता के सामने 'अणु' मात्र हैं-बहुत छोटे हैं। उनके बाद तीन 'गुण व्रत' कहलाते हैं इनका मतलब यह है कि ये तीन व्रत अणुव्रतों का गुण यानी उपकार करने वाले हैं-उनको पुष्ट करने वाले हैं। अन्तिम चार 'शिक्षावत' कहलाते हैं। शिक्षाबत शब्द का अर्थ है-विशेष धार्मिक कार्य करने का अभ्यास डालना ।
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भगवान् महावीर
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वारहों व्रत ग्रहण करने की सामर्थ्य न होने पर शक्ति के अनुसार भी व्रत ग्रहण किये जा सकते हैं। इन व्रतो का मूल • सम्यक्त है। सम्यम्त प्राप्ति के बिना गृहस्थ-धर्म का सम्पादन नहीं हो सकता है।
रात्रि भोजन का निषेध ।
रात्रि में भोजन करना अनुचित है, इस विषय पर ग्रहले अनुभव-सिद्ध विचार करना ठीक होगा । सन्ध्या होते ही अनेक सूक्ष्म जीवों के समूह उड़ने लगते हैं । दीपक के पास रात में बेशुमार जीव फिरत हुए नजर आते हैं, खुले रक्खे हुए दीपक पात्र मे सैकड़ों जीव पड़े हुए दिखाई देते हैं। इसके सिवा -रात होते ही अपने शरीर पर भी अनेक जीव बैठते हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि, रात्रि में जीव-समूह भोजन पर भी अवश्यमेव वैठते ही होगे। अतः रात में खाते समय, उन जीवों में से जो भोजन पर बैठते हैं, उन जीवों को लोग खाते हैं,
और इस तरह उनकी हत्या का पाप अपने सिर लेते हैं। कितने ही जहरी जीव रात्रि-भोजन के साथ पेट में चले जाते हैं, और अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न करते है। कई ऐसे जहरी जन्तु भो होते हैं, जिनका असर पेट में जाते ही नहीं होता, दीर्घ काल के बाद होता है। जैसे जूं से जलोदर, मकड़ी से कोढ़ और चिटी से "बुद्धि का नाश होता है। यदि कोई निनका खाते में आ जाता - है तो वह गने में अटक कर कष्ट पहुँचाता है। मक्खी खा जाने - से मन हो जाती है, और अगर काई जहरी जन्तु खाने में
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भगवान् महावारि
सन्धान नहीं मिलता, तथापि आज कल यह मत अधिक प्रचलित है कि उरल पर्वत की पूर्व अथवा पश्चिम इन दोनों दिशाओं में से किसी एक दिशा के विल्कुल उत्तर की ओर पार्य जाति का मूल स्थान था। इसी उत्तरीय मूलस्थान मे निकल कर आयों ने आनेय और नैऋत्य इन दो दिशाओं की ओर गति की। जिस काल को हम ऐतिहासिक काल कहते हैं उसमें मालूम होता है कि आर्य लोग यूरोप के अन्तर्गत बसे हुए थे उन्होंने वहाँ के मूल निवासियों को वहाँ से निकाल कर अपनी उच्च सुधारणाओ और विकसित धर्म विचारों के अनेक केन्द्र स्थापित किये थे। जो शाखा श्राग्नेय कोण को गई थी उमने ईरान तथा भरत खण्ड को व्याप्त कर दिया। इन लोगों के धर्म विचार बहुत ही उस कोटि के थे।
इघर तो एशिया के दक्षिण विभाग में आर्य-विचारो का विकास हो रहा था, उधर सेमेटिक जातियों में एक नवीन धर्मभावना जन्म ले रही थी। वह भावना महम्मदी अथवा इसलामी धर्म की थी। ___इन भिन्न भिन्न एतिहासिक परिवर्तनो के फल स्वरूप जगत के तमाम धर्मों को आधुनिक विशिष्ट रूप प्राप्त हुआ। समेटिक जातियों में पैदा होने वाले यहूदी ख्रिस्ती और महम्मदी धर्मों का तो लगभग सारी दुनियाँ में प्रचार हो गया पर आर्य-धर्म का प्रचार एशिया के दक्षिण और पूर्व वाले देशों ही मे होकर रह गया। शेष सब देशों से इसका लोप हो गया। जिन स्थानो पर वह टिका रहा वहाँ भी अन्य धर्मों के भयङ्कर आघात उसे सइन करने पड़े। इस प्राचीन आर्य-धर्म की अनेक , सततियों में से
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भगवान महावीर
३९४ जैन-धर्म भी एक है। जैन धर्म का महत्व निश्चिन् करने के पूर्व हमें आर्य-धर्म को अभिवृद्धि के प्रधान प्रधान कारणों पर विचार करना होगा।
बौद्धिक दृष्टि द्वारा होनेवाली जगद्विपयक कल्पनाओं का दीकरण और उसमें से निष्पन्न होनेवाली निसर्ग-सम्बन्धी पूज्य वृद्धि ये दोनों आर्यधर्म के आद्य तत्व थे, इसमें कोई संदेह नहीं, कि श्रार्य धर्म के अन्तर्गत आज भी ये तत्र न्यूनाधिक पर विकसित रूप मे पाये जाते हैं, प्रीक और रोमन धर्मों में भी इनकी झलक दिखलाई पड़ती है, पर इन तत्त्वो का पूर्ण विकास भारतवर्ष में ही हुआ, यह स्वीकार करने में कोई बाधा न होगी। इन बौद्धिक धर्म विचारो की प्रगति का पर्यवसान नैराश्यवाद तथा कर्मठता में होता है, और ये दोनों ऋग्वेद को प्राचीन सूक्तियों में भी पाई जाती है, आर्य-धर्म का यह अन ब्राह्मणों में बहुत हानिकारक दरजे तक जा पहुँचा था, और इसी कारण यह धर्म इश्वरोत्सारी होने पर भी मनुष्योत्सारी बन गया। जिसके फलखरूप मनुष्योत्सारी धर्म में होनेवाले सब दोपी ने इसमें भी स्थान प्राप्त किया। इन सब दोषो में सबसे बड़ा दोष यह हुआ कि जनता की धर्म-भावनाओं को नियन्त्रण करनेवाली शक्ति का विनाश हो गया, जिससे जनता के हृदय पर परकीय विधि विधानों और मत-मतान्तरो के प्रभाव पड़ने का मार्ग खुल गया।
सेमेटिक धर्म आर्य धर्म के इस अङ्ग से बिल्कुल भिन्न है, इस धर्म की मुख्य भावनाएँ भक्ति और गूढ़ प्रेरणा के द्वारा प्रकट होकर मनुष्य की बुद्धि पर उत्तमत्ता भोगती है और अपने भक्तों को विश्वासपूर्वक वे धीरे धीरे संसार के व्यवहार
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भगवान् महावीर
मे से निकाल कर स्वर्ग तथा नर्क सम्बन्धो कल्पनामय मानवातीत सृष्टि में ले जाती है। __आर्य लोगों से आने के पूर्व जो जातियाँ इस देश मे बसती थी, उनके मूल धर्म का पूरा पता नहीं चलता, तथापि आधुनिक लौकिक धर्म-सम्प्रदाय और प्राचीन धर्म-साहित्य के तुलनात्मक मनुष्य-शास्त्र की एवं प्राचीन अवशेषो की सहायता द्वारा सूक्ष्म निरीक्षण करने से उस धर्म की बहुत सी बातों का पता लग सकता है, इस सूक्ष्म निरीक्षण से यह सिद्ध होता है कि पूर्व भारत में कम से कम दो विशिष्ट जाति के धर्म थे। ये दोनों वर्ग या तो जीव देवात्मक थे या एक जीव देवात्मक और दूसरा जड़देवात्मक था। जड़ देवात्मक मत का प्रादुर्भाव कुछ गूढ कारणों से पैदा हुई क्षुब्धावस्था में उत्कट भक्ति का पर्यवसान उन्माद में अथवा आनन्दातिरेक में होकर हुआ।
इसके अतिरिक्त जो जीव देवात्मक खरूप का वर्ग था, उसमे वैराग्य एव तपस्वीवृत्ति का सम्बन्ध था । इन दो खास तत्वों के अनुषड्ग से मूल आर्य-धर्म का विकास हुआ और उसमे से अनेक पंथ और धर्म-शाखाएं प्रचलित हुई। . ___ईसा से करीब आठ सौ वर्ष पूर्व इस आर्य-धर्म के अन्तर्गत एक विचित्र प्रकार की विशृखला का प्रादुभाव हुआ । उस समय में ब्राह्मणो की कर्मकाण्ड प्रियता इतनी बढ़ गई थी कि उसमे के कितने ही प्रयोग "धर्म" नाम धारण करने के योग्य न रहे थे-आधुनिक पाश्चात्य विद्वानो का प्रायः यह, मन्तव्य है कि समाज की इसी विशृखला को दूर करने के लिये ही जैन और बौद्धधर्म का प्रादुर्भाव हुआ था, पर कई कारणों से मेरे
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भगवान महावीर
३९६ 'अन्तःकरण में यह कल्पना हो रही है कि यह मत बहुत भूल से
भरा हुआ है। ___कुछ दिनों पूर्व लोगों का प्रायः यह मत था कि गौतमयुद्ध से कुछ ही समय पूर्व महावीर हुए और उन्होने जैन धर्म की स्थापना की, पर अब यह मन्तव्य असत्य सिद्ध हो चुका है और लोग महावीर के पूर्ववर्ती तीर्थकर पार्श्वनाथ को जैनधर्म का मूल संस्थापक मानने लगे हैं, पर जैनियों का परम्परा- . गत मत इनसे भी भिन्न प्रकार का है। उनके मतानुसार जैन-धर्म अनादि सनातन धर्म है । जैनियो का यह परम्परागत मत उपेक्षा के योग्य नहीं है । मेरा तो यह विश्वास है कि भारत के प्रत्येक साम्प्रदायिक मत को ऐतिहासिक आधार अवश्य है। जैन-धर्म के इस कथन को कौनसा ऐतिहासिक श्राधार है, यह कह देना बहुत ही कठिन है। इस विषय की शोध करना मैंने हाल ही में प्रारम्भ की है, तथापि हर्मन जेकोबी के निबन्ध मे जो एक विधान दृष्टि गोचर होता है, उससे प्रस्तुत विषय पर गवेषणा की जा सकती है । उस निबन्ध से मालूम होता है कि जैन-धर्म ने अपने कितने एक मन्तव्य "जीव देवात्मक" धर्म में से ग्रहण किये होंगे । जैनियो का यह सिद्धान्त कि प्रत्येक प्राणी ही नहीं-- 'किन्तु वनस्पति और खनिज पदार्थ तक जीवात्मक हैं, हमारे उपरोक्त मन्तव्य की पुष्टि करता है।
इससे सिद्ध होता है कि जैन-धर्म अति प्राचीन धर्म है। आर्य सभ्यता के आरम्भ ही से इसका भी प्रारम्भ है। मेरे इस विचार को मैं बहुत ही शीघ्र शास्त्रीय दृष्टि से सिद्ध करने वाला हूँ। जैनों के निर्ग्रन्थों का उल्लेख आज भी प्राचीन वेदों
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भगवान महावीर मे उपलब्ध होता है, यह भी मेरे इस कथन की पुष्टि का एक प्रमाण है।
जैन-धर्म चाहे जितना ही प्राचीन हो पर यह निश्चय है। कि उसे यह विशिष्ट रूप महावीर के समय से ही प्राप्त हुआ है, और इसी विशिष्ट रूप पर से हमें उसकी तुलनात्मक परीक्षा करना है । जैन-धर्म का मुख्य कार्य नास्तिकवाद तथा अनेयवाद को निस्तेज करके ब्राह्मणीय विधि विधानों में घुसी हुई कर्मः काण्डता को नि.सत्व कर उसे पीछे हटाना है, यद्यपि बुद्धधर्म ने भी इस कार्य को किया और जैन-धर्म की अपेक्षा उसका प्रचार भी अधिक हुआ, तथापि भारतवर्ष के लिये जैन-धर्म ही अधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसी के कारण दूसरे धमों में भी यह प्रतिक्रिया शुरू हुई।
पर जैन-धर्म का वास्तविक महत्व इससे भी अधिक एक दुमरी बात में है, इस एक ही लनण के द्वारा जैन धर्म की इतर धों से विशेषता बतलाई जा सकती है।
प्रत्येक धर्म साहित्य के खास कर तीन प्रधान अग होते हैं, भावनोढीपक पुगण, बुद्धिवर्द्धक तत्वनान, और आचारवर्द्वक
म-काण्ड। कई धर्मों में बहुधा विधिविधात्मक कर्मकाण्ड की महत्ता बढ़ जाने से उसके शेप दो अग कमजोर हो जाते है। किसी धर्म में भावनोद्दीपक पुराणो की लोकप्रिय कथाओं सा महत्व बढ़ जाता है, तो तत्वज्ञान का अझ कमजोर हो जाता है, पर जैन-धर्म एक ऐसा धर्म है जिसमे सब अङ्ग बरावर समान गति से आग वटते हुए नजर पाते हैं। प्राचीन ब्राह्मण धर्म तथा बौद्ध-धर्म में बौद्धिक प्रलो का निष्कारण स्तोम मचाया गया है।
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जैन-धर्म को दुनिया के धर्मो में कौन सा स्थान प्राप्त हो सकता है यह जानने के लिये उसका पूर्ण अध्ययन और विवश्वन करना आवश्यक है । पर इस छोटे से व्याख्यान में इतनी मीमांसा करना असम्भव है, अतः उसकी कुछ श्रावश्यक बानों काही उल्लेख करके धर्म के तुलनात्मक विज्ञान- शास्त्र में जैन-धर्म को किस प्रकार का विशेष महत्व मिलता है यह बतलाने का प्रयत्न करता हूँ ।
सब से महत्वपूर्ण विषय तो जैन-धर्म में प्रमाण सहित माना हुआ देव सम्वन्धी मत है, इस दृष्टि से जैन-धर्म मनुष्योत्सारी ( नर से नारायण पदवी तक विकास करनेवाला) सिद्ध होता है, यद्यपि वैदिक तथा ब्राह्मण धर्म भी मनुष्योत्सारी हैं तथापि इस विषय में वे जैन-धर्म से बिल्कुल भिन्न हैं, इन धर्मों का मनुष्योत्सारित्व केवल औपचारिक ही हैं क्योंकि उनमें देव किसी मनुष्यातीत प्राणी को माना है, और उसे मन्त्र द्वारा वश करके अपनी इष्ट सिद्धि की जा सकती है, ऐसा माना गया है, पर यह वास्तविक मनुष्योत्सारित्व नहीं है, वास्तविक मनुष्योत्सारित्व तो जैन और बौद्ध धर्म में ही दिखलाई देता है ।
जैनियों की देव विपयक मान्यताए प्रत्येक विचारशील मनुष्य को स्वभाविक और बुद्धि-प्राह्य मालूम देंगी, उनके मतानुसार परमात्मा ईश्वर नहीं है, अर्थात् वह जगत् का रचविता और नियन्ता नहीं है । वह पूर्णावस्था को प्राप्त करनेवाली आत्मा है । पूर्णावस्था अर्थात् मोक्ष के प्राप्त हो जाने पर वह जगत् में जन्म, जरा और मृत्यु को धारण नहीं करता। इसी से वह वन्दनीय और पूजनीय है । जैनों की यह देव विषयक
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फल्पना सुप्रसिद्ध जर्मन महातत्वज्ञ निशे ( Supermen ) मनुष्यातीत कोटि की कल्पना के साथ बराबर मिलती हुई दृष्टिगोचर होती है और इसी विपय में मुझे जैन-धर्म को अनीश्वरवादी समझ कर उसके धर्मव पर श्राघात करना चाहते हैं उनके साथ में प्रवल विरोध करने को तैय्यार है। मेरा ख्याल है कि बौद्धिक (तत्वज्ञानात्मक) अग का उत्तम रीति से पोषण करने के लिये आवश्यकतानुसार ही उच्चतम ध्येय को हाथ में लेकर जैन-धर्म ने देव सम्बन्धी कल्पना आवश्यकीय होने से अपना धर्मत्व कायम रखने के लिये धर्म के प्रधान लक्षणों को अपने से बाहर न जाने दिया। इस कारण जैन-धर्म को न केवल आर्य धमां ही की प्रत्युत तमाम धर्मों की परम मर्यादा समझने में भी कोई हानि नहीं मालूम होती।
धर्म के तुलनात्मक विज्ञान में इस परम सीमात्मक स्वरुप के कारण ही जैन धर्म का बड़ा महत्व प्राप्त हुआ है। केवल इसी एक ष्टि से नहीं प्रत्युत तत्वज्ञान, नीतिज्ञान और तर्क विद्या की दृष्टि से भी तुलनात्मक विज्ञान मे जैनधर्म को उतना ही महत्व प्राप्त है । पर्याप्त समय के न होने पर भी मैं जैनधर्म की श्रेष्ठता के सूचक कुछ विषयों का सक्षिप्त विवेचन करता हूँ।
अनन्त संख्या की उत्पत्ति जो जैनों के "लोक-प्रकाश" नामक ग्रन्थ में बतलाई गई है, आधुनिक गरिणत शास्त्र की उत्पत्ति के साथ वगवर मिलती हुई है। इसी तरह दिशा
और काल के अभिन्नल का प्रश्न जो कि साम्प्रत में इन्स्टीन की उत्पत्ति के लिए आधुनिक शाखज्ञों में वादग्रस्त विपय हो पढ़ा है, उसका भी निर्णय जैन-तत्वज्ञान में किया गया है।
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जैनियों के नीति शास्त्र में से यहाँ पर सिर्फ दोही बातों का उल्लेख करता हूँ। इस विषय मे जैनों के नीति शास्त्र में बिल्कुल पूर्णता से विचार किया गया है। उनमें से पहिली वात "जगत के तमाम प्राणियों के साथ सुख-समाधान पूर्वक किस प्रकार एकत्र रहा जा सकता है यह प्रश्न है। इस प्रश्न के सम्मुख अनेक नीतिवेत्ताओ को पनाह मांगनी पड़ती है। आज तक इस प्रश्न का निर्णय कोई न कर सका । जैन शास्त्रों में इस प्रश्न पर विल्कुल सुलभता और पूर्णता के साथ विचार किया गया है। दूसरे प्राणी को दुख न देना या अहिसा, इस विषय को जैन शाखा में केवल तात्विक विधि ही न बतला कर ख्रिस्ती धर्म मे दी हुई इस विषय की आज्ञा से भी अधिक निश्चयपूर्वक और जोर देकर आचरणीय आचार बतलाया है।
