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भगवान महायार 'योगवाला होता है। योग का अर्थ है शरीगदि का व्यापार, केवल शान होने के बाद भी शरीरधारी के गमनागमन का व्यापार, बोलन का व्यापार प्रादि व्यापार होते हैं इसलिये वे गगेर धारी केवली 'मयोग कहलाते हैं।
उन केवली परमात्मा त्रों कं, वायुप्य के अन्त में, प्रबल शुष्ठच्यान के प्रभाव मे, जब सारे व्यापार मक जाते हैं. नय टनको जो अवस्था प्राप्त होती है उसका नाम -
'प्रयोग येवली गुणस्थान है । अयोगी का अर्थ है नर्व व्यापार रहित-सर्व क्रिथा रहित ।
ऊपर यह विचार किया जा चुका है, कि प्रात्मा गुण श्रेणियों में आगे बढ़ता हुना, केवल ज्ञान प्राप्त कर, प्रायुष्य के अन्त में अयोगी धन तत्काल ही मुक्ति प्राप्त कर लेता है। यह श्राध्यानिमक विषय है-उमलिए यहाँ घोड़ी सी आध्यात्मिक पाती का दिग्दर्शन करना उचित होगा।
अध्यात्म संमार की गति गहन है. जगन् में सुखी जीवों की अपेक्षा दुखी जीवों का नेत्र बहुत बड़ा है। लोक प्राधिव्याधि और शोक संताप में परिपूर्ण है। हजारों तरह के सुख साधनों की उपस्थिति में भी मांसारिक वासनाओं में दुख की सत्ता भिन्न नहीं होती। आरोग्य लक्ष्मी सुवनिता और सत्पुत्रादि के मिलने पर भी दुप का संयोग सम नहीं होता। इससे यह ममझ में श्रा जाता है कि दुःख से सुस को भिन्न करना-केवल मुख भोगी यनना यहुत ही दुःसाध्य है।