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भगवान महावीर
३९४ जैन-धर्म भी एक है। जैन धर्म का महत्व निश्चिन् करने के पूर्व हमें आर्य-धर्म को अभिवृद्धि के प्रधान प्रधान कारणों पर विचार करना होगा।
बौद्धिक दृष्टि द्वारा होनेवाली जगद्विपयक कल्पनाओं का दीकरण और उसमें से निष्पन्न होनेवाली निसर्ग-सम्बन्धी पूज्य वृद्धि ये दोनों आर्यधर्म के आद्य तत्व थे, इसमें कोई संदेह नहीं, कि श्रार्य धर्म के अन्तर्गत आज भी ये तत्र न्यूनाधिक पर विकसित रूप मे पाये जाते हैं, प्रीक और रोमन धर्मों में भी इनकी झलक दिखलाई पड़ती है, पर इन तत्त्वो का पूर्ण विकास भारतवर्ष में ही हुआ, यह स्वीकार करने में कोई बाधा न होगी। इन बौद्धिक धर्म विचारो की प्रगति का पर्यवसान नैराश्यवाद तथा कर्मठता में होता है, और ये दोनों ऋग्वेद को प्राचीन सूक्तियों में भी पाई जाती है, आर्य-धर्म का यह अन ब्राह्मणों में बहुत हानिकारक दरजे तक जा पहुँचा था, और इसी कारण यह धर्म इश्वरोत्सारी होने पर भी मनुष्योत्सारी बन गया। जिसके फलखरूप मनुष्योत्सारी धर्म में होनेवाले सब दोपी ने इसमें भी स्थान प्राप्त किया। इन सब दोषो में सबसे बड़ा दोष यह हुआ कि जनता की धर्म-भावनाओं को नियन्त्रण करनेवाली शक्ति का विनाश हो गया, जिससे जनता के हृदय पर परकीय विधि विधानों और मत-मतान्तरो के प्रभाव पड़ने का मार्ग खुल गया।
सेमेटिक धर्म आर्य धर्म के इस अङ्ग से बिल्कुल भिन्न है, इस धर्म की मुख्य भावनाएँ भक्ति और गूढ़ प्रेरणा के द्वारा प्रकट होकर मनुष्य की बुद्धि पर उत्तमत्ता भोगती है और अपने भक्तों को विश्वासपूर्वक वे धीरे धीरे संसार के व्यवहार