इतनी ही सुलभता और पूर्णता के साथ जैनधर्म मे जिस दूसरे प्रभ का स्पष्टीकरण किया है वह स्त्री और पुरुष के पवित्र सम्बन्ध के विषय मे है। यह प्रश्न वास्तव में नीति शास्त्र ही का नहीं है वरन जीवन शास्त्र और समाज शान के साथ भी इसका घनिष्ट सम्बन्ध है । मि० माल्थस ने जिस राष्ट्रीय प्रश्न को अर्थ शास्त्र के गम्भोर सिद्धान्तों के द्वारा हल करने का प्रयन किया है और जगत की लोक संख्या की वृद्धि के कारण होने वाली सङ्कीर्णता के दुष्ट परिणामों का विचार किया है उस प्रश्न का समाधान भी जैन धर्म मे बड़ी सुलभता के साथ किया है । जैन धर्म का यह समाधान प्रजा वृद्धि के भयङ्कर परिणामो की जड़ का हो मूलच्छेद कर डालता है। यह समाधान ब्रह्मचर्य्य सम्बन्धी है।
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इन सब बातों को देखने पर किसी को यह कहने में आपत्ति नहीं हो सकती कि जैन धर्म सामान्यत. सब धर्मों का और विशेषत श्र धर्म का उन सोपान है। इससे धर्म के विशिष्ट अनी का साम्यवस्थान जैन धर्म में यथार्थ रीति से नियोजित किया गया है और उसकी रचना मनुष्य को केन्द्र समझ कर की गई है ।
जैन धर्म का अध्ययन करने से यह बात स्पष्ट मालूम होती है कि बौद्धिक श्रद्ध को किनारे न रख कर उस रचना में धर्मत्व को किसी प्रकार की क्षति न पहुँचे, इस पद्धति से उसका विकास किया गया है । ईसाई धर्म की अपेक्षा इस विषय में जैन धर्म की जड़ अधिक बलवान है। ईसाई धर्म की रचना बाइबल के आधार पर की गई है। श्रुत. उसने बौद्धिक प्रश्न पर विशेष उहापोह नहीं किया गया है। कारण इसका यह मालूम होता है कि ईसाई धर्म का उद्देश्य केवल मनुष्य की भावना पर ही कार्य करने का था । तदनन्तर उसने एरिस्टोटल के वैज्ञानिक तत्वों को अङ्गीकार किया और आज तक भी वह उन तत्वों को धर्मतया मानता है । पर उन तत्वों का आधुनिक शास्त्रीय प्रगति के तथा बौद्धिक विकास के साथ मिलान नहीं हो सकना । यद्यपि भावना की दृष्टि से ईसाई धर्म ने अन्य धर्मो को मात कर दिया है तथापि मेरे मन्तव्य के अनुसार आधुनिक दृष्टि वाले लोगों को केवल भावनाओं पर ही अवलम्बित रहना रुचिकर न होगा, क्योकि उनका सिद्धान्त है कि धर्म को आधिभौतिक शास्त्र की गति से ही दौड़ना चाहिये ।
इन्हीं सब बातों का संक्षिप्त सारांश यही निकलता है कि
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उच्च धर्मतत्वों एवं पद्धति की दृष्टि से जैन-धर्म और धमों से तुलनात्मक शास्त्रों में अत्यन्त आगे बढ़ा हुआ धर्म है।
द्रव्य का ज्ञान सम्पादन करने के लिये जैन-धर्म में योजित एक स्याद्वाद का स्वरूप देख लेना ही पर्याप्त होगा जो कि बिल्कुल आधुनिक पद्धति के साथ मिलता जुलता है । निस्सन्देह जैनधर्म, धर्म-विचार की परम श्रेणी है और इस दृष्टि से केवल धर्म का वर्गीकरण करने ही के लिये नहीं किन्तु विशेषतः धर्म का लक्षण निश्चित करने के लिये उसका रुचिपूर्वक अभ्यास करना आवश्यक है।
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नौवां अध्याय RESU
जैन-धर्म का विश्वव्यापित्व
किसी भी धर्म की उत्तमता की परीक्षा उसके विश्वव्यापी सिद्धान्तों पर बड़ी ही आसानी के साथ की जा सकती है । जो धर्म जितना ही अधिक विश्वव्यापी होता है अथवा हो सकता है उतना ही अधिक उसका गौरव समझा जाता है । पर प्रश्न यह है कि उसके विश्वव्यापित्व को परीक्षा किन सिद्धान्तों के आधार पर की जाय । भिन्न भिन्न विद्वान् भिन्न भिन्न प्रकार से इस कसौटी पर धमों की जांच करते हैं, अभी तक कोई भी इस प्रकार की निश्चित कसौटी नहीं बना सका है कि जिस पर भी सब धर्मों की जाँच करके उनकी उत्कृष्टता अथवा निकृष्टता की 'जाँच कर ली जाय ।
हमारे ख्याल से जो धर्म सामाजिक करते हुए व्यक्ति को ध्यात्मिक उन्नति के वही धर्म विश्वव्यापी भी हो सकता है। विद्रोह, व्यभिचार आदि जितनी भी बातें नष्ट करने वाली हैं उनको मिटा कर जो धर्म, दया, नम्रता, बन्धुप्रेम और ब्रह्मचर्य्यं की उच्च शिक्षाएँ देकर सामाजिक शान्ति को
शान्ति की पूर्ण रक्षा मार्ग में ले जाता है, हिंसा, क्रूरता, बन्धुसामाजिक शान्ति को
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भगवान् महावार धुजन
अटल बनाए रखता है, वही धर्म व्यक्ति को, जाति को, देश को और विश्व को लाभदायी हो सकता है ।
लेकिन इसमें एक बड़ी भयंकर अनिवार्य्यं वाघा उपस्थित होती है । यह बाधा मनुष्य प्रकृति के कारण समाज मे उत्पन्न होती है, प्रत्येक मानसशाख-वेत्ता इस बात को भली प्रकार जानता है कि मनुष्य प्रकृतिदोष और गुणों की समप्टि है। जहां उसमे अनेक देवोचित गुणो का समावेश रहता है, वहाँ अनेक असुरोचितदोष भी उसमें विद्यमान रहते हैं । मनुष्य प्रकृति की यह कमजोरी इतनी अटल और अनिवार्य है कि ससार का कोई भी धर्म किसी भी समय में समष्टिरूप से इस कमजोरी को न मिटा सका और न भविष्य ही में उसके मिटने की आशा है । यह कभी हो नही सकता कि सृष्टि से ये क्रूर और घातक प्रवृत्तियाँ बिल्कुल नष्ट हो जायँ । प्रकृति के अन्तर्गत हमेशा से ये रही हैं और रहेगी । विरुद्ध प्रकृतियों की इसी समष्टि के कारण प्राणी वर्ग में और मनुष्य जाति मे नित्यप्रति जीवन कलह के दृश्य देखे जाते हैं ।
अतएव यह आशां तो व्यर्थ है कि कोई धर्म इन कुप्रवृत्तियों का नाश कर विश्व व्यापी शान्ति का प्रसार करने में सफल होगा । हाँ इतना अवश्य हो सकता है—यह बात मानना सम्भव भी है। कि प्रयत्न करने पर मनुष्य समाज मे कुप्रवृत्तियो की संख्या कम और सत्प्रवृत्तियों की संख्या अधिक हो सकती है । अतः निश्चय हुआ कि जो धर्म मनुष्य की सत्प्रवृत्तियों का विकास करके सामाजिक शान्ति की रक्षा करता हुआ मनुष्य जाति को आत्मिक उन्नति का मार्ग बतलाता है वही धर्म श्रेष्ठ गिना जा सकता है ।
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इसी कसौटी पर हम जैन-धर्म को भी जाँचना चाहते है । जैन-धर्म के अन्तर्गत प्रत्येक गृहस्थ के लिये अहिंसा, सत्य, आचार्य, ब्रह्मचर्य, और परिग्रह परिमाण इन पाँच अणुव्रतों की योजना की गई है, अणुनत अर्थात् स्थूल व्रत जैनाचार्य इस बात को भली प्रकार जानते थे कि साधारण मनुष्य-प्रकृति इन बातों का सूक्ष्म रूप से पालन करने में असमर्थ होगी और इसीलिये उन्होंने इनके स्थल स्वरूप का पालन करने ही की आज्ञा गृहस्थो को दी है। हां, यह अवश्य है कि सांसारिकपन में गृहस्थ इनका धीरे धीरे विकास करता रहे और जब वह सन्यस्ताश्रम में प्रविष्ट हो जाय तब इनका सूक्ष्म रूप से पालन करे, उस समय मनुष्य ससार से सम्बन्ध ,न होने के कारण कुछ मानवातीत (Super human) भी हो जाता है, और इस प्रकार के वृत्तों से वह अपनो आत्मिक उन्नति कर सकता है।
यदि जैन-धर्म के कथनानुसार समाज में समष्टि रूप से इन पाँच वृनों का स्थूल रूप से पालन होने लगे, यदि प्रत्येक मनुष्य अहिंमा के सौन्दर्य को, सत्य के पावित्र्य को, ब्रह्मचर्य के तेज को और सादगी के महत्व को समझने लग जाय तो फिर दावे के माथ यह बात कहने में कोई आपत्ति नही रह जाती कि समाज में स्थायी शान्ति का उद्रेक हो सकता है।
जगन् के अन्तर्गत अशान्ति और कलह के जितने भी दृश्य दृष्टि गोचर होते रहते हैं। प्रायः वे सब इन्ही पाँच घृतों की कमी के कारण होते हैं । अहिंसक प्रवृत्ति के अभाव ही के कारण संसार में हत्या के, क्रूरता के पाशविकता के दृश्य देखे जाते हैं, सत्य को कमी ही के कारण धोखेवानी और वेइमानी एवं बन्धु
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न्टेज विद्रोह के हजारो और लाखों दृश्य न्यायालयों के रङ्ग मञ्चों पर अमिनीत होते हैं। ब्रह्मचर्य के अभाव के कारण संसार में अनाचार, व्यभिचार और वलहीनता के दृश्य देखने को मिलते है, और सादगी के विरुद्ध विलासप्रियता के आधिक्य ही के कारण नाना प्रकार के विलास मन्दिरों में मनुष्य जाति का अधःपात होता है।
यद्यपि यह वात निर्विवाद है कि लाख प्रयत्न करने पर भी मनुष्य जाति की ये कमजोरियाँ विल्कुल नष्ट नहीं हो सकती तथापि यह निश्चय है कि इन सिद्धान्तों के प्रचार से मनुष्य जाति के अन्तर्गत बहुत साम्यता स्थापित हो मकती है। जितना ही ज्यादा समाज में इन सिद्धान्तो का प्रचार होता जायगा, उतनी ही समाज की शान्ति बढ़ती जायगी। इस दृष्टि से इस कसोटी पर यदि जाँचा जाय तव तो जैन-धर्म के विश्वव्यापित्र मे कोई सन्देह नहीं रह सकता।
अव रही व्यक्ति के आत्मिक उद्धार की वात। इस विषय मे तो जैन-धर्म पूर्णता को पहुँचा हुआ है। आत्मिक उद्धार के अनेक व्यवहारिक सिद्धान्त इसमें पाये जाते हैं । खयं बुद्धदेव ने जैनियों के तपस्या सम्बन्धी इस बात को बहुत पसन्द किया था। "मज्झिमनिकाय" नामक बौद्ध ग्रन्थ में एक स्थान पर बुद्धदेव कहते हैं :
"हे महानाम! मैं एक समय राजगृह नगर मे गृद्धकूट नामक पर्वत पर विहार कर रहा था। उसी समय ऋषिगिरि के समीप कालशिला पर बहुत से निग्रन्थ मुनि आसन छोड़ कर उपक्रम कर रहे थे वे लोग तीन तपस्या में प्रवृत्ति थे। मैं सास
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भगवान महावीर लाल को उनके पास गया और कहा, अहो निम्रन्थ । तुम क्यों ऐसी घोर वेदना को सहन करते हो? तप वे बोले-अहो, निर्मन्य ज्ञानपुत्र सर्वज्ञ और सर्वदेशी हैं। वे अशेष ज्ञान
और दर्शन के ज्ञाता हैं, हमें चलते, फिरते, सोते, बैठते हमेंशा उनका ध्यान रहता है । उनका उपदेश है फि"हे निम्रन्थों! तुमने पूर्व जन्म में जो पाप किये है इस जन्म में लिप कर तपस्या द्वारा उनको निर्जरा कर डालो, मन वचन काय की संपत्ति से नवीन पापों का आगमन रुक जाता है और तपस्या से पुराने कर्मों का नाश हो जाता है। कर्म के क्षय से दुःखों का क्षय होता है। दुःख क्षय से वेदना क्षय और वेदना क्षय ने सब दुखों की निर्जरा हो जाती है"। बुद्ध कहते हैंनिप्रेन्यों का यह कयन हमें रुचिकर प्रतीत होता है और हमारे मन को ठोक जचता है।"
इससे मालूम होता है कि जैनों की मुनिति महात्मा बुद को भी बड़ी पसन्द हुई थी। इस प्रकार गृहस्थ धर्म में उपरोक्त पांच नियमों का पालन करता हुभा गृहस्थ शान्तिपूर्वक अपने' जीवन का विकास कर सकता है और उसके पश्चात् योग्य वय में मुनिवृत्ति प्रहण कर वह पात्मिक उन्नति भी कर सकता है।
कुछ विद्वान जैन अहिंसा पर कई प्रकार के आक्षेप कर उसे राष्ट्रीय धर्म के अयोग्य बतलाते हैं, पर यह उनका भ्रम है, उनके आक्षेपों का उत्तर इस खण्ड के पहले अध्यायों को पढ़ने से आप ही आप हो जायगा ।
इससे यह स्पष्ट सिद्ध हो जाता है कि जैन-धर्म अपने वास्तविक रूप में निस्संदेह विश्वव्यापी धर्म हो सकता है।
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ऐतिहासिक साहित्य का चमकता हुआ रत्न
भारत के हिन्दू सम्राट लेखक-श्री चन्द्रराज भण्डारी "विशारद"
भूमिका लेखक:राय बहादुर पं० गौरीशङ्कर हीराचन्द ओझा। यदि आप-हिन्दू साम्राज्य के स्वर्ण-युग का लालत दर्शन
किया चाहते हैं। यदि आप-प्राचीन भारत को गौरव पूर्ण सभ्यता का अध्ययन
करना चाहते हैं। यदि आप-अतीत भारत के हिन्दू सम्राटों का प्रमाण पूर्ण
इतिहास जानना चाहते हैं। यदि आप जानना चाहते हैं कि साम्राज्य क्यों विखर
जाते हैं ? जातियां क्यों नष्ट हो जाती हैं, देश क्यों गुलाम हो जाते हैं और सिंहासन क्यों उलट जाते,
औरआप-इतिहास शास्त्र के साथ ही साथ राजनीति शास्त्र,
समाज शास्त्र, मनोविज्ञान और दैशिक शास्त्र के
गम्भीर तत्वों से परिचय करना चाहते हैं, तोआज ही एक पोस्टकार्ड डाल कर इस अपूर्व पुस्तक को अवश्य मँगवा लीजिए। मूल्याकेवल ) राजसंस्करण का २॥ शान्ति मंदिर
साहित्य-निकुञ्ज भानपुरा
भानपुरा 1, (होलकर-राज्य)
(होलकर-राज्य)
MANOMANIAMARRIMnkanwa-MAKotakKAMAMINORAMINAKAMANA-NAMASKAR
हैं।
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ܟܕܟܕܟܕܬܦܬܟܕܟ
परिशिष्ट खण्ड
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१६ परिशिष्ट खंड
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4.2
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भगवान महावीर का संक्षिप्त जीवन चरित हम पाठकों के
सामने रख चुके । इस जीवन चरित्र को पढ़ कर
- प्रत्येक निष्पक्षपात पाठक फिर चाहे वह जैन हो चाहे अजैन, भली प्रकार समझ सकता है कि भगवान महावीर के जीवन का एक एक अन कितना महत्वपूर्ण है। उनके जीवन की एक एक घटना कितना गहन अर्थ रखती है। जो लोग जीवन के गम्भीर रहस्यों की उलझनों को सुलझाना चाहते हैं, जो लोग अपनी आत्मा का विकास करने के इच्छुक हैं, एवं जो लोग प्रकृति के अज्ञेय तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त करने के जिज्ञासु हैं उन लोगों को अपने मंजिलेमकसूद पर पहुँचने में महावीर के जीवन से बहुत कुछ सहायता मिल सकती है।
ससार के इतिहास में जिन बड़ी २ आत्माओं ने जगतकल्याण की वेदी पर अपने सर्वख का बलिदान कर दिया है,जिना महान् आत्माओं ने अपने मात्म-कल्याण के साथ साथ मनुष्य जाति के कल्याण का प्रयत्न किया है, उनमें महावीर को भी बहुत उस स्थान प्राप्त है। महावीर केवल अपने ही जीवन को दिव्य
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भगवान महावीर
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"और उज्ज्वल बना कर नहीं रह गये, उन्होंने संसार को उस दिव्य-तत्त्व का-उस उदार मत का सन्देश दिया जिसके अनुसार चलकर एक हीन से हीन व्यक्ति भी अपना कल्याण कर सकता है। मनुष्य जाति के सम्मुख उन्होंने ऐसे दिव्य और कल्याणकर मार्ग को रक्खा जिससे संसार में स्थायी शान्ति की स्थापना की जा सकती है।
लेकिन आज यदि हम भगवान महावीर के अनुयायी जैन समाज की स्थिति को देखते हैं, यदि आज हम उसके द्वारा होने वाले कर्मों का अवलोकन करते हैं तो उसमें हमें एक भयङ्कर विपरीतता दृष्टि गोचर होती है। हाय, कहां तो भगवान महावीर का उन्नत, उदार और दिव्य उपदेश और कहां आधुनिक जैन समाज !!
