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भगवान् महावीर रोक्त दोनों मतों में बहुत समानता पाई जाती है। "पूरण कस्सप" पुण्य और पाप को कोई वस्तु नहीं मानता था और "अजित केश कम्बलि" का यह सिद्धान्त था कि लोक के अंतर्गत अनुभवातीत जो काल्पनिक मत प्रचलित है, उनको कोई तात्विक आधार नहीं है। इसके अतिरिक्त वह यह मानता था कि मनुष्य चार तत्वों का बना हुआ है, जब वह मर जाता है, तब पृथ्वी, पृथ्वी मे, जल जल में, अग्नि अग्नि में, और ज्ञानेन्द्रियां हवा में मिल जाती हैं। शव को उठाने वाले चार पुरुप मुर्दे को उठा कर स्मशान में ले जाते हैं और वहां उसका कल्पान्त कर डालते हैं। कपोत रग की हड्डियां शेप रह जाती हैं और वाकी सब पदार्थ जल कर भस्म हो जाते हैं। इसी बात को सूत्र कृतांग में कुछ हेर फेर के साथ इस प्रकार लिखी है। "दूसरे लोग मुद्दे को जलाने के निमित्त वाहर ले जाते हैं। जब अग्नि उसको जला डालती है। तव केवल कपोत रङ्ग की ही हड्डियां शेष रह जाती है और चारों उठानेवाले हड़ियों को लेकर ग्राम की ओर मुड़ जाते हैं।"
इन मतों के अतिरिक्त एक "अज्ञेयवाद" नामक मत भी प्रचलित था, इसका प्रवर्तक "सज्जयवेलट्रिपुत्त" था। "सामञ्जफल सुत्त' नामक बौद्ध ग्रन्थ में उसका विवेचन इस प्रकार किया गया है। महाराज! यदि-तुम मुझसे यह प्रश्न करोगे कि जीव की कोई भावी अवस्था है ? तो मैं यही उत्तर दूंगा कि, जब में उस अवस्था का अनुभव कर सकूँगा तभी उसके विषय में कुछ कह सकूँगा। यदि तुम मुझसे पूछोगे कि "क्या वह अवस्था इस प्रकार की है तो मैं यही कहूँगा कि "यह मेरा विषय