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भगवान् महावीर
है। इसके विपरीत विषय और कपाय से विरक्त मनुष्य के द्वारा किसी प्रकार की हिसा भी हो जाय तो उसकी वह हिंसा परमार्थहिसा नहीं कहलाती। मान लीजिये कि एक बालक है उस अन्तर्गत किसी प्रकार की खराव प्रवृत्ति है। उस प्रवृत्ति में रुष्ट होकर उसका पिता अथवा गुरु केवल मात्र उसकी कल्याण कामना से प्रेरित होकर कठोर वचनों से उसका ताड़न करते हैं, अथवा उसे शारीरिक दण्ड भी देते हैं, तो इसके लिए कोई भी उस गुरु अथवा पिता को दण्डनीय अथवा निन्दनीय नहीं मान सकता, क्योंकि वह दण्ड देते समय पिता तथा गुरु की वृत्तियो मे किसी प्रकार की मलिगता के भाव नथे, उनके हृदय में उस समय भी उज्वल अहिंसक और कल्याण कारक भाव कार्य कर रहे थे। इसके विपरीत यदि कोई मनुष्य द्वेषभाव के वश में होकर किसी दूसरे व्यक्ति को मारता है अथवा गालियां देता है तो समाज मे निन्दनीय और राज्य से दण्डनीय होता है। क्योंकि उस व्यवहार में उसकी भावनाएँ कलुपित रहती हैं-उसका आशय दुष्ट रहता है। यद्यपि उपरोक्त दोनो प्रकार के व्यवहारो का वाह्य स्वरूप एक ही प्रकार का है तथापि भावनाओं के भेद से उनका अन्तरूप बिल्कुल एक दूसरे से विपरीत है। इसी प्रकार का भेद द्रव्य और गाव हिंसा के स्वरूप में होता है।
वास्तव मे यदि देखा जाय तो हिसा और अहिसा का रहस्य मनुष्य की मनोभावना पर अवलम्बित है। किसी भी कन्ग के शुभाशुभ वन्ध का आधार कता के मनोभाव पर अवलम्बित है। जिस भाव से प्रेरित होकर मनुष्य जो कर्म करता है उसी के