जिन महावीर का उपदेश आकाश से भी अधिक उदार और सागर से भी अधिक गम्भीर था उन्ही का, अनुयारी जैन समाज आज कितनी सङ्कीर्णता के दल दल में फंस रहा है, जो "वर्द्धमान" अपने अलौकिक वीरत्त्व के कारण "महावीर" कहलाएँ उन्हीं महावीर की सन्तान आज परलेसिरे की कायर हो रही हैं, जिन महावीर ने प्रेम और मनुष्यत्व का उदार सन्देश मनुष्य जाति को दिया था उन्ही की सन्ताने आज आपस में ही लड़ झगड़ कर दुनियाँ के परदे से अपने अस्तित्व को समेटने की तैयारियाँ कर रही हैं। कहां तो महावीर का वह दिव्य उपदेश
सब्वे पाणा विया उया, सुहसाया, दुवख पढ़िकूला भाप्यियवहा । पिय जीविणो, जीविकामा सम्वेसि जीवियं पियं ।
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A
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भगवान महावीर और कहाँ हमारी जैन समाज की आधुनिक कलह प्रियता। किसी ममय में जहाँ संसार के अन्तर्गत जैन-धर्म की दुन्दुभि बजती थी वहाँ 'प्राज हमारा समाज संसार की निगाह में हास्यास्पद हो रहा है।
इस विपरीतका के मुख्य कारणों को जब हम खोजते हैं तो कई अनेक कारणों के साथ रहमें यह भी मालूम होता है कि जैन साहित्य में विकृति उत्पन्न होना भी इस दुर्गति का मूल कारण है। जैन साहित्य में यह विकृति किस प्रकार उत्पन्न हुई इसके कुछ कारण उपस्थित करने का हम प्रयत्न करते हैं।
दीर्घ तपस्वी महावीर और बुद्ध दोनों समकालीन थे। दोनों ही महापुरुप निर्वाणवादी थे। दोनों एक ही लक्ष्य के अनुगामी थे। पर दोनों के पथ भिन्न २ थे दोनों के लक्ष्यसाधन संबंधी तरीके भिन्न २ थे । बुद्ध मध्यम मार्ग के उपासक थे। महावीर तीन मार्ग के अनुयायी थे। बुद्ध ने अपने मार्ग की व्यवस्था में लोकचि को पहला स्थान दिया था, पर महावीर ने लोकरुचि की विशेष परवाह न की । उन्होंने कभी इस बात का दुराग्रह न किया कि "जो मैं कहता हूँ वदी सत्य है शेप सब झूठे हैं।" वे इस बात को जानते थे कि एक ही लक्ष्य की सिद्धि के लिये कई प्रकार के साधन होते हैं इससे साधन भेद में विरोध करना व्यर्थ है। यहाँ तक कि मनके समसामयिक अनुयायियों का लक्ष्य एक होते हुए भी सेवा के मार्ग जुदे जुदे थे। कोई मुमुक्ष निराहाग रहकर अपनी तपस्या को उत्कृष्ट करने का पयन करता था, तो कोई आहार भी करता, कोई विलकुल दिगम्बर होकर विचरण करता था, तो कोई सवस्त्र भी रहता था। कोई
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४१४. स्वाध्यायी था, कोई विनयी था और कोई ध्यानी। मतलब यह कि किसी पर किसी प्रकार का अनुचित बन्धन न था। उनके अनुयायी वर्ग का सिद्धान्त था कि "धर्मो मङ्गल मुक्ट्रिं अहिंसा संजमोतनो" अर्थात् अहिंसा, संयम और तपरूपधर्म उत्कृष्ट मङ्गल है। इस सिद्धान्त में कहीं भी एक देशीयता की गंध न थी। इन सब बातों पर से हम भगवान महावीर को जीवन दशा, उनके समय की परिस्थिति और उनके ध्येय से परिचित हो सकते हैं।
जिस समय भगवान महावीर भारतवर्ष में अपना कल्याणकारी उपदेश दे रहे थे उस समय अर्थात् आज से ढाई हजार वर्ष पहले आज की तरह उपदेश का प्रचार करने के इतने साधन न थे। लेखनकला तो उस समय भी प्रचलित थी पर उसका उपयोग केवल व्यवहारिक कामों में ही होता था। मुमुक्ष जन भगवान महावीर के पास उपदेश श्रवण करने जाते थे, वहां जो कुछ वे सुनते उनमें से मुख्य २ बातें मन्त्र की तरह हृदयगम कर लेते थे।
भगवान महावीर के मुख्य शिष्यों ने अपने अनुयाईयो को 'सिखाने के लिये उनके मुख्य २ उपदेशों को संक्षेप में कंठान कर रक्खे थे। जिस समय आवश्यकता होती उस समय, "भगवान महावीर ने ऐसा कहा है या वर्धमान् के पास से हमने ऐसा सुना है" इस प्रकार के प्रारम्भ से वे अपने उपदेश अथवा व्याख्यान को देते थे। ये सब उपदेश उस समय की सरल लोक भाषा में :(मागधी मिश्रित प्राकृतभाषा में) होने से 'आबाल-वृद्ध सबको समझने में सुगम और सुलम होते थे।
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भगवान् महावीर
सब लोग इन उपदेशों को अपनी २ शक्ति के अनुसार कंठस्थ कर रखते थे। वर्तमान में हम जिसको "एकादशाङ्ग सूत्र” कहते हैं उसका मूल यही उपदेश थे। समय के प्रवाह में पड़ कर उन मूल उपदेशों में और आज के एकादशाङ्ग सूत्र में बहुत अन्तर पड़ गया है । यह निश्चित है कि, भगवान् महावीर के इन उपदेशात्मक वाक्य समूह को उनके शिष्य अपनी आत्म जागृति के लिये ज्यों के त्यों कंठस्थ रखते थे । ये उपदेश बहुत सक्षिप्त शक्यों में होने से ही सूत्र नाम से प्रसिद्ध हुए और इसी कारण वर्तमान के उपलब्ध विस्तृत सूत्र भी इसी नाम से प्रसिद्ध हो रहे हैं। जो सूत्र शब्द गणधर भगवान् के समय में अपने वास्तविक अर्थ को ( "सूचनात् सूत्रम्" ) चरितार्थ करता था वही सूत्र शब्द आज संप्रदायिक रूढ़ी के वश में होकर हजारों लाखों लोक अपने भाव में समाने लग गया है ।
यह कहने की आवश्यकता नहीं कि, जहाँ तक गणधरों के पश्चात् उनके शिष्यों ने इन संक्षिप्त सूत्रों को कण्ठस्थ रक्खे थे वहाँ तक उनकी अर्धमागधी भाषा में जरा भी परिवर्तन नहीं हुआ होगा । पर जब उन सूत्रों का शिष्यपरंपरा में प्रचार होने लगा और वह शिष्यपरंपरा भिन्न २ देशों में विहार करने लगी तभी सम्भव है कि, सूत्रों की मूलभाषा भिन्न २ देशो की भाषा के संसर्ग से परिवर्तन पाने लगी होगी ।
इसके अतिरिक्त प्रकृति के भयङ्कर प्रकोप से भी हमारे साहित्य को बड़ा भारी नुकसान पहुँचा । श्री हेमचन्द्राचार्य अपने परिशिष्ट-पर्व में लिखते हैं कि भगवान् महावीर की दूसरी शताब्दि में जब कि, आर्य श्री स्थूल-भद्र विद्यमान थे उस समय देश में
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भगवान् महावीर
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एक साथ महा भीषण बारह दुष्काल पड़े। उस समय साधुओं का सङ्ग अपने निर्वाह के लिये समुद्र के समीपवर्ती प्रदेश में गया। वहाँ साधु लोग अपने निर्वाह की पीड़ा के कारण कण्ठस्थ रहे हुए शास्त्रो को गिन न सकते थे इस कारण वे शास्त्र भूलने लगे।
इस कारण अन्न के दुष्काल का असर हमारे शास्त्रों पर भी पड़ा जिससे एक अकाल पीड़ित मानव की तरह शास्त्रों की भी गति हुई । जब यह भीपण दुष्काल मिट गया तव पाटलीपुत्र में सोर-सन की एक सभा हुई। उसमें जिस २ को जोजो स्मरण था वह इकट्ठा किया गया । ग्यारह अंगों का अनुसंधान तो हुआ पर "दृष्टिवाद" नामक वारहवाँ अङ्ग तो विलकुल नष्ट हो गया। क्योकि उस समय अकेले भद्रबाहु ही दृष्टिवाद के अभ्यासी थे।
इससे मालूम होता है कि महावीर की दूसरी शताब्दि से ही शास्त्रों की भाषा एवं भावो में परिवर्तन होना प्रारम्भ हो गया। हमारे दुर्भाग्य से यह प्रारम्भ इतने ही पर न रुका बल्कि उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया। प्रकृति के भीषण कोप से वीर निर्वाण की पांचवी और छठी शताव्दि में अर्थात् श्री स्कंदिलाचार्य और वज्रस्वामी के समय में उसी प्रकार के वारह भीपण दुष्काल इस देश पर और पड़े। इनका वर्णन इस प्रकार किया गया है। "बारह वर्षे का भीषण दुष्काल पड़ा, साधु अन्न के लिये भिन्न स्थानों पर बिखर गये जिससे श्रुत काग्रहण, मनन, और चिन्तनन हो सका । नतीजा यह हुआ कि शास्त्रों को बहुत हानि पहुँची। जब प्रकृति का कोप शान्त हुआ, देश में
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भगवान् महावीर
सुकाल और शान्ति का प्रार्दुभाव हुआ तब मथुरा मे श्रीकदि. लाचार्य के सभापतित्व के अंतर्गत पुनः साधुओं की एक महा-सभा हुई। उसमे जिन २ को जो स्मरण था वह संग्रह किया गया ।
इस दुष्काल ने हमारे शास्त्रों को और भी ज्यादा धका पहुँचाया । उपरोक्त शास्त्रोद्धार शूरसेन देश की प्रधान नगरी मथुरा में होने के कारण उसमे शौरसेनी भाषा का वहुत मिश्रण हो गया। इसके अतिरिक्त कई भिन्न २ प्रकार के पाठान्तर भी इसमें बढ़ने लगे।
इन दो भयकर विपत्तियों को पैदा करके ही प्रकृति का कोप शांत नहीं हो गया। उसने और भी अधिक निष्ठुरता के साथ वीर निर्वाण की दसवीं शताब्दी में इस दुर्भागे देश के ऊपर अपना चक्र चलाया। फिर भयङ्कर दुष्काल पड़ा और इस दफे तो कई वहुतों का अवसान होने के साथ २ पहिले के जीर्ण शीर्ण रहे हुए शान भी छिन्न भिन्न हो गये। उस स्थिति को बतलाते हुए 'सामाचारिशतक' नामक ग्रंथ मे लिखा है कि, वोर सम्वत् ९८० में भयङ्कर दुष्काल के कारण कई साधुओ और वहुश्रुतों का विच्छेद हो गया तब श्री देवर्धिगणी क्षमाश्रमण ने शाख-भक्ति से प्रेरित होकर भावी प्रजा के उपकार के लिये श्रीसंघ के आग्रह से बचे हुए सब साधुओं को वल्लाभिपुर मे इकट्ठे किये और उनके मुख से स्मरण रहे हुए थोड़े बहुत शुद्ध और अशुद्ध आगम के पाठों को सङ्गठित कर पुस्तकारूढ़ किये । इस प्रकार सूत्र-ग्रन्थों के मूलका गणधर खामी के होने पर भी उनका पुनःसकलन करने के कारण सब आगमो के कर्ता श्री देवर्षिगरिपक्षमा श्रमण ही कहलाते हैं।
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उपरोक्त विवेचन के पढ़ने से पाठक भली प्रकार समझ सकते हैं कि, गणधरों के कहे हुए सूत्रों के ऊपर समय की कितनी भयङ्कर चोटें लगी। जिस साहित्य के उपर प्रकृति की ओर से इतना भीषण प्रकोप ,हो वह साहित्य परंपरा में जैसा का तैसा चला आये यह बात किसी भी बुद्धिमान के मास्तिष्क को स्वीकार नहीं हो सकती। जो साहित्य आज हम लोगों के पास में विद्यमान है वह दुष्कालो के भीषण प्रहारों के कारण एवं काल रुदि, स्पो आदि अनेक कारणो से बहुत विकृत हो गया है।
जैन-दर्शन नित्यानित्य वस्तुवाद का प्रतिपादन करना है। उसकी दृष्टि से वस्तु का मूल तत्त्व तो हमेशा कायम रहता है पर उसकी पर्याय में परिस्थिति के अनुसार परिवर्तन हुआ करते हैं। समय समय पर होने वाले ये परिवर्तन बिलकुल स्वाभाविक
और उपयोगी भी होते हैं । जैन-दर्शन में यह सिद्धान्त सर्वव्यापी होने ही से उसका नाम अनेकान्त दर्शन पड़ा है। उसका यह सिद्धान्त प्रकृति के सर्वथा अनुकूल भी है। प्रकृति की रचना ही इस प्रकार की है कि वन के समान कठोर और घन पदार्थ भी संयोग पाकर-परिस्थितियों के फेर में पड़कर-मोम के समान मुलायम हो जाता है और मोम की मानिन्द मुलायम पदार्थ भी कभी २ अत्यन्त कठोर हो जाता है। ये बातें बिलकुल स्वाभाविक हैं, अनुभव प्रतीत हैं। ऐसी दशा में भगवान महावीर के समय का धार्मिक रूप इतनी कठिन परिस्थितियों के फेर में पड़कर परिवर्तित हो जाय तो कोई आश्चर्य की बात नही। यह परिवर्तन तो प्रकृति का सनातन नियम है ।
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भगवान् महावीर ।
पर प्रकृति के ये परिवर्तन दो प्रकार के होते हैं। एक परिवर्तन विकास कहलाता है और दूसरा विकार ।
पहले परिवर्तन से देश, जाति और धर्म की क्रमागत उन्नति होती है और दूसरे परिवर्तन से सनका क्रमागत हास होता जाता है। कोई भी धर्म फिर वह चाहे जिस देश और काल का क्यों न हो, कभी कलह का पोपक नहीं हो सकता। कभी वह प्रजा के विकास में वाधक नहीं हो सकता, पर जब उसमें विकार की उत्पत्ति हो जाती है जब उसमें प्रकृति का दूसरी प्रकार का परिवर्तन हो जाता है जब वह समय चक्र में पड़कर वास्त विकता से भ्रष्ट हो जाता है तब उससे उपरोक्त सब प्रकार की हानियों का होना प्रारम्भ हो जाता है। उस समय उसके अग्रगण्य धार्मिक नेता धर्म का नाम दे देकर समाज में कलह का बीज बोते हैं, वे प्रजा की ताकत को घटानेवाले और युवकों को अकर्मण्य वनानेवाले उपदेशों को धर्म का रूप देदेकर प्रतिपादित करते हैं।
आधुनिक जैन साहित्य में समयानुसार उपरोक्त दोनों ही प्रकार के परिवर्तन हुए हैं। उसका तत्त्वज्ञान जहाँ दिन प्रतिदिन विकास करता याया है वहाँ उसके पौराणिक और आचारसम्बन्धी विभागों में विकार का कीड़ा भी घुस गया है। एक
ओर तो विकसित तत्त्वज्ञान का रूप देखकर सारा संसार जैन धर्म की ओर आकर्षित होता है और दूसरी ओर विकार युक्त आचार शाख और पौराणिकता के प्रभाव में पड़ कर हम और हमारा समाज वास्तविकता से बहुत दूर चला जा रहा है। अव प्रश्न यह होता है कि, यह विकार कब से शुरू हुआ और उस किसने पैदा किया। '
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४२० शुद्ध-सत्य एक ऐसा रसायन है कि जिसे मनुष्य जाति नहीं पचा सकती। जिस प्रकार विजली का तेज प्रकाश तीक्ष्ण दृष्टि वाले मनुष्य की आँखों में भी चकाचौंधी पैदा करता है उसी प्रकार शुद्ध-सत्य का उपदेश लौकिक मनुष्य की दृष्टि को भी चौंधिया देता है। शुद्ध-सत्य की दृष्टि में पुण्य और पाप की तह नहीं ठहरती । उसके सामने सारासार का विचार नहीं ठहरता, उसकी दृष्टि मे जाति और अजाति का कोई विचार नहीं । उसके सम्मुख एक मात्र स्वास्थ्य-सिद्धवैद्यस्वास्थ्य ही टिकारह सकता है। निर्मल सत्य यद्यपि पिशाच के समान रुक्ष और भयकर मालूम होता है तथापि शांति की सुन्दर तरंगिणी का मूल उद्गम-स्थान वही है । विकास की पराकाष्ठा पर पहुँचनेवाली आत्माए उसी की खोज में अपनी सब शक्तियों को लगा देती हैं। ससार के सभी महापुरुषो ने उसको खोजने का प्रयत्न किया है पर अनिवचनीय और अज्ञेय होने के कारण उसे उसके वास्तविक रूप में कोई भी कहने में समर्थ नहीं हुआ। ___ मनुष्य, जन्म से ही कृत्रिम सत्यो के संसर्ग में रहता है । इसी कारण उसके पास निर्मल सत्य का उपदेश नहीं पहुँच सकता। इसी एक कारण से वह अनन्त काल से छिपा हुआ है और भविष्य में भी छिपा रहेगा, पर वही सबका अन्तिम ध्येय है इस कारण तमाम लोग उसकी उपासना करते हैं। सांसारिक व्यवहार में निपुणता प्राप्त करने के लिये जिस प्रकार प्रारम्भ में कृत्रिम साधन और कृत्रिम व्यवहारों का उपयोग किया जाता है उसी प्रकार इस परम सत्य को प्राप्त करने के लिये भी कृत्रिम सत्य और कल्पित व्यवहारों की
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योजना की गई है। इस कृत्रिम सत्य में समय के अनुमारसमाज के अनुसार और परिस्थिति के अनुसार अनेक इष्ट और अनिष्ट परिवतन होनरहते हैं। परन्तु जय इन परिवर्तनों के ममनने में उपदेशक और उपासक भूल करते है-प्राग्रह करते हैं थोर अपना प्राधिपन्य चलाने के लिये परिस्थिति को भी अवहलना फर ढालन नय उन मष्ट परिवर्तनों में अनिष्ट का प्रवेश हो जाता है और फिर भविष्य की संतानें इन प्रनिष्ट परिवर्तनों को और भी पुष्ट करती हैं। यह उनको शास्त्र के अन्दर मिला कर अथवा अपन यडी का नाम देकर उन्हें और भी मजबूत करने की कोशिश करती है। जब ममाज बहुत ममय तक इमो पनिष्ट परिवर्तन को स्वीकार फर चलता रहता है तो भविष्य में जाकर यही परिवर्तन उसके धर्म निद्धान्त और कर्तव्य के रूप में परिवर्तिन। जाते हैं। पुमका फल यह होता है कि समाज में नानि की जगह लेग-उत्साह की जगह प्रमाद-अमीरी की
