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________________ भगमन महावीर ३०६ दिन प्रातःकाल युद्ध आरम्भ हुआ, योग्य अवसर ढूंढ कर सेनापति ने इतने पराक्रम और शौर्य के साथ शत्रु पर आक्रमण किया कि जिससे कुछ ही घड़ियों में शत्रु सेना का भयङ्कर सहार हो गया और मुसलमानों के सेनापति ने हथियारी को नीचे रख युद्ध वन्द करने को प्रार्थना की। आभू की विजय हुई। अनहिलपुर की सारी प्रजा मे उसका जय जयकार होने लगा। रानी ने वडे सम्मान के साथ उसका स्वागत किया। पश्चात् एक बडा दरवार करके राजा और प्रजा की ओर से उसे उचित सम्मान प्रदान किया गया । इस प्रसङ्ग पर रानी ने हँस कर कहा "दण्ड नायक । जिस समय युद्ध में व्यूह रचना करते समय तुम "एगि दिया" का पाठ करने लग गये थे उस समय तो अपने सैनिको को तुम्हारी ओर से बड़ी ही निराशा हो गई थी। पर आज तुम्हारी वीरता को देख कर तो सभी लोग आश्चर्यान्वित हो रहे है।" यह सुन कर दण्डनायक ने नम्र शब्दों में उत्तर दिया--"महारानी । मेरा अहिंसावृत मेरी आत्मा के साथ सम्बन्ध रखता है। 'एंगिदिया गिदिया' मे बध न करने का जो नियम मैंने ले रक्खा है वह मेरे व्यक्ति गत स्वार्थ की अपेक्षा से है। देश की रक्षा के लिये अथवा राज्य की आज्ञा के लिये यदि मुझे वध अथवा हिसा करने की आवश्यकता पड़े तो वैसा करना मैं अपना परम कर्तव्य समझता हूँ। मेरा यह शरीर राष्ट्र की सम्पत्ति है इस कारण राष्ट्र की आज्ञा और आवश्यकता के अनुसार इसका उपयोग होना आवश्यक है। शरीरस्थ आत्मा और मन मेरी निज की सम्पत्ति है। इन दोनो को हिसा भाव
SR No.010171
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraraj Bhandari
PublisherMahavir Granth Prakashan Bhanpura
Publication Year
Total Pages435
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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