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________________ १६४ उचलाय । लेना चाहिये । हां यदि हमारा प्रतिपक्षी भी सबल है, हमारी श्राज्ञा का विरोध करने की उसमें शक्ति है, तो ऐसी हालत में यदि हम उसे ऐसी सजा दें भी तो विरोध की भावना के कारण | उतने तीव्र कर्मों का बंध नहीं होने पाता । क्योंकि उसके कर्मों का और हमारे कर्मों का बहुत कुछ समीकरण हो जाता है। शेष में जो कुछ कर्म बचते हैं, उन्हीं को हमें भोगना पड़ता है। लेकिन जहाँ ऐसी बात नहीं है, जहाँ विरोध की भावना का लेश मात्र भी अस्तित्व नहीं है । वहां पर दी हुई इस प्रकार की अविचार । पूर्ण सत्ता का फल बहुत उग्र रूप मे भोगना पड़ता है । इस बात को और भी स्पष्ट करने के लिये एक युद्ध का उदाहरण ले लीजिये | हम देखते ही हैं कि युद्ध के अन्दर भयङ्कर मारकाट होती है। हजारो आदमी उसमें गोलियों के निशान बना दिये जाते हैं, हजारों तलवार के घाट उतार दिये जाते हैं, और हजारो वछों में पिरो दिये जाते हैं । मतलब यह है कि रणक्षेत्र में मृत्यु का कोलाहल मच जाता है । इतने पर भी मारने वालों के और मरने वालो के उतने तीव्र कर्म का उदय नहीं होता, क्योकि वहाँ पर बदला लेने की शक्ति और विरोध की भावनाओ का अस्तित्व रहता है । अब मान लीजिये उस युद्ध में कुछ लोग कैदी हो गये, ऐसी हालत में यदि वह कैद करनेवाला अपने कैदियों की मनुष्यत्व के साथ रक्षा करता है, उनके खान पान का प्रबन्ध करता है, तब तो ठीक है । पर इसके विपरीत यदि ऐसा न करते हुए वह उनके साथ जरा भी निष्ठुरता का बर्ताव करता है, तो तीव्र असाता वेदनीय का बन्ध करता है । क्योंकि इस स्थान पर वे आश्रित हैं। इस स्थान पर वे बदला लेने में असमर्थ भगवान् महावीर
SR No.010171
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraraj Bhandari
PublisherMahavir Granth Prakashan Bhanpura
Publication Year
Total Pages435
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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