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________________ भगवान् महावीर १५८ सङ्गीत कर रहे थे । वासुदेव ने शय्यापालक को आज्ञा दी कि जव मै निद्रामग्न हो जाऊं तब इन गायकों को यहां से विदा कर देना। ऐसा कह कर कुछ समय पश्चात् निद्रामग्न हो गये। पर शैय्यापालक उस सङ्गीत की तान में इतना लीन हो रहा था कि उसे नन गायको की बिदा करने की सुध न रही यहां तक कि उन्हें गाते गाते सवेरा हो गया । वासुदेव भी शय्या छोड़ कर उठ बैठे और बैठ हुए उन गायकों को अभी तक गाते हुए देख कर बड़े आश्चर्यचकितहुए। उन्होंने शैय्यापालक से पूछा कि अभीतक इन गायको को क्यों नही निदा किये ? उसने उत्तर दिया कि "प्रभु सङ्गीत के लोभ से।" यह सुनते ही वासुदेव आग आग हो गये, इस छोटे से प्राणी की इतनी मजाल | उन्होने उसी समय हुक्म दिया कि इसकी कर्णेन्द्रिय ने यह भयङ्कर अपराध किया है, अतः इसके कानों मे सीसा गला कर भर दिया जावे, तत्कालीन आज्ञा का पालन हुआ। गलाया हुआ गर्म गर्म सीसा शैय्यापालक के कानो में डाला गया। इसी तीव्र वेदना के कारण उसकी मृत्यु हो गई। वह कई भावों मे भटकता हुआ इस गुवाले के शरीर में उत्पन्न हुआ। इधर त्रिपुष्ट की आत्मा भगवान महावीर के रूप में अवतीर्ण हुई। उस उम्र और प्रचण्ड भाव का उदय इस समय आकर हुआ । प्रभु ने पूर्व भव में अपने राजत्व के अभिमान में ओतप्रोत होकर एक साधारण कोपोत्तेजक कारण से इतना भयङ्कर कार्य कर डाला । उसी का बदला उसी प्रकार-बैल का पता न बतलाने ही के कारण से कुपित होकर उस गुवाले ने लिया। उसने प्रभु के दोनों कानों में शरकरा वृक्ष की दो कीलें जोर से ठोक दी, और उन कीलो के ठोकने की किसी को मालूम
SR No.010171
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraraj Bhandari
PublisherMahavir Granth Prakashan Bhanpura
Publication Year
Total Pages435
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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