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भगवान् महावीर
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फल स्वरूप उन्हे "प्रियदर्शना" नामक एक कन्या भी हुई, जिसका विवाह " जामालि" नामक राजपुत्र के साथ कर दिया गया । वर्द्धमान जब अट्ठाईस वर्ष के हुए, तब उनके माता पिता का
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स्वर्गवास हो गया । उनके वियोग से उनके भाई नन्दिवर्द्धन को बड़ा दुख हुआ । इस पर वर्द्धमान ने उनको सान्त्वना देते हुए कहा - " भाई । संसार का संसारत्व ही द्रव्य के उत्पाद और व्यय मे रहा हुआ है । जीव के पास हमेशा मृत्यु बनी रहती है । । जीना और मरना यह तो संसार का नियम ही है । इसके लिये शोक करना तो कायरता का चिह्न है ।" प्रभु के इन वचनों से नन्दिवर्द्धन कुछ स्वस्थ हुए, पश्चात् उन्होंने पिता के सिंहासन पर अधिष्ठित होने के लिये महावीर से कहा- पर ससार से विरक्त वर्द्धमान ने उसे स्वीकार नहीं किया । इस पर सब मंत्रियों ने मिलकर " नंदिवर्द्धन” को सिहासन पर बिठलाया ।
कुछ दिन पश्चात् वर्द्धमान - प्रभु ने भाई के पास जाकर कहा - " इस गार्हस्थ्य जीवन से अब मैं उकता गया हूँ इसलिए मुझे दीक्षा ग्रहण करने की आज्ञा दो । “नन्दिवर्द्धन" ने बहुत दुखित होकर कहा " कुमार ! अभीतक मैं अपने माता पिता का वियोग जनित दुख ही नहीं भूला हूँ। ऐसे समय में तुम और क्यो जले पर नमक छोड़ रहे हो ।"
: बन्धु की इस दीन वाणी को सुन कर कोमल हृदय " वर्द्धमान" प्रभुने कुछ दिन और गृहस्थाश्रम में रहना स्वीकार किया । पर यह समय उन्होंने बिल्कुल भाव-मुनि की तरह काटा । अन्त में दो वर्ष और ठहर कर उन्होंने दीक्षा ग्रहण की। इस अवसर पर देवताओं ने दीक्षा कल्याण का महोत्सव मनाया ।