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भगवान् महावीर
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उपप्रक
यद्यपि यह बात सत्य है कि इस प्रकार के महाव्रतियों से भी उक्त क्रियाएं करने में सूक्ष्म जीव हिंसा होती रहती है । पर उनकी उच्च मनोदशा के कारण उनको हिसाजन्य पाप का तनिक भी स्पर्श नही होने पाता और इस कारण उनकी श्रात्मा इस प्रकार के पाप बन्धन से मुक्त ही रहती है। जब तक आत्मा इस स्थूल शरीर के संसर्ग मे रहती है, तब तक इस शरीर से इस प्रकार को हिंसा का होते रहना अनिवार्य है । परन्तु इस हिंसा में आत्मा का किसी भी प्रकार का संकल्प व विकल्प न होने से वह उससे अलिप्त ही रहती है । महावृत्तियों के शरीर से होने वाली यह हिंसा द्रव्य अर्थात् स्वरूप हिंसा कहलाती है । भावहिंसा अथवा परमार्थ हिंसा नही । योक उस हिंसा का भावो के साथ कोई सम्बन्ध नहीं रहता | हिमाजन्य पाप से वही आत्मा वृद्ध होती है जो कि हिंसक भाव से हिंसा करती है । हिंसा का लक्षण बतलाते हुए जैनियो के तत्वार्थ सूत्र नामक ग्रन्थ में लिखा है कि
" प्रमत्तयोगा प्राणव्य परोपणं हिसा"
अर्थात् प्रमत्त भाव से जो प्राणियों के प्राणों का नाश किया जाता है, उसी को हिंसा कहते हैं । जो प्राणी विषय अथवा कषाय के वशीभूत होकर किसी प्राणी को कष्ट पहुँचाता है वही हिंसाजन्य पाप का भागी होता है । इस हिसा की व्याप्ति केवल शरीर जन्य कष्ट तक ही नहीं पर मन और वचन जन्य कष्ट तक है । जो विषय तथा कत्राय के वंशीभूत होकर दूसरों के प्रति अनि चिन्तन या अनिष्ट भाषण करता है वह भी भाव हिसा का दोषी माना जाता
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