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भगवान् महावीर
कर रहे थे। उसी समय तुमने उनकी बन्दना की थी, इससे उस समय उनकी स्थिति नरक गति के योग्य थी । उसके पश्चात् वहीँ से तुम्हारे आने पर उन्होंने मन में विचार किया कि अव वो मेरे सब श्रायुध व्यतीत हो चुके हैं। इसलिये अब मैं शिरस्त्राण ही से शत्रु को मारूँगा । "ऐसा सोच उन्होंने अपना हाथ शिर पर रक्खा | वहां अपने लोच किये हुए नगे शिर को देख कर उन्हें तत्काल अपने वृत्त का स्मरण हो आया, जिस से तत्काल उन्हें अपने किये का भयङ्कर पञ्चाताप हुआ । अपने इस कृत्य की खूब आलोचना कर फिर ध्यानमग्न हो गये उसी समय तुमने यह दूसरा प्रश्न किया । और इसी कारण मैने तुम्हारे दूसरे प्रश्न का दूसरा उत्तर दिया । "
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इस प्रकार की बात चल रही थी कि इतने में प्रसन्नचन्द्र मुनि के समीप देवदुन्दुभि वगैरह का कोलाहल होने लगा । उसको सुन कर श्रेणिक ने प्रभु मे पूछा
श्रेणिक - स्वामी यह क्या हुआ ?
प्रभु - " ने कहा ध्यान में स्थिर प्रसन्नचन्द्र मुनि को इसी क्षण केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई है । देवता उसी केवल ज्ञान की महिमा कर रहे हैं ।"
" तदन्तर श्रेणिक ने पूछा - भगवन् ! अगले जन्म में मेरी क्या गति होवेगी ?"
महावीर ने उत्तर दिया---" श्रेणिक यहां से मृत्यु पाकर तू पहले नरक को जायगा । और वहाँ अपनी अवधि को पूरी कर तू इसी भरत क्षेत्र की अगली चौवीसी में "पद्मनाथ" नाम का पहला तीर्थकर होगा
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