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भगवान् महावीर
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बहुत विस्तार कर लेता है। जैन समाज के केवल यही दो टुकड़े होकर न रह गये। आगे जाकर इन सम्प्रदायों की गिनती और भी बढ़ने लगी । श्वेताम्बरियो मे भी परस्पर मतभेद होने लगा, इधर दिगम्बरी भी इससे शून्य न रहे कुछ ही समय पश्चात् इन दोनों श्रेणियों में भी कई उपश्रेणियाँ दृष्टिगोचर होने लगी । इनका सक्षिप्त विवरण इस प्रकार है :
( १ ) वीर संवत् ८८२ में श्वेताम्बरी लोगो में चैत्यवासी नामक दलकी उत्पत्ति हुई ।
( २ ) वीरात् ८८६ में उनमें "ब्रह्मद्वीपिक" नामक नवीन सप्रदाय का प्रारम्भ हुआ ।
( ३ ) वीरात् १४६४ में "वटगच्छ" की स्थापना हुई । ( ४ ) विक्रम सं० ११३९ में षटूकल्याणकवाद नामक नवीन मत की स्थापना हुई ।
(५) विक्रम सं० १२०४ में खरतर सप्रदाय का आरम्भ हुआ ।
( ६ ) विक्रम सं० १२२३ से आंचलिक मत का आविष्कार हुआ।
( ७ ) विक्रम सं० १२३६ में सार्धपौरिणमियक का प्रारम्भ हुआ ।
( ८ ) विक्रम सं० १२५० में श्रागमिक मत का आरम्भ हुआ ।
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( ९ ) विक्रम सं १२८५ मे तपागच्छ को नीव पड़ी । (१०) विक्रम सं० १५०८ में लूँका गच्छ की स्थापना और १५३३ में उसके साधु संग को स्थापना हुई ।