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भगवान् महावीर
२१८ लाको देखा । वह सामुद्रिक लक्षण का ज्ञाता था। उसने सोचा कि अवश्य इस गह से कोई चक्रवर्ती अभी गया है। उसे अभी तक राज्य प्राप्त नहीं हुआ है। पर शीघ्र ही होगा। क्या ही अच्छा हो यदि किसी छल के द्वारा उसके राज्य पर मैं अधिठित हो जाऊं। ऐसा सोचता हुआ वह वहाँ से उधर को चला । आगे जाकर देखता क्या है कि एक अशोक वृक्ष के नीचे महावीर प्रभु कायोत्सर्ग में खडे हैं। उनके मस्तक पर मुकुट चिन्ह और भुजाओं में चक्र चिन्ह दिखाई दे रहे थे। ज्योतिपि ने सोचा कि यह कैसा आश्चर्य है। चक्रवर्ती के तमाम लक्षणयुक्त यह व्यक्ति तो भिक्षुक है। अवश्य ये सामुद्रिक शास्त्र किसी झूठे पाखण्डी ने बनाए हैं। __ ज्योतिपो के मन की यह बात अवधि ज्ञान के द्वारा इन्द्र को मालूम हुई, इन्द्र तत्काल वहाँ आया और उसने उस ज्योतिषी को कहा-ो मूर्ख ? तू शाब की निन्दा क्यो कर रहा है। शाखकार कोई भी बात असत्य नहीं करते । तू तो अभी तक केवल प्रभु के बाह्य लक्षणों को ही जानता है। उनके अन्तर्लक्षणो से तू अभी तक अपरिचित ही है। इन प्रभु का मांस और रुधिर दूध के समान उज्जवल और सफेद है। इनके मुख कमल का श्वास कमल की खुशबू के समान सुगन्धित है। इनका शरीर बिल्कुल निरोगी और मल तथा पसीने से रहित है। ये तीनों लोक के स्वामी, धर्मचक्री और विश्व को आश्रय देने वाले सिद्धार्थ राजा के पुत्र महावीर हैं। चौसठों इन्द्र इन के सेवक हैं। इनके सन्मुख चक्रवर्ती किस गिनती में है। शास्त्र में कह हुए सब लक्षण बराबर हैं। इसके लिये तू जरा भी खेद न कर।