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भगवान् महावीर
पक्षी में खूव वाक् युद्ध होता है और अन्त में पूरी फजीहत के साथ उस धर्म के अनुयायी दो दलों में विभक्त हो जाते हैं । कुछ समय तक उन दोनों दलों में संघर्ष चलता है, तत् पश्चात् उन टलों में और भी भिन्न भिन्न मतमतान्तर और विभाग पैदा होते है और वे आपस में लड़ने लगते हैं और इस प्रकार कुछ शताब्दियों तक लड़ झगड़ कर या तो वे अपने अस्तित्व को खो वैठते हैं या जीवन मृतकदशा में रह कर दिन व्यतीत करते हैं।
उपरोक्त का सारा कथन किसी एक धर्म को लक्ष्य करकं नहीं कहा गया है प्रत्युत प्रत्येक धर्म में किसी न किसी दिन ऐसा दृश्य श्रवश्य दिखलाई पड़ता है । ससार के सभी महान् धर्मो में इस प्रकार के अवसर आये है इस बात का साक्षी इतिहास हैं ।
जैन धर्म के इतिहास में भी ये सब बातें बिल्कुल ठीक उतरती हुई दिखाई देती हैं। प्रारम्भ में ब्राह्मण लोगों के अनाचारों में समाज में जो अत्याचार प्रारम्भ हो रहे थे उनका प्रतिकार जैन धर्म ने किया । भगवान् महावीर ने इन अत्याचारों के प्रति बुलन्द आवाज उठाकर समाज में शान्ति की स्थापना की । उनके पश्चात् उन्होंने संसार को उदार जैन-धर्म का सन्देश दिया । भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् सुधर्माचार्य के में जैन-धर्म की वागडोर आई इन्होंने भी बढ़ी ही योग्यता हाथ से इसका संचालन किया। इनके समय में भी इनके व्यक्तिगत प्रभाव से समाज में किसी प्रकार की विश्रृंखला पैदा न हुई । सुधर्माचार्य के पश्चात् जम्बूस्वामी के हाथ जैन-धर्म की बागडोर गई इन्होंने भी बहुत सावधानी के साथ इसका संचालन किया ।