जगह गरीयों और आजादी को जगह गुलामी का आविर्भाव • हो जाता है।
मी प्रकार का परिवर्तन हमार जैन साहित्य में हुआ है और बड़े ही भीषण रूप में हुआ है। इसका सब ने भयकर परिणाम यह हुआ है फि जैन समाज में श्वेताम्बर, दिगम्बर, म्यानकवासी 'प्रादि अनेक मतमतान्तर जारी हो गये ये मत श्रापन में ही एक दूसरे के माय लडफर समाज की शक्ति, म्वतबना और सम्पत्ति का नाश कर रहे हैं। हम दावे के साथ इस घात की निर्मीकता-पूर्वक कह सकते हैं कि इन मतमतान्तरों का असली जैन-धर्म के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। लोगों ने स्वार्थ
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वासना और सङ्कीर्णता के वशीभूत होकर व्यर्थ में गई का पर्वत और तिलका ताड़ बना दिया है जिसके फल स्वरूप समाज में चारों ओर भयङ्कर अशान्ति, और दरिद्रता का दौर दौरा हो रहा है । इस स्थान पर हम यह बतलाने का प्रयत्न करेंगे कि श्वेताम्बर, दिगम्बर आदि सम्प्रदायों में कोई तात्विक महत्वपूर्ण भेद नहीं है। इनके बीच में होने वाले झगड़े भीगी को छोड़ कर छिलके के लिए लडने वाले मनुप्यो से अधिक अर्थ नहीं रखते।
श्वेताम्बर और दिगम्बरबाद श्वेताम्बर और दिगम्बर ये दोनों शब्द जैन समाज के गृहस्थों के साथ तो विल्कुल ही सम्बन्ध नहीं रखते । गृहस्थों में एक भी स्पष्ट चिन्ह ऐसा नहीं पाया जाता जो उनके श्वेताम्वरत्व अथवा दिगम्वरत्व को सूचित करता हो । अतएव ये दोनों शब्द गृहस्थों के लिए तो कुछ भी विशेष अर्थ नहीं रखते । इससे यह सिद्ध होता है कि चाहे जब इन शब्दों की उत्पत्ति हुई हो पर इस उत्पत्ति का मूल कारण हमारे धर्म गुरु ही थे । श्वेताम्बर और दिगम्बर सज्ञा का सम्बन्ध केवल साधुओं ही के साथ है।
श्वेताम्बर सूत्र कहते हैं कि वस्र और पात्र रखना ही चाहिए। इसके सिवा निर्बल, सुकुमार और रोगियों के लिए संयम दुसाध्य है। यदि साधुओ को वस्त्र न रखने का नियम हो तो कड़कड़ाते जाड़े में असहनशील साधुओं की क्या गति हो? अग्नि सुलगा कर तापने से जीवहिंसा होती है और वख रखने में उतनी हिंसा नहीं होती। इसके सिवाय साधुओं को जङ्गल मे
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भगवान महावीर
रहना पड़ता है वहाँ डॉस, मच्छर वगैरह जीवों का उपद्रव विशेष सम्भव है. इसलिए जो साधु इन कष्टों को सहन न कर सके वह किम प्रकार संयम का पालन कर सकता है। अतिरिक्त इसके जो माधु लज्जा को नहीं जीत सकता उसके लिए भी वहा की आवश्यक्ता होती है। हॉ. लज्जा को जीतने के पश्चात् अथवा संयम पालन करने की शक्ति हुए पश्चात् वह चाहे तो पान और वख रहित रह सकता है।
विक्रम की सातवीं और पाठवीं शताब्दी तक तो साधु लोग सकारण ही वस्त्र रसते थे। वह भी केवल एक पटिवत्र । यदि कोई साधु कटिवस्त्र भी अकारण पहनता तो कुसाधु सममा जाताया। श्री हरिभद्र सूरि 'सम्बोधन प्रकरण में लिसंत है:
"कीयो न कुणइ रोय, एनई पदिमाइ जलमुवणेद । सौगाहणोय हिंद यंधर करि पत्य मकने ॥
अर्थात्-सीव-दुर्बल साधु लोच नहीं करते, प्रतिमा को बहन करने में लजित होते है, शरीर का मैल खोलते हैं और निराकारण ही कटिवस्त्र को धारण करते हैं।
इसमे मारम होता है कि उस समय में साधु वल एक कटिवन्न रसते थे। इस सम्बन्ध में आचाराङ्ग सूत्र में कहा
गया है।
(१) जो मुनि अचेल (वसहित) रहते हैं उनको यह चिन्ता नहीं रहती कि मेरे वस्त्र फट गये है दूसरा वस्त्र मांगना पंगा, अथवा उसको जोड़ना पड़ेगा, सीना पड़ेगा, आदि (३६०)
(२) वस रहित रहने वाले मुनियों को घार २ कांटे लगते हैं, उनके शरीर को जाड़े का, ढांसों का, मच्छरों का आदि
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भगवान् महावार
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या
कई प्रकार के परीपह सहन करना पड़ते हैं जिससे शीघ्र ही तप की प्राप्ति होती है । ( ३६१ )
(३) इसलिए जिस प्रकार भगवान् ने कहा है उसी प्रकार जैसे वने वैसे सब स्थानों पर समताभाव धारण करना चाहिए । ( ३६२ )
।
'आचाराङ्ग सूत्र' के इन उलेखो से मालूम होता है कि समर्थ और सहन शोल मुनि बिल्कुल नग्न रहते और भगवान् की वतलाई हुई समता को यथा शक्ति समझने का प्रयत्न करते थे । इस सूत्र में ऐसा यही नहीं पर और भी कई उल्लेख हैं । उसके दूसरे " वस्त्रैपणा" नामक भाग के एक प्रकरण मे मुनियों को वस्त्र कैसे और कब लेना चाहिए इस विषय का क्रमवद्ध उल्लेख किया है इसके अतिरिक्त इस सूत्र में वत्र रखने का कारण वतलाते हुए लिखा है कि-
•
" जो साधु वखरहित हो और उसे यह मालूम होता हो कि मैं घास तथा कांटो का उपसर्ग सहन कर सकता हूँ, डांस और मच्छरो के परीषद को भी भुगत सकता हूँ पर लज्जा को नहीं जीत सकता तो उसे एक कटिवस्त्र धारण करलेना चाहिए ।" (४३३) 'यदि वह लज्जा को जीत सकता हो तो उसे अचेल (नग्न) ही रहना चाहिए । अचेल अवस्था में रहते हुए यदि उसपर डांस, मच्छर, शीत, उष्ण आदि के उपद्रव हों तो शान्ति और समतापूर्वक उसे सहन करना चाहिए । ऐसा करने से अनुपाधिपन शीघ्र ही प्राप्त होता है और तप भी प्राप्त होता है । इसलिए जैसा भगवान् ने कहा है उसको समझ कर जैसे बने वैसे समभाव जानते रहना" ( ४३४ )
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भगवान् महावीर
गाइस प्रकार श्वेताम्बरो के प्रामाणिक प्रन्धों में कहीं भी ऐसा नहीं पाया जाता जहाँ पर वस्त्र और पात्र के लिए विशेष आग्रह किया गया हो या जहाँ पर यह कहा गया हो कि इनके विना मुक्ति ही नहीं, इनके विना संयम ही नहीं, अथवा इनके सिवा कल्याण ही नहीं। उनमे तो साफ २ बतलाया गया है कि जो साधु वस्त्र और पात्र रहित रहकर भी निर्दोप संयम पालन कर सकताहो उसके लिए वन और पात्र की कोई आवश्यकता नहीं । हाँ, जो इनके विना सयम का पालन न कर सकता हो वह यदि वन पात्र को रक्खे तो कोई वाधा नहीं। दोनों का ध्येय सयम है, दोनो का रहेश्य त्याग है और दोनों का मजिले मकसूद मोक्ष
है। वस्त्रपात्र रखनेवाले को वस्त्रपात्र का गुलाम बन कर न रहना __ चाहिए और इसी प्रकार नग्न रहनेवाले को भी नग्नता का दासत्व
न करना चाहिए। किसी भी प्रकार का एकान्त दुराग्रह न करते हुए आवश्यकताओं को कम करने का प्रयत्न करते रहना चाहिए । इसी प्रकार के मार्ग का भगवान् ने उपदेश दिया है और यही आर्य ग्रन्था में अंकित है।
हम समझते हैं कि यहाँ तक दिगम्बर ग्रन्थो को विशेष आक्षेप करने का अवकाश न मिलेगा। इसमें सन्देह नहीं कि उनमें बीमार पड़ने पर भी अथवा मृत्यु के मुख में पहुँचने तक भी साधु को वस्त्र, पात्र, धारण करने की आना नहीं है। सयम के उग्र-पोपक दिगम्बर ग्रन्थ खाने पीने की रियायत की तरह वख और पात्र की भी कुछ रियायत रखते तो ठीक था । अभ्यासी और उम्मेदवार मनुष्यों को एकदम इतने कठिन व्रत का पालन करना बहुत ही मुश्किल वल्कि असम्भव होता
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भगवान महावीर
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उपस्थित हुआ उसी समय वहाँ पर दो दल हो गये। एक ने तो समय की परिस्थिति के अनुकूल वस्त्र पहनने की व्यवस्था दी
और दूसरे ने परम्परा के वशीभूत होकर नग्न रहने की। ऐसे विवादग्रस्त समय में दीर्घदर्शी स्कंदिलाचार्य ने बड़ी ही बुद्धिमानी से काम लिया। उन्होंने न तो नन्नता का और न वस्त्र पात्रवादिता का ही समर्थन किया प्रत्युत दोनों के बीच उचित न्याय दिया। उन्होंने कही भी सूत्रों मे जिनकल्प, स्थविरकल्प श्वेताम्बर तथा दिगम्बर का उल्लेख नहीं किया। फिर भी उस समय प्रत्यक्ष रूप से समाज दो दलों में विभक्त हो ही गया। ___ उदार जैन-धर्म दो अनुदार दलों में विभक्त हो गया, एक पिता के पुत्र अपना २ हिस्सा बाँट कर अलग हो गये, पिता के घर के बीच में दीवाल वनाना प्रारम्भ हो गई। दोनो सम्प्रदाय महावीर को अपनी २ सम्पत्ति बनाकर झगड़ने लगे। अनेकान्तवाद और अपेक्षावाद के महान सिद्धान्त को भूल कर दोनों आपस में ही फाग खेलने लगे। एक दूसरे को परास्त करने के लिए दोनों ने वर्द्धमान का नाम देदे कर शाखों की भी रचना कर ली।
दोनो दल धार्मिकता के आवेश मे आकर इस बात को भूल गये कि मुक्ति का खास सम्बन्ध आत्मा और उसकी वृत्तियों के साथ है न कि नग्नता और वख पात्रता के साथ । ये दोनो पक्ष अपनी भावी सन्तानों को भी उसी मत पर चलने से मुक्ति मिलने का परवाना दे गये हैं। जिसके परिणम स्वरूप
आज को सन्ताने न्याय के रंगमंचों पर मुक्ति पाने की चेष्टाएँ कर रही हैं।
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भगवान् महावार
जो लोग समाज-शास्त्र के ज्ञाता हैं वे उन तत्वो को भली प्रकार जानते हैं, जिनके कारण जातियों और धर्मों का पतन होता है। किसी भी धर्म अथवा जाति के पतन का प्रारम्भ उसी दिन से आग्न्म होता है जिस दिन किसी न किसी छिद्र से उसके अन्तर्गत स्वार्थ का कीडा घुस जाता है-जिस दिन से लोगों को मनोवृत्तियों के अन्दर विकार उत्पन्न हो जाता है-जिस दिन से लोग व्यक्तिगत स्वार्थी के फेर में पड़ कर अपने जीवन की नैति. कता को नष्ट करना प्रारम्भ कर देते हैं।
युद्ध, महामारी, दुर्भिक्ष आदि बाहय आपत्तियों से भी धर्म और जानि का अध.पात होता है, विधर्मियों का प्रतिकार और विटेशियो के आक्रमण भी उसके विकास में वाधा अवश्य देते हैं पर उन उपद्रवों से किसी भी धर्म अथवा जाति के मूलतत्वों में वाधा नहीं पा सकती और जब तक उसके मूलतत्वों मे बाधा नहीं आती तब तक उसका वास्तविक अनिष्ट भी न हो सकता । जाति अथवा धर्म का वास्तविक अनिष्ट तभी हो सकता है जब उसके मूल आधारभूत तत्वो में किसी प्रकार की क्रान्ति किसी प्रकार की विशृद्धला उत्पन्न होती है। जव उसके अनुयायियों के दिल और दिमाग में किसी प्रकार का विकार उत्पन्न हो जाता है।
धर्म की सृष्टि ही इसलिए हुई है कि वह मनुष्य-प्रकृति के कारण उत्पन्न हुई अकल्याण कर भावनाओं से मनुष्य जाति की रत्ना करे। मनुष्य की स्वाभाविक दुष्प्रवृति के कारण समाज मे जो अनर्थ कारक घटनाएँ हुआ करती हैं उनसे व्यक्ति और समष्टि को सावधान करे और मनुष्य जाति को दुष्प्रवृत्तियों के
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भगवान् महावीर
७ g
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दमन की तथा सन्प्रवृत्तियो के विकास की शिक्षा दे । सभी धर्म
प्रायः इसी उद्देश्य को लेकर पैदा होते हैं
।
लेकिन हर एक धर्म
की यह स्थिति वही तक स्थिर रहती है जब तक समाज में दैवी सम्पद का आधिक्य रहता है, जब तक धर्म की बागडोर उन महान् पुरुषो के हाथ में रहती हैं जो हृदय से अपना और मनुष्य जाति का कल्याण करने के इच्छुक रहते हैं । लेकिन यह स्थिति हमेशा स्थिर नही रह सकती, यह हो नही सकता कि किसी समाज में परम्परा तक देवी सम्पद् का ही आधिक्य रहे अथवा किसी धर्म की बागडोर हमेशा निस्वार्थी महान् पुरुषों ही हाथ मे रहे । यदि ऐसा होता तो फिर प्रकृति की परिवर्तन शीलता का कोई प्रमाण ही न रह जाता ।
के
दैवी सम्पद् युक्त समाज मे भी किसी समय श्रसुरी सम्पद् का प्रभाव हो ही जाता है और उत्कृष्ट से उत्कृष्ट धर्म की बागडोर भी कभी स्वार्थ लोलुप लोगो के हाथ में चली जातो है । परिणाम इसका यह होता है कि वे लोग धर्म के असली तत्वों के साथ २ धीरे २ ऐसे तत्त्व भी मिलाते जाते हैं जिनसे उनकी स्वार्थसिद्धि में खूब सहायता मिले, इस मिलावट का परिणाम यह होता है कि जो उन्ही के विचारों वाले स्वार्थ लोलुप प्राणी होते हैं वे तो तुरन्त उस परिवर्तन को स्वीकार कर लेते हैं, पर समाज में हर समय किसी न किसी तादाद मे ऐसे लोग मी अवश्य रहते हैं जो सच्चे होते हैं— जो असली तत्व को सम
ने वाले होते हैं और जो निस्वार्थ होते हैं । उन्हे यह परिवर्तन असा लगता है वे उसका विरोध करते हैं, फल यह होता है कि समाज में भयङ्कर चादविवाद का तहलका मच जाता है, दोनों
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भगवान् महावीर
पक्षी में खूव वाक् युद्ध होता है और अन्त में पूरी फजीहत के साथ उस धर्म के अनुयायी दो दलों में विभक्त हो जाते हैं । कुछ समय तक उन दोनों दलों में संघर्ष चलता है, तत् पश्चात् उन टलों में और भी भिन्न भिन्न मतमतान्तर और विभाग पैदा होते है और वे आपस में लड़ने लगते हैं और इस प्रकार कुछ शताब्दियों तक लड़ झगड़ कर या तो वे अपने अस्तित्व को खो वैठते हैं या जीवन मृतकदशा में रह कर दिन व्यतीत करते हैं।
उपरोक्त का सारा कथन किसी एक धर्म को लक्ष्य करकं नहीं कहा गया है प्रत्युत प्रत्येक धर्म में किसी न किसी दिन ऐसा दृश्य श्रवश्य दिखलाई पड़ता है । ससार के सभी महान् धर्मो में इस प्रकार के अवसर आये है इस बात का साक्षी इतिहास हैं ।
जैन धर्म के इतिहास में भी ये सब बातें बिल्कुल ठीक उतरती हुई दिखाई देती हैं। प्रारम्भ में ब्राह्मण लोगों के अनाचारों में समाज में जो अत्याचार प्रारम्भ हो रहे थे उनका प्रतिकार जैन धर्म ने किया । भगवान् महावीर ने इन अत्याचारों के प्रति बुलन्द आवाज उठाकर समाज में शान्ति की स्थापना की । उनके पश्चात् उन्होंने संसार को उदार जैन-धर्म का सन्देश दिया । भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् सुधर्माचार्य के में जैन-धर्म की वागडोर आई इन्होंने भी बढ़ी ही योग्यता हाथ से इसका संचालन किया। इनके समय में भी इनके व्यक्तिगत प्रभाव से समाज में किसी प्रकार की विश्रृंखला पैदा न हुई । सुधर्माचार्य के पश्चात् जम्बूस्वामी के हाथ जैन-धर्म की बागडोर गई इन्होंने भी बहुत सावधानी के साथ इसका संचालन किया ।
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कर उन्ही तत्वों को
