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भगवान् महावीर
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होते हैं । यही कारण है कि गुणस्थानो की कल्पना मोहनीय कर्म के तारतम्यानुसार ही की गई है।
पहला गुणस्थान अविकास काल है, दूसरे और तीसरे मे विकास का कुछ स्फुरण होता है, पर प्रधानता अविकास की रहती है। चौथे गुणस्थान से विकास होते होते अन्त में चौदहवें में जाकर आत्मा पूर्ण कला पर पहुँच जाती है । उसके पश्चात् मोक्ष प्राप्त होता है। संक्षिप्त में पहले तीन गुणस्थान अविकास के हैं। और अन्तिम ग्यारह विकास काल के उसके पश्चात् मोक्ष का स्थान है।
यद्यपि यह विषय बहुत ही सूक्ष्म है, तथापि यदि इसको समझने की चेष्टा करते हैं तो यह बहुत ही अच्छा लगता है। यह आत्मिक-उत्क्रान्ति की विवेचना है मोक्ष-मन्दिर में पहुंचने के लिए निसेनी है। पहले सोपान से-जीने से-सब जीव चढ़ना प्रारम्भ करते हैं, कोई धीरे चलने से देर में, और कोई तेज चलने से जल्दी चौदहवे जीने पर पहुंचते ही मोक्ष-मन्दिर में दाखिल हो जाते हैं। कई चढ़ते हुए ध्यान नहीं रखने से फिसल जाते हैं और प्रथम सोपान पर आ जाते हैं। ग्यारहवें सोपान पर चढ़े हुए जीव भी मोह की फटकार के कारण गिर कर प्रथम जीने पर आ जाते हैं। इसलिए शास्त्रकार बार बार कहते है कि चलते हुए लेश-मात्र भी गफलत न करो। बारहवें जीने पर पहुँचने के बाद गिरने का कोई भय नहीं रहता है। आठवें और नवें जीने मे भो यदि मोह-क्षय होना प्रारम्भ हो जाता है, तो गिरने का भय मिट जाता है।
इन चौदह गुण-स्थानों के निम्नाकित नाम हैं:-मिथ्यात्व,