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________________ २४३ Gura भगवान् महावोर से भिन्न मालूम नहीं होता । इस से जल में उत्पन्न हुए भांग की तरह वह शरीर मे उत्पन्न होता है और शरीर ही में नष्ट हो जाता है । ऐसा तेरा आशय है पर वह मिथ्या है । क्योंकि इच्छा वगैरह गुणो के प्रत्यक्ष होने से जीव एक दृष्टि से तो प्रत्यक्ष है। उसे अपना अनुभव स्वयं ही होता है । वह जीव, देह और इन्द्रियों से भिन्न है । और इन्द्रियां जब नष्ट हो जाती तब भी वह इन्द्रियों के द्वारा पूर्व मे भोगे हुए भोगो को स्मरण करता है ।" इस प्रकार वायुभूति का समाधान कर प्रभु ने उसे भी अपने धर्म मे दीक्षित किया । इनके पश्चात् आर्यव्यक्त सुधर्माचार्य, आदि सब पण्डित लोग आये । भगवान ने उन सब की शंकाओ का निवारण कर उनके शिष्यों सहित सबको अपने धर्म में दीक्षित किया । इस समय शतानिक राजा के घर पर चन्दना ने आकाश मार्ग से जाते हुए देवो को देख अनुमान से प्रभु को केवल ज्ञान होने का समाचार जान लिया, उसी समय उसे व्रत लेने की इच्छा हुई । उसकी ऐसी इच्छा होते ही किसी समीपवर्ती देवता ने उसे समवशरण सभा में पहुँचा दिया । उसने प्रभु को तीन प्रदिक्षणा दे दीक्षा लेने की इच्छा प्रदर्शित की । उसी समय दूसरी भी कई स्त्रियाँ दीक्षा लेने को तैयार हो गई । तब प्रभु ने चन्दना को आगे करके सबको दीक्षा दी । इसके पश्चात् श्रावक और श्राविका धर्म मे जिन लोगो ने दीक्षित होना चाहा उन्हे अपने २ धर्म का उपदेश दिया। इस प्रकार भगवान् ने मुनि, आर्जिका, श्रावक और श्राविका ऐसे चतुर्विध संघ की रचना की । तदनन्तर प्रभु ने इन्द्रभूति वगैरह
SR No.010171
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraraj Bhandari
PublisherMahavir Granth Prakashan Bhanpura
Publication Year
Total Pages435
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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