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भगवान् महावीर
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उसके पश्चात् वह प्रभु का साथ छोड़ कर " तेजोलेश्या साधने के निमित्त 'श्रावस्ती' नगरी गया । वहां एक कुम्हार की शाला में रह कर उसने प्रभु की वतलाई हुई विधि से "तेजोलेश्या " का साधन किया । तदनन्तर उसकी परीक्षा करने के निमित्त वह एक पनघट पर गया, वहाँ अपना क्रोध उत्पन्न करने के निमित्त उसने एक दासी का घड़ा कंकर मार कर फोड़ दिया । जिससे क्रोधान्वित हो दासी उसे गालियां देने लगी । यह देखते ही उसने तरकाल उस पर "तेजोलेश्या" का प्रहार किया, जिससे वह उसी समय जल कर खाक हो गई ।
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एक बार पार्श्वनाथ के छः शिष्य जो कि, चरित्र से भ्रष्ट हो गये थे, पर अष्टांग निमित्त के प्रकाण्ड पण्डित थे, गौशाला से मिले । गौशाला ने उनसे अष्टाङ्ग निमित्त का ज्ञान भी हासिल कर लिया। फिर क्या था, "तेजोलेश्या" और "अष्टाङ्ग निमित्त " का ज्ञान मिल जाने से उसने स्वयं अपने को "जिनेश्वर" प्रसिद्ध किया । और यही नाम धारण कर वह चारों ओर भ्रमण करने लगा ।
सिद्धार्थ पुर से विहार कर प्रभु वैशाली, वाणीज्य सानुयाष्ट्रिक, होते हुए म्लेच्छ लोगों से भरपूर "पेदारा" नामक ग्राम मे आये । इसी स्थान में भगवान् पर सब से कठिन “ सेंगम" देव वाला उपसर्ग हुआ । इस उपसर्ग का वर्णन हम पूर्व खण्ड
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में कर आये हैं । अतः यहाँ दुहराने की आवश्यकता नहीं ।
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. यहाँ से विहार कर प्रभु गोकुल, श्रावस्ती, कौशाम्बी और वाराणसी नगरी होते हुए "विशालपुरी" आये । यहाँ पर जिनदत्त नामक एक बड़ा ही धार्मिक श्रावक रहता था । वैभव का