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भगवान् महावीर
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जाने पर भद्रा ने दिशाओं के मुख को उज्ज्वल करने वाले एक सर्वाङ्ग सुन्दर पुत्र को जन्म दिया । नामकरण के दिन माता पिता ने हर्पित हो स्वप्नानुसार उसका नाम " शालिभद्र " रक्खा । पाँच धात्रियों की गोद में पलता हुआ शालिभद्र अनुक्रम से बड़ा हुआ । सात वर्ष का होने पर उसकी शिक्षा प्रारम्भ की गई। कुछ समय में वह सर्व कला- पारङ्गत हो गया । बालकपन व्यतीत होने पर क्रमश. यौवन का प्रार्दुभाव हुआ । तब वहाँ के नगर श्रेष्टि ने अपनी बत्तीस वन्याओं का विवाह उसके साथ करने का प्रस्ताव गौभद्र सेठ के पास भेजा ।" जिसे उसने सहर्ष स्वीकार किया । तदनन्तर सर्व लक्षण संयुक्त बत्तीस कन्याएँ बडे ही उत्सव समारोह के साथ शालिभद्र को व्याी गई । अव शालिभद्र विमान के समान रमणीक विलास मन्दिर में अपनी बत्तीसों पत्रियो के साथ रमण करने लगा । श्रानन्द में वह इतना मन हो गया कि उसे सूर्योदय और सूर्यास्त का भान भी न रहता था । उसके माता पिता उसके भोग की सब सामग्रियों की पूर्ति कर देते थे । कुछ समय पश्चात् गौभद्र सेठ ने श्री वीर प्रभु के पास से दीक्षा ग्रहण करली. और विधि पूर्वक अनशनादिक करके वह स्वर्ग गया । वहाँ से अवधि ज्ञान के द्वारा अपने पुत्र को देख उसके पुण्य के वश हो कर वह पुत्र वात्सल्य में तत्पर हुआ । कल्पवृक्ष की तरह वह उसकी पत्रियो सहित उसको प्रति दिन दिव्य वस्त्र और दूसरी सामग्री देने लगा । इधर पुरुष के योग्य जो काम होते उन सब ' को भद्रा पूर्ण करती थी, शालिभद्र तो पूर्व दान के प्रभाव से केवल भोगों को भोगना था ।
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