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कर उन्ही तत्वों को
यहाँ तक तो जैन-धर्म का इतिहास पूरी दीप्ति के साथ चमकता हुआ नजर आता है पर इसके पश्चात् ही उसके इतिहास में विशृंखला पैदा होती हुई दृष्टिगोचर होती है । जम्बूस्वामी के पश्चात् ही किसी सुयोग्य नेता के न मिलने से धर्म की बागडोर साधारण आदमियो के हाथ में पड़ी। तभी से इसमें विशृंखला का प्रादुर्भाव होता हुआ नजर आता है । इस स्वाभाविक विशृंखला मे प्रकृति के कोप ने और भी अधिक सहायता प्रदान की और फल स्वरूप ऊपर लेखानुसार इस पवित्र और उदार धर्म के श्वेताम्बर और दिगम्बर दो टुकड़े हो गये । अब लोग उन सब महातत्वों को भूल पकड़ कर बैठ गये जहाँ पर इन दोनों का मत भेद होता था । एक साधु यदि नम रहकर अपनी तपश्चर्या को उम्र करने का प्रयत्न करता तो श्वेताम्बरियों की दृष्टि में वह मुक्ति का पात्र ही नही हो सकता था क्योंकि वह तो "जिनकल्पी" है और "जिनकल्पी" को मोक्ष है ही नहीं, इसी प्रकार यदि कोई साधु एक अधो वस्त्र पहनकर तपश्चर्या करता तो दिगम्वरियों की दृष्टि से वह मुक्ति का हक खो बैठता था क्योंकि वह "परिग्रही" है और परिग्रह को छोड़े बिना मुक्ति नहीं हो सकती । इस प्रकार अनेकान्तवाद और अपेक्षावाद का समर्थन करने वाले ये लोग सब महान्तत्वों को भूल कर स्वयं एकान्तवादी हो गये। जिस जाति का पतन होने वाला होता है वह इसी प्रकार महान् तत्वों को भूल कर व्यवहार को ही धर्म का सर्वस्व समझने लगती है ।
पतन अपनी इतनी ही सीमा पर जाकर न रह गया । स्वार्थ का कीड़ा जहाँ किसी छिद्र से घुसा कि फिर वह अपना
भगवान् महावीर