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भगवान महावीर
उस मकान में स्वर्ण के स्तम्भ पर इन्द्रनील मणि के तोरण मूल रहे थे, द्वार की भूमि पर मोतियों के साथिये वनाये हुए थे, स्थान स्थान पर दिव्य वस्त्रों के चन्दवे तने हुए थे। इन सत्रों को अत्यन्त विस्मय पूर्वक देखते देखते राजा ने मकान में प्रवेश किया, और चौथे मंजिल पर चढ़ कर मुशोभितसिंहासन को अलकृत किया। तत्पश्चात् भद्रा ने सातवी मजिल पर जाकर शालिभद्र से कहा-"वत्स, श्रेणिक यहाँ पर आये हुए हैं । इसलिये तू उनको देखने के लिये चल ।" शालिभद्र ने कहा-माता ! इस विषय में तुम सब जानती हो इसलिये जो कुछ मूल्य देना हो वह तुम्ही दे दो। मेरे वहाँ चलने की क्या
आवश्यकता है? भद्रा ने कहा-"वत्स श्रेणिक कोई खरीदने की सामग्री नहीं हैं। वे तो सब लोगो के और तेरे भी मालिक हैं।" यह सुन कर शालिभद्र ने खेद पूर्वक सोचा-"मेरे इस सांसारिक ऐश्वर्या को धिकार है जिसमें मंग भी कोई दूसरा स्वामी है। इसलिए अब तो मैं इस सत्र भोग को सर्प के फण के समान छोड़ कर श्री वीरप्रभु की शरण लूगा।" इस प्रकार सोच कर वह बड़ा व्यथित हुआ, पर माता के आग्रह से वह अपनी खियो सहित श्रेणिक के पास आया और विनय पूर्वक उनसे प्रणाम किया । राजा श्रेणिक ने उसे आलिङ्गन कर अपने पुत्र की तरह गोद में विठलाया। कुछ समय पश्चात् भद्रा ने कहा"देव ! अव इसे छोड़ दीजिए । यह मनुष्य होते हुए भी मनुष्य की गध से बाधा पाता है। इसके पिता देवता हुए हैं। वे इसे और इसकी त्रियों को प्रतिदिन दिव्य वेप, वन तथा अङ्गराग वगैरह देते हैं।" यह सुन राजा ने उसे उसी समय विदा कर दिया।