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भगवान् महावीर
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किये हुए दिग्बत के दीर्घकालिक नियम को एक दिन या अमुक समय तक के लिये परिमित करना, इसी तरह दूसरे व्रतों में जो छुट हो उसको भी सक्षेप करना ।
प्रोषध ब्रत-यह धर्म का पोषक होता है इसलिए-'प्रोप कहलाता है। इस व्रत का अभिप्राय है-उपवासादि तप करके चार या आठ पहर तक साधु की तरह धर्म कार्य में आरूढ़ रहना। इस प्रोषध में शरीर की, तैलमर्दन श्रादि द्वारा शुश्रूपा का त्याग, पाप व्यापार का त्याग तथा ब्रह्मचर्य पूर्वक धर्मक्रिया करने को, शुभ ध्यान को, अथवा शात्र मनन को, स्वीकार किया जाता है । त्याग करना भी इसी व्रत मे जाता है।
परिग्रह परिमाण-इच्छा अपरिमित है। इस व्रत का अभिप्राय है-इच्छा को नियमित रखना । धन, धान्य,सोना, चाँदी घर, खेत, पशु आदि तमाम जायदाद के लिए अपनी इच्छानुसार नियम ले लेना चाहिए। नियम से विशेष कमाई हो तो उसको धर्म कार्य में खर्च कर देना चाहिये। इसका परिमाण नहीं होने से लोभ का विशेष रूप से वोझा पड़ता है और उसके कारण आत्मा अधोगति में चली जाती है। इसलिए इस व्रत की आवश्यकता है।
दिग्व्रत-उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम इन चारों -दिशाओं और ईशान, भग्नेय, नैऋन्य और वायव्य इन विदिशाओं में जाने आने का नियम करना, यह इस व्रत का अभिशय है। बढ़ती हुई लोभ वृत्ति को रोकने के लिये यह नियम बनाया गया है। • भोगोपभोग परिमाण-तो पदार्थ एक ही बार उपभोग