यहाँ तक तो जैन-धर्म का इतिहास पूरी दीप्ति के साथ चमकता हुआ नजर आता है पर इसके पश्चात् ही उसके इतिहास में विशृंखला पैदा होती हुई दृष्टिगोचर होती है । जम्बूस्वामी के पश्चात् ही किसी सुयोग्य नेता के न मिलने से धर्म की बागडोर साधारण आदमियो के हाथ में पड़ी। तभी से इसमें विशृंखला का प्रादुर्भाव होता हुआ नजर आता है । इस स्वाभाविक विशृंखला मे प्रकृति के कोप ने और भी अधिक सहायता प्रदान की और फल स्वरूप ऊपर लेखानुसार इस पवित्र और उदार धर्म के श्वेताम्बर और दिगम्बर दो टुकड़े हो गये । अब लोग उन सब महातत्वों को भूल पकड़ कर बैठ गये जहाँ पर इन दोनों का मत भेद होता था । एक साधु यदि नम रहकर अपनी तपश्चर्या को उम्र करने का प्रयत्न करता तो श्वेताम्बरियों की दृष्टि में वह मुक्ति का पात्र ही नही हो सकता था क्योंकि वह तो "जिनकल्पी" है और "जिनकल्पी" को मोक्ष है ही नहीं, इसी प्रकार यदि कोई साधु एक अधो वस्त्र पहनकर तपश्चर्या करता तो दिगम्वरियों की दृष्टि से वह मुक्ति का हक खो बैठता था क्योंकि वह "परिग्रही" है और परिग्रह को छोड़े बिना मुक्ति नहीं हो सकती । इस प्रकार अनेकान्तवाद और अपेक्षावाद का समर्थन करने वाले ये लोग सब महान्तत्वों को भूल कर स्वयं एकान्तवादी हो गये। जिस जाति का पतन होने वाला होता है वह इसी प्रकार महान् तत्वों को भूल कर व्यवहार को ही धर्म का सर्वस्व समझने लगती है ।
पतन अपनी इतनी ही सीमा पर जाकर न रह गया । स्वार्थ का कीड़ा जहाँ किसी छिद्र से घुसा कि फिर वह अपना
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ज
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बहुत विस्तार कर लेता है। जैन समाज के केवल यही दो टुकड़े होकर न रह गये। आगे जाकर इन सम्प्रदायों की गिनती और भी बढ़ने लगी । श्वेताम्बरियो मे भी परस्पर मतभेद होने लगा, इधर दिगम्बरी भी इससे शून्य न रहे कुछ ही समय पश्चात् इन दोनों श्रेणियों में भी कई उपश्रेणियाँ दृष्टिगोचर होने लगी । इनका सक्षिप्त विवरण इस प्रकार है :
( १ ) वीर संवत् ८८२ में श्वेताम्बरी लोगो में चैत्यवासी नामक दलकी उत्पत्ति हुई ।
( २ ) वीरात् ८८६ में उनमें "ब्रह्मद्वीपिक" नामक नवीन सप्रदाय का प्रारम्भ हुआ ।
( ३ ) वीरात् १४६४ में "वटगच्छ" की स्थापना हुई । ( ४ ) विक्रम सं० ११३९ में षटूकल्याणकवाद नामक नवीन मत की स्थापना हुई ।
(५) विक्रम सं० १२०४ में खरतर सप्रदाय का आरम्भ हुआ ।
( ६ ) विक्रम सं० १२२३ से आंचलिक मत का आविष्कार हुआ।
( ७ ) विक्रम सं० १२३६ में सार्धपौरिणमियक का प्रारम्भ हुआ ।
( ८ ) विक्रम सं० १२५० में श्रागमिक मत का आरम्भ हुआ ।
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( ९ ) विक्रम सं १२८५ मे तपागच्छ को नीव पड़ी । (१०) विक्रम सं० १५०८ में लूँका गच्छ की स्थापना और १५३३ में उसके साधु संग को स्थापना हुई ।
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४३८ (११) विक्रम संवत् १५६२ में कटुकमत की स्थापना हुई। (१२) विक्रम संवत् १५७० में वीजा मत का प्रारम्भ हुआ।
(१३) विक्रम १५७२ में पार्श्वचन्द्र सूरि ने अपने पक्ष की स्थापना विरम गाँव में की।
उसके पश्चात् इसी वृक्ष मे से स्थानकवासी, तेरापंथी, भीखम पंथी, तीन थोई वाले, विधि पक्षी आदि कई शाखाएँ तथा चौथ पंचमी का झगड़ा, अधिक मास का झगड़ा, चौदस पूर्णिमा का झगड़ा, उपधान का झगड़ा, श्रावक प्रतिष्ठा कर सकता है या नहीं इस विषय का झगड़ा, आदि कई झगड़े निकले और मजा यह कि इन सबो की पुष्टि करनेवाले कई ग्रंथ-रत्न भी हमारे साहित्य मे दृष्टिगोचर होने लगे, और ये सब लोग आपस मे बुरी तरह लड़ने लगे।
इधर दिगम्बरियों में भी मतमतान्तरो का बढ़ना प्रारम्भ हुआ। द्राविड़ संघ, व्यापनीय संघ, काष्ठासंघ, माथुर संघ, भिल्लक संघ, तेरा पंथ, वीस पंथ, तारण पंथ, भट्टारक प्रथा वगैरह अनेक मतमतान्तर इनमें भी प्रचलित होकर आपस में लड़ने लगे।
इन सब बातों का फल यह हुआ कि, चरित्र और आचार के उज्वलरूप जो हमारी आत्मा का विकास करते थे इस मतभेद के कोहरे में विलीन हो गये। हमारी सारी शक्तियाँ हमारी सब भावनाएँ आचार और तत्वज्ञान के मार्ग को छोड़ कर इस तूतू मैंमैं में आगई। धर्म एक निर्वाह का साधन बन गया । यहाँ तक कि इस मतभेद के वायुमण्डल से धार्मिक साधु भी बचे । बरिफ यह कहना भी अनुपयुक्त न होगा कि कुछ
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भगवान् महावीर
कलह-प्रिय और संकीर्ण हृदय साधुओं ही के प्रताप से इन मत मतान्तरों की उत्पत्ति और उनका प्रचार हुआ।
इन मतभेदों का जो भयंकर परिणाम हमारे धर्म और समाज पर हुआ और वर्तमान में हो रहा है वह हमारी आँखों के सम्मुख उपस्थित है । कुछ पाठक हम पर अवश्य इस बात का आरोप करेंगे कि भगवान महावीर का जीवन-चरित्र लिखनेवाल को इन सब झगड़े बखेड़ों से क्या मतलब है ? उसे तो जीवन चरित्र लिखकर अपना कार्य समाप्त कर देना चाहिए, पर लेखक का मत इससे कुछ भिन्न है। लेखक अपना कर्तव्य सममता है कि महावीर का जीवन लिखते हुए वह उनके पवित्र सिद्धान्तों से पाठकों को परिचित करे, और उनके पवित्र नाम की आड़ में समाज के अन्तर्गत जो अनाचार और अत्याचार हो रहे हैं उनसे पाठकों को परिचित करे।
भगवान महावीर के पवित्र नाम की आड़ में आज समाज के अन्तर्गत कौन सा दुष्कृत्य नहीं हो रहा है। हम लोग अपने मनभेद को भगवान महावीर के पवित्र नाम के नीचे रखकर उसका प्रचार करते हैं। हम लोग भगवान महावीर को अपनी जायदाद-अपनी सम्पत्ति की तरह समझ कर दूसरों से वह हक छीन लेने की कोशिश कर रहे हैं, हम लोग अपने मत-भेद को सर्वज्ञ कथित वतला कर दुनिया में सर्वज्ञत्व की हँसी उड़वा रहे हैं, यहाँ तक की हम लोग अपने तीर्थंकरों की मूर्तियों के लिए न्याय के रङ्ग मंच पर जाकर अपना हक सावित करने के लिए लाखों रुपयों का पानी कर देते हैं। कहाँ तो हमारा उदार पवित्र धर्म और कहां ये हेयरश्य! हा! भगवान् महावीर !!!
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धर्म के लिये टण्टा मचानेवालों-और धर्मपर अपना हक सावित करनेवालों को यह समझ रखना चाहिये कि धम किसी को मौरूसी जायदाद या सम्पत्ति नहीं है, यह तो वह विश्वव्यापी पदार्थ है जिसे प्रत्येक व्यक्ति धारण करके आत्म-कल्याण कर सकता है। धर्म का एक निश्चित स्वरूप आज तक दुनिया में कही आविष्कृत नहीं हुआ और न भविष्य में ही होने की आशा है। हमेशा अपेक्षाकृत दृष्टि ही में इसको लोग धारण करते आये हैं ! यह कभी हो नहीं सकता कि सभी लोगों की मनोवृत्तियाँ एक सी हो जाय और सब एक निश्चित स्वरूप को अङ्गीकार कर लें। स्वयं भगवान महावीर के शिष्यों में भी यत्र तत्र यह मत-भेद पाया जाता था। मत-भेद का होना बुरा नहीं है प्रत्येक व्यक्ति को इस बात का प्राकृतिक अधिकार है कि वह अपने मतानुसार धर्माचरण करे, इस अधिकार पर
आक्षेप करने का किसी को अधिकार नहीं। पर अपने मत के लिए इस प्रकार हठ और दुराग्रह करना कि नही मरा ही मत सत्य है, इसी को भगवान महावीर ने कहा है, यही सर्वज्ञ कथित है और इसी से मोक्ष मिल सकता है-सर्वथा अनुचित, घातक और समाज का नाशक है। दिगम्बरी यदि नन्नता को पसन्द करे और यदि वे नग्न-साधु एवं नन्न मूर्ति की उपासना करे तो ऐसा करने का उन्हें अधिकार है, अपने सिद्धान्तों के अनुसार धर्माचरण करने का उन्हें पूरा हक है, इसके लिये श्वेताम्वरियो का यह कहना कि नहीं, कपड़ा पहने विना मुक्ति हो ही नहीं सकती, या दिगम्वरी मोक्ष के अधिकारी नहीं हो सकते सर्वथा अनौचित्य पूर्ण है। इसी प्रकार यदि श्वेताम्बरी
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न्यमान लोग अधो-वन से युक्त मूर्ति और साधु को पसन्द करते हैं तो ऐसा करने का उन्हें अधिकार है। इसके लिए दिगम्बरों का यह कहना है कि नहीं, मोक्ष तो दिगम्बरत्व में ही है श्वेताम्बरी मोक्ष पा ही नहीं सकते सर्वथा अनुचित है। इसी हठ, दुराग्रह, से हमारी जाति इतनी पतित हुई और हो रही है। और इस पर तुर्रा यह कि हम इस हठ और दुराग्रह के पीछे झट महावीर का नाम लगा देते हैं। श्वेताम्बरी उनकी मूर्ति बना कर उनको लंगोट पहना देते हैं एवं आँखे, केशर, चन्दन लगा कर अपनी सम्पत्ति बना लेते हैं और दिगम्बरी उनकी नग्न-मूर्ति बना कर उन्हे अपनी जायदाद समझ लेते हैं। यदि मूर्ति नग्न हुई तो फिर वह महावीर ही की क्यों न हों श्वेताम्बरी कभी उसकी पूजा न करेंगे और इसी प्रकार केशर चन्दन युक्त मूर्ति को दिगम्बरी भी नमस्कार न करेंगे। भगवान् महावीर के इन अनुयायियों से भगवान महावीर के नामकी कितनी दुर्गति हो रही
है। यदि आज भगवान् महावीर होते तो न मालूम श्वेताम्बरी , उन्हे जवर्दस्ती लंगोट पहनवाते या दिगम्बरी उनकी लगोटी
को जवर्दस्तो छीन लेते । पर वे महात्मा इस पञ्चम काल की पापमय भूमि में आने ही क्यो लगे ?
इन मूर्तियों के पीछे आज हम लोगों का जितना कलह बढ़ रहा है, जितनी सम्पत्ति धूल धानी हो रही है, जितनी शक्तियाँ खर्च हो रही हैं उनका कोई हिसाब नहीं। इस कलह के अग आओ को कोर्ट मे जाने के पूर्व जरा यह सोच लेना चाहिए कि जैनधर्म जड़वादी नहीं है और न वह मूर्तियो को सचेतन पदार्थ समझता है। मूर्तियो की स्थापना ही इसलिए हुई है कि
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४४२ लोहम अपने पूज्य तीर्थंकरों की स्मृति की रक्षा कर सकें, हम उन मूर्तियों को देखकर हृदय की कलुपित वृत्तियों को निकाल सकें, और उन मूर्तियो के द्वारा हम ध्यान की पद्धति सीख कर, निर्विकार होना सीखें। इसके सिवाय मूर्ति रखने का या उसकी पूजा करने का कोई दूसरा उद्देश्य नहीं है। इन मूत्तियों के लिए लड़ना और इन्हीं को अपना सर्वस्व सिद्ध करना, अर्थात् अपने आप को जड़वादी सिद्ध करना है। इन मूर्तियों के पीछे हम अपने तीर्थकरों तक को भूल गये हैं। कहाँ तो ये तीर्थ हमारी
आत्मा को पवित्र बनाने के कारण होने चाहिए थे और कहाँ ये हमारे रागद्वेप को बढ़ाने के कारण हो रहे हैं। मूर्तिपूजा के वास्तविक उद्देश्य को भूल हम इन्ही जड़मूर्तियों को अपना सर्वस्व समझने लग गये हैं और इनके पीछे हम अपने लाखों सचेतन भाइयो की एवं अपनो निज की आत्मा की अशान्ति का कारण बना रहे हैं, जो कि एक भयङ्कर हिंसा है। याद रखिए, इन मूर्तियों पर कोर्ट के द्वारा अपना अधिकार सावित करवा के हम अपनी आत्मिक उन्नति नही कर सकते-याद रखिए इन मूर्तियो पर केशर, चन्दन, लगा कर या विल्कुल दिगम्बर रखकर भी हम मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकते याद रखिए, जड़वादियों की तरह इन मूर्तियों को अपना सर्वस्व समझ लेने पर भी हम अपना उद्धार नहीं कर सकते और निश्चय याद रखिए कि लाखों रुपये का पानी कर अाने तिपक्षियों को नी । दिखलाने पर भी हम स जैनी नहीं सकते-हावीर के अनुयायी नहीं कहला सकत ।। आत्मिक उन्नति करना और सञ्जैनी कहलाना दसरीत और तीथा के लिए कोटों में चढ़ना दूसरी बात
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है । ये दोनों बातें एक दूसरे के इतनी विरुद्ध है कि एक की मौजूदगी में दूसरी रह ही नहीं सकती । इन्हीं पारस्परिक झगड़ों के कारण हम अपने सब असली सिद्धान्तों को भूल गये हैं, इसी दुम्ह और हठवादिता के कारण हमने भौतिकता के फेर मे पडकर आध्यात्मिकता को तिलांजलि दे दी है। इसी मतभेद के कारण हम जैनधर्म के उदार और विश्वव्यापी सिद्धान्तों से बहुत दूर जा पड़े हैं । यदि आज किसी जैनी से पूछा जाय कि भाई स्याद्वाद क्या है, अनेकान्त दर्शन की रचना किन सिद्धान्तो पर की गई है, जैनियों का अहिंसा तत्व किन आधारो पर अवलम्बित है तो सिवाय चुप के कुछ उत्तर नहीं मिल सकता | मिले कहाँ से, एक तो समाज का अधिकांश पैसा मुकद्दमेबाजी में खर्च हो जाता है, रहा सहा प्रतिष्ठा और नवीन मन्दिरों की योजना में उठ जाता है । साहित्य और शिक्षा की ओर किसी का ध्यान नहीं है, ध्यान हो कहां से लड़ाई झगड़ों से अवकाश मिले तव तो । हमारी सब शक्तियां इसी ओर खर्च हो रही हैं । यहाँ तक कि इनके फेर में पड़कर हम सचे जैनत्व को भूल गये हैं । मुकदमेबाजी और मतभेद के पक्षपानी प्रत्येक जैनबन्धु को भगवान् महावीर के पवित्र जीवनचरित का अध्ययन करना चाहिए । उसे देखना चाहिए कि इन झगड़ों में और महावीर के जीवन की पवित्रता में कितना अन्तर है ? भगवान् महावीर कभी हठ और दुराग्रह के अनुमोदक नही रहे, फिर हम उनके अनुयायी होकर क्यों हठ और दुराग्रह के फेर में पड़ रहे हैं । यदि यही पैसा जो मुकद्दमेबाजी में खर्च होता है महावीर के सिद्धान्तों का प्रचार करने में लगाया जाय
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तो उससे कितना उपकार हो सकता है ? यदि इसी पैसे से हम हमारे बच्चों के लिए विद्यालय, बीमारों के लिए औषधालय,
और अनाथों के लिए भोजन-गृह खुलवावें तो कितना बड़ा पुण्य और लाभ हो सकता है। जो पैसा जड़मूर्तियों के लिए बरबाद हो रहा है वही यदि सचेतन प्राणियो के लिए व्यय किया जाय तो कितना लाभ हो सकता है।
यदि हम चाहते हैं कि भगवान महावीर के सिद्धान्तो का घर २ प्रचार हो यदि हम चाहते हैं कि हम सच्चे जैनधर्म के अनुयायी बनकर अपनी आत्मिक उन्नति करें, यदि हम चाहते हैं कि संसार हमें जीवित जातियों में गिने और हमारी इज्जत करे, और यदि हम इहलौकिक शान्ति के साथ परलौकिक सुख भी प्राप्त करना चाहते हैं तो इस दुराग्रह और हठवादिता को छोड़कर महावीर के सच्चे अनुयायी बनें। ___ जबतक हमारे हृदय मे स्वार्थ, घृणा, राग, द्वेष, और वन्धुविद्रोह के स्थान पर परमार्थ, प्रेम, बन्धुत्व और सहानुभूति की भावनाएँ उदित न होंगी, जबतक हम जड़ के लिये चेतन का और छिलके के लिए मीगी का अपमान करते रहेंगे तबतक न जैनधर्म का, न जैनजाति का और न हमारा ही लौकिक और 'परलौकिक हित हो सकता है।
जिस समय जातियों को पतनावस्था का आरम्भ होता है उस समय वे अपने महात्माओ के बतलाए हुए मार्ग को भूल जाती हैं वे धर्म की असलियत को छोड़ कर नकलियत पीछे लड़ने लग जाती है। और इस प्रकार अपने संगठन को बिखेर कर तीन तेरह हो जाती है। जैनजाति का अधःपात अपनी
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पूर्णता को पहुँच गया है, हम लोग जातीयत्व और मनुष्यत्व की भावनाओं को भूलकर अपनी जाति का तीन तेरह कर चुके हैं। अब यदि हमें अपनी मृत-प्राय जाति को पुन. सजीवित करना है-यदि हमें जैनजाति के इस शीघ्रगामी हास को रोकना है तो हमारा कर्तव्य है कि पारस्परिक द्वेष की भावनाओ को भूलकर, उधार धर्म को तिलांजलि दे नगद धर्म को ग्रहण करें. और भगवान महावीर के सच्चे अनुयायी कहलाने का गौरव प्राप्त करें।
जैनधर्म पर अजैन विद्वानों की सम्मतियां
