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भगवान महावीर में आवृत्त होते हैं। उन आवरणों का प्राबल्य ज्यो ज्यों कम होता है वे वादल ज्यों ज्यों फटते जाते हैं-त्यों त्यों आत्मा के शाभाविक गुण प्रकाशमान होते जाते हैं। आवरणों का क्षय जितना ही अधिक होता है उतना ही अधिक आत्मा का विकास होता इन गुणों की असंख्य स्थितियाँ होजाती हैं, पर जैन प्राचार्यों ने स्थूलतम, उनको चौदह स्थितियां बतलाई हैं। जिन्हे गुणस्थान कहते हैं। गुणस्थान की कल्पना प्रधानत. मोहनीय कर्म की प्रबलता या निर्बलता के ऊपर स्थित है, मोहनीय कर्म की प्रधान शक्तियां दो हैं। १-दर्शन मोहनीय २-चरित्र मोहनीय । पहली शक्ति का कार्य आत्मा के सम्यक्त (वास्तविक) गुणों को बाच्छन्न करने का है। इसके कारण प्रात्मा में सात्विक रुचि और सत्य दर्शन नहीं होने पाता। दूसरी शक्ति का कार्य आत्मा के चरित्र गुण को ढक देने का है । इसके कारण श्मात्मा तात्त्विक रुचि और सत्य दर्शन होने पर भी उसके अनुसार अग्रसर होकर अपने वास्तविक स्वरूप को नहीं जान पाती, इन दोनों शक्तियों में दर्शन मोहनीय अधिक बलवान है। जहां तक यह शक्ति निर्वल नहीं होती, वहां तक चरित्र मोहनीय का घल नहीं घट सकता, दर्शन मोहनीय का बल घटते ही चरित्र मोहनीय क्रमशः निर्वल होता होता अन्त में नष्ट हो जाता है। आठों कर्मों में [ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र] मोहनीय सबसे प्रधान और बलशाली है। इसका कारण यह है कि जहां तक मोहनीय का प्रावल्य रहता है-वहां तक अन्य कर्मों का बल नहीं घट सकता और उसकी शक्ति के घटते ही अन्य कर्म भी क्रमागत-हास को प्राप्त