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भगवान् महावीर
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वासना और सङ्कीर्णता के वशीभूत होकर व्यर्थ में गई का पर्वत और तिलका ताड़ बना दिया है जिसके फल स्वरूप समाज में चारों ओर भयङ्कर अशान्ति, और दरिद्रता का दौर दौरा हो रहा है । इस स्थान पर हम यह बतलाने का प्रयत्न करेंगे कि श्वेताम्बर, दिगम्बर आदि सम्प्रदायों में कोई तात्विक महत्वपूर्ण भेद नहीं है। इनके बीच में होने वाले झगड़े भीगी को छोड़ कर छिलके के लिए लडने वाले मनुप्यो से अधिक अर्थ नहीं रखते।
श्वेताम्बर और दिगम्बरबाद श्वेताम्बर और दिगम्बर ये दोनों शब्द जैन समाज के गृहस्थों के साथ तो विल्कुल ही सम्बन्ध नहीं रखते । गृहस्थों में एक भी स्पष्ट चिन्ह ऐसा नहीं पाया जाता जो उनके श्वेताम्वरत्व अथवा दिगम्वरत्व को सूचित करता हो । अतएव ये दोनों शब्द गृहस्थों के लिए तो कुछ भी विशेष अर्थ नहीं रखते । इससे यह सिद्ध होता है कि चाहे जब इन शब्दों की उत्पत्ति हुई हो पर इस उत्पत्ति का मूल कारण हमारे धर्म गुरु ही थे । श्वेताम्बर और दिगम्बर सज्ञा का सम्बन्ध केवल साधुओं ही के साथ है।
श्वेताम्बर सूत्र कहते हैं कि वस्र और पात्र रखना ही चाहिए। इसके सिवा निर्बल, सुकुमार और रोगियों के लिए संयम दुसाध्य है। यदि साधुओ को वस्त्र न रखने का नियम हो तो कड़कड़ाते जाड़े में असहनशील साधुओं की क्या गति हो? अग्नि सुलगा कर तापने से जीवहिंसा होती है और वख रखने में उतनी हिंसा नहीं होती। इसके सिवाय साधुओं को जङ्गल मे