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________________ भगवान महावीर ३६८ ह सकता है । मवान को दरिद्रयों का बिल सुख दुख का सारा आधार मनोवृत्तियों पर है, महान् धनी मनुष्य भी लोभ के चक्कर में फंस कर दुख उठाता है और महान निर्धन मनुष्य भी सन्तोष वृत्ति के प्रभाव से मन के उद्वेगो को रोक कर सुखी रह सकता है । महात्मा भर्तृहरि कहते हैं: "मनसि च परितुटेकोऽर्थवान् को दरिद्र ।" इस वाक्य से स्पष्ट हो जाता है कि मनोवृत्तियों का विलक्षण प्रवाह ही सुख दुख के प्रवाह का मूल है। एक ही वस्तु एक को सुख कर होती है, और दूसरे को दुख कर। जो चीज़ एक बार किसी को रुचि कर होती हैवही दूसरी बार उसको अरुचिकर हो जाती है। इससे हम जान सकते हैं कि बाह्य पदार्थ सुख दुख के साधक नहीं हैइनका आधार मनोवृत्तियो का विचित्र प्रवाह ही है। __ राग, द्वेष और मोह ये मनोवृत्तियों के परिणाम हैं। इन्ही तीनों पर सारा संसारचक्र फिर रहा है। इस त्रिदोष को दूर करने का उपाय अध्यात्म शाख के सिवा अन्य (वैद्यक) अन्थो मे नहीं है । मगर 'मैं रोगी हूँ' ऐसा अनुभव मनुष्य को बड़ी कठिनता से होता है। जहाँ संसार की सुख तरंगे मन से टकराती हों, विषयरूपी बिजली की चमक हृदयाकाश में खेल रही हो, और तृष्णारूपी पानी की प्रबल धारा में गिर कर आत्मा बे मानहोरहाहो वहाँ अपना गुप्त रोग समझना अत्यन्त कष्ट साध्य है। अपनी आन्तरिक स्थिति को नहीं समझने वाले जीव एक दम नीचे दर्जे पर हैं। मगर जो जीव इनसे ऊँचे दर्जे के हैं जो अपने को त्रिदोषाक्रान्त समझते हैं, जो अपने को त्रिदोषजन्य उग्रताप से पीड़ित सममते हैं और जो उस रोग
SR No.010171
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraraj Bhandari
PublisherMahavir Granth Prakashan Bhanpura
Publication Year
Total Pages435
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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