[ १ ] श्रीयुत डाक्टर सतीशचन्द्र विद्यामूषण एम. ए. पी. एच. डी एफ. आई. आर. एस. सिद्धान्त महोदधि प्रिंसपिल सस्कृत कालिज कलकत्ता। - आपने २६ दिसम्बर सन् १९२३ को काशी (बनारस) नगर मे जैन-धर्म के विषय में व्याख्यान दिया उसके सार रूप कुछ वाक्य उद्धृत करते हैं।
जैन साधु...........एक प्रशंसनीय जीवन व्यतीत करने के द्वारा पूर्ण रीति से व्रत, नियम और इन्द्रिय संयम का पालन करता हुआ, जगत के सम्मुख आत्म संयम का एक बड़ा ही उत्तम आदर्श प्रस्तुत करता है । प्राकृत भाषा अपने सम्पूर्ण मधमय सौन्दर्य को लिये हुए जैनियों की रचना में ही प्रकट की गई है।
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[२]
श्रीयुत महामहोपाध्याय सत्य सम्प्रदायाचार्य्य सर्वान्तर पं० स्वामी राममिश्रजी शास्त्री भूतपूर्व प्रोफेसर संस्कृत कालेज
चनारस |
आपने मिती पौप शुक्ला १ सम्वत् १९६२ को काशीनगर में व्याख्यान दिया उसमें के कुछ वाक्य उद्धृत करते हैं ।
( १ ) ज्ञान, वैराग्य, शान्ति, क्षन्ति, श्रदम्भ, अनीय, अक्रोध, आमात्सर्य, अलोलुपता, शम, दम, अहिसा सामदृष्टि इत्यादि गुणों में एक एक गुण ऐसा है कि जहाँ वह पाया जाय वहां पर बुद्धिमान् पूजा करने लगते हैं । तब तो जहां ये (अर्थात् जैनों मे) पूर्वोक्त सब गुण निरतिशय सीम होकर विराजमान हैं उनकी पूजा न करना अथवा ऐसे गुण पूजकों की पूजा में वाघा डालना क्या इन्सानियत का कार्य है ।
( २ ) मैं आपको कहां तक कहूँ, बड़े बड़े नामी आचायों ने अपने ग्रन्थो में जो जैन मत खण्डन किया है वह ऐसा किया है जिसे देखसुन कर हँसी आती है।
( ३ ) स्याद्वाद का यह ( जैनधर्म ) श्रभेद्य किला है उसके अन्दर वादी प्रतिवादियों के मायामय गोले नहीं प्रवेश कर सकते ।
( ४ ) सज्जनों एक दिन वह था कि जैन सम्प्रदाय के आचायोंकी हूँकार से दसों दिशाएं गूंज उठती थीं ।
(५) जैन मत तब से प्रचलित हुआ है जब से ससार या सृष्टि का आरम्भ हुआ ।
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पशा
(६) मुझे इसमें किसी प्रकार का उज्र नहीं है कि जैन दर्शन वेदान्तादि दर्शनों से पूर्व का है।
(३) भारत भूमि के तिलक, पुरुप शिरोमणी इतिहासज्ञ, माननीय पं०वाल गङ्गाधर तिलक के ३० नवम्बर सन् १९०४ को बड़ोदा नगर में दिये हुए व्याख्यान से उद्धृत कुछ वाक्य ।
(१) श्रीमान् महाराज गायकवाड़ (बड़ोदा नरेश) ने पहले दिन कॉन्फ्रेंस में जिस प्रकार कहा था उसी प्रकार 'अहिंसा परमोधर्म इस उदार सिद्धान्त ने ब्राह्मण धर्म पर चिरस्मरणीय छाप मारी है। पूर्वकाल में यज्ञ के लिये असंख्य पशु हिसा होती थी इसके प्रमाण मेघदूत काव्य आदि अनेक ग्रन्थो से मिलते हैं...इस घोर हिंसा का ब्राह्मण धर्म से विदाई लेजाने का श्रेय (पुण्य ) जैन धर्म के हिस्से में है।
(२) ब्राह्मण धर्म को जैन धर्म हो ने अहिंसा धर्म बनाया।
(३) ब्राह्मण व हिन्दू धर्म में जैन धर्म के ही प्रताप से मांस भक्षण व मदिरापान वन्द हो गया।
(४) ब्राह्मण धर्म पर जो जैन धर्म ने अक्षुण्ण छाप. मारी है उसका यश जैन धर्म ही के योग्य है। जैन धर्म मे अहिंसा का सिद्धान्त प्रारम्भ से है, और इस तत्व को समझने की त्रुटि के कारण बौद्ध धर्म अपने अनुयायी चीनियों के रूप मे सर्व मती हो गया है।
(५) पूर्व काल में अनेक ब्राह्मण जैन पण्डित जैन धर्म के धुरन्धर विद्वान हो गये हैं।
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(६) ब्राह्मण धर्म जैन धर्म से मिलता हुआ है इस कारण टिक रहा है । बौद्ध धर्म जैन धर्म से विशेष अमिल होने के कारण हिन्दुस्थान से नाम शेष हो गया ।
(७) जैन धर्म तथा ब्राह्मण धर्म का पीछे से इतना निकट सम्बन्ध हुआ है कि ज्योतिष शास्त्री भास्कराचार्य ने अपने ग्रन्थ में ज्ञान दर्शन और चारित्र ( जैन शास्त्र विहित रनन्त्रय धर्म ) को धर्म के तत्व बतलाये हैं ।
केशरी पत्र १३ दिसम्बर सन् १९०४ में भी आपने जैन धर्म के विषय में यह सम्मति दी है ।
ग्रन्थों तथा समाजिक व्याख्यानों से जाना जाता है कि जैन धर्म अनादि है यह विषय निर्विवाद तथा मत भेद रहित है । सुतरां इस विषय मे इतिहास के दृढ़ सबूत हैं और निदान ईम्बी सन् से ५२६ वर्ष पहले का तो जैन धर्म सिद्ध है ही । महावीर स्वामी जैन धर्म को पुन: प्रकाश में लाए इस बात को आज २४०० वर्ष व्यतीत हो चुके है बौद्ध धर्म की स्थापना के पहले जैन धर्म फैल रहा था यह वात विश्वास करने योग्य है । चौबीस तीर्थकरों मे महावीर स्वामी अन्तिम तीर्थंकर थे, इससे भी जैन धर्म की प्राचीनता जानी जाती है । बौद्ध धर्म पीछे से हुआ यह बात निश्चित है ।
( ४ )
पेरिस ( फ्रांस की राजधानी ) के डाक्टर ए. गिरनाट ने अपने पत्र ता० ३-१२-११ में लिखा है कि मनुष्यो की तरक्की के लिये जैन धर्म का चरित्र बहुत लाभकारी है यह धर्म बहुत
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ही असली, स्वतन्त्र, सादा, बहुत मूल्यवान तथा ब्राह्मणों के मतों से भिन्न है तथा यह वौद्ध के समान नास्तिक नहीं है।
(५) जर्मनी के डाक्टर जोहन्नेस हर्टल ता० १७-६-१९०८ के पत्र में कहते हैं कि मैं अपने देशवासियों को दिखाऊंगा कि कैसे उत्तम नियम और ऊँचे विचार जैन-धर्म और जैन आचायाँ में हैं । जैनो का साहित्य बौद्धों से बहुत बढ़ कर है और ज्यों २ मैं जैन-धर्म और उसके साहित्य को समझता हूँ त्यों २ मैं उनको अधिक पसन्द करता हूँ।
जैन हितैषी भाग ५-अङ्क ५-६-७ में मि० जोहन्नेस हर्टल जर्मनी की चिट्ठी का भाव छपा है उसमें से कुछ वाक्य उद्धत ।
(१) जैन-धर्म में व्याप्यमान हुए सुदृढ़ नीति प्रामाणिकता के मूल तत्व, शील और सर्व प्राणियों पर प्रेम रखना इन गुणों की मैं बहुत प्रशंसा करता हूँ।
जैन-पुस्तकों में जिस अहिंसा धर्म को शिक्षा दी है उसे मैं यथार्थ में श्लाघनीय समझता हूँ।
(३) गरीब प्राणियों का दुःख कम करने के लिए जर्मनी में ऐसी बहुत सी संस्थाएँ अव निकली हैं (परन्तु जैन-धर्म यह कार्य हजारों वर्षों से करता है)।
(४) ईसाई धर्म में कहा है कि "अपने प्यारे लोगों पर और अपने शत्रुओं पर भी प्यार करना चाहिये" परन्तु यूरोप से यह प्रेम का तत्व संपूर्ण जाति के प्राणियों की और विस्तृत नहीं हुआ।
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( ६ )
अन्य मतधारी मि० कन्नुलालजी जोधपुर की सम्मति ।
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(७)
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( देखा The Theosophist माह दिसम्बर सन् १९०४
व जनवरी सन् १९०५)
जैन धर्म एक ऐसा प्राचीन धर्म है कि जिसकी उत्पत्ति तथा इतिहास का पता लगाना एक बहुत ही दुर्लभ बात है । इत्यादि
मि० आवे जे० ए० दवाई मिशनरी की सम्मतिः
(Description of the character manners and customs of the people of India and of their institution and ciril)
इस नाम की पुस्तक मे जो सन् १८१७ मे लंडन में छपी है अपने बहुत बड़े व्याख्यान में लिखा है कि :- निःसन्देह जैनधर्म ही पृथ्वी पर एक सच्चा धर्म है, और यही मनुष्य मात्र का आदि धर्म है। आदेश्वर को जैनियों मे बहुत प्राचीन और प्रसिद्ध पुरुष जैनियों के २४ तीर्थंकरो में सबसे पहले हुए हैं ऐसा कहा है ।
COMMONS
(८)
श्रीयुत वरदाकान्त मुख्योपाध्याय एम० ए० बंगला, श्रीयुत नाथूराम प्रेमी द्वारा अनुवादित हिन्दी लेख से उद्धृत कुछ वाक्य | ( १ ) जैन निरामिष भोजी (मांस त्यागी) क्षत्रियों का धर्म है ।
* श्रादिश्वर को जैनी लोग ऋषभदेव जी कहते हैं 1
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(३) पार्श्वनाथ जी जैन-धर्म के आदि प्रचारक नहीं थे परन्तु इसका प्रथम प्रचार रिपभदेवजी ने किया था। इसकी पुष्टी के प्रमाणो का अभाव नहीं है।
(४) बौद्ध लोग महावीरजी को निर्ग्रन्थों अर्थात् जैनियों का नायक मात्र कहते हैं, स्थापक नहीं कहते । जर्मन डाक्टर जेकोबी का भी यही मत है।
(५) जैन-धर्म ज्ञान और भाव को लिए हुए है और मोक्ष भी इसी पर निर्भर है।
रा० रा. वासुदेव गोविन्द आपटे बी० ए० इन्दौर निवासी के व्याख्यान से कुछ वाक्य उद्धृत ।
(१) प्राचीन काल में जैनियो ने उत्कृष्ट पराक्रम वा राज्य * भार का परिचालन किया है। (२) जैन-धर्म मे अहिसा का तवं अत्यन्त श्रेष्ठ है। (३) जैन-धर्म मे यतिधर्म अत्यन्त उत्कृष्ट है इसमें सन्देह नहीं । (४) जैनियों मे स्त्रियो को भी यति दीक्षा लेकर परोपकारी कृत्यों में जन्म व्यतीत करने की आज्ञा है यह सर्वोत्कृष्ट है। (५) हमारे हाथ से जीव हिंसा
* प्राचीन काल में चक्रवर्ती, महामण्डलीक, मण्डलीक आदि बड़े २ पदाधिकारी जैन धर्मी हुए हैं। जैनियों के परम पूज्य २४ मों तीर्थंकर भी सूर्यवशी चन्द्रशी
आदि क्षत्रिय कुलोत्पन्न बड़े बड़े राज्याधिकारी हुए , जिसकी साक्षी जैनग्रथों सगा किमी २ अजेन शाखों व इतिहास ग्रन्थों में भी मिलती है।
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४५२ न होने पावे इसके लिये जैनी जितने डरते हैं इतने बौद्ध नहीं डरते । बौद्ध धर्म देशों में मांसाहार अधिकता से जारी है । श्राप खतः हिंसा न करके दूसरे के द्वारा मारे हुए बकरे आदि का मांस खाने में कुछ हर्ज नहीं ऐसे सुभीते का अहिंसा तत्व जो बौद्धों ने निकाला था वह जैनियों को सर्वथा स्वीकार नहीं है। (६) जैनियों की एक समय हिन्दुस्तान में बहुत उन्नतावस्था थी। धर्म, नीति, राजकार्य धुरन्धरता, शास्त्रदान समाजोन्नति आदि बातों में उनका समाज इतर जनों से बहुत आगे था ।
संसार में अब क्या हो रहा है इस ओर हमारे जैन बन्धु लक्ष देकर चलेंगे तो वह महापद पुनः प्राप्त कर लेने में उन्हें अधिक श्रम नहीं पड़ेगा।
(१०) पूर्व खानदेश के कलेक्टर साहिब श्रीयुत ऑटोरोय फिल्ड साहिव ७ दिसम्बर सन् १९१४ को पाचोरा में श्रीयुत बछराजजी रूपचन्दजी की तरफ से एक पाठशाला खोलने के समय आपने अपने व्याख्यान में कहा कि जैन जाति दया के लिये खास प्रसिद्ध है, और दया के लिये हजारों रुपया खर्च करते हैं। जेनी पहले क्षत्री थे, यह उनके चेहरे व नाम से भी भी जाना जाता है। जैनी अधिक शान्तिप्रिय हैं। ' (जैन हितेच्छु पुस्तक १६ अङ्क ११ मे से) .
(११) मुहम्मद हाफिज सय्यद बी० ए० एल०टी० थियोसोफिकल हाईस्कूल कानपुर लिखते हैं:-"मैं जैन सिद्धान्त के सूक्ष्म तत्वों से गहरा प्रेम करता हूँ।"
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(१२) राय वहादुर पूनेन्दु नारायण सिंह एम०ए० वॉकीपुर लिखते हैं-जैनधर्म पढ़ने की मेरी हार्दिक इच्छा है क्योंकि मैं ख्याल करता हूँ कि व्यवहारिक योगाभ्यास के लिये यह साहित्य सबसे प्राचीन (Oldest) है । यह वेद की रीति रिवाजो से पृथक् है । इसमें हिन्दू धर्म से पूर्व की आत्मिक स्वतंत्रता विद्यमान है, जिसको परम पुरुषों ने अनुभव व प्रकाश किया है । यह समय है कि हम इसके विषय में अधिक जानें।
(१३) महामहोपाध्याय पं० गंगानाथमा एम० ए. डी० एल. एल० इलाहाबाद-"जब से मैंने शंकराचार्य द्वारा जैन सिद्धान्त पर खंडन को पढ़ा है, तब से मुझे विश्वास हुआ कि इस सिद्धान्त में बहुत कुछ है जिसको वेदान्त के आचार्य ने नहीं समझा, और ,जो कुछ अव तक मैं जैन-धर्म को जान सका हूँ उससे मेरा यह विश्वास दृढ़ हुआ है कि यदि वह जैनधर्म को उसके असली प्रन्थों से देखने का कष्ट उठाता तो उनको जैन धर्म के विरोध करने की कोई बात नहीं मिलती।
(१४) श्रीयुन् नेपालचन्दराय अधिष्ठाता ब्रह्मचर्याश्रम शांति निकेतन बोलपुर-मुमको जैन तीर्थंकरों की शिक्षा पर अतिशय भक्ति है।
(१५) , श्रीयुत् एम० डी० पाण्डे, थियोसोफिकल सोसाइटी बना
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रस-मुझे जैन सिद्धान्त का बहुत शौक है, क्योकि कर्म सिद्धान्त का इसमें सूक्ष्मता से वर्णन किया गया है।
सम्मतियाँ नं० १२ से १६ जैनमित्र भाग १७ अङ्क १० वें से संग्रह की गई हैं।
(१६) सुप्रसिद्ध श्रीयुत महात्मा शिवव्रतलाल वर्मन, एम० ए० सम्पादक "साधु", "सरस्वती भण्डार", "तत्वदर्शी", "मार्तड" "लक्ष्मीभण्डार, “सन्त सन्देश" आदि उर्दू तथा नागरी मासिक पत्र; रचयिता विचार कल्पद्रुम," "विवेक कल्पद्रुम," "वेदान्त कल्पद्रुम;" "कल्याण धर्म," "कवीरजीका बीजक" आदि ग्रन्थ, तथा अनुवादक "विष्णु पुराणादि"। __इन महात्मा महानुभाव द्वारा सम्पादित “साधु" नामक उर्दू मासिकपत्र के जनवरी सन् १९११ के अंक में प्रकाशित "महावीर स्वामीका पवित्र जीवन" नामक लेख से उद्धृत कुछ वादय, जो न केवल श्री महावीर स्वामी के लिये किन्तु ऐसे सर्व जैनतीर्थंकरों, जैनमुनियो तथा जैनमहात्माओ के सम्बन्ध मे कहे गए हैं।
(१) “गए दोनों जहान नजरसे गुजर तेरे हुस्न का कोई बशर न मिला"। . (२) यह जैनियों के आचार्यगुरू थे। पाकदिल, पाकखयाल, सुजस्लम-पाकीजगी थे। हम इनके नाम पर, इनके काम पर ओर इनके बे नजीर नफ्सकुशी व रिाजत की मिसालपर, जिस कदर नाज (अभिमान) करें बजा (योग्य ) है ।
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(३) हिन्दुओ! अपने इन बुजुर्गों की इज्जत करना सीखो ...""तुम इनके गुणों को देखो, उनकी पवित्र सूरतों का दर्शन फरो, उनके भावों को प्यार की निगाह ने देखो, वह धर्म कर्म की झलकती हुई चमकती मूर्तियाँ है.""उनका दिल विशाल था, वह एक वेपायाकनार समन्दर था जिसमें मनुष्य प्रेम को लहरे जोर शोर से उठती रहती थी और सिर्फ मनुष्य ही क्यो उन्होंने संसार के प्राणीमात्र की भलाई के लिये सब का त्याग किया।जानदारो का खून बहना रोकने के लिये अपनी ज़िन्दगी का खून कर दिया । यह अहिंसा की परम ज्योतिवाली मूर्तियाँ हैं।
ये दुनियाँ के जबरदस्त रिफार्मर, जवरदस्त उपकारी और चंड ऊँचे दर्जे के उपदेशक और प्रचारक गुजरे हैं। यह हमारी कौमी तवारीख (इतिहास) के कीमती [बहुमूल्य रत्न हैं। तुम कहाँ और किन में धर्मात्मा प्राणियो की खोज करते हो इन्ही को देखो। इनसे बेहतर उत्तम साहवे कमाल तुमको और कहां मिलेंगे। इनमें त्याग था, इनमें वैराग्य था, इनमे धर्म का कमाल था, यह इन्सानी कमजोरियों से बहुत ही ऊँचे थे। इनका खिताब "जिन" है। जिन्होंने मोहमाया को और मन और काया को जीत लिया था। यह तीर्थकर हैं। इनमें बनावट नहीं थी, दिखावट नहीं थी, जो बात थी साफ साफ थी। ये वह लासानी [अनौपम] शखसीयतें हो गुजरी हैं। जिनको जिसमानी कम जोरियों, व ऐवों के छिपाने के लिये किसी जाहिरी पोशाक की जरूरत महसूस नहीं हुई । क्योंकि उन्होंने तप करके, जप करके, योग का साधन करके, अपने आप को मुकम्मल और पूर्ण बना लिया था....."""इत्यादि इत्यादि.......
