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भगवान् महावीर
वचन कहने लगा । अन्त में तापस को क्रोध चढ़ आया और उसने "गौशाला" पर "तेजोलेश्या" का प्रहार किया । अब तो अनन्त श्रमि की ज्वालाएं "गौशाला" को भस्म कर देने के लिए उसके पीछे दौड़ीं, जिससे गौशाला बहुत ही भयभीत हो कर त्राहिमान् | त्राहिमान !! करता हुआ प्रभु के पास आया । प्रभु ने गौशाला की रक्षा के लिए दयार्द्र हो उसी समय "शीतलेश्या" को छोड़ी जिससे वह अग्नि शान्त हो गई। यह दृश्य देख वह तापस बड़ा विस्मित हुआ और प्रभु के पास आकर कहने लगा । “भगवन् ! मैं आपकी शक्ति से परिचित न था । इसलिए मुझसे यह विपरीत आचरण हो गया, इसके लिए मुझे क्षमा करें ।" इस प्रकार क्षमा याचना कर वह अपने स्थान पर गया । पश्चात् " गौशाला" ने प्रभु से पूछा "भगवन् ! यह "तेजोलेश्या" किस प्रकार प्राप्त होती है ?" प्रभु ने कहा- 'जो मनुष्य नियम- पूर्वक "छटु" करता है, और एक मुष्टी "कुल्माध” तथा अलि मात्र जल से पारणा करता है । उसे छः मास के अन्त में तेजोलेश्या प्राप्त होती है ।'
कूर्म ग्राम से विहार कर प्रभु फिर सिद्धार्थपुर की ओर आये मार्ग में वही तिल के पौधे वाला प्रदेश आया । वहां आकर " गौशाला " ने कहा "भगवन्, आपने जिस तिल के पौधे की बात कही थी वह लगा नही ।" महावीर ने कहा - "लगा है और यही है ।" तब गौशाला ने उसे चीर कर देखा । जब उसमें सात ही दाने नजर आये, तो वह बड़ा आश्चर्यान्वित हुआ, अन्त में उसने यह सिद्धान्त निश्चित किया कि शरीर का परावर्तन करके जीव पीछे जहां के तहां उत्पन्न होते हैं ।