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भगवान् महावीर
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मान, माया, और लोभ इन चार कपायो का मंहार, इन्द्रियो का सयम, ममता का परिहार, समता का प्रादुर्भाव, मनोवृतियों का निग्रह, चित्त की निश्चलता, आत्म स्वरूप की रमणता, ध्यान का प्रवाह, समाधि का आविर्भाव-मोहादिकर्मो का क्षय और अन्त में केवलज्ञान तथा मोक्ष की प्राप्ति, इस तरह आत्मोन्नति का क्रम अध्यात्म शानों में बताया गया है।
'अध्यात्म' कहिए चाहे 'योग' दोनो बातें एक ही हैं। योग शब्द 'युज्' धातु से बना है। जिसका अर्थ है 'जोड़ना' । जो साधन मुक्ति के साथ सम्बन्ध जोड़ता है उसको योग कहते हैं।
अनन्त ज्ञान स्वरुप सच्चिदानदमय आत्मा कर्मों के संसर्ग से शरीर रूपी अन्धेरी कोठरी में बंद हो गया है। कर्म के मसर्ग का मूल कारण अज्ञानता है, सारे शास्त्रों और सारी विद्याओं के सीखने पर भी जिसको आत्मा का ज्ञान न हुश्रा हो उसके लिये समझना चाहिये कि वह अज्ञानी है। मनुष्य का ऊँचे से ऊँचा ज्ञान भी आत्मिक ज्ञान के विना निरर्थक होता है। ___ अज्ञानता से जो दुख होता है वह आत्मिकज्ञान से ही क्षीण किया जा सकता है। ज्ञान और अज्ञान में प्रकाश और अन्धकार के समान विरोध है। अन्धकार को दूर करने के लिये जैसे प्रकाश की आवश्यकता होती है, वैसे ही अज्ञान को दूर करने के लिये ज्ञान की जरूरत पड़ती है। आत्मा जव तक कपायों इन्द्रियों और मन के अधीन रहता है-तब तक वह संसारिक कहलाता है। मगर वही जब इनसे भिन्न हो जाता हैनिर्मोहे बन अपनी शक्तियों को पूर्ण विकसित करता है, तब 'मुमुक्ष कहलाता है।