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[१८] श्रीयुत् तुकाराम कृष्ण शर्मा लट्टु वी० ए० पी०एच० डी०
एम० आर० ए० एस० एम० ए० एस० वी० एम० जी० श्रो० एस० प्रोफेसर संस्कृत शिलालेखादि के विषय के अव्यापक कीन्स कालेज बनारस ।
स्याद्वाद महाविद्यालय काशी के दशम वार्षिकोत्सव पर दिये हुए व्याख्यान में से कुछ वाक्य उद्धृत ।
( १ ) सब से पहले इस भारतवर्ष में "रिषभदेवजी" नाम के महर्षि उत्पन्न हुए । वे दयावान भद्रपरिणानी, पहिले तीर्थकर हुए जिन्होंने मिथ्यात्व अवस्था को देख कर "सम्यदर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्वारित्र रूपी मोक्ष शाख का उपदेश किया । बस यही जिन दर्शन इस कल्प में हुआ । इसके पश्चात् श्रजीतनाथ से लेकर महावीर तक तेईस तीर्थकर अपने अपने समय मे अज्ञानी जीवो का मोह अंधकार नाश करते थे ।
[१९]
साहित्य रत्न डाक्टर रवीन्द्रनाथ टागोर कहते हैं कि महावीर ने डीडींग नाद से हिन्द में ऐसा सन्देश फैलाया कि:- धर्म यह मात्र सामाजिक रूढ़ि नहीं है परन्तु वास्तविक सत्य है, मोक्ष यह बाहरी क्रिया कांड पालने से नही मिलता, परन्तु सत्यधर्म स्वरूप में आश्रय लेने से ही मिलता है । और धर्म और मनुष्य में कोई स्थायी भेद नहीं रह सकता। कहते आश्चर्य पैदा होता है कि इस शिक्षा ने समाज के हृदय में जड़ करके बैठी हुई भावनारूपी विघ्नों को वरा से भेद दिये और देश को वशी
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भूत कर लिया, इसके पश्चात् बहुत समय तक इन क्षत्रिय उपदेशको के प्रभाव बल से ब्राह्मणो की सत्ता अभिभूत हो गई थी।
(२०) टी० पी० कुप्पुस्खामी शास्त्री एम. ए. असिसटेन्ट गवर्नमेंट म्युजियम तंजौर के एक अंग्रेजी लेख का अनुवाद "जैन हितैपी भाग १० अंक २ में छापा है उसमें आपने बतलाया है कि:
(१) तीर्थकर जिनसे जैनियों के विख्यात सिद्धान्तों का प्रचार हुआ है आर्य क्षत्रिय थे। (२) जैनी अवैदिक भारतीय-बाय्यों का एक विभाग है।
(२१) श्री स्वामी विरुपाक्ष वढियर 'धर्म भूपण' 'पण्डित' 'वेदतीर्थ 'विद्यानिधी' एम. ए. प्रोफेसर संस्कृत कालेज इन्दौर स्टेट।
आपका "जैन धर्म मीमांसा" नाम का लेख चित्रमय जगत में छपा है उसे 'जैन पथ प्रदर्शक' आगरा ने दीपावली के अंक में उद्धृत किया है उससे कुछ वाक्य उद्धृत ।
(१) ईर्पा द्वेष के कारण धर्म प्रचार को रोकने वाली विपत्ति के रहते हुए जैन शासन कमी पराजित न होकर सर्वत्र विजयी ही होता रहा है। इस प्रकार जिसका वर्णन है वह 'अहतदेव' साक्षात् परमेश्वर (विष्णु) खरूप है इसके प्रमाण भी आर्य ग्रन्थों में पाये जाते हैं।
(२) उपरोक्त अहंत परमेश्वर का वर्णन वेदों में भी पाया जाता है।
(३) एक बंगाली बैरिष्टर ने 'प्रेकटिकलपाथ' नामक ग्रन्थ बनाया है। उसमें एक स्थान पर लिखा है कि रिपमदेव का नाती
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मरीचि प्रकृतिवादी था, और वेद उसके तत्वानुसार होने के कारण ही ऋगवेद आदि ग्रंथों की ख्याति उसीके ज्ञान द्वारा
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प
ई है फलतः मरीचि ऋषी के स्तोत्र, वेद पुराण आदि ग्रन्थों मे हैं और स्थान २ पर जैन तीर्थकरो का उल्लेख पाया जाता है, तो कोई कारण नहीं कि हम वैदिक काल मे जैन धर्म का अस्तित्व न मानें।
( ४ ) सारांश यह है कि इन सव प्रमाणों से जैन धर्म का उल्लेख हिन्दुओ के पूज्य वेद मे भी मिलता है ।
( ५ ) इस प्रकार वेदो मे जैन धर्म का अस्तित्व सिद्ध करने वाले बहुत से मन्त्र हैं । वेद के सिवाय अन्य ग्रन्थो में भी जैन धर्म के प्रति सहानुभूति प्रकट करने वाले उल्लेख पाये जाते हैं । स्वामीजी ने इस लेख में वेद, शिव पुराणादि के कई स्थानों के मूल लोक देकर उस पर व्याख्या भी की है ।
पीछे से जब ब्राह्मण लोगों ने यज्ञ आदि मे बलिदान कर " मा हिंसात सर्व भूतानि” वाले वेद वाक्य पर हरताल फेर दी उस समय जैनियों ने उन हिंसामय यज्ञ योगादि का उच्छेद करना आरम्भ किया था बस तभी से ब्राह्मणो के चित्त में जैनों के प्रति द्वेष बढ़ने लगा, परन्तु फिर भी भागवतादि महापुराणो मे रिषभदेव के विषय मे गौरवयुक्त उल्लेख मिल रहा है।
( २२ )
अम्बुजाक्ष सरकार एम. ए. बी. एल. लिखित " जैन दर्शन जैनधर्म" जैनहितैषी भाग १२ अङ्क ९-१० में छपा है उसमे के कुछ वाक्य |
( १ ) यह अच्छी तरह प्रमाणित होचुका है कि जैन धर्म
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भगवान महावीर बौद्ध धर्म की शाखा नहीं है। महावीर स्वामी जैन धर्म के स्थापक नहीं है। उन्होंने केवल प्राचीन धर्म का प्रचार किया है।
(२) जैन दर्शन में जीव तत्र की जैसी विस्तृत आलोचना है वैसी और किसी भी दर्शन में नहीं है।
(२३) हिन्दी भाषा के सर्वश्रेष्ट लेखक और धुरवर विद्वान् प० श्रीमहावीरप्रमादजी द्विवेदी ने प्राचीन जैन लेख-सग्रह की समालोचना "सरस्वती" में की है। उसमें से कुछ वाक्य ये हैं:
(१) प्राचीन ढर के हिन्दू धर्मावलम्बी बड़े बडे शास्त्री तक अब भी नहीं जानते कि जैनियोका त्याद्वाद किस चिडिया का नाम है। धन्यवाद है जर्मनी और फ्रांस, इगलैण्ड के कुछ विद्यानुरागी विशेपनों को जिनकी कृपा से इस धर्म के अनुयाइयों के कीर्ति कलाप की खोज और भारतवर्प के साक्षर जैनो का ध्यान आकृष्ट हुआ । यदि ये विदेशी विद्वान् जैनो के धर्म अन्यों आदि की आलोचना न करते यदि ये उनके कुछ ग्रन्थो का प्रकाशन न करते और यदि ये जैनो के प्राचीन लेखो की महत्ता न प्रकट करते तो हम लोग शायद आज भी पूर्ववत ही अन्नान के अन्धकार में ही डूबे रहते । ___ भारतवर्ष में जैन धर्म ही एक ऐसा धर्म है जिसके अनुयाई साधुओं (मुनियों) और प्राचार्यों में से अनेक जनो ने धर्मोपदेश के साथ ही साथ अपना समस्त जीवन ग्रन्य-रचना और अन्य संग्रह मे खर्च कर दिया है।
(३)वीकानेर, जैसलमेर और पाटन आदि स्थानो
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४६० हस्त-लिखित पुस्तकों के गाड़ियों वस्ते अव भी सुरक्षित पाये जाते हैं।
(४) अकबर इत्यादि मुग़ल बादशाहों से जैन धर्म की कितनी सहायता पहुंची, इसका भी उल्लेख कई में है।
(५) जैनों के सैकड़ों प्राचीन लेखो का संग्रह सम्पादन और आलोचना विदेशी और कुछ स्वदेशी विद्वानों के द्वारा हो चुकी है। उनका अगरेजी अनुवाद भी अधिकांश में प्रकाशित हो गया है।
(६) इन्डियन ऐन्टीकरी, इपिग्राफिआ इन्डिका सरकारी गैजेटियरों और आर्कियालाजिकल रिपोर्टों तथा अन्य पुस्तकों में जैनों के कितने ही प्राचीन लेख प्रकाशित हो चुके हैं। बूलर, कोसेसकिहें विल्सन, हूल्टश, केलटर और कोलहान आदि विदेशी पुरातत्रज्ञों ने बहुत से लेखों का उद्धार किया है।
(७) पेरिस (फ्रांस) के एक फ्रेंच पण्डित गेरिनाट ने अकेले ही १२०७ ई० तक के कोई ८५० लेखो का संग्रह प्रकाशित किया है। तथापि हजारों लेख अभी ऐसे पड़े हुए हैं जो प्रकाशित नहीं हुए।
(२४) सौराष्ट्र प्रान्त के भूतपूर्व पोलिटिकल एजेन्ट मि० एच० डब्ल्यू० बर्हन साहिब का मुकाम जेतपुर युरोपियन गेस्ट तरीके पधारना हुआ, आपने जेतपुर विराजमान लींबड़ी सम्प्रदाय के महाराज श्री लबजी स्वामी जेठमलजी स्वामी से भेट की। आपने महाराज श्री के साथ जैन रिलीजियन सम्बन्धी चर्चा पौन घण्टे तक की आखीर में मापने जैन मुनियो के पारमार्थिक जीवन
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भगवान् महावार
और त्याग धर्म की योग्य प्रशंसा की और पीछे, से पत्र द्वारा अपना संतोष जाहिर किया इसमें बहुत तारीफ करने के साथ समयाभाव से अधुरा विषय छोड़ना पड़ा इसका अफसोस जाहिर किया।
जैन वर्तमान १४ जून १९१३ ई० से
श्रीयुत् डाक्टर जोली प्रोफेसर संस्कृत वृजवर्ग यूनिवर्सिटी जर्मनी।
जैन धर्म को उपयोगिता को सार्व रूप से पश्चिमीय विद्वानों को स्वीकार करना चाहिये। जैन मित्र १९ जुलाई १९२३ ई. से
(२७) इन्डियन रिव्यू के अक्टोवर सन् १९२० ई० के अङ्क में मद्रास प्रेसीडेन्सी कॉलेज के फिलोसोफी के प्रोफेसर मि० ए. चक्रवर्ती एम. ए. एल. टी. लिखित "जैन फिलोसोफी" नाम के अर्टिकल का गुजराती अनुवाद महावीर पत्र के पौष शुका १ संवत् २४४८ वोर संवन् के अंक में छपा है उस में से कुछ वाक्य उद्धृत है
(१) धर्म अने समाज की सुधारणा में जैन-धर्म बहु अगत्य नो माग मन्त्री शके छः कारण आ कार्य माटे ते उत्कृष्ट रोते लायक छ।
(२) आचार पालन मां जैन-धर्म घणे आगल वधे छै अने बीजा प्रचलित धर्मों ने तो सम्पूर्णतानु भान करावे छै कोई धर्म मात्र श्रद्धा (भक्ती) पर तो कोई ज्ञान उपर अने कोई
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भगवान् महावीर
४६२ बली मात्र चारित्र उपरज भार मुके है, परन्तु जैन-धर्म एत्रणे ना समन्वय अने सहयोगथीज आत्मा परमात्मा थाय छे एम स्पष्ट जणावे छ।
(३) रिषभदेवजी 'आदि जिन' "आदिश्वर" भगवान् ना नामे पण ओलखाय छै ऋग्यवेद नांसूकती मां तेमनो 'अर्हत' तरीके उल्लेख थएलो छै जैनो तेमने प्रथम तीर्थकर माने है. (४) बीजा तीर्थकरो बधा क्षत्रियोज हता,
(२९) श्रीयुत् सी. वी. राजवाड़े, एम. ए. वी. एस. सी प्रोफेसर ऑफ पाली, बरोडा कालेज का एक लेख "जैन-धर्म नुं अध्ययन" जैन साहित्य संशोधक पूना भाग १ अङ्क १ में छपा है उसमे से कुछ वाक्य उद्धृत।
(१) प्रोफेसर वेबर वुत्हर जेकोवी हारनल भांडारकर ल्युयन राइस गॅरीनोट वगैरा विद्वानोए जैन धर्मना संबंधमां अतःकरण पूर्वक अथाग परिश्रम लेई अनेक महत्वनीशोत्रो प्रगट करेली छै।
(२) जैन-धर्म पूर्वना धर्मों मां पोतानो स्वतंत्र. स्थान प्राप्त करतो जाय छे,
(३) जैन-धर्म ते मात्र जैनो नेज नहीं परंतु तेमना सिवाय प्राश्चात्य संशोधनना प्रत्येक विद्यार्थी अने खास करीने जो पौर्वात्य देशो ना धर्मों ना तुलनात्मक अभ्यास मां रस लेता होय तेमने तल्लीन करी नाके एवो रसिक विषय छै.
