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________________ १६१ भगवान् महावीर इसी बात में रहा हुआ है। यदि सुन्दर वखालकारों को पहनते समय इस एक भावना को अलग कर दी जाय तो शेष में उस सुख का किंचित मात्र अश भी नहीं रह जाता और इसी कारण जो लोग समाज के अन्तर्गत कितने ही नवीन वस्खालवार पहन पहन कर अपने सौभाग्य की नोटिसबाजी करते फिरते हैं, वे ही अपने मकान पर उन सब वस्त्रालङ्कारों को खोल खोल कर उनसे शीघ्र ही आजादी पाने का प्रयत्न करते हैं। इससे स्पष्ट जाहिर होता है कि पुण्य बल से प्राप्त हुआ अधिकांश सुख आस पास फी समाज पर निर्भर रहता है। वास्तविक सुख का अंश उस सम्मान में छिपा रहता है, जो हमारी समाज से हमें प्राप्त होता है। यदि जन समाज में हमें सुखी समझने वाला एक भी मनुष्य न हो तो हमें प्राप्त हुई अनन्तसुख सामग्री का उतना अधिक मूल्य नहीं रह जाता । सिद्धान्त यह निकला कि सुखी होने के लिए केवल सुख सामग्री की ही नहीं प्रत्युत अपने को सुखी समझने वाले एक जन समाज की भी आवश्यकता होती है। ऐसी हालत में जब कि जन समाज पर हमारे सुख का इतना अधिक भाग अवलम्बित है तो फिर यह अभिमान करना कि मेरी उपभोग सामग्री पर उसका कुछ भी अधिकार नहीं है। एवं मेरे किये हुए पुण्यों का फल भोगने का मेरे सिवाय दूसरा कोई अधिकारी नहीं । सरासर अपने हृदय की संकीर्णता, पामरता और तुच्छता को प्रगट करना है। अपने सौभाग्य का अभिमान करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को यह ध्यान में रखना चाहिये कि यह संसार केवल तुम्हारी सुख प्राप्ति के निमित्त ही नहीं रचा गया है।
SR No.010171
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraraj Bhandari
PublisherMahavir Granth Prakashan Bhanpura
Publication Year
Total Pages435
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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