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भगवान महावीर
२४४ पष्ट गणधरों को ध्रौव्य, उत्पादक और व्ययात्मक ऐसी त्रिपदी कह सुनाई । उस त्रिपदी के लिए उन्होंने आचाराग, सूत्र कृताङ्ग, ठाणांग, समवायाङ्ग, भगवती अंग, ज्ञाता धर्म कथा उपासक अन्त कृत, अनुत्तरोप पातिक दशा, प्रश्न व्याकरण, विपाक सूत्र
और दृष्टि वाद इस प्रकार बारह अगों की रचना की, फिर दृष्टिवाद के अंतर्गत चौदह पूर्वो की रचना की। इस रचना के समय सात गण घरो की सूत्र-बांचना परस्पर भिन्न भिन्न हो गई। और अकम्पित तथा अचल भ्राता की एव मैत्रेय और प्रभास की वांचना समान हुई। इस प्रकार प्रभु के ग्यारह गणधर होने पर भी चार गणधरो की वांचना दो प्रकार की होने से गण नौ कहलाये। राजा श्रेणिक को सम्यक्त्व और मेघकुमार
तथा नन्दीषण को दीक्षा। श्रीवीर प्रभु भव्य प्राणियों को बोध करने के निमित्त विहार करते हुए सुर असुरो के परिवार सहित राजगृह नगर मे आये । वहॉ गुण शील चैत्य में बनाये हुएं चैत्य वृक्ष ले शोभित समवशरण में प्रभु ने प्रवेश किया। वीर प्रभु के पधारने का संवाद सुन राजा श्रेणिक बड़े ठाट बाट के साथ अपने पुत्रों समेत उनकी बन्दना करने को आये। प्रभु को प्रदिक्षण देकर उन्होने बड़ी ही भक्ति पूर्वक उनको नमन किया । तत्पश्चात् योग्यस्थान पर बैठकर बड़ी ही श्रद्धा के साथ उन्होने भगवान्
*गण'मुनिसमुदाय ।
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