डाक्टर F. OTTO SGHRADER, P.H.D. का
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मगवान् महावीर एक लेख बुद्धिष्ट रिव्यु ना पुस्तक 'प्रंक १ मां प्रगट थयेला अहिंसा प्रने वनस्पति प्रहार शीर्षक लेस का गुजराती अनुवाद जैन माहित्य संशोधक अंक ४ में छपा है उसमें से कुछ वाक्य उद्धृत।
(१) अनिवारे आस्तीन धरावतां धमा मां जैन-धर्म एक वो धर्म के के जमां अहिंसा नो क्रम संपूर्ण दे अने जो शक्य तेटली दृढ़तायी सदा तेने वलगी रह्यो छे।।
(२) प्रामण धर्म मां पण घालावासमय पच्छी संन्यासियो माटे पा सुक्ष्मतर अहिंसा विदित थई 'प्रने आखरे वनस्पति
आहार ना रूप मां ब्राह्मण नाति मां पण ते दाखील थई हती कारण ग्छ के जैनो ना धर्म तत्वोए जे लोक मत जीत्यो हतो तेनी असर सजड रीत वधती जती हती,
(३१) श्रीयुत बाबू चम्पनरायजी जैन चरिस्टर एट-ला हरदोई सभापति, श्री म० दि० जैन महासभा का ३६ वां अधिवेशन लम्बन ने अपने व्याख्यान में जैन धर्म को बोद्ध धर्म से प्राचीन होने के प्रमाण दिये हैं उससे उद्धत ।
(१) इन्सायटोपडिया में मोरुपीयन विद्वानो ने दिखाया है कि जैन धर्म बौद्ध धर्म से प्राचीन है और बौद्ध मत ने जैन धर्म से उनकी दो परिभाषाएँ आश्रव व संवर लेली है अंतिम निर्णय इन शब्दों में दिया है कि
जैनी लोग इन परिभाषाओं का भाव शब्दार्थ में समझते हैं और मोक्ष प्राप्ति के मार्ग के संबंध में इन्हें व्यवहृत करते हैं (आश्रयो के संवर और निर्जरा से मुक्ति प्राप्त होती है) अव यह परिभाषाएँ उतनी ही प्राचीन हैं जितना कि जैन धर्म है।
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४६४ कारण की बौद्धों ने इससे अतीव सार्थक शब्द आश्रव को ले लिया है । और धर्म के समान ही उसका व्यवहार किया है । परन्तु शब्दार्थ में, नहीं कारण की बौद्ध लोग कर्म सूक्ष्म पुद्गल नहीं मानते हैं और आत्मा की सत्ता को भी नहीं मानते हैं । जिसमें कमों की श्रव हो सके। संवर के स्थान पर वे आसावाकन्य को व्यवहृत करते हैं। अब यह प्रत्यक्ष है कि बौद्ध धर्म में आश्रव का शब्दार्थ नहीं रहा । इसी कारण यह आवश्यक है कि यह शब्द धौद्धों में किसी अन्य धर्म से जिसमें यह यथार्थ भाव में व्यवहत हो अर्थात जैन धर्मसे लिया गया है। बौद्ध सवर का भी व्यवहार करते हैं अर्थात् शील संवर और क्रिया रूप में संवर का यह शब्द ब्राह्मण आचार्यों द्वारा इस भाव में व्यवहृत नहीं हुए हैं अतः विशेषतया जैन धर्म से लिये गये हैं। जहाँ यह अपने शब्दार्थ रूप में अपने यथार्थ भाव को प्रकट करते हैं। इस प्रकार एक ही व्याख्या से यह सिद्ध हो जाता है कि जैन धर्म का कार्य सिद्धान्त जैन,धर्म में प्रारम्भिक और अखंडित रूप में पूर्व से व्यवहृत है और यह भी सिद्ध होता है कि जैन धर्म बौद्ध धर्म से प्राचीन है।
जैन भास्करोदय सन् १९०४ ई० से उद्धत ।
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चित्र परिचया
इस पुस्तक के प्रारम्भ में पाठक जिन सेठ साहब का चित्रं
देख रहे हैं उनसे हम उनका संक्षिप्त परिचय करवा * देना उचित समझते हैं।
हम यहाँ पर प्रसिद्ध इतिहास वेत्ता श्रीमुन्सिफ देवी प्रसाद जी जोधपुर का संवत् १९६८ का 'मेरा दौरा, शीर्षक लेख के अन्तर्गत का वृत्तान्त देते हैं जो मुन्शीजी ने नागरीप्रचारिणी सभा की मुख पत्रिका खड १ के अंक २ पृष्ट १७७ मे लिखा है वह इस प्रकार है
रीयां
पीपाड़ से एक कोस पर खालसे का एक बड़ागाँव रीयां नामक है, इसको सेठो की रीयां भी वोलते हैं। क्योंकि यहाँ के सेठ पहिले वहुत धनवान थे। कहते हैं कि एक वार राजा मानसिंहजी से किसी अंग्रेज ने पूछा था कि मारवाड़ में कितने घर हैं ? तो महाराजा ने कहा था कि ढाई घर हैं-एक घर तो रीयां के सेठो का है, दूसरा भीलाड़े के दीवानों का है और आधे में सारा मारवाड़ है।
३०
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( ४६६ ) ये सेठ मोहणोत जाति के ओसवाल थे। इनमें पहिले रेखाजी बड़े सेठ थे इनके पीछे जीवनदासजी हुए, इनके पास लाखो रुपये सैकड़ों हजारों सिके के थे। महाराज विजयसिह जी ने उनको नगर सेठ का खिताव और एक महीने तक किसी आदमी को कैद कर रखने का अधिकार भी दिया था। जीवनदास जी के पुत्र हरजीमल जी, हरजीमल जी के रामदास जी, रामदास जी के हमीरमल जी और हमीरमल जी के पुत्र सेठ चांदमल जी हैं।
जीवनदास जी के दूसरे पुत्र गोरधनदास जी के सोभागमल जी, सोभागमल जी के पुत्र धनरूप मल जी, कुचामण में थे, जिनकी गोद अब सेठ चांदमल जी के पुत्र मगनमल जी हैं।
सेठ जीवणदास जी की छत्रीगांव के बाहर पूरव की तरफ पीपाड़ के रास्ते पर बहुत अच्छी बनी है। यह १६ खमो की है, शिखर के नीचे चारो तरफ एक लेख खुदा है जिसका सारांश यह है
सेठ जीवणदास मोहणोत के ऊपर छत्री सुत गोरधनदास हरजीमल कराई। नींव सम्वत् १८४१ फागुन सुदी १ को दिलाई कलश माह सुदी १५ संवत् १८४४ गुरुवार को चढ़ाया । . कहते हैं कि एक वेर यहाँ नवाब अमीर खाँ के डेरे हुवे थे, किसी पठान ने छत्री के कलस पर गोली चलाई तो उसमें से कुछ अशरफियाँ निकल पड़ी, इससे छत्री तोड़ी गई तो और भी माल निकला जो नवाब ने ले लिया। फिर बहुत वर्षों बाद छत्री की मरम्मत सेठ चांदमल जी के पिता या दादा ने अजमेर से आकर करा दी। इन सेठो की हवेली रीयां में है।
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( ४६८ )
ने एक ही सिक्के के रुपयों से इतने छकड़े भर दिये की रीयां से लगा कर जोधपुर तक छकड़ो की कतार बंध गई ।
महाराजा साहव अतुल द्रव्य देख कर बहुत प्रसन्न और उनको सेठ की उपाधि से विभूषित किया और उनको इतना मान -मरतवा दिया जितना पूर्व किसी को भी जोधपुर राज्य में न दिया गया था । उस समय से ही इनका घर ढाई घरों मे गिना जाने लगा और रीयां गाँव अधिक प्रसिद्धि में आया । सेठ जीवणदास |
सेठ जीवरणदास जी बड़े पराक्रमी पुरुष थे । उन्होंने जोधपुर राज्य मेवडी ख्याति प्राप्त की थी यही नहीं किन्तु उन्होंने अपना दवदवा पेशवा के राज्य मे भी जमाया। समस्त महाराष्ट्र और दूर २ तक इनका सिक्का जमा हुआ था, इनके अतुल धन, स्वतन्त्र और उदार विचार की प्रशंसा चहुँओर थी और उस समय वह Millioney क्रोड़पति कहे जाते थे ।
पेशवा के दरबार मे सेठ जीवनदासजी का बड़ा मान था उन्होंने पेशवाओ की उस नाजुक समय में धन से सहायता की थी जिस समय उनके Cheefs सरदार Tribute खिरज देने को इनकार हो गये थे, यदि सेठ जीवरणदास जी धन से सहायता न देते और फौज को इतमिनान न दिलाते तो उनकी राजधानी पर फौज का पूर्ण आधिपत्य हो जाता उस समय उनकी दुकान पूने मे थी, और पेशवा राज्य की सरहद्द में कई स्थानों में उनकी शाखाएं थी, एक शाखा राजपुताने के अन्तर्गत अजमेर में भी थी ।
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( ४६९ ) सेठ हमीरमल ।
सेठ हमीरमल जो की इज्जत सिन्धिया के दरवार में बहुत थो, इनको बैठक दरवार में थी और अतर पान दिया जाता था । सम्वत् १९११ ( सन् १८५४ ) में सेठ हमीरमल को महाराज ! जोधपुर ने फिर सेठ की उपाधि प्रदान की जो सौ वर्ष पूर्व महाराजा विजय सिंह जी ने सेठ जोवरणदास जी को दी थी । इसके अतिरिक्त पालकी, खिल्लत और दर्बार में बैठक का मर्तबा दिया था जो राज्य के दिवानों को भी न दिया गया था। साथ ही महाराजा नाव ने प्रसन्न होकर निज के माल या सामान की चुगी विल्कुल न ली जाने तथा व्यापार के माल पर आधी चुंगी ली जाने को रियायत बखशी जो आज तक चली आती है ।
अग्रेज सरकार की भी संठ हमीरमल जी ने बड़ी सेवा की थी इससे उनका बड़ा मान और आदर सत्कार किया जाता था, सन् १८४६ में कर्नल सीमन एजन्ट गवर्नर जनरल बुन्देलखड और सागर ने पत्र व्यवहार में' "सेठ साहव महरवान सलामत वाद शोक मुलाकात के" का अलकाव आदाव व्यवहृत किये जाने की सूचना दी थी जिसको कर्नल जे० सी० ब्रुक कमिश्नर और एजेन्ट गवर्नर जनरल राजपूताना ने २० फरवरी सन् १८७१ को उसी अलाव आदाव की जारी रखने की स्वीकृति दी थी ।
सन् १९५२ और ५५ में जब सेठ हमीरमल अपने खजानों को देखभाल करने पन्जाब में गये उस समय फायिनेन्स कमिश्नर पंजाब, तथा कमिश्नर जालन्धर डिविजन ने तहसीलदारों के
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( ४७० ) नाम हुक्म जारी किया था कि सेठ हमीरमल जी को पेशवाई के लिये स्टेशन पर रहे। पंजाब में उनकी इतनी इज्जत थी कि जब कभी वे जाते थे तहसीलदार आदि को उनकी पेशवाई के लिये स्टेशन पर जाना पड़ता था।
पंजाव पर आधिपत्य करने के लिये जब अंग्रेजी फौज भेजी गई थी उस समय सेठ हमीरमल जी का एजन्ट गुलाबचन्द फौज के साथ खजानची था, फौज का कब्जा होने पर उनका वहाँ खजाना हो गया।
राय सेठ चान्दमल। सेठ चान्दमल जी का जन्म संवत १९०५ मे हुआ था। उनके धीरजमलजी और चन्दनमलजी दो भाई थे, सब खुशहाल थे व कारोबार अच्छी तरह से चलता था।
सेठ चांदमल जी अपने पिता और दादा के सहश पराक्रमी, साहसी, दानी, उदारचित्त और विचारवान थे। इनकी चमत्कारिक बुद्धि, और अनुभव की ख्याति चहुंओर थी छोटी अवस्था में ही इन्होंने अनेक गुण धारण कर लिये थे।
सम्वत् १९२१ मे महाराजा साहब जोधपुर ने इनको 'सेठ' की उपाधि प्रदान की वह उपाधि पूर्व महाराजा विजयसिह जी ने वहां परम्परा के लिये दे दी थी। इस समय पेशावर, जालन्धर, घोघोपारपुर, कॉंगरा, सांभर, सागर और मुरार में खजाने थे। बाम्बे, जबलपुर, नरसिंगपुर मिरजापुर में सागर, रोहिल्ला, दमोह, कोरी, सोरी, जालन्धर, होशियारपुर, धर्मशाला, पेशावर, ग्वालियर, जोधपुर, सागर, अजमेर, भेलसा, झांसी,
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( ४७४ ) आपको आशिर्वाद दिये और मङ्गलकामना के लिये ईश्वर से प्रार्थना की। इसी तरह इन्होने अजमेर की जनता की समय२ पर अनेक सेवाएं की थी किन्तु विस्तार भय से सवको छोड़ कर एक दो घटनाओ का ही उल्लेख दिग्दर्शनार्थ किया गया है।
सेठ चाँदमल जी जैन थे किन्तु किसी धर्म से भी आपको द्वेष न था। सर्व धर्मों को आप इज्जत की निगाह से देखते थे, बुलाने पर सबके उत्सवो मे सम्मिलित होते थे और यथाशक्ति सब को देते भी थे। मेम्बर या पदाधिकारी बनने में भी आप एतराज न करते थे।
दयावान राजपूताने भर में आप प्रसिद्ध थे। आनासागर तथा फाई सागर में मछलियों का पकड़ना बन्द करा दिया था। दोनो तलाबो का पानी सूख जाने पर इनकी मछलियाँ बूढ़े पुष्कर मे भिजवा दी जाती थी। आपकी तरफ से सदाव्रत जारी था। कच्ची वालो को सीधा और पक्की वालो को पुडी दी जाती थी, गरीब स्त्रीपुरुष और बच्चो कोरोजाना चना दिया जाता था, गायो को घास डलाया जाता था, कबूतर तोते आदि पक्षियों को अनाज छुड़ाया जाताथा, गरीब मुसलमान रोजे रखने वालों के लिये रोजा खोलने के लिये रोटी बनवा कर उनके पास भिजवायी जाती थी। कहने का अर्थ यह है कि बिना भेदभाव सवको दिया जाताथा यही सबब था कि कोई भी गरीव, अपाहिज स्टेशन से उतरते ही या रेल ही से चाँदमल जी का नाम रटता हुआ चला आताथा और वहाँ जाने पर उसके भाग्य अनुसार मिलता ही था कोई भी व्यक्ति बिना कुछ लिये उनके द्वार से न लौटता था हर समय १०-२०-५० का जमघट जमा ही रहता था, और उन सब को
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( ४७५ )
दिया ही जाता था, सर्दी के मौसम में वस्त्रहीनो को कम्बल, रजाइएं रूई की अँगरखिए बाँटी जाती थी इस तरह मौसिम २ का दान दिया जाता था ।
सेठ चाँदमल जी पूर्व स्थानकवासी जैन कान्फ्रेंस के जनरल सेक्रेटरी थे, साधु मुनिराज के प्रति उनकी अनन्य भक्ति थी । हर समय उनके हवेली पर धर्मध्यान होता ही रहता था, दीक्षा आदि भी आपकी तरफ से होती रहती थी, जीव दया तथा अन्य खातो में सब से अधिक रकम आपकी तरफ से लिखी जाती थी आप जिस धार्मिक कार्य में आगे बढ़ जाते थे उससे कदम कभी भी पीछे न हटाते थे चाहे उसमें लाख रुपये भी क्यों न खर्च हो जावे | यह आपका स्वभाव था इससे हर एक धार्मिक कार्य में सबसे आगे आपको किया जाता था ।
कान्फ्रेंस का प्रथम अधिवेशन जो मोरवी शहर में हुआ था, उसके आप सभापति थे, अजमेर में कान्फ्रेंस का चतुर्थ अधि वेशन हुआ उसमें अधिक श्राप ही का हाथ था और आपके हजारो रुपये उसमें व्यय हुए थे । कान्फ्रेंस आफिस कुछ वर्ष तक आपके यहां रहा था और उसमे आप बराबर योग देते रहे थे जैन जनता में आपका बड़ा मान है। आप जबरदस्त नेता गिने जाते थे। आपकी बात का बड़ा आदर था, जो बात आप की जवान से निकल जाती थी लोह की लकीर समझी जाती थी । आप बड़े धर्मिष्ट सदाचारी थे, प्रजा और राजा दोनो मे आपकी इज्जत थी और सम्मान की दृष्टि से देखे जाते थे, आपके सम्बन्ध में बड़े बड़े श्रहदेदार अंगरेजों के अच्छे २ सार्टिफिकेट दिये हुवे हैं उन सब का उल्लेख यहाँ नहीं किया जा सकता । केवल इतना
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( ४७६ ) ही लिखा जा सका है कि आप सरकार के वड़े कृपापात्र थे। आप का शरीर पुष्ट था, वृद्धावस्था प्राप्त हो जाने पर भी आपका चेहरा दमकता था, निराशा आपके पास होकर फटकती ही न थी।
आपकी मृत्यु सम्वत् १९७१ मे ६६ वर्ष की अवस्था में हो गई। आपने अन्तिम समय में वडी रकम धर्मादा खाते निकाली थी जिसका सदुपयोग आज भी जारी है। ___ आपके देहान्त के समय पुत्र-पौत्र आदि सब थे और भण्डार धन-धान्य से भरपूर था सब तरह का आनन्द था ।
आपके पुत्रों के नाम घनश्याम दासजी, छगनमलजी, भगनमलजी और प्यारेलालजी हैं।
बड़े पुत्र धनश्यामदास सेठ साहब के गुजरने के कुछ समय बाद ही इन तीनों भाइयों से अलग हो गये थे उनकी मृत्यु ३८ वर्ष की अवस्था में हुई उनके दो पुत्र हैं।
छगनमलजी, मगनमलजी और प्यारेलालजी-इन लोगो का करोबार शामिल है इनमे छगनमलजी बड़े अच्छे पुरुष हुए। इन्होने कम उम्र में ही अपने पिता की तरह राजा और प्रजा मे अधिक ख्याति पैदा करली थी। गवर्नमेंट ने आपकी योग्यता देख कर आनरेरी मजिस्ट्रेट बना दिया था और सन् १९१६ मे राय बहादुर के खिताब से सुशोभित किया था । धार्मिक कार्य मे आपकी अधिक वृति थी । सात वर्ष तक आप कान्फ्रेंस के आनरेरी सेक्रेटरी रहे। आपने अपने खर्च से हुन्नरशाला चलाई जिसमें लड़कों को खान पान और हुनर कला सीखने का सब साधन उपस्थित किया। आप भी अपने पिता की तरह अधिक दानी
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( ४७७ ) परोपकारी और उदारचित्त थे किन्तु दु:ख के साथ लिखना पड़ता है कि २६ मार्च सन् १९२० को ३१ वर्ष की छोटी अवस्थाही में आप इस संसार से विदा हो गये। ___ आपकी मृत्यु से जैन-जनता में बड़ी कमी होगई जो
आज तक न मिटी। जिसने एक दफा आप को देख लिया था वह अब भी आप का नाम स्मरण होने पर दो आंसू बहाए बिना रह नहीं सकता। आपकासोम्य स्वभाव, हँसमुख सरल-वृत्ति
और सादा मिजाज था। मगनलालजी और प्यारेलालजी अपनी मुश्तरका (जायन्ट फेमली) यानी मगनमलजी और प्यारेलालजी के संयुक्त कारोबार को दिन प्रतिदिन तरकी दे रहे हैं और वे अपने पिता और बड़े भाई के सहश सरलखमावी, उदारचित्त परिश्रमी, दयावान, धर्म के कार्य में अधिक अनुराग रखने वाले,
और जीवदया के अनन्य भक्त हैं। आप हिन्दी अग्रेजी का अच्छा नान रखते हैं, आप सदाचार की मूर्ति हैं। रात दिन आप काम में लगे रहते हैं। आप इतने लोकप्रिय हैं कि कई सभा सोसायटियों के अधिकारी हैं। पुष्कर गो आदि पशुशाला की अधिक सहायता करते हैं और आपका हाथ होने से ही उसका अस्तित्व कायम है, अहिंसा प्रचारक आप ही के खर्च से चलता है, बंगलोर मिहगला, घाटों पर जीवदया मण्डल आदि में आप ने अच्छी सहायता दी है आप के पिता के समय जिस क्रम से दान दिया जाता था वह क्रम आज भी जारी है बल्कि उससे अधिक ही दिया जाता है। आप के सात्विक विचार हैं। आप प्रपंचो से दूर रहते हैं, सत्य के प्रेमी हैं बड़े भाई मगनमल जी आनरेरी मजिस्ट्रेट है म्युनिसिपल कमिश्नर भी रहे थे, समस्त
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जैन समाज मे आपकी बड़ी इज्जत है। स्थानकवासी कान्फ्रेन्स के जनरल सेक्रेटरी तथा सुखदेव सहाय जैन प्रेस के प्रानरेरी सेक्रेटरी हैं। इस समय आपकी निम्न स्थानों पर
दुकानें हैं। १-सेठ चांदमलजी छगनमलजी वम्बई २-सेठ चांदमलनी छगनमलजी वनारस ३-सेठ चादमलजी छगनमलजी दमोह ४-सेठ चांदमलजी छगनमलजी पेशावर ५-सेठ चांदमलजी छगनमलजी वंगलोर ६-सेठ चांदमलजी छगनमलजी सतपुरा ७-सेठ हमीरमलजी छगनमलजी मिरजापुर ८-सेठ हमीरमलजी छगनमलजी झासी ९-सेठ हमीरमलजी छगनमलजी जालघर १०-सेठ चांदमलजी प्यारेलालजी च्यावर ११-सेठ रूघनाथदासजी चांदमलजी जोधपुर १२-सेठ चांदमनजी मगनमलजी पेशावर १३-सेठ चांदमलजी मगनमलजी भागसु १४-सेठ चांदमलजी मगनमलजी जवलपुर १५-राय सेठ चांदमलजी मगनमलजी होशियारपुर १६ राय सेठ चांदमलजी मगनमलजी कोहट १७-सेठ चांदमलजी मगनमलजी वोराई १८-सेठ चांदमलजी प्यारेलालजी कलकत्ता
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