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भगवान् महावीर
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क्रोधित हो उसने वत्सराज से कहा - "तुम खुद कुष्टो हो, उसको न देख कर मुझे व्यर्थ हो क्यों एकाक्षी कहते हो ?" यह सुन कर वत्सराज को बड़ा आश्चर्य हुआ उसने सोचा कि जैसा मैं कुंष्टी हूँ वैसोही यह एकाक्षी होगी । ऐसा मालूम होता है कि प्रद्योत राजा ने यह सब जाल किसी विशेष उद्देश्य सिद्धि के लिये बनाया हैं । यह सोच उसने वासवदत्ता को देखने की इच्छा से बीच का परदा हटा दिया ।
चादलों से मुक्त होकर शरद पूर्णिमा का चन्द्रमा जिस प्रकार अपनी कला का विस्तार करता है, उसी प्रकार परदे में से मुक्त होकर चन्द्रकला की तरह वासवदत्ता उदयन के देखने में आई। इधर वासवदत्ता ने भी लोचन ' विस्तार कर साक्षात् कामदेव के समान वत्सराज उदयन को देखा। दोनों की चार आखें हुई । दोनों यौवन के मध्यान्ह भूले में झूल रहे थे- दोनों ही सौन्दर्य के नन्दन कानन में विचरण कर रहे थे। दोनों ही एक दूसरे को देख कर प्रसन्न हुए। दो बांसो के सघर्प से जिस प्रकार अमि उत्पन्न हो जाती है उसी प्रकार चारों आँखोंके संघर्ष से प्रमोत्पत्ति हुई । उसी ममय वासवदत्ता ने उदयन - राज को आत्म समर्पण कर दिया ।
एक दिन अवसर देख कर उदयेन राज अपने मत्री की सहायता से - जो कि अपने राजा को छुड़ाने के निमित्त गुप्त रूपसे वहां आया हुआ था - वासवदत्ता को लेकर उज्जयिनी से निकल गया । चण्डप्रद्योत ने उसको पकडने के लिये लाख सिर पीटा पर कुछ फल न हुआ । अन्त में उसने भी उसे अपना जमात स्वीकार किया ।