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________________ ३९५ भगवान् महावीर मे से निकाल कर स्वर्ग तथा नर्क सम्बन्धो कल्पनामय मानवातीत सृष्टि में ले जाती है। __आर्य लोगों से आने के पूर्व जो जातियाँ इस देश मे बसती थी, उनके मूल धर्म का पूरा पता नहीं चलता, तथापि आधुनिक लौकिक धर्म-सम्प्रदाय और प्राचीन धर्म-साहित्य के तुलनात्मक मनुष्य-शास्त्र की एवं प्राचीन अवशेषो की सहायता द्वारा सूक्ष्म निरीक्षण करने से उस धर्म की बहुत सी बातों का पता लग सकता है, इस सूक्ष्म निरीक्षण से यह सिद्ध होता है कि पूर्व भारत में कम से कम दो विशिष्ट जाति के धर्म थे। ये दोनों वर्ग या तो जीव देवात्मक थे या एक जीव देवात्मक और दूसरा जड़देवात्मक था। जड़ देवात्मक मत का प्रादुर्भाव कुछ गूढ कारणों से पैदा हुई क्षुब्धावस्था में उत्कट भक्ति का पर्यवसान उन्माद में अथवा आनन्दातिरेक में होकर हुआ। इसके अतिरिक्त जो जीव देवात्मक खरूप का वर्ग था, उसमे वैराग्य एव तपस्वीवृत्ति का सम्बन्ध था । इन दो खास तत्वों के अनुषड्ग से मूल आर्य-धर्म का विकास हुआ और उसमे से अनेक पंथ और धर्म-शाखाएं प्रचलित हुई। . ___ईसा से करीब आठ सौ वर्ष पूर्व इस आर्य-धर्म के अन्तर्गत एक विचित्र प्रकार की विशृखला का प्रादुभाव हुआ । उस समय में ब्राह्मणो की कर्मकाण्ड प्रियता इतनी बढ़ गई थी कि उसमे के कितने ही प्रयोग "धर्म" नाम धारण करने के योग्य न रहे थे-आधुनिक पाश्चात्य विद्वानो का प्रायः यह, मन्तव्य है कि समाज की इसी विशृखला को दूर करने के लिये ही जैन और बौद्धधर्म का प्रादुर्भाव हुआ था, पर कई कारणों से मेरे
SR No.010171
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraraj Bhandari
PublisherMahavir Granth Prakashan Bhanpura
Publication Year
Total Pages435
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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