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पापा।
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भगवान् महावार बारह वर्ष के पश्चात् विदेश से आया था। जिसका उत्सव मनाया जा रहा था। ऐसे समय में भगवान् उसके यहांगोचरी के निमित्त पधारे । उन्हें देखते ही वह आनन्द से पुलकित हो उठा।
और अपना अहो भाग्य समझ उसने बडे ही भक्ति भाव में भोजन करवाया।
यहां से विहार करके प्रमु 'श्वेताम्बी' की ओर चले। यहां को राजा बड़ा ही जिन भक्त था। भगवान का आगमन सुन कर बड़े हर्प के साथ अपने कुटुम्ब और प्रजा जनों के सहित उनके दर्शनार्थ आया। और बड़े ही भक्ति भाव से उसने प्रभु की वन्दना की। यहां से विहार करते हुए प्रभु अनुक्रम से 'सुरभिपुर' नामक नगर के समीप आये। यहां पर गंगा नदी को पार करना पड़ता था। इसलिए प्रभु दूसरे मुसाफिरों के साथ में एक नाव पर आरुढ़ हो गये।
इसी स्थान पर उनके त्रिपुष्ट योनी का वैरी उस सिंह का जीव जिमे कि उन्होंने मारा था "सुदृष्ट" नामक देव योनि में रहता था। महावीर को देखते ही उसे अपने पूर्ण भव का स्मरण हो आया। क्रोधित होकर बदला चुकाने के निमित्त उसने उन पर उपसर्ग करना शुरु किया। इस उपसर्ग का वर्णन भी हम पहले कर चुके हैं। उस उपसर्ग को कम्बल और सम्बल नामक दो देवों ने दूर किया। और भगवान् को सकुशल नदी पार पहुँचा दिया।
भगवान अपने चरण कमलों से गंगा नदी की रेती को पवित्र करते हुए आगे जा रहे थे, इतने ही में "पुष्य" नामक' एक ज्योतिपी ने पीछे से रेती में मुद्रित हुए, उनके चरण चिन्हों