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________________ १९५ भगवान महावीर एक बार भयकर ग्रीष्म ऋतु का आगमन हुआ, पृथ्वी तवे की तरह तपने लगी, सूर्य की सीधी किरणें पृथ्वी पर पड़ने लगी । ऐसे समय "मरीचि" मुनि भयङ्कर तृषा से पीडित हुए और घबराकर चरित्रावरणीय कर्म के उदय से इस प्रकार सोचने लगे कि सुमेरु पर्वत की तरह कठिन इस साधुवृत्ति का भार वहन करने में मैं सवेथा असमर्थ हूँ। पर अव इस वृत्ति को किस प्रकार छोडूं, जिससे लोक निन्दा सहन न करना पडे । सब से अच्छा यही है कि इस वृत्ति को छोड़ कर मैं त्रिदण्डो सन्यास को ग्रहण करलं । इस प्रकार कष्ट से कायर होकर मरीचि ने उस वृत्ति को छोड़ दिया और त्रिदण्डी सन्यास को ग्रहण किया। __ एक वार ऋषभदेव भ्रमण करते करते पुनः विनीता नगरी के समीप आये। भरत चक्रवर्ती उनके दर्शनार्थ आये। समव. शरण सभा में भरत चक्रवर्ती ने पूछा-भगवन् ! इस सभा में कोई ऐसा भी व्यक्ति उपस्थित है या नहीं जो भविष्य के इसी चौबीसी में तीर्थकर होने वाला हो। इस प्रश्न के उत्तर में ऋषभदेव ने मरीचि को ओर संकेत कर कहा कि यह तेरा पुत्र मरीचि इसी भरतक्षेत्र में "वीर" नामक अन्तिम तीर्थकर होगा। इसके पहले यही पोतनपुर में “त्रिपुष्ट" नामक प्रथम वासुदेव और १ श्वेताम्बरी ग्रन्थकर्ताओं का कथन है कि इस प्रकार जाति भेद करके मरीचि ने "नीच "गोत्र" कर्म का वन्द कर दिया था। इसी के परिणाम स्वरूप इसके नीव को नीच गौत्र देवानन्दा ब्राह्मणी के गर्भ में जाना पड़ा था। पर दिगम्बरी अथकार इस बात को नहीं मानते। . - लेखक
SR No.010171
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraraj Bhandari
PublisherMahavir Granth Prakashan Bhanpura
Publication Year
Total Pages435
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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