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कोई दूसरा व्यक्ति नजर चुरा कर उन अधिकारां का उपभोग करने की चेष्टा करता है, तो उस पर स्वभावतयः ही क्रोध उत्पन्न होता है । पर यदि बुद्धि को निर्मल करके हम सोचते हैं तो हमे मालूम होता है कि जिस वस्तु को हम अपने पुण्यवल से प्राप्त हुई गिनते हैं, और जिस पर हम लेवल अपना ही अधिकार समझते हैं, उस वस्तु की सुखदायी शक्ति कितने ही विशेष कारणों पर अवलम्बित रहती है । वस्तु की सुखदात्री शक्ति जिन अंशों के समुच्चय से प्रगट होती है, उन अंशों का तिरस्कार करना भारी मूर्खता है। क्योंकि हमारा समाज हमारे - सुखों का कई अंशो मे सहभागी है। हमारे सुख का समाज के साथ शरीर और श्रवयव का सम्वन्ध है । अर्थात् समाज हमारे सुख का एक प्रधान अङ्ग (Constituent ) है । हमारी उपभोग सामग्री का आधार: कितने ही अंशा मे समाज पर निर्भर रहता है ।
मनुष्य हृदय के गुप्त मर्म का अध्ययन करने से हमें मालूम होता है कि सुंदर और सुखद वस्तुओं का उपभोग मात्र करने से हमें तृप्ति नही होती है। जब तक हमारे सुखानुभव का ज्ञान बाहरी जगत् को नहीं होता तब तक हमें उस सुख से तृप्ति नहीं हो सकती । सुन्दर वस्त्रालङ्कारों के पहनने में जो सुख है, उसका विश्लेषण करने से हमें मालूम होता है कि उस सुख का एक छोटा सा अश भी उन वस्त्रालंकारों में नहीं है । उनमे स्पर्श सुख भी बिल्कुल नही है । इतना ही नहीं, प्रत्युत उल्टे उन वखालकारो से शरीर पर एक प्रकार का भार सा मालूम होता है । फिर भी हम उसमें जो सुख का अनुभव करते हैं उस सुख का - मूल तत्व समाज, इन वस्त्रालंकारों के पहनने से हमे सुखी गिनेगा
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भगवान् महावीर
याल
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