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________________ ३०७ भगवान् महाबोर से अलग रखना यही मेरे अहिंसा व्रत का लक्षण है। इस ऐतिहासिक उदाहरण से यह भली प्रकार समझ में आ जायगा कि जैन गृहस्थ के पालने योग्य अहिसा व्रत का यथार्थ स्वरूप क्या है। मुनियों की सूक्ष्म अहिंसा जो मनुग्य अहिंसा व्रत का पूर्ण अर्थात् सूक्ष्म रीति से पालन करता है उसको जैन-शास्त्रो मे मुनि, भिक्षु, श्रमण अथवा संन्यासी शब्दों से सम्बोधित किया गया है। ऐसे लोग ससार के सब कामो से दूर और अलिप्त रहते हैं। उनका कर्तव्य केवल आत्मकल्याण करना तथा मुमुन जनो को आत्मकल्याण का मार्ग बताना रहता है। उनकी आत्मा विषयविकार तथा कपाय भाव से बिल्कुल परे रहती है। उनकी दृष्टि में जगत् के तमाम प्राणी आत्मवत् दृष्टिगोचर होते हैं। अपने और पराये का द्वेष भाव उनके हृदय में से नष्ट हो जाता है। उनके मन वचन और काय तीनो एक रूप हो जाते है। सुख, दुख, हर्प और शोक इन सबो मे उनकी भावनाएं सम रहती है । जो पुरुष इस प्रकार की अवस्था को प्राम कर लेते हैं, वे महाव्रती कहलाते हैं। वे पूर्ण अहिंसा का पालन करने में समर्थ होते हैं। ऐसे महाव्रती के लिए स्वार्थ हिंसा और परार्थ-हिंसा दोनों वर्जनीय हैं। वे मूक्ष्म तथा स्थूल दोनों प्रकार की हिंसाओं से मुक्त रहते हैं। । यहाँ एक प्रश्न यह हो सकता है, कि इस प्रकार के महाव्रतियो से भी खाने, पीने, उठने, बैठने में तो जीव-हिंसा का होना अनिवार्य है। फिर वे हिंसाजन्य पाप से कैसे बच सकते है ?
SR No.010171
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraraj Bhandari
PublisherMahavir Granth Prakashan Bhanpura
Publication Year
Total Pages435
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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