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________________ २५९ भगवान् महावीर न हो इस वास्ते उसने बढ़े हुए मुँह काट कर उनको वेमालूम कर दिया। प्रभु इम भयङ्कर अवसर में भी अपनी उच्च वृति के कारण विचलित न हुए । वे जानते थे कि इस विश्व में किसी कारण के विना एक छोटा सा कार्य भी सम्पन्न नहीं हो सकता। वे जानते थे कि गुवाल ने जो भयङ्कर कष्ट दिया है उसके भी मूल कारण वे स्वयं ही थे, वह कार्य तो उनके उत्पन्न किये हुए कारग का फल मात्र था। वासुदेव के भव में महावीर ने अपने सेवक के कानों में गर्म मीसा ढालते समय जिन मनोभावों के वश हो कर भयङ्कर असाता वेदनीय कर्म का वध किया उन मनोभावों के अंतर्गत दो तत्र मुन्न्यत. पाये जाते हैं १-अपनी उपभोग सामग्री को दूसरे के उपभोग आते हुए देख कर उत्पन्न हुई ईपात्मक भावना २-अपनी उपभोग सामग्री पर दूसरे को आक्रमण करते हुए देख कर उसके अपराध का विचार किये बिना ही मदान्यनीति के अनुसार उत्तेजना के वश होकर की हुई दण्ड की योजना । अपनी उपभोग सामग्री का उपभोग एक दूसरे व्यक्ति के द्वारा होते हुए देख कर उसका बदला लेते समय जिस प्रकृति का उदय होता है उसकी तीव्रता, गढ़ता और स्थायित्व का नियामक उस उपभोग सामग्री के प्रति रहा हुआ अपना ममत्र है। मेरे पुण्य वल से जो कुछ मुझे प्राप्त हुआ है उसका भोक्ता मेरे सिवाय कोई दूसरा नहीं हो सकता । इस प्रकार की भावना मनुष्य प्रकृति के अन्दर स्वभाव रूप ही पाई जाती है। यदि
SR No.010171
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraraj Bhandari
PublisherMahavir Granth Prakashan Bhanpura
Publication Year
Total Pages435
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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